Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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(५) कार्मणवर्गणा—ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के रूप में परिणत होने वाले पुद्गलों का समूह, जिनसे
कार्मण नामक सूक्ष्म शरीर बनता है। (६) श्वासोच्छ्वासवर्गणा—आन-प्राण के योग्य पुद्गलों का समूह। (७) भाषावर्गणा—भाषा के योग्य पुद्गलों का समूह। (८) मनोवर्गणा—चिन्तन में सहायक होने वाला पुद्गल-समूह।
यहाँ पर वर्गणा से तात्पर्य है एक जाति के पुद्गलों का समूह । पुद्गलों में इस प्रकार की अनन्त जातियाँ हैं, पर यहाँ प्रमुख रूप से आठ जातियों का ही निर्देश किया है। इन वर्गणाओं के अवयव क्रमशः सूक्ष्म और अतिप्रचय वाले होते हैं। एक पौद्गलिक पदार्थ अन्य पौद्गलिक पदार्थ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस ये चार वर्गणाएँ अष्टस्पर्शी हैं। वे हल्की, भारी, मृदु और कठोर भी होती हैं। कार्मण, भाषा और मन ये तीन वर्गणाएँ चतुःस्पर्शी हैं। सूक्ष्मस्कन्ध हैं। इनमें शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष ये चार स्पर्श होते हैं । श्वासोच्छ्वासवर्गणा चतु:स्पर्शी और अष्टस्पर्शी दोनों प्रकार की होती है।
भगवतीसूत्र शतक १८, उद्देशक १० में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि परमाणु पुद्गल एक समय में लोक के पूर्व भाग से पश्चिम भाग में या पश्चिम के अन्त भाग से पूर्व के अन्त भाग में, दक्षिण के अन्त से उत्तर के अन्त भाग में, उत्तर से दक्षिण के अन्त भाग में या नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे जाने में समर्थ है ? भगवान् ने कहा—हाँ गौतम ! समर्थ है और वह सारे लोक को एक समय में लांघ सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि परमाणु पुद्गल में कितना सामर्थ्य रहा हुआ है।
इस प्रकार भगवतीसूत्र में अनेक प्रश्न पुद्गल के सम्बन्ध में आये हैं। जिस प्रकार पुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में जिज्ञासाएँ हैं, वैसे ही अन्य अस्तिकायों के सम्बन्ध में यत्र-तत्र जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की गई हैं। वैशेषिक, न्याय, सांख्य, प्रभृति दर्शनों ने जीव, आकाश और पुद्गल ये तत्त्व माने हैं। उन्होंने पुद्गलास्तिकाय के स्थान पर प्रकृति, परमाणु आदि शब्दों का उपयोग किया है। सभी द्रव्यों का स्थान आकाश है किन्तु जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही गति और स्थितिशील हैं। धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य सम्पूर्ण आकाश में नहीं हैं, पर आकाश के कुछ ही भाग में हैं। वे जितने भाग में हैं उस भाग को लोकाकाश कहा है। लोकाकाश के चारों ओर अनन्त आकाश है। वह आकाश अलोकाकाश के नाम से विश्रुत है। भगवतीसूत्र में विविध प्रश्नों के द्वारा इस विषय पर बहुत ही गहराई से चिन्तन किया गया है। जहाँ पर धर्म-अधर्म, जीव-पुद्गल आदि की अवस्थिति होती है, वह लोक कहलाता है। लोक और अलोक की चर्चा भी भगवती में विस्तार से आई है। लोक और अलोक दोनों शाश्वत हैं । लोक के द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक, भावलोक आदि भेद भगवतीसूत्र शतक २, उद्देशक १ में किये गये हैं। भगवती. शतक १२, उद्देशक ७ में लोक कितना विराट् है, इस पर प्रकाश डाला है। भगवती शतक ७, उद्देशक १ में लोक के आकार पर भी चिन्तन किया गया है। शतक १३, उद्देशक ४ में लोक के मध्य भाग के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। शतक ११, उद्देशक १० में अधोलोक. तिर्यकलोक. ऊर्ध्वलोक का विस्तार से निरूपण है। शतक ५, उद्देशक २ में लवणसमुद्र आदि के आकार पर विचार किया गया है। इस प्रकार लोक के
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