Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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लेश्या : एक चिन्तन
भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक २ में गणधर गौतम ने लेश्या के सम्बन्ध में भगवान् महावीर से पूछा— भगवन् ! लेश्या के कितने प्रकार हैं ? भगवान् महावीर ने लेश्या के छः प्रकार बताये। वे हैं— कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल । इन छः लेश्याओं में तीन प्रशस्त और तीन अप्रशस्त हैं । लेश्या शब्द भी जैन-धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ है— जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है, जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है या बन्धन में आती है, वह लेश्या है। लेश्या के भी दो प्रकार हैं— द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । द्रव्यलेश्या सूक्ष्म भौतिकी तत्त्वों से निर्मित वह आंगिक संरचना है जो हमारे मनोभावों और तज्जनित कर्मों का सापेक्षरूप में कारण या कार्य बनती हैं। उत्तराध्ययन की टीका के अनुसार लेश्याद्रव्य कर्मवर्गणा से निर्मित हैं। आचार्य वादीवैताल शान्तिसूरि के अभिमतानुसार लेश्याद्रव्य बध्यमान कर्मप्रभारूप है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार लेश्या योगपरिणाम है, जो शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं का परिणाम है।
भावलेश्या आत्मा का अध्यवसाय या अन्त:करण की वृत्ति है। पं. सुखलालजी संघवी के शब्दों में कहा जाय तो भावलेश्या आत्मा का मनोभाव - विशेष है जो संक्लेश और योग से अनुगत है । संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर, तीव्रतम् प्रभृति अनेक भेद होने से लेश्या के भी अनेक प्रकार हैं। मनोभाव या संकल्प आन्तरिक तथ्य ही नहीं अपितु वे क्रियाओं के रूप में बाह्य अभिव्यक्ति भी चाहते हैं । संकल्प ही कर्म में रूपान्तरित होता है। अत: जैनमनीषियों ने जब लेश्यापरिणाम की चर्चा की तो वे केवल मनोदशाओं के चित्रण तक ही आबद्ध नहीं रहे अपितु उन्होंने उस मनोदशा से समुत्पन्न जीवन के कार्यक्षेत्र में होने वाले व्यवहारों की भी चर्चा की है। इस तरह लेश्या का षड्विध वर्गीकरण किया गया है और उनके द्वारा जो विचारप्रवाह प्रवाहित होता है उस सम्बन्ध में भी आगमकारों ने प्रकाश डाला है । किन जीवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं, इस पर भी चिन्तन किया है। यह वर्णन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। विस्तारभय से हम इस पर तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से विचार नहीं कर पा रहे हैं।
शतक १, उद्देशक ४ में गणधर गौतम ने मोक्ष के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की कि मोक्ष कौन प्राप्त करता हैं ? भगवान् ने कहा—जो चरमशरीरी हैं, जिसने केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त किया है वही आत्मा सिद्धबुद्ध-मुक्त होता है। मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है । कर्ममल के अभाव में कर्मबन्धन भी नहीं रहता और बन्धन का अभाव ही मुक्ति है। साधक का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है।
इस प्रकार जीव के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। यह चिन्तन इतना व्यापक है कि उस सम्पूर्ण चिन्तन को यहाँ पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । अत: मैं जिज्ञासु पाठकों को यह नम्र निवेदन करना चाहूँगा कि वे मूल आगम का पारायण करें, जिससे जैनदर्शन के जीवविज्ञान का सम्यक्परिज्ञान हो सकेगा। कर्म : एक चिन्तन
जिस प्रकार जीवविज्ञान के सम्बन्ध में विस्तृत चिन्तन है उसी तरह कर्मविज्ञान के सम्बन्ध में भी विविध
१.
(क) दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृष्ठ २९७
(ख) अभिधानराजेन्द्र कोष, खण्ड ६, पृष्ठ ६७५
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