Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के विषय, श्रुत-अज्ञान के विषय और विभंगज्ञान के विषय, इन सब पदों के तीन-तीन प्रकार का बन्ध कहा गया है।
२१. सव्वेते चउवीसं दंडगा भाणियव्वा, नवरं जाणियव्वं जस्स जं अत्थि; जाव वेमाणियाणं भंते ! विभंगणाणविसयस्स कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविधे बंधे पन्नत्ते, तं जहा–जीवप्पयोगबंधे अणंतबंधे परंपरबंधे। सेवं ! सेवं भंते ! जाव विहरति।
॥ वीसइमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥२०-७॥ [२१] इन सब पदों का चौवीस दण्डकों के विषय में (बन्ध-विषयक) कथन करना चाहिए। इतना विशेष है कि जिसके जो हो, वही जानना चाहिए। यावत्-(निम्नोक्त प्रश्नोत्तर तक।)
[प्र.] भगवन् ! वैमानिकों के विभंगज्ञान-विषय का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ?
[उ.] गौतम ! (उनके इसका) बन्ध तीन प्रकार का कहा गया है। यथा—जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है;' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन –दृष्टि, ज्ञान आदि के साथ बन्ध कैसे ? –यह तो पहले कहा जा चुका है कि आत्मा के साथ कर्मों के सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं, परन्तु यहाँ यदि कर्मपुद्गलों या अन्य पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध माना जाए तो औदारिकादि शरीर, अष्टविध कर्मपुद्गल, आहारादि संज्ञाजनक कर्म और कृष्णादि लेश्याओं के पुद्गलों का बन्ध तो घटित हो सकता है, परन्तु दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान और तद्विषयक बन्ध कैसे सम्भव हो सकता है, क्योंकि ये सब अपौद्गलिक (आत्मिक) हैं ?
इसका समाधान यह है कि यहाँ बन्ध शब्द से केवल कर्मपुद्गलों का बन्ध ही विवक्षित नहीं है, अपितु सम्बन्धमात्र को यहाँ बन्ध माना गया है और ऐसा बन्ध दृष्टि आदि धर्मों के साथ जीव का है ही, फिर.बन्ध जीव के वीर्य से जनित होने के कारण उनके लिए जीवप्रयोगबन्ध आदि का व्यपदेश किया गया है। ज्ञेय के साथ ज्ञान के सम्बन्ध की विवक्षा के कारण आभिनिबोधिकज्ञान के विषय आदि के भी त्रिविध बन्ध घटित हो जाते हैं।
पचपन बोलों में से किसमें कितने ?–८ कर्मप्रकृति, ८ कर्मोदय, ३ वेद, १ दर्शनमोहनीय, १ चारित्रमोहनीय, ५ शरीर, ४ संज्ञा, ६ लेश्या, ३ दृष्टि, ५ ज्ञान, ३ अज्ञान और ८ ज्ञान-अज्ञान के विषय, यों कुल ५५ बोल होते हैं । नारकों में ४४ बोल पाए जाते हैं । (उपर्युक्त ५५ में से २ वेद, २ शरीर, ३ लेश्या, २ ज्ञान तथा
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२१
(ख) भगवती. खण्ड ४ (पं. भगवानदास दोशी), पृ. ११५