________________
का भगवान् महावीर से साक्षात्कार हुआ और न किसी भिक्षु का ही। ऐसा क्यों ? यह भी विचारणीय है। इसके अतिरिक्त पूर्णकाश्यप, अजितकेशकम्बल प्रकुद्ध कात्यायन, संजयवेलट्ठीपुत्त, आदि जो अपने आपको जिन मानते थे तथा तीर्थंकर कहते थे, वे भी भगवान् महावीर से नहीं मिले हैं। यह भी चिन्तनीय है। गणित की दृष्टि से पार्खापत्यीय गांगेय अनगार के प्रश्नोत्तर अत्यन्त मूल्यवान् हैं।
भगवतीसूत्र का पर्यवेक्षण करने से यह भी पता चलता है कि भगवान् महावीर ने साध्वाचार के सम्बन्ध में एक विशेष क्रान्ति की थी और उस क्रान्ति से भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण अपरिचित थे। भगवान् महावीर ने स्त्रीत्याग और रात्रिभोजनविरमण रूप दो नियम बढ़ाये। उत्तराध्ययन में केशी-गौतम संवाद से स्पष्ट है कि महावीर ने पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित रंग-बिरंगे वस्त्रों के स्थान पर श्वेत वस्त्रों का उपयोग श्रमण के लिए आवश्यक माना। प्रतिक्रमण वर्षावास आदि कल्प में भी परिष्कार किया। पाश्र्वापत्य स्थविरों को यह भी पता नहीं था कि भगवान् महावीर तीर्थंकर हैं। इसीलिए वे पहले वन्दन नमस्कार नहीं करते और न किसी प्रकार का विनयभाव ही दिखलाते हैं। वे सहज जिज्ञासा प्रस्तुत कर देते हैं। जब वे समाधान सुनते हैं तो उन्हें आत्मविश्वास हो जाता है कि भगवान् महावीर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। तीर्थंकर हैं। तभी वे नमस्कार करते हैं और चातुर्याम धर्म को छोड़कर पंच महाव्रत धर्म को स्वीकार करते हैं।
प्रस्तुत आगम में देवेन्द्र शक्र से भयभीत बना हुआ असुरेन्द्र चमर भगवान् महावीर की शरण में आकर बच जाता है। भौतिक वैभवसम्पन्न शक्ति भी जब कषाय से उत्प्रेरित होती हैं तो वह पागल प्राणी की तरह
ह आचरण करने लगती है । स्वर्ग के देवों का महत्त्व भौतिक दृष्टि से भले ही रहा हो पर आध्यात्मिक दृष्टि से वे तिर्यञ्च से भी एक कदम पीछे हैं । स्वर्गप्राप्ति का कारण है उत्कृष्ट क्रियाकाण्ड का आचरण । यही कारण है कि जैन श्रमण वेशधारी साधक जो मिथ्यात्वी है, वह भी नवग्रैवेयक तक पहुँच जाता है, जबकि अन्य तापस आदि उस स्थान पर नहीं पहुँच पाते। हमारी दृष्टि से इसका यही कारण हो सकता कि जैन श्रमणों का आचार अहिंसाप्रधान था। इसमें हिंसा आदि से पूर्ण रूप से बचा जाता है। जबकि अन्य तापस आदि उत्कृष्ट कठोर साधना तो करते थे, पर साथ ही कन्दमूल फलों का आहार भी करते, यज्ञ आदि भी करते। स्नान-आदि के द्वारा षट्काय के जीवों की विराधना भी करते। इस हिंसा आदि के कारण ही वे उतनी उत्क्रान्ति नहीं कर पाते थे। दोनों ही मिथ्यादृष्टि होने पर भी हिंसा के कारण ही ऊँचे स्वर्ग को प्राप्त नहीं कर सकते।
__ भगवान् महावीर के समय यह मान्यता प्रचलित थी कि युद्ध में मरने वाले स्वर्ग में जाते हैं। इस मान्यता का निरसन भी प्रस्तुत आगम में किया गया है। युद्ध से स्वर्ग प्राप्त नहीं होता अपितु न्यायपूर्वक युद्ध करने के पश्चात् युद्धकर्ता अपने दुष्कृत्यों पर अन्तर्हदय से पश्चात्ताप करता है। उस पश्चात्ताप से आत्मा की शुद्धि होती है और वह स्वर्ग में जाता है। गीता के “हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग" के रहस्य का उद्घाटन बहुत ही आकर्षक लंग से प्रस्तुत आगम में हुआ है।
प्रस्तुत आगम में कितनी ही बातें पुन:-पुनः आई हैं। इसका कारण पिष्टपेषण नहीं, अपितु स्थानभेद, पृच्छकभेद और कालभेद है। प्रश्नोत्तर शैली में होने के कारण जिज्ञासु को समझाने के लिए उसकी पृष्ठभूमि बताना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य होता है। जैसा प्रश्नकार का प्रश्न, फिर उत्तर में उसी प्रश्न का पुनरुच्चारण
[१०३]