Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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उपयोग किया गया है। इस प्रकार इस आगम का विवेचन प्रबुद्ध पाठकों के लिए अतीव उपयोगी है। इसके स्वाध्याय से पाठकगण अपने जीवन को उज्वल और समुज्वल बनायेंगे। जहाँ अमरमुनिजी की प्रतिभा ने अपना विशुद्ध रूप प्रस्तुत किया है वहाँ श्री श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' की प्रतिभा भी सर्वत्र मुखरित हुई है। संपादनकलामर्मज्ञ पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने तीक्ष्ण दृष्टि से यत्र-तत्र परिष्कार और परिमार्जन भी किया जो अपने आप में अनूठा है। विद्वद्वर्य पं. मुनि श्री नेमिचन्दजी का निष्ठापूर्वक किया गया श्रम भी इनके साथ जुड़ा हुआ है।
मैं प्रस्तुत आगम पर बहुत ही विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था। जब प्रस्तुत आगम का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ उस समय मैं कुछ अस्वस्थ था। इसलिए प्रथम भाग में प्रस्तावना न जा सकी। अब अन्तिम चतुर्थ भाग में प्रस्तावना दी जा रही है। समयाभाव, निरन्तर विहार तथा अन्य अनेक व्यवधानों के कारण मैं चाहते हुए भी प्रस्तावना विस्तृत न लिख सका। जिस रूप में मैंने प्रस्तावना लिखने का उपक्रम प्रारम्भ किया था अतिशीघ्रता के कारण बाद के विषयों पर जो मैं तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से लिखना चाहता था, नहीं लिख पाया। इसका स्वयं मेरे मन में मलाल है। यदि कभी समय मिला तो इस विराट्काय आगम पर विस्तार के साथ लिखने का प्रयास करूँगा। यह आगम ऐसा आगम है जिस पर जितना लिखा जाय उतना ही कम है। ___युवाचार्य श्री मुधकरमुनिजी महाराज ने जीवन की सान्ध्य वेला में इस भागीरथ कार्य को हाथ में लिया
और अनेक प्रतिभासंपन्न व्यक्तियों के द्वारा इस कार्य को शीघ्र संपादन करने के लिए उत्प्रेरित किया। पर अत्यन्त परिताप है कि क्रूर काल ने असमय में ही उनको हमारे से छीन लिया। उनके जीवनकाल में सम्पूर्ण आगम साहित्य का प्रकाशन नहीं हो सका। तथापि उनकी पावन पुण्यस्मृति में संपादन का कार्य प्रगति पर रहा, जिसके फलस्वरूप यह आगममाला प्रकाशित हो रही है। महामहिम विश्वसन्त उपाध्याय अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज श्रमण संघ के एक ज्योतिर्धर सन्तरत्न हैं, युवाचार्यश्री के सहपाठी रहे हैं। श्रद्धेय सद्गुरुवर्य की असीम कृपा से ही मैं प्रस्तावना की कुछ पंक्तियाँ लिख गया हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अन्य आगमों की भाँति प्रस्तुत आगम का स्वाध्याय भी श्रद्धालुगण कर अपने जीवन को पावन और पवित्र बनायेंगे।
लाल भवन
.. –देवेन्द्र मुनि
जयपुर दिनांक २८-२-१९८६
[प्रथम संस्करण से]
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