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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला
[देवनागरी]
दीघनिकाये
साधुविलासिनी
नाम
सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका
दुतियो भागो
गन्थकारो महाथेरो आणाभिवंसधम्मसेनापति
विपश्यना विशोधन विन्यास
इगतपुरी १९९८
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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला-११ [देवनागरी] दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है।
प्रथम आवृत्तिः १९९८ ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां
मूल्य : अनमोल यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं । सर्वाधिकार मुक्त। पुनर्मुद्रण का स्वागत है। इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं। ISBN 81-7414-060-3
यह ग्रंथ छट्ठ संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है। इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज-सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ ।
प्रकाशक: विपश्यना विशोधन विन्यास धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२ ४०३, भारत फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स : (९१-२५५३) ८४१७६
सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक : दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन ११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर.ओ. सी. फोन : (८८६-२)२३९५-११९८, फैक्स : (८८६-२)२३९१-३४१५
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā
[Devanāgarī]
Dighanikāye Sadhuvilāsini
nāma
Sīlakkhandhavagga-Abhinavatīkā
Dutiyo Bhāgo
Ganthakāro Mahāthero Ñāņābhivamsadhammasenāpati
Devanāgari edition of the Pāli text of the Chattha Sangāyana
Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India
Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C.
Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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Dhammagiri-Päli-Ganthamālā-11 [Devanāgari ]
The Digha Nikāya and related literature is being published together in eleven volumes
First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies
Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission.
ISBN 81-7414-060-3
This volume is prepared from the Pāli text of the Chattha Sangāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanāgari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India.
Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176
Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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प्रस्तुत ग्रंथ Present Text
संकेत-सूची
२. सामञ्ञफलसुत्तवण्णना राजामच्चकथावण्णना
कोमारभच्चजीवककथावण्णना
सामञ्ञफलपुच्छावण्णना
पूरणकस्सपवादवण्णना मक्खलिगोसालवादवण्णना
अजितकेसकम्बलवादवण्णना पकुधकच्चायनवादवण्णना निगण्ठनाटपुत्तवादवण्णना
सञ्चयबेलट्ठपुत्तवादवण्णना
पठमसन्दिट्ठिकसामञ्ञफलवण्णना दुतियसन्दिट्ठिकसामञ्ञफलवण्णना पणीततरसामञ्ञफलवण्णना
चूळमज्झिममहासीलवण्णना
इन्द्रियसंवरकथावण्णना
सतिसम्पञ्जञ्ञकथावण्णना
सन्तोसकथावण्णना
नीवरणप्पहानकथावण्णना
पठमज्झानकथावण्णना
विसय-सूची
१
१६
२२
३१
३४
३९
66 के ले ले ने रे
६७
९६
१०२
११७
5
दुतियज्ज्ञानकथावण्णना
ततियज्झानकथावण्णना
चतुत्थज्झानकथावण्णना विपस्सनाञाणकथावण्णना
मनोमयिद्धिञाणकथावण्णना
इद्धिविधञाणादिकथावण्णना
आसवक्खयञाणकथावण्णना
अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथा
वण्णना
सरणगमनकथावण्णना
३. अम्बठ्ठसुत्तवण्णना
अद्धानगमनवण्णना पोक्खरसातिवत्थुवण्णना
अम्बट्टमाणवकथावण्णना
पठमइब्भवादवण्णना दुतियइब्भवादवण्णना ततियइब्भवादवण्णना दासिपुत्तवादवण्णना अम्बट्ठवंसकथावण्णना खत्तियसेट्टभाववण्णना विज्जाचरणकथावण्णना चतुअपायमुखकथावण्णना पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना
११९
१२०
१२१
१२३
१२८
१३०
१३३
१४२
१५१
१७२
१७२
१७९
१८९
२१४
२१७
२१८
२१९
२२६
२२८
२२९
२३१
२३५
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३११
२५६
२६३
द्वेलक्खणदस्सनवण्णना २३८ ७. जालियसुत्तवण्णना
२९९ पोक्खरसातिबुद्धपसङ्कमनवण्णना २४१ / ____ द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना २९९ पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदनाकथा
८. महासीहनादसुत्तवण्णना ३०४ वण्णना
२४३ अचेलकस्सपवत्थुवण्णना
३०४ ४. सोणदण्डसुत्तवण्णना
२४५
समनुयुञ्जापनकथावण्णना ३०८ सोणदण्डगुणकथावण्णना २४६ अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना ३१० बुद्धगुणकथावण्णना
२५० तपोपक्कमकथावण्णना सोणदण्डपरिवितक्कवण्णना
तपोपक्कमनिरत्थकतावण्णना ३१५ ब्राह्मणपञ्जत्तिवण्णना
२५६ सीलसमाधिपासम्पदावण्णना ३१६ सीलपाकथावण्णना २५८ सीहनादकथावण्णना
३१६ सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथा
तित्थियपरिवासकथावण्णना ३२० वण्णना
२५९ ९. पोट्ठपादसुत्तवण्णना
३२४ ५. कूटदन्तसुत्तवण्णना
२६२
पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना ३२४ महाविजितराजयञकथावण्णना
अभिसञ्जानिरोधकथावण्णना ३२८ चतुपरिक्खारवण्णना
२६७ अहेतुकसञ्जप्पादनिरोधकथावण्णना ३३१ अट्ठपरिक्खारवण्णना
२६८ सञ्जाअत्तकथावण्णना
३३९ चतुपरिक्खारादिवण्णना
२७०
चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्ठपादवत्थुवण्णना ३४३ तिस्सोविधावण्णना २७० एकंसिकधम्मवण्णना
३४४ दसआकारवण्णना
२७३ तयोअत्तपटिलाभवण्णना ३४६ सोळसाकारवण्णना
२७३
१०. सुभसुत्तवण्णना निच्चदानअनुकुलयञवण्णना। २७५
सुभमाणवकवत्थुवण्णना
३५४ कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदनादिकथा
सीलक्खन्धवण्णना
३५८ वण्णना
समाधिक्खन्धवण्णना
३५८ ६. महालिसुत्तवण्णना
२८८ ११. केवट्टसुत्तवण्णना
३६० ब्राह्मणदूतवत्थुवण्णना
२८८
केवट्टगहपतिपुत्तवत्थुवण्णना ३६० ओट्ठद्धलिच्छविवत्थुवण्णना २८९
इद्धिपाटिहारियवण्णना
३६१ एकंसभावितसमाधिवण्णना २९२
आदेसनापाटिहारियवण्णना ३६२ चतुअरियफलवण्णना
२९३
अनुसासनीपाटिहारियवण्णना अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना २९४
भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना ३६५ द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना
२९७
३५४
२८६
३६२
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तीरदस्सीसकुणूपमावण्णना १२. लोहिच्चसुत्तवण्णना
लोहिच्चब्राह्मणवत्थुवण्णना लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना तयोचोदनारहवण्णना
नचोदनारहसत्थुवण्णना १३. तेविज्जसुत्तवण्णना
३६७ मग्गामग्गकथावण्णना ३७० अचिरवतीनदीउपमाकथावण्णना ३७०
संसन्दनकथावण्णना
ब्रह्मलोकमग्गदेसनावण्णना ३७२
निगमनकथा ३७३ | सद्दानुक्कमणिका ३७४ | गाथानुक्कमणिका
३७४ ३७७ ३७९ ३८१ ३८४
३७१
[३९]
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चिरं तिद्वतु सद्धम्मो! चिरस्थायी हो सद्धर्म !
ढमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे द्वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति। अ०नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग
भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय
और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं।
...ये वो मया धम्मा अभिज्ञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अनियं अस्स चिरहितिकं...।
दी०नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त
...जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर, बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...।
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प्रस्तुत ग्रंथ
दीघनिकाय साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसके सीलक्खन्धवग्ग में शील, समाधि तथा प्रज्ञा पर सरल ढंग से प्रचुर सामग्री उपलब्ध है | व्यावहारिक जीवन में आगत वस्तुओं एवं घटनाओं से जुड़ी हुई उपमाओं के सहारे इसमें साधना के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है।
बुद्ध की देशना सरल तथा हृदयस्पर्शी हुआ करती थी। उनकी यह शैली व्याख्यात्मिका थी पर कभी कभी धर्म को सुबोध बनाने के लिये 'चूळनिद्देस' एवं 'महानिद्देस' जैसी अट्ठकथाओं का उन्होंने सृजन किया। प्रथम धर्मसंगीति में बुद्धवचन के संगायन के साथ इनका भी संगायन हुआ । तदनंतर उनके अन्य वचनों पर भी अट्ठकथाएं तैयार हुईं । जब स्थविर महेन्द्र बुद्ध वचन को लेकर श्रीलंका गये, तो वे अपने साथ इन अट्ठकथाओं को भी ले गये । श्रीलंकावासियों ने इन अट्ठकथाओं को सिंहली भाषा में सुरक्षित रखा । कालांतर में बुद्धघोष ने उनका पालि में पुनः परिवर्तन किया।
___दीघनिकाय के अर्थों को प्रकाश में लाते हुए बुद्धघोष ने 'सुमङ्गलविलासिनी' नामक अट्ठकथा का प्रणयन किया । पुनः भदंत धम्मपाल ने उस पर 'लीनत्थप्पकासना' नामक टीका लिखी । अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में महाथेर आणाभिवंसधम्मसेनापति द्वारा 'साधुविलासिनी' नामक अभिनवटीका की रचना की गयी | यह टीका प्रौढ़, व्याख्यामूलक तथा धर्म के विभिन्न अंगों पर प्रकाशक रूप है । इसके दूसरे भाग का मुद्रित संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत है।
हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा।
निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास
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Dighanikāye Sādhuvilāsini
nāma
Sīlakkhandhavagga-Abhinavatīkā
Dutiyo Bhāgo
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Ciram Titthatu Saddhammo!
May the Truth-based Dhamma
Endure for A Long Time !
“Doeme, Bbikebabe, Dhammã saddhammassa thitiyā asammosāya anantaradhānāya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittañca padabyañjanam attho ca sunito. Sunikkbitassa, Bbikebape, padabyañjanassa atthopi sunayo hoti."
"There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaranavagga make the Truth-based Dhamma endure
for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation."
...ye vo maya dhammā abhiññā desitā, tattha sabbeheva sangamma samāgamma atthena attham byañjanena byanjanam sangāyitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciratthitikam... ...the dhammas (truths) which I have D. N. 3.177, Pāsādikasutta
taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time...
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Present Text
Silakkhandhavagga-Abhinavaṭīkā (vol. II)
The Digha Nikaya is an important collection from the perspective of neditation practice. In the first book, the Silakkhandhavagga-pāļi, there is a particular abundance of material related to sila, samādhi and pañña. Various aspects of practice have been elucidated by means of similes drawn from familiar objects and the everyday life of the times.
The Buddha's teachings were simple and endearing. His distinctive style was self-explanatory but, still, in order to make the Dhamma all the more lucid, he ntroduced the use of atthakatha (commentaries), such as the Culaniddesa and the Mahaniddesa. These were recited, along with the discourses of the Buddha, at the First Dhamma Council. In time the other aṭṭhakatha commenting on all his discourses came into being.
When Ven. Mahinda conveyed the words of the Buddha to Sri Lanka he also took the atthakatha with him. The Sinhalese monks preserved these atthakatha in their own language. Later on, when they had been lost in India, Ven. Buddhaghosa was able to translate them back to Pāli.
Ven. Buddhaghosa composed the Sumangalavilasini to clarify the meaning of the Digha Nikaya and Ven. Dhammapala wrote a sub-commentary on Buddhaghosa's work, known as Līnatthappakāsana. Another sub-commentary on Buddhaghosa's work, named Sadhuvilasini (Silakkhandhavagga-Abhinavaṭīkā), was written by Mahathera Ñāṇābhivamsadhammasenapati in the later half of the eighteenth century. It is profound and illustrative, throwing light on various aspects of the Dhamma. This is the book which is presented here.
We sincerely hope that this will provide immense benefit to practitioners of Vipassana as well as research scholars.
Director,
Vipassana Research Institute, Igatpuri, India.
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The Pāli alphabets in Devanāgari and Roman characters: Vowels: 34 a 371ā i ši Ju Jū Te 370 Consonants with Vowel 37 (a): क ka ख kha ग gaघ ghaङ na च ca छ cha ज ja झ jha ha
ța tha 3 da odha oņa a ta e tha da odha na q pa pha aba 4 bha ma a ya rai la ava sa ha la One nasal sound (niggahita): 3 am Vowels in combination with consonants “k” and “kh”: (exceptions: 5 ru, F rū) क ka का ka कि ki की ki कु ku कू ku के ke को ko ख kha खा khā खि khi खी khi खु khu खू khā खे khe खो kho
9444
Af S15
nga
B
B
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ņņa
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E
Conjunct-consonants: क्क kka क्ख kkha ___क्य kya
khya ख्व khva ग gga gva nka
nkha cca
28 ccha ñca sy ñcha dda
ddha nta nya ve nha tva
dda Saddha
24 dhya ध्व dhva न्द nda
ndra me ndha nha प्प ppa प्फ ppha bbha ब्य bya mbha म्म mma
म्य mya यह yha ल्ल lla ल्य lya stra
स्य sya a hma ahya - hva
? 1 72 73 74 4 5
" #SNUSI
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क्व kva ग्घ ggha ग्य gya gra nkhya
ngha ज्झ jjha * ñña उह nha ज्झ njha दृ tta
टु ttha ण्ठ ntha
ण्ड nda स्थ ttha त्य tya द्म dma U dya
dra nta
ntva
Fet ntha न्य nya
nva руа
pla mpa to mpha mba mha य्य yya
व्य vya ल्ह lha
vha स्त sta स्स ssa स्म sma
स्व sva ha & 6 67 68 99 00
nna
bba
bra
#
न sna
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Notes on the pronunciation of Pāli
Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brahmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pali was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation.
The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two consonants and one nasal sound (niggahita).
Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel):
a as the "a" in about
ā
- as the "a" in father
-
1 - as the "i" in mint
i as the "ee" in see as the "oo" in cool
u - as the "u" in put
ū
e is pronounced as the "ay" in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, mettä;
o is pronounced as the "o" in no, except before double consonants when it is pronounced slightly shorter: loka, photthabba.
g
c
Consonants are pronounced mostly as in English.
as the "g" in get
soft like the "ch" in church
-
v - a very soft -v- or -w
All aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath following the normal unaspirated sound.
th not as in 'three'; rather 't' followed by 'h' (outbreath) ph- not as in 'photo'; rather 'p' followed by 'h' (outbreath)
-
The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the tongue turned back; and l is pronounced with the tongue retroflexed, almost a combined 'rl' sound.
The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue touching the upper front teeth.
The nasal sounds:
n- guttural nasal, like -ng- as in singer
ñ as in Spanish señor
with tongue retroflexed
n
m- as in hung, ring
Double consonants are very frequent in Pali and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn- is like the English 'nn' in "unnecessary".
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संकेत-सूची
अ० नि० = अङ्गुत्तरनिकाय अट्ठ० = अट्ठकथा अनु टी० = अनुटीका अप० = अपदान अभि० टी० = अभिनवटीका इतिवु० = इतिवृत्तक उदा० = उदान कङ्खा० टी० = कङ्घावितरणी टीका कथाव०=कथावत्थु खु० नि० = खुद्दकनिकाय खु० पा० = खुद्दकपाठ चरिया० पि० = चरियापिटक चूळनि० = चूळनिद्देस चूळव० = चूळवग्ग जा० = जातक टी० = टीका थेरगा०=थेरगाथा थेरीगा०=थेरीगाथा दी०नि० = दीघनिकाय ध०प० = धम्मपद ध० स० = धम्मसङ्गणी धातु०=धातुकथा नेत्ति० = नेत्तिपकरण पटि० म० = पटिसम्भिदामग्ग
पट्ठा० = पठ्ठान परि० = परिवार पाचि० = पाचित्तिय पारा० = पाराजिक पु० टी० = पुराणटीका पु० प० = पुग्गलपति पे० व० = पेतवत्थु पेटको० = पेटकोपदेस बु० वं० = बुद्धवंस म०नि० = मज्झिमनिकाय महाव० = महावग्ग महानि० = महानिद्देस मि० प० = मिलिन्दप मूल टी० = मूलटीका यम० = यमक वि० व० = विमानवत्थु वि० वि० टी० = विमतिविनोदनी टीका वि० सङ्ग० अट्ठ० = विनयसङ्गह अट्ठकथा विनय वि० टी० = विनयविनिच्छय टीका विभं० = विभङ्ग विसुद्धि० = विसुद्धिमग्ग सं० नि० = संयुत्तनिकाय सारत्थ० टी० = सारत्थदीपनी टीका सु० नि० = सुत्तनिपात
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दीघनिकाये
साधुविलासिनी
नाम
सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका
दुतियो भागो
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।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।।
दीघनिकाये
सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका
(दुतियो भागो)
२. सामञ्जफलसुत्तवण्णना
राजामच्चकथावण्णना
१५०. इदानि सामञफलसुत्तस्स संवण्णनाक्कमो अनुप्पत्तोति दस्सेतुं "एवं...पे०... सुत्त"न्तिआदिमाह । तत्थ अनुपुब्बपदवण्णनाति अनुक्कमेन पदवण्णना, पदं पदं पति अनुक्कमेन वण्णनाति वुत्तं होति । पुब्बे वुत्तहि, उत्तानं वा पदमात्र वण्णनापि “अनुपुब्बपदवण्णना" त्वेव वुच्चति । एवञ्च कत्वा "अपुब्बपदवण्णना"तिपि पठन्ति, पुब्बे अवण्णितपदवण्णनाति अत्थो। दुग्गजनपदट्ठानविसेससम्पदादियोगतो पधानभावेन राजूहि गहितद्वेन एवंनामकं, न पन नाममत्तेनाति आह "तही"तिआदि ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१५०-१५०)
ननु महावग्गे महागोविन्दसुत्ते आगतो एस पुरोहितो एव, न राजा, कस्मा सो राजसद्दवचनीयभावेन गहितोति ? महागोविन्देन पुरोहितेन परिग्गहितम्पि चेतं रेणुना नाम मगधराजेन परिग्गहितमेवाति अत्थसम्भवतो एवं वुत्तं, न पन सो राजसद्दवचनीयभावेन गहितो तस्स राजाभावतो। महागोविन्दपरिग्गहितभावकित्तनहि तदा रेणुरञा परिग्गहितभावूपलक्खणं । सो हि तस्स सब्बकिच्चकारको पुरोहितो, इदम्पि च लोके समुदाचिण्णं “राजकम्मपसुतेन कतम्पि रञा कत"न्ति । इदं वुत्तं होति- मन्धातुरा चेव महागोविन्दं बोधिसत्तं पुरोहितमाणापेत्वा रेणुरञा च अज्ञेहि च राजूहि परिग्गहितत्ता राजगहन्ति । केचि पन “महागोविन्दो"ति महानुभावो एको पुरातनो राजाति वदन्ति । परिग्गहितत्ताति राजधानीभावेन परिग्गहितत्ता । गव्हतीति हि गह, राजूनं, राजूहि वा गहन्ति राजगह। नगरसद्दापेक्खाय नपुंसकनिद्देसो ।
___ अञ्जपेत्थ पकारेति नगरमापनेन रञा कारितसब्बगेहत्ता राजगहं, गिज्झकूटादीहि पञ्चहि पब्बतेहि परिक्खित्तत्ता पब्बतराजेहि परिक्खित्तगेहसदिसन्तिपि राजगहं, सम्पन्नभवनताय राजमानं गेहन्तिपि राजगह, सुसंविहितारक्खताय अनत्थावहितुकामेन उपगतानं पटिराजूनं गहं गहणभूतन्तिपि राजगह, राजूहि दिस्वा सम्मा पतिट्ठापितत्ता तेसं गहं गेहभूतन्तिपि राजगहं, आरामरामणेय्यतादीहि राजति, निवाससुखतादिना च सत्तेहि ममत्तवसेन गम्हति परिग्गव्हतीतिपि राजगहन्ति एदिसे पकारे । नाममत्तमेव पुब्बे वुत्तनयेनाति अत्थो । सो पन पदेसो विसेसट्ठानभावेन उळारसत्तपरिभोगोति आह "तं पनेत"न्तिआदि । तत्थ "बुद्धकाले, चक्कवत्तिकाले चा"ति इदं येभुय्यवसेन वुत्तं अञदापि कदाचि सम्भवतो, “नगरं होती"ति च इदं उपलक्खणमेव मनुस्सावासस्सेव असम्भवतो । तथा हि वुत्तं "सेसकाले सुझं होती"तिआदि । तेसन्ति यक्खानं । वसनवनन्ति आपानभूमिभूतं उपवनं ।
अविसेसेनाति विहारभावसामञ्चेन, सद्दन्तरसन्निधानसिद्धं विसेसपरामसनमन्तरेनाति अत्थो। इदं वुत्तं होति- “पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति, (अ० नि० २.५.१०१; पाचि० १४७; परि० ४४१) पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति, (ध० स० १६०) मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, (दी० नि० ३.७१, ३०८; म० मि० १.७७, ४५९, ५०९; २.३०९, ३१५; ३.२३०; विभं० ६४२) सब्बनिमित्तानं अमनसिकारा अनिमित्तं चेतोसमाधिं उपसम्पज्ज विहरती"तिआदीसु (म० नि० १.४५९) सद्दन्तरसन्निधानसिद्धेन विसेसपरामसनेन यथाक्कम इरियापथविहारादिविसेसविहार
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(२.२.१५० - १५०)
राजामच्चकथावण्णना
समङ्गीपरिदीपनं, न एवमिदं, इदं पन तथा विसेसपरामसनमन्तरेन अञ्ञतरविहारसमङ्गीपरिदीपनन्ति ।
सतिपि च वृत्तनयेन अञ्ञतरविहारसमङ्गीपरिदीपने इध इरियापथसङ्घातविसेसविहारसमङ्गीपरिदीपनमेव सम्भवतीति दस्सेति " इध पना'' तिआदिना । कस्मा पन सद्दन्तरसन्निधानसिद्धस्स विसेसपरामसनस्साभावेपि इध विसेसविहारसमङ्गीपरिदीपनं सम्भवतीति ? विसेसविहारसमङ्गीपरिदीपनस्स सद्दन्तरसङ्घातविसेसवचनस्स अभावतो एव । विसेसवचने असति विसेसमिच्छता विसेसो पयोजितब्बोति । अपिच इंरियापथसमायोगपरिदीपनस्स अत्थतो सिद्धत्ता तथादीपनमेव सम्भवतीति । कस्मा चायमत्थो सिद्धोति ? दिब्बविहारादीनम्पि साधारणतो । कदाचिपि हि इरियापथविहारेन विना न भवति तमन्तरेन अत्तभावपरिहरणाभावतोति ।
३
इरियनं पवत्तनं इरिया, कायिककिरिया, तस्सा पवत्तनुपायभावतो पथोति इरियापथो ठाननिसज्जादयो । न हि ठाननिसज्जादिअवत्थाहि विना कञ्चि कायिकं किरियं पवत्तेतुं सक्का, तस्मा सो ताय पवत्तनुपायोति वुच्चति । विहरति पवत्तति एतेन विहरणमत्तं वा तन्ति विहारो, सो एव विहारो तथा अत्थतो पनेस ठाननिसज्जादि आकारप्पवत्तो चतुसन्ततिरूपप्पबन्धोव । दिवि भवो दिब्बो, तत्थ बहुलं पवत्तिया ब्रह्मपारिसज्जादिदेवलोके भवोति अत्थो, यो वा तत्थ दिब्बानुभावो, तदत्थाय संवत्ततीति दिब्बो, अभिञाभिनीहारादिवसेन वा महागतिकत्ता दिब्बो, सोव विहारो, दिब्बभावावहो वा विहारो दिब्बविहारो, महग्गतज्झानानि । नेत्तियं [ नेत्ति० ८६ ( अत्थतो समानं ) ] पन चतस्सो आरुप्पसमापत्तियो आनेञ्जविहाराति विसुं वुत्तं तं पन मेत्ताज्झानादीनं ब्रह्मविहारता विय तासं भावनाविसेसभावं सन्धाय वुत्तं । अट्ठकथासु पन दिब्बभावावहसामञ्ञतो तापि "दिब्बविहारा" त्वेव वृत्ता । ब्रह्मानं ब्रह्मभूता वा हितूपसंहारादिवसेन पवत्तिया सेट्ठभूता विहाराति ब्रह्मविहारा, मेत्ताज्झानादिवसेन पवत्ता चतस्सो अप्पमञ्ञायो । अरिया उत्तमा, अनञ्ञसाधारणत्ता वा अरियानं विहाराति अरियविहारा, चतस्सोपि फलसमापत्तियो । इध पन रूपावचरचतुत्थज्झानं, तब्बसेन पवत्ता अप्पमञ्ञयो, चतुत्थज्झानिक अग्गफलसमापत्ति च भगवतो दिब्बब्रह्म अरियविहारा ।
अञ्ञतरविहारसमङ्गीपरिदीपनन्ति तासमेकतो अप्पवत्तत्ता एकेन वा द्वीहि वा समङ्गीभावपरिदीपनं, भावलोपेनायं भावप्पधानेन वा निद्देसो । भगवा हि लोभदोसमोहुस्सन्ने
3
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१५०-१५०)
लोके सकपटिपत्तिया वेनेय्यानं विनयनत्थं तं तं विहारे उपसम्पज्ज विहरति । तथा हि यदा सत्ता कामेसु विप्पटिपज्जन्ति, तदा किर भगवा दिब्बेन विहारेन विहरति तेसं अलोभकुसलमूलुप्पादनत्थं “अप्पेव नाम इमं पटिपत्तिं दिस्वा एत्थ रुचिमुप्पादेत्वा कामेसु विरज्जेय्यु"न्ति । यदा पन इस्सरियत्थं सत्तेसु विप्पटिपज्जन्ति, तदा ब्रह्मविहारेन विहरति तेसं अदोसकुसलमूलुप्पादनत्थं "अप्पेव नाम इमं पटिपत्तिं दिस्वा एत्थ रुचिमुप्पादेत्वा अदोसेन दोसं वूपसमेय्यु''न्ति । यदा पन पब्बजिता धम्माधिकरणं विवदन्ति, तदा अरियविहारेन विहरति तेसं अमोहकुसलमूलुप्पादनत्थं "अप्पेव नाम इमं पटिपत्तिं दिस्वा एत्थ रुचिमुप्पादेत्वा अमोहेन मोहं वूपसमेय्युन्ति। एवञ्च कत्वा इमेहि दिब्बब्रह्मअरियविहारेहि सत्तानं विविधं हितसुखं हरति, इरियापथविहारेन च एकं इरियापथबाधनं अञ्जेन इरियापथेन विच्छिन्दित्वा अपरिपतन्तं अत्तभावं हरतीति वुत्तं "अञतरविहारसमङ्गीपरिदीपन"न्ति ।
__ "तेना"तिआदि यथावुत्तसंवण्णनाय गुणदस्सनं, तस्माति अत्थो, यथावुत्तत्थसमत्थनं वा । तेन इरियापथविहारेन विहरतीति सम्बन्धो । तथा वदमानो पन विहरतीति एत्थ वि-सद्दो विच्छेदनत्थजोतको, "हरती"ति एतस्स च नेति पवत्तेतीति अत्थोति आपेति "ठितोपी"तिआदिना विच्छेदनयनाकारेन वुत्तत्ता। एवहि सति तत्थ कस्स केन विच्छिन्दनं, कथं कस्स नयनन्ति अन्तोलीनचोदनं सन्धायाह । “सो ही"तिआदीति अयम्पि सम्बन्धो उपपन्नो होति । यदिपि भगवा एकेनेव इरियापथेन चिरतरं कालं पवत्तेतुं सक्कोति, तथापि उपादिन्नकस्स नाम सरीरस्स अयं सभावोति दस्सेतुं "एकं इरियापथबाधन"न्तिआदि वुत्तं । अपरिपतन्तन्ति भावनपुंसकनिद्देसो, अपतमानं कत्वाति अत्थो । यस्मा पन भगवा यत्थ कत्थचि वसन्तो वेनेय्यानं धम्मं देसेन्तो, नानासमापत्तीहि च कालं वीतिनामेन्तो वसति, सत्तानं, अत्तनो च विविधं सुखं हरति, तस्मा विविध हरतीति विहरतीति एवम्पेत्थ अत्थो वेदितब्बो ।
गोचरगामनिदस्सनत्थं "राजगहे''ति वत्वा बुद्धानमनुरूपनिवासट्ठानदस्सनत्थं पुन "अम्बवने''ति वुत्तन्ति दस्सेन्तो “इदमस्सा"तिआदिमाह । अस्साति भगवतो । तस्साति राजगहसङ्घातस्स गोचरगामस्स । यस्स समीपवसेन “राजगहे'"ति भुम्मवचनं पवत्तति, सोपि तस्स समीपवसेन वत्तब्बोति दस्सेति "राजगहसमीपे अम्बवने"ति इमिना । समीपत्थेति अम्बवनस्स समीपत्थे । एतन्ति “राजगहे''ति वचनं । भुम्मवचनन्ति आधारवचनं । भवन्ति एत्थाति हि भुम्मं, आधारो, तदेव वचनं तथा, भुम्मे पवत्तं वा वचनं विभत्ति
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(२.२.१५०-१५०)
राजामच्चकथावण्णना
भुम्मवचनं, तेन युत्तं तथा, सत्तमीविभत्तियुत्तपदन्ति अत्थो । इदं वुत्तं होति - कामं भगवा अम्बवनेयेव विहरति । तस्समीपत्ता पन गोचरगामदस्सनत्थं भुम्मवचनवसेन “राजगहे"तिपि वुत्तं यथा तं "गङ्गायं गावो चरन्ति, कूपे गग्गकुल''न्ति चाति । अनेनेव यदि भगवा राजगहे विहरति, अथ न वत्तब्बं “अम्बवने''ति । यदि च अम्बवने, एवम्पि न वत्तब्धं "राजगहे''ति। न हि “पाटलिपुत्ते पासादे वसती"तिआदीसु विय इध अधिकरणाधिकरणस्स अभावतो अधिकरणस्स द्वयनिद्देसो युत्तो सियाति चोदना अनवकासा कताति दट्ठबं | कुमारभतो एव कोमारभच्चो सकत्थवुत्तिपच्चयेन, निरुत्तिनयेन वा यथा "भिसग्गमेव भेसज्ज"न्ति । “यथाहा"तिआदिना खन्धकपाळिवसेन तदत्थं साधेति । कस्मा च अम्बवनं जीवकसम्बन्धं कत्वा वुत्तन्ति अनुयोगेन मूलतो पट्ठाय तमत्थं दस्सेन्तो “अयं पना"तिआदिमाह।
दोसाभिसन्नन्ति वातपित्तादिवसेन उस्सन्नदोसं । विरेचेत्वाति दोसप्पकोपतो विवेचेत्वा । सिवेय्यकं दुस्सयुगन्ति सिविरढे जातं महग्धं दुस्सयुगं । दिवसस्स द्वत्तिक्खत्तुन्ति एकस्सेव दिवसस्स द्विवारे वा तिवारे वा भागे, भुम्मत्थे वा एतं सामिवचनं, एकस्मिंयेव दिवसे द्विवारं वा तिवारं वाति अत्थो । तम्बपट्टवण्णेनाति तम्बलोहपट्टवण्णेन । सचीवरभत्तेनाति चीवरेन, भत्तेन च । "तं सन्धाया"ति इमिना न भगवा अम्बवनमत्तेयेव विहरति, अथ खो एवं कते विहारे । सो पन तदधिकरणताय विसुं अधिकरणभावेन न वुत्तोति सन्धायभासितमत्थं दस्सेति । सामञ्जे हि सति सन्धायभासितनिद्धारणं ।
अड्डेन तेळस अडतेळस। तादिसेहि भिक्खुसतेहि। अड्डो पनेत्थ सतस्सेव । येन हि पयुत्तो तब्भागवाचको अड्डसद्दो, सो च खो पण्णासाव, तस्मा पञ्जासाय ऊनानि तेळस भिक्खुसतानीति अत्थं विज्ञापेतुं “अड्डसतेना"तिआदि वुत्तं । अड्डमेव सतं सतस्स वा अटुं तथा ।
राजतीति अत्तनो इस्सरियसम्पत्तिया दिब्बति सोभति च । रजेतीति दानादिना, सस्समेधादिना च चतूहि सङ्गहवत्थूहि रमेति, अत्तनि वा रागं करोतीति अत्थो । च-सद्दो चेत्थ विकप्पनत्थो । जनपदवाचिनो पुथुवचनपरत्ता "मगधान"न्ति वुत्तं, जनप्पदापदेसेन वा तब्बासिकानं गहितत्ता। रञोति पितु बिम्बिसाररो। ससति हिंसतीति सत्तु, वेरी, अजातोयेव सत्तु अजातसत्तु। "नेमित्तकेहि निद्दिद्यो"ति वचनेन च अजातस्स तस्स सत्तुभावो न ताव होति, सत्तुभावस्स पन तथा निद्दिद्वत्ता एवं वोहरीयतीति दस्सेति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१५०-१५०)
अजातस्सेव पन तस्स “रो लोहितं पिवेय्य"न्ति देविया दोहळस्स पवत्तत्ता अजातोयेवेस रञो सत्तूतिपि वदन्ति ।
"तस्मि"न्तिआदिना तदत्थं विवरति, समत्थेति च । दोहळोति अभिलासो। भारियेति गरुके, अक्षेसं असक्कुणेय्ये वा। असक्कोन्तीति असक्कुणमाना। अकथेन्तीति अकथयमाना समाना। निबन्धित्वाति वचसा बन्धित्वा । सुवण्णसत्थकेनाति सुवण्णमयेन सत्थकेन, घनसुवण्णकतेनाति अत्थो । अयोमयहि रञो सरीरं उपनेतुं अयुत्तन्ति वदन्ति । सुवण्णपरिक्खतेन वा अयोमयसत्थेनाति अत्थेपि अयमेवाधिप्पायो। बाहुं फालापेत्वाति लोहितसिरावेधवसेन बाहुं फालापेत्वा । केवलस्स लोहितस्स गब्मिनिया दुज्जीरभावतो उदकेन सम्भिन्दित्वा पायेसि । हञिस्सतीति हञिस्सते, आयतिं हनीयतेति अत्थो । नेमित्तकानं वचनं तथं वा सिया, वितथं वाति अधिप्पायेन "पुत्तोति वा धीताति वा न पञआयती"ति वुत्तं । “अत्तनो"तिआदिना अझम्पि कारणं दस्सेत्वा निवारेसि। रञो भावो रज्जं, रज्जस्स समीपे पवत्ततीति ओपरज्जं, ठानन्तरं ।
___महाति महती | समासे विय हि वाक्येपि महन्तसद्दस्स महादेसो। धुराति गणस्स धुरभूता, धोरव्हा जेट्टकाति अत्थो। धुरं नीहरामीति गणधुरमावहामि, गणबन्धियं निब्बत्तेस्सामीति वुत्तं होति । “सो न सक्का"तिआदिना पुन चिन्तनाकारं दस्सेति । इद्धिपाटिहारियेनाति अहिमेखलिककुमारवण्णविकुब्बनिद्धिना । तेनाति अप्पायुकभावेन । हीति निपातमत्तं । तेन हीति वा उय्योजनत्थे निपातो। तेन वुत्तं “कुमारं...पे०... उय्योजेसी"ति | बुद्धो भविस्सामीति एत्थ इति-सद्दो इदमत्थो, इमिना खन्धके आगतनयेनाति अत्थो । पुब्बे खोतिआदीहिपि खन्धकपाळियेव (चूळव० ३३९)।
पोत्थनियन्ति छुरिकं । यं “नखर"न्तिपि वुच्चति, दिवा दिवसेति (दी० नि० टी० १.१५०) दिवसस्सपि दिवा। साम्यत्थे हेतं भुम्मवचनं “दिवा दिवसस्सा''ति अञत्थ दस्सनतो। दिवस्स दिवसेतिपि वट्टति अकारन्तस्सपि दिवसदस्स विज्जमानत्ता । नेपातिकम्पि दिवासद्दमिच्छन्ति सद्दविद्, मज्झन्हिकवेलायन्ति अत्थो। सा हि दिवसस्स विसेसो दिवसोति । “भीतो"तिआदि परियायो, कायथम्भनेन वा भीतो। हदयमंसचलनेन उब्बिग्गो। “जानेय्युं वा, मा वा''ति परिसङ्काय उस्सकी। आते सति अत्तनो आगच्छमानभयवसेन उत्रस्तो। वुत्तप्पकारन्ति देवदत्तेन वुत्ताकारं विष्पकारन्त अपकारं अनुपकारं, विपरीतकिच्चं वा । सब्बे भिक्खूति देवदत्तपरिसं सन्धायाह ।
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(२.२.१५० - १५०)
अच्छिन्दित्वाति अपनयनवसेन विलुम्पित्वा । रज्जेनाति विजितेन । एकस्स रञ्ञो आणापवत्तिट्ठानं “ रज्जन्ति हि वृत्तं राजभावेन वा ।
"
राजामच्चकथावण्णना
७
मनसो अत्थो इच्छा मनोरथो र-कारागमं, त-कारलोपञ्च कत्वा, चित्तस्स वा नानारम्मसु विब्भमकरणतो मनसो रथो इव मनोरथो, मनो एव रथो वियाति वा मनोरथोतिपि नेरुत्तिका वदन्ति । सुकिच्चकारिम्हीति सुकिच्चकारी अम्हि । अवमानन्ति अवमञ्ञनं अनादरं । मूलघच्चन्ति जीविता वोरोपनं सन्धायाह, भावनपुंसकमेतं । राजकुलानं किर सत्थेन घातनं राजूनमनाचिण्णं, तस्मा सो “ ननु भन्ते "तिआदिमाह । तापनगेहं नाम उण्हगहापनगेहं तं पन धूमेनेव अच्छिन्ना । तेन वुत्तं " धूमघर "न्ति । कम्मकरणत्थायाति तापन कम्मकरणत्थमेव । केनचि छादितत्ता उच्चो अङ्गोति उच्चङ्गो, यस्स कस्सचि गहणत्थं पटिच्छन्नो उन्नतङ्गोति इध अधिप्पेतो । तेन वुत्तं " उच्चङ्गं कत्वा पविसितुं मा देथा "ति । " उच्छङ्गे कत्वा" तिपि पाठो, एवं सति मज्झिमङ्गोव, उच्छङ्गे किञ्चि
तब्बं कत्वाति अत्थो । मोळियन्ति चूळायं “ छेत्वान मोळिं वरगन्धवासित "न्तिआदीसु (म० नि० अट्ठ० २.१; सं० नि० अट्ठ० २.२.५५; अप० अट्ठ० १. अविदूरेनिदानकथा; बु० वं० अट्ठ० २७.अविदूरेनिदानकथा; जा० अट्ठ० १. अविदूरेनिदानकथा) विय । तेनाह "मोळिं बन्धित्वा "ति । चतुमधुरेनाति सप्पिसक्करमधुनाळिकेरस्नेहसङ्घाते हि चतूहि मधुरेहि अभिसङ्घतपानविसेसेनाति वदन्ति तं महाधम्मसमादानसुत्तपाळिया (म० नि० १.४७३) न समेति । वृत्तहि तत्थ " दधि च मधु च सप्पि च फाणितञ्च एकज्झं संसट्ट "न्ति, (म० नि० १.४८५) तदट्ठकथायञ्च वृत्तं " दधि च मधु चाति सुपरिसुद्धं दधि च सुमधुरं मधु च । एकज्झं संसन्ति एकतो कत्वा मिस्सितं आलुळितं । तस्स तन्ति तस्स तं चतुमधुरभेसज्जं पिवतो”ति " अत्तुपक्कमेन मरणं न युत्त न्ति मनसि कत्वा राजा तसा सरीरं लेहित्वा यापेति । न हि अरिया अत्तानं विनिपातेन्ति ।
मग्गफलसुखेनात मग्गफलसुखवता,
सोतापत्तिमग्गफलसुखूपसहितेन
चङ्कमेन
यापेतीति अत्थो । हारेस्सामीति अपनेस्सामि । वीतच्चितेहीति विगतअच्चितेहि जालविगतेहि सुद्धङ्गारेहि । केनचि सञ्ञत्तोति केनचि सम्मा ञापितो, ओवदितोति वुत्तं होति । मस्सुकरणत्थायाति मस्सुविसोधनत्थाय । मनं करोथाति यथा रज्ञो मनं होति, तथा करोथ । पुब्बेति पुरिमभवे । चेतियङ्गणेति गन्धपुप्फादीहि पूजनट्ठानभूते चेतियस्स भूमितले निसज्जनत्थायाति भिक्खुसङ्घस्स निसीदनत्थाय । पञ्ञत्तकटसारकन्ति पञ्ञपेतब्बउत्तमकिल ।
7
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१५०-१५०)
तथाविधो किलञ्जो हि “कटसारको''ति वुच्चति । तस्साति यथावुत्तस्स कम्मद्वयस्स । तं पन मनोपदोसवसेनेव तेन कतन्ति दट्ठब् । यथाह -
"मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया । मनसा चे पदुढेन, भासति वा करोति वा । ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्कंव वहतो पद"न्ति ।। (ध० प० १; नेत्ति०
९०)
परिचारकोति सहायको | अभेदेपि भेदमिव वोहारो लोके पाकटोति वुत्तं "यक्खो हुत्वा निब्बत्ती"ति । एकायपि हि उप्पादकिरियाय इध भेदवोहारो, पटिसन्धिवसेन हुत्वा, पवत्तिवसेन निब्बत्तीति वा पच्चेकं योजेतबं, पटिसन्धिवसेन वा पवत्तनसङ्खातं सातिसयनिब्बत्तनं आपेतुं एकायेव किरिया पदद्वयेन वुत्ता । तथावचनहि पटिसन्धिवसेन निब्बत्तनेयेव दिस्सति “मक्कटको नाम देवपुत्तो हुत्वा निब्बत्ति (ध० प० अट्ठ० १.५) कण्टको नाम...पे०... निब्बत्ति, (जा० अट्ठ० १.अविदूरेनिदानकथा) मण्डूको नाम...पे०... निब्बत्ती''तिआदीसु विय। द्विन्नं वा पदानं भावत्थमपेक्खित्वा "यक्खो''तिआदीसु सामिअत्थे पच्चत्तवचनं कतं पुरिमाय पच्छिमविसेसनतो, परिचारकस्स...पे०... यक्खस्स भावेन निब्बत्तीति अत्थो, हेत्वत्थे वा एत्थ त्वा-सद्दो यक्खस्स भावतो पवत्तनहेतूति । अस्स पन रो महापुञस्सपि समानस्स तत्थ बहुलं निब्बत्तपुब्बताय चिरपरिचितनिकन्ति वसेन तत्थेव निब्बत्ति वेदितब्बा ।
तं दिवसमेवाति रो मरणदिवसेयेव । खोभेत्वाति पुत्तस्नेहस्स बलवभावतो, तंसहजातपीति वेगस्स च सविप्फारताय तं समुट्ठानरूपधम्मेहि फरणवसेन सकलसरीरं आलोळेत्वा । तेनाह "अद्विमिजं आहच्च अट्ठासी"ति | पितगुणन्ति पितनो अत्तनि सिनेहगुणं । तेन वुत्तं "मयि जातेपी"तिआदि । विस्सज्जेथ विस्सज्जेथाति तुरितवसेन, सोकवसेन च वुत्तं ।
अनुहुभित्वाति अछड्डेत्वा ।
नाळागिरिहत्थिं मुञ्चापेत्वाति एत्थ इति-सद्दो पकारत्थो, तेन "अभिमारकपुरिसपेसेनादिप्पकारेना''ति पुब्बे वुत्तप्पकारत्तयं पच्चामसति, कत्थचि पन सो
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(२.२.१५०-१५०)
राजामच्चकथावण्णना
न दिट्ठो। पञ्च वत्थूनीति “साधु भन्ते भिक्खू यावजीवं आरञ्जिका अस्सू'तिआदिना (पारा० ४०९; चूळव० ३४३) विनये वुत्तानि पञ्च वत्थूनि । याचित्वाति एत्थ याचनं विय कत्वाति अत्थो । न हि सो पटिपज्जितुकामो याचतीति अयमत्थो विनये (पारा० अट्ठ० २.४१०) वुत्तोयेव । सज्ञापेस्सामीति चिन्तेत्वा सङ्घभेदं कत्वाति सम्बन्धो । इदञ्च तस्स अनिखित्तधुरतादस्सनवसेन वुत्तं, सो पन अकतेपि सङ्घभेदे तेहि सापेतियेव । उण्हलोहितन्ति बलवसोकसमुट्टितं उहभूतं लोहितं । महानिरयेति अवीचिनिरये । वित्थारकथानयोति अजातसत्तुपसादनादिवसेन वित्थारतो वत्तब्बाय कथाय नयमत्तं । कस्मा पनेत्थ सा न वुत्ता, ननु सङ्गीतिकथा विय खन्धके (चूळव० ३४३) आगतापि सा वत्तब्बाति चोदनाय आह “आगतत्ता पन सब्बं न वुत्त"न्ति, खन्धके आगतत्ता, किञ्चिमत्तस्स च वचनक्कमस्स वुत्तत्ता न एत्थ कोचि विरोधोति अधिप्पायो । "एव"न्तिआदि यथानुसन्धिना निगमनं ।
कोसलरञोति पसेनदिकोसलस्स पितु महाकोसलरञो। ननु विदेहस्स रञो धीता वेदेहीति अत्थो सम्भवतीति चोदनमपनेति “न विदेहरो"ति इमिना । अथ केनटेनाति आह “पण्डिताधिवचनमेत"न्ति, पण्डितवेवचनं, पण्डितनामन्ति वा अत्थो। अयं पन पदत्थो केन निब्बचनेनाति वृत्तं "तत्राय"न्तिआदि । विदन्तीति जानन्ति । वेदेनाति करणभूतेन जाणेन । "ईहती"ति एतस्स पवत्ततीतिपि अत्थो टीकायं वुत्तो | वेदेहीति इध नदादिगणोति आह "वेदेहिया"ति ।
सोयेव अहो तदहो, सत्तमीवचनेन पन “तदहू"ति पदसिद्धि | एत्थाति एतस्मिं दिवसे। उपसद्देन विसिट्ठो वससद्दो उपवसनेयेव, न वसनमत्ते, उपवसनञ्च समादानमेवाति दस्सेतुं "सीलेना"तिआदि वुत्तं । एत्थ च सीलेनाति सासने अरियुपोसथं सन्धाय वुत्तं । अनसनेनाति अभुञ्जनमत्तसङ्खातं बाहिरुपोसथं । वा-सद्दो चेत्थ अनियमत्थो, तेन एकच्चं मनोदुच्चरितं, दुस्सील्यादिञ्च सङ्गण्हाति । तथा हि गोपालकुपोसथो अभिज्झासहगतस्स चित्तस्स वसेन वुत्तो, निगण्ठुपोसथो मोसवज्जादिवसेन । यथाह विसाखुपोसथे “सो तेन अभिज्झासहगतेन चेतसा दिवसं अतिनामेती''ति, (अ० नि० १.३.७१) “इति यस्मिं समये सच्चे समादपेतब्बा, मुसावादे तस्मिं समये समादपेती'ति (अ० नि० १.३.७१) च आदि ।
एवं अधिप्पेतत्थानुरूपं निब्बचनं दस्सेत्वा इदानि अत्थुद्धारवसेन निब्बचनानुरूपं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१५०-१५०)
अधिप्पेतत्थं दस्सेतुं “अयं पना"तिआदिमाह । एत्थाति उपोसथसद्दे । समानसद्दवचनीयानं अनेकप्पभेदानं अत्थानमुद्धरणं अत्थुद्धारो समानसद्दवचनीयेसु वा अत्थेसु अधिप्पेतस्सेव अत्थस्स उद्धरणं अत्थुद्धारोतिपि वट्टति । अनेकत्थदस्सनहि अधिप्पेतत्थस्स उद्धरणत्थमेव । ननु च “अत्थमत्तं" पति सद्दा अभिनिविसन्ती''तिआदिना अत्थुद्धारे चोदना, सोधना च हेट्ठा वुत्तायेव । अपिच विसेससद्दस्स अवाचकभावतो पातिमोक्खुद्देसादिविसयोपि उपोसथसद्दो सामञ्जरूपो एव, अथ कस्मा पातिमोक्खुद्देसादिविसेसविसयो वुत्तोति ? सच्चमेतं, अयं पनत्थो तादिसं सद्दसामञ्जमनादियित्वा तत्थ तत्थ सम्भवत्थदस्सनवसेनेव वुत्तोति, एवं सब्बत्थ । सीलदिहिवसेन (सीलसुद्धिवसेन दी० नि० टी० १.१५०) उपेतेहि समग्गेहि वसीयति न उट्ठीयतीति उपोसथो, पातिमोक्खुद्देसो। समादानवसेन, अधिट्ठानवसेन वा उपेच्च अरियवासादिअत्थाय वसितब्बो आवसितब्बोति उपोसथो, सीलं । अनसनादिवसेन उपेच्च वसितब्बो अनुवसितब्बोति उपोसथो, वतसमादानसङ्खातो उपवासो । नवमहत्थिकुलपरियापन्ने हत्थिनागे किञ्चि किरियमनपेक्खित्वा तंकुलसम्भूततामत्तं पति रुळ्हिवसेनेव उपोसथोति समजा, तस्मा तत्थ नामपञत्ति वेदितब्बा । अरयो उपगन्त्वा उसेति दाहेतीति उपोसथो, उससद्दो दाहेतिपि सद्दविदू वदन्ति । दिवसे पन उपोसथ सद्दपवत्ति अट्ठकथायं वुत्तायेव । "सुद्धस्स वे सदाफग्गू"तिआदीसु सुद्धस्साति सब्बसो किलेसमलाभावेन परिसुद्धस्स । वेति निपातमत्तं, ब्यत्तन्ति वा अत्थो । सदाति निच्चकालम्पि । फग्गूति फग्गुणीनक्खत्तमेव युत्तं भवति, निरुत्तिनयेन चेतस्स सिद्धि यस्स हि सुन्दरिकभारद्वाजस्स नाम ब्राह्मणस्स फग्गुणमासे उत्तरफग्गुणीयुत्तदिवसे तित्थन्हानं करोन्तस्स संवच्छरम्पि कतपापपवाहनं होतीति लद्धि । ततो तं विवेचेतुं इदं मज्झिमागमावरे मूलपण्णासके वत्थसुत्ते भगवता वुत्तं । सुद्धस्सुपोसथो सदाति यथावुत्तकिलेसमलसुद्धिया परिसुद्धस्स उपोसथङ्गानि, वतसमादानानि च असमादियतोपि निच्चकालं उपोसथवासी एव भवतीति अत्थो । न भिक्खवे"तिआदीसु “अभिक्खुको आवासो न गन्तब्बो"ति नीहरित्वा सम्बन्धो । उपवसितब्बदिवसोति उपवसनकरणदिवसो, अधिकरणे वा तब्बसद्दो दट्ठब्बो। एवहि अट्ठकथायं वुत्तनिब्बचनेन समेति । अन्तोगधावधारणेन, अञ्जत्थापोहनेन च निवारणं सन्धाय "सेसद्वयनिवारणत्थ"न्ति वुत्तं । “पन्नरसे"ति पदमारब्भ. दिवसवसेन यथावुत्तनिब्बचनं कतन्ति दस्सेन्तो "तेनेव वुत्त"न्तिआदिमाह । पञ्चदसन्नं तिथीनं पूरणवसेन “पन्नरसो''ति हि दिवसो वुत्तो ।
"तानि एत्थ सन्ती"ति एत्तकेयेव वुत्ते नन्वेतानि अञत्थापि सन्तीति चोदना सियाति तं निवारेतुं "तदा किरा"तिआदि वुत्तं । अनेन बहुसो, अतिसयतो वा एत्थ
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( २.२.१५० - १५०)
राजामच्चकथावण्णना
तद्धितविसयो पयुत्तोति दस्सेति । चातुमासी, चातुमासिनीति च पच्चयविसेसेन इत्थिलिङ्गेयेव परियायवचनं । परियोसानभूताति च पूरणभावमेव सन्धाय वदति ताय सहेव चतुमासपरिपुण्णभावतो । इधाति पाळियं । तीहि आकारेहि पूरेतीति पुण्णाति अत्थं दस्सेति “मासपुण्णताया ''तिआदिना । तत्थ तदा कत्तिकमासस्स पुण्णताय मासपुण्णता । पुरिमपुण्णमितो हि पट्ठाय याव अपरा पुण्णमी, ताव एको मासोति तत्थ वोहारो । वस्सानस्स उतुनो पुण्णताय उतुपुण्णता । कत्तिकमासलक्खितस्स संवच्छरस्स पुण्णताय संवच्छरपुण्णता । पुरिमकत्तिकमासतो पभुति याव अपरकत्तिकमासो, ताव एको कत्तिकसंवच्छरोति एवं संवच्छरपुण्णतायाति वृत्तं होति । लोकिकानं मतेन पन मासवसेन संवच्छरसमञ्ञ लक्खिता । तथा च लक्खणं गरुसङ्कन्तिवसेन । वुत्तहि जोतिसत्थे -
"नक्खत्तेन सहोदय- मत्थं याति सूरमन्ति ।
तस्स सङ्कं तत्र वत्तब्बं वस्सं मासकमेनेवा "ति । ।
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मिनीयति दिवसो एतेनाति मा । तस्स हि गतिया दिवसो मिनितब्बो "पाटिपदो दुतिया, ततिया'तिआदिना । एत्थ पुण्णोति एतिस्सा रत्तिया सब्बकलापारिपूरिया पुण्णो । चन्दस्स हि सोळसमो भागो " कला "ति वुच्चति, तदा च चन्दो सब्बासम्पि सोळसन्नं कलानं वसेन परिपुण्णो हुत्वा दिस्सति । एत्थ च " तदहुपोसथे पन्नरसे "ति पदानि दिवसवसेन वुत्तानि, “कोमुदिया "तिआदीनि तदेकदेसरत्तिवसेन ।
कस्मा पन राजा अमच्चपरिवुतो निसिन्नो, न एककोवाति चोदनाय सोधनालेसं दस्सेतुं पाळिपदत्थमेव अवत्वा " एवरूपाया "तिआदीनिपि वदति । एतेहि चायं सोधनालेसो दस्सितो "एवं रुचियमानाय रत्तिया तदा पवत्तत्ता तथा परिवुतो निसिन्नो 'ति । धोवियमानदिसाभागायाति एत्थापि वियसद्दो योजेतब्बो । रजतविमाननिच्छरितेहीति रजतविमानतो निक्खन्तेहि, रजतविमानप्पभाय वा विप्फुरितेहि । “विसरो "ति इदं मुत्तावळि आदीनम्पि विसेसनपदं । अब्भं धूमो रजो राहूति इमे चत्तारो उपक्किलेसा पाळिनयेन (अ० नि० १.४.५० पाचि० ४४७) । राजामच्चेहीति राजकुलसमुदागते ह अमच्चेहि । अथ वा अनुयुत्तकराजूहि चेव अमच्चेहि चाति अत्थो । कञ्चनासनेति सीहासने । “रज्ञ तु हेममासनं, सीहासनमथो वाळबीजनित्थी च चामर "न्ति हि वृत्तं । कस्मा निसिनोति निसीदनमत्ते चोदना । एत न्ति कन्दनं, पबोधनं वा । इतीति इमिना हेतुना । नक्खत्त न्ति कत्तिकानक्खत्तछणं । सम्मा घोसितब्बं एतरहि नक्खत्तन्ति सङ्घङ्कं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
( २.२.१५० - १५० )
पञ्च...
पञ्चवण्णकुसुमेहि लाजेन, पुण्णघटेहि च पटिमण्डितं घरेसु द्वारं यस्स तदेतं नगरं ... पे०... द्वारं । धजो वटो । पटाको पट्टोति सीहळिया वदन्ति । तदा किर पदीपुज्जलनसीसेन कतनक्खत्तं । तथा हि उम्मादन्तिजातकादीसुपि ( जा० २.१८.५७) कत्तिकमासे एवमेव वृत्तं । तेनाह “समुज्जलितदीपमालालङ्कतसब्बदिसाभाग'' न्ति । वीथि नाम रथिका महामग्गो । रच्छा नाम अनिब्बिद्धा खुद्दकमग्गो । तत्थ तत्थ निसिन्नवसेन समानभागेन पाटियेक्कं नक्खत्तकीळं अनुभवमानेन समभिकिण्णन्ति वृत्तं होति । महाअट्ठकथायं एवं वत्वापि तत्थेव इति सन्निट्ठानं कतन्ति अत्थो ।
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उदानं उदाहारोति अत्थतो एकं । मानन्ति मानपत्तं कत्तुभूतं । छड्डुनवसेन अबसेको । सोतवसेन ओहो। पीतिवचनन्ति पीतिसमुट्ठानवचनं कम्मभूतं । ह्रदयन्ति चित्तं कत्तुभूतं । गहेतुन्ति बहि अनिच्छरणवसेन गण्हितुं, हृदयन्तोयेव ठपेतुं न सक्कोतीति अधिप्पायो । तेन वुत्तं " अधिकं हुत्वा "तिआदि । इदं वृत्तं होति - यं वचनं पटिग्गाहक निरपेक्खं केवलं उळाराय पीतिया वसेन सरसतो सहसाव मुखतो निच्छरति, तदेविध "उदान”न्ति अधिप्पतन्ति ।
दोसेहि इता गता अपगताति दोसिना त-कारस्स न-कारं कत्वा यथा “ किलेसे जितो विजितावीति जिनो 'ति आह " दोसापगता "ति । यदिपि सुत्ते वृत्तं " चत्तारोमे भिक्खवे चन्दिमसूरियानं उपक्किलेसा, येहि उपक्किलेसेहि उपक्किलिट्ठा चन्दिमसूरिया न तपन्ति न भासन्ति न विरोचन्ति । कतमे चत्तारो ? अब्भा भिक्खवे... पे०... महिका । धूमो रजो । राहु भिक्खवे चन्दिमसूरियानं उपक्किलेसो 'ति, (चूळव० ४४७) तथापि ततियुपक्किलेसस्स पभेददस्सन वसेन अट्ठकथानयेन दस्सेतुं “पञ्चहि उपक्किलेसेही "ति वृत्तं । अयमथो च रमणीयादिसद्दयोगतो जायतीति आह " तस्मा" तिआदि । अनीय- सद्दोपि बहुला कत्वत्थाभिधायको यथा “निय्यानिका धम्मा'ति (ध० स० दुकमातिका ९६ ) दस्सेति " रमयती 'ति इमिना । जुण्हावसेन रत्तिया सुरूपत्तमाह “वृत्तदोसविमुत्ताया" ति आदिना । अब्भादयो चेत्थ वुत्तदोसा । अयञ्च हेतु "दस्सितुं युत्ता" ति एत्थापि सम्बज्झितब्बो । तेन कारणेन, उतुसम्पत्तिया च पासादिकता दट्ठब्बा । ईदिसाय रत्तिया युत्तो दिवस मासो उतु संवच्छरोति एवं दिवसमासादीनं लक्खणा सल्लक्खणुपाया भवितुं युत्ता, तस्मा लक्खितब्बाति लक्खणिया, सा एव लक्खञ्ञ य-वतो ण-कारस्स ञ-कारादेसवसेन यथा “पोक्खरञो सुमापिता" ति आह " दिवसमासादीन "न्तिआदि ।
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( २.२.१५१ - १५१ )
राजामच्चकथावण्णना
“यं नो पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या" ति वचनतो समणं वा ब्राह्मणं वाति एत्थ परमत्थसमणो, परमत्थब्राह्मणो च अधिप्पेतो, न पन पब्बज्जामत्तसमणो, न च जातिमत्तब्राह्मणोति वृत्तं " समितपापताया "तिआदि । बहति पापे बहि करोतीति ब्राह्मणो निरुत्तिनयेन । बहुवचने वत्तब्बे एकवचनं, एकवचने वा वत्तब्बे बहुवचनं वचनव्यत्तयो वचनविपल्लासोति अत्थो । इध पन " पयिरुपासत "न्ति वत्तब्बे "पयिरुपासतो 'ति वृत्तत्ता बहुवचने वत्तब्बे एकवचनवसेन वचनब्यत्तयो दस्सितो । अत्तनि, गरुट्ठानिये च हि एकस्मिम्पि बहुवचनप्पयोगो निरुळहो । पयिरुपासतोति च वण्णविपरियायनिद्देसो एस यथा “पयिरुदाहासी”ति । अयहि बहुलं दिट्ठपयोगो, यदिदं परिसद्दे य-कारपरे वण्णविपरियायो । तथा हि अक्खरचिन्तका वदन्ति “परियादीनं रयादिवण्णस्स यरादीहि विपरियायो 'ति । यन्ति समणं वा ब्राह्मणं वा । इमिना सब्बेनपि वचनेनाति " रमणीया वता'तिआदिवचनेन । ओभासनिमित्तकम्मन्ति ओभासभूतं निमित्तकम्मं, परिब्यत्तं निमित्तकरणन्ति अत्थो । महापराधतायाति महादोसताय ।
“तेन ही”तिआदि तदत्थविवरणं । देवदत्तो चाति एत्थ च सद्दो समुच्चयवसेन अत्थुपनयने, तेन यथा राजा अजातसत्तु अत्तनो पितु अरियसावकस्स सत्थु उपट्ठाकस्स घातनेन महापराधो, एवं भगवतो महानत्थकरस्स देवदत्तस्स अपस्सयभावेनापीति इममत्थं उपनेति । तस्स पिट्ठिछायायाति वोहारमत्तं, तस्स जीवकस्स पिट्ठिअपस्सयेन, तं पमुखं कत्वा अपस्सायाति वुत्तं होति । विक्खेपपच्छेदनत्थन्ति वक्खमानाय अत्तनो कथाय उप्पज्जनकविक्खेपस्स पच्छिन्दनत्थं, अनुप्पज्जनत्थन्ति अधिप्पायो । तेनाह " तस्सं ही’”तिआदि । असिक्खितानन्ति कायवचीसंयमने विगतसिक्खानं । कुलूपकेति कुलमुपगते सत्थारे । हितासारतायत गहेतब्बगुणसारविगतताय । निब्बिक्खेपन्ति अञ्ञेसमपनयनविरहितं ।
भद्दन्ति अवस्सयसम्पन्नताय सुन्दरं ।
१५१. अयञ्चत्थो इमाय पाळिच्छायाय अधिगतो, इममत्थमेव वा अन्तोगधं कत्वा पाळियमेवं वुत्तन्ति दस्सेति " तेनाहा " ति आदिना । असत्थापि समानो सत्था पटिञ्ञातो येनाति सत्थुपटिञ्ञातो, तस्स अबुद्धस्सापि समानस्स बुद्धपञितस्स " अहमेको लोके अत्थधम्मानुसासको "ति आचरियपटिञातभावं वा सन्धाय एवं वृत्तं । " सो किरा" तिआदिना अनुसुतिमत्तं पति पोराणट्ठकथानयोव किरसन वृत्तो । एस नयो परतो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१५१-१५१)
मक्खलिपदनिब्बचनेपि। एकूनदाससतं पूरयमानोति एकेनूनदाससतं अत्तना सद्धिं अनूनदाससतं कत्वा पूरयमानो । एवं जायमानो चेस मङ्गलदासो जातो। जातरूपेनेवाति मातुकुच्छितो विजातवेसेनेव, यथा वा सत्ता अनिवत्था अपारुता जायन्ति, तथा जातरूपेनेव । उपसङ्कमन्तीति उपगता भजन्ता होन्ति । तदेव पब्बज्जं अग्गहेसीति तदेव नग्गरूपं “अयमेव पब्बज्जा नाम सिया''ति पब्बज्जं कत्वा अग्गहेसि । पबजिंसूति तं पब्बजितमनुपब्बजिंसु ।
"पब्बजितसमूहसङ्घातो"ति एतेन पब्बजितसमूहतामत्तेन सङ्घो, न निय्यानिकदिट्ठिविसुद्धसीलसामञवसेन संहतत्ताति दस्सेति । अस्स अत्थीति अस्स सत्थुपटिञातस्स परिवारभावेन अस्थि । “सङ्घी गणी"ति चेदं परियायवचनं, सङ्केतमत्ततो नानन्ति आह "स्वेवा"तिआदि। स्वेवाति च पब्बजितसमूहसङ्घातो एव । केचि पन "पब्बजितसमूहवसेन सङ्गी, गहट्ठसमूहवसेन गणी"ति वदन्ति, तं तेसं मतिमत्तं गणे एव लोके सङ्घ-सद्दस्स निरुळहत्ता। अचेलकवतचरियादि अत्तना परिकप्पितमत्तं आचारो। पञातो पाकटो सङ्घीआदिभावेन। अप्पिच्छो सन्तुट्ठोति अत्थतो एकं । तत्थ लब्भमानाप्पिच्छतं दस्सेतुं “अप्पिच्छताय वत्थम्पि न निवासेती"ति वुत्तं । न हि तस्मिं सासनिके विय सन्तगुणनिग्गूहणलक्खणा अप्पिच्छता लब्भति । यसोति कित्तिसद्दो । तरन्ति एतेन संसारोघन्ति एवं सम्मतताय लद्धि तित्थं नाम “साधू"ति सम्मतो, न च साधूहि सम्मतोति अस्थमाह "अय"न्तिआदिना । न हि तस्स साधूहि सम्मतता लब्भति । सुन्दरो सप्पुरिसोति द्विधा अत्थो । अस्सुतवतोति अस्सुतारियधम्मस्स, कत्तुत्थे चेतं सामिवचनं । "इमानि मे वतसमादानानि एत्तकं कालं सुचिण्णानीति बहू रत्तियो जानाति । ता पनस्स रत्तियो चिरकालभूताति कत्वा "चिरं पब्बजितस्सा"तिआदि वुत्तं, अन्तत्थअञपदत्थसमासो चेस यथा “मासजातो''ति । अथ तस्स पदद्वयस्स को विसेसोति चे? चिरपब्बजितग्गहणेनस्स बुद्धिसीलता, रत्तस्रगहणेन तत्थ सम्पजानता दस्सिता, अयमेतस्स विसेसोति । किं पन अत्थं सन्धाय सो अमच्चो आहाति वुत्तं “अचिरपब्बजितस्सा"तिआदि । ओकप्पनीयाति सद्दहनीया। अद्धानन्ति दीघकालं। कित्तको पन सोति आह "द्वे तयो राजपरिवट्टे"ति, द्विन्नं, तिण्णं वा राजूनं रज्जानुसासनपटिपाटियोति अत्थो। “अद्धगतो''ति वत्वापि पुन कतं वयग्गहणं
ओसानवयापेक्खं पदद्वयस्स अत्थविसेससम्भवतोति दस्सेति "पच्छिमवय"न्ति इमिना । उभयन्ति “अद्धगतो. वयोअनप्पत्तो''ति पदद्वयं ।
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( २.२.१५२ - १५६)
राजामच्चकथावण्णना
काजरो नाम एको रुक्खविसेसो, यो " पण्णकरुक्खो " तिपि वुच्चति । दिस्वा विय अनत्तमनोति सम्बन्धो । पुब्बे पितरा सद्धिं सत्थु सन्तिकं गन्त्वा देसनाय सुतपुब्बतं सन्धायाह “झाना... पे०... कामो 'ति । तिलक्खणन्भाहतन्ति तीहि लक्खणेहि अभिघटितं । दस्सनेनाति निदस्सनमत्तं । सो हि दिस्वा तेन सद्धिं अल्लापसल्लापं कत्वा, अकिरियवादं सुत्वा च अनत्तमनो अहोसि । गुणकथायाति अभूतगुणकथाय । तेनाह " सुठुतरं अनत्तमनो" ति । यदि अनत्तमनो, कस्मा तुम्ही अहोसीति चोदनं विसोधेति " अनत्तमनो समानोपी "तिआदिना ।
ततो
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१५२. गोसालायाति एवंनामके गामेति वृत्तं । वस्सानकाले गुन्नं पतिट्ठितसालायाति पन अत्थे तब्बसेन तस्स नामं सातिसयमुपपन्नं होति बहुलमनञ्ञसाधारणत्ता, तथापि सो पोराणेहि अननुस्सुतोति एकच्चवादो नाम कतो । " मा खलीति सामिको आहा ''ति इमिना तथावचनमुपादाय तस्स आख्यातपदेन समञ्ञति दस्सेति । सञ्ञाय हि वत्तुमिच्छाय आख्यातपदम्पि नामिकं भवति यथा "अञ्ञासिकोण्डञ्ञो” ति ( महाव० १७ ) । सेसन्ति " सो पण्णेन वा "तिआदिवचनं ।
१५३. दासादीसु सिरिवड्ढकादिनाममिव अजितोति तस्स नाममत्तं । केसेहि वायितो कम्बलो यस्सातिपि युज्जति । पटिकिट्टतरन्ति निहीनतरं । “यथाहा'ति आदिना अङ्गुत्तरागमे तिकनिपाते मक्खलिसुत्त (अ० नि० १.३.१३८) माहरि । तन्तावुतानीति तन्ते वीतानि । " सीते सीतो " ति आदिना छहाकारेहि तस्स पटिकिट्ठतरं दस्सेति ।
१५४. पकुज्झति सम्मादिट्ठिकेसु ब्यापज्जतीति पकुधो । वच्चं कत्वापीति एत्थ पि सद्देन भोजनं भुञ्जित्वापि केनचि असुचिना मक्खित्वापीति इममत्थं सम्पिण्डेति । वालिकाथूपं कत्वाति वतसमादानसीसेन वालिकासञ्चयं कत्वा, तथारूपे अनुपगमनीयट्ठाने पुन वतं समादाय गच्छतीति वुत्तं होति ।
१५६. “गण्ठनकिलेसो " ति एतस्स "पलिबुन्धनकिलेसो ति अत्थवचनं, संसारे परिबुन्धनकिच्चो खेत्तवत्थुपुत्तदारादिविसयो रागादिकिलेसोति अत्थो । “ एवंवादिताया’'ति इमिना लद्धिवसेनस्स नामं, न पनत्थतोति दस्सेति । याव हि सो मग्गेन समुग्घाटितो, ताव अत्थियेव । अयं पन वचनत्थो - "नत्थि मय्हं गण्ठो "ति गण्हातीति निगण्ठोति । नाटस्साति एवंनामकस्स ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१५७-१५७)
कोमारभच्चजीवककथावण्णना
१५७. सब्बथा तुण्हीभूतभावं सन्धाय "एस नाग...पे०... विया"ति वुत्तं । सुपण्णोति गरुळो, गरुडो वा सक्कटमतेन । "ड-ळान'मविसेसो''ति हि तत्थ वदन्ति । यथाधिप्पायं न वत्ततीति कत्वा “अनत्थो वत मे"ति वुत्तं । उपसन्तस्साति सब्बथा सञ्जमेन उपसमं गतस्स । जीवकस्स तुण्हीभावो मम अधिप्पायस्स मद्दनसदिसो, तस्मा तदेव तुण्हीभावं पुच्छित्वा कथापनेन मम अधिप्पायो सम्पादेतब्बोति अयमेत्थ रो अधिप्पायोति दस्सेन्तो "हथिम्हि खो पना"तिआदिमाह । किन्ति कारणपुच्छायं निपातोति दस्सेति "केन कारणेना"ति इमिना, येन तुवं तुण्ही, किं तं कारणन्ति वा अत्थं दस्सेति । तत्थ यथासम्भवं कारणं उद्धरित्वा अधिप्पायं दस्सेतुं “इमेस"न्तिआदि वुत्तं । यथा एतेसन्ति एतेसं कुलूपको अत्थि यथा, इमेसं नु खो तिण्णं कारणानं अञ्जतरेन कारणेन तुण्ही भवसीति पुच्छतीति अधिप्पायो ।
कथापेतीति कथापेतुकामो होति । पञ्चपतिहितेनाति एत्थ पञ्चहि अङ्गेहि अभिमुखं ठितेनाति अत्थो, पादजाणु कप्पर हत्थ सीससङ्घातानि पञ्च अङ्गानि समं कत्वा
ओनामेत्वा अभिमुखं ठितेन पठमं वन्दित्वाति वुत्तं होति । यम्पि वदन्ति "नवकतरेनुपालि भिक्खुना वुड्डतरस्स भिक्खुनो पादे वन्दन्तेन इमे पञ्च धम्मे अज्झत्तं उपट्ठापेत्वा पादा वन्दितब्बा'तिआदिकं (परि० ४६९) विनयपाळिमाहरित्वा एकंसकरणअञ्जलिपग्गहणपादसम्बाहनपेमगारवुपट्ठापनवसेन पञ्चपतिट्ठितवन्दना'ति, तमेत्थानधिप्पेतं दूरतो वन्दने यथावुत्तपञ्चङ्गस्स अपरिपुण्णत्ता । वन्दना चेत्थ पणमना अञ्जलिपग्गहणकरपुटसमायोगो । “पञ्चपतिहितेन वन्दित्वा"ति च कायपणामो वृत्तो, "मम सत्थुनो"तिआदिना पन वचीपणामो, तदुभयपुरेचरानुचरवसेन मनोपणामोति । कामं सब्बापि तथागतस्स पटिपत्ति अनञसाधारणा अच्छरियब्भुतरूपाव, तथापि गब्भोक्कन्ति अभिजाति अभिनिक्खमन अभिसम्बोधि धम्मचक्कप्पवत्तन (सं० नि० ३.५.१०८१; पटि० म० ३.३०) यमकपाटिहारियदेवोरोहनानि सदेवके लोके अतिविय सुपाकटानि, न सक्का केनचि पटिबाहितुन्ति तानियेवेत्थ उद्धटानि ।
इत्थं इमं पकारं भूतो पत्तोति इत्थम्भूतो, तस्स आख्यानं इत्थम्भूताख्यानं, सोयेवत्थो इत्थम्भूताख्यानत्थो। अथ वा इत्थं एवंपकारो भूतो जातोति इत्थम्भूतो, तादिसोति आख्यानं इत्थम्भूताख्यानं, तदेवत्थो इत्थम्भूताख्यानत्थो, तस्मिं उपयोगवचनन्ति अत्थो । अब्भुग्गतोति
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(२.२.१५७-१५७)
कोमारभच्चजीवककथावण्णना
एत्थ हि अभिसद्दो पधानवसेन इत्थम्भूताख्यानत्थजोतको कम्मप्पवचनीयो अभिभवित्वा उग्गमनकिरियापकारस्स दीपनतो, तेन पयोगतो "तं खो पन भगवन्त"न्ति इदं उपयोगवचनं सामिअत्थे समानम्पि अप्पधानवसेन इत्थम्भूताख्यानत्थदीपनतो "इत्थम्भूताख्यानत्थे"ति वुत्तं । तेनेवाह "तस्स खो पन भगवतोति अत्थो"ति । ननु च “साधु देवदत्तो मातरमभी"ति एत्थ विय "तं खो पन भगवन्त"न्ति एत्थ अभिसद्दो अप्पयुत्तो, कथमेत्थ तंपयोगतो उपयोगवचनं सियाति ? अत्थतो पयुत्तत्ता। अत्थसद्दपयोगेसु हि अत्थपयोगोयेव पधानोति । इदं वुत्तं होति- यथा “साधु देवदत्तो मातरमभी"ति एत्थ अभिसद्दपयोगतो इत्थम्भूताख्याने उपयोगवचनं कतं, एवमिधापि “तं खो पन भगवन्तं अभि एवं कल्याणो कित्तिसद्दो उग्गतो''ति अभिसद्दपयोगतो इत्थम्भूताख्याने उपयोगवचनं कतन्ति । यथा हि “साधु देवदत्तो मातरमभीति एत्थ "देवदत्तो मातरमभि मातुविसये, मातुया वा साधू''ति एवं अधिकरणत्थे, सामिअत्थे वा भुम्मवचनस्स, सामिवचनस्स वा पसङ्गे इत्थम्भूताख्यानजोतकेन कम्मप्पवचनीयेन अभिसद्देन पयोगतो उपयोगवचनं कतं, एवमिधापि सामिअत्थे सामिवचनप्पसङ्गे यथा च तत्थ “देवदत्तो मातुविसये, मातु सम्बन्धी वा साधुत्तप्पकारप्पत्तो''ति अयमत्थो विज्ञायति, एवमिधापि “भगवतो सम्बन्धी कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो अभिभवित्वा उग्गमनप्पकारप्पत्तो''ति अयमत्थो विज्ञायति । तत्थ हि देवदत्तग्गहणं विय इध कित्तिसद्दग्गहणं, "मातर"न्ति वचनं विय "भगवन्त"न्ति वचनं, साधुसद्दो विय उग्गतसद्दो वेदितब्बो ।
कल्याणोति भद्दको। कल्याणभावो चस्स कल्याणगुणविसयतायाति आह "कल्याणगुणसमन्त्रागतो"ति, कल्याणेहि गुणेहि समन्नागतो तब्बिसयताय युत्तोति अत्थो । तं विसयता हेत्थ समन्नागमो, कल्याणगुणविसयताय तन्निस्सितोति अधिप्पायो। सेट्ठोति परियायवचनेपि एसेव नयो । सेट्ठगुणविसयता एव हि कित्तिसद्दस्स सेट्टता "भगवाति वचनं सेटुं, भगवाति वचनमुत्तम"न्तिआदीसु (विसुद्धि० १.१४२; पारा० : अट्ठ० १.वेरञ्जकण्डवण्णना; उदा० अट्ठ० १; इतिवु० अट्ठ० निदानवण्णना; महानि० अट्ठ० ४९) विय। “अरहं सम्मासम्बुद्धो''तिआदिना गुणानं संकित्तनतो, सद्दनीयतो च वण्णोयेव कित्तिसद्दो नामाति आह "कित्तियेवा"ति । वण्णो एव हि कित्तेतब्बतो कित्ति, सद्दनीयतो सदोति च वुच्चति । कित्तिपरियायो हि सद्दसद्दो यथा “उळारसद्दा इसयो, गुणवन्तो तपस्सिनो''ति । कित्तिवसेन पवत्तो सद्दो कित्तिसद्दोति भिन्नाधिकरणतं दस्सेति "थुतिघोसो"ति इमिना । कित्तिसद्दो हेत्थ थुतिपरियायो कित्तनमभित्थवनं कित्तीति । थुतिवसेन पवत्तो घोसो थुतिघोसो, अभित्थवुदाहारोति अत्थो । अभिसद्दो अभिभवने,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
अभिभवनञ्चेत्थ अज्झोत्थरणमेवाति वृत्तं " अज्झोत्थरित्वाति, अनञ्ञसाधारणे गुणे आरम्भ पवत्तत्ता अभिब्यापेत्वाति अत्थो । किन्ति - सद्दो अब्भुग्गतोति चोदनाय “इतिपि सो भगवा 'तिआदिमाहाति अनुसन्धिं दस्सेतुं " किन्ती "ति वृत्तं ।
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पदानं सम्बज्झनं पदसम्बन्धो । सो भगवाति यो सो समतिंस पारमियो पूरेत्वा सब्बकिलेसे भञ्जित्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धी देवानमतिदेवो सक्कानमतिसक्को ब्रह्मानमतिब्रह्मा लोकनाथो भाग्यवन्ततादीहि कारणेहि सदेवके लोके 'भगवा' ति पत्थटकित्तिसद्दो, सो भगवा । यं तं सद्दा हि निच्चसम्बन्धा । " भगवा "ति च इदमादिपदं सत्थु नामकित्तनं । तेनाह आयस्मा धम्मसेनापति “भगवाति नेतं नामं मातरा कतं, न पितरा कत"न्तिआदि (महानि० ६; चूळनि० २ ) । परतो पन "भगवा "ति पदं गुणकित्तनं । यथा कम्मट्ठानिकेन' 'अरह "न्तिआदीसु नवसु ठानेसु पच्चेकं इतिपिसद्दं योजेत्वा बुद्धगुणा अनुस्तरीयन्ति, एवमिध बुद्धगुणसंकित्तकेनापीति दस्सेन्तो “इतिपि अरहं... पे०... इतिपि भगवा "ति आह । एवञ्हि सति' अरह "न्तिआदीहि नवहि पदेहि ये सदेवके लोके अतिविय पाकटा पञ्ञाता बुद्धगुणा, ते नानप्पकारतो विभाविता होन्ति " इतिपी "ति पदद्वयेन तेसं नानप्पकारतादीपनतो । “इतिपेतं भूतं, इतिपेतं तच्छन्तिआदीसु ( दी० नि० १.६) विय हि इति - सद्दो इध आसन्नपच्चक्खकरणत्थो, पि- सद्दी सपिण्डनत्थो, तेन च नेसं नानप्पकारभावो दीपितो, तानि च गुणसल्लक्खणकारणानि सद्धासम्पन्नानं विञ्जातिकानं पच्चक्खानि होन्ति, तस्मा तानि संकित्तेन्तेन विना चित्तस्स सम्मुखीभूतानेव कत्वा संकित्तेतब्बानीति दस्सेन्तो “इमिना च इमिना च कारणेनाति वृत्तं होती "ति आह । एवहि निरूपेत्वा कित्तेन्ते यस्स संकित्तेति, तस्स भगवति अतिविय पसादो होति ।
आरकत्ताति किलेसेहि सुविदूरत्ता । अरीनन्ति किलेसारीनं । अरानन्ति संसारचक्कस्स अरानं । हतत्ताति विद्धंसितत्ता । पच्चयादीनन्ति चीवरादिपच्चयानञ्चेव पूजा विसेसानञ्च । रहाभावाति चक्खुरहादीनमभावतो । रहोपापकरणाभावो हि पदमनतिक्कम्म रहाभावोति वुत्तं। एवम्पि हि यथाधिप्पेतमत्थो लब्भतीति । ततोति विसुद्धिमग्गतो (विसुद्धि० १.१२३) । यथा च विसुद्धिमग्गतो, एवं तंसंवण्णनाय परमत्थमञ्जूसायं (विसुद्धि० टी० १. १२४) नेसं वित्थारो गहेतब्बो ।
यस्मा जीवको बहुसो सत्थु सन्तिके बुद्धगुणे सुत्वा ठितो, दिट्ठसच्चताय च
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(२.२.१५८-१५८)
कोमारभच्चजीवककथावण्णना
सत्थुसासने विगतकथंकथो, सत्थुगुणकथने च वेसारज्जप्पत्तो, तस्मा सो एवं वित्थारतो एव आहाति वुत्तं "जीवको पना"तिआदि। "एत्थ चा"तिआदिना सामत्थियत्थमाह | थामो देसनाञाणमेव, बलं पन दसबलञाणं । विस्सत्थन्ति भावनपुंसकपदं, अनासङ्कन्ति अत्थो ।
पञ्चवण्णायाति खुद्दिकादिवसेन पञ्चपकाराय। निरन्तरं फुटं अहोसि कताधिकारभावतो । कम्मन्तरायवसेन हिस्स रञो गुणसरीरं खतूपहतं होति । कस्मा पनेस जीवकमेव गमनसज्जाय आणापेतीति आह "इमाया"तिआदि ।
१५८. "उत्तम"न्ति वत्वा न केवलं उत्तमभावोयेवेत्थ कारणं, अथ खो अप्पसद्दतापीति दस्सेतुं "अस्सयानरथयानानी"तिआदि वुत्तं । हत्थियानेसु च निब्बिसेवनमेव गण्हन्तो हत्थिनियोपि कप्पापेसि । पदानुपदन्ति पदमनुगतं पदं पुरतो गच्छन्तस्स हत्थियानस्स पदे तेसं पदं कत्वा, पदसद्दो चेत्थ पदवळजे । निब्बुतस्साति सब्बकिलेसदरथवूपसमस्स । निब्बुतेहेवाति अप्पसद्दताय सद्दसङ्घोभनवूपसमेहेव ।
करेणूति हस्थिनिपरियायवचनं । कणति सदं करोतीति हि करेणु, करोव यस्सा, न दीघो दन्तोति वा करेणु, "करेणुका"तिपि पाठो, निरुत्तिनयेन पदसिद्धि । आरोहनसज्जनं कुथादीनं बन्धनमेव । ओपवरहन्ति राजानमुपवहितुं समत्थं । "ओपगुय्ह"न्तिपि पठन्ति, राजानमुपगृहितुं गोपितुं समत्थन्ति अत्थो । “एवं किरस्सा"तिआदि पण्डितभावविभावनं । कथा वत्ततीति लद्धोकासभावेन धम्मकथा पवत्तति । “रञ्जो आसङ्कानिवत्तनत्थं आसन्नचारीभावेन हत्थिनीसु इथियो निसज्जापिता"ति (दी० नि० टी० १.१५८) आचरियधम्मपालत्थेरेन वुत्तं । अट्ठकथायं पन “इत्थियो निस्साय पुरिसानं भयं नाम नत्थि, सुखं इस्थिपरिवुतो गमिस्सामी"ति तत्थ कारणं वुत्तमेव । इमिनापि कारणेन भवितब्बन्ति पन आचरियेन एवं वुत्तं सिया । रञो परेसं दूरुपसङ्कमनभावदस्सनत्थं ता पुरिसवेसं गाहापेवा आवुधहत्था कारिता । हत्थिनिकासतानीति एत्थ हस्थिनियो एव हत्थिनिका । “पञ्च हत्थिनिया सतानी'"तिपि कत्थचि पाठो, सो अयुत्तोव “पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेही"तिआदीसु (पारा० १) विय ईदिसेसु पच्छिमपदस्स समासस्सेव दस्सनतो । कस्सचिदेवाति सन्निपतिते महाजने यस्स कस्सचि एव, तद सम्पि आयतिं मग्गफलानमुपनिस्सयोति आह “सा महाजनस्स उपकाराय भविस्सती"ति ।
पटिवेदेसीति ज्ञापेसि। उपचारवचनन्ति वोहारवचनमत्तं तेनेव अधिप्पेतत्थस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१५९-१५९)
अपरियोसानतो। तेनाह "तदेव अत्तनो रुचिया करोही"ति। इमिनायेव हि तदत्थपरियोसानं । मञसीति पकतियाव जानासि । तदेवाति गमनागमनमेव । यदि गन्तुकामो, गच्छ, अथ न गन्तुकामो, मा गच्छ, अत्तनो रुचियेवेत्थ पमाणन्ति वुत्तं होति ।
१५९. पाटिएक्कायेव सन्धिवसेन पच्चेका। “महञ्च"न्ति पदे करणत्थे पच्चत्तवचनन्ति आह "महता"ति । महन्तस्स भावो महञ्चं। न केवलं निग्गहीतन्तवसेनेव पाठो, अथ खो आकारन्तवसेनापीति आह "महच्चातिपि पाळी"ति । यथा “खत्तिया''ति वत्तब्बे “खत्या"ति, एवं “महतिया''ति वत्तब्बे महत्या । पुन च-कारं कत्वा महच्चाति सन्धिवसेन पदसिद्धि। पुल्लिङ्गवसेन वत्तब्बे इथिलिङ्गवसेन विपल्लासो लिङ्गविपरियायो। विसेसनहि भिय्यो विसेस्यलिङ्गादिगाहकं । तियोजनसतानन्ति पच्चेकं तियोजनसतपरिमण्डलानं । द्विन्नं महारट्ठानं इस्सरियसिरीति अङ्गमगधरट्ठानमाधिपच्चमाह । तदत्थं विवरति "तस्सा"तिआदिना । पटिमुक्कवेठनानीति आबन्धसिरोवेठनानि । आसत्तखग्गानीति अंसे ओलम्बनवसेन सन्नद्धासीनि | मणिदण्डतोमरेति मणिदण्डङ्कुसे ।
"अपरापी"तिआदिना पदसा परिवारा वुत्ता। खुज्जवामनका वेसवसेन, किरातसवरअन्धकादयो जातिवसेन तासं परिचारकिनियो दस्सिता। विस्सासिकपुरिसाति वस्सवरे सन्धायाह । कुलभोगइस्सरियादिवसेन महती मत्ता पमाणमेतेसन्ति महामत्ता, महानुभावा राजामच्चा। विज्जाधरतरुणा वियाति मन्तानुभावेन विज्जामयिद्धिसम्पन्ना विज्जाधरकुमारका विय । रट्ठियपुत्ताति भोजपुत्ता । रट्टे परिचरन्तीति हि लुद्दका रट्ठिया, तेसं नानावुधपरिचयताय राजभटभूता पुत्ताति अत्थो, अन्तररट्ठभोजकानं वा पुत्ता रट्ठियपुत्ता, खत्तिया भोजराजानो । “अनुयुत्ता भवन्तु ते''तिआदीसु विय हि टीकायं (दी० नि० टी० १.१५९) वुत्तो भोजसद्दो भोजकवाचकोति दट्टब्बं । उस्सापेत्वाति उद्धं पसारेत्वा । जयसद्दन्ति "जयतु महाराजा''तिआदिजयपटिबद्धं सदं । धनुपन्तिपरिक्खेपोति धनुपन्तिपरिवारो। सब्बत्थ तंगाहकवसेन वेदितब्बो । हत्थिघटाति हथिसमूहा । पहरमानाति फुसमाना। अञमञसट्टनाति अविच्छेदगमनेन अञमञ्जसम्बन्धा। सेणियोति गन्धिकसेणीदुस्सिकसेणीआदयो “अनपलोकेत्वा राजानं वा सङ्घ वा गणं वा पूगं वा सेणिं वा अञत्र कप्पा वुढापेय्या"तिआदीसु (पाचि० ६८२) विय | "अट्ठारस अक्खोभिणी सेनियोति कत्थचि लिखन्ति, सो अनेकेसुपि पोत्थकेसु न दिट्ठो। अनेकसङ्ख्या च सेना
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(२.२.१५९-१५९)
कोमारभच्चजीवककथावण्णना
हेट्ठा गणिताति अयुत्तोयेव । तदा सब्बावुधतो सरोव दूरगामीति कत्वा सरपतनातिक्कमप्पमाणेन रो परिसं संविदहति । किमत्थन्ति आह "सचे"तिआदि ।
सयं भायनटेन चित्तुत्रासो भयं यथा तथा भायतीति कत्वा । भायितब्बे एव वत्थुस्मिं भयतो उपट्टिते “भायितब्बमिदन्ति भायितब्बाकारेन तीरणतो आणं भयं भयतो तीरेतीति कत्वा । तेनेवाह विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.७५१) "भयतुपट्ठानजाणं पन भायति, न भायतीति ? न भायति । तहि 'अतीता सङ्घारा निरुद्धा, पच्चुप्पन्ना निरुज्झन्ति, अनागता निरुज्झिस्सन्ती'ति तीरणमत्तमेव होती"ति । भायनट्ठानद्वेन आरम्मणं भयं भायति एतस्माति कत्वा । भायनहेतुठून ओत्तप्पं भयं पापतो भायति एतेनाति कत्वा | भयानकन्ति भायनाकारो। तेपीति दीघायुका देवापि। धम्मदेसनन्ति पञ्चसु खन्धेसु पन्नरसलक्खणपटिमण्डितं धम्मदेसनं । येभुय्येनाति ठपेत्वा खीणासवदेवे तदक्षेसं वसेन बाहुल्लतो। खीणासवत्ता हि तेसं चित्तुत्रासभयम्पि न उप्पज्जति। कामं सीहोपमसुत्तट्ठकथायं (अ० नि० अट्ठ० २.४.३३) चित्तुत्रासभयम्पि तदत्थभावेन वुत्तं, इध पन पकरणानुरूपतो जाणभयमेव गहितं । संवेगन्ति सहोत्तप्पत्राणं । सन्तासन्ति सब्बसो उब्बिज्जनं । भायितब्बढेन भयमेव भीमभावेन भेरवन्ति भयभेरवं, भीतब्बवत्थु । तेनाह “आगच्छती"ति, एतं नरं तं भयभेरवं आगच्छति नूनाति अत्थो ।
भीरुं पसंसन्तीति पापतो भायनतो उत्रासनतो भीरुं पसंसन्ति पण्डिता । न हि तत्थ सूरन्ति तस्मिं पापकरणे सूरं पगब्भधंसिनं न हि पसंसन्ति । तेनाह "भया हि सन्तो न करोन्ति पाप"न्ति । तत्थ भयाति पापुत्रासतो, ओत्तप्पहेतूति अत्थो ।
छम्भितस्साति थम्भितस्स, थ-कारस्स छ-कारादेसो। तदत्थमाह "सकलसरीरचलन"न्ति, भयवसेन सकलकायपकम्पनन्ति अत्थो । उय्योधनं सम्पहारो।
एकेति उत्तरविहारवासिनो। "राजगहे"तिआदि तेसमधिप्पायविवरणं । एकेकस्मिं महाद्वारे द्वे द्वे कत्वा चतुसढि खुद्दकद्वारानि। "तदा"तिआदिना अकारणभावे हेतुं दस्सेति ।
इदानि सकवादं दस्सेतुं “अयं पना"तिआदि वुत्तं । “जीवको किरा"तिआदि आसङ्कनाकारदस्सनं । अस्साति अजातसत्तुरो। उक्कण्ठितोति अनभिरतो। छत्तं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
उस्सापेतुकामो मञ्ञति सम्बन्धो । भायित्वाति भायनहेतु । तस्साति जीवकस्स । सम्मसद्दो समानत्थो, समानभावो च वयेनाति आह " वयस्साभिलापो 'ति । वयेन समानो वयस्सो यथा “एकराजा हरिस्सवण्णो" ति ( जा० १.२.१७) । समानसद्दस्स हि सादेसमिच्छन्ति सद्दविदू, तेन अभिलापो आलपनं तथा, रुळ्हीनिद्देसो एस, “मारिसा "ति आलपनमिव । यथा हि मारिसाति निद्दुक्खताभिलापो सदुक्खेपि नेरयिके वुच्चति " यदा खो ते मारिस सङ्कुना सङ्क हदये समागच्छेय्या 'तिआदीसु, (म० नि० १.५१२) एवं यो कोचि सहायो असमानवयोपि ‘“सम्मा’" ति वुच्चतीति, तस्मा सहायाभिलापो इच्चेव अत्थो । कच्चि न वञ्चेसीति पाळिया सम्बन्धी । “न पलम्भेसी "ति वुत्तेपि इध परिकप्पत्थोव सम्भवतीति वुत्तं " न विप्पलम्भेय्यासी "ति, न पलोभेय्यासीति अत्थो । कथाय सल्लापो, सो एव निग्घोसो
तथा ।
( २.२.१६० - १६०)
विनस्य्याति चित्तविघातेन विहञ्ञेय्य । " न तं देवा "तिआदिवचनं सन्धाय “दळ्हं कत्वा" ति वृत्तं । तुरितवसेनिदमामेडितन्ति दस्सेति "तरमानोवा "ति इमिना । “अभिक्कम महाराजा' 'ति वत्वा तत्थ कारणं दस्सेतुं " एते 'तिआदि वृत्तन्ति ससम्बन्धमत्थं दस्सेन्तो " महाराज चोरबलं नामा "तिआदिमाह ।
सामञ्ञफलपुच्छावण्णना
१६०. अयं बहिद्वारकोट्टकोकासो नागस्स भूमि नाम । तेनाह “ विहारस्सा "तिआदि । भगवतो तेजोति बुद्धानुभावो । रज्ञो सरीरं फरि यथा तं सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स भगवतो सन्तिकं आगच्छन्तस्स अन्तोवनसण्डगतस्स । " अत्तनो अपराधं सरित्वा महाभयं उप्पज्जी" ति इदं सेदमुञ्चनस्स कारणदस्सनं । न हि बुद्धानुभावतो सेदमुञ्चनं सम्भवति कायचित्तपस्सद्धिहेतुभावतो ।
एकेति उत्तरविहारवासिनोयेव । तदयुत्तमेवाति दस्सेति “इमिना "ति आदिना । अभिमारेति धनुग्गहे । धनपालन्ति नाळागिरिं । सो हि तदा नागरेहि पूजितधनरासिनो लब्भनतो “धनपालो ”ति वोहरीयति । न केवलं दिट्ठपुब्बतोयेव, अथ खो पकतियापि भगवा सञ्ञातोति दस्सेतुं “भगवा ही "तिआदिमाह । आकिण्णवरलक्खणोति बत्तिंस महापुरिसलक्खणे सन्धायाह । अनुब्यञ्जनपटिमण्डितोति असीतानुब्यञ्जने (जिनालङ्कारटीकाय विजातमङ्गलवण्णनायं वित्थारो ) । छब्बण्णाहि रस्मीहीति तदा वत्तमाना रस्मियो ।
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( २.२.१६१ - १६१)
सामञ्ञफलपुच्छावण्णना
इस्सरियलीळायाति इस्सरियविलासेन । ननु च भगवतो सन्तिके इस्सरियलीलाय पुच्छा अगारवोयेव सियाति चोदनाय " पकति हेसा' "तिआदिमाह, पकतिया पुच्छनतो न अगारवोति अधिप्पायो | परिवारेत्वा निसिन्नेन भिक्खुसङ्घन पुरे कतेपि अत्थतो तस्स पुरतो निसिनो नाम । तेनाह “परिवारेत्वा"तिआदि ।
१६१. येन, तेनाति च भुम्मत्थे करणवचनन्ति दस्सेति “यत्थ, तत्था" ति इमिना । येन मण्डलस्स द्वारं, तेनूपसङ्कमीति सम्पत्तभावस्स वृत्तत्ता इध उपगमनमेव यत्तन्ति आह “उपगतो 'ति । अनुच्छविके एकस्मिं पदेसेति यत्थ विञ्ञजातिका अट्टंसु, तस्मिं । को पनेस अनुच्छविकपदेसो नाम ? अतिदूरतादिछनिसज्जदोसविरहितो पदेसो, नपच्छतादिअट्ठनिसज्जदोसविरहितो वा । यथाहु अट्ठकथाचरिया -
२३
" न पच्छतो न पुरतो, नापि आसन्नदूरतो ।
न कच्छे नो पटिवाते, न चापि ओनतुन्नते ।
इमे दोसे विस्सज्जेत्वा, एकमन्तं ठिता अहू 'ति । । ( खु० पा० अट्ठ० एवमिच्चादिपाठवण्णना; सु० नि० अट्ठ० २.२६१)
तदा भिक्खुसङ्घे तुम्हीभावस्स अनवसेसतो ब्यापितभावं दस्सेतुं “तुम्हीभूतं तुम्हीभूत "न्ति विच्छावचनं वुत्तन्ति आह “यतो... पे०... मेवा 'ति, यतो यतो भिक्खुतोति अत्थो । हत्थेन, हत्थस्स वा कुकतभावो हत्थकुक्कुच्चं, असञ्ञमो, असम्पञ्जञकिरिया च । तथा पादकुक्कुच्चन्ति एत्थापि । बा - सद्दो अवुत्तविकप्पने, तेन तदञपि चक्खुसोतादिसञ्ञमो नत्थीति विभावितो । तत्थ पन चक्खुअसंयमी सब्बपठमो दुन्निवारितो चाति तदभावं दस्सेतुं "सब्बालङ्कारपटिमण्डित 'न्तिआदि वृत्तं ।
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विप्पसन्नरहदमिवाति अनाविलोदकसरमिव । येनेतरहि... पे०... इमिना मे... पे०... होतूति सम्बन्धो । अञ्ञो हि अत्थक्कमो, अञ्ञो सद्दक्कमोति आह " येना "तिआदि । तत्थ कायिक-वाचसिकेन उपसमेन लद्धेन मानसिकोपि उपसमो अनुमानतो लद्धो एवाति कत्वा 'मानसिकेन चाति वृत्तं । सीलूपसमेनाति सीलसञ्ञमेन । वृत्तमत्थं लोकपकतिया साधेन्तो "दुल्लभञ्ही "तिआदिमाह । लद्धाति लभित्वा ।
उपसमन्ति आचारसम्पत्तिसङ्घातं संयमं । " एव"न्तिआदिना तथा इच्छाय कारणं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१६१-१६१)
दस्सेति । सोति अय्यको, उदयभद्दो वा। "किञ्चापी"तिआदि तदत्थ-समत्थनं । घातेस्सतियेवाति तंकालापेक्खाय वुत्तं । तेनाह "घातेसी"ति । इदहि सम्पतिपेक्खवचनं । पञ्चपरिवट्टोति पञ्चराजपरिवट्टो ।
कस्मा एवमाह, ननु भगवन्तमुद्दिस्स राजा न किञ्चि वदतीति अधिप्पायो । वचीभेदेति यथावुत्तउदानवचीभेदे । तुण्ही निरवोति परियायवचनमेतं । “अय"न्तिआदि चित्तजाननाकारदस्सनं । अयं...पे०... न सक्खिस्सतीति ञत्वाति सम्बन्धो । वचनानन्तरन्ति उदानवचनानन्तरं । येनाति यत्थ पदेसे, येन वा सोतपथेन । येन पेमन्ति एत्थापि यथारहमेस नयो।
कतापराधस्स आलपनं नाम दुक्करन्ति सन्धाय "मुखं नप्पहोती"ति वुत्तं । “आगमा खो त्वं महाराज यथापेम"न्ति वचननिद्दिटुं वा तदा तदत्थदीपनाकारेन पवत्तं नानानयविचित्तं भगवतो मधुरवचनम्पि सन्धाय एवं वुत्तन्ति दट्ठब् । एकम्पि हि अत्थं भगवा यथा सोतूनं जाणं पवत्तति, तथा देसेति । यं सन्धाय अट्ठकथासु वुत्तं “भगवता अब्याकतं तन्तिपदं नाम नत्थि, सब्बेस व अत्थोपि भासितो'ति । पञ्चहाकारेहीति इठ्ठानिढेसु समभावादिसङ्खातेहि पञ्चहि कारणेहि । वुत्तज्हेतं महानिद्देसे (महानि० ३८, १६२)
“पञ्चहाकारेहि तादी इट्ठानिटे तादी, चत्तावीति तादी, तिण्णावीति तादी, मुत्तावीति तादी, तंनिसा तादी |
कथं अरहा इट्ठानिढे तादी ? अरहा लाभेपि तादी, अलाभेपि, यसेपि, अयसेपि, पसंसायपि, निन्दायपि, सुखेपि, दुक्खेपि तादी, एकं चे बाहं गन्धेन लिम्पेय्यु, एकं चे बाहं वासिया तच्छेय्यु, अमुस्मिं नत्थि रागो, अमुस्मिं नस्थि पटिघं, अनुनयपटिघविप्पहीनो, उग्घातिनिघातिवीतिवत्तो, अनुरोधविरोधसमतिक्कन्तो, एवं अरहा इट्ठानिटे तादी ।
कथं अरहा चत्तावीति तादी ? अरहतो...पे०... थम्भो, सारम्भो, मानो, अतिमानो, मदो, पमादो, सब्बे किलेसा, सब्बे दुच्चरिता, सब्बे दरथा, सब्बे
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(२.२.१६१-१६१)
सामञफलपुच्छावण्णना
परिळाहा, सब्बे सन्तापा, सब्बा कुसलाभिसङ्खारा चत्ता वन्ता मुत्ता पहीना पटिनिस्सट्ठा, एवं अरहा चत्तावीति तादी ।
कथं अरहा तिण्णावीति तादी ? अरहा कामोघं तिण्णो, भवोघं तिण्णो, दिट्ठोघं तिण्णो, अविज्जोघं तिण्णो, सब्बं संसारपथं तिण्णो उत्तिण्णो नित्तिण्णो अतिक्कन्तो समतिक्कन्तो वीतिवत्तो, सो वुट्ठवासो चिण्णचरणो जातिमरणसङ्खयो, जातिमरणसंसारो (महानि० ३८) नत्थि तस्स पुनब्भवोति, एवं अरहा तिण्णावीति तादी।
कथं अरहा मुत्तावीति तादी ? अरहतो रागा चित्तं मुत्तं विमुत्तं सुविमुत्तं, दोसा, मोहा, कोधा, उपनाहा, मक्खा, पळासा, इस्साय, मच्छरिया, मायाय, साठेय्या, थम्भा, सारम्भा, माना, अतिमाना, मदा, पमादा, सब्बकिलेसेहि, सब्बदुच्चरितेहि, सब्बदरथेहि, सब्बपरिळाहेहि, सब्बसन्तापेहि, सब्बाकुसलाभिसङ्घारेहि चित्तं मुत्तं विमुत्तं सुविमुत्तं; एवं अरहा मुत्तावीति तादी ।
कथं अरहा तंनिद्देसा तादी ? अरहा ‘सीले सति सीलवा'ति तंनिद्देसा तादी, 'सद्धाय सति सद्धोति, ‘वीरिये सति वीरियवा'ति, 'सतिया सति सतिमा'ति, 'समाधिम्हि सति समाहितो'ति, ‘पञआय सति पञवा'ति, 'विज्जाय सति तेविज्जो'ति, 'अभिज्ञाय सति छळभिज्ञो'ति तंनिद्देसा तादी, एवं अरहा तंनिद्देसा तादी'ति ।
भगवा पन सब्बेसम्पि तादीनमतिसयो तादी। तेनाह "सुप्पतिद्वितो'ति । वुत्तम्पि चेतं भगवता काळकारामसुत्तन्ते “इति खो भिक्खवे तथागतो दिट्ठसुतमुतविज्ञातब्बेसु धम्मेसु तादीयेव तादी, तम्हा च पन तादिम्हा अञो तादी उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थीति वदामी''ति (अ० नि० १.४.२४)। अथ वा पञ्चविधारियिद्धिसिद्धेहि पञ्चहाकारेहि तादिलक्खणे सुप्पतिट्ठितोति अत्थो । वुत्तव्हेतं आयस्मता धम्मसेनापतिना पटिसम्भिदामग्गे
“कतमा अरिया इद्धि ? इध भिक्खु सचे आकति ‘पटिकूले अप्पटिकूलसञ्जी विहरेय्य'न्ति, अप्पटिकूलसञी तत्थ विहरति, सचे आकङ्घति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
'अप्पटिकूले पटिकूलसञ्जी विहरेय्यन्ति, पटिकूलसञ्ञी तत्थ विहरति सचे आकङ्क्षति ‘पटिकूले च अप्पटिकूले च अप्पटिकूलसञ्जी विहरेय्यन्ति, अप्पटिकूलसञ्ञी तत्थ विहरति सचे आकङ्क्षति 'अप्पटिकूले च पटिकूले च पटिकूलसञ्जी विहरेय्यन्ति, पटिकूलसञ्ञी तत्थ विहरति सचे आकङ्क्षति 'पटिकूले च अप्पटिकूले च तदुभयं अभिनिवज्जेत्वा उपेक्खको विहरेय्यं सतो सम्पजानो 'ति, उपेक्खको तत्थ विहरति सतो सम्पजानो" ति (पटि० म० ३.१७) ।
बहिद्धाति सासनतो बहिसमये ।
१६२. एसाति भिक्खुसङ्घस्स वन्दनाकारो । तमत्थं लोकसिद्धाय उपमाय साधेतुं " राजान "न्तिआदि वृत्तं । ओकासन्ति पुच्छितब्बट्ठानं ।
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न मे पञ्हविस्सज्जने भारो अत्थीति सत्थु सब्बत्थ अप्पटिहतञाणचारताय अत्थतो आपन्नाय दस्सनं । “यदि आकङ्क्षसी 'ति वुत्तेयेव हि एस अत्थो आपन्नो होति । सब्बं ते विस्सज्जेस्सामीति एत्थापि अयं नयो । “यं आकङ्खसि तं पुच्छा "ति वचनेनेव हि अयमत्थो सिज्झति । असाधारणं सब्ब पवारणन्ति सम्बन्धो । यदि “ यदाकसी" ति न वदन्ति, अथ कथं वदन्तीति आह " सुत्वा "तिआदि । पदेसत्राणेयेव ठितत्ता तथा वदन्तीति वेदितब्बं । बुद्धा पन सब्बञ्ञपवारणं पवारेन्तीति सम्बन्धो ।
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( २.२.१६२ - १६२)
तं "पुच्छावुसो यदाकङ्खसी' 'तिआदीनि सुत्तपदानि येसं पुग्गलानं वसेन आगतानि, दस्सनत्थं “यक्खनरिन्ददेवसमणब्राह्मणपरिब्बाजकान' "न्ति वृत्तं । तत्थ हि “पुच्छावुसो यदाकङ्क्षसी”ति आळवकस्स यक्खस्स ओकासकरणं, “पुच्छ महाराजा "ति नरिन्दानं, "पुच्छ वासवा"तिआदि देवानमिन्दस्स, "तेन ही "तिआदि समणानं, "बावरिस्स चा " तिआदि ब्राह्मणानं, “पुच्छ मं सभिया" तिआदि परिब्बाजकानं ओकासकरणन्ति दट्ठब्बं । वासवाति देवानमिन्दालपनं । तदेतहि सक्कपञ्हसुत्ते । मनसिच्छसीति मनसा इच्छसि ।
कतावकासाति यस्मा तुम्हे मया कतोकासा, तस्मा बावरिस्स च तुम्हं अजितस्स च सब्बेसञ्च सेसानं यं किञ्चि सब्बं संसयं यथा मनसा इच्छथ, तथा पुच्छव्हो पुच्छथाति योजना । एत्थ च बावरिस्स संसयं मनसा पुच्छव्हो, तुम्हाकं पन सब्बेसं संसयं मनसा
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(२.२.१६२-१६२)
सामञफलपुच्छावण्णना
च अञथा च यथा इच्छथ, तथा पुच्छव्होति अधिप्पायो। बावरी हि “अत्तनो संसयं मनसाव पुच्छथा''ति अन्तेवासिके आणापेसि । वुत्तहि -
"अनावरणदस्सावी, यदि बुद्धो भविस्सति । मनसा पुच्छिते पञ्हे, वाचाय विस्सजेस्सती''ति ।। (सु० नि० १०११)
तदेतं पारायनवग्गे। तथा "पुच्छ मं सभिया''तिआदिपि ।
बुद्धभूमिन्ति बुद्धट्टानं, आसवक्खयाणं, सब्ब ताणञ्च । बोधिसत्तभूमि नाम बोधिसत्तट्ठानं पारमीसम्भरणजाणं, भूमिसद्दो वा अवत्थावाचको, बुद्धावत्थं, बोधिसत्तावत्थायन्ति च अत्थो। एकत्तनयेन हि पवत्तेसु खन्धेसु अवत्थायेव तं तदाकारनिस्सिता।
यो भगवा बोधिसत्तभूमियं पदेससाणे ठितो सब्ब पवारणं पवारेसि, तस्स तदेव अच्छरियन्ति सम्बन्धो । कथन्ति आह "कोण्डञ पहानी"तिआदि । तत्थ कोण्डञाति गोत्तवसेन सरभङ्गमालपन्ति । वियाकरोहीति ब्याकरोहि । साधुरूपाति साधुसभावा | धम्मोति सनन्तनो पवेणीधम्मो । यन्ति आगमनकिरियापरामसनं, येन वा कारणेन आगच्छति, तेन वियाकरोहीति सम्बन्धो । वुद्धन्ति सीलपञादीहि वुद्धिप्पत्तं, गरुन्ति अत्थो । एस भारोति संसयुपच्छेदनसातो एसो भारो, आगतो भारो तया अवस्सं वहितब्बोति अधिप्पायो ।
मया कतावकासा भोन्तो पुच्छन्तु । कस्माति चे ? अहहि तं तं वो ब्याकरिस्सं ञत्वा सयं लोकमिमं, परञ्चाति । सयन्ति च सयमेव परूपदेसेन विना । एवं सरभङ्गकाले सब्ब पवारणं पवारेसीति सम्बन्धो ।
पञ्हानन्ति धम्मयागपञ्हानं । अन्तकरन्ति निट्ठानकरं । सुचिरतेनाति एवं नामकेन ब्राह्मणेन । पुट्ठन्ति पुच्छितुं । जातियाति पटिसन्धिया, “विजातिया"तिपि वदन्ति । पंसु कीळन्तो सम्भवकुमारो निसिन्नोव हुत्वा पवारेसीति योजेतब् ।
तग्घाति एकंसत्थे निपातो । यथापि कुसलो तथाति यथा सब्बधम्मकुसलो सब्बधम्मविदृ बुद्धो जानाति कथेति, तथा ते अहमक्खिस्सन्ति अत्थो । जानाति-सद्दो हि इध
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१६३-१६३)
सम्बन्धमुपगच्छति । यथाह “येन यस्स हि सम्बन्धो, दूरट्ठम्पि च तस्स त"न्ति (सारत्थ टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना)। जानना चेत्थ कथना । यथा “इमिना इमं जानाती"ति वुत्तोवायमत्थो आचरियेन । राजा च खो तं यदि काहति वा, न वाति यो तं इध पुच्छितुं पेसेसि, सो कोरब्यराजा तं तया पुच्छितमत्थं, तया वा पुढेन मया अक्खातमत्थं यदि करोतु वा, न वा करोतु, अहं पन यथाधम्मं ते अक्खिस्सं आचिक्खिस्सामीति वुत्तं होति । जातकट्ठकथायं पन -
"राजा च खो तन्ति अहं तं पऽहं यथा तुम्हाकं राजा जानाति जानितुं सक्कोति, तथा अक्खिस्सं । ततो उत्तरि राजा यथा जानाति, तथा यदि करिस्सति वा, न वा करिस्सति, करोन्तस्स वा अकरोन्तस्स वा तस्सेवेतं भविस्सति, महं पन दोसो नत्थीति दीपेती"ति (जा० अट्ठ० ५.१६.१७२)
जानाति-सद्दो वाक्यद्वयसाधारणवसेन वुत्तो ।
१६३. सिप्पमेव सिप्पायतनं आयतनसद्दस्स तब्भाववुत्तित्ता । अपिच सिक्खितब्बताय सिप्पञ्च तं सत्तानं जीवितवुत्तिया कारणभावतो, निस्सयभावतो वा आयतनञ्चाति सिप्पायतनं। सेय्यथिदन्ति एकोव निपातो, निपातसमुदायो वा । तस्स ते कतमेति इध अत्थोति आह “कतमे पन ते"ति । इमे कतमेतिपि पच्चेकमत्थो युज्जति । एवं सब्बत्थ । इदञ्च वत्तब्बापेक्खनवसेन वुत्तं, तस्मा ते सिप्पायतनिका कतमेति अत्थो । "पुथुसिप्पायतनानी''ति हि साधारणतो सिप्पानि उद्दिसित्वा उपरि तंतंसिप्पूपजीविनोव निद्दिट्ठा पुग्गलाधिट्ठानाय कथाय । कस्माति चे? पपञ्चं परिहरितुकामत्ता । अञथा हि यथाधिप्पेतानि ताव सिप्पायतनानि दस्सेत्वा पुन तंतंसिप्पूपजीविनोपि दस्सेतब्बा सियुं तेसमेवेत्थ पधानतो अधिप्पेतत्ता । एवञ्च सति कथापपञ्चो भवेय्य, तस्मा तं पपञ्चं परिहरितुं सिप्पूपजीवीहि तंतंसिप्पायतनानि सङ्गहेत्वा एवमाहाति तमत्थं दस्सेतुं "हत्थारोहातिआदीहि ये तं तं सिप्पं निस्साय जीवन्ति, ते दस्सेती"ति वुत्तं । कस्माति आह “अयव्ही'तिआदि । सिप्पं उपनिस्साय जीवन्तीति सिप्पूपजीविनो।
हत्थिमारोहन्तीति हत्थारोहा, हत्थारुळहयोधा। हत्थिं आरोहापयन्तीति हत्थारोहा, हत्थाचरिय हत्थिवेज्ज हत्थिमेण्डादयो । येन हि पयोगेन पुरिसो हत्थिनो आरोहनयोग्गो होति, तं हथिस्स पयोगं विधायन्तानं सब्बेसम्पेतेसं गहणं । तेनाह "सब्बेपी"तिआदि ।
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( २.२.१६३ - १६३)
सामञ्ञफलपुच्छावण्णना
तत्थ हत्थाचरिया नाम ये हत्थिनो, हत्थारोहकानञ्च सिक्खापका । हत्थिवेज्जा नाम हत्थिभिसक्का । हत्थिमेण्डा नाम हत्थीनं पादरक्खका । हत्थिं मण्डयन्ति रक्खन्तीति हत्थिमण्डा, तेयेव हत्थमेण्डा, हत्थिं मिनेन्ति सम्मा विदहनेन हिंसन्तीति वा हत्थिमेण्डा । आदि-सद्देन हत्थीनं यवपदायकादयो सङ्गण्हाति । अस्सारोहाति एत्थापि सुद्धहेतुकत्तुवसेन यथावत्तोव अत्थो । रथे नियुत्ता रथिका । रथरक्खा नाम रथस्स आणिरक्खका । धनुं गहन्तीति धनुग्गहा, इस्सासा, धनुं गण्हापेन्तीति धनुग्गहा, धनुसिप्पसिक्खापका धन्वाचरिया |
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चेलेन चेलपटाकाय युद्धे अकन्ति गच्छन्तीति चेलका, जयद्धजगाहकाति आह “ये युद्धे "तिआदि । जयधजन्ति जयनत्थं, जयकाले वा पग्गहितधजं । पुरतोति सेनाय पुब्बे । यथा तथा ठिते सेनिके ब्यूहविचारणवसेन ततो ततो चलयन्ति उच्चालेन्तीति चलकाति वुत्तं "इध रञो 'तिआदि । सकुणग्धिआदयो विय मंसपिण्डं परसेनासमूहसङ्घातं पिण्डं साहसिकताय छेत्वा छेत्वा दयन्ति उप्पतित्वा उप्पतित्वा निग्गच्छन्तीति पिण्डदायका । तेनाह " ते किरा' 'तिआदि । साहसं करोन्तीति साहसिका, तेयेव महायोधा । पिण्डमिवाति तालफलपिण्डमिवाति वदन्ति, "मंसपिण्डमिवा" ति ( दी० नि० टी० १.१६३) आचरियेन वृत्तं । सब्बत्थ " आचरियेना "ति वुत्ते आचरियधम्मपालत्थेरोव गहेतब्बो । दुतियविकप्पे पिण्डे जनसमूहसङ्घाते सम्मद्दे दयन्ति उप्पतन्ता विय गच्छन्तीति पिण्डदायका, दय-सद्दो गतियं, अय- सद्दस्स वा द-कारागमेन निप्फत्ति ।
उग्गग्गताति सङ्गामं पत्वा जवपरक्कमादिवसेन अतिविय उग्गता । तदेवाति परेहि वुत्तं तमेव सीसं वा आवुधं वा । पक्खन्दन्तीति वीरसूरभावेन असज्जमाना परसेनमनुपविसन्ति । थामजवबलपरक्कमादिसम्पत्तिया महानागसदिसता । तेनाह “हत्थिआदीसुपी”तिआदि । एकन्तसूराति एकचरसूरा अन्तसद्दस्स तब्भाववुत्तितो, सूरभावेन एकाकिनो हुत्वा युज्झनकाति अत्थो । सजालिकाति सवम्मिका । सन्नाहो कङ्कटो वम्मं कवचो उरच्छदो जालिकाति हि अत्थतो एकं । सचम्मिकाति जालिका विय सरीरपरित्ताणेन चम्मेन सचम्मिका । चम्मकञ्चुकन्ति चम्ममयकञ्चुकं । पविसित्वाति तस्स अन्तो हुत्वा, पटिमुञ्चित्वाति वृत्तं होति । सरपरित्ताणं चम्मन्ति चम्मपटिसिब्बितं चेलकं, चम्ममयं वा फलकं । बलवसिनेहाति सामिनि अतिसयपेमा । घरदासयोधाति अन्तोजातदासपरियापन्ना योधा, “घरदासिकपुत्ता'' तिपि पाठो, अन्तोजातदासीनं पुत्ताति अत्थो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१६३-१६३)
आळारं वुच्चति महानसं, तत्थ नियुत्ता आळारिका। पूविकाति पूवसम्पादका, ये पूवमेव नानप्पकारतो सम्पादेत्वा विक्किणन्ता जीवन्ति । केसनखसण्ठपनादिवसेन मनुस्सानं अलङ्कारविधिं कप्पेन्ति संविदहन्तीति कप्पका। चुण्णविलेपनादीहि मलहरणवण्णसम्पादनविधिना न्हापेन्ति नहानं करोन्तीति न्हापिका। नवन्तादिविधिना पवत्तो गणनगन्थो अन्तरा छिद्दाभावेन अच्छिद्दकोति वुच्चति, तदेव पठेन्तीति अच्छिद्दकपाठका। हत्थेन अधिप्पायविज्ञापनं, गणनं वा हत्थमुद्दा। अङ्गुलिसङ्कोचनहि मुद्दाति वुच्चति, तेन च विज्ञापनं, गणनं वा होति । हत्थसद्दो चेत्थ तदेकदेसेसु अङ्गुलीसु दट्टब्बो “न भुञ्जमानो सब्बं हत्थं मुखे पक्खिपिस्सामी'तिआदीसु (पाचि० ६१८) विय, तमुपनिस्साय जीवन्तीति मुद्दिका। तेनाह "हत्थमुद्दाया"तिआदि ।
अयकारो कम्मारकारको । दन्तकारो भमकारो | चित्तकारो लेपचित्तकारो । आदि-सद्देन कोट्टकलेखकविलीवकारइट्ठककारदारुकारादीनं सङ्गहो । दिवेव धम्मेति इमस्मिंयेव अत्तभावे । करणनिप्फादनवसेन दस्सेत्वा। सन्दिढिकमेवाति असम्परायिकताय सामं दट्ठब्, सयमनुभवितब्बं अत्तपच्चक्खन्ति अत्थो । उपजीवन्तीति उपनिस्साय जीवन्ति । सुखितन्ति सुखप्पत्तं । थामबलूपेतभावोव पीणनन्ति आह “पीणितं थामबलूपेत"न्ति । उपरीति देवलोके । तथा उद्धन्तिपि । सो हि मनुस्सलोकतो उपरिमो। अग्गं वियाति अग्गं, फलं । "कम्मस्स कतत्ता फलस्स निब्बत्तनतो तं कम्मस्स अग्गिसिखा विय होती''ति आचरियेन वुत्तं । अपिच सग्गन्ति उत्तमं, फलं । सग्गन्ति सुट्ट अग्गं, रूपसद्दादिदसविधं अत्तनो फलं निप्फादेतुं अरहतीति अत्थो। सुअग्गिकाव निरुत्तिनयेन सोवग्गिका, दक्खिणासद्दापेक्खाय च सब्बत्थ इथिलिङ्गनिद्देसो । सुखोति सुखूपायो इट्ठो कन्तो। अग्गेति उळारे । अत्तना परिभुजितब्बं बाहिरं रूपं, अत्तनो वण्णपोक्खरता वण्णोति अयमेतेसं विसेसो । दक्खन्ति वड्डन्ति एतायाति दक्खिणा, परिच्चागमयं पुञ्जन्ति आह "दक्खिणं दान"न्ति ।
मग्गो सामनं समितपापसङ्घातस्स समणस्स भावोति कत्वा, तस्स विपाकत्ता अरियफलं सामञफलं। “यथाहा"तिआदिना महावग्गसंयुत्तपाळिवसेन तदत्थं साधेति । तं एस राजा न जानाति अरियधम्मस्स अकोविदताय । यस्मा पनेस “दासकस्सकादिभूतानं पब्बजितानं लोकतो अभिवादनादिलाभो सन्दिट्टिकं सामञफलं नामा"ति चिन्तेत्वा “अस्थि नु खो कोचि समणो वा ब्राह्मणो वा ईदिसमत्थं जानन्तो''ति वीमंसन्तो पूरणादिके पुच्छित्वा तेसं कथाय अनधिगतवित्तो भगवन्तम्पि एतमत्थं पुच्छि। तस्मा वुत्तं "दासकस्सकोपमं सन्धाय पुच्छती"ति |
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(२.२.१६४-१६६)
पूरणकस्सपवादवण्णना
राजामच्चाति राजकुलसमुदागता अमच्चा, अनुयुत्तकराजानो चेव अमच्चा चातिपि अत्थो। कण्हपक्खन्ति यथापुच्छिते अत्थे लब्भमानदिट्ठिगतूपसंहितं संकिलेसपक्खं । सुक्कपक्खन्ति तबिधुरं उपरि सुत्तागतं वोदानपक्खं । समणकोलाहलन्ति समणकोतूहलं तं तं समणवादानं अञमञविरोधं । समणभण्डनन्ति तेनेव विरोधेन “एवंवादीनं तेसं समणब्राह्मणानं अयं दोसो, एवंवादीनं तेसं अयं दोसो'"ति एवं तं तं वादस्स परिभासनं । इस्सरानुवत्तको हि लोकोति धम्मतादस्सनेन तदत्थसमत्थनं । अत्तनो देसनाकोसल्लेन रञो भारं करोन्तो, न तदओन परवम्भनादिकारणेन ।
१६४. नु-सद्दो विय नो-सदोपि पुच्छायं निपातोति आह "अभिजानासि न"ति । अयञ्चाति एत्थ च-सद्दो न केवलं अभिजानासिपदेनेव, अथ खो “पुच्छिता"ति पदेन चाति समुच्चयत्थो । कथं योजेतब्बोति अनुयोगमपनेति "इदही"तिआदिना । पुच्छिता नूति पुब्बे पुच्छं कत्ता नु । नं पुढभावन्ति तादिसं पुच्छितभावं अभिजानासि नु । न ते सम्मुट्ठन्ति तव न पमुटुं वताति अत्थो । अफासुकभावोति तथा भासनेन असुखभावो । पण्डितपतिरूपकानन्ति (सामं विय अत्तनो सक्कारानं पण्डितभासान) आमं विय पक्कानं पण्डिता भासानं । (दी० नि० टी० १.१६३) पाळिपदअत्थब्यञ्जनेसूति पाळिसङ्खाते पदे, तदत्थे तप्परियापन्नक्खरे च, वाक्यपरियायो वा ब्यञ्जनसद्दो “अक्खरं पदं ब्यञ्जन"न्तिआदीसु (नेत्ति० २८) विय। भगवतो रूपं सभावो विय रूपमस्साति भगवन्तरूपो, भगवा विय एकन्तपण्डितोति अत्थो ।
पूरणकस्सपवादवण्णना
१६५. एकमिदाहन्ति एत्थ इदन्ति निपातमत्तं, एकं समयमिच्चेव अत्थो । सम्मोदेति सम्मोदनं करोतीति सम्मोदनीयं । अनीयसद्दो हि बहुला कत्वत्थाभिधायको यथा "निय्यानिका"ति, (ध० स० सुत्तन्तदुकमातिका ९७) सम्मोदनं वा जनेतीति सम्मोदनियं तद्धितवसेन । सरितब्बन्ति सारणीयं, सरणस्स अनुच्छविकन्ति वा सारणियं, एतमत्थं दस्सेतुं "सम्मोदजनकं सरितब्बयुत्तक"न्ति वुत्तं, सरितब्बयुत्तकन्ति च सरणानुच्छविकन्ति अत्थो ।
१६६. सहत्थाति सहत्थेनेव, तेन सुद्धकत्तारं दस्सेति, आणत्तियाति पन हेतुकत्तारं, निस्सग्गियथावरादयोपि इध सहत्थ करणेनेव सङ्गहिता । हत्थादीनीति हत्थपादकण्णनासादीनि । पचनं दहनं विबाधनन्ति आह "दण्डेन उप्पीळेन्तस्सा"ति । पपञ्चसूदनियं नाम
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(२.२.१६६-१६६)
मज्झिमागमट्ठकथायं पन “पचतो"ति एतस्स “तज्जेन्तस्स वाति (म० नि० अट्ठ० ३.९७) दुतियोपि अत्थो वुत्तो, इध पन तज्जनं, परिभासनञ्च दण्डेन सङ्गहेत्वा “दण्डेन उप्पीळेन्तस्स इच्चेव वुत्त"न्ति (दी० नि० टी० १.१६६) आचरियेन वुत्तं, अधुना पन पोत्थकेसु “तज्जेन्तस्स वा"ति पाठोपि बहुसो दिस्सति । सोकन्ति सोककारणं, सोचनन्तिपि युज्जति कारणसम्पादनेन फलस्सपि कत्तब्बतो । परेहीति अत्तनो वचनकरेहि कम्मभूतेहि । फन्दतोति एत्थ परस्स फन्दनवसेन सुद्धकत्तुत्थो न लब्भति, अथ खो अत्तनो फन्दनवसेनेवाति आह "परं फन्दन्तं फन्दनकाले सयम्पि फन्दतो"ति, अत्तना कतेन परस्स विबाधनपयोगेन सयम्पि फन्दतोति अत्थो । “अतिपातापयतो"ति पदं सुद्धकत्तरि, हेतुकत्तरि च पवत्ततीति दस्सेति "हनन्तस्सापि हनापेन्तस्सापी"ति इमिना। सब्बत्थाति "आदियतो"तिआदीसु । करणकारणवसेनाति सयंकारपरंकारवसेन ।
घरभित्तिया अन्तो च बहि च सन्धि घरसन्धि। किञ्चिपि असेसेत्वा निरवसेसो लोपो विलुम्पनं निल्लोपोति आह "महाविलोप"न्ति । एकागारे नियुत्तो विलोपो एकागारिको। तेनाह "एकमेवा"तिआदि । “परिपन्थे तिट्ठतो"ति एत्थ अच्छिन्दनत्थमेव तिद्वतीति अयमत्थो पकरणतो सिद्धोति दस्सेति “आगतागतान"न्तिआदिना। "परितो सब्बसो पन्थे हननं परिपन्थो"ति (दी० नि० टी० १.१६६) अयमत्थोपि आचरियेन वुत्तो। करोमीति सज्ञायाति सञ्चेतनिकभावमाह, तेनेतं दस्सेति “सञ्चिच्च करोतोपि न करीयति नाम, पगेव असञ्चिच्चा''ति । पापं न करीयतीति पुब्बे असतो उप्पादेतुं असक्कुणेय्यत्ता पापं अकतमेव नाम । तेनाह “नत्थि पाप"न्ति ।
यदि एवं कथं सत्ता पापे पवत्तन्तीति अत्तनो वादे परेहि आरोपितं दोसमपनेतुकामो पूरणो इममत्थम्पि दस्सेतीति आह "सत्ता पना"तिआदि । सञ्जामत्तमेतं "पापं करोन्ती"ति, पापं पन नत्थेवाति वुत्तं होति । एवं किरस्स होति - इमेसं सत्तानं हिंसादिकिरिया अत्तानं न पापुणाति तस्स निच्चताय निब्बिकारत्ता, सरीरं पन अचेतनं कट्ठकलिङ्गरूपमं, तस्मिं विकोपितेपि न किञ्चि पापन्ति । परियन्तो वुच्चति नेमि परियोसाने ठितत्ता। तेन वुत्तं आचरियेन “निसितखुरमयनेमिना''ति (दी० नि० टी० १.१६६)। दुतियविकप्पे चक्कपरियोसानमेव परियन्तो, खुरेन सदिसो परियन्तो यस्साति खुरपरियन्तो। खुरग्गहणेन चेत्थ खुरधारा गहिता तदवरोधतो। पाळियं चक्केनाति चक्काकारकतेन आवुधविसेसेन। तं मंसखलकरणसङ्घातं निदानं कारणं यस्साति ततोनिदानं, “पच्चत्तवचनस्स तोआदेसो, समासे चस्स लोपाभावो"ति (पारा० अठ्ठ०
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१.२१) अट्ठकथासु वुत्तो। “पच्चत्तत्थे निस्सक्कवचनम्पि युज्जतीति (सारत्थ टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) आचरियसारिपुत्तत्थेरो। “कारणत्थे निपातसमुदायो''तिपि अक्खरचिन्तका।
गङ्गाय दक्खिणदिसा अप्पतिरूपदेसो, उत्तरदिसा पन पतिरूपदेसोति अधिप्पायेन "दक्खिणञ्चे"तिआदि वुत्तं, तञ्च देसदिसापदेसेन तन्निवासिनो सन्धायाति दस्सेतुं "दक्खिणतीरे"तिआदिमाह । हननदानकिरिया हि तदायत्ता। महायागन्ति महाविजितरञ्जो यञसदिसम्पि महायागं । दमसद्दो इन्द्रियसंवरस्स, उपोसथसीलस्स च वाचकोति आह "इन्द्रियदमेन उपोसथकम्मेना'ति । केचि पन उपोसथकम्मेना'ति इदं इन्द्रियदमस्स विसेसनं, तस्मा 'उपोसथकम्मभूतेन इन्द्रियदमेना'ति" अत्थं वदन्ति, तदयुत्तमेव तदुभयत्थवाचकत्ता दमसद्दस्स, अत्थद्वयस्स च विसेसवुत्तितो । अधुना हि कत्थचि पोत्थके वा-सद्दो, च-सद्दीपि दिस्सति । सीलसंयमेनाति तद न कायिकवाचसिकसंवरेन । सच्चवचनेनाति अमोसवज्जेन । तस्स विसुं वचनं लोके गरुतरपुञ्जसम्मतभावतो । यथा हि पापधम्मेसु मुसावादो गरुतरो, एवं पुञधम्मेसु अमोसवज्जो । तेनाह भगवा इतिवृत्तके -
“एकधम्म अतीतस्स, मुसावादिस्स जन्तुनो । वितिण्णपरलोकस्स, नत्थि पापं अकारियन्ति ।। (इतिवु० २७)
पवत्तीति यो करोति, तस्स सन्ताने फलुप्पादपच्चयभावेन उप्पत्ति । एवहि “नत्थि कम्मं, नत्थि कम्मफल''न्ति अकिरियवादस्स परिपुण्णता। सति हि कम्मफले कम्मानमकिरियभावो कथं भविस्सति । सबथापीति “करोतो"तिआदिना वुत्तेन सब्बप्पकारेनपि ।
लबुजन्ति लिकुचं । पापपुञानं किरियमेव पटिक्खिपति, न रञा पुटुं सन्दिट्टिकं सामञफलं ब्याकरोतीति अधिप्पायो । इदहि अवधारणं विपाकपटिक्खेपनिवत्तनत्थं । यो हि कम्मं पटिक्खिपति, तेन अत्थतो विपाकोपि पटिक्खित्तोयेव नाम होति । तथा हि वक्खति “कम्मं पटिबाहन्तेनापी''तिआदि (दी० नि० अट्ठ० १.१७०-१७२)
पटिराजूहि अनभिभवनीयभावेन विसेसतो जितन्ति विजितं, एकस्स रञो आणापवत्तिदेसो । “मा मय्हं विजिते वसथा"ति अपसादना पब्बजितस्स पब्बाजनसङ्खाता
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विहेठनायेवाति वुत्तं " विहेठेतब्ब"न्ति । तेन वुत्तस्स अत्थस्स " एवमेतन्ति उपधारणं सल्लक्खणं उग्गण्हनं, तदमिना पटिक्खिपतीति आह " सारतो अग्गहन्तो 'ति । तस्स पन अत्थस्स अद्धनियभावापादनवसेन चित्तेन सन्धारणं निक्कुज्जनं, तदमिना पटिक्खिपतीति दस्सेति "सारवसेनेव... पे०... अट्ठन्तोति इमिना। सारवसेनेवाति उत्तमवसेनेव, अवितथत्ता वा परेहि अनुच्चालितो थिरभूतो अत्थो अफेग्गुभावेन सारोति वुच्चति, तंवसेनेवाति अत्थो । निस्सरणन्ति वट्टतो निय्यानं । परमत्थोति अविपरीतत्थो, उत्तमस्स वा आणस्सारम्मणभूतो अत्थो । ब्यञ्जनं पन तेन उग्गहितञ्चैव निक्कुज्जितञ्च तथायेव भगवतो सन्तिके भासितत्ता ।
(२.२.१६८-१६८)
मक्खलिगोसालवादवण्णना
१६८. उभयेनाति हेतुपच्चयपटिसेधवचनेन । " विज्जमानमेवा "ति इमिना सभावतो विज्जमानस्सेव पटिक्खिपने तस्स अञ्ञाणमेव कारणन्ति दस्सेति । संकिलेसपच्चयन्ति संकिलिस्सनस्स मलीनस्स कारणं । विसुद्धिपच्चयन्ति संकिलेसतो विसुद्धिया वोदानस्स पच्चयं । अत्तकारेति पच्चत्तवचनस्स ए- कारवसेन पदसिद्धि यथा “वनप्पगुम्बे यथा फुसितग्गे”ति, (खु० पा० १३; सु० नि० २३६) पच्चत्तत्थे वा भुम्मवचनं यथा “इदम्पिस्स होति सीलस्मि "न्ति, (दी० नि० १.१९४) तदेवत्थं दस्सेति “अत्तकारो "ति इमिना। सो च तेन तेन सत्तेन अत्तना कातब्बकम्मं, अत्तना निप्फादेतब्बपयोगो वा । तेनाह " येना "तिआदि । सब्बञ्जतन्ति सम्मासम्बोधिं । तन्ति अत्तना कतकम्मं । दुतियपदेनाति ‘“नत्थि परकारे 'ति पदेन । परकारो च नाम परस्स वाहसा इज्झनकपयोगो । तेन वुत्तं “यं परकार "न्तिआदि । 'ओवादानुसासनिन्ति ओवादभूतमनुसासनिं, पठमं वा ओवादो, पच्छा अनुसासनी । “परकार "न्ति पदस्स उपलक्खणवसेन अत्थदस्सनञ्चेतं, लोकुत्तरधम्मे परकारावस्सयो नत्थीति आह “ ठपेत्वा महासत्त "न्ति । अत्थेवेस लोकियधम्मे यथा तं अम्हाकं बोधिसत्तस्स आळारुदके निस्साय पञ्चाभिञालोकियसमापत्तिलाभो, तञ्च पच्छिमभविकमहासत्तं सन्धाय वुत्तं, पच्चेकबोधिसत्तस्सपि एत्थेव सङ्गहो तेसम्पि तदभावतो । मनुस्ससोभग्यतन्ति मनुस्सेसु सुभगभावं । एवन्ति वृत्तप्पकारेन कम्मवादस्स, किरियवादस्स च पटिक्खिपनेन | जिनचक्केति “अत्थि भिक्खवे कम्मं कण्हं कण्हविपाक 'न्तिआदि (अ० नि० १.४.२३२) नयप्पवत्ते कम्मानं, कम्मफलानञ्च अत्थितापरिदीपने बुद्धसासने । पच्चनीककथनं पहारदानसदिसन्ति “पहारं देति नामा" ति ।
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मक्खलिगोसालवादवण्णना
यथावुत्तअत्तकारपरकाराभावतो एव सत्तानं पच्चत्तपुरिसकारो नाम कोचि नत्थीति सन्धाय "नत्थिपुरिसकारे"ति तस्स पटिक्खिपनं दस्सेतुं "येना"तिआदि वुत्तं । "देवत्तम्पी''तिआदिना, “मनुस्ससोभग्यत"न्तिआदिना च वृत्तप्पकारा। “बले पतिहिता''ति वत्वा वीरियमेविध बलन्ति दस्सेतुं “वीरियं कत्वा"ति वुत्तं । सत्तानहि दिठ्ठधम्मिकसम्परायिक निब्बानसम्पत्तिआवहं वीरियबलं नत्थीति सो पटिक्खिपति, निदस्सनमत्तञ्चेतं वोदानियबलस्स पटिक्खिपनं संकिलेसिकस्सापि बलस्स तेन पटिक्खिपनतो। यदि वीरियादीनि पुरिसकारवेवचनानि, अथ कस्मा तेसं विसुं गहणन्ति आह "इदं नो वीरियेना"तिआदि । इदं नो वीरियेनाति इदं फलं अम्हाकं वीरियेन पवत्तं । पवत्तवचनपटिक्खेपकरणवसेनाति अञ्जसं पवत्तवोहारवचनस्स पटिक्खेपकरणवसेन | वीरियथामपरक्कमसम्बन्धनेन पवत्तबलवादीनं वादस्स पटिखेपकरणवसेन “नथि बल"न्ति पदमिव सब्बानिपेतानि तेन आदीयन्तीति अधिप्पायो । तञ्च वचनीयस्थतो वुत्तं, वचनत्थतो पन तस्सा तस्सा किरियाय उस्सन्नटेन बलं। सूरवीरभावावहतुन वीरियं । तदेव दळहभावतो, पोरिसधुरं वहन्तेन पवत्तेतब्बतो च पुरिसथामो। परं परं ठानं अक्कमनवसेन पवत्तिया पुरिसपरक्कमोति वेदितब्बं ।
रूपादीसु सत्तविसत्तताय सत्ता। अस्ससनपस्ससनवसेन पवत्तिया पाणनतो पाणाति इमिना अत्थेन समानेपि पदद्वये एकिन्द्रियादिवसेन पाणे विभजित्वा सत्ततो विसेसं कत्वा एस वदतीति आह "एकिन्द्रियो"तिआदि । भवन्तीति भूताति सत्तपाणपरियायेपि सति अण्डकोसादीसु सम्भवनटेन ततो विसेसाव, तेन वुत्ताति दस्सेति “अण्ड...पे०... वदती"ति इमिना । वत्थिकोसो गब्भासयो । जीवनतो पाणं धारेन्तो विय वड्ढनतो जीवा । तेनाह "सालियवा"तिआदि। आदिसद्देन विरुळ्हधम्मा तिणरुक्खा गहिता । नत्थि एतेसं संकिलेसविसुद्धीसु वसो सामत्थियन्ति अवसा। तथा अबला अवीरिया। तेनाह "तेस"न्तिआदि। नियताति नियमना, अछेज्जसुत्तावुतस्स अभेज्जमणिनो विय नियतप्पवत्तिताय गतिजातिबन्धापवग्गवसेन नियामोति अत्थो । तत्थ तत्थाति तासु तासु जातीसु । छन्नं अभिजातीनं सम्बन्धीभूतानं गमनं समवायेन समागमो । सम्बन्धीनिरपेक्खीपि भावसद्दो सम्बन्धीसहितो विय पकतियत्थवाचकोति आह "सभावोयेवा"ति, यथा कण्टकस्स तिक्खता, कपित्थफलादीनं परिमण्डलता, मिगपक्खीनं विचित्ताकारता च, एवं सब्बस्सापि लोकस्स हेतुपच्चयमन्तरेन तथा तथा परिणामो अकुत्तिमो सभावोयेवाति अत्थो । तेन वुत्तं "येना"तिआदि। परिणमनं नानप्पकारतापत्ति । येनाति सत्तपाणादिना । यथा भवितब्बं, तथेवातिसम्बन्धो।
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छळभिजातियो परतो वित्थारीयिस्सन्ति । “सुखञ्च दुक्खञ्च पटिसंवेदेन्तीति वदन्तो मक्खलि अदुक्खमसुखभूमिं सब्बेन सबं न जानातीति वुत्तं "अञा अदुक्खमसुखभूमि नत्थीति दस्सेती"ति । अयं “सुखञ्च दुक्खञ्च पटिसंवेदेन्ती''ति वचनं करणभावेन गहेत्वा वुत्ता आचरियस्स मति । पोत्थकेसु पन “अञा सुखदुक्खभूमि नत्थीति दस्सेती"ति अयमेव पाठो दिट्ठो, न “अदुक्खमसुखभूमी''ति । एवं सति “छस्वेवाभिजातीसूति वचनं अधिकरणभावेन गहेत्वा छसु एव अभिजातीसु सुखदुक्खपटिसंवेदनं, न तेहि अञ्जत्थ, तायेव सुखदुक्खभूमि, न तदञाति दस्सेतीति वुत्तन्ति वेदितब्बं । अयमेव च युत्ततरो पटिखेपितब्बस्स अत्थस्स भूमिवसेन वुत्तत्ता। यदि हि "सुखञ्च दुक्खञ्च पटिसंवेदेन्ती''ति वचनेन पटिक्खेपितब्बस्स दस्सनं सिया, अथ “अञा अदुक्खमसुखा नत्थी''ति दस्सेय्य, न “अदुक्खमसुखभूमी"ति दस्सनहेतुवचनस्स भूमिअत्थाभावतो । दस्सेति चेतं तासं भूमिया अभावमेव, तेन विज्ञायति अयं पाठो, अयञ्चत्थो युत्ततरोति ।
पमुखयोनीनन्ति मनुस्सेसु खत्तियब्राह्मणादिवसेन, तिरच्छानादीसु सीहब्यग्घादिवसेन पधानयोनीनं, पधानता चेत्थ उत्तमता। तेनाह "उत्तमयोनीन"न्ति । सहि सतानीति छ सहस्सानि । “पञ्च च कम्मुनो सतानी"ति पदस्स अत्थदस्सनं “पञ्च कम्मसतानि चा"ति । “एसेव नयो"ति इमिना “केवलं तक्कमत्तकेन निरत्थकं दिदि दीपेती"ति इममेवत्थमतिदिसति । एत्थ च "तक्कमत्तकेना'ति वदन्तो यस्मा तक्किका अवस्सयभूततथत्थग्गहणअङ्घसनयमन्तरेन निरङ्कुसताय परिकप्पनस्स यं किञ्चि अत्तना परिकप्पितं सारतो मञमाना तथैव अभिनिविस्स तत्थ च दिट्ठिगाहं गण्हन्ति, तस्मा न तेसं दिट्ठिवत्थुस्मिं विहि विचारणा कातब्बाति इममधिप्पायं विभावेति । केचीति उत्तरविहारवासिनो। पञ्चिन्द्रियवसेनाति चक्खादिपञ्चिन्द्रियवसेन। ते हि "चक्खुसोतघानजिव्हाकायसङ्घातानि इमानि पञ्चिन्द्रियानि 'पञ्च कम्मानी'ति तित्थिय पञपेन्ती''ति वदन्ति “कायवचीमनोकम्मानि च 'तीणि कम्मानी'ति'। कम्मन्ति लद्धीति तदुभयं ओळारिकत्ता परिपुण्णकम्मन्ति लद्धि । मनोकम्मं अनोळारिकत्ता उपड्ढकम्मन्ति लद्धीति योजना। "द्वासट्ठि पटिपदा''ति वत्तब्बे सभावनिरुत्तिं अजानन्त "द्वट्ठिपटिपदा'"ति वदतीति आह "द्वासट्टि पटिपदा"ति । सद्दरचका पन "द्वासट्ठिया सलोपो, अत्तमा''ति वदन्ति, तदयुत्तमेव सभावनिरुत्तिया योगतो असिद्धत्ता। यदि हि सा योगेन सिद्धा अस्स, एवं सभावनिरुत्तियेव सिया, तथा च सति आचरियानं मतेन विरुज्झतीति वदन्ति । “चुल्लासीति सहस्सानी''तिआदिका पन अञत्र दिठ्ठपयोगा सभावनिरुत्तियेव । दिस्सति हि विसुद्धिमग्गादीसु
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(२.२.१६८-१६८)
मक्खलिगोसालवादवण्णना
“चुल्लासीति सहस्सानि, कप्पा तिठ्ठन्ति ये मरू। न त्वेव तेपि तिट्ठन्ति, द्वीहि चित्तेहि समोहिता'ति ।। (विसुद्धि० २.७१५; महानि० १०, ३९)
एकस्मिं कप्पेति चतुन्नमसङ्ख्येय्यकप्पानं अञतरभूते एकस्मिं असङ्ख्येय्यकप्पे । तत्थापि च विवट्ठायीसञ्जितं एकमेव सन्धाय "ट्ठन्तरकप्पा"ति वुत्तं । न हि सो अस्सुतसासनधम्मो इतरे जानाति बाहिरकानमविसयत्ता, अजानन्तो एवमाहाति अत्थो ।
उरब्भे हनन्ति, हन्त्वा वा जीवितं कप्पेन्तीति ओरब्भिका। एस नयो साकुणिकादीसुपि। लुद्दाति वुत्तावसेसका ये केचि चातुप्पदजीविका नेसादा । मागविकपदस्मिञ्हि रोहितादिमिगजातियेव गहिता | बन्धनागारे नियोजेन्तीति बन्धनागारिका । कुरूरकम्मन्ताति दारुणकम्मन्ता । अयं सब्बोपि कण्हकम्मपसुतताय कण्हाभिजातीति वदति कण्हस्स धम्मस्स अभिजाति अब्भुप्पत्ति यस्साति कत्वा । भिक्खूति बुद्धसासने भिक्खू । कण्टकेति छन्दरागे। सञ्जोगवसेन तेसं पक्खिपनं । कण्टकसदिसछन्दरागेन सञ्जत्ता भुञ्जन्तीति हि अधिप्पायेन “कण्टके पक्खिपित्वा"ति वुत्तं । कस्माति चे ? यस्मा “ते पणीतपणीते पच्चये पटिसेवन्तीति तस्स मिच्छागाहो, तस्मा ञायलद्धपि पच्चये भुञ्जमाना आजीवकसमयस्स विलोमगाहिताय पच्चयेसु कण्टके पक्खिपित्वा खादन्ति नामाति वदति कण्टकवुत्तिकाति कण्टकेन यथावुत्तेन सह जीविका । अयहिस्स पाळियेवाति अयं मक्खलिस्स वाददीपना अत्तना रचिता पाळियेवाति यथावुत्तमत्थं समत्थेति । कण्टकवुत्तिका एव नाम एके अपरे पबजिता बाहिरका सन्ति, ते नीलाभिजातीति वदतीति अत्थो । ते हि सविसेसं अत्तकिलमथानुयोगमनुयुत्ता । तथा हि ते कण्टके वत्तन्ता विय भवन्तीति कण्टकवुत्तिकाति वुत्ता । नीलस्स धम्मस्स अभिजाति यस्साति नीलाभिजाति। एवमितरेसुपि ।
अम्हाकं सोजनगण्ठो नत्थीति वादिनो बाहिरकपब्बजिता निगण्ठा। एकमेव साटकं परिदहन्ता एकसाटका। कण्हतो परिसुद्धो नीलो, ततो पन लोहितोतिआदिना यथाक्कम तस्स परिसुद्धं वादं दस्सेतुं "इमे किरा"तिआदि वुत्तं । पण्डरतराति भुञ्जननहानपटिक्खेपादिवतसमायोगेन परिसुद्धतरा कण्हनीलमुपादाय लोहितस्सापि परिसुद्धभावेन वत्तब्बतो। ओदातवसनाति ओदातवत्थपरिदहना। अचेलकसावकाति आजीवकसावकभूता। ते किर आजीवकलद्धिया विसुद्धचित्तताय निगण्ठेहिपि पण्डरतरा
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( २.२.१६८ - १६८)
हलिद्दाभानम्पि पुरिमे उपादाय परिसुद्धभावप्पत्तितो । “ एव"न्तिआदिना तस्स छन्दागमनं दस्सेति । नन्दादीनं सावकभूता पब्बजिता आजीवका । तथा आजीवकिनियो । नन्दादयो किर तथारूपं आजीवकपटिपत्तिं उक्कंसं पापेत्वा ठिता, तस्मा निगण्ठेहि आजीवकसावकेहि पब्बजितेहि पण्डरतरा वुत्ता परमसुक्काभिजातीति अयं तस्सद्धि ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
पुरिसभूमियोति पधाननिद्देसो । इत्थीनम्पि हेता भूमियो एस इच्छतेव । सत्त दिवसेति अच्चन्तसञ्ञगवचनं, एत्तकम्पि मन्दा मोमूहाति । सम्बाधट्ठानतोति मातुकुच्छिं सन्धायाह । रोदन्ति चेव विरवन्ति च तमनुस्सरित्वा । खेदनं, कीळनञ्च खिड्डासद्देनेव सङ्ग्रहेत्वा खिड्डाभूमि वृत्ता । पदस्स निक्खिपनं पदनिक्खिपनं । यदा तथा पदं निक्खिपितुं समत्थो, तदा पदवीमंसभूमि नामाति भावो । वतावतस्स जाननकाले । भिक्खु च पन्नोति आदिपि तेसं बाहिरकानं पाळियेव । तत्थ पन्नकोति भिक्खाय विचरणको, तेसं वा पटिपत्तिया पटिपन्नको । जिनोति जिणो जरावसेन हीनधातुको अत्तनो वा पटिपत्तिया परिपक्खं जिनित्वा ठितो । सो किर तथाभूतो धम्मम्पि कस्सचि न कथेसि । तेनाह " न किञ्चि आहा’'ति । ओट्ठवदनादिविप्पकारे कतेपि खमनवसेन न किञ्चि कथेतीतिपि वदन्ति । अलाभिन्ति “सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाती 'ति आदिना नयेन महासीहनादसुत्ते ( दी० नि० १.३९४; म० नि० १.१५५) वुत्तअलाभहेतुसमायोगेन अलाभि । ततोयेव जिघच्छादुब्बलपरेतताय सयनपरायनट्ठेन समणं पन्नभूमीति वदति ।
सत्तानमाजीवभूतानि
आजीववुत्सितानीति जीविकावृत्तिसतानि । “परिब्बाजकसतानी" ति वुच्चमानेपि चेस सभावलिङ्गमजानन्तो “परिब्बाजकसते" त वदति। एवमञ्ञेसुपि। तेनाह “परिब्बाजकपब्बज्जासतानी "ति । नागभवनं नागमण्डलं यथा “महिंसकमण्डल’”न्ति। परमाणुआदि रजो । पसुग्गहणेन एळकजाति गहिता । मिगग्गहणेन रुरुगवयादि मिगजाति । गण्ठम्हीति फळुम्हि, पब्बेति अत्थो । चातुमहाराजिकादिब्रह्मकायिकादिवसेन, तेसञ्च अन्तरभेदवसेन बहू देवा । तत्थ चातुमहाराजिकानं एकच्चअन्तरभेदो महासमयसुत्तेन ( दी० नि० २.३३१) दीपेतब्बो । “सो पना ''तिआदिना अजानन्तो पनेस बहू देवेपि सत्त एव वदतीति तस्स अप्पमाणतं दस्सेति । मनुस्सापि अनन्ताति दीपदेसकुलवंसाजीवादिविभागवसेन । पिसाचा एव पेसाचा, अपरपेतादिवसेन महन्तमहन्ता, बहुतराति अत्थो । बाहिरक “छद्दन्तदहमन्दाकिनियो कुवाळियमुचलिन्दनामेन वोहरिता' 'ति (दी० नि० टी० १.१६८) आचरियेन वुत्तं ।
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अजितकेसकम्बलवादवण्णना
गण्ठिकाति पब्बगण्ठिका । पब्बगण्ठिम्हि हि पवुटसद्दो । महापपाताति महातटा । पारिसेसनयेन खुद्दकपपातसतानि । एवं सुपिनेसुपि । " महाकप्पिनो "ति इदं “महाकप्पान”न्ति अत्थतो वेदितब्बं । सद्दतो पनेस अजानन्तो एवं वदतीति न विचारणक्खमं । तथा “ चुल्लासीति सतसहस्सानी " ति इदम्पि । सो हि “चतुरासीति सतसहस्सानी’”ति वत्तुमसक्कोन्तो एवं वदति । सद्दरचका पन “चतुरासीतिया तुलोपो, चस्स चु, रस्स लो, द्वित्तञ्चा" ति वदन्ति । एत्तका महासराति एतप्पमाणवता महासरतो, सत्तमहासरतोति वुत्तं होति । किराति तस्स वादानुस्सवने निपातो । पण्डितोपि ...पे०... न गच्छति, कस्मा ? सत्तानं संसरणकालस्स नियतभावतो ।
“अचेलकवतेन वा अञ्ञेन वा येन केनची "ति वृत्तमतिदिसति “तादिसेनेवा ” ति इमिना । तपोकम्मेनाति तपकरणेन । एत्थापि " तादिसेनेवा" ति अधिकारो । यो... पे०... विसुज्झति, सो अपरिपक्कं कम्मं परिपाचेति नामाति योजना | अन्तराति चतुरासीतिमहाकप्पसतसहस्सानमब्भन्तरे । फुस्स फुस्साति पत्वा पत्वा । वुत्तपरिमाणं कालन्ति चतुरासीतिमहाकप्पसतसहस्सपमाणं कालं । इदं वुत्तं होति - अपरिपक्कं संसरणनिमित्तं कम्मं सीलादिना सीघंयेव विसुद्धप्पत्तिया परिपाचेति नाम । परिपक्कं कम्मं फुस्स फुस्स कालेन परिपक्कभावानापादनेन ब्यन्तिं विगमनं करोति नामाति । दोणेनाति परिमिननदोणतुम्बेन । रूपकवसेनत्थो लब्भतीति वुत्तं " मितं विया "ति । न हापनवड्ढनं पण्डितबालवसेनाति दस्सेति “न संसारो” तिआदिना । वड्ढनं उक्कंसो । हापनं अवकंसो ।
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कतसुत्तगुळेति कतसुत्तवट्टियं । पलेतीति परेति यथा “अभिसम्परायो 'ति, (महानि० ६९; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.४) र-कारस्स पन ल-कारं कत्वा एवं वृत्तं यथा "पलिबुद्धो "ति (चूळनि० १५; मि० प० ३.६ ) । सो च चुरादिगणवसेन गतियन्ति वृत्तं “गच्छतीति । इमाय उपमाय चेस सत्तानं संसारो अनुक्कमेन खीयतेव, न वढति परिच्छिन्नरूपत्ताति इममत्थं विभावेतीति आह “सुत्ते खीणे "तिआदि । तत्थेवाति खीयनट्ठानेयेव ।
अजितकेसकम्बलवादवण्णना
१७१. दिन्नन्ति देय्यधम्मसीसेन दानचेतनायेव वृत्ता । तंमुखेन च फलन्ति दस्त “ दिन्नस्स फलाभाव"न्ति इमिना । दिन्नञ्हि मुख्यतो अन्नादिवत्थु तं कथ
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पटिक्खिपिस्सति । एस नयो यिटै हुतन्ति एत्थापि। सब्बसाधारणं महादानं महायागो। पाहुनभावेन कत्तब्बसक्कारो पाहुनकसक्कारो। फलन्ति आनिसंसफलं, निस्सन्दफलञ्च । विपाकोति सदिसफलं । चतुरङ्गसमन्नागते दाने ठानन्तरादिपत्ति विय हि आनिसंसो, सङ्घब्राह्मणस्स दाने (जा० १.१०.३९) ताणलाभमत्तं विय निस्सन्दो, पटिसन्धिसङ्घातं सदिसफलं विपाको । अयं लोको, परलोकोति च कम्मुना लद्धब्बो वुत्तो फलाभावमेव सन्धाय पटिक्खिपनतो | पच्चक्खदिट्टो हि लोको कथं तेन पटिक्खित्तो सिया। "सब्बे तत्थ तत्थेव उच्छिज्जन्ती"ति इमिना कारणमाह, यत्थ यत्थ भवयोनिआदीसु ठिता इमे सत्ता, तत्थ तत्थेव उच्छिज्जन्ति, निरुदयविनासवसेन विनस्सन्तीति अत्थो । तेसूति मातापितूसु। फलाभाववसेनेव वदति, न मातापितूनं, नापि तेसु इदानि करियमानसक्कारासक्कारानमभाववसेन तेसं लोके पच्चक्खत्ता । पुब्बुळस्स विय इमेसं सत्तानं उप्पादो नाम केवलो, न चवित्वा आगमनपुब्बको अत्थीति दस्सनत्थं “नत्थि सत्ता ओपपातिका''ति वुत्तन्ति आह “चवित्वा उपपज्जनका सत्ता नाम नत्थी'ति । समणेन नाम याथावतो जानन्तेन कस्सचि अकथेत्वा सञतेन भवितब्, अञथा अहोपुरिसिका नाम सिया । किहि परो परस्स करिस्सति, तथा च अत्तनो सम्पादनस्स कस्सचि अवस्सयो एव न सिया तत्थ तत्थेव उच्छिज्जनतोति इममत्थं सन्धाय "ये इमञ्च...पे०... पवेदेन्ती"ति आह । अयं अट्ठकथावसेसको अत्थो ।
चतूसु महाभूतेसु नियुत्तो चातुमहाभूतिको, अस्थमत्ततो पन दस्सेतुं "चतुमहाभूतमयो"ति वुत्तं । यथा हि मत्तिकाय निब्बत्तं भाजनं मत्तिकामयं, एवमयम्पि चतूहि महाभूतेहि निब्बत्तो चतुमहाभूतमयोति वुच्चति। अज्झत्तिकपथवीधातूति सत्तसन्तानगता पथवीधातु । बाहिरपथवीधातुन्ति बहिद्धा महापथविं, तेन पथवीयेव कायोति दस्सेति । अनुगच्छतीति अनुबन्धति । उभयेनापीति पदद्वयेनपि। उपेति उपगच्छतीति बाहिरपथविकायतो तदेकदेसभूता पथवी आगन्त्वा अज्झत्तिकभावप्पत्ति हुत्वा सत्तभावेन सण्ठिता, सा च महापथवी घटादिगतपथवी विय इदानि तमेव बाहिरं पथविकायं समुदायभूतं पुन उपेति उपगच्छति, सब्बसो तेन बाहिरपथविकायेन निब्बिसेसतं एकीभावमेव गच्छतीति अत्थो। आपादीसुपि एसेव नयोति एत्थ पज्जुन्नेन महासमुद्दतो गहितआपो विय वस्सोदकभावेन पुनपि महासमुदं, सूरियरंसितो गहितइन्दग्गिसङ्घाततेजो विय पुनपि सूरियरंसिं, महावायुक्खन्धतो निग्गतमहावातो विय पुनपि महावायुक्खन्धं उपेति उपगच्छतीति परिकप्पनामत्तेन दिट्ठिगतिकस्स अधिप्पायो ।
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मनच्छद्यानि इन्द्रियानीति मनमेव छटुं येसं चक्खुसोतघानजिव्हाकायानं, तानि इन्द्रियानि | आकासं पक्खन्दन्ति तेसं विसयभावाति वदन्ति । विसयीगहणेन हि विसयापि गहिता एव होन्ति । कथं गणिता मञ्चपञ्चमाति आह "मञ्चो चेव...पे०... अत्थो"ति । आळाहनं सुसानन्ति अस्थतो एकं । गुणागुणपदानीति गुणदोसकोट्ठासानि । सरीरमेव वा पदानि तंतंकिरियाय पज्जितब्बतो । पारावतपक्खिवण्णानीति पारावतस्स नाम पक्खिनो वण्णानि । “पारावतपक्खवण्णानीति पाठो, पारावतसकुणस्स पत्तवण्णानीति अत्थो । भस्मन्ताति छारिकापरियन्ता। तेनाह "छारिकावसानमेवा''ति । आहुतिसद्देनेत्थ “दिन्नं यिटुं हुत"न्ति वुत्तप्पकारं दानं सब्बम्पि गहितन्ति दस्सेति "पाहुनकसक्कारादिभेदं दिन्नदान"न्ति इमिना, विरूपेकसेसनिद्देसो वा एस। अत्थोति अधिप्पायतो अत्थो सद्दतो तस्स अनधिगमितत्ता । एवमीदिसेसु । दब्बन्ति मुव्हन्तीति दत्तू, बालपुग्गला, तेहि दत्तूहि। किं वुत्तं होतीति आह "बाला देन्ती"तिआदि। पाळियं “लोको अत्थी'"ति मति येसं ते अथिका, “अत्थी''ति चेदं नेपातिकपदं, तेसं वादो अस्थिकवादो, तं अत्थिकवादं।
तत्थाति तेसु यथावुत्तेसु तीसु मिच्छावादीसु । कम्मं पटिबाहति अकिरियवादिभावतो । विपाकं पटिबाहति सब्बेन सब्बं आयतिं उपपत्तिया पटिक्खिपनतो । विपाकन्ति च
आनिसंसनिस्सन्दसदिसफलवसेन तिविधम्पि विपाकं । उभयं पटिबाहति सब्बसो हेतुपटिसेधनेनेव फलस्सापि पटिसेधितत्ता । उभयन्ति च कम्मं विपाकम्पि । सो हि “अहेतू अप्पच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति, विसुज्झन्ति चा"ति वदन्तो कम्मस्स विय विपाकस्सापि संकिलेसविसुद्धीनं पच्चयत्ताभावजोतनतो तदुभयं पटिबाहति नाम । विपाको पटिबाहितो होति असति कम्मस्मिं विपाकाभावतो। कम्मं पटिबाहितं होति असति विपाके कम्मस्स निरत्थकतापत्तितो। इतीति वुत्तत्थनिदस्सनं! अस्थतोति सरूपतो, विसुं विसुं तंतंदिट्ठिदीपकभावेन पाळियं आगतापि तदुभयपटिबाहकावाति अत्थो। पच्चेकं तिविधदिविका एव ते उभयपटिबाहकत्ता । “उभयप्पटिबाहका"ति हि हेतुवचनं हेतुगब्भत्ता तस्स विसेसनस्स । अहेतुकवादा चेवातिआदि पटिञावचनं तप्फलभावेन निच्छितत्ता । तस्मा विपाकपटिबाहकत्ता नथिकवादा, कम्मपटिबाहकत्ता अकिरियवादा, तदुभयपटिबाहकत्ता अहेतुकवादाति यथालाभं हेतुफलतासम्बन्धो वेदितब्बो। यो हि विपाकपटिबाहनेन नत्थिकदिट्ठिको उच्छेदवादी, सो अत्थतो कम्मपटिबाहनेन अकिरियदिट्ठिको, उभयपटिबाहनेन अहेतुकदिट्ठिको च होति । सेसद्वयेपि एसेव नयो ।
"ये वा पना"तिआदिना तेसमनुदिट्ठिकानं नियामोक्कन्तिविनिच्छयो वुत्तो। तत्थ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
तेसन्ति पूरणादीनं । सज्झायन्तीति तं दिट्ठिदीपकं गन्धं यथा तथा तेहि कतं उग्गहेत्वा पठन्ति । वीमंसन्तीति तस्स अत्थं विचारेन्ति । " तेस "न्तिआदि वीमंसनाकारदस्सनं । “करोतो...पे०... उच्छिज्जती 'ति एवं वीमंसन्तानं तेसन्ति सम्बन्धी । तस्मिं आरम्मति यथापरिकप्पिते कम्मफलाभावादिके “करोतो न करीयति पाप"न्तिआदि नयप्पवत्ताय मिच्छादस्सनसङ्घाताय लद्धिया आरम्मणे । मिच्छासति सन्तिट्ठतीति मिच्छासतिसङ्घाता लद्धिसहगता तण्हा सन्तिट्ठति । " करोतो न करीयति पाप "न्तिआदिवसेन हि अनुरसवूपलद्धे अत्थे तदाकारपरिवितक्कनेहि सविग्गहे विय सरूपतो चित्तस्स पच्चुपट्टिते चिरकालपरिचयेन “एवमेतन्ति निज्झानक्खमभावूपगमने, निज्झानक्खन्तिया च तथा तथा गहिते पुनप्पुनं तथेव आसेवन्तस्स बहुलीकरोन्तस्स मिच्छावितक्केन समानीयमाना मिच्छावायामुपत्थम्भिता अतंसभावम्पि "तंसभाव "न्ति गण्हन्ती मिच्छालद्धिसहगता तहा मुसा वितथं सरणतो पवत्तनतो मिच्छासतीति वुच्चति । चतुरङ्गुत्तरटीकायम्पि (अ० नि० अट्ठ० २.४.३०) चेस अत्थो वृत्तोयेव । मिच्छासङ्कप्पादयो विय हि मिच्छासति नाम पाटियेक्को कोचि धम्मो नत्थि, तण्हासीसेन गहितानं चतुन्नम्पि अकुसलक्खन्धानमेतं अधिवचनन्ति मज्झिमागमट्ठकथायम्पि सल्लेखसुत्तवण्णनायं (म० नि० अट्ठ० १.८३) वृत्तं ।
चित्तं एकगं होतीति यथासकं वितक्कादिपच्चयलाभेन तस्मिं आरम्मणे अवट्ठितताय अनेकग्गतं पहाय एकग्गं अप्पितं विय होति, चित्तसीसेन चेत्थ मिच्छासमाधि एव वृत्त । सो हि पच्चयविसेसेहि लद्धभावनाबलो ईदिसे ठाने समाधानपतिरूपककिच्चकरोयेव होति वालविज्झनादीसु वियाति दट्ठब्बं । जवनानि जवन्तीति अनेकक्खत्तुं तेनाकारेन पुब्बभागियेसु जवनवारेसु पवत्तेसु सन्निट्ठानभूते सब्बपच्छिमे जवनवारे सत्त जवनानि जवन्ति । “पठमजवने सतेकिच्छा होन्ति, तथा दुतियादीसू "ति इदं धम्मसभावदस्सनमेव, न पन तस्मिं खणे तेसं तिकिच्छा केनचि सक्का कातुन्ति दस्सनं तेस्वेव ठत्वा सत्तमजवनस्स अवस्समुप्पज्जमानस्स निवत्तितुं असक्कुणेय्यत्ता, एवं लहुपरिवत्ते च चित्तवारे ओवादानुसासन वसेन तिकिच्छाय असम्भवतो । तेनाह “बुद्धानम्पि अतेकिच्छा अनिवत्तिनोति । अरिट्ठकण्टकसदिसाति अरिट्ठभिक्खुकण्टकसामणेरसदिसा, ते विय अतेकिच्छा अनिवत्तिनो मिच्छादिट्ठिगतिकायेव जाताति वृत्तं होति ।
( २.२.१७१ - १७१)
तत्थाति तेसु तीसु मिच्छादस्सनेसु । कोचि एकं दस्सनं ओक्कमतीति यस्स एकस्मिंयेव अभिनिवेसो, आसेवना च पवत्ता, सो एकमेव दस्सनं ओक्कमति । कोचि द्वे, कोचि तीणिपीति यस्स द्वीसु, तीसुपि वा अभिनिवेसो, आसेवना च पवत्ता, सो
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( २.२.१७१ - १७१)
अजितकेसकम्बलवादवण्णना
द्वे, तीणिपि ओक्कमति, एतेन पन वचनेन या पुब्बे " इति सब्बेपेते अत्थतो उभयप्पटिबाहका 'तिआदिना उभयप्पटिबाहकतामुखेन दीपिता अत्थतो सिद्धा सब्बदिट्ठिकता, सा पुब्बभागिया । या पन मिच्छत्तनियामोक्कन्तिभूता, सा यथासकं पच्चयसमुदागमसिद्धितो भिन्नारम्मणानं विय विसेसाधिगमानं एकज्झं अनुप्पत्तिया अञ्ञमञ्ञ अब्बोकिण्णा एवाति दस्सेति । “एकस्मिं ओक्कन्तेपी "तिआदिना तिस्सन्नम्पि दिट्ठीनं समानसामत्थियतं, समानफलतञ्च विभावेति । सग्गावरणादिना हेता समानसामत्थिया चेव समानफला च, तस्मा तिस्सोपि चेता एकस्स उप्पन्नापि अब्बोकिण्णा एव, एकाय विपाके दिन्ने इतरा तस्सा अनुबलप्पदायिकायोति दट्ठब्बं " पत्तो सगमग्गावरणञ्चेवा"तिआदिं वत्वा "अभब्बो "तिआदिना तदेवत्थं आविकरोति । मोक्खमग्गावरणन्ति निब्बानपथभूतस्स अरियमग्गस्स निवारणं । पगेवाति पटिक्खेपत्थे निपातो, मोक्खसङ्घातं पन निब्बानं गन्तुं का नाम कथाति अत्थो । अपिच पगेवाति पा एव, पठमतरमेव मोक्खं गन्तुमभब्बो, मोक्खगमनतोपि दूरतरमेवाति वुत्तं होति । एवमञ्ञत्थापि यथारहं ।
“ वट्टखाणु नामेस सत्तो 'ति इदं वचनं नेय्यत्थमेव, न नीतत्थं । तथा हि वृत्तं पपञ्चसूदनियं नाम मज्झिमागमट्ठकथायं “ किं पनेस एकस्मिंयेव अत्तभावे नियतो होति, उदाहु अञ्ञस्मिम्पीति ? एकस्मिंयेव नियतो, आसेवनवसेन पन भवन्तरेपि तं तं दिट्ठि रोचेतियेवा”ति (म० नि० अट्ठ० ३.१०३) । अकुसलहि नामेतं अबलं दुब्बलं, न कुसलं विय सबलं महाबलं, तस्मा “एकस्मिंयेव अत्तभावे नियतो 'ति तत्थ वृत्तं । अञ्ञथा सम्मत्तनियामो विय मिच्छत्तनियामोपि अच्चन्तिको सिया, न च अच्चन्तिको । यदेवं वट्टखाणुजोतना कथं युज्जेय्याति आह " आसेवनवसेना "तिआदि, तस्मा यथा सत्तङ्गुत्तरपाळियं “सकिं निमुग्गोपि निमुग्गो एव बालो 'ति [अ० नि० २.७.१५ ( अत्थतो समानं ) ] वुत्तं, एवं वट्टखाणुजोतनापि वृत्ता । यादिसे हि पच्चये पटिच्च अयं तं तं दस्सनं ओक्कन्तो, पुन कदाचि तप्पटिपक्खे पच्चये पटिच्च ततो सीसुक्खिपनमस्स न होतीति न वत्तब्बं । तस्मा तत्थ, (म० नि० अट्ठ० ३.१०२ ) इध च अट्ठकथायं “ एवरूपस्स हि येभुय्येन भवतो वुट्ठानं नाम नत्थी" ति येभुय्यग्गहणं कतं, इति आसेवनवसेन भवन्तरेपि तंतंदिट्ठिया रोचनतो येभुय्येनस्स भवतो बुट्ठानं नत्थीति कत्वा वट्टखाणुको नामेस जातो, न पन मिच्छत्तनियामस्स अच्चन्तिकतायाति नीहरित्वा ञतब्बत्थताय नेय्यत्थमिदं न नीतत्थन्ति वेदितब्बं । यं सन्धाय अभिधम्मेपि " अरहा, ये च पुथुज्जना मग्गं न पटिलभिस्सन्ति, ते रूपक्खन्धञ्च न परिजानन्ति, वेदनाक्खन्धञ्च न
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
परिजानिस्सन्ती'' तिआदि (यम० १. खन्धयमक २१०) यथावुत्तकारणेन पथविपालको । तदत्थं समत्थेतुं “येभुय्येना "तिआदि
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वृत्तं ।
वृत्तं ।
एवं मिच्छादिट्ठिया परमसावज्जानुसारेन सोतूनं सतिमुप्पादेन्तो “तस्मा "तिआदिमाह । तत्थ तस्माति यस्मा एवं संसारखाणुभावस्सापि पच्चयो अपण्णकजातो, तस्मा परिवज्जेय्याति सम्बन्धो । अकल्याणजनन्ति कल्याणधम्मविरहितजनं असाधुजनं । आसीविसन्ति आसुमागतहलाहलं । भूतिकामोति दिट्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थानं वसेन अत्तनो गुणेहि वुडका । विचक्खणोति पञ्ञाचक्खुना विविधत्थस्स परसको, धीरोति अत्थो ।
पकुधकच्चायनवादवण्णना
१७४. 'अकटा "ति एत्थ त-कारस्स ट-कारादेसोति आह 'अकता"ति, समेन, विसमेन वा केनचिपि हेतुना अकता, न विहिताति अत्थो । तथा अकटविधाति थाप नत्थि कतविधी करणविधि एतेसन्ति अकटविधा । पदद्वयेनापि लोके केनचि हेतुपच्चयेन नेसं अनिब्बत्तभावं दस्सेति । तेनाह “एवं करोही "तिआदि । इद्धियापि न निम्मिताति कस्सचि इद्धिमतो चेतोवसिप्पत्तस्स पुग्गलस्स, देवस्स, इस्सरादिनो च इद्धियापि न निम्मिता । अनिम्मापिताति कस्सचि अनिम्मापिता । कामं सद्दतो युत्तं, अत्थतो च पुरिमेन समानं, तथापि पाळियमट्ठकथायञ्च अनागतमेव अगहेतब्बभावे कारणन्ति दस्सेति "तं नेव पाळियन्ति आदिना ।
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( २.२.१७४ - १७४)
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ब्रह्मजालसुत्तसंवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.३०) वुत्तत्थमेव । इदमेत्थ योजनामत्तं - वञ्झाति हि वञ्झपसुवञ्झतालादयो विय अफला कस्सचि अजनका, तेन पथविकायादीनं रूपादिजनकभावं परिक्खिपति । रूपसद्दादयो हि पथविकायादीहि अप्पटिबद्धवुत्तिकाति तस्स लद्धि । पब्बतस्स कूटमिव ठिताति कूटट्ठा, यथा पब्बतकूटं केनचि अनिब्बत्तितं कस्सचि च अनिब्बत्तकं, एवमेतेपि सत्तकायाति अधिप्पायो । यमिदं "बीजतो अङ्कुरादि जायतीति वुच्चति, तं विज्जमानमेव ततो निक्खमति, न अविज्जमानं, इतरथा अञ्ञतोपि अञ्ञस्स उपलद्धि सिया, एवमेतेपि सत्तकाया, तस्मा एसिकट्ठायिट्ठिताति । ठितत्ताति निब्बिकारभावेन सुप्पतिट्ठितत्ता । न चलन्तीति न विकारमापज्जन्ति । विकाराभावतो हि तेसं सत्तन्नं कायानं एसिकट्ठायिट्ठितता, अनिञ्जनञ्च अत्तनो पकतिया अवट्ठानमेव । तेनाह “न विपरिणमन्ती 'ति । पकतिन्ति
पथविगोपको ति
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(२.२.१७७-१७७)
निगण्ठनाटपुत्तवादवण्णना
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सभावं । अविपरिणामधम्मत्ता एव न अञमञ्ज उपहनन्ति। सति हि विकारमापादेतब्बभावे उपघातकता सिया, तथा अनुग्गहेतब्बभावे सति अनुग्गाहकतापीति तदभावं दस्सेतुं पाळियं "नाल"न्तिआदि वुत्तं । पथवीयेव कायेकदेसत्ता पथविकायो यथा “समुद्दो दिट्ठो''ति, पथविसमूहो वा कायसद्दस्स समूहवाचकत्ता यथा “हत्थिकायो"ति । जीवसत्तमानं कायानं निच्चताय निब्बिकारभावतो न हन्तब्बता, न घातेतब्बता च, तस्मा नेव कोचि हन्ता, घातेता वा अत्थीति दस्सेतुं पाळियं "सत्तनं त्वेव कायान"न्तिआदि वुत्तं । यदि कोचि हन्ता नत्थि, कथं तेसं सत्थप्पहारोति तत्थ चोदनायाह “यथा"तिआदि । तत्थ सत्तनं त्वेवाति सत्तन्नमेव । इतिसद्दो हेत्थ निपातमत्तं । पहतन्ति पहरितं । एकतोधारादिकं सत्थं । अन्तरेनेव पविसति, न तेसु । इदं वुत्तं होति - केवलं “अहं इमं जीविता वोरोपेमी"ति तेसं तथा सञ्जामत्तमेव, हननघातनादि पन परमत्थतो नत्थेव कायानं अविकोपनीयभावतोति ।
निगण्ठनाटपुत्तवादवण्णना
१७७. चत्तारो यामा भागा चतुयामं, चतुयामं एव चातुयामं। भागत्थो हि इध याम-सद्दो यथा “रत्तिया पठमो यामो'"ति (सं० नि० अट्ठ० ३.३६८)। सो पनेत्थ भागो संवरलक्खितोति आह "चतुकोट्ठासेन संवरेन संवुतो"ति, संयमत्थो वा यामसद्दो यमनं सञमनं यामोति कत्वा । “यतत्तो'"तिआदीसु विय हि अनुपसग्गोपि सउपसग्गो विय सञमत्थवाचको, सो पन चतूहि आकारेहीति आह "चतुकोट्ठासेन संवरेना"ति | आकारो कोट्ठासोति हि अत्थतो एकं। वारितो सब्बवारि यस्सायं सब्बवारिवारितो यथा "अग्याहितो"ति । तेनाह “वारितसब्बउदको'ति । वारिसद्देन चेत्थ वारिपरिभोगो वुत्तो यथा "रत्तूपरतो"ति । पटिक्खित्तो सब्बसीतोदको तप्परिभोगो यस्साति तथा । तन्ति सीतोदकं । सब्बवारियुत्तोति संवरलक्खणमत्तं कथितं। सब्बवारिधुतोति पापनिज्जरलक्खणं । सब्बवारिफुटोति कम्मक्खयलक्खणन्ति इममत्थं दस्सेन्तो “सब्बेना"तिआदिमाह, सब्बेन पापवारणेन युत्तोति हि सब्बप्पकारेन संवरलक्खणेन पापवारणेन समन्नागतो । धुतपापोति सब्बेन निज्जरलक्खणेन पापवारणेन विधुतपापो। फुट्ठोति अठ्ठन्नम्पि कम्मानं खेपनेन मोक्खप्पत्तिया कम्मक्खयलक्खणेन सब्बेन पापवारणेन फुट्ठो, तं पत्वा ठितोति अत्थो । "वैयेव गतियो भवन्ति, अनञ्जा'तिआदीसु (दी० नि० १.२५८; २.३४; ३.१९९, २००; म० नि० २.३८४, ३९८) विय गमुसद्दो निट्ठानत्थोति वुत्तं "कोटिप्पत्तचित्तो"ति, मोक्खाधिगमेन उत्तममरियादप्पत्तचित्तोति अत्थो। कायादीसु इन्द्रियेसु संयमेतब्बस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१७९-१८१-१८३)
अभावतो संयतचित्तो। अतीते हेत्थ त-सद्दो । संयमेतब्बस्स अवसेसस्स अभावतो सुष्पतिहितचित्तो। किञ्चि सासनानुलोमन्ति पापवारणं सन्धाय वुत्तं । असुद्धलद्धितायाति “अस्थि जीवो, सो च सिया निच्चो, सिया अनिच्चो''ति (दी० नि० टी० १.१७७)। एवमादिमलीनलद्धिताय । सब्बाति कम्मपकतिविभागादिविसयापि सब्बा निज्झानक्खन्तियो । दिद्रियेवाति मिच्छादिट्ठियो एव जाता।
सञ्चयबेलठ्ठपुत्तवादवण्णना १७९-१८१. अमराविक्खेपे वुत्तनयो एवाति ब्रह्मजाले अमराविक्खेपवादवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.६१) वुत्तनयो एव । कस्मा ? विक्खेपब्याकरणभावतो, तथैव च तत्थ विक्खेपवादस्स आगतत्ता ।
पठमसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना
१८२. पीछेत्वाति तेलयन्तेन उप्पीळेत्वा, इमिना रञो आभोगमाह । वदतो हि आभोगवसेन सब्बत्थ अत्थनिच्छयो। अट्ठकथाचरिया च तदाभोगञ्जू, परम्पराभतत्थस्साविरोधिनो च, तस्मा सब्बत्थ यथा तथा वचनोकासलद्धभावमत्तेन अत्थो न वुत्तो, अथ खो तेसं वत्तुमिच्छितवसेनाति गहेतब्बं, एवञ्च कत्वा तत्थ तत्थ अत्थुद्धारादिवसेन अत्थविवेचना कताति ।
१८३. यथा ते रुच्चेय्याति इदानि मया पुच्छियमानो अत्थो यथा तव चित्ते रुच्चेय्य, तया चित्ते रुच्चेथाति अत्थो। कम्मत्थे हेतं किरियापदं । मया वा दानि पुच्छियमानमत्थं तव सम्पदानभूतस्स रोचेय्यातिपि वट्टति । घरदासिया कुच्छिस्मिं जातो अन्तोजातो। धनेन कीतो धनक्कीतो। बन्धग्गाहगहितो करमरानीतो। साममेव येन केनचि हेतुना दासभावमुपगतो सामंदासब्योपगतो। सामन्ति हि सयमेव । दासब्यन्ति दासभावं | कोचि दासोपि समानो अलसो कम्मं अकरोन्तो “कम्मकारो''ति न वुच्चति, सो पन न तथाभूतोति विसेसनमेतन्ति आह “अनलसो"तिआदि । दूरतोति दूरदेसतो आगतं । पठममेवाति अत्तनो आसन्नतरट्ठानुपसङ्कमनतो पगेव पुरेतरमेव । उट्ठहतीति गारववसेन उट्ठहित्वा तिति, पच्चुट्टातीति वा अत्थो । पच्छाति सामिकस्स निपज्जाय पच्छा | सयनतो अबुद्वितेति रत्तिया विभायनवेलाय सेय्यतो अवुट्ठिते । पच्चूसकालतोति अतीतरत्तिया
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(२.२.१८३-१८३)
पठमसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना
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पच्चूसकालतो । याव सामिनो रत्तिं निघोक्कमनन्ति अपराय भाविनिया रत्तिया पदोसवेलायं याव निद्दोक्कमनं । या अतीतरत्तिया पच्चूसवेला, भाविनिया च पदोसवेला, एत्थन्तरे सब्बकिच्चं कत्वा पच्छा निपततीति वुत्तं होति । किं कारमेवाति किं करणीयमेव किन्ति पुच्छाय कातब्बतो, पुच्छित्वा. कातब्बवेय्यावच्चन्ति अत्थो। पटिस्सवेनेव समीपचारिता वुत्ताति आह "पटिसुणन्तो विचरती"ति । पटिकुद्धं मुखं ओलोकेतुं न विसहतीतिपि दस्सेति "तुट्ठपहट्ठ"न्ति इमिना ।
देवो वियाति आधिपच्चपरिवारादिसमन्नागतो पधानदेवो विय, तेन मने-सद्दो इध उपमत्थोति आपेति यथा “अक्खाहतं मझे अठ्ठासि रो महासुदस्सनस्स अन्तेपुरं उपसोभयमान"न्ति (दी० नि० २.२४५)। सो वतस्साहन्ति एत्थ सो वत अस्सं अहन्ति पदच्छेदो, सो राजा विय अहम्पि भवेय्यं । केनाति चे? यदि पुञानि करेय्यं, तेनाति अत्थोति आह "सो वत अह"न्तिआदि । वतसद्दो उपमायं । तेनाह "एवरूपो"ति । पुञानीति उळारतरं पुनं सन्धाय वुत्तं अञदा कतपुञतो उळाराय पब्बज्जाय अधिप्पेतत्ता । “सो वतस्साय"न्तिपि पाठे सो राजा विय अयं अहम्पि अस्सं । कथं ? "यदि पुञानि करेय्य"न्ति अत्थसम्भवतो “अयमेवत्थो"ति वुत्तं । अस्सन्ति हि उत्तमपुरिसयोगे अहं-सद्दो अप्पयुत्तोपि अयं-सद्देन परामसनतो पयुत्तो विय होति । सो अहं एवरूपो अस्सं वत, यदि पुञानि करेय्यन्ति पठमपाठस्स अत्थमिच्छन्ति केचि । एवं सति दुतियपाठे “अयमेवत्थो''ति अवत्तब्बो सिया तत्थ अयं सद्देन अहं-सद्दस्स परामसनतो, “सो''ति च परामसितब्बस्स अञस्स सम्भवतो | यन्ति दानं । सतभागम्पीति सतभूतं भागम्पि, रञा दिन्नदानं सतधा कत्वा तत्थ एकभागम्पीति वुत्तं होति । यावजी न सक्खिस्सामि दातुन्ति यावजीवं दानत्थाय उस्साहं करोन्तोपि सतभागमत्तम्पि दातुं न सक्खिस्सामि, तस्मा पब्बजिस्सामीति पब्बज्जायं उस्साहं कत्वाति अत्थो। “यंनूना"ति निपातो परिवितक्कनत्थेति वुत्तं "एवं चिन्तनभाव"न्ति ।
कायेन पिहितोति कायेन संवरितब्बस्स कायद्वारेन पवत्तनकस्स पापधम्मस्स संवरणवसेन पिदहितो । उस्सुक्कवचनवसेन पनत्थो विहरेय्य-पदेन सम्बज्झितब्बत्ताति आह "अकुसलपवेसनद्वारं थकेत्वा"ति । हुत्वाति हि सेसो। अकुसलपवेसनद्वारन्ति च कायकम्मभूतानमकुसलानं पवेसनभूतं कायविज्ञत्तिसङ्खातं द्वारं । सेसपदद्वयेपीति “वाचाय संवुतो, मनसा संवुतो''ति पदद्वयेपि । घासच्छादनेन परमतायाति घासच्छादनपरियेसने सल्लेखवसेन परमताय, उक्कट्ठभावे वा सण्ठितो घासच्छादनमत्तमेव परमं पमाणं कोटि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
एतस्स, न ततो परं किञ्चि आमिसजातं परियेसति, पच्चासिसति चाति घासच्छादनपरमो, तस्स भावो घासच्छादनपरमतातिपि अट्ठकथामुत्तको नयो । घसितब्बो असितब्बति घासो, आहारो, आभुसो छादेति परिदहति एतेनाति अच्छादनं, निवासनं, अपिच घसनं घासो, आभुसो छादीयते अच्छादनन्तिपि युज्जति । एतदत्थम्पीति घासच्छादनत्थायापि । अनेसनन्ति एकवीसतिविधम्पि अननुरूपमेसनं ।
(२.२.१८४ - १८४)
विवेकट्ठकायानन्ति गणसङ्गणिकतो पविवित्ते ठितकायानं, सम्बन्धीभूतानं कायविवेकोति सम्बन्धो | नेक्खम्माभिरतानन्ति झानाभिरतानं । परमवोदानप्पत्तानन्ति ताय एव झानाभिरतिया परमं उत्तमं वोदानं चित्तविसुद्धिं पत्तानं । निरुपधीनन्ति किलेसूपधिअभिसङ्घारूपधीहि अच्चन्तविगतानं । विसङ्घारं वुच्चति निब्बानं, तदधिगमनेता विसङ्खारगता, अरहन्तो, तेसं । " एवं वुत्ते "ति इमिना महानिद्देसे ( महानि० ७, ९) आगतभावं दस्सेति । एत्थ च पठमो विवेको इतरेहि द्वीहि विवेकेहि सहापि वत्तब्बो इतरेसु सिद्धेसु तस्सापि सिज्झनतो, विना च तस्मिं सिद्धेपि इतरे समसिज्झनतो । तथा दुतियोपि । ततियो पन इतरेहि सहेव वत्तब्बो । न विना इतरेसु सिद्धेसुयेव तस्स सिज्झनतोति दट्ठब्बं । “गणसङ्गणिकं पहाया"तिआदि तदधिप्पायविभावनं । तत्थ गणे जनसमागमे सन्निपतनं गणसङ्गणिका, तं पहाय । कायेन एको विहरति विचरति पुग्गलवसेन असहायत्ता । चित्ते किलेसानं सन्निपतनं चित्तकिलेससङ्गणिका, तं पहाय । एको विहरति किलेसवसेन असहायत्ता । मग्गस्स एकचित्तक्खणिकत्ता, गोत्रभुआदीनञ्च आरम्मणकरणमत्तत्ता न तेसं वसेन सातिसया निब्बुतिसुखसम्फुसना, फलसमापत्तिनिरोधसमापत्तिवसेन पन सातिसयाति आह "फलसमापत्तिं वा निरोधसमापत्तिं वा "ति । फलपरियोसानो हि निरोधो । पविसित्वाति समापज्जनवसेन अन्तोकत्वा । निब्बानं पत्वाति एत्थ उस्सुक्कवचनमेतं आरम्मणकरणेन, चित्तचेतसिकानं निरोधेन च निब्बुतिपज्जनस्स अधिप्पेतत्ता । चोदनत्थेति जानापेतुं उस्साहकरणत्थे ।
१८४. अभिहरित्वाति अभिमुखभावेन नेत्वा । नन्ति तथा पब्बज्जाय विहरन्तं । अभिहारोति निमन्तनवसेन अभिहरणं । " चीवरादीहि पयोजनं साधेस्सामीति वचनसेसेन योजना। तथा “येनत्थो, तं वदेय्याथा ''ति । चीवरादिवेकल्लन्ति चीवरादीनं लूखताय विकलभावं । तदुभयम्पीति तदेव अभिहारद्वयम्पि । सप्पायन्ति सब्बगेलञ्ञापहरणवसेन उपकारावहं। भाविनो अनत्थस्स अजननवसेन परिपालनं रक्खागुत्ति । पच्चुप्पन्नस्स पन
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(२.२.१८५-१८६)
दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना
अनत्थस्स निसेधवसेन परिपालनं आवरणगुत्ति । किमत्थियं “धम्मिक'न्ति विसेसनन्ति आह “सा पनेसा"तिआदि । विहारसीमायाति उपचारसीमाय, लाभसीमाय वा ।
१८५. केवलो यदि-एवं-सद्दो पुब्बे वुत्तत्थापेक्खकोति वुत्तं “यदि तव दासो"तिआदि । एवं सन्तेति एवं लब्भमाने सति । दुतियं उपादाय पठमभावो, तस्मा “पठम"न्ति भणन्तो अचस्सापि अत्थितं दीपेति । तदेव च कारणं कत्वा राजापि एवमाहाति दस्सेतुं “पठमन्ति भणन्तो"तिआदि वुत्तं । तेनेवाति पठमसद्देन अञस्सापि अत्थितादीपनेनेव ।
दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलवण्णना
१८६. कसतीति विलेखति कसिं करोति । गहपतिकोति एत्थ क-सद्दो अप्पत्थोति वुत्तं "एकगेहमत्ते जेट्ठको"ति | इदं वुत्तं होति - गहस्स पति गहपति, खुद्दको गहपति गहपतिको एकस्मि व गेहमत्ते जेट्टकत्ताति, खुद्दकभावो पनस्स गेहवसेनेवाति कत्वा "एकगेहमत्ते'"ति वुत्तं । तेन हि अनेककुलजेट्ठकभावं पटिक्खिपति, गहं, गेहन्ति च अत्थतो समानमेव । करसद्दो बलिम्हीति वुत्तं "बलिसङ्घात"न्ति । करोतीति अभिनिप्फादेति सम्पादेति | वड्डेतीति उपरूपरि उप्पादनेन महन्तं सन्निचयं करोति ।
___कस्मा तदुभयम्पि वुत्तन्ति आह "यथा ही"तिआदि । अप्पम्पि पहाय पब्बजितुं दुक्करन्ति दस्सनञ्च पगेव महन्तन्ति विज्ञापनत्थं । एसा हि कथिकानं पकति, यदिदं येन केनचि पकारेन अत्थन्तरविज्ञापनन्ति | अप्पम्पि पहाय पब्बजितुं दुक्करभावो पन मज्झिमनिकाये मज्झिमपण्णासके लटुकिकोपमसुत्तेन (म० नि० २.१४८ आदयो) दीपेतब्बो। वुत्तहि तत्थ “सेय्यथापि उदायि पुरिसो दलिदो अस्सको अनाळिहयो, तस्सस्स एकं अगारकं ओलुग्गविलुग्गं काकातिदायिं नपरमरूपं, एका खटोपिका ओलुग्गविलुग्गा नपरमरूपाति वित्थारो। यदि अप्पम्पि भोगं पहाय पब्बजितुं दुक्कर, कस्मा दासवारेपि भोगग्गहणं न कतन्ति आह "दासवारे पना"तिआदि। अत्तनोपि अनिस्सरोति अत्तानम्पि सयमनिस्सरो। यथा च दासस्स भोगापि अभोगायेव परायत्तभावतो, एवं जातयोपीति दासवारे आतिपरिवट्टग्गहणम्पि न कतन्ति दट्ठब्बं । परिवट्टति परम्परभावेन समन्ततो आवट्टतीति परिवट्टो, ञातियेव । तेनाह "जातियेव जातिपरिवट्टो"ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१८९-१८९)
पणीततरसामञ्जफलवण्णना
१८९. तन्ति यथा दासवारे "एवमेवाति वुत्तं, न तथा इध कस्सकवारे, तदवचनं कस्माति अनुयुञ्जय्य चेति अत्थो। एवमेवाति वुच्चमानेति यथा पठमदुतियानि सामञफलानि पञत्तानि, तथायेव पञपेतुं सक्का नु खोति वुत्ते । एवरूपाहीति यथावुत्तदासकस्सकूपमासदिसाहि उपमाहि । सामञफलं दीपेतुं पहोति अनन्तपटिभानताय विचित्तनयदेसनभावतो । तत्थाति एवं दीपने | परियन्तं नाम नत्थि अनन्तनयदेसनभावतो, सवने वा असन्तोसनेन भिय्यो भिय्यो सोतुकामताजननतो सोतुकामताय परियन्तं नाम नत्थीति अत्थो । तथापीति “देसनाय उत्तरुत्तराधिकनानानयविचित्तभावे सतिपी"ति (दी० नि० टी० १.१८९) आचरियेन वुत्तं, सतिपि एवं अपरियन्तभावेतिपि युज्जति । अनुमानञाणेन चिन्तेत्वा। उपरि विसेसन्ति तं ठपेत्वा तदुपरि विसेसमेव सामञफलं पुच्छन्तो। कस्माति आह . “सवने"तिआदि । एतेन इममत्थं दीपेति- अनेकत्था समानापि सद्दा वत्तिच्छानुपुब्बिकायेव तंतदत्थदीपकाति ।
साधुकं साधूति एकत्थमेतं साधुसद्दस्सेव क-कारेन वड्वेत्वा वुत्तत्ता। तेनेव हि साधुकसद्दस्सत्थं वदन्तेन साधुसद्दो अत्थुद्धारवसेन उदाहटो। तेन च ननु साधुकसद्दस्सेव अत्थुद्धारो वत्तब्बो, न साधुसद्दस्साति चोदना निसेधिता। आयाचनेति अभिमुखं याचने, अभिपत्थनायन्ति अत्थो । सम्पटिच्छनेति पटिग्गहणे । सम्पहंसनेति संविज्जमानगुणवसेन हंसने तोसने, उदग्गताकरणेति अत्थो ।
साधु धम्मरुचीति गाथा उम्मादन्तीजातके (जा० २.१८.१०१) । तत्थायमट्ठकथाविनिच्छयपवेणी -सुचरितधम्मे रोचेतीति धम्मरुचि, धम्मरतोति अत्थो । तादिसो हि जीवितं जहन्तोपि अकत्तब्बं न करोति । पञ्जाणवाति पञवा आणसम्पन्नो । मित्तानमद्दब्भोति मित्तानं अदुस्सनभावो । “अदूसको अनुपघातको"ति (दी० नि० टी० १.१८९) आचरियेन वुत्तं । “अद्रुब्भो''तिपि पाठो द-कारस्स द्र-कारं कत्वा ।
दळहीकम्मेति सातच्चकिरियायं । आणत्तियन्ति आणापने । इधापीति सामञफलेपि । अस्साति साधुकसद्दस्स । “सुणोहि साधुकं मनसि करोही''ति हि साधुकसद्देन सवनमनसिकारानं सातच्चकिरियापि तदाणापनम्पि जोतितं होति। आयाचनेनेव च उय्योजनसामञतो आणत्ति सङ्गहिताति न सा विसुं अत्थुद्धारे वुत्ता । आणारहस्स हि
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( २.२.१८९ - १८९)
पणीततरसामञ्ञफलवण्णना
आणत्ति, तदनरहस्स आयाचनन्ति विसेसो । सुन्दरेपीति सुन्दरत्थेपि । इदानि यथावत् साधुकसद्दस्स अत्थत्तयेन पकासितं विसेसं दस्सेतुं तस्स वा अत्थत्तयस्स इध योग्यतं विभावेतुं “दळ्हीकम्मत्थेन ही "तिआदि वृत्तं । सुग्गहितं गण्हन्तोति सुग्गहितं कत्वा गहन्तो । सुन्दरन्ति भावनपुंसकं । भद्दकन्ति पसत्थं, “धम्म"न्ति इमिना सम्बन्धो । सुन्दरं भद्दकन्ति वा सवनानुग्गहणे परियायवचनं ।
मनसि करोहीति एत्थ न आरम्मणपटिपादनलक्खणो मनसिकारी, अथ खो वीथिपटिपादनजवनपटिपादनमनसिकारपुब्बके चित्ते ठपनलक्खणोति दस्सेन्तो “आवज्ज, समन्नाहरा "ति आह । अविक्खित्तचित्तोति यथावुत्तमनसिकारद्वयपुब्बकाय चित्तपरिपाटिया एकारम्मणे ठपनवसेन अनुद्धतचित्तो हुत्वा । निसामेहीति सुणाहि, अनग्घरतनमिव वा सुवण्णमञ्जुसाय दुल्लभधम्मरतनं चित्ते पटिसामेहीतिपि अत्थो । तेन वुत्तं “चित्ते करोही "ति । एवं पदद्वयस्स पच्चेकं योजनावसेन अत्थं दस्सेत्वा इदानि पटियोगीवसेन दस्सेतुं “अपिचा ''तिआदि वृत्तं । तत्थ सोतिन्द्रियविक्खेपवारणं सवने नियोजनवसेन किरियन्तरपटिसेधनतो, तेन सोतं ओदहाति अत्थं दस्सेति । मनिन्द्रियविक्खेपवारणं मनसिकारेन दळहीकम्मनियोजनेन अञ्ञचिन्तापटिसेधनतो । ब्यञ्जनविपल्लासग्गाहवारणं " साधुक "न्ति विसेसेत्वा वृत्तत्ता । अत्थविपल्लासग्गाहवारणेपि एस नयो ।
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धारणूपपरिक्खादीसूति एत्थ आदि- सद्देन तुलनतीरणादिके, दिट्ठिया सुप्पटिवेधे च सङ्गण्हाति । यथाधिप्पेतमत्थं ब्यञ्जेति पकासेति, सयमेतेनाति वा ब्यञ्जनं, सभावनिरुत्ति, सह ब्यञ्जनेनाति सब्यञ्जनो, ब्यञ्जनसम्पन्नोति अत्थो । सहप्पवत्ति हि “सम्पन्नता समवायता विज्जमानता ' ' तिआदिना अनेकविधा, इध पन सम्पन्नतायेव तदञ्ञस्स असम्भवतो, तस्मा " सह ब्यञ्जनेना "ति निब्बचनं कत्वापि " ब्यञ्जनसम्पन्नो 'ति (दी० नि० टी० १.१८९) अत्थो आचरियेन वुत्तोति दट्ठब्बं, यथा तं “न कुसला अकुसला, कुसलपटिपक्खा "ति (ध० स० १) अरणीयतो उपगन्तब्बतो अनुधातब्बतो अत्थो, चतुपारिसुद्धिसीलादि, सह अत्थेनाति सात्थो, वृत्तनयेन अत्थसम्पन्नोति अत्थो । साधुकपदं एकमेव समानं आवुत्तिनयादिवसेन उभयत्थ योजेतब्बं । कथन्ति आह “यस्मा "तिआदि । धम्मो नाम तन्ति । देसना नाम तस्सा मनसा ववत्थापिताय तन्तिया देसना । अत्थो नाम तन्तिया अत्थो । पटिवेधो नाम तन्तिया, तन्तिअत्थस्स च यथाभूतावबोध | मा धम्मदेसनात्थपटिवेधा ससादीहि विय महासमुद्दो मन्दबुद्धीहि दुक्खोगाहा, अलब्भय्यपतिट्ठा च, तस्मा गम्भीरा । तेन वृत्तं " यस्मा... पे०... मनसि करोही "ति । एत्थ च पटिवेधस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
दुक्करभावतो धम्मत्थानं दुक्खोगाहता, देसनाञाणस्स दुक्करभावतो देसनाय, उप्पादेतुमसक्कुणेय्यताय, तब्बिसयत्राणुप्पत्तिया च दुक्करभावतो पटिवेधस्स दुक्खोगाहता वेदितब्बा | यमेत्थ वत्तब्बं तं निदानवण्णनायं वुत्तमेव ।
" सुणाहि साधुक "न्ति “ साधुकं मनसि करोही' " ति वदन्तो न केवलं अत्थक्कमतो एव अयं योजना, अथ खो सद्दक्कमतोपि उभयत्थ सम्बन्धत्ताति दस्सेति । “सक्का महाराजा इधापि " अञ्ञम्पि दिट्टेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं ... पे०.... पणीततरञ्चा" ति इदमनुवत्ततीति आह “ एवं पटिञातं सामञ्ञफलदेसन "न्ति । वित्थारतो भासनन्ति अत्थमेव दहं करोति “देसेस्सामीति संखित्तदीपन "न्तिआदिना । हि-सद्दो चेत्थ लुत्तनिद्दट्ठो । इदं वुत्तं होति - देसनं नाम उद्दिसनं । भासनं नाम निद्दिसनं परिब्यत्तकथनं । तेनायमत्थो सम्भवतीति यथावुत्तमत्थं सगाथावग्गसंयुत्ते वङ्गीससुत्ते (सं० नि० १.१.२१४) गाथापदेन साधेतुं " तेनाहा "तिआदि वृत्तं ।
(२.२.१८९ - १८९)
साळिकायिव निग्घोसोति साळिकाय निग्घोसो विय, यथा साळिकाय आलापो मधुरो कण्णसुखो पेमनीयो, एवन्ति अत्थो । पटिभानन्ति चेतस्स विसेसनं लिङ्गभेदस्सपि विसेसनस्स दिस्सनतो यथा “गुणो पमाण "न्ति । पटिभानन्ति च सद्दो वुच्चति पटिभाति तंतदाकारेन दिस्सतीति कत्वा । उदीरयीति उच्चारयि, वुच्चति वा, कम्मगब्भञ्चेतं किरियापदं । इमिना चेतं दीपेति - आयस्मन्तं धम्मसेनापतिं थोमेतुकामेन देसनाभासनानं विसेसं दस्सेन्तेन पभिन्नपटिसम्भिदेन आयस्मता वङ्गीसत्थेरेन “सङ्घित्तेन, वित्थारेना "ति च विसेसनं कतं, तेनायमत्थो विञ्ञायतीति ।
एवं वृत्तेति “भासिस्सामी "ति वुत्ते । " न किर भगवा सङ्क्षेपेनेव देसेस्सति, अथ खो वित्थारेनपि भासिस्सती 'ति हि तं पदं सुत्वाव उस्साहजातो सञ्जातुस्साहो, तुट्ठोति अत्थो । अयमाचरियस्स अधिप्पायो । अपिच " तेन हि महाराज सुणोहि साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी'ति वुत्तं सब्बम्पि उय्योजनपटिञकरणप्पकारं उत्साहजननकारणं सब्बेनेव उस्साहसम्भवतो, तस्मा एवं वुत्तेति "सुणोहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामीति वुत्ते सब्बेहेव तीहिपि पदेहि उस्साहजातोति अत्थो दट्ठब्बो । पच्चस्सोसीति पति अस्सोसि भगवतो वचनसमनन्तरमेव पच्छा अस्सोसि, “सक्का पन भन्ते "तिआदिना वा पुच्छित्वा पुन " एवं भन्ते 'ति अस्सोसीति अत्थो । तं पन पतिस्सवनं अत्थतो
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(२.२.१९०-१९०)
पणीततरसामञफलवण्णना
सम्पटिच्छनमेवाति आह “सम्पटिच्छि, पटिग्गहेसी"ति । तेनेव हि “इति अत्थो"ति अवत्वा "इति वुत्तं होती"ति वुत्तं ।
१९०. "अथस्स भगवा एतदवोचा"ति वचनसम्बन्धमत्तं दस्सेत्वा "एतं अवोचा"ति पदं विभजित्वा अत्थं दस्सेन्तो “इदानी"तिआदिमाह । “इधा"ति इमिना वुच्चमानं अधिकरणं तथागतस्स उप्पत्तिहानभूतं लोकमेवाधिप्पेतन्ति दस्सेति “देसोपदेसे निपातो"ति इमिना। देसस्स उपदिसनं देसोपदेसो, तस्मिं । यदि सब्बत्थ देसोपदेसे, अथायमत्थो न वत्तब्बो अवुत्तेपि लब्भमानत्ताति चोदनायाह "स्वाय"न्तिआदि । सामञभूतं इधसई गण्हित्वा “स्वाय''न्ति वुत्तं, न तु यथाविसेसितब्बं । तथा हि वक्खति “कत्थचि पदपूरणमत्तमेवा''ति (दी० नि० अट्ठ० १.१९०)। लोकं उपादाय बुच्चति लोकसद्देन समानाधिकरणभावतो । इध लोकेति च जातिक्खेत्तं, तत्थापि अयं चक्कवाळो अधिप्पेतो । सासनमुपादाय बुच्चति “समणो''ति सद्दन्तरसन्निधानतो। अयहि चतुकङ्गुत्तरपाळि । तत्थ पठमो समणोति सोतापन्नो । दुतियो समणोति सकदागामी । वुत्तज्हेतं तत्थेव -
____“कतमो च भिक्खवे पठमो समणो ? इध भिक्खवे भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो होती"ति, (अ० नि० १.४.२४१) “कतमो च भिक्खवे दुतियो समणो ? इध भिक्खवे भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी होती"ति (अ० नि० १.४.२४१) च आदि ।
ओकासन्ति कञ्चि पदेसमुपादाय वुच्चति “तिट्ठमानस्सा''ति सद्दन्तरसन्निधानतो ।
इधेव तिट्ठमानस्साति इमिस्संयेव इन्दसालगुहायं पतिट्ठमानस्स, देवभूतस्स मे सतोति देवभावेन, देवो हुत्वा वा भूतस्स समानस्स । मेति अनादरयोगे सामिवचनं । पुन मेति कत्तुत्थे । इदहि सक्कपञ्हतो उदाहटं।
पदपूरणमत्तमेव ओकासापदिसनस्सापि असम्भवेन अत्यन्तरस्स अबोधनतो । पुब्बे वुत्तं तथागतस्स उप्पत्तिहानभूतमेव सन्धाय "लोक"न्ति वुत्तं । पुरिमं उय्योजनपटिञाकरणविसये आलपनन्ति पुन "महाराजा"ति आलपति । “अरह"न्ति आदयो सद्दा वित्थारिताति योजना। अस्थतो हि वित्थारणं सद्दमुखेनेव होतीति उभयत्थ सद्दग्गहणं कतं । यस्मा पन “अपरेहिपि अट्ठहि कारणेहि भगवा तथागतो''तिआदिना
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१९०-१९०)
(उदा० अठ्ठ० १८; इतिवु० अट्ठ० ३८) तथागत-सद्दो उदानट्ठकथादीसु, “अरह"न्ति आदयो च विसुद्धिमग्गटीकायं (विसुद्धि० टी० १.१३०) अपरेहिपि पकारेहि वित्थारिता आचरियेन, तस्मा तेसु वुत्तनयेनपि तेसमत्थो वेदितब्बो । तथागतस्स सत्तनिकायन्तोगधताय "इध पन सत्तलोको अधिप्पेतो"ति वत्वा तत्थायं यस्मिं सत्तनिकाये, यस्मिञ्च ओकासे उप्पज्जति, तं दस्सेतुं "सत्तलोके उप्पज्जमानोपि चा"तिआदि वुत्तं । न देवलोके, न ब्रह्मलोकेति एत्थ यं वत्तब्द, तं परतो आगमिस्सति ।
___तस्सापरेनाति तस्स निगमस्स अपरेन, ततो बहीति वुत्तं होति । ततोति महासालतो। ओरतो मझेति अब्भन्तरं मज्झिमपदेसो । एवं परिच्छिन्नेति पञ्चनिमित्तबद्धा सीमा विय पञ्चहि यथावुत्तनिमित्तेहि परिच्छिन्ने । अडतेय्ययोजनसतेति पण्णासयोजनेहि ऊनतियोजनसते। अयहि मज्झिमजनपदो मुदिङ्गसण्ठानो, न समपरिवट्टो, न च समचतुरस्सो, उजुकेन कत्थचि असीतियोजनो होति, कत्थचि योजनसतिको, तथापि चेस कुटिलपरिच्छेदेन मिनियमानो परियन्त परिक्खेपतो नवयोजनसतिको होति । तेन वुत्तं "नवयोजनसते"ति । असीतिमहाथेराति येभुय्यवसेन वुत्तं सुनापरन्तकस्स पुण्णत्थेरस्सापि महासावकेसु परियापन्नत्ता। सुनापरन्तजनपदो हि पच्चन्तविसयो। तथा हि "चन्दनमण्डलमाळपटिग्गहणे भगवा न तत्थ अरुणं उट्ठपेती''ति मज्झिमागम- (म० नि० अट्ठ० ४.३९७) संयुत्तागमट्ठकथासु (सं० नि० अट्ठ० ३.४.८८-८९) वुत्तं । सारप्पत्ताति कुलभोगिस्सरियादिवसेन, सीलसारादिवसेन च सारभूता। ब्राह्मणगहपतिकातिब्रह्मायुपोक्खरसातिआदिब्राह्मणा चेव अनाथपिण्डिकादिगहपतिका च।
तत्थाति मज्झिमपदेसे, तस्मिंयेव “उप्पज्जतीति वचने वा। सुजातायाति एवंनामिकाय पठमं सरणगमनिकाय यसत्थेरमातुया। चतूसु पनेतेसु विकप्पेसु पठमो बुद्धभावाय आसन्नतरपटिपत्तिदस्सनवसेन वुत्तो। आसन्नतराय हि पटिपत्तिया ठितोपि "उप्पज्जती''ति वुच्चति उप्पादस्स एकन्तिकत्ता, पगेव पटिपत्तिया मत्थके ठितो । दुतियो बुद्धभावावहपब्बज्जतो पट्ठाय आसन्नमत्तपटिपत्तिदस्सनवसेन, ततियो बुद्धकरधम्मपारिपूरितो पट्ठाय बुद्धभावाय पटिपत्तिदस्सनवसेन । न हि महासत्तानं अन्तिमभवूपपत्तितो पट्ठाय बोधिसम्भारसम्भरणं नाम अत्थि बुद्धत्थाय कालमागमयमानेनेव तत्थ पतिट्ठनतो। चतुत्थो बुद्धभावकरधम्मसमारम्भतो पट्ठाय बोधिया नियतभावदस्सनेन । बोधिया हि नियतभावप्पत्तितो पभुति “बुद्धो उप्पज्जतीति विहि वत्तुं सक्का उप्पादस्स एकन्तिकत्ता। यथा पन “सन्दन्ति नदियो''ति सन्दनकिरियाय अविच्छेदमुपादाय
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( २.२.१९० - १९०)
पणीततरसामञ्ञफलवण्णना
वत्तमानप्पयोगो, एवं उप्पादत्थाय पटिपज्जनकिरियाय अविच्छेदमुपादाय चतूसुपि विकप्पेसु “उप्पज्जति नामा"ति वृत्तं पवत्तापरतवत्तमानवचनञ्चेतं । चतुब्बिधञ्हि वत्तमानलक्खणं सद्दसत्थे पकासितं -
“निच्चपवत्ति समीपो, पवत्तुपरतो तथा । पवत्तापरतो चेव, वत्तमानो चतुब्बिधो 'ति । ।
यस्मा पन बुद्धानं सावकानं विय न पटिपाटिया इद्धिविधञाणादीनि उप्पज्जन्ति, सहेव पन अरहत्तमग्गेन सकलोपि सब्बञ्जतञ्ञाणादिगुणरासि आगतो नाम होति, तस्मा तेसं निप्फत्तसब्बकिच्चत्ता अरहत्तफलक्खणे उप्पन्नो नामाति एकङ्गुत्तरवण्णनायं (अ० नि० अट्ठ० १.१.१७०) वुत्तं । असति हि निप्फत्तसब्बकिच्चत्ते न तावता " उप्पन्नो "ति वत्तुमहति । सब्बपठमं उप्पन्नभावन्ति चतूसु विकप्पेसु सब्बपठमं "तथागतो सुजाताय...पे०... उप्पज्जति नामा'ति वुत्तं तथागतस्स उप्पन्नतासङ्घातं अस्थिभावं । तदेव सन्धाय उप्पज्जतीति वुत्तं बुद्धभावाय आसन्नतरपटिपत्तियं ठितस्सेव अधिप्पेतत्ता । अयमेव हि अत्थो मुख्यतो उप्पज्जतीति वत्तब्बो । तेनाह " तथागतो... पे०... अत्थो "ति ।
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एत्थ च " उप्पन्नो 'ति वुत्ते अतीतकालवसेन कोचि अत्थं गण्हेय्याति तन्निवत्तनत्थं “उप्पन्नो होती”ति वृत्तं । “उप्पन्ना धम्मा" तिआदीसु (ध० स० तिकमातिका १७) विय हि इध उप्पन्नसद्द पच्चुप्पन्नकालिको । ननु च अरहत्तफलसमङ्गीसङ्घातो उप्पन्नोयेव तथागतो पवेदनदेसनादीनि साधेति, अथ कस्मा यथावुत्तो अरहत्तमग्गपरियोसानो उप्पज्जमानोयेव तथागतो अधिप्पेतो। न हि सो पवेदनदेसनादीनि साधेति मधुपायासभोजनतो याव अरहत्तमग्गो, ताव तेसं किच्चानमसाधनतोति ? न हेवं दट्ठब्बं, बुद्धभावाय आसन्नतरपटिपत्तियं ठितस्स उप्पज्जमानस्स गहनेव अरहत्तफलसमङ्गीसङ्घातस्स उप्पन्नस्सापि गहितत्ता । कारणग्गहणेनेव हि फलम्पि गहितं तदविनाभावित्ता । इति पवेदनदेसनादिसाधकस्स अरहत्तफलसमङ्गिनोपि तथागतस्स गहेतब्बत्ता नेय्यत्थमिदं ‘“उप्पज्जती”ति वचनं दट्ठब्बन्ति । तथा हि अङ्गुत्तरट्ठकथायं (अ० नि० अट्ठ० १.१.१७०) उप्पज्जमानो, उप्पज्जति, उप्पन्नोति तीहि कालेहि अत्थविभजने “दीपङ्करपादमूले लद्धब्याकरणतो याव अनागामिफला उप्पज्जमानो नाम, अरहत्तमग्गक्खणे पन उप्पज्जति नाम, अरहत्तफलक्खणे उप्पन्नो नामा' 'ति वृत्तं । अयमेत्थ आचरियधम्मपालत्थेरस्स मति । यस्मा पन एकङ्गुत्तरट्ठकथायं “ एकपुग्गलो भिक्खवे लोके उप्पज्जमानो उप्पज्जती 'ति (अ०
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
नि० १.१.१७०) सुत्तपदवण्णनायं “ इमस्मिम्पि सुत्ते अरहत्तफलक्खणंयेव सन्धाय उप्पज्जती”ति वुत्तं, “उप्पन्नो होतीति अयञ्हेत्थ अत्थो 'ति (अ० नि० अट्ठ० १.१.१७०) आगतं, तस्मा इधापि अरहत्तफलक्खणमेव सन्धाय उप्पज्जतीति वुत्तन्ति दस्सेति "सब्बपठमं उप्पन्नभावं सन्धाया "ति इमिना । तेनाह “उप्पन्नो होतीति अयञ्हेत्थ अत्थो 'ति । सब्बपठमं उप्पन्नभावन्ति च सब्बवेनेय्यानं पठमतरं अरहत्तफलवसेन उप्पन्नभावन्ति अत्थो । “उप्पन्नो होती " ति च इमिना अरहत्तफलक्खणवसेन अतीतकालं दस्तीति । अयमेव च नयो अङ्गुत्तरटीकाकारेन आचरियसारिपुत्तत्थेरेन अधिप्पेतोति ।
(२.२.१९०-१९०)
सो भगवाति यो सो तथागतो " अरह "न्तिआदिना पकित्तितगुणो, सो भगवा । इदानि वत्तब्बं इमसन निदस्सेति वुच्चमानत्थस्स परामसनतो । इदं वुत्तं होति - नयिदं महाजनस्स सम्मुखमत्तं सन्धाय " इमं लोक "न्ति वुत्तं, अथ खो “सदेवक’”न्तिआदिना वक्खमानं अनवसेसपरियादानं सन्धायाति । “सह देवेहि सदेवक "न्तिआदिना यथावाक्यं पदनिब्बचनं वुत्तं, यथापदं पन " सदेवको "तिआदिना वत्तब्बं, इमे च तग्गुणसंविञ्ञाणबाहिरत्थसमासा । एत्थ हि अवयवेन विग्गहो, समुदायो समासत्थो होत लोकावयवेन कतविग्गहेन लोकसमुदायस्स यथारहं लब्भमानत्ता । समवायजोतकसहसद्दयोगे हि अयमेव समासो विञ्ञायति । देवेहीति च पञ्चकामावचरदेवेहि, अरूपावचरदेवेहि वा । ब्रह्मनाति रूपावचरारूपावचरब्रह्मना, रूपावचरब्रह्मना एव वा बहुकत्तुकादीनमिव नेसं सिद्धि | पजातत्ताति यथासकं कम्मकिलेसेहि पकारेन निब्बत्तकत्ता ।
एवं वचनत्थतो अत्थं दस्सेत्वा वचनीयत्थतो दस्सेतुं “ तत्था "तिआदि वृत्तं । पञ्चकामावचरदेवग्गहणं पारिसे सजायेन इतरेसं पदन्तरेहि विसुं गहितत्ता । छट्टकामावचरदेवग्गहणं पच्चासत्तिञायेन । तत्थ हि मारो जातो, तन्निवासी च । यस्मा चेस दामरिकराजपुत्तो विय तत्थ वसितत्ता पाकटो, तस्मा सन्तेसुपि असु वसवत्तिमहाराजादीसु पाकटतरेन तेनेव विसेसेत्वा वुत्तोति, अयञ्च नयो मज्झिमागमट्ठकथायं (म० नि० अट्ठ० २.२९०) पकासितोव । मारग्गहणेन चेत्थ तंसम्बन्धिनो देवापि गहिता ओकासलोकेन सद्धिं सत्तलोकस्स गहणतो । एवहि
वसवत्तिसत्तलोकस्स अनवसेसपरियादानं होति । ब्रह्मकायिकादिब्रह्मग्गहणम्पि
पच्चासत्तिञायेन । पच्चत्थिकपच्चामित्तसमणब्राह्मणग्गहणन्ति पच्चत्थिका एव पच्चामित्ता, तेयेव समणब्राह्मणा, तेसं गहणं तथा, तेन बाहिरकसमणब्राह्मणग्गहणं वृत्तं, निदस्सनमत्तञ्चेतं अपच्चत्थिकपच्चामित्तानम्पि सं इमिना गहणतो ।
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पणीततरसामञफलवण्णना
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समितपापबाहितपापसमणब्राह्मणग्गहणन्ति पन सासनिकसमणब्राह्मणानं गहणं वेदितब्बं । कामं “सदेवक''न्तिआदिविसेसनानं वसेनेव सत्तविसयोपि लोकसद्दो विज्ञायति समवायत्थवसेन तुल्ययोगविसयत्ता तेसं, “सलोमको सपक्खको''तिआदीसु पन विज्जमानत्थवसेन अतुल्ययोगविसयेपि अयं समासो लब्भतीति व्यभिचारदस्सनतो अब्यभिचारेनत्थञापकं पजागहणन्ति आह "पजावचनेन सत्तलोकग्गहण"न्ति, न पन लोकसद्देन सत्तलोकस्स अग्गहितत्ता एवं वुत्तं । तेनाह "तीहि पदेहि ओकासलोकेन सद्धिं सत्तलोको"ति । सदेवकादिवचनेन उपपत्तिदेवानं, सस्समणब्राह्मणीवचनेन विसुद्धिदेवानञ्च गहितत्ता वुत्तं "सदेव...पे०... मनुस्सग्गहण"न्ति । तत्थ सम्मुतिदेवा राजानो। अवसेसमनुस्सग्गहणन्ति सम्मुतिदेवेहि, समणब्राह्मणेहि च अवसिठ्ठमनुस्सानं गहणं । एत्थाति एतेसु पदेसु । तीहि पदेहीति सदेवकसमारकसब्रह्मकपदेहि । . द्वीहीति सस्समणब्राह्मणीसदेवमनुस्सपदेहि । समासपदत्थेसु सत्तलोकस्सपि वुत्तनयेन गहितत्ता “ओकासलोकेन सद्धिं सत्तलोको"ति वुत्तं ।
“अपरो नयो"तिआदिना अपरम्प वचनीयस्थमाह । अरूपिनोपि सत्ता अत्तनो आनेञ्जविहारेन विहरन्तो "दिब्बन्तीति देवा"ति इदं निब्बचनं लद्धमरहन्तीति आह "सदेवकग्गहणेन अरूपावचरलोको गहितो"ति। तेनेवाह भगवा ब्रह्मजालादीसु "आकासानञ्चायतनूपगानं देवानं सहब्यत''न्तिआदि, (अ० नि० १.३.१९७) अरूपावचरभूतो ओकासलोको, सत्तलोको च गहितोति अत्थो । एवं छकामावचरदेवलोको, रूपी ब्रह्मलोकोति एत्थापि । छकामावचरदेवलोकस्स सविसेसं मारवसे पवत्तनतो वुत्तं "समारकग्गहणेन छकामावचरदेवलोको"ति। सो हि तस्स दामरिकस्स विय वसपवत्तनोकासो। रूपी ब्रह्मलोको गहितो पारिसेसजायेन अरूपीब्रह्मलोकस्स विसुं गहितत्ता। चतुपरिसवसेनाति खत्तियब्राह्मणगहपतिसमणचातुमहाराजिकतावतिंसमारब्रह्मसङ्घातासु अट्ठसु परिसासु खत्तियादिचतुपरिसवसेनेव तदञासं सदेवकादिग्गहणेन गहितत्ता। कथं पनेत्थ चतुपरिसवसेन मनुस्सलोको गहितोति ? “सस्समणब्राह्मणि''न्ति इमिना समणपरिसा, ब्राह्मणपरिसा च गहिता, “सदेवमनुस्स"न्ति इमिना खत्तियपरिसा, गहपतिपरिसा चाति । “पज''न्ति इमिना पन इमायेव चतस्सो परिसा वुत्ता । चतुपरिससङ्घातं पजन्ति हि इध अत्थो ।
अञथा गहेतब्बमाह "सम्मुतिदेवेहि वा सह मनुस्सलोको"ति । कथं पन गहितोति ? "सस्समणब्राह्मणि"न्ति इमिना समणब्राह्मणा गहिता, “सदेवमनुस्स"न्ति इमिना सम्मुतिदेवसङ्खाता खत्तिया, गहपतिसुद्दसखाता च अवसेसमनुस्साति । इतो पन अनेसं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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मनुस्ससत्तानमभावतो “पज''न्ति इमिना एतेयेव चतूहि पकारेहि ठिता मनुस्ससत्ता वुत्ता । चतुकुलप्पभेदं पजन्ति हि इध अत्थो । एवं विकप्पद्वयेपि पजागहणेन चतुपरिसादिवसेन मनुस्सान व गहितत्ता इदानि अवसेससत्तेपि सङ्गहेत्वा दस्सेतुं “अवसेससब्बसत्तलोको वा"ति वुत्तं । एत्थापि चतुपरिसवसेन गहितेन मनुस्सलोकेन सह अवसेससब्बसत्तलोको गहितो, सम्मुतिदेवेहि वा सह अवसेससब्बसत्तलोकोति योजेतब्बं । नागगरुळादिवसेन च अवसेससब्बसत्तलोको। इदं वुत्तं होति - चतुपरिससहितो अवसेससुद्दनागसुपण्णनेरयिकादिसत्तलोको, चतुकुलप्पभेदमनुस्ससहितो वा अवसेसनागसुपण्णनेरयिकादिसत्तलोको गहितोति ।
एत्तावता भागसो लोकं गहेत्वा योजनं दस्सेत्वा इदानि तेन तेन विसेसेन अभागसो लोकं गहेत्वा योजनं दस्सेतुं “अपिचेत्था"तिआदि वुत्तं । तत्थ उक्कट्ठपरिच्छेदतोति उक्कंसगतिपरिच्छेदतो, तब्बिजाननेनाति वुत्तं होति । पठमनयेन हि पञ्चसु गतीसु देवगतिपरियापन्नाव पञ्चकामगुणसमङ्गिताय, दीघायुकतायाति एवमादीहि विसेसेहि सेट्ठा। दुतियनयेन पन अरूपिनो दूरसमुग्घाटितकिलेसदुक्खताय, सन्तपणीतआनेञ्जविहारसमङ्गिताय, अतिविय दीघायुकतायाति एवमादीहि विसेसेहि अतिविय उक्कट्ठा । आचरियेहि पन दुतियनयमेव सन्धाय वुत्तं । एवं पठमपदेनेव पधाननयेन सब्बलोकस्स सच्छिकतभावे सिद्धेपि इमिना कारणविसेसेन सेसपदानि वुत्तानीति दस्सेति "ततो येस"न्तिआदिना । ततोति पठमपदतो परं आहाति सम्बन्धो । "छकामावचरिस्सरो" तियेव वुत्ते सक्कादीनम्पि तस्स आधिपच्चं सियाति आसङ्कानिवत्तनत्थं "वसवत्तीति वुत्तं, तेन साहसिककरणेन वसवत्तापनमेव तस्साधिपच्चन्ति दस्सेति । सो हि छट्टदेवलोकेपि अनिस्सरो तत्थ वसवत्तिदेवराजस्सेव इस्सरत्ता। तेनाह भगवा अङ्गत्तरागमवरे अट्ठनिपाते दानानिसंससुत्ते “तत्र भिक्खवे वसवत्ती देवपुत्तो दानमयं पुञ्जकिरियवत्थु अतिरेकं करित्वा...पे०... परनिम्मितवसवत्ती देवे दसहि ठानेहि अधिगण्हाती''ति (अ० नि० ३.८.३६) वित्थारो । मज्झिमागमट्ठकथायम्पि वुत्तं “तत्र हि वसवत्तिराजा रज्जं कारेति, मारो पन एकस्मिं पदेसे अत्तनो परिसाय इस्सरियं पवत्तेन्तो रज्जपच्चन्ते दामरिकराजपुत्तो विय वसती''ति (म० नि० १.६०) "ब्रह्मा महानुभावो"तिआदि दससहस्सियं महाब्रह्मनो वसेन वदति । “उक्कठ्ठपरिच्छेदतो''ति हि हेट्ठा वुत्तमेव । “एकङ्गुलिया"तिआदि एकदेसेन महानुभावतादस्सनं । अनुत्तरन्ति सेटुं नवलोकुत्तरं । पुथूति बहुका, विसु भूता वा। उक्कट्ठट्ठानानन्ति उक्कंसगतिकानं । भावानुक्कमोति भाववसेन परेसमज्झासयानुरूपं “सदेवक"न्तिआदिपदानं अनुक्कमो,
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पणीततरसामञ्ञफलवण्णना
भाववसेन अनुसन्धिक्कमो वा भावानुक्कमो, अत्थानञ्चेव पदानञ्च अनुसन्धानपटिपाट अत्थो, अयमेव वा पाठो तथायेव समन्तपासादिकायं (पारा० अट्ठ० वेरञ्जकण्डवण्णना १) दिट्ठत्ता, आचरियसारिपुत्तत्थेरेन ( सारत्थ० टी० १. वेरञ्जकण्डवण्णना) च वण्णितत्ता । “ विभावनानुक्कमो तिपि पाठो दिस्सति, सो पन तेसु अदिट्ठत्ता न सुन्दरो ।
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इदानि पोराणकानं संवण्णनानयं दस्सेतुं “पोराणा पनाहू"तिआदि वृत्तं । तथ अञ्ञपदेन निरवसेससत्तलोकस्स गहितत्ता सब्बत्थ अवसेसलोकन्ति अनवसेसपरियादानं वृत्तं । तेनाह “ तिभवूपगे सत्ते 'ति तेधातुकसङ्घाते तयो भवे उपगतसत्तेति अत्थो । तीहाकारेहीति देवमारब्रह्मसहिततासङ्घातेहि ह आकारेहि । तीसु पदेसूति "सदेवक' 'न्तिआदीसु तीसु पदेसु । पक्खिपित्वाति अत्थवसेन सङ्गत्वा । तेयेव तिभवूप सत्ते ‘“सस्समणब्राह्मणि, सदेवमनुस्स "न्ति पदद्वये पक्खिपतीति जपेतुं “पुनाति वृत्तं । तेन तेनाकारेनाति सदेवकत्तादिना, सस्समणब्राह्मणीभावादिना च तेन तेन पकारेन । "तिभवूपगे सत्ते" ति वत्वा "तेधातुकमेवा" ति वदन्ता ओकासलोकेन सद्धिं सत्तलोको गहितोति दस्सेन्ति । तेधातुकमेव परियादिन्नन्ति पोराणा पनाहूति योजना ।
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सामन्ति अत्तना । अञ्ञत्थापोहनेन, अन्तोगधावधारणेन वा तप्पटिसेधनमाह “ अपरनेय्यो हुत्वा "ति, अपरेहि अनभिजानापेतब्बो हुत्वाति अत्थो । अभिञति य-कारलोपनिद्देसो यथा " पटिसङ्घा योनिसो'ति (म० नि० १.२३, ४२२; २.२४; ३.७५; सं० नि० २.४.१२० अ० नि० २.६.५८; महानि० २०६) वुत्तं “अभिञाया”ति । अभिसद्देन न विसेसनमत्तं जोतितं, अथ खो विसेसनमुखेन करणम्पीति दस्सेति " अधिकेन त्राणेना "ति इमिना । अनुमानादिपटिक्खेपोति एत्थ आदिसद्देन उपमानअत्थापत्तिसद्दन्तरसन्निधानसम्पयोगविप्पयोगसहचरणादिना कारणलेसमत्तेन पवेदनं सङ्गहाति एकप्पमाणत्ता । सब्बत्थ अप्पटिहतत्राणचारताय हि सब्बधम्मपच्चक्खा बुद्धा भगवन्तो । बोधेति विज्ञापेतीति सद्दतो अत्थवचनं । पकासेतीति अधिप्पायतो । एवं सब्बत्थ विवेचितब्बो ।
अनुत्तरं विवेकसुखन्ति फलसमापत्तिसुखं । हित्वापीति पि- सद्दग्गहणं फलसमापत्तिया अन्तरा ठितिकापि कदाचि भगवतो देसना होतीति कत्वा कतं । भगवा हि धम्मं देसेन्तो यस्मिं खणे परिसा साधुकारं वा देति यथासुतं वा धम्मं पच्चवेक्खति तं खणम्पि पुब्बाभोगेन परिच्छिन्दित्वा फलसमापत्तिं समापज्जति, यथापरिच्छेदञ्च समापत्तितो वुट्ठाय
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१९०-१९०)
पुब्बे ठितट्ठानतो पट्ठाय धम्मं देसेतीति अट्ठकथासु (म० नि० अट्ठ० २.३८७) वुत्तोवायमत्थो । अप्पं वा बहुं वा देसेन्तोति उग्घटित स्स वसेन अप्पं वा विपञ्चित स्स, नेय्यस्स च वसेन बहुं वा देसेन्तो। कथं देसेतीति आह "आदिम्हिपी"तिआदि । धम्मस्स कल्याणता निय्यानिकताय, निय्यानिकता च सब्बसो अनवज्जभावेनेवाति वुत्तं “अनवज्जमेव कत्वा"ति । देसनायाति परियत्तिधम्मस्स देसकायत्तेन हि आणादिविधिना अतिसज्जनं पबोधनं देसनाति परियत्तिधम्मो वुच्चति । किञ्चापि अवयवविनिमुत्तो समुदायो नाम परमत्थतो कोचि नत्थि, येसु पन अवयवेसु समुदायरूपेन अवेक्खितेसु गाथादिसमञा, तं ततो भिन्नं विय कत्वा संसामिवोहारमारोपेत्वा दस्सेन्तो "अत्थि देसनाय आदिमज्झपरियोसान"न्ति आह। सासनस्साति पटिपत्तिधम्मस्स । सासितब्बपुग्गलगतेन हि यथापराधादिना सासितब्बभावेन अनुसासनं, तदङ्गविनयादिवसेन विनयनन्ति कत्वा पटिपत्तिधम्मो “सासनन्ति वुच्चति । अत्थि सासनस्स आदिमज्झपरियोसानन्ति सम्बन्धो । चतुप्पदिकायपीति एत्थ पि-सद्दो सम्भावने, तेन एवं अप्पकतरायपि आदिमज्झपरियोसानेसु कल्याणता, पगेव बहुतरायाति सम्भावेति । पदञ्चेत्थ गाथाय चतुत्सो, यं “पादो''तिपि वुच्चति, एतेनेव तिपादिकछपादिकासुपि यथासम्भवं विभागं दस्सेति । एवं सुत्तावयवे कल्याणत्तयं दस्सेत्वा सकलेपि सुत्ते दस्सेतुं "एकानुसन्धिकस्सा"तिआदि वुत्तं । तत्थ नातिबहुविभागं यथानुसन्धिना एकानुसन्धिकं सन्धाय “एकानुसन्धिकस्सा"ति आह । इतरस्मिं पन तेनेव धम्मविभागेन आदिमज्झपरियोसाना लब्भन्तीति “अनेकानुसन्धिकस्सा"तिआदि वुत्तं। निदानन्ति आनन्दत्थेरेन ठपितं कालदेसदेसकपरिसादिअपदिसनलक्खणं निदानगन्थं । इदमवोचाति निगमनं उपलक्खणमेव "इति यं तं वुत्तं, इदमेतं पटिच्च वुत्त"न्ति निगमनस्सपि गहेतब्बतो। सङ्गीतिकारकेहि ठपितानिपि हि निदाननिगमनानि सत्थु देसनाय अनुविधानतो तदन्तोगधानेवाति वेदितब्बं । अन्ते अनुसन्धीति सब्बपच्छिमो अनुसन्धि ।।
“सीलसमाधिविपस्सना"तिआदिना सासनस्स इध पटिपत्तिधम्मतं विभावेति । विनयट्ठकथायं पन “सासनधम्मो''ति वुत्तत्ता -
"सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा । सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धान सासन"न्ति ।। (दी० नि० २.९०; ध० प० १८३; नेत्ति० ३०, ५०, ११६, १२४)
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(२.२.१९०-१९०)
पणीततरसामञफलवण्णना
एवं वुत्तस्स सत्थुसासनस्स पकासको परियत्तिधम्मो एव सीलादिअत्थवसेन कल्याणत्तयविभावने वुत्तो। इध पन पटिपत्तियेव । तेन वक्खति “इध देसनाय आदिमज्झपरियोसानं अधिप्पेत"न्ति । सीलसमाधिविपस्सना आदि नाम सासनसम्पत्तिभूतानं उत्तरिमनुस्सधम्मानं मूलभावतो । कुसलानं धम्मानन्ति अनवज्जधम्मानं । दिट्ठीति विपस्सना, अविनाभावतो पनेत्थ समाधिग्गहणं । महावग्गसंयुत्ते बाहियसुत्तपदमिदं (सं० नि० ३.५.३८१)। कामं सुत्ते अरियमग्गस्स अन्तद्वयविगमेन तेसं मज्झिमपटिपदाभावो वुत्तो, मज्झिमभावसामञतो पन सम्मापटिपत्तिया आरम्भनिष्फत्तीनं मज्झिमभावस्सापि साधकभावे युत्तन्ति आह “अत्थि भिक्खवे, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धाति एवं वुत्तो अरियमग्गो मज्झं नामा"ति, सीलसमाधिविपस्सनासङ्घातानं आरम्भानं, फलनिब्बानसङ्खातानञ्च निप्फत्तीनं वेमज्झभावतो अरियमग्गो मज्झं नामाति अधिप्पायो । सउपादिसेसनिब्बानधातुवसेन फलं परियोसानं नाम, अनुपादिसेसनिब्बानधातुवसेन पन निब्बानं। सासनपरियोसाना हि निब्बानधातु। मग्गस्स निप्फत्ति फलवसेन, निब्बानसच्छिकिरियाय च होति ततो परं कत्तब्बाभावतोति वा एवं वुत्तं । इदानि तेसं द्विन्नम्पि सासनस्स परियोसानतं आगमेन साधेतुं "एतदत्थं इद"न्तिआदिमाह । एतदेव फलं अत्थो यस्साति एतदत्थं। ब्राह्मणाति पिङ्गलकोच्छब्राह्मणं भगवा आलपति । इदहि मज्झिमागमे मूलपण्णासके चूळसारोपमसुत्त (म० नि० १.३१२ आदयो) पदं । एतदेव फलं सारं यस्साति एतंसारं निग्गहितागमेन । तथा एतंपरियोसानं। निब्बानोगधन्ति निब्बानन्तोगधं । आवुसो विसाखाति धम्मदिन्नाय थेरिया विसाखगहपतिमालपनं । इदहि चूळवेदल्लसुत्ते (म० नि० १.४६० आदयो) “सात्थं सब्यञ्जन"न्तिआदिसद्दन्तरसन्निधानतं "इध देसनाय आदिमज्झपरियोसानं अधिप्पेत"न्ति वुत्तं ।
एवं सद्दपबन्धवसेन देसनाय कल्याणत्तयविभागं दस्सेत्वा तदत्थवसेनपि दस्सेन्तो "भगवा ही"तिआदिमाह । अत्थतोपि हि तस्साधिप्पेतभावं हि-सद्देन समत्थेति । तथा समत्थनमुखेन च अत्थवसेन कल्याणत्तयविभागं दस्सेतीति । अस्थतो पनेतं दस्सेन्तो यो तस्मिं तस्मिं अत्थे कतविधि सद्दपबन्धो गाथासुत्तवसेन ववत्थितो परियत्तिधम्मोयेव इध देसनाति वुत्तो, तस्स चत्थो विसेसतो सीलादि एवाति आह “आदिम्हि सील"न्तिआदि । विसेसकथनव्हेतं । सामञतो पन सीलग्गहणेन ससम्भारसीलं गहितं, तथा मग्गग्गहणेन ससम्भारमग्गोति अत्थत्तयवसेन अनवसेसतो परियत्तिअत्थं परियादाय तिट्ठति । इतरथा हि कल्याणत्तयविभागो असब्बसाधारणो सिया। एत्थ च सीलमूलकत्ता सासनस्स सीलेन आदिकल्याणता वुत्ता, सासनसम्पत्तिया वेमज्झभावतो मग्गेन मज्झेकल्याणता |
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१९०-१९०)
निब्बानाधिगमतो उत्तरि करणीयाभावतो निब्बानेन परियोसानकल्याणता। तेनाति सीलादिदस्सनेन । अत्थवसेन हि इध देसनाय आदिकल्याणादिभावो वुत्तो । “तस्मा"तिआदि यथावुत्तानुसारेन सोतूनमनुसासनीदस्सनं ।
एसाति यथावुत्ताकारेन कथना । कथिकसण्ठितीति धम्मकथिकस्स सण्ठानं कथनवसेन समवट्ठानं ।
वण्णना अत्थविवरणा, पसंसना वा । न सो सात्थं देसेति निय्यानत्थविरहतो तस्सा देसनाय। . तस्माति चतुसतिपट्ठानादिनिय्यानत्थदेसनतो। एकव्यञ्जनादियुत्ताति सिथिलधनितादिभेदेसु दससु ब्यञ्जनेसु एकप्पकारेनेव, द्विप्पकारेनेव वा ब्यञ्जनेन युत्ता दमिळभासा विय। सब्बनिरोट्ठब्यञ्जनाति विवटकरणताय ओढे अफुसापेत्वा उच्चारेतब्बतो सब्बथा ओट्टफुसनरहितविमुत्तब्यञ्जना किरातभासा विय | सब्बविस्सट्टब्यञ्जनाति सब्बस्सेव विस्सज्जनीययुत्तताय सब्बथा विस्सग्गब्यञ्जना सवरभासा विय । सब्बनिग्गहितब्यञ्जनाति सब्बस्सेव सानुसारताय सब्बथा बिन्दुसहितब्यञ्जना पारसिकादिमिलक्खुभासा विय। एवं "दमिळकिरातसवरमिलक्खूनं भासा विया"ति इदं पच्चेकं योजेतब्बं । मिलक्खूति च पारसिकादयो । सब्बापेसा ब्यञ्जनेकदेसवसेनेव पवत्तिया अपरिपुण्णब्यञ्जनाति वुत्तं "ब्यञ्जनपारिपूरिया अभावतो अव्यञ्जना नामा"ति ।
ठानकरणानि सिथिलानि कत्वा उच्चारेतब्बमक्खरं पञ्चसु वग्गेसु पठमततियं सिथिलं। तानि असिथिलानि कत्वा उच्चारेतब्बमक्खरं तेस्वेव दुतियचतुत्थं धनितं । द्विमत्तकालमक्खरं दीघं। एकमत्तकालं रस्स।
पमाणं एकमत्तस्स, निमीसुमीसतो' ब्रर्बु । अङ्गुलिफोटकालस्स, पमाणेनापि अब्रवू ।।
सञोगपरं, दीघञ्च गरुकं। असंयोगपरं रस्सं लहुकं। ठानकरणानि निग्गहेत्वा अविवटेन मुखेन उच्चारेतब्बं निग्गहितं। परपदेन सम्बज्झित्वा उच्चारेतब्बं सम्बन्धं । तथा असम्बज्झितब् ववत्थितं। ठानकरणानि विस्सट्ठानि कत्वा विवटेन मुखेन उच्चारेतब्बं विमुत्तं। दसधातिआदीसु एवं सिथिलादिवसेन ब्यञ्जनबुद्धिसङ्घातस्स अक्खरुप्पादकचित्तस्स दसहि पकारेहि ब्यञ्जनानं पभेदोति अत्थो । सब्बानि हि अक्खरानि चित्तसमुट्ठानानि,
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पणीततरसामञफलवण्णना
यथाधिप्पेतत्थस्स च ब्यञ्जनतो पकासनतो ब्यञ्जनानीति, ब्यञ्जनबुद्धिया वा करणभूताय ब्यञ्जनानं दसधा पभेदोतिपि युज्जति ।
अमक्खेत्वाति अमिलेच्छेत्वा अविनासेत्वा, अहापेत्वाति अत्थो। तदत्थमाह "परिपुण्णब्यञ्जनमेव कत्वा"ति, यमत्थं भगवा आपेतुं एकगाथं, एकवाक्यम्पि देसेति, तमत्थं परिमण्डलपदब्यञ्जनाय एव देसनाय देसेतीति वुत्तं होति । तस्माति परिपुण्णव्यञ्जनधम्मदेसनतो । केवलसद्दो इध अनवसेसवाचको। न अवोमिस्सतादिवाचकोति आह "सकलाधिवचन"न्ति । परिपुण्णन्ति सब्बसो पुण्णं । तं पनत्थतो ऊनाधिकनिसेधनन्ति वुत्तं "अनूनाधिकवचन"न्ति । तत्थ यदत्थं देसितो, तस्स साधकत्ता अनूनता वेदितब्बा, तबिधुरस्स पन असाधकत्ता अनधिकता । उपनेतब्बस्स वा वोदानत्थस्स अवुत्तस्स अभावतो अनूनता, अपनेतब्बस्स संकिलेसत्थस्स वुत्तस्स अभावतो अनधिकता। सकलन्ति सब्बभागवन्तं । परिपुण्णन्ति सब्बसो पुण्णमेव । तेनाह "एकदेसेनापि अपरिपुण्णा नत्थी"ति । अपरिसुद्धा देसना होति तण्हाय संकिलिट्ठत्ता । लोकेहि तण्हाय आमसितब्बतो लोकामिसा, चीवरादयो पच्चया, तेसु अगधितचित्तताय लोकामिसनिरपेक्खो। हितफरणेनाति हिततो फरणेन हितूपसंहारेन विसेसनभूतेन । मेत्ताभावनाय करणभूताय मुदुहदयो । उल्लुम्पनसभावसण्ठितेनाति सकलसंकिलेसतो, वट्टदुक्खतो च उद्धरणाकारसण्ठितेन, कारुञाधिप्पायेनाति वुत्तं होति ।
"इतो पट्टाय दस्सामि, एवञ्च दस्सामी''ति समादातब्बटेन दानं वतं। पण्डितपञत्तताय सेट्ठद्वेन ब्रह्म, ब्रह्मानं वा सेट्ठानं चरियन्ति दानमेव ब्रह्मचरियं । मच्छरियलोभादिनिग्गहणेन समाचिण्णत्ता दानमेव सुचिण्णं। इद्धीति देविद्धि । जुतीति पभा, आनुभावो वा। बलवीरियूपपत्तीति महता बलेन, वीरियेन च समन्नागमो । नागाति वरुणनागराजानं विधुरपण्डितस्स आलपनं ।
दानपतीति दानसामिनो । ओपानभूतन्ति उदकतित्थमिव भूतं ।
धीराति सो विधुरपण्डितमालपति ।
मधुस्सवोति मधुरससन्दनं । पुञ्जन्ति पुञफलं, कारणवोहारेन वुत्तं । ब्रह्म, ब्रह्मानं वा चरियन्ति ब्रह्मचरियं, वेय्यावच्चं । एस नयो सेसेसुपि ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.१९१-१९१)
तित्तिरियन्ति तित्तिरसकुणराजेन भासितं ।
अञत्र ताहीति परदारभूताहि वज्जेत्वा । अम्हन्ति अम्हाकं ।
तपस्सी, लूखो, जेगुच्छी, पविवित्तोति चतुब्बिधस्स दुक्करस्स कतत्ता चतुरङ्गसमन्त्रागतं। सुदन्ति निपातमत्तं । लोमहंसनसुत्तं मज्झिमागमे मूलपण्णासके, "महासीहनादसुत्त"न्तिपि (म० नि० १.१४६) तं वदन्ति ।
इद्धन्ति समिद्धं । फीतन्ति फुल्लितं । वित्थारिकन्ति वित्थारभूतं । बाहुजञ्जन्ति बहूहि जनेहि निय्यानिकभावेन आतं । पुथुभूतन्ति बहुभूतं । याव देवमनुस्सेहीति एत्थ देवलोकतो याव मनुस्सलोका सुपकासितन्ति अधिप्पायवसेन पासादिकसुत्तट्ठकथायं (दी० नि० अट्ठ० ३.१७०) वुत्तं, याव देवा च मनुस्सा चाति अत्थो । तस्माति यस्मा सिक्खत्तयसङ्गहं सकलसासनं इध “ब्रह्मचरियन्ति अधिप्पेतं, तस्मा। "ब्रह्मचरियन्ति इमिना समानाधिकरणानि सब्बपदानि योजत्वा अत्थं दस्सेन्तो “सो धम्मं देसेती"तिआदिमाह । "एवं देसेन्तो चा"ति हि इमिना ब्रह्मचरियसदेन धम्मसद्दादीनं समानत्थतं दस्सेति, “धम्म देसेती"ति वत्वापि “ब्रह्मचरियं पकासेतीति वचनं सरूपतो अत्थप्पकासनत्थन्ति च विभावेति ।
१९१. वुत्तप्पकारसम्पदन्ति यथावुत्तआदिकल्याणतादिप्पभेदगुणसम्पदं । दूरसमुस्सारितमानस्सेव सासने सम्मापटिपत्ति सम्भवति, न मानजातिकस्साति वुत्तं "निहतमानत्ता"ति | उस्सन्नत्ताति बहुलभावतो। भोगरूपादिवत्थुका मदा सुप्पहेय्या होन्ति निमित्तस्स अनवट्ठानतो, न तथा . कुलविज्जादिमदा निमित्तस्स समवठ्ठानतो। तस्मा खत्तियब्राह्मणकुलीनानं पब्बजितानम्पि जातिविज्जं निस्साय मानजप्पनं दुप्पजहन्ति आह "येभुय्येन...पे०... मानं करोन्ती"ति । विजातितायाति विपरीतजातिताय, हीनजातितायाति अत्थो । येभुय्येन उपनिस्सयसम्पन्ना सुजातिका एव, न दुज्जातिकाति एवं वुत्तं । पतिद्वातुं न सक्कोन्तीति सीले पतिठ्ठहितुं न उस्सहन्ति, सुविसुद्धं कत्वा सीलं रक्खितुं न सक्कोन्तीति वुत्तं होति । सीलमेव हि सासने पतिट्टा, पतिट्ठातुन्ति वा सच्चपटिवेधेन लोकुत्तराय पतिट्ठाय पतिट्ठातुं । सा हि निप्परियायतो सासने पतिट्ठा नाम ।
एवं ब्यतिरेकतो अत्थं वत्वा अन्वयतोपि वदति “गहपतिदारका पना"तिआदिना |
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(२.२.१९१-१९१)
पणीततरसामञफलवण्णना
कच्छेहि सेदं मुञ्चन्तेहीति इत्थम्भूतलक्खणे करणवचनं । तथा पिट्ठिया लोणं पुष्फमानायाति, सेदं मुञ्चन्तकच्छा लोणं पुप्फमानपिट्टिका हुत्वा, तेहि वा पकारेहि लक्खिताति अत्थो । भूमि कसित्वाति भूमिया कस्सनतो, खेत्तूपजीवनतोति वुत्तं होति । तादिसस्साति जातिमन्तूपनिस्सयस्स । दुब्बलं मानं। बलवं दप्पं । कम्पन्ति परिकम्मं । "इतरेही"तिआदिना "उस्सन्नत्ता''ति हेतुपदं विवरति। "इती"ति वत्वा तदपरामसितब्बं दस्सेति "निहतमानत्ता"तिआदिना, इतिसद्दो वा निदस्सने, एवं यथावुत्तनयेनाति अत्थो । एस नयो ईदिसेसु ।
पच्चाजातोति एत्थ आकारो उपसग्गमत्तन्ति आह "पतिजातो"ति। परिसुद्धन्ति रागादीनं अच्चन्तमेव पहानदीपनतो निरुपक्किलेसताय सब्बथा सुद्धं । धम्मस्स सामी तदुप्पादकट्ठेन, धम्मेन वा सदेवकस्स लोकस्स सामीति धम्मस्सामी। सद्धन्ति पोथुज्जनिकसद्धावसेन सद्दहनं । विस्रजातिकानहि धम्मसम्पत्तिगहणपुब्बिका सद्धासिद्धि चतूसु पुग्गलेसु धम्मप्पमाणधम्मप्पसन्नपुग्गलभावतो । “यो एवं स्वाक्खातधम्मो, सम्मासम्बुद्धो वत सो भगवा"ति सद्धं पटिलभति । योजनसतन्तरेपि वा पदेसे। जायम्पतिकाति जानिपतिका । कामं “जायम्पतिका''ति वुत्तेयेव घरसामिकघरसामिनीवसेन द्विन्नमेव गहणं विज्ञायति, यस्स पन पुरिसस्स अनेका पजापतियो, तस्स वत्तब्बमेव नत्थि । एकायपि ताव संवासो सम्बाधोयेवाति दस्सनत्थं "द्वे"ति वुत्तं । रागादिना किञ्चनं, खेत्तवत्थादिना पलिबोधनं, तदुभयेन सह वत्ततीति सकिञ्चनपलिबोधनो, सोयेवत्थो तथा । रागो एव रजो, तदादिका दोसमोहरजा । वुत्तहि “रागो रजो न च पन रेणु वुच्चती''तिआदि (महानि० २०९; चूळनि० ७४) आगमनपथतापि उट्ठानहानता एवाति द्वेपि संवण्णना एकत्था, ब्यञ्जनमेव नानं । अलग्गनटेनाति असज्जनढेन अप्पटिबन्धसभावेन । रूपकवसेन, तद्धितवसेन वा अब्भोकासोति दस्सेतुं विय-सद्दग्गहणं । एवं अकुसलकुसलप्पवत्तीनं ठानाठानभावेन घरावासपब्बज्जानं सम्बाधब्भोकासतं दस्सेत्वा इदानि कुसलप्पवत्तिया एव अट्ठानट्ठानभावेन तेसं तब्भावं दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । रजानं सन्निपातट्टानं वियाति सम्बन्धो।
विसुं विसुं पदुद्धारमकत्वा समासतो अत्थवण्णना सोपकथा। एकम्पि दिवसन्ति एकदिवसमत्तम्पि। अखण्डं कत्वाति दुक्कटमत्तस्सापि अनापज्जनेन अछिदं कत्वा । चरिमकचित्तन्ति चुतिचित्तं। किलेसमलेनाति तण्हासंकिलेसादिमलेन । अमलीनन्ति असंकिलिहूं । परियोदातटेन निम्मलभावेन सङ्ख विय लिखितं धोतन्ति सङ्खलिखितं । अस्थमत्तं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-२
पन दस्सेतुं “लिखितसङ्घसदिस "न्ति वृत्तं । धोतसङ्घसप्पटिभागन्ति तदत्थस्सेव विवरणं । अपिच लिखितं सङ्घ सङ्घलिखितं यथा “अग्याहितो "ति, तस्सदिसत्ता पन इदं सङ्घलिखितन्तिपि दस्सेति, भावनपुंसकञ्चेतं । अज्झावसतात एत्थ अधि-सन कम्मप्पवचनीयेन योगतो " अगार "न्ति एतं भुम्मत्थे उपयोगवचनन्ति आह " अगारमज्झे "ति । यं नून यदि पन पब्बजेय्यं साधु वताति सम्बन्धो । कसायेन रत्तानि कासायानीति दस्सेति " कसायरसपीतताया "ति इमिना । कस्मा चेतानि गहितानीति आह " ब्रह्मचरियं चरन्तानं अनुच्छविकानी "ति । अच्छादेत्वाति वोहारवचनमत्तं, परिदहित्वाति अत्थो, तञ्च खो निवासनपारुपनवसेन । अगारवासो अगारं उत्तरपदलोपेन, तस्स हितं वुड्डिआवहं कसिवाणिज्जादिकम्मं । तं अनगारियन्ति तस्मिं अनगारिये ।
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१९२. सहस्सतोति कहापणसहस्सतो । भोगक्खन्धो भोगरासि । आबन्धनद्वेनाति " पत्तो नत्ता पत्ता 'तिआदिना पेमवसेन परिच्छेदं कत्वा बन्धनट्ठेन, एतेन आबन्धनत्थो परिवट्ट-सद्दोति दस्सेति । अथ वा पितामहपितुपुत्तादिवसेन परिवत्तनट्ठेन परिवट्टोतिपि युज्जति । " अम्हाकमेते "ति जयन्तीति आयो ।
१९३. पातिमोक्खसंवरेन पिहितकायवचीद्वारो समानो तेन संवरेन उपेतो नामाति कत्वा “ पातिमोक्खसंवरेन समन्नागतो" ति वृत्तं । आचारगोचरानं वित्थारो विभङ्गट्ठकथादीसु (विभं० अट्ठ० ५०३) गब्बो । "आचारगोचरसम्पन्नो "तिआदि च तस्सेव पातिमोक्खसंवरसंवुतभावस्स पच्चयदस्सनं । अणुसदिसताय अप्पमत्तकं " अणू" ति वुत्तन्ति "अप्पमत्तकेसू "ति । असञ्चिच्च आपन्नअनुखुद्दकापत्तिवसेन, सहसा उप्पन्नअकुसलचित्तुप्पादवसेन च अप्पमत्तकता । भयदस्सीति भयदस्सनसीलो । सम्माति अविपरीतं, सुन्दरं वा, तब्भावो च सक्कच्चं यावजीवं अवीतिक्कमवसेन । "सिक्खापदेसू "ति वुत्तेयेव तदवयवभूतं “सिक्खापदं समादाय सिक्खती 'ति अत्थस्स गम्यमानत्ता कम्मपदं न वुत्तन्ति आह " तं तं सिक्खापद" न्ति, तं तं सिक्खाकोट्ठासं, सिक्खाय वा अधिगमुपायं तस्सा वा निस्सयन्ति अत्थो ।
आह
(२.२.१९२-१९३)
एत्थाति एतस्मिं “पातिमोक्खसंवरसंवुतो 'ति आदिवचने । आचारगोचरग्गहणेनेवाति "आचारगोचरसम्पन्नो "ति वचनेनेव । तेनाह “कुसले कायकम्मवचीकम्मे गहितेपी 'ति । न हि आचारगोचरसद्दमत्तेन कुसलकायवचीकम्मग्गहणं सम्भवति, इमिना पुनरुत्तिताय चोदनालेसं दस्सेति । तस्साति आजीवपारिसुद्धिसीलस्स । उप्पत्तिद्वारदस्सनत्थन्ति उप्पत्तिया
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(२.२.१९४-२११-१९४-२११)
चूळमज्झिममहासीलवण्णना
कायवचीवित्तिसङ्घातस्स द्वारस्स कम्मापदेसेन दस्सनत्थं, एतेन यथावुत्तचोदनाय सोधनं दस्सेति । इदं वुत्तं होति- सिद्धेपि सति पुनारम्भो नियमाय वा होति, अत्थन्तरबोधनाय वा, इध पन अत्थन्तरं बोधेति, तस्मा उप्पत्तिद्वारदस्सनत्थं वुत्तन्ति । कुसलेनाति च सब्बसो अनेसनपहानतो अनवज्जेन । कथं तेन उप्पत्तिद्वारदस्सनन्ति आह “यस्मा पना"तिआदि । कायवचीद्वारेसु उप्पन्नेन अनवज्जेन कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतत्ता परिसुद्धाजीवोति अधिप्पायो । तदुभयमेव हि आजीवहेतुकं आजीवपारिसुद्धिसीलं |
इदानि सुत्तन्तरेन संसन्दितुं "मुण्डिकपुत्तसुत्तन्तवसेन वा एवं वुत्त"न्ति आह । वा-सद्दो चेत्थ सुत्तन्तरसंसन्दनासङ्घातअत्थन्तरविकप्पनत्थो । मुण्डिकपुत्तसुत्तन्तं नाम मज्झिमागमवरे मज्झिमपण्णासके, यं “समणमुण्डिकपुत्तसुत्तन्तिपि वदन्ति । तत्थ थपतीति पञ्चकङ्गं नाम वड्डकिं भगवा आलपति । थपति-सद्दो हि वड्डकिपरियायो । इदं वुत्तं होति- यस्मा "कतमे च थपति कुसला सीला ? कुसलं कायकम्मं कुसलं वचीकम्म"न्ति सीलस्स कुसलकायकम्मवचीकम्मभावं दस्सेत्वा “आजीवपारिसुद्धम्पि खो अहं थपति सीलस्मिं वदामी"ति (म० नि० २.२६५) एवं पवत्ताय मुण्डिकपुत्तसुत्तदेसनाय "कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेना"ति सीलस्स कुसलकायकम्मवचीकम्मभावं दस्सेत्वा "परिसुद्धाजीवो'"ति एवं पवत्ता अयं सामञफलसुत्तदेसना एकसङ्गहा अञदत्थु संसन्दति समेति यथा तं गङ्गोदकेन यमुनोदकं, तस्मा ईदिसीपि भगवतो देसनाविभूति अत्थेवाति । सोलस्मिं वदामीति सीलन्ति वदामि, सीलस्मिं वा आधारभूते अन्तोगधं परियापन्नं, निद्धारणसमुदायभूते वा एकं सीलन्ति वदामि ।
तिविधेनाति चूळसीलमज्झिमसीलमहासीलतो तिविधेन । "मनच्छद्वेसू"ति इमिना कायपञ्चमानमेव गहणं निवत्तेति । उपरि निद्देसे वक्खमानेसु सत्तसु ठानेसु। तिविधेनाति चतूसु पच्चेकं यथालाभयथाबलयथासारुप्पतावसेन तिबिधेन ।
चूळमज्झिममहासीलवण्णना १९४-२११. एवन्ति “सो एवं पब्बजितो समानो पातिमोक्खसंवरसंवतो विहरती"तिआदिना नयेन । “सीलस्मि"न्ति इदं निद्धारणे भुम्मं ततो एकस्स निद्धारणीयत्ताति आह “एकं सील"न्ति । अपिच इमिना आधारे भुम्मं दस्सेति समुदायस्स अवयवाधिद्वानत्ता यथा “रुक्खे साखा''ति | "इद"न्ति पदेन कत्वत्थवसेन समानाधिकरणं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२१२-२१२)
भुम्मवचनस्स कत्वत्थे पवत्तनतो यथा “वनप्पगुम्बे यथ फुसितग्गे''ति (खु० पा० ६.१३; सु० नि० २३६) दस्सेति “पच्चत्तवचनत्थे वा एतं भुम्म"न्ति इमिना । अयमेवत्थोति पच्चत्तवचनत्थो एव । ब्रह्मजालेति ब्रह्मजालसुत्तवण्णनायं, (दी० नि० अट्ठ० १.७) ब्रह्मजालसुत्तपदे वा। संवण्णनावसेन वुत्तनयेनाति अत्थो । “इदमस्स होति सीलस्मिन्ति एत्थ महासीलपरियोसानेन निद्धारियमानस्स अभावतो पच्चत्तवचनत्थोयेव सम्भवतीति आह "इदं अस्स सीलं होतीति अत्थो"ति, ततोयेव च पाळियं अपिग्गहणमकतन्ति दट्ठब्बं ।
२१२. अत्तानुवादपरानुवाददण्डभयादीनि असंवरमूलकानि भयानि । "सीलस्सासंवरतोति सीलस्स असंवरणतो, सीलसंवराभावतोति अत्थो"ति (दी० नि० टी० १.२८०) आचरियेन वुत्तं, “यदिदं सीलसंवरतो''ति पन पदस्स "यं इदं भयं सीलसंवरतो भवेय्या'ति अत्थवचनतो, “सीलसंवरहेतु भयं न समनुपस्सती''ति च अत्थस्स उपपत्तितो सीलसंवरतो सीलसंवरहेतूति अत्थोयेव सम्भवति । “यं इदं भयं सीलसंवरतो भवेय्या''ति हि पाठोपि दिस्सति। "संवरतो"ति हेतुं वत्वा तदधिगमितअत्थवसेन “असंवरमूलकस्स भयस्स अभावा"तिपि हेतुं वदति । यथाविधानविहितेनाति यथाविधानं सम्पादितेन । खत्तियाभिसेकेनाति खत्तियभावावहेन अभिसेकेन । मुद्धनि अवसित्तोति मत्थकेयेव अभिसित्तो । एत्थ च “यथाविधानविहितेना''ति इमिना पोराणकाचिण्णविधानसमङ्गितासङ्खातं एकं अङ्गं दस्सेति, “खत्तियाभिसेकेना''ति इमिना खत्तियभावावहतासङ्खातं, "मुद्धनि अवसित्तो''ति इमिना मुद्धनियेव अभिसिञ्चितभावसङ्घातं । इति तिवङ्गसमन्नागतो खत्तियाभिसेको वुत्तो होति । येन अभिसित्तराजूनं राजानुभावो समिज्झति। केन पनायमत्थो विज्ञायतीति ? पोराणकसत्थागतनयेन । वुत्तहि अग्गञ्जसुत्तट्ठकथायं महासम्मताभिसेकविभावनाय "ते पनस्स खेत्तसामिनो तीहि सङ्केहि अभिसेकम्पि अकंसू'ति (दी० नि० अट्ठ० ३.१३१) मज्झिमागमट्ठकथायञ्च महासीहनादसुत्तवण्णनायं वुत्तं "मुद्धावसित्तेनाति तीहि सङ्केहि खत्तियाभिसेकेन मुद्धनि अभिसित्तेना''ति (म० नि० अट्ठ० १.१६०) सीहळटुकथायम्पि चूळसीहनादसुत्तवण्णनायं “पठमं ताव अभिसेकं गण्हन्तानं राजूनं सुवण्णमयादीनि तीणि सङ्घानि च गङ्गोदकञ्च खत्तियकञञ्च लढे वट्टती"तिआदि वुत्तं ।
अयं पन तत्थागतनयेन अभिसेकविधानविनिच्छयो- अभिसेकमङ्गलस्थव्हि अलङ्कतपटियत्तस्स मण्डपस्स अन्तोकतस्स उदुम्बरसाखमण्डपस्स मज्झे सुप्पतिट्टिते उदुम्बरभद्दपीठम्हि अभिसेकारहं अभिजच्वं खत्तियं निसीदापेत्वा पठमं ताव
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(२.२.२१२-२१२)
चूळमज्झिममहासीलवण्णना
मङ्गलाभरणभूसिता जातिसम्पन्ना खत्तियकञा गङ्गोदकपुण्णं सुवण्णमयसामुद्दिकदक्खिणावट्टसङ्ख उभोहि हत्थेहि सक्कच्चं गहेत्वा सीसोपरि उस्सापेत्वा तेन तस्स मुद्धनि अभिसेकोदकं अभिसिञ्चति, एवञ्च वदेति “देव तं सब्बेपि खत्तियगणा अत्तानमारक्खत्थं इमिना अभिसेकेन अभिसेकिकं महाराजं करोन्ति, त्वं राजधम्मेसु ठितो धम्मेन समेन रज्जं कारेहि, एतेसु खत्तियगणेसु त्वं पुत्तसिनेहानुकम्पाय सहितचित्तो, हितसममेत्तचित्तो च भव, रक्खावरणगुत्तिया तेसं रक्खितो च भवाही''ति । ततो पुन पुरोहितोपि पोरोहिच्चठानानुरूपालङ्कारेहि अलङ्कतपटियत्तो गङ्गोदकपुण्णं रजतमयं सङ्ख उभोहि हत्थेहि सक्कच्चं गहेत्वा तस्स सीसोपरि उस्सापेत्वा तेन तस्स मुद्धनि अभिसेकोदकं अभिसिञ्चति, एवञ्च वदेति “देव तं सब्बेपि ब्राह्मणगणा अत्तानमारक्खत्थं इमिना अभिसेकेन अभिसेकिकं महाराजं करोन्ति, त्वं राजधम्मेसु ठितो धम्मेन समेन रज्जं कारेहि, एतेसु ब्राह्मणगणेसु त्वं पुत्तसिनेहानुकम्पाय सहितचित्तो, हितसममेत्तचित्तो च भव, रक्खावरणगुत्तिया तेसं रक्खितो च भवाही''ति । ततो पुन सेविपि सेटिवानभूसनभूसितो गङ्गोदकपुण्णं रतनमयं सङ्ख उभोहि हत्थेहि सक्कच्चं गहेत्वा तस्स सीसोपरि उस्सापेत्वा तेन तस्स मुद्धनि अभिसेकोदकं अभिसिञ्चति, एवञ्च वदेति “देव तं सब्बेपि गहपतिगणा अत्तानमारक्खत्थं इमिना अभिसेकेन अभिसेकिकं महाराज करोन्ति, त्वं राजधम्मेसु ठितो धम्मेन समेन रज्जं कारेहि, एतेसु गहपतिगणेसु त्वं पुत्तसिनेहानुकम्पाय सहितचित्तो, हितसममेत्तचित्तो च भव, रक्खावरणगुत्तिया तेसं रक्खितो च भवाही"ति । ते पन तस्स एवं वदन्ता “सचे त्वं अम्हाकं वचनानुरूपं रज्जं करिस्ससि, इच्चेतं कुसलं । नो चे करिस्ससि, तव मुद्धा सत्तधा फलतू"ति एवं रो अभिसपन्ति वियाति दट्टब्बन्ति । वड्डकीसूकरजातकादीहि चायमत्थो विभावेतब्बो, अभिसेकोपकरणानिपि समन्तपासादिकादीसु (पारा० अठ्ठ० १.ततियसङ्गीतिकथा) गहेतब्बानीति ।
यस्मा निहतपच्चामित्तो, तस्मा न समनुपस्सतीति सम्बन्धो। अनवज्जता कुसलभावेनाति आह "कुसलं सीलपदबानेही"तिआदि। इदं वुत्तं होति - कुसलसीलपदट्ठाना अविप्पटिसारपामोज्जपीतिपस्सद्धिधम्मा, अविप्पटिसारादिनिमित्तञ्च उप्पन्नं चेतसिकसुखं पटिसंवेदेति, चेतसिकसुखसमुट्ठानेहि च पणीतरूपेहि फुट्ठसरीरस्स उप्पन्नं कायिकसुखन्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका २
(२.२.२१३-२१४)
इन्द्रियसंवरकथावण्णना
२१३. सामञ्जस्स विसेसापेक्खताय इधाधिप्पेतोपि विसेसो तेन अपरिच्चत्तो एव होतीति आह "चक्खुसद्दो कत्थचि बुद्धचक्खुम्हि वत्तती"तिआदि । विज्जमानमेव हि अभिधेय्यभावेन विसेसत्थं विसेसन्तरनिवत्तनेन विसेससद्दो विभावेति, न अविज्जमानं । सेसपदेसुपि एसेव नयो । अञहि असाधारणं बुद्धानमेव चक्खु दस्सनन्ति बुद्धचक्खु, आसयानुसयजाणं, इन्द्रियपरोपरियत्तञाणञ्च । समन्ततो सब्बसो दस्सनद्वेन चक्खूति समन्तचक्खु, सब्ब ताणं । तथूपमन्ति पब्बतमुद्धूपमं, धम्ममयं पासादन्ति सम्बन्धो । सुमेध समन्तचक्खु त्वं जनतमवेक्खस्सूति अत्थो । अरियमग्गत्तयपाति हेट्ठिमारियमग्गत्तयपञ्जा । "धम्मचक्खु नाम हेट्ठिमा तयो मग्गा, तीणि च फलानी"ति सळायतनवग्गट्ठकथायं (सं० नि० अट्ठ० ३.४.४१८) वुत्तं, इध पन मग्गेहेव फलानि सङ्गहेत्वा दस्सेति । चतुसच्चसङ्खाते धम्मे चक्खूति हि धम्मचक्षु। पञ्जायेव दस्सनट्रेन चक्खूति पञाचक्खु, पुब्बेनिवासासवक्खयाणं । दिब्बचक्खुम्हीति दुतियविज्जाय । इधाति "चक्खुना रूपं दिस्वाति इमस्मिं पाठे। अयन्ति चक्खुसद्दो । “पसादचक्खुवोहारेना"ति इमिना इध चक्खुसद्दो चक्खुपसादेयेव निप्परियायतो वत्तति, परियायतो पन निस्सयवोहारेन निस्सितस्स वत्तब्बतो चक्खुविज्ञाणेपि यथा “मञ्चा उक्कुढ़ि करोन्ती"ति दस्सेति । इधापि ससम्भारकथा अवसिट्टाति कत्वा सेसपदेसुपीति पि-सद्दग्गहणं, "न निमित्तग्गाही"तिआदिपदेसुपीति अत्थो । विविधं असनं खेदनं ब्यासेको, किलेसो एव ब्यासेको, तेन विरहितो तथा, विरहितता च असम्मिस्सता, असम्मिस्सभावो च सम्पयोगाभावतो परिसुद्धताति आह "असम्मिस्सं परिसुद्ध"न्ति, किलेसदुक्खेन अवोमिस्सं, ततो च सुविसुद्धन्ति अत्थो। सति च सुविसुद्धे इन्द्रियसंवरे नीवरणेसु पधानभूतपापधम्मविगमेन अधिचित्तानुयोगो हत्थगतो एव होति, तस्मा अधिचित्तसुखमेव "अब्यासेकसुख''न्ति वुच्चतीति दस्सेति “अधिचित्तसुख"न्ति इमिना ।
सतिसम्पजञकथावण्णना
२१४. समन्ततो पकारेहि, पकटुं वा सविसेसं जानातीति सम्पजानो, तस्स भावो सम्पजनं, तथापवत्तञाणं, तस्स विभजनं सम्पजञभाजनीयं, तस्मिं सम्पजज्ञभाजनीयम्हि । "गमन"न्ति इमिना अभिक्कमनं अभिक्कन्तन्ति भावसाधनमाह । तथा पटिक्कमनं पटिक्कन्तन्ति वुत्तं "निवत्तन"न्ति । गमनञ्चेत्थ निवत्तेत्वा, अनिवत्तेत्वा च गमनं, निवत्तनं
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(२.२.२१४-२१४)
सतिसम्पजञकथावण्णना
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पन निवत्तिमत्तमेव, अञमञमुपादानकिरियामत्तञ्चेतं द्वयं । कथं लब्भतीति आह "गमने"तिआदि | अभिहरन्तोति गमनवसेन कायं उपनेन्तो । पटिनिवत्तेन्तोति ततो पुन निवत्तेन्तो । अपनामेन्तोति अपक्कमनवसेन परिणामेन्तो । आसनस्साति पीठकादिआसनस्स । पुरिमअङ्गाभिमुखोति अटनिकादिपुरिमावयवाभिमुखो। संसरन्तोति संसप्पन्तो। पच्छिमअङ्गपदेसन्ति अटनिकादिपच्छिमायवप्पदेसं । पच्चासंसरन्तोति पटिआसप्पन्तो। "एसेव नयो"ति इमिना निपन्नस्सेव अभिमुखं संसप्पनपटिआसप्पनानि दस्सेति । ठाननिसज्जासयनेसु हि यो गमनविधुरो कायस्स पुरतो अभिहारो, सो अभिक्कमो । पच्छतो अपहारो पटिक्कमोति लक्खणं ।
सम्पजाननं सम्पजानं, तेन अत्तना कत्तब्बकिच्चस्स करणसीलो सम्पजानकारीति आह "सम्पज न सब्बकिच्चकारी"ति। "सम्पजझमेव वा कारी"ति इमिना सम्पजानस्स करणसीलो सम्पजानकारीति दस्सेति । “सो ही'तिआदि दुतियविकप्पस्स समत्थनं । "सम्पजज्ञ"न्ति च इमिना सम्पजान-सद्दस्स सम्पजञपरियायता वुत्ता। तथा हि आचरियानन्दत्थेरेन वुत्तं “समन्ततो, सम्मा, समं वा पजाननं सम्पजानं, तदेव सम्पजञ"न्ति (विभं० मूल टी० २.५२३) अयं अट्ठकथातो अपरो नयो - यथा अतिक्कन्तादीसु असम्मोहं उप्पादेति, तथा सम्पजानस्स कारो करणं सम्पजानकारो, सो एतस्स अस्थीति सम्पजानकारीति ।
धम्मतो वड्डिसङ्घातेन अत्थेन सह वत्ततीति सात्थकं, अभिक्कन्तादि, सात्थकस्स सम्पजाननं सात्थकसम्पजञ्ज। सप्पायस्स अत्तनो पतिरूपस्स सम्पजाननं सप्पायसम्पजञ्ज। अभिक्कमादीसु भिक्खाचारगोचरे, अञत्थ च पवत्तेसु अविजहितकम्मट्ठानसङ्खाते गोचरे सम्पजाननं गोचरसम्पजनं। सामञनिद्देसेन, हि एकसेसनयेन वा गोचरसद्दो तदत्थद्वयेपि पवत्तति । अतिक्कमादीसु असम्मुव्हनसङ्खातं असम्मोहमेव सम्पजलं असम्मोहसम्पजझं। चित्तवसेनेवाति चित्तस्स वसेनेव, चित्तवसमनुगतेनेवाति अत्थो । परिग्गहेत्वाति तुलयित्वा तीरेत्वा, पटिसङ्घायाति अत्थो । सङ्घदस्सनेनेव उपोसथपवारणादिअत्थाय गमनं सङ्गहितं । आदिसद्देन कसिणपरिकम्मादीनं सङ्गहो। सङ्घपतो वुत्तं तदत्थमेव विवरितुं "चेतियं वा"तिआदि वुत्तं । अरहत्तं पापुणातीति उक्कट्ठनिद्देसो एस । समथविपस्सनुप्पादनम्पि हि भिक्खुनो वड्डियेव । तत्थाति असुभारम्मणे । केचीति अभयगिरिवासिनो। आमिसतोति चीवरादिआमिसपच्चयतो । कस्माति आह "तं निस्साया"तिआदि ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२१४-२१४)
तस्मिन्ति सात्थकसम्पजञवसेन परिग्गहितअत्थे । यस्मा पन धम्मतो वड्डियेव अत्थो नाम, तस्मा यं “सात्थक"न्ति अधिप्पेतं गमनं, तं सब्बम्पि सप्पायमेवाति सिया अविसेसेन कस्सचि आसङ्काति तन्निवत्तनत्थं "चेतियदस्सनं तावा"तिआदि आरद्धं । महापूजायाति महतिया पूजाय, बहूनं पूजादिवसेति वुत्तं होति । चित्तकम्मरूपकानी वियाति चित्तकम्मकतपटिमायो विय, यन्तपयोगेन वा नानप्पकारविचित्तकिरिया पटिमायो विय । तत्राति तासु परिसासु। अस्साति भिक्खुनो। असमपेखनं नाम गेहस्सितअञआणुपेक्खावसेन आरम्मणस्स अयोनिसो गहणं । यं सन्धाय वुत्तं “चक्खुना रूपं दिस्वा उप्पज्जति उपेक्खा बालस्स मूळहस्स पुथुज्जनस्सा'तिआदि (म० नि० ३.३०८) मातुगामसम्फस्सवसेन कायसंसग्गापत्ति। हत्थिआदिसम्मद्देन जीवितन्तरायो। विसभागरूपदस्सनादिना ब्रह्मचरियन्तरायो। “दसद्वादसयोजनन्तरे परिसा सन्निपतन्ती"तिआदिना वुत्तप्पकारेनेव। महापरिसपरिवारानन्ति कदाचि धम्मस्सवनादिअत्थाय इत्थिपुरिससम्मिस्सपरिवारे सन्धाय वुत्तं ।
तदत्थदीपनत्यन्ति असुभदस्सनस्स सात्थकभावसङ्घातस्स अत्थस्स दीपनत्थं । पब्बजितदिवसतो पट्ठाय पटिवचनदानवसेन भिक्खूनं अनुवत्तनकथा आचिण्णा, तस्मा पटिवचनस्स अदानवसेन अननुवत्तनकथा तस्स दुतिया नाम होतीति आह "ढे कथा नाम न कथितपुब्बा"ति । द्वे कथाति हि वचनकरणाकरणकथा । तत्थ वचनकरणकथायेव कथितपुब्बा, दुतिया न कथितपुब्बा । तस्मा सुब्बचत्ता पटिवचनमदासीति अत्थो ।
एवन्ति इमिना । “सचे पन चेतियस्स महापूजाया''तिआदिकं सब्बम्पि वुत्तप्पकारं पच्चामसति, न “पुरिसस्स मातुगामासुभ''न्तिआदिकमेव । परिग्गहितं सात्थकं, सप्पायञ्च येन सो परिग्गहितसात्थकसप्पायो, तस्स, तेन यथानुपुब्बिकं सम्पजअपरिग्गहणं दस्सेति । वुच्चमानयोगकम्मस्स पवत्तिट्ठानताय भावनाय आरम्मणं कम्मट्ठानं, तदेव भावनाय विसयभावतो गोचरन्ति आह "कम्मट्ठानसङ्घातं गोचर"न्ति । उग्गहेत्वाति यथा उग्गहनिमित्तं उप्पज्जति, एवं उग्गहकोसल्लस्स सम्पादनवसेन उग्गहणं कत्वा । भिक्खाचारगोचरेति भिक्खाचारसङ्खाते गोचरे, अनेन कम्मट्ठाने, भिक्खाचारे च गोचरसद्दोति दस्सेति ।
इधाति सासने । हरतीति कम्मट्ठानं पवत्तनवसेन नेति, याव पिण्डपातपटिक्कमा अनुयुञ्जतीति अत्थो । न पच्चाहरतीति आहारूपयोगतो याव दिवाठानुपसङ्कमना कम्मट्ठानं न पटिनेति । तत्थाति तेसु चतूसु भिक्खूसु । आवरणीयेहीति नीवरणेहि । पगेवाति
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(२.२.२१४-२१४)
सतिसम्पजञकथावण्णना
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पातोयेव । सरीरपरिकम्मन्ति मुखधोवनादिसरीरपटिजग्गनं । वे तयो पल्लङ्केति द्वे तयो निसज्जावारे । ऊरुबद्धासनव्हेत्थ पल्लङ्को । उसुमन्ति द्वे तीणि उण्हापनानि सन्धाय वुत्तं । कम्मट्ठानं अनुयुजित्वाति तदहे मूलभूतं कम्मट्ठानं अनुयुञ्जित्वा । कम्मट्ठानसीसेनेवाति कम्मट्ठानमुखेनेव, कम्मट्ठानमविजहन्तो एवाति वुत्तं होति, तेन “पतोपि अचेतनो''तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.२१४; म० नि० अट्ठ० १.२०९; सं० नि० अट्ठ० ३.५.१६८; विभं० अट्ठ० ५२३) वक्खमानं कम्मट्ठानं, यथापरिहरियमानं वा अविजहित्वाति दस्सेति।
गन्त्वाति पापुणित्वा । बुद्धानुस्सतिकम्मट्ठानं चे, तदेव निपच्चकारसाधनं । अञञ्चे, अनिपच्चकारकरणमिव होतीति दस्सेतुं "सचे"तिआदि वुत्तं । अतब्बिसयेन तं ठपेत्वा। "महन्तं चेतियं चे"तिआदिना कम्मट्ठानिकस्स मूलकम्मट्ठानमनसिकारस्स पपञ्चाभावदस्सनं । अछेन पन तथापि अञथापि वन्दितब्बमेव । तथेवाति तिक्खत्तुमेव । परिभोगचेतियतो सारीरिकचेतियं गरुतरन्ति कत्वा "चेतियं वन्दित्वा"ति पुब्बकालकिरियावसेन वुत्तं । यथाह अट्ठकथायं “चेतियं बाधयमाना बोधिसाखा हरितब्बा'"ति, (म० नि० अट्ठ० ४.१२८; अ० नि० अट्ठ० १.१.२७५; विभं० अट्ठ० ८०९) अयं आचरियस्स मति, “बोधियङ्गणं पत्तेनापी"ति पन वचनतो यदि चेतियङ्गणतो गते भिक्खाचारमग्गे बोधियङ्गणं भवेय्य, सापि वन्दितब्बाति मग्गानुक्कमेनेव “चेतियं वन्दित्वा''ति पुब्बकालकिरियावचनं, न तु गरुकातब्बतानुक्कमेन । एवहि सति बोधियङ्गणं पठमं पत्तेनापि बोधिं वन्दित्वा चेतियं वन्दितब्बं, एकमेव पत्तेनापि तदेव वन्दितब्बं, तदुभयम्पि अप्पत्तेन न वन्दितब्बन्ति अयमत्थो सुविचातो होति । भिक्खाचारगतमग्गेन हि पत्तट्ठाने कत्तब्बअन्तरावत्तदस्सनमेतं, न पन धुववत्तदस्सनं । पुब्बे हेस कतवत्तोयेव । तेनाह “पगेव चेतियङ्गणबोधियङ्गणवत्तं कत्वा''तिआदि । बुद्धगुणानुस्सरणवसेनेव बोधिआदिपरिभोगचेतियेपि निपच्चकरणं उपपन्नन्ति दस्सेति "बुद्धस्स भगवतो सम्मुखा विय निपच्चकारं दस्सेत्वा"ति इमिना । पटिसामितद्वानन्ति सोपानमूलभावसामञ्जेन वुत्तं, बुद्धारम्मणपीतिविसयभूतचेतियङ्गणबोधियङ्गणतो बाहिरट्ठानं पत्वाति वुत्तं होति ।
गामसमीपेति गामूपचारे । ताव पऽहं वा पुच्छन्ति, धम्मं वा सोतुकामा होन्तीति सम्बन्धो । जनसमहत्थन्ति “मयि अकथेन्ते एतेसं को कथेस्सती'ति धम्मानुग्गहेन महाजनस्स सङ्गहणत्थं । अट्ठकथाचरियानं वचनं समत्थेतुं "धम्मकथा हि कम्मट्ठानविनिमुत्ता नाम नत्थी"ति वुत्तं । तस्माति यस्मा “धम्मकथा नाम कातब्बायेवाति अट्ठकथाचरिया वदन्ति,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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यस्मा वा धम्मकथा कम्मट्ठानविनिमुत्ता नाम नत्थि, तस्मा धम्मकथं कथेत्वाति सम्बन्धो । आचरियानन्दत्थेरेन (विभं० मूल टी० ५२३) पन "तस्मा"ति एतस्स “कथेतब्बायेवाति वदन्ती''ति एतेन सम्बन्धो वुत्तो । कम्मट्ठानसीसेनेवाति अत्तना परिहरियमानं कम्मट्ठानं अविजहनवसेन, तदनुगुणंयेव धम्मकथं कथेत्वाति अत्थो, दुतियपदेपि एसेव नयो । अनुमोदनं कत्वाति एत्थापि “कम्मट्ठानसीसेनेवा'"ति अधिकारो। तत्थाति गामतो निक्खमनट्ठानेयेव ।
"पोराणकभिक्खू"तिआदिना पोराणकाचिण्णदस्सनेन यथावुत्तमत्थं दळ्हं करोति । सम्पत्तपरिच्छेदेनेवाति “परिचितो अपरिचितो''तिआदिविभागं अकत्वा सम्पत्तकोटिया एव, समागममत्तेनेवाति अत्थो । आनुभावेनाति अनुग्गहबलेन । भयेति परचक्कादिभये । छातकेति दुभिक्खे ।
“पच्छिमयामेपि निसज्जाचङ्कमेहि वीतिनामेत्वा''तिआदिना वुत्तप्पकारं। करोन्तस्साति करमानस्सेव, अनादरे चेतं सामिवचनं । कम्मजतेजोति गहणिं सन्धायाह । पज्जलतीति उण्हभावं जनेति । ततोयेव उपादिन्नकं गण्हाति, सेदा मुच्चन्ति । कम्मट्ठानं वीथिं नारोहति खुदापरिस्समेन किलन्तकायस्स समाधानाभावतो। अनुपादिन्नं ओदनादिवत्थु । उपादिन्नं उदरपटलं । अन्तोकुच्छियहि ओदनादिवत्थुस्मिं असति कम्मजतेजो उट्ठहित्वा उदरपटलं गण्हाति, “छातोस्मि, आहारं मे देथा''ति वदापेति, भुत्तकाले उदरपटलं मुञ्चित्वा वत्थु गण्हाति, अथ सत्तो एकग्गो होति, यतो “छायारक्खसो विय कम्मजतेजो''ति अट्ठकथासु वुत्तो। सो पगेवाति एत्थ "तस्मा"ति सेसो । गोरूपानन्ति गुन्नं, गोसमूहानं वा, वजतो गोचरत्थाय निक्खमनवेलायमेवाति अत्थो । वुत्तविपरीतनयेन उपादिनकं मुञ्चित्वा अनुपादिनकं गण्हाति। अन्तराभत्तेति भत्तस्स अन्तरे, याव भत्तं न भुञ्जति, तावाति अत्थो । तेनाह "कम्मट्ठानसीसेन आहारञ्च परिभुजित्वा"ति । अवसेसट्ठानेति यागुया अग्गहितट्ठाने । ततोति भुञ्जनतो । पोङ्खानुपोवन्ति कम्मट्ठानानुपट्टानस्स अनवच्छेददस्सनमेतं, उत्तरुत्तरिन्ति अत्थो, यथा पोङ्खानुपोचं पवत्ताय सरपटिपाटिया अनवच्छेदो, एवमेतस्सापि कम्मट्ठानुपट्ठानस्साति वुत्तं होति । "एदिसा चा"तिआदिना तथा कम्मट्ठानमनसिकारस्सापि सात्थकभावं दस्सेति | आसनन्ति निसज्जासनं ।।
निक्खित्तधुरोति भावनानुयोगे अनुक्खित्तधुरो अनारद्धवीरियो। वत्तपटिपत्तिया
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सतिसम्पजञकथावण्णना
अपरिपूरणेन सब्बवत्तानि भिन्दित्वा । पञ्चविधचेतोखीलविनिबन्धचित्तोति पञ्चविधेन चेतोखीलेन, विनिबन्धेन च सम्पयुत्तचित्तो । वुत्तहि मज्झिमागमे चेतोखीलसुत्ते
"कतमस्स पञ्च चेतोखीला अप्पहीना होन्ति ? इध भिक्खवे भिक्खु सत्थरि कङति, धम्मे कङ्घति, सङ्घे कङति, सिक्खाय कङति, सब्रह्मचारीसु कुपितो होती"ति, (म० नि० १.१८५)
"कतमस्स पञ्च चेतसो विनिबन्धा असमुच्छिन्ना होन्ति ? इध भिक्खवे भिक्खु कामे अवीतरागो होति, काये अवीतरागो होति, रूपे अवीतरागो होति, यावदत्थं उदरावदेहकं भुञ्जित्वा सेय्यसुखं पस्ससुखं मिद्धसुखं अनुयुत्तो विहरति, अञ्जतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरती''ति (म० नि० १.१८६)। च
वित्थारो । आचरियेन (दी० नि० टी० १.२१५) पन पञ्चविधचेतोविनिबन्धचित्तभावोयेव पदेकदेसमुल्लिङ्गेत्वा दस्सितो । चित्तस्स कचवरखाणुकभावो हि चेतोखीलो, चित्तं बन्धित्वा मुट्ठियं विय कत्वा गण्हनभावो चेतसो विनिबन्धो। पठमो चेत्थ विचिकिच्छादोसवसेन, दुतियो लोभवसेनाति अयमेतेसं विसेसो। चरित्वाति विचरित्वा । कम्मट्ठानविरहवसेन
तुच्छो।
भावनासहितमेव भिक्खाय गतं, पच्चागतञ्च यस्साति गतपच्चागतिकं, तदेव वत्तं, तस्स वसेन । अत्तकामाति अत्तनो हितसुखमिच्छन्ता, धम्मच्छन्दवन्तोति अत्थो । धम्मो हि हितं, सुखञ्च तन्निमित्तकन्ति । अथ वा विझूनं अत्ततो निब्बिसेसत्ता, अत्तभावपरियापन्नत्ता च धम्मो अत्ता नाम, तं कामेन्ति इच्छन्तीति अत्तकामा। अधुना पन अत्थकामाति हितवाचकेन अत्थसद्देन पाठो दिस्सति, धम्मसञ्जुत्तं हितमिच्छन्ता, हितभूतं वा धम्ममिच्छन्ताति तस्सत्थो । इणट्टाति इणेन पीळिता। तथा सेसपदद्वयेपि । एत्थाति सासने ।
उसभं नाम वीसति यट्ठियो, गावुतं नाम असीति उसभा । ताय सञआयाति तादिसाय पासाणसञ्जाय, कम्मट्ठानमनसिकारेन “एत्तकं ठानमागता"ति जानन्ता गच्छन्तीति अधिप्पायो। नन्ति किलेसं । कम्मट्ठानविप्पयुत्तचित्तेन पादुद्धारणमकत्थुकामतो तिद्वति, पच्छागतो पन ठितिमनतिक्कमितुकामतो। सोति उप्पन्नकिलेसो भिक्खु । अयन्ति
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(२.२.२१४-२१४)
पच्छागतो । एतन्ति परस्स जाननं । तत्थैवाति पतिट्ठितट्ठानेयेव । सोयेव नयोति " अयं भिक्खू'तिआदिका यो पतिट्ठाने वृत्तो, सो एव निसज्जायपि नयो । पच्छतो आगच्छन्तानं छिन्नभत्तभावभयेनापि योनिसोमनसिकारं परिब्रूहेतीति इदम्पि परस्स जाननेनेव सङ्गहितन्ति दट्ठब्बं । पुरिमपादेयेवाति पठमं कम्मट्ठानविप्पयुत्तचित्तेन उद्धरितपादवळञ्जेयेव । एतीति गच्छति । “आलिन्दकवासी महाफुस्सदेवत्थेरो विया" तिआदिना अट्ठानेयेवेतं कथितं । "क्वायं एवं पटिपन्नपुब्बो "ति आसङ्कं निवत्तेति ।
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मद्दत धकरणट्टाने सालिसीसादीनि मद्दन्ता । अस्साति थेरस्स, उभयापेक्खवचनमेतं । अस्स अरहत्तप्पत्तदिवसे चङ्कमनकोटियन्ति च । अधिगमपिच्छताय विक्खेपं कत्वा, निबन्धित्वा च पटिजानित्वायेव आरोचेसि ।
पठमं तावाति पदसोभनत्थं परियायवचनं । महापधानन्ति भगवतो दुक्करचरियं, अम्हाकं अत्थाय लोकनाथेन छब्बस्सानि कतं दुक्करचरियं “ एवाहं यथाबलं पूजेस्सामी 'ति अत्थो । पटिपत्तिपूजायेव हि पसत्थतरा सत्थुपूजा, न तथा आमिसपूजा । ठानचङ्कममेवाति अधिट्ठातब्बइरियापथवसेन वुत्तं, न भोजनकालादीसु अवस्सं कत्तब्बनिसज्जाय पटिक्खेपवसेन । एवसद्देन हि इतराय निसज्जाय, सयनस्स च निवत्तनं करोति । विप्पयुत्तेन उद्धटे पटिनिवत्तेन्तोति सम्पयुत्तेन उद्धरितपादेयेव पुन ठपनं सन्धायाह । " गामसमीपं गत्वा "ति वत्वा तदत्थं विवरति " गावी नू"तिआदिना । कच्छकन्तरतोति उपकच्छन्तरतो, उपकच्छे लग्गितकमण्डलुतोति वृत्तं होति । उदकगण्डूसन्ति उदकावगण्डकारकं । कतिनं तिथीनं पूरणी कतिमी, “पञ्चमी नु खो पक्खस्स, अट्ठमी "तिआदिना दिवसं वा पुच्छितोति अत्थो । अनारोचनस्स अकत्तब्बत्ता आरोचेति । तथा हि वृत्तं " अनुजानामि भिक्खवे सब्बेहेव पक्खगणनं उग्गहेतु "न्तिआदि (महाव० १५६) ।
“उदकं गिलित्वा आरोचेती 'ति वृत्तनयेन । तत्थाति गामद्वारे । निदुभनन्ति उदकनिट्टुभनट्ठानं । सूत मनुस्सेसु । ञाणचक्खुसम्पन्नत्ता चक्खुमा । ईदिसोति सुसम्मट्ठचेतियङ्गणादिको । विसुद्धिपवारणन्ति खीणासवभावेन पवारणं ।
आह
वीथि ओतरित्वा इतो चितो च अनोलोकेत्वा पठममेव वीथियो सल्लक्खेतब्बाति " वीथियो सल्लक्खेत्वा" ति । यं सन्धाय वुत्तं "पासादिकेन अभिक्कन्तेन
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पटिक्कन्तेना''तिआदि (पारा० ४३२) । तं गमनं दस्सेतुं " तत्थ चा "तिआदिमाह । “न हि जवेन पिण्डपातियधुतङ्गं नाम किञ्चि अत्थी " ति इमिना जवेन गमने लोलुप्पचारिता विय असारुप्पतं दस्सेति । उदकसकटन्ति उदकसारसकटं । तहि विसमभूमिभागप्पत्तं निच्चलमेव कातुं वट्टति । तदनुरूपन्ति भिक्खादानानुरूपं । “आहारे पटिकूलस उपट्ठपेत्वा"तिआदीसु यं वत्तब्बं, तं परतो आगमिस्सति । रथस्स अक्खानं तेलेन अब्भञ्जनं, वणस्स लेपनं, पुत्तमंसस्स खादनञ्च तिधा उपमा यस्स आहरणस्साति तथा । अट्ठङ्गसमन्नागतन्ति " यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया, यापनाया 'तिआदिना (म० नि० १.२३; २.२४, ३८७; सं० नि० २.४.१२०; अ० नि० २.६.५८ ३.५.९; विभं० ५१८; महानि० २०६) वुत्तेहि अट्ठहि अङ्गेहि समन्नागतं कत्वा । “नेव दवाया "तिआदि पन पटिक्खेपमत्तदस्सनं । भत्तकिलमथन्ति भत्तवसेन उप्पन्नकिलमथं । पुरेभत्तादि दिवावसेन वुत्तं । पुरिमयामादि रत्तिवसेन ।
सतिसम्पञ्जञ्ञकथावण्णना
गतपच्चागतेसु कम्मट्ठानस्स हरणं वत्तन्ति अत्थं दस्सेन्तो “हरणपच्चाहरणसङ्घातन्ति आह । “यदि उपनिस्सयसम्पन्नो होती "ति इदं "देवपुत्तो हुत्वा' 'तिआदीसुपि सब्बत्थ सम्बज्झितब्बं । तत्थ पच्चेकबोधिया उपनिस्सयसम्पदा कप्पानं द्वे असङ्ख्येय्यानि, सतसहस्सञ्च तज्जा पुञ्ञञाणसम्भारसम्भरणं, सावकबोधिया अग्गसावकानं एकमसङ्ख्येय्यं, कप्पसतसहस्सञ्च, महासावकानं (थेरगा० अट्ठ० २. वङ्गीसत्थेरगाथावण्णना वित्थारो ) कप्पसतसहस्समेव, इतरेसं पन अतीतासु जातीसु विवट्टुपनिस्सयवसेन कालनियममन्तरेन निब्बत्तितं निब्बेधभागियकुसलं । "सेय्यथापी 'तिआदिना तस्मिं तस्मिं ठानन्तरे एतदग्गट्ठपितानं थेरानं सक्खिदस्सनं । तत्थ थेरो बाहियो दारुचीरियोति बाहियविसये सञ्जातसंवडता बाहियो, दारुचीरपरिहरणतो दारुचीरियोति च समञ्ञितो थेरो । सो हायस्मा -
" तस्मा तिह ते बाहिय एवं सिक्खितब्बं 'दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति, सुते, मुते, विञ्ञाते विञ्ञातमत्तं भविस्सती 'ति, एवहि ते बाहिय सिक्खितब्बं । यतो खो ते बाहिय दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति, सुते, मुते, विञ्ञाते विञ्ञतमत्तं भविस्सति, ततो त्वं बाहिय न तेन । यतो त्वं बाहिय न तेन, ततो बाहिय न तत्थ । यतो त्वं बाहिय न तत्थ, ततो त्वं बाहिय नेविध न हुरं न उभयमन्तरेन, एसेवन्तो दुक्खस्सा 'ति” (उदा० १० ) ।
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एत्तकाय देसनाय अरहत्तं सच्छाकासि । एवं सारिपुत्तत्थेरादीनम्पि महापञ्जतादिदीपनानि सुत्तपदानि वित्थारतो वत्तब्बानि । विसेसतो पन अङ्गुत्तरागमे एतदग्गसुत्तपदानि (अ० नि० १.१.१८८) सिखापत्तन्ति कोटिप्पत्तं निट्ठानप्पत्तं सब्बथा परिपुण्णतो ।
तन्ति असम्मुव्हनं । एवन्ति इदानि वुच्चमानाकारेन वेदितब्बं । “अत्ता अभिक्कमती"ति इमिना दिट्टिगाहवसेन, "अहं अभिक्कमामी"ति इमिना मानगाहवसेन, तदुभयस्स पन विना तण्हाय अप्पवत्तनतो तण्हागाहवसेनाति तीहिपि मञनाहि अन्धबालपुथुज्जनस्स अभिक्कमे सम्मुव्हनं दस्सेति । "तथा असम्मुव्हन्तो"ति वत्वा तदेव असम्मुव्हनं येन घनविनिब्भोगेन होति, तं दस्सेन्तो “अभिक्कमामी"तिआदिमाह । चित्तसमुट्ठानवायोधातूति तेनेव अभिक्कमनचित्तेन समुट्ठाना, तंचित्तसमुट्ठानिका वा वायोधातु । विज्ञत्तिन्ति कायवित्तिं । जनयमाना उप्पज्जति तस्सा विकारभावतो। इतीति तस्मा उप्पज्जनतो। चित्तकिरियवायोधातुविष्फारवसेनाति किरियमयचित्तसमुट्ठानवायोधातुया विचलनाकारसङ्घातकायविज्ञत्तिवसेन। तस्साति अद्विसङ्घाटस्स। अभिक्कमतोति अभिक्कमन्तस्स । ओमत्ताति अवमत्ता लामकप्पमाणा। वायोधातुतेजोधातुवसेन इतरा द्वे धातुयो ।
इदं वुत्तं होति- यस्मा चेत्थ वायोधातुया अनुगता तेजोधातु उद्धरणस्स पच्चयो । उद्धरणगतिका हि तेजोधातु, तेन तस्सा उद्धरणे वायोधातुया अनुगतभावो होति, तस्मा इमासं द्विन्नमत्थ सामत्थियतो अधिमत्तता, तथा अभावतो पन इतरासं ओमत्तताति । यस्मा पन तेजोधातुया अनुगता वायोधातु अतिहरणवीतिहरणानं पच्चयो । किरियगतिकाय हि वायोधातुया अतिहरणवीतिहरणेसु सातिसयो ब्यापारो, तेन तस्सा तत्य तेजोधातुया अनुगतभावो होति, तस्मा इमासं द्विन्नमत्थ सामत्थियतो अधिमत्तता, इतरासञ्च तदभावतो ओमत्तताति दस्सेति "तथा अतिहरणवीतिहरणेसू"ति इमिना। सतिपि चेत्थ अनुगमकानुगन्तब्बताविसेसे तेजोधातुवायोधातुभावमत्तं सन्धाय तथासद्दग्गहणं कतं । पठमे हि नये तेजोधातुया अनुगमकता, वायोधातुया अनुगन्तब्बता, दुतिये पन वायोधातुया अनुगमकता, तेजोधातुया अनुगन्तब्बताति । तत्थ अक्कन्तट्ठानतो पादस्स उक्खिपनं उद्धरणं, ठितट्टानं अतिक्कमित्वा पुरतो हरणं अतिहरणं। खाणुआदिपरिहरणत्थं, पतिहितपादघट्टनापरिहरणत्थं वा पस्सेन हरणं वीतिहरणं, याव पतिट्टितपादो, ताव हरणं अतिहरणं, ततो परं हरणं वीतिहरणन्ति वा अयमेतेसं विसेसो ।
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सतिसम्पञ्ञकथावण्णना
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यस्मा पथवीधातुया अनुगता आपोधातु वोस्सज्जने पच्चयो । गरुतरसभावा हि आपोधातु, तेन तस्सा वोस्सज्जने पथवीधातुया अनुगतभावो होति, तस्मा तासं द्विनत्थ सामत्थियतो अधिमत्तता, इतरासञ्च तदभावतो ओमत्तताति दस्सेन्तो आह “वोस्सज्जने...पे०... बलवतियो 'ति । यस्मा पन आपोधातुया अनुगता पथवीधातु सन्निक्खेपनस्स पच्चयो । पतिट्ठाभावे विय पतिट्ठापनेपि तस्सा सातिसयकिच्चत्ता आपोधातुया तस्सा अनुगतभावो होति, तथा घट्टनकिरियाय पथवीधातुया वसेन सन्निरुज्झनस्स सिज्झनतो तस्सा सन्निरुज्झनेपि आपोधातुया अनुगतभावो होति, तस्मा वृत्तं " तथा सन्निक्खेपनसन्निरुज्झनेसू "ति ।
अनुगमकानुगन्तब्बताविसेसेपि सति पथवीधातु आपोधातुभावमत्तं सन्धाय तथासद्दग्गहणं कतं । पठमे हि नये पथवीधातुया अनुगमकता, आपोधातुया अनुगन्तब्बता, दुतिये पन आपोधातुया अनुगमकता, पथवीधातुया अनुगन्तब्बताति । वोस्सज्जनञ्चेत्थ पादस् ओनामनवसेन वोस्सग्गो, ततो परं भूमिआदीसु पतिट्टापनं सन्निक्खेपनं, पतिट्ठापेत्वा निम्मद्दनवसेन गमनस्स सन्निरोधो सन्निरुज्झनं ।
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तथा तस्मिं अतिक्कमने, तेसु वा यथावुत्तेसु उद्धरणातिहरणवीतिहरणवोस्सज्जनसन्निक्खेपनसन्निरुज्झनसङ्घातेसु छसु कोट्ठा । उद्धरणेति उद्धरणक्खणे । रूपारूपधम्माति उद्धरणाकारेन पवत्ता रूपधम्मा, तंसमुट्ठापका च अरूपधम्मा | अतिहरणं न पापुणन्ति खणमत्तावट्ठानतो । सब्बत्थ एस नयो । तत्थ तत्थेवाति यत्थ यत्थ उद्धरणादिके उप्पन्ना, तत्थ तत्थेव । न हि धम्मानं देसन्तरसङ्कमनं अत्थि लहुपरिवत्तनतो । पब्बं पब्बन्ति परिच्छेदं परिच्छेदं । सन्धि सन्धीति गण्ठि गण्ठि । ओधि ओधीति भागं भागं । सब्बञ्चेतं उद्धरणादिकोट्ठासे सन्धाय सभागसन्ततिवसेन वुत्तन्ति वेदितब्बं । इतरो एव हि रूपधम्मानम्पि पवत्तिक्खणो गमनयोगगमनस्सादानं देवपुत्तानं
परियेन पटिमुखं धावन्तानं सिरसि पादे च बन्धखुरधारासमागमतोपि सीघतरो, यथा तिलानं भिज्जयमानानं पटपटायनेन भेदो लक्खीयति, एवं सङ्खतधम्मानं उप्पादेनाति दस्सनत्थं “पटपटायन्ता" ति वुत्तं, उप्पादवसेन पटपट - सद्दं अकरोन्तापि करोन्ता वियाति अत्थो । तिलभेदलक्खणं पटपटायनं विय हि सङ्घतभेदलक्खणं उप्पादो उप्पन्नानमेकन्ततो भिन्नता । तत्थाति अभिक्कमने । को एको अभिक्कमति नाभिक्कमतियेव । कस्स वा एकस्स अभिक्कमनं सिया, न सिया एव । कस्मा ? परमत्थतो हि... पे०... धातूनं सयनं, तस्माति अत्थो । अन्धबालपुथुज्जनसम्मूळहस्स अत्तनो अभिक्कमननिवत्तनऱ्हेतं वचनं । अथ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
वा " को एको... पे०... अभिक्कमन "न्ति चोदनाय “परमत्थतो ही "तिआदिना सोधना वृत्ता ।
तस्मिं तस्मिं कोट्ठासेति यथावुत्ते छब्बिधेपि कोट्ठासे गमनादिकस्स अपच्चामट्ठत्ता । “सद्धिं रूपेन उप्पज्जते, निरुज्झतीति च सिलोकपदेन सह सम्बन्धो । तत्थ पठमपदसम्बन्धे रूपेनाति येन केनचि सहुप्पज्जनकेन रूपेन । दुतियपदसम्बन्धे पन " रूपेना" ति इदं यं ततो निरुज्झमानचित्ततो उपरि सत्तरसमचित्तस्स उप्पादक्खणे उप्पन्नं, तदेव तस्स निरुज्झमानचित्तस्स निरोधेन सद्धिं निरुज्झनकं सत्तरसचित्तक्खणायुकं रूपं सन्धाय वुत्तं, अञ्ञथा रूपारूपधम्मा समानायुका सियुं । यदि च सियुं, अथ “रूपं गरुपरिणामं दन्धनिरोध' "न्तिआदि (विभं० अट्ठ० पकिण्णककथा) अट्ठकथावचनेहि, "नाहं भिक्खवे अञ्ञं एकधम्मम्पि समनुपस्सामि, यं एवं लहुपरिवत्तं यथयिदं चित्त "न्ति (अ० नि० १.१.३८) एवमादिपाळिवचनेहि च विरोधो सिया । चित्तचेतसिका हि सारम्मणसभावा यथाबलं अत्तनो आरम्मणपच्चयभूतमत्थं विभावेन्तो एव उप्पज्जन्ति, तस्मा तेसं तंसभावनिष्फत्तिअनन्तरं निरोधो, रूपधम्मा पन अनारम्मणा पकासेतब्बा, एवं तेसं पकासेतब्बभावनिप्फत्ति सोळसहि चित्तेहि होति, तस्मा एकचित्तक्खणातीतेन सह सत्तरसचित्तक्खणायुकता रूपधम्मानमिच्छिताति । लहुपरिवत्तनविञणविसेसस्स सङ्गतिमत्तपच्चयताय तिण्णं खन्धानं, विसयसङ्गतिमत्तताय च विञ्ञणस्स लहुपरिवत्तिता, दन्धमहाभूतपच्चयताय रूपस्स गरुपरिवत्तिता । यथाभूतं नानाधातुञणं खो पन तथागतस्सेव, तेन च पुरेजातपच्चयो रूपधम्मोव वुत्तो, पच्छाजातपच्चयो च तथैवाति रूपारूपधम्मानं समानक्खणता न युज्जतेव, तस्मा वुत्तनयेनेवेत्थ अत्थो वेदितब्बत आचरियेन (दी० नि० टी० १.२१४) वुत्तं, तदेतं चित्तानुपरिवत्तिया विञ्ञत्तिया एकनिरोधभावस्स सुविज्ञेय्यत्ता एवं वृत्तं । ततो सविञ्ञत्तिकेन पुरेतरं सत्तर समचित्तस्स उप्पादक्खणे उप्पन्नेन रूपेन सद्धिं अञ्यं चित्तं निरुज्झतीति अत्थो वेदितब्बो । अञ्ञं चित्तं निरुज्झति, अञ्ञ उप्पज्जते चित्तन्ति योजेतब्बं । अञ्ञो हि सद्दक्कमो, अञ्ञो अत्थक्कमोति । यहि पुरिमुप्पन्नं चित्तं तं निरुज्झन्तं अञ्ञस्स पच्छा उप्पज्जमानस्स अनन्तरादिपच्चयभावेनेव निरुज्झति, तथा लद्धपच्चयमेव अञ्ञम्पि उप्पज्जते चित्तं, अवत्थाविसेसतो चेत्थ अञ्ञथा । यदि एवं तेसमुभिन्नं अन्तरो लब्भेय्याति चोदनं "नो "ति अपनेतुमाह “अवीचि मनुसम्बन्धो "ति, यथा वीचि अन्तरो न लब्भति, तदेवेदन्ति अविसेसं विदू मञ्ञन्ति, एवं अनु अनु सम्बन्धो चित्तसन्तानो, रूपसन्तानो च नदीसोतोव
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सतिसम्पजञकथावण्णना
नदियं उदकप्पवाहो विय वत्ततीति अत्थो। अवीचीति हि निरन्तरतावसेन भावनपुंसकवचनं ।
अभिमुखं लोकितं आलोकितन्ति आह "पुरतोपेक्खन"न्ति । यदिसाभिमुखो गच्छति, तिट्ठति, निसीदति, सयति वा, तदभिमुखं पेक्खनन्ति वुत्तं होति । यस्मा च तादिसमालोकितं नाम होति, तस्मा तदनुगतदिसालोकनं विलोकितन्ति आह "अनुदिसापेक्खन"न्ति, अभिमुखदिसानुरूपगतेसु वामदक्खिणपस्सेसु विविधा पेक्खनन्ति वुत्तं होति । हेट्ठाउपरिपच्छापेक्खनहि “ओलोकितउल्लोकितापलोकितानी"ति गहितानि । सारुप्पवसेनाति समणपतिरूपवसेन, इमिनाव असारुप्पवसेन इतरेसमग्गहणन्ति सिज्झति | सम्मज्जनपरिभण्डादिकरणे ओलोकितस्स, उल्लोकहरणादीसु उल्लोकितस्स, पच्छतो आगच्छन्तपरिस्सयपरिवज्जनादीसु अपलोकितस्स च सिया सम्भवोति आह "इमिना वा"तिआदि, एतेन उपलक्खणमत्तञ्चेतन्ति दस्सेति ।
कायसक्खिन्ति कायेन सच्छिकतं पच्चक्खकारिनं, साधकन्ति अत्थो। सो हि आयस्मा विपस्सनाकाले "यमेवाहं इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारतं निस्साय सासने अनभिरतिआदिविप्पकारं पत्तो, तमेव सुटु निग्गहेस्सामी''ति उस्साहजातो बलवहिरोत्तप्पो, तत्थ च कताधिकारत्ता इन्द्रियसंवरे उक्कंसपारमिप्पत्तो, तेनेव नं सत्था "एतदग्गं भिक्खवे मम सावकानं भिक्खूनं इन्द्रियेसु गुत्तद्वारानं, यदिदं नन्दो"ति (अ० नि० १.१.२३०) एतदग्गे ठपेसि । नन्दस्साति कत्तुत्थे सामिवचनं । इतीति इमिना आलोकनेन ।
___ साथकता च सप्पायता च वेदितब्बा आलोकितविलोकितस्साति अज्झाहरित्वा सम्बन्धो । तस्माति कम्मट्ठानाविजहनस्सेव आलोकितविलोकिते। गोचरसम्पजञभावतो एत्थाति आलोकितविलोकिते। अत्तनो कम्मट्ठानवसेनेवाति खन्धादिकम्मट्ठानवसेनेव आलोकनविलोकनं कातळ, न अञ्जो उपायो गवेसितब्बोति अधिप्पायो । कम्मट्ठानसीसेनेवाति वक्खमानकम्मट्ठानमुखेनेव । यस्मा पन आलोकितादि नाम धम्ममत्तस्सेव पवत्तिविसेसो, तस्मा तस्स याथावतो जाननं असम्मोहसम्पजन्ति दस्सेतुं "अब्भन्तरे"तिआदि वुत्तं । आलोकेताति आलोकेन्तो। तथा विलोकेता। विज्ञत्तिन्ति कायवित्तिं। इतीति तस्मा उप्पज्जनतो। चित्तकिरियवायोधातुविष्फारवसेनाति किरियमयचित्तसमुट्ठानाय वायोधातुया विचलनाकारसङ्घातकायवित्तिवसेन । अक्खिदलन्ति अक्खिपटलं । अधो सीदतीति ओसीदन्तं विय हेट्ठा गच्छति । उद्धं लङ्केतीति लड्वेन्तं विय
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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उपरि गच्छति । यन्तकेनाति अक्खिदलेसु योजितरज्जुयो गहेत्वा परिब्भमनकचक्केन । ततोति तथा अक्खिदलानमोसीदनुल्लङ्घनतो। मनोद्वारिकजवनस्स मूलकारणपरिजाननं मूलपरिज्ञा। आगन्तुकस्स अब्भागतस्स, तावकालिकस्स च तङ्खणमत्तपवत्तकस्स भावो आगन्तुकतावकालिकभावो, तेसं वसेन ।
तत्थाति तेसु गाथाय दस्सितेसु सत्तसु चित्तेसु । अङ्गकिच्चं साधयमानन्ति पधानभूतअङ्गकिच्चं निप्फादेन्तं, सरीरं हुत्वाति वुत्तं होति । भवङ्गहि पटिसन्धिसदिसत्ता पधानमङ्गं, पधानञ्च “सरीर'"न्ति वुच्चति, अविच्छेदप्पवत्तिहेतुभावेन वा कारणकिच्चं साधयमानन्ति अत्थो । तं आवदे॒त्वाति भवङ्गसामञवसेन वुत्तं, पवत्ताकारविसेसवसेन पन अतीतादिना तिबिधं, तत्थ च भवङ्गुपच्छेदस्सेव आवट्टनं । तनिरोधाति तस्स निरुज्झनतो, अनन्तरपच्चयवसेन हेतुवचनं । “पठमजवनेपि...पे०... सत्तमजवनेपी"ति इदं पञ्चद्वारिकवीथियं “अयं इत्थी, अयं पुरिसो"ति रज्जनदुस्सनमुव्हनानमभावं सन्धाय वुत्तं । तत्थ हि आवज्जनवोट्टब्बनानं पुरेतरं पवत्तायोनिसोमनसिकारवसेन अयोनिसो आवज्जनवोहब्बनाकारेन पवत्तनतो इढे इत्थिरूपादिम्हि लोभसहगतमत्तं जवनं उप्पज्जति, अनिढे च दोससहगतमत्तं, न पनेकन्तरज्जनदुस्सनादि, मनोद्वारे एव एकन्तरज्जनदुस्सनादि होति, तस्स पन मनोद्वारिकस्स रज्जनदुस्सनादिनो पञ्चद्वारिकजवनं मूलं, यथावुत्तं वा सब्बम्पि भवङ्गादि, एवं मनोद्वारिकजवनस्स मूलकारणवसेन मूलपरिआ वुत्ता, आगन्तुकतावकालिकता पन पञ्चद्वारिक जवनस्सेव अपुब्बभाववसेन, इत्तरतावसेन च । युद्धमण्डलेति सङ्गामप्पदेसे । हेटुपरियवसेनाति हेट्ठा च उपरि च परिवत्तमानवसेन, अपरापरं भवमुप्पत्तिवसेनाति अत्थो । तथा भवङ्गप्पादवसेन हि तेसं भिज्जित्वा पतनं, इमिना पन हेट्ठिमस्स, उपरिमस्स च भवङ्गस्स अपरापरुप्पत्तिवसेन पञ्चद्वारिकजवनतो विसदिसस्स मनोद्वारिकजवनस्स उप्पादं दस्सेति तस्स वसेनेव रज्जनादिपवत्तनतो। तेनेवाह "रज्जनादिवसेन आलोकितविलोकितं होती"ति ।
आपाथन्ति गोचरभावं । सककिच्चनिष्फादनवसेनाति आवज्जनादिकिच्चनिप्फादनवसेन | तन्ति जवनं। चक्खुद्वारे रूपस्स आपाथगमनेन आवज्जनादीनं पवत्तनतो पवत्तिकारणवसेनेव "गेहभूते"ति वुत्तं, न निस्सयवसेन । आगन्तुकपुरिसो वियाति अब्भागतपुरिसो विय । दुविधा हि आगन्तुका अतिथिअब्भागतवसेन । तत्थ कतपरिचयो "अतिथी"ति वुच्चति, अकतपरिचयो “अब्भागतो"ति, अयमेविधाधिप्पेतो । तेनाह “यथा
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सतिसम्पञ्जञ्ञकथावण्णना
परगेहे”तिआदि। तस्साति जवनस्स रज्जनदुस्सनमुय्हनं अयुत्तन्ति सम्बन्धो । आसि निसिन्नेसु । आणाकरणन्ति अत्तनो वसकरणं ।
सद्धिं सम्पयुत्तधम्मेहि फस्सादीहि । तत्थ तत्थेव सककिच्चनिप्फादनट्ठाने भिज्जन्ति । इतीति तस्मा आवज्जनादिवोट्ठब्बनपरियोसानानं भिज्जनतो । इत्तरानीति अचिरट्टितिकानि । तत्थाति तस्मिं वचने अयं उपमाति अत्थो । उदयब्बयपरिच्छिन्नो ताव तत्तको कालो एतेसन्ति तावकालिकानि, तस्स भावो, तंवसेन ।
एतन्ति असम्मोहसम्पज । एत्थाति एतस्मिं यथावुत्तधम्मसमुदाये। दस्सनं चक्खुविञणं, तस्स वसेनेव आलोकनविलोकनपञ्ञयनतो आवज्जनादीनमग्गहणं ।
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समवायेति सामग्गियं । तत्थाति पञ्चक्खन्धवसेन आलोकनविलोकन पञ्ञायमाने । निमित्तत्थे चेतं भुम्मं, तब्बिनिमुत्तको को एको आलोकेति न त्वेव आलोकेति । को च एको विलोकेति नत्वेव विलोकेतीति अत्थो ।
" तथा "तिआदि आयतनवसेन, धातुवसेन च दस्सनं । चक्खुरूपानि यथारहं दस्सनस्स निस्सयारम्मणपच्चयो, तथा आवज्जना अनन्तरादिपच्चयो, आलोको उपनिस्सयपच्चयोति दस्सनस्स सुत्तन्तनयेन परियायतो पच्चयता वृत्ता । सहजातपच्चयोपि दस्सनस्सेव, निदस्सनमत्तञ्चेतं अञ्ञमञ्ञसम्पयुत्तअत्थिअविगतादिपच्चयानम्पि लब्भनतो, “सहजातादिपच्चया' तिपि अधुना पाठो दिस्सति । " एव "न्तिआदि निगमनं ।
इदानि यथापाठं समिञ्जनपसारणेसु सम्पजानं विभावेन्तो " समिञ्जिते पसारिते "तिआदिमाह । तत्थ पब्बानन्ति पब्बभूतानं । तंसमिञ्जनपसारणेनेव हि सब्बेसं हत्थपादानं समिञ्जनपसारणं होति, पब्बमेतेसन्ति वा पब्बा यथा “सद्धो "ति, पब्बवन्तानन्ति अत्थो । चित्तवसेनेवाति चित्तरुचिया एव, चित्तसामत्थिया वा । यं यं चित्तं उप्पज्जति सात्थेपि अनत्थेपि समिञ्जितुं, पसारितुं वा, तंतचित्तानुगतेनेव समिञ्जनपसारणमकत्वाति वुत्तं होति । तत्थाति समिञ्जनपसारणेसु अत्थानत्थपरिग्गहनं वेदितब्बन्ति सम्बन्धो । खणे खणेति तथा ठितक्खणस्स ब्यापनिच्छावचनं । वेदनाति सन्थम्भनादीहि रुज्जना । " वेदना उप्पज्जती 'ति आदिना परम्परपयोजनं दस्सेति । तथा "ता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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वेदना नुप्पज्जन्ती"तिआदिनापि । पुरिमं पुरिमहि पच्छिमस्स पच्छिमस्स कारणवचनं । कालेति समिञ्जितुं, पसारितुं वा युत्तकाले । फातिन्ति वुद्धिं । झानादि पन विसेसो।
तत्रायं नयोति सप्पायासप्पायअपरिग्गण्हने वत्थुसन्दस्सनसंङ्घातो नयो। तदपरिग्गहणे आदीनवदस्सनेनेव परिग्गहणेपि आनिसंसो विभावितोति तेसमिध उदाहरणं वेदितब्बं । महाचेतियङ्गणेति दुट्ठगामणिरा कतस्स हेममालीनामकस्स महाचेतियस्स अङ्गणे । वुत्तहि -
"दीपप्पसादको थेरो, राजिनो अय्यकस्स मे । एवं किराह नत्ता ते, दुट्ठगामणि भूपति ।।
महापुञो महाथूपं, सोण्णमालिं मनोरमं । वीसं हत्थसतं उच्चं, कारेस्सति अनागते"ति ।।
भूमिप्पदेसो चेत्थ अङ्गणं "उदङ्गणे तत्थ पपं अविन्दु''न्तिआदिसु (जा० १.१.२) विय, तस्मा उपचारभूते सुसङ्खते भूमिप्पदेसेति अत्थो। तेनेव कारणेन गिही जातोति कायसंसग्गसमापज्जनहेतुना उक्कण्ठितो हुत्वा हीनायावत्तो। झायीति झायनं डव्हनमापज्जि । महाचेतियङ्गणेपि चीवरकुटिं कत्वा तत्थ सज्झायं गण्हन्तीति वुत्तं "चीवरकुटिदण्डके'ति, चीवरकुटिया चीवरछदनत्थाय कतदण्डकेति अत्थो । “मणिसप्पो नाम सीहळदीपे विज्जमाना एका सप्पजातीति वदन्ती"ति आचरियानन्दत्थेरेन, (विभं० मूल टी० २४२) आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.२१४) च वुत्तं । “केचि, अपरे, अ "ति वा अवत्वा “वदन्ति"च्चेव वचनञ्च सारतो गहेतब्बताविज्ञापनत्थं अञथा गहेतब्बस्स अवचनतो, तस्मा न नीलसप्पादि इध “मणिसप्पो''ति वेदितब्बो ।
महाथेरवत्थुनाति एवंनामकस्स थेरस्स वत्थुना । अन्तेवासिकेहीति तत्थ निसिन्नेसु बहूसु अन्तेवासिकेसु एकेन अन्तेवासिकेन | तेनाह "तं अन्तेवासिका पुच्छिंसू"ति । कम्मट्ठानन्ति "अब्भन्तरे अत्ता नामा''तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.२१४) वक्खमानप्पकारं धातुकम्मट्ठानं । पकरणतोपि हि अत्थो विज्ञायतीति । तत्थ ठितानं पुच्छन्तानं सङ्गहणवसेन "तुम्हेही''ति पुन पुथुवचनकरणं । एवं रूपं सभावो यस्साति एवरूपो निग्गहितलोपवसेन
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सतिसम्पजञ्ञकथावण्णना
तेन, कम्मट्ठानमनसिकारसभावेनाति अत्थो । एवमेत्थापीति अपि सद्देन हेट्ठा वुत्तं आलोकितविलोकितपक्खमपेक्खनं करोति । अयं नयो उपरिपि ।
सुत्ताकडुनवसेनाति यन्ते योजितसुत्तानं आविञ्छनवसेन । दारुयन्तस्साति दारुना कतयन्तरूपस्स । तं तं किरियं याति पापुणाति हत्थपादादीहि वा तं तं आकारं कुरुमानं याति गच्छतीति यन्तं, नटकादिपञ्चालिकारूपं, दारुना कतं यन्तं तथा, निदस्सनमत्तञ्चेतं। तथा हि नं पोत्थेन वत्थेन अलङ्करियत्ता पोत्थलिका, पञ्च अङ्गानि यस्सा सजीवस्सेवाति पञ्चालिकाति च वोहरन्ति । हत्थपादलळनन्ति हत्थपादानं कम्पनं, हत्थपादेहि वा लीळाकरणं ।
सङ्घाटिपत्तचीवरधारणेति
एत्थ सङ्घाटिचीवरानं समानधारणताय एकतोदस्सनं गन्थगरुतापनयनत्थं, अन्तरवासकस्स निवासनवसेन, सेसानं पारुपनवसेनाति यथारहमत्थो । तत्थाति सङ्घाटिचीवरधारणपत्तधारणेसु । वृत्तप्पकारोति पच्चवेक्खणविधिना सुत्ते वृत्तप्पभेदो ।
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परिळाहबहुलकायस्स |
उपकतिकस्साति उण्हालुकस्स तालुका सीतबहुलकायस्स । घनन्ति अप्पितं । दुपट्टन्ति निदस्सनमत्तं । “उतुद्धटानं दुस्सानं चतुग्गुणं सङ्घाटिं, दिगुणं उत्तरासङ्गं, दिगुणं अन्तरवासकं, पंसुकूले यावदत्थ "न्ति ( महाव० ३४८) हि वृत्तं । विपरीतन्ति तदुभयतो विपरीतं, तेसं तिण्णम्पि असप्पायं । कस्माति आह “अग्गळादिदानेना”तिआदि । उद्धरित्वा अल्लीयापनखण्डं अग्गळं । आदिसद्देन तुन्नकम्मादीनि सङ्गण्हाति । तथा-सद्दो अनुकड्ढनत्थो, असप्पायमेवाति । पट्टुण्णदेसे पाणकेहि सञ्जातवत्थं पट्टणं । वाकविसेसमयं सेतवण्णं दुकूलं । आदिसद्देन कोसेय्यकम्बलादिकं सानुलोमं कप्पियचीवरं सङ्गण्हाति । कस्माति वुत्तं "तादिसही "तिआदि । अरज्ञ एककस्स निवासन्तरायकरन्ति ब्रह्मचरियन्तरायेकदेसमाह । चोरादिसाधारणतो च तथा वृत्तं । निप्परियायेन तं असप्पायन्ति सम्बन्धो । अनेनेव यथावुत्तमसप्पायं अनेकन्तं तथारूपपच्चयेन कस्सचि कदाचि सप्पायसम्भवतो । इदं पन द्वयं एकन्तमेव असप्पायं कस्सचि कदाचिपि सप्पायाभावतोति दस्सेति । मिच्छा आजीवन्ति एतेनाति मिच्छाजीवो, अनेसनवसेन पच्चयपरियेसनपयोगो। निमित्तकम्मादीहि पवत्तो मिच्छाजीवो तथा, एतेन एकवीसतिविधं अनेसनपयोगमाह। वुत्तञ्हि सुत्तनिपातट्ठकथायं खुद्दकपाठट्ठकथायञ्च मेत्तसुत्तवण्णनायं -
"यो इमस्मि सासने पब्बजित्वा अत्तानं न सम्मा पयोजति, खण्डसीला
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
( २.२.२१४ - २१४)
होति, एकवीसतिविधं अनेसनं निस्साय जीविकं कप्पेति । सेय्यथिदं ? वेळुदानं, पत्तदानं, पुप्फ, फल, दन्तकट्ठ, मुखोदक, सिनान, चुण्ण, मत्तिकादानं, चाटुकम्यतं, मुग्गसूप्यतं, पारिभटुतं, जङ्घपेसनिकं, वेज्जकम्मं, दूतकम्मं, पहिणगमनं, पिण्डपटिपिण्डं, दानानुप्पदानं, वत्थुविज्जं, नक्खत्तविज्जं, अङ्गविज्जन्ति ।
अभिधम्मटीकाकारेन पन आचरियानन्दत्थेरेन एवं वृत्तं -
" एकवीसति अनेसना नाम वेज्जकम्मं करोति, दूतकम्मं करोति, पहिणकम्मं करोति, गण्डं फालेति, अरुमक्खनं देति, उद्धविरेचनं देति, अधोविरेचनं देति, नत्थुतेलं पचति, वणतेलं पचति, वेळुदानं देति, पत्त, पुप्फ, फल, सिनान, दन्तकट्ट, मुखोदक, चुण्ण, मत्तिकादानं देति, चाटुकम्मं करोति, मुग्गसूपियं, पारिभटुं, जङ्घपेसनिकं द्वावीसतिमं दूतकम्मेन सदिसं, तस्मा एकवीसती 'ति (ध० स० मूल टी० १५०-५१) ।
अट्ठकथावचनञ्चेत्थ ब्रह्मजालादिसुत्तन्तनयेन वृत्तं, टीकावचनं पन खुद्दकवत्थुविभङ्गादिअभिधम्मनयेन, अतो चेत्थ केसञ्चि विसमताति वदन्ति, वीमंसित्वा गब्बं । अपिच " निमित्तकम्मादी" ति इमिना निमित्तोभासपरिकथायो वृत्ता । "मिच्छाजीवो" ति पन यथावुत्तपयोगो, तस्मा निमित्तकम्मञ्च मिच्छाजीवो च, तब्बसेन उप्पन्नं असप्पायं सीलविनासनेन अनत्थावहत्ताति अत्थो । समाहारद्वन्देपि हि कत्थचि पुल्लिङ्गपयोगो दिस्सति यथा “चित्तुप्पादो" ति । अतिरुचिये रागादयो, अतिअरुचिये च दोसादयोति आह 'अकुसला धम्मा अभिवन्तीति । तन्ति तदुभयं । कम्मट्ठानाविजहनवसेनाति वक्खमानकम्मट्ठानस्स अविजहनवसेन ।
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" अब्भन्तरे अत्ता नामा "तिआदिना सङ्क्षेपतो असम्मोहसम्पज दस्सेत्वा " तत्थ चीवरम्पि अचेतन" न्तिआदिना चीवरस्स विय “कायोपि अचेतनोति कायस्स अत्तसुञताविभावनेन तमत्थं परिदीपेन्तो “तस्मा नेव सुन्दरं चीवरं लभित्वा तिआदिना वुत्तस्स इतरीतरसन्तोसस्स कारणं विभावेतीति दट्ठब्बं । एवञ्हि सम्बन्धो वत्तब्बो – असम्मोहसम्पजञ्जं दस्सेन्तो " अब्भन्तरे” तिआदिमाह । अत्तसुञ्ञताविभावनेन पन तदत्थं परिदीपितुं वृत्तं " तत्थ चीवर "न्तिआदि । इदानि अत्तसुञ्ञताविभावनस्स पयोजनभूतं इतरीतरसन्तोससङ्घातं लद्धगुणं पकासेन्तो आह " तस्मा नेव सुन्दर "न्तिआदीति ।
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सतिसम्पजञकथावण्णना
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तत्थ अब्भन्तरेति अत्तनो सन्ताने । तत्थाति तस्मिं चीवरपारुपने । तेसु वा पारुपकत्तपारुपितब्बचीवरेसु । कायोपीति अत्तपञ्जत्तिमत्तो कायोपि। “तस्मा'ति अज्झाहरितब्बं, अचेतनत्ताति अत्थो । अहन्ति कम्मभूतो कायो । धातुयोति चीवरसङ्घातो बाहिरा धातुयो । धातुसमूहन्ति कायसङ्घातं अज्झत्तिकं धातुसमूहं । पोत्थकरूपपटिच्छादने धातुयो धातुसमूहं पटिच्छादेन्ति वियाति सम्बन्धो । पुसनं स्नेहसेचनं, पूरणं वा पोत्थं, लेपनखननकिरिया, तेन कतन्ति पोत्थकं, तमेव रूपं तथा, खननकम्मनिब्बत्तं दारुमत्तिकादिरूपमिधाधिप्पेतं । तस्माति अचेतनत्ता, अत्तसुञभावतो वा ।।
नागानं निवासो वम्मिको नागवम्मिको। चित्तीकरणट्ठानभूतो रुक्खो चेतियरुक्खो। केहिचि सक्कतस्सापि केहिचि असक्कतस्स कायस्स उपमानभावेन योग्यत्ता तेसमिध कथनं । तेहीति मालागन्धगूथमुत्तादीहि । अत्तसुञताय नागवम्मिकचेतियरुक्खादीहि विय कायसङ्घातेन अत्तना सोमनस्सं वा दोमनस्सं वा न कातब्बन्ति वुत्तं होति ।
"लभिस्सामि वा, नो वा'"ति पच्चवेक्खणपुब्बकेन अत्थसम्पस्सनेनेव गहेतब्बं । एवहि सात्थकसम्पजनं भवतीति अग्गहेत्वा"तिआदि।
“लभिस्सामी''ति आह "सहसाव
गरुपत्तोति अतिभारभूतो पत्तो। चत्तारो वा पञ्च वा गण्ठिका चतुपञ्चगण्ठिका यथा "द्वत्तिपत्ता (पाचि० २३२), छप्पञ्चवाचा''ति (पाचि० ६१) अञपदभूतस्स हि वा-सहस्सेव अत्थो इध पधानो चतुगण्ठिकाहतो वा पञ्चगण्ठिकाहतो वा पत्तो दुब्बिसोधनीयोति विकप्पनवसेन अत्थस्स गय्हमानत्ता । आहता चतुपञ्चगण्ठिका यस्साति चतुपञ्चगण्ठिकाहतो यथा “अग्याहितो''ति, चतुपञ्चगण्ठिकाहि वा आहतो तथा, दुब्बिसोधनीयभावस्स हेतुगब्भवचनञ्चेतं । कामञ्चऊनपञ्चबन्धनसिक्खापदे (पारा० ६१२) पञ्चगण्ठिकाहतोपि पत्तो परिभुजितब्बभावेन वुत्तो, दुब्बिसोधनीयतामत्तेन पन पलिबोधकरणतो इध असप्पायोति दट्ठब्बं । दुद्धोतपत्तोति अगण्ठिकाहतम्पि पकतियाव दुब्बिसोधनीयपत्तं सन्धायाह । “तं धोवन्तस्सेवा"तिआदि तदुभयस्सापि असप्पायभावे कारणं । "मणिवण्णपत्तो पन लोभनीयो"ति इमिना किञ्चापि सो विनयपरियायेन कप्पियो, सत्तन्तपरियायेन पन अन्तरायकरणतो असप्पायोति दस्सेति । “पत्तं भमं आरोपेत्वा मज्जित्वा पचन्ति 'मणिवण्णं करिस्सामा'ति, न वट्टती''ति (पारा० अट्ठ० १.पाळिमुत्तकविनिच्छयो) हि विनयट्ठकथासु पचनकिरियामत्तमेव पटिक्खित्तं । तथा हि
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वदन्ति “मणिवण्णं पन पत्तं अजेन कतं लभित्वा परिभुजितुं वट्टती"ति (सारत्थ० टी० २.८५) “तादिसहि अरजे एककस्स निवासन्तरायकर''न्तिआदिना चीवरे वुत्तनयेन "निमित्तकम्मादिवसेन लद्धो पन एकन्तअकप्पियो सीलविनासनेन अनत्थावहत्ता''तिआदिना अम्हेहि वुत्तनयोपि यथारहं नेतब्बो। सेवमानस्साति हेत्वन्तो गधवचनं अभिवड्वनपरिहायनस्स ।
"अब्भन्तरे"तिआदि सोपो। "तत्था"तिआदि अत्तसुञताविभावनेन वित्थारो | सण्डासेनाति कम्मारानं अयोगहणविसेसेन । अग्गिवण्णपत्तग्गहणेति अग्गिना झापितत्ता अग्गिवण्णभूतपत्तस्स गहणे । रागादिपरिळाहजनकपत्तस्स ईदिसमेव उपमानं युत्तन्ति एवं वुत्तं ।
“अपिचा"तिआदिना सङ्घाटिचीवरपत्तधारणेसु एकतो असम्मोहसम्पजनं दस्सेति । छिन्नहत्थपादे अनाथमनुस्सेति सम्बन्धो | नीलमक्खिका नाम आसाटिककारिका । गवादीनहि वणेसु नीलमक्खिकाहि कता अनयब्यसनहेतुभूता अण्डका आसाटिका नाम वुच्चति । अनाथसालायन्ति अनाथानं निवाससालायं । दयालुकाति करुणाबहुला । वणमत्तचोळकानीति वणप्पमाणेन पटिच्छादनत्थाय छिन्नचोळखण्डकानि। केसञ्चीति बहूसु केसञ्चि अनाथमनुस्सानं । थूलानीति थद्धानि । तत्थाति तस्मिं पापुणने, भावलक्खणे, निमित्ते वा एतं भुम्मं । कस्माति वुत्तं “वणपटिच्छादनमत्तेनेवा"तिआदि । चोळकेन, कपालेनाति च
अत्थयोगे कम्मत्थे ततिया, करणत्थे वा । वणपटिच्छादनमत्तेनेव भेसज्जकरणमत्तेनेवाति पन विसेसनं, न पन मण्डनानुभवनादिप्पकारेन अत्थोति । सङ्खारदुक्खतादीहि निच्चातुरस्स कायस्स परिभोगभूतानं पत्तचीवरानं एदिसमेव उपमानमुपपन्नन्ति तथा वचनं दगुब् । सुखुमत्तसल्लक्खणेन उत्तमस्स सम्पजानस्स करणसीलत्ता, पुरिमेहि च सम्पजानकारीहि उत्तमत्ता उत्तमसम्पजानकारी।
असनादिकिरियाय कम्मविसेसयोगतो असितादिपदेहेव कम्मविसेससहितो किरियाविसेसो विज्ञायतीति वुत्तं "असितेति पिण्डपातभोजने"तिआदि। अदुविधोपि अत्थोति अट्ठप्पकारोपि पयोजनविसेसो ।
तत्थ पिण्डपातभोजनादीसु अत्थो नाम इमिना महासिवत्थेरवादवसेन “इमस्स कायस्स ठितिया"तिआदिना (सं० नि० २.४.१२०; अ० नि० २.६.५८; ३.८.९; ध० स०
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सतिसम्पजञकथावण्णना
१३५५; महानि० २०६) सुत्ते वुत्तं अट्ठविधम्पि पयोजनं दस्सेति । महासिवत्थेरो (ध० स० १.१३५५) हि “हेट्ठा चत्तारि अङ्गानि पटिक्खेपो नाम, उपरि पन अट्ठङ्गानि पयोजनवसेन समोधानेतब्बानी"ति वदति । तत्थ “यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया'ति एकमङ्गं, “यापनाया''ति एकं, “विहिंसूपरतिया'ति एकं, "ब्रह्मचरियानुग्गहाया''ति एकं, "इति पुराणञ्च वेदनं पटिहवामी''ति एकं, “नवञ्च वेदनं न उप्पादेस्सामी"ति एकं, “यात्रा च मे भविस्सती"ति एकं, “अनवज्जता चा"ति एकं, फासुविहारो पन भोजनानिससमत्तन्ति एवं अट्ठ अङ्गानि पयोजनवसेन समोधानेतब्बानि । अञथा पन “नेव दवाया''ति एकमङ्गं, “न मदाया'"ति एकं, “न मण्डनाया''ति एकं, “न विभूसनाया"ति एकं, “यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया यापनाया"ति एकं, “विहिंसूपरतिया ब्रह्मचरियानुग्गहाया''ति एकं, “इति पुराणञ्च वेदनं पटिहवामि, नवञ्च वेदनं न उप्पादेस्सामी''ति एकं, “यात्रा च मे भविस्सती"ति एकं, “अनवज्जता च फासुविहारो चा"ति पन भोजनानिससमत्तन्ति वुत्तानि अट्ठङ्गानि इधानधिप्पेतानि । कस्माति चे? पयोजनानमेव अभावतो, तेसमेव च इध अत्थसद्देन वुत्तत्ता। ननु च "नेवदवायातिआदिना नयेन वुत्तो"ति मरियादवचनेन दुतियनयस्सेव इधाधिप्पेतभावो विञायतीति ? न, “नेव दवाया"तिआदिना पटिक्खेपङ्गदस्सनमुखेन पच्चवेक्खणपाळिया देसितत्ता, यथादेसिततन्तिक्कमस्सेव मरियादभावेन दस्सनतो। पाठक्कमेनेव हि "नेव दवायातिआदिना नयेना"ति वुत्तं, न अत्थक्कमेन, तेन पन “इमस्स कायस्स ठितियातिआदिना नयेना''ति वत्तब्बन्ति ।
तिधा देन्ते द्विधा गाहं सन्धाय “पटिग्गहणं नामा"ति वुत्तं, भोजनादिगहणत्थाय हत्थओतारणं भुञ्जनादिअत्थाय आलोपकरणन्तिआदिना अनुक्कमेन भुञ्जनादिपयोगो वायोधातुवसेनेव विभावितो । वायोधातुविष्फारेनेवाति एत्थ एव-सद्देन निवत्तेतब्बं दस्सेति "न कोची"तिआदिना। कुञ्चिका नाम अवापुरणं, यं “ताळो''तिपि वदन्ति । यन्तकेनाति चक्कयन्तकेन । यतति उग्घाटननिग्घाटनउक्खिपननिक्खिपनादीसु वायमति एतेनाति हि यन्तकं। सञ्चुण्णकरणं मुसलकिच्चं। अन्तोकत्वा पतिट्ठापनं उदुक्खलकिच्चं । आलोळितविलोळितवसेन परिवत्तनं हत्थकिच्चं। इतीति एवं । तत्थाति हत्थकिच्चसाधने, भावलक्खणे, निमित्ते वा भुम्मं । तनुकखेळोति पसन्नखेळो । बहलखेळोति आविलखेळो । जिव्हासङ्घातेन हत्थेन आलोळितविलोळितवसेन इतो चितो च परिवत्तकं जिव्हाहत्थपरिवत्तकं । कटच्छु, दब्बीति कत्थचि परियायवचनं । “पुमे कटच्छु दबित्थी''ति हि वुत्तं । इध पन येन भोजनादीनि अन्तोकत्वा गण्हाति, सो कटच्छु, याय पन तेसमुद्धरणादीनि करोति,
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सा दब्बीति वेदितब्बं । पलालसन्थारन्ति पतिट्ठानभूतं पलालादिसन्थारं । निदस्सनमत्तव्हेतं । धारेन्तोति पतिट्ठानभावेन सम्पटिच्छन्तो। पथवीसन्धारकजलस्स तंसन्धारकवायुना विय परिभुत्ताहारस्स वायोधातुनाव आमासये अवठ्ठानन्ति दस्सेति “वायोधातुवसेनेव तिद्वती"ति इमिना । तथा परिभुत्तहि आहारं वायोधातु हेट्ठा च तिरियञ्च घनं परिवटुमं कत्वा याव पक्का सन्निरुज्झनवसेन आमासये पतिट्टितं करोतीति । उद्धनं नाम यत्थ उक्खलियादीनि पतिट्ठापेत्वा पचन्ति, या “चुल्ली"तिपि वुच्चति । रस्सदण्डो दण्डको। पतोदो यहि । इतीति वुत्तप्पकारमतिदिसति । वुत्तप्पकारस्सेव हि धातुवसेन विभावना । तत्थ अतिहरतीति याव मुखा अभिहरति । वीतिहरतीति ततो कुच्छियं विमिस्सं करोन्तो हरती"ति (दी० नि० टी० १.२१४) आचरियधम्मपालत्थेरो, आचरियानन्दत्थेरो पन "ततो याव कुच्छि, ताव हरती"ति (विभं० मूल टी० ५२३) आह । तदुभयम्पि अत्थतो एकमेव उभयत्थापि कुच्छिसम्बन्धमत्तं हरणस्सेव अधिप्पेतत्ता।
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अपिच अतिहरतीति मुखद्वारं अतिक्कामेन्तो हरति । वीतिहरतीति कुच्छिगतं पस्सतो हरति । धारेतीति आमासये पतिट्टितं करोति । परिवत्तेतीति अपरापरं परिवत्तनं करोति । सञ्चुण्णेतीति मुसलेन विय सञ्चुण्णनं करोति । विसोसेतीति विसोसनं नातिसुक्खं करोति । नीहरतीति कुच्छितो बहि निद्धारेति । पथवीधातुकिच्चेसुपि यथावुत्तोयेव अत्थो । तानि पन आहारस्स धारणपरिवत्तनसञ्चुण्णनविसोसनानि पथवीसहिता एव वायोधातु कातुं सक्कोति, न केवला, तस्मा तानि पथवीधातुयापि किच्चभावेन वुत्तानि । सिनेहेतीति तेमेति । अल्लत्तञ्च अनुपालेतीति यथा वायोधातुआदीहि अतिविय सोसनं न होति, तथा अल्लभावञ्च नातिअल्लताकरणवसेन अनुपालेति । अञ्जसोति आहारस्स पविसनपरिवत्तननिक्खमनादीनं मग्गो। विज्ञाणधातूति मनोविज्ञाणधातु परियेसनज्झोहरणादिविजाननस्स अधिप्पेतत्ता। तत्थ तत्थाति तस्मिं तस्मिं परियेसनज्झोहरणादिकिच्चे । तंतंविजाननस्स पच्चयभूतो तंनिप्फादकोयेव पयोगो सम्मापयोगो नाम । येन हि पयोगेन परियेसनादि निप्फज्जति,। सो तब्बिसयविजाननम्पि निप्फादेति नाम तदविनाभावतो । तमन्वाय आगम्माति अत्थो | आभुजतीति परियेसनवसेन, अज्झाहरणजिण्णाजिण्णतादिपटिसंवेदनवसेन च तानि परियेसनज्झोहरणजिण्णाजिण्णतादीनि आवज्जेति विजानाति । आवज्जनपुब्बकत्ता विजाननस्स विजाननम्पेत्थ गहितन्ति वेदितब्बं । अथ वा सम्मापयोगो नाम सम्मापटिपत्ति । तमन्वाय आगम्म । “अब्भन्तरे अत्ता नाम कोचि भुञ्जनको नत्थी"तिआदिना आभुजति समन्नाहरति, विजानातीति अत्थो । आभोगपुब्बको हि सब्बो विज्ञाणब्यापारोति “आभुजति"च्चेव वुत्तं ।
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सतिसम्पजञकथावण्णना
गमनतोति भिक्खाचारवसेन गोचरगामं उद्दिस्स गमनतो। पच्चागमनम्पि गमनसभावत्ता इमिनाव सङ्गहितं । परियेसनतोति गोचरगामे भिक्खाय आहिण्डनतो । परियेसनसभावत्ता इमिनाव पटिक्कमनसालादिउपसङ्कमनम्पि सङ्गहितं । परिभोगतोति दन्तमुसलेहि सञ्चुण्णेत्वा जिव्हाय सम्परिवत्तनक्खणेयेव अन्तरहितवण्णगन्धसङ्घारविसेसं सुवानदोणियं सुवानवमथु विय परमजेगुच्छं आहारं परिभुञ्जनतो । आसयतोति एवं परिभुत्तस्स आहारस्स पित्तसेम्हपुब्बलोहितासयभावूपगमनेन परमजिगुच्छनहेतुभूततो आमासयस्स उपरि पतिठ्ठानकपित्तादिचतुबिधासयतो । आसयति एकज्झं पवत्तमानोपि कम्मबलववत्थितो हुत्वा मरियादवसेन अञ्जमलं असङ्करतो तिट्टति पवत्तति एत्थाति हि आसयो, आमासयस्स उपरि पतिट्ठानको पित्तादि चतुबिधासयो। मरियादत्थो हि अयमाकारो। निधानतोति आमासयतो। निधेति यथाभुत्तो आहारो निचितो हुत्वा तिट्ठति एत्थाति हि आमासयो "निधान"न्ति वुच्चति । अपरिपक्कतोति भुत्ताहारपरिपाचनेन गहणीसङ्खातेन कम्मजतेजसा अपरिपाकतो। परिपक्कतोति यथावुत्तकम्मजतेजसाव परिपाकतो । फलतोति निप्फत्तितो, सम्मापरिपच्चमानस्स, असम्मापरिपच्चमानस्स च भुत्ताहारस्स यथाक्कम केसादिकुणपददुआदिरोगाभिनिष्फत्तिसङ्घातपयोजनतोति वा अत्थो । "इदमस्स फल'"न्ति हि वुत्तं । निस्सन्दनतोति अक्खिकण्णादीसु अनेकद्वारेसु इतो चितो च विस्सन्दनतो । वुत्तहि -
“अन्नं पानं खादनीयं, भोजनञ्च महारहं । एकद्वारेन पविसित्वा, नवद्वारेहि सन्दती'ति ।। (विसुद्धि० १.३०३)
सम्मक्खनतोति हत्थओट्ठादिअङ्गेसु नवसु द्वारेसु परिभोगकाले, परिभुत्तकाले च यथारहं सब्बसो मक्खनतो। सब्बत्थ आहारे पटिक्कूलता पच्चवेक्खितब्बाति सह पाठसेसेन योजना। तंतंकिरियानिप्फत्तिपटिपाटिवसेन चायं “गमनतो''तिआदिका अनुपुब्बी ठपिता। सम्मक्खनं पन परिभोगादीसु लब्भमानम्पि निस्सन्दवसेन विसेसतो पटिक्कूलन्ति सब्बपच्छा ठपितन्ति दट्ठब् ।।
पत्तकालेति युत्तकाले, यथावुत्तेन वा तेजेन परिपच्चनतो उच्चारपस्सावभावं पत्तकाले | वेगसन्धारणेन उप्पन्नपरिळाहत्ता सकलसरीरतो सेदा मुच्चन्ति। ततोयेव अक्खीनि परिब्भमन्ति, चित्तञ्च एकग्गं न होति। अज्ञे च सूलभगन्दरादयो रोगा उप्पज्जन्ति। सब्बं तन्ति सेदमुच्चनादिकं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२१४-२१४)
अट्ठानेति मनुस्सामनुस्सपरिग्गहिते खेत्तदेवायतनादिके अयुत्तट्ठाने । तादिसे हि करोन्तं कुद्धा मनुस्सा, अमनुस्सा वा जीवितक्खयम्पि पापेन्ति । आपत्तीति पन भिक्खुभिक्खुनीनं यथारहं दुक्कटपाचित्तिया । पतिरूपे ठानेति वुत्तविपरीते ठाने । सब्बं तन्ति आपत्तिआदिकं ।
निक्खमापेता अत्ता नाम अस्थि, तस्स कामताय निक्खमनन्ति बालमञ्जनं निवत्तेतुं "अकामताया"ति वुत्तं, अत्तनो अनिच्छाय अपयोगेन वायोधातुविष्फारेनेव निक्खमतीति वुत्तं होति । सन्निचिताति समुच्चयेन ठिता। वायुवेगसमुप्पीलिताति वायोधातुया वेगेन समन्ततो अवपीळिता, निक्खमनस्स चेतं हेतुवचनं । “सन्निचिता उच्चारपस्सावा"ति वत्वा "सो पनायं उच्चारपस्तावो"ति पुन वचनं समाहारद्वन्देपि पुल्लिङ्गपयोगस्स सम्भवतादस्सनत्थं । एकत्तमेव हि तस्स नियतलक्खणन्ति । अत्तना निरपेक्खं निस्सद्वत्ता नेव अत्तनो अत्थाय सन्तकं वा होति, कस्सचिपि दीयनवसेन अनिस्सज्जितत्ता, जिगुच्छनीयत्ता च न परस्सपीति अत्थो । सरीरनिस्सन्दोवाति सरीरतो विस्सन्दनमेव निक्खमनमत्तं । सरीरे सति सो होति, नासतीति सरीरस्स आनिसंसमत्तन्तिपि वदन्ति । तदयुत्तमेव निदस्सनेन विसमभावतो । तत्थ हि "पटिजग्गनमत्तमेवा"ति वुत्तं, पटिसोधनमत्तं एवाति चस्स अत्थो । वेळुनाळिआदिउदकभाजनं उदकतुम्बो। तन्ति छड्डितउदकं ।
"गतेति गमने"ति पुब्बे अभिक्कमपटिक्कमगहणेन गमनेपि पुरतो, पच्छतो च कायस्स अतिहरणं वुत्तन्ति इध गमनमेव गहित''न्ति (विभं० मूल टी० ५२५) आचरियानन्दत्थेरेन वुत्तं, तं केचिवादो नाम आचरियधम्मपालत्थेरेन कतं । कस्माति चे ? गमने पवत्तस्स पुरतो, पच्छतो च कायातिहरणस्स तदविनाभावतो पदवीतिहारनियमिताय गमनकिरियाय एव सङ्गहितत्ता, विभङ्गट्ठकथादीहि (अभि० अट्ठ० २.५२३) च विरोधनतो। वत्तम्हि तत्थ गमनस्स उभयत्थ समवरोधत्तं, भेदत्तञ्च
___ “एत्थ च एको इरियापथो द्वीसु ठानेसु आगतो। सो हेट्ठा 'अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते'ति एत्थ भिक्खाचारगामं गच्छतो च आगच्छतो च अद्धानगमनवसेन कथितो । 'गते ठिते निसिन्ने'ति एत्थ विहारे चुणिकपादुद्धारइरियापथवसेन कथितोति वेदितब्बो"ति ।
“गते''तिआदीसु अवत्थाभेदेन किरियाभेदोयेव, न पन अत्थभेदोति दस्सेतुं “गच्छन्तो वा"तिआदि वुत्तं । तेनाह "तस्मा"तिआदि । तत्थ सुत्तेति दीघनिकाये, मज्झिमनिकाये च
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(२.२.२१४-२१४)
सतिसम्पजञकथावण्णना
सङ्गीते सतिपट्ठानसुत्ते (दी० नि० २.३७२; म० नि० १.१०५) अद्धानइरियापथाति चिरपवत्तका दीघकालिका इरियापथा अद्धानसद्दस्स चिरकालवचनतो “अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिक''न्तिआदीसु (दी० नि० २.१८४; ३.१७७; पारा० २१) विय, अद्धानगमनपवत्तका वा दीघमग्गिका इरियापथा। अद्धानसदो हि दीघमग्गपरियायो "अद्धानगमनसमयो''तिआदीसु (पाचि० २१३, २१७) विय। मज्झिमाति भिक्खाचारादिवसेन पवत्ता नातिचिरकालिका, नातिदीघमग्गिका वा इरियापथा । चुण्णियइरियापथाति विहारे, अञ्जत्थ वा इतो चितो च परिवत्तनादिवसेन पवत्ता अप्पमत्तकभावेन चुण्णविचुण्णियभूता इरियापथा । अप्पमत्तकम्पि हि “चुण्णविचुण्ण"न्ति लोके वदन्ति । "खुद्दकचुण्णिकइरियापथा"तिपि पाठो, खुद्दका हुत्वा वुत्तनयेन चुण्णिका इरियापथाति अत्थो । तस्माति एवं अवत्थाभेदेन इरियापथभेदमत्तस्स कथनतो। तेसुपीति "गते ठिते''तिआदीसुपि । वुत्तनयेनाति “अभिक्कन्ते''तिआदीसु वुत्तनयेन ।
अपरभागेति गमनइरियापथतो अपरभागे। ठितोति ठितइरियापथसम्पन्नो । एत्थेवाति चङ्कमनेयेव । एवं सब्बत्थ यथारहं ।
गमनठाननिसज्जानं विय निसीदनसयनस्स कमवचनमयुत्तं कमाभावतोति “उट्ठाय" मिच्चेव वुत्तं ।
येभुय्येन तथा
जागरितसद्दसन्निधानतो चेत्थ भवङ्गोतरणवसेन निद्दोक्कमनमेव सयनं, न पन पिट्ठिपसारणमत्तन्ति दस्सेति “किरियामयपवत्तान"न्तिआदिना । दिवासेय्यसिक्खापदे (पारा० ७७) विय पिट्ठिपसारणस्सापि सयनइरियापथभावेन एकलक्खणत्ता एत्थावरोधनं दट्ठब्बं । करणं किरिया, कायादिकिच्चं, तं निब्बत्तेन्तीति किरियामयानि तद्धितसद्दानमनेकत्थवुत्तितो । अथ वा आवज्जनद्वयकिच्चं किरिया, ताय पकतानि, निब्बत्तानि वा किरियामयानि । आवज्जनवसेन हि भवङ्गुपच्छेदे सति वीथिचित्तानि उप्पज्जन्तीति । अपरापरुप्पत्तिया नानप्पकारतो वत्तन्ति परिवत्तन्तीति पवत्तानि। कत्थचि पन “चित्तान''न्ति पाठो, सो अभिधम्मट्ठकथादीहि, (विभं० अट्ठ० ५२३) तट्टीकाहि च विरुद्धत्ता न पोराणपाठोति वेदितब्बो । किरियामयानि एव पवत्तानि तथा, जवनं, सब्बम्पि वा छद्वारिकवीथिचित्तं । तेनाह अभिधम्मटीकायं (विभं० मूल टी० ५२५) “कायादिकिरियामयत्ता, आवज्जनकिरियासमुट्टितत्ता च जवनं, सब्बम्पि वा छद्वारप्पवत्तं किरियामयपवत्तं नामा''ति । अप्पवत्तन्ति निद्दोक्कमनकाले अनुप्पज्जनं सुत्तं नामाति अत्थो गहेतब्बो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२१४-२१४)
नेय्यत्थवचनहि इदं, इतरथा छद्वारिकचित्तानं पुरेचरानुचरवसेन उप्पज्जन्तानं सब्बेसम्पि द्वारविमुत्तचित्तानं पवत्तं सुत्तं नाम सिया, एवञ्च कत्वा निद्दोक्कमनकालतो अस्मिं काले उप्पज्जन्तानं द्वारविमुत्तचित्तानम्पि पवत्तं जागरिते सङ्गव्हतीति वेदितबं ।
चित्तस्स पयोगकारणभूते ओट्टादिके पटिच्च यथासकं ठाने सद्दो जायतीति आह "ओढे च पटिच्चा"तिआदि। किञ्चापि सद्दो यथाठानं जायति, ओढालनादिना पन पयोगेनेव जायति, न विना तेन पयोगेनाति अधिप्पायो । केचि पन वदन्ति “ओढे चातिआदि सदुप्पत्तिट्ठाननिदस्सन'"न्ति, तदयुत्तमेव तथा अवचनतो। न हि “ओढे च पटिच्चा"तिआदिना ससमुच्चयेन कम्मवचनेन ठानवचनं सम्भवतीति । तदनुरूपन्ति तस्स सद्दस्स अनुरूपं । भासनस्स पटिसञ्चिक्खनविरोधतो तुण्हीभावपक्खे “अपरभागे भासितो इति पटिसञ्चिक्खती''ति न वुत्तं, तेन च विज्ञायति “तुण्हीभूतोव पटिसञ्चिक्खतीति अत्थो''ति ।
भासनतुण्हीभावानं सभावतो भेदे सति अयं विभागो युत्तो सिया, नासतीति अनुयोगेनाह "उपादारूपपवत्तियञ्ही"तिआदि । उपादारूपस्स सद्दायतनस्स पवत्ति तथा, सद्दायतनस्स पवत्तनं भासनं, अप्पवत्तनं तुण्हीति वुत्तं होति ।
यस्मा पन महासिवत्थेरवादे अनन्तरे अनन्तरे इरियापथे पवत्तरूपारूपधम्मानं तत्थ तत्थेव निरोधदस्सनवसेन सम्पजानकारिता गहिता, तस्मा तं महासतिपट्ठानसुत्ते (दी० नि० २.३७६; म० नि० १.१०९) आगतअसम्मोहसम्पजञविपस्सनावारवसेन वेदितब्, न चतुब्बिधसम्पजञविभागवसेन, अतो तत्थेव तमधिप्पेतं, न इधाति दस्सेन्तो "तयिद"न्तिआदिमाह । असम्मोहसङ्खातं धुरं जेट्टकं यस्स वचनस्साति असम्मोहधुरं, महासतिपट्ठानसुत्तेयेव तस्स वचनस्स अधिप्पेतभावस्स हेतुगब्भमिदं वचनं । यस्मा पनेत्थ सब्बम्पि चतुब्बिधं सम्पजचं लब्भति यावदेव सामञफलविसेसदस्सनपधानत्ता इमिस्सा देसनाय, तस्मा तं इध अधिप्पेतन्ति दस्सेतुं "इमस्मिं पना"तिआदि वुत्तं । वुत्तनयेनेवाति अभिक्कन्तादीसु वुत्तनयेनेव । ननु “सतिसम्पजओन समन्नागतो"ति एतस्स उद्देसस्सायं निद्देसो, अथ कस्मा सम्पजञवसेनेव वित्थारो कतोति चोदनं सोधेन्तो “सम्पजानकारीति चा"तिआदिमाह, सतिसम्पयुत्तस्सेव सम्पजानस्स वसेन अत्थस्स विदितब्बत्ता एवं वित्थारो कतोति वुत्तं होति । “सतिसम्पयुत्तस्सेवा"ति च इमिना यथा सम्पजस्स किच्चतो
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(२.२.२१४-२१४)
सतिसम्पजञकथावण्णना
पधानता गहिता, एवं सतियापीति अत्थं दस्सेति, न पनेतं सतिया सम्पजचेन सह भावमत्तदस्सनं । न हि कदाचि सतिरहिता आणप्पवत्ति अत्थीति ।
ननु च सम्पजञवसेनेवायं वित्थारो, अथ कस्मा सतिसम्पयुत्तस्स सम्पजञस्स वसेन अत्थो वेदितब्बोति चोदनम्पि सोधेति “सतिसम्पजञ्जन समन्नागतोति एतस्स हि पदस्स अयं वित्थारो"ति इमिना । इदं वुत्तं होति - “सतिसम्पजओन समन्नागतो''ति एवं एकतो उद्दिट्ठस्स अत्थस्स वित्थारत्ता उद्देसे विय निद्देसेपि तदुभयं समधुरभावेनेव गहितन्ति । इमिनापि हि सतिया सम्पजओन समधुरतंयेव विभावेति एकतो उद्दिट्ठस्स अत्थस्स वित्थारभावदस्सनेन तदत्थस्स सिद्धत्ता । इदानि विभङ्गनयेनापि तदत्थं समत्थेतुं “विभङ्गप्पकरणे पना"तिआदि वुत्तं । इमिनापि हि सम्पजस्स विय सतियापेत्थ पधानतंयेव विभावेति । तत्थ एतानि पदानीति “अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होती"तिआदीनि उद्देसपदानि । विभत्तानेवाति सतिया सम्पजओन सम्पयोगमकत्वा सब्बठ्ठानेसु विसुं विसुं विभत्तानियेव ।
___ मज्झिमभाणका, पन आभिधम्मिका (विभं० अठ्ठ० ५२३) च एवं वदन्ति - एको भिक्खु गच्छन्तो अझं चिन्तेन्तो अनं वितक्केन्तो गच्छति, एको कम्मट्ठानं अविस्सज्जेत्वाव गच्छति । तथा एको तिद्वन्तो अखं चिन्तेन्तो अनं वितक्केन्तो तिट्ठति, एको कम्मट्ठानं अविस्सज्जेत्वाव तिट्ठति । एको निसीदन्तो अझं चिन्तेन्तो अनं वितक्केन्तो निसीदति, एको कम्मट्टानं अविस्सज्जेत्वाव निसीदति । एको सयन्तो अनं चिन्तेन्तो अनं वितक्केन्तो सयति, एको कम्मट्टानं अविस्सज्जेत्वाव सयति । एत्तकेन पन गोचरसम्पजनं न पाकटं होतीति चङ्कमनेन दीपेन्ति । यो हि भिक्खु चङ्कर्म
ओतरित्वा चङ्कमनकोटियं ठितो परिग्गण्हाति “पाचीनचङ्कमनकोटियं पवत्ता रूपारूपधम्मा पच्छिमचङ्कमनकोटिं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, पच्छिमचङ्कमनकोटियं पवत्तापि पाचीनचङ्कमनकोटिं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, चङ्कमनवेमज्झे पवत्ता उभो कोटियो अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, चङ्कमने पवत्ता रूपारूपधम्मा ठानं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा, ठाने पवत्ता निसज्जं, निसज्जाय पवत्ता सयनं अप्पत्वा एत्थेव निरुद्धा''ति एवं परिग्गण्हन्तो परिग्गण्हन्तोयेव भवङ्गं ओतारेति, उट्ठहन्तो कम्मट्ठानं गहेत्वाव उट्ठहति । अयं भिक्खु गतादीसु सम्पजानकारी नाम होति ।
एवं पन सुत्ते कम्मट्ठानं अविभूतं होति, कम्मट्ठानं अविभूतं न कातब्बं, तस्मा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२१५-२१५)
यो भिक्खु याव सक्कोति, ताव चङ्कमित्वा ठत्वा निसीदित्वा सयमानो एवं परिग्गहेत्वा सयति “कायो अचेतनो, मञ्चो अचेतनो, कायो न जानाति 'अहं मञ्चे सयितो'ति, मञ्चोपि न जानाति ‘मयि कायो सयितो'ति । अचेतनो कायो अचेतने मञ्चे सयितो''ति । एवं परिग्गण्हन्तो परिग्गण्हन्तोयेव चित्तं भवङ्गं ओतारेति, पबुज्झन्तो कम्मट्ठानं गहेत्वाव पबुज्झति, अयं सुत्ते सम्पजानकारी नाम होति ।
“कायादिकिरियानिप्फत्तनेन तम्मयत्ता, आवज्जनकिरियासमुट्ठितत्ता च जवनं, सब्बम्पि वा छद्वारप्पवत्तं किरियामयपवत्तं नाम, तस्मिं सति जागरितं नाम होती''ति परिग्गण्हन्तो भिक्खु जागरिते सम्पजानकारी नाम । अपिच रत्तिन्दिवं छ कोट्ठासे कत्वा पञ्च कोट्ठासे जग्गन्तोपि जागरिते सम्पजानकारी नाम होति ।
विमुत्तायतनसीसेन धम्मं देसेन्तोपि, बात्तिंस तिरच्छानकथा पहाय दसकथावत्थुनिस्सितं सप्पायकथं कथेन्तोपि भासिते सम्पजानकारी नाम |
अट्ठतिसाय आरम्मणेसु चित्तरुचियं मनसिकारं पवत्तेन्तोपि दुतियज्झानं समापन्नोपि तुण्हीभावे सम्पजानकारी नाम | दुतियहि झानं वचीसङ्खारविरहतो विसेसतो तुण्हीभावो नामाति । अयम्पि नयो पुरिमनयतो विसेसनयत्ता इधापि आहरित्वा वत्तब्बो । तथा हेस अभिधम्मट्ठकथादीसु (विभं० अट्ठ० ५२३) “अयं पनेत्थ अपरोपि नयो"ति आरभित्वा यथावुत्तनयो विभावितोति । “एवं खो महाराजा"तिआदि यथानिद्दिठ्ठस्स अत्थस्स निगमनं, तस्मा तत्थ निद्देसानुरूपं अत्थं दस्सेन्तो "एव"न्तिआदिमाह । सतिसम्पयुत्तस्स सम्पजञस्साति हि निद्देसानुरूपं अत्थवचनं । तत्थ विनिच्छयो वुत्तोयेव । एवन्ति इमिना वुत्तप्पकारेन अभिक्कन्तपटिक्कन्तादीसु सत्तसु ठानेसु पच्चेकं चतुब्बिधेन पकारेनाति अत्थो ।
सन्तोसकथावण्णना
२१५. अत्थदस्सनेन पदस्सपि विञ्जायमानत्ता पदमनपेक्खित्वा सन्तोसस्स अत्तनि अत्थिताय भिक्खु सन्तुट्ठोति पवुच्चतीति अत्थमत्तं दस्सेतुं "इतरीतरपच्चयसन्तोसेन समन्नागतो"ति वुत्तं । सन्तुस्सति न लुद्धो भवतीति हि पदनिब्बचनं । अपिच पदनिब्बचनवसेन अत्थे वुत्ते यस्स सन्तोसस्स अत्तनि अस्थिभावतो सन्तुट्ठो नाम, सो अपाकटोति तं पाकटकरणथं "इतरीतरपच्चयसन्तोसेन समन्नागतो"ति अत्थमत्तमाह,
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(२.२.२१५ - २१५)
सन्तोसकथावण्णना
चीवरादिके यत्थ कत्थचि कप्पियपच्चये सन्तोसेन समङ्गीभूतोति अत्थो । इतर- सद्दो अनियमवचनो द्विक्खत्तुं वुच्चमानो यं किञ्चि- सद्देन समानत्थो होति । तेन वुत्तं “यत्थ कत्थचि कप्पियपच्चये 'ति । अथ वा इतरं वुच्चति हीनं पणीततो अञ्ञत्ता, तथा पणीतम्पि हीनतो अञ्ञत्ता । अञ्ञमञ्ञापेक्खासिद्धा हि इतरता, तस्मा हीनेन वा पणीतेन वा चीवरादिकप्पियपच्चयेन सन्तोसेन समङ्गीभूतोति अत्थो दट्ठब्बो | सन्तुस्सति तेन, सन्तुस्सनमत्तन्ति वा सन्तोसो, तथा पवत्तो अलोभो, अलोभपधाना वा चत्तारो खन्धा । लभनं लाभो, अत्तनो लाभस्स अनुरूपं सन्तोसो यथालाभसन्तोसो। बलन्ति कायबलं, अत्तनो बलस्स अनुरूपं सन्तोसो यथाबलसन्तोसो । सारुष्पन्ति सप्पायं पतिरूपं भिक्खुनो अनुच्छविकता, अत्तनो सारूप्पस्स अनुरूपं सन्तोसो यथासारूप्पसन्तोसो ।
""
अपरो नयो - लब्भतेति लाभो, यो यो लाभो यथालाभं, इतरीतरपच्चयो, यथालाभेन सन्तोसो यथालाभसन्तोसो । बलस्स अनुरूपं पवत्ततीति यथाबलं, अत्तनो बलानुच्छविकपच्चयो, यथा- सद्दो चेत्थ ससाधनं अनुरूपकिरियं वदति, यथा तं ' अधिचित्त "न्ति एत्थ अधि- सद्दो ससाधनं अधिकरणकिरियन्ति । यथाबलेन सन्तोसो यथाबलसन्तोसो। सारुप्पति पतिरूपं भवति, सोभनं वा आरोपेतीति सारूप्पं, यं यं सारुप्पं यथासारूप्पं, भिक्खुनो सप्पायपच्चयो, यथासारुप्पेन सन्तोसो यथासारूप्पसन्तोसो । यथावृत्तं पभेदमनुगता वण्णना पभेदवण्णना ।
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इधाति सासने । अञ्ञं न पत्थेतीति अप्पत्तपत्थनभावमाह, लभन्तोपि न गण्हातीति पत्तपत्थनाभावं । पठमेन अप्पत्तपत्थनाभावेयेव वुत्ते यथालद्धतो अञ्ञस्स अपत्थना नाम अप्पिच्छतायपि सिया पवत्तिआकारोति अप्पिच्छतापसङ्गभावतो ततोपि निवत्तमेव सन्तोसस्स सरूपं दस्सेतुं दुतियेन पत्तपत्थनाभावो वुत्तोति दट्ठब्बं । एवमुपरिपि । पकतिदुब्बलोति आबाधादिविरहेपि सभावदुब्बलो । समानो सीलादिभागो यस्साति सभागो, सह वा सीलादीहि गुणभागेहि वत्ततीति सभागो, लज्जीपेसलो भिक्खु, तेन । तं परिवत्तेत्वाति पकतिदुब्बलादीनं गरुचीवरं न फासुभावावहं, सरीरखेदावहञ्च होतीति पयोजनवसेन परिवत्तनं वृत्तं, न अत्रिच्छतादिवसेन । अत्रिच्छतादिप्पकारेन हि परिवत्त्वा लहुकचीवरपरिभोगो सन्तोसविरोधी होति, तरस पन तदभावतो यथावुत्तप्पयोजनवसेन परिवत्तेत्वा लहुकचीवरपरिभोगोपि न सन्तोसविरोधीति आह “लहुकेन यापेन्तोपि सन्तुट्ठोव होती 'ति । पयोजनवसेन परिवत्तेत्वा लहुकचीवरपरिभोगोपि न ताव सन्तोसविरोधी, पगेव तथा अपरिवत्तेत्वा परिभोगेति सम्भावितस्स अत्थस्स दस्सनत्थञ्हेत्थ अपि सद्दग्गहणं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२१५-२१५)
चीवरनिद्देसेपि “पत्तचीवरादीनं अञ्जतर"न्ति वचनं यथारुतं गहितावसेसपच्चयसन्तोसस्स चीवरसन्तोसे समवरोधितादस्सनत्थं । “थेरको अयमायस्मा मल्लको''तिआदी थेरवोहारस्स पञत्तिमत्तेपि पवत्तितो दसवस्सतो पभुति चिरवस्सपब्बजितेस्वेव इध पवत्तिञापनत्थं “थेरानं चिरपब्बजितान"न्ति वुत्तं, थेरानन्ति वा सङ्घत्थेरं वदति । चिरपब्बजितानन्ति पन तदवसेसे वुड्डभिक्खू । सङ्कारकूटादितोति कचवररासिआदितो। अनन्तकानीति नन्तकानि पिलोतिकानि । “अ-कारो चेत्थ निपातमत्त"न्ति (वि० व० अट्ठ० ११६५) विमानट्ठकथायं वुत्तं । तथा चाहु “नन्तकं कप्पटो जिण्णवसनं तु पटच्चर"न्ति नत्थि दसासङ्खातो अन्तो कोटि येसन्ति हि नन्तकानि, न-सद्दस्स तु अनादेसे अनन्तकानीतिपि युज्जति । सङ्केतकोविदानं पन आचरियानं तथा अवुत्तत्ता वीमंसित्वा गहेतब्बं । “सनन्तकानी"तिपि पाठो, नन्तकेन सह संसिब्बितानि पंसुकूलानि चीवरानीति अत्थो । सङ्घाटिन्ति तिण्णं चीवरानं अञ्जतरं चीवरं । तीणिपि हि चीवरानि सङ्घटितत्ता “सङ्घाटी''ति वुच्चन्ति । महग्धं चीवरं, बहूनि वा चीवरानि लभित्वा तानि विस्सज्जेत्वा तदञस्स गहणम्पि महिच्छतादिनये अट्ठत्वा यथासारुप्पनये एव ठितत्ता न सन्तोसविरोधीति आह "तेसं...पे०... धारेन्तोपि सन्तुट्ठोव होती"ति । यथासारुप्पनयेन यथालद्धं विस्सज्जेत्वा तद गहणम्पि न ताव सन्तोसविरोधी, पगेव अनजगहणेन यथालद्धस्सेव यथासारुप्पं परिभोगेति सम्भावितस्स अत्थस्स दस्सनत्थव्हेत्थ अपि-सद्दग्गहणं, एवं सेसपच्चयेसुपि यथाबलयथासारुप्पनिद्देसेसु अपि-सद्दग्गहणे अधिप्पायो वेदितब्बो।
पकतिविरुद्धन्ति सभावेनेव असप्पायं । समणधम्मकरणसीसेन सप्पायपच्चयपरियेसनं, परिभुञ्जनञ्च विसेसतो युत्ततरन्ति अत्थन्तरं विज्ञापेतुं “यापेन्तोपी''ति अवत्वा "समणधम्मं करोन्तोपी"ति वुत्तं । मिस्सकाहारन्ति तण्डुलमुग्गादीहि नानाविधपुब्बण्णापरण्णेहि मिस्सेत्वा कतं आहारं । .
अझम्पि सेनासने यथासारुप्पसन्तोसं दस्सेन्तो आह “यो ही"तिआदि । पठमे हि नये यथालद्धस्स विस्सज्जनेन, दुतिये पन यथापत्तस्स असम्पटिच्छनेन यथासारुप्पसन्तोसो वुत्तोति अयमेतेसं विसेसो । हि-सद्दो चेत्थ पक्खन्तरजोतको । मज्झिमागमट्ठकथायं पन पि-सदो दिस्सति । "उत्तमसेनासनं नाम पमादट्ठान"न्ति वत्वा तब्भावमेव दस्सेतुं “तत्थ निसिनस्सा"तिआदि वुत्तं । निद्दाभिभूतस्साति थिनमिद्दोक्कमनेन चित्तचेतसिकगेलअभावतो भवङ्गसन्ततिसङ्खाताय निद्दाय अभिभूतस्स, निद्दायन्तस्साति अत्थो । पटिबुज्झतोति तथारूपेन
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(२.२.२१५-२१५)
सन्तोसकथावण्णना
आरम्मणन्तरेन पटिबुज्झन्तस्स पटिबुज्झनहेतु कामवितक्का पातुभवन्तीति वुत्तं होति । "पटिबुज्झनतो"तिपि हि कत्थचि पाठो दिस्सति । अयम्पीति पठमनयं उपादाय वुत्तं ।
तेसं आभतेनाति तेहि थेरादीहि आभतेन, तेसं वा येन केनचि सन्तकेनाति अज्झाहरित्वा सम्बन्धो । मुत्तहरीतकन्ति गोमुत्तपरिभावितं, पूतिभावेन वा मोचितं छड्डितं हरीतकं, इदानि पन पोत्थकेसु “गोमुत्तहरीतक"न्ति पाठो, सो न पोराणपाठो तब्बण्णनाय (दी० नि० टी० १.२१५) विरुद्धत्ता। चतुमधुरन्ति मज्झिमागमवरे महाधम्मसमादानसुत्ते (म० नि० १.४८४ आदयो) वुत्तं दधिमधुसप्पिफाणितसङ्घातं चतुमधुरं, एकस्मिञ्च भाजने चतुमधुरं ठपेत्वा तेसु यदिच्छसि, तं गण्हाहि भन्तेति अत्थो । "सचस्सा"तिआदिना तदुभयस्स रोगवूपसमनभावं दस्सेति । बुद्धादीहि वण्णितन्ति "पूतिमुत्तभेसज्जं निस्साय पब्बज्जा''तिआदिना (महाव० ७३, १२८) सम्मासम्बुद्धादीहि पसत्थं । अप्पिच्छताविसिट्ठाय सन्तुट्ठिया नियोजनतो परमेन उक्कंसगतेन सन्तोसेन सन्तुस्सतीति परमसन्तुट्ठो।
कामञ्च सन्तोसप्पभेदा यथावुत्ततोपि अधिकतरा चीवरे वीसति सन्तोसा, पिण्डपाते पन्नरस, सेनासने च पन्नरस, गिलानपच्चये वीसतीति, इध पन सङ्केपेन द्वादसविधोयेव सन्तोसो वुत्तो। तदधिकतरप्पभेदो पन चतुरङ्गुत्तरे महाअरियवंससुत्तट्ठकथाय (अ० नि० अट्ठ० २.४.२८) गहेतब्बो । तेनाह "इमिना पना"तिआदि | एवं “इध महाराज भिक्खु सन्तुट्ठो होती''ति एत्थ पुग्गलाधिट्ठाननिद्दिढेन सन्तुट्ठपदेनेव सन्तोसप्पभेदं दस्सेत्वा इदानि "कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेना"तिआदि देसनानुरूपं तेन सन्तोसेन सन्तुट्ठस्स अनुच्छविकं पच्चयप्पभेदं, तस्स च कायकुच्छिपरिहारियभावं विभावेन्तो एवमाहाति अयमेत्थ सम्बन्धो। कामञ्चस्स चीवरपिण्डपातेहेव यथाक्कम कायकुच्छिपरिहारियेहि सन्तुट्ठता पाळियं वुत्ता, तथापि सेसपरिक्खारचतुक्केन च विना विचरणमयुत्तं, सब्बत्थ च कायकुच्छिपरिहारियता लद्धब्बाति अट्ठकथायं अयं विनिच्छयो वुत्तोति दट्ठब्बं । दन्तकट्ठच्छेदनवासीति लक्खणमत्तं तदाकिच्चस्सापि ताय साधेतब्बत्ता, तेन वक्खति “मञ्चपीठानं अङ्गपादचीवरकुटिदण्डकसज्जनकाले चा''तिआदि । वुत्तम्पि चेतं पोराणट्ठकथासु “न हेतं कत्थचिपि पाळियमागत''न्ति ।
बन्धनन्ति कायबन्धनं । परिस्सावनेन परिस्सावनञ्च, तेन सहाति वा अत्थो । युत्तो कम्मट्ठानभावनासङ्घातो योगो यस्स, तस्मिं वा योगो युत्तोति युत्तयोगो, तस्स ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
कायं परिहरन्ति पोसेन्ति, कायस्स वा परिहारो पोसनमत्तं पयोजनमेतेहीति कायपरिहारिया क-कारस्स य-कारं कत्वा । पोसनञ्चेत्थ वड्डनं, भरणं वा, तथा कुच्छिपरिहारियापि वेदितब्बा । बहिद्धाव कायस्स उपकारकभावेन कायपरिहारियता, अज्झोहरणवसेन सरीरट्ठितिया उपकारकभावेन कुच्छिपरिहारियताति अयमेतेसं विसेसो । तेनाह " तिचीवरं तावा "तिआदि । " परिहरती " ति एतस्स पोसेतीति अत्थवचनं । इतीति निदस्सने निपातो, एवं वृत्तनयेन कायपरिहारियं होतीति कारणजोतने वा, तस्मा पोसनतो कायपरिहारियं होतीति । एवमुपरिपि । चीवरकण्णेनाति चीवरपरियन्तेन ।
कुटिपरिभण्डकरणकालेति कुटिया समन्ततो विलिम्पनेन सम्मट्ठकरणकाले ।
अङ्गं नाम मञ्चपीठानं पादूपरि ठपितो पधानसम्भारविसेसो । यत्थ पदरसञ्चिननपिट्टिअपस्सयनादीनि करोन्ति, यो " अटनी " तिपि वुच्चति ।
मधुद्दुमपुप्फं मधुकं नाम, मक्खिकामधूहि कतपूर्व वा । परिक्खारमत्ता परिक्खारपमाणं । सेय्यं पविसन्तस्साति पच्चत्थरणकुञ्चिकानं तादिसे काले परिभुत्तभावं सन्धाय वृत्तं । तेनाह " तत्रट्ठकं पच्चत्थरण "न्ति । अत्तनो सन्तकभावेन पच्चत्थरणाधिट्ठानेन अधिट्ठहित्वा तत्थेव सेनासने तिट्ठनकहि " तत्रट्ठक "न्ति वुच्चति । विकप्पनवचनतो पन तेसमञ्ञतरस्स नवमता, यथावुत्तपरिपाटिया चेत्थ नवमभावो, न तु सं तथापतिनियतभावेन | कस्माति चे ? तथायेव तेसमधारणतो । एस नयो दसमादीसुपि । तेलं पटिसामेत्वा हरिता वेळुनाळिआदिका तेलनाळि । ननु सन्तुट्ठपुग्गलदस्सने सन्तुट्ठोव अट्ठपरिक्खारिको दस्सेतब्बोति अनुयोगे यथारहं तेसम्पि सन्तुट्टभावं दस्सेन्तो “ एतेसु चा' 'तिआदिमाह । महन्तो परिक्खारसङ्घातो भारो एतेसन्ति महाभारा, अयं अधुना पाठो, आचरियधम्मपालत्थेरेन पन " महागजा "ति पाठस्स दिट्ठत्ता “दुप्पोसभावेन महागजा वियाति महागजाति (दी० नि० टी० १.२१५) वुत्तं न ते एत्तकेहि परिक्खारेहि "महिच्छा, असन्तुट्ठा, दुब्भरा, बाहुल्लवुत्तिनो 'ति च वत्तब्बाति अधिप्पायो । यदि इतरेपि सन्तुट्ठा अप्पिच्छतादिसभावा, किमेतेसम्पि वसेन अयं देसना इच्छिताति चोदनं सोधेतुं “भगवा पना "तिआदि वृत्तं । अट्ठपरिक्खारिकस्स वसेन इमिस्सा देसनाय इच्छितभावो कथं विञ्ञायतीति अनुयोगम्पि अपनेति “सो ही "तिआदिना, तस्सेव तथा पक्कन्तभावेन " कायपरिहारिकेन चीवरेना "तिआदि पाळिया योग्यतो तस्स वसेन इच्छितभावो विञ्ञायतीति वृत्तं होति । वचनीयस्स हेतुभावदस्सनेन हि वाचकस्सापि हेतुभावो
( २.२.२१५ - २१५)
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सन्तोसकथावण्णना
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दस्सितोति । एवञ्च कत्वा "इति इमस्सा"तिआदि लद्धगुणवचनम्पि उपपन्नं होति | सल्लहुका वुत्ति जीविका यस्साति सल्लहुकवुत्ति, तस्स भावो सल्लहुकवुत्तिता, तं । कायपारिहारियेनाति भावप्पधाननिद्देसो, भावलोपनिद्देसो वाति दस्सेति "कायं परिहरणमत्तकेना"ति इमिना, कायपोसनप्पमाणेनाति अत्थो। तथा कुच्छिपरिहारियेनाति एत्थापि । वुत्तनयेन चेत्थ द्विधा वचनत्थो, टीकायं (दी० नि० टी० १.२१५) पन पठमस्स वचनत्थस्स हेट्ठा वुत्तत्ता दुतियोव इध वुत्तोति दट्ठब्बं । ममायनतण्हाय आसङ्गो । परिग्गहतण्हाय बन्धो। जियामुत्तोति धनुजियाय मुत्तो। यूथाति हत्थिगणतो । तिधा पभिन्नमदो मदहत्थी। वनपब्भारन्ति वने पब्भारं।
चतूसु दिसासु सुखविहारिताय सुखविहारट्ठानभूता, “एकं दिसं फरित्वा''तिआदिना (दी० नि० ३.३०८; म० नि० १.७७, ४५९, ५०९; २.३०९) वा नयेन ब्रह्मविहारभावनाफरणट्ठानभूता चतस्सो दिसा एतस्साति चतुद्दिसो, सो एव चातुहिसो, चतस्सो वा दिसा चतुद्दिसं, वुत्तनयेन तमस्साति चातुहिसो यथा “सद्धोति । तास्वेव दिसासु कत्थचिपि सत्ते वा सङ्खारे वा भयेन न पटिहनति, सयं वा तेहि न पटिहजतेति अप्पटियो। सन्तुस्समानोति सकेन, सन्तेन वा, सममेव वा तुस्सनको । इतरीतरेनाति येन केनचि पच्चयेन, उच्चावचेन वा। परिच्च सयन्ति पवत्तन्ति कायचित्तानि, तानि वा परिसयन्ति अभिभवन्तीति परिस्सया, सीहब्यग्घादयो बाहिरा, कामच्छन्दादयो च अज्झत्तिका कायचित्तुपद्दवा, उपयोगत्थे चेतं सामिवचनं । सहिताति अधिवासनखन्तिया, वीरियादिधम्मेहि च यथारहं खन्ता, गहन्ता चाति अत्थो । थद्धभावकरभयाभावेन अछम्भी। एको चरेति असहायो एकाकी हुत्वा चरितुं विहरितुं सक्कुणेय्य । समत्थने हि एय्य-सद्दो यथा “को इमं विजटये जट'"न्ति (सं० नि० १.१.२३) खग्गविसाणकप्पताय एकविहारीति दस्सेति "खग्गविसाणकप्पो'ति इमिना । सण्ठानेन खग्गसदिसं एकमेव मत्थके उद्वितं विसाणं यस्साति खग्गो; खग्गसद्देन तंसदिसविसाणस्स गहितत्ता, महिंसप्पमाणो मिगविसेसो, यो लोके “पलासादो, गण्ठको''ति च वुच्चति, तस्स विसाणेन एकीभावेन सदिसोति अत्थो। अपिच एकविहारिताय खग्गविसाणकप्पोति दस्सेतुम्पि एवं वुत्तं । वित्थारो पनस्सा अत्थो खग्गविसाणसुत्तवण्णनायं, (सु० नि० अट्ठ० १.४२) चूळनिद्देसे (चूळनि० १२८) च वुत्तनयेन वेदितब्बो।
एवं वण्णितन्ति खग्गविसाणसुत्ते भगवता तथा देसनाय विवरितं, थोमितं वा ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२१६-२१६)
खग्गस्स नाम मिगस्स विसाणेन कप्पो सदिसो तथा । कप्प-सद्दो हेत्थ “सत्थुकप्पेन वत भो किर सावकेन सद्धिं मन्तयमाना"तिआदीसु (म० नि० १.२६०) विय पटिभागे वत्तति, तस्स भावो खग्गविसाणकप्पता, तं सो आपज्जतीति सम्बन्धो ।
वाताभिघातादीहि सिया सकुणो छिन्नपक्खो, असञ्जातपक्खो वा, इध पन डेतुं समत्थो सपक्खिकोव अधिप्पेतोति विसेसदस्सनत्थं पाळियं “पक्खी सकुणो"ति वुत्तं, न तु “आकासे अन्तलिक्खे चङ्कमती''तिआदीसु (पटि० म० ३.११) विय परियायमत्तदस्सनत्थन्ति आह “पक्खयुत्तो सकुणो"ति । उप्पततीति उद्धं पतति गच्छति, पक्खन्दतीति अत्थो। विधुनन्ताति विभिन्दन्ता, विचालेन्ता वा। अज्जतनायाति अज्जभावत्थाय । तथा स्वातनायाति एत्थापि । अत्तनो पत्तं एव भारो यस्साति सपत्तभारो। ममायनतण्हाभावेन निस्सङ्गो। परिग्गहतण्हाभावेन निरपेक्खो। येन कामन्ति यत्थ अत्तनो रुचि, तत्थ | भावनपुंसकं वा एतं । येन यथा पवत्तो कामोति हि येनकामो, तं, यथाकामन्ति अत्थो।
नीवरणप्पहानकथावण्णना २१६. पुब्बे वुत्तस्सेव अत्थचतुक्कस्स पुन सम्पिण्डेत्वा कथनं किमत्थन्ति अधिप्पायेन अनुयोगं उद्धरित्वा सोधेति "सो...पे०... किं दस्सेती"तिआदिना । पच्चयसम्पत्तिन्ति सम्भारपारिपूरिं । इमे चत्तारोति सीलसंवरो इन्द्रियसंवरो सम्पजनं सन्तोसोति पुब्बे वुत्ता चत्तारो आरञिकस्स सम्भारा । न इज्झतीति न सम्पज्जति न सफलो भवति । न केवलं अनिज्झनमत्तं, अथ खो अयम्पि दोसोति दस्सेति "तिरच्छानगतेहि वा"तिआदिना । वत्तब्बतं आपज्जतीति “असुकस्स भिक्खुनो अरओ तिरच्छानगतानं विय, वनचरकानं विय च निवासनमत्तमेव, न पन अरञ्जवासानुच्छविका काचि सम्मापटिपत्ति अत्थी'ति अपवादवसेन वचनीयभावमापज्जति, इमस्सत्थस्स पन दस्सनेन विरुज्झनतो सद्धिं-सद्दो न पोराणोति दट्ठब्बं । अथ वा आरञकेहि तिरच्छानगतेहि, वनचरविसभागजनेहि वा सद्धिं विप्पटिपत्तिवसेन वसनीयभावं आपज्जति । "न भिक्खवे पणिधाय अरओ वत्थब्ब, यो वसेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा'तिआदीसु (पारा० २२३) विय हि वत्थब्ब-सद्दो वसितब्बपरियायो। तथा हि विभङ्गट्ठकथायम्पि वुत्तं “एवरूपस्स हि अरञ्जवासो काळमक्कटअच्छतरच्छदीपिमिगानं अटविवाससदिसो होती"ति (विभं० अट्ठ० ५२६) अधिवत्थाति अधिवसन्ता । पठनं भेरवसई सावेन्ति । तावता अपलायन्तस्स हत्थेहिपि सीसं
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नीवरणप्पहानकथावण्णना
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पहरित्वा पलापनाकारं करोन्तीति आचरियसारिपुत्तत्थेरेन कथितं । एवं ब्यतिरेकतो पच्चयसम्पत्तिया दस्सितभावं पकासेत्वा इदानि अन्वयतोपि पकासेतुं “यस्स पनेते"तिआदि वुत्तं । कथं इज्झतीति आह "सो ही"तिआदि । काळको तिलकोति वण्णविकारापनरोगवसेन अञत्थ परियायवचनं । वुत्तन्हि -
"दुन्नामकञ्च अरिसं, छद्दिको वमथूरितो। दवथु परितापोथ, तिलको तिलकाळको''ति ।।
तिलसण्ठानं विय जायतीति हि तिलको, काळो हुत्वा जायतीति काळको। इध पन पण्णत्तिवीतिक्कमसङ्खातं थुल्लवज्जं काळकसदिसत्ता काळकं, मिच्छावीतिक्कमसङ्घातं अणुमत्तवज्जं तिलकसदिसत्ता तिलकन्ति अयं विसेसो । तन्ति तथा उप्पादितं पीति । विगतभावेन उपट्ठानतो खयवयवसेन सम्मसनं । खीयनटेन हि खयोव विगतो, विपरीतो वा हुत्वा अयनटेन वयोतिपि बुच्चति । अरियभूमि नाम लोकुत्तरभूमि । इतीति अरियभूमिओक्कमनतो, देवतानं वण्णभणनतो वा, तत्थ तत्थ देवतानं वचनं सुत्वा तस्स यसो पत्थटोति वुत्तं होति, एवञ्च कत्वा हेट्टा वुत्तं अयसपत्थरणम्पि देवतानमारोचनवसेनाति गहेतब्बं ।
विवित्त-सद्दो जनविवेकेति आह "सुज्ञ"न्ति । तं पन जनसद्दनिग्घोसाभावेन वेदितब्बं सद्दकण्टकत्ता झानस्साति दस्सेतुं "अप्पसदं अप्पनिग्योसन्ति अत्थो"ति वुत्तं । जनकग्गहणेनेव हि इध जनं गहितं । तथा हि वुत्तं विभने “यदेव तं अप्पनिग्घोसं, तदेव तं विजनवात"न्ति (विभं० ५३३)। अप्पसदन्ति च पकतिसद्दाभावमाह । अप्पनिग्योसन्ति नगरनिग्घोसादिसद्दाभावं । ईदिसेसु हि ब्यञ्जनं सावसेसं विय, अत्थो पन निरवसेसोति अट्ठकथासु वुत्तं । मज्झिमागमट्ठकथावण्णनायं (म० नि० अट्ठ० ३.३६४) पन आचरियधम्मपालत्थेरो एवमाह “अप्पसद्दस्स परित्तपरियायं मनसि कत्वा वुत्तं 'ब्यञ्जनं सावसेसं सिया'ति । तेनाह 'न हि तस्सा'तिआदि । अप्पसद्दो पनेत्थ अभावत्थोतिपि सक्का विज्ञातुं 'अप्पाबाधतञ्च सञ्जानामी'तिआदीसु (म० नि० १.२२५) विया'ति । तमत्थं विभङ्गपाळिया (विभं० ५२८) संसन्दन्तो "एतदेवा"तिआदिमाह । एतदेवाति च मया संवण्णियमानं निस्सद्दतं एवाति अत्थो । सन्तिकेपीति गामादीनं समीपेपि एदिसं विवित्तं नाम, पगेव दूरेति अत्थो । अनाकिण्णन्ति असङ्किण्णं असम्बाधं । यस्स सेनासनस्स समन्ता गावुतम्पि अड्डयोजनम्पि पब्बतगहनं वनगहनं नदीगहनं होति, न कोचि अवेलाय
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उपसमितुं सक्कोति, इदं सन्तिकेपि अनाकिण्णं नाम । सेतीति सयति । आसतीति निसीदति | "एत्था"ति इमिना सेन-सद्दस्स, आसन-सदस्स च अधिकरणत्थभावं दस्सेति, च-सद्देन च तदुभयपदस्स चत्थसमासभावं । "तेनाहा"तिआदिना विभङ्गपाळिमेव आहरति ।
इदानि तस्सायेवत्थं सेनासनप्पभेददस्सनवसेन विभावेतुं "अपिचा"तिआदि वृत्तं । विभङ्गपाळियं निदस्सननयेन सरूपतो दस्सितसेनासनस्सेव हि अयं विभागो। तत्थ विहारो पाकारपरिच्छिन्नो सकलो आवासो। अड्डयोगो दीघपासादो, “गरुळसण्ठानपासादो"तिपि वदन्ति । पासादो चतुरस्सपासादो। हम्मियं मुण्डच्छदनपासादो। अट्टो पटिराजूनं पटिबाहनयोग्गो चतुपञ्चभूमको पतिस्सयविसेसो । माळो एककूटसङ्गहितो अनेककोणवन्तो पतिस्सयविसेसो। अपरो नयो - विहारो दीघमुखपासादो । अड्डयोगो एकपस्सछदनकगेहं । तस्स किर एकपस्से भित्ति उच्चतरा होति, इतरपस्से नीचा, तेन तं एकछदनकं होति । पासादो आयतचतुरस्सपासादो । हम्मियं मुण्डच्छदनकं चन्दिकङ्गणयुत्तं । गुहा केवला पब्बतगुहा । लेणं द्वारबन्धं पब्भारं । सेसं वुत्तनयमेव । “मण्डपोति साखामण्डपोति (दी० नि० टी० १.२१६) एवं आचरियधम्मपालत्थेरेन, अङ्गुत्तरटीकाकारेन च आचरियसारिपुत्तत्थेरेन वुत्तं ।
___ विभङ्गट्ठकथायं (विभं० अट्ठ० ५२७) पन विहारोति समन्ता परिहारपथं, अन्तोयेव च रत्तिहानदिवाट्ठानानि दस्सेत्वा कतसेनासनं । अड्डयोगोति सुपण्णवङ्कगेहं । पासादोति द्वे कण्णिकानि गहेत्वा कतो दीघपासादो। अट्टोति पटिराजादिपटिबाहनत्थं इट्टकाहि कतो बहलभित्तिको चतुपञ्चभूमको पतिस्सयविसेसो। माळोति भोजनसालासदिसो मण्डलमाळो । विनयट्ठकथायं पन “एककूटसङ्गहितो चतुरस्सपासादो"ति (पारा० अट्ठ० २.४८२-४८७) वुत्तं । लेणन्ति पब्बतं खणित्वा वा पब्भारस्स अप्पहोनकट्ठाने कुटुं उट्ठापेत्वा वा कतसेनासनं । गुहाति भूमिदरि वा यत्थ रत्तिन्दिवं दीपं लड़े वट्टति, पब्बतगुहा वा भूमिगुहा वाति वुत्तं ।
तं आवसथभूतं पतिस्सयसेनासनं विहरितब्बटेन, विहारट्ठानद्वेन च विहारसेनासनं नाम । मसारकादिचतुब्बिधो मञ्चो। तथा पीठं । उण्णभिसिआदिपञ्चविधा भिसि। सीसप्पमाणं बिम्बोहनं। वित्थारतो विदत्थिचतुरङ्गुलता, दीघतो मञ्चवित्थारप्पमाणता चेत्थ सीसप्पमाणं । मसारकादीनि मञ्चपीठभावतो, भिसिउपधानञ्च मञ्चपीठसम्बन्धतो मञ्चपीठसेनासनं । मञ्चपीठभूतहि सेनासनं, मञ्चपीठसम्बन्धञ्च सामञनिद्देसेन, एकसेसेन वा
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नीवरणप्पहानकथावण्णना
(२.२.२१६-२१६)
वुच्चति ।
एवमेव
वदति ।
आचरियसारिपुत्तत्थेरोपि " मञ्चपीठसेनासनन्ति
पन
" मञ्चपीठसेनासन "न्ति आचरियधम्मपालत्थेरेन मञ्चपीठञ्चेव मञ्चपीठसम्बन्धसेनासनञ्चा" ति ( दी० नि० टी० १.२१६) वृत्तं । चिमिलिका नाम सुधापरिकम्मकताय भूमिया वण्णानुरक्खणत्थं पटखण्डादीहि सिब्बेत्वा कता । चम्मखण्डो नाम सीहब्यग्घदीपितरच्छचम्मादीसुपि यं किञ्चि चम्मं । अट्ठकथासु (पाचि० अट्ठ० ११२; वि० सङ्ग० अट्ठ० ८२ ) हि सेनासनपरिभोगे पटिक्खित्तचम्मं न दिस्सति । तिणसन्थारोति येसं केसञ्चि तिणानं सन्थारो । एसेव नयो पण्णसन्थारेपि । चिमिलिकादि भूमियं सन्थरितब्बताय सन्तसेनासनं । यत्थ वा पन भिक्खू पटिक्कमन्तीति ठपेत्वा वा एतानि मञ्चादीनि यत्थ भिक्खू सन्निपतन्ति सब्बमेतं सेनासनं नामाति एवं वृत्तं अवसेसं रुक्खमूलादिपटिक्कमितब्बट्ठानं अभिसङ्घरणाभावतो केवलं सयनस्स, निस्सज्जाय च ओकासभूतत्ता ओकाससेनासनं । सेनासनग्गहणेनाति “विवित्तं सेनासन "न्ति इमिना सेनासनसद्देन विवित्तसेनासनस्स वा आदानेन वचनेन वा गहितमेव सामञ्ञजोतनाय विसेसे अवट्ठानतो, विसेसत्थिना च विसेसस्स पयुज्जितब्बतो ।
" इध
यदेवं कस्मा " अरञ्ञ"न्तिआदि पुन वुत्तन्त अनुयोगेन पनस्सा'' तिआदिमाह । एवं गहितेसुपि सेनासनेसु यथावुत्तस्स भिक्खुनो अनुच्छविकमेव सेनासनं दस्सेतुकामत्ता पुन एवं वुत्तन्ति अधिप्पायो । “भिक्खुनीनं वसेन आगत "न्ति इदं विनये आगतमेव सन्धाय वुत्तं, न अभिधम्मे । विनये हि गणम्हा ओहीयनसिक्खापदे (पाचि० ६९१) भिक्खुनीनं आरञ्ञकधुतङ्गस्स पटिक्खित्तत्ता इदम्पि च तासं अरञ्जं नाम, न पन पञ्चधनुसतिकं पच्छिमं अरञ्ञमेव सेनासनं इदम्पि च तासं गणम्हाओहीयनापत्तिकरं, न तु पञ्चधनुसतिकादिमेव अरञ् । वुत्तहि तत्थ -
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"एका वा गणम्हा ओहीयेय्याति अगामके अरजे दुतियिकाय भिक्खुनिया दस्सनूपचारं वा सवनूपचारं वा विजहन्तिया आपत्ति थुल्लच्चयस्स विजहिते आपत्ति सङ्घादिसेसस्सा ”ति ।
विनयट्ठकथासुपि (पाचि० अट्ठ० ६९२ ) हि तथाव अत्थो वृत्तोति । अभिधम्मे पन " अरञ्ञन्ति निक्खमित्वा बहि इन्दखीला सब्बमेतं अरञ्ञ "न्ति (विभं० ५२९) आगतं । विनयसुत्तन्ता हि उभोपि परियायदेसना नाम, अभिधम्मो पन निप्परियायदेसना, तस्मा यं न गामपदेसन्तोगधं तं अरञ्ञन्ति निप्परियायेन दस्सेतुं तथा वृत्तं । इन्दखीला बहि
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निक्खमित्वा यं ठानं पवत्तं, सब्बमेतं अरनं नामाति चेत्थ अत्थो। आरञ्जकं नाम...पे०... पच्छिमन्ति इदं पन सुत्तन्तनयेन आरञकसिक्खापदे (पारा० ६५२) आरञिकं भिक्खु सन्धाय वुत्तं इमस्स भिक्खुनो अनुरूपं, तस्मा विसुद्धिमग्गे धुतङ्गनिदेसे (विसुद्धि० १.१९) यं तस्स लक्खणं वुत्तं, तं युत्तमेव, अतो तत्थ वुत्तनयेन गहेतब्बन्ति अधिप्पायो।
सन्दच्छायन्ति सीतच्छायं । तेनाह "तत्थ ही"तिआदि । रुक्खमूलन्ति रुक्खसमीपं । वुत्तञ्हेतं “यावता मज्झन्हिके काले समन्ता छाया फरति, निवाते पण्णानि निपतन्ति, एत्तावता रुक्खमूलन्ति । पब्बतन्ति सुद्धपासाणसुद्धपंसुउभयमिस्सकवसेन तिविधोपि पब्बतो अधिप्पेतो, न सिलामयो एव । सेल-सद्दो पन अविसेसतो पब्बतपरियायोति कत्वा एवं वुत्तं । "तत्थ ही"तिआदिना तदुभयस्स अनुरूपतं दस्सेति । दिसासु खायमानासूति दससु दिसासु अभिमुखीभावेन दिस्समानासु । तथारूपेनपि कारणेन सिया चित्तस्स एकग्गताति एतं वुत्तं, सब्बदिसाहि आगतेन वातेन बीजियमानभावहेतुदस्सनत्थन्ति केचि । कं बुच्चति उदकं पिपासविनोदनस्स कारकत्ता। “यं नदीतुम्बन्तिपि नदीकुञ्जन्तिपि वदन्ति, तं कन्दरन्ति अपब्बतपदेसेपि विदुग्गनदीनिवत्तनपदेसं कन्दरन्ति दस्सेती"ति (विभं० मूल टी० ५३०) आचरियानन्दत्थेरो, तेनेव विज्ञायति “नदीतुम्बनदीकुञ्जसद्दा नदीनिवत्तनपदेसवाचका''ति । नदीनिवत्तनपदेसो च नाम नदिया निक्खमनउदकेन पुन निवत्तित्वा गतो विदुग्गपदेसो। “अपब्बतपदेसेपी"ति वदन्तो पन अट्ठकथायं निदस्सनमत्तेन पठमं पब्बतपदेसन्ति वुत्तं, यथावुत्तो पन नदीपदेसोपि कन्दरो एवाति दस्सेति ।
__ "तत्थ ही"तिआदिनापि निदस्सनमत्तेनेव तस्सानुरूपभावमाह । उस्सापेत्वाति पुजं कत्वा । "द्विन्नं पब्बतानम्पि आसन्नतरे ठितानं ओवरकादिसदिसं विवरं होति, एकस्मिंयेव पन पब्बते उमङ्गसदिस''न्ति वदन्ति आचरिया । एकस्मिंयेव हि उमङ्गसदिसं अन्तोलेणं होति उपरि पटिच्छन्नत्ता, न द्वीसु तथा अप्पटिच्छन्नत्ता, तस्मा “उमङ्गसदिस''न्ति इदं "एकस्मिं येवा''ति इमिना सम्बन्धनीयं । "महाविवर"न्ति इदं पन उभयेहिपि । उमङ्गसदिसन्ति च "सुदुङ्गासदिस"न्ति (दी० नि० टी० १.२१६) आचरियेन वुत्तं । सुदुङ्गाति हि भूमिघरस्सेतं अधिवचनं, “तं गहेत्वा सुदुङ्गाय रवन्तं यक्खिनी खिपी''तिआदीसु विय। मनुस्सानं अनुपचारद्वानन्ति पकतिसञ्चारवसेन मनुस्सेहि न सञ्चरितब्बट्टानं । कस्सनवप्पनादिवसेन हि पकतिसञ्चारपटिक्खेपो इधाधिप्पेतो। तेनाह
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नीवरणप्पहानकथावण्णना
" यत्थ न कसन्ति न वपन्ती'ति । आदिसद्देन पन " वनपत्थन्ति वनसण्ठानमेतं सेनासनानं अधिवचनं, वनपत्थन्ति भीसनकानमेतं, वनपत्थन्ति सलोमहंसानमेतं वनपत्थन्ति परियन्तानमेतं, वनपत्थन्ति न मनुस्सूपचारानमेतं सेनासनानं अधिवचन "न्ति (विभं० ५३१) इमं विभङ्गपाळिसेसं सङ्गण्हाति । पत्थोति हि पब्बतस्स समानभूमि, यो " सानू'' तिपि वुच्चति, तस्सदिसत्ता पन मनुस्सानमसञ्चरणभूतं वनं, तस्मा पत्थसदिसं वनं बनपत्थोति विसेसनपरनिपातो दट्ठब्बो । सब्बेसं सब्बासु दिसासु अभिमुखो ओकासो अब्भोकासोति आह "अच्छन्न "न्ति, केनचि छदनेन अन्तमसो रुक्खसाखायपि न छादितन्ति अत्थो। दण्डकानं उपरि चीवरं छादेत्वा कता चीवरकुटि । निक्कड्डित्वाति नीहारित्वा । अन्तोपब्भारलेणसदिसो पलालरासियेव अधिप्पेतो, इतरथा तिणपण्णसन्थारसङ्गोपि सियाति वृत्तं " पब्भारलेणसदिसे आलये "ति, पब्भारसदिसे, लेणसदिसे वाति अत्थो । गच्छ गुम्बादीनम्पीति पि- सद्देन पुरिमनयं सम्पिण्डेति ।
पिण्डपातस्स परियेसनं पिण्डपातो उत्तरपदलोपेन, ततो पटिक्कन्तो पिण्डपातपटिक्कन्तोति आह " पिण्डपातपरियेसनतो पटिक्कन्तो 'ति । पल्लङ्घन्ति एत्थ परि सद्दो " समन्ततोति एतस्मिं अत्थे, तस्मा परिसमन्ततो अङ्कनं आसनं पल्लङ्को र कारस्स - कारं द्विभावञ्च कत्वा यथा “पलिबुद्धो "ति, (मि० प० ६.३.६ ) समन्तभावो च वामोरुं, दक्खिणोरुञ्च समं ठपेत्वा उभिन्नं पादानं अञ्ञमञ्ञसम्बन्धनकरणं । तेनाह " समन्ततो ऊरुबद्धासन "न्ति । ऊरूनं बन्धनवसेन निसज्जाव इध पल्लङ्को, न आहरिमेहि वाळेहि कतोति वुत्तं होति । आभुजित्वाति च यथा पल्लङ्कवसेन निसज्जा होति, तथा उभो पादे आभुग्गे समिञ्जिते कत्वा, तं पन उभिन्नं पादानं तथाबन्धताकरणमेवाति आह "बन्धित्वा "ति । उजुं कायन्ति एत्थ काय - सद्दो उपरिमकायविसयो हेट्ठिमकायस्स अनुजुकं ठपनस्स निसज्जावचनेनेव विञ्ञापितत्ताति वृत्तं " उपरिमं सरीरं उद्धुं ठपेत्वा "ति । तं पन उपरिमकायस्स उजुकं ठपनं सरूपतो दस्सेति 'अट्ठारसा "तिआदिना, अट्ठारसन्नं पिट्ठिकण्टकट्टिकानं कोटिया कोटिं पटिपादनमेव तथा उपनन्ति अधिप्पायो ।
"C
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इदानि तथा ठपनस्स पयोजनं दस्सेन्तो " एवञ्ही " ति आदिमाह । तत्थ एवन्ति तथा ठपने सति, इमिना वा तथाठपनहेतुना । न पणमन्तीति न ओनमन्ति । “अथस्सा "तिआदि पन परम्परपयोजनदस्सनं । अथाति एवं अनोनमने | वेदनाति पिट्ठिगिलानादिवेदना । न परिपततीति न विगच्छति वीथिं न विलङ्घति । ततो एव पुब्बेनापरं विसेसप्पत्तिया कम्मट्टानं वुद्धि फातिं वेपुल्लं उपगच्छति । परिसद्दो चेत्थ अभिसद्दपरियायो अभिमुखत्थोति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
वुत्तं "कम्मट्ठानाभिमुख "न्ति, बहिद्धा पुथुत्तारम्मणतो निवारेत्वा कम्मट्ठानंयेव पुरक्खत्वाति अत्थो। परिसद्दस्स समीपत्थतं दस्सेति “मुखसमीपे वा कत्वा"ति इमिना, मुखस्स समीपे विय चित्ते निबद्धं उपट्ठापनवसेन कत्वाति वुत्तं होति । परिसद्दस्स समीपत्थतं विभङ्गपाळिया (विभं० ५३७) साधेतुं " तेनेवा "तिआदि वृत्तं । नासिकग्गेति नासपुटग्गे । मुखनिमित्तं नाम उत्तरोट्ठस्स वेमज्झप्पदेसो, यत्थ नासिकवातो पटिहञ्ञति ।
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एत्थ च यथा “विवित्तं सेनासनं भजती "तिआदिना (विभं० ५०८) भावनानुरूपं सेनासनं दस्सितं, एवं " निसीदतीति इमिना अलीनानुद्धच्चपक्खिको सन्तो इरियापथो दस्सितो, “पल्लङ्कं आभुजित्वा "ति इमिना निसज्जाय दळहभावो, “परिमुखं सतिं उपट्टत्वाति इमिना आरम्मणपरिग्गहणूपायोति । परि सद्दो रग 'परिणायिका 'तिआदीसु (ध० स० १६) विय । मुख- सद्दो निय्यानट्ठो "सुञतविमोक्खमुख' "न्तिआदीसु विय । परिपक्खतो निक्खमनमेव हि निय्यानं । असम्मोसनभावो उपट्ठानट्ठो । तत्राति पटिसम्भिदानये । परिग्गहितनिय्यानन्ति सब्बथा गहितासम्मोसताय परिग्गहितं परिच्चत्तसम्मोसपटिपक्खताय च निय्यानं सतिं कत्वा, परमं सतिनेपक्कं उपट्ठपेत्वाति वुत्तं होति । अयं आचरियधम्मपालत्थेरस्स, आचरियसारिपुत्तत्थेरस्स चति । अथ वा “कायादीसु सुट्टुपवत्तिया परिग्गहितं ततो एव च निय्यानभावयुत्तं, कायादिपरिग्गहणञाणसम्पयुत्तताय वा परिग्गहितं ततोयेव च निय्यानभूतं उपट्टानं कत्वाति अत्थो "ति अयं आचरियानन्दत्थेरस्स (विभं० मूल टी० ५३७) मति ।
(२.२.२१७-२१७)
२१७. अभिज्झायति गिज्झति अभिकङ्क्षति एतायाति अभिज्झा, कामच्छन्दनीवरणं । लुच्चनट्ठेनाति भिज्जनट्ठेन, खणे खणे भिज्जनट्ठेनाति अत्थोति आचरियधम्मपालत्थेरेन, (दी० नि० टी० १.२१७) अङ्गुत्तरटीकाकारेन च आचरियसारिपुत्तत्थेरेन वुत्तं । सुत्तेसु च दिस्सति " लुच्चतीति खो भिक्खु लोकोति वुच्चति । किञ्च लुच्चति ? चक्खु खो भिक्खु लुच्चति, रूपा लुच्चन्ति चक्खुविञ्ञाणं लुच्चती "तिआदि । (सं० नि० २.४.८२) अभिधम्मट्ठकथायं, (ध० स० अट्ठ० ७-१३) पन इध च अधुना पोत्थके "लुच्चनपलुच्चनट्ठेना "ति लिखितं । तत्थ लुच्चनमेव पलुच्चनपरियायेन विसेसेत्वा वृत्तं । लुचसद्दो हि अपेक्खनादिअत्थोपि भवति “ओलोकेती”तिआदीसु, भिज्जनपभिज्जननाति अत्थो । वंसत्थपकासिनियं पन वृत्तं ‘“खणभङ्गवसेन लुच्चनसभावतो, चुतिभङ्गवसेन च पलुच्चनसभावतो लोको नामा 'ति (वंसत्थपकासिनियं नाम महावंसटीकायं पठमपरिच्छेदे पञ्चमगाथा वण्णनायं) केचि पन ‘“भिज्जनउप्पज्जनट्ठेना" ति अत्थं वदन्ति । आहच्चभासितवचनत्थेन विरुज्झनतो, लुचसद्दस्स
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(२.२.२१७-२१७)
नीवरणप्पहानकथावण्णना
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च अनुप्पादवाचकत्ता अयुत्तमेवेतं । अपिच आचरियेहिपि “लुच्चनपलुच्चनढेना''ति पाठमेव उल्लिङ्गेत्वा तथा अत्थो वुत्तो सिया, पच्छा पन परम्पराभतवसेन पमादलेखत्ता तत्थ तत्थ न दिट्ठोति दट्ठब्द, न लुच्चति न पलुच्चतीति यो गहितोपि तथा न होति, स्वेव लोको, अनिच्चानुपस्सनाय वा लुच्चति भिज्जति विनस्सतीति गहेतब्बोव लोकोति तंगहणरहितानं लोकुत्तरानं नत्थि लोकता, दुक्खसच्चं वा लोकोति वुत्तं “पञ्चुपादानक्खन्धा लोको"ति । एवं तत्थ तत्थ वचनतोपि यथावुत्तो केसञ्चि अत्थो न युत्तोति ।
तस्माति पञ्चुपादानक्खन्धानमेव लोकभावतो। विक्खम्भनवसेनाति एत्थ विक्खम्भनं तदङ्गप्पहानवसेनेव अनुप्पादनं अप्पवत्तनं, न पन विक्खम्भनप्पहानवसेन पटिपक्खानं सुट्ठपहीनं । “पहीनत्ता''ति हि तथापहीनसदिसतं एव सन्धाय वुत्तं । कस्माति चे ? झानस्स अनधिगतत्ता । एवं पन पुब्बभागभावनाय तथा पहानतोयेवेतं चित्तं विगताभिज्झं नाम, न तु चक्खुविञआणमिव सभावतो अभिज्झाविरहितत्ताति दस्सेतुं "न चक्खुविज्ञाणसदिसेना"ति वुत्तं । यथा तन्ति एत्थ तन्ति निपातमत्तं, तं चित्तं वा । अधुना मुञ्चनस्स, अनागते च पुन अनादानस्स करणं परिसोधनं नामाति वुत्तं होति । यथा च इमस्स चित्तस्स पुब्बभागभावनाय परिसोधितत्ता विगताभिज्झता, एवं अब्यापन्नता, विगतथिनमिद्धता, अनुद्धतता, निबिचिकिच्छता च वेदितब्बाति निदस्सेन्तो “ब्यापादपदोसं पहायातिआदीसुपि एसेव नयो"ति आह । पूतिकुम्मासादयोति आभिदोसिकयवकुम्मासादयो । पुरिमपकतिन्ति परिसुद्धपण्डरसभावं, इमिना विकारमापज्जतीति अत्थं दस्सेति । विकारापत्तियाति पुरिमपकतिविजहनसङ्खातेन विकारमापज्जनेन । “उभय"न्तिआदिना तुल्यत्थसमासभावमाह । “या तस्मिं समये चित्तस्स अकल्लता''तिआदिना (ध० स० ११६२; विभं० ५४६) थिनस्स, “या तस्मिं समये कायस्स अकल्लता''तिआदिना च मिद्धस्स अभिधम्मे निद्दिद्वत्ता "थिनं चित्तगेलझं, मिद्धं चेतसिकगेलञ्ज"न्ति वुत्तं । सतिपि हि थिनमिद्धस्स अञ्जमलं अविप्पयोगे चित्तकायलहुतादीनं विय चित्तचेतसिकानं यथाक्कम तंतंविसेसस्स या तेसं अकल्लतादीनं विसेसपच्चयता, अयमेतेसं सभावोति दट्ठब्बं । ट्ठिालोको नाम पस्सितो रत्तिं चन्दालोकदीपालोकउक्कालोकादि, दिवा च सूरियालोकादि । रत्तिम्पि दिवापि तस्स सञ्जाननसमत्था सञा आलोकसञ्जा, तस्सा च विगतनीवरणाय परिसुद्धाय अत्थिता इध अधिप्पेता । अतिसयत्थविसिट्ठस्स हि अत्थिअत्थस्स अवबोधको अयमीकारोति दस्सेन्तो "रत्तिम्पी"तिआदिमाह, विगतथिनमिद्धभावस्स कारणत्ता चेतं वुत्तं । सुत्तेसु पाकटोवायमत्थो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२१८-२१९)
सरतीति सतो, सम्पजानातीति सम्पजानोति एवं पुग्गलनिद्देसोति दस्सेति “सतिया च आणेन च समन्नागतो"ति इमिना। सन्तेसुपि अझेसु वीरियसमाधिआदीसु कस्मा इदमेव उभयं वुत्तं, विगताभिज्झादीसु वा इदं उभयं अवत्वा कस्मा इधेव वुत्तन्ति अनुयोगमपनेतुं “इदं उभय"न्तिआदि वुत्तं, पुग्गलाधिट्ठानेन निद्दिट्ठसतिसम्पजज्ञसङ्खातं इदं उभयन्ति अत्थो । अतिक्कमित्वा ठितोति त-सद्दस्स अतीतत्थतं आह, पुब्बभागभावनाय पजहनमेव च अतिक्कमनं । "कथं इदं कथं इद"न्ति पवत्ततीति कथंकथा, विचिकिच्छा, सा एतस्स अत्थीति कथंकथी, न कथंकथी अकथंकथी, निब्बिचिकिच्छोति वचनत्थो, अत्थमत्तं पन दस्सेतुं "कथं इदं कथं इदन्ति एवं नष्पवत्ततीति अकथंकथी"ति वुत्तं । "कुसलेसु धम्मेसू''ति इदं “अकथंकथी"ति इमिना सम्बज्झितब्बन्ति आह "न विचिकिच्छति, न कङ्घतीति अत्थो"ति । वचनत्थलक्खणादिभेदतोति एत्थ आदिसद्देन पच्चयपहानपहायकादीनम्पि सङ्गहो दट्ठब्बो । तेपि हि पभेदतो वत्तब्बाति ।
२१८. वड्डिया गहितं धनं इणं नामाति वुत्तं "वडिया धनं गहेत्वा"ति । विगतो अन्तो ब्यन्तो, सो यस्साति व्यन्ती। तेनाह “विगतन्त"न्ति, विरहितदातब्बइणपरियन्तं करेय्याति चेतस्स अत्थो । तेसन्ति वड्डिया गहितानं इणधनानं । परियन्तो नाम तदुत्तरि दातब्बइणसेसो । नत्थि इणमस्साति अणणो। तस्स भावो आणण्यं। तमेव निदानं आणण्यनिदानं, आणण्यहेतु आणण्यकारणाति अत्थो। आणण्यमेव हि निदानं कारणमस्साति वा आणण्यनिदानं, “पामोज्जं सोमनस्स"न्ति इमेहि सम्बन्धो । "इणपलिबोधतो मुत्तोम्ही''ति बलवपामोजं लभति। “जीविकानिमित्तम्पि मे अवसिटुं अत्थी'"ति सोमनस्सं अधिगच्छति।
__२१९. विसभागवेदना नाम दुक्खवेदना। सा हि कुसलविपाकसन्तानस्स विरोधिभावतो सुखवेदनाय विसभागा, तस्सा उप्पत्तिया करणभूताय । ककचेनेवाति ककचेन इव । चतुइरियापथन्ति चतुब्बिधम्पि इरियापथं । ब्याधितो हि यथा ठानगमनेसु असमत्थो, एवं निसज्जादीसुपि। आबाधेतीति पीळेति। वातादीनं विकारभूता विसमावस्थायेव "आबाधो"ति वुच्चति । तेनाह "तंसमुट्ठानेन दुक्खेन दुक्खितो"ति, आबाधसमुट्ठानेन दुक्खवेदनासङ्घातेन दुक्खेन दुखितो दुक्खसमन्नागतोति अत्थो । दुक्खवेदनाय पन आबाधभावेन आदिम्हि बाधतीति आबाधोति कत्वा आबाधसङ्घातेन मूलब्याधिना आबाधिको, अपरापरं सञ्जातदुक्खसङ्घातेन अनुबन्धब्याधिना दुक्खितोति अत्थो गहेतब्बो । एवहि सति दुक्खवेदनावसेन वुत्तस्स दुक्खितपदस्स आबाधिकपदेन विसेसितब्बता पाकटा होतीति
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(२.२.२२०-२२१-२२२)
नीवरणप्पहानकथावण्णना
अयमेत्थ आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.२१९) वुत्तनयो । अधिकं मत्तं पमाणं अधिमत्तं, बाळ्हं, अधिमत्तं गिलानो धातुसङ्खयेन परिक्खीणसरीरोति अधिमत्तगिलानो। अधिमत्तब्याधिपरेततायाति अधिमत्तब्याधिपीळितताय । न रुच्चेय्याति न रुच्चेथ, कम्मत्थपदञ्चेतं “भत्तञ्चस्सा''ति एत्थ "अस्सा''ति कत्तुदस्सनतो। मत्तासद्दो अनत्थकोति वुत्तं "बलमत्ताति बलमेवा"ति, अप्पमत्तकं वा बलं बलमत्ता। तदुभयन्ति पामोज्जं, सोमनस्सञ्च । लभेथ पामोजं “रोगतो मत्तोम्ही''ति । अधिगच्छेय्य सोमनस्सं “अस्थि मे कायबल''न्ति पाळिया अत्थो ।
२२०. काकणिकमत्तं नाम “एकगुञ्जमत्त'न्ति वदन्ति । “दियड्ढवीहिमत्त'न्ति विनयटीकायं वुत्तं । अपिच कण-सद्दो कुण्डके -
"अकणं अथुसं सुद्धं, सुगन्धं तण्डुलप्फलं । तुण्डिकीरे पचित्वान, ततो भुञ्जन्ति भोजन'न्ति ।। (दी० नि० ३.२८१) आदीसु विय।
"कणो तु कुण्डको भवेति (अभिधाने भकण्डे चतुब्बण्णवग्गे ४५४ गाथा) हि वुत्तं । अप्पको पन कणो काकणोति वुच्चति यथा “कालवण''न्ति, तस्मा काकणोव पमाणमस्साति काकणिकं, काकणिकमेव काकणिकमत्तं, खुद्दककुण्डकप्पमाणमेवाति अत्थो दट्टब्बो । एवञ्हि सति “राजदायो नाम काकणिकमत्तं न वट्टति, अड्डमासग्घनिकं मंसं देती"ति (जा० अट्ठ० ६.उमङ्गजातकवण्णनाय) वुत्तेन उमङ्गजातकवचनेन च अविरुद्धं होति । वयोति खयो भङ्गो, तस्स "बन्धना मुत्तोम्ही''ति आवज्जयतो तदुभयं होति । तेन वुत्तं "लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्स"न्ति । वचनावसेसं सन्धाय "सेसं वुत्तनयेनेवा"तिआदि वुत्तं । वुत्तनयेनेवाति च पठमदुतियपदेसु वुत्तनयेनेव । सब्बपदेसूति ततियादीसु तीसु कोट्ठासेसु । एकेको हि उपमापक्खो “पद"न्ति वुत्तो ।
२२१-२२२. अधीनोति आयत्तो, न सेरिभावयुत्तो । तेनाह “अत्तनो रुचिया किञ्चि कातुं न लभती"ति । एवमितरस्मिम्पि । येन गन्तुकामो, तेन कामं गमो न होतीति सपाठसेसयोजनं दस्सेतुं “येना"तिआदि वुत्तं । कामन्ति चेतं भावनपुंसकवचनं, कामेन वा इच्छाय गमो कामंगमो निग्गहीतागमेन | दासब्याति एत्थ ब्य-सद्दस्स भावत्थतं. दस्सेति "दासभावा"ति इमिना । अपराधीनताय अत्तनो भुजो विय सकिच्चे एसितब्बो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
पेसितब्बोति भुजिस्सो, सयंवसीति निब्बचनं । “भुजो नाम अत्तनो यथासुखं विनियोगो, सो इस्सो इच्छितब्बो एत्थाति भुजिस्सो, अस्सामिको "ति मूलपण्णासकटीकायं वृत्तं । अत्थमत्तं पन दस्सेन्तो “ अत्तनो सन्तको " ति आह, अत्ताव अत्तनो सन्तको, न परस्साति वृत्तं होति । अनुदकताय कं पानीयं तारेन्ति एत्थाति कन्तारो, अद्धानसद्दो च दीघपरियायोति वुत्तं “ निरुदकं दीघमग्ग "न्ति |
२२३. सेसानीति ब्यापादादीनि । तत्राति दस्सने । अयन्ति इदानि वुच्चमाना सदिसता, येन इणादीनं उपमाभावो, कामच्छन्दादीनञ्च उपमेय्यभावो होति, सो नेसं उपमोपमेय्यसम्बन्धो सदिसताति दट्टब्बं । तेहीति परेहि इणसामिकेहि । किञ्चि पटिबाहितुन्ति फरुसवचनादिकं किञ्चिपि पटिसेधेतुं न सक्कोति इणं दातुमसक्कुणत्ता । कस्मातित्तं " तितिक्खाकारण "न्तिआदि, इणस्स तितिक्खाकारणत्ताति अत्थो । यो यम्हि कामच्छन्देन रज्जतीति यो पुग्गलो यम्हि कामच्छन्दस्स वत्थुभूते पुग्गले कामच्छन्देन रज्जति । तण्हासहगतेन तं वत्थं गण्हातीति तण्हाभूतेन कामच्छन्देन तं कामच्छन्दस्स वत्थुभूतं पुग्गलं " ममेत "न्ति गण्हाति । सहगतसद्दो हेत्थ तब्भावमत्तो “यायं तण्हा पोनोभविका नन्दीरागसहगता’तिआदीसु (दी० नि० २.४०० म० नि० १.१३३, ४८०; ३.३७३; सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १५; पटि० म० २.३०) विय । तेनाति कामच्छन्दस्स वत्थुभूतेन पुग्गलेन | कस्माति आह " तितिक्खाकारण "न्तिआदि, तितिक्खाकारणत्ताति अत्थो । तितिक्खासदिसो चेत्थ रागपधानो अकुलचित्तुप्पादो “तितिक्खा'ति वुत्तो, न तु " खन्ती परमं तपो तितिक्खा "तिआदीसु (दी० नि० २.९१; ध० प० १८४) विय तपभूतो अदोसपधानो चित्तुप्पादो । घरसामिकेहीति घरस्स सामिकभूतेहि सस्सुससुरसामिकेहि । इत्थीनं कामच्छन्दो तितिक्खाकारणं होति वियति सम्बन्धो ।
कामच्छन्दस्स
(२.२.२२३-२२३)
“यथा पना”तिआदिना सेसानं रोगादिसदिसता वृत्ता । तत्थ पित्तदोसकोपनवसेन पित्तरोगातुरो । तस्स पित्तकोपनतो सब्बम्पि मधुसक्करादिकं अमधुरभावेन सम्पज्जतीति वुत्तं " तित्तकं तित्तकन्ति उग्गिरतियेवा" ति । तुम्हे उपद्दवेथाति टीकायं ( दी० नि० टी० १.२२३) उद्धटपाठो, “उपद्दवं करोथा "ति नामधातुवसेन अत्थो, इदानि पन "तुम्हेहि उपता "ति पाठो दिस्सति । विब्भमतीति इतो चितो च आहिण्डति, हीनाय वा आवत्तति । मधुक्करादीनं रसं न विन्दति नानुभवति न जानाति न लभति च वियाति सम्बन्धो | सासनरसन्ति सासनस्स रसं, सासनमेव वा रसं ।
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(२.२.२२४-२२४)
नीवरणप्पहानकथावण्णना
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नक्खत्तछणं नक्खत्तं। तेनाह “अहो नच्चं, अहो गीत"न्ति । मुत्तोति बन्धनतो पमुत्तो । धम्मस्सवनस्साति सोतब्बधम्मस्स ।
सीघं पवत्तेतब्बकिच्चं अच्चायिकं। सीघत्थो हि अतिसद्दो “पाणातिपातो''तिआदीसु (म० नि० २.१९३; विभं० ९६८) विय। विनये अपकत नाति विनयक्कमे अकुसलेन | पकतं निट्टानं विनिच्छयं जानातीति पकतनू, न पकतञ्जू तथा । सो हि कप्पियाकप्पियं याथावतो न जानाति । तेनाह "किस्मिञ्चिदेवा"तिआदि । कप्पियमंसेपीति सूकरमंसादिकेपि । अकप्पियमंससञायाति अच्छमंसादिसञ्जाय ।
दण्डकसबेनापीति साखादण्डकसद्देनपि । उस्सङ्कितपरिसङ्कितोति अवसङ्कितो चेव समन्ततो सङ्कितो च, अतिविय सङ्कितोति वुत्तं होति । तदाकारदस्सनं "गच्छतिपी"तिआदि | सो हि थोकं गच्छतिपि । गच्छन्तो पन ताय उस्सङ्कितपरिसङ्कितताय तत्थ तत्थ तिट्ठतिपि। ईदिसे कन्तारे गते “को जानाति, किं भविस्सती"ति निवत्ततिपि, तस्मा च गतहानतो अगतद्वानमेव बहुतरं होति, ततो एव च सो किच्छेन कसिरेन खेमन्तभूमिं पापुणाति वा, न वा पापुणाति। किच्छेन कसिरेनाति परियायवचनं, कायिकदुक्खेन खेदनं वा किच्छं, चेतसिकदुक्खेन पीळनं कसिरं। खेमन्तभूमिन्ति खेमभूतं भूमिं अन्तसद्दस्स तब्भावत्ता, भयस्स खीयनं वा खेमो, सोव अन्तो परिच्छेदो यस्सा तथा, सा एव भूमीति खेमन्तभूमि, तं निब्भयप्पदेसन्ति अत्थो । अट्ठसु ठानेसूति “तत्थ कतमा विचिकिच्छा ? सत्थरि कङ्घति विचिकिच्छति । धम्मे । सङ्के । सिक्खाय । पुब्बन्ते । अपरन्ते । पुब्बन्तापरन्ते । इदप्पच्चयतापटिच्चसमुप्पन्नेसु धम्मेसु कजति विचिकिच्छती''ति (विभं० ९१५) विभङ्गे वुत्तेसु अट्ठसु ठानेसु । अधिमुच्चित्वाति विनिच्छिनित्वा, सद्दहित्वा वा। सद्धाय गण्हितुन्ति सद्धेय्यवत्थु “इदमेव"न्ति सद्दहनवसेन गण्हितुं, सद्दहितुं न सक्कोतीति अत्थो । इतीति तस्मा वुत्तनयेन असक्कुणनतो अन्तरायं करोतीति सम्बन्धो । "अस्थि नु खो, नत्थि नु खो"ति अरनं पविठ्ठस्स आदिम्हि एव सप्पनं संसयो आसप्पनं। ततो परं समन्ततो, उपरूपरि वा सप्पनं परिसप्पनं। उभयेनपि तत्थेव संसयवसेन परिब्भमनं दस्सेति । तेनाह “अपरियोगाहन"न्ति, “एवमिद"न्ति समन्ततो अनोगाहनन्ति अत्थो । छम्भितत्तन्ति अरञ्जसञ्जय उप्पन्नं छम्भितभावं हदयमंसचलनं, उत्रासन्ति वुत्तं होति । उपमेय्यपक्खेपि यथारहमेसमत्थो।
२२४. तत्रायं सदिसताति एत्थ पन अप्पहीनपक्खे वुत्तनयानुसारेन सदिसता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२२४-२२४)
वेदितब्बा। यदग्गेन हि कामच्छन्दादयो इणादिसदिसा, तदग्गेन च तेसं पहानं आणण्यादिसदिसताति। इदं पन अनुत्तानपदत्थमत्तं - समिद्धतन्ति अड्डतं । पुब्बे पण्णमारोपिताय वड्डिया सह वत्ततीति सवडिकं । पण्णन्ति इणदानग्गहणे सल्लक्खणवसेन लिखितपण्णं । पुन पण्णन्ति इणयाचनवसेन सासनलिखितपण्णं । निल्लेपतायाति धनसम्बन्धाभावेन अविलिम्पनताय । तथा अलग्गताय। परियायवचनव्हेतं द्वयं । अथ वा निल्लेपतायाति वुत्तनयेन अविलिम्पनभावेन विसेसनभूतेन अलग्गतायाति अत्थो । छ धम्मेति असुभनिमित्तस्स उग्गहो, असुभभावनानुयोगो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता, भोजने मत्तञ्जता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे | भावत्वाति ब्रूहेत्वा, अत्तनि वा उप्पादेत्वा । अनुप्पन्नअनुप्पादनउप्पन्नप्पहानादिविभावनवसेन महासतिपट्टानसुत्ते सविसेसं पाळिया आगतत्ता "महासतिपट्टाने वण्णयिस्सामा"ति वुत्तं । “महासतिपट्ठानेति च इमस्मिं दीघागमे (दी० नि० २.३७२ आदयो) सङ्गीतमाह, न मज्झिमागमे निकायन्तरत्ता । निकायन्तरागतोपि हि अत्थो आचरियेहि अञ्जत्थ येभुय्येन वुत्तोति वदन्ति । एस नयो ब्यापादादिप्पहानभागेपि । परवत्थुम्हीति आरम्मणभूते परस्मिं वत्थुस्मिं । ममायनाभावेन नेव सङ्गो। परिग्गहाभावेन न बद्धो। दिब्बानिपि रूपानि पस्सतो किलेसो न समुदाचरति, पगेव मानुसियानीति सम्भावने अपि-सद्दो ।
अनत्थकरोति अत्तनो, परस्स च अहितकरो। छ धम्मेति मेत्तानिमित्तस्स उग्गहो, मेत्ताभावनानुयोगो, कम्मस्सकता, पटिसङ्खानबहुलता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे। तत्थेवाति महासतिपट्टानेयेव । चारित्तसीलमेव उद्दिस्स पञत्तसिक्खापदं "आचारपण्णत्ती"ति वुत्तं । आदि-सद्देन वारित्तपण्णत्तिसिक्खापदं सङ्गण्हाति ।
पवेसितोति पवेसापितो। बन्धनागारं पवेसापितत्ता अलद्धनक्खत्तानुभवनो पुरिसो हि “नक्खत्तदिवसे बन्धनागारं पवेसितो पुरिसो"ति वुत्तो, नक्खत्तदिवसे एव वा तदननुभवनत्थं तथा कतो पुरिसो एवं वुत्तोतिपि वट्टति | अपरस्मिन्ति ततो पच्छिमे, अञ्जस्मिं वा नक्खत्तदिवसे। ओकासन्ति कम्मकारणाकारणं, कम्मकारणक्खणं वा। महानत्थकरन्ति दिठ्ठधम्मिकादिअत्थहापनमुखेन महतो अनत्थस्स कारकं । छ धम्मेति अतिभोजने निमित्तग्गाहो, इरियापथसम्परिवत्तनता, आलोकसञ्जामनसिकारो, अब्भोकासवासो, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे, धम्मनक्खत्तस्साति यथावुत्तसोतब्बधम्मसङ्घातस्स महस्स । साधूनं रतिजननतो हि धम्मोपि छणसदिसटेन "नक्खत्त"न्ति वुत्तो ।
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(२.२.२२५-२२५)
नीवरणप्पहानकथावण्णना
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उद्धच्चकुक्कुच्चे महानत्थकरन्ति परायत्ततापादनेन वुत्तनयेन महतो अनत्थस्स कारकं । छ धम्मेति बहुस्सुतता, परिपुच्छकता, विनये पकतञ्जता, वुड्डसेविता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे | बलस्स, बलेन वा अत्तना इच्छितस्स करणं बलक्कारो, तेन । नेक्खम्मपटिपदन्ति नीवरणतो निक्खमनपटिपदं उपचारभावनमेव, न पठमं झानं । अयहि उपचारभावनाधिकारो ।
बलवाति पच्चत्थिकविधमनसमत्थेन बलेन बलवा वन्तु-सद्दस्स अभिसयत्थविसिट्ठस्स अस्थियत्थस्स बोधनतो। हत्थसारन्ति हत्थगतधनसारं । सज्जावुधोति सज्जितधन्वादिआवुधो, सन्नद्धपञ्चावुधोति अत्थो । सूरवीरसेवकजनवसेन सपरिवारो। तन्ति यथावुत्तं पुरिसं | बलवन्तताय, सज्जावुधताय, सपरिवारताय च चोरा दूरतोव दिस्वा पलायेय्युं । अनत्थकारिकाति सम्मापटिपत्तिया विबन्धकरणतो वुत्तनयेन अहितकारिका । छ धम्मेति बहुस्सुतता, परिपुच्छकता, विनये पकतञ्जता, अधिमोक्खबहुलता, कल्याणमित्तता, सप्पायकथाति इमे छ धम्मे । यथा बाहुसच्चादीनि उद्धच्चकुक्कुच्चस्स पहानाय संवत्तन्ति, एवं विचिकिच्छायपीति इधापि बहुस्सुततादयो तयोपि धम्मा गहिता, कल्याणमित्तता, पन सप्पायकथा च पञ्चन्नम्पि पहानाय संवत्तन्ति, तस्मा तासु तस्स तस्स नीवरणस्स अनुच्छविकसेवनता दट्ठब्बा। तिणं वियाति तिणं भयवसेन न गणेति विय । दुच्चरितकन्तारं नित्थरित्वाति दुच्चरितचरणूपायभूताय विचिकिच्छाय नित्थरणवसेन दुच्चरितसङ्घातं कन्तारं नित्थरित्वा । विचिकिच्छा हि सम्मापटिपत्तिया अप्पटिपज्जननिमित्ततामुखेन मिच्छापटिपत्तिमेव परिब्रूहेतीति तस्सा अप्पहानं दुच्चरितचरणूपायो, पहानञ्च दुच्चरितविधूननूपायोति ।
२२५. "तुट्ठाकारो"ति इमिना पामोज्जं नाम तरुणपीतिं दस्सेति । सा हि तरुणताय कथञ्चिपि तुट्टावत्था तुट्ठाकारमत्तं । "तुट्ठस्सा"ति इदं “पमुदितस्सा'"ति एतस्स अत्थवचनं, तस्सत्थो “ओक्कन्तिकभावप्पत्ताय पीतिया वसेन तुट्ठस्सा'ति टीकायं वुत्तो, एवं सति पामोज्जपदेन ओक्कन्तिका पीतियेव गहिता सिया । "सकलसरीरं खोभयमाना पीति जायती"ति एतस्सा चत्थो “अत्तनो सविप्फारिकताय, अत्तसमुट्ठानपणीतरूपुप्पत्तिया च सकलसरीरं खोभयमाना फरणलक्खणा पीति जायती''ति वुत्तो, एवञ्च सति पीतिपदेन फरणा पीतियेव गहिता सिया, कारणं पनेत्थ गवेसितबं । इध, पन अञ्जत्थ च तरुणबलवतामत्तसामञ्जेन पदद्वयस्स अत्थदीपनतो या काचि तरुणा पीति पामोज्जं, बलवती पीति, पञ्चविधाय वा पीतिया यथाक्कम तरुणबलवतासम्भवतो पुरिमा पुरिमा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२२५-२२५)
पामोजं, पच्छिमा पच्छिमा पीतीतिपि वदन्ति, अयमेत्थ तदनुच्छविको अत्थो । तुहस्साति पामोज्जसङ्घाताय तरुणपीतिया वसेन तुट्ठस्स । त-सद्दो हि अतीतत्थो, इतरथा हेतुफलसम्बन्धाभावापत्तितो, हेतुफलसम्बन्धभावस्स च वुत्तत्ता । “सकलसरीरं खोभयमाना"ति इमिना पीति नाम एत्थ बलवपीतीति दस्सेति । सा हि अत्तनो सविप्फारिकताय, अत्तसमुट्ठानपणीतरूपुप्पत्तिया च सकलसरीरं सङ्खोभयमाना जायति । सकलसरीरे पीतिवेगस्स पीतिविप्फारस्स उप्पादनञ्चेत्थ सङ्खोभनं ।
पीतिसहितं पीति उत्तरपदलोपेन । किं पन तं? मनो, पीति मनो एतस्साति समासो। पीतिया सम्पयुत्तं मनो यस्सातिपि वट्टति, तस्स । अत्थमत्तं पन दस्सेतुं “पीतिसम्पयुत्तचित्तस्स पुग्गलस्सा"ति वुत्तं । कायोति इध सब्बोपि अरूपकलापो अधिप्पेतो, न पन कायलहुतादीसु विय वेदनादिक्खन्धत्तयमेव, न च कायायतनादीसु विय रूपकायम्पीति दस्सेति “मामकायो"ति इमिना | पस्सद्धिद्वयवसेनेव हेत्थ पस्सम्भनमधिप्पेतं, पस्सम्भनं पन विगतकिलेसदरथताति आह “विगतदरथो होती"ति, पहीनउद्धच्चादिकिलेसदरथोति अत्थो । वुत्तप्पकाराय पुब्बभागभावनाय वसेन चेतसिकसुखं पटिसंवेदेन्तोयेव तंसमुट्ठानपणीतरूपफुटसरीरताय कायिकम्पि सुखं .. पटिसंवेदेतीति वुत्तं "कायिकम्पि चेतसिकम्पि सुखं वेदयती"ति । इमिना नेक्खम्मसुखेनाति “सुखं वेदेती"ति एवं . वुत्तेन संकिलेसनीवरणपक्खतो निक्खन्तत्ता, पठमज्झानपक्खिकत्ता च यथारहं नेक्खम्मसङ्घातेन उपचारसुखेन अप्पनासुखेन च। समाधानम्पेत्थ तदुभयेनेवाति वुत्तं "उपचारवसेनापि अप्पनावसेनापी"ति ।
एत्थ पनायमधिप्पायो - कामच्छन्दप्पहानतो पट्ठाय याव पस्सद्धकायस्स सुखपटिसंवेदना, ताव यथा पुब्बे, तथा इधापि पुब्बभागभावनायेव वुत्ता, न अप्पना । तथा हि कामच्छन्दप्पहाने आचरियधम्मपालत्थेरेन वुत्तं "विक्खम्भनवसेनाति एत्थ विक्खम्भनं अनुप्पादनं अप्पवत्तनं, न पटिपक्खानं सुप्पहीनता, पहीनत्ताति च पहीनसदिसतं सन्धाय वुत्तं झानस्स अनधिगतत्ता''ति (दी० नि० टी० १.२६१)। पस्सद्धकायस्स सुखपटिसंवेदनाय च वृत्तप्पकाराय पुब्बभागभावनाय वसेन चेतसिकसुखं पटिसंवेदेन्तोयेव तंसमुट्ठानपणीतरूपफुटसरीरताय कायिकम्पि सुखं पटिसंवेदेतीति । अपिच का नाम कथा अछेहि वत्तब्बा अट्ठकथायमेव “छ धम्मे भावेत्वा''ति तत्थ तत्थ पुब्बभागभावनाय वुत्तत्ता | सुखिनो चित्तसमाधाने पन सुखस्स उपचारभावनाय विय अप्पनायपि कारणत्ता, "सो विविच्चेव कामेही''तिआदिना च वक्खमानाय अप्पनाय हेतुफलवसेन सम्बज्झनतो
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(२.२.२२६-२२६)
पठमज्झानकथावण्णना
११७
पुब्बभागसमाधि, अप्पनासमाधि च वुत्तो, पुब्बभागसुखमिव वा अप्पनासुखम्पि अप्पनासमाधिस्स कारणमेवाति तम्पि अप्पनासुखं अप्पनासमाधिनो कारणभावेन आचरियधम्मपालत्थेरेन गहितन्ति इममत्थमसल्लक्खेन्ता नेक्खम्मपदत्थं यथातथं अग्गहेत्वा पलियं, अट्ठकथायम्पि संकिण्णाकुलं केचि करोन्तीति ।
पठमज्झानकथावण्णना
२२६. यदेवं “सुखिनो चित्तं समाधियती"ति एतेनेव उपचारवसेनपि अप्पनावसेनपि चित्तस्स समाधानं कथितं सिया, एवं सन्ते “सो विविच्चेव कामेही''तिआदिका देसना किमत्थियाति चोदनाय “सो विविच्चेव...पे०... वुत्तन्ति वेदितब्बन्ति वुत्तं । तत्थ “समाहिते''ति पदद्वयं “दस्सनत्थं वुत्तन्ति इमेहि सम्बन्धित्वा समाहितत्ता तथा दस्सनत्थं वुत्तन्ति अधिप्पायो वेदितब्बो। उपरिविसेसदस्सनत्थन्ति उपचारसमाधितो, पठमज्झानादिसमाधितो च उपरि पत्तब्बस्स पठमदुतियज्झानादिविसेसस्स दस्सनत्थं । उपचारसमाधिसमधिगमेनेव हि पठमज्झानादिविसेसो समधिगन्तुं सक्का, न पन तेन विना, दुतियज्झानादिसमधिगमेपि पामोज्जुप्पादादिकारणपरम्परा इच्छितब्बा, दुतियमग्गादिसमधिगमे पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि वियाति दट्ठब्बं । अप्पनासमाधिनाति पठमज्झानादिअप्पनासमाधिना । तस्स समाधिनोति यो अप्पनालक्खणो समाधि “सुखिनो चित्तं समाधियतीति सब्बसाधारणवसेन वुत्तो, तस्स समाधिनो। पभेददस्सनत्यन्ति दुतियज्झानादिविभागस्स चेव पठमाभिञादिविभागस्स च पभेददस्सनत्थं । करजकायन्ति चतुसन्ततिरूपसमुदायभूतं चातुमहाभूतिककायं । सो हि गब्भासये करीयतीति कत्वा करसङ्घाततो पुप्फसम्भवतो जातत्ता करजोति वुच्चति । करोति हि मातु सोणितसङ्घातपुष्फस्स, पितु सुक्कसङ्घातसम्भवस्स च नामं, ततो जातो पन अण्डजजलाबुजवसेन गब्भसेय्यककायोव। कामं ओपपातिकादीनम्पि हेतुसम्पन्नानं यथावुत्तसमाधिसमधिगमो सम्भवति, तथापि येभुय्यत्ता, पाकटत्ता च स्वेव कायो वुत्तोति । करोति पुत्ते निब्बत्तेतीति करो, सुक्कसोणितं, करेन जातो करजोतिपि वदन्ति ।
ननु च नामकायोपि विवेकजेन पीतिसुखेन तथा लद्रूपकारोव सिया, अथ कस्मा यथावुत्तो रूपकायोव इध गहितोति? सद्दन्तराभिसम्बन्धेन अधिगतत्ता । "अभिसन्देती"तिआदिसद्दन्तराभिसम्बन्धतो हि रूपकायो एव इध भगवता वुत्तोति अधिगमीयति तस्सेव अभिसन्दनादिकिरियायोग्यत्ताति । अभिसन्देतीति अभिसन्दनं करोति,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२२७-२२७)
सो इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेनाति हि भेदवसेन, समुदायावयववसेन च परिकप्पनामत्तसिद्धा हेतुकिरिया एत्थ लब्भति, अभिसन्दनं पनेतं झानमयेन पीतिसुखेन करजकायस्स तिन्तभावापादनं, सब्बत्थकमेव च लूखभावस्सापनयनन्ति आह "तेमेति स्नेहेती"ति, अवस्सुतभावं, अल्लभावञ्च करोतीति अत्थो । अत्थतो पन अभिसन्दनं नाम यथावुत्तपीतिसुखसमुट्ठानेहि पणीतरूपेहि कायस्स परिप्फरणं दट्ठब् । तेनेवाह "सब्बत्थ पवत्तपीति सुखं करोती"ति। तंसमुट्ठानरूपफरणवसेनेव हि सब्बत्थ पवत्तपीतिसुखता । परिसन्देतीतिआदीसुपि एसेव नयो। भस्तं नाम चम्मपसिब्बकं। परिप्फरतीति सुद्धकिरियापदं । तेन वुत्तं "समन्ततो फुसती"ति, सो इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन समन्ततो फुट्ठो भवतीति अत्थो। फुसनकिरियायेवेत्थ उपपन्ना, न ब्यापनकिरिया भिक्खुस्सेव सुद्धकत्तुभावतो। सब्बं एतस्स अत्थीति सब्बवा यथा "गुणवा''ति, तस्स सब्बवतो, “अवयवावयवीसम्बन्धे अवयविनि सामिवचन''न्ति सद्दलक्खणेन पनेतस्स “किञ्ची"ति अवयवेन सम्बज्झनतो अवयवीविसयोयेवेस सब्बसद्दोति मन्त्वा छविमंसादिकोट्ठाससङ्घातेन अवयवेन अवयवीभावं दस्सेन्तो आह "सब्बकोटासवतो कायस्सा"ति । "किञ्ची"ति एतस्स "उपा...पे०... ठान"न्ति अत्थवचनं । उपादिनकसन्ततिपवत्तिहानेति कम्मजरूपसन्ततिया पवत्तिट्टाने अफुटं नाम न होतीति सम्बन्धो । छविमंसलोहितानुगतन्ति छविमंसलोहितादिकम्मजरूपमनुगतं । यत्थ यत्थ कम्मजरूपं, तत्थ तत्थ चित्तजरूपस्सापि ब्यापनतो तेन तस्स कायस्स फुटभावं सन्धाय "अफुटं नाम न होती"ति वुत्तं ।
२२७. छेकोति कुसलो, तं पन कोसल्लं "कंसथाले न्हानियचुण्णानि आकिरित्वा''तिआदिसद्दन्तरसन्निधानतो, पकरणतो च न्हानियचुण्णानं करणे, पयोजने, पिण्डने च समत्थतावसेन वेदितब्बन्ति दस्सेति "पटिबलो"तिआदिना । कंससद्दो पन "महतिया कंसपातिया''तिआदीसु (म० नि० १.६१) सुवण्णे आगतो, "कंसो उपहतो यथा''तिआदीसु (ध० प० १३४) कित्तिमलोहे, “उपकंसो नाम राजा महाकंसस्स अत्रजो'"तिआदीसु [जा० अट्ठ० ४.१०.१६४ (अत्थतो समान)] पण्णत्तिमत्ते। इध पन यत्थ कत्थचि लोहेति आह "येन केनचि लोहेन कतभाजने"ति । ननु उपमाकरणमत्तमेविदं, अथ कस्मा कंसथालकस्स सविसेसस्स गहणं कतन्ति अनुयोगं परिहरति "मत्तिकाभाजन'न्तिआदिना । “सन्देन्तस्सा"ति परिमद्देत्वा पिण्डं करोन्तस्सेव भिज्जति, न पन सन्दनक्खमं होति, अनादरलक्खणे चेतं सामिवचनं । किरियन्तरस्स पवत्तनक्खणेयेव किरियन्तरस्स पवत्तनहि अनादरलक्खणं। “परिप्फोसकं परिप्फोसक"न्ति इदं
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(२.२.२२९-२२९)
दुतियज्झानकथावण्णना
११९
भावनपुंसकन्ति दस्सेति “सिञ्चित्वा सिञ्चित्वा"ति इमिना | फुससदो चेत्थ परिसिञ्चने यथा तं वातवुट्ठिसमये "देवो च थोकं थोकं फुसायती"ति, (पाचि० ३६२) तस्मा ततो ततो न्हानियचुण्णतो उपरि उदकेन ब्यापनकरणवसेन परिसिञ्चित्वा परिसिञ्चित्वाति अत्थो । अनुपसग्गोपि हि सद्दो सउपसग्गो विय पकरणाधिगतस्स अत्थस्स दीपको, “सिञ्चित्वा सिञ्चित्वाति पन वचनं “परिप्फोसकं परिप्फोसक"न्ति एतस्स “सन्देय्या'"ति एत्थ विसेसनभावविज्ञापनत्थं । एवमीदिसेसु । “सन्देय्या'ति एत्थ सन्द-सदो पिण्डकरणेति वुत्तं "पिण्डं करेय्या"ति । अनुगताति अनुपविसनवसेन गता उपगता। परिग्गहिताति परितो गहिता समन्ततो फुट्ठा।
अन्तरो च बाहिरो च पदेसो, तेहि सह पवत्ततीति सन्तरबाहिरा, न्हानियपिण्डि, "समन्तरबाहिरा"तिपि पाठो, म-कारो पदसन्धिवसेन आगमो। यथावुत्तेन परिग्गहितताकारणेनेव सन्तरबाहिरो न्हानियपिण्डि फुटा उदकस्नेहेनाति आह "सब्बत्थकमेव उदकसिनेहेन फुटा"ति | सब्बत्थ पवत्तनं सब्बत्थकं, भावनपुंसकञ्चेतं, सब्बपदेसे हुत्वा एव फुटाति अत्थो । “सन्तरबाहिरा फुटा''ति च इमिना न्हानियपिण्डिया सब्बसो उदकेन तेमितभावमाह, “न च पग्घरणीति पन इमिना तिन्तायपि ताय घनथद्धभावं । तेनाह "न च बिन्दु बिन्दु"न्तिआदि । उदकस्स फुसितं फुसितं, न च पग्घरणी सूदनीति अत्थो, "बिन्दु उदकं" तिपि कत्थचि पाठो, उदकसङ्घातं बिन्दुन्ति तस्सत्थो । बिन्दुसद्दो हि "ब्यालम्बम्बुधरबिन्दू''तिआदीसु विय धारावयवे । एवं पन अपग्घरणतो हत्थेनपि द्वीहिपि तीहिपि अङ्गुलेहि गहेतुं, ओवट्टिकाय वा कातुं सक्का । यदि हि सा पग्घरणी अस्स, एवं सति स्नेहविगमनेन सुक्खत्ता थद्धा हुत्वा तथा गहेतुं, कातुं वा न सक्काति वृत्तं होति | ओवट्टिकायाति परिवठ्ठलवसेन, गुळिकावसेन सा पिण्डि कातुं सक्काति अत्थो ।
दुतियज्झानकथावण्णना
२२९. ताहि ताहि उदकसिराहि उब्भिज्जति उद्धं निक्खमतीति उभिदं, तादिसं उदकं यस्साति उभिदोदको, द-कारस्स पन त-कारे कते उब्भितोदको, इममत्थं दस्सेतुं "उन्भिन्नउदको"ति वुत्तं, नदीतीरे खतकूपको विय उब्भिज्जनकउदकोति अत्थो । उब्भिज्जनकम्पि उदकं कत्थचि हेट्ठा उब्भिज्जित्वा धारावसेन उट्ठहित्वा बहि गच्छति, न तं कोचि अन्तोयेव पतिट्टितं कातुं सक्कोति धारावसेन उट्ठहनतो, इध पन वालिकातटे विय उदकरहदस्स अन्तोयेव उब्भिज्जित्वा तत्थेव तिठ्ठति, न धारावसेन उट्ठहित्वा बहि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२३१-२३१)
गच्छतीति विज्ञायति अखोभकस्स सन्निसिन्नस्सेव उदकस्स अधिप्पेतत्ताति इममत्थं सन्धायाह "न हेट्ठा"तिआदि । हेट्ठाति उदकरहदस्स हेट्ठा महाउदकसिरा, लोहितानुगता लोहितसिरा विय उदकानुगतो पथविपदेसो "उदकसिरा''ति वुच्चति । उग्गच्छनकउदकोति धारावसेन उट्ठहनकउदको । अन्तोयेवाति उदकरहदस्स अन्तो समतलपदेसे एव । उन्भिज्जनकउदकोति उब्भिज्जित्वा तत्थेव तिनकउदको। आगमनमग्गोति बाहिरतो उदकरहदाभिमुखं आगमनमग्गो। कालेन कालन्ति रुळ्हीपदं “एको एकाया''तिआदि (पारा० ४४३, ४४४, ४५२) वियाति वुत्तं "काले काले"ति । अन्वद्धमासन्ति एत्थ अनुसद्दो ब्यापने । वस्सानस्स अद्धमासं अद्धमासन्ति अत्थो । एवं अनुदसाहन्ति एत्थापि । वुट्ठिन्ति वस्सनं । अनुष्पवच्छेय्याति न उपवच्छेय्य | वस्ससद्दतो चस्स सिद्धीति दस्सेति "न वस्सेय्या"ति इमिना ।
“सीता वारिधारा''ति इथिलिङ्गपदस्स "सीतं धार"न्ति नपुंसकलिङ्गेन अत्थवचनं धारसद्दस्स द्विलिङ्गिकभावविज्ञापनत्थं । सीतन्ति खोभनाभावेन सीतलं, पुराणपण्णतिणकट्ठादिसंकिण्णाभावेन वा सेतं परिसुद्धं । सेतं सीतन्ति हि परियायो । कस्मा पनेत्थ उब्मिदोदकोयेव रहदो गहितो, न इतरेति अनुयोगमपनेति "हेट्ठा उग्गच्छनउदकही"तिआदिना। उग्गन्त्वा उग्गन्त्वा भिज्जन्तन्ति उट्ठहित्वा उट्ठहित्वा धाराकिरणवसेन उब्भिज्जन्तं, विनस्सन्तं वा । खोभेतीति आलोळेति । वुट्ठीति वस्सनं । धारानिपातपुब्बुळकेहीति उदकधारानिपातेहि च ततोयेव उठ्ठितउदकपुब्बुळकसङ्खातेहि फेणपटलेहि च । एवं यथाक्कम तिण्णम्पि रहदानमगहेतब्बतं वत्वा उब्भिदोदकस्सेव गहेतब्बतं वदति "सनिसिन्नमेवा"तिआदिना। तत्थ सनिसिन्नमेवाति सम्मा, समं वा निसिन्नमेव, अपरिक्खोभताय निच्चलमेव, सुप्पसन्नमेवाति अधिप्पायो । इद्धिनिम्मितमिवाति इद्धिमता इद्धिया तथा निम्मितं इव । तत्थाति तस्मिं उपमोपमेय्यवचने । सेसन्ति "अभिसन्देती"तिआदिकं ।
ततियज्झानकथावण्णना
२३१. "उप्पलिनी"तिआदि गच्छस्सपि वनस्सपि अधिवचनं । इध पन “याव अग्गा, याव च मूला''ति वचनयोगेन “अप्पेकच्चानी''तिआदिना उप्पलगच्छादीनमेव गहेतब्बताय वनमेवाधिप्पेतं, तस्मा "उप्पलानीति उप्पलगच्छानि। एत्थाति उप्पलवने''तिआदिना अत्थो वेदितब्बो। अवयवेन हि समुदायस्स निब्बचनं कतं । एकहि
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(२.२.२३३ - २३३)
चतुत्थज्झानकथावण्णना
कत्वा
उप्पलगच्छादि उप्पलादियेव, चतुपञ्चमत्तम्पि पन उप्पलादिवनन्ति वोहरीयति, सारत्थदीपनियं पन जलासयोपि उप्पलिनिआदिभावेन वुत्तो । एत्थ चाति एतस्मिं पदत्त, एतेसु वा तीसु उप्पलपदुमपुण्डरीकसङ्घातेसु अत्थेसु । “सेतरत्तनीलेसू" ति उप्पलमेव वुत्तं, सेतुप्पलरत्तुप्पलनीलुप्पलेसूति अत्थो । यं किञ्चि उप्पलं उप्पलमेव उप्पलसद्दस्स सामञ्ञनामवसेन तेसु सब्बेसुपि पवत्तनतो। सतपत्तन्ति एत्थ सतसद्दो बहुपरियायो “सतग्घी सतरंसि सूरियो" तिआदीसु विय अनेकसङ्ख्याभावतो । एवञ्च अनेकपत्तस्सापि पदुमभावे सङ्गहो सिद्धी होति । पत्तन्ति च पुप्फदलमधिप्पेतं । व सेतं पदुमं रत्तं पुण्डरीकन्ति सासनवोहारो, लोके पन " रत्तं पदुमं, सेतं पुण्डरीक "न्ति वदन्ति। वुत्तञ्हि “पुण्डरीकं सितं रत्तं, कोकनदं कोकासको 'ति । रत्तवण्णता कोकनामकानं सुनखानं नादयतो सद्दापयतो, तेहि च असितब्बतो “कोकनदं, कोकासको "ति च पदुमं वुच्चति । यथाह “पद्मं यथा कोकनदं सुगन्ध "न्ति । अयं पत्थ वचनत्थो उदकं पाति, उदके वा प्लवतीति उप्पलं । पङ्के दवति गच्छति, पकारेन वा दवति विरुहतीति पदुमं । पण्डरं वण्णमस्स, महन्तताय वा मुडितब्बंखण्डेतब्बन्ति पुण्डरीकं म-कारस्स प-कारादिवसेन । मुडिसद्दहि मुडरिसद्दं वा खण्डनत्थमिच्छन्ति सद्दविदू, सद्दसत्थतो चेत्थ पदसिद्धि । याव अग्गा, याव च मूला उदकेन अभिसन्दनादिभावदस्सनत्थं पाळियं ‘“उदकानुग्गतानी”ति वचनं, तस्मा उदकतो न उग्गतानिच्चेव अत्थो, न तु उदके अनुरूपगतानीति आह “उदका... पे०... गतानी 'ति । इध पन उप्पलादीनि विय करजकायो, उदकं विय ततियज्झानसुखं दट्ठब्बं ।
चतुत्थज्झानकथावण्णना
२३३. यस्मा पन चतुत्थज्झानचित्तमेव " चेतसा "ति वृत्तं, तञ्च रागादिउपक्किलेसमलापगमतो निरुपक्किलेसं निम्मलं, तस्मा उपक्किलेसविगमनमेव परिसुद्धभावोति आह " निरुपक्किलेसट्टेन परिसुद्ध "न्ति । यस्मा च परिसुद्धसेव पच्चयविसेसेन पवत्तिविसेसो परियोदातता सुद्धन्तसुवण्णस्स निघंसनेन पभस्सरता विय, तस्मा पभस्सरतायेव परियोदातताति आह “पभस्सरट्ठेन परियोदात "न्ति । विज्जु विय पभाय इतो चितो च निच्छरणं पभस्सरं यथा “ आभस्सरा "ति । ओदातेन वत्थेनाति एत्थ " ओदातेना "ति गुणवचनं सन्धाय “ओदातेन... पे०... इदन्ति वुत्तं । उफरणत्थन्ति उपहस्स उतुनो फरणदस्सनत्थं । कस्माति आह " किलिट्ठवत्थेना "तिआदि । उतुफरणं न होतीति ओदातवत्थेन विय सविसेसं उतुफरणं न होति, अप्पकमत्तमेव होतीति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
अधिप्पायो । तेनाह “ तङ्खण... पे०... बलवं होती 'ति । " तङ्खणधोतपरिसुद्धेना" ति च एतेन ओदातसद्दो एत्थ परिसुद्धवचनो एव " गिही ओदातवत्थवसनो' तिआदीसु विय, न सेतवचनो येन केनचि तङ्खणधोतपरिसुद्धेनेव उतुफरणसम्भवतोति दस्सेति ।
ननु च पाळियं “ नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स ओदातेन वत्थेन अफुटं अस्सा "ति कायस्स ओदातवत्थफरणं वुत्तं, न पन वत्थस्स उतुफरणं, अथ कस्मा उतुफरणं इध वृत्तन्ति अनुयोगेनाह “ इमिस्साय ही " तिआदि । यस्मा वत्थं विय करजकायो, उतुफरणं विय चतुत्थज्झानसुखं तस्मा एवमत्थो वेदितब्बोति वुत्तं होति, एतेन च ओदातेन वत्थेन सब्बावतो कायस्स फरणासम्भवतो, उपमेय्येन च अयुत्तत्ता कायग्गहणेन तन्निस्सितवत्थं गतब्बं वत्थग्गहणेन च तप्पच्चयं उतुफरणन्ति दस्सेति । नेय्यत्थतो हि अयं उपमा वृत्ता । विचित्रदेसना हि बुद्धा भगवन्तोति । योगिनो हि करजकायो वत्थं विय दट्ठब्बो उतुफरणसदिसेन चतुत्थज्झानसुखेन फरितब्बत्ता, उतुफरणं विय चतुत्थज्झानसुखं वत्थस्स विय तेन करजकायस्स फरणतो, पुरिसस्स सरीरं विय चतुत्थज्झानं उतुफरणट्ठानियस्स सुखस्स निस्सयभावतो । तेनाह “तस्मा "तिआदि । इदहि यथावुत्तवचनस्स गुणदस्सनं । एत्थ च पाळियं “ परिसुद्धेन चेतसा "ति चेतोगहणेन चतुत्थज्झानसुखं भगवता वुत्तन्ति ञपेतुं “चतुत्थज्झानसुखं, चतुत्थज्झानसुखेना "ति च वुत्तन्ति दट्ठब्बं । ननु च चतुत्थज्झानसुखं नाम सातलक्खणं नत्थीति ? सच्चं, सन्तसभावत्ता पनेत्थ उपेक्खायेव "सुख"न्ति अधिप्पेता । तेन वुत्तं सम्मोहविनोदनियं " उपेक्खा पन सन्तत्ता, सुखमिच्चेव भासिता "ति (विभं० अट्ठ० २३२; विसुद्धि० २.६४४; महानि० अट्ठ० २७; पटि० म० अट्ठ० १.१०५) ।
(२.२.२३३-२३३)
एतावताति पठमज्झानाधिगमपरिदीपनतो पट्ठाय याव चतुत्थज्झानाधिगमपरिदीपना, तावता वचनक्कमेन । लभनं लाभो, सो एतस्साति लाभी, रूपज्झानानं लाभी रूपज्झानलाभी यथा “लाभी चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारान”न्ति, (सं० नि० १.२.७०; उदा० ३८) लभनसीलो वा लाभी । किं लभनसीलो ? रूपज्झानानीतिपि युज्जति । एवमितरस्मिम्पि । न अरूपज्झानलाभीति न वेदितब्बति योजेतब्बं । कस्माति वृत्तं " न ही " तिआदि, अट्ठन्नम्पि समापत्तीनं उपरि अभिञ्ञाधिगमे अविनाभावतोति वुत्तं होति । चुद्दसहाकारेहीति “कसिणानुलोमतो, कसिणपटिलोमतो कसिणानुलोमपटिलोमतो, झानानुलोमतो, झानपटिलोमतो, झानानुलोमपटिलोमतो, झानुक्कन्तिकतो, कसिणुक्कन्तिकतो, झानकसिणुक्कन्तिकतो, अङ्गसङ्कन्तितो,
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( २.२.२३४ - २३४)
विपस्सनाञाणकथावण्णना
आरम्मणसङ्कन्तितो, अङ्गारम्मणसङ्कन्तितो अङ्गववत्थानतो, आरम्मणववत्थानतो 'ति (विसुद्धि० २.३६५) विसुद्धिमग्गे हि इमेहि चुद्दसहाकारेहि । सतिपि झानेसु आवज्जनादिपञ्चविधवसीभावे अयमेव चुद्दसविधो वसीभावो अभि निब्बत्तने एकन्तेन इच्छितब्बोति दस्सेन्तेन “चुद्दसहाकारेहि चिण्णवसीभावन्ति वत्तं, इमिना च अरूपसमापत्तीसु चिण्णवसीभावं विना रूपसमापत्तीसु एव चिण्णवसीभावेन समापत्ति न इज्झतीति तासं अभिज्ञाधिगमे अविनाभावं दस्सेतीति वेदितब्बं ।
ननु यथापठमेव विनिच्छयो वत्तब्बोति चोदनं सोधेति “ पाळियं पनाति आदिना, सावसेसपाठभावतो नीहरित्वा एस विनिच्छयो वत्तब्बोति वुत्तं होति । यज्जेवं अरूपज्झानानिपि पाळियं गहेतब्बानि, अथ कस्मा तानि अग्गहेत्वा सावसेसपाठो भगवता कतोति ? सब्बाभिञानं विसेसतो रूपावचरचतुत्थज्झानपादकत्ता । सतिपि हि तासं तथा अविनाभावे विसेसतो नेता रूपावचरचतुत्थज्झानपादका, तस्मा तासं तप्पादकभावविञ्ञापनत्थं तत्थेव ठत्वा देसना कता, न पन अरूपावचरज्झानानं इध अननुपयोगतो। तेनाह “ अरूपज्झानानि आहरित्वा कथेतब्बानी'ति ।
विपस्सनाञाणकथावण्णना
२३४. “पुन चपरं महाराज ( पाळियं नत्थि) भिक्खू'ति वत्वापि किमत्थं दस्सेतुं " सो "ति पदं पुन वुत्तन्ति चोदनायाह “सो... पे०... दस्सेती”ति, यथारुतवसेन, नेय्यत्थवसेन च वुत्तासु अट्ठसु समापत्तीसु चिण्णवसिताविसिद्धं भिक्खु दस्सेतुं एवं वुत्तन्ति अधिप्पायो । सेसन्ति "सो "ति पदत्थतो सेसं “ एवं समाहिते "तिआदीसु वत्तब्बं साधिप्पायमत्थजातं । त्रेय्यं जानातीति जाणं, तदेव पच्चक्खं कत्वा पस्सतीति दस्सनं, आणमेव दस्सनं न चक्खादिकन्ति त्राणदस्सनं पञ्चविधम्पि आणं, तयिदं पन आणदरसनपदं सासने येसु आणविसेसेसु निरुळ्हं, तं सब्बं अत्थुद्धारवसेन दस्सेन्तो “" ञाणदरसनन्ति मग्गत्राणम्पि बुच्चती" तिआदिमाह । ञाणदस्सनविसुद्धत्थन्ति ञाणदस्सनस्स विसुद्धिपयोजनाय । फासुविहारोति अरियविहारभूतो सुखविहारो । भगवतोपीति न केवलं देवतारोचनमेव, अथ खो तदा भगवतोपि आणदस्सनं उदपादीति अत्थो । सत्ताहं कालङ्कतस्स अस्साति सत्ताहकालङ्कृतो । “ कालामो 'ति गोत्तवसेन वुत्तं । चेतोविमुत्ति [विमुत्ति (अट्ठकथायं)] नाम अरहत्तफलसमापत्ति । यस्मा विपस्सनाञाणं जेय्यसङ्घाते तेभूमकसङ्घारे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
अनिच्चादितो जानाति, भङ्गानुपस्सनतो च पट्ठाय पच्चक्खतो ते पस्सति, तस्मा यथावुत्तट्ठेन आणदस्सनं नाम जातन्ति दस्सेति " इध पना "ति आदिना ।
अभिनीहरतीति विपस्सनाभिमुखं चित्तं तदञ्ञकरणीयतो नीहरित्वा हरतीति अयं सद्दतो अत्थो, अधिप्पायतो पन तं दस्सेतुं “विपस्सनात्राणस्सा' 'तिआदि वृत्तं । तदभिमुखभावोयेव हिस्स तन्निन्नतादिकरणं, तं पन वुत्तनयेन अट्ठङ्गसमन्नागते तस्मिं चित्ते विपस्सनाक्कमेन जाते विपस्सनाभिमुखं चित्तपेसनमेवाति दट्ठब्बं । तन्निन्नन्ति तस्सं विपस्सनायं निन्नं । इतरद्वयं तस्सेव वेवचनं । तस्सं पोणं वङ्कं पन्भारं नीचन्ति अत्थो ब्रह्मजाले वृत्तोयेव । ओदनकुम्मासेहि उपचीयति वड्डापीयति, उपचयति वा वडतीति अत्यं सन्धाय " ओदनेना "तिआदि वृत्तं । अनिच्छुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मोति एत्थ ‘“अनिच्चधम्मो’’तिआदिना धम्मसद्दी पच्चेकं योजेतब्बो । तत्थ अनिच्चधम्मोति पभङ्गुताय अद्भुवसभावो । दुग्गन्धविघातत्थायाति सरीरे दुग्गन्धस्स विगमाय । उच्छादनधम्मोति उच्छादेतब्बतासभावो, इमस्स पूतिकायस् दुग्गन्धभावतो धोदक उब्बट्टनविलिम्पनजातिकोति अत्थो । उच्छादनेन हि पूतिकाये सेदवातपित्तसेम्हादीहि गरुभावदुग्गन्धानमपगमो होति । महासम्बाहनं मल्लादीनं बाहुवड्डनादिअत्थंव होति, अङ्गपच्चङ्गाबाधविनोदनत्थं पन खुद्दकसम्बाहनमेव युत्तन्ति आह “खुद्दकसम्बाहनेना" ति, मन्दसम्बाहनेनाति अत्थो । परिमद्दनधम्मोति परिमद्दितब्बतासभावो ।
( २.२.२३४ - २३४)
एवं अनियमितकालवसेन अत्थं वत्वा इदानि नियमितकालवसेन अत्थं वदति "दहरकाले 'तिआदिना । वा-सद्दी चेत्थ अत्थदस्सनवसेनेव अत्थन्तरविकप्पनस्स विञ्ञायमानत्ता न पयुत्तो, लुत्तनिद्दिट्ठो वा । दहरकालेति अचिरविजातकाले । सयापेत्वा अञ्छनपीळनादिवसेन परिमद्दनधम्मोति सम्बन्धो । मितन्ति भावनपुंसकनिद्देसो, तेन यथापमाणं, मन्दं वा अञ्छनपीळनादीनि दस्सेति । अञ्छनञ्चेत्थ आकड्डूनं । पीळनं सम्बाहनं | आदिसद्देन समिञ्जनउग्गमनादीनि सङ्गण्हाति । एवं परिहरितोपीति उच्छादनादिना सुखेधितोपि । भज्जति चेवाति अनिच्चतादिवसेन नस्सति च । विकिरति चाति एवं भिन्दन्तो च किञ्चि पयोजनं असाधेन्तो विप्पकिण्णोव होति । एवं नवहि पदेहि यथारहं काये समुदयवयधम्मानुपस्सिता दस्सिताति इममत्थं विभावेन्तो " तत्था ''तिआदिमाह । तत्थ छहि पदेहीति "रूपी, चातुमहाभूतिको, मातापेत्तिकसम्भवो, ओदनकुम्मासूपचयो, उच्छादनधम्मो, परिमद्दनधम्मो 'ति इमेहि छहि पदेहि । युत्तं ताव होतु मज्झे तीहिपि पदेहि कायस्स समुदयकथनं तेसं तदत्थदीपनतो, “रूपी, उच्छादनधम्मो, परिमद्दनधम्मो "ति पन
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विपस्सनाञाणकथावण्णना
(२.२.२३५ - २३५)
तीहि पदेहि कथं तस्स तथाकथनं युत्तं सिया तेसं तदत्थस्स अदीपनतोति ? युत्तमेव तेसम्पि तदत्थस्स दीपितत्ता । "रूपी "ति हि इदं अत्तनो पच्चयभूतेन उतुआहारलक्खणेन रूपेन रूपवाति अत्थस्स दीपकं । पच्चयसङ्गमविसिट्टे हि तदस्सत्थिअत्थे अयमीकारो । ‘“उच्छादनधम्मो, परिमद्दनधम्मो 'ति च इदं पदद्वयं तथाविधरूपुप्पादनेन सण्ठानसम्पादनत्थस्स दीपकन्ति । द्वीहीति “भेदनधम्मो, विद्धंसनधम्मो "ति द्वीहि पदेहि । निस्सितञ्च कायपरियापन्ने हदयवत्थुम्हि निस्सित्ता विपस्सनाचित्तस्स | तदा पवत्तञ्हि विपस्सनाचित्तमेव ‘“इदञ्च मे विञ्ञाणन्ति आसन्नपच्चक्खवसेन वुत्तं । पटिबद्धञ्च कायेन विना अप्पवत्तनतो, कायसञ्ञितानञ्च रूपधम्मानं आरम्मणकरणतो ।
समुट्ठितो अत्थो । आकरपरिविसुद्धिमूलको
२३५. सुटु ओभासतीति सुभो, पभासम्पन्नो मणि, ताय एव पभासम्पत्तिया मणिनो भद्रताति अत्थमत्तं दस्सेतुं “सुभोति सुन्दरो "ति वृत्तं । परिसुद्धाकरसमुट्ठानमेव मणिनो सुविसुद्धजातिताति आह “ जातिमाति परिसुद्धाकरसमुट्ठितो 'ति । सुविसुद्धरतनाकरतो एव हि मणिनो कुरुविन्दजाति आदिजातिविसेसोति । इधाधिप्पेतस्स पन वेळुरियमणिनो विळूर (वि० व० अदृ० ३४ आदयो वाक्यक्ख्न्धेसु पस्सितब्बं) पब्बतस्स, विळूर गामस्स च अविदूरे परिसुद्धाकरो । येभुय्येन हि सो ततो समुट्ठितो । तथा हेस विळूरनामकस्स पब्बतस्स, गामस्स च अविदूरे समुट्ठितत्ता वेळुरियोति पञ्ञायित्थ, देवलोके पवत्तस्सपि च तंसदिसवण्णनिभताय तदेव नामं जातं यथा तं मनुस्सलोके लद्धनामवसेन देवलोके देवतानं, सो पन मयूरगीवावण्णो वा होति वायसपत्तवण्णो वा सिनिद्धवेणुपत्तवण्णो वाति आचरियधम्मपालत्थेरेन परमत्थदीपनियं (वि० व० अट्ट० ३४) वृत्तं । विनयसंवण्णनासु (वि० वि० टी० १.२८१) पन “अल्लवेकुवण्णो' 'ति वदन्ति । तथा हिस्स " वसवण्णो" तिपि नामं जातं । " मञ्जारक्खिमण्डलवण्णोति च वुत्तो, ततोयेव सो इध पदेसे मञ्जरमणीति पाकटो होति । चक्कवत्तिपरिभोगारहपणीततरमणिभावतो पन तस्सेव पाळियं वचनं दट्ठब्बं । यथाह " पुन चपरं आनन्द रञ्ञो महासुदस्सनस्स मणिरतनं पातुरहोसि, सो अहोसि मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अहंसो "तिआदि (दी० नि० २.२४८) । पासाणसक्खरादिदोसनीहरणवसेनेव परिकम्मनिप्फत्तीति दस्सेति
" अपनीतपासाणसक्खरो "ति इमिना ।
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छविया एव सहभावेन अच्छता, न सङ्घातस्साति आह “अच्छोति तनुच्छवी "ति ततो चेव विसेसेन पसन्नोति दस्सेतुं “सुट्टु पसन्नोति वृत्तं । परिभोगमणिरतनाकारसम्पत्ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२३५-२३५)
सब्बाकारसम्पन्नता। तेनाह "धोवनवेधनादीही"तिआदि । पासाणादीसु धोतता धोवनं, काळकादिअपहरणत्थाय चेव सुत्तेन आवुनत्थाय च विज्झितब्बता वेधनं। आदिसद्देन तापसण्हकरणादीनं सङ्गहो । वण्णसम्पत्तिन्ति आवुनितसुत्तस्स वण्णसम्पत्तिं । कस्माति वुत्तं "तादिस"न्तिआदि, तादिसस्सेव आवुतस्स पाकटभावतोति वुत्तं होति ।
मणि विय करजकायो पच्चवेक्खितब्बतो। आवुतसुत्तं विय विज्ञाणं अनुपविसित्वा ठितत्ता। चक्खुमा पुरिसो विय विपस्सनालाभी भिक्खु सम्मदेव तस्स दस्सनतो, तस्स पुरिसस्स मणिनो आविभूतकालो विय तस्स भिक्खुनो कायस्स आविभूतकालो तन्निस्सयस्स पाकटभावतो। सुत्तस्साविभूतकालो विय तेसं धम्मानमाविभूतकालो तन्निस्सितस्स पाकटभावतोति अयमेत्थ उपमासम्पादने कारणविभावना, “आवुतसुत्तं विय विपस्सनाजाण"न्ति कत्थचि पाठो, “इदञ्च विज्ञाण''न्ति वचनतो पन “विञआणन्ति पाठोव सुन्दरतरो, “विपस्सनाविञाण"न्ति वा भवितब्बं । विपस्सनाञाणं अभिनीहरित्वाति विपस्सनाञाणाभिमुखं चित्तं नीहरित्वा ।
तत्राति वेकुरियमणिम्हि। तदारम्मणानन्ति कायसञितरूपधम्मारम्मणानं । "फस्सपञ्चमकान''न्तिआदिपदत्तयस्सेतं विसेसनं अत्थवसा लिङ्गविभत्तिवचनविपरिणामोति कत्वा पच्छिमपदस्सापि विसेसनभावतो । फस्सपञ्चमकग्गहणेन, सब्बचित्तचेतसिकग्गहणेन च गहितधम्मा विपस्सनाचित्तुप्पादपरियापन्ना एवाति दट्ठब्। एवहि तेसं विपस्सनाविञाणगतिकत्ता आवुतसुत्तं विय “विपस्सनाविज्ञाण''न्ति हेट्ठा वुत्तवचनं अविरोधितं होति । कस्मा पन विपस्सनाविञाणस्सेव गहणन्ति ? “इदञ्च मे विज्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध''न्ति इमिना तस्सेव वचनतो । “अयं खो मे कायो"तिआदिना हि विपस्सनाञआणेन विपस्सित्वा "तदेव विपस्सनाञाणसम्पयुत्तं विज्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध"न्ति निस्सयविसयादिवसेन मनसि करोति, तस्मा तस्सेव इध गहणं सम्भवति, नाञस्साति दट्ठब्बं । तेनाह "विपस्सनाविज्ञाणस्सेव वा आविभूतकालो"ति । धम्मसङ्गहादीसु (ध० स० २ आदयो) देसितनयेन पाकटभावतो चेत्थ फस्सपञ्चमकानं गहणं, निरवसेसपरिग्गहणतो सब्बचित्तचेतसिकानं, यथारुतं देसितवसेन पधानभावतो विपस्सनाविञाणस्साति वेदितब्बं । किं पनेते पच्चवेक्खणाणस्स आविभवन्ति, उदाहु पुग्गलस्साति ? पच्चवेक्खणञाणस्सेव, तस्स पन आविभूतत्ता पुग्गलस्सापि आविभूता नाम होन्ति, तस्मा "भिक्खुनो आविभूतकालो"ति वुत्तन्ति ।
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(२.२.२३५-२३५)
विपस्सनाजाणकथावण्णना
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यस्मा पनिदं विपस्सनाञाणं मग्गजाणानन्तरं होति, तस्मा लोकियाभिञानं परतो, छट्टभिआय च पुरतो वत्तब्बं, अथ कस्मा सब्बाभिज्ञानं पुरतोव वुत्तन्ति चोदनालेसं दस्सेत्वा परिहरन्तो "इदञ्च विपस्सनाजाण"न्तिआदिमाह । “इदञ्च मग्गजाणानन्तर"न्ति हि इमिना यथावृत्तं चोदनालेसं दस्सेति । तत्थ "मग्गजाणानन्तर"न्ति सिखाप्पत्तविपस्सनाभूतं गोत्रभुञाणं सन्धाय वुत्तं । तदेव हि अरहत्तमग्गस्स, सब्बेसं वा मग्गफलानमनन्तरं होति, पधानतो पन तब्बचनेनेव सब्बस्सपि विपस्सनाञाणस्स गहणं दट्ठब्बं अविसेसतो तस्स इध वुत्तत्ता। मग्गसद्देन च अरहत्तमग्गस्सेव गहणं तस्सेवाभिञापरियापन्नत्ता, अभिज्ञासम्बन्धेन च चोदनासम्भवतो । लोकियाभिञानं पुरतो वुत्तं विपस्सनाजाणं तासं नानन्तरताय अनुपकारं, आसवक्खयञाणसङ्घाताय पन लोकुत्तराभिज्ञाय पुरतो वुत्तं तस्सा अनन्तरताय उपकारं, तस्मा इदं लोकियाभिञानं परतो, छट्ठाभिज्ञाय च पुरतो वत्तब्बं । कस्मा पन उपकारट्ठाने तथा अवत्वा अनुपकारट्ठानेव भगवता वुत्तन्ति हि चोदना सम्भवति । “एवं सन्तेपी"तिआदि परिहारदस्सनं । तत्थ एवं सन्तेपीति यदिपि आणानुपुब्बिया मग्गज्ञाणस्स अनन्तरताय उपकारं होति, एवं सतिपीति अत्थो ।
अभिञावारेति छळभिञावसेन वुत्ते देसनावारे । एतस्स अन्तरा वारो नत्थीति पञ्चसु लोकियाभिञासु कथितासु आकद्धेय्यसुत्तादीसु (म० नि० १.६५) विय छट्ठाभिज्ञापि अवस्सं कथेतब्बा अभिञालक्खणभावेन तप्परियापन्नतो, न च विपस्सनाञाणं लोकियाभिञानं, छट्ठाभिञाय च अन्तरा पवेसेत्वा कथेतब्बं अनभिज्ञालक्खणभावेन तदपरियापन्नतो। इति एतस्स विपस्सनाञाणस्स तासमभिज्ञानं अन्तरा वारो नत्थि, तस्मा तत्थ अवसराभावतो इधेव रूपावचरचतुत्थज्झानानन्तरं विपस्सनााणं कथितन्ति अधिप्पायो । “यस्मा चा"तिआदिना अत्थन्तरमाह । तत्थ च-सद्दो समुच्चयत्थो, तेन न केवलं विपस्सनाञाणस्स इध दस्सने तदेव कारणं, अथ खो इदम्पीति इममत्थं समुच्चिनातीति आचरियेन (दी० नि० टी० १.२३५) वुत्तं । सद्दविदू पन ईदिसे ठाने च-सद्दो वा-सद्दत्थो, सो च विकप्पत्थोति वदन्ति, तम्पि युत्तमेव अत्थन्तरदस्सने पयुत्तत्ता। अत्तना पयुज्जितब्बस्स हि विज्जमानत्थस्सेव जोतका उपसग्गनिपाता यथा मग्गनिदस्सने साखाभङ्गा, यथा च अदिस्समाना जोतने पदीपाति एवमीदिसेसु । होति चेत्थ
"अत्थन्तरदस्सनम्हि, च सद्दो यदि दिस्सति । समुच्चये विकप्पे सो, गहेतब्बो विभाविना''ति ।।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
अकतसम्पसनस्साति हेतुगब्भपदं । तथा कतसम्मसनस्साति च । “दिब्बेन चक्खुना भेरवम्पि रूपं पस्सतोति एत्थ इद्धिविधञाणेन भेरवं रूपं निम्मिनित्वा मंसचक्खुना पस्सतोतिपि वत्तब्बं । एवम्पि हि अभिञ्ञालाभिनो अपरिञ्ञातवत्थुकस्स भयं सन्तास उप्पज्जति उच्चवालिकवासिमहानागत्थेरस्स विया "ति आचरियेन (दी० नि० टी० १.२३५) वृत्तं । यथा चेत्थ एवं दिब्बाय सोतधातुया भेरवं सद्दं सुणतोति एत्थापि इद्धिविधञाणेन भैरवं सद्दं निम्मिनित्वा मंससोतेन सुणतोपीति वत्तब्बमेव । एवम्पिि अभिञ्ञालाभिनो अपरिञातवत्थुकस्स भयं सन्तासो उप्पज्जति उच्चवालिकवासिमहानागत्थेरस्स विय । थेरो हि कोञ्चनादसहितं सब्बसेतं हत्थिनागं मापेत्वा दिस्वा, सुत्वा च सञ्जातभयसन्तासोति अट्ठकथासु (विभं० अट्ठ० २.८८२ म० नि० अट्ठ० १.८१; विसुद्धि० २.७३३) वुत्तो । अनिच्चादिवसेन कतसम्मसनस्स दिब्बाय... पे०... भयं सन्तासो न उप्पज्जतीति सम्बन्धो । भयविनोदनहेतु नाम विपस्सनाञाणेन कतसम्मसनता, तस्स, तेन वा सम्पादनत्थन्ति अत्थो । इधेवाति चतुत्थज्झानानन्तरमेव । " अपिचा "तिआदिना यथापाठं युत्ततरनयं दस्सेति । विपस्सनाय पवत्तं पामोज्जपीतिपस्सद्धिपरम्परागतसुखं विपस्सनासुखं । पाटियेक्कन्ति झानाभिञादीहि असम्मिस्सं विसुं भूतं सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं । तेनाह भगवा धम्मपदे -
“ यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं ।
लभती पीतिपामोज्जं, अमतं तं विजानत 'न्तिआदि ।। (ध० प० ३७४)
(२.२.२३६-७-२३६-७)
इधापि वृत्तं " इदम्पि खो महाराज सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं ... पे०... पणीततरञ्चा'ति, तस्मा पालिया संसन्दनतो इममेव नयं युत्तरन्ति वदन्ति । आदितोवाति अभिञानमादिम्हियेव ।
मनोमयिद्धिञाणकथावण्णना
२३६-७. मनोमयन्ति एत्थ पन मयसद्दो अपरपञ्ञत्तिविकारपदपूरणनिब्बत्तिआदीसु अनेकेस्वत्थेसु आगतो । इध पन निब्बत्तिअत्थेति दस्सेतुं “मनेन निब्बत्तित "न्ति वृत्तं । “अभिञमनेन निब्बत्तित "न्ति अत्थोति आचरियेनाति (दी० नि० टी० १.२३६, २३७) वृत्तं । विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.३९७) पन " अधिट्ठानमनेन निम्मितत्ता मनोमयन्ति आगतं, अभिञ्ञामनेन, अधिट्ठानमनेन चाति उभयथापि निब्बत्तत्ता उभयम्पेतं
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(२.२.२३६-७-२३६-७)
मनोमयिद्धिञाणकथावण्णना
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युत्तमेव | अङ्गं नाम हत्थपादादितंतंसमुदायं, पच्चङ्गं नाम कप्परजण्णुआदि तस्मिं तस्मिं समुदाये अवयवं । “अहीनिन्द्रिय"न्ति एत्थ परिपुण्णतायेव अहीनता, न तु अप्पणीतता, परिपुण्णभावो च चक्खुसोतादीनं सण्ठानवसेनेव । निम्मितरूपे हि पसादो नाम नत्थीति दस्सेतुं "सण्ठानवसेन अविकलिन्द्रिय"न्ति वुत्तं, इमिनाव तस्स जीवितिन्द्रियादीनम्पि अभावो वुत्तोति दट्ठब्बं । सण्ठानवसेनाति च कमलदलादिसदिससण्ठानमत्तवसेन, न रूपाभिघातारहभूतप्पसादादिइन्द्रियवसेन । “सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियन्ति वुत्तमेवत्थं समत्थेन्तो “इद्धिमता"तिआदिमाह | अविद्धकण्णोति कुलचारित्तवसेन कण्णालङ्कारपिळन्धनत्थं अविज्झितकण्णो, निदस्सनमत्तमेतं । तेनाह “सब्बाकारेही"ति, वण्णसण्ठानावयवविसेसादिसब्बाकारेहीति अत्थो । तेनाति इद्धिमता।
अयमेवत्थो पाळियम्पि विभावितोति आह "मुजम्हा ईसिकन्तिआदिउपमात्तयम्पि हि...पे०... वुत्त"न्ति । कत्थचि पन “मुजम्हा ईसिकन्तिआदि उपमामत्तं । यम्पि हि सदिसभावदस्सनत्थमेव वुत्त"न्ति पाठो दिस्सति । तत्थ "उपमामत्त"न्ति इमिना अत्यन्तरदस्सनं निवत्तेति, "यम्पि ही"तिआदिना पन तस्स उपमाभावं समत्थेति । नियतानपेक्खेन च यं-सद्देन "मुजम्हा ईसिक''न्तिआदिवचनमेव पच्चामसति । सदिसभावदस्सनत्थमेवाति सण्ठानतोपि वण्णतोपि अवयवविसेसतोपि सदिसभावदस्सनत्थंयेव । कथं सदिसभावोति वुत्तं "मुञ्जसदिसा एव ही"तिआदि । मुझं नाम तिणविसेसो, येन कोच्छादीनि करोन्ति । “पवाहेय्या''ति वचनतो अन्तो ठिता एव ईसिका अधिप्पेताति दस्सेति “अन्तो ईसिका होती"ति इमिना । ईसिकाति च कळीरो । विसुद्धिमग्गटीकायं पन "कण्ड'"न्ति (विसुद्धि० टी० २.३९९) वुत्तं । वट्टाय कोसियाति परिवठ्ठलाय असिकोसिया | पत्थटायाति पट्टिकाय । करडितब्बो भाजेतब्बोति करण्डो, पेळा | करडितब्बो जिगुच्छितब्बोति करण्डो, निम्मोकं। इधापि निम्मोकमेवाति आह “करण्डाति इदम्पी"तिआदि । विलीवकरण्डो नाम पेळा। कस्मा अहिकञ्चुकस्सेव नामं, न विलीवकरण्डकस्साति चोदनं सोधेति “अहिकञ्चुको ही"तिआदिना, स्वेव अहिना सदिसो, तस्मा तस्सेव नामन्ति वुत्तं होति। विसुद्धिमग्गटीकायं पन “करण्डायाति पेळाय, निम्मोकतोति च वदन्ती"ति (विसुद्धि० टी० २.३९९) वुत्तं । तत्थ पेळागहणं अहिना असदिसताय विचारेतब्बं ।
यज्जेवं “सेय्यथापि पन महाराज पुरिसो अहिं करण्डा उद्धरेय्या"ति पुरिसस्स करण्डतो अहिउद्धरणूपमाय अयमत्थो विरुज्झेय्य । न हि सो हत्थेन ततो उद्धरितुं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
सक्काति अनुयोगेनाह " तत्था " तिआदि । " उद्धरेय्या "ति हि अनियमवचनेपि हत्थेन उद्धरणस्सेव पाकटत्ता तंदस्सनमिव जातं । तेनाह " हत्थेन उद्धरमानो विय दस्सितो "ति । “अयञ्ही "तिआदि चित्तेन उद्धरणस्स हेतुदस्सनं । अहिनो नाम पञ्चसु ठानेसु सजातिं नातिवत्तन्ति उपपत्तियं, चुतियं, विस्सट्ठनिद्दोक्कमने, समानजातिया मेथुनपटिसेवने, जिण्णतचापनयनेति वृत्तं "सजातियं ठितो 'ति । उरगजातियमेव ठितो पजहति, न नागिद्धिया अञ्ञजातिरूपोति अत्थो । इदहि महिद्धिके नागे सन्धाय वृत्तं । सरीरं खादयमानं वियाति अत्तनोयेव तचं अत्तनो सरीरं खादयमानं विय। पुराणतचं जिगच्छन्तोति जिणताय कत्थचि मुत्तं कत्थचि ओलम्बितं जिण्णतचं जिगुच्छन्तो । चतूहीति " सजातियं ठितो, निस्साय, थामेन, जिगुच्छन्तो 'ति यथावुत्तेहि चतूहि कारणेहि । ततो कञ्चुकतो । अञ्ञेनाति अत्ततो अञ्ञेन । चित्तेनाति पुरिसस्स चित्तेनेव न हत्थेन । सेय्यथापि नाम पुरिसो अहिं पस्सित्वा “ अहो वताहं इमं अहिं कञ्चुकतो उद्धरेय्यन्ति अहिं करण्डा चित्तेन उद्धरेय्य तस्स एवमस्स " अयं अहि, अयं करण्डो, अञ्ञो अहि, अञ्ञ करण्डो, करण्डा त्वेव अहि उब्भतो "ति, एवमेव... पे०... सो इमम्हा काया अञ्ञं कायं अभिनिम्मिनाति...पे०... अहीनिन्द्रियन्ति अयमेत्थ अधिप्पायो ।
इद्विविधञाणादिकथावण्णना
२३९. भाजनादिविकतिकिरियानिस्सयभूता सुपरिकम्मकतमत्तिकादयो विय विकुब्बनकिरियानिस्सयभावतो इद्धिविधत्रणं दट्ठब्बं ।
(२.२.२३९ - २४३)
२४१. पुब्बे नीवरणप्पहानवारे विय कन्तारग्गहणं अकत्वा केवलं अद्धानमग्गग्गहणं खेममग्गदस्सनत्थं । कस्मा पन खेममग्गस्सेव दस्सनं, न कन्तारमग्गस्स, ननु उपमादस्सनमत्तमेतन्ति चोदनं परिहरन्तो " यस्मा "तिआदिमाह । "अप्पटिभयञ्ही "तिआदि पन खेममग्गस्सेव गहणकारणदस्सनं । वातातपादिनिवारणत्थं सीसे साटकं कत्वा । तथा तथा पन परिपुण्णवचनं उपमासम्पत्तिया उपमेय्यसम्पादनत्थं, अधिप्पेतस्स च उपमेय्यत्थस्स सुविञ्ञपनत्थं हेतुदाहरणभेद्यभेदकादिसम्पन्नवचनेन च विञ्जूजातिकानं चित्ताराधनत्थन्ति वेदितब्बं । एवं सब्बत्थ । सुखं ववत्थपेतीति अकिच्छं अकसिरेन सल्लक्खेति, परिच्छिन्दति
च ।
२४३. मन्दो उत्तानसेय्यकदारकोपि "दहरो 'ति वुच्चतीति ततो विसेसनत्थं
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(२.२.२४५-२४५)
इद्धिविधञाणादिकथावण्णना
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"युवा"ति वुत्तन्ति मन्त्वा युवसद्देन विसेसितब्बमेव दहरसद्दस्स अत्थं दस्सेतुं "तरुणो"ति वुत्तं । तथा युवापि कोचि अनिच्छनको, अनिच्छनतो च अमण्डनजातिकोति ततो विसेसनत्थं “मण्डनजातिको''तिआदि वुत्तन्ति मन्त्वा मण्डनजातिकादिसद्देन विसेसितब्बमेव युवसद्दस्स अत्थं दस्सेतुं “योब्बनेन समन्नागतो"ति वुत्तं । पाळियहि यथाक्कमं पदत्तयस्स विसेसितब्बविसेसकभावेन वचनतो तथा संवण्णना कता, इतरथा एककेनापि पदेन अधिप्पेतत्थाधिगमिका सपरिवारा संवण्णनाव कातब्बा सियाति । “मण्डनपकतिको''ति वुत्तमेव विवरितुं “दिवसस्सा"तिआदिमाह । कणिकसद्दो दोसपरियायो, दोसो च नाम काळतिलकादीति दस्सेति “काळतिलका"तिआदिना। काळतिलप्पमाणा बिन्दवो काळतिलकानि, काळा वा कम्मासा, ये “सासपबीजिका''तिपि वुच्चन्ति । तिलप्पमाणा बिन्दवो तिलकानि। वङ्गं नाम वियङ्गं विपरिणामितमङ्गं । योब्बन्नपीळकादयो मुखदूसिपीळका, ये "खरपीळका" तिपि वुच्चन्ति । मुखनिमित्तन्ति मुखच्छायं । मुखे गतो दोसो मुखदोसो। लक्खणवचनमत्तमेतं मुखे अदोसस्सपि पाकटभावस्स अधिप्पेतत्ता, यथा वा मुखे दोसो, एवं मुखे अदोसोपि मुखदोसोति सरलोपेन वुत्तो सामञनिद्देसतोपि अनेकत्थस्स विज्ञातब्बत्ता, पिसद्दलोपेन वा अयमत्थो वेदितब्बो। अवुत्तोपि हि अत्थो सम्पिण्डनवसेन वुत्तो विय विज्ञायति, मुखदोसो च मुखअदोसो च मुखदोसोति एकदेससरूपेकसेसनयेनपेत्थ अत्थो दट्ठब्बो । एवहि अत्थस्स परिपुण्णताय “परेसं सोळसविधं चित्तं पाकटं होती''ति वचनं समत्थितं होति । तेनेतं वुच्चति -
"वत्तब्बस्सावसिट्ठस्स, गाहो निदस्सनादिना । अपिसद्दादिलोपेन, एकसेसनयेन वा ।।
असमाने सद्दे तिधा, चतुधा च समानके । सामचनिद्देसतोपि, वेदितब्बो विभाविना''ति ।।
“सरागं वा चित्त''न्तिआदिना पाळियं वुत्तं सोळसविधं चित्तं ।
२४५. पुब्बेनिवासबाणूपमायन्ति पुब्बेनिवासञाणस्स, पुब्बेनिवाससाणे वा दस्सिताय उपमाय । कस्मा पन पाळियं गामत्तयमेव उपमाने गहितन्ति चोदनं सोधेतुं "तं दिवस"न्तिआदि वुत्तं । तं दिवसं कतकिरिया नाम पाकतिकसत्तस्सापि येभुय्येन पाकटा होति । तस्मा तं दिवसं गन्तुं सक्कुणेय्यं गामत्तयमेव भगवता गहितं, न तदुत्तरीति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२४७-२४७)
अधिप्पायो। किञ्चापि पाळियं तंदिवसग्गहणं नस्थि, गामत्तयग्गहणेन पन तदहेव कतकिरिया अधिप्पेताति मन्त्वा अट्ठकथायं तंदिवसग्गहणं कतन्ति दट्टब्बं । तंदिवसगतगामत्तयग्गहणेनेव च महाभिनीहारेहि अञसम्पि पुब्बेनिवासञाणलाभीनं तीसुपि भवेसु कतकिरिया येभुय्येन पाकटा होतीति दीपितन्ति दट्टब्बं । एतदत्थम्पि हि गामत्तयग्गहणन्ति । तीसु भवेसु कतकिरियायाति अभिसम्परायेसु पुब्बे दिठ्ठधम्मे पन इदानि, पुब्बे च कतकिच्चस्स।
२४७. पाळियं रथिकाय वीथिं सञ्चरन्तेति अञ्जाय रथिकाय अनं रथिं सञ्चरन्तेति अत्थो, तेन अपरापरं सञ्चरणं दस्सितन्ति आह "अपरापरं सञ्चरन्ते"ति, तंतंकिच्चवसेन इतो चितो च सञ्चरन्तेति वुत्तं होति, अयमेवत्थो रथिवीथिसद्दानमेकत्थत्ता । सिङ्घाटकम्हीति वीथिचतुक्के। पासादो विय भिक्खुस्स करजकायो दट्ठब्बो तत्थ पतिट्ठितस्स दट्ठब्बदस्सनसिद्धितो । मंसचक्खुमतो हि दिब्बचक्खुसमधिगमो । यथाह "मंसचक्खुस्स उप्पादो, मग्गो दिब्बस्स चक्खुनो'"ति (इतिवु० ६१)। चक्खुमा पुरिसो विय अयमेव
वं पत्वा ठितो भिक्ख ददब्बस्स दस्सनतो। गेहं पविसन्तो. ततो निक्वमन्तो विय च मातुकुच्छिं पटिसन्धिवसेन पविसन्तो, ततो च विजातिवसेन निक्खमन्तो मातुकुच्छिया गेहसदिसत्ता । तथा हि वुत्तं “मातरं कुटिकं ब्रूसि, भरियं ब्रूसि कुलावक''न्ति (सं० नि० १.१.१९)। अयं अट्ठकथामुत्तको नयो - गेहं पविसन्तो विय अत्तभावं उपपज्जनवसेन
ओक्कमन्तो, गेहा निक्खमन्तो विय च अत्तभावतो चवनवसेन अपक्कमन्तो अत्तभावस्स गेहसदिसत्ता । वुत्तहि “गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसी''ति (ध० प० १५४) ।
अपरापरं सञ्चरणकसत्ताति पुनप्पुनं संसारे परिब्भमनकसत्ता। अब्भोकासद्वानेति अज्झोकासदेसभूते । मज्झेति नगरस्स मज्झभूते सिङ्घाटके। तत्थ तत्थाति तस्मिं तस्मिं भवेकदेसे । निब्बत्तसत्ताति उप्पज्जमानकसत्ता । इमिना हि तस्मिं तस्मिं भवे जातसंवद्धे सत्ते वदति, “अपरापरं सञ्चरणकसत्ता'ति पन एतेन तथा अनियमितकालिके साधारणसत्ते । एवहि तेसं यथाक्कम सञ्चरणकसन्निसिन्नकजनोपमता उपपन्ना होतीति । तीसु भवेसु निब्बत्तसत्तानं आविभूतकालोति एत्थ पन वुत्तप्पकारानं सब्बेसम्पि सत्तानं अनियमतो गहणं वेदितब्बं ।
ननु चायं दिब्बचक्खुकथा, अथ कस्मा “तीसु भवेसूति चतुवोकारभवस्सापि सङ्गहो कतो । न हि सो अरूपधम्मारम्मणोति अनुयोगं परिहरन्तो "इदञ्चा"तिआदिमाह ।
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( २.२.२४८ - २४८)
आसवक्खयञाणकथावण्णना
तत्थ " इदन्ति तीसु भवेसु निब्बत्तसत्तानन्ति इदं वचन "न्ति ( दी० नि० टी० १.२४७) अयमेत्थ आचरियस्स मति, एवं सति अट्ठकथाचरियेहि अट्ठकथायमेव यथावुत्तो अनुयोगो परिहरितोति । अयं पनेत्थ अम्हाकं खन्ति - ननु चायं दिब्बचक्खुकथा, अथ कस्मा “दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने ''तिआदिना अविसेसतो चतुवोकारभवूपगस्सापि सङ्गहो कतो । न हि सो अरूपधम्मारम्मणोति अनुयोगं परिहरन्तो " इदञ्चा "ति आदिमाह । तत्थ इदन्ति “सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने’तिआदिवचनं । एवहि सति अट्ठकथाचरियेहि पाळियमेव यथावत्तो अनुयोगो परिहरितोति । यदग्गेन सो पाळियं परिहरितो, तदग्गेन अट्ठकथायम्पि तस्सा अत्थवण्णनाभावतो | देसनासुखत्थमेवाति केवलं देसनासुखत्थं एव अविसेसेन वुत्तं, न पन चतुवोकारभवूपगानं दिब्बचक्खुस्स आविभावसभावतो । “ठपेत्वा अरूपभवन्ति वा " द्वीसु भवेसू "ति वा सत्ते पस्सति कामावचरभवतो, रूपावचरभवतो च चवमानेति वा कामावचरभवे, रूपावचरभवे च उपपज्जमानेति वा वुच्चमाना हि देसना यथारहं भेद्यभेदकादिविभावनेन सुखासुखावबोधा च न होति, अविसेसेन पन एवमेव वच्चमाना सुखासुखावबोधा च । देसेतुं, अवबोधेतुञ्च सुकरतापयोजनहि "देसनासुखत्थ "न्ति वृत्तं । कस्माति आह “आरुप्पे... पे०... नत्थी "ति, दिब्बचक्खुगोचरभूतानं रूपधम्मानमभावतोति तं होति ।
आसवक्खयञाणकथावण्णना
२४८. इध विपस्सनापादकं चतुत्थज्झानचित्तं वेदितब्बं न लोकियाभिञ्ञासु विय अभिञ्ञापादकं । विपस्सनापादकन्ति च विपस्सनाय पदट्ठानभूतं, विपस्सना च नामेसा तिविधा विपस्सकपुग्गलभेदेन महाबोधिसत्तानं विपस्सना, पच्चेकबोधिसत्तानं विपस्सना, सावकानं विपस्सना चाति । तत्थ महाबोधिसत्तानं पच्चेकबोधिसत्तानञ्च विपस्सना चिन्तामयञाणसम्बन्धिका सयम्भुञाणभूता, सावकानं पन सुतमयञाणसम्बन्धिका परोपदेससम्भूता । सा “ठपेत्वा नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं अवसेसरूपारूपज्झानानं अञ्ञतरतो वुट्ठाया 'तिआदिना अनेकधा, अरूपमुखवसेन चतुधातुववत्थाने वृत्तानं तेसं तेसं धातुपरिग्गहमुखानञ्च अञ्ञतरमुखवसेन अनेकधा च विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.६६४) नानानयतो विभाविता, महाबोधिसत्तानं पन चतुवीसतिकोटिसतसहस्समुखेन पभेदगमनतो नानानयं सब्बञ्जुतञ्ञाणसन्निस्सयस्स अरियमग्गत्राणस्स अधिट्ठानभूतं पुब्बभागञणगब्भं गहान्तं परिपाकं गच्छन्तं परमगम्भीरं सहसुखुमतरं अनञ्ञसाधारणं विपस्सनाञाणं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
होति, यं अट्ठकथासु “महावजिरञाण' "न्ति वुच्चति, यस्स च पवत्तिविभागेन चतुवीसतिकोटिसतसहस्सप्पभेदस्स पादकभावेन समापज्जियमाना चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससङ्ख्या देवसिकं सत्थु वळञ्जनसमापत्तियो वुच्चन्ति । स्वायं बुद्धानं विपस्सनाचारो परमत्थमञ्जुसायं विसुद्धिमग्गवण्णनायं (विसुद्धि० टी० १.१४४) उद्देसतो आचरियेन दस्सितो, ततो सो अत्थिकेहि गहेतब्बो । इध पन सावकानं विपस्सनाव अधिप्पेता ।
“आसवानं खयत्राणाया " ति इदं किरियापयोजनभूते तदत्थे सम्पदानवचनं, तस्मा असतिपि पयोजनवाचके पयोजनवसेनेव अथ वेदितब्बति आह “खयत्राणनिब्बत्तनत्थाया "ति । एवमीदिसेसु । निब्बानं, अरहत्तमग्गो च उक्कट्ठनिसेन इध खयो नाम, तत्थ जाणं खयत्राणं, तस्स निब्बत्तनसङ्घातो अत्थो पयोजनं, तदत्थायाति अथ । खेति पापधम्मे समुच्छिन्दतीति खयो, मग्गो । सो पन पापक्खयो आसवक्खयेन विना नत्थि, तस्मा "खये आण "न्ति (ध० स० सुत्तन्तदुकमातिका १४८) एत्थ खयग्गहणेन आसवक्खयोव वृत्तोति दस्सेति "आसवानं खयो” ति इमिना । अनुप्पादे आणन्ति आसवानमनुप्पादभूते अरियफले जाणं । खीयिंसु आसवा एत्थाति खयो, फलं । समितपापताय समणो, समितपापता च निप्परियायतो अरहत्तफलेनेवाति आह “आसवानं खया समणो होतीति एत्थ फल "न्ति । खयाति च खीणत्ताति अत्थो । खीयन्ति आसवा एत्थाति खयो, निब्बानं । "आसवक्खया "ति पन समासवसेन द्विभावं कत्वा वृत्तत्ता “ आसवानं खयो 'ति पदस्स अत्युद्धारे आसवक्खयपदग्गहणं ।
(२.२.२४८-२४८)
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" परवज्जानुपस्सिस्सा "ति आदिगाथा धम्मपदे ( ध० प० २५३) । तत्थ उज्झानसञ्ञिनोति गरहसञ्ञिनो। अराति दूरा । " अरा सिङ्घामि वारिज' न्तिआदीसु (सं० नि० १.१.२३४; जा० १.६.११६) विय हि दूरत्थोयं निपातो । " आरा" तिपि पाठो । अरासद्दो विय आरासद्दोपि दूरत्थे एको निपातोति वेदितब्बो । तदेव हि पदं सद्दसत्थे उदाहटं । कामञ्च धम्मपदट्ठकथायं 'अरहत्तमग्गसङ्घाता आरा दूरं गतोव होती 'ति (ध० प० अट्ठ० २.२५३) वुत्तं, तथापि आसववड्ढिया सङ्घारे वड्ढेन्तो विसङ्घारतो सुविदूरदूरो, तस्मा "आरा सो आसवक्खया " ति एत्थ आसवक्खयपदं विसङ्खाराधिवचनम्पि सम्भवतीति आह " निब्बान "न्ति । खयनं खयो, आसवानं खणनिरोधो । सेसं तस्स परियायवचनं । भङ्गो आसवानं खयोति वृत्तोति योजना । इध पन निब्बानम्पि मग्गोपि अविनाभावतो । न हि निब्बानमनारब्भ मग्गेनेव आसवानं खयो होतीति ।
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(२.२.२४८-२४८)
आसवक्खयजाणकथावण्णना
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तन्निनन्ति तस्मिं आसवानं खयाणे निन्नं । सेसं तस्सेव वेवचनं । पाळियं इदं दुक्खन्ति दुक्खस्स अरियसच्चस्स परिच्छिन्दित्वा, अनवसेसेत्वा च तदा तस्स भिक्खुनो पच्चक्खतो गहितभावदस्सनन्ति दस्सेतुं "एत्तक"न्तिआदि वुत्तं । तत्थ हि एत्तकं दुक्खन्ति तस्स परिच्छिज्ज गहितभावदस्सनं । न इतो भिय्योति अनवसेसेत्वा गहितभावदस्सनं । तेनाह "सब्बम्पि दुक्खसच्च"न्तिआदि । सरसलक्खणपटिवेधवसेन पजाननमेव यथाभूतं पजाननं नामाति दस्सेति "सरसलक्खणपटिवेधेना"ति इमिना। रसोति सभावो रसितब्बो जानितब्बोति कत्वा, अत्तनो रसो सरसो, सो एव लक्खणं, तस्स असम्मोहतो पटिविज्झनेनाति अत्थो । असम्मोहतो पटिविज्झनञ्च नाम यथा तस्मिं आणे पवत्ते पच्छा दुक्खसच्चस्स सरूपादिपरिच्छेदे सम्मोहो न होति, तथा तस्स पवत्तियेव । तेन वुत्तं "यथाभूतं पजानाती'ति। "निब्बत्तिक"न्ति इमिना “दुक्खं समुदेति एतस्माति दुक्खसमुदयो"ति निब्बचनं दस्सेति । तदुभयन्ति दुक्खं, दुक्खसमुदयो च । यं ठानं पत्वाति यं निब्बानं मग्गस्स आरम्मणपच्चयढेन कारणभूतं आगम्म । ठानन्ति हि कारणं वुच्चति तिट्ठति एत्थ फलं तदायत्ततायाति कत्वा। तदुभयं पत्वाति च तदुभयवतो पुग्गलस्स तदुभयस्स पत्ति विय वुत्ता। पुग्गलस्सेव हि आरम्मणकरणवसेन निब्बानप्पत्ति, न तदुभयस्स। अपिच पत्वाति पापुणनहेतु, पुग्गलस्स आरम्मणकरणवसेन समापज्जनतोति अत्थो । असमानकत्तुके विय हि समानकत्तुकेपि त्वापच्चयस्स हेत्वत्थे पवत्ति सद्दसत्थेसु पाकटा । अप्पवत्तीति अप्पवत्तिनिमित्तं “न पवत्तति तदुभयमेतेना''ति कत्वा, अप्पवत्तिहानं वा “न पवत्तति तदुभयमेत्था"ति कत्वा, अनेन च “दुक्खं निरुज्झति एत्थ, एतेनाति वा दुक्खनिरोधो"ति निब्बचनं दस्सेति, दुक्खसमुदयस्स पन गहणं तंनिब्बत्तकस्स निरुज्झनतो तस्सापि निरुज्झनदस्सनत्थन्ति दट्टब् । निब्बानपदेयेव त-सद्दो निवत्ततीति अयं सद्दो पुन वुत्तो । सब्बनामिकहि पदं वुत्तस्स वा लिङ्गस्स गाहकं, वुच्चमानस्स वा । तस्साति दुक्खनिरोधस्स । सम्पापकन्ति सच्छिकरणवसेन सम्मदेव पापकं, एतेन च "दुक्खनिरोधं गमयति, गच्छति वा एतायाति दुक्खनिरोधगामिनी, सायेव पटिपदा दुक्खनिरोधगामिनिपटिपदा"ति निब्बचनं दस्सेति ।
किलेसवसेनाति आसवसङ्घातकिलेसवसेन । तदेव आसवपरियायेन दस्सेन्तो पुन आह, तस्मा न एत्थ पुनरुत्तिदोसोति अधिप्पायो । परियायदेसनाभावो नाम हि आवेणिको बुद्धधम्मोति हेट्ठा वुत्तोवायमत्थो । ननु च आसवानं दुक्खसच्चपरियायोव अस्थि, न सेससच्चपरियायो, अथ कस्मा सरूपतो दस्सितसच्चानियेव किलेसवसेन परियायतो पुन दस्सेन्तो एवमाहाति वुत्तन्ति ? सच्चं, तंसम्बन्धत्ता पन सेससच्चानं तंसमुदयादिपरियायोपि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२४८-२४८)
लब्भतीति कत्वा एवं वुत्तन्ति वेदितब्बं । दुक्खसच्चपरियायभूतआसवसम्बन्धानि हि आसवसमुदयादीनीति, सच्चानि दस्सेन्तोतिपि योजेतब्बं । “आसवानं खयत्राणाया''ति आरद्धत्ता चेत्थ आसवानमेव गहणं, न सेसकिलेसानं तथा अनारद्धत्ताति दट्ठब्बं । तथा हि "कामासवापि चित्तं विमुच्चती"तिआदिना (दी० नि० १.२४८; म० नि० १.४३३; ३.१९) आसवविमुत्तसीसेनेव सब्बकिलेसविमुत्ति वुत्ता। "इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाती''तिआदिना मिस्सकमग्गोव इध कथितो लोकियविपस्सनाय लोकुत्तरमग्गस्स मिस्सकत्ताति वुत्तं "सह विपस्सनाय कोटिप्पत्तं मग्गं कथेसी"ति | "जानतो पस्सतो''ति इमिना तयोपि परिञासच्छिकिरियाभावनाभिसमया वुत्ता चतुसच्चपजाननाय एव चतुकिच्चसिद्धितो, पहानाभिसमयो पन पारिसेसतो “विमुच्चती"ति इमिना वुत्तोति आह "मग्गक्खणं दस्सेती"ति | चत्तारि हि किच्चानि चतुसच्चपजाननाय एव सिद्धानि । यथाह "तं खो पनिदं दुक्खं अरियसच्चं परिञातन्ति मे भिक्खवे पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्टुं उदपादी''तिआदि (सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १५; पटि० म० २.२९) । अयं अट्ठकथामुत्तको नयो - जानतो पस्सतोति च हेतुनिद्देसो, “जाननहेतु पस्सनहेतु कामासवापि चित्तं विमुच्चती''तिआदिना योजना | कामञ्चेत्थ जाननपस्सनकिरियानं, विमुच्चनकिरियाय च समानकालता, तथापि धम्मानं समानकालिकानम्पि पच्चयपच्चयुप्पन्नता सहजातादिकोटिया लब्भतीति, हेतुगब्भविसेसनतादस्सनमेतन्तिपि वदन्ति ।
भवासवग्गहणेन चेत्थ भवरागस्स विय भवदिट्ठियापि समवरोधोति दिट्ठासवस्सापि सङ्गहो दट्टब्बो, अधुना पन “दिठ्ठासवापि चित्तं विमुच्चती"ति कत्थचि पाठो दिस्सति, सो न पोराणो, पच्छा पमादलिखितोति वेदितब्बो । भयभेरवसुत्तसंवण्णनादीसु (म० नि० अट्ठ० १.५४) अनेकासुपि तथैव संवण्णितत्ता। एत्थ च किञ्चापि पाळियं सच्चपटिवेधी अनियमितपुग्गलस्स अनियमितकालवसेन वुत्तो, तथापि अभिसमयकाले तस्स पच्चुप्पन्नतं उपादाय “एवं जानतो एवं पस्सतो''ति वत्तमानकालनिद्देसो कतो, सो च कामं कस्सचि मग्गक्खणतो परं यावज्जतना अतीतकालिको एव, सब्बपठमं पनस्स अतीतकालिकत्तं फलक्खणेन वेदितब्बन्ति आह "विमुत्तस्मिन्ति इमिना फलक्खण"न्ति । पच्चवेक्खणाणन्ति फलपच्चवेक्खणाणं तथा चेव वुत्तत्ता। तग्गहणेन पन तदविनाभावतो सेसानि निरवसेसानि गहेतब्बानि, एकदेसानि वा अपरिपुण्णायपि पच्चवेक्खणाय सम्भवतो । "खीणा जाती"तिआदीहि पदेहि "नापरं इत्थत्ताया"ति पदपरियोसानेहि । तस्साति पच्चवेक्खणञाणस्स | भूमिन्ति पवत्तिट्ठानं । ननु च “विमुत्तस्मिं विमुत्तन्ति वुत्तं फलमेव तस्स आरम्मणसङ्खाता भूमि, अथ कथं “खीणा जाती"तिआदीहि तस्स भूमिदस्सनन्ति
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(२.२.२४८-२४८)
आसवक्खयजाणकथावण्णना
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चोदनं सोधेतुं “तेन ही"तिआदि वुत्तं । यस्मा पन पहीनकिलेसपच्चवेक्खणेन विज्जमानस्सापि कम्मस्स आयति अप्पटिसन्धिकभावतो “खीणा जातीति पजानाति, यस्मा च मग्गपच्चवेक्खणादीहि “वुसितं ब्रह्मचरिय''न्तिआदीनि पजानाति, तस्मा “खीणा जाती"तिआदीहि तस्स भूमिदस्सनन्ति वुत्तं होति । “तेन आणेना''ति हि यथारुततो, अविनाभावतो च गहितेन पञ्चविधेन पच्चवेक्खणजाणेनाति अत्थो ।
“खीणा जाती''ति एत्थ सोतुजनानं सुविज्ञापनत्थं परम्मुखा विय चोदनं समुट्ठापेति "कतमा पना"तिआदिना । येन पनाधिप्पायेन चोदना कता, तदधिप्पायं पकासेत्वा परिहारं वत्तुकामो “न तावस्सा"तिआदिमाह । “न ताव...पे०... विज्जमानत्ता''ति वक्खमानमेव हि अत्थं मनसि कत्वा अयं चोदना समुट्ठापिता, तत्थ न तावस्स अतीता जाति खीणाति अस्स भिक्खुनो अतीता जाति, न ताव मग्गभावनाय खीणा । तत्थ कारणमाह "पुब्बेव खीणत्ता"ति, मग्गभावनाय पुरिमतरमेव निरुज्झनवसेन खीणत्ताति अधिप्पायो। न अनागता अस्स जाति खीणा मग्गभावनायाति योजना। तत्थ कारणमाह "अनागते वायामाभावतो"ति, इदञ्च अनागतभावसामञ्जमेव गहेत्वा लेसेन चोदनाधिप्पायविभावनत्थं वदति, न अनागतविसेसं अनागते मग्गभावनाय खेपनपयोगाभावतोति अत्थो । विज्जमानेयेव हि पयोगो सम्भवति, न अविज्जमानेति वुत्तं होति । अनागतविसेसो पनेत्थ अधिप्पेतो, तस्स च खेपने वायामोपि लब्भतेव । तेनाह "या पन मग्गस्सा"तिआदि । अनागतविसेसोति च अभाविते मग्गे उप्पज्जनारहो अनन्तरजातिभेदो वुच्चति । न पच्चुप्पन्ना अस्स जाति खीणा मग्गभावनायाति योजना। तत्थ कारणमाह "विज्जमानत्ता"ति, एकभवपरियापन्नताय विज्जमानत्ताति अत्थो । तत्थ तत्थ भवे पठमाभिनिब्बत्तिलक्खणा हि जाति । "या पना'"तिआदिना पन मग्गभावनाय किलेसहेतुविनासनमुखेन अनागतजातिया एव खीणभावो पकासितोति दट्ठब्बं । एकचतुपञ्चवोकारभवेसूति भवत्तयग्गहणं वुत्तनयेन अनवसेसतो जातिया खीणभावदस्सनत्थं, पुब्बपदद्वयेपेत्थ उत्तरपदलोपो। एकचतुपञ्चक्खन्धप्पभेदाति एत्थापि एसेव नयो। “तं सो"तिआदि “कथञ्च नं पजानाती''ति चोदनाय सोधनावचनं । तत्थ तन्ति यथावुत्तं जाति। सोति खीणासवो भिक्खु । पच्चवेक्खित्वाति पजाननाय पुब्बभागे पहीनकिलेसपच्चवेक्खणदस्सनं । एवञ्च कत्वा पच्चवेक्खणपरम्पराय तथा पजानना सिद्धाति दट्ठब्बं । पच्चवेक्षणन्तरविभावनत्थमेव हि "जानन्तो पजानाती"ति वत्तमानवचनद्वयं वुत्तं, जानन्तो हुत्वा, जाननहेतु वा पजानाति नामाति अत्थो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२४८-२४८)
ब्रह्मचरियवासो नाम उक्कट्ठनिद्देसतो मग्गब्रह्मचरियस्स निब्बत्तनमेवाति आह "परिखुत्थ"न्ति, समन्ततो निरवसेसेन वसितं परिचिण्णन्ति अत्थो । कस्मा पनिदं सो अतीतकालवसेन पजानातीति अनुयोगेनाह "पुथुज्जनकल्याणकेन हि सद्धि"न्तिआदि | पुथुज्जनकल्याणकोपि हि हेट्ठा वुत्तलक्खणो सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नो नाम दक्खिणविभङ्गसुत्तादीसु (म० नि० ३.३७९) तथा एव वुत्तत्ता। वसन्ति नामाति वसन्ता एव नाम होन्ति, न वुत्थवासा । तस्माति वुत्थवासत्ता। ननु च “सो 'इदं दुक्ख''न्ति यथाभूतं पजानाती"तिआदिना पाळियं सम्मादिट्ठियेव वुत्ता, न सम्मासङ्कप्पादयो, अथ कस्मा "चतूसु सच्चेसु चतूहि मग्गेहि परिञापहानसच्छिकिरियाभावनावसेन सोळसविधं किच्चं निट्ठापित"न्ति अट्ठङ्गिकस्स मग्गस्स साधारणतो वुत्तन्ति ? सम्मासङ्कप्पादीनम्पि चतुकिच्चसाधनवसेन पत्तितो । सम्मादिट्ठिया हि चतूसु सच्चेसु परिञादिकिच्चसाधनवसेन पवत्तमानाय सम्मासङ्कप्पादीनम्पि सेसानं दुक्खसच्चे परिञाभिसमयानुगुणाव पवत्ति, इतरसच्चेसु च नेसं पहानाभिसमयादिवसेन पवत्ति पाकटा एवाति । दुक्खनिरोधमग्गेसु यथाक्कमं परिञासच्छिकिरियाभावनापि यावदेव समुदयपहानत्थाति कत्वा तदत्थेयेव तासं पक्खिपनेन “कतं करणीय'"न्ति पदस्स अधिप्पायं विभावेतुं "तेना"तिआदि वुत्तं । "दुक्खमूलं समुच्छिन्न"न्ति इमिनापि तदेव पकारन्तरेन विभावेति ।
कस्मा पनेत्थ “कतं करणीय"न्ति अतीतनिद्देसो कतोति आह "पुथुज्जनकल्याणकादयो"तिआदि। इमे पकारा इत्थं, तब्भावो इत्थत्तन्ति दस्सेति "इत्थभावाया"ति इमिना, आय-सद्दो च सम्पदानत्थे, तदत्थायाति अत्थो । ते पन पकारा अरियमग्गब्यापारभूता परिञादयो इधाधिप्पेताति वुत्तं "एवं सोळसकिच्चभावाया"ति । ते हि मग्गं पच्चवेक्खतो मग्गानुभावेन पाकटा हुत्वा उपट्ठहन्ति मग्गे पच्चवेक्खिते तंकिच्चपच्चवेक्खणायपि सुखेन सिद्धितो। एवं साधारणतो चतूसु मग्गेसु पच्चेकं चतुकिच्चवसेन सोळसकिच्चभावं पकासेत्वा तेसुपि किच्चेसु पहानमेव पधानं तदत्थत्ता इतरेसं परिञादीनन्ति तदेव विसेसतो पकासेतुं “किलेसक्खयभावाय वा"ति आह ।
अपिच पुरिमनयेन पच्चवेक्षणपरम्पराय पच्चवेक्खणविधिं दस्सेत्वा इदानि पधानत्ता पहीनकिलेसपच्चवेक्खणविधिमेव दस्सेतुं एवं वुत्तन्तिपि दट्टब्बं । दुतियविकप्पे अयं पकारो इत्थं, तब्भावो इत्थत्तं, आयसद्दो चेत्थ सम्पदानवचनस्स कारियभूतो निस्सक्कत्थेति दस्सेति "इत्थभावतो"ति इमिना । “इमस्मा एवं पकारा"ति पन वदन्तो पकारो नाम पकारवन्ततो अत्थतो भेदो नत्थि । यदि हि सो भेदो अस्स, तस्सेव सो पकारो न सिया,
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(२.२.२४९-२४९)
आसवक्खयजाणकथावण्णना
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तस्मा इत्थं-सद्दो पकारवन्तवाचको, अत्थतो पन अभेदेपि सति अवयवावयवितादिना भेदपरिकप्पनावसेन सिया किञ्चि भेदमत्थं, तस्मा इत्थत्तसद्दो पकारवाचकोति दस्सेति । अयमिध टीकायं, (दी० नि० टी० १.२४८) मज्झिमागमटीकाविनयटीकादीसु (सारत्थ० टी० १.१४) च आगतनयो ।
सद्दविदू पन पवत्तिनिमित्तानुसारेन एवमिच्छन्ति - अयं पकारो अस्साति इत्थं, पकारवन्तो। विचित्रा हि तद्धितवृत्ति | तस्स भावो इत्थत्तं, पकारो, इममत्थं दस्सेन्तो "इत्थभावतो इमस्मा एवं पकारा"ति आहाति । पठमविकप्पेपि यथारहं एस नयो । इदानि वत्तमानखन्धसन्तानाति सरूपकथनं । अपरन्ति अनागतं । "इमे पन पञ्चक्खन्धा परिञाता तिद्वन्ती"ति इदानि पाठो, “इमे पन चरिमकत्तभावसङ्घाता पञ्चक्खन्धा परिता तिद्वन्ती''ति पन मज्झिमागमविनयटीकादीसु, (सारत्थ० टी० १.१४) इध च टीकायं (दी० नि० टी० १.२४८) उल्लिङ्गितपाठो। तत्थ चरिमकत्तभावसङ्घाताति एकसन्ततिपरियापन्नभावेन पच्छिमकत्तभावकथिता । परिञाताति मग्गेन परिच्छिज्ज आता। तिद्वन्तीति अप्पतिट्ठा अनोकासा तिठ्ठन्ति । एतेन हि तेसं खन्धानं अपरिञामूलाभावेन अपतिट्ठाभावं दस्सेति । अपरिञामूलिका हि पतिट्टा, तदभावतो पन अप्पतिट्ठाभावो । यथाह "कबळीकारे चे भिक्खवे आहारे अस्थि रागो, अत्थि नन्दी, अस्थि तण्हा, पतिट्टितं तत्थ विज्ञाणं विरुळहन्तिआदि (सं० नि० १.२.६४; कथाव० २९६; महानि० ७) । तदुपमं विभावेति “छिन्नमूलका रुक्खा विया"ति इमिना, यथा छिन्नमूलका रुक्खा मूलाभावतो अप्पतिट्ठा अनोकासा तिट्ठन्ति, एवमेतेपि अपरिञामूलाभावतोति । अयमेत्थ ओपम्मसंसन्दना । चरिमकचित्तनिरोधेनाति परिनिब्बानचित्तनिरोधेन । अनुपादानोति अनिन्धनो । अपण्णत्तिकभावन्ति येसु खन्धेसु विज्जमानेसु तथा तथा परिकप्पनासिद्धा पञत्ति, तदभावतो तस्सापि धरमानकपत्तिया अभावेन अपञ्जत्तिकभावं गमिस्सन्ति । पण्णत्ति पञत्तीति हि अत्थतो एकं यथा “पचास पण्णासा''ति । पञआस पण्णादेसोति हि अक्खरचिन्तका वदन्ति ।
२४९. येभुय्येन संखिपति सङ्कुचितो भवतीति सङ्केपो, पब्बतमत्थकं । तन्हि पब्बतपादतो अनुक्कमेन बहुलं संखित्तं सङ्कुचितं होति । तेनाह "पब्बतमत्थके"ति, पब्बतसिखरेति अत्थो । अयं अट्ठकथामुत्तको नयो- सङ्क्षिपीयति पब्बतभावेन गणीयतीति सोपो, पब्बतपरियापन्नो पदेसो, तस्मिं पब्बतपरियापन्ने पदेसेति अत्थोति । अनाविलोति अकालुसियो, सा चस्स अनाविलता कद्दमाभावेन होतीति आह "निक्कद्दमो"ति । सपति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-२
अपदापि समाना गच्छतीति सिप्पि, खुद्दका सिप्पि सिप्पियो का - कारस्स य-कारं कत्वा, यो " मुत्तिको तिपि वुच्चति । सवति पसवतीति सम्बुको, यं “ जलसुत्ति, सङ्खलिका ति च वोहरन्ति । समाहारे येभुय्यतो नपुंसकपयोगोति वुत्तं “सिप्पियसम्बुक "न्ति । एवमीदिसेसु | सक्खराति मुट्ठिप्पमाणा पासाणा । कथलानीति कपालखण्डानि । समूहवाचकस्स घटासद्दस्स इत्थि लिङ्गस्सापि दिस्सनतो " गुम्ब"न्ति पदस्सत्थं दस्सेति " घटा" ति इमिना |
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कामञ्च “सिप्पियसम्बुकम्पि सक्खरकथलम्पि मच्छगुम्बम्पि तिट्ठन्तम्पि चरन्तम्पी ति एत्थ सक्खरकथलं तिट्ठतियेव, सिप्पियसम्बुकमच्छगुम्बानि चरन्तिपि तिट्ठन्तिपि, तथापि सहचरणनयेन सब्बानेव चरन्ति विय एवं वुत्तन्ति अत्थं दस्सेन्तो " तिट्ठन्तम्पि चरन्तम्पीति एत्था 'तिआदिमाह । तत्थ हि “सक्खरकथलं तिट्ठतियेवा"तिआदिना यथासम्भवमत्थं दस्सेति, " यथा पना" तिआदिना पन सहचरणनयं । पन- सद्दो अरुचिसंसूचने, तथापीति अत्थो । अन्तरन्तराति बहूनं गावीनमन्तरन्तरा ठितासु गावीसु विज्जमानासुपि । गावोति गावियो । इतरापीति ठितापि निसिन्नापि । चरन्तीति वुच्चन्ति सहचरणनयेन । तिट्ठन्तमेवाति आदीसु अयमधिप्पायो सिप्पियसम्बुकमच्छगुम्बानं चरणकिरियायपि योगतो ठानकिरियाय अनेकन्तत्ता एकन्ततो तिट्टन्तमेव न कदाचिपि चरन्तं सक्खरकथलं उपादाय सिप्पियसम्बुकम्पि मच्छगुम्बम्पि तिट्ठन्तन्ति वुत्तं, न तु तेसं ठानकिरियमुपादाय । ते पन चरणकिरियमुपादाय " चरन्तम्पी" ति पि सद्दलोपो हेत्थ दट्ठब्बो । इतरम्प द्वयन्ति सिप्पियसम्बुकमच्छगुम्बं पदवसेन एवं वृत्तं । इतरञ्च द्वयन्ति सिप्पियसम्बुकमच्छगुम्बमेव । चरन्तन्ति वुत्तन्ति एत्थापि तेसं ठानकिरियमुपादाय " तिट्ठन्तम्पीति पि- सद्दलोपो, एवमेत्थ अट्ठकथाचरियेहि सहचरणनयां दस्सितो, आचरियधम्मपालत्थेरेन पन यथालाभयपि । तथा हि वृत्तं " किं वा इमाय सहचरियाय, यथालाभग्गहणं पनेत्थ दट्ठब्बं । सक्खरकथलस्स हि वसेन तिट्ठन्तन्ति, सिप्पिसम्बुकस्स मच्छगुम्बस्स च वसेन तिट्ठन्तम्पि चरन्तम्पीति एवं योजना कातब्बा " ति ( दी० नि० टी० १.२४९) । अलब्भमानस्सापि अत्थस्स सहयोगीवसेन देसनामत्तं पति सहचरणनयो, साधारणतो देसितस्सापि अत्थस्स सम्भववसेन विवेचनं पति यथालाभनयोति उभयथापि युज्जति ।
एवम्पेत्थ वदन्ति - अट्ठकथायं “ सक्खरकथलं तिट्ठतियेव, इतरानि चरन्तिपि तिट्ठन्तिपीति इमिना यथालाभनयो दस्सितो यथासम्भवं अत्थस्स विवेचितत्ता, “ यथा पना 'तिआदिना पन सहचरणनयो अलब्भमानस्सापि अत्थस्स सहयोगीवसेन देसनामत्तस्स
(२.२.२४९-२४९)
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(२.२.२४९-२४९)
आसवक्खयाणकथावण्णना
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विभावितत्ताति, तदेतम्पि अनुपवज्जमेव अत्थस्स युत्तत्ता, अट्ठकथायञ्च तथा दस्सनस्सापि सम्भवतोति दट्ठबं । “तत्था"तिआदि उपमासंसन्दनं । तीरेति उदकरहदस्स तीरे । उदकरहदो च नाम कत्थचि समुद्दोपि वुच्चति "रहदोपि तत्थ गम्भीरो, समुद्दो सरितोदको''तिआदीसु (दी० नि० ३.२७८)। कत्थचि जलासयोपि “रहदोपि तत्थ धरणी नाम, यतो मेघा पवस्सन्ति, वस्सा यतो पतायन्ती''तिआदीसु, (दी० नि० ३.२८१) इधापि जलासयोयेव । सो हि उदकवसेन रहो चक्खुरहादिकं ददातीति उदकरहदो ओ-कारस्स अ-कारं कत्वा । सद्दविदू पन "उदकं हरतीति उदकरहदो निरुत्तिनयेना''ति वदन्ति ।
_ "एत्तावता"तिआदिना चतुत्थज्झानान्तरं दस्सितविपस्सनाआणतो पट्ठाय यथावुत्तत्थस्स सम्पिण्डनं । तत्थ एत्तावताति “पुन चपरं महाराज भिक्खु एवं समाहिते चित्ते...पे०... आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरती''तिआदिना एत्तकेन. एतपरिमाणवन्तेन वा वचनक्कमेन । विपस्सनााणन्ति जाणदस्सननामेन दस्सितं विपस्सनाजाणं, तस्स च विसुं गणनदस्सनेन हेट्ठा चतुत्थज्झानानन्तरं वत्तब्बताकारणेसु तीसु नयेसु ततियनयस्सेव युत्ततरभावोपि दीपितोति दट्ठब्बं । मनोमयञाणस्स इद्धिविधसमवरोधितभावे विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.३७९ आदयो) वुत्तेपि इध पाळियं विसुं देसितत्ता विसुं एव गहणं, तथा देसना च पाटियेक्कसन्दिट्ठिकसामञफलत्थाति दट्ठब् । अनागतंसञाणयथाकम्मूपगआणद्वयस्स पाळियं अनागतत्ता "दिब्बचक्खुवसेन निष्फन'"न्ति वुत्तं, तब्बसेन निप्फन्नत्ता तग्गहणेनेव गहितं तं आणद्वयन्ति वुत्तं होति । दिब्बचक्खुस्स हि अनागतंसाणं, यथाकम्मूपगजाणञ्चाति द्वेपि आणानि परिभण्डानि होन्तीति । दिब्बचक्खुत्राणन्ति चुतूपपातञाणनामेन दस्सितं दिब्बचक्खुजाणं ।
सब्बेसं पन दसन्नं जाणानं आरम्मणविभागस्स विसुद्धिमग्गे अनागतत्ता तत्थानागतञाणानं आरम्मणविभागं दस्सेतुं "तेस"न्तिआदि वुत्तं । तेसन्ति दसन्नं आणानं । तत्थाति तस्मिं आरम्मणविभागे, तेसु वा दससु आणेसु । भूमिभेदतो परित्तमहग्गतं, कालभेदतो अतीतानागतपच्चुप्पन्नं, सन्तानभेदतो अज्झत्तबहिद्धा चाति विपस्सनाजाणं सत्तविधारम्मणं। परित्तारम्मणादितिकत्तयेनेव हि तस्स आरम्मणविभागो, न मग्गारम्मणतिकेन । निम्मितरूपायतनमत्तमेवाति अत्तना निम्मितं रूपारम्मणमेव, अत्तना वा निम्मिते मनोमये काये विज्जमानं रूपायतनमेवातिपि युज्जति । इदहि तस्स जाणस्स अभिनिम्मियमाने मनोमये काये रूपायतनमेवारब्भ पवत्तनतो वुत्तं, न पन तत्थ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२५०-२५०)
गन्धायतनादीनमभावतो। न हि रूपकलापो गन्धायतनादिविरहितो अत्थीति सब्बथा परिनिप्फन्नमेव निम्मितरूपं । तेनाह "परित्तपच्चुप्पन्नबहिद्धारम्मण"न्ति, यथाक्कम भूमिकालसन्तानभेदतो तिबिधारम्मणन्ति अत्थो । निब्बानवसेन एकधम्मारम्मणम्पि समानं आसवक्खयाणं परित्तारम्मणादितिकवसेन तिविधारम्मणं दस्सेतुं "अप्पमाणबहिद्धानवत्तब्बारम्मण"न्ति वुत्तं । तहि परित्ततिकवसेन अप्पमाणारम्मणं, अज्झत्तिकवसेन बहिद्धारम्मणं, अतीततिकवसेन नवत्तब्बारम्मणञ्च होति ।।
__ उत्तरितरसद्दो, पणीततरसद्दो च परियायोति दस्सेति "सेलूतर"न्ति इमिना । रतनकूटं विय कूटागारस्स अरहत्तं कूटं उत्तमङ्गभूतं भगवतो देसनाय अरहत्तपरियोसानत्ताति आह "अरहत्तनिकूटेना'ति । देसनं निट्ठापेसीति तित्थकरमतहरविभाविनिं नानाविधकुहनलपनादिमिच्छाजीवविद्धंसिनि तिविधसीलालङ्कतपरमसल्लेखपटिपत्तिपरिदीपिनि झानाभिञादिउत्तरिमनुस्सधम्मविभूसिनिं चुद्दसविधमहासामञफलपटिमण्डितं अनञसाधारणं सामञफलदेसनं रतनागारं विय रतनकूटेन अरहत्तकूटेन निट्ठापेसि “विमुत्तस्मि''न्ति इमिना, अरहत्तफलस्स देसितत्ताति अत्थो।
अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२५०. एत्तावता भगवता देसितस्स सामञफलसुत्तस्स अत्थवण्णनं कत्वा इदानि धम्मसङ्गाहकेहि सङ्गीतस्स “एवं वुत्ते"तिआदिपाठस्सपि अत्थवण्णनं करोन्तो पठमं सम्बन्धं दस्सेतुं "राजा"तिआदिमाह । तत्थ तत्थाति तस्मिं तस्मिं सामञफले, सुत्तपदेसे वा । करणं कारो, साधु इति कारो तथा, “साधु भगवा, साधु सुगता''तिआदिना तं पवत्तेन्तो । आदिमज्झपरियोसानन्ति देसनाय आदिञ्च मज्झञ्च परियोसानञ्च । सक्कच्चं सादरं गारवं सुत्वा, “चिन्तेत्वाति एत्थ इदं पुब्बकालकिरियावचनं । इमे पञ्हे पुथू समणब्राह्मणे पुच्छन्तो अहं चिरं वत अम्हि, एवं पुच्छन्तोपि अहं थुसे कोट्टेन्तो विय कञ्चि सारं नालस्थन्ति योजना। तथा यो...पे०... विस्सज्जेसि, तस्स भगवतो गुणसम्पदा अहो वत। दसबलस्स गुणानुभावं अजानन्तो अहं वञ्चितो सुचिरं वत अम्हीति । वञ्चितोति च अज्ञाणेन वञ्चितो आवट्टितो, मोहेन पटिच्छादितो अम्हीति वुत्तं होति । तेनाह "दसबलस्स गुणानुभावं अजानन्तो"ति । सामञ्जजोतना हि विसेसे अवतिट्ठति । चिन्तेत्वा आविकरोन्तोति सम्बन्धो । उल्लङ्घनसमत्थायपि उब्बेगपीतिया अनुल्लङ्घनम्पि सियाति आह "पञ्चविधाय पीतिया फुटसरीरो'ति । फुटसरीरोति च फुसितसरीरोति अत्थो, न
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ब्यापितसरीरोति सब्बाय पीतिया अब्यापितत्ता। तन्ति अत्तनो पसादस्स आविकरणं, उपासकत्तपवेदनञ्च । आरद्धं धम्मसङ्गाहकेहि ।
अभिक्कन्ताति. अतिक्कन्ता विगता, विगतभावो च खयो एवाति आह "खये दिस्सती'ति । तथा हि वुत्तं “निक्खन्तो पठमो यामो"ति । अभिक्कन्ततरोति अतिविय कन्ततरो मनोरमो, तादिसो च सुन्दरो भद्दको नामाति वुत्तं "सुन्दरे"ति ।
“को मे"तिआदि गाथा विमानवत्थुम्हि (वि० व० ८५७)। तत्थ कोति देवनागयक्खगन्धब्बादीसु कतमो । मेति मम । पादानीति पादे, लिङ्गविपरियायोयं । इद्धियाति ईदिसाय देविद्धिया । यससाति ईदिसेन परिवारेन, परिजनेन च । जलन्ति जलन्तो विज्जोतमानो | अभिक्कन्तेनाति अतिविय कन्तेन कमनीयेन, अभिरूपेनाति वुत्तं होति । वण्णेनाति छविवण्णेन सरीरवण्णनिभाय । सब्बा ओभासयं दिसाति सब्बा दसपि दिसा ओभासयन्तो। चन्दो विय, सूरियो विय च एकोभासं एकालोकं करोन्तो को वन्दतीति सम्बन्धो।
अभिरूपेति अतिरेकरूपे उळारवण्णेन सम्पन्नरूपे । अब्भानुमोदनेति अभिअनुमोदने अभिप्पमोदितभावे । किमत्थियं “अब्भानुमोदने"ति वचनन्ति आह "तस्मा'तिआदि । युत्तं ताव होतु अब्भानुमोदने, कस्मा पनायं द्विक्खत्तुं वुत्तोति चोदनाय सोधनामुखेन आमेडितविसयं निद्धारेति "भये कोधे"तिआदिना, इमिना सद्दलक्खणेन हेतुभूतेन एवं वुत्तो, इमिना च इमिना च विसयेनाति वुत्तं होति । “साधु साधु भन्ते''ति आमेडितवसेन अत्थं दस्सेत्वा तस्स विसयं निद्धारेन्तो एवमाहातिपि सम्बन्धं वदन्ति । तत्थ “चोरो चोरो, सप्पो सप्पो''तिआदीसु भये आमेडितं, “विज्झ विज्झ, पहर पहरा''तिआदीसु कोधे, “साधु साधू''तिआदीसु (सं० नि० १.२.१२७; २.३.३५; ३.५.१०८५) पसंसायं, "गच्छ गच्छ, लुनाहि लुनाही"तिआदीसु तुरिते, “आगच्छ आगच्छा"तिआदीसु कोतूहले, "बुद्धो बुद्धोति चिन्तेन्तो"तिआदीसु (बु० वं० २.४४) अच्छरे, “अभिक्कमथायस्मन्तो अभिक्कमथायस्मन्तो''तिआदीसु (दी० नि० ३.२०; अ० नि० ३.९.११) हासे, “कहं एकपुत्तक, कहं एकपुत्तका"तिआदीसु (सं० नि० १.२.६३) सोके, "अहो सुखं, अहो सुख''न्तिआदीसु (उदा० २०; दी० नि० ३.३०५) पसादे। चसद्दो अवुत्तसमुच्चयत्थो, तेन गरहा असम्मानादीनं सङ्गहो दट्टब्बो । “पापो पापो''तिआदीसु हि गरहायं, "अभिरूपक अभिरूपका''तिआदीसु असम्माने। एवमेतेसु नवसु, अञ्जेसु च विसयेसु
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आमेडितवचनं बुधो करेय्य, योजेय्याति अत्थो। आमेडनं पुनप्पुनमुच्चारणं, आमेडीयति वा पुनप्पुनमुच्चारीयतीति आमेडितं, एकस्सेवत्थस्स द्वत्तिक्खत्तुं वचनं । मेडिसद्दो हि उम्मादने, आपुब्बो तु द्वत्तिक्खत्तुमुच्चारणे वत्तति यथा “एतदेव यदा वाक्य-मामेडयति वासवो"ति ।
एवं आमेडितवसेन द्विक्खत्तुं वुत्तभावं दस्सेत्वा इदानि नयिदं आमेडितवसेनेव द्विक्खत्तुं वुत्तं, अथ खो पच्चेकमत्थद्वयवसेनपीति दस्सेन्तो “अथ वा"तिआदिमाह | आमेडितवसेन अत्थं दस्सेत्वा विच्छावसेनापि दस्सेन्तो एवमाहातिपि वदन्ति, तदयुत्तमेव ब्यापेतब्बस्स द्विक्खत्तुमवुत्तत्ता । ब्यापेतब्बस्स हि ब्यापकेन गुणकिरियादब्बेन ब्यापनिच्छाय द्वत्तिक्खत्तुं वचनं विच्छा यथा “गामो गामो रमणीयो''ति । तत्थ अभिक्कन्तन्ति अभिक्कमनीयं, तब्भावो च अतिइट्ठतायाति वुत्तं "अतिइट्ठ"न्तिआदि, पदत्तयञ्चेतं परियायवचनं । एत्थाति द्वीसु अभिक्कन्तसद्देसु । “अभिक्कन्त"न्ति वचनं अपेक्खित्वा नपुंसकलिङ्गेन वुत्तं, तं पन भगवतो वचनं धम्मदेसनायेवाति कत्वा “यदिदं भगवतो धम्मदेसना"ति आह, यायं भगवतो धम्मदेसना मया सुता, तदिदं भगवतो धम्मदेसनासङ्घातं वचनं अभिक्कन्तन्ति अत्थो । एवं पटिनिद्देसोपि हि अत्थतो अभेदत्ता युत्तो एव “यत्थ च दिन्नं महप्फलमाहू"तिआदीसु (वि० व० ८८८) विय । "अभिक्कन्त''न्ति वुत्तस्स वा अत्थमत्तदस्सनं एतं, तस्मा अत्थवसेन लिङ्गविभत्तिविपरिणामो वेदितब्बो, कारियविपरिणामवसेन चेत्थ विभत्तिविपरिणामता । वचनन्ति हेत्थ सेसो, अभिक्कन्तं भगवतो वचनं, यायं भगवतो धम्मदेसना मया सुता, सा अभिक्कन्तं अभिक्कन्ताति अत्थो । दुतियपदेपि “अभिक्कन्तन्ति पसादनं अपेक्खित्वा नपुंसकलिङ्गेन वुत्त''न्तिआदिना यथारहमेस नयो नेतब्बो ।
"भगवतो वचन"न्तिआदिना अत्थद्वयसरूपं दस्सेति। तत्थ दोसनासनतोति रागादिकिलेसदोसविद्धंसनतो। गुणाधिगमनतोति सीलादिगुणानं सम्पादनवसेन अधिगमापनतो । ये गुणे देसना अधिगमेति, तेसु “गुणाधिगमनतो''ति वुत्तेसुयेव गुणेसु पधानभूता गुणा दस्सेतब्बाति ते पधानभूते गुणे ताव दस्सेतुं "सद्धाजननतो पञ्जाजननतो"ति वुत्तं । सद्धापधाना हि लोकिया गुणा, पञापधाना लोकुत्तराति, पधाननिद्देसो चेस देसनाय अधिगमेतब्बेहि सीलसमाधिदुकादीहिपि योजनासम्भवतो। अझम्पि अत्थद्वयं दस्सेति "सात्थतो"तिआदिना। सीलादिअत्थसम्पत्तिया सात्थतो। सभावनिरुत्तिसम्पत्तिया सव्यञ्जनतो। सुविद्येय्यसद्दपयोगताय उत्तानपदतो। सण्हसुखुमभावेन
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दुब्बिधेय्यत्थताय गम्भीरत्थतो। सिनिद्धमुदुमधुरसद्दपयोगताय कण्णसुखतो। विपुलविसुद्धपेमनीयस्थताय हदयङ्गमतो। मानातिमानविधमनेन अनत्तुक्कंसनतो। थम्भसारम्भनिम्मद्दनेन अपरवम्भनतो। हिताधिप्पायप्पवत्तिया परेसं रागपरिळाहादिवूपसमनेन करुणासीतलतो। किलेसन्धकारविधमनेन पञ्जावदाततो। अवदातं, ओदातन्ति च अत्थतो एकं । करवीकरुतमञ्जुताय आपाथरमणीयतो। पुब्बापराविरुद्धसुविसुद्धताय विमद्दक्खमतो। आपाथरमणीयताय एव सुय्यमानसुखतो। विमद्दक्खमताय, हितज्झासयप्पवत्तिताय च वीमंसियमानहिततोति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो। आदिसद्देन पन संसारचक्कनिवत्तनतो, सद्धम्मचक्कप्पवत्तनतो, मिच्छावादविद्धंसनतो, सम्पावादपतिट्ठापनतो, अकुसलमूलसमुद्धरणतो, कुसलमूलसंरोपनतो, अपायद्वारविधानतो, सग्गमग्गद्वारविवरणतो, परियुट्ठानवूपसमनतो, अनुसयसमुग्घाटनतोति एवमादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो।
न केवलं पदद्वयेनेव, ततो परम्प चतूहि उपमाहीति पि-सद्दो सम्पिण्डनत्थो । "चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती"ति इदं “तेलपज्जोतं धारेय्या''ति चतुत्थउपमाय आकारमत्तदस्सनं, न पन उपमन्तरदस्सनन्ति आह "चतूहि उपमाही"ति । अधोमुखट्टपितन्ति केनचि अधोमुखं ठपितं । हेट्ठामुखजातन्ति सभावेनेव हेट्ठामुखं जातं । उग्घाटेय्याति विवटं करेय्य । “हत्थे गहेत्वा"ति समाचिक्खणदस्सनत्थं वुत्तं, “पुरत्थाभिमुखो, उत्तराभिमुखो वा गच्छा''तिआदिना वचनमत्तं अवत्वा “एस मग्गो, एवं गच्छा''ति हत्थे गहेत्वा निस्सन्देहं दस्सेय्याति वुत्तं होति । काळपक्खे चातुद्दसी काळपक्खचातुद्दसी। निरन्तररुक्खगहनेन एकग्घनो वनसण्डो घनवनसण्डो। मेघस्स पटलं मेघपटलं, मेघच्छन्नताति वुत्तं होति । निक्कुज्जितं उक्कुज्जेय्याति कस्सचिपि आधेय्यस्स अनाधारभूतं किञ्चि भाजनं आधारभावापादनवसेन उक्कुज्जेय्य उपरि मुखं ठपेय्य । हेट्ठामुखजातताय विमुखं, अधोमुखठ्ठपितताय असद्धम्मे पतितन्ति एवं पदद्वयं निक्कुज्जितपदस्स यथादस्सितेन अत्थद्वयेन यथारहं योजेतब्ब, न यथासङ्ख्यं । अत्तनो सभावेनेव हि एस राजा सद्धम्मविमुखो, पापमित्तेन पन देवदत्तेन पितुघातादीसु उय्योजितत्ता असद्धम्मे पतितोति । वुट्ठापेन्तेन भगवताति सम्बन्धो ।
"कस्सपस्स भगवतो"तिआदिना तदा रञा अवुत्तस्सापि अत्थापत्तिमत्तदस्सनं । कामञ्च कामच्छन्दादयोपि पटिच्छादका नीवरणभावतो, मिच्छादिट्ठि पन सविसेसं पटिच्छादिका सत्ते मिच्छाभिनिवेसवसेनाति आह "मिच्छादिट्ठिगहनपटिच्छन्न"न्ति । तेनाह भगवा “मिच्छादिठ्ठिपरमाहं भिक्खवे वज्जं वदामी'ति, [अ० नि० १.१.३१० (अत्थतो
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समान)] मिच्छादिविसङ्घातगुम्बपटिच्छन्नन्ति अत्थो । “मिच्छादिट्ठिगहनपटिच्छन्नं सासनं विवरन्तेना''ति वदन्तो सब्बबुद्धानं एकाव अनुसन्धि, एकंव सासनन्ति कत्वा कस्सपस्स भगवतो सासनम्पि इमिना सद्धिं एकसासनं करोतीति दट्टब् । अङ्गुत्तरट्ठकथादीसुपि हि तथा चेव वुत्तं, एवञ्च कत्वा मिच्छादिट्ठिगहनपटिच्छन्नस्स सासनस्स विवरणवचनं उपपन्नं होतीति ।
सब्बो अकुसलधम्मसङ्घातो अपायगामिमग्गो कुम्मग्गो कुच्छितो मग्गोति कत्वा । सम्मादिट्ठिआदीनं उजुपटिपक्खताय मिच्छादिट्ठिआदयो अट्ठ मिच्छत्तधम्मा मिच्छामग्गो मोक्खमग्गतो मिच्छा वितथो मग्गोति कत्वा । तेनेव हि तदुभयस्स पटिपक्खतं सन्धाय "सग्गमोक्खमग्गं आविकरोन्तेना"ति वुत्तं । सब्बो हि कुसलधम्मो सग्गमग्गो। सम्मादिट्ठिआदयो अट्ठ सम्मत्तधम्मा मोक्खमग्गो। सप्पिआदिसन्निस्सयो पदीपो न तथा उज्जलो, यथा तेलसन्निस्सयोति तेलपज्जोतग्गहणं । धारेय्याति धरेय्य, समाहरेय्य समादहेय्याति अत्थो । बुद्धादिरतनरूपानीति बुद्धादीनं तिण्णं रतनानं वण्णायतनानि । तेसं बुद्धादिरतनरूपानं पटिच्छादकस्स मोहन्धकारस्स विद्धंसकं तथा । देसनासङ्घातं पज्जोतं तथा । तदुभयं तुल्याधिकरणवसेन वियूहित्वा तस्स धारको समादहकोति अत्थेन "तप्पटिच्छादकमोहन्धकारविद्धंसकदेसनापज्जोतधारकेना"ति वुत्तं । एतेहि परियायेहीति यथावृत्तेहि निक्कुज्जितुक्कुज्जनपटिच्छन्नविवरणमग्गाचिक्खणतेलपज्जोतधारण सङ्घात चतुब्बिधोपमोपमितब्बप्पकारेहि, यथावुत्तेहि वा नानाविधकुहनलपनादिमिच्छाजीवविधमनादिविभावनपरियायेहि । तेनाह “अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो''ति ।
"एव"न्तिआदिना “एसाहन्तिआदिपाठस्स सम्बन्धं दस्सेति । पसन्नचित्ततायपसन्नाकारं करोति । पसन्नचित्तता च इमं देसनं सुत्वा एवाति अत्थं आपेतुं "इमाय देसनाया"तिआदि वुत्तं । इमाय देसनाय हेतुभूताय । पसन्नाकारन्ति पसन्नेहि साधुजनेहि कत्तब्बसक्कारं । सरणन्ति पटिसरणं | तेनाह "परायण"न्ति । परायणता पन अनत्थनिसेधनेन, अत्थसम्पादनेन चाति वुत्तं "अघस्स ताता, हितस्स च विधाता'ति । अघस्साति निस्सक्के सामिवचनं, पापतोति अत्थो । दुक्खतोतिपि वदन्ति केचि । तायति अवस्सयं करोतीति ताता। हितस्साति उपयोगत्थे सामिवचनं । विदहति संविधानं करोतीति विधाता। "इति इमिना अधिप्पायेना"ति वदन्तो “इतिसद्दो चेत्थ लुत्तनिद्दिट्ठो, सो च आकारत्थो''ति दस्सेति । सरणन्ति गमनं । हिताधिप्पायेन भजनं, जाननं वा, एवञ्च कत्वा विनयट्ठकथादीसु “सरणन्ति गच्छामी''ति सहेव इतिसद्देन अत्थो वुत्तोति । एत्थ हि नायं
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गमि-सदो नी-सदादयो विय द्विकम्मिको, तस्मा यथा “अजं गामं नेती"ति वुच्चति, एवं "भगवन्तं सरणं गच्छामी"ति वत्तुं न सक्का, “सरणन्ति गच्छामी''ति पन वत्तब्, तस्मा एत्थ इतिसद्दो लुत्तनिद्दिट्ठोति वेदितब्बं, एवञ्च कत्वा “यो बुद्धं सरणं गच्छति, सो बुद्धं वा गच्छेय्य सरणं वा"ति (खु० पा० अट्ठ० १.गमतीयदीपना) खुद्दकनिकायट्ठकथाय उद्घटा चोदना अनवकासा। न हि गमि-सदं दुहादिन्यादिगणिकं करोन्ति अक्खरचिन्तकाति | होतु ताव गमि-सद्दस्स एककम्मभावो, तथापि “गच्छतेव पुबं दिसं, गच्छति पच्छिमं दिस''न्तिआदीसु (सं० नि० १.१.१५९; २.३.८७) विय "भगवन्तं, सरण"न्ति पदद्वयस्स समानाधिकरणता युत्ताति ? न, तस्स पदद्वयस्स समानाधिकरणभावानुपपत्तितो। तस्स हि समानाधिकरणभावे अधिप्पेते पटिहतचित्तोपि भगवन्तं उपसङ्कमन्तो बुद्धं सरणं गतो नाम सिया । यहि तं “बुद्धो"ति विसेसितं सरणं, तमेवेस गतोति, न चेत्थ अनुपपत्तिकेन अत्थेन अत्थो, तस्मा “भगवन्त'"न्ति गमनीयत्थस्स दीपनं, “सरण"न्ति पन गमनाकारस्साति वुत्तनयेन इतिलोपवसेनेव अत्थो गहेतब्बोति । धम्मञ्च सङ्घञ्चाति एत्थापि एसेव नयो । होन्ति चेत्थ --
"गमिस्स एककम्मत्ता, इतिलोपं विजानिया । पटिघातप्पसङ्गत्ता, न च तुल्यत्थता सिया ।।
तस्मा गमनीयत्थस्स, पुब्बपदंव जोतकं । गमनाकारस्स परं, इत्युत्तं सरणत्तये''ति ।।
"इति इमिना अधिप्पायेन भगवन्तं गच्छामी''ति पन वदन्तो अनेनेव अधिप्पायेन भजनं, जाननं वा सरणगमनं नामाति नियमेति । तत्थ "गच्छामी"तिआदीसु पुरिमस्स पुरिमस्स पच्छिमं पच्छिमं अथवचनं, "गच्छामी"ति एतस्स वा अन साधारणतादस्सनवसेन पाटियेक्कमेव अत्थवचनं "भजामी"तिआदिपदत्तयं । भजनहि सरणाधिप्पायेन उपसङ्कमनं, सेवनं सन्तिकावचरभावो, पयिरुपासनं वत्तपटिवत्तकरणेन उपट्ठानन्ति एवं सब्बथापि अननसाधारणतंयेव दस्सेति । एवं “गच्छामी"ति पदस्स गतिअत्थं दस्सेत्वा बुद्धिअत्थम्पि दस्सेतुं "एवं वा"तिआदिमाह, तत्थ एवन्ति “भगवा मे सरण"न्तिआदिना अधिप्पायेन । कस्मा पन “गच्छामी'"ति पदस्स “बुज्झामी"ति अयमत्थो लब्भतीति चोदनं सोधेति "येसही"तिआदिना, अनेन च निरुत्तिनयमन्तरेन सभावतोव गमुधातुस्स बुद्धिअत्थोति दीपेति । धातूनन्ति मूलसद्दसङ्घातानं इ, या, कमु, गमुइच्चादीनं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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__“अधिगतमग्गे, सच्छिकतनिरोधे"ति पदद्वयेनापि फलट्ठा एव दस्सिता, न मग्गट्ठाति ते दस्सेन्तो “यथानुसिटुं पटिपज्जमाने चा"ति आह । ननु च कल्याणपुथुज्जनोपि “यथानुसिटुं पटिपज्जती''ति वुच्चतीति ? किञ्चापि वुच्चति, निप्परियायेन पन मग्गट्ठा एव तथा वत्तब्बा, न इतरो नियामोक्कमनाभावतो । तथा हि ते एव “अपायेसु अपतमाने धारेती"ति वुत्ता। सम्मत्तनियामोक्कमनेन हि अपायविनिमुत्तिसम्भवोति । एवं अनेकेहिपि विनय- (सारत्थ० टी० १.वेरञ्जकण्डवण्णना) -सुत्तन्तटीकाकारेही (दी० नि० टी० १.२५०) वुत्तं, तदेतं सम्मत्तनियामोक्कमनवसेन निप्परियायतो अपायविनिमुत्तके सन्धाय वुत्तं, तदनुपपत्तिवसेन पन परियायतो अपायविनिमुत्तकं कल्याणपुथुज्जनम्पि “यथानुसिटुं पटिपज्जमाने''ति पदेन दस्सेतीति दट्टब्बं । तथा हेस दक्खिणविभङ्गसुत्तादीसु (म० नि० ३.३७९) सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नभावेन वुत्तोति, छत्तविमाने (वि० व० ८८६ आदयो) छत्तमाणवको चेत्थ निदस्सनं । अधिगतमग्गे, सच्छिकतनिरोधे च यथानुसिटुं पटिपज्जमाने च पुग्गले अपायेसु अपतमाने कत्वा धारेतीति सपाठसेसयोजना । अतीतकालिकेन हि पुरिमपदद्वयेन फलट्ठानमेव गहणं, वत्तमानकालिकेन च पच्छिमेन पदेन सह कल्याणपुथुज्जनेन मग्गट्ठानमेव । “अपतमाने"ति पन पदेन धारणाकारदस्सनं अपतनकरणवसेनेव धारेतीति, धारणसरूपदस्सनं वा । धारणं नाम अपतनकरणमेवाति, अपतनकरणञ्च अपायादिनिब्बत्तककिलेसविद्धंसनवसेन वट्टतो निय्यानमेव । “अपायेसूति हि दुक्खबहुलट्ठानताय पधानवसेन वुत्तं, वट्टदुक्खेसु पन सब्बेसुपि अपतमाने कत्वा धारेतीति अत्थो वेदितब्बो । तथा हि अभिधम्मट्ठकथायं वुत्तं “सोतापत्तिमग्गो चेत्थ अपायभवतो वुठ्ठाति, सकदागामिमग्गो सुगतिकामभवेकदेसतो, अनागामिमग्गो कामभवतो, अरहत्तमग्गो रूपारूपभवतो, सब्बभवेहिपि वुट्टाति एवाति वदन्ती"ति (ध० स० अट्ठ० ३५०) एवञ्च कत्वा अरियमग्गो निय्यानिकताय, निब्बानञ्च तस्स तदत्थसिद्धिहेतुतायाति उभयमेव निप्परियायेन धम्मो नामाति सरूपतो दस्सेतुं “सो अत्थतो अरियमग्गो चेव निब्बानञ्चा"ति वुत्तं । निब्बानहि आरम्मणं लभित्वा अरियमग्गस्स तदत्थसिद्धि, स्वायमत्थो च पाळिया एव सिद्धोति आह "वुत्तञ्चेत"न्तिआदि । यावताति यत्तका । तेसन्ति तत्तकानं धम्मानं । “अग्गो अक्खायतीति वत्तब्बे ओ-कारस्स अ-कारं, म-कारागमञ्च कत्वा "अग्गमक्खायती"ति वुत्तं । “अक्खायती"ति चेत्थ इतिसद्दो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन "यावता भिक्खवे धम्मा सङ्घता वा असङ्खता वा, विरागो तेसं अग्गमक्खायती"तिआदि (इतिवु० ९०; अ० नि० १.४.३४) सुत्तपदं सङ्गण्हाति, “वित्थारो"ति इमिना वा तदवसेससङ्गहो।
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(२.२.२५०-२५०)
अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
यस्मा पन अरियफलानं “ताय सद्धाय अवूपसन्ताया'तिआदि वचनतो मग्गेन समुच्छिन्नानं किलेसानं पटिप्पस्सद्धिप्पहानकिच्चताय निय्यानानुगुणता, निय्यानपरियोसानता च, परियत्तिया पन निय्यानधम्मसमधिगमहेतुताय निय्यानानुगुणताति इमिना परियायेन वुत्तनयेन धम्मभावो. लब्भति, तस्मा तदुभयम्पि सङ्गण्हन्तो “न केवलञ्चा"तिआदिमाह । स्वायमत्थो च पाठारुळहो एवाति दस्सेति "वुत्त हेत"न्तिआदिना । तत्थ छत्तमाणवकविमानेति छत्तो किर नाम सेतब्यायं ब्राह्मणमाणवको, सो उक्कट्ठायं पोक्खरसातिब्राह्मणस्स सन्तिके सिप्पं उग्गहेत्वा “गरुदक्खिणं दस्सामी"ति उक्कट्ठाभिमुखो गच्छति, अथस्स भगवा अन्तरामग्गे चोरन्तरायं, तावतिसभवने निब्बत्तमानञ्च दिस्वा गाथाबन्धवसेन सरणगमनविधि देसेसि, तस्स तावतिसभवनुपगस्स तिसयोजनिकं विमानं छत्तमाणवकविमानं । देवलोकेपि हि तस्स मनुस्सकाले समझा यथा “मण्डूको देवपुत्तो, (वि० व० ८५८ आदयो) कुवेरो देवराजा'"ति, इध पन छत्तमाणवकविमानं वत्थु कारणं एतस्साति कत्वा उत्तरपदलोपेन “न तथा तपति नभे सूरियो, चन्दो च न भासति न फुस्सो, यथा''तिआदिका (वि० व० ८८९) देसना "छत्तमाणवकविमान"न्ति वुच्चति, तत्रायं गाथा परियापन्ना, तस्मा छत्तमाणवकविमानवत्थुदेसनायन्ति अत्थो वेदितब्बो ।
कामरागो भवरागोति एवमादिभेदो अनादिकालविभावितो सब्बोपि रागो विरज्जति पहीयति एतेनाति रागविरागो, मग्गो। एजासङ्घाताय तण्हाय, अन्तोनिज्झानलक्खणस्स च सोकस्स तदुप्पत्तियं सब्बसो परिक्खीणत्ता नत्थि एजा, सोको च एतस्मिन्ति अने, असोकञ्च, फलं। तदट्ठकथायं (वि० व० अट्ठ० ८८७) पन "तण्हावसिट्ठानं सोकनिमित्तानं किलेसानं पटिप्पस्सम्भनतो असोक''न्ति वुत्तं । धम्ममसङ्घतन्ति सम्पज्ज सम्भूय पच्चयेहि अप्पटिसङ्खतत्ता असङ्खतं अत्तनो सभावधारणतो परमत्थधम्मभूतं निब्बानं । तदट्ठकथायं पन “धम्मन्ति सभावधम्मं । सभावतो गहेतब्बधम्मो हेस, यदिदं मग्गफलनिब्बानानि, न परियत्तिधम्मो विय पञत्तिधम्मवसेना''ति (वि० व० अट्ठ० ८८७) वुत्तं, एवं सति धम्मसद्दो तीसुपि ठानेसु योजेतब्बो। अप्पटिकूलसद्देन च तत्थ निब्बानमेव गहितं “नथि एत्थ किञ्चिपि पटिकूल''न्ति कत्वा, अप्पटिकूलन्ति च अविरोधदीपनतो किञ्चि अविरुद्धं, इटुं पणीतन्ति वा अत्थो । पगुणरूपेन पवत्तितत्ता, पकट्ठगुणविभावनतो वा पगुणं। यथाह “विहिंससञ्जी पगुणं न भासिं, धम्मं पणीतं मनुजेसु ब्रह्मेति (म० नि० १.२८३; २.३३९; महाव० ९)।
धम्मक्खन्धा कथिताति योजना । एवं इध चतूहिपि पदेहि परियत्तिधम्मोयेव गहितो,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२५०-२५०)
तदट्ठकथायं पन “सवनवेलायं, उपपरिक्खणवेलायं, पटिपज्जनवेलायन्ति सब्बदापि इट्ठमेवाति मधुरं, सब्ब ताणसन्निस्सयाय पटिभानसम्पदाय पवत्तितत्ता सुप्पवत्तिभावतो, निपुणभावतो च पगुणं, विभजितब्बस्स अत्थस्स खन्धादिवसेन, कुसलादिवसेन, उद्देसादिवसेन च सुट्ट विभजनतो सुविभत्तन्ति तीहिपि पदेहि परियत्तिधम्ममेव वदती''ति (वि० व० अट्ठ० ८८७) वुत्तं । आपाथकाले विय मज्जनकालेपि, कथेन्तस्स विय सुणन्तस्सापि सम्मुखीभावतो उभतोपच्चक्खतादस्सनत्थं इधेव “इम''न्ति आसन्नपच्चक्खवचनमाह। पुन "धम्म"न्ति इदं यथावुत्तस्स चतुब्बिधस्सापि धम्मस्स साधारणवचनं । परियत्तिधम्मोपि हि सरणेसु च सीलेसु च पतिट्ठानमत्तायपि याथावपटिपत्तिया अपायपतनतो धारेति, इमस्स च अत्थस्स इदमेव छत्तमाणवकविमानं साधकन्ति दट्टब् । साधारणभावेन यथावुत्तं धमं पच्चक्खं कत्वा दस्सेन्तो पुन "इम"न्ति आह । यस्मा चेसा भ-कारत्तयेन च पटिमण्डिता दोधकगाथा, तस्मा ततियपादे मधुरसद्दे म-कारो अधिकोपि अरियचरियादिपदेहि विय अनेकक्खरपदेन युत्तत्ता अनुपवज्जोति दट्ठब्बं ।
दिविसीलसङ्घातेनाति यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खखयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिद्विसामञ्जगतो विहरती''ति (दी० नि० ३.३२४, ३५६; अ० नि० २.६.११; परि० २७४) एवं वुत्ताय दिट्ठिया चेव “यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विग्रुपसत्थानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि, तथारूपेहि सीलेहि सीलसामञ्जगतो विहरती''ति (दी० नि० ३.३२४, ३५६; म० नि० १.४९२; ३.५४; अ० नि० २.६.९२; परि० २७४) एवं वुत्तानं सीलानञ्च संहतभावेन, दिट्टिसीलसामञ्जनाति अत्थो । संहतोति सङ्घटितो, समेतोति वुत्तं होति । अरियपुग्गला हि यत्थ कत्थचि दूरे ठितापि अत्तनो गुणसामग्गिया संहता एव । “वुत्तज्हेत"न्तिआदिना आहच्चपाठेन समत्थेति ।
यत्थाति यस्मिं सर्छ । दिनन्ति परिच्चत्तं अन्नादिदेय्यधम्मं, गाथाबन्धत्ता चेत्थ अनुनासिकलोपो। दोधकगाथा हेसा | महप्फलमाहूति “महप्फल''न्ति बुद्धादयो आहु। चतूसूति चेत्थ च-कारो अधिकोपि वुत्तनयेन अनुपवज्जो। अच्चन्तमेव किलेसासुचितो विसुद्धत्ता सुचीसु। “सोतापन्नो सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्नो''तिआदिना (सं० नि० ३.५.४८८) वुत्तेसु चतूसु पुरिसयुगेसु। चतुसच्चधम्मस्स, निब्बानधम्मस्स च पच्चक्खतो दस्सनेन, अरियधम्मस्स पच्चक्खदस्साविताय वा धम्मदसा। ते पुग्गला
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सरणगमनकथावण्णना
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मग्गट्ठफलट्टे युगले अकत्वा विसुं विसुं पुग्गलगणनेन अट्ठ च होन्ति । इमं सङ्घ सरणत्थं सरणाय परायणाय अपायदुक्खवट्टदुक्खपरिताणाय उपेहि उपगच्छ भज सेव, एवं वा जानाहि बुज्झस्सूति सह योजनाय अत्थो । यत्थ येसु सुचीसु चतूसु पुरिसयुगेसु दिन्नं महप्फलमाहु, धम्मदसा ते पुग्गला अट्ठ च, इमं सङ्घ सरणत्थमुपेहीति वा सम्बन्धो । एवम्पि हि पटिनिद्देसो युत्तो एव अत्थतो अभिन्नत्ताति दट्ठब् । गाथासुखत्थञ्चेत्थ पुरिसपदे ईकारं, पुग्गलापदे च रस्सं कत्वा निद्देसो ।
एत्तावताति “एसाह"न्तिआदिवचनक्कमेन । तीणि वत्थूनि “सरण''न्ति गमनानि, तिक्खत्तुं वा "सरण"न्ति गमनानीति सरणगमनानि। पटिवेदेसीति अत्तनो हदयगतं वाचाय पवेदेसि ।
सरणगमनकथावण्णना
सरणगमनस्स विसयप्पभेदफलसंकिलेसभेदानं विय, कत्तु च विभावना तत्थ कोसल्लाय होति येवाति सह कत्तुना तं विधिं दस्सेतुं “इदानि तेसु सरणगमनेसु कोसल्लत्थं...पे०... वेदितब्बो"ति वुत्तं । “यो च सरणं गच्छती"ति इमिना हि कत्तारं विभावेति तेन विना सरणगमनस्सेव असम्भवतो, “सरणगमन"न्ति इमिना च सरणगमनमेव, “सरण"न्तिआदीहि पन यथाक्कम विसयादयो । कस्मा पनेत्थ वोदानं न गहितं, ननु वोदानविभावनापि तत्थ कोसल्लाय होतीति ? सच्चमेतं, तं पन संकिलेसग्गहणेनेव अत्थतो विभावितं होतीति न गहितं । यानि हि नेसं संकिलेसकारणानि अज्ञाणादीनि, तेसं सब्बेन सब्बं अनुप्पन्नानं अनुप्पादनेन, उप्पन्नानञ्च पहानेन वोदानं होतीति । अत्थतोति सरणसद्दत्थतो, “सरणस्थतो"तिपि पाठो, अयमेवत्थो । हिंसत्थस्स सरसद्दस्स वसेनेतं सिद्धन्ति दस्सेन्तो धात्वत्थवसेन “हिंसतीति सरण"न्ति वत्वा तं पन हिंसनं केसं, कथं, कस्स वाति चोदनं सोधेति “सरणगतान"न्तिआदिना | केसन्ति हि सरणगतानं । कथन्ति तेनेव सरणगमनेन । कस्साति भयादीनन्ति यथाक्कम सोधना । तत्थ सरणगतानन्ति “सरण"न्ति गतानं । सरणगमनेनाति “सरण''न्ति गमनेन कुसलधम्मेन । भयन्ति वट्टभयं । सन्तासन्ति चित्तुत्रासं तेनेव चेतसिकदुक्खस्स सङ्गहितत्ता। दुक्खन्ति कायिकदुक्खग्गहणं । दुग्गतिपरिकिलेसन्ति दुग्गतिपरियापन्नं सब्बम्पि दुक्खं “दुग्गतियं परिकिलिस्सनं संविबाधनं, समुपतापनं वा''ति कत्वा, तयिदं सब्बं परतो फलकथायं आवि भविस्सति । हिंसनञ्चेत्थ विनासनमेव, न पन सत्तहिंसनमिवाति दस्सेति "हनति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२५०-२५०)
विनासेती"ति इमिना । एतन्ति सरणपदं । अधिवचनन्ति नामं, पसिद्धवचनं वा, यथाभुच्चं वा गुणं अधिकिच्च पवत्तवचनं । तेनाह "रतनत्तयस्सेवा''ति ।
एवं हिंसनत्थवसेन अविसेसतो सरणसद्दत्थं दस्सेत्वा इदानि तदत्थवसेनेव विसेसतो दस्सेतुं “अथ वा"तिआदि वुत्तं । रतनत्तयस्स पच्चेकं हिंसनकारणदस्सनमेव हि पुरिमनयतो इमस्स विसेसोति। तत्थ हिते पवत्तनेनाति “सम्पन्नसीला भिक्खवे विहरथा''तिआदिना (म० नि० १.६४, ६९) अत्थे सत्तानं नियोजनेन । अहिता च निवत्तनेनाति "पाणातिपातस्स खो पापको विपाको, पापकं अभिसम्पराय"न्तिआदिना आदीनवदस्सनादिमुखेन अनत्थतो च सत्तानं निवत्तनेन । भयं हिंसतीति हिताहितेसु अप्पवत्तिपवत्तिहेतुकं ब्यसनं अप्पवत्तिकरणेन विनासेति । भवकन्तारा उत्तारणेन मग्गसङ्घातो धम्मो, फलनिब्बानसङ्खातो पन अस्सासदानेन सत्तानं भयं हिंसतीति योजना । कारानन्ति दानवसेन, पूजावसेन च उपनीतानं सक्कारानं । अनुपसग्गोपि हि सद्दो सउपसग्गो विय अत्थविसेसवाचको "अप्पकम्पि कतं कारं, पुञ्ज होति महप्फल''न्तिआदीसु विय । अनुत्तरदक्खिणेय्यभावतो विपुलफलपटिलाभकरणेन सत्तानं भयं हिं सतीति योजेतब्बं । इमिनापि परियायेनाति रतनत्तयस्स पच्चेकं हिंसकभावकारणदस्सनवसेन विभजित्वा वुत्तेन इमिनापि कारणेन । यस्मा पनिदं सरणपदं नाथपदं विय सुद्धनामपदत्ता धात्वत्थं अन्तोनीतं कत्वा सङ्केतत्थम्पि वदति, तस्मा हेट्ठा सरणं परायणन्ति अत्थो वुत्तोति दट्ठब्बं ।
___एवं सरणत्थं दस्सेत्वा इदानि सरणगमनत्थं दस्सेन्तो “तप्पसादा"तिआदिमाह । तत्थ "सम्मासम्बुद्धो भगवा, स्वाक्खातो धम्मो, सुप्पटिपन्नो सङ्घो''ति एवमादिना तस्मिं रतनत्तये पसादो तप्पसादो, तदेव रतनत्तयं गरु एतस्साति तग्गरु, तस्स भावो तग्गरुता, तप्पसादो च तग्गरुता च तप्पसादतग्गरुता, ताहि। विहतकिलेसो विधुतविचिकिच्छासम्मोहासद्धियादिपापधम्मत्ता, तदेव रतनत्तयं परायणं परागति ताणं लेणं एतस्साति तप्परायणो, तस्स भावो तप्परायणता, सायेव आकारो तप्परायणताकारो, तेन पवत्तो तप्परायणताकारप्पवत्तो। एत्थ च पसादग्गहणेन लोकियं सरणगमनमाह । तहि सद्धापधानं, न आणपधानं, गरुतागहणेन पन लोकुत्तरं । अरिया हि रतनत्तयं गुणाभिञताय पासाणच्छत्तं विय गरुं कत्वा पस्सन्ति, तस्मा तप्पसादेन तदङ्गप्पहानवसेन विहतकिलेसो, तग्गरुताय च अगारवकरणहेतूनं समुच्छेदवसेनाति योजेतब्बं । तप्परायणता पनेत्थ तग्गतिकताति ताय चतुब्बिधम्पि वक्खमानं सरणगमनं गहितन्ति दट्टब्बं । अविसेसेन
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(२.२.२५०-२५०)
सरणगमनकथावण्णना
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वा पसादगरुता जोतिताति पसादग्गहणेन अनवेच्चप्पसादस्स लोकियस्स, अवेच्चप्पसादस्स च लोकुत्तरस्स गहणं, तथा गरुतागहणेन लोकियस्स गरुकरणस्स, लोकुत्तरस्स चाति उभयेनपि पदेन उभयम्पि लोकियलोकुत्तरसरणगमनं योजेतब्बं । उप्पज्जति चित्तमेतेनाति उप्पादो, सम्पयुत्तधम्मसमूहो, चित्तञ्च तं उप्पादो चाति चित्तुप्पादो। समाहारद्वन्देपि हि कत्थचि पुल्लिङ्गमिच्छन्ति सद्दविदू, तदाकारप्पवत्तं सद्धापञ्जादिसम्पयुत्तधम्मसहितं चित्तं सरणगमनं नाम “सरणन्ति गच्छति एतेनाति कत्वा'"ति वुत्तं होति । "तंसमङ्गी"तिआदि कत्तुविभावना। तेन यथावुत्तचित्तुप्पादेन समङ्गीति तंसमझी। तेनाह "वुत्तप्पकारेन चित्तुष्पादेना"ति । उपेतीति भजति सेवति पयिरुपासति, जानाति वा, बुज्झतीति अत्थो ।
लोकुत्तरं सरणगमनं केसन्ति आह. "दिवसच्चान"न्ति, अट्ठन्नं अरियपुग्गलानन्ति अत्थो । कदा तं इज्झतीति आह "मग्गक्खणे"ति, “इज्झती''ति पदेन चेतस्स सम्बन्धो । मग्गक्खणे इज्झमानेनेव हि चतुसच्चाधिगमेन फलट्ठानम्पि सरणगमकता सिज्झति लोकुत्तरसरणगमनस्स भेदाभावतो, तेसञ्च एकसन्तानत्ता । कथं तं इज्झतीति आह "सरणगमनुपक्किलेससमुच्छेदेना"तिआदि, उपपक्किलेससमुच्छेदतो, आरम्मणतो, किच्चतो च सकलेपि रतनत्तये इज्झतीति वुत्तं होति । सरणगमनुपक्किलेससमुच्छेदेनाति चेत्थ पहानाभिसमयं सन्धाय वुत्तं, आरम्मणतोति सच्छिकिरियाभिसमयं । निब्बानारम्मणं हुत्वा आरम्मणतो इज्झतीति हि योजेतब्बं, त्वा-सद्दो च हेतुत्थवाचको यथा “सक्को हुत्वा निब्बत्ती"ति (ध० प० अट्ठ० १.२.२९) । अपिच “आरम्मणतो"ति वुत्तमेवत्थं सरूपतो नियमेति “निब्बानारम्मणं हुत्वा"ति इमिना | "किच्चतो"ति तदवसेसं भावनाभिसमयं परिञाभिसमयञ्च सन्धाय वुत्तं । “आरम्मणतो निब्बानारम्मणं हुत्वा"ति एतेन वा मग्गक्खणानुरूपं एकारम्मणतं दस्सेत्वा "किच्चतो"ति इमिना पहानतो अवसेसं किच्चत्तयं दस्सितन्ति दट्ठब्बं । “मग्गक्खणे, निब्बानारम्मणं हुत्वा''ति च वुत्तत्ता अत्थतो मग्गाणसङ्घातो चतुसच्चाधिगमो एव लोकुत्तरसरणगमनन्ति विज्ञायति । तत्थ हि चतुसच्चाधिगमने सरणगमनुपक्किलेसस्स पहानाभिसमयवसेन समुच्छिन्दनं भवति, निब्बानधम्मो पन सच्छिकिरियाभिसमयवसेन, मग्गधम्मो च भावनाभिसमयवसेन पटिविज्झियमानोयेव सरणगमनत्थं साधेति, बुद्धगुणा पन सावकगोचरभूता परिञाभिसमयवसेन पटिविज्झियमाना सरणगमनत्थं साधेन्ति, तथा अरियसङ्घगुणा । तेनाह "सकलेपि रतनत्तये इज्झती"ति ।
फलपरियत्तीनम्पेत्थ वुत्तनयेन मग्गानुगुणप्पवत्तिया गहणं, अपरिझेय्यभूतानञ्च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२५०-२५०)
बुद्धसङ्घगुणानं तग्गुणसामञतायाति दट्ठब्बं । एवहि सकलभावविसिट्ठवचनं उपपन्नं होतीति । इज्झन्तञ्च सहेव इज्झति, न लोकियं विय पटिपाटिया असम्मोहपटिवेधेन पटिविद्धत्ताति गहेतब्बं । पदीपस्स विय हि एकक्खणेयेव मग्गस्स चतुकिच्चसाधनन्ति । ये पन वदन्ति “सरणगमनं निब्बानारम्मणं हुत्वा न पवत्तति, मग्गस्स अधिगतत्ता पन अधिगतमेव तं होति एकच्चानं तेविज्जादीनं लोकियविज्जादयो विया''ति, तेसं पन वचने लोकियमेव सरणगमनं सिया, न लोकुत्तरं, तञ्च अयुत्तमेव दुविधस्सापि तस्स इच्छितब्बत्ता। तदङ्गप्पहानेन सरणगमनुपक्किलेसविक्खम्भनं। आरम्मणतो बुद्धादिगुणारम्मणं हुत्वाति एत्थापि वुत्तनयेन अत्थो, सरणगमनुपक्किलेसविक्खम्भनतो, आरम्मणतो च सकलेपि रतनत्तये इज्झतीति वुत्तं होति ।।
तन्ति लोकियसरणगमनं । “सम्मासम्बुद्धो भगवा"तिआदिना सद्धापटिलाभो । सद्धामूलिकाति यथावुत्तसद्धापुब्बङ्गमा। सहजातवसेन पुब्बङ्गमतायेव हि तम्मूलिकता सद्धाविरहितस्स बुद्धादीसु सम्मादस्सनस्स असम्भवतो। सम्मादिट्ठि नाम बुद्धसुबुद्धतं, धम्मसुधम्मतं सङ्घसुप्पटिपन्नतञ्च लोकियावबोधवसेन सम्मा आयेन दस्सनतो । "सद्धापटिलाभो"ति इमिना सम्मादिट्ठिविरहितापि सद्धा लोकियसरणगमनन्ति दस्सेति, "सद्धामूलिका च सम्मादिट्ठी''ति पन एतेन सद्भूपनिस्सया यथावुत्ता पञ्जाति । लोकियम्पि हि सरणगमनं दुविधं ञाणसम्पयुत्तं, आणविप्पयुत्तञ्च । तत्थ पठमेन पदेन मातादीहि उस्साहितदारकादीनं विय आणविप्पयुत्तं सरणगमनं गहितं, दुतियेन पन आणसम्पयुत्तं । तदुभयमेव पुञ्जकिरियवत्थु विसेसभावेन दस्सेतुं "दससु पुञ्जकिरियवत्थूसु दिद्विजुकम्मन्ति बुच्चती"ति आह । दिट्ठि एव अत्तनो पच्चयेहि उजु करीयतीति हि अत्थेन सम्मादिट्ठिया दिट्ठिजुकम्मभावो, दिट्ठि उजुं करीयति एतेनाति अत्थेन पन सद्धायपि । सद्धासम्मादिट्ठिग्गहणेन चेत्थ तप्पधानस्सापि चित्तुप्पादस्स गहणं, दिट्ठिजुकम्मपदेन च यथावुत्तेन करणसाधनेन, एवञ्च कत्वा “तप्परायणताकारप्पवत्तो चित्तुप्पादो"ति हेट्ठा वुत्तवचनं समत्थितं होति, सद्धासम्मादिट्टीनं पन विसुं गहणं तंसम्पयुत्तचित्तुप्पादस्स तप्पधानतायाति दट्ठब् ।
तयिदन्ति लोकियं सरणगमनमेव पच्चामसति लोकुत्तरस्स तथा भेदाभावतो । तस्स हि मग्गक्खणेयेव वुत्तनयेन इज्झनतो तथाविधस्स समादानस्स अविज्जमानत्ता एस भेदो न सम्भवतीति । अत्ता सन्निय्यातीयति अप्पीयति परिच्चजीयति एतेनाति अत्तसन्निय्यातनं, यथावुत्तं सरणगमनसङ्खातं दिट्ठिजुकम्मं । तं रतनत्तयं परायणं पटिसरणमेतस्साति
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सरणगमनकथावण्णना
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तप्परायणो, पुग्गलो, चित्तुप्पादो वा, तस्स भावो तप्परायणता, तदेव दिट्ठिजुकम्मं । "सरण''न्ति अधिप्पायेन सिस्सभावं अन्तेवासिकभावसङ्घातं वत्तपटिवत्तादिकरणं उपगच्छति एतेनाति सिस्सभावूपगमनं। सरणगमनाधिप्पायेनेव पणिपतति एतेनाति पणिपातो, पणिपतनञ्चेत्थ अभिवादनपच्चुट्ठानअञ्जलिकम्मसामीचिकम्ममेव, सब्बत्थ च अत्थतो यथावुत्तदिट्ठिजुकम्ममेव वेदितब्बं ।
संसारदुक्खनित्थरणत्थं अत्तनो अत्तभावस्स परिच्चजनं अत्तपरिच्चजनं । तप्परायणतादीसुपि एसेव नयो । हितोपदेसकथापरियायेन धम्मस्सापि आचरियभावो समुदाचरीयति “फलो अम्बो अफलो च, ते सत्थारो उभो ममा''तिआदीसु वियाति आह "धम्मस्स अन्तेवासिको"ति | "अभिवादना"तिआदि पणिपातस्स अत्थदस्सनं । बुद्धादीनंयेवाति अवधारणस्स अत्तसन्निय्यातनादीसुपि सीहगतिकवसेन अधिकारो वेदितब्बो । एवहि तदञनिवत्तनं कतं होतीति । "इमेसही''तिआदि चतुधा पवत्तनस्स समत्थनं, कारणदस्सनं वा।
एवं अत्तसन्निय्यातनादीनि एकेन पकारेन दस्सेत्वा इदानि अपरेहिपि पकारेहि दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि आरद्धं, एतेन अत्तसन्निय्यातनतप्परायणतादीनं चतुन्नं परियायन्तरेहिपि अत्तसन्निय्यातनतप्परायणतादि कतमेव होति अत्थस्स अभिन्नत्ता यथा तं "सिक्खापच्चक्खानअभूतारोचनानी"ति दस्सेति । जीवितपरियन्तिकन्ति भावनपुंसकवचनं, यावजीवं गच्छामीति अत्थो। महाकस्सपो किर सयमेव पब्बजितवेसं गहेत्वा महातित्थब्राह्मणगामतो निक्खमित्वा गच्छन्तो तिगावुतमग्गं पच्चुग्गमनं कत्वा अन्तरा च राजगहें, अन्तरा च नाळन्दं बहुपुत्तकनिग्रोधरुक्खमूले एककमेव निसिन्नं भगवन्तं पस्सित्वा "अयं भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो"ति अजानन्तोयेव “सत्थारञ्च वताहं पस्सेय्यं, भगवन्तमेव पस्सेय्य"न्तिआदिना (सं० नि० १.२.१५४) सरणगमनमकासि । तेन वुत्तं "महाकस्सपस्स सरणगमनं विया"ति । वित्थारो कस्सपसंयुत्तट्ठकथायं (सं० नि० अट्ठ० २.२.१५४) गहेतब्बो । तत्थ सत्थारञ्चवताहं पस्सेय्यं, भगवन्तमेव पस्सेय्यन्ति सचे अहं सत्थारं पस्सेय्यं, इमं भगवन्तंयेव पस्सेय्यं । न हि मे इतो अऊन सत्थारा भवितुं सक्का । सुगतञ्च वताहं पस्सेय्यं, भगवन्तमेव पस्सेय्यन्ति सचे अहं सम्मापटिपत्तिया सुटु गतत्ता सुगतं नाम पस्सेय्यं, इमं भगवन्तंयेव पस्सेय्यं । न हि मे इतो अजेन सुगतेन भवितुं सक्का । सम्मासम्बुद्धञ्च वताहं पस्सेय्यं, भगवन्तमेव पस्सेय्यन्ति सचे अहं सम्मा सामञ्च सच्चानि बुद्धत्ता सम्मासम्बुद्धं नाम पस्सेय्यं, इमं भगवन्तंयेव पस्सेय्यं, न हि
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मे इतो अझेन सम्मासम्बुद्धेन भवितुं सक्काति अयमेत्थ अट्ठकथा। सब्बत्थ च-सद्दो, वत-सद्दो च पदपूरणमत्तं, चे-सद्देन वा भवितब्बं “सचे"ति अट्ठकथायं (सं० नि० अट्ठ० २.२.१५४) वुत्तत्ता । वत-सद्दो च पस्सितुकामताय एकंसत्थं दीपेतीतिपि युज्जति ।
"सो अह"न्तिआदि सुत्तनिपाते आळवकसुत्ते। तत्थ किञ्चापि मग्गेनेव तस्स सरणगमनमागतं, सोतापन्नभावदस्सनत्थं, पन पसादानुरूपदस्सनत्थञ्च एवं वाचं भिन्दतीति तदट्ठकथायं (सु० नि० अट्ठ० १.१८१) वुत्तं । गामा गामन्ति अञस्मा देवगामा अनं देवगामं, देवतानं वा खुद्दकं, महन्तञ्च गामन्तिपि अत्थो । पुरा पुरन्ति एत्थापि एसेव नयो । धम्मस्स च सुधम्मतन्ति बुद्धस्स सुबुद्धतं, धम्मस्स सुधम्मतं, सङ्घस्स सुप्पटिपन्नतञ्च अभित्थवित्वाति सह समुच्चयेन, पाठसेसेन च अत्थो, सम्बुद्धं नमस्समानो धम्मघोसको हुत्वा विचरिस्सामीति वुत्तं होति ।
आळवकादीनन्ति आदि-सद्देन सातागिरहेमवतादीनम्पि सङ्गहो। ननु च एते आळवकादयो अधिगतमग्गत्ता मग्गेनेव आगतसरणगमना, कस्मा तेसं तप्परायणतासरणगमनं वुत्तन्ति ? मग्गेनागतसरणगमनेहिपि तेहि तप्परायणताकारस्स पवेदितत्ता । “सो अहं विचरिस्सामि...पे०... सुधम्मतं, (सं० नि० १.१.२४६; सु० नि० १९४) ते मयं विचरिस्साम, गामा गामं नगा नगं...पे०... सुधम्मत"न्ति (सु० नि० १८२) च हि एतेहि तप्परायणताकारो पवेदितो। तस्मा सरणगमनविसेसमनपेक्खित्वा पवेदनाकारमत्तं उपदिसन्तेन एवं वुत्तन्ति दट्ठब्। अथाति "कथं खो ब्राह्मणो होती"तिआदिना पुट्ठस्स अट्ठविधपञ्हस्स "पुब्बेनिवासं यो वेदी"तिआदिना ब्याकरणपरियोसानकाले। इदहि मज्झिमपण्णासके ब्रह्मायसत्ते (म० नि० २.३९४) परिचुम्बतीति परिफुसति । परिसम्बाहतीति परिमज्जति । एवम्पि पणिपातो दट्टब्बोति एवम्पि परमनिपच्चकारेन पणिपातो दट्ठब्बो ।
सो पनेसाति पणिपातो। जाति...पे०... वसेनाति एत्थ जातिवसेन, भयवसेन, आचरियवसेन, दक्खिणेय्यवसेनाति पच्चेकं योजेतब्बं द्वन्दपरतो सुय्यमानत्ता। तत्थ जातिवसेनाति जातिभाववसेन। भावप्पधाननिद्देसो हि अयं, भावलोपनिद्देसो वा तब्भावस्सेव अधिप्पेतत्ता । एवं सेसेसुपि पणिपातपदेन चेतेसं सम्बन्धो तब्बसेन पणिपातस्स चतुब्बिधत्ता। तेनाह "दक्खिणेय्यपणिपातेना"ति, दक्खिणेय्यताहेतुकेन पणिपातेनेवाति अत्थो । इतरेहीति आतिभावादिहेतुकेहि पणिपातेहि । “सेठ्ठवसेनेवा"तिआदि तस्सेवत्थस्स
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सरणगमनकथावण्णना
समत्थनं । इदानि "न इतरेही "तिआदिना वुत्तमेव अत्थत्तयं यथाक्कमं वित्थारतो दस्सेतुं " तस्मा "तिआदि वृत्तं । “साकियो वा "ति पितुपक्खतो जातिकुलदस्सनं, "कोलियो वा "ति पन मातुपक्खतो । वन्दतीति पणिपातस्स उपलक्खणवचनं । राजपूजितोति राजूहि, राजूनं वा पूजितो यथा “गामपूजितो 'ति । पूजावचनपयोगे हि कत्तरि सामिवचनमिच्छन्ति सद्दविदू । भगवतोति बोधिसत्तभूतस्स, बुद्धभूतस्स वा भगवतो । उग्गहितन्ति सिक्खितसिप्पं ।
" चतुधा "तिआदि सिङ्गालोवादसुत्ते (दी० नि० ३.२६५) घरमावसन्ति घरे वसन्तो, कम्मप्पवचनीययोगतो चेत्थ भुम्मत्थे उपयोगवचनं । कम्मं पयोजयेति कसिवाणिज्जादिकम्मं पयोजेय्य । कुलानञ्हि न सब्बकालं एकसदिसं वत्तति, कदाचि राजादिवसेन आपदापि उप्पज्जति, तस्मा “आपदासु उप्पन्नासु भविस्सती 'ति एवं मनसि कत्वा निधापेय्याति आह “आपदासु भविस्सती 'ति । इमेसु पन चतूसु कोट्ठासेसु " एकेन भोगे भुञ्जेय्या "ति वुत्तकोट्ठासतोयेव गत्वा भिक्खूनम्पि कपणद्धिकादीनम्पि दातब्बं, दानं पेसकारन्हापितकादीनम्पि वेतनं दातब्बन्ति अयं भोगपरिग्गहणानुसासनी, एवरूपं अनुसासनिं उग्गहेत्वाति अत्थो । इदहि दिट्ठधम्मिकंयेव सन्धाय वदति, सम्परायिकं, पन निय्यानिकं वा अनुसासनिं पच्चासिसन्तोपि दक्खिणेय्यपणिपातमेव करोति नामाति दट्ठब्बं । “यो पना "तिआदि "सेट्ठवसेनेव... पे०... गण्हाती 'ति वुत्तस्सत्थस्स वित्थारवचनं ।
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" एवं "न्तिआदि पन " सेट्ठवसेन च भिज्जती 'ति वुत्तस्स ब्यतिरेकदस्सनं । अत्थवसा लिङ्गविभत्तिविपरिणामोति कत्वा गहितसरणाय उपासिकाय वातिपि योजेतब्बं । एवमीदिसेसु । पब्बजितम्पीति पि- सद्दो सम्भावनत्थोति वुत्तं "पगेव अपब्बजित "न्ति । सरणगमनं न भिज्जति सेट्ठवसेन अवन्दितत्ता । तथाति अनुकड्ढनत्थे निपातो “सरणगमनं न भिज्जती 'ति । रपूजितत्ताति रट्ठे, रट्ठवासीनं वा पूजितत्ता । तयिदं भयवसेन वन्दितब्बभावस्सेव समत्थनं, न तु अभेदस्स कारणदस्सनं, तस्स पन कारणं सेट्ठवसेन अवन्दितत्ताति वेदितब्बं । वुत्तहि "सेट्ठवसेन च भिज्जती 'ति । सेट्ठवसेनाति लोके अग्गदक्खिणेय्यताय सेट्टभाववसेनाति अत्थो । तेनाह " अयं लोके अग्गदक्खिणेय्योति वन्दतीति । तित्थियम्पि वन्दतो न भिज्जति, पगेव इतरं । सरणगमनप्पभेदोति सरणगमनविभागो, तब्बिभागसम्बन्धतो चेत्थ सक्का अभेदोपि सुखेन दस्सेतुन्ति अभेददस्सनं कतं ।
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अरियमग्गो एव लोकुत्तरसरणगमनन्ति चत्तारि सामञफलानि विपाकफलभावेन वुत्तानि । सब्बदुक्खक्खयोति सकलस्स वट्टदुक्खस्स अनुप्पादनिरोधो निब्बानं । एत्थ च कम्मसदिसं विपाकफलं, तब्बिपरीतं आनिसंसफलन्ति दट्ठब्बं । यथा हि सालिबीजादीनं फलानि तंसदिसानि विपक्कानि नाम होन्ति, विपाकनिरुत्तिञ्च लभन्ति, न मूलङ्गुरपत्तक्खन्धनाळानि, एवं कुसलाकुसलानं फलानि अरूपधम्मभावेन, सारम्मणभावेन च सदिसानि विपक्कानि नाम होन्ति, विपाकनिरुत्तिञ्च लभन्ति, न तदञानि कम्मनिब्बत्तानिपि कम्मअसदिसानि, तानि पन आनिसंसानि नाम होन्ति, आनिसंसनिरुत्तिमत्तञ्च लभन्तीति । "वुत्तव्हेत"न्तिआदिना धम्मपदे अग्गिदत्तब्राह्मणवत्थुपाळिमाहरित्वा दस्सेति ।
यो चाति एत्थ च-सद्दो ब्यतिरेके, यो पनाति अत्थो। तत्रायमधिप्पायो - ब्यतिरेकत्थदीपने यदि "बहुं वे सरणं यन्ति, पब्बतानि वनानि चा"तिआदिना (ध० प० १८८) वुत्तं खेमं सरणं न होति, न उत्तमं सरणं, एतञ्च सरणमागम्म सब्बदुक्खा न पमुच्चति, एवं सति किं नाम वत्थु खेमं सरणं होति, उत्तमं सरणं, किं नाम वत्थु सरणमागम्म सब्बदुक्खा पमुच्चतीति चे ?
यो च बुद्धञ्च धम्मञ्च, सङ्घञ्च सरणं गतो...पे०. एतं खो सरणं खेमं, एतं सरणमुत्तमं । एतं सरणमागम्म, सब्बदुक्खा पमुच्चतीति || (ध० प० १९०-९२)
एवमीदिसेसु । लोकियस्स सरणगमनस्स अञतित्थियावन्दनादिना कुप्पनतो, चलनतो च अकुप्पं अचलं लोकुत्तरमेव सरणगमनं पकासेतुं "चत्तारि अरियसच्चानि, सम्मप्पाय पस्सती"ति वुत्तं । वाचासिलिट्टत्थञ्चेत्थ सम्मासद्दस्स रस्सत्तं । “दुक्ख"न्तिआदि "चत्तारि अरियसच्चानी''ति वुत्तस्स सरूपदस्सनं। दुक्खस्स च अतिक्कमन्ति दुक्खनिरोधं । दुक्खूपसमगामिनन्ति दुक्खनिरोधगामि । “एत"न्ति “चत्तारि...पे०... पस्सती'ति (ध० प० १९०) एवं वुत्तं लोकुत्तरसरणगमनसङ्खातं अरियसच्चदस्सनं । खो-सद्दो अवधारणत्थो पदत्तयेपि योजेतब्बो।
निच्चतो अनुपगमनादिवसेनाति “निच्च"न्ति अग्गहणादिवसेन, इतिना निद्दिसितब्बेहि तो-सद्दमिच्छन्ति सद्दविदू । “वुत्त हेत"न्तिआदिना आणविभङ्गादीसु (म० नि० ३.१२६;
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सरणगमनकथावण्णना
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अ० नि० १.१.२६८) आगतं पाळिं साधकभावेन आहरति । अट्ठानन्ति जनकहेतुपटिक्खेपो। अनवकासोति पच्चयहेतुपटिक्खेपो। उभयेनापि कारणमेव पटिक्खिपति । यन्ति येन कारणेन । दिद्विसम्पन्नोति मग्गदिट्ठिया सम्पन्नो सोतापन्नो । कञ्चि सङ्खारन्ति चतुभूमकेसु सङ्घतसङ्खारेसु एकम्पि सङ्खारं । निच्चतो उपगच्छेय्याति “निच्चो''ति गण्हेय्य । सुखतो उपगच्छेय्याति “एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा'ति (दी० नि० १.७६) एवं अत्तदिट्ठिवसेन “सुखो''ति गण्हेय्य, दिट्ठिविप्पयुत्तचित्तेन पन अरियसावको परिळाहवूपसमत्थं मत्तहत्थिपरित्तासितो चोक्खब्राह्मणो विय उक्कारभूमि कञ्चि सङ्खारं सुखतो उपगच्छति । अत्तवारे कसिणादिपण्णत्तिसङ्गहणत्थं “सङ्खार"न्ति अवत्वा “धम्म"न्ति वुत्तं । यथाह परिवारे -
“अनिच्चा सब्बे सङ्घारा, दुक्खानत्ता च सङ्खता। निब्बानञ्चेव पञत्ति, अनत्ता इति निच्छया''ति ।। (परि० २५७)
इमेसु पन तीसुपि वारेसु अरियसावकस्स चतुभूमकवसेनेव परिच्छेदो वेदितब्बो, तेभूमकवसेनेव वा । यं यहि पुथुज्जनो “निच्चं सुखं अत्ताति गाहं गण्हाति, तं तं अरियसावको “अनिच्चं दुक्खं अनत्ता"ति गण्हन्तो गाहं विनिवेठेति ।
"मातर"न्तिआदीसु जनिका माता, जनको पिता, मनुस्सभूतो खीणासवो अरहाति अधिप्पेतो। किं पन अरियसावको तेहि अञम्पि पाणं जीविता वोरोपेय्याति ? एतम्पि अट्ठानमेव । चक्कवत्तिरज्जसकजीवितहेतुपि हि सो तं जीविता न वोरोपेय्य, तथापि पुथुज्जनभावस्स महासावज्जतादस्सनत्थं अरियभावस्स च बलवतापकासनत्थं एवं वुत्तन्ति दट्टब्बं । पदुद्दचित्तोति वधकचित्तेन पदूसनचित्तो, पदूसितचित्तो वा। लोहितं उप्पादेय्याति जीवमानकसरीरे खुद्दकमक्खिकाय पिवनमत्तम्पि लोहितं उप्पादेय्य । सङ्घ भिन्देय्याति समानसंवासकं समानसीमायं ठितं सद्धं पञ्चहि कारणेहि भिन्देय्य, वुत्तव्हेतं “पञ्चहुपालि आकारेहि सङ्घो भिज्जति कम्मेन, उद्देसेन, वोहरन्तो, अनुस्सावनेन, सलाकग्गाहेना"ति (परि० ४५८) अशं सत्थारन्ति इतो अजं तित्थकरं “अयं मे सत्था 'ति एवं गण्हेय्य, नेतं ठानं विज्जतीति अत्थो । भवसम्पदाति सुगतिभवेन सम्पदा, इदं विपाकफलं । भोगसम्पदाति मनुस्सभोगदेवभोगेहि सम्पदा, इदं पन आनिसंसफलं । "वुत्त हेत"न्तिआदिना देवतासंयुत्तादिपाळि (सं० नि० १.१.३७) साधकभावेन दस्सेति ।
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गता सेति एत्थ से-इति निपातमत्तं । न ते गमिस्सन्ति अपायभूमिन्ति ते बुद्धं सरणं गता तन्निमित्तं अपायं न गमिस्सन्ति । मानुसन्ति च गाथाबन्धवसेन विसञ्जोगनिद्देसो, मनुस्सेसु जातन्ति अत्थो । देवकायन्ति देवसङ्घ, देवपुरं वा “देवानं कायो समूहो एत्था''ति कत्वा।
"अपरम्पी''तिआदिना सळायतनवग्गे मोग्गल्लानसंयुत्ते (सं० नि० २.४.३४१) आगतं अञम्पि फलमाह, अपरम्प फलं महामोग्गल्लानत्थेरेन वुत्तन्ति अत्थो । अञ देवेति असरणङ्गते देवे। दसहि ठानेहीति दसहि कारणेहि । “दिब्बेना"तिआदि तस्सरूपदस्सनं । अधिगण्हन्तीति अभिभवन्ति अतिक्कमित्वा तिठ्ठन्ति । “एस नयो"ति इमिना “साधु खो देवानमिन्द धम्मसरणगमनं होती''ति (सं० नि० २.४.३४१) सुत्तपदं अतिदिसति । वेलामसुत्तं नाम अङ्गुत्तरनिकाये नवनिपाते जातिगोत्तरूपभोगसद्धापञ्जादीहि मरियादवेलातिक्कन्तेहि उळारेहि गुणेहि समन्नागतत्ता वेलामनामकस्स बोधिसत्तभूतस्स चतुरासीतिसहस्सराजूनं आचरियब्राह्मणस्स दानकथापटिस त्तं सुत्तं (अ० नि० ३.९.२०) तत्थ हि करीसस्स चतुत्थभागप्पमाणानं चतुरासीतिसहस्ससङ्ख्यानं सुवण्णपातिरूपियपातिकंसपातीनं यथाक्कम रूपियसुवण्ण हिरञपूरानं, सब्बालङ्कारपटिमण्डितानं, चतुरासीतिया हस्थिसहस्सानं चतुरासीतिया अस्ससहस्सानं, चतुरासीतिया रथसहस्सानं, चतुरासीतिया धेनुसहस्सानं, चतुरासीतिया कञासहस्सानं, चतुरासीतिया पल्लङ्कसहस्सानं, चतुरासीतिया वत्थकोटिसहस्सानं, अपरिमाणस्स च खज्जभोज्जादिभेदस्स आहारस्स परिच्चजनवसेन सत्तमासाधिकानि सत्तसंवच्छरानि निरन्तरं पवत्तवेलाममहादानतो एकस्स सोतापन्नस्स दिन्नदानं महप्फलतरं, ततो सतंसोतापन्नानं दिन्नदानतो एकस्स सकदागामिनो, ततो एकस्स अनागामिनो, ततो एकस्स अरहतो, ततो एकस्स पच्चेकबुद्धस्स, ततो सम्मासम्बुद्धस्स, ततो बुद्धप्पमुखस्स सङ्घस्स दिन्नदानं महप्फलतरं, ततो चातुद्दिसं सङ्घ उद्दिस्स विहारकरणं, ततो सरणगमनं महप्फलतरन्ति अयमत्थो पकासितो । वुत्तऽहेतं --
"यं गहपति वेलामो ब्राह्मणो दानं अदासि महादानं, यो चेकं दिट्ठिसम्पन्नं भोजेय्य, इदं ततो महप्फलतरं, यो च सतं दिट्ठिसम्पन्नानं भोजेय्य, यो चेकं सकदागामि भोजेय्य, इदं ततो महप्फलतर"न्तिआदि (अ० नि० ३.९.२०) ।
इमिना च उक्कट्ठपरिच्छेदतो लोकुत्तरस्सेव सरणगमनस्स फलं दस्सितन्ति वेदितब्बं । तथा
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सरणगमनकथावण्णना
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हि वेलामसुत्तट्ठकथायं वुत्तं “सरणं गच्छेय्याति एत्थ मग्गेनागतं अनिवत्तनसरणं अधिप्पेतं, अपरे पनाहु 'अत्तानं निय्यातेत्वा दिन्नत्ता सरणगमनं ततो महप्फलतर'न्ति वुत्त''न्ति (अ० नि० अट्ठ० ३.९.२०) कूटदन्तसुत्तट्ठकथायं पन वक्खति “यस्मा च सरणगमनं नाम तिण्णं रतनानं जीवितपरिच्चागमयं पुञकम्मं सग्गसम्पत्तिं देति, तस्मा महप्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्चाति वेदितब्ब"न्ति (दी० नि० अट्ठ० १.३५०, ३५१) इमिना पन नयेन लोकियस्सापि सरणगमनस्स फलं उध दस्सितमेवाति गहेतब्बं । आचरियधम्मपालत्थेरेनपि (दी० नि० टी० १.२५०) हि अयमेवत्थो इच्छितोति विज्ञायति इध चेव अासु च मज्झिमागमटीकादीसु अविसेसतोयेव वुत्तत्ता, आचरियसारिपुत्तत्थेरेनापि अयमत्थो अभिमतो सिया सारत्थदीपनियं, (सारत्थ० टी० वेरञ्जकअण्डवण्णना.१५) अङ्गुत्तरटीकायञ्च तदुभयसाधारणवचनतो । अपरे पन वदन्ति “कूटदन्तसुत्तट्ठकथायम्पि (दी० नि० टी० १.२४९) लोकुत्तरस्सेव सरणगमनस्स फलं वुत्त"न्ति, तदयुत्तमेव तथा अवुत्तत्ता । “यस्मा...पे०... देती"ति हि तदुभयसाधारणकारणवसेन तदुभयस्सापि फलं तत्थ वुत्तन्ति । वेलामसुत्तादीनन्ति एत्थ आदिसद्देन (अ० नि० १.४.३४; इतिवु० ९०) अग्गप्पसादसुत्तछत्तमाणवकविमानादीनं (वि० व० ८८६ आदयो) सङ्गहो दट्ठब्बो ।
___ अजाणं नाम वत्थुत्तयस्स गुणानमजाननं तत्थ सम्मोहो । संसयो नाम “बुद्धो नु खो, न नु खो"तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० २.२१६) विचिकिच्छा । मिच्छात्राणं नाम वत्थुत्तयस्स गुणानं अगुणभावपरिकप्पनेन विपरीतग्गाहो। आदिसद्देन अनादरागारवादीनं सङ्गहो। संकिलिस्सतीति संकिलिटुं मलीनं भवति। न महाजुतिकन्तिआदिपि संकिलेसपरियायो एव । तत्थ न महाजुतिकन्ति न महुज्जलं, अपरिसुद्धं अपरियोदातन्ति अत्थो । न महाविष्फारन्ति न महानुभावं, अपणीतं अनुळारन्ति अत्थो । सावज्जोति तण्हादिठ्ठादिवसेन सदोसो। तदेव फलवसेन विभावेतुं “अनिट्ठफलो'"ति वुत्तं, सावज्जत्ता अकन्तिफलो होतीति अत्थो । लोकियसरणगमनं सिक्खासमादानं विय अगहितकालपरिच्छेदं जीवितपरियन्तमेव होति, तस्मा तस्स खन्धभेदेन भेदो, सो च तण्हादिट्ठादिविरहितत्ता अदोसोति आह "अनवज्जो कालकिरियाय होती"ति । सोति अनवज्जो सरणगमनभेदो । सतिपि अनवज्जत्ते इट्ठफलोपि न होति, पगेव अनिट्ठफलो अविपाकत्ता । न हि तं अकुसलं होति, अथ खो भेदनमत्तन्ति अधिप्पायो । भवन्तरेपीति अञ्जस्मिम्पि भवे ।
धरसद्दस्स द्विकम्मिकत्ता "उपासक''न्ति इदम्पि कम्ममेव, तञ्च खो आकारट्ठानेति अत्थमत्तं दस्सेतुं "उपासको अयन्ति एवं धारेतू"ति वुत्तं । धारेतूति च उपधारेतूति अत्थो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
उपधारणञ्चेत्थ जाननमेवाति दस्सेति “जानातू" ति इमिना । उपासकविधिकोसल्लत्थन्ति उपासकभावविधानकोसल्लत्थं । को उपासकोति सरूपपुच्छा, किं लक्खणो उपासको नामाति वृत्तं होति । कस्माति हेतुपुच्छा, केन पवत्तिनिमित्तेन उपासकसद्दो तस्मिं पुग्गले निरुहोति अधिप्पायो । तेनाह " कस्मा उपासकोति वुच्चती 'ति । सद्दस्स हि अभिधेय्ये पवत्तिनिमित्तमेव तदत्थस्स तब्भावकारणं । किमस्स सीलन्ति वतसमादानपुच्छा, कीदिसं अस्स उपासकस्स सीलं, कित्तकेन वतसमादानेनायं सीलसम्पन्नो नाम होतीति अत्थो । को आजीवोति कम्मसमादानपुच्छा, को अस्स सम्माआजीवो, केन कम्मसमादानेन अस्स आजीवो सम्भवतीति पुच्छति, सो पन मिच्छाजीवस्स परिवज्जनेन होतीति मिच्छाजीवोपि विभजीयति । का विपत्तीति तदुभयेसं विप्पटिपत्तिपुच्छा, का अस्स उपासकस्स सीलस्स, आजीवस्स च विपत्तीति अत्थो । सामञ्जनिट्ठेि हि सति अनन्तरस्सेव विधि वा पटिसेधो वाति अनन्तरस्स गहणं । का सम्पत्तीति तदुभयेसमेव सम्मापटिपत्तिपुच्छा, का अस्स उपासकस्स सीलस्स, आजीवस्स च सम्पत्तीति वुत्तनयेन अत्थो । सरूपवचनत्थादिसङ्घातेन पकारेन किरतीति पकिण्णं, तदेव पकिण्णकं, अनेकाकारेन पवत्तं अत्थविनिच्छयन्ति अत्थो ।
(२.२.२५० - २५०)
यो कोचीति खत्तियब्राह्मणादीसु यो कोचि, इमिना पदेन अकारणमेत्थ जाति आदिविसेसोति दस्सेति, “सरणगतो" ति इमिना पन सरणगमनमेवेत्थ पमाणन्ति । " गहट्ठो" ति च इमिना आगारिकेस्वेव उपासकसद्दो निरुळहो, न पब्बज्जूपगतेसूति । तमत्थं महावग्गसंयुत्ते महानामसुत्तेन (सं० नि० ३.५.१०३३) साधेन्तो “वुत्तञ्हेत "न्ति आदिमाह । तत्थ यतोति बुद्धादिसरणगमनतो । महानामाति अत्तनो चूळपितुनो सुक्कोदनस्स पुत्तं महानामं नाम सक्यराजानं भगवा आलपति । एत्तावताति एत्तकेन बुद्धादिसरणगमनेन उपासको नाम होति, न जाति आदीहि कारणेहीति अधिप्पायो । कामञ्च तपुस्सभल्लिकानं विय द्वेवाचिकउपासकभावोपि अत्थि, सो पन तदा वत्थुत्तयाभावतो कदाचियेव होतीति सब्बदा पवत्तं तेवाचिकउपासकभावं दस्सेतुं “सरणगतो" ति वृत्तं । तेपि पिच्छा तिसरणगता एव, न चेत्थ सम्भवति अञ्ञं पटिक्खिपित्वा एकं वा द्वे वा सरणगतो उपासको नामाति इममत्थम्पि आपेतुं एवं वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।
उपासनतोति तेनेव सरणगमनेन, तत्थ च सक्कच्चकारिताय गारवबहुमानादियोगेन पयिरुपासनतो, इमिना कत्वत्थं दस्सेति । तेनाह “सो ही " तिआदि ।
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(२.२.२५०-२५०)
सरणगमनकथावण्णना
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वेरमणियोति एत्थ वेरं वुच्चति पाणातिपातादिदुस्सील्यं, तस्स मणनतो हननतो विनासनतो वेरमणियो नाम, पञ्च विरतियो विरतिपधानत्ता तस्स सीलस्स । तथा हि उदाहटे महानामसुत्ते वुत्तं "पाणातिपाता पटिविरतो होती"तिआदि (सं० नि० ३.५.१०३३) “यथाहा"तिआदिना साधकं, सरूपञ्च दस्सेति यथा तं उय्यानपालस्स एकेनेव उदकपतिट्ठानपयोगेन अम्बसेचनं, गरुसिनानञ्च । यथाह अम्बविमाने (वि० व० ११५१ आदयो)
"अम्बो च सित्तो समणो च न्हापितो, मया च पुञ्ज पसुतं अनप्पकं । इति सो पीतिया कायं, सब् फरति अत्तनो''ति ।। ["अम्बो च सिञ्चतो आसि, समणो च नहापितो। बहुञ्च पुझं पसुतं, अहो सफलं जीवित"न्ति ।। (इध टीकायं मूलपाठो)]
एवमीदिसेसु । एत्तावताति एत्तकेन पञ्चवेरविरतिमत्तेन ।
मिच्छावणिज्जाति अयुत्तवणिज्जा, न सम्मावणिज्जा, असारुप्पवणिज्जकम्मानीति अत्थो। पहायाति अकरणेनेव पजहित्वा। धम्मेनाति धम्मतो अनपेतेन, तेन मिच्छावणिज्जकम्मेन आजीवनतो अझम्पि अधम्मिकं आजीवनं पटिक्खिपति | समेनाति अविसमेन, तेन कायविसमादिदुच्चरितं वज्जेत्वा कायसमादिना सुचरितेन आजीवन दस्सेति । "वुत्त हेत"न्तिआदिना पञ्चङ्गुत्तरपाळिमाहरित्वा साधकं, सरूपञ्च दस्सेति वाणिजानं अयन्ति वणिज्जा, यस्स कस्सचि विक्कयो, इथिलिङ्गपदमेतं । सत्थवणिज्जाति आवुधभण्डं कत्वा वा कारेत्वा वा यथाकतं पटिलभित्वा वा तस्स विक्कयो सत्तवणिज्जाति मनुस्सविक्कयो । मंसवणिज्जाति सूनकारादयो विय मिगसूकरादिके पोसेत्वा मंसं सम्पादेत्वा विक्कयो। मज्जवणिज्जाति यं किञ्चि मज्ज योजेत्वा तस्स विक्कयो विसवणिज्जाति विसं योजत्वा, सङ्गहेत्वा वा तस्स विक्कयो। तत्थ सस्थवणिज्जा परोपरोधनिमित्तताय अकरणीयाति वुत्ता, सत्तवणिज्जा अभुजिस्सभावकरणतो, मंसवणिज्ज वधहेतुतो, मज्जवणिज्जा पमादट्ठानतो, विसवणिज्जा परूपघातकारणतो ।
तस्सेवाति यथावुत्तस्स पञ्चवेरमणिलक्खणस्स सीलस्स चेट पञ्चमिच्छावणिज्जादिप्पहानलक्खणस्स आजीवस्स च पटिनिद्देसो । विपत्तीति भेदो, पकोपे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२५०-२५०)
च। एवं सीलआजीवविपत्तिवसेन उपासकस्स विपत्तिं दस्सेत्वा अस्सद्धियादिवसेनपि दस्सेन्तो “अपिचा"तिआदिमाह। यायाति अस्सद्धियादिविप्पटिपत्तिया। चण्डालोति नीचधम्मजातिकट्ठेन उपासकचण्डालो। मलन्ति मलीनटेन उपासकमलं । पतिकिट्ठोति लामकटेन उपासकनिहीनो । सापिस्साति सापि अस्सद्धियादिविप्पटिपत्ति अस्स उपासकस्स विपत्तीति वेदितब्बा । का पनायन्ति वुत्तं “ते चा"तिआदि । उपासकचण्डालसुत्तं, (अ० नि० २.५.१७५) उपासकरतनसुत्तञ्च पञ्चङ्गुत्तरे । तत्थ बुद्धादीसु, कम्मकम्मफलेसु च सद्धाविपरियायो मिच्छाविमोक्खो अस्सद्धियं, तेन समन्नागतो अस्सद्धो । यथावुत्तसीलविपत्तिआजीवविपत्तिवसेन दुस्सीलो। “इमिना दिवादिना इदं नाम मङ्गलं होती"ति एवं बालजनपरिकप्पितेन कोतूहलसङ्घातेन दिट्ठसुतमुतमङ्गलेन समन्नागतो कोतूहलमङ्गलिको। मङ्गलं पच्चेतीति दिट्ठमङ्गलादिभेदं मङ्गलमेव पत्तियायति नो कम्मन्ति कम्मस्सकतं नो पत्तियायति । इतो च बहिद्धाति इतो सब्ब बुद्धसासनतो बहिद्धा बाहिरकसमये । च-सद्दो अट्टानपयुत्तो, सब्बत्थ “अस्सद्धो"तिआदीसु योजेतब्बो । दक्खिणेय्यं परियेसतीति दुप्पटिपन्नं दक्खिणारहसञी गवसति । तत्थाति बहिद्धा बाहिरकसमये | पुब्बकारं करोतीति पठमतरं दानमाननादिकं कुसलकिरियं करोति, बाहिरकसमये पठमतरं कुसलकिरियं कत्वा पच्छा सासने करोतीति वुत्तं होतीति । तत्थाति वा तेसं बाहिरकानं तित्थियानन्तिपि वदन्ति । एत्थ च दक्खिणेय्यपरियेसनपुब्बकारे एकं कत्वा पञ्च धम्मा वेदितब्बा।
अस्साति उपासकस्स। सीलसम्पदाति यथावुत्तेन पञ्चवेरमणिलक्खणेन सीलेन सम्पदा । आजीवसम्पदाति पञ्चमिच्छावणिज्जादिप्पहानलक्खणेन आजीवेन सम्पदा । एवं सीलसम्पदाआजीवसम्पदावसेन उपासकस्स सम्पत्तिं दस्सेत्वा सद्धादिवसेनपि दस्सेन्तो "ये चस्सा"तिआदिमाह | ये च पञ्च धम्मा, तेपि अस्स सम्पत्तीति योजना । धम्मेहीति गणेहि। चतन्नं परिसानं रतिजननटेन उपासकोव रतनं उपासकरतनं । गुणसोभाकित्तिसद्दसुगन्धतादीहि उपासकोव पदुमं उपासकपदुमं । तथा उपासकपुण्डरीकं। सेसं विपत्तियं वुत्तविपरियायेन वेदितब्बं ।
निगण्ठीनन्ति निगण्ठसमणीनं । आदिम्हीति पठमत्थे । उच्छग्गन्ति उच्छुअग्गं उच्छुकोटि । तथा वेळग्गन्ति एत्थापि । कोटियन्ति परियन्तकोटियं, परियन्तत्थेति अत्थो । अम्बिलग्गन्ति अम्बिलकोट्ठासं । तथा तित्तकग्गन्ति एत्थापि । विहारग्गेनाति ओवरककोट्ठासेन "इमस्मिं गब्भे वसन्तानं इदं नाम फलं पापुणाती''तिआदिना तंतंवसनट्ठानकोट्ठासेनाति
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(२.२.२५०-२५०)
सरणगमनकथावण्णना
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अत्थो । परिवेणग्गेनाति एत्थापि एसेव नयो । अग्गेति एत्थ उपयोगवचनस्स एकारादेसो, वचनविपल्लासो वा, कत्वा-सद्दो च सेसोति वुत्तं “आदि कत्वा"ति । भावत्थे ता-सद्दोति दस्सेति “अज्जभाव"न्ति इमिना, अज्जभावो च नाम तस्मिं धम्मस्सवनसमये धरमानकतापापुणकभावो। तदा हि तं निस्सयवसेन धरमानतं निमित्तं कत्वा तंदिवसनिस्सितअरुणुग्गमनतो पट्ठाय याव पुन अरुणुग्गमना एत्थन्तरे अज्जसदो पवत्तति, तस्मा तस्मिं समये धरमानकतासङ्खातं अज्जभावं आदि कत्वाति अत्थो दट्ठब्बो । अज्जतन्ति वा अज्जइच्चेव अत्थो ता-सद्दस्स सकत्थवुत्तितो यथा “देवता''ति, अयं आचरियानं मति । एवं पठमक्खरेन दिस्समानपाठानुरूपं अत्थं दस्सेत्वा इदानि ततियक्खरेन दिस्समानपाठानुरूपं अत्थं दस्सेतुं "अज्जदग्गेति वा पाठो"तिआदि वुत्तं | आगममत्तत्ता दकारो पदसन्धिकरो। अज्जाति हि नेपातिकमिदं पदं । तेनाह "अज्ज अग्गन्ति अत्थो"ति |
"पाणो"ति इदं परमत्थतो जीवितिन्द्रिये एव, “पाणुपेत"न्ति च करणत्थेनेव समासोति आपेतुं "याव मे जीवितं पवत्तति, ताव उपेत"न्ति आह । उपेति उपगच्छतीति हि उपेतो, पाणेहि करणभूतेहि उपेतो पाणुपेतोति अत्थो आचरियेहि अभिमतो । इमिना च “पाणुपेतन्ति इदं पदं तस्स सरणगमनस्स आपाणकोटिकतादस्सन''न्ति इममत्थं विभावेति । “पाणुपेत''न्ति हि इमिना याव मे पाणा धरन्ति, ताव सरणं उपेतो, उपेन्तो च न वाचामत्तेन, न च एकवारं चित्तुप्पादमत्तेन, अथ खो पाणानं परिच्चजनवसेन यावजीवं उपेतोति आपाणकोटिकता दस्सिता। "तीहि...पे०... गत"न्ति इदं “सरणं गत"न्ति एतस्स अत्थवचनं। "अनञसत्थुक"न्ति इदं पन अन्तोगधावधारणेन, अञ्जत्थापोहनेन च निवत्तेतब्बत्थदस्सनं । एकच्चो कप्पियकारकसद्दस्स अत्थो उपासकसद्दस्स वचनीयोपि भवतीति वुत्तं "उपासकं कप्पियकारक"न्ति, अत्तसन्निय्यातनसरणगमनं वा सन्धाय एवं वुत्तन्ति दट्ठब्बं । एवं “पाणुपेत"न्ति इमिना नीतत्थतो दस्सितं तस्स सरणगमनस्स आपाणकोटिकतं दस्सेत्वा एवं वदन्तो पनेस राजा "जीवितेन सह वत्थुत्तयं पटिपूजेन्तो सरणगमनं रक्खामी''ति अधिप्पायं विभावेतीति नेय्यत्थतो विभावितं तस्स रो अधिप्पायं विभावेन्तो “अहही"तिआदिमाह । तत्थ हि-सदो समत्थने, कारणत्थे वा, तेन इमाय युत्तिया, इमिना वा कारणेन उपासकं मं भगवा धारेतूति अयमत्थो पकासितो।
- अच्चयनं साधुमरियादं अतिक्कम्म मदित्वा पवत्तनं अच्चयो, कायिकादिअज्झाचारसङ्घातो दोसोति आह “अपराधो"ति, अच्चेति अभिभवित्वा पवत्तति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
एतेनाति वा अच्चयो, कायिकादिवीतिक्कमस्स पवत्तनको अकुसलधम्मसङ्घातो दोसो एव, सो च अपरज्झति एतेनाति अपराधोति वुच्चति । सो हि अपरज्झन्तं पुरिसं अभिभवित्वा पवत्तति । तेनाह “अतिक्कम्म अभिभवित्वा पवत्तो 'ति । धम्मन्ति दसराजधम्मं | वित्थारो पनेतस्स महाहंसजातकादीहि विभावेतब्बो । चरतीति आचरति करोति । धम्मेनेवाति धम्मतो अनपेतेनेव, अनपेतकुसलधम्मेनेवाति अत्थो । तेनाह " न पितुघातनादिना अधम्मेना "ति । " पटिग्गण्हातू" ति एतस्स अधिवासनं सम्पटिच्छतूति सद्दतो अत्थो, अधिप्पायतो पन अत्यं दस्सेतुं “खमतू 'ति वृत्तं । पुन अकरणमेत्थ संवत दस्सेति " पुन एवरूपस्सा "तिआदिना । " अपराधस्सा "तिआदि अञ्ञमञ्जं वेवचनं ।
।
२५१. “ यथाधम्मो ठितो, तथैवाति इमिनापि यथा - सद्दस्स अनुरूपत्थमाह, साधुसमाचिण्णकुसलधम्मानुरूपन्ति अत्थो । पटिसद्दस्स अनत्थकतं दस्सेति “करोसी "ति इमिना । पटिकम्मं करोसीतिपि वदन्ति । यथाधम्मं पटिकरणं नाम कतापराधस्स खमापनमेवाति आह " खमापेसीति वुत्तं होती 'ति । “पटिग्गण्हामा "ति एतस्स अधिवासनं सम्पटिच्छामाति अत्थं दस्सेति " खमामा "ति इमिना । वुद्धि हेसाति एत्थ ह-कारो पदसिलिट्ठताय आगमो हि सद्दो वा निपातमत्तं एसाति यथाधम्मं पटिकिरिया, आयतिं संवरापज्जना च । तेनाह “यो अच्चयं... पे०... आपज्जती 'ति । सदेवकेन लोकेन ‘“सरण”न्ति अरणीयतो उपगन्तब्बतो तथागतो अरियो नामाति वुत्तं “बुद्धस्स भगवतो 'ति । विनेति सत्ते एतेनाति विनयो, सासनं । वद्धति सग्गमोक्खसम्पत्ति एतायाति बुद्धि । कतमा पन सा, या "एसा "ति निद्दिट्ठा वुद्धीति चोदनमपनेतुं “यो अच्चय"न्तिआदि वुत्तन्ति सम्बन्धं दस्सेति " कतमा "तिआदिना, या अयं संवरापज्जना, सा " एसा "ति निद्दिट्ठा वुद्धि नामाति अत्थो । “यथाधम्मं पटिकरोतीति इदं आयति संवरापज्जनाय पुब्बकिरियादरसनन्ति विञ्ञापनत्थं “यथाधम्मं पटिकरित्वा आयति संवरापज्जना ”ति वृत्तं । एसा हि आचरियानं पकति, यदिदं येन केनचि पकारेन अधिप्पायन्तरविञ्ञापनं, एतपदेन पन तस्सापि पटिनिद्देसो सम्भवति " यथाधम्मं पटिकरोती” तिपि पटिनिद्दिसितब्बस्स दस्सनतो । केचि पन " यथाधम्मं पटिकरोती 'ति इदं पुब्बकिरियामत्तस्सेव दस्सनं, न पटिनिद्दिसितब्बस्स । 'आयतिञ्च संवरं आपज्जती 'ति इदं पन पटिनिद्दिसितब्बस्सेवाति विञ्ञापनत्थं एवं वुत्तन्ति वदन्ति तदयुत्तमेव खमापनस्सापि वुद्धिहेतुभावेन अरियूपवादे वृत्तत्ता । इतरथा हि खमापनाभावेपि आयतिं संवरापज्जनाय एव अरियूपवादापगमनं वत्तं सिया, न च पन वृत्तं तस्मा व्रत्तनयेनेव अत्थो वेदितब्बति ।
( २.२.२५१-२५१)
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(२.२.२५२-२५२)
सरणगमनकथावण्णना
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कस्मा पन “याय"न्तिआदिना धम्मनिद्देसो दस्सितो, ननु पाळियं “यो अच्चय"न्तिआदिना पुग्गलनिद्देसो कतोति चोदनं सोधेतुं "देसनं पना"तिआदि आरद्धं । पुग्गलाधिद्वानं करोन्तोति पुग्गलाधिट्ठानधम्मदेसनं करोन्तो। पुग्गलाधिट्ठानापि हि पुग्गलाधिट्ठानधम्मदेसना, पुग्गलाधिट्टानपुग्गलदेसनाति दुविधा होति । अयमेत्थाधिप्पायोकिञ्चापि “वुद्धि हेसा''तिआदिना धम्माधिट्ठानदेसना आरद्धा, तथापि पुन पुग्गलाधिट्ठानं करोन्तेन “यो अच्चय''न्तिआदिना पुग्गलाधिट्ठानदेसना आरद्धा देसनाविलासवसेन, वेनेय्यज्झासयवसेन चाति । तदुभयवसेनेव हि धम्माधिट्ठानादिभेदेन चतुब्बिधा देसना ।
२५२. वचसायत्तेति वचसा आयत्ते । वाचापटिबन्धत्तेति वदन्ति, तं “सो ही''तिआदिना विरुद्धं विय दिस्सति । वचसायत्थेति पन वाचापरियोसानत्थेति अत्थो युत्तो
ओसानकरणत्थस्स सासद्दस्स वसेन सायसद्दनिप्फत्तितो यथा “दायो''ति । एवहि समत्थनवचनम्पि उपपन्नं होति । गमनाय कतं वाचापरियोसानं कत्वा वुत्तत्ता तस्मिंयेव अत्थे वत्ततीति । हन्दसद्दहि चोदनत्थे, वचसग्गत्थे च इच्छन्ति । “हन्द दानि भिक्खवे आमन्तयामी''तिआदीसु (दी० नि० २.२१८; सं० नि० १.१.१८६) हि चोदनत्थे, "हन्द दानि अपायामी"तिआदीसु (जा० २.२२.८४३) वचसग्गत्थे, वचसग्गो च नाम वाचाविस्सज्जनं, तञ्च वाचापरियोसानमेवाति दट्ठब् | दुक्करकिच्चवसेन बहुकिच्चताति आह "बलवकिच्चा''ति । “अवस्सं कत्तब्बं किच्चं, इतरं करणीयं। पठमं वा कत्तब्ध किच्चं, पच्छा कत्तब्बं करणीयं । खुद्दकं वा किच्चं, महन्तं करणीय"न्तिपि उदानट्ठकथादीसु (उदा० अट्ठ० १५) वुत्तं। यं-तं-सद्दानं निच्चसम्बन्धत्ता, गमनकालजाननतो, अञकिरियाय च अनुपयुत्तत्ता "तस्स कालं त्वमेव जानासी"ति वुत्तं । इदं वुत्तं होति "तया अातं गमनकालं त्वमेव ञत्वा गच्छाही"ति । अथ वा यथा कत्तब्बकिच्चनियोजने "इमं जान, इमं देहि, इमं आहरा''ति (पाचि० ८८, ९३) वुत्तं, तथा इधापि तया जातं कालं त्वमेव जानासि, गमनवसेन करोहीति गमने नियोजेतीति दस्सेतुं "त्वमेव जानासी"ति पाठसेसो वुत्तोति दट्ठब्बं । “तिक्खत्तुं पदक्खिणं कत्वा"तिआदि यथासमाचिण्णं पकरणाधिगतमत्तं दस्सेतुं वुत्तं । तत्थ पदक्खिणन्ति पकारतो कतं दक्खिणं। तेनाह "तिक्खत्तु"न्ति । दसनखसमोधानसमुज्जलन्ति द्वीसु हत्थेसु जातानं दसन्नं नखानं समोधानेन एकीभावेन समुज्जलन्तं, तेन द्विन्नं करतलानं समठ्ठपनं दस्सेति । अञ्जलिन्ति हत्थपुटं । अञ्जति ब्यत्तिं पकासेति एतायाति अञ्जलि। अञ्जु-सद्दज्हि ब्यत्तियं, अलिपच्चयञ्च इच्छन्ति सद्दविदू । अभिमुखोवाति सम्मुखो एव, न भगवतो पिढेि दस्सेत्वाति अत्थो । पञ्चप्पतिट्ठितवन्दनानयो वुत्तो एव ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
२५३. इमस्मिंयेव अत्तभावे विपच्चनकानं अत्तनो पुब्बे कतकुसलमूलानं खणनेन खतो, तेसमेव उपहननेन उपहतो, पदद्वयेनपि तस्स कम्मापराधमेव दस्सेति परियावचनत्ता पदद्वयस्स । कुसलमूलसङ्घातपतिट्ठाभेदनेन खतूपहतभावं दस्सेतुं “भिन्नपतिट्ठो जातो 'ति वृत्तं । पतिट्ठा, मूलन्ति च अत्थतो एकं । पतिट्ठहति सम्मत्तनियामोक्कमनं एतायाति हि पतिट्ठा, तस्स कुसलूपनिस्सयसम्पदा, सा किरियापराधेन भिन्ना विनासिता एतेनाति भिन्त्रपतिट्ठो । तदेव वित्थारेन्तो " तथा "तिआदिमाह । यथा कुसलमूलसङ्घाता अत्तनो पतिट्ठानजाता, तथा अनेन रजा अत्तनाव अत्ता खतो खनितोति योजना । खतोति हि इदं इध कम्मवसेन सिद्धं, पाळियं पन कत्तुवसेनाति दट्ठब्बं | पदद्वयस्स परियायत्ता "उपहतो 'ति इध न वुत्तं ।
" रागो रजो न च पन रेणु वुच्चती' तिआदि ( महानि० २०९ ; चूळनि० ७४) वचनतो रागदोसमोहाव इध रजो नामाति वृत्तं " रागरजादिविरहित "न्ति । वीतसद्दस्स विगतपरियायतं दस्सेति “विगतत्ता " ति इमिना । धम्मेसु चक्खुन्ति चतुसच्चधम्मेसु पवत्तं तेसं दस्सनट्ठेन चक्खुं । धम्मेसूति वा हेट्ठिमेसु तीसु मग्गधम्मेसु । चक्खुन्ति सोतापत्तिमग्गसङ्घातं एकं चक्खु, समुदायेकदेसवसेन आधारत्थसमासोयं, न तु निद्धारणत्थसमासो । सो हि सासनगन्थेसु, सक्कतगन्थेसु च सब्बत्थ पटिसिद्धोति । धम्ममयन्ति समथविपस्सनाधम्मेन निब्बत्तं इमिना “धम्मेन निब्बत्तं चक्खु धम्मचक्खू' ति अत्थमाह । अपिच धम्ममयन्ति सीलादितिविधधम्मक्खन्धोयेव मय - सद्दस्स सकत्थे पवत्तनतो, अनेन “धम्मोयेव चक्खु धम्मचक्खू'" ति अत्थमाह । असु ठानेसूति असु सुत्तपदेसेसु, एतेन यथापाठं तिविधत्थतं दस्सेति । इध पन सोतापत्तिमग्गस्सेवेतं अधिवचनं, तस्मिम्पि अनधिगते असं वत्तब्बतायेव अभावतोति अधिप्पायो ।
(२.२.२५३ - २५३)
इदानि “खतायं भिक्खवे राजा 'तिआदिपाठस्स सुविज्ञेय्यमधिप्पायं दस्सेन्तो “इदं वृत्तं होती "तिआदिमाह । तत्थ नाभविस्साति सचे न अभविस्सथ, एवं सतीति अत्थो । अतीते हि इदं कालातिपत्तिवचनं, न अनागतेति दट्ठब्बं । एस नयो सोतापत्तिमग्गं पत्तो अभविस्साति एत्थापि । ननु च मग्गपापुणनवचनं भविस्समानत्ता अनागतकालिकन्ति ? सच्चं अनियमिते, इध पन " इधेवासने निसिन्नोति नियमितत्ता अतीतकालिकमेवाति वेदितब्बं । इदहि भगवा रञ्ञो आसना वुट्ठाय अचिरपक्कन्तस्सेव अवोचाति । पापमित्तसंसग्गेनाति देवदत्तेन, देवदत्तपरिसासङ्घातेन च पापमित्तेन संसग्गतो । अस्साति सोतापत्तिमग्गस्स । " एवं सन्तेपी "तिआदिना पाठानारुळ्हं वचनावसेसं दस्सेति । तस्माति
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(२.२.२५३-२५३)
सरणं गतत्ता मुच्चिस्सतीति सम्बन्धी । “ मम च सासनमहन्तताया "ति पाठो यत्तो, कत्थचि पन च - सद्दो न दिस्सति, तत्थ सो लुत्तनिद्दिट्ठोति दट्ठब्बं । न केवलं सरणं गतत्तायेव मुच्चिस्सति, अथ खो यत्थ एस पसन्नो, पसन्नाकारञ्च करोति तस्स च तिविधस्सपि सासनस्स उत्तमतायाति हि सह समुच्चयेन अत्थो अधिप्पेतोति ।
सरणगमनकथावण्णना
“यथा नामा'तिआदि दुक्करकम्मविपाकतो सुकरेन मुच्चनेन उपमादस्सनं । कोचीत कोचि पुरिसो । कस्सचीति कस्सचि पुरिसस्स, " वध "न्ति एत्थ भावयोगे कम्म सामिवचनं । पुप्फमुट्ठिमत्तेन दण्डेनाति पुप्फमुट्ठिमत्तसङ्घातेन धनदण्डेन । मुच्चेय्याति वधकम्मदण्डतो मुच्चेय्य, दण्डेनाति वा निस्सक्कत्थे करणवचनं “ सुमुत्ता मयं तेन महासमणेना’'तिआदीसु ( दी० नि० २.२३२; चूळव० ४३७) विय, पुप्फमुट्ठिमत्तेन धनदण्डतो, वधदण्डतो च मुच्चेय्याति अत्थो । लोहकुम्भियन्ति लोहकुम्भिनरके । तथ तदनुभवनकानं सत्तानं कम्मबलेन लोहमया महती कुम्भी निब्बत्ता, तस्मा तं " लोहकुम्भी " ति वुच्चति । उपरिमतलतो अधो पतन्तो, हेट्ठिमतलतो उद्धं गच्छन्तो, उभयथा पन सट्ठिवस्ससहस्सानि होन्ति । वुत्तञ्च -
‘“सट्ठिवस्ससहस्सानि, परिपुण्णानि सब्बसो ।
निरये पच्चमानानं, कदा अन्तो भविस्सतीति ।। (पे० व० ८०२; जा० १.४.५४)
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“हेट्ठिमतलं पत्वा, उपरिमतलं पापुणित्वा मुच्चिस्सती 'ति वदन्तो इममत्थं दीपेति - यथा अञ्जे सेट्ठिपुत्तादयो अपरापरं अधो पतन्ता, उद्धं गच्छन्ता च अनेकानि वस्ससतसहस्सानि तत्थ पच्चन्ति न तथा अयं, अयं पन राजा यथावुत्तकारणे एकवारमेव अधो पतन्तो, उद्धञ्च गच्छन्तो सट्ठिवस्ससहस्सानियेव पच्चित्वा मुच्चिरतीति । अयं पन अत्यो कुतो लद्धोति अनुयोगं परिहरन्तो “ इदम्पि किर भगवता वुत्तमेवात आह । किरसद्दो चेत्थ अनुस्सवनत्थो, तेन भगवता वुत्तभावस्स आचरियपरम्परतो सुय्यमानतं, इमस्स च अत्थस्स आचरियपरम्पराभतभावं दीपेति । अथ पाळियं सङ्गीतं सियाति चोदनमपनेति "पाळियं पन न आरुळ्ह "न्ति इमिना, पकिण्णकदेसनाभावेन पाळियमनारुळहत्ता पाठभावेन न सङ्गीतन्ति अधिप्पायो । पकिण्णकदेसना हि पाळियमनारुळहाति अट्ठकथास् वृत्तं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.२.२५३-२५३)
यदि अनन्तरे अत्तभावे नरके पच्चति, एवं सति इमं देसनं सुत्वा को रओ आनिसंसो लद्धोति कस्सचि आसङ्का सियाति तदासङ्कानिवत्तनत्थं चोदनं उद्धरित्वा परिहरितुं "इदं पना''तिआदि वुत्तं। “अयही"तिआदिना निद्दालाभादिकं दिट्ठधम्मिकसम्परायिकं अनेकविधं महानिसंसं सरूपतो नियमेत्वा दस्सेति । एत्थ हि "अयं...पे०... निदं लभती''ति इमिना निद्दालाभं दस्सेति, तदा कायिकचेतसिकदुक्खापगतभावञ्च निद्दालाभसीसेन, "तिण्णं...पे०... अकासी"ति इमिना तिण्णं रतनानं महासक्कारकिरियं, “पोथुज्जनिकाय...पे०... नाहोसी"ति इमिना सातिसयं पोथुज्जनिकसद्धापटिलाभं दस्सेतीति एवमादि दिट्ठधम्मिको, “अनागते...पे०... परिनिब्बायिस्सती"ति इमिना पन उक्कंसतो सम्परायिको दस्सितो, अनवसेसतो पन अपरापरेसु भवेसु अपरिमाणोयेव सम्परायिको वेदितब्बो ।
तत्थ मधुरायाति मधुररसभूताय । ओजवन्तियाति मधुररसस्सापि सारभूताय ओजाय ओजवतिया। पुथुज्जने भवा पोथुज्जनिका। पञ्च मारे विसेसतो जितवाति विजितावी, परूपदेसविरहता चेत्थ विसेसभावो । पच्चेकं अभिसम्बुद्धोति पच्चेकबुद्धो, अनाचरियको हुत्वा साम व सम्बोधिं अभिसम्बुद्धोति अत्थो । तथा हि “पच्चेकबुद्धा सयमेव बुज्झन्ति, न परे बोधेन्ति, अत्थरसमेव पटिविज्झन्ति, न धम्मरसं । न हि ते लोकुत्तरधम्मं पञत्तिं आरोपेत्वा देसेतुं सक्कोन्ति, मूगेन दिट्ठसुपिनो विय, वनचरकेन नगरे सायितब्यञ्जनरसो विय च नेसं धम्माभिसमयो होति, सब् इद्धिसमापत्तिपटिसम्भिदापभेदं पापुणन्ती''ति (सु० नि० अट्ठ० १.खग्गविसाणसुत्तवण्णना; अप० अट्ठ० १.९०, ९१) अट्ठकथासु वुत्तं ।
एत्थाह - यदि रञो कम्मन्तरायाभावे तस्मिंयेव आसने धम्मचक्खु उप्पज्जिस्सथ, अथ कथं अनागते पच्चेकबुद्धो हुत्वा परिनिब्बायिस्सति । यदि च अनागते पच्चेकबुद्धो हुत्वा परिनिब्बायिस्सति, अथ कथं तस्मिंयेव आसने धम्मचक्खु उप्पज्जिस्सथ, ननु इमे सावकबोधिपच्चेकबोधिउपनिस्सया भिन्ननिस्सया द्विन्नं बोधीनं असाधारणभावतो । असाधारणा हि एता द्वे यथाक्कम पञ्चङ्गद्वयङ्गसम्पत्तिया, अभिनीहारसमिद्धिवसेन, पारमीसम्भरणकालवसेन, अभिसम्बुज्झनवसेन चाति ? नायं विरोधो इतो परतोयेवस्स पच्चेकबोधिसम्भारानं सम्भरणीयत्ता। सावकबोधिया बुज्झनकसत्तापि हि असति तस्सा समवाये कालन्तरे पच्चेकबोधिया बुज्झिस्सन्ति तथाभिनीहारस्स सम्भवतोति । अपरे पन भणन्ति - “पच्चेकबोधियायेवायं राजा कताभिनीहारो। कताभिनीहारापि हि तत्थ
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(२.२.२५३-२५३)
सरणगमनकथावण्णना
नियतिमप्पत्ता तस्स आणस्स परिपाकं अनुपगतत्ता सत्थु सम्मुखीभावे सावकबोधिं पापुणिस्सन्तीति भगवा 'सचायं भिक्खवे राजा'तिआदिमवोच, महाबोधिसत्तानमेव च आनन्तरियपरिमुत्ति होति, न इतरेसं बोधिसत्तानं । तथा हि पच्चेकबोधियं नियतो समानो देवदत्तो चिरकालसम्भूतेन लोकनाथे आघातेन गरुतरानि आनन्तरियकम्मानि पसवि, तस्मा कम्मन्तरायेन अयं इदानि असमवेतदस्सनाभिसमयो राजा पच्चेकबोधिनियामेन अनागते विजितावी नाम पच्चेकबुद्धो हुत्वा परिनिब्बायिस्सती"ति दट्टब्बं, युत्ततरमेत्थ वीमंसित्वा गहेतब्बं ।
यथावुत्तं पाळिमेव संवण्णनाय निगमवसेन दस्सेन्तो "इदमवोचा"तिआदिमाह । तस्सत्थो हि हेट्ठा वुत्तोति । अपिच पाळियमनारुळहम्पि अत्थं सङ्गहेतुं "इदमवोचा'तिआदिना निगमनं करोतीति दट्ठब् ।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्जावेय्यत्तियजननाय अज्जवमद्दवसोरच्चसद्धासतिधितिबुद्धिखन्तिवीरियादिधम्मसमङ्गिना साट्ठकथे पिटकत्तये असङ्गासंहिरविसारदाणचारिना अनेकप्पभेदसकसमयसमयन्तरगहनज्झोगाहिना महागणिना महावेय्याकरणेन आणाभिवंसधम्मसेनापतिनामथेरेन महाधम्मराजाधिराजगरुना कताय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थप्पकासनिया सामञफलसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
सामञफलसुत्तवण्णना निहिता।
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३. अम्बट्ठसुत्तवण्णना
अद्धानगमनवण्णना
२५४. एवं सामञफलसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि अम्बट्ठसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, सामञफलसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स अम्बठ्ठसुत्तभावं पकासेतुं "एवं मे सुतं...पे०... कोसलेसूति अम्बट्ठसुत्त"न्ति आह । एवमीदिसेसु । इतिसद्दो चेत्थ आदिअत्थो, पदत्थविपल्लासजोतको पन इतिसद्दो लुत्तनिद्दिट्ठो, आदिसद्दलोपो वा एस, उपलक्खणनिद्देसो वा । अपुब्बपदवण्णना नाम हेट्ठा अग्गहितताय अपुब्बस्स पदस्स अत्थविभजना । “हित्वा पुनप्पुनागत-मत्थं अत्थं पकासयिस्सामी''ति (दी० नि० अट्ठ० १. गन्थारम्भकथा) हि वुत्तं, "अनुपुब्बपदवण्णना''ति कत्थचि पाठो, सो अयुत्तोव टीकाय अनुद्धटत्ता, तथा असंवण्णितत्ता च ।
"राजकुमारा गोत्तवसेन कोसला नामा''ति (दी० नि० टी० १.२५४) आचरियेन वुत्तं । अक्खरचिन्तका पन वदन्ति “कोसं लन्ति गण्हन्ति, कुसलं वा पुच्छन्तीति कोसला'ति । जनपदिनोति जनपदवन्तो, जनपदस्स वा इस्सरा । “कोसला नाम राजकुमारा''ति वुत्तेयेव सिद्धेपि “जनपदिनो'"ति वचनं सन्तेसुपि अझेसु तंतनामपञआतेसु तत्थ निवसन्तेसु जनपदिभावतो तेसमेव निवसनमुपादाय जनपदस्सायं समाति दस्सनत्थं । “तेसं निवासो"ति इमिना “कोसलानं निवासा कोसला''ति तद्धितं दस्सेति । "एकोपि जनपदो"ति इमिना पन सद्दतोयेवेतं पुथुवचनं, अत्थतो पनेस एको एवाति विभावेति । अपि-सद्दो चेत्थ अनुग्गहे, तेन कामं एकोयेवेस जनपदो, तथापि इमिना कारणेन पुथुवचनमुपपन्नन्ति अनुग्गण्हाति । यदि एकोव जनपदो, कथं तत्थ बहुवचनन्ति आह “रुव्हिसदेना"तिआदि, रुळिहसद्दत्ता बहुवचनमुपपन्नन्ति वुत्तं होति । निस्सितेसु पयुत्तस्स पुथुवचनस्स, पुथुभावस्स वा निस्सये अभिनिरोपना इध रुळिह, तेन
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(२.३.२५४-२५४)
अद्धानगमनवण्णना
१७३
वुत्तं आचरियेन इध चेव अञ्जत्थ च मज्झिमागमटीकादीसु “अक्खरचिन्तका हि ईदिसेसु ठानेसु युत्ते विय ईदिसलिङ्गवचनानि इच्छन्ति, अयमेत्थ रुळ्हि यथा 'अञत्थापि कुरूसु विहरति, अङ्गेसु विहरती'ति चा''ति । केचि पन कोसलनामाभिनिरोपनमिच्छन्ति, अयुत्तमेतं पुथुवचनस्स अप्पयुज्जितब्बत्ता । नामाभिनिरोपनाय हि एकवचनम्पि भवति यथा “सीहो गायतीति । तब्बिसेसितेपि जनपदसद्दे जातिसद्दत्ता एकवचनमेव । तेनाह "तस्मिं कोसलेसु जनपदे"ति, कोसलनामके तस्मिं जनपदेति अत्थो। अभूततो हि वोहारमत्तं रुळिह, भूततोयेव अत्थो विनिच्छिनितब्बो । यथा हि -
"सन्ति पुत्ता विदेहानं, दीघावू रट्ठवड्डनो । ते रज्जं कारयिस्सन्ति, मिथिलायं पजापती"ति ।। (जा० २.२२.२७६) आदीसु
तंपुत्तसङ्घातस्स एकत्थस्स रुळिहवसेन “पुत्ता'"ति बहुवचनपयोगो, तथा इधापि तन्निवाससङ्घातस्स एकत्थस्स रुळिहवसेन “कोसलेसू"ति बहुवचनपयोगो होति । यथा च "पाणं न हजे, न च'दिन्नमादिये"तिआदीसु (अ० नि० ३.८.४२, ४३, ४५) जातिवसेन बह्वत्थानमेकवचनपयोगो, तथा इधापि जातिवसेन अवयवप्पभेदेन बह्वत्थस्स "जनपदे''ति एकवचनपयोगो होति । वुत्तञ्च आचरियेन मज्झिमागमटीकायं “तब्बिसेसनेपि जनपदसद्दे जातिसद्दे एकवचनमेव । तेनाह ‘तस्मिं अङ्गेसु जनपदे'ति'।
एवं रुळ्हिवसेन बहुम्हि विय वत्तब्बे बहुवचनं दस्सेत्वा इदानि बह्वत्थवसेन बहुम्पि एव वत्तब्बे बहुवचनं दस्सेन्तो "पोराणा पनाहू"तिआदिमाह। पन-सद्दो चेत्थ विसेसत्थजोतनो, तेन पुथुअत्थविसयताय एवेतं पुथुवचनं, न रुळिहवसेनाति वक्खमानं विसेसं जोतेति । सो हि पदेसो तियोजनसतपरिमाणताय बहुप्पभेदोति, इमस्मिं पन नये तेसु कोसलेसु जनपदेसूति अत्थो वेदितब्बो। महापनादन्ति महापनादजातक (जा० १.३.४०, ४१, ४२) सुरुचिजातकेसु (जा० १.१४.१०२ आदयो) आगतं सुरुचिनो नाम विदेहरओ पुत्तं महापनादनामकं राजकुमारं । नानानाटकानीति भण्डुकण्डपण्डुकण्डपमुखानि छसतसहस्सानि नानाविधनाटकानि, कत्थचि पन आदिसद्दोपि दिट्ठो, सो जातकट्ठकथायं न दिस्सति, यदि च दिस्सति, तेन नटलङ्घकादीनं सङ्गहो दट्ठब्बो। सितमत्तम्पीति मिहितमत्तम्पि । तस्स किर दिब्बनाटकानं अनन्तरभवेयेव दिठ्ठत्ता मनुस्सनाटकानं नच्चं अमनुझं अहोसि । नङ्गलानिपि छड्दुत्वाति कसिकम्मप्पहानवसेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५४-२५४)
नङ्गलानि पहाय, निदस्सनमत्तञ्चेतं । न हि केवलं कस्सका एव, अथ खो अओपि उभयरट्ठवासिनो मनुस्सा अत्तनो अत्तनो किच्चं पहाय तस्मिं मङ्गलट्ठाने सन्निपतिंसु । तदा किर महापनादकुमारस्स पासादमङ्गलं, छत्तमङ्गलं, आवाहमङ्गलन्ति तीणि मङ्गलानि एकतो अकंसु, कासिविदेहरट्ठवासिनोपि तत्थ सन्निपतित्वा अतिरेकसत्तवस्सानि छणमनुभविंसूति, अधुना पन “नङ्गलादीनी''ति पाठो दिस्सति, सो न पोराणपाठो टीकायमनुद्धटत्ता ।
महाजनकाये सन्निपतितेति केचि “पहंसनविधिं दस्सेत्वा राजकुमारं हासापेस्सामा''ति, केचि "तं कीळनं पस्सिस्सामा''ति एवं महाजनसमूहे सन्निपतिते । अतुलम्बाभिरुहनदारुचितकपवेसनादि नानाकीळायो दस्सेत्वा। सक्कपेसितो किर दिब्बनाटको राजङ्गणे आकासे ठत्वा उपड्डभागं नाम दस्सेति, एकोव हत्थो, एको पादो, एकं अक्खि, एका दाठा नच्चति चलति, उपर्यु फन्दति, सेसं निच्चलमहोसि, तं दिस्वा महापनादो थोकं हसितमकासि, इममत्थं सन्धाय "सो दिब्बनाटकं दस्सेत्वा हसापेसी"ति वुत्तं । सुहज्जा नाम विस्सासिका "सुट्ट हदयमेतेस"न्ति कत्वा । आदिसद्देन आतकपरिजनादीनं सङ्गहो । तस्माति तथा वचनतो । तं कुसलन्ति वचनं उपादायाति एत्थ “कच्चि कुसलं ? आम कुसल''न्ति वचनपटिवचनवसेन पवत्तकुसलवादिताय ते मनुस्सा आदितो "कुसला"ति समचं लभिंसु, तेसं कुसलानं इस्सराति राजकुमारा कोसला नाम जाता, तेसं निवासट्ठानताय पन पदेसो कोसलाति पुब्बे वुत्तनयमेव । तेनाह “सो पदेसो कोसलाति वुच्चती"ति । एवं मज्झिमागमटीकार्य आचरियेनेव वुत्तं । तत्रायमधिप्पायो सिया- “सो पदेसो कोसलाति वुच्चती"ति सञ्जीसञा यथाक्कम एकवचनबहुवचनवसेन वुत्तत्ता पुरिमनये विय इधापि रुळिहवसेनेव बहुवचनं होति । राजकुमारानं नामलाभहेतुमत्तव्हेत्थ विसेसोति । इध पन आचरियेन एवं वुत्तं सो पदेसोति पदेससामञतो वुत्तं, वचनविपल्लासेन वा, ते पदेसाति अत्थो। कोसलाति वुच्चति कुसला एव कोसलाति कत्वा'"ति (दी० नि० टी० १.२५४) तत्रायमधिप्पायो सिया- सो पदेसोति जातिसद्दवसेन, वचनविपल्लासेन वा वुत्तत्ता पुथुअत्थविसयताय एव बहुवचनं होति । पदेसस्स नामलाभहेतु हेत्थ विसेसोति । "कुसल'"न्ति हि वचनमुपादाय रुळिहनामवसेन वुत्तनयेन कोसला यथा “येवापनकं, नतुम्हाकवग्गो''ति । अपिच वचनपटिवचनवसेन "कुसल''न्ति वदन्ति एत्थाति कोसला। विचित्रा हि तद्धितवुत्तीति । कुसलन्ति च आरोग्यं “कच्चि नु भोतो कुसलं, कच्चि भोतो अनामय"न्तिआदीसु (जा० १.१५.१४५; जा० २.२०.१२९) विय, कच्चि तुम्हाकं आरोग्यं होतीति अत्थो, छेकं वा “कुसला
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(२.३.२५४-२५४)
अद्धानगमनवण्णना
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नच्चगीतस्स, सिक्खिता चातुरित्थियो''तिआदीसु (जा० २.२२.९४) विय, कच्चि तेसं नाटकानं छेकता होतीति अत्थो ।
चरणं चारिका, चरणं वा चारो, सो एव चारिका, तयिदं मग्गगमनमेव इधाधिप्पेतं, न चुण्णिकगमनमत्तन्ति दस्सेतुं “अद्धानगमनन्ति वुत्तं, भावनपुंसकञ्चेतं, अद्धानगमनसङ्घाताय चारिकाय चरमानोति वुत्तं होति, अभेदेपि वा भेदवोहारेन वुत्तं यथा "दिवाविहारं निसीदी''ति, (म० नि० १.२५६) अद्धानगमनसङ्घातं चारिकं चरमानो, चरणं करोन्तोति अत्थो । सब्बत्थको हि करभूधातूनमत्थोति । “अद्धानमग्ग''न्तिपि कत्थचि पाठो, सो न सुन्दरो। न हि चारिकासद्दो मग्गवाचकोति । इदानि तं विभागेन दस्सेत्वा इधाधिप्पेतं नियमेन्तो "चारिका च नामेसा"तिआदिमाह। सावकानम्पि रुळ्हिवसेन चारिकाय सम्भवतो ततो विसेसेति "भगवतो"ति इमिना। तथा हि मज्झिमागमट्ठकथायं वुत्तं “चारिकं चरमानोति एत्थ किञ्चापि अयं चारिका नाम महाजनसङ्गहत्थं बुद्धानंयेव लब्भति, बुद्धे उपादाय पन रुळ्हिसद्देन सावकानम्पि वुच्चति किलञ्जादीहि कतबीजनीपि तालवण्टं विया''ति । दूरेपीति एत्थ पि-सद्देन, अपि-सद्देन वा नातिदूरेपीति सम्पिण्डनं तत्थापि चारिकासम्भवतो । बोधनेय्यपुग्गलन्ति चतुसच्चपटिवेधवसेन बोधनारहपुग्गलं । सहसा गमनन्ति सीघगमनं । “महाकस्सपस्स पच्चुग्गमनादीसू"ति वुत्तमेव सरूपतो दस्सेति "भगवा ही"तिआदिना। पच्चुग्गच्छन्तोति पटिमुखं गच्छन्तो, पच्चुट्ठहन्तोति अत्थो "तथा"ति इमिना "तिंसयोजन"न्ति पदमनुकद्दति। पक्कुसाति नाम गन्धारराजा महाकप्पिनो नाम कुक्कुटवतीराजा । धनियो नाम कोरण्डसेट्टिपुत्तो गोपो।।
एवं धम्मगरुताकित्तनमुखेन महाकस्सपपच्चुग्गमनादीनि (सं० नि० अट्ठ०.२.१५४) एकदेसेन दस्सेत्वा इदानि वनवासितिस्ससामणेरस्स वत्थु वित्थारेत्वा चारिकं दस्सेतु "एकदिवस"न्तिआदि आरद्धं । को पनेस तिस्ससामणेरो नाम ? सावत्थियं धम्मसेनापतिने उपट्ठाककुले जातो महापुञो “पिण्डपातदायकतिस्सो, कम्बलदायकतिस्सो'ति च पुढे लद्धनामो पच्छा “वनवासितिस्सो''ति पाकटो खीणासवसामणेरो । वित्थारो धम्मपदे (धः प० अट्ठ० १.७४ वनवासीतिस्ससामणेरवत्थु)। आकासगामीहि सद्धिं आकासेनेद गन्तुकामो भगवा "छळभिञानं आरोचेही"ति अवोच । तस्साति तिस्ससामणेरस्स | तन्नि भगवन्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घन चीवरं पारुपन्तं । नो थेरो नो ओरमत्तको वताति सम्बन्धो गुणेन लामकप्पमाणिको नो होतीति अत्थो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५४-२५४)
अत्तनो पत्तासनेति भिक्खूनं आसनपरियन्ते । तेसं गामिकानं दानपटिसंयुत्तं मङ्गलं वत्वा। कस्मा पन सदेवकस्स लोकस्स मग्गदेसकोपि समानो भगवा एवमाहाति चोदनं सोधेतुं "भगवा किरा''तिआदि वुत्तं । मग्गदेसकोति निब्बानमग्गस्स, सुगतिमग्गस्स वा देसको ।
तायाति अरञ्जसाय । सङ्घकम्मवसेन सिज्झमानापि उपसम्पदा सत्थु आणावसेन सिज्झनतो "बुद्धदायज्जं ते दस्सामी"ति वुत्तन्ति वदन्ति । अपरे पन “अपरिपुण्णवीसतिवस्सस्सेव तस्स उपसम्पदं अनुजानन्तो सत्था 'बुद्धदायजं ते दस्सामी'ति अवोचा"ति वदन्ति । धम्मसेनापतिना उपज्झायेन उपसम्पादेवा, ततोयेवेस धम्मसेनापतिनो सद्धिविहारिकोति अट्ठकथासु वुत्तो। धम्मपदट्ठकथायं पन धम्मसेनापतिआदिथेरानं चत्तालीसभिक्खुसहस्सपरिवारानं अत्तनो अत्तनो परिवारेहि सद्धिं पच्चेकं गमनं, भगवतो च एककस्सेव गमनं खुद्दकभाणकानं मतेन वुत्तं, इध, पन मज्झिमागमट्ठकथायञ्च (म० नि० अट्ठ० २.६५) अञथा गमनं दीघभाणकमज्झिमभाणकानं मतेनाति दट्ठब्बं । अयन्ति महाकस्सपादीनमत्थाय चारिका। यं पन अनुग्गण्हन्तस्स भगवतो गमनं, अयं अतुरितचारिका नामाति सम्बन्धो।।
इमं पन चारिकन्ति अतुरितचारिकं । महामण्डलन्ति मज्झिमदेसपरियापन्नेनेव बाहिरिमेन पमाणेन परिच्छिन्नत्ता महन्ततरं मण्डलं। मज्झिममण्डलन्ति इतरेसं उभिन्न वेमज्झे पवत्तं मण्डलं । अन्तोमण्डलन्ति इतरेहि खुद्दकं मण्डलं, इतरेसं वा अन्तोगधत्त अन्तिमं मण्डलं, अब्भन्तरिमं मण्डलन्ति वुत्तं होति । किं पनिमेसं पमाणन्ति आह "कत्था"तिआदि । तत्थ नवयोजनसतिकता मज्झिमदेसपरियापन्नवसेनेव गहेतब्बा ततो पर अतुरितचारिकाय अगमनतो। तदुत्तरि हि तुरितचारिकाय एव तथागतो गच्छति, न अतुरितचारिकाय। पवारेत्वाव चारिकाचरणं बुद्धाचिण्णन्ति वुत्तं "महापवारणार पवारेत्वा"तिआदि । पाटिपददिवसेति पठमकत्तिकपुण्णमिया अनन्तरे पाटिपदवसे । समन्ताति गतगतट्ठानस्स चतूसु पस्सेसु समन्ततो। महाजनकायस्स सन्निपतनतो पुरिमं पुरिमं आगत निमन्तेतुं लभन्ति । तथा सन्निपतनमेव दस्सेतुं "इतरेसू"तिआदि वुत्तं । समथविपस्सन तरुणा होन्तीति एत्थ समथस्स तरुणभावो उपचारसमाधिवसेन, विपस्सनाय पन सङ्घारपरिच्छेदत्राणं, कावितरणञाणं, सम्मसनाणं, मग्गामग्गाणन्ति चतुन्नं आणान वसेन वेदितब्बो | तरुणविपस्सनाति हि तेसं चतुन्नं आणानमधिवचनं । पवारणासङ्गहं दत्वाति अनुमतिदानवसेन दत्वा । कत्तिकपुण्णमायन्ति पच्छिमकत्तिकपुण्णमियं । "मिगसिरस
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(२.३.२५४-२५४)
अद्धानगमनवण्णना
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पठमपाटिपददिवसेति इदं मज्झिमदेसवोहारवसेन मिगसिरमासस्स पठलं पाटिपददिवसं सन्धाय वुत्तं, एतरहि पवत्तवोहारवसेन पन पच्छिमकत्तिकमासस्स काळपक्खपाटिपददिवसो वेदितब्बो ।
अञ्जनपि कारणेनाति भिक्खूनं समथविपस्सनातरुणभावतो अजेनपि मज्झिममण्डले वेनेय्यानं आणपरिपाकादिकारणेन । चतुमासन्ति आसळहीपुण्णमिया पाटिपदतो याव पच्छिमकत्तिकपुण्णमी, ताव चतुमासं । “समन्ता योजनसत''न्तिआदिना वुत्तनयेनेव । वसनं वस्स, वसनकिरिया, वुत्थं वसितं वस्समस्साति वुत्थवस्सो, तस्स । तथागतेन विनेतब्बत्ता "भगवतो वेनेय्यसत्ता"ति सामिनिद्देसो वुत्तो, कत्तुनिद्देसो वा एस। वेनेय्यसत्ताति च चरितानुरूपं विनेतब्बसत्ता। इन्द्रियपरिपाकं आगमयमानोति सद्धादिइन्द्रियानं विमुत्तिपरिपाचनभावेन परिपक्कं पटिमानेन्तो । फुस्समाधफग्गुणचित्तमासानं अञतरमासस्स पठमदिवसे निक्खमनतो मासनियमो एत्थ न कतोति दट्ठब्बं । तेनाह “एकमासं वा द्वितिचतुमासं वा तत्थेव वसित्वा"ति। तत्थेवाति वस्सूपगमनट्ठाने एव । “सत्तहि वा"तिआदि “एकमासं वा''तिआदिना यथाक्कमं योजेतब्बं - यदि अपरम्प एकमासं तत्थेव वसति, सत्तहि मासेहि चारिकं परियोसापेति । यदि द्विमासं छहि, यदि तिमासं पञ्चहि, यदि चतुमासं तत्थेव वसति, चतूहि मासेहि चारिकं परियोसापेतीति । कस्मा पन चारिकागमनन्ति आसङ्कानिवत्तनत्थं "इती"तिआदि वुत्तं । अतिरेकं जरादुब्बलो बाळ्हजिण्णो। ते कदा पस्सिस्सन्ति, न पस्सिस्सन्ति एव । लोकानुकम्पकायाति लोकानुकम्पकाय एव । तेन वुत्तं "न चीवरादिहेतू''ति ।
जङ्घविहारवसेनाति जङ्घाहि विचरणवसेन, जङ्घाहि विचरित्वा तत्थ तत्थ कतिपाहं निवसनवसेन वा । सब्बिरियापथसाधारणहि विहारवचनं । सरीरफासुकत्थायाति एकस्मिंयेव ठाने निबद्धवासवसेन उस्सन्नधातुकस्स सरीरस्स विचरणेन फासुभावत्थाय । अट्ठप्पत्तिकालाभिकङ्घनत्थायाति अग्गिक्खन्धोपमसुत्त (अ० नि० २.७.७२) मघदेवजातकादि (जा० १.१.९) देसनानं विय धम्मदेसनाय अभिकवितब्बअट्ठप्पत्तिकालत्थाय, अट्ठप्पत्तिकालस्स वा अभिकङ्घनत्थाय, अटुप्पत्तिकाले धम्मदेसनत्थायाति वुत्तं होति । सिक्खापदपञापनत्थायाति सुरापानसिक्खापदादि (पाचि० ३२७, ३२८, ३२९) पञापने विय सिक्खापदानं पञापनत्थाय । बोधनत्थायाति अङ्गुलिमालादयो (म० नि० २.३४७) विय बोधनेय्यसत्ते चतुसच्चबोधनत्थाय । महताति महतिया। कञ्चि, कतिपये वा पुग्गले
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५४ - २५४)
उद्दिस्स चारिका निबद्धचारिका । तदञ्ञ सम्बहुले उद्दिस्स गामनिगमनगरपटिपाटिया चारिका अनिबद्धचारिका । तेनाह “ तत्था "तिआदि । यं चरतीति किरियापरामसनं ।
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" एसा इध अधिप्पेता "ति वुत्तमेव वित्थारतो दस्सेतुं “ तदा किरा "तिआदि वृत्तं । दससहस्सिलोकधातुयाति जातिक्खेत्तभूतं दससहस्सचक्कवाळं सन्धाय वृत्तं । कस्माति चे ? तत्थेव भब्बसत्तानं सम्भवतो । तत्थ हि सत्ते भब्बे परिपक्किन्द्रिये पस्सितुं बुद्धजाणं अभिनीहरित्वा ठितो भगवा ञाणजालं पत्थरतीति वुच्चति, इदञ्च देवब्रह्मानं वसेन वुत्तं । मनुस्सा पन इमस्मिंयेव चक्कवाले, इमस्मिंयेव च सपरिवारे जम्बुदीपे बोधनेय्या होन्ति । बोधनेय्यबन्धवेति बोधनेय्यसत्तसङ्घाते भगवतो बन्धवे । गोत्तादिसम्बन्धा विय हि सच्चपटिवेधसम्बन्धा वेनेय्या भगवतो बन्धवा नामाति । गोचरभावूपगमनं सन्धाय "सब्बञ्जतञाणजालस्स अन्तो पविट्ठोति वुत्तं । भगवा किर महाकरुणासमापत्तिं समापज्जित्वा ततो वुट्ठाय "ये सत्ता भब्बा परिपक्कञाणा, ते मय्हं आणस्स उपट्टहन्तू'' ति चित्तं अधिट्टाय समन्नाहरति, तस्स सहसमन्नाहारा एको वा द्वे वा सम्बहुला वा तदा विनयूपगा वेनेय्या आणस्स आपाथमागच्छन्ति, अयमेत्थ बुद्धानुभावो । एवमापाथगतानं पन नेसं उपनिस्सयं पुब्बचरियं पुब्बहेतुं, सम्पति वत्तमानञ्च पटिपत्तिं ओलोकेति । वेनेय्यसत्तपरिग्गण्हनत्थञ्हि समन्नाहारे कते पठमं नेसं वेनेय्यभावेन उपट्ठानं होति, अथ " किं नु खो भविस्सती 'ति सरणगमनादिवसेन कञ्चि निप्फत्तिं वीमंसमानो पुब्बूपनिस्सयादीनि ओलोकेति । तेनाह “ अथ भगवा "तिआदि। सोति अम्बट्ठी | वादपटिवाद कत्वाति ‘“एवं नु ते अम्बट्ठा 'तिआदिना ( दी० नि० १.२६२) मया वृत्तवचनस्स "ये च खो ते भो गोतम मुण्डका समणका "तिआदिना (दी० नि० १.२६३) पटिवचनं दत्वा, असब्भिवाक्यन्ति असप्पुरिसवाचं, तिक्खत्तुं इब्भवादनिपातनवसेन नानप्पकारं साधुसभावाय वाचाय वत्तुमयुत्तं वाक्यं वक्खतीति वृत्तं होति । निब्बिसेवनन्ति विगतदनं, मानदप्पवसेन अपगतपरिनिप्फन्दनन्ति अत्थो ।
अवसरितब्बन्ति उपगन्तब्बं । तस्स गामस्स इदं नाममत्तं किमेत्थ अत्थपरियेसनायाति वुत्तं " इज्झानङ्गलन्तिपि पाठो” ति । "येन दिसाभागेना "ति करणनिद्देसानुरूपं करणत्थे उपयोगवचनन्ति दस्सेति "तेन अवसरी " ति इमिना । " यस्मिं पदेसे "ति पन भुम्मनिद्देसानुरूपं “तं वा अवसरी" ति वृत्तं । तदुभयमेवत्थं विवरति "तेन दिसा भागेना "ति आदिना । गतोति उपगतो, अगमासीति अत्थो । पुन गतोति सम्पत्तो सम्पाणीति अत्थो । “ इच्छानङ्गले "ति इदं तदा भगवतो गोचरगामनिदस्सनं, समीपत्थे चेतं
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(२.३.२५५-२५५)
पोक्खरसातिवत्थुवण्णना
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भुम्मं । "इच्छानङ्गलवनसण्डे''ति इदं पन निवासठ्ठानदस्सनं, निप्परियायतो अधिकरणे चेतं भुम्मन्ति तदुभयम्पि पदं विसेसत्थदस्सनेन विवरन्तो "इच्छानङ्गलं उपनिस्साया"तिआदिमाह | "सीलखन्धावार''न्तिआदि वुत्तनयेन वेनेय्यहितसमपेक्खनवसेनेव भगवतो विहारदस्सनं । तत्थ धम्मराजस्स भगवतो सब्बसो अधम्मनिग्गण्हनपरा एव पटिपत्ति, सा च सीलसमाधिपावसेनाति सीलादित्तयस्सेव गहणं। सीलखन्धावारन्ति चक्कवत्तिरओ दारुइट्टकादिकतं खन्धावारसदिसं सीलसङ्घातं खन्धावारं बन्धित्वा विहरतीति सम्बन्धो । दारुक्खन्धादीहि आसमन्ततो वरन्ति परिक्खिपन्ति एत्थाति हि खन्धावारो अ-कारस्स दीर्घ कत्वा, राजूनं अचिरनिवासट्टानं । तत्थ पन भगवतो अचिरनिवसनकिरियासम्बन्धमत्तेन भयनिवारणद्वेन तंसदिसताय सीलम्पि तथा वुच्चति । समाधिकोन्तन्ति सम्मासमाधिसङ्घातं मङ्गलसत्तिं । सब ताणपदन्ति सब्ब ताणसङ्खातं जयमन्तपदं । परिवत्तयमानोति परिजप्पमानो। “सब्ब ताणसर"न्तिपि पाठो, सब्ब ताणवजिरग्गसरं अपरापरं सम्परिवत्तमानोति अत्थो। यथाभिरुचितेन विहारेनाति सब्बविहारसाधारणदस्सनं, दिब्बविहारादीसु येन येन अत्तना अभिरुचितेन विहारेन विहरतीति अत्थो ।
पोक्खरसातिवत्थुवण्णना २५५. मन्तेति इरुवेदादिमन्तसत्थे । इरुवेदादयो हि गुत्तभासितब्बढेन “मन्ता"ति वुच्चन्ति । अण-सद्दो सद्देति आह "सज्झायतीति । लोकिया पन वदन्ति “ब्रह्मनो अपच्चं ब्राह्मणो, नागमो, णत्तं, दीघादी"ति । कस्मा अयमेव वचनत्थो वुत्तोति आह "इदमेवा"तिआदि । अथ केसं इतरो वचनत्थोति चोदनमपनेति “अरिया पना"तिआदिना । अथ वा यं लोकिया वदन्ति "ब्रह्मना जातो ब्राह्मणो"तिआदिनिरुत्तिं, तं पटिक्खिपितुं एवं वुत्तं । “इदमेवा"ति हि अवधारणेन तं पटिक्खिपति । "जातिब्राह्मणान"न्ति पन इमिना सद्दन्तरेन दस्सितेसु जातिब्राह्मणविसुद्धिब्राह्मणवसेन दुविधेसु ब्राह्मणेसु विसुद्धिब्राह्मणानं निरुत्तिं दस्सेन्तो “अरिया पना"तिआदिमाह । बहन्ति पापे बहि करोन्तीति हि अरिया ब्राह्मणा निरुत्तिनयेन । "तस्स किर कायो सेतपोक्खरसदिसो"ति इदमेवस्स नामलाभहेतुदस्सनं, सेसं पन तप्पसङ्गेन यथाविज्जमानविसेसदस्सनमेव । तेनाह "इति नं पोक्खरसदिसत्ता पोक्खरसातीति सञ्जानन्ती"ति । पोखरेन सदिसो कायो यस्साति हि पोक्खरसाती निरुत्तिनयेन । सातसद्दो वा सदिसत्थो, पोक्खरेन सातो सदिसो कायो तथा, सो यस्साति पोखरसाती। सेतपोक्खरसदिसोति सेतपदुमवण्णो । देवनगरेति आलकमन्दादिदेवपुरे। उस्सापितरजततोरणन्ति गम्भीरनेमनिखातं अच्चुग्गतं रजतमयं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
रजतपनाळिकाति
इन्दखीलं । काळमेघराजीति कदाचि दिस्समाना काळ अब्भलेखा । रजतमयतुम्बं । सुवट्टिताति वट्टभावस्स युत्तट्ठाने सुट्टु वट्टुला । काळवङ्गतिलकादीनमभावेन सुपरिसुद्धा । " अराजके "ति आदिनापि सोभग्गप्पत्तभावमेव निदस्सेति ।
(२.३.२५५ - २५५)
इदानि अपरम्प तस्स नामलाभहेतुं दस्सेन्तो " अयं पना" तिआदिमाह । तत्थ च “ हिमवन्तपदेसे महासरे पदुमगब्भे निब्बत्ती 'ति इदमेवस्स नामलाभहेतुदस्सनं । सेसं पन तप्पसङ्गेन तथापवत्ताकारदस्सनमेव । तेनाह " इति नं पोक्खरे सयितत्ता पोक्खरसातीति सञ्जानन्ती 'ति । पोक्खरे कमले सयतीति हि पोक्खरसाती, सातं वा वुच्चति समसण्ठानं, पोक्खरे जातं समसण्ठानं तथा, तमस्सत्थीतिपि पोक्खरसाती । यं पन आचरियेन वुत्तं “इमस्स ब्राह्मणस्स कीदिसो पुब्बयोगो, येन नं भगवा अनुग्गण्हितुं तं ठानं उपगतोति आहा ''ति, (दी० नि० टी० १.२५५) तदेतं " अयं पना "तिआदिवचनं एकदेसमेव सन्धाय वृत्तं । “सो ततो मनुस्सलोक 'न्तिआदिवचनतो देवलोके निब्बत्तीति एत्थ अपरापरं निब्बत्ति एव वृत्ताति दट्ठब्बं । तथारूपेन कम्मेन निब्बत्तिमेव सन्धाय " मातुकुच्छिवासं जिगुच्छित्वा "तिआदि वृत्तं । " पदुमगन्भे निब्बत्ती "ति इमिना संसेदजोयेव हुत्वा निब्बी दस्सेति । न पुष्फतीति न विकसति । तेनाति तापसेन । नाळतोति पुप्फदण्डतो । सुवण्णचुणेहि पिञ्जरं हेमवण्णो यस्साति सुवण्णचुण्णपिञ्जरो, तं, सुवण्णचुणेहि विकिण्णभावेन हेमवण्णन्ति अत्थो । पिञ्जरसद्दो हि हेमवण्णपरियायोति सारत्थदीपनियं ( सारत्थ० टी० १.२२ ) वृत्तं । एस नयो पदुमरेणुपिञ्जरन्ति एत्थापि । रजतबिम्बकन्ति रूपियमयरूपकं । पटिजग्गामीति पोसेमि । पारन्ति परियोसानं, निष्फत्ति वा चि नदीसमुद्दादीनं परियोसानभूतं पारं वियाति कत्वा । पटिसन्धिपञ्ञासङ्घातेन सभावञाणेन पण्डितो । इति कत्तब्बेसु, वेदेसु वा विसारदपञासङ्घातेन वेय्यत्तियेन व्यत्तो । अग्गब्राह्मणोति दिसापामोक्खब्राह्मणो । सिप्पन्ति वेदसिप्पं तस्सेव पकरणाधिगतत्ता । ब्रह्मदेय्यं अदासीति वक्खमाननयेन ब्रह्मदेय्यं कत्वा अदासि ।
"अज्झावसतीति एत्थ अधि- सद्दो, आ-सद्दो च उपसग्गमत्तं, ततो " उक्कट्ठन्ति इदं अज्झापुब्बवसयोगे भुम्मत्थे उपयोगवचनं । अधि- सद्दो वा इस्सरियत्थो, आ-सद्दो मरियादत्थो ततो “उक्कट्ठन्ति इदं कम्मप्पवचनीययोगे भुम्मत्थे उपयोगवचनन्ति दस्त “उक्कट्ठनामके 'तिआदिना । तदेवत्थं विवरितुं " तस्सा" तिआदि वृत्तं । " तस्स नगरस्स सामिको हुत्वा" ति हि ' अभिभवित्वा" ति एतस्सत्थविवरणं, तेनेतं दीपेति “सामिभावो अभिभवन”न्ति । “याय मरियादाया " ति आदि पन आ - सद्दस्सत्थविवरणं, तेनेतं दीपेति
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(२.३.२५५-२५५)
पोक्खरसातिवत्थुवण्णना
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"आसद्दो मरियादत्थो, मरियादा च नाम याय तत्थ वसितबं, सायेव अपराधीनता"ति । याय मरियादायाति हि याय अपराधीनतासङ्घाताय अनञसाधारणाय अवत्थायाति अत्थो । "उपसग्गवसेना"तिआदि पन “उक्कट्ठनामके"ति एतस्सत्थविवरणं, तेनेतं दीपेति “सतिपि भुम्मवचनप्पसङ्गे धात्वत्थानुबत्तकविसेसकभूतेहि दुविधेहिपि उपसग्गेहि युत्तत्ता उपयोगवचनमेवेत्थ विहित"न्ति । "तस्स किरा"तिआदि पन अत्थानुगतसमझापरिदीपनं । वत्थु नाम नगरमापनारहभूमिप्पदेसो "आरामवत्थु, विहारवत्थू"तिआदी विय ।
उक्काति दण्डदीपिका । अग्गहेसुन्ति “अज्ज मङ्गलदिवसो, तस्मा सुनक्खत्तं, तत्थापि अयं सुखणो मा अतिक्कमी''ति रत्तिविभायनं अनुरक्खन्ता, रत्तियं आलोककरणत्थाय उक्का ठपेत्वा उक्कासु जलमानासु नगरस्स वत्थु अग्गहेसुं, तेनेतं दीपेति- उक्कासु ठिताति उक्कट्ठा। मूलविभुजादि आकतिगणपक्खेपेन, निरुत्तिनयेन वा उक्कासु विज्जोतयन्तीसु ठिताति उक्कट्ठा, तथा उक्कासु ठितासु ठिता आसीतिपि उक्कट्ठाति । मज्झिमागमट्ठकथायं पन एवं वुत्तं "तञ्च नगरं 'मङ्गलदिवसो सुखणो, सुनक्खत्तं मा अतिक्कमी'ति रत्तिम्पि उक्कासु ठितासु मापितत्ता उक्कट्ठातिपि वुच्चति, दण्डदीपिकासु जालेत्वा धारियमानासु मापितत्ताति वुत्तं होती"ति, (म० नि० अट्ठ० १.मूलपरियायसुत्तवण्णना) तदपिमिना संसन्दति चेव समेति च नगरवत्थुपरिग्गहस्सपि नगरमापनपरियापन्नत्ताति दट्ठब्। अपरे पन भणन्ति “भूमिभागसम्पत्तिया, उपकरणसम्पत्तिया, मनुस्ससम्पत्तिया च तं नगरं उक्कट्ठगुणयोगतो उक्कट्ठाति नामं लभती"ति । लोकिया पन वदन्ति “उक्का धारीयति एतस्स मापितकालेति उक्कट्ठा, वण्णविकारोय''न्ति, इथिलिङ्गवसेन चायं समझा, तेनेविध पयोगो दिस्सति “यथा च भवं गोतमो उक्कट्ठाय अञानि उपासककुलानि उपसङ्कमती''ति (दी० नि० १.२९९) मूलपरियायसुत्तादीसु (म० नि० १.१) च “एकं समयं भगवा उक्कट्ठायं विहरति सुभगवने सालराजमूले 'तिआदि । एवमेत्थ होतु उपसग्गवसेन उपयोगवचनं, कथं पनेतं सेसपदेसु सियाति अनुयोगेनाह "तस्स अनुपयोगत्ता सेसपदेसू"ति। तत्थ तस्साति उपसग्गवसेन उपयोगस त्तस्स “उक्कट्ठन्ति पदस्स। अनुपयोगत्ताति विसेसनभावेन अनुपयुत्तत्ता । सेसपदेसूति “सत्तुस्सदन्तिआदीसु सत्तसु पदेसु ।
किं नु ख्वायं सद्दपयोगो सद्दलक्खणानुगतोति चोदनमपनेति “तत्थ...पे०... परियेसितब्ब"न्ति इमिना । तत्थाति उपसग्गवसेन, अनुपयोगवसेन च उपयोगवचनन्ति वुत्ते दुब्बिधेपि विधाने । लक्खणन्ति गहणूपायायभूतं सद्दलक्खणं, सुत्तं वा । परियेसितब्बन्ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५५-२५५)
सद्दसत्थेसु विज्जमानत्ता जाणेन गवेसितब्बं, गहेतब्बन्ति वुत्तं होति । एतेन हि सद्दलक्खणानुगतोवायं सद्दपयोगोति दस्सेति, सद्दविदू च इच्छन्ति “उपअनुअधिआइच्चादिपुब्बवसयोगे सत्तमियत्थे उपयोगवचनं पापुणाति, विसेसितब्बपदे च यथाविधिमनुपयोगो विसेसनपदानं समानाधिकरणभूतान''न्ति । तत्र यदा अधि-सद्दो, आ-सद्दो च उपसग्गमत्तं, तदा "ततियासत्तमीनञ्चा''ति लक्खणेन अज्झापुब्बवसयोगे उपयोगवचनं । तथा हि वदन्ति “सत्तमियत्थे कालदिसासु उपान्वज्झावसयोगे, अधिपुब्बसिठावसानं पयोगे, तप्पानचारेसु च दुतिया । काले पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा, एकं समयं भगवा, कञ्चि कालं पुरेजातपच्चयेन पच्चयो, इमं रत्तिं चत्तारो महाराजानो | दिसायं पुरिमं दिसं धतरट्ठो । उपादिपुब्बवसयोगे गामं उपवसति, गामं अनुवसति, गामं आवसति, अगारं अज्झावसति, अधिपुब्बसिठावसानं पयोगे पथविं अधिसेस्सति, गामं अधितिट्ठति, गामं अज्झावसति । तप्पानचारेसु नदिं पिवति, गामं चरति इच्चादीति ।
यदा पन अधि-सद्दो इस्सरियत्थो, आ-सद्दो च मरियादत्थो, तदा “कम्मप्पवचनीययुत्ते''ति लक्खणेन कम्मप्पवचनीययोगे उपयोगवचनं । तथा हि वदन्ति “अनुआदयो उपसग्गा, धीआदयो निपाता च कम्मप्पवचनीयसञ्जा होन्ति किरियासङ्घातं कम्मं पवचनीयं येसं ते कम्मप्पवचनीया"ति । सेसपदानं पन यथाविधिमनुपयोगे कतरेन लक्खणेन उपयोगवचनन्ति ? यथावुत्तलक्खणेनेव। यज्जेवं तेसम्पि आधारभावतो नानाधारता सियाति ? न, बहूनम्पि पदानं नगरवसेन एकत्थभावतो । सकत्थमत्तहि तेसं नानाकरणन्ति । अछे पन सद्दविदू एवमिच्छन्ति "समानाधिकरणपदानं पच्चेकं किरियासम्बन्धनेन विसेसितब्बपदेन समानवचनता यथा 'कटं करोति, विपुलं, दस्सनीय'न्ति एत्थ 'कटं करोति, विपुलं करोति, दस्सनीयं करोती'ति पच्चेकं किरियासम्बन्धनेन कम्मत्थेयेव दुतिया''ति, तदेतं विचारेतब्बं विसेसनपदानं समानाधिकरणानं किरियासम्बज्झनाभावतो । यदा हि किरियासम्बज्झनं, तदा विसेसनमेव न होतीति ।
उस्सदता नामेत्थ बहुलताति वुत्तं "बहुजन"न्ति । तं पन बहुलतं दस्सेति "आकिण्णमनुस्स"न्तिआदिना । अरञादीसु गहेत्वा पोसेतब्बा पोसावनिया, एतेन तेसं धम्मभावं दस्सेति । आविज्झित्वाति परिक्खिपित्वा । खणित्वा कता पोक्खरणी, आबन्धित्वा कतं तळाकं। अच्छिन्नूदकट्टानेयेव जलजकुसुमानि जातानीति वुत्तं "उदकस्स निच्चभरितानेवा"ति । उदकस्साति च पूरणकिरियायोगे करणत्थे सामिवचनं “महन्ते महन्ते साणिपसिब्बके कारापेत्वा हिरञसुवण्णस्स पूरापेत्वा"तिआदीसु (पारा० ३४) विय । सह
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पोक्खरसातिवत्थुवण्णना
धज्ञेनाति सधञ्ञन्ति नगरसद्दापेक्खाय नपुंसकलिङ्गेन वुत्तं यथावाक्यं वा उपयोगवचनेन । एवं सब्बत्थ । पुब्बण्णापरण्णादिभेदं बहुधञ्ञसन्निचयन्ति एत्थ आदिसद्देन तदुभयविनिमुत्तं अलाबुकुम्भण्डादिसूपेय्यं सङ्गण्हाति । तेनायमत्थो विज्ञायति- नयिध धञ्ञसद्दो सालिआदिधञविसेसवाचको, पोसने साधुत्तमत्तेन पन निरवसेसपुब्बण्णापरण्णसूपेय्यवाचको, विरूपेकसेसवसेन वा पयुत्तीति । एत्तावताति यथावुत्तपदत्तयेन । राजलीलायाति राजूनं विलासेन | समिद्धिया उपभोगपरिभोगसम्पुण्णभावेन सम्पत्ति समिद्धिसम्पत्ति ।
(२.३.२५५-२५५)
" राजभोग्ग "न्ति वुत्ते " केन दिन्न "न्ति अवस्सं पुच्छितब्बतो एवं वुत्तन्ति दस्सेति "केना" तिआदिना । रञ्ञा विय भुञ्जितब्बन्ति वा राजभोग्गन्ति अट्ठकथातो अपरो नयो । याव पुत्तनत्तपनत्तपरम्परा कुलसन्तकभावेन राजतो लद्धत्ता " रञ्ञो दायभूत "न्ति वृत्तं । “धम्मदायादा मे भिक्खवे भवथा तिआदीसु (म० नि० १.२९) विय च दायसद्दो दायज्जपरियायोति आह " दायज्जन्ति अत्थो "ति । कथं दिन्नत्ता ब्रह्मदेय्यं नामाति चोदनं परिहरति “छत्तं उस्सापेत्वा" तिआदिना । राजनीहारेन परिभुञ्जितब्बतो हि उद्धं परिभोगलाभस्स ब्रह्मदेय्यता नाम नत्थि, इदञ्च तथा दिन्नमेव, तस्मा ब्रह्मदेय्यं नामाति वुत्तं होति । छेज्जभेज्जन्ति सरीरदण्डधनदण्डादिभेदं दण्डमाह । नदीतित्थपब्बतादीसूति नदीतित्थपब्बतपादगामद्वारअटविमुखादीसु । सेतच्छत्तग्गहणेन सेसराजककुधभण्डम्पि गतिं तप्पमुखत्ताति वेदितब्बं । " रञ्ञा भुञ्जितब्ब" न्त्वेव वुत्ते इधाधिप्पेतत्थो न पाकटोति हुत्वा-सद्दग्गहणं कतं । तहि सो राजकुलतो असमुदागतोपि राजा हुत्वा भुञ्जितुं लभतीति अयमिधाधिप्पेतो अत्थो । दातब्बन्ति दायं, “राजदाय "न्ति इमिनाव रज्ञा दिन्नभावे सिद्धे “रञ्ञा पसेनदिना कोसलेन दिन्न "न्ति पुन च वचनं किमत्थियन्ति आह “दायकराजदीपनत्थ"न्तिआदि । असुकेन रञ्ञा दिन्नन्ति दायकराजस्स अदीपितत्ता एवं वुत्तन्ति अधिप्पायो । एत्थ च पठमनये " राजभोग्ग "न्ति पदे पुच्छासम्भवतो इदं वुत्तं, दुनियेपन 'राजदाय "न्ति पदेति अयम्पि विसेसो दट्ठब्बो । तत्थ अतिबहुलताय पुरतो ठपनोकासाभावतो पस्सेनपि ओदनसूपब्यञ्जनादि दीयति एतस्साति पसेनदि, अलुत्तसमासवसेन । सो हि राजा तण्डुलदोणस्स ओदनम्पि तदुपियेन सूपब्यञ्जनेन भुञ्जति । तथा हि नं भुत्तपातरासकाले सत्थु सन्तिकमागन्त्वा इतो चितो च सम्परिवत्तन्तं निद्दाय अभिभुय्यमानं उजुकं निसीदितुमसक्कोन्तं भगवा
"मिद्धी यदा होति महग्घसो च, निद्दायिता सम्परिवत्तसायी ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५५-२५५
महावराहोव निवापवुट्ठो,
पुनप्पुनं गब्भमुपेति मन्दो''ति ।। (ध० प० ३२५; नेत्तिः २६, ९०)
इमाय गाथाय ओवदि । भागिनेय्यञ्च सो सुदस्सनं नाम माणवं -
"मनुजस्स सदा सतीमतो,
मत्तं जानतो लद्धभोजने । तनुकस्स भवन्ति वेदना,
सणिकं जीरति आयुपालयन्ति ।। (सं० नि० १.१.२४)
इमं गाथं भगवतो सन्तिके उग्गहापेत्वा अत्तनो भुञ्जन्तस्स ओसानपिण्डकाले देवसिकं भणापेति, सो अपरेन समयेन तस्सा गाथाय अत्थं सल्लक्खेत्वा पुनप्पुन ओसानपिण्डपरिहरणेन नाळिकोदनमत्ताय सण्ठहित्वा तनुसरीरो बलवा सुखप्पत्ते अहोसीति । उदानट्ठकथायं (उदा० अट्ठ० १२) पन एवं वुत्तं “पच्चामित्तं परसेन जिनातीति पसेनदीति | सद्दविदूपि हि ज-कारस्स द-कारे इदमुदाहरन्ति । सो हि अत्तन भागिनेय्यं अजातसत्तुराजानं, पञ्चचोरसतादीनि च अवरुद्धकानि जिनातीति कोसलरट्ठस्साधिपतिभावतो कोसलो, तस्मा कोसलाधिपतिना पसेनदि नामकेन र दिन्नन्ति अत्थो वेदितब्बो । निस्सठ्ठपरिच्चत्ततासङ्घातेन पुन अग्गहेतब्बभावेनेव दिन्नत्ता इध ब्रह्मदेव्यं नाम, न तु पुरिमनये विय राजसझेपेन परिभुजितब्बभावेन दिन्नत्ताति आह “यथा"तिआदि । निस्सह्र हुत्वा, निस्सट्ठभावेन वा परिच्चत्तं निस्सट्टपरिच्चत्तं, मुत्तचागवसेन चजितन्ति अत्थो।
सवनं उपलब्भोति दस्सेति "उपलभी"ति इमिना, सो चायमुपलब्भो सवनवसेनेव जाननन्ति वुत्तं "सोतद्वारसम्पत्तवचननिग्घोसानुसारेन अज्ञासी"ति सोतद्वारानुसारविज्ञाणवीथिवसेन जाननमेव हि इध सवनं तेनेव “समणो खलु भो गोतमो"तिआदिना वुत्तस्सत्थस्स अधिगतत्ता, न पन सोतद्वारवीथिवसेन सुतमत्तं तेन तदत्थस्स अनधिगतत्ता । अवधारणफलत्ता सद्दपयोगस्स सबम्पि वाक्यं अन्तोगधावधारणं तस्मा तदत्थजोतकसद्देन विनापि अञत्थापोहनवसेन अस्सोसि एव, नास्स कोचि सवनन्तरायो अहोसीति अयमत्थो विज्ञायतीति आह “पदपूरणमत्ते निपातो"ति
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(२.३.२५५-२५५)
पोक्खरसातिवत्थुवण्णना
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अन्तोगधावधारणेपि च सब्बस्मिं वाक्ये नीतत्थतो अवधारणत्थं खो-सद्दग्गहणं “एवा''ति सामत्थिया सातिसयं एतदत्थस्स विज्ञायमानत्ताति पठमविकप्पो वुत्तो, नीतत्थतो अवधारणेन को अत्थो एकन्तिको कतो, अवधारितो चाति वुत्तं "तत्था"तिआदि । अथ पदपूरणमत्तेन खो-सद्देन किं पयोजनन्ति चोदनमपनेति “पदपूरणेना"तिआदिना, अक्खरसमूहपदस्स, पदसमूहवाक्यस्स च सिलिट्ठतापयोजनमत्तमेवाति अत्थो । “अस्सोसी"ति हिदं पदं खो-सद्दे गहिते तेन फुल्लितं मण्डितं विभूसितं विय होन्तं पूरितं नाम होति, तेन च पुरिमपच्छिमपदानि सुखुच्चारणवसेन सिलिट्ठानि होन्ति, न तस्मिं अग्गहिते, तस्मा पदपूरणमत्तम्पि पदब्यञ्जनसिलिट्ठतापयोजनन्ति वुत्तं होति । मत्तसद्दो चेत्थ विसेसनिवत्तिअत्थो, तेनस्स अनत्थन्तरदीपनता दस्सिता, एव-सद्देन पन पदव्यञ्जनसिलिट्ठताय एकन्तिकता ।
“समणो खलू"तिआदि यथासुतत्थनिदस्सनन्ति दस्सेति "इदानी"तिआदिना । समितपापत्ताति एत्थ अच्चन्तं अनवसेसतो सवासनं समितपापत्ताति अत्थो गहेतब्बो । एवहि बाहिरकवीतराग़सेक्खासेक्खपापसमनतो भगवतो पापसमनं यथारहं विसेसितं होति । तेन वुत्तं "भगवा च अनुत्तरेन अरियमग्गेन समितपापो"ति । तदेवत्थं निद्देसपाठेन साधेतुं “वुत्तहेत"न्तिआदिमाह | अस्साति अनेन भिक्खुना, भगवता वा। समिताति समापिता, समभावं वा आपादयिता, अस्स वा सम्पदानभूतस्स सन्ता होन्तीति अत्थो । अत्थानुगता चायं भगवति समज्ञाति वुत्तं "भगवा चा"तिआदि। तेनाति तथा समितपापत्ता । यथाभूतं पवत्तो यथाभुच्चं, तदेव गुणो, तेन अधिगतं तथा । "खलू"ति इदं नेपातिकं खलुपच्छाभत्तिकपदे (मि० प० ४.१.८) विय, न नामं, अनेकत्थत्ता च निपातानं अनुस्सवनत्थोव इधाधिप्पेतोति आह “अनुस्सवनत्थे निपातो"ति, परम्परसवनञ्चेत्थ अनुस्सवनं । ब्राह्मणजातिसमुदागतन्ति ब्राह्मणजातिया आगतं, जातिसिद्धन्ति वुत्तं होति । आलपनमत्तन्ति पियालपनवचनमत्तं, न तदुत्तरि अत्थपरिदीपनं । पियसमुदाहारा हेते "भो''ति वा “आवुसो''ति वा “देवानं पिया"ति वा । धम्मपदे ब्राह्मणवत्थुपाठेन, (ध० प० ३१५ आदयो) सुत्तनिपाते च वासेट्ठसुत्तपदेन ब्राह्मणजातिसमुदागतालपनभावं समत्थेतुं "वुत्तम्पि चेत"न्तिआदिमाह ।
तत्रायमत्थो- सचे रागादिकिञ्चनेहि सकिञ्चनो अस्स, सो आमन्तनादीस "भो भो''ति वदन्तो हुत्वा विचरणतो भोवादीयेव नाम होति, न ब्राह्मणो । “अकिञ्चनं अनादानं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मण"न्ति (ध० प० ३९६, सु० नि० ६२५) सेसगाथापदं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५५-२५५)
तत्थ रागादयो सत्ते किञ्चन्ति मद्दन्ति पलिबुद्धन्तीति किञ्चनानि। मनुस्सा किर गोणेहि खलं मद्दापेन्ता “किञ्चेहि कपिल, किञ्चेहि काळका'"ति वदन्ति, तस्मा किञ्चनसद्दो मद्दनत्थो वेदितब्बो । यथाह निद्देसे “अकिञ्चनन्ति रागकिञ्चनं, दोस, मोह, मान, दिवि, किलेसकिञ्चनं, दुच्चरितकिञ्चनं, यस्सेते किञ्चना पहीना समुच्छिन्ना वूपसन्ता पटिप्पस्सद्धा अभब्बुप्पत्तिका आणग्गिना दड्डा, सो वुच्चति अकिञ्चनो''ति (चूळनि० २८, ३२, ६०, ६३)। गोतमोति गोत्तवसेन परिकित्तनं, यं “आदिच्चगोत्त"न्तिपि लोके वदन्ति, सक्यपुत्तोति पन जातिवसेन साकियोति च तस्सेव वेवचनं । वुत्तव्हेतं पब्बज्जासुत्ते
“आदिच्चा नाम गोत्तेन, साकिया नाम जातिया । तम्हा कुला पब्बजितोम्हि, न कामे अभिपत्थयन्ति ।। (सु० नि० ४२५)
तथा चाह “गोतमोति भगवन्तं गोत्तवसेन परिकित्तेती"तिआदि । तत्थ गं तायतीति गोत्तं, “गोतमो"ति पवत्तमानं अभिधानं, बुद्धिञ्च एकंसिकविसयताय रक्खतीति अत्थो । यथा हि बुद्धि आरम्मणभूतेन अत्थेन विना न वत्तति, एवं अभिधानं अभिधेय्यभूतेन, तस्मा सो गोत्तसङ्घातो अत्थो तानि रक्खतीति वुच्चति, गो-सद्दो चेत्थ अभिधाने, बुद्धियञ्च वत्तति । तथा हि वदन्ति
"गो गोणे चेन्द्रिये भुम्यं, वचने चेव बुद्धियं । आदिच्चे रस्मियञ्चेव, पानीयेपि च वत्तते ।। तेसु अत्थेसु गोणे थी, पुमा च इतरे पुमा''ति ।।
तत्थ “गोसु दुव्हमानासु गतो, गोपञ्चमो''तिआदीसु गोसद्दो गोणे वत्तति । “गोचरो''तिआदीसु इन्द्रिये । “गोरक्ख''न्तिआदीसु भूमियं । तथा हि सुत्तनिपातट्ठकथाय वासेट्ठसुत्तसंवण्णनायं वुत्तं “गोरक्खन्ति खेत्तरखं, कसिकम्मन्ति वुत्तं होति । पथवी हि 'गो'ति वुच्चति, तप्पभेदो च "खेत्त"न्ति (सु० नि० अट्ट० २.६१९-६२६)। “गोत्तं नाम द्वे गोत्तानि हीनञ्च गोत्तं, उक्कठ्ठञ्च गोत्त''न्तिआदीसु (पाचि० १५) वचने, बुद्धियञ्च वत्तति । “गोगोत्तं गोतमं नमे"ति पोराणकविरचनाय आदिच्चे, आदिच्चबन्धं गोतमं सम्मासम्बुद्धं नमामीति हि अत्थो, “उण्हगू"तिआदीसु रस्मियं, उण्हा गावो रस्मियो एतस्साति हि उण्हगु, सूरियो । “गोसीतचन्दन"न्तिआदीसु (अ० नि० टी०
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१.४९) पानीये, गोसङ्घातं पानीयं विय सीतं, तदेव चन्दनं तथा । तस्मिहि उद्धनतो उद्धरितपक्कुथिततेलस्मिं पक्खित्ते तङ्खण व तं तेलं सीतलं होतीति । एतेसु पन अत्थेसु गोणे वत्तमानो गो-सद्दो यथारहं इथिलिङ्गो चेव पुल्लिङ्गो च, सेसेसु पन पुल्लिङ्गोयेव ।
किं पनेतं गोत्तं नामाति ? अञकुलपरम्पराय असाधारणं तस्स कुलस्स आदिपुरिससमुदागतं तंकुलपरियापन्नसाधारणं सामञ्जरूपन्ति दट्ठब्बं । साधारणमेव हि इदं तंकुलपरियापन्नानं साधारणतो च सामञ्जरूपं । तथा हि तंकुले जाता सुद्धोदनमहाराजादयोपि “गोतमो” त्वेव वुच्चन्ति, तेनेव भगवा अत्तनो पितरं सुद्धोदनमहाराजानं “अतिक्कन्तवरा खो गोतम तथागता''ति (महाव० १०५) अवोच, वेस्सवणोपि महाराजा भगवन्तं “विज्जाचरणसम्पन्नं, बुद्धं वन्दाम गोतम"न्ति, (दी० नि० ३.२८८) आयस्मापि वङ्गीसो आयस्मन्तं आनन्दं “साधु निब्बापनं ब्रूहि, अनुकम्पाय गोतमा'ति (सं० नि० १.१.२१२)। इध पन भगवन्तमेव । तेनाह “भगवन्तं गोत्तवसेन परिकित्तेतीति । तस्माति यथावुत्तमत्थत्तयं पच्चामसति । एत्थ च "समणो"ति इमिना सरिक्खकजनेहि भगवतो बहुमतभावो दस्सितो तब्बिसयसमितपापतापरिकित्तनतो, "गोतमो"ति इमिना लोकियजनेहि तब्बिसयउळारगोत्तसम्भूततापरिकित्तनतो
सक्यस्स सुद्धोदनमहाराजस्स पुत्तो सक्यपुत्तो, इमिना पन उच्चाकुलपरिदीपनं उदितोदितविपुलखत्तियकुलसम्भूततापरिकित्तनतो। सब्बखत्तियानहि आदिभूतमहासम्मतमहाराजतो पट्ठाय असम्भिन्नं उळारतमं सक्यराजकुलं । यथाह -
"महासम्मतराजस्स, वंसजो हि महामुनि । कप्पादिस्मिहि राजासि, महासम्मतनामको''ति ।। (महावंसे दुतियपरिच्छेदे पठमगाथा)
कथं सद्धापब्बजितभावपरिदीपनन्ति आह "केनची"तिआदि । परिजियनं परिहायनं पारिजुझं, परिजिरतीति वा परिजिण्णो, तस्स भावो पारिजुझं, तेन । आतिपारिजुञ्जभोगपारिजुञादिना केनचि पारिजुञ्जेन परिहानिया अनभिभूतो अनज्झोत्थटो हुत्वा पब्बजितोति अत्थो । तदेव परियायन्तरेन विभावेतुं “अपरिक्खीणंयेव तं कुलं पहाया"ति वुत्तं । अपरिक्खीणन्ति हि त्रातिपारिजुञभोगपारिजुञादिना केनचि पारिजुञ्जेन अपरिक्खयं । सद्धाय पब्बजितोति सद्धाय एव पब्बजितो। एवञ्चि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
“केनची "तिआदिना निवत्तितवचनं सूपपन्नं होति । ननु च “सक्यकुला पब्बजितो 'ति इदं उच्चाकुला पब्बजितभावपरिदीपनमेव सिया तदत्थस्सेव विञ्ञायमानत्ता, न सद्धापब्बजितभावपरिदीपनं तदत्थस्स अविञ्ञायमानत्ताति ? न खो पनेवं दट्ठब्बं महन्तं ञतिपरिवट्टं, महन्तञ्च भोगक्खन्धं पहाय सद्धापब्बजितभावस्स अत्थतो सिद्धत्ता । तथा हि लोकनाथस्स अभिजातियं तस्स कुलस्स न किञ्चि पारिजुञ्ञ, अथ खो वुड्डियेव, ततो तस्स समिद्धतमभावो लोके पाकटो पञ्ञातो होति, तस्मा “सक्यकुला पब्बजितो 'ति एत्तकेयेव वृत्ते तथा समिद्धतमं कुलं पहाय सद्धापब्बजितभावो सिद्धोयेवाति, इमं परिहारं “केनचि पारिजुञ्ञेना”तिआदिना विभावेतीति दट्ठब्बं । ततो परन्ति “ कोसलेसु चारिकं चरमानो''तिआदिवचनं ।
" साधु धम्मरुचि राजा, साधु पञ्ञाणवा नरो । साधु मित्तानमदुब्भो, पापस्साकरणं सुखन्ति ।। आदीसु -
विय साधुसद्दो इध सुन्दरत्थोति आह “सुन्दरं खो पनाति । खोति अवधारणत्थे निपातो, पनाति पक्खन्तरत्थे | एवं सात्थकताविञ्ञापनत्यहि संवण्णनायमेतेसं गहणं । सुन्दरन्ति च भद्दकं, भद्दकता च पस्सन्तानं हितसुखावहभावेनाति वुत्तं " अत्थावहं सुखावह "न्ति । अत्थो चेत्थ दिट्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थवसेन तिविधं हितं सुखपि तथेव तिविधं सुखं ।
तथारूपानन्ति तादिसानं, अयं सद्दतो अत्थो । अत्थमत्तं पन दस्सेतुं “ एवरूपानन्ति वृत्तं । यादिसेहि च गुणेहि भगवा समन्नागतो चतुप्पमाणिकस्स लोकस्स सब्बकालम्पि- अच्चन्ताय -सद्धाय-पसादनीयो तेसं यथाभूतसभावत्ता, तादिसेहि गुणेहि समन्नागतभावं सन्धाय " तथारूपानं अरहत "न्ति वुत्तन्ति दस्सेन्तो “ यथारूपो "तिआदिमाह । लद्धसद्धानन्ति लद्धसद्दहानं, परजनस्स सद्धं पटिलभन्तानन्ति वृत्तं होति । लद्धसद्दानन्ति वा पटिलद्धकित्तिसद्दानं, एतेन 'अरहत "न्ति पदस्स अरहन्तानन्ति अत्थो, अरहन्तसमञ्ञाय च पाकटभावो दस्सितो, अपिच “यथारूपो सो भवं गोतमो "ति इमिना " तथारूपान "न्ति पदस्स अनियमवसेन अत्थं दस्सेत्वा सरूपनियमवसेनपि दस्सेतुं “ यथाभुच्चगुणाधिगमेन लोके अरहन्तोति लद्धसद्धान”न्ति वृत्तं इदम्पि हि " तथारूपान "न्ति पदस्सेव अत्थदस्सनं, अयमेव च नयो आचरियेहि अधिप्पेतो इध टीकायं, (दी० नि० टी० १.२५५ ) सारत्थदीपनियञ्च तथेव वृत्तत्ता । " यथारूपा ते भवन्तो अरहन्तो 'ति अवत्वा “यथारूपो सो भवं गोतमोति वचनं भगवतियेव गरुगारववसेन "तथारूपानं अरहत "न्ति
(२.३.२५५ - २५५)
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(२.३.२५६-२५६)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
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पुथुवचननिद्दिठ्ठभावविज्ञापनत्थं । अत्तनि, गरूसु च हि बहुवचनं इच्छन्ति सद्दविदू । “यथाभुच्च...पे०... अरहत"न्ति इमिना च धम्मप्पमाणानं, लूखप्पमाणानञ्च सत्तानं भगवतो पसादावहतं यथारुततो दस्सेति अरहन्तभावस्स तेसओव यथारहं विसयत्ता, तंदस्सनेन पन इतरेसम्पि रूपप्पमाणघोसप्पमाणानं पसादावहता दस्सितायेव तदविनाभावतोति दट्टब्बं ।
पसादसोम्मानीति पसन्नानि, सीतलानि च, पसादवसेन वा सीतलानि, अनेन पसन्नमनतं दस्सेति । “दस्सनन्ति वुत्तेपि तदुत्तरि कत्तब्बतासम्भवतो अयं सम्भावनत्थो लब्भतीति आह "दस्सनमत्तम्पि साधु होती"ति । इतरथा हि “दस्सन व साधु, न तदुत्तरि करण"न्ति अनधिप्पेतत्थो आपज्जति, सम्भावनत्थो चेत्थ पि-सद्दो, अपि-सद्दो वा लुत्तनिद्दिट्ठो। "ब्रह्मचरियं पकासेती"ति एत्थ इति-सद्दो “अब्भुग्गतो''ति इमिना सम्बन्धमुपगतो, तस्मा अयं “साधु होती"ति इध इति-सद्दो "ब्राह्मणो पोक्खरसाती अम्बटुं माणवं आमन्तेसी"ति इमिना सम्बज्झितब्बो, “अज्झासयं कत्वाति च पाठसेसो तदत्थस्स विझायमानत्ता। यस्स हि अत्थो विज्ञायति, सदो न पयुज्जति, सो “पाठसेसो''ति वुच्चति, इममत्थं विभावेन्तो आह "दस्सनमत्तम्पि साधु होतीति एवं अज्झासयं कत्वा"ति । मूलपण्णासके चूळसीहनादसुत्तट्ठकथाय (म० नि० अट्ठ० १.१४४) आगतं कोसियसकुणवत्थु चेत्थ कथेतब्बं ।
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
२५६. “अज्झायको''ति इदं पठमपकतिया गरहावचनमेव, दुतियपकतिया पसंसावचनं कत्वा वोहरन्ति यथा तं “पुरिसो नरो''ति दस्सेतुं अग्गजसुत्तपद (दी० नि० ३.१३२) मुदाहटं | तत्थ इमेति झायकनामेन समञिता जना । न झायन्तीति पण्णकुटीसु झानं न अप्पेन्ति न निप्फादेन्ति, गामनिगमसामन्तं ओसरित्वा वेदगन्थे करोन्ताव अच्छन्तीति अत्थो। तं पनेतेसं ब्राह्मणझायकसङ्खातं पठमदुतियनामं उपादाय ततियमेव जातन्ति आह “अज्झायकात्वेव ततियं अक्खरं उपनिब्बत्त"न्ति, अक्खरन्ति च निरुत्ति समझा । सा हि तस्मिंयेव निरुळहभावेन अञत्थ असञ्चरणतो “अक्खर"न्ति वुच्चति । मन्ते परिवत्तेतीति वेदे सज्झायति, परियापुणातीति अत्थो । इध हि अधिआपुब्बइ-सद्दवसेन पदसन्धि, इतरत्थ पन झे-सद्दवसेन । मन्ते धारेतीति यथाअधीते मन्ते असम्मूळ्हे कत्वा हदये ठपेति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
आथब्बणवेदो परूपघातकरत्ता साधूनमपरिभोगोति कत्वा “ इरुवेदयजुवेदसामवेदान "न्ति वुत्तं । तत्थ इच्चन्ते थोमीयन्ते देवा एतायाति इरु इच-धातुवसेन च कारस्स र कारं कत्वा, इत्थिलिङ्गोयं । यज्जन्ते पुज्जन्ते देवा अनेनाति यजु पुन्नपुंसकलिङ्गवसेन । सोयन्ति अन्तं करोन्ति, सायन्ति वा तनुं करोन्ति पापमनेनाति सामं सो धातुपक्खे ओ-कारस्स आ-कारं कत्वा । विदन्ति धम्मं, कम्मं वा एतेहीति वेदा, ते एव मन्ता "सुगतियोपि मुनन्ति, सुय्यन्ति च एतेही "ति कत्वा । पहरणं सङ्घट्टनं पहतं, ओट्ठानं पहतं तथा, तस्स करणवसेन, ओट्ठानि चालेत्वा पगुणभावकरणवसेन पारं गतो, न अत्थविभावनवसेनाति वृत्तं होति । पारगूति च निच्चसापेक्खताय कितन्तसमासो ।
" सह निघण्टुना 'तिआदिना यथावाक्यं विभत्यन्तवसेन निब्बचनदस्सनं । निघण्टुरुक्खादीनन्ति निघण्टु नाम रुक्खविसेसो, तदादिकानमत्थानन्ति अत्थो, एतेन निघण्टुरुक्खपरियायं आदि कत्वा तप्पमुखेन सेसपरियायानं तत्थ दस्सितत्ता सो गन्थो निघण्टु नाम यथा तं "पाराजिककण्डो, कुसलत्तिको "ति अयमत्थो दस्सितो इमिना यथारुतमेव तदत्थस्स अधिगतत्ता । आचरिया पन एवं वदन्ति “वचनीयवाचकभावेन अत्थं, सद्दञ्च निखडति भिन्दति विभज्ज दस्सेतीति निखण्डु, सो एव ख- कारस्स घ-कारं कत्वा 'निघण्डू'ति वुत्तो 'ति ( दी० नि० टी० १.२५६), तदेतं अट्ठकथानयतो अञ्ञनयदस्सनन्ति गहेतब्बं । इतरथा हि सो अट्ठकथाय विरोधो सिया, विचारेतब्बमेतं । अक्खरचिन्तका पन एवमिच्छन्ति “तत्थ तत्थागतानि नामानि निस्सेसतो घटेन्ति रासि करोन्ति एत्थाति निघण्टु निग्गहितागमेना'ति । वेवचनप्पकासकन्ति परियायसद्ददीपकं, एकेकस्स अत्थस्स अनेकपरियायवचनविभावकन्ति अत्थो । निदस्सनमत्तञ्चेतं अनेकेसम्प अत्थानं एकसद्दवचनीयताविभावनवसेनपि तस्स गन्थस्स पवत्तत्ता । को पनेसोति ? एतरहि नामलिङ्गानुसासनरतनमालाभिधानप्पदीपिकादि । वचीभेदादिलक्खणा किरिया कप्पीयति एतेनाति किरियाकप्पो, तथैव विविधं कप्पीयति एतेनाति विकप्पो, किरियाकप्पो च सो विकप्पो चाति किरियाकप्पविकप्पो । सो हि वण्णपदसम्बन्धपदत्थादिविभागतो बहुविकप्पोति कत्वा “किरियाकप्पविकप्पो 'ति वुच्चति, सो च गन्थविसेसोयेवाति वृत्तं "कवीनं उपकारावहं सत्थ "न्ति, चतुन्नम्पि कवीनं कविभावसम्पदाभोगसम्पदादिपयोजनवसेन उपकारावहो गन्थोति अत्थो । को पनेसोति ? कब्यबन्धनविधिविधायको कब्यालङ्कारगीतासुबोधालङ्कारादि । इदं पन मूलकिरियाकप्पगन्धं सन्धाय वृत्तं । सो हि महाविसयो सतसहस्सगाथापरिमाणो, यं “ नयचरियादिपकरण "न्तिपि वदन्ति । वचनत्थतो पन किटयति गमेति जपेति किरियादिविभागन्ति केटुभं किट धातुतो अभपच्चयवसेन,
(२.३.२५६-२५६)
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( २.३.२५६ - २५६)
अम्बट्टमाणवकथावण्णना
अ-कारस्स च उकारो। अथ वा किरियादिविभागं अनवसेसपरियादानतो किटेन्तो गमन्तो ओभेति पूरेतीति केटुभं किट - सद्दूपपदउभधातुवसेन । अपिच किटन्ति गच्छन्ति कवयो बन्धेसु कोसल्लमेतेनाति केटुभं, पुरिमनयेनेवेत्थ पदसिद्धि । ठानकरणादिविभागतो, निब्बचनविभागतो च अक्खरा पभेदीयन्ति एतेनाति अक्खरप्पभेदो, तं पन छसु वेदसु परियापन्नं पकरणद्वयमेवाति वुत्तं “सिक्खा च निरुत्ति चा "ति । तत्थ सिक्खन्ति अक्खरसमयमेतायाति सिक्खा, अकारादिवण्णानं ठानकरणपयतनपटिपादकसत्थं । निच्छयेन, निस्सेसतो वा उत्ति निरुत्ति, वण्णागमवण्णविपरियायादिलक्खणं । वुत्तञ्च -
"वण्णागमो वण्णविपरियायो,
द्वे चापरे वण्णविकारनासा । धातुस्स अत्थातिसयेन योगो,
तदुच्चते पञ्चविधा १.वेरञ्जकण्डवण्णना; विसुद्धि०
इध पन तब्बसेन अनेकधा निब्बचनपरिदीपकं सत्थं उत्तरपदलोपेन " निरुत्ती "ति अधिप्पेतं निब्बचनविभागतोपि अक्खरपभेदभावस्स आचरियेहि ( दी० नि० टी० १.२५६) वुत्तत्ता, तमन्तरेन निब्बचनविभागस्स च ब्याकरणङ्गेन सङ्गहितत्ता । ब्याकरणं, निरुत्ति च हि पच्चेकमेव वेदङ्गं यथाहु
"कप्पो ब्याकरणं जोति-सत्थं सिक्खा निरुत्ति च । छन्दोविचिति चेतानि, वेदङ्गानि वदन्ति छा" ति । ।
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अट्ठ०
निरुत्ती 'ति । । (पारा० १.१४४; महानि० अट्ठ० १.५० )
तस्मा ब्याकरणङ्गेन असङ्करभूतमेव निरुत्तिनयेन निब्बचनमिधाधिप्पेतं, न छसु ब्यञ्जनपदेसु विय तदुभयसाधारणनिब्बचनं वेदङ्गविसयत्ताति वेदितब्बं । अयं पत्थ मानिसकथा ( महानि० अट्ठ० ५०) आगतनिरुत्तिनयविनिच्छयो । तत्थ हि "नक्खत्तराजारिव तारकान "न्ति ( जा० १.१.११, २५) एत्थ र कारागमो विय अविज्जमानस्स अक्खरस्स आगमो वण्णागमो नाम । हिंसनत्ता “हिंसो "ति वत्तब्बे "सीहो " ति परिवत्तनं विय विज्जमानानमक्खरानं हेट्टुपरियवसेन परिवत्तनं वण्णविपरियायो नाम । “नवछन्नकेदानि दिय्यती 'ति ( जा० १.६.८८ ) एत्थ अ-कारस्स ए- कारापज्जनं विय अञ्ञक्खरस्स अञ्ञक्खरापज्जनं वण्णविकारो नाम । “जीवनस्स मूतो जीवनमूतो "ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५६-२५६)
वत्तब्बे “जीमूतो''ति व कार न-कारानं विनासो विय विज्जमानक्खरानं विनासो वण्णविनासो नाम | “फरुसाहि वाचाहि पकुब्बमानो, आसज्ज मं त्वं वदसे कुमारा'"ति (जा० १.१०.८५) एत्थ “पकुब्बमानो"ति पदस्स अभिभवमानोति अत्थपटिपादनं विय तत्थ तत्थ यथायोगं विसेसत्थपटिपादनं धातूनमत्थातिसयेन योगो नामाति।
यथावुत्तप्पभेदानं तिण्णं वेदानं अयं चतुत्थोयेव सिया, अथ केन सद्धिं पञ्चमोति आह “आथब्बणवेदं चतुत्थं कत्वा"ति । आथब्बणवेदो नाम आथब्बणवेदिकेहि विहितो परूपघातकरो मन्तो, सो पन इतिहासपञ्चमभावप्पकासनत्थं गणिततामत्तेन गहितो, न सरूपवसेन, एवञ्च कत्वा "एतेस"न्ति पदस्स तेसं तिण्णं वेदानन्त्वेव अत्थो गहेतब्बो । तम्हि “तिण्णं वेदान"न्ति एतस्स विसेसनन्ति । इतिह असाति एवं इध लोके अहोसि “आसा"तिपि कत्थचि पाठो, सोयेवत्थो । इह ठाने इति एवं, इदं वा कम्मं, वत्थु वा आस इच्छाहीतिपि अत्थो । तस्स गन्थस्स महाविसयतादीपनत्थञ्चेत्थ विच्छावचनं, इमिना “इतिहासा'ति वचनेन पटिसंयुत्तो इतिहासो तद्धितवसेनाति अत्थं दस्सेति । इतिह आस, इतिह आसा"ति ईदिसवचनपटिसंयुत्तो इतिहासो निरुत्तिनयेनाति अत्थदस्सनन्तिपि वदन्ति । अक्खरचिन्तका पन एवमिच्छन्ति “इतिह-सद्दो पारम्परियोपदेसे एकोव निपातो, असति विज्जतीति असो, इतिह असो एतस्मिन्ति इतिहासो समासवसेना''ति, तेसं मते "इतिह असा"ति एत्थ एवं पारम्परियोपदेसो अस विज्जमानो अहोसीति अत्थो । "पुराणकथासङ्घातो"ति इमिना तस्स गन्थविसेसभावमाह, भारतनामकानं द्वभातिकराजूनं युद्धकथा, रामरञो सीताहरणकथा, नरसीहराजुप्पत्तिकथाति एवमादिपुराणकथासङ्घातो भारतपुराणरामपुराणनरसीहपुराणादिगन्थो इतिहासो नामाति वुत्तं होति । "तेसं इतिहासपञ्चमानं वेदान''न्ति इमिना यथावाक्यं “तिण्णं वेदान"न्ति एत्थ विसेसनभावं दस्सेति।
पज्जति अत्थो एतेनाति पदं, नामाख्यातोपसग्गनिपातादिवसेन अनेकविभागं विभत्तियन्तपदं । तदपि ब्याकरणे आगतमेवाति वुत्तं "तदवसेस"न्ति, पदतो अवसेसं पकतिपच्चयादिसद्दलक्खणभूतन्ति अत्थो । तं तं सदं, तदत्थञ्च ब्याकरोति ब्याचिक्खति एतेनाति व्याकरणं, विसेसेन वा आकरीयन्ते पकतिपच्चयादयो अभिनिप्फादीयन्ते एत्थ, अनेनाति वा ब्याकरणं, साधुसद्दानमन्वाख्यायकं मुद्धबोधव्याकरण सारस्सतव्याकरण पाणिनीव्याकरणचन्द्रव्याकरणादि अधुनापि विज्जमानसत्थं । अधीयतीति अज्झायति । वेदेतीति परेसं वाचेति । च-सद्दो अत्थद्वयसमुच्चिननत्थो, विकप्पनत्थो वा अत्थन्तरस्स विकप्पितत्ता ।
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(२.३.२५६-२५६)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
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विचित्रा हि तद्धितवुत्ति । पदकोति ब्याकरणेसु आगतपदकोसल्लं सन्धाय वुत्तं, वेय्याकरणोति तदवसिठ्ठपकतिपच्चयादिसद्दविधिकोसल्लन्ति इमस्सत्थस्स विज्ञापनत्थं पदद्वयस्स एकतो अथवचनं । एसा हि आचरियानं पकति, यदिदं येन केनचि पकारेन अत्थन्तरविञापनं । अयं अट्ठकथातो अपरो नयो - ते एव वेदे पदसो कायतीति पदकोति । तत्थ पदसोति गज्जबन्धपज्जबन्धपदेन । कायतीति कथेति यथा “जातक"न्ति, इमिना वेदकारकसमत्थतं दस्सेति । एवम्हि “अज्झायको''तिआदीहि इमस्स विसेसो पाकटो होतीति ।
आयतिं हितं बालजनसङ्घातो लोको न यतति न ईहति अनेनाति लोकायत। तहि गन्थं निस्साय सत्ता पुञ्जकिरियाय चित्तम्पि न उप्पादेन्ति, लोका वा बालजना आयतन्ति उस्सहन्ति वादस्सादेन एत्थाति लोकायतं। अञमाविरुद्धं, सग्गमोक्खविरुद्धं वा तनोन्ति एत्थाति वितण्डो ड-पच्चयवसेन, न-कारस्स च ण-कारं कत्वा, विरुद्धेन वाददण्डेन तान्ति वादिनो एत्थाति वितण्डो तडि-धातुवसेन, निग्गहीतागमञ्च कत्वा । अदेसम्पि यं निस्साय वादीनं वादो पवत्तो, तं तेसं देसतोपि उपचारवसेन वुच्चति यथा “चक्खं लोके पियरूपं सातरूपं, एत्थेसा तण्हा पहीयमाना पहीयति, एत्थ निरुज्झमाना निरुज्झती"ति, (दी० नि० २.४०१; म० नि० १.१३३; विभं० २०४) विसेसेन वा पण्डितानं मनं तडेन्ति चालेन्ति एतेनाति वितण्डो, तं वदन्ति, सो वादो वा एतेसन्ति वितण्डवादा, तेसं सत्थं तथा । लक्खणदीपकसत्थं उत्तरपदलोपेन, तद्धितवसेन वा लक्खणन्ति दस्सेति "लक्खणदीपक"न्तिआदिना | लक्खीयति बुद्धभावादि अनेनाति लक्खणं, निग्रोधबिम्बतादि । तेनाह “येसं वसेना"तिआदि । द्वादससहस्सगन्थपमाणन्ति एत्थ भाणवारप्पमाणादीसु विय बात्तिंसक्खरगन्थोव अधिप्पेतो । वुत्तहि -
"अट्ठक्खरा एकपदं, एका गाथा चतुप्पदं । गाथा चेका मतो गन्थो, गन्थो बात्तिंसतक्खरो'ति ।।।
द्वादसहि गुणितसहस्सबात्तिंसक्खरगन्थप्पमाणन्ति अत्थो । यत्थाति यस्मिं लक्खणसत्थे, आधारे चेतं भुम्मं यथा “रुक्खे साखा''ति । सोळस च सहस्सञ्च सोळससहस्सं, सोळसाधिकसहस्सगाथापरिमाणाति अत्थो । एवहि आधाराधेय्यवचनं सूपपन्नं होतीति । पधानवसेन बुद्धानं लक्खणदीपनतो बुद्धमन्ता नाम। पच्चेकबुद्धादीनम्पि हि लक्खणं तत्थ दीपितमेव । तेन वुत्तं “येसं वसेना''तिआदि ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५७-२५७)
" अनूनो परिपूरकारी "ति अत्थमत्तदस्सनं, सद्दतो पन अधिगतमत्थं दस्सेतुं “ अवयो न होती"ति वृत्तं । को पनेस अवयोति अनुयोगमपनेति “ अवयो नामा" तिआदिना । अयमेत्ताधिप्पायो - यो तानि सन्धारेतुं सक्कोति, सो " वयो"ति वुच्चति । यो पन न सक्कोति, सो अवयो नाम । यो च अवयो न होति, सो " द्वे पटिसेधा पकतियत्थगमका’ति आयेन वयो एवाति । वयतीति हि वयो, आदिमज्झपरियोसानेसु कत्थचिपि अपरिकिलमन्तो अवित्थायन्तो ते गन्थे सन्ताने पणेति ब्यवहरतीति अत्थो । अयं पन विनयट्ठकथानयो ( पारा० ८४ ) - अनवयोति अनु अवयो, सन्धिवसेन उ-कारलोपो, अनु अनु अवयो अनूनो, परिपुण्णसिप्पोति अत्थो । वयोति हि हानि "आयवयो" तिआदीसु विय, नत्थि एतस्स यथावुत्तगन्थेसु वयो ऊनताति अवयो, अनु अनु अवयो अनवयोति ।
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च
‘“अनुञातो’ति पदस्स कम्मसाधनवसेन, "पटिञ्ञातो "ति पदस्स कत्तुसाधनवसेन अत्थं दस्सेन्तो “ आचरियेना" तिआदिमाह । अस्साति अम्बट्ठस्स । पाळियं “यमहं जानामि, तं त्वं जानासी" ति इदं अनुजाननाकारदस्सनं, “यं त्वं जानासि, तमहं जानामीति इदं पन पटिजाननाकारदस्सनन्ति दस्सेति “यं अह "न्तिआदिना । "आम आचरियाति हि यथागतं पटिजाननवचनमेव अत्थवसेन वृत्तं । यन्ति तेविज्जकं पावचनं । तस्साति आचरियस्स । पटिवचनदानमेव पटिञ्ञ तथा ताय सयमेव पटिञ्ञातोति अत्थो । “सके”तिआदि अनुजाननपटिजाननाधिकारदस्सनं । अदेसस्सपि देसमिव कप्पनामत्तेनाति वुत्तं " कतरस्मि" न्तिआदि । सस्स अत्तनो सन्तकं सकं । आचरियानं परम्परतो, परम्परभूतेहि वा आचरियेहि आगतं आचरियकं । तिस्सो विज्जा, तासं समूहो तेविज्जकं, वेदत्तयं । पधानं वचनं, पकट्ठानं वा अट्टकादीनं वचनं पावचनं ।
२५७. इदानि येनाधिप्पायेन ब्राह्मणो पोक्खरसाती अम्बट्टं माणवं आमन्तेत्वा “अयं ताता 'तिआदिवचनमब्रवि, तदधिप्पायं विभावेन्तो “एस किरा"तिआदिमाह । तत्थ उग्गतस्साति पुब्बे पाकटस्स कित्तिमतो पोराणजनस्स । बहू जनाति पूरणकस्सपादयो सन्धाय वृत्तं । एकच्चन्ति खत्तियादिजातिमन्तं, लोकसम्मतं वा जनं । गरूति भारियं, अत्तानं ततो मोचेत्वा अपगमनमत्तम्पि दुक्करं होति, पगेव तदुत्तर करणन्ति वृत्तं होति । अनत्थो नाम तथापगमनादिना निन्दाब्यारोसउपारम्भादि ।
"अभुगत एत्थ
अभिसद्दयोगेन इत्थम्भूताख्यानत्थवसेनेव " गोतम ''न्ति
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(२.३.२५८-२५८)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
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उपयोगवचनं। "तं भवन्तं, तथा सन्तंयेवा"ति पदेसुपि तस्स अनुपयोगत्ता तदत्थवसेनेवाति दस्सेति "तस्स भोतो"तिआदिना । तेनाह "इधापी"तिआदि । तथा सतोयेवाति येनाकारेन अरहतादिना सद्दी अब्भुग्गतो, तेनाकारेन सन्तस्स भूतस्स एव तस्स भवतो गोतमस्स सद्दो यदि वा अब्भुग्गतोति अत्थो । अपिच तं भवन्तं गोतमं तथा सन्तंयेवाति एकस्सपि अत्थस्स द्विक्खत्तुं सम्बन्धभावेन वचनं सामञविसिट्ठतापरिकप्पनेन अत्थविसेसविज्ञापनत्थं, तस्मा "तस्स भोतो गोतमस्सा"ति सामञ्जसम्बन्धभावेन विच्छिन्दित्वा “तथा सतोयेवा"ति विसेससम्बन्धभावेन योजेतब् । यदि-सद्दो चेत्थ संसयत्थो द्विन्नम्पि अत्थानं संसयितब्बत्ता । वा-सद्दो च विकप्पनत्थो तेसु एकस्स विकप्पेतब्बत्ता । सद्दविदू पन एवं वदन्ति - “इमस्स वचनं सच्चं वा यदि वा मुसा"तिआदीसु विय यदि-सद्दो वा-सद्दो च उभोपि विकप्पत्थायेव । यदि-सद्दोपि हि "यं यदेव परिसं उपसङ्कमति यदि खत्तियपरिसं यदि ब्राह्मणपरिस''न्तिआदीसु (अ० नि० २.५.३४) वा-सद्दत्थो दिस्सति । “अप्पं वस्ससतं आयु, इदानेतरहि विज्जती"तिआदीसु विय च इध समानत्थसद्दपयोगोति । पाळियं “यदि वा नो तथा"ति इदम्पि "सन्तंयेव सद्दो अब्भुग्गतो''ति इमिना सम्बज्झित्वा यथावुत्तनयेनेव योजेतब्बं । ननु "गोतम''न्ति पदेयेव उपयोगवचनं सिया, न एत्थाति चोदनाय "इधापी"तिआदि वुत्तं, तस्स अनुपयोगत्ता, विच्छिन्दित्वा सम्बन्धविसेसभावेन योजेतब्बत्ता वा इधापि इत्थम्भूताख्यानत्थवसेनेव उपयोगवचनं नामाति वुत्तं होति । इत्थम्भूताख्यानं अत्थो यस्स तथा, अभिसद्दो, इत्थम्भूताख्यानमेव वा अत्थो तथा, सोयेवत्थो । यदग्गेन हि सद्दयोगो होति, तदग्गेन अत्थयोगोपीति ।
२५८. भोति अत्तनो आचरियं आलपति । यथा-सदं सात्थकं कत्वा सह पाठसेसेन योजेतुं “यथा सक्का"तिआदि वुत्तं। सोति भगवा। पुरिमनये आकारत्थजोतनयथा-सद्दयोग्यतो कथन्ति पुच्छामत्तं, इध पन तदयोग्यतो "आकारपुच्छा"ति वुत्तं । बाहिरकसमये आचरियम्हि उपज्झायसमुदाचारोति आह “अथ नं उपज्झायो"ति, उपज्झायसञितो आचरियब्राह्मणोति अत्थो ।
कामञ्च मन्तो, ब्रह्म, कप्पोति तिब्बिधो वेदो, तथापि अट्ठकादि वुत्तं पधानभूतं मूलं मन्तो, तदत्थविवरणमत्थं ब्रह्म, तत्थ वुत्तनयेन यज्ञकिरियाविधानं कप्पोति मन्तस्सेव पधानभावतो, इतरेसञ्च तन्निस्सयेनेव जातत्ता मन्तग्गहणेन ब्रह्मकप्पानम्पि गहणं सिद्धमेवाति दस्सेति "तीसु वेदेसू"ति इमिना । मन्तोति हि अट्ठकादीहि इसीहि वुत्तमूलवेदस्सेव नामं, वेदोति सब्बस्स, तस्मा “वेदेसूति वुत्ते सब्बेसम्पि गहणं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५८-२५८)
सिज्झतीति वेदितब्बं । लक्खणानीति लक्खणदीपकानि मन्तपदानि । पज्जगज्जबन्धपवेसनवसेन पक्खिपित्वा। ब्राह्मणवेसेनेवाति वेदवाचकब्राह्मणलिनेनेव । वेदेति महापुरिसलक्खणमन्ते । महेसक्खा सत्ताति महापुञ्जवन्तो पण्डितसत्ता । जानिस्सन्ति इति मनसि कत्वा वाचेन्तीति सम्बन्धो। तेनाति तथा वाचनतो। पुब्बेति “तथागतो उप्पज्जिस्सती"ति वत्तब्बकालतो पभुति तथागतस्स धरमानकाले । अज्झायितब्बवाचेतब्बभावेन आगच्छन्ति पाकटा भवन्ति । एकगाथाद्विगाथादिवसेन अनुक्कमेन अन्तरधायन्ति। न केवलं लक्खणमन्तायेव, अथ खो अञ्जेपि वेदा ब्राह्मणानं अाणभावेन अनुक्कमेन अन्तरधायन्ति एवाति आचरियेन (दी० नि० टी० १.२५८) वुत्तं ।
बुद्धभावपत्थना पणिधि, पारमीसम्भरणं समादानं, कम्मस्सकतादिपञा आणं । “पणिधिमहतो समादानमहतोतिआदिना पच्चेकं महन्तसद्दो योजेतब्बो''ति (दी० नि० टी० १.२५८) आचरियेन वुत्तं । एवञ्च सति करुणा आदि येसं सद्धासीलादीनं ते करुणादयो, ते एव गुणा करुणादिगुणा, पणिधि च समादानञ्च आणञ्च करुणादिगुणा च, तेहि महन्तो पणिधिसमादानञाणकरुणादिगुणमहन्तोति निब्बचनं कातब् । एवहि द्वन्दतोपरत्ता महन्तसद्दो पच्चेकं योजीयतीति । अपिच पणिधि च समादानञ्च आणञ्च करुणा च, तमादि येसं ते तथा, तेयेव गुणा, तेहि महन्तोति निब्बचनेनपि अत्थो सूपपन्नो होति, पणिधिमहन्ततादि चस्स बुद्धवंस (बु० वं० ९ आदयो) चरियापिटकादि (चरिया० पि० १ आदयो) वसेन वेदितब्बो | महापदानसुत्तट्ठकथायं पन “महापुरिसस्साति जातिगोत्तकुलपदेसादिवसेन महन्तस्स पुरिसस्सा''ति (दी० नि० अट्ठ० २.३३) वुत्तं । तत्थ "खत्तियो, ब्राह्मणो''ति एवमादि जाति। "कोण्डो , गोतमो''ति एवमादि गोत्तं । "पोणिका, चिक्खल्लिका, साकिया, कोलिया"ति एवमादि कुलपदेसो, तदेतं सब्बम्पि इध आदिसद्देन सङ्गहितन्ति दट्ठब्बं । एवहि सति “द्वेयेव गतियो भवन्तीति उभिन्नं साधारणवचनं समत्थितं होतीति ।
निहाति निष्फत्तियो सिद्धियो। नन्वायं गति-सद्दो अनेकत्थो, कस्मा निट्ठायमेव वुत्तोति आह' 'कामञ्चायन्तिआदि। भवभेदेति निरयादिभवविसेसे । सो हि सुचरितदुच्चरितकम्मेन सत्तेहि उपपज्जनवसेन गन्तब्बाति गति । गच्छति पवत्तति एत्थाति गति, निवासट्टानं । गमति यथासभावं जानातीति गति। पञ्चा, गमनं ब्यापनं गति, विस्सटभावो, सो पन इतो च एत्तो च ब्यापेत्वा ठितताव । गमनं निप्फत्तनं गति,
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( २.३.२५८ - २५८)
निट्ठा, अज्झासयपटिसरणत्थापि निदस्सननयेन गहिता । तथा हेस " इमेसं खो अहं भिक्खूनं सीलवन्तानं कल्याणधम्मानं नेव जानामि आगतिं वा गतिं वा "ति (म० नि० १.५०८) एत्थ अज्झासये वत्तति, “निब्बानं अरहतो गती" ति ( परि० ३३९) एत्थ पटिसरणे, परायणे अपस्सयेति अत्थो । गच्छति यथारुचि पवत्ततीति गति, अज्झासयो । गच्छति अवचरति, अवचरणवसेन वा पवत्तति एत्थाति गति, पटिसरणं । सब्बसङ्घतविसञ्जुत्तस्स हि अरहतो निब्बानमेव पटिसरणं इध पन निट्ठायं वत्त वेदितब्बो तदसमविसयत्ता ।
अम्बद्रुमाणवकथावण्णना
ननु द्विन्नं निष्फत्तीनं निमित्तभूतानि लक्खणानि विसदिसानेव, अथ कस्मा " समन्नागतस्सा’’तिआदिना तेसं सदिसभावो वुत्तोति चोदनालेसं दस्सेत्वा सोधेन्तो “ तत्थ किञ्चापीति आदिमाह । समानेपि निग्रोधबिम्बतादिलक्खणभावे अत्थेव कोचि नेसं विसेसोति दस्सेतुं "न तेहेव बुद्धो होती "ति वृत्तं । " यथा हि बुद्धानं लक्खणानि सुविसदानि, सुपरिब्यत्तानि परिपुण्णानि च होन्ति, न एवं चक्कवत्तीन "न्ति अयं पन विसेसो आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.२५८) पकासितो । जायन्ति भिन्ने सुपि अत्थेसु अभिन्नधीसद्दा एतायाति जाति, लक्खणभावमत्तं । वृत्तहि -
“सबलादीसु भिन्नेसु, याय वत्तन्तुभिन्नधी । सद्दा सा जातिरेसा च, मालासुत्तमिवन्विता'ति ।
तस्मा लक्खणतामत्तेन समानभावतो विसदिसानिपि तानियेव चक्कवत्तिनिप्फत्तिनिमित्तभूतानि लक्खणानि सदिसानि विय कत्वा तानि बुद्धनिप्फत्तिनिमित्तभूतानि लक्खणानि नामाति इदं वचनं वृच्चतीति अत्थो । अधिआपुब्बवसयोगे भुम्मत्थे उपयोगवचनन्ति आह 'अगारे वसती"ति चतूहि अच्छरियधम्मेहीति अभिरूपता, दीघायुकता, अप्पाबाधता, ब्राह्मणगहपतिकानं पियमनापति इमेहि चतूहि अच्छरियसभावभूताहि इद्धीहि । यथाह -
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" राजा आनन्द, महासुदस्सनो चतूहि इद्धीहि समन्नागतो अहोसि । कतमाहि चतूहि इद्धीहि ? इधानन्द, राजा महासुदस्सनो अभिरूपो अहोसि दस्सनीयो पासादिको 'तिआदि ( दी० नि० २.२५२ ) ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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चेतियजातके (जा० अट्ठ० ३.८.४४) आगतनयं गहेत्वापि एवं वदन्ति “सरीरतो चन्दनगन्धो वायति, अयं एका इद्धि । मुखतो उप्पलगन्धो वायति, अयं दुतिया । चत्तारो देवपुत्ता चतूसु दिसासु सब्बकालं खग्गहत्था आरक्खं गण्हन्ति, अयं ततिया। आकासेन विचरति, अयं चतुत्थी''ति । अनागतवंससंवण्णनायं पन “अभिरूपभावो एका इद्धि, समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतभावो दुतिया, यावतायुकम्पि सकललोकस्स दस्सनातित्तिकभावो ततिया, आकासचारिभावो चतुत्थी''ति वुत्तं । तत्थ समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतभावोति समविपाचनिया कम्मजतेजोधातुया सम्पन्नता। यस्स हि भुत्तमत्तोव आहारो जीरति, यस्स वा पन पुटभत्तं विय तथेव तिठ्ठति, उभोपेते न समवेपाकिनिया समन्नागता । यस्स पन पुन भत्तकाले भत्तच्छन्दो उप्पज्जतेव, अयं समवेपाकिनिया समन्नागतो नाम, तथारूपताति अत्थो । सङ्गहवत्थूहीति दानं, पियवचनं, अत्थचरिया, समानत्तताति इमेहि सङ्गहोपायेहि । यथाह -
"दानञ्च पेय्यवज्जञ्च, अत्थचरिया च या इध । समानत्तता च धम्मेसु, तत्थ तत्थ यथारहं। एते खो सङ्गहा लोके, रथस्साणीव यायतो ।।
एते च सङ्गहा नास्सु, न माता पुत्तकारणा। लभेथ मानं पूजं वा, पिता वा पुत्तकारणा ।।
यस्मा च सङ्गहा एते, समपेक्खन्ति पण्डिता । तस्मा महत्तं पप्पोन्ति, पासंसा च भवन्ति ते'ति ।। (दी० नि० ३.२७३)
रजनतोति पीतिसोमनस्सवसेन रञ्जनतो, न रागवसेन, पीतिसोमनस्सानं जननतोति वुत्तं होति । चतूहि सङ्गहवत्थूहि रञ्जनढेन राजाति पन सब्बेसं राजूनं समझा तथा अकरोन्तानम्पि विलीवबीजनादीसु तालवण्टवोहारो विय रुळ्हिवसेन पवत्तितो, तस्मा "अच्छरियधम्मेही''ति असाधारणनिब्बचनं वुत्तन्ति दट्टब् ।
सद्दसामत्थियतो अनेकधा चक्कवत्तीसद्दस्स वचनत्थं दस्सेन्तो पधानभूतं वचनत्थं पठमं दस्सेतुं "चक्करतनन्तिआदिमाह । इदमेव हि पधानं चक्करतनस्स पवत्तनमन्तरेन चक्कवत्तिभावानापत्तितो। तथा हि अट्ठकथासु वुत्तं “कित्तावता चक्कवत्ती होतीति ?
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(२.३.२५८-२५८)
अम्बठ्ठमाणवकथावण्णना
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एकङ्गुलद्वङ्गुलमत्तम्पि चक्करतने आकासं अब्भुग्गन्त्वा पवत्ते''ति (दी० नि० अट्ठ० २.२४३; म० नि० अट्ठ० ३.२५६)। यस्मा पन राजा चक्कवत्ती एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा वामहत्थेन हत्थिसोण्डसदिसपनाळिं सुवण्णभिङ्कारं उक्खिपित्वा दक्खिणहत्थेन चक्करतनं उदकेन अब्भुक्किरित्वा “पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतन''न्ति (दी० नि० २.२४४) वचनेन चक्करतनं वेहासं अब्भुग्गन्त्वा पवत्तेसि, तस्मा तादिसं पवत्तापनं सन्धाय "चक्करतनं वत्तेती"ति वुत्तं । यथाह “अथ खो आनन्द राजा महासुदस्सनो उट्ठायासना...पे०... चक्करतनं अब्भुक्किरि ‘पवत्ततु भवं चक्करतन'न्ति"आदि (दी० नि० २.२४४)। न केवलञ्च चक्कसद्दो चक्करतनेयेव वत्तति अथ खो सम्पत्तिचक्कादीसुपि, तस्मा तंतदत्थवाचकसद्दसामत्थियतोपि वचनत्थं दस्सेति "सम्पत्तिचक्केही"तिआदिना । तत्थ सम्पत्तिचक्केहीति
“पतिरूपे वसे देसे, अरियमित्तकरो सिया । सम्मापणिधिसम्पन्नो, पुब्बे पुञकतो नरो । धनं धनं यसो कित्ति, सुखञ्चेतंधिवत्तती''ति ।। (अ० नि० १.४.३१)
वुत्तेहि पतिरूपदेसवासादिसम्पत्तिचक्केहि । वत्ततीति पवत्तति सम्पज्जति, उपरूपरि कुसलधम्मं वा पटिपज्जति । तेहीति सम्पत्तिचक्केहि । परन्ति सत्तनिकायं, यथा सयंसद्दो सुद्धकत्तुत्थस्स जोतको, तथा परंसदोपि हेतुकत्तुत्थस्साति वेदितबं । वत्तेतीति पवत्तेति सम्पादेति, उपरूपरि कुसलधम्म वा पटिपज्जापेति । यथाह
“राजा महासुदस्सनो एवमाह 'पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं न आदातब्बं, कामेसु मिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भणितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुजथा'ति । ये खो पनानन्द पुरथिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रो महासुदस्सनस्स अनुयन्ता अहेसु"न्तिआदि (दी० नि० २.२४४) ।
इरियापथचक्कानन्ति इरियापथभूतानं चक्कानं । इरियापथोपि हि "चक्क"न्ति वुच्चति "चतुचक्कं नवद्वार'"न्तिआदीसु (सं० नि० १.१.२९, १०९)। यथाह -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५८-२५८)
"रथने लक्खणे धम्मो-रचक्केस्विरियापथे । चक्कं सम्पत्तियं चक्क-रतने मण्डले बले । कुलालभण्डे आणाय-मायुधे दानरासिसू'ति ।।
वत्तोति पवत्तनं उप्पज्जनं, इमिनाव इरियापथचक्कं वत्तेति परहिताय उप्पादेतीति निब्बचनम्पि दस्सेति अत्थतो समानत्ता । तथा चाह -
“अथ खो तं आनन्द चक्करतनं पुरत्थिमं दिसं पवत्ति, अन्वदेव राजा महासुदस्सनो सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाय | यस्मिं खो पनानन्द, पदेसे चक्करतनं पतिहासि, तत्थ राजा महासुदस्सनो वासं उपगच्छि सद्धिं चतुरङ्गिनिया सेनाया''तिआदि (दी० नि० २.२४४) ।
अयं अट्ठकथातो अपरो नयो- अप्पटिहतं आणासङ्घातं चक्कं वत्तेतीति चक्कवत्ती। तथा हि वुत्तं -
“पञ्चहि भिक्खवे धम्मेहि समन्नागतो राजा चक्कवत्ती धम्मेनेव चक्कं वत्तेति, तं होति चक्कं अप्पटिवत्तियं केनचि मनुस्सभूतेन पच्चत्थिकेन पाणिना | कतमेहि पञ्चहि ? इध भिक्खवे राजा चक्कवत्ती अत्थञ्जू च होति, धम्मञ्जू च मत्तञ्जू, च कालशं च परिसञ्जू च । इमेहि खो...पे०... पाणिना''तिआदि (अ० नि० २.५.१३१)।
खत्तियमण्डलादिसतिं चक्कं समूहं अत्तनो वसे वत्तेति अनुवत्तेतीतिपि चक्कवत्ती। वुत्तहि “ये खो पनानन्द पुरथिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रओ महासुदस्सनस्स अनुयन्ता अहेसु"न्तिआदि (दी० नि० २.२४४) । चक्कलक्खणं वत्तति एतस्सातिपि चक्कवत्ती। तेनाह "इमस्स देव कुमारस्स हेट्ठा पादतलेसु चक्कानि जातानि सहस्सारानि सनेमिकानि सनाभिकानि सब्बाकारपरिपूरानी"तिआदि (दी० नि० २.३५) । चक्कं महन्तं कायबलं वत्तति एतस्सातिपि चक्कवत्ती। वुत्तव्हेतं “अयहि देव कुमारो सत्तुस्सदो...पे०... अयहि देव कुमारो सीहपुब्बद्धकायो'"तिआदि (दी० नि० २.३५) । तेन हिस्स लक्खणेन महब्बलभावो विज्ञायति । चक्कं दसविधं, द्वादसविधं वा वत्तधम्म वत्तति पटिपज्जतीति चक्कवत्ती। तेन वुत्तं "न हि ते तात दिब्बं चक्करतनं पेत्तिकं
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(२.३.२५८-२५८)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
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दायज्जं, इङ्घ त्वं तात अरिये चक्कवत्तिवत्ते वत्ताही''तिआदि (दी० नि० ३.८३) । चक्कं महन्तं दानं वत्तेति पवत्तेतीतिपि चक्कवत्ती। वुत्तञ्च --
“पठ्ठपेसि खो आनन्द राजा महासुदस्सनो तासं पोक्खरणीनं तीरे एवरूपं दानं अन्नं अन्नत्थिकस्स, पानं पानस्थिकस्स, वत्थं वत्थथिकस्स, यानं यानत्थिकस्स, सयनं सयनत्थिकस्स, इत्थिं इथित्थिकस्स, हिरनं हिरञत्थिकस्स, सुवण्णं सुवण्णत्थिकस्सा"तिआदि (दी० नि० २.२५४) ।
राजाति सामनं तदञसाधारणतो । चक्कवत्तीति विसेसं अनसाधारणतो । धम्मसद्दो आये, समो एव च आयो नामाति आह "आयेन समेना"ति । वत्तति उप्पज्जति, पटिपज्जतीति वा अत्थो । “इदं नाम चरती''ति अवुत्तेपि सामञ्जजोतनाय विसेसे अवट्ठानतो, विसेसत्थिना च विसेसस्स पयुज्जितब्बत्ता “सदत्थपरत्थे''ति योजीयति । पदेसग्गहणे हि असति गहेतब्बस्स निप्पदेसता विझायति यथा “दिक्खितो न ददाती"ति । यस्मा चक्कवत्तिराजा धम्मेनेव रज्जमधिगच्छति, न अधम्मेन परूपघातादिना । तस्मा वुत्तं "धम्मेन रज्जं लभित्वा"तिआदि, धम्मेनाति च आयेन, कुसलधम्मेन वा । रञो भावो रज्जं, इस्सरियं ।
परेसं हितोपायभूतं धम्मं करोति, चरतीति वा धम्मिको। अत्तनो हितोपायभूतस्स धम्मस्स कारको, चरको वा राजाति धम्मराजाति इमं सविसेसं अत्थं दस्सेति "परहितधम्मकरणेन वा"तिआदिना । अयं पन महापदानट्ठकथानयो - दसविधे कुसलधम्मे, अगतिरहिते वा राजधम्मे नियुत्तोति धम्मिको; तेनेव धम्मेन लोकं रजेतीति धम्मराजा। परियायवचनमेव हि इदं पदद्वयन्ति । आचरियेन पन एवं वुत्तं “चक्कवत्तिवत्तसङ्खातं धम्मं चरति, चक्कवत्तिवत्तसङ्खातो वा धम्मो एतस्स, एतस्मिं वा अत्थीति धम्मिको, धम्मतो अनपेतत्ता धम्मो च सो रञ्जनद्वेन राजा चाति धम्मराजा"ति (दी० नि० टी० १.२५८)। "राजा होति चक्कवत्तीति वचनतो “चातुरन्तो''ति इदं चतुदीपिस्सरतं विभावेतीति आह "चातुरन्ताया"तिआदि । चत्तारो समुद्दा अन्ता परियोसाना एतिस्साति चातुरन्ता, पथवी। सा हि चतूसु दिसासु पुरत्थिमसमुद्दादिचतुसमुद्दपरियोसानत्ता एवं वुच्चति । तेन वुत्तं "चतुसमुह अन्ताया"ति, सा पन अवयवभूतेहि चतुब्बिधेहि दीपेहि विभूसिता एकलोकधातुपरियापन्ना पथवीयेवाति दस्सेति “चतुब्बिधदीपविभूसिताय पथविया"ति इमिना । यथाह -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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“यावता चन्दिमसूरिया, परिहरन्ति दिसा भन्ति विरोचना । सब्बेव दासा मन्धातु, ये च पाणा पथविस्सिता"ति ।।
एत्थ च "चतुदीपविभूसिताया"ति अवत्वा चतुब्बिधदीपविभूसितायाति विधसद्दग्गहणं पच्चेकं पञ्चसतपरित्तदीपानम्पि महादीपेयेव सङ्गहणत्थं सद्दातिरित्तेन अत्थातिरित्तस्स विञआयमानत्ता, कोट्ठासवाचकेन वा विधसद्देन समानभागानं गहितत्ताति दट्ठब्बं । कोपादिपच्चत्थिकेति एत्थ आदिसद्देन काममोहमानमदादिके सङ्गण्हाति। विजेतीति तंकालापेक्खाय वत्तमानवचनं, विजितवाति अत्थो । सद्दविदू हि अतीते तावीसद्दमिच्छन्ति । “सब्बराजानो विजेती"ति वदन्तो कामं चक्कवत्तिनो केनचि युद्धं नाम नत्थि, युद्धन पन साधेतब्बस्स विजयस्स सिद्धिया “विजितसङ्गामो” त्वेव वुत्तोति दस्सेति ।
थावरस्स धुवस्स भावो थावरियं, यथा जनपदे थावरियं पत्तो, तं दस्सेतुं “न सक्का केनची"तिआदि वुत्तं, इमिना केनचि अकम्पियढेन जनपदे थावरियप्पत्तोति तप्पुरिससमासं दस्सेति, इतरेन च दळहभत्तिभावतो जनपदो थावरियप्पत्तो एतस्मिन्ति अञपदत्थसमासं । तम्हीति अस्मिं राजिनि । यथा जनपदो तस्मिं थावरियं पत्तो, तदाविकरोन्तो "अनुयुत्तो"तिआदिमाह । तत्थ अनुयुत्तोति निच्चपयुत्तो। सकम्मनिरतोति चक्कवत्तिनो रज्जकम्मे सदा पवत्तो। अचलो असम्पवेधीति परियायवचनमेतं, चोरानं वा विलोपनमत्तेन अचलो, दामरिकत्तेन असम्पवेधी। चोरेहि वा अचलो, पटिराजूहि असम्पवेधी। अनतिमुदुभावेन वा अचलो, अनतिचण्डभावेन असम्पवेधी। तथा हि अतिचण्डस्स रञो बलिखण्डादीहि लोकं पीळयतो मनुस्सा मज्झिमजनपदं छड्डत्वा पब्बतसमुद्दतीरादीनि निस्साय पच्चन्ते वासं कप्पेन्ति, अतिमुदुकस्स च रञो चोरसाहसिकजनविलोपपीळिता मनुस्सा पच्चन्तं पहाय जनपदमज्झे वासं कप्पेन्ति, इति एवरूपे राजिनि जनपदो थावरभावं न पापुणाति । एतस्मिं पन तदुभयविरहिते सुवण्णतुला विय समभावप्पत्ते राजिनि रज्जं कारयमाने जनपदो पासाणपिट्ठियं ठपेत्वा अयोपट्टेन परिक्खित्तो विय अचलो असम्पवेधीथावरियप्पत्तोति ।
सेय्यथिदन्ति एकोव निपातो, “सो कतमो, तं कतमं, सा कतमा''तिआदिना यथारहं लिङ्गविभत्तिवचनवसेन पयोजियमाटोव होति, इध तानि कतमानीति पयुत्तोति आह "तस्स चेतानी"तिआदि। चचति चक्कवत्तिनो यथारुचि आकासादिगमनाय परिब्भमतीति चक्कं। चक्करतनहि अन्तोसमुट्टितवायोधातुवसेन रञो चक्कवत्तिस्स
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(२.३.२५८-२५८)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
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वचनसमनन्तरमेव पवत्तति, न चन्दसूरियविमानादि विय बहिसमुट्टितवायोधातुवसेनाति विमानट्ठकथायं (वि० व० अट्ठ० १.पठमपीठविमानवण्णना) वुत्तं । रतिजननटेनाति पीतिसोमनस्सुप्पादनढेन । तहि पस्सन्तस्स, सुणन्तस्स च अनप्पकं पीतिसोमनस्सं उप्पज्जति अच्छरियधम्मत्ता । वचनत्थतो पन रमेति रतिं करोतीति रतनं, रमनं वा रतं, तं नेतीति रतनं, रतं वा जनेतीति रतनं ज-कारलोपवसेनातिपि नेरुत्तिका । सब्बत्थाति हत्थिरतनादीसु।
चित्तीकतभावादिनापि चक्कस्स रतनट्ठो वेदितब्बो, सो पन रतिजननटेनेव एकसङ्गहताय विसुं न गहितो। कस्मा एकसङ्गहोति चे? चित्तीकतादिभावस्सपि रतिनिमित्तत्ता। अथ वा गन्थब्यासं परिहरितुकामेन चित्तीकतादिभावो न गहितोति वेदितब्बं । अञासु पन अट्ठकथासु (दी० नि० अट्ठ० २.३३; सं० नि० अट्ठ० ३.५.२२३; खु० पा० अट्ठ० ६.३.यानीधातिगाथावण्णना; सु० नि० अट्ठ० १.२२६; महानि० अट्ठ० १५६) एवं वुत्तं -
"रतिजननटेन रतनं । अपिच -
चित्तीकतं महग्घञ्च, अतुलं दुल्लभदस्सनं । अनोमसत्तपरिभोगं, रतनं तेन वुच्चति ।।
"चक्करतनस्स च निब्बत्तकालतो पट्ठाय अयं देवट्ठानं नाम न होति, सब्बेपि गन्धपुप्फादीहि तस्सेव पूजञ्च अभिवादनादीनि च करोन्तीति चित्तीकतढेन रतनं । चक्करतनस्स च एत्तकं नाम धनं अग्घतीति अग्धो नत्थि, इति महग्घटेनपि रतनं । चक्करतनञ्च अओहि लोके विज्जमानरतनेहि असदिसन्ति अतुलटेन रतनं । यस्मा पन यस्मिं कप्पे बुद्धा उप्पज्जन्ति, तस्मिंयेव चक्कवत्तिनो उप्पज्जन्ति, बुद्धा च कदाचि करहचि उप्पज्जन्ति, तस्मा दुल्लभदस्सनटेनपि रतनं । तदेतं जातिरूपकुलइस्सरियादीहि अनोमस्स उळारसत्तस्सेव उप्पज्जति, न अञस्साति अनोमसत्तपरिभोगटेनपि रतनं । यथा च चक्करतनं, एवं सेसानिपी''ति ।
तत्रायं तट्टीकाय, अञ्चत्थ च वुत्तनयेन अत्थविभावना - इदहि "चित्तीकत"न्तिआदिवचनं निब्बचनत्थवसेन वुत्तं न होति, अथ किन्ति चे? लोके
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" रतन "न्ति सम्मतस्स वत्थुनो गरुकातब्बभावेन वुत्तं । सरूपतो पनेतं लोकियमहाजनेन सम्मतं हिरञ्ञसुवण्णादिकं, चक्कवत्तिरञ उप्पन्नं चक्करतनादिकं, कतञ्जुकतवेदिपुग्गलादिकं सब्बुक्कट्ठपरिच्छेदवसेन बुद्धादिसरणत्तयञ्च दट्टब्बं । “अहो मनोहर "न्ति चित्ते कत्तब्वताय चित्तीकतं, स्वायं चित्तीकारो तस्स पूजनीयतायाति कत्वा पूजनीयन्ति अत्थं वदन्ति । केचि पन “ विचित्रकतट्ठेन चित्तीकत "न्ति भणन्ति, तं न गहेतब्बं इध चित्तसद्दस्स हदयवाचकत्ता “ चित्तीकत्वा सुणाथ मे 'ति ( बु० वं० १.८० ) आहच्चभासितपाळियं विय । तथा चाहु “ यथारहमिवण्णागमो भूकरेसू 'ति । “पस्स चित्तीकतं रूपं, मणिना कुण्डलेन चा "तिआदीसु (म० नि० २.३०२ ) पन पुब्बे अविचित्रं इदानि विचित्रं कतन्ति चित्तीकतन्ति अत्थो गहेतब्बो तत्थ चित्तसद्दस्स विचित्रवाचकत्ता । महन्तं विपुलं अपरिमितं अग्घतीति महग्घं । नत्थि एतस्स तुला उपमा, तुलं वा सदिसन्ति अतुलं । कदाचिदेव उप्पज्जनतो दुक्खेन लद्धब्बदस्सनत्ता दुल्लभदस्सनं । अनोमेहि उकारगुणेहेव सत्तेहि परिभुञ्जितब्बतो अनोमसत्तपरिभोगं ।
इदानि नेसं चित्तीकतादिअत्थानं सविसेसं चक्करतने लब्भमानतं दस्सेत्वा इतरेसुपि ते अतिदिसितुं "यथा च चक्करतन "न्तिआदि आरद्धं । तत्थ अयं देवट्ठानं नाम न होति रञो अनञ्ञसाधारणिस्सरियादिसम्पत्तिपटिलाभहेतुतो, असं सत्तानं यथिच्छितत्थपटिलाभहेतुतो च । अग्घो नत्थ अतिविय उळारसमुज्जलरतनत्ता, अच्छरियब्भुतधम्मताय च । यदग्गेन च महग्घं तदग्गेन अतुलं । सत्तानं पापजिगुच्छनेन विगतकाळको पुञ्ञपसुतताय मण्डभूतो यादिसो कालो बुद्धुप्पादारहो, तादिसे एव चक्कवत्तीनम्पि सम्भवोति आह “यस्मा पना "तिआदि । कदाचि करहचीति परियायवचनं, "कदाची" ति वा यथावुत्तकालं सन्धाय वुत्तं, "करहची "ति जम्बुसिरिदीपसङ्घातं देयं । तेनाह -
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"कालं दीपञ्च देसञ्च, कुलं मातरमेव च ।
इमे पञ्च विलोकेत्वा, उप्पज्जति महायसो 'ति । । ( ध० प० अट्ठ० १.१.१०)
उपमावसेन चेतं वृत्तं । उपमोपमेय्यानञ्च न अच्चन्तमेव सदिसता, तस्मा यथा बुद्धा कदाचि करहचि उप्पज्जन्ति, न तथा चक्कवत्तिनो, चक्कवत्तिनो पन अनेकदापि बुद्धुप्पादकप्पे उप्पज्जन्तीति अत्थो गहेतब्बो । एवं सन्तेपि चक्कवत्तिवत्तपूरणस्स
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अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
दुक्करभावतो दुल्लभुप्पादोयेवाति इमिना दुल्लभुप्पादतासामञ्जेन तेसं दुल्लभदस्सनता वेदितब्बं । कामं चक्करतनानुभावेन समिज्झमानो गुणो चक्कवत्तिपरिवारजनसाधारणो, तथापि चक्कवत्ती एव नं सामिभावेन विसविताय परिभुञ्जतीति वत्तब्बतं अरहति तदत्थमेव उप्पज्जनतोति दस्सेन्तो " तदेत "न्तिआदिमाह । यथावुत्तानं पञ्चन्नं, छन्नम्पि वा अत्थानं सेसरतनेसुपि लब्भनतो “ एवं सेसानिपीति वृत्तं ।
इमेहि पन रतनेहि राजा चक्कवत्ती किमत्थं पच्चनुभोति, ननु विनापि तेसु केनचि रञ चक्कवत्तिना भवितब्बन्ति चोदनाय तस्स तेहि हथारहमत्थपच्चनुभवनदस्सनेन केनचिपि अविनाभावितं विभावेतुं “इमेसु पना "ति आदि आरद्धं । अजितं पुरत्थिमादिदिसाय खत्तियमण्डलं जिनाति महेसक्खतासंवत्तनियकम्मनिस्सन्दभावतो । यथासुखं अनुविचरति हत्थिरतनं, अस्सरतनञ्च अभिरुहित्वा तेसं आनुभावेन अन्तोपातरासंयेव समुद्दपरियन्तं पथविं अनुपरियाथित्वा राजधानिया एव पच्चागमनतो । परिणायकरतनेन तत्थ कत्तब्बकिच्चसंविदहनतो । अवसेसेहि मणिरतनइत्थिरतनगहपतिरतनेहि उपभुञ्जनेन पवत्तं उपभोगसुखं अनुभवति यथारहं तेहि तथानुभवनसिद्धितो । सो हि मणिरतनेन योजनप्पमाणे पदेसे अन्धकारं विधमेत्वा आलोकदस्सनादिना सुखमनुभवति, इत्थिरतनेन अतिक्कन्तमानुसकरूपदस्सनादिवसेन, गहपतिरतनेन इच्छितिच्छितमणिकनकरजतादिधनपटिलाभवसेन सुखमनुभवति ।
तत्थ
इदानि सत्तिया, सत्तिफलेन च यथावुत्तमत्थं विभावेतुं “पठमेना "तिआदि वृत्तं । तिविधा हि सत्तियो “सक्कोन्ति समत्थेन्ति राजानो एताया "ति कत्वा । यथाहु
“पभावुस्साहमन्तानं, वसा तिस्सो हि सत्तियों । पभावो दण्डजो तेजो, पतापो तु च कोसजो । ।
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मन्तो च मन्तनं सो तु, चतुक्कण्णो द्विगोचरो । तिगोचरो तु छक्कण्णो, रहस्सं गुय्हमुच्चतेति । ।
तत्थ वीरियबलं उस्साहसत्ति । पठमेन चस्स चक्करतनेन तदनुयोगो परिपुण्णो होति । कस्माति चे ? तेन उस्साहसत्तिया पवत्तेतब्बस्स अप्पटिहताणाचक्कभावस्स सिद्धितो । पञ्ञबलं मन्तसत्ति । पच्छिमेन चस्स परिणायकरतनेन तदनुयोगो । कस्माति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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चे? तस्स सब्बराजकिच्चेसु कुसलभावेन मन्तसत्तिया विय अविरज्झनपयोगत्ता । दमनेन, धनेन च पभुत्तं पभूसत्ति। हत्थिअस्सगहपतिरतनेहि चस्स तदनुयोगो परिपुण्णो होति । कस्माति चे? हत्थिअस्सरतनानं महानुभावताय, गहपतिरतनतो पटिलद्धकोससम्पत्तिया च पभावसत्तिया विय पभावसमिद्धिसिद्धितो। इत्थिमणिरतनेहि तिविधसत्तियोगफलं परिपुण्णं होतीति सम्बन्धो, यथावुत्ताहि तिविधाहि सत्तीहि पयुज्जनतो यं फलं लद्धब्बं । तं सब्बं तेहि परिपुण्णं होतीति अत्थो । कस्माति चे ? तेहेव उपभोगसुखस्स सिज्झनतो ।
__दुविधसुखवसेनपि यथावुत्तमत्थं विभावेतुं "सो इत्थिमणिरतनेही"तिआदि कथितं । भोगसुखन्ति समीपे कत्वा परिभोगवसेन पवत्तसुखं । सेसेहीति तदवसेसेहि चक्कादिपञ्चरतनेहि। अपच्चत्थिकतावसेन पवत्तसुखं इस्सरियसुखं। इदानि तेसं सम्पन्नहेतुवसेनपि केनचि अविनाभावितमेव विभावेतुं "विसेसतो"तिआदिमाह । अदोसकुसलमूलजनितकम्मानुभावेनाति अदोससङ्घातेन कुसलमूलेन सहजातादिपच्चयवसेन उप्पादितकम्मस्स आनुभावेन सम्पज्जन्ति सोम्मतररतनजातिकत्ता । कम्मफलम्हि येभुय्येन कम्मसरिक्खकं । मज्झिमानि मणिइत्थिगहपतिरतनानि अलोभकुसलमूलजनितकम्मानुभावेन सम्पज्जन्ति उळारधनस्स, उळारधनपटिलाभकारणस्स च परिच्चागसम्पदाहेतुकत्ता। पच्छिमं परिणायकरतनं अमोहकुसलमूलजनितकम्मानुभावेन सम्पज्जति महापञ्जेनेव चक्कवत्तिराजकिच्चस्स परिनेतब्बत्ता, महापञभावस्स च अमोहकुसलमूलजनितकम्मनिस्सन्दभावतो। बोझङ्गसंयुत्तेति महावग्गे दुतिये बोज्झङ्गसंयुत्ते (सं० नि० ३.५.२२३)। रतनसुत्तस्साति तत्थ पञ्चमवग्गे सङ्गीतस्स दुतियस्स रतनसुत्तस्स (सं० नि० ३.५.२२३)। उपदेसो नाम सविसेसं सत्तन्नं रतनानं विचारणवसेन पवत्तो नयो ।
सरणतो पटिपक्खविधमनतो सूरा सत्तिवन्तो, निब्भयावहाति अत्थो। तेनाह "अभीरुकजातिका"ति । असुरे विजिनित्वा ठितत्ता सक्को देवानमिन्दो धीरो नाम, तस्स सेनङ्गभावतो देवपुत्तो “अङ्गन्ति वुच्चति, धीरस्स अङ्गं, तस्स रूपमिव रूपं येसं ते धीरङ्गरूपा, तेन वुत्तं "देवपुत्तसदिसकाया"ति । एकेति सारसमासनामका आचरिया, तदक्खमन्तो आह "अयं पनेत्था'"तिआदि । सभावोति सभावभूतो अत्थो । उत्तमसूराति उत्तमयोधा । सूरसद्दो हि इध योधत्थो। एवहि पुरिमनयतो इमस्स विसेसता होति, "उत्तमत्थो सूरसद्दो"तिपि वदन्ति, "उत्तमा सूरा बुच्चन्ती"तिपि हि पाठो दिस्सति । वीरानन्ति वीरियवन्तानं । अङ्गन्ति कारणं “अङ्गीयति आयति फलमेतेना''ति कत्वा । येन वीरियेन “धीरा''ति वुच्चन्ति, तदेव धीरङ्गं नामाति आह “वीरियन्ति वुत्तं होती"ति ।
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(२.३.२५८-२५८)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
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रूपन्ति सरीरं । तेन वुत्तं "वीरियमयसरीरा विया"ति । वीरियमेव वीरियमयं यथा "दानमय"न्ति, (दी० नि० ३.३०५; इतिवु० ६०; नेत्ति० ३४) तस्मा वीरियसङ्घातसरीरा वियाति अत्थो। वीरियं पन न एकन्तरूपन्ति विय-सद्दग्गहणं कतं । अपिच धीरङ्गेन निब्बत्तं धीरङ्गन्ति अत्थं दस्सेतुं “वीरियमयसरीरा विया"ति वुत्तं, एवम्पि वीरियतो रूपं न एकन्तं निब्बत्तन्ति विय-सद्देन दस्सेति । अथ वा रूपं सरीरभूतं धीरङ्गं वीरियमेतेसन्ति योजेतब्, तथापि वीरियं नाम किञ्चि सविग्गहं न होतीति दीपेति "वीरियमयसरीरा विया"ति इमिना, इधापि मयसद्दो सकत्थेयेव दट्ठब्बो, तस्मा सविग्गहवीरियसदिसाति अत्थो । इदं वुत्तं होति- सविग्गहं चे वीरियं नाम सिया, ते चस्स पुत्ता तंसदिसायेव भवेय्युन्ति अयमेव चत्यो आचरियेन (दी० नि० टी० १.२५८) अनुमतो । महापदानट्ठकथायं पन एवं वुत्तं "धीरङ्गं रूपमेतेसन्ति धीरङ्गरूपा, वीरियजातिका वीरियसभावा वीरियमया अकिलासुनो अहेसुं, दिवसम्पि युज्झन्ता न किलमन्तीति वुत्तं होती''ति, (दी० नि० अट्ठ० २.३४) तदेतं रूपसद्दस्स सभावत्थतं सन्धाय वुत्तन्ति दट्ठब्बं । इध चेव अञत्थ कत्थचि "धितङ्गरूपा"ति पाठो दिस्सति । वीरियत्थोपि हि धितिसद्दो होति "सच्चं धम्मो धिति चागो, दिटुं सो अतिवत्तती"तिआदीसु (जा० १.१.५७) धितिसद्दो विय | कत्थचि पन “वीरङ्ग"न्ति पाठोव दिट्ठो । यथा रुच्चति, तथा गहेतब् ।
ननु च रञो चक्कवत्तिस्स पटिसेना नाम नत्थि, य'मस्स पुत्ता पमद्देय्युं, अथ कस्मा “परसेनप्पमद्दना'ति वुत्तन्ति चोदनं सोधेन्तो "सचे"तिआदिमाह, परसेना होतु वा, मा वा, “सचे पन भवेय्या'ति परिकप्पनामत्तेन तेसं एवमानुभावतं दस्सेतुं तथा वुत्तन्ति अधिप्पायो, “परसेनप्पमद्दना'"ति वुत्तेपि परसेनं पमद्दितुं समत्थाति अत्थो गहेतब्बो पकरणतोपि अत्थन्तरस्स विञ्जायमानत्ता, यथा “सिक्खमानेन भिक्खवे भिक्खुना अज्ञातब् परिपुच्छितब् परिपञ्हितब्ब''न्ति (पाचि० ४३४) एतस्स पदभाजनीये (पाचि० ४३६) “सिक्खितुकामेना"ति अत्थग्गहणन्ति इममत्थं दस्सेतुं “तं परिमदितुं समत्था"ति वुत्तं । न हि ते परसेनं पमद्दन्ता तिठ्ठन्ति, अथ खो पमद्दनसमत्था एव होन्ति । एवमझत्रपि यथारहं । परसेनं पमद्दनाय समत्येन्तीति परसेनप्पमद्दनाति अत्थं दस्सेतीतिपि वदन्ति ।
पुब्बे कतूपचितस्स एतरहि विपच्चमानकस्स पुजाधम्मस्स चिरतरं विपच्चितुं पच्चयभूतं चक्कवत्तिवत्तसमुदागतं पयोगसम्पत्तिसङ्घातं धम्मं दस्सेतुं “धम्मेना''ति पदस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
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"पाणो न हन्तब्बोतिआदिना पञ्चसीलधम्मेना"ति अत्थमाह । अयहि अत्थो “ये खो पनानन्द पुरथिमाय दिसाय पटिराजानो, ते राजानं महासुदस्सनं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु ‘एहि खो महाराज, स्वागतं ते महाराज, सकं ते महाराज, अनुसास महाराजा'ति । राजा महासुदस्सनो एवमाह ‘पाणो न हन्तब्बो, अदिन्नं न आदातब्बं, कामेसु मिच्छा न चरितब्बा, मुसा न भणितब्बा, मज्जं न पातब्बं, यथाभुत्तञ्च भुञ्जथा'ति । ये खो पनानन्द पुरथिमाय दिसाय पटिराजानो, ते रओ महासुदस्सनस्स अनुयन्ता अहेसुन्तिआदिना (दी० नि० २.२४४) आगतं रो ओवादधम्मं सन्धाय वुत्तो। एवहि “अदण्डेन असत्थेना"ति इदम्पि विसेसनवचनं सुसमत्थितं होति । अज्ञासुपि सुत्तनिपातट्ठकथादीसु (सु० नि० अठ्ठ० २२६; खु० पा० अट्ठ० ६.३; दी० नि० अट्ठ० २.३३; सं० नि० अट्ठ० ३.२२३) अयमेवत्थो वुत्तो।
महापदानट्ठकथायं पन “अदण्डेनाति ये कतापराधे सत्ते सतम्पि सहस्सम्पि गण्हन्ति, ते धनदण्डेन रज्जं कारेन्ति नाम, ये छेज्जभेज्जं अनुसासन्ति, ते सत्थदण्डेन । अयं पन दुविधम्पि दण्डं पहाय अदण्डेन अज्झावसति । असत्थेनाति ये एकतोधारादिना सत्थेन परं विहेसन्ति, ते सत्थेन रज्जं कारेन्ति नाम । अयं पन सत्थेन खुद्दकमक्खिकायपि पिवनमत्तं लोहितं कस्सचि अनुप्पादेत्वा धम्मेनेव, ‘एहि खो महाराजाति एवं पटिराजूहि सम्पटिच्छितागमनो वुत्तप्पकारं पथविं अभिविजिनित्वा अज्झावसति अभिभवित्वा सामी हुत्वा वसतीति अत्थो"ति (दी० नि० अट्ठ० २.३४) वुत्तं, तदेतं “धम्मेना"ति पदस्स "पुब्बे कतूपचितेन एतरहि विपच्चमानकेन येन केनचि पुञधम्मेना"ति अत्थं सन्धाय वुत्तं । तेनेव हि "धम्मेन पटिराजूहि सम्पटिच्छितागमनो वुत्तप्पकारं पथविं अभिविजिनित्वा अज्झावसती'ति । आचरियेनपि (दी० नि० टी० १.२५८) वुत्तं धम्मेनाति कतूपचितेन अत्तनो पुञ्जधम्मेन । तेन हि सञ्चोदिता पथवियं सब्बराजानो पच्चुग्गन्त्वा "स्वागतं ते महाराजा'"तिआदीनि वत्वा अत्तनो रज्जं रञो चक्कवत्तिस्स निय्यातेन्ति | तेन वुत्तं "सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसती"ति, तेनपि यथावुत्तमेवत्थं दस्सेति, तस्मा उभयथापि एत्थ अत्थो युत्तो एवाति दट्टब्बं । चक्कवत्तिवत्तपूरणादिपयोगसम्पत्तिमन्तरेन हि पुब्बे कतूपचितकम्मेनेव एवमज्झावसनं न सम्भवति, तथा पुब्बे कतूपचितकम्ममन्तरेन चक्कवत्तिवत्तपूरणादिपयोगसम्पत्तिया एवाति ।
एवं एकं निप्फत्तिं कथेत्वा दुतियं निष्फत्तिं कथेतुं यदेतं “सचे खो पना"तिआदिवचनं वुत्तं, तत्थ अनुत्तानमत्थं दस्सेन्तो “अरहं...पे०... विवट्टच्छदोति
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अम्बट्टमाणवकथावण्णना
एत्था”तिआदिमाह । यस्मा रागादयो सत्त पापधम्मा लोके उप्पज्जन्ति, उप्पज्जमाना च ते सत्तसन्तानं छादेत्वा परियोनन्धित्वा कुसलप्पवत्तिं निवारेन्ति, तस्मा ते इध छदसद्देन वुत्ताति दस्सेति " रागदोसा "तिआदिना । दुच्चरितन्ति मिच्छादिट्ठितो अञ्ञेन मनोदुच्चरितेन सह तीणि दुच्चरितानि, मिच्छादिट्ठि पन विसेसेन सत्तानं छदनतो, परमसावज्जत्ता च विसुं गहिता । वुत्तञ्च "सब्बे ते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि अन्तोजालीकता, एत्थ सिताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ती "तिआदि (दी० नि० १.१४६) । तथा मुय्हनट्ठेन मोहो, अविदितकरणट्टेन अविज्जाति पवत्तिआकारभेदेन अञ्ञाणमेव द्विधा वृत्तं । तथा हिस्स द्विधापि छदनत्थो कथितो " अन्धतमं तदा होति, यं मोहो सहते नर "न्ति, (महानि० ५, १५६, १९५) “अविज्जाय निवुतो लोको, वेविच्छा पमादा नप्पकासती 'ति (सु० नि० १०३९; चूळनि० पारायनवग्ग. २) च । एवं रागदोसादीनम्पि छदनत्थो वत्तब्बो । महापदानकथायं (दी० नि० अट्ठ० २.३३) पन रागदोसमोहमानदिट्ठिकिलेसतण्हावसेन सत्त पापधम्मा गहिता । तत्र रञ्जनट्ठेन रागो, तण्हायनट्टेन तण्हाति पवत्तिआकारभेदेन लोभ एव द्विधावुत्त । तथा हिस्स द्विधापि छदनत्थो एकन्तिकोव । यथाह “अन्धतमं तदा होति, यं रागो सहते नर "न्ति, "कामन्धा जालसञ्छन्ना, तण्हाछदनछादिता "ति (उदा० ९४) च, किलेसग्गहणेन च वृत्तावसिट्ठा विचिकिच्छादयो वृत्ता ।
सत्तहि पटिच्छन्नेति हेतुगब्भवचनं, सत्तहि पापधम्मेहि पटिच्छन्नत्ता किलेसवसेन अन्धकारे लोकेति अत्थो । तं छदनन्ति सत्तपापधम्मसङ्घातं छदनं । विवट्टेत्वाति विवट्टं कत्वा विगमेत्वा । तदेव परियायन्तरेन वुत्तं "समन्ततो सञ्जातालोको हुवा किलेसछदनविगमो एव हि आलोको, एतेन विवट्टयितब्बो विगमेतब्बोति विवट्टो, छादेति पटिच्छादेतीति छदो, विवट्टो छदो अनेनाति विवट्टच्छदा, विवट्टच्छदो वाति अत्थं दस्सेति । अयहि विवट्टच्छदसद्दो दलहधम्मपच्चक्खधम्मसद्दादयो विय पुल्लिङ्गवसेन आकारन्तो, ओकारन्तो च हो । तथा हि महापदानट्ठकथायं वृत्तं “रागदोसमोहमानदिट्ठिकिलेसतण्हासङ्घातं छदनं आवरणं विवटं विद्धंसितं विवटकं एतेनाति विवटच्छदो, ‘विवट्टच्छदा तिपि पाठो, अयमेवत्थो 'ति, (दी० नि० अट्ठ० २.३३ ) तस्सा लीनत्थप्पकासनियम्पि वृत्तं "विवट्टच्छदाति ओकारस्स आकारं कत्वा निद्देसो 'ति । सद्दविदू पन “आधन्वादितोति लक्खणेन समासन्तगतेहि धनुसद्दादीहि क्वचि आपच्चयो "ति वत्वा ‘“कण्डिवधन्वा, पच्चक्खधम्मा, विवट्टच्छदा ति पयोगमुदाहरन्ति ।
कस्मा पदत्तयमेतं वृत्तन्ति अनुयोगं हेतालङ्कारनयेन परिहरन्ती " तत्था ''ति आदिमाह
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तत्थाति च तीसु पदेसूति अत्थो । पूजाविसेसं पटिग्गण्हितुं अरहतीति अरहन्ति अत्थेन पूजारहता वुत्ता । यस्मा सम्मासम्बुद्धो, तस्मा पूजारहताति तस्सा पूजारहताय हेतु वुत्तो । सवासनसब्बकिलेसप्पहानपुब्बकत्ता बुद्धभावस्स बुद्धत्तहेतुभूता विवट्टच्छदता वुत्ता । कम्मादिवसेन तिविधं वट्टञ्च रागादिवसेन सत्तविधो छदो च वट्टच्छदा, वट्टच्छदेहि विगतो, विगता वा वट्टच्छदा यस्साति विवट्टच्छदो, विवट्टच्छदा वा, द्वन्दपुब्बगो पन वि-सद्दो उभयत्थ योजेतब्बोति इममत्थं दस्सेतुं "विवट्टो च विच्छदो चा"ति वुत्तं । एवम्पि वदन्ति "विवट्टो च सो विच्छदो चाति विवट्टच्छदो, उत्तरपदे पुब्बपदलोपोति अत्थं दस्सेती"ति । "अरहं वट्टाभावेना"ति इदं किलेसेहि आरकत्ता, किलेसारीनं संसारचक्कस्सारानञ्च हतत्ता, पापकरणे च रहाभावाति अत्थं सन्धाय वुत्तं । इदहि फलेन हेतानुमानदस्सनं - यथा तं धूमेन अग्गिस्स, उदकोघेन उपरि वुट्ठिया, एतेन च अत्थेन अरहभावो हेतु, वट्टाभावो फलन्ति अयं आचरियमति । “पच्चयादीनं, पूजाविसेसस्स च अरहत्ता'"ति पन हेतुना फलानुमानदस्सनम्पि सिया यथा तं अग्गिना धूमस्स, उपरि वुट्ठिया उदकोघस्स । "सम्मासम्बुद्धो छदनाभावेना"ति इदं पन हेतुना फलानुमानदस्सनं सवासनसब्बकिलेसच्छदनाभावपुब्बकत्ता सम्मासम्बुद्धभावस्स । अरहत्तमग्गेन हि विच्छदता, सब्बञ्जतञाणेन सम्मासम्बुद्धभावो । “विवट्टो च विच्छदो चा"ति इदं हेतुद्वयं । कामञ्च आचरियमतिया फलेन हेतुअनुमानदस्सने विवट्टता फलमेव होति, हेतुअनुमानदस्सनस्स, पन तथाञाणस्स च हेतुभावतो हेतुयेव नामाति वेदितब् ।
एवं पदत्तयवचने हेतालङ्कारनयेन पयोजनं दस्सेत्वा इदानि चतुवेसारज्जवसेनपि दस्सेन्तो "दुतियेना"तिआदिमाह। तत्थ दुतियेन वेसारज्जेनाति "चत्तारिमानि भिक्खवे तथागतस्स वेसारज्जानि, येहि वेसारज्जेहि समन्नागतो तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, परिसासु सीहनादं नदति, ब्रह्मचक्कं पवत्तेती"तिआदिना (अ० नि० १.४.८; म०नि० १.१५०) भगवता वुत्तक्कमेन दुतियभूतेन “खीणासवस्स ते पटिजानतो 'इमे आसवा अपरिक्खीणा'ति, तत्र वत मं समणो वा ब्राह्मणो वा देवो वा मारो वा ब्रह्मा वा कोचि वा लोकस्मिं सह धम्मेन पटिचोदेस्सतीति निमित्तमेतं भिक्खवे न समनुपस्सामि, एतमहं भिक्खवे निमित्तं असमनुपस्सन्तो खेमप्पत्तो अभयप्पत्तो वेसारज्जप्पत्तो विहरामी''ति परिदीपितेन वेसारज्जेन । पुरिमसिद्धीति पुरिमस्स “अरह"न्ति पदस्स अत्थसिद्धि अरहत्तसिद्धि, दुतियवेसारज्जस्स तदत्थभावतो तेन वेसारज्जेन तदत्थसिद्धीति वुत्तं होति । “खीणासवस्स ते पटिजानतो 'इमे आसवा अपरिक्खीणा' ति"आदिना वुत्तमेव हि दुतियवेसारज्जं “किलेसेहि आरकत्ता''तिआदिना वुत्तो “अरह"न्ति पदस्स
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(२.३.२५८ - २५८)
अम्बट्ठमाणवकथावण्णना
अत्थोति। ततो च विञ्ञायति “यथा दुतियेन वेसारज्जेन पुरिमसिद्धि एवं पुरिमेनपि अत्थेन दुतियवेसारज्जसिद्धी 'ति । एवञ्च कत्वा इमिना नयेन चतुवेसारज्जवसेन पदत्तयवचने पयोजनदस्सनं उपपन्नं होति । इतरथा हि किञ्चिपयोजनाभावतो इदंयेव वचनं इध अवत्तब्बं सियाति । एस नयो सेसेसुपि ।
पठमेनाति वुत्तनयेन पठमभूतेन " सम्मासम्बुद्धस्स ते पटिजानतो 'इमे धम्मा अनभिसम्बुद्धा 'ति, तत्र...पे०... विहरामी "ति परिदीपितेन वेसारज्जेन । दुि दुतियस्स " सम्मासम्बुद्धो "ति पदस्स अत्थसिद्धि बुद्धत्तसिद्धि तस्स तदत्थभावतो । ततियचतुत्थेहीति वृत्तनयेनेव ततियचतुत्थभूतेहि "ये खो पन ते अन्तरायिका धम्मा वुत्ता, ते पटिसेवतो नालं अन्तरायायाति, तत्र... पे०... विहरामी "ति च " यस्स खो पन ते अत्थाय धम्मो देसितो, सो न निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयायाति, तत्र... पे०... विहरामी "ति (अ० नि० १.४.८; म० नि० १.१५० ) च परिदीपितेहि वेसारज्जेहि । ततियसिद्धीति ततियस्स "विवट्टच्छदा ति पदस्स अत्थसिद्धि विवट्टच्छदत्थसिद्धि तेहि तस्स पाकटभावतोति अत्थो । “याथावतो अन्तरायिकनिय्यानिकधम्मापदेसेन हि सत्थु विवट्टच्छदभावो लोके पाकटो अहोसी" ति ( दी० नि० टी० १.२५८) आचरियेन वुत्तं, विवट्टच्छदभावेनेव अन्तरायिकनिय्यानिकधम्मदेसनासिद्धितो "ततियेन ततियचतुत्थसिद्धी'' तिपि वत्तुं युज्जति ।
२११
अरानञ्च
एवं पदत्तयवचने चतुवेसारज्जवसेन पयोजनं दस्सेत्वा इदानि चक्खुत्तयवसेनपि दस्सेन्तो “ पुरिमञ्चा" तिआदिमाह । तत्थ च - सद्दो उपन्यासत्थो । पुरिमं " अरह "न्ति पदं भगवतो हेट्ठिममग्गफलत्तयञाणसङ्घातं धम्मचक्खुं साधेति किलेसारीनं, संसारचक्कस्स हतभावदीपनतो । दुि “सम्मासम्बुद्धो’”ति पदं आसयानुसयइन्द्रियपरोपरियत्तञाणसङ्घातं बुद्धचक्खुं साधेति सम्मासम्बुद्धस्सेव तंसम्भवतो । तदेतहि आणद्वयं सावकपच्चेकबुद्धानं न सम्भवति । ततियं “विवट्टच्छदा "ति पदं सब्बञ्जुतञणसङ्घातं समन्तचक्खुं सवासनसब्बकिलेसप्पहानदीपनतो ।
"सम्मासम्बुद्धो "ति हि वत्वा "विवट्टच्छदा "ति वचनं सम्मासम्बुद्धभावाय सवासनसब्बकिलेसप्पहानं विभावेतीति । “अहं खो पन तात अम्बठ्ठ मन्तानं दाता "ति इदं अप्पधानं, “त्वं मन्तानं पटिग्गहेता "ति इदमेव पधानं समुत्तेजनावचनन्ति सन्धाय " त्वं मन्तानं पटिग्गहेताति इमिना 'स्स मन्तेसु सूरभावं जनेती" ति वुत्तं, लक्खणविभावने विसदञाणतासङ्घातं सूरभावं जनेतीति अत्थो ।
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२१२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२५९-२६०)
२५९. एवं भोति एत्थ एवं-सद्दो वचनसम्पटिच्छने निपातो, वचनसम्पटिच्छनञ्चेत्थ तथा मयं तं भवन्तं गोतमं वेदिस्साम, त्वं मन्तानं पटिग्गहेताति च एवं पवत्तस्स पोक्खरसातिनो वचनस्स सम्पटिग्गहो । "तस्सत्थो"तिआदिनापि हि तदेवत्थं दस्सेति । तथा च वुत्तं "ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स पटिस्सुत्वा''ति, तं पनेस आचरियस्स समुत्तेजनाय लक्खणेसु विगतसम्मोहभावेन बुद्धमन्ते सम्पस्समानत्ता वदतीति दस्सेन्तो "सोपी"तिआदिमाह । तत्थ “तायाति ताय यथावुत्ताय समुत्तेजनाया"ति (दी० नि० टी० १.२५९) आचरियेन वुत्तं, अधुना पन पोत्थकेसु "ताय आचरियकथाया"ति पाठो दिस्सति । अत्थतो चेस अविरुद्धोयेव । मन्तेसु सतिसमुप्पादिका हि कथा समुत्तेजनाति ।
___ अयानभूमिन्ति यानस्स अभूमि, यानेन यातुमसक्कुणेय्यट्ठानभूतं, द्वारकोटकसमीपं गन्त्वाति अत्थो ।
अविसेसेन वुत्तस्सपि वचनस्स अत्थो अट्ठकथापमाणतो विसेसेन गहेतब्बोति आह "ठितमज्झन्हिकसमये"ति। सब्बेसमाचिण्णवसेन पठमनयं वत्वा पधानिकानमेव आवेणिकाचिण्णवसेन दुतियनयो वुत्तो। दिवापधानिकाति दिवापधानानुयुञ्जनका, दिवसभागे समणधम्मकरणत्थं ते एवं चङ्कमन्तीति वुत्तं होति। तेनाह "तादिसानन्ही"तिआदि। 'परिवेणतो परिवेणमागच्छन्तो पपञ्चो होति, पुच्छित्वाव पविसिस्सामी''ति अम्बट्ठस्स तदुपसङ्कमनाधिप्पायं विभावेन्तो “सो किरा"तिआदिमाह ।
२६०. अभिजातकले जातो अभिजातकोलो। कामञ्च वक्खमाननयेन पुब्बे अम्बट्टकुलमपञातं, तदा पन पञातन्ति आह "तदा किरा"तिआदि । रूपजातिमन्तकुलापदेसेहीति “अयमीदिसो"ति अपदिसनहेतुभूतेहि चतूहि रूपजातिमन्तकुलेहि । येन ते भिक्खू चिन्तयिंसु, तदधिप्पायं आवि कातुं “यो ही"तिआदि वुत्तं । अविसेसतो वुत्तम्पि विसेसतो विज्ञायमानत्थं सन्धाय भासितवचनन्ति दस्सेति "गन्धकुटि सन्धाया"ति इमिना । एवमीदिसेसु ।
अतुरितोति अवेगायन्तो, "अतुरन्तो"तिपि पाठो, सोयेवत्थो । कथं पविसन्तो अतरमानो पविसति नामाति आह "सणिक"न्तिआदि । तत्थ पदप्पमाणट्टानेति द्विन्नं पदानं अन्तरे मुट्ठिरतनपमाणट्टाने । सिन्दुवारो नाम एको पुप्फूपगरुक्खो, यस्स सेतं पुप्फ होति,
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(२.३.२६१-२६१)
अम्बट्टमाणवकथावण्णना
यो “निग्गुण्डी” तिपि वुच्चति । पमुखन्ति गन्धकुटिगब्भपमुखं । “कुञ्चिकच्छिद्दसमीपे 'ति वृत्तवचनं समत्थेतुं " द्वारं किरा "तिआदि वृत्तं ।
२६१. “दानं ददमानेही "ति इमिना पारमितानुभावेन सयमेव द्वारविवरणं दस्सेति ।
भगवता सद्धि सम्मोदिंसूति एत्थ समत्थेन सं- सद्देन विज्ञायमानं भगवतो तेहि सद्धिं पठमं पवत्तमोदतासङ्घातं नेय्यत्थं दस्सेन्तो " यथा "तिआदिमाह । भगवापि हि “ कच्चि भो माणवा खमनीयं, कच्चि यापनीय' न्तिआदीनि पुच्छन्तो तेहि माणवेहि सद्धिं पुब्बभासिताय पठमञ्ञेव पवत्तमोदो अहोसि । समप्पवत्तमोदाति भगवतो तदनुकरणेन समं पवत्तसंसन्दना । तदत्थं सह उपमाय दस्सेतुं "सीतोदकं विया' तिआदि वृत्तं । तत्थ परमनिब्बुतकिलेसदरथताय भगवतो सीतोदकसदिसता, अनिब्बुतकिलेसदरथताय च माणवानं उन्होदकसदिसता दट्ठब्बा | सम्मोदितन्ति संसन्दितं । मुदसद्दो हेत्थ संसन्दनेयेव, न पामोज्जे, एवहि यथावुत्तउपमावचनं समत्थितं होति । तथा हि वृत्तं " एकीभाव"न्ति, सम्मोदनकिरियाय समानतं एकरूपतन्ति अत्थो ।
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खमनीयन्ति “चतुचक्कं नवद्वारं सरीरयन्तं दुक्खबहुलताय सभावतो दुस्सहं कच्चि खमितुं सक्कुणेय्यन्ति पुच्छन्ति, यापनीयन्ति आहारादिपच्चयपटिबद्धवृत्तिकं चिरप्पबन्धसङ्घाताय यापनाय कच्चि यापेतुं सक्कुणेय्यं, सीसरोगादिआबाधाभावेन कच्चि अप्पाबाधं, दुक्खजीविकाभावेन कच्चि अप्पातङ्कं तंतंकिच्चकरणे उट्ठानसुखताय कच्चि लहुट्ठानं, तदनुरूपबलयोगतो कच्चि बलं, सुखविहारफलसब्भावेन कच्चिफासुविहारो अत्थीति सब्बत्थ कच्चि - सद्दं योजेत्वा अत्थो वेदितब्बो । बलप्पत्ता पीति पीतियेव । तरुणा पीति पामोज्जं । सम्मोदनं जनेति करोतीति सम्मोदनिकं, तदेव सम्मोदनियं क कारस्स य-कारं कत्वा । सम्मोदेतब्बतो सम्मोदनीयन्ति इममत्थं दस्सेति “सम्मोदितुं युत्तभावतो " ति इमिना । एवं आचरियेहि वुत्तं । सम्मोदितुं अरहतीति सम्मोदनिकं, तदेव सम्मोदनियं यथावुत्तनयेनाति इममत्थम्पि दस्सेतीति दट्ठब्बं । “सारेतु "न्ति एतस्स " निरन्तरं पवत्तेतु "न्ति अत्थवचनं । सरितब्बभावतोति अनुस्सरितब्बभावतो । “सारेतुं अरहती 'ति अत्थे यथापदं दीघेन " सारणीयन्ति वृत्तं । “सरितब्ब"न्ति अत्थे पन "सरणीय "न्ति वत्तब्बे दीघं कत्वा " सारणीय "न्ति वुत्तन्ति वेदितब्बं । एवं सद्दतो अत्थं दस्सेत्वा इदानि अत्थमत्ततो दस्सेतुं “सुय्यमानसुखतो”तिआदि वृत्तं । तत्थ सुय्यमानसुखतोति आपाथमधुरत्तमाह, अनुस्सरियमानसुखतोति विमद्दरमणीयत्तं । ब्यञ्जनपरिसुद्धतायाति सभावनिरुत्तिभावेन तस्सा
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२१४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२६२-२६३)
कथाय वचनचातुरियं, अत्थपरिसुद्धतायाति अत्थस्स निरुपक्किलेसत्तं | अनेकेहि परियायेहीति अनेकेहि कारणेहि।
___ अपसादेस्सामीति मङ्कं करिस्सामि । उभोसु खन्धेसु साटकं आसज्जेत्वा कण्ठे ओलम्बनं सन्धाय "कण्ठे ओलम्बित्वा"ति वुत्तं । दुस्सकण्णं गहेत्वाति निवत्थसाटकस्स कोटिं एकेन हत्थेन गहेत्वा। चङ्कमितुमारुहनं सन्धाय “चङ्कमं अभिरुहित्वा''ति आह । धातुसमताति रसादिधातूनं समावत्थता, अरोगताति अत्थो। पासादिकत्थन्ति पसादजननत्थं “गतगतहाने"ति इमिना सम्बन्धो । “पासादिकत्ता"तिपि पाठो, तस्सत्थो- अङ्गपच्चङ्गानं पसादावहत्ताति, “उप्पन्नबहुमाना"ति इमिना सम्बन्धो। उप्पण्डनकथन्ति अवहसितब्बतायुत्तकथं । “अनाचारभावसारणीय"न्ति तस्स विसेसनं, अनाचारभावेन सारणीयं “अनाचारो वतायन्ति सरितब्बकन्ति अत्थो ।
२६२. कातुं दुक्करमसक्कुणेय्यं किच्चमयं आरभीति दस्सेतुं "भवग्गं गहेतुकामो विया"तिआदि वुत्तं । असक्कुणेय्यञ्हेतं सदेवकेनपि लोकेन, यदिदं भगवतो अपसादनं । तेनाह "अट्ठाने वायमती"ति । हन्द तेन सद्धिं मन्तेमीति एवं अट्ठाने वायमन्तोपि अयं बालो “मयि किञ्चि अकथेन्ते मया सद्धिं उत्तर कथेतुम्पि न विसहती"ति मानमेव पग्गहिस्सति, कथेन्ते पन कथापसङ्गेनस्स जातिगोत्ते विभाविते माननिग्गहो भविस्सति, "हन्द तेन सद्धि मन्तेमी''ति भगवा अम्बटुं माणवं एतदवोचाति अत्थो । आचारसमाचारसिक्खापनेन आचरिया, तेसं पन आचरियानं पकठ्ठा आचरियाति पाचरिया यथा “पपितामहो''ति इममत्थं दस्सेतुं “आचरियेहि च तेसं आचरियेहि चा"ति वुत्तं ।
पठमइन्भवादवण्णना
२६३. किञ्चापि “सयानो वा''तिआदिवचनं न वत्तब्द, मानवसेन पन युगग्गाहं करोन्तो वदतीति दस्सेन्तो “कामं तीसू"तिआदिमाह । तत्थ तीसु इरियापथेसूति ठानगमननिसज्जासु । तेस्वेव हि आचरियेन सद्धिं सल्लपितुमरहति, न तु सयने गरुकरणीयानं सयानानम्पि सम्मुखा गरुकारेहि सयनस्स अकत्तब्बभावतो । कथासल्लापन्ति कथावसेन युगग्गाहकरणत्थं सल्लपनं । सयानेन हि आचरियेन सद्धिं सयानस्स कथा नाम आचारो न होति, तथापेतं इतरेहि सदिसं कत्वा कथनं इध कथासल्लापो ।
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(२.३.२६३-२६३)
पठमइब्भवादवण्णना
२१५
यं पनेतं “सयानो वा हि भो गोतम ब्राह्मणो सयानेन ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहतीति वुत्तस्स सल्लापस्स अनाचारभावविभावनं सत्थारा अम्बटेन सद्धिं कथेन्तेन कतं, तं पाळिवसेन सङ्गीतिमनारुळ्हम्पि अगरहिताय आचरियपरम्पराय यावज्जतना समाभतन्ति “ये च खो ते भो गोतमा''तिआदिकाय उपरिपाळिया सम्बन्धभावेन दस्सेन्तो "ततो किरा"तिआदिमाह | गोरूपन्ति गो नून रूपकवसेन वुत्तत्ता, रूपसद्दस्स च तब्भाववुत्तितो। यदि अहीळेन्तो भवेय्य, "मुण्डा समणा"ति वदेय्य, हीळेन्तो पन गरहत्थेन क-सद्देन पदं वड़ेत्वा "मण्डका समणका"ति वदतीति दस्सेतं "मुण्डे मुण्डा"तिआदि वुत्तं । इन्भाति गहपतिकाति अत्थमत्तवचनं, सद्दतो पन इभस्स पयोगो इभो उत्तरपदलोपेन, तं इभं अरहन्तीति इन्भा द्वित्तं कत्वा । किं वुत्तं होति - यथा सोभनं गमनतो इभसङ्घातो हत्थिवाहनभूतो परस्स बसेन पवत्तति, न अत्तनो, एवमेतेपि ब्राह्मणानं सुस्सूसका सुद्दा परस्स वसेन पवत्तन्ति, न अत्तनो, तस्मा इभसदिसपयोगताय इन्भाति । ते पन कुटुम्बिकताय घरवासिनो घरसामिका होन्तीति अस्थमत्तं दस्सेति "गहपतिका"ति इमिना ।
कण्हाति कण्हजातिका । द्विजा एव हि सुद्धजातिका, न इतरेति तस्साधिप्पायो । तेनाह "काळका"ति । पितामहभावेन जातिबन्धवत्ता बन्धु। तेनाह "पितामहोति वोहरन्ती"ति । अपच्चाति पुत्ता। मुखतो निक्खन्ताति ब्राह्मणानं पुब्बपुरिसा ब्रह्मनो मुखतो निक्खन्ता, अयं तेसं पठमुप्पत्तीति अधिप्पायो । सेसपदेसुपि एसेव नयो। अयं पनेत्थ विसेसो- “इब्भा कण्हा"ति वत्वा “बन्धुपादापच्चा''ति वदन्तो कुलवसेन समणा वेस्सकुलपरियापन्ना, पठमुप्पत्तिवसेन पन ब्रह्मनो पिट्ठिपादतो निक्खन्ता, न पकतिवेस्सा विय नाभितोति दस्सेतीति, इदं पनस्स "मुखतो निक्खन्ता''तिआदिवचनतोपि. अतिविय असमवेक्खितपुब्बवचनं चतुवण्णपरियापन्नस्सेव समणभावसम्भवतो। अनियमत्वाति अविसेसेत्वा, अनुद्देसिकभावेनाति अत्थो ।
मानमेव निस्साय कथेसीति मानमेवापस्सयं कत्वा अत्तानं उक्कंसेन्तो, परे च वम्भेन्तो “मुण्डका समणका''तिआदिवचनं कथेसि । जानापेस्सामीति अत्तनो गोत्तपमाणं याथावतो विभावनेन विज्ञापेस्सामि । अत्थोति हितं, इच्छितवत्थु वा, तं पन कत्तब्बकिच्चमेवाति वुत्तं “आगन्त्वा कत्तब्बकिच्चसङ्घातो अत्थो"ति, सो एतस्स अत्थीति अत्थिकं यथा “दण्डिको"ति । दुतियस्सपि पुग्गलवाचकस्स तदस्सत्थिपच्चयस्स विज्जमानत्ता
PEE
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२१६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२६४-२६४)
पठमेन तदारम्मणिकचित्तमेव विज्ञायतीति आह "तस्स माणवस्स चित्त"न्ति । अत्थिकमस्स अत्थीति अत्थिकवा यथा “गुणवा'ति ।
"यायेव खो पनत्थाया'"ति लिङ्गविपल्लासवसेन वुत्तन्ति दस्सेति "येनेव खो पनत्थेना"ति इमिना। तेनेवाह "तमेव अत्थन्ति इदं पुरिसलिङ्गवसेनेव वृत्त"न्ति । तत्थ हि साभाविकलिङ्गतादस्सनेन इध असाभाविकलिङ्गतासिद्धीति । अयं पनेत्थ अट्ठकथातो अपरो नयो – याय अत्थायाति पुल्लिङ्गवसेनेव तदत्थे सम्पदानवचनं, यस्स कत्तब्बकिच्चसङ्घातस्स अत्थस्स अत्थायाति अत्थोति । अस्साति अम्बट्ठस्स दस्सेत्वाति सम्बन्धो । अओसं सन्तिकं आगतानन्ति गरुडानियानं सन्तिकमुपगतानं साधुरूपानं । वत्तन्ति तेसं समाचिण्णं । पकरणतोयेव “आचरियकुले''ति अत्थो विज्ञायति, “अबुसितवाति च असिक्खितभावोयेव वोहारवसेन वुत्तो यथा तं चीवरदानं तिचीवरेन अच्छादेसीति । तेनाह “आचरियकुले अबुसितवा असिक्खितो"ति। असिक्खितत्ता एव अप्पस्सुतो, "वुसितमानी''ति च पदापेक्खाय अपरियोसितवचनत्ता समानोति पाठसेसोति दस्सेति "अप्पस्सुतोव समानो"ति इमिना । बाहुसच्चहि नाम यावदेव उपसमत्थं इच्छितबं, तदभावतो पनायं अम्बट्टो अवुसितवा असिक्खितो अप्पस्सुतोति विज्ञायतीति एवम्पि अत्थापत्तितो कारणं विभावेन्तो आह "किमञत्र अबुसितत्ता"ति । इमम्पि सम्बन्धं दीपेति "एतस्स ही"तिआदिना । यथारुततो पन फरुसवचनसमुदाचारेन अनुपसमकारणदस्सनमेतं । तत्रायं योजना - “किमत्र असितत्ता''ति इदं कारणं एतस्स अम्बठ्ठस्स फरुसवचनसमुदाचारे कारणन्ति । "फरुसवचनसमुदाचारेना"तिपि पाठो, तथा समुदाचारवसेन वुत्तं कारणन्ति अत्थो । एवम्पि योजेन्ति- अवुसितत्ता अवुसितभावं अत्र ठपेत्वा एतस्स एवं फरुसवचनसमुदाचारे कारणं किमचं अत्थीति । पुरिमयोजनावेत्थ युत्ततरा यथापाठं योजेतब्बतो । “अञत्रा"ति निपातयोगतो असितत्ताति उपयोगत्थे निस्सक्कवचनं । तदेव कारणं समत्थेति “आचरियकुले"तिआदिना ।
२६४. कोधसङ्घातस्स परस्स वसानुगतचित्तताय असकमनो। माननिम्मदनत्थन्ति मानस्स निम्मदनत्थं अभिमद्दनत्थं, अमदनत्थं वा, मानमदविरहत्थन्ति अत्थो । दोसं उग्गिलेत्वाति सिनेहपानेन किलिन्नं वातपित्तसेम्हदोसं उब्बमनं कत्वा । गोत्तेन गोत्तन्ति अम्बद्वेनेव भगवता पुढेन वुत्तेन सावज्जेन पुरातनगोत्तेन अधुना अनवज्जसञितं गोत्तं । कुलापदेसेन कुलापदेसन्ति एत्थापि एसेव नयो । उट्ठापेत्वाति सावज्जतो उट्ठहनं कत्वा, उद्धरित्वाति वुत्तं होति । गोत्तञ्चेत्थ आदिपुरिसवसेन, कुलापदेसो पन तदन्वये
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(२.३.२६५-२६५)
दुतियइब्भवादवण्णना
२१७
उप्पन्नाभिञातपुरिसवसेन गहेतब्बो यथा “आदिच्चो माघवो"ति। साकियानहि आदिच्चगोत्तं अदितिया नाम देवधीताय पुत्तभूतं आदिपुरिसं पति होति, तं "गोतमगोत्त"न्तिपि वदन्ति । यथाह पब्बज्जासुत्ते--
“आदिच्चा नाम गोत्तेन, साकिया नाम जातिया । तम्हा कुला पब्बजितोम्हि, न कामे अभिपत्थयन्ति ।। (सु० नि० ४२५)
माधवकुलं पन तदन्वये अभिज्ञातं मचलगामिकपुरिसं पति होतीति । गोत्तमूलस्स गारव्हताय अमानवत्थुभावपवेदनतो "मानद्धनं मूले छेत्वा निपातेस्सामी"ति वुत्तं । घट्टेन्तोति जातिगोत्तवसेन ओमसन्तो। हीळेन्तोति हीळनं गरहं करोन्तो। “चण्डा भो गोतम सक्यजाती''तिआदिना साकियेसु चण्डभावादिदोसं पापितेसु समणोपि गोतमो पापितो भविसतीति अधिप्पायो।
यस्मिं मानुस्सयकोधुस्सया अञमञ्जूपत्थद्धा, सो “चण्डो''ति वुच्चतीति दस्सेति "माननिस्सितकोधयुत्ता"ति इमिना, पकतूपनिस्सयारम्मणवसेन चेत्थ निस्सितभावो, न सहजातादिवसेन । खराति चित्तेन, वाचाय च कक्खळा । लहुकाति तरुणा अवुद्धकम्मा । तेनाह "अप्पकेनेवा"तिआदि। अलाबुकटाहन्ति लाबुफलस्स अभेज्जकपालं । अट्ठकथामुत्तकनयं दस्सेतुं "भस्साति साहसिकाति केचि वदन्ति, सारम्भकाति अपरे"ति (दी० नि० टी० १.२६४) आचरियेन वुत्तं । समानाति होन्ता भवमानाति अससद्दवसेनत्थोति आह "सन्ताति पुरिमपदस्सेव वेवचन"न्ति । न सक्करोन्तीति सक्कारं न करोन्तीति अत्थमेव विज्ञापेति "न ब्राह्मणान"न्तिआदिना। अपचितिकम्मन्ति पणिपातकम्मं । “यदिमे सक्या'ति पच्छिमवाक्ये य-सद्दस्स किरियापरामसनस्स अनियमस्स "तयिदं भो गोतमा'ति पुरिमवाक्ये त-सद्देन नियमनं वेदितब्बन्ति आह "यं इमे सक्या"तिआदि । नानुलोमन्ति अत्तनो जातिया न अनुच्छविकं ।
दुतियइब्भवादवण्णना
२६५. सन्धागारपदनिब्बचनं हेट्ठा वुत्तमेव । तदा अभिसित्तसक्यराजूनम्पि बहुतं सन्धायाह “अभिसित्तसक्यराजानोति । कामहि सक्यराजकुले यो सब्बेसं वुद्धतरो, समत्थो च. सो एव अभिसेकं लभति । एकच्चो पन अभिसित्तो समानो “इदं रज्जं नाम
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२१८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२६६-२६६)
बहुकिच्चं बहुब्यापार''न्ति ततो निबिज्ज रज्जं वयसा अनन्तरस्स निय्यातेति, कदाचि सोपि अञस्साति एवं परम्परानिय्यातनवसेन तदा बहू अभिसित्तपुब्बा सक्यराजानो होन्तीति इदं आचरियस्साभिमतं (दी० नि० टी० १.२६५)। अपिच यथारहं ठानन्तरेसु अभिसित्तसक्यराजूनम्पि बहुतं सन्धाय एवमाहातिपि युज्जति । ते हि “राजानो''ति वुच्चन्ति । यथाह -
"राजानो नाम पथब्याराजा, पदेसराजा, मण्डलिका, अन्तरभोगिका, अक्खदस्सा, महामत्ता, ये वा पन छेज्जभेज्जं करोन्ता अनुसासन्ति, एते राजानो नामा"ति (पारा० ९२)।
संहारिमेहि वाळरूपेहि कतो पल्लङ्को, भद्दपीठं वेत्तासनं। मिहितमत्तं हसितमत्तं । अनुहसन्तीति ममुद्देसिकं महाहसितं करोन्ति, इदव्हि "अनुजग्घन्ता"ति एतस्स संवण्णनापदं। जग्घसद्दो च महाहसने पवत्तति “न उज्जग्घिकाय अन्तरघरे गमिस्सामी"तिआदीसु (पाचि० ५८६) विय ।
कण्हायनतो पट्ठाय परम्परागतं कुलवंसं अनुस्सववसेन जानन्ति । कुलाभिमानिनो हि येभुय्येन परेसं उच्चावचं कुलं तथा तथा उदाहरन्ति, अत्तनो च कुलवंसं जानन्ति, एवं अम्बट्ठोपि, तथा हेस परतो भगवता पुच्छितो वजिरपाणि भयेन अत्तनो कुलवंसं याथावतो कथेसीति । ओलम्बेत्वाति हथिसोण्डसण्ठानादिना साटकं अवलम्बेत्वा । ततोति तथाजाननतो, गमनतो च । मम व मझेति मममेव अनुजग्घन्ता मजे ।
ततियइब्भवादवण्णना
२६६. खेत्तलेडूनन्ति खेत्ते कसनवसेन उट्ठापितमत्तिकाखण्डानं । लेड्डुकानमन्तरे निवासितत्ता "लेड्डुकिका” इच्चेव (दी० नि० टी० १.२६६) सञाता खुद्दकसकुणिका। मज्झिमपण्णासके लेड्डुकिकोपमसुत्तवण्णनायं “चातकसकुणिका''ति (म० नि० अट्ठ० ३.१५०) वुत्ता, निघण्टुसत्थेसु पन तं “लापसकुणिका'"ति वदन्ति । कोधवसेन लग्गितुन्ति उपनव्हितुं, आघातं बन्धितुन्ति अत्थो !
“अम्हे हंसकोञ्चमोरसमे करोती'ति वदन्तो हेट्ठा गहितं “न त कोचि हंसो वा
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(२.३.२६७-२६७)
दासिपुत्तवादवण्णना
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कोञ्चो वा मोरो वा आगन्त्वा किं त्वं लपसीति निसेधेती"ति इदम्पि वचनं सङ्गीतिमनारुळ्हं तदा भगवता वुत्तमेवाति दस्सेति । तदा वदन्तोयेव हि एवं करोतीति वत्तुमरहति । “एवं नु ते''तिआदिवचनं, “अबुसितवायेवा''तिआदिवचनञ्च मानवसेन समणेन गोतमेन वुत्तन्ति अम्बट्ठो मञ्जतीति अधिप्पायेनाह “निम्मानो दानि जातोति मञमानो"ति ।
दासिपुत्तवादवण्णना
२६७. निम्मादेतीति अ-कारस्स आ-कारं कत्वा निद्देसो उम्मादे मदसद्देन निप्फन्नत्ताति दस्सेति “निम्मदेती"ति इमिना। निम्मानेति विगतमाने । यदि पनाहं गोत्तं पुच्छेय्यं साधु वताति अत्थो । पाकटं कातुकम्यताय तिक्खत्तुं महासद्देन अवोच। कस्मा अवोचाति पन असुद्धभावं जानन्तस्सापि तथावचने कारणपुच्छा। गोत्तभूतं नाममेव अधिप्पेतं, न विसुं गोत्तन्ति आह "मातापेत्तिकन्ति मातापितूनं सन्तक"न्ति । गोत्तहि पितितो लद्धब्बं पेत्तिकमेव, न मातापेत्तिकं। न हि ब्राह्मणानं सगोत्ताय एव आवाहविवाहो इच्छितो, गोत्तनामं पन जातिसिद्धं, न कित्तिमं, न गुणनामं वा, जाति च उभयसम्बन्धिनीति मातापेत्तिकमेव, न पेत्तिकमत्तं । नामगोत्तन्ति गोत्तभूतं नामं, न कित्तिमं, न गुणनामं वा विसेसनपरनिपातवसेन वुत्तत्ता यथा “अग्याहितो''ति । नामञ्च तदेव पवेणीवसेन पवत्तत्ता गोत्तञ्चाति हि नामगोत्तं। तत्थ या "कण्हायनो"ति नामपण्णत्ति निरुळहा, तं सन्धायाह "पण्णत्तिवसेन नाम"न्ति । तं पनेतं नामं कण्हइसितो पट्ठाय तस्मिं कुलपरम्परावसेन आगतं, न एतस्मिंयेव निरुळ्हन्ति वुत्तं "पवेणीवसेन गोत्त"न्ति । गोत्तपदस्स वचनत्थो हेट्ठा वुत्तोयेव ।।
"अनुस्सरतो"ति एत्थ न केवलं अनुस्सरणमत्तं अधिप्पेतं, अथ खो कुलसुद्धिवीमंसनवसेनेवाति आह "कुलकोटिं सोधेन्तस्सा"ति, कुलग्गं विसोधेन्तस्साति अत्थो । “अय्यपुत्ता"ति एत्थ अय्यसद्दो अय्यिरकेति वुत्तं “सामिनो पुत्ता"ति । चतूसु दासीसु दिसा ओक्काकरो अन्तोजातदासी । तेनाह “घरदासिया पुत्तो"ति । एत्थ च यस्मा अम्बट्ठो जातिं निस्साय मानथद्धो, न च तस्स याथावतो जातिया अविभाविताय माननिग्गहो करीयति, अकते च माननिग्गहे मानवसेन रतनत्तयं अपरज्झिस्सति, कते पन माननिग्गहे अपरभागे रतनत्तये पसीदिस्सति, न चेदिसी वाचा फरुसवाचा नाम होति चित्तस्स सहभावतो | मज्झिमपण्णासके अभयसुत्तञ्च (म० नि० २.८३) एत्थ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२६७-२६७)
निदस्सनं । केचि च जना कक्खळाय वाचाय वुत्ता अग्गिना विय लोहादयो मुदुभावं गच्छन्ति, तस्मा भगवा अम्बलृ निब्बिसेवनं कत्तुकामो “अय्यपुत्ता सक्या भवन्ति, दासिपुत्तो त्वमसि सक्यान''न्ति अवोच ।
“इधेकच्चो पापभिक्खु तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं परियापुणित्वा अत्तनो दहती''तिआदीसु (पारा० १९५) विय दहसद्दो धारणत्थो, धारणञ्चेत्थ पुब्बपुरिसवसेन सञापनन्ति आह "ओक्काको नो पुब्बपुरिसो"तिआदि । दहसद्दहि भस्मीकरणे, धारणे च इच्छन्ति सद्दविदू । पभा निच्छरतीति पभस्सरं हुत्वा निक्खमति तथारूपेन पुञकम्मेन दन्तानं पभस्सरभावतो।
तेति जेढुकुमारे । पठमकप्पिकानन्ति पठमकप्पस्स आदिकाले. निब्बत्तानं । किरसद्देन चेत्थ अनुस्सवत्थेन, यो वुच्चमानाय राजपरम्पराय केसञ्चि मतिभेदो, तं उल्लिङ्गेति । अनुस्सववचनेनेव हि अननुस्सुतो उत्तरविहारवासिआदीनं मतिभेदो निराकरीयतीति । महासम्मतस्साति अग्गचसुत्ते वक्खमाननयेन “अयं नो राजा"ति महाजनेन सम्मन्नित्वा ठपितत्ता “महासम्मतो"ति एवं सम्मतस्स । यं सन्धाय वदन्ति - ..
"आदिच्चकुलसम्भूतो, सुविसुद्धगुणाकरो । महानुभावो राजासि, महासम्मतनामको ।।
यो चक्खुभूतो लोकस्स, गुणरंसिसमुज्जलो । तमोनुदो विरोचित्थ, दुतियो विय भाणुमा ।।
ठपिता येन मरियादा, लोके लोकहितेसिना । ववत्थिता सक्कुणन्ति, न विलचयितु जना ।।
यसस्सिनं तेजस्सिनं, लोकसीमानुरक्खकं । आदिभूतं महावीरं, कथयन्ति ‘मनू'ति य"न्ति ।। (दी० नि० टी० १.२६७)
तस्स च पुत्तपपुत्तपरम्परं सन्धाय एवं वदन्ति -
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(२.३.२६७-२६७)
दासिपुत्तवादवण्णना
२२१
"तस्स पुत्तो महातेजो, रोजो नाम महीपति । तस्स पुत्तो वररोजो, पवरो राजमण्डले ।।
तस्सासि कल्याणगुणो, कल्याणो नाम अत्रजो । राजा तस्सासि तनयो, वरकल्याणनामको ।।
तस्स पुत्तो महावीरो, मन्धाता कामभोगिनं । अग्गभूतो महिन्देन, अड्डरज्जेन पूजितो ।।
तस्स सूनु महातेजो, वरमन्धातुनामको । 'उपोसथोति नामेन, तस्स पुत्तो महायसो ।।
वरो नाम महातेजो, तस्स पुत्तो महावरो । तस्सासि उपवरोति, पुत्तो राजा महाबलो ।।
तस्स पुत्तो मघदेवो, देवतुल्यो महीपति । चतुरासीति सहस्सानि, तस्स पुत्तपरम्परा ।।
तेसं पच्छिमको राजा, ‘ओक्काको'इति विस्सुतो महायसो महातेजो, अखुद्दो राजमण्डले''ति ।। (दी० नि० टी० १.२६७)
इदं अट्ठकथानुपरोधवचनं । यं पन दीपवंसे वुत्तं
"पठमाभिसित्तो राजा, भूमिपालो जुतिन्धरो । महासम्मतो नामेन, रज्जं कारेसि खत्तियो ।।
तस्स पुत्तो रोजो नाम, वररोजो च खत्तियो । कल्याणो वरकल्याणो, उपोसथो महिस्सरो ।।
मन्धाता सत्तमो तेसं, चतुदीपम्हि इस्सरो ।
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२२२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२६७-२६७)
वरो उपवरो राजा, चेतियो च महिस्सरो"तिआदि ।।
यञ्च महावंसादीसु वुत्तं -
“महासम्मतराजस्स, वंसजो हि महामुनि । कप्पादिस्मिं राजासि, महासम्मतनामको ।।
रोजो च वररोजो च, तथा कल्याणका दुवे | उपोसथो च मन्धाता, वरको पवरा दुवे"तिआदि ।।
सब्बमेतं येभुय्यतो अट्ठकथाविरोधवचनं । अट्ठकथायहि मन्धातुराजा छट्ठो वुत्तो, मघदेवराजा एकादसमो, तस्स च पुत्तपरम्पराय चतुरासीतिसहस्सराजूनं पच्छिमको
ओक्काकराजा, तेसु पन मन्धातुराजा सत्तमो वुत्तो, मघदेवराजा अनेकेसं राजसहस्सानं पच्छिमको, तस्स च पुत्तपरम्पराय अनेकराजसहस्सानं पच्छिमको ओक्काकराजाति एवमादिना अनेकधा विरोधवचनं अट्ठकथायं निराकरोति । ननु अवोचुम्ह “किरसद्देन चेत्थ अनुस्सवत्थेन, यो वुच्चमानाय राजपरम्पराय केसञ्चि मतिभेदो, तं उल्लिङ्गेती"ति । तेसं पच्छतोति मघदेवपरम्पराभूतानं कळारजनकपरियोसानानं चतुरासीतिखत्तियसहस्सानं अपरभागेति यथानुस्सुतं आचरियेन वुत्तं । दीपवंसादीसु पन “कळारजनकरञो पुत्तपरम्पराय अनेकखत्तियसहस्सानं पच्छिमको राजा सुजातो नाम, तस्स पुत्तो ओक्काको राजा''ति वुत्तं । मघदेवपरम्पराय अनेकसहस्सराजूनं अपरभागे पठमो ओक्काको नाम राजा अहोसि, तस्स परम्पराभूतानं पन अनेकसहस्सराजूनं अपरभागे दुतियो ओक्काको नाम राजा अहोसि, तस्सपि परम्पराय अनेकसहस्सराजूनं अपरभागे ततियो ओक्काको नाम राजा अहोसि । तं सन्धायाह "तयो ओक्काकवंसा अहेसु"न्तिआदि ।
जातिया पञ्चमदिवसे नामकम्मादिमङ्गलं लोकाचिण्णन्ति वुत्तं "पञ्चमदिवसे अलङ्करित्वा"ति । सहसा वरं अदासिन्ति पुत्तदस्सनेन बलवसोमनस्सप्पत्तो तुरितं अवीमंसित्वा तुट्ठिदायवसेन वरं अदासिं “यं इच्छसि, तं गण्हाही"ति | साति जन्तुकुमारमाता । रज्जं परिणामेतुं इच्छतीति मम वरदानं अन्तरं कत्वा इमं रज्जं परिणामेतुं इच्छति ।
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(२.३.२६७-२६७)
दासिपुत्तवादवण्णना
२२३
रज्जं कारेस्सन्तीति राजभावं महाजनेन महाजनं वा कारापेस्सन्ति । नप्पसहेय्याति निवासत्थाय परियत्तो न भवेय्य ।
कळारवण्णताय कपिलब्राह्मणो नाम अहोसि । निक्खम्माति घरावासतो कामेहि च निक्खमित्वा। साको नाम सब्बसारमयो रुक्खविसेसो, येन पासादादि करीयते, तंसमुदायभूते वनसण्डेति अत्थो । भूमिया पवत्तं भुम्मं, तं गुणदोसं जालेति जोतेति, तं वा जलति जोतति पाकटं भवति एतायाति भुम्मजाला। हेट्ठा चाति एत्थ च-सद्देन “असीतिहत्थे''ति इदमनुकड्डति । एतस्मिं पदेसेति साकवनसण्डमाह | खन्धपन्तिवसेन दक्खिणावट्टा। साखापन्तिवसेन पाचीनाभिमुखा। तेहीति मिगसूकरेहि, मण्डूकमूसिकेहि च । तेति सीहब्यग्घादयो सप्पबिळारा च ।
एत्थाति एवं मापियमाने नगरे । तुम्हाकं पुरिसेसु परियापन्नं एकेकम्पि पुरिसं पच्चत्थिकभूतं अजं पुरिससतम्पि पुरिससहस्सम्पि अभिभवितुं न सक्खिस्सतीति योजना । चक्कवत्तिबलेनाति चक्कवत्तिबलभावेन । अतिसेय्योति अतिविय उत्तमो भवेय्य । कपिलस्स इसिनो वसनट्ठानत्ता कपिलवत्थु ।
नेसं सन्तिके भवेय्याति सम्बन्धो। असदिससंयोगेति जातिया असदिसान घरावासपयोगे हेतुभूते । अवसेसाहि अत्तनो अत्तनो कणिट्ठाहि ।
वड्डमानानन्ति अनादरे सामिवचनं, अनन्तरायिकाय पुत्तधीतुवड्डनाय वड्डमानेसु एव उदपादीति अत्थो। लोहितकताय कोविळारपुष्फसदिसानि। कुट्ठरोगो नाम सासमसूरीरोगा विय येभुय्येन सङ्कमनसभावोति वुत्तं "अयं रोगो सङ्कमती"ति । उपरि पदरेन पटिच्छादेत्वा पंसुं रासिकरणेन दत्वा। नाटकित्थियो नाम नच्चन्तियो। राजभरियायो ओरोधा नाम । तस्साति सुसिरस्स | मिगसकुणादीनन्ति एत्थ आदिसद्देन वनचरकपेतादिके सङ्गण्हाति ।
तस्मिं रामरओ निसिन्नेति सम्बन्धो । पदरेति दारुफलके । खत्तियमायारोचनेन अत्तनो खत्तियभावं जानापेत्वा।
मातिकन्ति मातितो आगतं । पाभतन्ति मूलभण्डं, पण्णाकारो वा। रोति रामराजस्स जेट्ठपुत्तभूतस्स बाराणसिरञो। तत्थाति बाराणसियं। इधेवाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२६७-२६७)
हिमवन्तपस्सेयेव । नगरन्ति राजधानीभूतं महानगरं । कोलरुक्खो नाम कुट्ठभेसज्जुपगो एको रुक्खविसेसो। ब्यग्धपथेति ब्यग्घमग्गे।
मातुलाति मातु भातरो। केसग्गहणन्ति केसवेणिबन्धनं । दुस्सग्गहणन्ति वत्थस्स निवसनाकारो। न्हानतित्थन्ति यथावुत्ताय पोक्खरणिया उदकन्हानतित्थं । इदानिपि तेसं जातिसम्भेदाभावं दस्सेन्तो "एवं तेस"न्तिआदिमाह । आवाहो दारिकाहरणं । विवाहो दारिकादानं | तत्थाति तेसु सक्यकोलियेसु । धातुसद्दानमनेकत्थत्ता समुसद्दो निवासत्थोति वुत्तं "वसन्ती"ति । अग्गेति उपयोगत्थे भुम्मवचनं, आद्यत्थे च अग्गसद्दो, किरियाविसेसोति च दस्सेति "तं अग्ग"न्तिआदिना | यदेत्थ भगवता वुत्तं “अथ खो अम्बठ्ठ राजा ओक्काको उदानं उदानेसि ‘सक्या वत भो कुमारा, परमसक्या वत भो कुमारा'ति, तदग्गे खो पन अम्बठ्ठ सक्या पञ्जायन्ती''ति, तदेतं सद्दतो, अत्थतो च साभाविकनिब्बचननिदस्सनं "सकाहि भगिनीहिपि सद्धिं संवासवसेन जातिसम्भेदमकत्वा कुलवंसं अनुरक्खितुं सक्कुणन्ति समत्येन्तीति सक्या"ति तेयेव सद्दरचनाविसेसेन साकिया। यं पनेतं सक्कतनिघण्टुसत्येसु वुत्तं --
“साकरुक्खपटिच्छन्नं, वासं यस्मा पुराकंसु । तस्मा दिट्ठा वंसजाते, भुवि 'सक्या'ति विस्सुता''ति ।।
तदेतं सद्दमत्तं पति असाभाविकनिब्बचननिदस्सनं “कपिलमुनिनो वसनट्ठाने साकवने वसन्तीति सक्या, साकिया"ति च ।
__ काळवण्णताय कण्हो नामाति वुत्तं "काळवण्ण"न्तिआदि । हनुयं जाता मस्सू, उत्तरोट्ठस्स उभोसु पस्सेसु दाठाकारेन जाता दाठिका। इदञ्च अत्थमत्तेन वुत्तं, तद्धितवसेन पन यथा एतरहि यक्खे “पिसाचो"ति समझा, एवं तदा “कण्हो''ति, तस्मा जातमत्तेयेव सब्याहरणेन पिसाचसदिसताय कण्होति । तथाहि वुत्तं “यथा खो पन अम्बट्ठ एतरहि मनुस्सा पिसाचे दिस्वा ‘पिसाचा'ति सञ्जानन्ति, एवमेव खो अम्बठ्ठ तेन खो पन समयेन मनुस्सा पिसाचे ‘कण्हा'ति सञ्जानन्ती"तिआदि । तत्थ पिसाचो जातोति इदानि पाकटनामेन सुविज्ञापनत्थं पुरिमपदस्सेव वेवचनं वुत्तं । “न सकबळेन मुखेन ब्याहरिस्सामी''तिआदीसु (पाचि० ६१९) विय उपसग्गवसेन सद्दकरणत्थो हरसद्दो, पुन दुतियोपसग्गेन युत्तो उच्चासद्दकरणे वत्ततीति वुत्तं “उच्चासद्दमकासी"ति ।
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( २.३.२६८ - २७१)
दासत्वादवा
२६८. अत्तनो उपारम्भमोचनत्थायाति आचरियेन, अम्बट्टेन च अत्तनो अत्तनो उपरि पापेतब्बोपवादस्स अपनयनत्थं । " अत्तनो "ति तं विच्छालोपवचनं । परिभिन्दिस्सतीति अनत्थकामतापवेदनेन परिभेदं करिस्सति, पेसुञ उपसंहरिस्तीति वृत्तं होति । अत्थविञ्ञापने साधनताय वाचा एवं करणं वाक्करणं निरुत्तिनयेन, तं कल्याणमस्साति कल्याणवाक्करणो । अस्मिं वचनेति एत्थ तसद्देन कामं " चत्तारो भो गोतम वण्णा'तिआदिना (दी० नि० १.२६६) अम्बट्टेन हेट्ठा वुत्तो जातिवादो परामसितब्बो होति, तथापेस जातिवादो वेदे वुत्तविधिनायेव तेन पटिमन्तेतब्बो, तस्मा पटिमन्तनहेतुभावेन पसिद्धं वेदत्तयवचनमेव परामसितब्बन्ति दस्सेतुं वृत्तं " अत्तना उग्गहिते वेदत्तयवचने”ति। इदानि "पोराणं खो पन ते अम्बट्ट मातापेत्तिक "न्तिआदिना भगवता वुत्तवचनस्सपि परामसनं दस्सेन्तो “ एतस्मिं वा दासिपुत्तवचने" ति आह । अपिच पटिमन्तेतुन्ति एत्थ पटिमन्तना नाम पञ्हाविस्सज्जना, उत्तरिकथना वा, तस्मा अत्थद्वयानुरूपं तब्बिसयस्स त सद्देन परामसनं दस्सेतीति दट्ठब्वं ।
च
२६९. तावाति मन्तनाय पठममेव अकताय एव मन्तनायाति वुत्तं होति । दुज्जानाति दुब्बिय्या, पठममेव सीसमुक्खिपितुं असमत्थनतो, जातिया दुब्बिय्यत्ता, अट्टस्स च दुक्करणतो अम्बट्ठो सयमेव मोचेतूति अधिप्पायो । अत्तनाव सक्येसु इब्भवादनिपातनेन अत्तनो उपरि पापुणनं सन्धाय " अत्तना बद्धं पुटक "न्ति वुत्तं, अत्तनाव बद्धं पुटोळिन्ति अत्थो ।
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२७०. धम्मो नाम कारणं " धम्मपटिसम्भिदा 'तिआदीसु (विभं० ७१८ आदयो) विय, धम्मेन सह वत्ततीति सहधम्मो, सो एव सहधम्मिकोति आह "सहेतुको " ति आदि, परियायवचनमेतं । जनको वा हेतु, उपत्थम्भको कारणं । अञ्ञेन अट्ठानगतेन अञ्ञ अट्ठानगतं वचनं । तेनाह “यो ही "तिआदि ।
ततोति द्विक्खत्तुं चोदनातो परं ततियचोदनाय अनागताय एव पक्कमिस्सामीति वृत्तं होत
तेन
२७१. पूजितब्बती सक्को देवराजा यक्खो नाम । यो अग्गिस्स पकतिवण्णो, समन्नागतन्ति वृत्तं “आदित्तन्ति अग्गिवण्ण "न्ति । कन्दलो नाम पुप्फूपगरुक्खविसेसो, यस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
सेतं पुप्फं पुप्फति, मकळम्पिस्स सेतवण्णं दाठाकारं विपरीतरूपसण्ठानं ।
(२.३.२७२ - २७४)
अट्ठमसत्ताहे अजपालनिग्रोधमूले निसिन्नस्स सब्बबुद्धस्स आचिण्णसमाचिण्णं अप्पोस्सुक्कतं सन्धाय " अहञ्चेवा' "तिआदि वृत्तं । अवत्तमानेति अप्पटिपज्जमाने, अननुवत्तमाने वा । तस्माति तदा तथापटिञ्ञातत्ता । तासेत्वा पञ्हं विस्सज्जापेस्सामीति आगतो यथा तं मूलपण्णासके आगतस्स सच्चकपरिब्बाजकस्स समागमे (म० नि० १.३५७) ।
होति ।
“भगवा चेव पस्सति अम्बट्ठो चा "ति एत्थ इतरेसमदस्सने दुविधम्पि कारणं दस्सेन्तो "यदि ही " तिआदिमाह । हि सद्दो कारणत्थे निपातो । यस्मा अगरु, यस्मा च वदेय्युं, तस्माति सम्बन्धो । अञ्ञेसम्पि साधारणतो अगरु अभारियं । आवाहेत्वाति मन्तबलेन अव्हानं कत्वा । तस्साति अम्बट्ठस्स । अन्तोकुच्छि अन्तअन्तगुणादिको । वादसङ्घट्टे वाचासङ्घट्टने । मञ्ञमानोति मञ्ञनतो । सम्बन्धदस्सनतं ।
विरूपरूपन्ति
२७२. ताणं गवेसमानोति " अयमेव समणो गोतमो इतो भयतो मम तायको "ति भगवन्तंयेव “ताण”न्ति परियेसन्तो, उपगच्छन्तोति वुत्तं होति । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो । तायतीति यथूपट्टितभयतो पालेति । तेनाह "रक्खती”ति, कत्तुसाधनमेतं । निलीयतीति यथूपट्ठितेनेव भयेन उपद्दुतो निलीनो होति, अधिकरणसाधनमेतं । सरसो हिंसने, तञ्च विद्धंसनमेव अधिप्पेतन्ति वृत्तं " भयं हिंसति विद्धंसेती "ति, कत्तुसाधनमेतं ।
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अम्बट्ठवंसकथावण्णना
२७४. गङ्गाय दक्खिणतोति गङ्गाय नाम नदिया दक्खिणदिसाभागे । ब्राह्मणतापसाति ब्रह्मकुलिनो तापसा । सरं वा सत्तिआदयो वा परस्स उपरि खिपितुकामस्स मन्तानुभावेन हत्थं न परिवत्तति हत्थे पन अपरिवत्तन्ते कुतो आवुधं परिवत्तिस्सतीति तथा अपरिवत्तनं सन्धाय “आवुधं न परिवत्तती" ति वृत्तं । भद्रं भोति सम्पटिच्छनं, साधूति अत्थो । धनुन खित्तसरेन अगमनीयं ससम्भारकथानयेन “ धनु अगमनीय "न्ति वुत्तं यथा " धनुना विज्झति, चक्खुना परसती 'ति । अम्बट्टं नाम विज्जन्ति सत्तानं सरीरे अब्भङ्गं ठपेतीति अम्बट्ठा निरुत्तिनयेन, एवंलद्धनामं मन्तविज्जन्ति अत्थो । यतो अम्बट्टा विज्जा एतस्मिं अत्थीति
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(२.३.२७४-२७४)
अम्बठ्ठवंसकथावण्णना
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कत्वा कण्हो इसि “अम्बट्ठो"ति पञायित्थ, तब्बंसजातताय पनायं माणवो “अम्बट्ठो"ति वोहरीयति । सो किर “कथं नामाहं दिसाय दासिया कुच्छिम्हि निब्बत्तो''ति तं हीनं जातिं जिगुच्छन्तो “हन्दाहं यथा तथा इमं जाति सोधेस्सामी''ति निग्गतो। तेन वुत्तं "इदानि मे मनोरथं पूरेस्सामी"ति । अयहिस्स मनोरथो - विज्जाबलेन राजानं तासेत्वा तस्स धीतरं लद्धकालतो पट्ठाय म्यायं दासजाति सोधिता भविस्सतीति ।
सेट्ठमन्तेति सेठ्ठभूते वेदमन्ते । को नु किं कारणा दासिपुत्तो समानो मद्दरूपिं धीतरं याचतीति अत्थो । खुरति छिन्दति, खुरं वा पाति पिवतीति खुरप्पो, खुरमस्स अग्गे अप्पीयति ठपीयतीति वा खुरप्पो, सरो। मन्तानुभावेन रो बाहुक्खम्भमत्तं जातं, तेन पन बाहुक्खम्भेन “को जानाति, किं भविस्सती"ति राजा भीतो उस्सङ्की उत्रस्तो अहोसि । तथा च वुत्तं "भयेन वेधमानो अट्ठासी"ति।
सरभङ्गजातके (जा० २.१७.५२) आगतानं दण्डकीराजादीनं पच्छा ओक्काकराजा अहोसि, तेसं पवत्ति च सब्बत्थ चिरकालं पाकटाति आह “दण्डकीरञो"तिआदि । अपरद्धस्स दण्डकीरञो, अपरद्धो नाळिकेरो, अज्जुनो चाति सम्बन्धो । सतिपि वालुकादिवस्से आवुधवस्सेनेव विनासोति वुत्तं “आवुधवुट्ठिया'ति । “अयम्पि ईदिसो महानुभावो"ति मञमाना एवं चिन्तयन्ता भयेन अवोचुन्ति दट्टब्बं ।।
उन्द्रियिस्सतीति भिन्दियिस्सति । कम्मरूपहेतं “पथवी"ति कम्मकत्तुवसेन वुत्तत्ता यथा "कुसुलो भिज्जती"ति । तेनाह "भिज्जिस्सती"ति । थुसमुट्ठीति पलासमुट्ठि, भुसमुट्ठि वा । कस्माति आह "सरसन्थम्भनमत्ते"तिआदि ।
भीततसिता भयवसेन छम्भितसरीरा उद्धग्गलोमा होन्ति हठुलोमा, अभीततसिता पन भयुपद्दवाभावतो अच्छम्भितसरीरा पतितलोमा होन्ति अहट्ठलोमा, खेमेन सोत्थिना तिट्ठन्ति, ताय पन पतितलोमताय तस्स सोत्थिभावो पाकटो होतीति फलेन कारणं विभावेतुं पाळियं “पल्लोमो'ति वृत्तन्ति दस्सेति “पत्रलोमो"तिआदिना । निरुत्तिनयेन पदसिद्धि यथा तं भयभेरवसुत्ते “भिय्यो पल्लोममापादिं अरछे विहाराया''ति (म० नि० १.३६ आदयो)। इदन्ति ओसानवचनं । “सचे मे राजा तं दारिकं दस्सेति, कुमारो सोस्थि पल्लोमो भविस्सतीति पटिञाकरणं पकरणतोयेव पाकटं। तेनाति कण्हेन । मन्तेति बाहुक्खम्भकमन्तस्स पटिप्पस्सम्भकविज्जासङ्घाते मन्ते । एवरूपानहि भयुपद्दवकरानं मन्तानं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
एकंसेनेव पटिप्पस्सम्भकमन्ताहोन्ति यथा तं कुसुमारकविज्जादीनं । परिवत्तितेति पजप्पिते । अत्तनो धीतुया अपवादमोचनत्थं तं अदासं भुजिस्सं करोति । तस्सा अनुरूपे इस्सरिये ठपनत्थं उळारे च नं ठाने ठपेसि। एकेन पक्खेनाति मातुपक्खेन । करुणायन्तो समस्सासनत्थं आह, न पन उच्चाकुलीनभावदस्सनत्थं । तेनाह “अथ खो भगवा "तिआदि ।
खत्तियसे भाववण्णना
२७५. ब्राह्मणेसूति वोहारमत्तं ब्राह्मणानं समीपे ब्राह्मणाह लद्धब्बान आसनादान लभेथाति वुत्तं होति । तेन वुत्तं "ब्राह्मणानं अन्तरे 'ति । केवलं वेदसत्थानुरूपं परलोकगते सद्धाय एव कातब्बं, न तदञ्ञ किञ्चि अभिपत्थेन्तेनाति सद्धन्ति निब्बचनं दस्सेतुं " मतके उद्दिस्स कतभत्ते "ति वृत्तं । मङ्गलादिभत्तेति एत्थ आदिसद्देन उस्सवदेवताराधनादिभत्ते सङ्गण्हाति । यज्ञभत्त पापसञ्ञमादिवसेन कतभत्ते । “पापसञ्ञमादिभत्तो भविस्सती 'ति आदिना हि अग्गिहोमो इध यञ् । पाहुनकानन्ति अतिथीनं । अनागन्तुकानम्पि पाहेणकभत्तं " पाहुन "न्त्वेव वुच्चतीति आह “पण्णाकारभत्ते वा ''ति । आवटं निवारणं । अनावट अनिवारणं । खत्तियभावं अप्पत्तो उभतोसुजाताभावतो । तेनाह “अपरिसुद्धो”ति ।
२७६. इत्थिया वा इत्थिं करित्वाति एत्थ करणं नाम किरियासामञ्ञविसयं करभूधातूनं अत्थवसेन सब्बधात्वन्तोगधत्ताति आह " परियेसित्वा "ति । खत्तियकुमारस्स भरियाभूतं ब्राह्मणक इत्थिं परियेसित्वा गहेत्वा ब्राह्मणानं इत्थिया वा खत्तियाव सेट्ठा, " हीना ब्राह्मणा "ति पाळिमुदाहरित्वा योजेतब्बं । “पुरिसेन वा पुरिसं करित्वाति एत्थापि एसेव नयो" ति ( दी० नि० टी० १.२७६) आचरियेन वृत्तं । तत्थापि हि खत्तियकञ्ञाय पतिभूतं ब्राह्मणकुमारं पुरिसं परियेसित्वा गत्वा ब्राह्मणानं पुरिसेन वा खत्तियाव सेट्ठा, हीना ब्राह्मणाति योजना । किस्मिञ्चिदेव पकरणेति एत्थ पकरणं नाम कारणं “एतस्मिं निदाने एतस्मिं पकरणे 'तिआदीसु (पाचि० ४२, ९० ) विय, तस्मा रागादिवसेन पक्खलिते ठाने हेतुभूतेति अत्थो, तं पन अत्थतो अपराधोव, सो च अकत्तब्बकरणन्ति आह “किस्मिञ्चिदेव दोसे "तिआदि । भस्ससद्दो भस्मपरियायो । भसीयति निरत्थकभावेन खिपीयतीति हि भस्सं, छारिका । "वधित्वा" ति एतस्स अत्थवचनं “ ओकिरित्वा" ति ।
२७७. कम्मकिलेसेहि जनेतब्बो, तेहि वा जायतीति जनितो, स्वेव जनेतो,
( २.३.२७५ - २७७)
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(२.३.२७८ - २७८)
मनुस्सोव । तथा हि वुत्तं "ये बहुम्हि एकवचनन्ति आह पटिसरन्तीति गोत्तं पटिच्च विचिनन्ति ।
विज्जाचरणकथावण्णना
गोत्तपटिसारिनो 'ति । तदेतं पजावचनं विय जातिसद्दवसेन “पजायाति अत्थो "ति । एतस्मिं जनेतिपि युज्जति । “अहं गोतमो, अहं कस्सपो 'तिआदिना सरणं करोन्ति
पठमभाणवारवण्णना निट्ठिता ।
विज्जाचरणकथावण्णना
पन
२७८. इमस्मिं पन सिलोके आहरियमाने ब्रह्मगरुका सद्धेय्यतं आपज्जिस्सन्ति, अम्बट्ठो च “विज्जाचरणसम्पन्नो 'ति पदं सुत्वा विज्जाचरणं पुच्छिस्सति, एवमयं विज्जाचरणपरिदीपनी देसना महाजनस्स सात्थिका भविस्सतीति पस्सित्वा लोकनाथो इमं सिलोकं सनङ्कुमारभासितं आहत इममत्थम्पि विभावेन्तो " इमाय गाथाया "तिआदिमाह । इतरथा हि भगवापि असब्ब परावस्सयो भवेय्य, न च युज्जति भगवतो परावस्सयता सम्मासम्बुद्धभावतो । तेनाह " अहम्पि हि, अम्बट्ट, एवं वदामी"तिआदि । ब्राह्मणसमये सिद्धन्ति ब्राह्मणलद्धिया पाकटं । वक्खमाननयेन जातिवादादिपटिसंयुत्तं । “संसन्दित्वाति घटेत्वा, अविरुद्धं कत्वाति अत्थो 'ति (दी० नि० टी० १.२७७) आचरियेनवुत्तं । इदानि पन पोत्थकेसु "पटिक्खिपित्वा ति पाठो दिस्सति, सो अयुत्तोव । कस्माति चे ? न हि पाळियं ब्राह्मणसमयसिद्धं विज्जाचरणं पटिक्खिपति, तदेव अम्बट्टेन चिन्तितं विज्जाचरणं घटेत्वा अविरुद्धं कत्वा अनुत्तरं विज्जाचरणं देसेतीति ।
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वादोति लद्धि, वचीभेदो वा । तेनाह “ ब्राह्मण... पे०... आदिवचन "न्ति । लद्धिपि हि वत्तब्बत्ता वचनमेव । इदन्ति अज्झेनज्झापनयजनयाजनादिकम्मं न वेस्सस्स, न खत्तियस्स, न तदञ्जेसन्ति अत्थं आदिसद्देन सङ्गण्हाति । सब्बत्थाति गोत्तवादमानवादे । तथापि गोत्तवादोति गोत्तं आरब्भ वादो, कस्सपस्सेविदं वट्टति, न कोसियस्साति आदिवचनन्ति अत्थो । मानवादोति मानं आरम्भ अत्तुक्कंसनपरवम्भनवसेन वादो, ब्राह्मणस्सेविदं वट्टति, न सुद्दस्साति आदिवचनन्ति अत्थो । जातिवादे विनिबद्धाति जातिसन्निस्सितवादे पटिबद्धा ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२७९-२७९)
सब्बत्थाति गोत्तवादविनिबद्धादीसु । गोत्तवादविनिबद्धाति हि गोत्तवादे विनिबद्धा । मानवादविनिबद्धाति मानवादे विनिबद्धा, ये हि ब्राह्मणस्सेव अज्झेनज्झापनयजनयाजनादयोति एवं अत्तुक्कंसनपरवम्भनवसेन पवत्ता, ते मानवादविनिबद्धा च होन्ति। आवाहविवाहविनिबद्धाति आवाहविवाहेसु विनिबद्धा । ये हि विनिबद्धत्तयवसेन “अरहसि वा मं त्वं, न वा मं त्वं अरहसी"ति एवं पवत्तनका, ते आवाहविवाहविनिबद्धा च होन्तीति इममत्थसेसं सन्धाय "एस नयो"ति वुत्तं । आवाहविवाहविनिबद्धभावविभावनत्थहि “अरहसि वा मं त्वं, न वा मं त्वं अरहसी''ति पाळियं वुत्तं, तदेतं जातिवादादीहि तीहि पदेहि योजेतब्बं | आवृत्तिआदिनयेन हि जातिवादादयो द्विक्खत्तुमत्यदीपका। तथा हि आचरियेन वुत्तं “ये पन आवाहविवाहविनिबद्धा, ते एव सम्बन्धत्तयवसेन 'अरहसि वा मं त्वं, न वा मं त्वं अरहसीति एवं पवत्तनका''ति (दी० नि० टी० १.२७८)।
ननु पुब्बे विज्जाचरणं पुढे, कस्मा तं पुन पुच्छतीति चोदनं सोधेन्तो "ततो अम्बट्टो"तिआदिमाह । तत्थ यत्थाति यस्सं विज्जाचरणसम्पत्तियं । ब्राह्मणसमयसिद्धं सन्धाय वुत्तं । लग्गिस्सामाति ओलग्गा अन्तोगधा भविस्साम । ततोति ताय विज्जाचरणसम्पदाय । अवक्खिपीति अवचासि । परमत्थतो अविज्जाचरणानियेव “विज्जाचरणानी''ति गहेत्वा ठितो हि परमत्थतो विज्जाचरणेसु विभजियमानेसु सो ततो दूरतो अपनीतो नाम होति । यत्थाति यस्सं पन विज्जाचरणसम्पत्तियं । अनुत्तरविज्जाचरणं सन्धाय वुत्तं । जाननकिरियायोगे कम्मम्पि युज्जनकिरियायोगे कत्तायेव उपपन्नो । पधानकिरियापेक्खा हि कारकाति वुत्तं "अयं नो विज्जाचरणसम्पदा ञातुं वट्टती"ति । एवमीदिसेसु । समुदागमतोति आदिसमुट्ठानतो।
२७९. कामं चरणपरियापन्नत्ता चरणवसेन निय्यातेतुं वट्टति, अम्बट्ठस्स पन असमपथगमनं निवारेन्तो सीलवसेनेव निय्यातेतीति इममत्थं विभावेतुं "चरणपरियापन्नम्पीति वुत्तं । ब्रह्मजाले (दी० नि० १.७, ११, २१) वुत्तनयेन खुद्दकादिभेदं तिविधं सीलं। सीलवसेनेवाति सीलपरियायवसेनेव । किञ्चि किञ्चि सीलन्ति ब्राह्मणानं जातिसिद्धं अहिंसनादियमनियमलक्खणं अप्पमत्तकं सीलं। तस्माति तथा विज्जमानत्ता, अत्तनि विज्जमानं सीलमत्तम्पि निस्साय लग्गेय्याति अधिप्पायो । “तत्थ तत्थेव लग्गेय्याति तस्मिं तस्मिंयेव ब्राह्मणसमयसिद्धे सीलमत्ते ‘चरण'न्ति लग्गेय्या'ति (दी० नि० टी० १.२७९) आचरियेन वुत्तं, तदेतं अट्ठकथायमेव साकारवचनस्स वुत्तत्ता
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(२.३.२८०-२८०)
चतुअपायमुखकथावण्णना
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विचारेतब्बं, अधिप्पायमत्तदस्सनं वा एतं । अयं पनेत्थ अत्थो - तत्थ तत्थेव लग्गेय्याति तस्मिं तस्मिंयेव अत्तनि विज्जमानसीलमत्तपटिसंयुत्तट्ठाने "मयम्पि चरणसम्पन्ना'ति लग्गेय्य, तस्मा सीलवसेनेव निय्यातेतीति सम्बन्धो। तथापसङ्गाभावतो पन उपरि चरणवसेनेव निय्यातेतीति दस्सेन्तो "यं पना"तिआदिमाह । रूपावचरचतुत्थज्झाननिद्देसेनेव अरूपावचरज्झानानम्पि निद्दिट्ठभावापत्तितो "अट्ठपि समापत्तियो 'चरण'न्ति निय्यातिता"ति वुत्तं । तानिपि हि अङ्गसमताय चतुत्थज्झानानेवाति । निय्यातिताति च असेसतो नीहरित्वा गहिता, निदस्सिताति अत्थो । विपस्सनाजाणतो पनाति “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनीये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेती''तिआदिना नयेन विपस्सनाआणतो पट्ठाय ।
चतुअपायमुखकथावण्णना
२८०. असम्पापुणन्तोति आरभित्वापि सम्पज्जितुमसक्कोन्तो। अविसहमानोति आरभितुमेव असक्कोन्तो। "खारी"ति तापसपरिक्खारस्सेतं अधिवचनं, सो च अनेकभेदोति विभजित्वा दस्सेतुं “अरणी"तिआदि वुत्तं । तत्थ अरणीति हेट्ठिमुपरिमवसेन अग्गिधमनकं अरणीद्वयं । कमण्डलूति कुण्डिका । सुजाति होमदब्बि | सुजासदो हि होमकम्मनि हब्यन्नादीनमुद्धरणत्थं कतदब्बियं वत्तति यथा तं कूटदन्तसुत्ते “पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तान''न्ति (दी० नि० १.३४१)। तथा हि इमस्मिंयेव ठाने आचरियेन वुत्तं "सुजाति दब्बी"ति (दी० नि० टी० १.२८०)। हव्यन्नादीनं सुखग्गहणत्थं जायतीति हि सुजा। केचि पन इममत्थमविचारेत्वा तुन्नत्थमेव गहेत्वा "सूची"ति पठन्ति, तदयुत्तमेव आचरियेन तथा अवण्णितत्ता । चमति अदतीति चमरो, मिगविसेसो, तस्स वालेन कता बीजनी चामरा। आदिसद्देन तिदण्डतिघटिकादीनि सङ्गण्हाति । कुच्छितेन वक्राकारेन जायतीति काजो यथा “कालवण''न्ति; कचति भारं बन्धति एत्थाति वा काचो। दुविधम्पि हि पदमिच्छन्ति सद्दविदू । खारिभरितन्ति खारीहि परिपुण्णं । एकेन वि-कारेन पदं वड्वेत्वा "खारिविविध"न्ति पठन्तानं वादे समुच्चयसमासेन अत्थं दस्सेन्तो “ये पना"तिआदिमाह ।
ननु उपसम्पन्नस्स भिक्खुनो सासनिकोपि यो कोचि अनुपसम्पन्नो अत्थतो परिचारकोव होति अपि खीणासवसामणेरो, किमङ्गं पन बाहिरकपब्बजितेति अनुयोगं पति तत्थ विसेसं दस्सेतुं “कामञ्चा"तिआदि वुत्तं । वुत्तनयेनाति “कप्पिय...पे०...
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२८०-२८०)
वत्तकरणवसेना"ति एवं वुत्तनयेन । अनेकसतसहस्ससंवरविनयसमादानवसेन उपसम्पन्नभावस्स विसिट्ठभावतो खीणासवसामणेरोपि पुथुज्जनभिक्खुनो परिचारकोति वुत्तो ।
“नवकोटिसहस्सानि, असीतिसतकोटियो । पञाससतसहस्सानि, छत्तिंस च पुनापरे ।
एते संवरविनया, सम्बुद्धेन पकासिता । पेय्यालमुखेन निद्दिवा, सिक्खा विनयसंवरे''ति ।। (विसुद्धि० १.२०; अप० अट्ठ० २.५५; पटि० म० अट्ठ० १.२.३७)
एवं वुत्तप्पभेदानं अनेकसतसहस्सानं संवरविनयानं समादाय सिक्खनेन उपरिभूता अग्गभूता सम्पदाति हि उपसम्पदा, ताय चेस उपसम्पदाय पुथुज्जनभिक्खु उपसम्पन्नोति ।
अयं पनाति यथावुत्तलक्खणो तापसो। तापसा हि कम्मवादिकिरियवादिनो, न सासनस्स पटाणीभूता, यतो नेसं पब्बजितुमागतानं विनाव तित्थियपरिवासेन खन्धके पब्बज्जा अनुज्ञाता। तपो एतेसमत्थीति तापसा त कारस्स दीर्घ कत्वा । "लोमसा'"तिआदीसु विय हि स-पच्चयमिच्छन्ति सद्दविदू । इदं वुत्तं होति - कामं खीणासवोपि सामणेरो पुथुज्जनस्स भिक्खुनो अत्थतो परिचारकोव होति, सो पन वत्तकरणमत्तेनेव परिचारको, न लामकभावेन । तापसो तु गुणवसेन चेव वेय्यावच्चकरणवसेन च लामकभावेनेव परिचारको, न वत्तकरणमत्तेन, एवमिमेसं नानाकरणं सन्धाय तापसस्सेव परिचारकता वुत्ताति ।
"कस्मा"तिआदिना चोदको कारणं चोदेति । “यस्मा"तिआदिना आचरियो कारणं दस्सेत्वा परिहरति । एवं सोपतो परिहरितमत्थं विवरितुं "इमस्मिही"तिआदि वुत्तं । असक्कोन्तन्ति असमत्थनेन विप्पटिपज्जन्तं अलज्जिं । खुरधारूपमन्ति खुरधारानं मत्थकेनेव अक्कमित्वा गमनूपमं । बहुजनसम्मताति महाजनेन सेट्ठसम्मता । अति अपरे भिक्खू । इधाति तापसपब्बज्जाय । छन्देन सह चरन्तीति सछन्दचारिनो, यथाकामं पटिपन्नकाति वुत्तं होति । अनुसिक्खन्तोति दिट्ठानुगतिया सिक्खन्तो | तापसाव बहुका होन्ति, न भिक्खू ।
कुदालपिटकानं निब्बचनं हेट्ठा वुत्तमेव । बहुजनकुहापनत्थन्ति बहुनो जनस्स
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(२.३.२८०-२८०)
चतुअपायमुखकथावण्णना
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पलासरुक्खदण्डादीहि
विम्हापनत्थं । अग्गिसालन्ति अग्गिहुत्तसालं। नानादारूहीति नानाविधसमिधादारूहि । होमकरणवसेनाति यञ्जकरणवसेन ।
उदकवसेनेत्थ पानागारं। तेनाह "पानीयं उपट्ठपेत्वा"तिआदि । यं भत्तपुटं वा यानि तण्डुलादीनि वाति सम्बन्धो। अम्बिलयागु नाम तक्कादिअम्बिलसंयुत्ता यागु । तण्हादीहि आमसितब्बतो चीवरादि आमिसं नाम । वड्डियाति दिगुणतिगुणादिवड्डिया। कुटुम्बं सण्ठपेतीति धनं पतिट्ठापेति । यथावुत्तमत्थं पाळियं निदस्सनमत्तेन वुत्तन्ति आह "इदं पनस्स पटिपत्तिमुख"न्ति, इदं पन पाळिवचनं अस्स चतुत्थस्स पुग्गलस्स कोहञ्जपटिपत्तिया मुखमत्तन्ति अत्थो । कस्माति चे? सो हि नानाविधेन कोहओन लोकं विम्हापयन्तो तत्थ अच्छति । तेनाह "इमिना ही"तिआदि । एवन्ति “तत्थ पानीयं उपट्ठपेत्वा"तिआदिना वुत्तनयेन ।
“सब्बापि तापसपब्बज्जा निद्दिट्टा''ति धम्माधिट्ठाननयेन दस्सितमेव पुग्गलाधिट्ठाननयेन विवरितुं “अट्ठविधा ही"तिआदि वुत्तं । खलादीसु मनुस्सानं सन्तिके उपतिट्ठित्वा वीहिमुग्गमासतिलादीनि भिक्खाचरियनियामेन सङ्कड्डित्वा उञ्छनं उञ्छा, सा एव चरिया वुत्ति एतेसन्ति उञ्छाचरिया। अग्गिपक्किकाय भत्तभिक्खाय जीवन्तीति अग्गिपक्किका, न अग्गिपक्किका अनग्गिपक्किका, तण्डुलभिक्खाय एव जीविकाति वुत्तं होति । उञ्छाचरिया हि खलादीनि गन्त्वा उपतिट्टित्वा मनुस्सेहि दिय्यमानं खलग्गं नाम धनं पटिग्गण्हन्ति, अनग्गिपक्किका पन तादिसमपटिग्गण्हित्वा तण्डुलमेव पटिग्गण्हन्तीति अयमेतेसं विसेसो । न सयं पचन्तीति असामपाका, पक्कभिक्खाय एव जीविका। अयो विय कट्ठिनो मुट्ठिप्पमाणो पासाणो अयमुट्ठि नाम, तेन वत्तन्तीति अयमुट्टिका। दन्तेन उप्पाटितं वक्कलं रुक्खत्तचो दन्तवक्कलं, तेन वत्तन्तीति दन्तवक्कलिका। पवत्तं रुक्खादितो पातापितं फलं भुञ्जन्ति सीलेनाति पवत्तफलभोजिनो। पण्डुपलाससद्दस्स एकसेसनयेन द्विधा अत्थो, जिण्णताय पण्डुभूतं पलासञ्चेव जिण्णपक्कभावेन तंसदिसं पुप्फफलादि चाति । तेन वक्खति “सयं पतितानेव पुप्फफलपण्डुपलासादीनि खादन्ता यापेन्ती"ति, (दी० नि० अट्ठ० १.२८०) तेन वत्तन्तीति पण्डुपलासिका, सयंपतितपण्णपुप्फफलभोजिनो । इदानि ते अट्ठविधेपि सरूपतो दस्सेतुं “तत्था"तिआदि वुत्तं । केणियजटिलवत्थु खन्धकवण्णनाय (महाव० अट्ठ० ३००) गहेतब् ।
सङ्कड्डित्वाति भिक्खाचरियावसेन एकझं कत्वा ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२८१-२८१)
तण्डुलभिक्खन्ति तण्डुलमेव भिक्खं । भिक्खितब्बा याचितब्बा, भिक्खूनं अयन्ति वा भिक्खाति हि भिक्खासद्दो तण्डुलादीसुपि निरुळहो । तेन वुत्तं “पचित्वा परिभुञ्जन्ती"ति |
भिक्खापरियेट्ठि नाम दुक्खाति परेसं गेहतो गेहं गन्त्वा भिक्खाय परियेसना नाम दीनवुत्तिभावेन दुक्खा ।
ये पन “पासाणस्स परिग्गहो नाम दुक्खो पब्बजितस्सा''ति दन्तेहेव उप्पाटेत्वा खादन्ति, ते दन्तवक्कलिका नामाति अयं अट्ठकथामुत्तकनयो ।
पण्डुपलाससद्दो पुप्फफलविसयोपि "पुष्फफलपण्डुपलासादीनी"ति इमिना ।
सदिसताकप्पनेनाति
दस्सेति
तेति पण्डुपलासिका । निदस्सनमत्तमेतं अञसम्पि तथा भेदसम्भवतो । पापुणनट्ठानेति गहेतुं सम्पापुणनट्ठाने । एकरुक्खतोति पठमं उपगतरुक्खतो।।
कथमेत्तावता सब्बापि तापसपब्बज्जा निद्दिट्टाति चोदना न ताव विसोधिताति आह "इमा पना"तिआदि । चतूहियेवाति "खारिविधमादाया"तिआदिना वुत्ताहि पवत्तफलभोजनिका, कन्दमूलफलभोजनिका, अग्यागारिका, आगारिका चेति चतूहि एव तापसपब्बज्जाहि। अगारं भजन्तीति अगारं निवासभावेन उपगच्छन्ति। इमिना हि "चतुद्वारं अगारं करित्वा अच्छती"तिआदिना इध वुत्ताय चतुत्थाय तापसपब्बज्जाय तेसमवरोधतं दस्सेति । एवमितरेसुपि पटिलोमतो योजना वेदितब्बा । अग्गिपरिचरणवसेन अग्यागारं भजन्ति। एवं पन तेसमवरोधतं वदन्तो तदनुरूपं इमेसम्पि पच्चेकं दुविधतं दस्सेतीति दट्ठब्बं ।
२८१. आचरियेन पोक्खरसातिना सह पवत्ततीति साचरियको, तस्स | अपायमुखम्पीति विनासकारणम्पि | पगेव विज्जाचरणसम्पदाय सन्दिस्सनेति पि-सद्दो गरहायं । तेन वुत्तं “अपि नु त्वं इमाय अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय सन्दिस्ससि साचरियको"तिआदि । तत्रायमट्ठकथामुत्तकनयो- “नो हिदं भो गोतमा'"ति सन्दिस्सनं पटिक्खिपित्वा असन्दिस्सनाकारमेव विभावेतुं "को चाह"न्तिआदि वुत्तं । साचरियको अहं को च कीदिसो हुत्वा अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय सन्दिस्सामि, अनुत्तरा
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(२.३.२८२ - २८३)
पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना
विज्जाचरणसम्पदा का च कीदिसा हुत्वा साचरियके मयि सन्दिस्सति, आरका अहं... पे०... साचरियकोति सह पाठसेसेन योजना ।
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२८२. अपाये विनासनुपाये नियुत्तो आपायिको । तब्भावं न परिपूरेति परिपूरेतुं न सक्कोतीति अपरिपूरमानो, तब्भावेन अपरिपुण्णोति अत्थो । अत्तना आपायिकेन होन्तेनापि तभावं अपरिपूरमानेन पोक्खरसातिना एसा वाचा भासिताति अत्थतो सम्बन्धत्ता कत्वत्थे चेतं पच्चत्तवचनन्ति आह “आपायिकेनापि अपरिपूरमानेनाति । अपिच अत्तना अपरिपूरमानेन आपायिकेनापि सयं अपरिपूरमानापायिकेन हुत्वापि पोक्खरसातिना एसा वाचा भासिताति अत्थयुत्तितो इत्थम्भूतलक्खणे चेतं पच्चत्तवचनन्तिपि एवं वृत्तं । अञ हि सद्दक्कमो, अञ्ञो अत्थक्कमोति । केचि पन " करणत्थमेव दस्सेतुं एवं वृत्त "न्ति वदन्ति, तदयुत्तमेव पदद्वयस्स कत्तुपदेन समानत्थत्ता, समानत्थानञ्च पदानं अञ्ञम करणभावानुपपत्तितो, अलमतिपपञ्चेन ।
पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना
२८३. दीयतेति दत्ति, सा एव दत्तिकन्ति आह “दिनक "न्ति । अदातुकामम्पि दातुकामं कत्वा सम्मुखा परमावट्टेति सम्मूळ्हं करोति एतायाति सम्मुखावट्टनी । तेनाह “न देमीति बत्तुं न सक्कोती 'ति । पुन तस्साति ब्राह्मणस्स । कारणानुरूपं राजूनं पुण्णत्तन्ति आह " कस्मा मे दिनो "ति । सङ्घपलितकुट्ठन्ति धोतसङ्घमिव सेतकुटुं । सेतपोक्खररजततो गुणसमानकायत्ता एवमाह । अनुगच्छतीति परमनुबन्धति ।
यदि दुविधेनपि कारणेन राजा ब्राह्मणस्स सम्मुखाभावं न देति, अथ कस्मा तदुपसङ्कमनं न पटिक्खित्तन्ति आह " यस्मा पना "तिआदि । " खेत्तविज्जायाति नीतिसत्थे’ति (दी० नि० टी० १.२८३) आचरियेन वुत्तं । हेट्ठापि ब्रह्मजालवण्णनायं एवं वृत्तं “खेत्तविज्जाति अब्भेय्यमासुरक्खराजसत्थादिनीतिसत्थ "न्ति । ( दी० नि० अट्ठ० १.२१) दुस्समेत्थ तिरोकरणियं । तेनाह “ साणिपाकारस्स अन्तो ठत्वा" ति । अन्तसद्देन पन तब्भावेन पदे वड्ढियमाने दुस्सन्तं यथा “वनन्तो 'ति । "पयातन्ति सद्धं, सस्सतिकं वा । तेनाह अभिहरित्वा दिन्न”न्ति आचरियेन वुत्तं तस्मा मतकभत्तसङ्क्षेपेन वा निच्चभत्तसङ्क्षेपेन वा अभिहरित्वा दिन्नं भिक्खन्ति अत्थो वेदितब्बो । “अयं पना" तिआदि अत्थापत्तिवचनं । निट्ठन्ति निच्छयं । कस्मा पन भगवा ब्राह्मणस्स एवरूपं अमनापं मम्मवचनं अवोचाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२८४-२८५)
चोदनं कारणं दस्सेत्वा सोधेतुं “इदं पना"तिआदि वुत्तं । रहस्सम्पि पटिच्छन्नम्पि मम्मवचनं पकासेसीति सम्बन्धो ।
२८४. राजासनं नाम हत्थिक्खन्धपदेसं सन्धाय "हत्थिगीवाय वा निसिन्नो"ति पाळियं वुत्तं । रथूपत्थरेति रथस्स उपरि अत्थरितपदेसे । तेनाह "रथम्ही"तिआदि । उग्गतुग्गतेहीति उग्गतानमतिसयेन उग्गतेहि । न हि विच्छासमासो लोकिकेहि अभिमतोति । रओ अपच्चं राजञो, बहुकत्तं पति, एकसेसनयेन वा “राजनेही"ति वुत्तं । पाकटमन्तनन्ति पकासभूतं मन्तनं । तदेविधाधिप्पेतं, न रहस्समन्तनं सुद्दादीहिपि सुय्यमानस्स इच्छितत्ता। तेन वुत्तं “अथ आगच्छेय्य सुद्दो वा सुद्ददासो वा"तिआदि । तादिसेहियेवाति रञो आकारसदिसेहेव । तस्सत्थस्स साधनसमत्थं वचनं रञा भणितं यथा, तथा सोपि तस्सत्थस्स साधनसमत्थमेव भणितं वचनं अपिनु भणतीति योजेतब् ।
२८५. "पवत्तारो"ति एतस्स पावचनभावेन वत्तारोति सद्दतो अत्थो । यस्मा पन ते तथाभूता मन्तानं पवत्तका नाम, तस्मा अधिप्पायतो अत्थं दस्सेतुं “पवत्तयितारो"ति वुत्तं । वदसद्देन, हि तुपच्चयेन च "वत्तारो''ति पदसिद्धि, तथा वतुसद्देन “पवत्तयितारो''ति । इदं आचरियस्स (दी० नि० टी० १.२८५) च आचरियसारिपुत्तत्थेरस्स च मतं । वतुसद्देनेव “पवत्तारो''ति पदसिद्धिं दस्सेतीतिपि केचि वदन्ति । पदद्वयस्स तुल्याधिकरणत्ता “मन्तमेवा"ति वुत्तं । “सुद्दे बहि कत्वा रहो भासितब्बतुन मन्ता एव तं तं अत्थपटिपत्तिहेतुताय पदन्ति हि तुल्याधिकरणं होति, अनुपनीतासाधारणताय रहस्सभावेन वत्तब्बाय मन्तनकिरियाय पदमधिगमुपायन्तिपि मन्तपदन्ति अट्ठकथामुत्तको नयो। गीतन्ति गायनवसेन सज्झायितं, गायनम्पिध उदत्तानुदत्तादिसरसम्पादनवसेनेव अधिप्पेतन्ति वृत्तं "सरसम्पत्तिवसेना"ति । पावचनभावेन अक्षेसं वुत्तं। तम सं वादापनवसेन वाचितं। सङ्गहेत्वा उपरूपरि सञ्जूळ्हावसेन समुपब्यूळ्हं। इरुवेदयजुवेदसामवेदादिवसेन, तत्थापि पच्चेकं मन्तब्रह्मादिवसेन, अज्झायानुवाकादिवसेन च रासिकतं। यथावुत्तनयेनेव पिण्डं कत्वा ठपितं । अञसं वाचितं अनुवाचेन्तीति अञ्जेसं कम्भभूतानं तेहि वाचापितं मन्तपदं एतरहि ब्राह्मणा अजेसं अनुवाचापेन्ति ।
तेसन्ति मन्तकत्तूनं । दिब्बचक्खुपरिभण्डं यथाकम्मूपगाणं, पच्चक्खतो दस्सनटेन दिब्बचक्खुसदिसञ्च पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं सन्धाय “दिब्बेन चक्खुना''ति वुत्तं । अतो
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(२.३.२८६-२८६)
पुब्बकइसिभावानुयोगवण्णना
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दिब्बचक्खुपरिभण्डेन यथाकम्मूपगजाणेन सत्तानं कम्मस्सकतादीनि चेव दिब्बचक्खुसदिसेन पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणेन अतीतकप्पे ब्राह्मणानं मन्तज्झेनविधिञ्च ओलोकेत्वाति अत्थो गहेतब्बो । रूपमेव हि पच्चुप्पन्नं दिब्बचक्खुस्स आरम्मणन्ति तमिध अट्ठानगतं होति । पावचनेन सह संसन्दित्वाति यं कस्सपसम्मासम्बुद्धेन वुत्तं वट्टसन्निस्सितं वचनं, तेन सह संसन्दित्वा अविरुद्धं कत्वा । न हि तेसं विवट्टसन्निस्सितो अत्थो पच्चक्खतो होति । गन्धिंसूति पज्जगज्जबन्धवसेन सक्कतभासाय बन्धिंसु | अपरा परेति अट्ठकादीहि अपरा अञपि परे पच्छिमा ओक्काकराजकालादीसु उप्पन्ना । पाणातिपातादीनि पक्खिपित्वाति अट्ठकादीहि गन्थितमन्तपदेस्वेव पाणातिपातादिकिलेससन्निस्सितपदानं तत्थ तत्थ पक्खिपनं कत्वा । विरुद्धे अकंसूति सुत्तनिपाते ब्राह्मणधम्मिकसुत्तादीसु (सु० नि० ब्राह्मणधम्मिकसुत्त) आगतनयेन संकिलेसिकत्थदीपनतो पच्चनीकभूते अकंसु । इसीति निदस्सनमत्तं । “इसि वा इसित्थाय पटिपन्नो वा''ति हि वत्तब्बं । कस्मा पनेत्थ पटिञागहणवसेन देसनासोतपतितं न करोतीति आह "इध भगवा"तिआदि। इधाति "त्याहं मन्ते अधीयामि, ‘साचरियको ति त्वं मञसी"ति वुत्तट्ठाने । पटिनं अग्गहेत्वाति यथा हेट्ठा पटिञा गहिता, तथा "तं किं मञ्जसि अम्बठ्ठ, तावता त्वं भविस्ससि इसि वा इसित्थाय वा पटिपन्नो साचरियकोति, नो हिदं भो गोतमा'"ति एवं इध पटिअं अग्गहेत्वा ।
२८६. निरामगन्धाति किलेसासुचिवसेन विस्सगन्धरहिता । अनिथिगन्धाति इत्थीनं गन्धमत्तस्सपि अविसहनेन इत्थिगन्धरहिता। रजोजल्लधराति पकतिरजसेदादिजल्लधरा । पाकारपुरिसगुत्तीति पाकारावरणं, पुरिसावरणञ्च । एत्थ पन “निरामगन्धा"ति एतेन तेसं दसन्नं ब्राह्मणानं विखम्भितकिलेसतं दस्सेति, "अनित्थिगन्धा, ब्रह्मचारिनो"ति च एतेन एकविहारितं, “रजोजल्लधरा"ति एतेन मण्डनविभूसनाभावं, “अरञायतने पब्बतपादेसु वसिंसू"ति एतेन मनुस्सूपचारं पहाय विवित्तवासं, "वनमूलफलाहारा वसिंसू"ति एतेन सालिमंसोदनादिपणीताहार पटिक्खे, “यदा"तिआदिना यानवाहनपटिक्खे, "सब्बदिसासू"तिआदिना रक्खावरणपटिक्खेपं । एवञ्च दस्सेन्तो मिच्छापटिपदापक्खिकं साचरियकस्स अम्बट्ठस्स वुत्तिं उपादाय सम्मापटिपदापक्खिकापि तेसं ब्राह्मणानं वुत्ति अरियविनये सम्मापटिपत्तिं उपादाय मिच्छापटिपदायेव । कथञ्हि नाम ते भविस्सति सल्लेखपटिपत्तियुत्तताति। “एवं सु ते''तिआदिना भगवा अम्बटुं सन्तज्जेन्तो निग्गण्हातीतिपि विभावेति । इदहि वक्खमानाय पाळिया पिण्डत्थदस्सनन्ति ।
दुस्सपट्टिका दुस्सपढें। दुस्सकलापो दुस्सवेणी। वेठकेहीति वेठकपट्टकेहि, दुस्सेहि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
संवेठेत्वा कतनमितफासुकाहीति वुत्तं होति । कप्पेतुन्ति कत्तरिकाय छिन्दितुं । कप्पितवालेहीति एत्थापि एसेव नयो । “न भिक्खवे मस्सु कप्पापेतब्ब' 'न्तिआदी सु (चूळव० २७५) विय हि कपुसद्दो छेदने वत्तति । युत्तट्ठानेसूति गीवासीसवालधीसु । वालाति तेसु ठानेसु जायमाना लोमा । सहचरणवसेन, ठानीनामेन वा " कुत्तवाला "ति वृत्ता । केचि पन "वाळयुत्तत्ता "ति पाठं कप्पेत्वा वाळरूपयुत्तत्ताति अत्थं वदन्ति, पाळियानपेक्खनमेव तेसं दोसो । “कुत्तवालेहि वळवारथेही 'ति पाळियं वृत्तं । समन्तानगरन्ति नगरस्स समन्ततो । पाकारस्त अधोभागे कतसुधाकम्मं ठानं नगरस्स समीपे कत्तब्बतो, उपकारकरणतो च “ उपकारिका" ति वुच्चति । नगरस्स उपकारिका एतासन्ति नगरूपकारिकायो, राजधानी अपेक्खाय इत्थिलिङ्गनिद्देसो । तेनाह "इध पना "तिआदि । मतीति विचिकिच्छावसेन अनेकंसिकजानना । उपरि देसनाय अवड्ढकारणं दस्सेन्तो “इदं भगवा’”तिआदिमाह । पाळियं सो मं पञ्हेनाति सो जनो मं पुच्छावसेन सोधेय्य । अहं वेय्याकरणेन सोधेस्सामीति अहम्पिमं विस्सज्जनावसेन सोधेस्सामीति यथारहमधिकारवसेन अथ वेदितब्बो |
लक्खणदस्सनवण्णना
२८७. “निसिन्नान "न्तिआदि अनादरे सामिवचनं, विसेसनं वा । सङ्कुचिते इरियापथे अनवसेसतो लक्खणानं दुब्बिभावनतो “न सक्कोती "ति वुत्तं, तथा सुविभावनतो पन “सक्कोती 'ति । परियेसनसुखत्थमेव तदाचिण्णता दट्ठब्बा । तेनाति दुविधेनपि कारणेन ।
(२.३.२८७-२८७)
गवेसीति आणेन परियेसनमकासि । गणयन्तोति आणेनेव सङ्कलयन्तो । समानयीति सम्मा आनयि समाहरि । "कमती " ति पदस्स आकङ्क्षतीति अत्थोति आह "अहो ता" तिआदि । अनुपसग्गम्पि हि पदं कत्थचि सउपसग्गमिव अत्थविसेसवाचकं यथा 'गोत्रभू'ति । ततो ततो सरीरप्पदेसतो। किच्छतीति किलमति । तेनाह "न सक्कोति
"न्ति । तायाति " विचिनन्तो किच्छतीति वुत्ताय विचिकिच्छाय । ततोति सन्निट्ठानं अगमनतो । एवं “कङ्क्षती 'ति पदस्स आसिसनत्थतं दस्सेत्वा इदानि संसयत्थतं दस्सेन्ती " कङ्क्षाय वा "तिआदिमाह । तत्थ कङ्क्षायाति “कङ्खती' ति पदेन वुत्ताय कङ्क्षाय । असत्वपधानञ्हि आख्यातिकं । एस नयो सेसेसुपि । अवत्थापभेदगता विमति एव " तीहि धम्मेहीति वुत्ता, तिप्पकारेहि संसयधम्मेहीति अत्थो । कालुसियभावोति अप्पसन्नताय तुभूतो आविलभावो ।
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(२.३.२८८-२८८)
द्वेलक्खणदस्सनवण्णना
२३९
वत्थिकोसेनाति नाभिया अधोभागसङ्खाते वथिम्हि जातेन लिङ्गपसिब्बकेन । “अण्डकोसो''तिआदीसु (म० नि० १.१५२, १८९; २.२७; अ० नि० २.७.७१; पारा० ११) विय हि कोससद्दो परिवेठकपसिब्बके वत्तति । वत्थेन गुहितब्बत्ता वत्थगुय्हं । यस्मा भगवतो . कोसोहितं वत्थगुहं सब्बबुद्धावेणिकं अजेहि असाधारणं सुविसुद्धकञ्चनमण्डलसन्निभं, अत्तनो सण्ठानसन्निवेससुन्दरताय आजानेय्यगन्धहत्थिनो वरङ्गपरमचारुभावं, विकसमानतपनियारविन्दसमुज्जलकेसरावत्तविलासं, सञ्झापभानुरञ्जितजलवनन्तराभिलक्खितसम्पुण्णचन्दमण्डलसोभञ्च अत्तनो सिरिया अभिभुय्य विराजति, यं बाहिरब्भन्तरमलेहि अनुपक्किलिट्ठताय, चिरकालपरिचितब्रह्मचरियाधिकारताय, सण्ठितसण्ठानसम्पत्तिया च कोपीनम्पि समानं अकोपीनमेव जातं । तेन वुत्तं "भगवतो ही"तिआदि । वरवारणस्सेवाति वरगन्धहत्थिनो इव | पहूतभावन्ति पुथुलभावं | एत्थेव हि तस्स संसयो । तनुमुदुसुकुमारादीसु पनस्स गुणेसु विचारणा एव नाहोसि ।
२८८. “तथारूप"न्ति इदं समासपदन्ति आह "तंरूप"न्ति । एत्थाति यथा अम्बट्ठो कोसोहितं वत्थगुय्हमद्दस्स, तथा इद्धाभिसङ्घारमभिसङ्खरणे । इमिना हि "तथारूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्घरी"तिआदिपाळिपरामसनं, अतो चेत्थ सह इद्धाभिसङ्खारनयेन वत्थगुय्हदस्सनकारणं मिलिन्दपञ्हापाठेन (मि० प० ३.३) विभावितं होति । केचि पन "वत्थगुय्हदस्सने''ति परामसन्ति, तदयुत्तमेव । न हि तं पाळियं, अट्ठकथायञ्च अत्थि, यं एवं परामसितब्बं सिया, इद्धाभिसङ्खारनयो च अविभावितो होति । किमेत्थ अज्ञेन वत्तब् चतुपटिसम्भिदापत्तेन छळभिजेन वादीवरेन भदन्तनागसेनत्थेरेन वुत्तनयेनेव सम्पटिच्छितब्बत्ता। हिरी करीयते एत्थाति हिरिकरणं, तदेव ओकासो तथा, हिरियितब्बट्टानं । उत्तरस्साति सुत्तनिपाते आगतस्स उत्तरमाणवस्स (म० नि० २.३८४)। सब्बेसम्पि चेतेसं वत्थु सुत्तनिपाततो गहेतब् ।
छायन्ति पटिबिम्बं । कथं दस्सेसि, कीदिसं वाति आह "इद्धिया''तिआदि । छायारूपकमत्तन्ति भगवतो पटिबिम्बरूपकमेव, न पकतिवत्थगुय्हं, तञ्च बुद्धसन्तानतो विनिमुत्तत्ता रूपकमत्तं भगवता सदिसवण्णसण्ठानावयवं इद्धिमयं बिम्बकमेव होति, एवञ्च कत्वा अप्पकत्थेन क-कारेन विसेसितवचनं उपपन्नं होति । छायारूपकमत्तं इद्धिया अभिसङ्खरित्वा दस्सेसीति सम्बन्धो । “तं पन दस्सेन्तो भगवा यथा अत्तनो बुद्धरूपं न दिस्सति, तथा कत्वा दस्सेती"ति (दी० नि० टी० १.२८८) आचरिया वदन्ति । तदेतं भदन्तनागसेनत्थेरेन वुत्तेन इद्धाभिसङ्खतछायारूपकमत्तदस्सनवचनेन संसन्दति चेव समेति च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
यथा तं " खीरेन खीरं, गङ्गोदकेन यमुनोदक "न्ति दट्ठब्बं । तथावचनेनेव हि सेसबुद्धरूपस्स तवणे अदस्सितभावो अत्थतो आपन्नो होति । निवासननिवत्थतादिवचनेन पनेत्थ बुद्धसन्तानतो विनिमुत्तस्सपि छायारूपकस्स निवासनादिअबहिगतभावो दस्सितो, न च चोदेतब्बं " कथं निवासनादि अन्तरगतं छायारूपकं भगवा दस्सेति कथञ्च अम्बट्टो पस्सती'ति । अचिन्तेय्यो हि इद्धिविसयोति । छायं दिट्ठेति छायाय दिट्ठाय । एतन्ति छायारूपकं । बुज्झनके सति जीवितनिमित्तम्पि हृदयमंसं दस्सेव्याति अधिप्पायो । निन्नेवा नीहरित्वा । अयमेव वा पाठो | कल्लोसीति विस्सज्जने त्वं कुसलो छेको असि यथावुत्तो वा विस्सज्जनामग्गो उपपन्नो युत्तो असीति अत्थो । “कुसलो "ति केचि पठन्ति, अयुत्तमेतं । मिलिन्दप हि सब्बथ विस्सज्जनावसाने " कल्लो" इच्चेव दिट्ठोति ।
निनामेत्वाति मुखतो नीहरणवसेन कण्णसोतादिअभिमुखं पणामेत्वा, अधिप्पायमेव दस्सेतुं “नीहरित्वा" ति वृत्तं । कथिनसूचिं वियाति घनसुखुमभावापादनेन कक्खळसूचिमिव कत्वा । तथाकरणेनाति कथिनसूचिं विय करणेन । एत्थाति पहूतजिव्हाय । मुदुभावो, दीघभावो, तनुभावो च दस्सितो अमुदुनो घनसुखुमभावापादनत्थमसक्कुणेय्यत्ताति आचरियेन (दी० नि० टी० १.२८८) वृत्तं । तत्रायमधिप्पायो - यस्मा मुदुमेव घनसुखुमभावापादनत्थं सक्कोति, तस्मा तथाकरणेन मुदुभावो दस्सितो अग्गि विय धूमेन । यस्मा च मुदुयेव घनसुखुमभावापज्जनेन दीघगामि, तस्मा कण्णसोतानुमसनेन दीघभावो दस्सितो। यस्मा पन मुदु एव घनसुखुमभावापज्जनेन तनु होति, तस्मा नासिकासोतानुमसनेन तनुभावो दस्सितोति । अपुथुलस्स तथापटिच्छादनत्थमसक्कुणेय्यत्ता नलाटच्छादनेन पुथुलभावो दस्सितो ।
२८९. पत्थेन्तो हुत्वा उदिक्खन्तोति योजेतब्बं ।
२९०. मूलवचनं कथा । पटिवचनं सल्लापो ।
२९१. “उद्धुमातक”न्तिआदीसु (सं० नि० ३.५.२४२; विसुद्धि० १.१०२) विय क-सद्दो जिगुच्छनत्थोति वुत्तं " तमेव जिगुच्छन्तो 'ति । तमेवाति पण्डितभावमेव, अम्बट्ठमेवातिपि अत्थो । अम्बदृहि सन्धाय एवमाह । तथा हि पाळियं वुत्तं “ एवं...पे..... अम्बट्टं माणवं एतदवोचा "ति । कामञ्च अम्बठ्ठ सन्धाय एवं वुत्तं, नामगोत्तवसेन पन अनियमं कत्वा गरहन्तो पुथुवचनेन वदतीति वेदितब्बं । “यदेव खो त्वन्ति एतस्स अनियमवचनस्स " एवरूपेना" ति इदं नियमवचनन्ति दस्सेति "यादिसो "ति आदिना ।
(२.३.२८९ - २९१)
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(२.३.२९२-३-६-२९८)
पोक्खरसातिबुद्धूपसङ्कमनवण्णना
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भावेनभावलक्खणे भुम्मवचनत्थे करणवचनन्ति वुत्तं "एदिसे अत्थचरके"ति । न अञत्राति न अञत्थ सुगतियं । एत्थ पन “अत्थचरकेना'ति इमिना ब्यतिरेकमुखेन अनत्थचरकतंयेव विभावेतीति दगुब्बं । “उपनेय्य उपनेय्या"ति इदं त्वाद्यन्तं विच्छावचनन्ति आह "ब्राह्मणो खो पना"तिआदि । एवं उपनेत्वा उपनेत्वाति तं तं दोसं उपनीय उपनीय । तेनाह "सुल दासादिभावं आरोपेत्वा"ति । पातेसीति पवट्टनवसेन पातेसि । यञ्च अगमासि, तम्पि अस्स तथागमनसङ्खातं ठानं अच्छिन्दित्वाति योजना ।
पोक्खरसातिबुद्धूपसङ्कमनवण्णना
२९२-३-६. कित्तको पन सोति वुत्तं “सम्मोदनीयकथायपि कालो नत्थी"ति । आगमा नूति आगतो नु । खोति निपातमत्तं । इधाति एत्थ, तुम्हाकं सन्तिकन्ति अत्थो । अधिवासेतूति सादियतु, तं पन सादियनं इध मनसाव सम्पटिग्गहो, न कायवाचाहीति आह "सम्पटिच्छतू"ति । अज्ज पवत्तमानं अज्जतनं, पुच, पीतिपामोज्जञ्च, इममत्थं दस्सेतुं “यं मे"तिआदि वुत्तं । कारन्ति उपकारं, सक्कारं वा । अचोपेत्वाति अचालेत्वा ।
२९७. "सहत्था"ति इदं करणत्थे निस्सक्कवचनं । तेनाह "सहत्थेनाति । सुहितन्ति धातं, जिघच्छादुक्खाभावेन वा सुखितं । यावदत्थन्ति याव अत्थो, ताव भोजनेन तदा कतं । पटिखेपपवारणावेत्थ अधिप्पेता, न निमन्तनपवारणाति आह "अल"न्तिआदि | "हत्थसञ्जाया"ति निदस्सनमत्तं अञत्थ मुखविकारेन, वचीभेदेन च पटिक्खेपस्स वुत्तत्ता, एकक्खणेपि च तथापटिक्खेपस्स लब्भनतो। ओनीता पत्ततो पाणि एतस्साति ओनीतपत्तपाणीति भिन्नाधिकरणविसयो तिपदो बाहिरत्थसमासो । मुद्धजण-कारेन, पन सञ्जोगत-कारेन च ओणित्तसद्दो विनाभूतेति दस्सेति "ओणित्तपत्तपाणिन्तिपि पाठो"तिआदिना । सुचिकरणत्थे वा ओणित्तसद्दो । ओणित्तं आमिसापनयनेन सुचिकतं पत्तं पाणि च अस्साति हि ओणित्तपत्तपाणि। तेनाह "हत्थे च पत्तञ्च धोवित्वा"ति । “ओणित्तं नानाभूतं विनाभूतं, आमिसापनयनेन वा सुचिकतं पत्तं पाणितो अस्साति ओणित्तपत्तपाणी''ति (सारत्थ० टी० १.२३) सारत्थदीपनियं वुत्तं । तत्थ पच्छिमवचनं "हत्थे च पत्तञ्च धोवित्वा''ति इमिना असंसन्दनतो विचारेतब्बं । एवंभूतन्ति “भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिन्ति वुत्तप्पकारेन भूतं ।
२९८. अनुपुब्बिं कथन्ति अनुपुब्बं कथेतब्बं कथं । तेनाह "अनुपटिपाटिकथ"न्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२९८-२९८)
का पन साति आह “दानानन्तरं सील"न्तिआदि, तेनायमत्थो बोधितो होति - दानकथा ताव पचुरजनेसुपि पवत्तिया सब्बसाधारणत्ता, सुकरत्ता, सीले पतिद्वानस्स उपायभावतो च आदितो कथेतब्बा। परिच्चागसीलो हि पुग्गलो परिग्गहवत्थूसु विनिस्सटभावतो सुखेनेव सीलानि समादियति, तत्थ च सुप्पतिट्ठितो होति, सीलेन दायकपटिग्गाहकसुद्धितो परानुग्गहं वत्वा परपीळानिवत्तिवचनतो, किरियधम्मं वत्वा अकिरियधम्मवचनतो, भोगसम्पत्तिहेतुं वत्वा भवसम्पत्तिहेतुवचनतो च दानकथानन्तरं सीलकथा कथेतब्बा। तञ्चे दानसीलं वट्टनिस्सितं, अयं भवसम्पत्ति तस्स फलन्ति दस्सनत्थं सीलकथानन्तरं सग्गकथा। ताय हि एवं दस्सितं होति "इमेहि दानसीलमयेहि, पणीतपणीततरादिभेदभिन्नेहि च पुञ्जकिरियवत्थूहि एता चातुमहाराजिकादीसु पणीतपणीततरादिभेदभिन्ना अपरिमेय्या दिब्बसम्पत्तियो लद्धब्बा''ति । स्वायं सग्गो रागादीहि उपक्किलिट्ठो, सब्बथा पन तेहि अनुपक्किलिट्ठो अरियमग्गोति दस्सनत्थं सग्गकथानन्तरं मग्गकथा। मग्गञ्च कथेन्तेन तदधिगमुपायदस्सनत्थं कामानं आदीनवो, ओकारो, संकिलेसो, नेक्खम्मे आनिसंसो च कथेतब्बो। सग्गपरियापन्नापि हि सब्बे कामा नाम बहादीनवा अनिच्चा अद्धवा विपरिणामधम्मा, पगेव इतरेति आदीनवो, सब्बेपि कामा हीना गम्मा पोथुज्जनिका अनरिया अनत्थसंहिताति लामकभावो ओकारो, सब्बेपि भवा किलेसानं वत्थुभूताति संकिलेसो, सब्बसंकिलेसविप्पयुत्तं निब्बानन्ति नेक्खम्मे आनिसंसो च कथेतब्बोति । अयम्पि अत्थो बोधितोति वेदितब्बो। मग्गोति हि एत्थ इति-सद्देन आद्यत्थेन कामादीनवादीनम्पि सङ्गहोति अयमत्थवण्णना कता । तेनाह "सेय्यथिदं - दानकथं सीलकथं सग्गकथं कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेती''ति । वित्थारो सारत्थदीपनियं (सारत्थ० टी० ३.२६) गहेतब्बो।
कसि-सद्दो जाणेन गहणेति आह "गहिता"तिआदि । सामंसदेन निवत्तेतब्बमत्थं दस्सेति “असाधारणा अओस"न्ति इमिना, लोकुत्तरधम्माधिगमे परूपदेसविगतत्ता, एकेनेव लोके पठमं अनुत्तराय सम्मासम्बोधिया अभिसम्बुद्धत्ता च अजेसमसाधारणाति वुत्तं होति | धम्मचक्खुन्ति एत्थ सोतापत्तिमग्गोव अधिप्पेतो, न ब्रह्मायुसुत्ते (म० नि० २.३८३ आदयो) विय हेट्ठिमा तयो मग्गा, न च चूळराहुलोवादसुत्ते (म० नि० ३.४१६) विय आसवक्खयो। “तस्स उप्पत्तिआकारदस्सनत्थ"न्ति कस्मा वुत्तं, ननु मग्गजाणं असतधम्मारम्मणमेव, न सङ्घतधम्मारम्मणन्ति चोदनं सोधेन्तो "तही"तिआदिमाह । किच्चवसेनाति असम्मोहपटिवेधकिच्चवसेन ।
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(२.३.२९९-२९९)
पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
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पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२९९. पाळियं “दिद्वधम्मो"तिआदीसु दस्सनं नाम आणतो अझम्पि चक्खादिदस्सनं अत्थीति तन्निवत्तनत्थं "पत्तधम्मो"ति वृत्तं । पत्ति च आणपत्तितो अपि कायगमनादिपत्ति विज्जतीति ततो विसेसदस्सनत्थं "विदितधम्मो"ति वुत्तं । सा पनेसा विदितधम्मता एकदेसतोपि होतीति निप्पदेसतो विदितधम्मतं दस्सेतुं “परियोगाळ्हधम्मो"ति वुत्तं, तेनस्स सच्चाभिसम्बोधमेव दीपेति। मग्गजाणहि एकाभिसमयवसेन परिञादिचतुकिच्चं साधेन्तं निप्पदेसेन चतुसच्चधम्मं समन्ततो ओगाळ्हं नाम होति । तेनाह "दिट्ठो अरियसच्चधम्मो एतेनाति दिट्ठधम्मो"ति । "कथं पन एकमेव आणं एकस्मिं खणे चत्तारि किच्चानि साधेन्तं पवत्तति । न हि तादिसं लोके दिढें, न आगमो वा तादिसो अत्थी''ति न वत्तब्बं । यथा हि पदीपो एकस्मिंयेव खणे वट्टि दहति, स्नेह परियादियति, अन्धकारं विधमति, आलोकञ्चापि दस्सेति, एवमेतं आणन्ति दट्ठब् । "मग्गसमङ्स्सि आणं दुक्खेपेतं आणं, दुक्खसमुदयेपेतं जाणं, दुक्खनिरोधेपेतं आणं, दुक्खनिरोधगामिनिया .. पटिपदायपेतं आणन्ति (विभं० ७९४) सुत्तपदम्पेत्थ उदाहरितब्बन्ति ।
___ तिण्णा विचिकिच्छाति सप्पटिभयकन्तारसदिसा सोळसवत्थुका, अट्ठवत्थुका च विचिकिच्छा अनेन वितिण्णा । विगता कथंकथाति पवत्तिआदीसु “एवं नु खो, न नु खो'ति एवं पवत्तिका कथंकथा अस्स विगता समुच्छिन्ना। विसारदभावं पत्तोति सारज्जकरानं पापधम्मानं पहीनत्ता, तप्पटिपक्खेसु च सीलादिगुणेसु सुप्पतिद्वितत्ता विसारदभावं वेय्यत्तियं पत्तो अधिगतो। सायं वेसारज्जप्पत्ति सुप्पतिहितता कत्थाति चोदनाय "सत्थुसासने''ति वुत्तन्ति दस्सेन्तो "कत्थ ? सत्थुसासने"ति आह । अत्तनाव पच्चक्खतो दिठ्ठत्ता, अधिगतत्ता च न अस्स पच्चयो पच्चेतब्बो परो अत्थीति अत्थो । तत्थाधिप्पायमाह"न परस्सा"तिआदिना । न वत्ततीति न पवत्तति, न पटिपज्जति वा, न परं पच्चेति पत्तियायतीति अपरप्पच्चयोतिपि युज्जति । यं पनेत्थ वत्तब्बम्पि अवुत्तं, तदेतं पुब्बे वुत्तत्ता, परतो वुच्चमानत्ता च अवुत्तन्ति वेदितब्बं ।
___ इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्जावेय्यत्तियजननाय अज्जवमद्दवसोरच्चसद्धासतिधितिबुद्धिखन्तिवीरियादिधम्मसमङ्गिना साट्ठकथे पिटकत्तये असङ्गासंहीरविसारदाणचारिना अनेकप्पभेदसकसमय
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.३.२९९-२९९)
समयन्तरगहनज्झोगाहिना महागणिना महावेय्याकरणेन आणाभिवंसधम्मसेनापतिनामत्थेरेन महाधम्मराजाधिराजगरुना कताय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया अम्बठ्ठसुत्तवण्णनाय लीनस्थपकासना ।
अम्बट्ठसुत्तवण्णना निहिता।
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४. सोणदण्डसुत्तवण्णना
३००. एवं अम्बठ्ठसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि सोणदण्डसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब् संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, अम्बट्टसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स सोणदण्डसुत्तभावं वा पकासेतुं "एवं मे सुतं...पे०... अङ्गेसूति सोणदण्डसुत्त"न्ति आह । सुन्दरभावेन सातिसयानि अङ्गानि एतेसमत्थीति अगा। तद्धितपच्चयस्स अतिसयविसिटे अत्थिताअत्थे पवत्तितो, पधानतो राजकुमारा, रुळ्हिवसेन पन जनपदोति वुत्तं “अङ्गा नामा"तिआदि । इधापि अधिप्पेता, न अम्बठ्ठसुत्ते एव । “तदा किरा"तिआदि तस्सा चारिकाय कारणवचनं । आगमने आदीनवं दस्सेत्वा पटिक्खिपनवसेन आगन्तुं न दस्सन्ति, नानुजानिस्सन्तीति अधिप्पायो ।
नीलासोककणिकारकोविळारकुन्दराजरुक्खादिसम्मिस्सताय तं चम्पकवनं नीलादिपञ्चवण्णकुसुमपटिमण्डितं, न चम्पकरुक्खान व नीलादिपञ्चवण्णकुसुमतायाति वदन्ति, तथारूपाय पन धातुया चम्पकरुक्खाव नीलादिपञ्चवण्णम्पि कुसुमं पुप्फन्ति । इदानिपि हि कत्थचि देसे दिस्सन्ति, एवञ्च यथारुतम्पि अट्ठकथावचनं उपपन्नं होति । कुसुमगन्धसुगन्धेति वुत्तनयेन सम्मिस्सकानं, सुद्धचम्पकानं वा कुसुमानं गन्धेहि सुगन्धे । एवं पन वदन्तो न मापनकालेयेव तस्मिं नगरे चम्पकरुक्खा उस्सन्ना, अथ खो अपरभागेपीति दस्सेति । मापनकाले हि चम्पकरुक्खानमुस्सन्नताय तं नगरं "चम्पा"ति नाम लभि । इस्सरत्ताति अधिपतिभावतो। सेना एतस्स अत्थीति सेनिको, स्वेव सेनियो। बहुभावविसिट्ठा चेत्थ अत्थिता तद्धितपच्चयेन जोतिताति वुत्तं "महतिया सेनाय समनागतत्ता"ति । सारसुवण्णसदिसतायाति उत्तमजातिसुवण्णसदिसताय । चूळदुक्खक्खन्धसुत्तट्ठकथायं पन एवं वुत्तं "सेनियो"ति तस्स नाम, बिम्बीति अत्तभावस्स नाम वुच्चति, सो तस्स सारभूतो दस्सनीयो पासादिको अत्तभावसमिद्धिया बिम्बिसारोति वुच्चती''ति (म० नि० अट्ठ० १.१८०)।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.४.३०१-२-३०३)
३०१-२. संहताति सन्निपतनवसेन सङ्घटिता, सन्निपतिताति वुत्तं होति । एकेकिस्साय दिसायाति एकेकाय पदेसभूताय दिसाय । पाळियं ब्राह्मणगहपतिकानमधिप्पेतत्ता "सचिनो''ति वत्तब्बे “सङ्घी''ति पुथुत्ते एकवचनं वुत्तन्ति दस्सेति “एतेस"न्ति इमिना | एवं आचरियेन (दी० नि० टी० १.३०१, ३०२) वुत्तं, सङ्घीति पन दीघवसेन बहुवचनम्पि दिस्सति । अगणाति असमूहभूता अगणबन्धा, “अगणना"तिपि पाठो, अयमेवत्थो, सङ्ख्यात्थस्स अयुत्तत्ता । न हि तेसं सङ्ख्या अत्थीति । इदं वुत्तं होति- पुब्बे अन्तोनगरे अगणापि पच्छा बहिनगरे गणं भूता पत्ताति गणीभूताति । अभूततब्भावे हि करासभूयोगे अ-कारस्स ई कारादेसो, ईपच्चयो वा । राजराजञादीनं दण्डधरो पुरिसोव ततो ततो खत्तियानं तायनतो रक्खणतो खत्ता निरुत्तिनयेन । सो हि यत्थ तेहि पेसितो, तत्थ तेसं दोसं परिहरन्तो युत्तपत्तवसेन पुच्छितमत्थं कथेति । तेनाह "पुच्छितपन्हे व्याकरणसमत्थो"ति । कुलापदेसादिना महती मत्ता पमाणमेतस्साति महामत्तो।
सोणदण्डगुणकथावण्णना
३०३. एकस्स रओ आणापवत्तिहानानि रज्जानि नाम, विसिट्ठानि रज्जानि विरज्जानि, तानेव वेरज्जानि, नानाविधानि वेरज्जानि तथा, तेसु जातातिआदिना तिधा तद्धितनिब्बचनं । विचित्रा हि तद्धितवुत्तीति । यानुभवनत्थन्ति यस्स कस्सचि यज्ञस्स अनुभवनत्थं । तेति नानावेरज्जका ब्राह्मणा। तस्साति सोणदण्डब्राह्मणस्स। उत्तमब्राह्मणोति अभिजनसम्पत्तिया, वित्तसम्पत्तिया, विज्जासम्पत्तिया च उग्गततरो, उळारो वा ब्राह्मणो । आवट्टनीमाया वुत्ताव । लाभमच्छेरेन निप्पीळितताय असनिपातो भविस्सति ।
अङ्गेति गमेति अत्तनो फलं आपेति, सयं वा अङ्गीयति गमीयति आयतीति अझं, हेतु। तेनाह "कारणेना''ति । लोकधम्मतानुस्सरणेन अपरानिपि कारणानि आहंसूति इस्सेन्तो "एव"न्तिआदिमाह।
दीहि पक्खेहीति मातुपक्खेन, पितुपक्खेन चाति द्वीहि आतिपक्खेहि । “उभतो सुजातो"ति हि एत्थकेयेव वुत्ते येहि केहिचि द्वीहि भागेहि सुजातत्तं विजानेय्य, पुजातसद्दो च "सुजातो चारुदस्सनो''तिआदीसु (म० नि० २.३९९) आरोहसम्पत्तिपरियायोपि होतीति जातिवसेनेव सुजातत्तं विभावेतुं “मातितो च पितितो या"ति वुत्तं । तेनाह “भोतो माता ब्राह्मणी"तिआदि | एवन्ति वुत्तप्पकारेन, मातुपक्खतो
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(२.४.३०३-३०३)
सोणदण्डगुणकथावण्णना
२४७
च पितुपक्खतो च पच्चेकं तिविधेन आतिपरिव नाति वुत्तं होति । “संसुद्धगहणिको''ति इमिनापि “मातितो च पितितो चा''ति वुत्तमेवत्थं समत्थेतीति आह "संसुद्धा ते मातुगहणी"ति, संसुद्धाव अनञ्जपुरिससाधारणाति अत्थो । अनोरसपुत्तवसेनापि हि लोके मातापितुसमञा दिस्सति, · इध पनस्स ओरसपुत्तवसेनेव इच्छिताति दस्सेतुं "संसुद्धगहणिको"ति वुत्तं। गब्भं गण्हाति धारेतीति गहणी, ततियावट्टसङ्घातो गब्भासयसञितो मातुकुच्छिपदेसो समवेपाकिनियाति समविपाचनिया । एत्थाति महासुदस्सनसुत्ते। यथाभुत्तमाहारं विपाचनवसेन गण्हाति न छड्डेतीति गहणी, कम्मजतेजोधातु, या “उदरग्गी"ति लोके पचायति ।
पितुपिताति पितुनो पिता। पितामहोति आमह पच्चयेन तद्धितसिद्धि । "चतुयुग"न्तिआदीसु विय तं तदत्थे युज्जितब्बतो कालविसेसो युगं नाम । एतं युगसद्देन आयुप्पमाणवचनं अभिलापमत्तं लोकवोहारवचनमत्तमेव, अधिप्पेतत्थतो पन पितामहोयेव पितामहयुगसद्देन वुत्तो तस्सेव पधानभावेन अधिप्पेतत्ताति अधिप्पायो। ततो उद्धन्ति पितामहतो उपरि । तेनाह "पुब्बपुरिसा"ति, तदवसेसा पुब्बका छ पुरिसाति अत्थो । पुरिसग्गहणञ्चेत्थ उक्कट्ठनिद्देसेन कतन्ति दट्ठब् । एवहि “मातितो"ति पाळिवचनं समत्थितं होति ।
तत्रायमठ्ठकथामुत्तकनयो- माता च पिता च पितरो, पितूनं पितरो पितामहा, तेसं युगो द्वन्दो पितामहयुगो, तस्मा, याव सत्तमा पितामहयुगा पितामहद्वन्दाति अत्थो वेदितब्बो, एवञ्च पितामहग्गहणेनेव मातामहोपि गहितो । युगसद्दो चेत्थ एकसेसो "युगो च युगो च युगो''ति, अतो तत्थ तत्थ आतिपरिवठू पितामहद्वन्दं गहितं होतीति ।
___ “याव सत्तमा पितामहयुगा"ति इदं काकापेक्खनमिव उभयत्थ सम्बन्धगतन्ति आह "एव"न्तिआदि । याव सत्तमो पुरिसो, ताव अक्खित्तो अनुपकुट्ठो जातिवादेनाति सम्बन्धो । अक्खित्तोति अप्पत्तखेपो । अनवक्खित्तोति सद्धथालिपाकादीसु न छड्डितो । न उपकुट्ठोति न उपक्कोसितो । “जातिवादेना"ति इदं हेतुम्हि करणवचनन्ति दस्सेतुं "केन कारणेना"तिआदि वुत्तं । इतिपीति इमिनापि कारणेन । एत्थ च "उभतो...पे०... युगा"ति एतेन ब्राह्मणस्स योनिदोसाभावो दस्सितो संसुद्धगहणिकभावकित्तनतो, “अक्खित्तो"ति एतेन किरियापराधाभावो । किरियापराधेन हि सत्ता खेपं पापुणन्ति । “अनुपकुट्ठो"ति एतेन अयुत्तसंसग्गाभावो । अयुत्तसंसग्गहि पटिच्च सत्ता अक्कोसं लभन्तीति |
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
इस्सरोति आधिपतेय्यसंवत्तनियकम्मबलेन ईसनसीलो, सा पनस्स इस्सरता विभवसम्पत्तिपच्चया पाकटा जाता, तस्मा अड्डभावपरियायेन दस्सेन्तो “अड्डोति इसरो "ति आह । महन्तं धनमस्स भूमिगतं, वेहासगतञ्चाति महद्धनो । तस्साति तस्स तस्स गुणस्स, अयमेव च पाठो अधुना दिस्सति । अगुणयेव दस्सेमाति अन्वयतो तस्स गुणं वत्वा ब्यतिरेकतो भगवतो अनुपसङ्कमनकारणं अगुणमेव दस्सेम |
उत्तमाय
अधिकरूपोति विसिट्ठरूपो उत्तमसरीरो । दस्सनं अरहतीति दस्सनीयोति आह " दस्सनयोग्गो "ति । पसादं आवहतीति पासादिको । तेनाह "पसादजननतो "ति । पोक्खरसद्दो इध सुन्दरत्थे, सरीरत्थे च निरुहो । वण्णस्साति वण्णधातुया । पकासनियेन परिसुद्धनिमित्तेन वण्णसद्दस्स वण्णधातुयं पवत्तनतो तन्निमित्तमेव वण्णता, सा च वण्णनिस्सिताति अभेदवसेन वुत्तं " उत्तमेन परिसुद्धेन वण्णेना "ति । सरीरं पन सन्निवेसविसिद्धं करचरणगीवासीसादिसमुदायं तञ्च अवयवभूतेन सण्ठाननिमित्तेन गय्हति, तस्मा तन्निमित्तमेव पोखरतात वृत्तं " सरीरसण्ठानसम्पत्तिया "ति, सरीरसण्ठानसम्पत्तियातिपि योजेतब्बं । अत्थवसा हि लिङ्गविभत्तिविपरिणामो । सब्बे वणेसु सुवण्णवण्णोव उत्तमोत आह " परिसुद्धवण्णेसुपि सेट्ठेन सुवण्णवण्णेन समन्नागतो”ति। तथा हि बुद्धा, चक्कवत्तिनो च सुवण्णवण्णाव होन्ति । यस्मा पन वच्छससद्दो सरीराभे पवत्तति, तस्मा ब्रह्मवच्छसीति उत्तमसरीराभो, सुवण्णाभो इच्चेव अत्थो । इममेव हि अत्थं सन्धाय " महाब्रह्मनो सरीरसदिसेनेव सरीरेन समन्नागतो 'ति वुत्तं, न ब्रह्मजुगत्ततं । ओकासोति सब्बङ्गपच्चङ्गट्ठानं । आरोहपरिणाहसम्पत्तिया, अवयवपारिपूरिया च दस्सनस्स ओकासो न खुद्दकोति अत्थो । तेनाह "सब्बानेवा "तिआदि ।
(२.४.३०३ - ३०३)
सीलन्ति यमनियमलक्खणं सीलं तं पनस्स रत्तञ्जताय वुद्धं वद्धितन्ति विसेसतो " बुद्धसीली "ति वृत्तं । वुद्धसीलेनाति सब्बदा सम्मायोगतो वुद्धेन धुवसीलेन । एवञ्च वा पदत्तयम्पेतं अधिप्पेतत्थतो विसिद्धं होति, सद्दत्थमत्तं पन सन्धाय " इदं वुद्धसीलीपदस्सेव वेवचन "न्ति वृत्तं । पञ्चसीलतो परं तत्थ सीलस्स अभावतो, तेसमजाननतो च" पञ्चसीलमत्तमेवा" ति आह ।
वाचाय परिमण्डलपदब्यञ्जनता एव सुन्दरभाव वृत्तं " सुन्दरा परिमण्डलपदब्यञ्जना'ति । ठानकरणसम्पत्तिया, सिक्खासम्पत्तिया च कस्सचिपि अनूनताय परिमण्डलपदानि ब्यञ्जनानि अक्खरानि एतिस्साति परिमण्डलपदब्यञ्जना । अक्खरमेव हि
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(२.४.३०३-३०३)
सोणदण्डगुणकथावण्णना
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तंतदत्थवाचकभावेन परिच्छिन्नं पदं । अथ वा पदमेव अत्थस्स ब्यञ्जकत्ता ब्यञ्जनं, सिथिलधनितादिअक्खरपारिपूरिया च पदब्यञ्जनस्स परिमण्डलता, परिमण्डलं पदब्यञ्जनमेतिस्साति तथा । अपिच पज्जति अत्थो एतेनाति पदं, नामादि, यथाधिप्पेतमत्थं ब्यञ्जतीति ब्यञ्जनं, वाक्यं, तेसं परिपुण्णताय परिमण्डलपदब्यञ्जना। अत्थविज्ञआपने साधनताय वाचाव करणं वाक्करणन्ति तुल्याधिकरणतं दस्सेतुं "उदाहरणघोसो"ति वुत्तं, वचीभेदसद्दोति अत्थो। तस्स ब्राह्मणस्स, तेन वा भासितब्बस्स अत्थस्स गुणपरिपुण्णभावेन पूरे गुणेहि परिपुण्णभावे भवाति पोरी। पुन पुरेति राजधानीमहानगरे । भवत्ताति संवड्डत्ता । सुखुमालत्तनेनाति सुखुमालभावेन, इमिना तस्सा वाचाय मुदुसण्हत्तमाह । अपलिबुद्धायाति पित्तसेम्हादीहि अपरियोनद्धाय, हेतुगब्भपदमेतं । ततो एव हि यथावुत्तदोसाभावोति । डंसेत्वा विय एकदेसकथनं सन्दिटुं, सणिकं चिरायित्वा कथनं विलम्बितं, “सन्निद्धविलम्बितादी"तिपि पाठो। सद्देन अजनकं वचिनं, मम्मकसङ्घातं वा एकक्खरमेव द्वत्तिक्खत्तुमुच्चारणं सन्निद्धं। आदिसद्देन दुक्खलितानुकड्डितादीनि सङ्गण्हाति । एळागळेनाति एळापग्घरणेन । “एळा गळन्तीति वुत्तस्सेव द्विधा अत्थं दस्सेतुं "लाला वा पग्घरन्ती"तिआदि वुत्तं । “पस्से'ळमूगं उरगं दुजिव्ह'"न्तिआदीसु (जा० १.७.४९) विय हि एळासद्दो लालाय, खेळे च पवत्तति । खेळफुसितानीति खेळबिन्दूनि ।
तत्रायमट्ठकथामुत्तकनयो- एलन्ति दोसो वुच्चति “या सा वाचा नेला कण्णसुखा"तिआदीसु (दी० नि० १.८, १९४) विय । दुप्पञ्जा च सदोसमेव कथं कथेन्ता एवं पग्घरापेन्ति, तस्मा तेसं वाचा एलगळा नाम होति, तब्बिपरीतायाति अत्थो । “आदिमज्झपरियोसानं पाकटं कत्वा"ति इमिना तस्सा वाचाय अत्थपारिपूरिं वदति । विज्ञापनसद्देन एतस्स सम्बन्धो ।
जराजिण्णताय जिण्णोति खण्डिच्चपालिच्चादिभावमापादितो। वुद्धिमरियादप्पत्तोति वुद्धिया परिच्छेदं परियन्तं पत्तो। जातिमहल्लकतायाति उपपत्तिया महल्लकभावेन । तेनाह "चिरकालप्पसुतो"ति । अद्धसद्दो अद्धानपरियायो दीघकालवाचको । कित्तको पन सोति आह "द्वे तयो राजपरिवठू"ति, द्विन्नं तिण्णं राजूनं रज्जपसासनपटिपाटियोति अत्थो । "अद्धगतो"ति वत्वापि कतं वयोगहणं ओसानवयापेक्खन्ति वुत्तं "पच्छिमवयं सम्पत्तो"ति। पच्छिमो ततियभागोति वस्ससतस्स तिधा कतेसु भागेसु ततियो ओसानभागो। पच्चेकं तेत्तिंसवस्सतो च अधिकमासपक्खादिपि विभजीयति, तस्मा सत्तसट्ठिमे वस्से यथारहं लब्भमानमासपक्खदिवसतो पट्ठाय पच्छिमवयो वेदितब्बो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका २
(२.४.३०४-३०४)
आचरियसारिपुत्तत्थेरेनपि हि इममेवत्थं सन्धाय “सत्तसद्विवस्सतो पट्ठाय पच्छिमवयो कोट्ठासो''ति (सारत्थ० टी० १.वेरञ्जकण्डवण्णना) वुत्तं । इतरथा हि “पच्छिमवयो नाम वस्ससतस्स पच्छिमो ततियभागो'ति अट्ठकथावचनेन विरोधो भवेय्याति ।
एवं केवलजातिवसेन पठमविकप्पं वत्वा गुणमिस्सकवसेनपि दुतियविकप्पं वदन्तेन "अपिचा"तिआदि आरद्धं । तत्थ नायं जिण्णता वयोमत्तेन, अथ खो कुलपरिवठून पुराणताति आह "जिण्णोति पोराणो"तिआदि । चिरकालप्पवत्तकुलन्वयोति चिरकालं पवत्तकुलपरिवट्टो, तेनास्स कुलवसेन उदितोदितभावमाह । “वयोअनुप्पत्तो''ति इमिना जातिवुद्धिया वक्खमानत्ता, गुणवुद्धिया च ततो सातिसयत्ता “बुद्धोति सीलाचारादिगुणवुद्धिया युत्तो"ति वुत्तं । वक्खमानं पति पारिसेसग्गहणज्हेतं । तथा जातिमहल्लकतायपि तेनेव पदेन वक्खमानत्ता, विभवमहत्तताय च अनवसेसितत्ता "महल्लकोति विभवमहन्तताय समनागतो"ति आह। मग्गपटिपत्रोति ब्राह्मणानं युत्तपटिपत्तिवीथिं अवोक्कम्म चरणवसेन उपगतोति अत्थं दस्सेति "ब्राह्मणान"न्तिआदिना । जातिवुद्धभावमनुप्पत्तो, तम्पि अन्तिमवयं पच्छिमवयमेव अनुप्पत्तोति साधिप्पाययोजना । इमिना हि पच्छिमवयवसेन जातिवुद्धभावं दस्सेतीति ।
बुद्धगुणकथावण्णना
३०४. तादिसेहि महानुभावेहि सद्धिं युगग्गाहवसेन ठपनाम्प न मादिसानं पण्डितजातीनमनुच्छविकं, कुतो पन उक्कंसवसेन ठपनन्ति इदं ब्राह्मणस्स न युत्तरूपन्ति दस्सेन्तो "न खो पन मेत"न्तिआदिमाह । तत्थ येपि गुणा अत्तनो गुणेहि सदिसा, तेपि गुणे उत्तरितरेयेव मञ्जमानो पकासेतीति सम्बन्धो । सदिसाति च एकदेसेन सदिसा । न हि बुद्धानं गुणेहि सब्बथा सदिसा केचिपि गुणा अजेसु लब्भन्ति । "को चाह"न्तिआदि उत्तरितराकारदस्सनं । अहञ्च कीदिसो नाम हुत्वा सदिसो भविस्सामि, समणस्स...पे०... गुणा च कीदिसा नाम हुत्वा सदिसा भविस्सन्तीति साधिप्पाययोजना । केचि नवं पाठं करोन्ति, अयमेव मूलपाठो यथा तं अम्बट्ठसुत्ते “को चाहं भो गोतम साचरियको, का च अनुत्तरा विज्जाचरणसम्पदा''ति । इतरेति अत्तनो गुणेहि असदिसे गुणे, “पकासेती"ति इमिनाव सम्बन्धो । एकन्तेनेवाति सदिसगुणानं विय पसङ्गाभावेन ।
एवं नियामेन्तो सोणदण्डो इदं अत्थजातं दीपेति। यथा हीति एत्थ हि-सद्दो कारणे ।
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(२.४.३०४-३०४)
तेनाह “ तस्मा मयमेव अरहामा 'ति । गोपदकन्ति गाविया खुरट्टाने ठितउदकं । गुणेति सदिसगुणेपि, पगेव असदिसगुणे ।
बुद्धगुणकथावण्णना
सद्विकुलसतसहस्सन्ति सद्विसहस्साधिकं कुलसतसहस्सं । धम्मपदट्ठकथादीसु (ध० प० अट्ठ० १६) पन कत्थचि भगवतो असीतिकुलसहस्सतावचनं एकेकपक्खमेव सन्धायाति वेदितब्बं ।
सुधामट्ठपोक्खरणियोति सुधाय परिकम्मकता पोक्खरणियो । सत्तरतनानन्ति सहि रतनेहि । पूरयोगे हि करणत्थे बहुलं छट्ठीवचनं । पासादनियूहादयोति उपरिपासादे ठिततुलासीसादयो । " सत्तरतनान "न्ति • अधिकारो, अभेदेपि भेदवोहारो एस । कुलपरियायेनाति सुद्धोदनमहाराजस्स् असम्भिन्नखत्तियकुलानुक्कमेन । तेसुपीति चतूसु निधीसुपि । गहितं हितं ठानं पूरतियेव धनेन पाकतिकमेव होति, न ऊनं ।
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भद्दकेनाति सुन्दरेन । पच्छिमवये वुत्तनयेन पठमवयो वेदितब्बो । मातापितूनं अनिच्छाय पब्बज्जाव अनादरो तेन युत्ते अत्थे सामिवचनन्ति वुत्तं होति । एतेसन्ति मातापितूनं । कन्दित्वाति " कहं पियपुत्तका "तिआदिना परिदेवित्वा ।
अपरिमाणोयेवाति " एत्तको एसो "ति केनचि परिच्छिन्दितुमसक्कुणेय्यताय अपरिच्छिन्नोयेव । द्वे वेळू अधोकटिमत्तकमेव होन्तीति आह “ द्विन्नं वेळूनं उपरि
मत्तमेवाति । पारमितानुभावेन ब्राह्मणस्स एव पञ्ञयति, भगवा पन तदा पकतिप्पमाणोवाति दस्सेतुं " पञ्ञायमानो" ति वृत्तमिव दिस्सति, वीमंसित्वा गहेतब्बं । “न ही ''तिआदिना पारमिताबलेनेव एवं अपरिमाणता, न इद्धिबलेनाति दस्सेती "ति वदन्ति । अतुलोति असदिसो । “धम्मपदे गाथमाहा "ति कत्थचि पाठो अयुत्तोव । न हि धम्मपदे अयं गाथा दिस्सति । सुधापिण्डियत्थेरापदानादीसु (अप० १.१०. सुधापिण्डियत्थेरापदान) पनायं गाथा आगता, सा च खो अञ्ञवत्थुस्मिं एव न इमस्मिं वत्थुम्हि तस्मा पाळिवसेन सङ्गीतिमनारुळ्हा पकिण्णकदेसनायेवायं गाथाति दट्ठब्बं ।
तत्थ ते तादिसेति परियायवचनमेतं "अप्पं वस्ससतं आयु, इदानेतरहि विज्जती"तिआदीसु (बु० वं० २७.२१) विय, "एतादिसे तिपि पठन्ति तदसुन्दरं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.४.३०४-३०४)
अपदानादीसु तथा अदिस्सनतो। किलेसपरिनिब्बानेन परिनिब्बुते कुतोचिपि अभये ते तादिसे पूजयतो एत्थ इदं पुञ्ज केनचि महानुभावेन अपि सङ्घातुं न सक्काति अत्थो ।
बाहन्तरन्ति द्विन्नं बाहूनमन्तरं । द्वादस योजनसतानीति द्वादसाधिकानि योजनसतानि । बहलन्तरेनाति समन्ता सरीरपरिणाहप्पमाणेन । पुथुलतोति वित्थारतो। अङ्गुलिपब्बानीति एकेकानि अङ्गुलिपब्बानि । भमुकन्तरन्ति द्विन्नं भमुकानमन्तरं । मुखं वित्थारतो द्वियोजनसतं परिमण्डलतो विसुं वुत्तत्ता । “एदिसो भगवा"ति या परेहि वुत्ता कथा, तस्सा अनुरूपन्ति यथाकथं, इमिना अजेहि वृत्तं भगवतो वण्णकथं सुत्वा ओलोकेतुकामताय आगतोति दस्सेति, यथाकथन्ति वा कीदिसं । “यथाकथं पन तुम्हे भिक्खवे समग्गा सम्मोदमाना अविवदमाना फासुकं वस्सं वसित्था''तिआदीसु (पारा० १९४) विय हि पुच्छायं एस निपातसमुदायो, एको वा निपातो ।
गन्धकुटिपरिवेणेति गन्धकुटिया परिवेणे, गन्धकुटितो बहि परिवेणब्भन्तरेति अत्थो । तत्थाति मञ्चके । “सीहसेय्यं कप्पेसी"ति यथा राहु असुरिन्दो आयामतो, वित्थारतो, उब्बेधतो च भगवतो रूपकायस्स परिच्छेदं गहेतुं न सक्कोति, तथा रूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्घरोन्तो सीहसेय्यं कप्पेसी''ति (दी० नि० टी० १.३०४) एवं आचरियेन वुत्तं, "तदेतं 'न मया असुरिन्द अधोमुखेन पारमियो पूरिता, उद्धग्गमेव कत्वा दानं दिन्न''न्ति अट्ठकथावचनेन अच्चन्तमेव विरुद्धं होति । एतहि गन्धकुटिद्वारविवरणादीसु विय पारमितानुभावसिद्धिदस्सनं, अञथा तदेव वचनं वत्तब्बं भवेय्या''ति वदन्ति, वीमंसित्वा सम्पटिच्छितब्बं । अधोमुखेनाति ओसक्कितवीरियतं सन्धाय वुत्तं, उद्धग्गमेवाति अनोसक्कितवीरियतं, उब्भकोटिकं कत्वाति अत्थो। तदा राहु उपासकभावं पटिवेदेसीति आह "तं दिवस"न्तिआदि ।
किलेसेहि आरकत्ता अरियं निरुत्तिनयेन, अतोयेव उत्तमता परिसुद्धताति वुत्तं "उत्तमं परिसुद्ध"न्ति । अनवज्जडेन कुसलं, न सुखविपाकटेन तस्स अरहतमसम्भवतो | कुसलसीलेनाति अनवज्जेनेव विद्धस्तसवासनकिलेसेन सीलेन। एवञ्च कत्वा पदचतुक्कम्पेतं अधिप्पेतत्थतो विसिटुं होति, सद्दत्थमत्तं पन सन्धाय "इदमस्स वेवचन"न्ति वुत्तं ।
कत्थचि चतुरासीतिपाणसहस्सानि, कत्थचि अपरिमाणापि देवमनुस्साति अत्थं सन्धाय
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(२.४.३०४ - ३०४ )
बुद्धगुणकथावण्णना
“भगवतो एकेकाय धम्मदेसनाया "ति आदिमाह । महासमयसुत्त ( दी० नि० २.३३१ आदयो) मङ्गलसुत्त- (खु० पा० ५.१ आदयो सु०नि० २६१ आदयो) -देसनादीसु हि चतुवीसतिया ठानेसु असङ्ख्येय्या अपरिमेय्या देवमनुस्सा मग्गफलामतं पिविंसु । कोटिसतसहस्सादिपरिमाणेनपि बहू एव, निदस्सनवसेन पनेवं वृत्तं । तस्मा अनुत्तरसिक्खापकभावेन भगवा बहू आचरियो, सं आचरियभूतानं सावकानमाचरियभावेन सावकवेनेय्यानं पाचरियो । भगवता हि दिन्ननये ठत्वा सावका वेनेय्यं विनेन्ति, तस्मा भगवाव तेसं पधानो आचरियोति ।
"ब्राह्मणो
वदन्तस्साधिप्पेतोव अत्थो पमाणं, न लक्खणहारादिविसयोति आह पना" तिआदि । " इमस्स वा पूतिकायस्सा "ति पाठावसाने पेय्यालं कत्वा "केलना पटिकेलना "ति वृत्तं । अयहि खुद्दकवत्थुविभङ्गपाळि (विभं० ८५४ ) " बाहिरानं वा परिक्खारानं मण्डना’तिआदि पेय्यालवसेन गय्हति । तत्थ इमस्स वा पूतिकायस्साति इमस्स वा मनुस्ससरीरस्स । यथा हि तदहुजातोपि सिङ्गालो " जरसिङ्गालो” त्वेव, ऊरुप्पमाणापि च गलोचिलता “पूतिलता " त्वेव सङ्घयं गच्छति, एवं सुवण्णवण्णोपि मनुस्ससरीरो "पूतिकायो” त्वेव, तस्स मण्डनाति अत्थो । केलनाति कीळना । “केलायना "तिपि पठन्ति । पटिकेलनाति पटिकीळना । चपलस्स भावो चापल्यं, चापल्लं वा, येन समन्नागतो पुग्गलो वस्ससतिकोपि समानो तदहुजातदारको विय होति, तस्सेदमधिवचनन्ति वेदितब्बं ।
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अपापे पुरे करोति, न वा पापं पुरे करोतीति अपापपुरेक्खारोति युत्तायुत्तसमासेन दुविधमत्थं दस्सेतुं “अपापे नवलोकुत्तरधम्मे'' तिआदि वृत्तं । अपापेति च पापपटिपक्खे, पापविरहिते वा । ब्रह्मनि सेट्टे भगवति भवा तस्स धम्मदेसनावसेन अरियाय जातिया जातत्ता, ब्रह्मनो वा भगवतो अपच्चं गरुकरणादिना, यथानुसिहं पटिपत्तिया च ब्रह्मं वा अरियमग्गं जानातीति ब्रह्मज्ञ, अरियसावकसङ्घाता पजा । तेनाह “सारिपुत्तमोग्गल्लाना ”ति आदि । ब्राह्मणपजायाति बहितपापपजाय । “अपापपुरेक्खारो” ति एत्थ " पुरेक्खारो "ति पदमधिकारोति दस्सेति " एतिस्साय च पजाय च - सद्दो समुच्चयत्थो " न केवलं अपापपुरेक्खारो एव, अथ खो सम्बन्धभूताय पुरेक्खारो 'ति । "अयही "तिआदि
पुरेक्खारो " ति इमिना । ब्रह्मज्ञाय च पजाय अधिप्पायमत्तदस्सनं ।
च
"ब्रह्मञ्ञाय
“अपापपुरेक्खारो "ति इदं पजाया" ति इमिनाव पच्चेकमत्थदीपकं, पकतिब्राह्मणजातिवसेनपि चेतस अत्थो “अपिचा ''तिआदिमाह । अयुत्तसमासो चायं । पापन्ति पापकम्मं, अहितं दुक्खन्ति अत्थो ।
सम्बन्धितब्बं, न वेदितब्बोति दस्सेन्तो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.४.३०४-३०४)
तस्स सम्बन्धिपेक्खत्ता कस्सा अपापपुरेक्खारोति पुच्छाय एवमाहाति दस्सेतुं “कस्सा'तिआदि वुत्तं। "अत्तना"तिआदि तदत्थविवरणं। ब्राह्मणपजायाति ब्राह्मणजातिपजाय ।
रञ्जन्ति अट्टं भजन्ति राजानो एतेनाति रटुं, एकस्स रञो रज्जभूतकासिकोसलादिमहाजनपदा । जना पज्जन्ति सुखजीविकं पापुणन्ति एत्थाति जनपदो, एकस्स रओ रज्जे एकेककोट्ठासभूता उत्तरपथदक्खिणपथादिखुद्दकजनपदा । तत्थाति तथा आगतेसु । पुच्छायाति अत्तना अभिसङ्घताय पुच्छाय । विस्सज्जनासम्पटिच्छनेति विस्सज्जनाय अत्तनो आणेन सम्पटिग्गहणे । केसञ्चि उपनिस्सयसम्पत्तिं, आणपरिपाकं, चित्ताचारञ्च अत्वा भगवाव पुच्छाय उस्साहं जनेत्वा विस्सज्जेतीति अधिप्पायो ।
"तत्थ कतमं साखल्यन्तिआदि निक्खेपकण्डपाळि (ध० स० १३५०) । अद्धानदरथन्ति दीघमग्गागमनपरिस्समं । अस्साति भगवतो, मुखपदुमन्ति सम्बन्धो । बालातपसम्फस्सनेनेवाति अभिनवुग्गतसूरियरंसिसम्फस्सनेन इव । तथा हि सूरियो “पद्मबन्धू'ति लोके पाकटो, चन्दो पन “कुमुदबन्धू''ति । पुण्णचन्दस्स सिरिया समाना सिरी एतस्साति पुण्णचन्दसस्सिरिकं। कथं निक्कुज्जितसदिसतात आह "सम्पत्ताया"तिआदि। एत्थ पन "एहि स्वागतवादी"ति इमिना सुखसम्भासपुब्बकं पियवादितं दस्सेति, "सखिलो"ति इमिना सहवाचतं, “सम्मोदको"ति इमिना पटिसन्धारकुसलतं, "अब्भाकुटिको"ति इमिना सब्बत्थेव विप्पसन्नमुखतं, “उत्तानमुखो"ति इमिना सुखसल्लापतं, "पुब्बभासी"ति इमिना धम्मानुग्गहस्स ओकासकरणेन हितज्झासयतं दस्सेतीति वेदितब्बं ।
यस्थ किराति एत्थ किर-सद्दो अरुचिसूचने -
"खणवत्थुपरित्तत्ता, आपाथं न वजन्ति ये । ते धम्मारम्मणा नाम, ये'सं रूपादयो किरा''ति ।। -
आदीसु (अभिधम्मावतार-अट्ठकथायं आरम्मणविभागे छट्ठअनुच्छेदे - ७७) विय, तेन भगवता अधिवुत्थपदेसे न देवतानुभावेन मनुस्सानं अनुपद्दवता, अथ खो बुद्धानुभावेनाति दस्सेति। बुद्धानुभावेनेव हि ता आरक्खं गण्हन्ति। पंसुपिसाचकादयोति
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(२.४.३०४-३०४)
बुद्धगुणकथावण्णना
पंसुनिस्सितपिसाचकादयो। आदिसद्देन भूतरक्खसादीनं गहणं । इदानि बुद्धानुभाव पाकटं कत्वा दस्सेतुं “अपिचा "तिआदि वृत्तं ।
"
अनुसासितब्बो सङ्घो नाम सब्बोपि वेनेय्यजनसमूहो । सयं उप्पादितो सङ्घो नाम निब्बत्तितअरियपुग्गलसमूहो । “तादिसो " ति इमिना “ सयं वा उप्पादितो 'ति वृत्तविकप्पो एव पच्चामट्ठो अनन्तरस्स विधि पटिसेधोवाति कत्वा, तस्मा “ पुरिमपदस्सेव वा विकप्पन्तरगहणन्ति आचरियेन ( दी० नि० टी० १.३०४) वृत्तं । तत्रायमधिप्पायो - कामं ‘“गणी”ति इदं ‘“सङ्घी’”ति पदस्सेव वेवचनं, अत्थमत्तं पन दस्सेतुं यथावुत्तविकप्पद्वये दुतियविकप्पमेव पच्चामसित्वा “तादिसोवस्स गणो अत्थी 'ति वुत्तत्ता अवि पठमविकप्पस्स सङ्ग्रहणत्थं " पुरिमपदस्सेव वा वेवचनमेत "न्ति वुत्तन्ति । एवम्पि वदन्ति - धम्मसेनापतित्थेरादीनं पच्चेकगणीनं गणं, सुत्तन्तिकादिगणं वा सन्धाय “तादिसो " ति आदि वृत्तं । तत्थापि हि सब्बोव भिक्खुगणो अनुसासितब्बो नाम, निब्बत्तितअरियगणो पन सयं उप्पादितो नाम, तस्मा "तादिसो " ति इमिना विकप्पद्वयस्सापि पच्चामसनं उपपन्नं होति । एवं पदद्वयस्स विसेसत्थतं दस्सेत्वा सब्बथा समानत्थतं दस्सेतुं “ पुरिमपदस्सेवा”तिआदि न्ति । पूरणमक्खलिआदीनं बहूनं तित्थकरानं, निद्धारणे चेतं सामिवचनं । अचेलकादिमत्तकेनपि कारणेनाति निच्चोळतादिमत्तकेनपि अप्पिच्छसन्तुट्ठतादिसमारोपनलक्खणेन कारणेन ।
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नवकाति अभिनवा । पाहुनकाति पहेणकं पटिग्गण्हितुमनुच्छविका, एतेन दुविधे आगन्तुकेसु पुरेतरमागतवसेन इध अतिथिनो, न भोजनवेलायमागतवसेन अब्भागात दस्सेति । परियापुणामीति परिच्छिन्दितुं जानामि, धात्वत्थमत्तं पन दस्सेतुं “जानामीति तं ।
कष्पम्पीति आयुकप्पम्पि, भणेय्य चेति सम्बन्धो । चिरं चिरकाले कप्पो खीयेथ, दीघमन्तरे दीघकालन्तरेपि तथागतस्स वण्णो न खीयेथाति योजना । “चिर "न्ति चेत्थ वत्तब्बे छन्दहानिभया रस्सत्थं निग्गहितलोपो, अतिदीघकालं वा सन्धाय " चिरदीघमन्तरे " ति वृत्तं, उभयत्थ सम्बन्धितब्बमेतं, किरियारहादियोगे विय च अन्तरयोगे अधिकक्खरपादो अनुपवज्जो, अयञ्च गाथा अभूतपरिकप्पनावसेन अट्ठकथासु (दी० नि० अट्ठ० १.३०४; ३.१४१; म० नि० अट्ठ० २.४२५; उदा० अट्ठ० ५३; बु० वं०
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.४.३०५-३११)
अट्ठ० ४.४; चरिया० पि० अठ्ठ० निदानकथा, पकिण्णककथा; अप० अट्ठ० २.७.२०) वुत्ता तथा भासमानस्स अभावतो ।
३०५. नन्ति आचरियं । अलं-सद्दो इध अरहत्थो “अलमेव निब्बिन्दितु"न्तिआदीसु (दी० नि० २.२७२; सं० नि० १.२.१३४, १४३) वियाति आह "युत्तमेवा"ति । पुटेन नेत्वा असितब्बतो परिभुजितब्बतो पुटोसं बुच्चति पाथेय्यं। इत्थम्भूतलक्खणे करणवचनं दस्सेति "तं गहेत्वा"ति इमिना। पाळियं पुटंसेनपि कुलपुत्तेनाति सम्बन्धं दस्सेतुं “तेन पुटंसेना''ति वुत्तं । “अंसेना"तिआदि अधिप्पायमत्तदस्सनं, वहन्तेन कुलपुत्तेन उपसङ्कमितुं अलमेवाति अत्थो ।
सोणदण्डपरिवितक्कवण्णना
३०६-७. न इध तिरो-सद्दो “तिरोकुड्डे वा तिरोपाकारे वा छड्डेय्य वा छड्डापेय्य वा''तिआदीसु (पाचि० ८२५) विय बहिअत्थोति आह "अन्तोवनसण्डे गतस्सा"ति । तत्थ विहारोपि वनसण्डपरियापन्नोति दस्सेति "विहारभन्तरं पविट्ठस्सा"ति इमिना । एते अञ्जलिं पणामेत्वा निसिन्ना मिच्छादिट्ठिवसेन उभतोपक्खिका, “इतरे पन सम्मादिट्ठिवसेन एकतोपक्खिका''ति अत्थतो आपन्नो होति । दलिद्दत्ता, आतिपारिजुञादिना जिण्णत्ता च नामगोत्तवसेन अपाकटा हुत्वा पाकटा भवितुकामा एवमकंसूति अधिप्पायो । केराटिकाति सठा । तत्थाति द्वीसु जनेसु । ततोति विस्सासतो, दानतो वा ।
ब्राह्मणपञत्तिवण्णना
३०९. अनोनतकायवसेन थद्धगत्तो, न मानवसेन । तेन पाळियं वक्खति "अब्भुन्नामेत्वा''ति । चेतोवितक्कं सन्धाय चित्तसीसेन “चित्तं अञासी"ति वुत्तं । विघातन्ति चित्तदुक्खं ।
३११. सकसमयेति ब्राह्मणलद्धियं । मीयमानोति मरियमानो । दिद्विसञ्जाननेनेवाति अत्तनो लद्धिसञ्जाननेनेव । सुजन्ति होमदब्,ि निब्बचनं वुत्तमेव । गण्हन्तेसूति जुहनत्थं गण्हनकेसु, इरुविज्जेसूति अत्थो। इरुवेदवसेन होमकरणतो हि यञयजका "इरुविज्जा'"ति वुच्चन्ति । पठमो वाति तत्थ सन्निपतितेसु सुजाकिरियायं सब्बपधानो वा ।
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(२.४.३१३-३१६)
ब्राह्मणपत्तिवण्णना
२५७
दुतियो वाति तदनन्तरिको वा। "सुज"न्ति इदं करणत्थे उपयोगवचनन्ति आह "सुजाया"ति । अग्गिहुत्तमुखताय यञस्स यछे दिय्यमानं सुजामुखेन दिय्यति । वुत्तञ्च “अग्गिहुत्तमुखा यज्ञा, सावित्ती छन्दसो मुख'"न्ति (म० नि० २.४००)। तस्मा “दिय्यमान''न्ति अयं पाठसेसो विज्ञायतीति आचरियेन (दी० नि० टी० १.३११) वुत्तं । अपिच सुजाय दिय्यमानं सुजन्ति तद्धितवसेन अत्थं दस्सेतुं एवमाह । पोराणाति अट्ठकथाचरिया । पुरिमवादे चेत्थ दानवसेन पठमो वा दुतियो वा, पच्छिमवादे आदानवसेनाति अयमेतेसं विसेसो । विसेसतोति विज्जाचरणविसेसतो, न ब्राह्मणेहि इच्छितविज्जाचरणमत्ततो। उत्तमब्राह्मणस्साति अनुत्तरदक्खिणेय्यताय उक्कट्ठब्राह्मणस्स । यथाधिप्पेतस्स हि विज्जाचरणविसेसदीपकस्स “कतमं पन तं ब्राह्मणसीलं, कतमा सा पा'"तिआदिवचनस्स ओकासकरणत्थमेव “इमेसं पन ब्राह्मण पञ्चन्नं अङ्गान''न्तिआदिवचनं भगवा अवोच, तस्मा पधानवचनानुरूपमनुसन्धिं दस्सेतुं "भगवा पना"तिआदि वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।।
३१३. अपवदतीति वण्णादीनि अपनेत्वा वदति, अत्थमत्तं पन दस्सेतुं "पटिक्खिपती"ति वुत्तं । इदन्ति “मा भवं सोणदण्डो एवं अवचा"तिआदिवचनं । ब्राह्मणसमयन्ति ब्राह्मणसिद्धन्तं । मा भिन्दीति मा विनासेसि ।
___३१६. समोयेव हुत्वा समोति समसमो, सब्बथा समोति अत्थो । परियायद्वयहि अतिसयत्थदीपकं यथा “दुक्खदुक्खं, रूपरूप"न्ति । एकदेसमत्ततो पन अङ्गकेन माणवेन तेसं समभावतो तं निवत्तेन्तो “उपेत्वा एकदेसमत्त"न्तिआदिमाह । कुलकोटिपरिदीपनन्ति कुलस्स आदिपरिदीपनं । यस्मा अत्तनो भगिनिया...पे०... न जानिस्सति, तस्मा न तस्स मातापितुमत्तं सन्धाय वदति, कुलकोटिपरिदीपनं पन सन्धाय वदतीति अधिप्पायो । "अत्थभजनक"न्ति इमिना कम्मपथपत्तं वदति । गुणेति यथावुत्ते पञ्चसीले । अथापि सियाति यदिपि तुम्हाकं एवं परिवितक्को सिया, भिन्नसीलस्सापि पुन पकतिसीले ठितस्स ब्राह्मणभाव वण्णादयो साधेन्तीति एवं सियाति अत्थो । “साधेती''ति पाठे “वण्णो'"ति कत्ता आचरियेन (दी० नि० टी० १.३१६) अज्झाहटो, निदस्सनञ्चेतं । मन्तजातीसुपि हि एसेव नयो । सीमेवाति पुन पकतिभूतं सीलमेव ब्राह्मणभावं साधेस्सति, कस्माति चे "तस्मिं हि...पे०... वण्णादयो"ति । तत्थ सम्मोहमत्तं वण्णादयोति वण्णमन्तजातियो ब्राह्मणभावस्स अङ्गन्ति सम्मोहमत्तमेतं, असमवेक्खित्वा कथितमिदं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.४.३१७-३१७)
सीलपञआकथावण्णना
३१७. कथितो ब्राह्मणेन पहोति “सीलवा च होती"तिआदिना द्विन्नमेव अङ्गानं वसेन यथापुच्छितो पञ्हो याथावतो विस्सज्जितो । एत्थाति यथाविस्सज्जिते अत्थे, अङ्गद्वये वा । तस्साति सोणदण्डस्स । यदि एकमङ्गं ठपेय्य, अथ पतिट्ठातुं न सक्कुणेय्य । यदि पन न ठपेय्य, अथ सक्कुणेय्य, किं पनेस तथा सक्खिस्सति नु खो, नोति वीमंसनत्थमेव एवमाह, न तु एकस्स अङ्गस्स ठपनीयत्ताति वुत्तं होति । तथा चाह "एवमेतं ब्राह्मणा"तिआदि । धोवितत्ताव परिसुज्झनन्ति आह "सीलपरिसुद्धा"ति, सीलसम्पत्तिया सब्बसो सुद्धा अनुपक्किलिट्ठाति अत्थो । कुतो दुस्सीले पञा असमाहितत्ता तस्स । कुतो वा पारहिते जळे एळमूगे सीलं सीलविभागस्स, सीलपरिसोधनूपायस्स च अजाननतो। एळा मुखे गळति यस्साति एळमूगो ख-कारस्स ग-कारं कत्वा, एलमुखो, एलमूको वा । इति बहुधा पाठोति भयभेरवसुत्तट्ठकथायं (म० नि० अट्ठ० १.४८) वुत्तो । पकट्ठ उक्कटुं जाणं पाणन्ति कत्वा पाकतिकं आणं निवत्तेतुं "पाण"न्ति वुत्तं । विपस्सनादित्राणज्हि इधाधिप्पेतं, तदेतं पकारेहि जाननतो पञ्जावाति आह "पञ्जायेवा"ति।
चतुपारिसुद्धिसीलेन धोताति समाधिपदट्ठानेन चतुपारिसुद्धिसीलेन सकलसंकिलेसमलविसुद्धिया धोविता विसुद्धा । तेनाह "कथं पना"तिआदि । तत्थ धोवतीति सुज्झति । सट्ठिअसीतिवस्सानीति सट्टिवस्सानि वा असीतिवस्सानि वा । मरणकालेपि, पगेव अञ्जस्मिं काले । महासट्ठिवस्सत्थेरो वियाति सहिवस्समहाथेरो विय । वेदनापरिग्गहमत्तम्पीति एत्थ वेदनापरिग्गहो नाम यथाउप्पन्नं वेदनं सभावसरसतो उपधारेत्वा पुन पदट्ठानतो “अयं वेदना फस्सं पटिच्च उप्पज्जति, सो च फस्सो अनिच्चो दुक्खो विपरिणामधम्मो"ति लक्खणत्तयं आरोपेत्वा पवत्तितविपस्सना । एवं पस्सन्तेन हि सुखेन सक्का सा वेदना अधिवासेतुं “वेदना एव वेदयती"ति । वेदनं विक्खम्भेत्वाति यथाउप्पन्नं दुक्खवेदनं अनुवत्तित्वा विपस्सनं आरभित्वा वीथिपटिपन्नाय विपस्सनाय तं विनोदेत्वा । संसुमारपतितेनाति कुम्भीलेन विय भूमियं उरेन निपज्जमानेन । “नाह"न्तिआदिं तथा सीलरक्खणमेव दुक्करन्ति कत्वा वदति । सीले पतिट्ठितस्स हि अरहत्तं हत्थगतंयेव । यथाह "सीले पतिट्ठाय...पे०... विजटये जट'"न्ति (सं० नि० १.१.२३, १९२; पेटको० २२; मि० प० २.९) चतूसु पुग्गलेसु उग्घाटित नो एवायं विसयोति आह "उग्घाटितञ्जताया"ति। पञ्जाय सीलं धोवित्वाति सीलं आदिमज्झपरियोसानेसु
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(२.४.३१८-३२१)
सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२५९
अखण्डादिभावापादनेन पञ्जाय सुविसोधितं कत्वा। सन्ततिमहामत्तवत्थु धम्मपदे (ध० प० अट्ठ० २.सन्तिमहामत्तवत्थु)।
३१८. “कस्मा आहा"ति उपरिदेसनाय कारणं पुच्छति । लज्जा नाम “सीलस्स च जातिया च गुणदोसप्पकासनेन समणेन गोतमेन पुच्छितपऽहं विस्सज्जेसी"ति परिसाय पञातता, सा तथा विस्सज्जितुमसमत्थताय भिज्जिस्सतीति अत्थो, पठमं अलज्जमानोपि इदानि लज्जिस्सामीति वुत्तं होति । परमन्ति पमाणं । “एत्तकपरमा मय"न्ति पदानं तुल्याधिकरणतं दस्सेतुं "ते मय"न्ति वुत्तं । इदं वुत्तं होति - “सीलपाण"न्ति वचनमेव अम्हाकं परमं, तदत्थभूतानि पञ्चसीलानि, वेदत्तयविभावनं पञञ्च लक्खणादितो निद्धारेत्वा जाननं नत्थि, केवलं तत्थ वचीपरमाव मयन्ति । अयं पनेत्थ अट्ठकथामुत्तकनयो- एत्तकपरमाति एत्तकउक्कंसकोटिका, पठमं पञ्हाविस्सज्जनाव अम्हाकं उक्कंसकोटीति अत्थो । तेनाह "मया सकसमयवसेन पहो विस्सज्जितो"ति । परन्ति अतिरेकं । भासितस्साति वचनस्स सद्दस्स |
अयं पन विसेसोति सीलनिद्देसे निय्यातनमत्तं अपेक्खित्वा वुत्तं । तेनाह "सीलमिच्चेव निय्यातित"न्ति । सामञफलसुत्ते (दी० नि० १.१५०) हि सीलं निय्यातेत्वापि पुन सामञफलमिच्चेव निय्यातितं। सब्बेसम्पि महग्गतचित्तानं आणसम्पयुत्तत्ता, झानानञ्च तं सम्पयोगतो "अत्थतो पासम्पदा"ति वुत्तं । पञ्ञानिद्देसे हि झानपञ्जं अधिट्टानं कत्वा पठमं विपस्सनापञ्जा निय्यातिता। तेनाह "विपस्सनापाया"तिआदि ।
सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना ३२१. दहरो युवाति एत्थ दहरवचनेन पठमयोब्बनभावं दस्सेति । पठमयोब्बनकालगतो हि "दहरो''ति वुच्चति । पुत्तस्स पुत्तो नत्ता नाम । नप्पहोतीति न सम्पज्जति, पुत्तनत्तप्पमाणोपि न होतीति अत्थो । “आसना मे तं वुढानन्ति एतस्स अत्थापत्तिं दस्सेतुं "मम अगारवेना"तिआदि वुत्तं । एतन्ति अञ्जलिपग्गहणं । अयहि यथा तथा अत्तनो महाजनस्स सम्भावनं उप्पादेत्वा कोह न परे विम्हापेत्वा लाभुप्पादनं निजिगीसन्तो विचरति, तस्मास्स अतिविय कुहकभावं दस्सेन्तो "इमिना किरा"तिआदिं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
वदति । अगारवं नाम नत्थीति अगारववचनं नाम नत्थि, नायं भगवति अगारवेन " अहञ्चेव खो पना'' तिआदिमाह, अथ खो अत्तनो लाभपरिहानिभयेनेवाति वृत्तं होति ।
३२२. तङ्खणानुरूपायाति यादिसी तदा तस्स अज्झासयप्पवत्ति, तदनुरूपायाति मज्झेपदलोपेन अत्थो । तदा तस्स विवसन्निस्सितस्स तादिसस्स ञाणपरिपाकस्स अभावतो केवलं अब्भुदयसन्निस्सितो एव अत्थो दस्सितोति आह “ दिट्ठधम्मिकसम्परायिकं अत्थं सन्दस्सेत्वा"ति, पच्चक्खतो विभावेत्वाति अत्थो । कुसले धम्मेति तेभूमके कुसलधम्मे, अयमेत्थ निप्परियायतो अत्थो । परियायतो पन " चतुभूमके "तिपि वत्तुं वट्टति लोकुत्तरकुसलस्सपि आयतिं लब्भमानत्ता । तथा हि वक्खति “आयतिं निब्बानत्थाय, वासनाभागियाय वा "ति । तत्थाति कुसले धम्मे यथासमादपिते । नन्ति सोणदण्डब्राह्मणं । समुत्तेजेत्वाति सम्मदेव उपरूपरि निसानेत्वा पुञ्ञकिरियाय तिक्खविसदभावमापादेत्वा । तं पन अत्थतो तत्थ उस्साहजननमेव होतीति आह " सउस्साहं कत्वा" ति । ताय च सउस्साहतायाति एवं पुञ्ञकिरियाय सउस्साहता नियमतो दिट्ठधम्मिकादिअत्थसम्पादनीति यथावत्ताय सउस्साहताय च सम्पहंसेत्वाति सम्बन्धो । अञ्ञेहि च विज्जमानगुणेहीति एवरूपा ते गुणसमङ्गिता च एकन्तेन दिट्ठधम्मिकादिअत्थनिप्फादनीति तस्मिं विज्जमानेहि, अञ्ञेहि च गुणेहि सम्पहंसेत्वा सम्मदेव हट्ठतुट्टभावमापादेत्वाति अत्थो ।
(२.४.३२२ -३२२)
यदि भगवा धम्मरतनवस्सं वस्सि, अथ कस्मा सो विसेसं नाधिगच्छीति चोदनं सोधेतुं " ब्राह्मणो पना "तिआदि वृत्तं । कुहकतायाति वृत्तनयेन कोहञ्ञकत्ता, इमिना पयोगसम्पत्तिअभावं दस्सेति । यज्जेवं कस्मा भगवा तस्स तथा धम्मरतनवस्सं वस्सीति पटिचोदनम्पि सोधेन्तो " केवलमस्सा" तिआदिमाह । तत्थ केवलन्ति निब्बेधासेक्खभागियेन असम्मिस्सं । निब्बानत्थायाति निब्बानाधिगमत्थाय, परिनिब्बानत्थाय वा । आयति विसेसाधिगमनूपायभूता पुञ्ञकिरियासु परिचयसङ्घाता वासना एव भागो, तस्मिं उपायभावेन पवत्ताति वासनाभागिया । न हि भगवतो निरत्थका चतुप्पदिकगाथात् धम्मदेसना अत्थि। तेनाह “सब्बा पुरिमपच्छिमकथा ''ति । आदितो चेत्थ पभुति याव ब्राह्मणस्स विस्सज्जनापरियोसानं, ताव पुरिमकथा, भगवतो पन सीलपञ्ञविस्सज्जना पच्छिमकथा । ब्राह्मणेन वुत्तापि हि बुद्धगुणादिपटिसज्ञत्ता कथा आयतिं निब्बानत्थाय वासनाभागिया एवाति। सेसं सुविञ्ञेय्यमेव ।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय
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(२.४.३२२-३२२)
सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदनाकथावण्णना
२६१
सुविमलविपुलपावेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया सोणदण्डसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
नाम
लीनत्थपकासनिया
सोणदण्डसुत्तवण्णना निहिता।
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५. कूटदन्तसुत्तवण्णना
३२३. एवं सोणदण्डसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि कूटदन्तसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, सोणदण्ड सुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स कूटदन्तसुत्तभावं वा पकासेतुं “ एवं मे सुतं ... पे०... मगधेसूति कूटदन्तसुत्त "न्ति आह । " मगधा नाम जनपदिनो राजकुमारा" तिआदीसु अम्बट्टसुत्ते कोसलजनपदवण्णनायं अम्हेहि वुत्तनयो यथारहं नेतब्बो । अयं पनेत्थ विसेसो- मगेन सद्धिं धावन्तीति मगधा, राजकुमारा, मंसेसु वा गिज्झन्तीति मगधा निरुत्तिनयेन । रुळ्हितो, पच्चयलोपतो च सं निवासभूतेपि जनपदे वुद्धि न होतीति नेरुत्तिका । जनपदनामेयेव बहुवचनं, न जनपदसद्दे जातिसद्दत्ताति वृत्तं " तस्मिं मगधेसु जनपदे" ति । इतो परन्ति " मगधेसू ति पदतो परं "चारिकं चरमानो 'तिआदिवचनं । पुरिमसुत्तद्वयेति अम्बट्ठसोणदण्डसुत्तद्वये । वृत्तनयमेवाति यं तत्थ आगतसदिसं इधागतं, तं अत्थवण्णनातो वुत्तनयमेव तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बन्ति वुत्तं होति । "तरुणो अम्बरुक्खो अम्बलट्ठिका"ति ब्रह्मजालसुत्तवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १. २) वुत्तत्ता “अम्बलठ्ठिका ब्रह्मजाले वुत्तसदिसावा" ति आह ।
यज्ञवाटं सम्पादेत्वा महायज्ञ उद्दिस्स सविञ्ञणकानि, अविञ्ञाणकानि च यञ्जूपकरणानि उपट्ठपितानीति अत्थं सन्धाय " महायज्ञ उपक्खटो" ति पाळियं वृत्तं तं पतं उपकरणं तेसं तथा सज्जनमेवाति दस्सेति “सज्जितो "ति इमिना । वच्छतरसतानीति युवभावप्पत्तानि बलववच्छसतानि । वच्छानं विसेसाति हि वच्छतरा, ते पन वच्छा एव होन्ति, न दम्मा, न च बलीबद्दाति आह “वच्छसतानी" ति । अयं आचरियमति (दी० नि० टी० १.३२३) । तर - सद्दो वा अनत्थकोति वृत्तं "वच्छसतानी "ति । एवहि सब्बोपि वच्छप्पभेदो सङ्गहितो होति । एतेति उसभादयो उरब्भपरियोसाना । अनेकेसन्ति अनेकजातिकानं । मिगपक्खीनन्ति
महिंसरुरुपसदकुरुङ्गगोकण्णमिगानञ्चेव
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(२.५.३२८-३३६)
महाविजितराजयञ्ञकथावण्णना
मोरकपिञ्जरवट्टकतित्तिर लापादिपक्खीनञ्च । सङ्ख्यावसेन अनेकतं सत्तसतग्गहणेन परिच्छिन्दितुं “सत्तसत्तसतानी' 'ति वुत्तं, सत्तसतानि, सत्तसतानि चाति अत्थो । थूणन्ति यञ्ञोपकरणानं मिगपक्खीनं बन्धनत्थम्भं । यूपोतिपि तस्स नामं । तेनाह "यूपसङ्घात"न्ति ।
३२८. विधाति विप्पटिसारविनोदना । यो हि यज्ञसङ्घातस्स पुञ्ञस्स उपक्किलेसो, तस्स विधमनतो निवारणतो निरोधनतो विधा वुच्चन्ति विप्पटिसारविनोदना, ता एव पुञ्ञाभिसन्दं अविच्छिन्दित्वा ठपेन्तीति “ ठपना " ति च वृत्ता । अविप्पटिसारतो एव हि उपरूपरि पुञ्ञाभिसन्दप्पवत्तीति । ठपना चेता यञ्ञस्स आदिमज्झपरियोसानवसेन तीसु काले पवत्तिया तिप्पकाराति आह " तिट्ठपन "न्ति । परिक्खारसद्दो चेत्थ परिवारपरियायो “परिकरोन्ति यञ्ञ अभिसङ्घरोन्ती "ति कत्वा । तेनाह “सोळसपरिवार "न्ति ।
महाविजितराजयञ्ञकथावण्णना
३३६. पुब्बे भूतं भूतपुब्बं यथा “ दिट्ठपुब्ब "न्ति आह “ पुब्बचरित "न्ति, अत्तनो पुरिमजातिसम्भूतं बोधिसम्भारभूतं पुञ्ञचरियन्ति अत्थो । तथा हि तस्स अनुगामिनिधिस्स थावरनिधिना निदस्सनं उपपन्नं होति । सद्दविदू पन वदन्ति “भूतपुब्बन्ति इदं कालसत्तमिया नेपातिकपद "न्ति । अतीतकालेति हि तेसं मतेन अत्थो । अस्साति अनेन । महन्तं पथवीमण्डलं विजितन्ति सम्बन्धो । महन्तं वा विजितं पथवीमण्डलमस्स अत्थीति अत्थो । “अन्तोरट्ठेति यस्स विजिते विहरति, तस्स रट्ठे "तिआदीसु विय हि विजितसद्दो रज्जे पवत्तति, इमिना तस्स एकराजभावं दीपेति, न चक्कवत्तिराजभावं सत्तरतनसम्पन्नता अवचनतो । पाळियं न येन केनचि सन्तकमत्तेन अड्डताति दस्सेतुं “अड्डो "ति वत्वा “महद्धनो " ति वृत्तं । तेनाह “यो कोची "तिआदि । अड्डता हि नाम विभवसम्पन्नत्ता सा च तं तदुपादाय वुच्चति । तथा महद्धनतापीति तं थामप्पत्तं उक्कंसगतं दस्सेतुं “अपरिमाणसङ्घयेना "ति आह । भुञ्जितब्बट्ठेन विसेसतो कामा इध भोगा नामाति दस्सेति । " पञ्चकामगुणवसेना' 'ति इमिना । पिण्डपिण्डवसेनाति भाजनालङ्कारादिविभागं अहुत्वा केवलं खण्डखण्डवसेन ।
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रूपं अप्पेत्वा, अनप्पेत्वा वा मासप्पमाणेन कतो मासको । आदिसद्देन थालकादीनि सङ्गहाति । अनेककोटिसङ्घयेनाति कहापणानं कोटिसतादिप्पमाणं सन्धाय वृत्तं ट्ठमन्तेन कोटिसतप्पमाणेनेव खत्तियमहासालभावप्पत्तितो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३३६-३३६)
तुट्ठीति सुमनता। उपकरणसद्दो चेत्थ कारणपरियायो। किं पन तन्ति आह "नानाविधालङ्कारसुवण्णरजतभाजनादिभेद"न्ति । आदिसद्देन वत्थसेय्यावसथादीनि सङ्गय्हन्ति, सुवण्णरजतमणिमुत्तावेळुरियवजिरपवाळानि सत्त रतनानीति वदन्ति । यथाहु -
“सुवण्णं रजतं मुत्ता, मणिवेळुरियानि च । वजिरञ्च पवाळन्ति, सत्ताहु रतनानिमे''ति ।।
सालिवीहिआदि सत्तधनं सानुलोमं पुब्बन्नं नाम पुरेक्खतं सस्सफलन्ति कत्वा | तब्बिपरियायतो मुग्गमासादि तदवसेसं अपरनं नाम । अपरन्नतो पुब्बे पवत्तमन्नं पुब्बन, ततो अपरस्मिं पवत्तमन्नं अपरन्नं । न-कारस्स पन ण्ण-कारे कते पुब्बण्णं, अपरण्णञ्चाति नेरुत्तिका । पुब्बापरभावो पनेतेसं आदिकप्पे सम्भवासम्भववसेन वेदितब्बो । पुरिमं “अड्डो महद्धनो पहूतजातरूपरजतो''ति वचनं देवसिकं परिब्बयदानगहणादिवसेन, परिवत्तनधनधञवसेन च वुत्तं, इदं पन “पहूतधनधो "ति वचनं निधानगतधनवसेन, सङ्गहितधञवसेन चाति इमं विसेसं सन्धाय अयं नयो दस्सितो । वीसकहापणम्बणादिदेवसिकवळञ्जनम्पि हि महासाललक्खणं ।
__इदानि तब्बिपरीतवसेन विसेसं दस्सेतुं “अथ वा"तिआदिना दुतियनयो आरद्धो । इमिना एव हि पुरिमवचनं निधानगतधनवसेन, सङ्गहितधञवसेन च वुत्तन्ति अत्थतो सिद्धं होति । तत्थ इदन्ति “पहूतधनधो ''ति वचनं । अस्साति महाविजितरञो। दिवसे दिवसे परिभुजितब्बं देवसिकं, भावनपुंसकमेतं । दासकम्मकरपोरिसादीनं वेत्तनानुप्पदानं परिब्बयदानं । इणसोधनादिवसेन धनधानमादानं गहणं। आदिसद्देन इणदानादीनं सङ्गहो । परिवत्तनधनधज्ञवसेनाति कयविक्कयकरणेन परिवत्तितब्बानं धनधानं वसेन । कत्थचि पन समुच्चयविरहितपाठो दिस्सति । तत्थ “परिब्बयदानग्गहणादिवसेना''ति इदं परिवत्तनपदेन सम्बन्धं कत्वा तादिसेन विधिना इतो चितो च परिवत्तेतब्बानं धनधानं वसेनाति अत्थो वेदितब्बो।
कोठें वुच्चति धअट्ठपनट्ठानं, तदेव अगारं तथा । तेनाह "ध न परिपुण्णकोट्ठागारो"ति । एवं सारगब्भं कोसो, धजठ्ठपनट्ठानं कोट्ठागारन्ति दस्सेत्वा इदानि ततो अञथापि तं दस्सेतुं “अथ वा"तिआदि वुत्तं । तत्थ यथा असिनो तिक्खभावपरिहारतो परिच्छदो “कोसो''ति वुच्चति, एवं रञो तिक्खभावपरिहारकत्ता
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(२.५.३३७-३३८)
महाविजितराजयञकथावण्णना
२६५
चतुरङ्गिनी सेना "कोसो'ति आह "चतुब्बिधो कोसो"तिआदि। "द्वादसपुरिसो हत्थी''तिआदिना (पाचि० ३१४) वुत्तलक्खणेन चेत्थ हथिआदयो गहेतब्बा । वत्थकोट्ठागारग्गहणेनेव सब्बस्सपि कुप्पभण्डठ्ठपनट्ठानस्स गहितत्ता "कोट्ठागारं तिविध"न्तिआदि वुत्तं । जातरूपरजततो हि अञ्चं लोहअयदारुविसाणवत्थादिकमसारदब्बं गोपेतब्बतो ग-कारस्स क-कारं कत्वा कुष्पं वुच्चति । जातरूपरजतनिधानं धनकोडागारं। तत्थ तत्थ रतनं विलोकेत्वा चरणं रतनविलोकनचारिका। कामं तमत्थं राजा जानाति, भण्डागारिकेन पन कथापेत्वा परिसाय निस्सद्दभावापादनत्थमेव एवं पुच्छति । तथा कथापने हि असति परिसा सदं करिस्सति “कस्मा राजा परम्परागतं कुलधनं विनासेती"ति, ततो च पकतिक्खोभो भविस्सति, सति पन तथा कथापने “एतंकारणा तं छड्डेती"ति निस्सद्दभावमापज्जिस्सति । ततो च पकतिक्खोभो न भविस्सति, तस्मा तथा पुच्छतीति वेदितब् । मरणवसन्ति मरणस्स, मरणसङ्खातं वा विसयं ।
३३७. पाळियं “आमन्तेत्वा''ति एतस्स मन्तितुकामो हुत्वाति अत्थं विज्ञापेतुं "एकेन पण्डितेन सद्धि मन्तेत्वा"ति वुत्तं । धात्वत्थानुवत्तको हेत्थ उपसग्गो, पकरणाधिगतो च कत्थचि अत्थविसेसो यथा “सिक्खमानेन भिक्खवे भिक्खुना अातब्बं परिपुच्छितब्बं परिपन्हितब्बन्ति (पाचि० ४३४)। तथा हिस्स पदभाजने वुत्तं “सिक्खमानेनाति सिक्खितुकामेन । अञातब्बन्ति जानितब्ब"न्तिआदि (पाचि० ४३६)। आमन्तेसीति मन्तितुकामोसि | जनपदस्स अनुपद्दवत्थं, यअस्स च चिरानप्पवत्तनत्थं ब्राह्मणो चिन्तेसीति आह "अयं राजा"तिआदि । आहरन्तानं मनुस्सानं गेहानीति सम्बन्धो, अनादरे वा एतं सामिवचनं ।
३३८. सत्तानं हितसुखस्स विदूसनतो, अहितदुक्खस्स च आवहनतो कण्टकसदिसताय चोरा एव इध "कण्टका"ति वुत्तं "चोरकण्टकेहि सकण्टको"ति । यथा गामवासीनं घातका गामघातका अभेदवसेन, उपचारेन च निस्सयनामस्स निस्सितेपि पवत्तनतो, एवं पन्थिकानं दुहना बाधना पन्थदुहा। धम्मतो अपेतस्स अयुत्तस्स करणसीलो अधम्मकारी, यो वा अत्तनो विजिते जनपदादीनं ततो ततो अनत्थतो तायनेन खत्तियेन कत्तब्बधम्मो. तस्स अकरणसीलोति अत्थो । दस्सति चोरानमेतं अधिवचनं । दंसेन्ति विद्धंसेन्तीति हि दस्सवो निग्गहीतलोपेन, ते एव खीलसदिसत्ता खीलन्ति दस्सुखीलं। यथा हि खेत्ते खीलं कसनादीनं सुखप्पवत्तिं, मूलसन्तानेन सस्सपरिबुद्धिञ्च विबन्धति, एवं दस्सवोपि रज्जे राजाणाय सुखप्पवत्तिं, मूलविरुळ्हिया जनपदपरिबुद्धिञ्च विबन्धन्ती ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३३८-३३८)
पाणचागं दस्सेतुं "मारणेना"ति वुत्तं, हिंसनं दस्सेतुं “कोट्टनेना'ति । वधसद्दो हि हिंसनत्थोपि होति “वधति न रोदति, आपत्ति दुक्कटस्सा"तिआदीसु (पाचि० ८८०) विय, कप्परादीहि पोथनेनाति अत्थो । अदु नाम दारुक्खन्धेन कतो बन्धनोपकरणविसेसो, तेन बन्धनं तथा । आदिसद्देन रज्जुबन्धनसङ्खलिकबन्धनघरबन्धनादीनि सङ्गण्हाति । हा-धातुया जानिपदनिप्फत्तिं दस्सेति “हानिया"ति इमिना, सा च धनहायनमेवाति वुत्तं “सतं गण्हथा"तिआदि।
पञ्चसिखमत्तं ठपेत्वा मुण्डापनं पञ्चसिखमुण्डकरणं। तं "काकपक्खकरण"न्तिपि वोहरन्ति । सीसे छकणोदकावसेचनं गोमयसिञ्चनं। कुदण्डको नाम चतुहत्थतो ऊनो रस्सदण्डको, यो “गद्दुलो''तिपि वुच्चति, तेन बन्धनं कुदण्डकबन्धनं। आदिसद्देन खुरमुण्डं करित्वा भस्मपुटवधनादीनं सङ्गहो। सम्मासदो आयत्थोति आह "हेतुना"तिआदि, परियायवचनमेतं । ऊहनिस्सामीति उद्धरिस्सामि, अपनेस्सामीति अत्थो। पुब्बे तत्थ कतपरिचयताय उस्साहं करोन्ति। "अनुप्पदेतू"ति एतस्स अनु अनु पदेतूति अत्थं सन्धाय "दिने अप्पहोन्ते"तिआदि वुत्तं । कसिउपकरणभण्डं फालपाजनयुगनङ्गलादि, इमिना पाळियं बीजभत्तमेव निदस्सनवसेन वुत्तन्ति दस्सेति | सक्खिकरणपण्णारोपननिबन्धनं वड्डिया सह वा विना वा पुन गहेतुकामस्स दाने होति, इध पन तदुभयम्पि नत्थि पुन अग्गहेतुकामत्ताति वुत्तं "सक्खिं अकत्वा"तिआदि। तेनाह “मूलच्छेज्जवसेना"ति । सखिन्ति तदा पच्चक्खकजनं । पण्णे अनारोपेत्वाति तालादिपण्णे यथाचिण्णं लिखनवसेन अनारोपेत्वा । अञत्थ पण्णाकारेपि पाभतसद्दो, इध पन भण्डमूलेयेवाति आह "भण्डमूलस्सा"तिआदि । भण्डमूलन्हि पकारतो उदयभण्डानि आभरति संहरति एतेनाति पाभतं। उदयधनतो पगेव आभतं पाभतन्ति सद्दविदू, पण्णाकारो पन तं तदत्थं पत्थेन्तेहि आभरीयतेति पाभतं । पत्थनत्थजोतको हि अयं प-सद्दो ।
"यथाहा"तिआदिना पाभतसद्दस्स मूलभण्डत्थतं चूळसेट्ठिजातकपाठेन (जा० १.१.४) साधेति । तत्रायमट्ठकथा (जा० अट्ठ० १.१.४) "अप्पकेनपीति थोकेनपि परित्तकेनपि । मेधावीति पञवा। पाभतेनाति भण्डमूलेन | विचक्खणोति वोहारकुसलो । समुट्ठापेति अत्तानन्ति महन्तं धनञ्च यसञ्च उप्पादेत्वा तत्थ अत्तानं सण्ठापेति पतिट्ठापेति । यथा किं ? अणुं अग्गिंव सन्धमं, यथा पण्डितपुरिसो परित्तं अग्गिं अनुक्कमेन गोमयचुण्णादीनि पक्खिपित्वा मुखवातेन धमन्तो समुट्ठापेति वड्डेति महन्तं अग्गिक्खन्धं करोति, एवमेव पण्डितो थोकम्पि पाभतं लभित्वा नानाउपायेहि पयोजत्वा धनञ्च यसञ्च वड्डेति, वड्वेत्वा
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(२.५.३३९ - ३३९)
चतुपरिक्खारवण्णना
च पन तत्थ अत्तानं पतिट्ठापेति, ताय एव वा पन धनयसमहन्तताय अत्तानं समुट्ठापेति, अभिज्ञातं पाकटं करोतीति अत्थो "ति ।
दिवसे दिवसे दातब्बं देवसिकं । मासे मासे दातब्बं मासिकं । आदिसद्देन अनुपोसथिकादीनि सङ्गण्हाति । तस्स तस्स पुरिसस्स । कुसलानुरूपेन, कम्मानुरूपेन सूरभावानुरूपेनाति द्वन्दतो परं सुय्यमानो अनुरूपसद्दी पच्चेकं योजेतब्बो । छेकभावानुरूपता चेत्थ कुसलानुरूपं । कत्थचि कुलसद्दो दिस्सति, सो च जाणुसोणिआदिकुलानमिव कुलानुरूपम्पि दातब्बतो युज्जतेव । सेनापच्चादि ठानन्तरं, इमिना भत्तवेतनं निमित्तन्ति दस्सेति । सककम्मपसुतत्ता, अनुपद्दवत्ता च धनधानं रासिको रासिकारभूतो । खेमेन ठिताति अनुपद्दवेन पवत्ता तेनाह “अभया "ति, कुतोचिपि भयरहिताति अत्थो । मोदा मोदमानाति मोदाय मोदमाना, सोमनस्सेनेव मोदमाना, न संसन्दनमत्तेनाति वुत्तं होति । “भगवता सद्धिं सम्मोदी' 'तिआदीसु ( दी० नि० १.३८१ ) हि मुदसद्दो संसन्दनेपि पवत्तति, अञ्ञे मोदा हुत्वा अपरेपि मोदमाना विहरन्तीति वा अत्थो | तेनाह “अञ्ञम पमुदितचित्ताति, असञ्जोगेपि वत्तिच्छायेव वुद्धीति द्विधा पाठो वुत्तो । इद्धफीतभावन्ति समिद्धवेपुल्लभावं ।
चतुपरिक्खारवण्णना
३३९. तस्मिं तस्मिं किच्चे अनुयन्ति अनुवत्तन्तीति अनुयन्ता । तेयेव आनुयन्ता यथा " अनुभावो एव आनुभावो 'ति, “आनुयुत्ता तिपि पाठो, तस्मिं तस्मिं किच्चे अनुयुज्जन्तीति हि आनुयुक्त्ता वुत्तनयेन । अस्साति रञ्ञो । तेति आनुयन्तखत्तियादयो । " अम्हे एत्थ बहि करोतीति अत्तमना न भविस्सन्ति । " निबन्धविपुलायागमो गामो निगमो। विवड्ढितमहाआयो महागामो 'ति ( दी० नि० टी० १.३३८) आचरियेन वृत्तं । “अपाकारपरिक्खेपो सापणो निगमो, सपाकारापणं नगरं तं तब्बिपरीतो गामो 'ति (कङ्खावितरणी अभिनवटीकायं सङ्घादिसेसकण्डे कुलदूसकसिक्खापदे पस्सितब्बं) विनयटीकासु । सन्ति मदन्ति एत्थाति गामो, स्वेव पाकटो चे, निगमो नाम अतिरेको गामोति कत्वा । भुसत्थो हेत्थ नी - सद्दो, सञ्ञसद्दत्ता च रस्सोति सद्दविदू । जनपद वुत्तोव । “साम्यामच्चो सखा कोसो, दुग्गञ्च विजितं बल "न्ति वुत्तासु सत्त राजपकतीसु रञ्ञो तदवसेसानं छन्नं वसेन हितसुखातिबुद्धि, तदेकदेसा आनुयन्तादयोति आह “यं तुम्हाक "न्तिआदि ।
च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३४०-३४०)
तंतंकिच्चेसु रञा अमा सह भवन्तीति अमच्चा। “अमावासी"तिआदीसु विय हि समकिरियाय अमाति अब्ययपदं, च-पच्चयेन तद्धितसिद्धीति नेरुत्तिका | रज्जकिच्चवोसासनकाले पन ते रञा पिया, सहपवत्तनका च भवन्तीति दस्सेति "पियसहायका"ति इमिना । रो परिसति भवा "पारिसज्जा। के पन तेति वुत्तं "सेसा आणत्तिकारका"ति, यथावृत्तानुयुत्तखत्तियादीहि अवसेसा रञो आणाकराति अत्थो । सतिपि देय्यधम्मे आनुभावसम्पत्तिया, परिवारसम्पत्तिया च अभावे तादिसं दातुं न सक्का । वुद्धकाले च तादिसानम्पि राजूनं तदुभयं हायतेव, देय्यधम्मे पन असति पगेवाति दस्सेतुं "देय्यधम्मस्मिव्ही"तिआदिमाह । देय्यधम्मस्मिं असति च महल्लककाले च दातुं न सक्काति योजना। एतेनाति यथावुत्तकारणद्वयेन | अनुमतियाति अनुजाननेन । पक्खाति सपक्खा यञस्स अङ्गभूता। यजं परिकरोन्तीति परिक्खारा, सम्भारा, ते च तस्स यञस्स अङ्गभूतत्ता परिवारा विय होन्तीति आह "परिवारा भवन्ती"ति । "रथो"तिआदिना इधानधिप्पेतमत्थं निसेधेति ।
"रथो सेतपरिक्खारो, झानक्खो चक्कवीरियो । उपेक्खा धुरसमाधि, अनिच्छा परिवारण''न्ति ।। (सं० नि० ३.५.४)
हि संयुत्तमहावग्गपाळि। तत्थ रथोति ब्रह्मयानसञितो अट्ठङ्गिकमग्गरथो । सेतपरिक्खारोति चतुपारिसुद्धिसीलालङ्कारो । “सीलपरिक्खारो''तिपि पाठो। झानक्खोति विपस्सनासम्पयुत्तानं पञ्चन्नं झानङ्गानं वसेन झानमयअक्खो । चक्कवीरियोति वीरियचक्को । उपेक्खा धुरसमाधीति उपेक्खा द्विन्नं धुरानं समता । अनिच्छा परिवारणन्ति अलोभो सीहधम्मादीनि विय परिवारणं ।
अट्ठपरिक्खारवण्णना ३४०. उभतो सुजातादीहि वुच्चमानेहि । यससाति पञ्चविधेन आनुभावेन । तेनाह "आणाठपनसमत्थताया"ति। "सद्धो"ति एतस्स “दातादानस्स फलं पच्चनुभोति पत्तियायती"ति अत्थं दस्सेतुं “दानस्सा"तिआदि वुत्तं । दाने सूरोति दानसूरो, देय्यधम्मे ईसकम्पि सङ्गं अकत्वा मुत्तचागो, तब्भावो पन कम्मस्सकताञाणस्स तिक्खविसदभावेन वेदितब्बो। तस्स हि तिक्खविसदभावं विभावेतुं “सद्दो"ति वत्वा “दानसूरो"ति वुत्तन्ति दट्ठब्बं । तेनाह "न सद्धामत्तकेना"तिआदि । यस्स हि कम्मस्सकता पच्चक्खमिव उपट्टाति,
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(२.५.३४०-३४०)
अट्ठपरिक्खारवण्णना
२६९
सो एवं वुत्तो। यं दानं देतीति यं देय्यधम्मं परस्स देति । तस्स पति हुत्वाति तब्बिसयं लोभं सुद्रुमभिभवन्तो तस्स अधिपति हुत्वा देति । कारणोपचारवचनव्हेतं । परतोपि एसेव नयो । तब्बिसयेन लोभेन अनाकड्डनीयत्ता न दासो, न सहायो।
तदेवत्थं ब्यतिरेकतो, अन्वयतो च विवरित्वा दस्सेन्तो “यो ही"तिआदिमाह | इधानधिप्पेतस्स हि दासादिद्वयस्स ब्यतिरेकतो दस्सनं । खादनीयभोजनीयादीसु मधुरस्सेव पणीतत्ता "मधुरं भुजती"ति वुत्तं, निदस्सनमत्तं वा एतं, पणीतं परिभुञ्जतीति वुत्तं होति । दासो हुत्वा देति तण्हाय दासब्यतं उपगतत्ता। सहायो हुत्वा देति तस्स पियभावानिस्सज्जनतो । सामी हुत्वा देति तत्थ तण्हादासब्यतो अत्तानं मोचेत्वा अभिभुय्य पवत्तनतो। यं पनेतं आचरियेन वुत्तं “सामिपरिभोगसदिसा'"ति, (दी० नि० टी० १.३४०) तं तण्हादासब्यमतिक्कन्ततासामनं सन्धाय वत्तं । न हि खीणासवस्स परिभोगो सामिपरिभोगो विय खीणासवस्सेव दानं दानसामीति अत्थो उपपन्नो होति, पच्छा वा पमादलिखितमेतं । तादिसोति दानसामिसभावो ।
समितपापसमणबाहितपापब्राह्मणा
उक्कठ्ठनिद्देसेनेत्थ
वुत्ता, पब्बज्जामत्तसमणजातिमत्तब्राह्मणा वा कपणादिग्गहणेन गहिताति वेदितब्बं । दुग्गताति दुक्करं जीविकमुपगता कसिरवुत्तिका । तेनाह "दलिद्दमनुस्सा"ति। पथाविनोति मग्गगामिनो । वणिब्बकाति दायकानं गुणकित्तनवसेन, कम्मफलकित्तनमुखेन च याचनका सेय्यथापि नग्गचरियादयोति अत्थं दस्सेतुं "ये इटुं दिन"न्तिआदि वुत्तं । तदुभयेनेव हि दानस्स वण्णथोमना सम्भवति । ये विचरन्ति, ते वणिब्बका नामाति योजेतब्बं । पसतमत्तन्ति वीहितण्डुलादिवसेन वुत्तं, सरावमत्तन्ति यागुभत्तादिवसेन । ओपानं वुच्चति
ओगाहेत्वा पातब्बतो नदीतळाकादीनं सब्बसाधारणं तित्थं, ओपानमिवभूतोति ओपानभूतो। तेनाह "उदपानभूतो"तिआदि। हुत्वाति भावतो। सुतमेव सुतजातन्ति जातसद्दस्स अनत्थन्तरवाचकत्तमाह यथा “कोसजात''न्ति ।
अतीतादिअत्थचिन्तनसमत्थता नाम तस्स रञो अनुमानवसेन, इतिकत्तब्बतावसेन च वेदितब्बा, न बुद्धानं विय तत्थ पच्चक्खदस्सितायाति दस्सेतुं “अतीते"तिआदि वुत्तं । पुञापुञानिसंसचिन्तनञ्चेत्थ पकरणाधिगतवसेन वेदितब्बं । पुनस्साति यज्ञपुञस्स । दायकचित्तम्पीति दायकानं, दायकं वा चित्तम्पि, दातुकम्यताचित्तम्पीति वुत्तं होति । इमेसु पन अट्नस् अङ्गेस अड्डतादयो पञ्च यञस्स ताव परिक्खारा होन्तु तेहि विना तस्स
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२७०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३४१-३४२)
असिज्झनतो, सुजातता, पन सूरूपता च कथं यञस्स परिक्खारो सिया तदुभयेन विनापि तस्स सिज्झनतोति चोदनाय सब्बेसम्पि अठ्ठन्नमङ्गानं परिक्खारभावं अन्वयतो, ब्यतिरेकतो च दस्सेन्तो “एते हि किरा"तिआदिमाह । एत्थ च केचि एवं वदन्ति “यथा अड्डतादयो पञ्च यञस्स एकंसतोव अङ्गानि, न एवं सुजातता, सुरूपता च, तदुभयं पन अनेकंसतोव अङ्गन्ति दीपेतुं अरुचिसूचकस्स किरसद्दस्स गहणं कतन्ति । ते हि "अयं दुज्जातोतिआदिवचनस्स अनेकंसिकतं मञ्जमाना तथा वदन्ति, तयिदं असारं । सब्बसाधारणवसेन हेतं ब्यतिरेकतो यास्स अङ्गभावदस्सनं तत्थ सिया केसञ्चि तथा परिवितक्को''ति तस्सापि अवकासाभावदस्सनत्थमेव एवं वुत्तत्ता, तदुभयसाधारणवसेनेव अनेकंसतो अङ्गभावस्स अदस्सनतो च। किरसद्दो पनेत्थ तदा ब्राह्मणस्स चिन्तिताकारसूचनत्थो दट्ठब्बो । एवमनेन चिन्तेत्वा “इमानिपि अट्ठङ्गानि तस्सेव यञस्स परिक्खारा भवन्तीति वुत्तानी"ति किरसद्देन तस्स चिन्तिताकारो सूचितो होति । एवमादीनीति एत्थ आदिसद्देन “अयं विरूपो कित्तकं...पे०... उपच्छिन्दिस्सति, अयं दलिद्दो, अप्पेसक्खो, अस्सद्धो, अप्पस्सुतो, न अत्थञ्जू, न मेधावी कित्तकं...पे०... उपच्छिन्दिस्सती''ति एतेसं सङ्गहो वेदितब्बो ।
चतुपरिक्खारादिवण्णना ३४१. “सुजं पग्गण्हन्तान"न्ति एत्थ सोणदण्डसुत्तवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.३११-३१३) वुत्तेसु द्वीसु विकप्पेसु दुतियविकप्पं निसेधेन्तो "महायाग"न्तिआदिमाह, तेन च पुरोहितस्स सयमेव कटच्छुग्गहणजोतनेन एवं सहत्था सक्कच्चं दाने युत्तपयुत्तता इच्छितब्बाति दस्सेति । एवं दुजातस्साति एत्थापि "सुजातताय अनेकंसतो अङ्गभावदस्सनमेविद"न्ति अग्गहेत्वा हेट्ठा वुत्तनयेन सब्बसाधारणवसेनेव अत्थो गहेतब्बो । आदिसद्देन हि “एवं अनज्झायकस्स...पे०... दुस्सीलस्स...पे०... दुप्पास्स संविधानेन पवत्तदानं कित्तकं कालं पवत्तिस्सती"ति एतेसं सङ्गहो दट्टब्बो । तस्माति तदुभयकारणतो ।
तिस्सोविधावण्णना ३४२. तिण्णं ठानानन्ति दानस्स आदिमज्झपरियोसानसङ्घातानं तिस्सन्नं भूमीनं, अवत्थानानन्ति अत्थो। चलन्तीति कम्पन्ति पुरिमाकारेन न तिट्ठन्ति । करणत्थेति ततियाविभत्तिअन्थे । करणीयसहापेक्वाय हि कत्तरि एव एतं सामिवचनं. न करणे ।
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(२.५.३४२-३४२)
तिस्सोविधावण्णना
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येभुय्येन हि करणजोतकवचनस्स अत्थभावतो अनुत्तकत्ताव करणत्योति इधाधिप्पेतो। पच्छानुतापस्स अकरणूपायं दस्सेतुं "पुब्ब...पे०... पतिट्ठपेतब्बा"ति वुत्तं । तत्थ अचलाति दळहा केनचि असंहीरा । पतिट्ठपेतब्बाति सुप्पतिट्ठिता कातब्बा। तथा पतिठ्ठापनूपायम्पि दस्सेन्तो "एवज्ही"तिआदिमाहः। तथा पतिट्ठापनेन हि यथा तं दानं सम्पति यथाधिप्पायं निप्पज्जति, एवं आयतिम्पि विपुलफलताय महप्फलं होति विप्पटिसारेन अनुपक्किलिट्ठभावतो। द्वीसु ठानेसूति यजमानयिट्ठट्ठानेसु । विप्पटिसारो...पे०... न कत्तब्बोति अत्थं सन्धाय "एसेव नयो"ति वुत्तं । मुञ्चचेतनाति परिच्चागचेतना, तस्सा निच्चलभावो नाम मुत्तचागता पुब्बाभिसङ्खारवसेन उळारभावो। पच्छासमनुस्सरणचेतनाति परचेतना, तस्सा पन निच्चलभावो “अहो मया दानं दिन्नं साधु सुटू"ति दानस्स सक्कच्चं पच्चवेक्षणवसेन वेदितब्बो। तदुभयचेतनानं निच्चलकरणूपायं ब्यतिरेकतो दस्सेतुं "तथा...पे०... होती"ति वुत्तं । तत्थ तथा अकरोन्तस्साति मुञ्चचेतनं, पच्छासमनुस्सरणचेतनञ्च निच्चलमकरोन्तस्स, विप्पटिसारं, उप्पादेन्तस्साति वुत्तं होति । "नापि उळारेसु भोगेसु चित्तं नमती"ति इदं पन पच्छासमनुस्सरणचेतनाय एव ब्यतिरेकतो निच्चलकरणूपायदस्सनं । एवहि यथानिद्दिट्टनिदस्सनं उपपन्नं होति । तत्थ उळारेसु भोगेसूति
खेत्तविसेसे परिच्चागस्स कतत्ता लढेसुपि उळारेसु भोगेसु । नापि चित्तं नमति पच्छा विप्पटिसारेन उपक्किलिट्ठभावतो। यथा कथन्ति आह "महारोरुव"न्तिआदि । तस्स हि सेट्ठिस्स गहपतिनो वत्थु कोसलसंयुत्ते, (सं० नि० १.१.१३१) मय्हकजातके (जा० अट्ठ० ३.६.मय्हकजातकवण्णना) च आगतं । तथा हि वुत्तं -
"भूतपुब्बं सो महाराज सेट्टि गहपति तगरसिखि नाम पच्चेकसम्बुद्धं पिण्डपातेन पटिपादेसि, 'देथ समणस्स पिण्डपात'न्ति वत्वा उठायासना पक्कामि, दत्वा च पन पच्छा विप्पटिसारी अहोसि “वरमेतं पिण्डपातं दासा वा कम्मकरा वा भुजेय्यु'"न्तिआदि ।
सो किर अञसुपि दिवसेसु तं पच्चेकबुद्धं पस्सति, दातुं पनस्स चित्तं न उप्पज्जति, तस्मिं पन दिवसे अयं पदुमवतिया देविया ततियपुत्तो तगरसिखी पच्चेकबुद्धो गन्धमादनपब्बते फलसमापत्तिसुखेन वीतिनामेत्वा पुब्बण्हसमये वुठ्ठाय अनोतत्तदहे मुखं धोवित्वा मनोसिलातले निवासेत्वा कायबन्धनं बन्धित्वा पत्तचीवरमादाय अभिज्ञापादकं झानं समापज्जित्वा इद्धिया वेहासं अब्भुग्गन्त्वा नगरद्वारे ओरुय्ह चीवरं पारुपित्वा पत्तमादाय नगरवासीनं घरद्वारेसु सहस्सभण्डिकं ठपेन्तो विय पासादिकेहि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३४२-३४२)
अभिक्कमनादीहि अनुपुब्बेन सेट्ठिनो घरद्वारं सम्पत्तो, तं दिवसञ्च सेट्ठि पातोव उट्ठाय पणीतं भोजनं भुजित्वा घरद्वारको?के आसनं पञपेत्वा दन्तन्तरानि सोधेन्तो निसिन्नो होति । सो पच्चेकबुद्धं दिस्वा तं दिवसं पातोव भुत्वा निसिन्नत्ता दानचित्तं उप्पादेत्वा भरियं पक्कोसापेत्वा “इमस्स समणस्स पिण्डपातं देही"ति वत्वा राजुपट्ठानत्थं पक्कामि । सेट्ठिभरिया सम्पजञजातिका चिन्तेसि “मया एत्तकेन कालेन इमस्स 'देथा ति वचनं न सुतपुब्बं, दापेन्तोपि च अज्ज न यस्स वा तस्स वा दापेति, वीतरागदोसमोहस्स वन्तकिलेसस्स ओहितभारस्स पच्चेकबुद्धस्स दापेति, यं वा तं वा अदत्वा पणीतं पिण्डपातं दस्सामी''ति घरा निक्खम्म पच्चेकबुद्धं पञ्चपतिहितेन वन्दित्वा पत्तं आदाय अन्तोनिवेसने पञ्चत्तासने निसीदापेत्वा सुपरिसुद्धेहि सालितण्डुलेहि भत्तं सम्पादेत्वा तदनुरूपं खादनीयं, ब्यञ्जनं, सूपेय्यञ्च अभिसङ्खरित्वा पत्तं पूरेत्वा बहि गन्धेहि अलङ्करित्वा पच्चेकबुद्धस्स हत्थेसु पतिट्टपेत्वा वन्दि। पच्चेकबुद्धो “अञसम्पि पच्चेकबुद्धानं सङ्गहं करिस्सामी"ति अपरिभुञ्जित्वाव अनुमोदनं वत्वा पक्कामि । सोपि खो सेट्ठि राजुपट्टानं कत्वा आगच्छन्तो पच्चेकबुद्धं दिस्वा आह "मयं तुम्हाकं पिण्डपातं देथा''ति वत्वा पक्कन्ता, अपि वो लद्धो पिण्डपातो"ति ? आम, सेट्टि लद्धोति । “पस्सामा''ति गीवं उक्खिपित्वा ओलोकेसि, अथस्स पिण्डपातगन्धो उट्ठहित्वा नासपुटं पहरि। सो चित्तं संयमेतुं असक्कोन्तो पच्छा विप्पटिसारी अहोसि, तस्स पन विप्पटिसारस्स उप्पन्नाकारो “वरमेत"न्तिआदिना पाळियं वुत्तोयेव । पिण्डपातदानेन पनेस सत्तक्खत्तुं सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नो, सत्तक्खत्तुमेव च सावत्थियं सेट्टिकुले निब्बत्तो, अयञ्चस्स सत्तमो भवो, पच्छा विप्पटिसारेन पन नापि उळारेसु भोगेसु चित्तं नमति । वुत्तज्हेतं संयुत्तवरलञ्छके
"यं खो सो महाराज सेट्ठि गहपति दत्वा पच्छा विप्पटिसारी अहोसि वरमेतं पिण्डपातं दासा वा कम्मकरा वा भुजेय्युन्ति, तस्स कम्मस्स विपाकेन पास्सुळाराय भत्तभोगाय चित्तं नमति, नास्सुळाराय वत्थभोगाय, यानभोगाय स्सुळारानं पञ्चन्नं कामगुणानं भोगाय चित्तं नमती''ति (सं० नि० १.१.१३१)
यहकजातकेपि वुत्तं
'इति महाराज आगन्तुकसेट्टि तगरसिखिपच्चेकबुद्धस्स दिन्नपच्चयेन बहुं धन
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(२.५.३४३-३४४)
दसआकारवण्णना
२७३
लभि, दत्वा अपरचेतनं पणीतं कातुं असमत्थताय पणीते भोगे भुजितुं नासक्खी "ति (जा० अट्ट० ३.६.मरहकजातकवण्णना)।
भातु पनेस एकं पुत्तं (ध० प० अट्ठ० २.३५४) सापतेय्यस्स कारणा जीवितं वोरोपेसि, तेन कम्मेन बहूनि वस्सानि निरये पच्चित्थ, सत्तक्खत्तुञ्च अपुत्तको जातो, इदानिपि तेनेव कम्मेन महारोरुवं उपपन्नो । तेन वुत्तं "महारोरुवं उपपन्नस्स सेविगहपतिनो विया"ति, पुरिमपच्छिमचेतनावसेन चेत्थ अत्थो वेदितब्बो । एका हि चेतना द्वे पटिसन्धियो न देतीति ।
दसआकारवण्णना
३४३. आकरोति अत्तनो अनुरूपताय समरियादपरिच्छेदं फलं निब्बत्तेतीति आकारो, कारणन्ति आह "दसहि कारणेही"ति। मरियादत्थो हेत्थ आ-सद्दो। न दुस्सीलेस्वेव, अथ खो सीलवन्तेसुपि विपटिसारं उप्पादेस्सति। तदुभयेपि न उप्पादेतब्बोति हि दस्सेतुं अपि-सद्देन, पि-सद्देन वा सम्पिण्डनं करोति । पटिग्गाहकतोव उप्पज्जतीति बलवतरं विप्पटिसारं सन्धाय वुत्तं, दुब्बलो पन देय्यधम्मतो, परिवारजनतोपि उप्पज्जतेव । उप्पज्जितुं युत्तन्ति उप्पज्जनारहं । विप्पटिसारम्पि विनोदेसीति सम्बन्धो । तेसंयेवाति पाणातिपातीनमेव। यजनं नामेत्थ दानमेवाधिप्पेतं, न अग्गिजुहनन्ति आह "देतु भव"न्ति । विस्सज्जतूति मुत्तचागवसेन चजतु । अब्भन्तरन्ति अज्झत्तं सकसन्ताने ।
सोळसाकारवण्णना
३४४. अनुमतिपक्खादयो एव हेट्ठा यज्ञस्स वत्थु कत्वा “सोळसपरिक्खारा"ति वुत्ता, इध पन सन्दस्सनादिवसेन अनुमोदनाय आरद्धत्ता वुत्तं "सोळसहि आकारेही"ति । दस्सेत्वाति अत्तनो देसनानुभावेन पच्चक्खमिव फलं दस्सेत्वा, अनेकवारं पन दस्सनतो "दस्सेत्वा दस्सेत्वा''ति ब्यापनवचनं, तदेव आभुसो मेडनटेन आमेडितवचनन्ति आचरियेन (दी० नि० टी० १.३४४) वुत्तं । “समादपेत्वा समादपेत्वा''तिआदीसुपि एसेव नयो । तमत्थन्ति दानफलवसेन कम्मफलसम्बन्धमत्थं | समादपेत्वाति सुतमत्तं अकत्वा यथा राजा तमत्थं सम्मदेव आदियति चित्ते करोन्तो सुग्गहितं कत्वा गण्हाति, तथा सक्कच्चं आदापेत्वा ।
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२७४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३४५-३४६)
___ "विष्पटिसारविनोदनेना"ति इदं निदस्सनमत्तं । लोभदोसमोहइस्सामच्छरियमानादयोपि हि दानचित्तस्स उपक्किलेसा, तेसं विनोदनेनपि तं वोदापितं समुत्तेजितं नाम होति तिक्खविसदभावापत्तितो, आसन्नतरभावतो पन विप्पटिसारविनोदनमेव गहितं । पवत्तिते हि दाने तस्स सम्भवोति । याथावतो विज्जमानेहि गुणेहि हट्ठपहट्ठभावापादनं सम्पहंसनन्ति आह "सुन्दर"न्तिआदि । धम्मतोति सच्चतो। तदत्थमेव दस्सेतुं "धम्मेन समेन कारणेना"ति वुत्तं । सच्चहि धम्मतो अनपेतत्ता धम्म, उपसमचरियभावतो समं, युत्तभावेन कारणन्ति च वुच्चति ।।
३४५. तस्मिं यजे रुक्खतिणच्छेदोपि नाम नाहोसि, कुतो पाणवधोति पाणवधाभावस्सेव दळहीकरणत्थं, सब्बसो विपरीतग्गाहेहि अविदूसिततादस्सनत्थञ्च पाळियं “नेव गावो हजिसू"तिआदीनि वत्वापि “न रुक्खा छिज्जिंसू"तिआदि वुत्तन्ति दस्सेन्तो "ये यूपनामके"तिआदिमाह । बरिहिसत्थायाति परिच्छेदत्थाय | वनमालासङ्केपेनाति वनपुप्फेहि गन्धितमालानियामेन । एवं आचरियेन (दी० नि० टी० १.३४५) वुत्तं, वनपन्तिआकारेनाति अत्थो । भूमियं वा पत्थरन्तीति वेदिभूमिं परिक्खिपन्ता तत्थ तत्थ पत्थरन्ति । मन्तादिना हि परिसङ्घता भूमि विन्दति अस्स लाभसक्कारेति कत्वा "वेदी"ति वुच्चति । तेपि रुक्खा तेपि दब्बाति सम्बन्धो, कम्मकत्ता चेतं द्वयं, अभिहितकम्मं वा | वत्तिच्छाय हि यथासत्तिं कारका भवन्ति । वुत्तनयेन पाणवधाभावस्स दळ्हीकरणत्यं, विपरीतग्गाहेन अविदूसितभावदस्सनत्थञ्चेतन्ति दस्सेति किं पना"तिआदिना । अन्तोगेहदासो अन्तोजातो। आदिसद्देन धनक्कीतकरमरानीतसामंदासब्यूपगतानं सङ्गहो। पुब्बमेवाति भतिकरणतो पगेव | धनं गहेत्वाति दिवसे दिवसे यथाकम्मं गहेत्वा । भत्तवेतनन्ति देवसिकं भत्तञ्चेव मासिकादिपरिब्बयञ्च । वुत्तोवायमत्थो । तज्जिताति सन्तज्जिता । परिकम्मानीति सब्बभागियानि कम्मानि, उच्चावचानि कम्मानीति अत्थो । पियसमुदाचारेनेवाति इट्ठवचनेनेव यथानामवसेनेवाति पाकटनामानुरूपेनेव । सप्पितेलनवनीतदधिमधुफाणितेन चेवाति एत्थ च-सद्दे अवुत्तसमुच्चयत्थो, तेन पणीतपणीतानं नानप्पकारानं खादनीयभोजनीयादीनञ्चेव वत्थयानमालागन्धविलेपनसेय्यावसथादीनञ्च सङ्गहो दट्टब्बो, तेनाह "पणीतेहि सप्पितेलादिसम्मिस्सेहेवा"तिआदि । तस्स तस्स कालस्स अनुरूपेहि यागु...पे०.. पानकादीहीति सम्बन्धो । सप्पिआदीनन्ति सप्पिआदीहि ।
३४६. पटिसामेतब्बतो, अत्तनो अत्तनो सन्तकभावतो च सं नाम धनं वुच्चति तस्स पतीति सपति निग्गहितलोपेन, धनवा, दिठ्ठधम्मिकसम्परायिकहितावहत्ता तस्स हितन्ति
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(२.५.३४७-३४९)
निच्चदानअनुकुलयञवण्णना
२७५
सापतेय्यं, तदेव धनं । तेनाह “पहूतं धन"न्ति । अक्खयधम्ममेवाति अखयसभावमेव । गामभागेनाति संकित्तनवसेन गामे वा गहेतब्बभागेन, एवं आचरियेन (दी० नि० टी० १.३४६) वुत्तं, पच्चेकं सभागगामकोट्ठासेनातिपि अत्थो । सेसेसुपि एसेव नयो।।
३४७. यज्ञावाटोति खणितावाटस्स अस्समेधादियञयजनट्ठानस्सेतं अधिवचनं, तब्बोहारेन पन इध दानसालाय एव, ताय च पुरत्थिमनगरद्वारे कताय पुरथिमभागे एवाति अत्थं दस्सेति "पुरथिमतो नगरद्वारे"तिआदिना । तं पन ठानं रो दानसालाय नातिदूरे एवाति आह “यथा"तिआदि । यतो तत्थ पातरासं भुजित्वा अकिलन्तरूपायेव सायन्हे रञो दानसालं सम्पापुणन्ति ! "दक्खिणेन यज्ञावाटस्सा"तिआदीसुपि एसेव नयो । यागु पिवित्वाति हि यागुसीसेन पातरासभोजनमाह ।
३४८. मधुरन्ति सादुरसं। उपरि वत्तब्बमत्थन्ति “अपिच मे भो एवं होती''तिआदिना बुच्चमानमत्थं । परिहारेनाति भगवन्तं गरुं कत्वा अगारवपरिहारेन, उजुकभावापनयनेन वा, उजुकवुत्तिं परिहरित्वा वङ्कवुत्तियाव यथाचिन्तितमत्थं पुच्छन्तो एवमाहाति वुत्तं होति । तेनाह "उजुकमेव पुच्छयमानो अगारवो विय होती"ति ।
निच्चदानअनुकुलयञ्जवण्णना
३४९. उट्ठायाति दाने उट्ठानवीरियमाह, समुट्ठायाति तस्स सातच्चकिरियं । कसिवाणिज्जादिकम्मानि अकरोन्तो दलिद्दियादिअनत्थापत्तिया नस्सिस्सतीति अधिप्पायो । अप्पसम्भारतरो चेव महप्फलतरो चाति सङ्घपतो अट्ठकथायं वुत्तो पाळियं पन “अप्पत्थतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा"ति पाठो। तत्थ अप्पसम्भारतरोति अतिविय परित्तसम्भारो, असमारब्भियसम्भारो। अप्पत्थतरोति पन अतिविय अप्पकिच्चो, अत्थो चेत्थ किच्चं, त्थ-कारस्स टु-कारं कत्वा “अप्पटुतरो"तिपि पाठो । सम्मा आरभीयति यो एतेनाति समारम्भो, सम्भारसम्भरणवसेन पवत्तसत्तपीळा, अप्पो समारम्भो एतस्साति तथा, अयं पनातिसयेनाति अप्पसमारम्भतरो। विपाकसञ्जितं महन्तं सदिसं फलमेतस्साति महप्फलो, अयं पनातिसयेनाति महप्फलतरो। उदयसञ्जितं महन्तं निस्सन्दादिफलमेतस्साति महानिसंसो, अयं पनातिसयेनाति महानिसंसतरो। धुवदानानीति धुवानि थिरानि अविच्छिन्नानि कत्वा दातब्बदानानि । निच्चभत्तानीति एत्थ भत्तसीसेन चतुपच्चयग्गहणं। अनुकुलयानीति अनुकुलं कुलानुक्कम उपादाय
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२७६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३५०-३५०)
दातब्बदानानि । तेनाह “अम्हाक"न्तिआदि । यानि पवत्तेतब्बानि, तानि अनुकुलयानि नामाति योजेतब्बं । निबद्धदानानीति निबन्धेत्वा नियमत्वा पवेणीवसेन पवत्तितदानानि ।
हत्थिदन्तेन कता दन्तमयसलाका, यत्थ दायकानं नामं अङ्कन्ति, इमिना तं निच्चभत्तं सलाकदानवसेनाति दस्सेति । तं कुलन्ति अनाथपिण्डिककुलं । दालिद्दियेनाति दलिद्दभावेन । "एकसलाकतो उद्धं दातुं नासक्खी"ति इमिना एकेनपि सलाकदानेन निबद्धदानं उपच्छिन्दितुमदत्वा अनुरक्षणमाह । रोति सेतवाहनरो।
आदीनि वत्वाति एत्थ आदिसद्देन “कस्मा सेनो विय मंसपेसिं पक्खन्दित्वा गण्हासी"ति एवमादीनं समसमदाने उस्सुक्कनवचनानं सङ्गहो । गलग्गाहाति गलग्गहणा । "कम्मच्छेदवसेना"ति इमिना अत्तनो अत्तनो कम्मोकासादानम्पि पीळायेवाति दस्सेति । समारम्भसद्दो चेत्थ . पीळनत्थोति आह "पीळासङ्घातो समारम्भो"ति | पुब्बचेतनामुञ्चचेतनाअपरचेतनासम्पत्तिया दायकवसेन तीणि अङ्गानि, वीतरागतावीतदोसतावीतमोहतापटिपत्तिया दक्खिणेय्यवसेन च तीणीति एवं छळङ्गसमन्नागता होति दक्खिणा, छळङ्गुत्तरे नन्दमातासुत्तञ्च (अ० नि० २.६.३७) तस्सत्थस्स साधकं । अपरापरं उप्पज्जनकचेतनावसेन महानदी विय, महोघो विय च इतो चितो च अभिसन्दित्वा पक्खन्दित्वा पवत्तितो पुचमेव पुञाभिसन्दो। तथाविधन्ति पमाणस्स कातुं असुकरत्तमाह । कारणमहत्तेन फलमहत्तम्पि वेदितब्बं उपरि नज्जा वुट्ठिया महोघो वियाति वुत्तं "तस्मा"तिआदि ।
__३५०. नवनवोति सब्बदा अभिनवो, दिवसे दिवसे दायकस्स ब्यापारापज्जनतो किच्चपरियोसानं नत्थीति वुत्तं "एकेना"तिआदि । यथारद्धस्स आवासस्स कतिपयेनापि कालेन परिसमापेतब्बतो किच्चपरियोसानं अत्थीति आह "पण्णसाल'"न्तिआदि । महाविहारेपि किच्चपरियोसानस्स अत्थिताउपायं दस्सेतुं “एकवारं धनपरिच्चागं कत्वा"ति वुत्तं । सुत्तन्तपरियायेनाति सब्बासवसुत्तन्तादिपाळिनयेन । नवानिसंसाति सीतपटिघातादयो पटिसल्लानारामपरियोसाना यथापच्चवेक्खणं गणिता नव उदया, अप्पमत्तताय चेते वुत्ता ।
यस्मा पन आवासं देन्तेन नाम सब्बम्पि पच्चयजातं दिन्नमेव होति । यथाह संयुत्तागमवरलञ्छके “सो च सब्बददो होति यो ददाति उपस्सय"न्ति, (सं० नि० १.१.४२) सदा पुञपवडनूपायञ्च एतं । वुत्तहि तत्थेव “ये ददन्ति उपस्सयं, तेसं
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निच्चदान अनुकुलयञ्ञवण्णना
दिवा च रत्तो च, सदा पुञ्ञ पवड्ढती 'ति (सं० नि० १.१.४७) तथा हि द्वे तयो गामे पिण्डाय चरित्वा किञ्चि अलद्धा आगतस्सापि छायूदकसम्पन्नं आरामं पविसित्वा नहायत्वा पतिस्सये मुहुत्तं निपज्जित्वा उट्ठाय निसिन्नस्स काये बलं आहरित्वा पक्खित्तं विय होति । बहि विचरन्तस्स च काये वण्णधातु वातातपेहि किलमति, पतिस्सयं पविसित्वा द्वारं पिधाय मुहुत्तं निपन्नस्स विसभागसन्तति वूपसम्मति सभागसन्तति पतिद्वाति, वण्णधातु आहरित्वा पक्खित्ता विय होति । बहि विचरन्तस्स च पादे कण्टको विज्झति, खाणु पहरति, सरीसपादिपरिस्सया चेव चोरभयञ्च उप्पज्जति, पतिस्सयं पविसित्वा द्वारं पिधाय निपन्नस्स सब्बे ते परिस्सया न होन्ति, सज्झायन्तस्स धम्मपीतिसुखं, कम्मट्ठानं मनसि करोन्तस्स उपसमसुखञ्च उप्पज्जति बहिद्धा विक्खेपाभावतो । बहि विचरन्तस्स च काये सेदा मुच्चन्ति अक्खीनि फन्दन्ति, सेनासनं पविसनक्खणे मञ्चपीठादीनि न पञ्ञायन्ति, मुहुत्तं निपन्नस्स पन अक्खिपसादो आहरित्वा पक्खित्तो विय होति, द्वारवातपानमञ्चपीठादीनि पञ्ञायन्ति । एतस्मिञ्च आवासे वसन्तं दिस्वा मनुस्सा चतूहि पच्चयेहि सक्कच्चं उपट्टहन्ति । तेन वुत्तं " आवासं देन्तेन...पे०... होती”ति "सदा पुञ्ञपवढनूपायञ्च एतन्ति च तस्मा एते यथावत्ता सब्बेपि आनिसंसा वेदितब्बा ।
(२.५.३५०-३५० )
खन्धकपरियायेनाति सेनासनक्खन्धके (चूळव० २९४) आगतविनयपाळिनयेन । तत्थ हि आगता -
"सीतं उन्हं पटिहन्ति ततो वाळमिगानि च । सरीसपे च मकसे, सिसिरे चापि वुट्टियो ||
ततो वातातपो घोरो, सञ्जातो पटिहञति । लेणत्थञ्च सुखत्थञ्च, झायितुञ्च विपस्सितुं । ।
विहारदानं सङ्घस्स, अग्गं बुद्धेन वणितं । तस्मा हि पण्डितो पोसो, सम्पस्सं अत्थमत्तनो |
विहारे कारये रम्मे, वासयेत्थ बहुस्सुते ।
तेसं अन्नञ्च पानञ्च वत्थसेनासनानि च । ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
ददेय्य उजुभूतेसु, विप्पसन्नेन चेतसा । ते तस्स धम्मं देसेन्ति, सब्बदुक्खपनूदनं । यं सो धम्मं इधञ्ञय, परिनिब्बाति अनासवो 'ति । । -
राजगहसेट्ठादीनं विहारदानेन अनुमोदनागाथायो पेय्यालवसेन दस्सिता । तत्थ सीतं उण्हन्ति उतुविसभागवसेन वृत्तं । सिसिरे चापि वुट्ठियोति एत्थ सिसिरोति सम्फुसितवा वुच्चति । वुट्ठियोति उजुकमेघवुट्ठियो एव । एतानि सब्बानि " पटिहन्तीति इमिनाव पदेन योजेब्बानि ।
पटिहञ्जतीति विहारेन पटिहञ्ञति । लेणत्थन्ति निलीयनत्थं । सुखत्थन्ति सीतादिपरिस्सयाभावेन सुखविहारत्थं । " झायितुञ्च विपस्सितु "न्ति इदम्पि पदद्वयं " सुखत्थञ्चा" ति इमिनाव पदेन योजेतब्बं । इदहि वृत्तं होति - सुखत्थञ्च विहारदानं, कतमसुखत्थं ? झायितुं, विपस्सितुञ्च यं सुखं तदत्थं । अथ वा परपदेनपि योजेतब्बं - झायितुञ्च विपस्सितुञ्च विहारदानं, "इध झायिस्सति विपस्सिस्सती 'ति ददतो विहारदानं सङ्घस्स अग्गं बुद्धेन वण्णितं । वुत्तहेतं " सो च सब्बददो होति, यो ददाति उपस्सयन्ति (सं० नि० १.१.४२) ।
(२.५.३५० - ३५० )
यस्मा च अग्गं वण्णितं, तस्मा हि पण्डितो पोसोति गाथा । वासयेत्थ बहुस्सुतेति एत्थ विहारे परियत्तिबहुस्सुते च पटिवेधबहुस्सुते च वासेय्य । तेसं अन्नञ्चाति यं सं अनुच्छविकं अन्नञ्च पानञ्च वत्थानि च मञ्चपीठादिसेनासनानि च तं सब्बं तेसु उजुभूतेसु अकुटिलचित्तेसु । ददेय्याति निदहेय्य । तञ्च खो विप्पसन्नेन चेतसा, न चित्तप्पसादं विराधेत्वा । एवं विप्पसन्नचित्तस्स हि ते तस्स धम्मं देसेन्ति... पे०... परिनिब्बाति अनासवोति अयमेत्थ अट्टकथानयो ।
अयं पन आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.३५०) चेव आचरियसारिपुत्तत्थेरेन ( सारत्थ० टी० ३.२९५) च संवण्णितो टीकानयो- सीतन्ति अज्झत्तं धातुक्खोभवसेन वा बहिद्धा उतुविपरिणामवसेन वा उप्पज्जनकसीतं । उण्हन्ति अग्गिसन्तापं, तस्स वनडाहादीसु सम्भवो दट्टब्बो । पटिहन्तीति पटिबाधति यथा तदुभयवसेन कायचित्तानं बाधनं न होति, एवं करोति । सीतुण्हब्भाहते हि सरीरे विक्खित्तचित्तो भिक्खु पदहितुं सक्कोति, वाळमिगानी
योनिसो
न
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(२.५.३५०-३५०)
निच्चदानअनुकुलयञ्जवण्णना
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सीहब्यग्घादिचण्डमिगे । गुत्तसेनासनहि आरञकम्पि पविसित्वा द्वारं पिधाय निसिन्नस्स ते परिस्सया न होन्ति । सरीसपेति ये केचि सरन्ते गच्छन्ते दीघजातिके सप्पादिके । मकसेति निदस्सनमत्तमेतं, टंसादीनम्पि एतेनेव सङ्गहो दट्ठब्बो । सिसिरेति सिसिरकालवसेन, सत्ताहवद्दलिकादिवसेन च उप्पन्ने सिसिरसम्फस्से । बुट्ठियोति यदा तदा उप्पन्ना वस्सवुट्टियो पटिहन्तीति योजना।
वातातपो घोरोति रुक्खगच्छादीनं उम्मूलभञ्जनादिवसेन पवत्तिया घोरो सरजअरजादिभेदो वातो चेव गिम्हपरिळाहसमयेसु उप्पत्तिया घोरो सूरियातपो च पटिहजति पटिबाहीयति। लेणत्थन्ति नानारम्मणतो चित्तं निवत्तेत्वा पटिसल्लानारामत्थं । सुखत्थन्ति वुत्तपरिस्सयाभावेन फासुविहारत्थं । झायितुन्ति अट्ठतिसाय आरम्मणेसु यत्थ कत्थचि चित्तं उपनिबन्धित्वा उपनिज्झायितुं । विपस्सितुन्ति अनिच्चादितो सङ्खारे सम्मसितुं ।
विहारेति पतिस्सये। कारयेति कारापेय्य । रम्मेति मनोरमे निवाससुखे। वासयेत्थ बहुस्सुतेति कारेत्वा पन एत्थ विहारे बहुस्सुते सीलवन्ते कल्याणधम्मे निवासेय्य, ते निवासेन्तो पन तेसं बहुस्सुतानं यथा पच्चयेहि किलमथो न होति, एवं अन्नञ्च पानञ्च वत्थसेनासनानि च ददेय्य उजुभूतेसु अज्झासयसम्पन्नेसु कम्मकम्मफलानं, रतनत्तयगुणानञ्च सद्दहनेन विप्पसनेन चेतसा।
इदानि गहठ्ठपब्बजितानं अञमञ्जूपकारितं दस्सेतुं "ते तस्सा"ति गाथमाह । तत्थ तेति बहुस्सुता। तस्साति उपासकस्स | धम्मं देसेन्तीति सकलवट्टदुक्खपनूदनं सद्धम्म देसेन्ति । यं सो धम्मं इधायाति सो उपासको यं सद्धम्मं इमस्मिं सासने सम्मापटिपज्जनेन जानित्वा अग्गमग्गाधिगमनेन अनासवो हुत्वा परिनिब्बाति एकादसग्गिवूपसमेन सीति भवतीति ।
सीतपटिघातादिका विपस्सनावसाना तेरस, अन्नादिलाभो, धम्मस्सवनं,धम्मावबोधो, परिनिब्बानन्ति एवमेत्थ सत्तरस आनिसंसा वुत्ता।
पटिग्गहणकानं विहारवसेन उप्पन्नफलानुरूपम्पि दायकानं विहारदानफलं वेदितब्बं । येभुय्येन हि कम्मसरिक्खकफलं लभन्तीति आह "तस्मा"तिआदि । “सङ्घस्स पन परिच्चत्तत्ता"ति इमिना सङ्घिकविहारमेव पधानवसेन वदति, सङ्घिकविहारो नामेस चातुद्दिसं
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(२.५.३५१ - ३५२ )
सङ्घं उद्दिस्स कतविहारो, यं सन्धाय पदभाजनियं वुत्तं “सङ्घिको नाम विहारो सङ्घस्स दिन्नो होति परिच्चत्तो”ति । यत्थ हि चेतियं पतिट्ठितं होति, धम्मस्सवनं करीयति, चतूहि दिसाहि भिक्खू आगन्त्वा अप्पटिपुच्छित्वायेव पादे धोवित्वा कुञ्चिकाय द्वारं विवरित्वा सेनासनं पटिजग्गित्वा यथाफासुकं गच्छन्ति, सो अन्तमसो चतुरतनिकापि पण्णसाला होतु, चातुद्दिसं सङ्घ उद्दिस्स कतविहारोत्वेव वुच्चति ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
३५१. लोभं निग्गहितुं असक्कोन्तस्स दुष्परिच्चजा । “एकभिक्खुस्स वा तिआदि उपासकानं तथा समादाने आचिण्णं, दळहतरं समादानञ्च दस्सेतुं वुत्तं सरणं पन तेसं सामं समादिन्नम्पि समादिन्नमेव होती "ति वदन्ति । सङ्घस्स वा गणस्स वा सन्तिकेति योजना । तत्थाति यथागहिते सरणे, “तस्सा" तिपि पाठो, यथागहितसरणस्साति अत्थो । नत्थि पुनपुनं कत्तब्बताति विञ्जातिके सन्धाय वुत्तं । विञ्जातिकानमेव हि सरणादि अत्थकोसल्लानं सुवण्णघटे सीहवसा विय अकुप्पं सरणगमनं तिट्ठति । " जीवितपरिच्चागमयं पुज्ञ" न्ति च इदं “सचे त्वं यथागहितं सरणं न भिन्दिस्सति, एवाहं तं मारेमी "ति कामं कोचि तिण्हेन सत्थेन जीविता वोरोपेय्य, तथापि "नेवाहं बुद्धं 'न बुद्धो 'ति, धम्मं 'न धम्मो 'ति, सङ्घ 'न सङ्घो 'ति वदामी"ति दळहतरं कत्वा गहितसरणस्स वसेन वृत्तं । " सग्गसम्पत्तिं देती "ति निदस्सनमत्तमेतं । फलानिसंसानि पनस्स सरणगमनवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.२५० सरणगमनकथा) वुत्तानेव ।
३५२. वक्खमाननयेन वेरहेतुताय वेरं वुच्चति पाणातिपातादिपापधम्मो, तं मति " मयि इध ठिताय कथमागच्छसी 'ति तज्जेन्ती विय निवारेतीति वेरमणी, ततो वा पापधम्मतो विरमति एतायाति "विरमणी "ति वत्तब्बे निरुत्तिनयेन इ-कारस्स ए-कारं कत्वा " वेरमणी "ति वृत्तं । खुद्दक पाठट्ठकथायं पनाह “वेरमणिसिक्खापदं, विरमणिसिक्खापदन्ति द्विधासज्झायं करोन्ती” ति ( खु० पा० अट्ठ० साधारणविभावना) कुसलचित्तसम्पत्तावेत्थ विरति अधिप्पेता, न फलसम्पयुत्ता यञधिकरणतो । असमादिन्नसीलस्स सम्पत्ततो यथूपट्ठितवीतिक्कमितब्बवत्थुतो विरति सम्पत्तविरति । समादानवसेन उप्पन्ना विरति समादानविरति । सेतु वुच्चति अरियमग्गो, तप्परियापन्ना हुत्वा पापधम्मानं समुच्छेदवसेन घातनप्पवत्ता विरति सेतुघातविरति । अञ्ञत्र "समुच्छेदविरती " तिपि वृत्ता । इदानि ता सरूपतो दस्सेतुं " तत्था "तिआदि वृत्तं । जाति...पे०... दीनीति अपदिसितब्बजातिगोत्तकुलादीनि । आदिसद्देन वयबाहुसच्चादीनं
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(२.५.३५२-३५२)
निच्चदानअनुकुलयञवण्णना
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सङ्गहो । परिहरतीति अवीतिक्कमवसेन परिवज्जेति, सीहळदीपे चक्कनउपासकस्स विय सम्पत्तविरति वेदितब्बा ।
"पाणं न हनामी"तिआदीसु आदयत्थेन इति-सद्देन, विकप्पत्थेन वा-सद्देन वा "अदिन्नं नादियामि, अदिन्नादाना विरमामि, वेरमणिं समादियामीति एवमादीनं पच्चेकमत्थानं सङ्गहो दट्ठब्बो। एवञ्च कत्वा “सिक्खापद" मिच्चेव अवत्वा "सिक्खापदानी''ति वुत्तं । पाणातिपाता वेरमणिन्ति सम्बन्धो । समादियामीति सम्मा आदियामि, अवीतिक्कमाधिप्पायेन, अखण्डा' छिद्दा' कम्मासा' सबलकारिताय च गण्हामीति वुत्तं होति । उत्तरवड्डमानपब्बतवासिउपासकस्स (म० नि० अट्ट० १.८९ कुसलकम्मपथवण्णना; सं० नि० अट्ट० २.२.१०९-१११; ध० स० अट्ठ० कुसलकम्मपथवण्णना) विय समादानविरति वेदितब्बा।
मग्गसम्पयुत्ताति सम्मादिट्ठियादिमग्गसम्पयुत्ता। इदानि तत्था तत्थागतेसु धम्मतो, कोट्ठासतो, आरम्मणतो, वेदनातो, मूलतो, आदानतो, भेदतोतिआदिना अनेकधा विनिच्छयेसु सङ्केपेनेव आरम्मणतो विनिच्छयं दस्सेतुं “तत्था"तिआदि वुत्तं । पुरिमा बेति सम्पत्तसमादानविरतियो। “जीवितिन्द्रियादिवत्थू"ति परमत्थतो पाणो वुत्तो, पञत्तितो पन “सत्तादिवत्थू ति वत्तब्बं, एवहि “सत्तेयेव आरभित्वा पाणातिपाता, अब्रह्मचरिया च विरमती"ति (खु० पा० अट्ठ० एकतानानतादिविनिच्छय) खुद्दकागमट्ठकथावचनेन संसन्दति समेतीति । आदिसद्देन चेत्थ सत्तसङ्खारवसेन अदिन्नवत्थु, तथा फोठुब्बवत्थु, वितथवत्थु, सङ्खारवसेनेव सुरामेरयवत्थूति एतेसं सङ्गहो दट्ठब्बो । तं आरम्मणं कत्वा पवत्तन्तीति यथावुत्तं वीतिक्कमवत्थु आलम्बित्वा वीतिक्कमनचेतनासङ्घातविरमितब्बवत्थुतो विरमणवसेन पवत्तन्ति । पच्छिमाति सेतुघातविरति। निब्बानारम्मणाव तथापि किच्चसाधनतो। इमिना पन तत्थेव आगतेसु तीसु आचरियवादेसु द्वे पटिबाहित्वा एकस्सेवानुजाननं वेदितब्बं ।
“सम्पत्तविरति, हि समादानविरति च यदेव पजहति, तं अत्तनो पाणातिपातादिअकुसलमेवारम्मणं कत्वा पवत्तती''ति केचि वदन्ति । “समादानविरति यतो विरमति, तं अत्तनो वा परेसं वा पाणातिपातादिअकुसलमेवालम्बणं कत्वा पवत्तति । सम्पत्तविरति पन यतो विरमति, तेसं पाणातिपातादीनं आलम्बणानेव आरम्मणं कत्वा पवत्तती''ति अपरे । “द्वयम्पि चेतं यतो पाणातिपातादिअकुसलतो विरमति, तेसमारम्मणभूतं वीतिक्कमितब्बवत्थुमेवालम्बणं कत्वा पवत्तति । पुरिमपुरिमपदत्थव्हि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३५२-३५२)
वीतिक्कमवत्थुमालम्बणं कत्वा पच्छिमपच्छिमपदत्थतो विरमितब्बवत्थुतो विरमती"ति अछे । पठमवादो चेत्थ अयुत्तोयेव । कस्मा ? तस्स अत्तनो पाणातिपातादिअकुसलस्स पच्चुप्पन्नाभावतो, अबहिद्धाभावतो च। सिक्खापदविभङ्गे हि पञ्चन्नं सिक्खापदानं पच्चुप्पन्नारम्मणता, बहिद्धारम्मणता च वुत्ता। तथा दुतियवादोपि अयुत्तोयेव । कस्मा ? पुरिमवादेन सम्मिस्सत्ता, परेसं पाणातिपातादिअकुसलारम्मणभावे च अनेकन्ति कत्ता, द्विन्नं आलम्बणप्पभेदवचनतो च । ततियवादो पन युत्तो सब्बभाणकानमभिमतो, तस्मा तदेव अनुजानातीति दट्ठब्बं । तेन वुत्तं “तीसु आचरियवादेसु द्वे पटिबाहित्वा एकस्सेवानुजाननं वेदितब्ब"न्ति ।
एत्थाह - यज्जेतं विरतिद्वयं जीवितिन्द्रियादिवीतिक्कमितब्बवत्थुमेवालम्बणं कत्वा पवत्तेय्य, एवं सति अझं चिन्तेन्तो अझं करेय्य, यञ्च पजहति, तं न जानेय्याति अय'मनधिप्पेतो अत्थो आपज्जतीति ? वुच्चते – न हि किच्चसाधनवसेन पवत्तेन्तो “अनं चिन्तेन्तो अनं करोती"ति वा “यञ्च पजहति, तं न जानाती"ति वा वुच्चति । यथा पन अरियमग्गो निब्बानारम्मणोव किलेसे पजहति, एवं जीवितिन्द्रियादिवत्थारम्मणम्पेतं विरतिद्वयं पाणातिपातादीनि दुस्सील्यानि पजहति । तेनाहु पोराणा -
"आरभित्वान अमतं, जहन्तो सब्बपापके । निदस्सनञ्चेत्थ भवे, मग्गट्ठोरियपुग्गलो''ति ।। (खु० पा० एकतानानताविनिच्छय)
अट्ठ०
इदानि सङ्केपेनेव आदानतो, भेदतो वा विनिच्छयं दस्सेतुं "एत्था"तिआदि वुत्तं । "पञ्चङ्गसमन्नागतं सीलं समादियामी''तिआदिना एकतो एकज्झं गण्हाति । एवम्पि हि किच्चवसेन एतासं पञ्चविधता विज्ञायति । सब्बानिपि भिन्नानि होन्ति एकज्झं समादिन्नत्ता । न हि तदा पञ्चङ्गिकत्तं सीलस्स सम्पज्जति । यं तु वीतिक्कन्तं, तेनेव कम्मबद्धो । “पाणातिपाता वेरमणिसिक्खापदं समादियामी''तिआदिना एकेकं विसुं विसुं गण्हाति । "वेरमणिसिक्खापद"न्ति च इदं समासभावेन खुद्दकपाठट्ठकथायं (खु० पा० अट्ट० साधारणविभावना) वुत्तं, पाळिपोत्थकेसु पन “वेरमणि"न्ति निग्गहितन्तमेव ब्यासभावेन दिस्सति | गहट्टवसेन चेतं वुत्तं । सामणेरानं पन यथा तथा वा समादाने एकस्मिं भिन्ने सब्बानिपि भिन्नानि होन्ति पाराजिकापत्तितो। इति एकज्झं, पच्चेकञ्च समादाने विसेसो इध वुत्तो, खुद्दकागमट्ठकथायं पन “एकज्झं समादियतो एकायेव विरति
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(२.५.३५२-३५२)
निच्चदानअनुकुलयञवण्णना
२८३
एकाव चेतना होति, किच्चवसेन पनेतासं पञ्चविधत्तं विझायति । पच्चेकं समादियतो पन पञ्चेव विरतियो, पञ्च च चेतना होन्ती"ति (खु० पा० अट्ठ० एकतानानतादिविनिच्छय) अयं विसेसो वुत्तो। भेदेपि “यथा तथा वा समादियन्तु, सामणेरानं एकस्मिं भिन्ने सब्बानिपि भिन्नानि होन्ति । पाराजिकट्टानियानि हि तानि तेसं | यं तु वीतिक्कन्तं होति, तेनेव कम्मबद्धो । गहट्ठानं पन एकस्मिं भिन्ने एकमेव भिन्नं होति, यतो तेसं तंसमादानेनेव पुन पञ्चङ्गिकत्तं सीलस्स सम्पज्जती''ति वुत्तं । यथावुत्तोपि दीघभाणकानं वादो अपरेवादो नाम तत्थ कतो।
सेतुघातविरतिया पन भेदो नाम नत्थि पटिपक्खसमुच्छिन्दनेन अकुप्पसभावत्ता। तदेवत्थं दस्सेन्तेन "भवन्तरेपी"तिआदि वुत्तं । तत्थ "भवन्तरेपी"ति इमिना अत्तनो अरियभावं अजानन्तोपीति अत्थं विज्ञापेति | जीवितहेतुपि, पगेव अञहेतु । "नेव पाणं हनति, न सुरं पिवती"ति इदं मज्झेपेय्यालनिद्दिट्ट, मिगपदवळञ्जननयेन वा वृत्तं । सुरन्ति च निदस्सनमत्तं । सब्बम्पि हि सुरामेरयमज्जपमादट्ठानानुयोगं न करोति । “मज्जन्ति तदेव उभयं, यं वा पनम्पि सुरासवविनिमुत्तं मदनीय''न्ति (सं० नि० अठ्ठ० ३.५.११३४) संयुत्तमहावग्गट्ठकथायं वुत्तं । खुद्दकपाठट्ठकथायञ्च "तदुभयमेव मदनीयढेन मज्ज, यं वा पनाम्पि किञ्चि अस्थि मदनीयं, येन पीतेन मत्तो होति पमत्तो, इदं वुच्चति मज्ज''न्ति (खु० पा० अठ्ठ० पुरिमपञ्चसिक्खापदवण्णना) “सचे पिस्सा"तिआदिना तत्थेव विसेसदस्सनं, अजानन्तस्सपि खीरमेव मुखं पविसति, न सुरा, पगेव जानन्तस्स । कोञ्चसकुणानन्ति कुन्तसकुणानं । सचेपि मुखे खीरमिस्सके उदके पक्खिपन्तीति योजेतब्बं । “न चेत्थ उपमोपमेय्यानं सम्बद्धता सिया कोञ्चसकुणानं योनिसिद्धत्ता''ति कोचि वदेय्याति आह "इद"न्तिआदि । योनिसिद्धन्ति मनुस्सतिरच्छानानं उद्धं तिरियमेव दीघता विय, बकानं मेघसद्देन, कुक्कुटीनं वातेन गब्भग्गहणं विय च जातिसिद्धं, इति कोचि वदेय्य चेति अत्थो। “चेवा''तिपि पाठं वत्वा समुच्चयत्थमिच्छन्ति केचि । धम्मतासिद्धन्ति बोधिसत्ते कुच्छिगते बोधिसत्तमातु सीलं विय, विजाते तस्सा दिवङ्गमनं विय च सभावेन सिद्धं, मग्गधम्मताय वा अरियमग्गानुभावेन सिद्धन्ति वेदितब्बन्ति विस्सज्जेय्याति अत्थो ।
दिद्विजुकरणं नाम भारियं दुक्करं, तस्मा सरणगमनं सिक्खापदसमादानतो महठ्ठतरमेव, न अप्पट्टतरन्ति अधिप्पायो। एतन्ति सिक्खापदं । यथा वा तथा वा गण्हन्तस्सापीति आदरं गारवमकत्वा समादियन्तस्सापि। साधुकं गण्हन्तस्सापीति सक्कच्चं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३५३-३५३)
सीलानि समादियन्तस्सापि अप्पट्ठतरमेव, अप्पसमारम्भतरञ्च, न दिगुणं उस्साहो करणीयोति वुत्तं होति । सीलं इध अभयदानताय दानं, अनवसेसं वा सत्तनिकायं दयति रक्खतीति दानं। अयमेत्थ अट्ठकथामुत्तकनयो- सरणं उपगतेन कायवाचाचित्तेहि सक्कच्चं वत्थुत्तयपूजा कातब्बा, तत्थ च संकिलेसो साधुकं परिहरितब्बो, सिक्खापदानि पन समादानमत्तं, सम्पत्तवत्थुतो विरमणमत्तञ्चाति सरणगमनतो सीलस्स अप्पट्टतरता, अप्पसमारम्भतरता च वेदितब्बा। सब्बेसं सत्तानं जीवितदानादिना दण्डनिधानतो, सकललोकियलोकुत्तर गुणाधिट्ठानतो चस्स महप्फलतरता, महानिसंसतरता च दट्टब्बाति ।
तमत्थं पाळिया साधेन्तो “वुत्तहेत"न्तिआदिमाह । तत्थ “अग्गानी''ति आतत्ता अग्गज्ञानि। चिररत्तताय आतत्ता रत्तञानि। “अरियानं साधूनं वंसानी"ति आतत्ता वंसज्ञानि। पुरिमकानं आदिपुरिसानं एतानीति पोराणानि। सब्बसो केनचिपि पकारेन साधूहि न किण्णानि न छड्डितानीति असंकिण्णानि । अयञ्च नयो नेसं यथा अतीते, एवं एतरहि, अनागते चाति आह “असंकिण्णपुब्बानी"तिआदि। अतीते हि काले असंकिण्णभावस्स "असंकिण्णपुब्बानी''ति निदस्सनं, पच्चुप्पन्ने "न सकियन्ती"ति, अनागते “न सङ्कियिस्सन्तीति । अतोयेव अप्पटिकुट्ठानि न पटिक्खित्तानि । न हि कदाचिपि विजू समणब्राह्मणा हिंसादिपापधम्मं अनुजानन्ति । अपरिमाणानं सत्तानं अभयं देतीति सब्बेसु भूतेसु निहितदण्डत्ता सकलस्सपि सत्तनिकायस्स भयाभावं देति । न हि अरियसावकतो कस्सचि भयं होति । अवेरन्ति वेराभावं । अब्यापज्झन्ति निढुक्खतं । "अपरिमाणानं सत्तानं अभयं दत्वा"तिआदि आनिसंसदस्सनं, हेतुम्पि चेत्थ त्वा-सद्दो यथा "मातरं सरित्वा रोदतीति ।
यं किञ्चि चजनलक्खणं, सब्बं तं यज्ञोति आह "इदञ्च पना"तिआदि । न नु च पञ्चसीलं सब्बकालिकं । अबुद्धप्पादकालेपि हि विशू तं समादियन्ति, न च एकन्ततो विमुत्तायतनं बाहिरकानम्पि समादिन्नत्ता। सरणगमनं पन बुद्धप्पादहेतुकं, एकन्ततो च विमुत्तायतनं, कथं तत्थ सरणगमनतो पञ्चसीलस्स महप्फलताति आह "किञ्चापी"तिआदि । जेट्टकन्ति महप्फलभावेन उत्तमं । “सरणगमनेयेव पतिट्ठाया"ति इमिना तस्स सीलस्स सरणगमनेन अभिसङ्घतत्ता ततो महप्फलतं, तथा अनभिसङ्घतस्स च सीलस्स अप्पफलतं दस्सेति ।
३५३.
ईदिसमेवाति
एवं
संकिलेसपटिपक्खमेव
हुत्वा।
ननु
च
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(२.५.३५३-३५३)
निच्चदानअनुकुलयञवण्णना
२८५
पठमज्झानादियञ्जायेव देसेतब्बा, कस्मा बुद्धप्पादतो पट्ठाय देसनमारभतीति अनुयोगं परिहरितुं “तिविध...पे०... दस्सेतुकामो"ति वुत्तं । तिविधसीलपारिपूरियं ठितस्स हि नेसं यानं अप्पट्टतरता, महप्फलतरता च होति, तस्मा तं दस्सेतुकामत्ता बुद्धप्पादतो पट्ठाय देसनं आरभतीति वुत्तं होति । तेनाह “तत्था"तिआदि । हेट्ठा वुत्तेहि गुणेहीति एत्थ “सो तं धम्म सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभती"तिआदिना (दी० नि० १.१९१) हेट्ठा वुत्ता सरणगमनं, सीलसम्पदा, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारताति एवमादयो गुणा वेदितब्बा । पठमं झानं निब्बत्तेन्तो न किलमतीति योजना | तानीति पठमज्झानादीनि । “पठमं झान"न्तिआदिना पाळियं पणीतानमेव झानानं उक्कट्ठनिद्देसो कतोति मन्तवा "एकं कप्पं, अट्ठ कप्पे"तिआदि वुत्तं, महाकप्पवसेन चेत्थ अत्थो । हीनं पन पटमं झानं असङ्ख्येय्यकप्पस्स ततियभागं आयुं देति । मज्झिमं उपड्डकप्पं । हीनं दुतियं झानं द्वे कप्पानि, मज्झिमं चत्तारीतिआदिना अत्थो नेतब्बो। अपिच यस्मा पणीतानियेवेत्थ झानानि अधिप्पेतानि महप्फलतरभावदस्सनपरत्ता देसनाय, तस्मा “पठमं झानं एकं कप्प"न्तिआदिना पणीतानेव झानानि निद्दिवानीति दट्ठब्बं ।
तदेवाति चतुत्थज्झानमेव । चतुक्कनयेन हि देसना आगता । यदि एवं कथं आरुप्पताति आह “आकासानञ्चायतनादिसमापत्तिवसेन भावित"न्ति, तथा भावितत्ता चतुत्थज्झानमेव आरुष्पं हुत्वा वीसतिकप्पसहस्सादीनि आयुं देतीति अधिप्पायो । अयं आचरियस्स मति । अथ वा तदेवाति आरुप्पसङ्घातं चतुत्थज्झानमेव, तं पन कस्मा वीसतिकप्पसहस्सादीनि आयुं देतीति वुत्तं “आकासानञ्चायतनादिसमापत्तिवसेन भावित"न्ति, तथा भावितत्ता एवं देतीति अधिप्पायो। अपरो नयो “तदेवा"ति वुत्ते रूपावचरचतुत्थज्झानमेवाति अत्थो आपज्जेय्याति तं निवत्तेतुं "आकासानञ्चायतनादिसमापत्तिवसेन भावित"न्ति आह, तथा भावितं अङ्गसमताय चतुत्थज्झानसङ्खातं आरुप्पज्झानमेवाधिप्पेतन्ति वुत्तं होति ।
सम्मदेव निच्चसादिपटिपक्खविधमनवसेन पवत्तमाना पुब्बभागिये एव बोधिपक्खियधम्मे समानेन्ती विपस्सना विपस्सकपुग्गलस्स अनप्पकं पीतिसोमनस्सं समावहतीति वुत्तं "विपस्सनासुखसदिसस्स पन सुखस्स अभावा महप्फल"न्ति । यथाह धम्मराजा धम्मपदे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.५.३५४-८-३५४-८)
"यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं । लभती पीतिपामोज्जं, अमतं तं विजानत"न्ति ।। (ध० प० ३७४)
यस्मा पनायं देसना इमिना अनुक्कमेन इमानि जाणानि निब्बत्तेन्तस्स वसेन पवत्तिता, तस्मा “विपस्सनाञाणे पतिढाया"तिआदिना हेट्ठिमं हेट्ठिमं उपरिमस्स उपरिमस्स पतिठ्ठाभूतं कत्वा वुत्तं । समानरूपनिम्मानं नाम मनोमयिद्धिया अओहि असाधारणकिच्चन्ति आह "अत्तनो...पे०... महप्फला"ति । हत्थिअस्सादिविविधरूपकरणं विकुब्बनं, तस्स दस्सनसमत्थताय । इच्छितिच्छितवानं नाम पुरिमजातीसु इच्छितिच्छितो खन्धपदेसो । अरहत्तमग्गेनेव मग्गसुखं निहितन्ति वुत्तं "अति...पे०... महप्फल"न्ति । समापेन्तोति परियोसापेन्तो।
कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदनादिकथावण्णना ३५४-८. “अभिक्कन्तं भो गोतमा"तिआदि देसनाय पसादवचनं, "एसाह भवन्त"न्तिआदि पन सरणगमनवचनन्ति तदुभयसम्बन्धं दस्सेन्तो "देसनाया"तिआदिमाह । तनूति मन्दो कायिकचेतसिकसुखसमुपब्यूहतो। सब्बे ते पाणयोति “सत्त च उसभसतानी''तिआदिना वुत्ते सब्बे ते पाणिनो । तं पवत्तिन्ति तेसं पाणीनं मोचनाकारं | आकुलभावोति भगवतो सन्तिके धम्मस्स सुतत्ता पाणीसु अनुद्दयं उपट्ठपेत्वा ठितस्स "कथहि नाम मया ताव बहू पाणिनो मारणत्थाय बन्धापिता''ति चित्ते परिब्याकुलभावो, यस्मा अत्थि, तस्मा न देसेतीति योजना, “उदपादी"तिपि पाठो। सुत्वाति "मुत्ता भो ते पाणयो''ति आरोचितवचनं सुत्वा । चित्तचारोति चित्तप्पवत्ति । “कल्लचित्तं मुदुचित्तं विनीवरणचित्तं उदग्गचित्तं पसन्नचित्त"न्ति इदं पदपञ्चकं सन्धायकल्लचित्तन्तिआदी"ति वुत्तं । तत्थ “दानकथं सीलकथ''न्तिआदिना वुत्ताय अनुपुब्बिकथाय आनुभावेन । कामच्छन्दविगमेन कल्लचित्तता अरोगचित्तता, ब्यापादविगमेन मेत्तावसेन मुदुचित्तता अकथिनचित्तता, उद्धच्चकुक्कुच्चविगमेन विक्खेपाभावतो विनीवरणचित्तता तेहि अमलीनचित्तता, थिनमिद्धविगमेन सम्पग्गहणवसेन उदग्गचित्तता अमलीनचित्तता, विचिकिच्छाविगमेन सम्मापटिपत्तिया अविमुत्तताय पसन्नचित्तता अनाविलचित्तता च होतीति आह "अनुपुब्बिकथानुभावेन विक्खम्भितनीवरणतं सन्धाय वुत्त"न्ति । यं पनेत्थ अत्थतो अविभत्तं, तं सुविनेय्यमेव ।
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(२.५.३५४-८-३५४-८)
कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदनादिकथावण्णना
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इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञआवेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया कूटदन्तसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
कूटदन्तसुत्तवण्णना निहिता।
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६. महालिसुत्तवण्णना
ब्राह्मणदूतवत्थुवण्णना
___३५९. एवं कूटदन्तसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि महालिसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, कूटदन्तसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स महालिसुत्तभावं वा पकासेतुं “एवं मे सुतं...पे०... वेसालियन्ति महालिसुत्त"न्ति आह । पुनप्पुनं विसालभावूपगमनतोति एत्थायं सङ्ग्रेपो - बाराणसिरो किर अग्गमहेसिया मंसपेसिगब्भेन द्वे दारका निब्बत्ता धीता च पुत्तो च, तेसं अञमचं विवाहेन सोळसक्खत्तुं पुत्तधीतुवसेन द्वे द्वे दारका विजाता । ततो तेसं दारकानं यथाक्कम वड्डेन्तानं पच्चेकं सपरिवारानं आरामुय्याननिवासट्ठानपरिवारसम्पत्तिं गहेतुं अप्पहोनकताय नगरं तिक्खत्तुं गावुतन्तरेन गावुतन्तरेन परिक्खिपिंसु, एवं तस्स पुनप्पुनं तिपाकारपरिक्खेपेन विसालभावमुपगतत्ता "वेसाली"त्वेव नामं जातं । तेन वुत्तं "पुनप्पुनं विसालभावूपगमनतो वेसालीति लद्धनामके नगरे"ति । वित्थारकथा चेत्थ महासीहनादसुत्तवण्णनाय, (म० नि० अट्ठ० १.१४६) रतनसुत्तवण्णनाय (खु० पा० अठ्ठ० वेसालिवत्थु; सु० नि० अट्ठ० १.रतनसुत्तवण्णना) च गहेतब्बा । बहिनगरेति नगरतो बहि, न अम्बपालिवन विय अन्तोनगरस्मिं । सयंजातन्ति सयमेव जातं अरोपिमं । महन्तभावेनाति रुक्खगच्छानं, ठितोकासस्स च महन्तभावेन । तेनेवाह "हिमवन्तेन सद्धिं एकाबद्धं त्वा"ति । यं पन वेनयिकानं मतेन विनयट्ठकथायं वुत्तं -
“तत्थ महावनं नाम सयंजातं अरोपिमं सपरिच्छेदं महन्तं वनं । कपिलवत्थुसामन्ता पन महावनं हिमवन्तेन सह एकाबद्धं अपरिच्छेदं हुत्वा महासमुदं आहच्च ठितं, इदं तादिसं न होती''ति (पारा० अट्ठ० २.१६२) ।
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(२.६.३६०-३६१)
ओढद्धलिच्छविवत्थुवण्णना
२८९
तं मज्झिमभाणकसंयुत्तभाणकानम्पि समानकथा। मज्झिमट्ठकथायव्हि (म० नि० अट्ठ० २.३५२) संयुत्तट्ठकथायञ्च (सं० नि० अट्ठ० १.३७) तथैव वुत्तं । इध पन दीघभाणकानं मतेन एवं वुत्तन्ति दट्ठब्बं । यदि च “अहुत्वा''ति कत्थचि पाठो दिस्सति, एवं सति सब्बेसम्पि समानवादो सियाति। कूटागारसालासर्केपेनाति हंसमण्डलाकारसवातहंसवट्टकच्छन्नेन कूटागारसालानियामेन, तथा कतत्ता पासादोयेव "कूटागारसाला"ति वुत्तो, तब्बोहारेन पन सकलोपि सङ्घारामोति वुत्तं होति । विनयट्ठकथायं (पारा० अट्ठ० २.१६२) तु एवं वुत्तं -
“कूटागारसाला पन महावनं निस्साय कते आरामे कूटागारं अन्तोकत्वा हंसवट्टकच्छदनेन कता सब्बाकारसम्पन्ना बुद्धस्स भगवतो गन्धकुटि वेदितब्बा''ति ।
कोसलेसु जाता, भवा, ते वा निवासो एतेसन्ति कोसलका। एवं मागधका । जनपदवाचिनो हि पायतो पुल्लिङ्गपुथुवचना । यस्स अकरणे पुग्गलो महाजानियो होति, तं करणं अरहतीति करणीयन्ति वुच्चति । तेनाह "अवस्सं कत्तब्बकम्मेना"ति । अकातुम्पि वट्टति असति समवाये, तस्मा समवाये सति कत्तब्बतो तं किच्चन्ति वुच्चतीति अधिप्पायो।
३६०. या बुद्धानं उप्पज्जनारहा नानत्तसञा, तासं वसेन "नानारम्मणचारतो"ति वुत्तं, नानारम्मणप्पवत्तितोति अत्थो । सम्भवन्तस्सेव हि पटिसेधो, न असम्भवन्तस्स । पटिक्कम्माति निवत्तेत्वा तथा चित्तं अनुप्पादेत्वा । सल्लीनोति झानसमापत्तिया एकत्तारम्मणं अल्लीनो । निलीनोति तस्सेव वेवचनं । तेन वुत्तं "एकीभाव"न्तिआदि । सपरिवारत्ता अनेकोपि तदा एको विय भवतीति एकीभावो, तं एकीभावं। येनायस्मा नागितो, तं सन्धाय "तस्मा ठाना"ति वुत्तं ।
ओट्ठद्धलिच्छविवत्थुवण्णना ३६१. अद्घोट्ठतायाति उपड्वोकृताय । तस्स किर उत्तरोट्ठस्स अप्पकताय तिरियं फालेत्वा अद्धमपनीतं विय खायति चत्तारो दन्ते, द्वे च दाठा न छादेति, तेन नं "ओहद्धो"ति वोहरति । केचि पन “अधो-सद्देन पाठं परिकप्पेत्वा हेट्टा ओट्ठस्स ओलम्बकताय "ओट्ठाधो"ति अत्थं वदन्ति, तदयुत्तमेव तथा पाठस्स अदिस्सनतो,
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(२.६.३६२ - ३६३)
आचरियेन ( दी० नि० टी० १.३६१) च अवण्णितत्ता । अयं किर उपोसथिको दायको दानपति सद्धो पसन्नो बुद्धमामको धम्मसङ्घमामको । तेनाह “ पुरेभत्त "न्तिआदि । खन्धके, ( महाव० २८९) महापरिनिब्बानसुत्ते (दी० नि० २.१६१) च आगतनयेन “नीलपीतादि... पे०... तावतिसपरिससप्पटिभागाया " ति वृत्तं । अयं पन वेसाली भगवतो काले इद्धा चेव वेपुल्लप्पत्ता च अहोसि । तत्थ हि राजूनमेव सत्त सहस्सानि, सत्त सतानि, सत्त च राजानो अहेसुं, तथा युवराजसेनापतिभण्डागारिकपभुतीनम्पि, पासादकूटागारआरामपोक्खरणिआदयोपि तप्परिमाणायेव, बहुजना, आकिण्णमनुस्सा, सुभिक्खा च । तेन वुत्तं " महतिया लिच्छविपरिसाया "ति । तस्स पन कुलस्स आदिभूतानं यथावृत्तानं मंसपेसिया निब्बत्तदारकानं तापसेन पायितं यं खीरं उदरं पविसति, सब्बं तं मणिभाजनगतं विय दिस्सति, चरिमकभवे बोधिसत्ते कुच्छिगते बोधिसत्ता उदरच्छविया अतिविप्पसन्नताय ते निच्छवी अहेसुं । अपरे पनाहु “सिब्बेत्वा पिता नेसं अञ्ञमञ्ञ लीना छवि अहोसी 'ति । एवं ते निच्छविताय वा लीनच्छविताय वा लिच्छवीति पञ्ञायिंसु, निरुत्तिनयेन चेत्थ पदसिद्धि, तब्बंसे उप्पन्ना सब्बेपि लिच्छवयो जाता । तेनाह “लिच्छविपरिसाया "ति, लिच्छविराजूनं, लिच्छविवंसभूताय वा परिसायाति अत्थो । महन्तं यसं लाति गण्हातीति महालि यथा “भद्दाली 'ति । मूलनामन्ति मातापितूहि कतनामं ।
नाम
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
३६२. सासने युत्तपयुत्तोति भावनमनुयुत्तो । सब्बत्थ सीहसमानवुत्तिनोपि भगवतो परिसाय महत्ते सति तदज्झासयानुरूपं पवत्तियमानाय धम्मदेसनाय विसेसो होतीति आह " महन्तेन उस्साहेन धम्मं देसेस्सती 'ति ।
"विस्सासिको' ति वत्वा तमस्स विस्सासिकभावं विभावेतुं “अयही "तिआदि वृत्तं । थूलसरीरोति वठरसरीरो । थेरस्स खीणासवभावतो “आलसियभावो अप्पहीनो वत्तब्बो वासनालेसं पन उपादाय “ईसकं अप्पहीनो विय होती "ति वृत्तं । न हि सावकानं बुद्धानमिव सवासना किलेसा पहीयन्ति । यथावुत्तं पासादमेव सन्धाय " कूटागारमहागेहा " ति वृत्तं । पाचीनमुखाति पाचीनपमुखा ।
३६३. विनेय्यजनानुपरोधेन बुद्धानं भगवन्तानं पटिहारियविजम्भनं होतीति आह " अथ खो" तिआदि । गन्धकुटितो निक्खमनवेलायहि छब्बण्णा बुद्धरस्मियो आवेळावेळा
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(२.६.३६४-३६४)
ओट्ठद्धलिच्छविवत्थुवण्णना
यमला यमला हुत्वा सविसेसं पभस्सरा विनिच्छरिंसु । ताहि “भगवा निक्खमती" समारोचितमिव निक्खमनं सञ्जानिंसु । तेन वृत्तं "संसूचितनिक्खमनो" ति ।
३६४. “अज्जा”ति वुत्तदिवसतो अतीतमनन्तरं हिय्योदिवसं पुरिमं नाम, तथा "हिय्योति वुत्तदिवसतो परं पुरिमतरं अतिसयेन पुरिमत्ता । इति इमेसु द्वीसु दिवसेसु ववत्थितो यथाक्कमं पुरिमपुरिमतरभावो । एवं सन्तेपि यदेत्थ “ पुरिमतर "न्ति वृत्तं, ततो भुति यं यं ओरं, तं तं पुरिमं । यं यं परं तं तं पुरिमतरन्ति दस्सेन्तो “ ततो पट्ठाया "ति आदिमाह । ओरपार भावस्स विय, हि दिसाविदिसाभावस्स विय च पुरिमपुरिमतरभावस्स अपेक्खासिद्धि । मूलदिबसतोतिआदिदिवसतो । अग्गेति उपयोगत्थे भुम्मवचनं, उपयोगवचनस्स वा ए-कारादेसोति दस्सेति "अग्ग "न्ति इमिना, पठमन्ति अत्थो । तं पत्थ परा अतीता कोटियेवाति आह " परकोटिं कत्वा" ति । यं सद्दो परिच्छेदे निपातो, तप्पयोगेन चायं “ विहरामी "ति वत्तमानपयोगो, अत्थो पन अतीतवसेन वेदितब्बोति दस्सेतुं " याव विहासि"न्ति वृत्तं । तस्साति दिवसस्स । पठमविकप्पे " विहरामी "ति इमस्स " यदग्गे "ति इमिना उजुकं ताव सम्बन्धित्वा पच्छा " नचिरं तीणि वस्सानी'ति पमाणवचनं योजेतब्बं । दुतियविकप्पे पन "नचिरं तीणि वस्सानी "ति इमेहिपि कुटिलं सम्बन्धो कत्तब्बो । नचिरन्ति चेतं भावनपुंसकं, अच्चन्तसञ्ञगं वा । तहि पमाणतो विसेसेतुं "तीणि वस्सानी "ति वदति । तेनाह “ नचिरं विहासिं तीणियेव वस्सानी 'ति ।
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अयन्ति
सुनो। पियजातिकानीति इट्ठसभावानि । सातजातिकानीति मधुरसभावानि । मधुरसदिसताय हि “मधुर "न्ति मनोरमं वुच्चति । आरम्मणं करोन्तेन कामेन उपसंहितानीति कामूपसंहितानि, कामनीयानि । तेनाह “कामस्सादयुत्तानीति, आरम्मणिकेन कामसङ्घातेन अस्सादेन सत्तानि कामसङ्घातस्स योग्यानीति अत्थो । सरीरसण्ठानेति सरीरबिम्बे, आधारे चेतं भुम्मं । तस्मा सद्देनाति तं निस्साय ततो उप्पन्नेन सद्देनाति अत्थो । अपिच विना पाठसेसं भवितब्बपदेंनेव सम्बन्धितब्बं । मधुरेनाति इट्ठेन सातेन । कण्णसक्खलियन्ति कण्णपट्टिकायं ।
वा अस्सादस्स
एत्तावताति दिब्बसोतञाणपरिकम्मस्स अकथनमत्तेन । “अत्तना आतम्पि न कथेति, किं इमस्स सासने अधिट्ठानेना' 'ति कुज्झन्तो भगवति आघातं बन्धित्वा, सह कुज्झनेनेव चेस झानाभिञ्ञा परिहायि । चिन्तेसीति " कस्मा नु खो सो मय्हं तं परिकम्मं न
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.६.३६६-३७१-३७२)
कथेसी"ति परिविचारेन्तो अयोनिसो उम्मुज्जनवसेन चिन्तेसि । अनुक्कमेनाति पाथिकसुत्ते, (दी० नि० ३.३ आदयो) महासीहनादसुत्ते (दी० नि० १.३८१) च आगतनयेन तं तं अयुत्तमेव चिन्तेन्तो, भासन्तो, करोन्तो च अनुक्कमेन भगवति बद्धाघातताय सासने पतिटुं अलभन्तो गिहिभावं पत्वा तमत्थं कथेति ।।
एकसभावितसमाधिवण्णना
__ ३६६-३७१. एकंसायाति तदत्थे चतुत्थीवचनं, एकंसत्थन्ति अत्थो । अंससद्दो चेत्थ कोट्टासपरियायो, सो च अधिकारतो दिब्बरूपदस्सनदिब्बसद्दसवनवसेन वेदितब्बोति आह "एककोटासाया"तिआदि। वा-सद्दो चेत्थ विकप्पने एकंसस्सेवाधिप्पेतत्ता। अनुदिसायाति पुरथिमदक्खिणादिभेदाय चतुब्बिधाय अनुदिसाय । उभयकोट्ठासायाति दिब्बरूपदस्सनत्थं, दिब्बसद्दसवनत्थञ्च । भावितोति यथा दिब्बचक्खुञाणं, दिब्बसोतञाणञ्च समधिगतं होति, एवं भावितो । तयिदं विसुं विसुं परिकम्मकरणेन इज्झन्तीसु वत्तब्बं नत्थि, एकज्झं इज्झन्तीसुपि कमेनेव किच्चसिद्धि भवति एकज्झं किच्चसिद्धिया असम्भवतो । पाळियम्पि हि “दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय, दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाया''ति इदं एकस्स उभयसमत्थतासन्दस्सनमेव, न एकज्झं किच्चसिद्धिसम्भवसन्दस्सनं । “एकंसभावितो समाधि हेतू"ति इमिना सुनक्खत्तो दिब्बचक्खुत्राणाय एव परिकम्मस्स कतत्ता विज्जमानम्पि दिब्बसदं नास्सोसीति दस्सेति ।
३७२. दिब्बचक्खुजाणतो दिब्बसोतञाणमेव सेट्ठन्ति मञ्जमानो महालि एतमत्थं पुच्छतीति आह "इदं दिब्बसोतेन...पे०... मजे"ति । अपण्णकन्ति अविरज्झनकं, अनवज्जं वा। समाधियेव भावेतब्बतुन समाधिभावना। “दिब्बसोतञाणं सेट्ठ"न्ति मञमानेन च तेन दिब्बचक्खुजाणम्पि दिब्बसोतेनेव सह गहेत्वा “एतासं नून भन्ते'"तिआदिना पुथुवचनेन पुच्छितन्ति दस्सेतुं “उभयंसभावितानं समाधीन"न्ति वुत्तं । बाहिरा एता समाधिभावना अनिय्यानिकत्ता । ता हि इतो बाहिरकानम्पि इज्झन्ति । न अज्झत्तिका भगवता सामुक्कंसिकभावेन अप्पवेदितत्ता। न हि ते सच्चानि विय सामुक्कंसिका । यदत्थन्ति येसं अत्थाय, अभेदेपि भेदवचनमेतं, यस्स वा विसेसनभूतस्स अत्थाय । तेति अरियफलधम्मे । “त"न्तिपि अधुना पाठो । ते हि सच्छिकातब्बा, “अस्थि खो महालि अ व धम्मा...पे०... येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ती"ति सच्छिकातब्बधम्मा च इध वुत्ता।
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(२.६.३७३-३७३)
चतुअरियफलवण्णना
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चतुअरियफलवण्णना
३७३. संयोजेन्तीति बन्धेन्ति । तस्माति यस्मा वट्टदुक्खभये संयोजनतो तत्थ सत्ते संयोजेन्ति नाम, तस्मा । कत्थचि “वट्टदुक्खमये रथे''ति पाठो, न पोराणो तथा आचरियेन अवण्णितत्ता। मग्गसोतं आपनो, न पसादादिसोतं । “सोतोति भिक्खवे अरियमग्गस्सेतं अधिवचन"न्ति हि वुत्तं । आपन्नोति च आदितो पत्तोति अत्थो आ-उपसग्गस्स आदिकम्मनि पवत्तनतो, इदं पन फलट्ठवसेन वदति । अतीतकालवचनव्हेतं, मग्गक्खणे पन मग्गसोतं आपज्जति नाम । तेनेवाह दक्खिणविभङ्गे “सोतापन्ने दानं देति, सोतापत्तिफलसच्छिकिरियाय पटिपन्ने दानं देती'ति (म० नि० ३.३७९) अपतनधम्मोति अनुपपज्जनसभावो । धम्मनियामेनाति उपरिमग्गधम्मनियामेन । हेट्ठिमन्तेन सत्तमभवतो उपरि अनुपपज्जनधम्मताय वा नियतोति अट्ठकथामुत्तकनयो । परं अयनं परागति अस्स अत्थीति अत्थो । अनेनाति पुन ततियसमासवचनं, वा-सद्दो चेत्थ लुत्तनिद्दिट्ठो ।
तनुत्तं नाम पवत्तिया मन्दता, विरळता चाति वुत्तं "तनुत्ता"तिआदि । करहचीति निपातमत्तं, परियायवचनं वा | “ओरेन चे मासो सेसो गिम्हानन्ति वस्सिकसाटिकचीवरं परियेसेय्या'तिआदीसु (पारा० ६२७) विय ओर-सद्दो न अतिरेकत्थोति आह "हेद्वाभागियान"न्ति, हेट्ठाभागस्स कामभवस्स पच्चयभावेन हितानन्ति अत्थो । "सुद्धावासभूमिय"न्ति तेसं उपपत्तिट्ठानदस्सनं । ओपपातिकोति उपपातिको उपपातने साधुकारी। तेनाह "सेसयोनिपटिक्खेपवचनमेत"न्ति परिनिब्बानधम्मोति अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बानसभावो । विमुच्चतीति विमुत्ति, चित्तमेव विमुत्ति चेतोविमुत्तीति वुत्तं “चित्तविसुद्धि"न्तिआदि । चित्तसीसेन चेत्थ समाधि गहितो “सीले पतिठ्ठाय नरो सपञो, चित्तं पञञ्च भावयन्तिआदीसु (सं० नि० १.१.२३, १९२; पेटको० २२; मि० प० १.१.९) विय । पाविमुत्तिन्ति एत्थापि एसेव नयो । तेनाह "अरहत्तफलपञ्जाव पज्ञाविमुत्ती"ति । सामन्ति अत्तनाव, अपरप्पच्चयेनाति अत्थो । “अभिजानित्वा"ति इमिना त्वादिपच्चयकारियस्स य-कारस्स लोपो दस्सितो। “अभिज्ञाया"ति इमिना पन ना-वचनकारियस्साति दट्ठब्बं । सच्छीति पच्चक्खत्थे नेपातिकं । पच्चक्खकरणं नाम अनुस्सवाकारपरिवितक्कादिके मुञ्चित्वा सरूपतो आरम्मणकरणं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.६.३७४-५-३७४-५)
अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना ३७४-५. उप्पतित्वाति आकासमग्गेन डेत्वा । पटिपज्जति अरियासावको निब्बानं, अरियफलञ्च एतायाति पटिपदा, सा च तस्स पुब्बभागो एवाति अरियमग्गो पुब्बभागपटिपदानामेन इध वुत्तो। आततविततादिवसेन पञ्चङ्गिकं। दिसाविदिसानिविट्ठपदेसेन अट्ठङ्गिको। अट्ठङ्गतो मुत्तो अञ्जो कोचि अट्ठङ्गिको नाम मग्गो नत्थीति आह "अट्ठङ्गमत्तोयेवा''तिआदिना। न हि अवयवविनिमुत्तो समुदायो नाम कोचि अत्थीति । तस्मा “अट्ठ अङ्गानि अस्साति अञ्चपदस्थसमासं अकत्वा 'अट्ठ अङ्गानि अट्ठङ्गानि, तानि अस्स सन्तीति अट्ठङ्गिको ति समासगब्भतद्धितवसेन पदसिद्धि कातब्बा"ति (दी० नि० टी० १.३७४, ३७५) आचरियेन वुत्तं, अधिप्पायो चेत्थ चिन्तेतब्बो । अञपदत्थसमासे हि कते न सक्का अट्ठङ्गअट्ठङ्गिकानं भेदो अञमचं विपरियायं कत्वापि नियमेतुं ब्यासे उभयपदत्थपरभावेन सहेव सङ्ख्यापरिच्छेदेन अत्थापत्तितो। समासगब्भे पन तद्धिते कते सक्का एव तेसं भेदो अञमधे विपरियायं कत्वा नियमेतुं समासे उत्तरपदत्थपरभावेन विनाव सङ्ख्यापरिच्छेदेन अत्थापत्तितो । एकत्थिभावलक्खणो हि समासोति । धम्मदायादसुत्तन्तटीकायं पन आचरियेनेव एवं वुत्तं “यस्मा मग्गङ्गसमुदाये मग्गवोहारो होति, समुदायो च समुदायीहि समन्नागतो, तस्मा अत्तनो अवयवभूतानि अट्ठ अङ्गानि एतस्स सन्तीति अट्ठङ्गिको "ति | पठमनये चेत्थ अङ्गिना अङ्गस्स अट्ठङ्गिकभावो वुत्तो, दुतियनये पन अङ्गेन अङ्गिनोति अयमेतेसं विसेसो ।
इदानि अट्ठङ्गिकमग्गे लक्खणतो, किच्चखणारम्मणभेदकमतो च विनिच्छयं दस्सेन्तो "तत्था"तिआदिमाह । सम्मादस्सनलक्खणाति अविपरीतं याथावतो चतुन्नमरियसच्चानं पच्चक्खमेव दस्सनसभावा। सम्मा अभिनिरोपनलक्खणोति निब्बानारम्मणे चित्तस्स अविपरीतमभिनिरोपनसभावो । सम्मा परिग्गहणलक्खणाति चतुरङ्गसमन्नागता वाचा जने सङ्गण्हातीति तब्बिपक्खतो विरतिसभावा सम्मावाचा भेदकरमिच्छावाचप्पहानेन जने, सम्पयुत्तधम्मे च परिग्गण्हनकिच्चवती होति, एवं अविपरीतं परिग्गहणसभावा । सम्मा समुट्ठापनलक्खणोति यथा चीवरकम्मादिको कम्मन्तो एकं कातब्बं समुट्ठापेति, तंतंकिरियानिप्फादको वा चेतनासङ्घातो कम्मन्तो हत्थपादचलनादिकं किरियं समुट्ठापेति, एवं सावज्जकत्तब्बकिरियासमुट्ठापकमिच्छाकम्मन्तप्पहानेन सम्माकम्मन्तो निरवज्जसमुट्ठापनकिच्चवा होति, सम्पयुत्ते च समुट्ठापेन्तो एव पवत्ततीति अविपरीतं समुट्ठापनसभावो। सम्मा वोदापनलक्खणोति कायवाचानं, खन्धसन्तानस्स च
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(२.६.३७४-५-३७४-५ )
अरियअट्ठङ्गिकमग्गवण्णना
संकिलेसभूतमिच्छाजीवप्पहानेन अविपरीतं वोदापनसभावो । सम्मा पग्गहलक्खणोति ससम्पयुत्तधम्मस्स चित्तस्स संकिलेसपक्खे पतितुमदत्वा अविपरीतं पग्गहणसभावो । सम्मा उपट्ठानलक्खणाति तादिभावलक्खणेन अविपरीतं तत्थ उपट्ठानसभावो । सम्मा समाधानलक्खणोति विक्खेपविद्धंसनेन अविपरीतं चित्तस्स समादहनसभावो ।
सहजेकट्टताय दिट्ठेकट्ठा अविज्जादयो मिच्छादिट्ठितो अजे अत्तनो पच्चनीककिलेसा नाम । परसतीति पकासेति किच्चपटिवेधेन पटिविज्झति । तेनाह “तप्पटि... पे०... असम्मोहतो 'ति । इदहि तस्सा पस्सनाकारदस्सनं । तेनेव हि सम्मादिट्ठिसङ्घातेन अङ्गेन तत्थ पच्चवेक्खणा पवत्तति । पुरिमानि द्वे किच्चानि सब्बेसमेव साधारणानीति आह “सम्मासङ्कप्पादयोपी’'तिआदि । " तथैवा "ति इमिना " अत्तनो पच्चनीककिलेसेहि सद्धि”न्ति इदमति ।
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नानक्खणा ।
पुब्बभागेति उपचारक्खणे । उपचारभावनावसेन अनेकवारं पवत्तचित्तक्खणिकत्ता अनिच्चादिलक्खणविसयत्ता नानारम्मणा । मग्गस्स एकचित्तक्खणिकत्ता एकक्खणा। निब्बानारम्मणत्ता एकारम्मणा । किच्चतोति पुब्बभागे दुक्खादित्राणेहि कत्तब्बेन इध सातिसयं निब्बत्तेन किच्चेन, इमस्सेव वा ञाणस्स दुक्खादिप्पकासनकिच्चेन । चत्तारि नामानि लभति चतूसु सच्चेसु कातब्बकिच्च निब्बत्तितो तीणि नामानि लभति कामसङ्कप्पादिप्पहाननिब्बत्तितो । सिक्खापदविभङ्गे "विरतिचेतना, सब्बे सम्पयुत्तधम्मा च सिक्खापदानी'ति (विभं० ७०४) वुच्चन्ति । तत्थ पन पधानानं विरतिचेतनानं वसेन “ विरतियोपि होन्ति चेतनायोपी "ति वृत्तं, मुसावादादीहि विरमणकाले वा विरतियो, सुभासितादिवाचाभासनादिकाले चेतनायो होन्तीति योजेतब्बा । चेतनानं अमग्गङ्गत्ता " मग्गक्खणे पन विरतियोवा" ति आह । एकस्सेव ञाणस्स दुक्खादिञाणता विय, एकायेव विरतिया मुसावादादिविरतिभावो विय च एकाय एव चेतनाय सम्मावाचादिकिच्चत्तयसाधनासम्भवेन सम्मावाचादिभावासिद्धितो, तंसिद्धियञ्च अङ्गत्तयत्तासिद्धितो च एवं वुत्तन्तिपि दट्ठब्बं । इमिना चेतासं दुविधतं, अभेदतञ्च दस्सेति । सम्मप्पधानसतिपट्ठानवसेनाति चतुसम्मप्पधानचतुसतिपट्ठानभाववसेन |
यदिपि समाधिउपकारकानं अभिनिरोपना नुमज्जनसम्पियायनु पब्रूहनसन्तानं वितक्कविचारपीतिसुखोपेक्खानं वसेन चतूहि झानेहि सम्मासमाधि विभत्तो, तथापि वायामो विय अनुप्पन्नाकुसलानुप्पादनादिचतुवायामकिच्चं सति विय च असुभासुखानिच्चानत्तभूतेस्
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.६.३७४-५-३७४-५)
कायादीसु सुभादिसञापहानचतुसतिकिच्चं एकोव समाधि चतुक्कज्झानसमाधिकिच्चं न साधेति । तस्मा पुब्बभागेपि पठमज्झानसमाधि पठमज्झानसमाधि एव । तथा मग्गक्खणेपि पुब्बभागेपि दुतियज्झानसमाधि दुतियज्झानसमाधि एव । तथा मग्गक्खणेपि पुब्बभागेपिं ततियज्झानसमाधि ततियज्झानसमाधि एव। तथा मग्गक्खणेपि पुब्बभागेपि चतुत्थज्झानसमाधि चतुत्थज्झानसमाधि एव । तथा मग्गक्खणेपीति आह "पुब्बभागेपि मग्गक्खणेपि सम्मासमाधियेवा'ति ।
तस्माति पञापज्जोतत्ता अविज्जान्धकारं विधमित्वा पञ्जासत्थत्ता किलेसचोरे घातेन्तोति यथारहं योजेतब्बं । यस्मा पन अनादिमति संसारे इमिना योगिना कदाचिपि असमुग्घाटितपुब्बो किलेसगणो, तस्स समुग्घाटको च अरियमग्गो । अयञ्चेत्थ सम्मादिट्ठि परिञाभिसमयादिवसेन पवत्तिया पुब्बङ्गमा होति बहूपकारा, तस्मा । तदेव बहूपकारतं कारणभावेन दस्सेतुं “योगिनो बहूपकारत्ता"ति वुत्तं ।
तस्साति सम्मादिछिया । “बहूपकारोति वत्वा तं बहूपकारतं उपमाय विभावेन्तो "यथा ही"तिआदिमाह । अयं तम्बकंसादिमयत्ता कूटो। तंपरिहरणतो महासारताय छेको। एवन्ति यथा हेरञिकस्स चक्खुना दिस्वा कहापणविभागजानने किरियासाधकतमभावेन करणन्तरं बहुकारं यदिदं हत्थो, एवं योगिनो पञाय ओलोकेत्वा धम्मविभागजानने पुब्बचारीभावेन धम्मन्तरं बहुकारं यदिदं वितक्को वितक्केत्वाव पाय तदवबोधतो । तस्मा सम्मासङ्कप्पो सम्मादिट्ठिया बहुकारोति अधिप्पायो। दुतियउपमायं एवन्ति यथा तच्छको परेन परिवत्तेत्वा परिवत्तेत्वा दिन्नं दब्बसम्भारं वासिया तच्छेत्वा गेहादिकरणकम्मे उपनेति, एवं योगी वितक्केन लक्खणादितो वितक्केत्वा दिन्नधम्मे याथावतो परिच्छिन्दित्वा परिञाभिसमयादिकम्मे उपनेतीति योजना। वचीभेदस्स उपकारको वितक्को सावज्जानवज्जवचीभेदे निवत्तनपवत्तनकराय सम्मावाचायपि उपकारकोवाति आह "स्वाय"न्तिआदि। "यथाहा"तिआदिना धम्मदिन्नाय भिक्खुनिया विसाखस्स नाम गहपतिनो वुत्तं चूळवेदल्लसुत्तपदं (म० नि० १.४६४) साधकभावेन दस्सेति । भिन्दतीति निच्छारेति ।
वचीभेदनियामिका वाचा कायिककिरियानियामकस्स कम्मन्तस्स उपकारिकाति तदत्थं लोकतो पाकटं कातुं “यस्मा पना"तिआदि वुत्तं। उभयं सुचरितन्ति कायसुचरितं, वचीसुचरितञ्च । आजीवट्टमकसीलं नाम चतुब्बिधवचीसुचरिततिविधकायसुचरितेहि सद्धिं
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(२.६.३७६-७-३७६-७)
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना
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सम्माआजीवं अट्ठमं कत्वा वुत्तं आदिब्रह्मचरियकसीलं । यहि सन्धाय वुत्तं "पुब्बेव खो पनस्स कायकम्मं वचीकम्मं आजीवो सुपरिसुद्धो होती''ति । तदुभयानन्तरन्ति दुच्चरितद्वयप्पहायकस्स सुचरितद्वयपारिपूरिहेतुभूतस्स सम्मावाचासम्माकम्मन्तद्वयस्स अनन्तरं । सुत्तपमत्तेनाति अप्पोस्सुक्कं सुत्तेन, पमत्तेन च । इदं वीरियन्ति चतुब्बिधं सम्मप्पधानवीरियं । कायादीसूति कायवेदनाचित्तधम्मसु । इन्द्रियसमतादयो समाधिस्स उपकारका । तबिधुरा धम्मा अनुपकारका । गतियोति निष्फत्तियो, किच्चादिसभावे वा। समन्वेसित्वाति उपधारेत्वा, हेतुम्हि चायं त्वापच्चयो।
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना ३७६-७. कस्मा आरद्धन्ति अनुसन्धिकारणं पुच्छित्वा तं विस्सज्जेतुं “अयं किरा"तिआदि वुत्तं तेन अज्झासयानुसन्धिवसेनायं उपरि देसना पवत्ताति दस्सेति । तेनाति तथालद्धिकत्ता । अस्साति लिच्छविरो। देसनायन्ति सण्हसुखुमाय सुझतपटिसञ्जुत्ताय यथादेसितदेसनाय । नाधिमुच्चतीति न सद्दहति न पसीदति । तन्तिधम्मं नाम कथेन्तोति येसं अत्थाय धम्मो कथीयति, तत्थ तेसं असतिपि मग्गपटिवेधे केवलं सासने पवेणीभूतं, परियत्तिभूतं वा तन्तिधम्मं कत्वा कथेन्तो, तेन तदा तेसं मग्गपटिवेधाभावं दस्सेति ।
रूपस्माति सम्मासम्बदत्ता अविपरीतदेसनताय एवंपाकटधम्मकायस्स सत्थनो। अस्साति पठमज्झानादिसमधिगमेन समाहितचित्तस्स कुलपुत्तस्स एतं "तं जीवन्तिआदिना उच्छेदादिगहणं अपि नु युत्तन्ति पुच्छति, लद्धिया पन झानाधिगममत्तेन न ताव विवेचितत्ता "युत्तमस्सेत"न्ति तेहि वुत्ते झानलाभिनोपेतं गहणं अयुत्तमेवाति तं उच्छेदवादं, सस्सतवादं वा “अहं खो...पे०... न वदामी''तिआदिना पटिक्खिपित्वाति साधिप्पायत्थो । एतन्ति पठमज्झानादिकं । एवन्ति यथावुत्तनयेन । अथ च पनाति एवं जाननतो, पस्सनतो च। कामं विपस्सकादिदस्सनम्पि पाळियं कतं, अरहत्तकूटेन पन देसना निट्ठापिताति दस्सेतुं "उत्तरि खीणासवं दस्सेत्वा"ति वुत्तं । ते हि द्वे पब्बजिता विपस्सकतो पट्ठाय “न कल्लं तस्सेतं वचनाया''ति अवोचुं । इमस्साति खीणासवस्स | किञ्चापि “अत्तमना अहेसु"न्ति पाळियं न वुत्तं, “न कल्ल'"न्तिआदिना पन विस्सज्जनावचनेनेव तेसं अत्तमनता वेदितब्बाति आह "ते ममा"तिआदि । तत्थ यस्मा खीणासवो विगतसम्मोहो तिण्णविचिकिच्छो, तस्मा तस्स तथा वत्तुमयुत्तन्ति उप्पन्ननिच्छयताय तं मम वचनं सुत्वा अत्तमना अहेसुन्ति अत्थो । सोपि खो लिच्छवि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.६.३७६-७-३७६-७)
राजा ते विय तथासञ्जातनिच्छयत्ता अत्तमनो अहोसि । तेनाह "एवं वुत्ते सोपि अत्तमनो अहोसी"ति । यं पनेत्थ अत्थतो अविभत्तं, तं सुविज्ञेय्यमेव ।
___ इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्जावेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया महालिसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
महालिसुत्तवण्णना निविता।
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७. जालियसुत्तवण्णना
ढेपब्बजितवत्थुवण्णना ३७८. एवं महालिसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि जालियसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, महालिसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स जालियसुत्तभावं वा पकासेतुं “एवं मे सुतं...पे०... कोसम्बियन्ति जालियसुत्त"न्ति आह । "घोसितेना"तिआदिना मज्झेलोपसमासं दस्सेति, घोसितस्स आरामोतिपि वत्तब्बं । एवम्पि हि “अनाथपिण्डिकस्स आरामे''तिआदीसु (पारा० २३४) विय दायककित्तनं होति, एवं पन कित्तेन्तो आयस्मा आनन्दो अजेपि तस्स दिवानुगतिआपज्जने नियोजेतीति अञत्थ वुत्तं । तत्थ कोयं घोसितसेट्टि नाम, कथञ्चानेन आरामो कारितो, कथं पन तत्थ भगवा विहासीति पच्छाय सब्बं तं विस्सज्जनं समुदागमतो पट्ठाय सङ्केपतोव दस्सेन्तो "पुब्बे किरा"तिआदिमाह । अल्लकप्परट्ठन्ति बहूसु पोत्थकेसु दिस्सति, कत्थचि पन “अहिलरह"न्ति च "दमिळरटु"न्ति च लिखितं । ततोति अल्लकप्परट्ठतो । “पुत्तं...पे०... अगमासी"ति इदम्प "तस्सेतं कम्म''न्ति आपेतुं वुत्तं । तदाति तेसं गामं पविठ्ठदिवसे | बलवपायासन्ति गरुतरं बहुपायासं । जीरापेतुन्ति समवेपाकिनिया गहणिया पक्कापेतुं । असन्निहितेति गेहतो बहि अनं गते । भुस्सतीति नदति, “भुभु"इति सुनखसदं करोतीति अत्थो । इदम्पिस्स एकं कम्मं । पच्चेकबुद्धे पन चीवरकम्मत्थाय अनं ठानं गते सुनखस्स हदयं फालितं । तिरच्छाना नामेते उजुजातिका होन्ति अकुटिला, मनुस्सा पन अझं हदयेन चिन्तेति, अचं मुखेन कथेन्ति । तेनेवाह “गहनव्हेतं भन्ते यदिदं मनुस्सा, उत्तानकञ्हेतं भन्ते यदिदं पसवो''ति (म० नि० २.३)!
___ इति सो ताय पच्चेकबुद्धे सिनेहवसेन उजुदिहिताय अकुटिलताय कालङ्कृत्वा तावतिसभवने निब्बत्तो । तं सन्धायाह "सो...पे०... निब्बत्ती"ति । तस्स पन कण्णमूले
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दीघनिकार्य सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
कथेन्तस्स सद्दो सोळसयोजनट्टानं फरति, पकतिकथासद्दो पन सकलं दसयोजनसहस्सं देवनगरं, एवं सरघोससम्पत्तिया “घोसकदेवपुत्तो" त्वेव नामं अहोसि । अयमस्स पच्चेकबुद्धे सिनेन भुक्करणस्स निस्सन्दो | चवित्वाति आहारक्खयेन चवित्वा । देवलोकतो हि देवपुत्ता आयुक्खयेन, पुञ्ञक्खयेन, आहारक्खयेन, कोपेनाति चतूहि कारणेहि चवन्ति । इमस्स पन कामगुणे परिभुञ्जतो मुट्ठस्सतिस्स आहारक्खयेन चवनं होति । सो कोसम्बियं नगरसोभिनिया कुच्छिस्मिं पटिसन्धिं गहि । नगरसोभिनियो किर धीतरं पटिजग्गन्ति, न पुत्तं । धीतरी हि तासं पवेणि घटयन्ति, तस्मा सापि तं सङ्कारकूटे छड्डापेति । अयमस्स पुब्बे पुत्तछडुनकम्मस्स निस्सन्दो । पापकम्मञ्हि नामेतं " अप्पक "न्ति नावमञ्ञितब्बं। तमेको मनुस्सो काकसुनखपरिवारितं दिस्वा “पुत्तो मे लद्धोति गेहं नेसि, तस्स पन हत्थतो कोसम्बकसेट्ठि कहापणसहस्सं दत्वा अग्गहेसि, तमत्थं सन्धाय “ कोसम्बियं एकस्स कुलस्स घरे निब्बत्ती "तिआदि वृत्तं । सत्तक्खत्तुं घातापनत्थं उपक्कमकरणम्पि पुत्तछडुनकम्मस्सेव निस्सन्दो । सेट्ठिधीतायाति जनपदसेट्ठिनो धीताय । वेय्यत्तियेनाति पञ्ञावेय्यत्तियेन । सा हि तस्स पितरा पेसितं मारापनपण्णं फालेत्वा विवाहपण्णं बन्धित्वा जीवितलाभं करोति । तायेव सरसम्पत्तिया घोसितसेट्ठि नाम जातो ।
सरीरसन्तप्पनत्थन्ति हिमवन्तेव मूलफलाहारताय किलन्तसरीरस्स लोणम्बिलसेवनेन पीननत्थं । तसिताति पिपासिता । किलन्ताति परिस्सन्तकाया । वटरुक्खन्ति महानिग्रोधरुक्खं । ते किर तं पत्वा तस्स मूले निसीदिंसु । अथ जेट्ठकतापसो निग्रोधरुक्खस्स सोभासम्पत्तिं पस्सित्वा " महानुभावो मञ्ञे एत्थ अधिवुत्था देवता । साधु वतायं देवता इसिगणस्स पानीयादिदानेन अद्धानपरिस्समं विनोदेय्या "ति चिन्तेसि । देवतापि तथा चिन्तितं उत्वा इसिगणस्स पानीयन्हानकभोजनानि अदासि । तेनाह " तत्था "तिआदि । जेट्ठकतापसस्स पन तथा चिन्तनं अविसेसतो सब्बत्थ आरोपेत्वा “सङ्गहं पच्चासिसन्ता' "ति वृत्तं । " हत्थं पसारेत्वा" ति इमिना हत्थप्पसारणमत्तेन तस्सा यथिच्छितनिप्फत्तिं दस्सेति । देवता आहाति सा अत्तनो पुञ्ञस्स परित्तकत्ता लज्जाय कथेतुं अविसहन्तीपि पुनप्पुनं निप्पीळियमाना एवमाह । सोति अनाथपिण्डिको गहपति । भतकानन्ति भतिया वेय्यावच्चं करोन्तानं दासपेसकम्मकरानं । पकतिभत्तवेतनमेवाति पकतिया दातब्बभत्तवेतनमेव । तदा उपोसथिकत्ता कम्मं अकरोन्तानम्पि कम्मकरणदिवसे दातब्बभत्तवेतनमेव, न ततो ऊनन्ति अत्थो । धम्मपदट्ठकथायं खुद्दकभाणकानं मतेन " 'सायमासत्थाय आगतो" ति (ध० प० अट्ठ० १. २. सामावतीवत्थु ) वुत्तं इध पन दीघभाणकानं मतेन “मज्झन्हिके पातरासत्थाय आगतो 'ति । कञ्चीति कञ्चिपि भतकं किञ्चिपि भतककम्मन्ति वा सम्बन्धो ।
(२.७.३७८-३७८)
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(२.७.३७८ - ३७८)
द्वेपब्बजितवत्थुवणना
मज्झन्हिककालत्ता “ उपड्डदिवसो गतो "ति आह, तेन उपड्ढदिवसमेव समान्नित्ता "उपड्डूपोसथो 'ति तं वोहरन्तीति दस्सेति । धम्मपदट्ठकथायं (ध० प० अट्ठ० १.२ सामावतीवत्थु ) रत्तिभागेन उपट्टूपोसथो वुत्तो, इध पन मज्झन्हिकतो पट्ठाय दिवसभागेनेव, तदवसेसदिवसरत्तिभागेन वा । असमेपि हि भागे उपड्डुसद्दो पवत्तति । तदहेवाति अरुणुग्गमनकालं सन्धाय वृत्तं ।
" घोसोपि खो दुल्लभो लोकस्मिं यदिदं बुद्धो 'ति सञ्जातपीतिपामोज्जो । तदहेवाति कोसम्बिं पत्तदिवसतो दुतियदिवसेयेव । तुरितात्थाति तुरिता अत्थ, सीघयायिनो भवथाति
अत्थो । भिक्खुब्ब सन्धाय " पब्बजित्वा त वृत्तं । अरहत्तन्ति
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चतुपटिसम्भिदासमलङ्कतं अरहन्तभावं । तेपि सेट्ठिनो सोतापत्तिफले पतिट्ठाय अड्डुमासमत्तं दानानि दत्वा पच्चागम्म तयो विहारे कारेसुं । भगवा पन देवसिकं एकैकस्मिं विहारे वसति । यस्स च विहारे वुत्थो, तस्सेव घरे पिण्डाय चरति, तदा पन घोसितस्स विहारे विहरति । तेन वुत्तं " कोसम्बियं विहरति घोसितारामे 'ति ।
बाहिरसमयमत्तेन उपज्झायो, न सासने विय उपज्झायलक्खणेन । उपेच्च परस्स वाचाय आरम्भनं बाधनं उपारम्भो, दोसदस्सनवसेन घट्टनन्ति अत्थो । तेनाह " वादं आरोपेकामा हुत्वा" ति । वदन्ति निन्दावसेन कथेन्ति एतेनाति हि वादो, दोसो, तमापेतुकामा उपरि पतिट्ठपेतुकामा हुत्वाति अत्थो । कथमारोपेतुकामाति आह “इति किरा "तिआदि । तं जीवं तं सरीरन्ति यं वत्थु जीवसञ्ञितं, तदेव सरीरसञ्जितं । इदहि " रूपं अत्ततो समनुपस्सती 'ति वृत्तवादं गत्वा वदन्ति । रूपञ्च अत्तानञ्च अद्वयं एकीभावं कत्वा समनुपस्सनवसेन, “सत्तो"ति वा बाहिरकपरिकप्पितं अत्तानं सन्धाय वदन्ति । तथा हि वृत्तं "इधेव सत्तो भिज्जती 'ति । अस्साति समणस्स गोतमस्स । भिज्जतीति निरुदयविनासवसेन विनस्सति । तेन जीवितसरीरानं अनञ्ञत्तानुजाननतो, सरीरस्स च भेददस्सनतो। न हेत्थ यथा दिट्ठभेदवता सरीरतो अनञ्ञत्ता अदिट्ठोपि जीवस्स भेदो वुत्तो, एवं अदिभेदवता जीवतो अनञ्ञत्ता सरीरस्सापि अभेदोति सक्का वत्तुं तस्स भेदस्स पच्चक्खसिद्धत्ता, भूतुपादायरूपविनिमुत्तस्स च सरीरस्स अभाव इमिना अधिप्पायेनाह " उच्छेदवादो होती 'ति ।
अजं जीवं अजं सरीरन्ति अञ्ञदेव वत्थु जीवसञ्ञितं, अञ्ञ सरीरसञ्ञितं । इदहि “रूपवन्तं अत्तानं समनुपस्सती 'तिआदिनयप्पवत्तवादं गत्वा वदन्ति । रूपभेदस्सेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका - २ (२.७.३७९-३८०-३७९-३८०)
दिट्ठत्ता, अत्तनि च तदभावतो " अत्ता निच्चो "ति अयमत्थो आपन्नो वाति इमिना अधिप्पायेनाह " सत्तो सरसतो आपज्जती "ति ।
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३७९-३८०. तयिदं नेसं वञ्झापुत्तस्स दीघरस्सतादिपरिकप्पनसदिसं, तस्मायं पञ्हो ठपनीयो । न हेस अत्थनिस्सितो, न धम्मनिस्सितो, नादिब्रह्मचरियको, न निब्बिदादिअत्थाय संवत्तति । पोपादत्तञ्चेत्थ निदस्सनं । तं तत्थ राजनिमीलनं कत्वा "तेन हावुसोसुणाथा'’तिआदिना सत्था सं उपरि धम्मदेसनमारभीति आह भगवा'' तिआदि । सस्सतुच्छेददिट्ठियो द्वे अन्ता । अरियमग्गो मज्झिमा पटिपदा । तस्सायेव पटिपदायाति मिच्छापटिपदाय एव ।
" अथ
सद्धापब्बजितस्साति सद्धाय पब्बजितस्स " एवमहं इतो वट्टदुक्खतो निस्सरिस्सामी "ति पब्बज्जमुपगतस्स, तदनुरूपञ्च सीलं पूरेत्वा पठमज्झानेन समाहितचित्तस्स । एतन्ति किलेसवट्टपरिवुद्धिदीपनं “ तं जीवं तं सरीर "न्तिआदिकं दिट्ठिसंकिलेसनिस्सितवचनं । निब्बिचिकिच्छो न होतीति धम्मेसु तिण्णविचिकिच्छो न होति, तत्थ तत्थ आसप्पनपरिसप्पनवसेन पवत्ततीति अत्थो ।
एतमेवं जानामीति येन सो भिक्खु पठमं ज्ञानं उपसम्पज्ज विहरति, एतं ससम्पयुत्तं धम्मं ‘“महग्गतचित्त "न्ति एवं जानामि । तथा हि वृत्तं " महग्गतचित्तमेतन्ति सञ्ञ ठपेसि "न्ति । नो च एवं वदामीति यथा दिट्ठिगतिका तं धम्मजातं सनिस्सयं अभेदतो गण्हन्ता “तं जीवं तं सरीर "न्ति, तदुभयं वा भेदतो गण्हन्ता "अञ्जं जीवं अञ्ञ सरीर "न्ति अत्तनो मिच्छागाहं पवेदेन्ति, एवमहं न वदामि तस्स धम्मस्स सुपरिञतत्ता । तेनाह “ अथ खो"तिआदि । बाहिरका येभुय्येन कसिणज्झानानि एव निब्बत्तेन्तीति वुत्तं "कसिणपरिकम्मं भावेन्तस्सा" ति । यस्मा भावनानुभावेन झानाधिगमो, भावना च पथवीकसिणादिसञ्जाननमुखेन होतीति कत्वा सञ्ञसीसेन निद्दिसीयति, तस्मा “ सञ्ञाबलेन उप्पन्न "न्ति आह । तेन वुत्तं " पथवीकसिणमेको सञ्जानातीतिआदि । यस्मा पन भगवता तत्थ तत्थ वारे 'अथ च पनाहं न वदामीति वुत्तं, तस्मा भगवतो वचनमुपदेसं कत्वा न वत्तब्बं किरेतं केवलिना उत्तमपुरिसेनाति अधिप्पायेन " न कल्लं तस्सेत "न्ति आहंसु, न सयं पटिभानेनाति दस्सेतुं “मज्ञमाना वदन्तीति वुत्तं । सेसं अनन्तरसुत्ते वुत्तनयत्ता, पाकटत्ता च सुविज्ञेय्यमेव ।
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(२.७.३७९-३८०-३७९-३८०)
द्वेपब्बजितवत्थुवण्णना
३०३
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्जावेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया जालियसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना।।
जालियसुत्तवण्णना निद्विता।
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८. महासीहनादसुत्तवण्णना
अचेलकस्सपवत्थुवण्णना
३८१. एवं जालियसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि महासीहनादसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, जालियसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस् सुत्तस्स महासीहनादसुत्तभावं वा पकासेतुं “ एवं मे सुतं...पे०... उरुञ्ञायं विहरतीति महासीहनादसुत्तन्ति आह । एतदेव नामन्ति यस्मिं रट्ठे तं नगरं, तस्स रट्ठस्सपि यस्मिं नगरे भगवा विहासि, तस्स नगरस्सपि "उरुञ्ञा " त्वेव नामं, तस्मा उरुज्ञयन्ति उरुञनामजनपदे उरुञ्ञानामनगरेति आवृत्तिआदिनयेन अत्थो वेदितब्बो । इमिना इममत्थं दस्सेति - न सब्बत्थ नियतपुल्लिङ्गपुथुवचनाव जनपदवाची सद्दा, कथचि अनियतपुल्लिङ्गपुथुवचनापि यथा “आळवियं विहरती 'ति (पाचि० ८४, ८९) केचि जनपदमेवत्थं वदन्ति तं अपनेतुं “भगवा "तिआदि वृत्तं । रमणीयोति मनोहरभूमिभागताय, छायूदकसम्पत्तिया, जनविवित्तताय च मनोरमो । मिगानं अभयं देि एत्थाति मिगदायो । तेनाह "सो" तिआदि । चेलं वत्थं, तं नत्थि अस्साति अचेलोति वृत्तं “ नग्गपरिब्बाजको "ति । नामन्ति गोत्तनामं । तपनं सन्तपनं कायस्स खेदनं तपो, सो एतस्स अत्थीति तपस्सी । यस्मा तथाभूतो तपं निस्सितो, तपो च तं निस्सितो होति, तस्मा "तपनिस्सितक" न्ति आह । मुत्ताचारादीति एत्थ आदिसद्देन परतो पाळिय (दी० नि० १.३९७) मागता हत्थापलेखनादयो सङ्गहिता । लूखं फरुसं साधुसम्मताचारविरहतो अपसादनीयं आजीवति वत्ततीति लूखाजीवीति अट्ठकथामुत्तकनयो । उप्पण्डे उहसनवसेन परिभासति । उपवदतीति अवञ्ञपुब्बकं अपवदति । तेन वुत्तं " हीळेति वम्भेती”ति । ‘“हेतुम्हि ञणं धम्मपटिसम्भिदा 'तिआदीसु विय धम्मसद्दी हेतुपरियायोि आह “कारणस्स अनुकारण "न्ति । तथावुत्तसद्दत्थोयेवेत्थ कारणसद्दस्स हेतुभावतो । अथवा पयुत्तो हि सद्दपयोगो । सोयेव च सद्दत्थी परेहि वुच्चमानो अनुकारणं तदनुरूपं तस्सदिसं
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अचेलकस्सपवत्थुवण्णना
वा ततो पच्छा वा वृत्तकारणभावतो । परेहीति येसं तुम्हेहि इदं वृत्तं, तेहि परेहि। वृत्तकारणेनाति यथा तेहि वृत्तं तथा चे तुम्हेहि न वुत्तं, एवं सति तेहि वृत्तकारणेन सकारणो हुत्वा तुम्हाकं वादो वा ततो परं तस्स अनुवादो वा कोचि अप्पमत्तकोपि विहि गरहितब्बं कारणं ठानं नागच्छेय्य, किमेवं नागच्छतीति योजना । " इदं वृत्तं होती " तिआदिना तदेवत्थं सङ्क्षेपतो दस्सेति ।
(२.८.३८२ - ३८२)
३८२. इदानि यं विभज्जवादं सन्धाय भगवता "न मेते वृत्तवादिनो 'ति सङ्क्षेपेन वत्वा तं विभजित्वा दस्सेतुं "इधाहं कस्सपा 'तिआदि वृत्तं तं विभागेन दस्सेन्तो "इधेकच्चो "तिआदिमाह । भगवा हि निरत्थकं अनुपसमसंवत्तनिकं कायकिलमथं “अत्तकिलमथानुयोगो दुक्खो अनरियो अनत्थसंहितो "तिआदिना (सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १३ ) । गरहति, सात्थकं पन उपसमसंवत्तनिकं कायकिलमथं “आरञ्ञिको होति, पंसुकूलिको होती "तिआदिना (अ० नि० २.५.१८१, १८२; परि० ३२५) वण्णेति । अप्पपुञ्ञतायाति अपुञ्ञताय । अप्पसद्दो चेत्थ "द्वत्तिछदनस्स परियायं अप्पहरिते ठितेन अधिट्ठातब्ब"न्तिआदीसु (पाचि० १३५) विय अभावत्थो । मिच्छादिट्टिभावतो कम्मफलं पटिक्खिपन्तेन ‘“नत्थि दिन्न "न्तिआदिना ( दी० नि० १.१७१; म० नि० १.४४५; २.९४, २२५; ३.९१, ११६, १३६, सं० नि० २.३.२१० अ० नि० १.३.११८; ३.१०.१७६; ध० स० १२२१, विभं० ९०७) मिच्छादिट्ठि पुरक्खत्वा जीवितवुत्तिहेतु तथा तथा दुच्चरितपूरणं सन्धाय “तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वा" ति वृत्तं ।
भिय्योसोमत्तायाति मत्ततो अतिरेकं । “भिय्योसो" ति हि इदं भिय्योसद्देन समानत्थं नेपातिकं । अनेसनवसेनाति कोह ठत्वा असन्तगुणसम्भावनिच्छाय यथा तथा तपं त्वा अनेसितब्बमेसनावसेन मिच्छाजीवेनाति अत्थो । यथावुत्तनयेन जीवितवृत्तिहेतु तीणि दुच्चरितानि पूरेत्वा । इमे द्वेति "अप्पपुञ्ञ, पुञ्ञवा "ति च वुत्ते दुच्चरितकारिनो द्वे पुग्गले ।
३०५
दुतियनये इमे द्वेति "अप्पपुञ्ञो, पुञ्ञवा "ति च वुत्ते सुचरितकारिनो द्वे पुग्गले ।
पठमदुतियनयेसु वुत्तनयेनेव ततियचतुत्थनयेसुपि यथाक्कमं अत्थो वेदितब्बो । पठमततियनयेसु चेत्थ अहेतुक अकिरियवादिनो । दुतियचतुत्थनयेसु पन कम्मकिरियवादिनोति दट्ठब्बं । अप्पदुक्खविहारीति अप्पकं दुक्खेन विहारी । बाहिरकाचारयुत्तोति सासनाचारतो
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३०६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
बाहिरकेन तित्थियाचारेन युत्तो | अत्तानं सुखेत्वाति अधम्मिकेन अनेसनाय लद्धपच्चयनिमित्तेन सुखेन अत्तानं सुखेत्वा सुखं कत्वा, “सुखे ठपेत्वा "ति अधुना पाठो |
“न दानि मया सदिसो अत्थी "तिआदिना तण्हामानदिट्ठिसङ्घातानं तिस्सन्नं मञ्ञनानं वसेन दुच्चरितपूरणमाह । लाभसक्कारं वा उप्पादेन्तो तीणि दुच्चरितानि पुरेत्वाति सम्बन्धो | मिच्छादिट्ठिवसेनाति “नत्थि कामेसु दोसो ति एवं पवत्तमिच्छादिट्ठिवसेन । परिब्बाजिकायाति बाहिरपब्बज्जमुपगताय तापसदारिकाय, छन्नपरिब्बाजिकाय च । " अपरो "ति एत्थापि हि " तापसो वा छन्नपरिब्बाजको वा "ति अधिकारो । दहरायाति तरुणाय । मुदुकायाति सुखुमालाय । लोमसायाति तनुतम्बलोमताय अप्पलोमवतिया । लोमं एतिस्सा अत्थीति लोमसा । लिङ्गत्तयेपि हि स-पच्चयेन पदसिद्धिमिच्छन्ति सद्दविदू । कामेसूति वत्थुकामेसु । पातब्बतन्ति परिभुञ्जितब्बं । परिभोगत्थो हेत्थ पा - सद्दो, तब्बसद्दो च भावसाधनो । ता-सद्दो पन सकत्थे यथा "देवता"ति, पातब्बतन्ति वा परिभुञ्जनकतं, कत्तुसाधनो चेत्थ तब्बसद्दी यथा उपरिपण्णासके पञ्चत्तयसुत्ते “ये हि केचि भिक्ख समणा वा ब्राह्मणा वा दिट्ठसुतमुतविञ्ञतब्बसङ्घारमत्तेन एतस्स आयतनस्स उपसम्पदं पञ्ञपेन्ती 'ति (म० नि० ३.२४) तथा हि तदट्ठकथायं वृत्तं " विजानातीति विज्ञातब्ब दिट्ठसुतमुतविञ्ञतमत्तेन पञ्चद्वारिकसञ्ञपवत्तिमत्तेनाति अयहि एत्थ अत्थो 'ति, (म० नि० अट्ठ० ३.२४) तट्टीकायञ्च " यथा निय्यन्तीति निय्यानिकाति बहुलं वचनतो कत्तुसाधनो निय्यानिकसद्दो, एवं इध विञ्ञातब्बसद्दोति आह 'विजानातीति विञ्ञातब्ब'न्ति," ता- सद्दो पन भावे । अस्सादियमानपक्खे ठितो किलेसकामोपि वत्थुकामपरियापन्नोयेव, तस्मा तेसु यथारुचि परिभुञ्जन्तोति अत्थो ।
(२.८.३८२ - ३८२)
इदन्ति नयचतुक्कवसेन वुत्तं अत्थप्पभेदविभजनं । " तित्थियवसेन आगतं अट्ठकथायं तथा विभत्तत्ता ति ( दी० नि० टी० १.३८२) आचरियेन वुत्तं तथायेव पन पाळियम्पि विभत्तन्ति वेदितं । सासनेपीति इमस्मिं सासनेपि ।
कथं लब्भतीति आह " एकच्चो ही "तिआदि । यस्मा न लभति, तस्मा अनेसनं कत्वाति आदिना योजेतब्बं । अरहतं वा अत्तनि असन्तं " अत्थि मे "ति यथारुतं पटिजानित्वा । सामन्तजप्पनपच्चयपटिसेवनइरियापथसन्निस्सितसङ्घातानि तीणि वा कुहनवत्थूनि पटिसेवित्वा ।
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(२.८.३८३ -३८४)
अचेलकस्सपवत्थुवण्णना
तादिसोवाति धुतङ्ग (विसुद्धि० १.२२; खाजीवी एव ।
समादानवसेन "अरहत्तपटिजाननेना 'तिआदिपि हि वत्तब्बं ।
थेरगा० अट्ठ० अनेसनवसेनाति
दुल्लभसुखो भविस्सामि दुग्गतीसु उपपत्तियाति अधिप्पायो । असक्कोन्तोति एत्थ अन्तसो भावलक्खणे, असक्कुणमाने सतीति अत्थो ।
३०७
३८३. असुकट्ठानतोति असुकभवतो । आगताति उपपत्तिवसेन इधागता । इदानि गन्तब्बट्ठानञ्चाति उपपत्तिवसेनेव आयतिं गमितब्बभवञ्च । ततोति अतीतभवतो । पुन उपपत्तिन्ति आयतिं अनन्तरभवे पुन उपपत्तिं, ततो अनन्तरभवेपि पुन उपपत्तिन्ति पुनपुनं निब्बत्तिं । केन कारणेन गरहिस्सामीति एत्थ यथाभूतमजानन्तो इच्छादोसवसेन यं किञ्चि गरहेय्य, न तथा चाहं, अहं पन यथाभूतं जानन्तो सब्बम्पेतं केन कारणेन गरहिस्सामि सब्बस्सपेतस्स तपस्स गरहाय कारणं नत्थीति इममधिप्पायं दस्सेन्तो “गरहितब्बमेवा’’तिआदिमाह । भण्डिकन्ति पुटभण्डिकं । उपमापक्खे परिसुद्धताय धोतं, तथा अधोतञ्च, उपमेय्यपक्खे पन पसंसितब्बगुणताय धोतं परिसुद्धं, तथा अधोतञ्चाति अत्थो । तमत्थन्ति गरहितब्बस्स चेव गरहणं, पसंसितब्बस्स च पसंसनं ।
२.८४४ आदयो) निदस्सनमत्तं ।
३८४. दिट्ठधम्मिकस्स, सम्परायिकस्स च अत्थस्स साधनवसेन पवत्तिया गरुकत्ता न कोचि न साधूति वदति । पञ्चविधं वेरन्ति पाणातिपातादिपञ्चविधवेरं । तहि पञ्चविधस्स सीलस्स परिपक्खभावतो, सत्तानं वेरहेतुताय च "वेर "न्ति वुच्चति, ततो एव च तं न कोचि " साधू" ति वदति तथा दिट्ठधम्मिकादिअत्थानमसाधनतो, सत्तानं साधुभावस्स दूसनतो च । न निरुन्धितब्बन्ति रूपग्गहणे न निवारेतब्बं । दस्सनीयदस्सनत्थो हि चक्खुपटिलाभोति तेसमधिप्पायो । अयमेव नयो सोतादीसुपि । यदग्गेन तेसं पञ्चद्वारे असंवरो साधु तदग्गेन तत्थ संवरो न साधूति अधिप्पायो होतीति आह "पुन... पे०... असंवर "न्ति ।
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अयमेत्थ अट्ठकथातो अपरो नयो- यं ते एकच्चं वदन्ति “साधू" ति ते “एवे समणब्राह्मणा'' ति वुत्ता तित्थिया यं अत्तकिलमथानुयोगादिं “साधू "ति वदन्ति, तं मयं न " साधू" ति वदाम । यं ते... पे०... " न साधू" ति यं पन ते अनवज्जपच्चयपरिभोगं सुनिवत्थसुपारुतादिसम्मापटिपत्तिञ्च “न साधू"ति वदन्ति तं मयं “ साधू' ति वदामाति ।
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३०८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.८.३८५-३८५)
इति यं परवादमूलकं चतुक्कं दस्सितं, तदेव पुन सकवादमूलकं चतुक्कं कत्वा दस्सितन्ति विज्ञापेतुं "एव"न्तिआदि वुत्तं । यहि किञ्चि केनचि समानं, तेनपि तं समानमेव । यञ्च किञ्चि केनचि असमानं, तेनपि तं असमानमेवाति आह "समानासमानत"न्ति । एत्थ च समानतन्ति समानतामत्तं । अनवसेसतो हि पहातब्बधम्मानं पहानं, उपसम्पादेतब्बधम्मानं उपसम्पादनञ्च सकवादेव दिस्सति, न परवादे । तेन वुत्तं "त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामी"तिआदि । सकवादपरवादानुरूपं वुत्तनयेन पञ्चसीलादिवसेनेव अत्थो वेदितब्बो।
समनुयुजापनकथावण्णना
___ ३८५. अन्तमिति आणत्तियं पञ्चमीअत्तनोपदं । लद्धि पुच्छन्तोति “किं समणो गोतमो संकिलेसधम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, उदाहु परे गणाचरिया, एत्थ ताव अत्तनो लद्धिं वदेही"ति एवं पटिञातं सिद्धन्तं पुच्छन्तो । कारणं पुच्छन्तोति “समणोव गोतमो संकिलेसधम्मे अनवसेसं पहाय वत्तती"ति वुत्ते “कारणेनपि एतमत्थं गाहया"ति एवं हेतुं पुच्छन्तो। उभयं पुच्छन्तोति “इदं नामेत्थ कारण''न्ति कारणं वत्वा पटिञाते अत्थे साधियमाने अन्वयतो, ब्यतिरेकतो च कारणं समत्येतुं सदिसासदिसप्पभेदं उपमोदाहरणद्वयं पुच्छन्तो। अपिच हेतुपमोदाहरणवसेन तिलक्खणसम्पत्तिया यथापटिञाते अत्थे साधिते सम्मदेव अनु पच्छा भासन्तो निगमेन्तोपि समनुभासति नामाति वेदितब्बं । "उपसंहरित्वा"ति पाठसेसो। "किं ते"तिआदि उपसंहरणाकारदस्सनं । दुतियपदेपीति "सङ्घन वा सङ्घ"न्ति पदेपि । वचनसेसं, उपसंहरणाकारञ्च सन्धाय "एसेव नयो"ति वुत्तं ।
तमत्थन्ति तं पहातब्बधम्मानं अनवसेसं पहाय वत्तनसङ्खातं, समादातब्बधम्मानं अनवसेसं समादाय वत्तनसङ्खातञ्च अत्थं । योजेत्वाति अकुसलादिपदेहि योजत्वा । अकोसल्लसम्भूतादिअत्थेन अकुसला चेव ततोयेव अकुसलाति च सङ्घाता, सङ्घातसद्दो चेत्थ आतत्थो, कोट्ठासत्थो च युज्जतीति आह "ञाता, कोट्ठासं वा कत्वा ठपिता"ति, पुरिमेन चेत्थ पदेन एकन्ताकुसले वदति, पच्छिमेन तं सहगते, तप्पटिपक्खिये च । एवहि कोट्ठासकरणेन ठपनं उपपन्नं होति । अकुसलपक्खिकभावेन हि ववत्थापनं कोट्ठासकरणं । अवज्जसद्दो दोसत्थो गारव्हपरियायत्ता, अ-सद्दस्स च तब्भाववुत्तितोति आह "सदोसा"ति |
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(२.८.३८६-३९२-३८६-३९२)
समनुयुजापनकथावण्णना
३०९
अरिया नाम निघोसा । इमे पन अकुसला कथञ्चिपि निद्दोसा न होन्तीति निदोसटेन अरिया भवितुं नालं असमत्था।
३८६-३९२.. "य"न्ति एतं कारणे पच्चत्तवचनन्ति दस्सेति “येना"ति इमिना | यं वा पनाति असम्भावनावचनमेतं, यं वा पन किञ्चीति अत्थो । पहाय वत्तन्तीति च अत्थवसा पुथुवचनविपरिणामोति वुत्तं "यं वा तं वा अप्पमत्तकं पहाय वत्तन्ती"ति । गणाचरिया चेत्थ पूरणमक्खलिआदयो। सत्थुपभवत्ता सङ्घस्स सङ्घसम्पत्तियापि सत्थुसम्पत्ति विभावीयतीति आह “सङ्घ...पे०... सिद्धितो"ति, सा पन पसंसा पसादहेतुकाति पसादमुखेन तं दस्सेतुं "पसीदमानापी"तिआदि वुत्तं । तत्थ सम्पिण्डनत्थेन पि-सद्देन अप्पसीदमानापि एवमेव न पसीदन्तीति सम्पिण्डेति । यथा हि अन्वयतो सत्थुसम्पत्तिया सावकेसु, सावकसम्पत्तिया च सत्थरि पसादो समुच्चीयति, एवं ब्यतिरेकतो सत्थुविपत्तिया सावकेसु, सावकविपत्तिया च सत्थरिअप्पसादोति दट्टब्बं । "तथा ही"तिआदि तब्बिवरणं । सरीरसम्पत्तिन्ति रूपसम्पत्तिं, रूपकायपारिपूरिन्ति अत्थो । रूपप्पमाणे सत्ते सन्धाय इदं वुत्तं, "धम्मदेसनं वा सुत्वा"ति इदन्तु घोसप्पमाणे, धम्मप्पमाणे च, "भिक्खून पनाचारगोचर"न्तिआदिं पन धम्मप्पमाणे, लूखप्पमाणे च। आचारगोचरादीहि धम्मो, सम्मापटिपत्तिया लूखो च होति । तस्मा “भवन्ति वत्तारो''ति पठमपदे रूपप्पमाणा, घोसप्पमाणा, धम्मप्पमाणा च, दुतियपदे धम्मप्पमाणाव योजेतब्बा। कीवरूपोति कित्तकजातिको | या सङ्घस्स पसंसाति आनेत्वा सम्बन्धो, अयमेव वा पाठो ।
तत्थ या बुद्धानं, बुद्धसावकानमेव च पासंसता, अञ्जसञ्च तदभावो जोतितो, तं विरतिप्पहानसंवरुद्देसवसेन नीहरित्वा दस्सेन्तो "अयमधिप्पायो"तिआदिमाह । तत्थ सेतुघातविरतिया अरियमग्गसम्पयुत्तत्ता "सब्बेन सब्बं नत्थी"ति वुत्तं । अट्ठसमापत्तिवसेन विक्खम्भनप्पहानमत्तं, विपस्सनामत्तवसेन तदङ्गप्पहानमत्तन्ति यथालाभं योजेतब्बं । विपस्सनामत्तवसेनाति च “अनिच्चन्ति वा “दुक्ख"न्ति वा विविधं दस्सनमत्तवसेन, न पन नामरूपववत्थानपच्चयपरिग्गण्हनपुब्बकं लक्खणत्तयं आरोपेत्वा सङ्घारानं सम्मसनवसेन । नामरूपपरिच्छेदो. हि अनत्तानपस्सना च बाहिरकानं नत्थि । इतरानि समुच्छेदपटिप्पस्सद्धिनिस्सरणप्पहानानि तीणि सब्बेन सब्बं नत्थि मग्गफलनिब्बानत्ता । लोकियपञ्चसीलतो अञ्जो सब्बोपि सीलसंवरो, “खमो होति सीतस्स उण्हस्सा''तिआदिना (म० नि० १.२४; ३.१५९; अ० नि० १.४.११४) वुत्तो सुपरिसुद्धो खन्तिसंवरो, “पजायेते पिधिय्यरे''तिआदिना (सु० नि० १०४१; चूळनि० ६०) वुत्तो किलेसानं
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३१०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.८.३९३-३९३)
समुच्छेदको मग्गज्ञाणसङ्घातो जाणसंवरो, मनच्छट्ठानं इन्द्रियानं पिदहनवसेन पवत्तो सुपरिसुद्धो इन्द्रियसंवरो, “अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाया"तिआदिना (दी० नि० २.४०३; म० नि० १.१३५; सं० नि० ३.५.८; विभं० २०५) वुत्तो सम्मप्पधानसङ्घातो वीरियसंवरोति इमं संवरपञ्चकं सन्धाय "सेसं सब्बेन सब्बं नत्थी'ति वुत्तं ।
"पञ्च खो पनिमे पातिमोक्खुद्देसा"तिआदिना यथावुत्तसीलस्सेव पुन गहणं सासने सीलस्स बहुभावं दस्सेत्वा तदेकदेसे एव परेसं अवट्ठानदस्सनत्थं । “उपोसथुद्देसा"ति अधुना पाठो। पचायतीति पतिद्वितभावेन पाकटो होति, तस्मा मया हि...पे०... नत्थीति योजेतब् | सीहनादन्ति सेनादं, अभीतनादं केनचि अप्पटिवत्तियवादं । यं पन वदन्ति
"उत्तरस्मिं पदे ब्यग्घ-पुङ्गवोसभकुञ्जर । सीहसठूलनागाद्या, पुमे सेट्ठत्थगोचरा"ति ।।
तं येभुय्यवसेनाति दट्टब्बं ।
अरियअङ्गिकमग्गवण्णना
३९३. “अयं पन यथावुत्तो मम वादो अविपरीतोव, तस्सेवं अविपरीतभावो इमं मग्गं पटिपज्जित्वा अपरप्पच्चयतो जानितब्बो"ति एवं अविपरीतभावावबोधनत्थं । पाळियं "अस्थि कस्सपा"तिआदीसु अयं योजना - यं मग्गं पटिपन्नो सामयेव अत्तपच्चक्खतो एवं अस्सति दक्खति “समणो गोतमो वदन्तो युत्तपत्तकाले तथभावतो भूतं, एकंसेन हितावहभावतो अत्थं, धम्मतो अनपेतत्ता धम्म, विनययोगतो, परेसञ्च विनयनतो विनयं वदती"ति, सो मया सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदितो सकलवट्टदुक्खनिस्सरणभूतो अस्थि कस्सप मग्गो, तस्स च अधिगमूपायभूता पुब्बभागपटिपदाति, तेन "समणो गोतमो इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तती"तिआदि नयप्पवत्तो वादो केनचि असम्पकम्पितो यथाभूत सीहनादोति दस्सेति । दक्खतीति चेत्थ स्सति-सद्देन पदसिद्धि “यत्र हि नाम सावको एवरूपं अस्सति वा दक्खति वा सक्खिं करिस्सती"तिआदीसु विय ।
“एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पाय पस्सती''तिआदि सुत्तपदेसु (अ० नि० १.३.१३४)
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(२.८.३९४-३९४)
तपोपक्कमकथावण्णना
३११
विय च मग्गञ्च पटिपदञ्च एकतो कत्वा दस्सेन्तो। “अयमेवा''ति सावधारणवचनं मग्गस्स पुथुभावपटिक्खेपत्थं, सब्बअरियसाधारणभावदस्सनत्थं, सासने पाकटभावदस्सनत्थञ्च । तेनाह “एकायनो अयं भिक्खवे मग्गो सत्तानं विसुद्धिया''ति (दी० नि० २.३७३; म० नि० १.१०६; सं० नि० ३.५.३६७, ३८४) ।
“एसेव मग्गो नत्थञो, दस्सनस्स विसुद्धिया''ति, (ध० प० २७४) -
"एकायनं जातिखयन्तदस्सी,
___मग्गं पजानाति हितानुकम्पी । एतेन मग्गेन अतरिं सु पुब्बे,
तरिस्सन्ति ये च तरन्ति ओघ"न्ति ।। (सं० नि० ३.५.३८४, ४०९; चूळनि० १०७, २११; नेत्ति० १७०) च
सब्बेसु चेव सुत्तपदेसेसु, अभिधम्मपदेसेसु (विभं० ३५५) च एकोवायं मग्गो पाकटोति ।
तपोपक्कमकथावण्णना
३९४. तपोयेव उपक्कमितब्बतो, आरभितब्बतो तपोपक्कमाति आह "तपारम्भा"ति, आरम्भनञ्चेत्थ तपकरणमेवाति दस्सेति “तपोकम्मानी"ति इमिना | समणकम्मसङ्खाताति समणेहि कत्तब्बकम्मसञिता । ब्राह्मणकम्मसङ्घाताति एत्थापि एसेव नयो। निच्चोलोति निस्सठ्ठचोलो सब्बेन सब्बं पटिक्खित्तचोलो। चेलं, चोलोति च परियायवचनं । कोचि छिन्नभिन्नपटपिलोतिकधरोपि दसन्तयुत्तस्स वत्थस्स अभावतो "निच्चोलो"ति वत्तब्बतं लभेय्याति तं निवत्तेतुं "नग्गो"ति वुत्तं, नग्गियवतसमादानेन सब्बथा नग्गोति अत्थो। लोकियकुलपुत्ताचारविरहितताव विस्सट्टाचारताति दस्सेति "उच्चारकम्मादीसू"तिआदिना। कथं विरहितोति आह “ठितकोवा"तिआदि, इदञ्च निदस्सनमत्तं वमित्वा मुखविक्खालनादिआचारस्सपि तेन विस्सद्वृत्ता। अपलिखतीति उदकेन अधोवनतो अपलिहति । सो किर दण्डकं “सत्तो"ति पञपेति, तस्मा तं पटिपदं पूरेन्तो एवं करोतीति वुत्तं "उच्चारं वा"तिआदि । तत्थ अपलिखतीति अपकसति ।
“एहि भदन्तो"ति वुत्ते उपगमनसङ्खातो विधि एहिभहन्तो, तं चरतीति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.८.३९४-३९४)
एहिभद्दन्तिको, रुळ्हिसद्देन चेत्थ तद्धितसिद्धि यथा “एहिपस्सिको"ति, (म० नि० १.७४) तप्पटिक्खेपेन नएहिभद्दन्तिको, तदेवत्थं दस्सेति "भिक्खागहणत्थ"न्तिआदिना । न एतीति न आगच्छति । एवं नतिट्ठभद्दन्तिकोति एत्थापि । समणेन नाम सयंवचनकरेनेव भवितबं, न परवचनकरेनाति अधिप्पायेन तदुभयम्पि...पे०... न करोति। पुरेतरन्ति तं ठानं अत्तना उपगमनतो पठमतरं, तं किर सो “भिक्खुना नाम यादिच्छकी एव भिक्खा गहेतब्बा''ति अधिप्पायेन न गण्हाति । उद्दिस्सकतं पन “मम निमित्तभावेन बहू खुद्दका पाणा सङ्घाटमापादिता''ति अधिप्पायेन नाधिवासेति । निमन्तनम्पि “एवं तेसं वचनं कतं भविस्सती''ति अधिप्पायेन न सादियति । कुम्भीति पक्कभिक्खापक्खित्तकुम्भो । उक्खलीति भिक्खापचनकुम्भो। पच्छीति भिक्खापक्खित्तपिटकं । ततोपीति कुम्भीकळोपितोपि । कुम्भीआदीसुपि सो सत्तसञीति आह "कुम्भीकळोपियो"तिआदि । “अयं म"न्तिआदीसुपि एसेव नयो । अन्तरन्ति उभिन्नमन्तराळं ।
कबळन्तरायोति आलोपस्स अन्तरायो । एत्थापि सो सत्तसञ्जी। पुरिसन्तरगतायाति पुरिससमीपगताय । रतिअन्तरायोति कामरतिया अन्तरायो । गामसभागादिवसेन सङ्गम्म कित्तेन्ति एतिस्साति संकित्ति। तथा संहटतण्डुलादिसञ्चयो तेन कतभत्तमिधाधिप्पेतन्ति वुत्तं "संकित्तेत्वा कतभत्तेसू"ति । मज्झिमनिकाये महासीहनादसुत्तन्तटीकायं पन आचरियेनेव एवं वुत्तं “संकित्तयन्ति एतायाति संकित्ति, गामवासीहि समुदायवसेन किरियमानकिरिया, एत्थ पन भत्तसंकित्ति अधिप्पेताति आह 'संकित्तेत्वा कतभत्तेसूति"। इदं पन तस्स उक्कठ्ठपटिपदाति दस्सेति "उक्कट्ठो"तिआदिना। यथा चेत्थ, एवं "नएहिभद्दन्तिको"तिआदीसुपि उक्कट्ठपटिपदादस्सनं वेदितब्। सासद्दो सुनखपरियायो । तस्साति सुनखस्स | तत्थाति तस्मिं ठाने । समूहसमूहचारिनीति सङ्घसङ्घचारिनी। मनुस्साति वेय्यावच्चकरमनुस्सा ।
सोवीरकन्ति कञ्जिकं । "लोणसोवीरक"न्ति केचि, तदयुत्तमेव, “सब्बसस्ससम्भारेहि कतन्ति वुत्तत्ता । लोणसोवीरकहि सब्बमच्छमंसपुप्फफलादिसम्भारकतं । सुरापानमेवाति मज्जलक्खणप्पत्ताय सुराय पानमेव । मेरयम्पेत्थ सङ्गहितं लक्खणहारेन, एकसेसनयेन वा । सब्बेसुपीति सावज्जानवज्जेसुपि कञ्जिकसुरादीसु। एकागारमेव भिक्खाचरियाय उपगच्छतीति एकागारिको। निवत्ततीति पच्चागच्छति, सति भिक्खालाभे तदुत्तरि न गच्छतीति वुत्तं होति । एकालोपेनेव वत्ततीति एकालोपिको। दीयति एतायाति दत्ति, द्वत्तिआलोपमत्तग्गाहि खुद्दकं भिक्खादानभाजनं । तेनाह "खुद्दकपाती'ति । अग्गभिक्खन्ति
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(२.८.३९५-३९६)
तपोपक्कमकथावण्णना
३१३
अनामठ्ठभिक्खं, समाभिसङ्घतताय वा उत्तमभिक्खं । अभुञ्जनवसेन एको अहो एतस्साति एकाहिको, आहारो, तं आहारं आहारेतीति अत्थो । सो पन अत्थतो एकदिवसलङ्घकोति वुत्तं "एकदिवसन्तरिक"न्ति । एस नयो "द्वाहिक"न्तिआदीसुपि। अपिच एकाहं अभुजित्वा एकाहं भुञ्जनं, एकाहवारो वा एकाहिकं। द्वीहं अभुजित्वा द्वीहं भुञ्जनं, द्वीहवारो वा द्वाहिकं। सेसद्वयेपि अयं नयो | उक्कट्ठो हि परियायभत्तभोजनिको द्वीहं अभुजित्वा एकाहमेव भुञ्जति । एवं सेसद्वयेपि । मज्झिमागमटीकायं पन “एकाहं अन्तरभूतं एतस्स अत्थीति एकाहिकं । सेसपदेसुपि एस नयो''ति वुत्तं । “थेरा भिक्खू भिक्खुनियो ओवदन्ति परियायेना"तिआदीसु विय वारत्थो परियाय सद्दो । एकाहवारेनाति एकाहिकवारेन । “एकाहिक''न्तिआदिना वुत्तविधिमेव पटिपाटिया पवत्तभावेन दस्सेतुं पाळियं “इति एवरूप"न्तिआदि वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।
३९५. सामाको नाम गोधुमो। सयंजाता वीहिजातीति अरोपिमवीहिजाति । यदेव “वीही''ति वदन्ति । लिखित्वाति कसित्वा । सिलेसोपीति कणिकारादिरुक्खनिय्यासोपि । कुण्डकन्ति तनुतरं तण्डुलसकलं, तण्डुलखण्डकन्ति अत्थो । ओदनेन कतं कञ्जियं
ओदनकजियं। “वासितकेन पिञ्जाकेन नहायेय्या''तिआदीसु (पाचि० १२०३) विय पिज्ञाक सद्दो तिलपिठ्ठपरियायो। यथाह "पिञ्जाकं नाम तिलपिढें वुच्चती''ति । “तरुणकदलिक्खन्धमेव पिञ्जाकन्ति केचि, न गहेतब्बमेतं कत्थचिपि तथा अवचनतो ।
३९६. सणेहि सणवाकेहि निब्बत्तितानि साणानि, अ हि मिस्सकानि साणानि एव मसाणानि निरुत्तिनयेन, न छचीवरपरियापन्नानि भङ्गानि । केचि पन “मसाणानि नाम चोळविसेसानीति परिकप्पेत्वा मस्सकचोळानी"ति पठन्ति, तदयुत्तमेव पोराणेहि तथा अवुत्तत्ता। एरकतिणादीनीति एत्थ आदिसद्देन अक्कमकचिकदलिवाकादीनं सङ्गहो, एरकादीहि कतानि हि छवानि लामकानि दुस्सानीति वत्तब्बतं लभन्ति । छवसद्दो हेत्थ हीनवाचको, पुरिमविकप्पे पन मतसरीरवाचको। छड्डितनन्तकानीति छड्डितपिलोतिकानि । अजिनस्सेदन्ति अजिनं, पकतिअजिनमिगचम्म, तदेव मज्झे फालितकञ्चे, अजिनस्स खिपं फालितमुपवन्ति अजिनक्खिपं। “सखुरकन्तिपि वदन्ती''ति (म० नि० अठ्ठ० १.१५५) पपञ्चसूदनियं वुत्तं, द्विन्नं तिण्णं वा समुदितञ्चे, अजिनक्खिपन्ति तेसमधिप्पायो । विनयसंवण्णनासु पन “अजिनमेव अभेदतो अजिनक्खिप"न्ति वुत्तं । कन्दित्वाति उज्जवुज्जवेन कन्दित्वा । “गन्थेत्वा"तिपि पाठो, वठूत्वा बन्धित्वाति अत्थो । एवहि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
फलकचीरे निदस्सनं उपपन्नं होति । यं सन्धाय वुत्तन्ति अजितवादस्स पटिकिट्ठतरभावे उपमादस्सनत्थं यदेव केसकम्बलं सन्धाय अङ्गुत्तरागमे ( अ० नि० १.३.१३८) वृत्तं ।
३१४
तन्तावुतानीति तन्तं पसारेत्वा वीतानि । पटिकिट्ठोति हीनो । कस्माति वृत्तं "केसकम्बलो "तिआदि । पाळियं उब्भट्ठको "ति एतस्स " उद्धं ठितको "ति अत्थो मज्झिमागमट्ठकथायं महासीहनादसुत्तवण्णनायं (म० नि० अट्ठ० १.२१५ ) वुत्तो । उन्भसद्दो हि उपरिअत्थे नेपातिको यथा “उब्भजाणुमण्डल "न्ति । अनेकपरिमाणा, हि निपाता, अनेकत्था च ।
मिच्छावायामवसेनेव उक्कुटिकवतानुयोगोति आह “उक्कुटिकवीरियं अनुयुत्तो 'ति । न केवलं निसिन्नोयेव उक्कुटिको अथ खो गच्छन्तोपि ... पे०... गच्छति । अयकण्टकेत अयोमयकण्टके । पकतिकण्टकेति सलाककण्टके । उच्चभूमियं थण्डिलसद्दोति वृत्तं “उच्चे भूमिट्ठाने" ति । अयं अट्ठकथातो अपरो नयो - थण्डिलन्ति समापकतिभूमि वुच्चति “पत्थण्डिले पातुरहोसी" तिआदीसु विय। अमरकोसेपि हि निघण्टुसत्ये वृत्तं "वेदी परिक्खता भूमि, समे थण्डिलं चातुरे 'ति (सत्तरसमवग्गे १८ गाथायं) तस्मा थण्डिले अनन्तरहिताय पकतिभूमियं सेय्यम्पि कप्पेतीति अत्थो । यं सन्धाय तत्थेव निघण्टुत्थे त् “यो थण्डिले वत वसा, सेते थण्डिलसायि सो 'ति ( सत्तरसमवग्गे ४४ गाथायं) रजो एव जल्लं मलीनं रजोजल्लं । तेन वुत्तं " सरीर "न्तिआदि । लद्धं आसनन्ति निसीदितुं यथालद्धमासनं । अकोपेत्वाति अञ्ञत्थ अनुपगन्त्वा । तथा चाह " तत्थेव निसीदनसीलो " ति । एवं निसीदन्तो हि तं अकोपेन्तो नाम होति । चतूसु महाविकटेसु गूथमेविधाधिप्पेतन्ति तं " गूथं वृच्चती 'ति । तहि आसयवसेन विरूपं कटत्ता “विकट "न्ति वुच्चति । सायं ततियन्ति सायन्हसमयसङ्घातं ततियसमयं । अस्साति उदकोरोहनानुयोगस्स । पातोपदमिव सायंपदं नेपातिकं । अनुसारलोपेन पन " सायततियक' "न्तिपि पाठो दिस्सति ।
(२.८.३९६- ३९६)
तथा
एत्थ च " अचेलको होती "तिआदीनि याव “थुसोदकं पिवतीति एतानि वतपदानि एकवारानि, “एकागारिको वा होती "तिआदीनि पन नानावारानि, नानाकालिकानि वा । " साकभक्खो वा होती”तिआदीनि, “साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेती”तिआदीनि च । तथा हेत्थ वा सद्दग्गहणं, पि- सद्दग्गहणञ्च तं । पि- सद्दोपि इध विकप्पत्थो एव दट्ठब्बो । पुरिमेसु पन वतपदेसु तदुभयम्पि न कतं, एवञ्च कत्वा " अचेलको होती "ति वत्वा “साणानिपि धारेती "तिआदिवचनस्स, "रजोजल्लधरोपि
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(२.८.३९७-३९९)
तपोपक्कमनिरत्थकतावण्णना
३१५
होती''ति वत्वा “उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरतीति वचनस्स च अविरोधो सिद्धो होति । अथ वा किमेत्थ अविरोधचिन्ताय । उम्मत्तकपच्छिसदिसो हि तित्थियवादो | अपिच "अचेलको होती''ति आरभित्वा तप्पसङ्गेन सब्बम्पि अञमञविरोधमेव अत्तकिलमथानुयोगं दस्सेन्तेन तेन अचेलकस्सपेन “साणानिपि धारेती"तिआदि वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।
तपोपक्कमनिरत्थकतावण्णना
३९७. सीलसम्पदादीहीति सीलसम्पदा, समाधिसम्पदा, पञ्जासम्पदाति इमाहि लोकुत्तराहि सम्पदाहि । विनाति विरहितत्ता, विना वा ताहि न कदाचिपि सामनं वा ब्रह्मजं वा सम्भवति, तस्मा तेसं तपोपक्कमानं निरत्थकतं दस्सेन्तोति सपाठसेसयोजना । दोसवेरविरहितन्ति दोससङ्घातवेरतो विरहितं । इदहि दोसस्स मेत्ताय उजुपटिपक्खतो वुत्तं । यं पन आचरियेन वुत्तं “दोसग्गहणेन वा सब्बेपि झानपटिपक्खा संकिलेसधम्मा गहिता । वेरग्गहणेन पच्चत्थिकभूता सत्ता । यदग्गेन हि दोसरहितं, तदग्गेन वेररहित''न्ति, (दी० नि० टी० १.३९७) तदेतं पाळियं वेरसद्दस्सेव विज्जमानत्ता, अट्ठकथायञ्च तदत्थमेव दस्सेतुं दोससद्दस्स वुत्तत्ता विचारेतब्बं ।
३९८. एत्तकमत्तन्ति नग्गचरियादिमत्तं । पाकटभावेन कायति अत्थं गमेतीति पकति, लोकसिद्धवादो। तेनाह "पकतिकथा एसा'ति । “मत्ता सुखपरिच्चागा''तिआदीसु (ध० प० २९०) विय मत्तासद्दो अप्पत्तं अन्तोनीतं कत्वा पमाणवाचकोति आह "इमिना"तिआदि । तेन पन पमाणेन पहातब्बो एव पटिपत्तिक्कमो पकरणप्पत्तो । इमिना "तपोपक्कमेना''ति सद्दन्तरेन वा अधिगतोति दस्सेति “पटिपत्तिक्कमेना"ति इमिना । ततोति तस्मा सामञ्जब्रह्मअस्स अप्पमत्तकेनेव पटिपत्तिक्कमेन सुदुक्करभावतो। इमं हेतुसम्बन्धं सन्धाय "पदसम्बन्धेन सद्धि"न्ति वुत्तं । सब्बत्थाति सब्बवारेसु ।
३९९. अञथाति यदि अचेलकभावादिना सामनं वा ब्रह्मजं वा अभविस्स, एवं सति सुविजानोव समणो, सुविजानो ब्राह्मणो । यस्मा पन तुम्हे इतो अञथाव सामनं, अञथा ब्रह्मधे वदथ, तस्मा दुज्जानोव समणो दुज्जानो ब्राह्मणोति अत्थो । तेनाह "इदं सन्धायाहा"ति । तं पकतिवादं पटिक्खिपित्वाति यं पुब्बे पाकतिकं सामनं, ब्रह्मज्ञञ्च हदये ठपेत्वा तेन अचेलकस्सपेन “दुक्करं सुदुक्कर"न्ति वुत्तं, भगवता च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.८.४००-१-४०२)
तमेब सन्धाय “पकति खो एसा'तिआदि भासितं, तमेव इध पाकतिकसामञ्जब्रह्मज्ञविसयं कथं पटिसंहरित्वा । सभावतोव परमत्थतो एव समणस्स, ब्राह्मणस्स च दुजानभावं आविकरोन्तो पुनपि “पकति खो"तिआदिमाह। तत्रापीति समणब्राह्मणवादेपि । पदसम्बन्धन्ति हेतुपदेन सद्धिं पुब्बापरवाक्यसम्बन्धं ।
सीलसमाधिपञ्जासम्पदावण्णना ४००-१. पण्डितोति हेतुसम्पत्तिसिद्धेन पण्डिच्चेन समन्नागतो। कथं उग्गहेसीति परिपक्कजाणत्ता घटे पदीपेन विय अब्भन्तरे समुज्जलन्तेन पावेय्यत्तियेन तत्थ तत्थ भगवता देसितमत्थं परिग्गण्हन्तो तं देसनं उपधारेसि । यस्मा उग्गहेसि, तस्मा...पे०... विदित्वाति सम्बन्धो । तस्स चाति यो अचेलको होति, याव उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति, तस्स च। तस्स चेति वा पदच्छेदो, अभाविता असच्छिकता होति चेति योजना। ता सम्पत्तियो पुच्छामि, याहि समणो च ब्राह्मणो च होतीति अधिप्पायो । सीलसम्पदादिविजाननत्थन्ति सीलसम्पदादिविजाननहेतु। “कस्मा पुच्छती"ति हि वुत्तं । अथ-सद्दो चेत्थ कारणे । एवमीदिसेसु। सीलसम्पदायाति एत्थ इतिसद्दो आदिअत्थो, उपलक्खणनिद्देसो वायं, तेन “चित्तसम्पदाय, पञ्जासम्पदाया"ति पदद्वयं सङ्गण्हाति । तेनाह “सीलचित्तपञ्चासम्पदाहि अञ्जा''ति । इमेहि च असेक्खसीलादिक्खन्धत्तयं सङ्गहितन्ति वुत्तं “अरहत्तफलमेवा"ति। तत्थ कारणं दस्सेति “अरहत्तफलपरियोसान"न्तिआदिना । इदहि काकोलोकनमिव उभयापेक्खवचनं ।
सीहनादकथावण्णना
४०२. अनुत्तरन्ति अनञसाधारणताय, अनञसाधारणत्थविसयताय च अनुत्तरं । महासीहनादन्ति महन्तं बुद्धसीहनादं । अतिविय अच्चन्तविसुद्धताय परमविसुद्धं । “परमन्ति उक्कटुं । तेनाह 'उत्तम'न्ति” आचरियेन वुत्तं, उक्कठ्ठपरियायो च परमसद्दो अत्थीति तस्साधिप्पायो। सीलमेवाति लोकियसीलमत्तत्ता सीलसामञ्जमेव । यथा अनअसाधारणं भगवतो लोकुत्तरसीलं सवासनपटिपक्खधम्मविद्धंसनतो, एवं लोकियसीलम्पि अन साधारणमेव तदनुच्छविकभावेन पवत्तत्ता । एवहि “नाहं तत्था"ति पाळिवचनं उपपन्नं होति। "यावता कस्सप अरियं परमं सील'"न्ति इदं “सीलस्स वण्णं भासन्ती"ति एत्थ आकारदस्सनं । “यदिदं अधिसील''न्ति इदं पन “तत्था'"ति पदद्वये
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(२.८.४०२-४०२)
सीहनादकथावण्णना
३१७
अनियमवचनं । “यदिदं अधिसील"न्ति च लोकियलोकुत्तरवसेन दुविधम्पि बुद्धसीलं एकज्झं कत्वा वुत्तं, तस्मा त-सद्देनपि उभयस्सेव परामसनन्ति दस्सेतुं "तत्थ सीलेपि परमसीलेपी"तिआदिमाह । समसमन्ति समेन विसेसनभूतेन सीलेन समन्ति अत्थं विज्ञापेतुं "मम सीलसमेन सीलेन मया सम"न्ति वुत्तं । तस्मिं सीलेति दुविधेपि सीले । इति इमन्ति एवं इमं सीलविसयं । पठमन्ति उप्पत्तिक्कमतो पठमं पवत्तत्ता पठमभूतं ।
तपतीति किलेसे सन्तप्पति, विधमतीति अत्थो। "तदेवा"ति इमिना तुल्याधिकरणसमासमाह । जिगुच्छतीति हीळेति लामकतो ठपेति । आरका किलेसेहीति कत्वा निहोसत्ता अरिया। आरम्भवत्थुवसेनाति अट्ठारम्भवत्थुवसेन । विपस्सनावीरियसङ्घाताति विपस्सनासम्पयुत्तवीरियसङ्घाता। लोकियमत्तत्ता तपोजिगुच्छाव। मग्गफलसम्पयुत्ता वीरियसङ्खाता तपोजिगुच्छाति अधिकारवसेन सम्बन्धो । सब्बुक्कट्ठभावतो परमा नाम। यथा युविनो भावो योब्बनं, एवं जिगुच्छिनो भावो जेगुच्छं। यदिदं अधिजेगुच्छन्ति सीले विय लोकियलोकुत्तरवसेन दुविधम्पि बुद्धजेगुच्छं। तत्थाति जेगुच्छेपि अधिजेगुच्छेपि । कम्मस्सकतापति “अस्थि दिन्नं, अत्थि यिट्ठ"न्तिआदि (म० नि० १.४४१; विभं० ७९३) नयप्पवत्तं आणं । यथाह विभङ्गे
"तत्थ कतरं कम्मस्सकताजाणं, अत्थि दिन्नं, अस्थि यिटुं, अत्थि हुतं, अस्थि सुकटदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको...पे०... ठपेत्वा सच्चानुलोमिकं आणं सब्बापि सासवा कुसला पञा कम्मस्सकतााण''न्ति (विभं० ७९३)।
सब्बम्पि हि अकुसलं अत्तनो वा होतु, परस्स वा, न सकं नाम । कस्मा ? अत्थभञ्जनतो, अनत्थजननतो च। तथा सब्बम्पि कुसलं सकं नाम । कस्मा ? अनत्थभञ्जनतो, अत्थजननतो च । एवं कम्मस्सकभावे पवत्ता पा कम्मस्सकतापा नाम । विपस्सनापजाति मग्गसच्चस्स, परमत्थसच्चस्स च अनुलोमनतो सच्चानुलोमिकसञिता विपस्सनापञ्जा, लोकियमत्ततो पञव। इथिलिङ्गस्स नपुंसकलिङ्गविपरियायो इध लिङ्गविपल्लासो। यायं अधिपजाति सीले विय लोकियलोकुत्तरवसेन दुविधापि बुद्धपञ्ञा । तत्थाति पायपि अधिपायपि | यथारहं परित्तमहग्गतभावतो विमुत्तियेव नाम। मग्गफलवसेन किलेसानं समुच्छिन्दनपटिप्पस्सम्भनानि समुच्छेदपटिप्पस्सद्धिविमुत्तियो। अथ वा सम्मावाचादिविरतीनं अधिसीलग्गहणेन, सम्मावायामस्स अधिजेगुच्छग्गहणेन, सम्मादिट्टिया अधिपञ्जाग्गहणेन गहितत्ता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
अग्गहितग्गहणेन सम्मासङ्कप्पसतिसमाधयो मग्गफलपरियापन्ना समुच्छेदपटिप्परसद्धिविमुत्तियो दट्ठब्बा | निस्सरणविमुत्ति पन निब्बानमेव । या अयं अधिविमुत्तीति सीले वुत्तनयेन दुविधापि अधिविमुत्ति । तत्थाति विमुत्तियापि अधिविमुत्तियापि ।
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४०३. यं किञ्चि जनविवित्तट्टानं सुञ्ञागारमिधाधिप्पेतं । तत्थ नदन्तेन विना अञ जनो नत्थीति दस्सेतुं "एककोवा "तिआदि वृत्तं । अट्ठसु परिसासूति खत्तियपरिसा, ब्राह्मणगहपतिसमणचातुमहाराजिकतावतिंसमारब्रह्मपरिसाति इमासु अट्ठसु परिसासु ।
(२.८.४०३ - ४०३)
तत्थ
तदत्थं मज्झिमागमवरे महासीहनादसुत्तपदेन (म० नि० १.१५०) साधेन्तो " चत्तारिमानी' "तिआदिमाह । सारज्जानीति विसारदभावा, ञणप्पहान अन्तरायिकनिय्यानिकधम्मदेसनानिमित्तं कुतोचिपि असन्तस्सनभावा निभयभावाति अत्थो । "वेसारज्ज "न्ति हि चतूसु ठासु सारज्जाभावं पच्चवेक्खन्त उप्पन्नसोमनस्समयञाणस्सेतं नामं । अञ्जेहि पन असाधारणतं दस्सेतुं " तथागतस्स तथागतवेसारज्जानी "ति वृत्तं । " यथा वा पुब्बबुद्धानं वेसारज्जानि पुञ्ञस्सयसम्पत्तिया आगतानि, तथा आगतवेसारज्जानी "ति वा दुतियस्स तथागतसद्दस्स तुल्याधिकरणत्ता एवं वृत्तं । अयं अट्ठकथानयो । नेरुत्तिका पन वदन्ति “समासे सिद्धे सामञ्ञत्ता, सञ्ञासद्दत्ता च तथा वृत्तन्ति । आसभं ठानन्ति सेट्ठट्ठानं उत्तमट्ठानं । सब्बञ्तं पटिजाननवसेन अभिमुखं गच्छन्ति, अट्ठपरिसं उपसङ्कमन्तीति वा आसभा, बुद्धा, तेसं ठानन्तिपि अत्थो ।
अपिच तयो पुङ्गवा- गवसतजेट्ठको उसभो, गवसहस्सजेट्ठको वसभो । वजसतजेट्ठको वा उसभो, वजसहस्सजेट्ठको वसभो । एकगामखेत्ते वा जेट्टो उसभो, द्वीस गामखेत्तेसु जेट्ठो वसभो, सब्बगवसेट्टो सब्बत्थ जेट्ठो सब्बपरिस्सयसहो सेतो पासादिको महाभारवही असनिसतसद्देहिपि अकम्पनीयो निसभोति । निसभोव इध "उसभो "ति अधिप्पेतो । इदम्पि हि तस्स परियायवचनं । उसभस्स इदन्ति आसभं, इदं पन आसभं वियाति आसभं । यथेव हि निसभसङ्घातो उसभो उसभबलेन समन्नागतो चतूहि पादेहि पथविं उप्पीळेत्वा अचलट्ठानेन तिट्ठति, एवं तथागतोपि दसतथागतबलेन समन्नागतो चतूहि वेसारज्जपादेहि अट्टपरिसापथवं उप्पीळेत्वा सदेवके लोके केनचि पच्चत्थिकेन पच्चामित्तेन अकम्पियो अचलट्ठानेन तिट्ठति । एवं तिट्ठमानोव तं आसभं ठानं पटिविजानाति उपगच्छति न पच्चक्खाति अत्तनि आरोपेति । तेन वुत्तं " आसभं ठानं पटिजानातीति ।
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(२.८.४०३-४०३)
सीहनादकथावण्णना
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___ सीहनादं नदतीति “सेट्ठनादं अभीतनादं नदती"ति वुत्तोवायमत्थो। अथ वा सीहनादसदिसं नादं नदति । अयमत्थो खन्धवग्गसंयुत्ते आगतेन सीहनादसुत्तेन (सं० नि० २.३.७८) दीपेतब्बो। यथा वा सीहो मिगराजा परिस्सयानं सहनतो, गोणमहिं समत्तवारणादीनं हननतो च “सीहो''ति वुच्चति, एवं तथागतो मुनिराजा लोकधम्मानं सहनतो, परप्पवादानं हननतो च “सीहो"ति वुच्चति । एवं वुत्तस्स सीहस्स नादं नदति। तत्थ यथा मिगसीहो सीहबलेन समन्नागतो सब्बत्थ विसारदो विगतलोमहंसो सीहनादं नदति, एवं तथागतसीहो दसतथागतबलेन समन्नागतो अट्ठसु परिसासु विसारदो विगतलोमहंसो “इति रूप"न्तिआदिना (सं० नि० २.३.७८; अ० नि० ३.८.२) नयेन नानाविधदेसनाविलाससम्पन्नं सीहनादं नदति । तेन वुत्तं “परिसासु सीहनादं नदती"ति ।
पहं अभिसङ्घरित्वाति आतुमिच्छितं अत्थं अत्तनो प्राणबलानुरूपं अभिसङ्घरित्वा । तवणजेवाति पुच्छितक्खणेयेव ठानुप्पत्तिकपटिभानेन विस्सज्जेति। अज्झासयानुरूपं, अत्थधम्मानुरूपञ्च विस्सज्जनतो चित्तं परितोसेतियेव। अस्साति समणस्स गोतमस्स | सोतबं मञन्तीति अट्ठक्खणवज्जितेन नवमेन खणेन लब्भमानत्ता "यं नो सत्था सासति, तं मयं सोस्सामा"ति आदरभावजाता महन्तेनेव उस्साहेन सोतब्बं सम्पटिच्छितब्बं मञ्जति । कल्लचित्ता मुदुचित्ताति पसादाभिवुद्धिया विगतुपक्किलेसताय कल्लचित्ता मुदुचित्ता होन्ति । मुद्धप्पसनाति तुच्छप्पसन्ना निरत्थकप्पसन्ना । पसनाकारो नाम पसन्नेहि कातब्बसक्कारो, सो दुविधो धम्मामिसपूजावसेन, तत्थ आमिसपूजं दस्सेन्तो "पणीतानी"तिआदिमाह । धम्मपूजा पन पाळियमेव “तथत्ताय पटिपज्जन्ती"ति इमिना दस्सिता। तथाभावायाति यथाभावाय यस्स वट्टदुक्खनिस्सरणस्स अत्थाय धम्मो देसितो, तथाभावाय । तदेवत्थं दस्सेतुं "धम्मानुधम्मपटिपत्तिपूरणत्थाया"ति वुत्तं । धम्मानुधम्मपटिपत्ति हि वट्टदुक्खनिस्सरणपरियोसाना, सा च धम्मानुधम्मपटिपत्ति याय अनुपुब्बिया पटिपज्जितब्बा, पटिपज्जन्तानञ्च सति अज्झत्तिकङ्गसमवाये एकंसिका तस्सा पारिपूरीति तं अनुपुब्बिं दस्सेन्तो “केचि सरणेसू"तिआदिमाह। यथा पूरेन्ता पूरेतुं सक्कोति नाम, तथा पूरणं दस्सेतुं "सब्बाकारेन पन पूरेन्ती"ति वुत्तं ।
इममिं पनोकासेति “पटिपन्ना च आराधेन्तीति सीहनादकिच्चपारिपूरिट्ठपने पाळिपदेसे । समोधानेतब्बाति सङ्कलयितब्बा। एकच्चं...पे०... पस्सामीति भगवतो एको सीहनादो असाधारणो अझेहि अप्पटिवत्तियो सेट्ठनादो अभीतनादोति कत्वा । एस नयो सेसेसुपि । अपरं तपस्सिन्ति अधिकारो | पुरिमानं दसनन्ति “एकच्चं तपस्सिं निरये निब्बत्तं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.८.४०४-४०४)
पस्सामी''ति वुत्तसीहनादतो पट्ठाय याव “विमुत्तिया मय्हं सदिसो नत्थी''ति वुत्तसीहनादा पुरिमकानं दसन्नं सीहनादानं, निद्धारणे चेतं सामिवचनं । तेनाह "एकेकस्सा"ति । "परिसासु च नदती"ति आदयो “पटिपन्ना च मं आराधेन्तीति परियोसाना दस दस सीहनादा परिवारा । “एकच्चं तपस्सिं निरये निब्बत्तं पस्सामी"ति हि सीहनादं नदन्तो भगवा परिसासु नदति विसारदो हुत्वा नदति, तत्थ च पहं पुच्छन्ति, पहं विस्सज्जेति, विस्सज्जनेन परस्स चित्तं आराधेति, सुत्वा सोतब्बं मञन्ति, सुत्वा च भगवतो पसीदन्ति, पसन्ना च पसन्नाकारं करोन्ति, यं पटिपत्तिं देसेति, तथत्ताय पटिपज्जन्ति, पटिपन्ना च मं आराधेन्तीति एवं परिवारेत्वा अत्थयोजना सम्भवति । अयमेव नयो सेसेसुपि नवसु ।
__ "एव"न्तिआदिना यथावुत्तानं सीहनादानं सङ्कलयित्वा दस्सनं । ते दसाति “परिसासु च नदती''ति आदयो दस सीहनादा । पुरिमानं दसनन्ति यथावुत्तानं मूलभूतानं पुरिमकानं दससीहनादानं । परिवारवसेनाति मूलिं कत्वा पच्चेकं परिवारवसेन योजियमाना सतं सीहनादा। पुरिमा च दसाति मूलमूलियो कत्वा परिवारवसेन अयोजियमाना पुरिमका च दसाति एवं दसाधिकं सीहनादसतं होति। अञ्जस्मिं पन सुत्तेति मज्झिमागमचूळसीहनादसुत्तादिम्हि (म० नि० १.१९३) तेनाति सङ्ख्यामहत्तेन | महासीहनादत्ता इदं सुत्तं “महासीहनाद"न्ति वुच्चति, न पन मज्झिमनिकाये महासीहनादसुत्तमिव चूळसीहनादसुत्तमुपादायाति अधिप्पायो ।
तित्थियपरिवासकथावण्णना
४०४. पटिसेधेत्वाति तथा भावाभावदस्सनेन पटिक्खिपित्वा । यं भगवा पाथिकवग्गे उदुम्बरिकसुत्ते (दी० नि० ३.५७) “इध निग्रोध तपस्सी"तिआदिना उपक्किलेसविभागं, पारिसुद्धिविभागञ्च दस्सेन्तो सपरिसस्स निग्रोधपरिब्बाजकस्स पुरतो सीहनादं नदति, तं दस्सेतुं "इदानी"तिआदि वुत्तं । नदितपुब्बन्ति उदुम्बरिकसुत्ते आगतनयेन पुब्बे निग्रोधपरिब्बाजकस्स नदितं । तपब्रह्मचारीति उत्तमतपचारी, तपेन वा वीरियेन ब्रह्मचारी । इदन्ति “राजगहे...पे०... पऽहं अपुच्छी''ति पाळियं आगतवचनं । आचरियेन (दी० नि० टी० १.४०३) पन यथावुत्तं अट्ठकथावचनमेव पच्चामढें । एत्थ च कामं यदा निग्रोधो पज्हमपुच्छि, भगवा चस्स विस्सज्जेसि, न तदा भगवा गिज्झकूटे पब्बते विहरति, राजगहसमीपेयेव उदुम्बरिकाय देविया उय्याने विहरति तत्थेव तथा पुच्छितत्ता,
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(२.८.४०५-४०५)
तित्थियपरिवासकथावण्णना
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विस्सज्जितत्ता च, तथापि गिज्झकूटे पब्बते भगवतो विहारो न ताव विच्छिन्नो, तस्मा पाळियं “तत्र मन्तिआदिवचनं, अट्ठकथायञ्च "तत्र राजगहे गिज्झकूटे पब्बते विहरन्तं मन्तिआदिवचनं वुत्तन्ति इममत्थम्पि "यं तं भगवा"तिआदिना विज्ञापेतीति दट्ठब्बं । “गिज्झकूटे पब्बते''ति इदं तत्थ कतविहारं सन्धाय वुत्तन्ति दस्सेति “गिज्झकूटे महाविहारे"ति इमिना । उदुम्बरिकायाति तन्नामिकाय । उय्यानेति तत्थ कतपरिब्बाजकारामं सन्धाय वदति । निग्रोधो नाम छन्नपरिब्बाजको । सन्धानो नाम पञ्चउपासकसतपरिवारो अनागामिउपासको | कथासल्लापन्ति “यग्घे गहपति जानेय्यासि, केन समणो गोतमो सद्धिं सल्लपती''तिआदिना (दी० नि० ३.५३) सल्लापकथं । परन्ति अतिसयत्थे निपातो । वियाति पदपूरणमत्ते यथा तं “अतिविया''ति । अन्धबालन्ति पञाचक्खुना अन्धं बालजनं । योगेति नये, दुक्खनिस्सरणूपायेति अत्थो । .
४०५. अनेनाति भगवता । खन्धकेति महावग्गे पब्बज्जखन्धके (महाव० ९६) यं परिवासं परिवसतीति योजना । “पुब्बे अञतित्थियो भूतोति अज्ञतित्थियपुब्बो"ति (सारत्थ० टी० ७६) आचरियसारिपुत्तत्थेरेन वुत्तं । पठमं पब्बज्ज गहेत्वाव परिवसतीति आह “सामणेरभूमियं ठितो"ति । तन्ति द्वीहि आकारेहि वुत्तं परिवासं। पब्बजन्ति "आकङ्घति पब्बज्जं, आकजति उपसम्पद"न्ति एत्थ वुत्तं पब्बज्जग्गहणं । "उत्तरिदिरत्ततिरत्तं सहसेय्यं कप्पेय्या''ति (पाचि० ५१) एत्थ दिरत्तग्गहणं विय वचनसिलिट्ठतावसेनेव वुत्तं। यस्मा पन सामणेरभूमियं ठितेनेव परिवसितब्बं, न गिहिभूतेन, तस्मा अपरिवसित्वायेव पब्बज्जं लभति। न गामप्पवेसनादीनीति एत्थ आदिसद्देन नवेसियाविधवाथुल्लकुमारिकपण्डकभिक्खुनिगोचरता, सब्रह्मचारीनं किं करणीयेसु दक्खानलसादिता, उद्देसपरिपुच्छादीसु तिब्बच्छन्दता, यस्स तित्थायतनतो इधागतो, तस्स अवण्णभणने अत्तमनता, बुद्धादीनं अवण्णभणने अनत्तमनता, यस्स तित्थायतनतो इधागतो, तस्स वण्णभणने अनत्तमनता, बुद्धादीनं वण्णभणने अत्तमनताति इमेसं सत्तवत्तानं सङ्गहो वेदितब्बो। पूरेन्तेन परिवसितब्बन्ति यदा परिवसति, तदा पूरमानेन परिवसितब् । अट्ठवत्तपूरणेनाति यथावुत्तानं अट्ठन्नं वत्तानं पूरणेन । एत्थाति परिवासे, उपसम्पदाय वा। घंसित्वा कोट्टेत्वाति अज्झासयवीमंसनवसेन सुवण्णं विय घंसित्वा कोठूत्वा । पब्बज्जायाति निदस्सनमत्तं । उपसम्पदापि हि तेन सङ्गय्हति ।।
"गणमझे निसीदित्वाति उपसम्पदाकम्मस्स गणप्पहोनकानं भिक्खून मज्झे सङ्घत्थेरो विय तस्स अनुग्गहत्थं निसीदित्वा''ति (दी० नि० टी० १.४०५) आचरियेन वुत्तं,
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(२.८.४०५ - ४०५ )
इदानि पन बहूसुपि पोत्थकेसु “ तं निसीदापेत्वा" ति कारितवसेन पाठो दिस्सति । अचिरमुपसम्पन्नस्स अस्साति अचिरूपसम्पत्रो, अत्थमत्तं पन दस्सेतुं “ उपसम्पन्नो हुत्वा नचिरमेवा" ति आह । कायचित्तविवेकाव इधाधिप्पेता उपधिविवेकत्थं पटिपज्जनाधिकारत्ताति वृत्तं " कायेन चेव चित्तेन चा "ति । वूपकट्ठोति विवित्तो । तादिसस्स सीलविसोधने अप्पमादो अवुत्तसिद्धति कम्मट्ठाने अप्पमादमेव दस्सेति । पेसितचित्तोति निब्बानं पति पेसितचित्तो, तन्निन्नो तप्पोणो तप्पब्भारोति वुत्तं होति, एवंभूतो च तथा अनपेक्खता विस्सज्जितकायो नामाति अधिप्पायमाविकातुं “विस्सट्ठअत्तभावो "ति वुत्तं । अत्ताति चेत् चित्तं वुच्चति रूपकायस्स अविसयत्ता । यस्साति अरहत्तफलस्स । जातिकुलपुत्तापि आचारसम्पन्ना एव अरहत्ताधिगमाय पब्बज्जापेक्खा होन्तीति तेपि जातिकुलपुत्ते तेव आचारकुलपुत्तेहि एकसङ्गहे करोन्तो “ आचारकुलपुत्ता "ति आह । इमिना हि आचारसम्पन्ना जातिकुलपुत्तापि सङ्गहिता होन्ति । आचारसम्पन्नानमेवाधिप्पेतभावो च " सम्मदेवा" ति सद्दन्तरेन विञ्ञयति । " ओतिण्णोम्हि जातिया "तिआदिना नयेन हि संवेगपुब्बिकं यथानुसिट्टं पब्बज्जं सन्धाय " सम्मदेवा" ति वुत्तं । तेनाह " हेतुनाव कारणेनेवा "ति । तत्थ हेतुनाति नयेन उपायेन । कारणेनेवाति तब्बिवरणवचनं । तन्ति अरहत्तफलं । तदेव हि "अनुत्तरं ब्रह्मचरियपरियोसान "न्ति वत्तुमरहति अञ्ञेसं तथा अभावतो । “यंतंसद्दा निच्चसम्बन्धा'' ति सद्दनयेनपि तदत्थं दस्सेति " तस्स ही " तिआदिना । “यस्सत्थाय... पे०.... पब्बज्जन्ती 'ति पुब्बे वुत्तस्स तस्स अरहत्तफलस्स अत्थाय कुलपुत्ता पब्बजन्ति, तस्मा अरहत्तफलमिधाधिप्पेतन्ति विञ्ञयतीति अधिप्पायो । नत्थि परो जनो तथा सच्छिकरणे पच्चयो यस्साति अपरप्पच्चयो, तं । उप-सद्दो विय सं- सद्दोपि धातुसद्दानुवत्तको वृत्तं "पापुणित्वाति, पत्वा अधिगन्त्वाति अत्थो । उप-सद्दो वा धातुसद्दानुवत्तको सं- सद्दो पन धातुविसेसकोति आह " सम्पादेत्वा"ति, असेक्खा सीलसमाधिपञायो निप्फादेत्वा, परिपूरेत्वावाति अत्थो ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
निपेतुन्ति निगमनवसेन परियोसापेतुं । “ब्रह्मचरियपरियोसानं...पे०... विहासी ति इमिना एव हि अरहत्तनिकूटेन देसना परियोसापिता, तं पन निगमेतुं " अञ्ञतरो... पे०... अहोसी" ति धम्मसङ्गाहकेहि वृत्तं । एकतोव इध अञ्ञतरो, न पन नामगोत्तादीहि अपाकटतो । अरहन्तानन्ति उब्बाहने चेतं सामिवचनं । तथा उब्बाहितत्ता च तेसमब्भन्तरोति अत्थो आपन्नोति अधिप्पायं दस्सेन्तो “भगवतो "तिआदिमाह । केचि पन एवं वदन्ति - अरहन्तानन्ति चेतं सम्बन्धेयेव सामिवचनं अतो चेत्थ सह पाठसेसेन
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(२.८.४०५-४०५)
तिथियपरिवासकथावण्णना
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अधिप्पायमत्थं दस्सेतुं “भगवतो"तिआदि वुत्तन्ति । यं पनेत्थ अत्थतो न विभत्तं, तं सुविधेय्यमेव ।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्जावेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थप्पकासनिया महासीहनादसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
महासीहनादसुत्तवण्णना निहिता।
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९. पोट्ठपादसुत्तवण्णना
पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना ४०६. एवं महासीहनादसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि पोट्ठपादसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, महासीहनादसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स पोट्ठपादसुत्तभावं वा पकासेतुं “एवं मे सुतं...पे०... सावत्थियन्ति पोट्ठपादसुत्त"न्ति आह । "सावत्थिय''न्ति इदं समीपत्थे भुम्मन्ति दस्सेतुं "सावत्थिं उपनिस्साया"ति वुत्तं, चीवरादिपच्चयपटिबद्धताय उपनिस्सयं कत्वाति अत्थो । जेतो नाम राजकुमारो, तेन रोपितत्ता संवड्डितत्ता परिपालितत्ता जेतस्स वनं उपवनन्ति अत्थमाह "जेतस्स कुमारस्स वने"ति । सुदत्तो नाम गहपति अनाथानं पिण्डस्स दायकत्ता अनाथपिण्डिको। तेन जेतस्स हत्थतो अट्ठारसहिरञकोटिसन्थरणेन तं किणित्वा अट्ठारसहिरञकोटीहेव सेनासनं कारापेत्वा अट्ठारसहिरञकोटीहेव विहारमहं निट्ठापेत्वा एवं चतुपासहिरञकोटिपरिच्चागेन सो आरामो बुद्धप्पमुखस्स भिक्खुसङ्घस्स निय्यातितो । तेनाह “अनाथपिण्डिकेन गहपतिना आरामो कारितो"ति । पुष्फफलपल्लवादिगुणसम्पत्तिया, पाणिनो निवासफासुतादिना वा विसेसेन पब्बजिता ततो ततो आगम्म रमन्ति अनुक्कण्ठिता हुत्वा निवसन्ति एत्थाति आरामो। अथ वा यथावुत्तगुणसम्पत्तिया तत्थ तत्थ गतेपि अत्तनो अब्भन्तरे आनेत्वा रमेतीति आरामो।
फोटो यस्स पादेसु जातोति पोट्ठपादो। फोटो पोट्ठोति हि परियायो। परिब्बाजको दुविधो छन्नपरिब्बाजको, अच्छन्त्रपरिब्बाजको च। तत्थ अच्छन्नपरिब्बाजकोपि अचेलको आजीवकोति दुविधो । तेसु अचेलको सब्बेन सब्बं नग्गो, आजीवको पन उपरि एकमेव वत्थं उपकच्छकन्तरे पवेसेत्वा परिहरति, हेट्ठा नग्गो । अयं पन दुविधोपेस न होतीति वुत्तं "छन्नपरिब्बाजको"ति, वत्थच्छायाछादनपब्बज्जूपगतत्ता छन्नपरिब्बाजकसङ्ख्यं गतोति
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(२.९.४०६ -४०६)
पोट्टपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना
अत्थो । ब्राह्मणमहासालोति महाविभवताय महासारतं पत्तो ब्राह्मणो । गणाचरियोति सापेक्खताय समासो। समयन्ति सामञ्ञनिद्देसो, एकसेसनिद्देसो वा, तं तं समयन्ति अत्थो | पवदन्तीति पकारतो वदन्ति, अत्तना अत्तना उग्गहितनियामेन यथा तथा समयं वदन्तीति अत्थो । तारुक्खोत तस्स नामं । भु सन तोदेय्यजाणुसोणीसोणदण्डकूटदन्तादिके सङ्गण्हाति, आदिसद्देन पन छन्नपरिब्बाजकादिके । तिन्दुको नाम काळक्खन्धरुक्खो । चीरन्ति पन्ति । तिन्दुका चीरं एत्थ सन्तीति तिन्दुकचीरो । तथा एका साला एत्थाति एकसालको । भूतपुब्बगतिया तमत्थं वित्थारतो दस्सेन्तो " यस्मा 'तिआदिमाह । इति कत्वाति इमिना कारणेन । " तस्मि "न्तिआदिना यथापाठ विभत्यन्तदस्सनं ।
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अनेकाकारानवसेसज्ञेय्यत्थविभागतो, अपरापरुप्पत्तितो च भगवतो जाणं लोके पत्थटमिव होतीति वुत्तं "सब्बञ्जतञ्ञाणं पत्थरित्वाति, यतो तस्स आणजालता वुच्चति । वेनेय्यानं तदन्तोगधभावो हेट्ठा वुत्तोव । वेनेय्यसत्तपरिग्गण्हनत्थं समन्नाहारे कते पठमं नेसं वेनेय्यभावेनेव उपट्टानं होति, अथ सरणगमनादिवसेन किच्चनिप्पत्ति वीमंसीयतीति आह “किन्नु खो भविस्सतीति उपपरिक्खन्तो 'ति । निरोधन्ति सञ्ञानिरोधं । निरोधा बुट्ठानन्ति ततो निरोधतो वुट्ठानं सञ्प्पत्तिं । सब्बबुद्धानं जाणेन संसन्दित्वाति यथा ते निरोधं, निरोधतो वुट्ठानञ्च ब्याकरिंसु, ब्याकरिस्सन्ति च, तथा ब्याकरणवसेन संसन्दित्वा । कतिपाहच्चयेनाति द्वीहतीहच्चयेन । पाळियमेव हि इममत्थं वक्खति । सरणं गमिस्सतीति “सरण" मिति गमिस्सति । ‘“हत्थिसारिपुत्तोति हत्थिसारिनो पुत्तो" ति ( दी० नि० टी० १.४०६) आचरियेन वृत्तं । अधुना पन "चित्तो हत्थिसारिपुत्तो" त्वेव पाठो दिस्सति, चित्तो नाम हत्थाचरियस्स पुत्तोति अत्थो ।
सुरतदुपट्टन्ति रजनेन सम्मा रत्तं दिगुणं अन्तरवासकं परिवत्तनवसेन निवासेत्वा । “युगन्धरपब्बतं परिक्खिपित्वा" ति इदं परिकप्पवचनं “तादिसो अस्थि चे, तं विया "ति । मेघवण्णन्ति रत्तमेघवण्णं, सझापभानुरञ्जितमेघसङ्कासन्ति अत्थो । पठमेन चेत्थ सण्ठानसम्पत्तिं दस्सेति, दुतियेन वण्णसम्पत्तिं । एकंसवरगतन्ति वामंसवरप्पवत्तं । तथा हि सुत्तनिपातट्ठकथायं वङ्गीससुत्तवण्णनायं वृत्तं “एकंसन्ति च वामंसं पारुपित्वा ठितस्सेतं अधिवचनं । यतो यथा वामंसं पारुपित्वा ठितं होति, तथा चीवरं कत्वाति एवमस्सत्थो वेदितब्बो "ति [सु० नि० अट्ठ० निग्रोधकप्पसुत्त ( वङ्गीससुत्त) वण्णना ] तअत्थ एतन्ति "एकंसं चीवरं कत्वा" ति वचनं । यतोति यथावुत्तवचनस्स पारुपित्वा ठितस्सेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.९.४०७-४०७)
अधिवचनत्ता एवमस्स अत्थो वेदितब्बोति सम्बन्धो । पच्चग्यन्ति एकं कत्वा अनधिद्वितकाले पाटेक्कं महग्धं, पच्चग्धं वा अभिनवं, अब्भुण्हे तङ्खणे निब्बत्तन्ति अत्थो । पुरिमञ्चेत्थ अत्थविकप्पं केचि न इच्छति । तथा हि आचरियेनेव उदानट्ठकथायं वुत्तं “पच्चग्घेति अभिनवे, पच्चेकं महग्घताय पच्चग्घेति केचि, तं न सुन्दरं । न हि बुद्धा भगवन्तो महग्धं पटिग्गण्हन्ति, परिभञ्जन्ति चा"ति, इधापि तेन पच्छिमोयेव अत्थविकप्पो गहितो। अभिनवताय “पच्चग्घन्ति च इदं आदितो तथा लद्धवोहारेन, अनञपरिभोगताय च वुत्तं, तथा वा सत्थु अधिट्ठानेन तं पत्तं सब्बकालं “पच्चग्घ"न्त्वेव वुच्चति । सेलमयपत्तन्ति मुग्गवण्णसिलामयं चतुमहाराजदत्तियं पत्तं । अयमेव हि भगवता निच्चपरिभुत्तो पत्तो समचित्तसुत्तवण्णनादीसुपि (अ० नि० अट्ठ० २.२.३७) तथा वुत्तत्ता।
४०७. अत्तनो रुचिवसेन अज्झासयवसेन, न परेहि उस्साहितोति अधिप्पायो । "अतिप्पगभावमेव दिस्वाति च इदं भूतकथनं न ताव भिक्खाचरणवेला सम्पत्ताति दस्सनत्थं । भगवा हि तदा कालस्सेव विहारतो निक्खन्तो “वासनाभागियाय धम्मदेसनाय पोट्ठपादं अनुग्गहिस्सामी''ति । पाळियं अतिप्पगो खोति एत्थ "पगो"ति इदं कच्चायनमतेन प-इच्चुपसग्गतो ओ-कारग-कारागमने सिद्धं । प-सद्दोयेव पातोअत्थं वदति । अनेसं पन सद्दविदून मतेन पातोपदमिव नेपातिकं । तेनेव तत्थ तत्थ अट्ठकथासु (दी० नि० अट्ठ० ३.१) वृत्तं "अतिप्पगो खोति अतिविय पातो"ति । अपिच पठमं गच्छति दिवसभावेन पवत्ततीति पगोति निब्बचनं इमिना दस्सितं । दुविधो खलुसद्दो विय हि पगोति सद्दो नामनिपातोपसग्गवसेन तिविधो । एवम्हि इध “अतिप्पगभावमेव दिस्वा"ति वचनं उपपन्नं होति ।
यंनूनाति एस निपातो अञत्थ संसयपरिदीपनो, इध पन संसयपतिरूपकपरिदीपनोव । कस्मा “संसयपरिदीपने"ति वुत्तं, ननु बुद्धानं संसयो नत्थीति आह "बुद्धानञ्चा"तिआदि । संसयो नाम नत्थि बोधिमूले एव तस्स समुग्घाटितत्ता । परिवितक्कपुब्बभागोति अधिप्पेतकिच्चस्स पुब्बभागे पवत्तपरिवितक्को । एसाति “करिस्साम, न करिस्सामा''तिआदिको एस चित्ताचारो सब्बबुद्धानं लब्भति सम्भवति विचारणवसेनेव पवत्तनतो, न पन संसयवसेन । तेनाहाति येनेस सब्बबुद्धानं लब्भति, तेन भगवा एवमाहाति इममेव पाळिं इमस्स अत्थस्स साधकं करोति । अयं अट्ठकथातो अपरो नयोयंनूनाति परिकप्पने निपातो। “उपसङ्कमेय्य"न्ति किरियापदेन वुच्चमानोयेव हि अत्थो
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(२.९.४०८-४१०)
पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थुवण्णना
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अनेन जोतीयति । तस्मा अहं यंनून यदि पन उपसङ्कमेय्यं साधु वताति योजना । “यदि पना''ति इदम्पि तेन समानत्थन्ति वुत्तं "यदि पनाहन्ति अत्थो"ति ।
४०८. अस्साति परिब्बाजकपरिसाय | उद्धंगमनवसेनाति उन्नतबहुलताय उग्गन्त्वा उग्गन्त्वा पवत्तनवसेन । दिसासु पत्थटवसेनाति विपुलभावेन भूतपरम्पराय सब्बदिसासु पत्थरणवसेन । एत्थ च पाळियं यथा उन्नतपायो सद्दो उन्नादो, एवं विपुलभावेन उपरूपरि पवत्तोपि उन्नादोयेवाति तदुभयं एकज्झं कत्वा "उन्नादिनिया"ति वुत्तं, पुन तदुभयमेव विभागं कत्वा "उच्चासद्दमहासदाया"ति । अतो पाळिनयानुरूपमेव अत्थं विवरतीति दट्ठब्बं । इदानि परिब्बाजकपरिसाय उच्चासद्दमहासद्दताकारणं, तस्स च पवत्तिआकारं दस्सेन्तो "तेसही"तिआदिमाह। बालातपेति अभिनवुग्गतसूरियातपे। कामस्सादो नाम कामगुणस्सादो । भवस्सादो नाम कामरागादिसहगतो भवेसु अस्सादो ।
सूरियुग्गमने खज्जोपनमिव निप्पभतं सन्धाय वुत्तं "खज्जोपनकूपमा जाता"ति । लाभसक्कारोपि नो परिहीनोति अत्थो बावेरुजातकेन (जा० १.४.१५४) दीपेतब्बो । परिसदोसोति परिसाय पवत्तदोसो ।
४०९. सण्ठपेसीति सञमनवसेन सम्मदेव ठपेसि । सण्ठपनञ्चेत्थ तिरच्छानकथाय अञमञ्जस्मिं अगारवस्स चजापनवसेन आचारसिक्खापनं, यथावुत्तदोसस्स निगृहनञ्च होतीति आह "सिक्खापेसी"तिआदि। नन्ति परिसं। अप्पसद्दन्ति निस्सद उच्चासद्दमहासदाभावं । "एको निसीदती"तिआदि अत्थापत्तिदस्सनं । बुद्धिन्ति लाभगुणवुद्धिं | पत्थयमानोति पत्थयनहेतु । मानन्ते हि लक्खणे, हेतुम्हि च इच्छन्ति सद्दविदू । इदानि तमत्थं वित्थारेतुं "परिब्बाजका किरा"तिआदि आरद्धं । अपरद्धन्ति अपरज्झितं । नप्पमज्जन्तीति पमादं न आपज्जन्ति, न अगारवं करोन्तीति वुत्तं होति ।
४१०. नो आगते आनन्दोति अम्हाकं भगवति आगते आनन्दो पीति होति । "चिरस्सं खो भन्ते भगवा इमं परियायमकासीति वचनं पुब्बेपि तत्थ आगतपुब्बत्ता वुत्तवचनमिव होतीति चोदनं समुट्ठापेत्वा परिहरन्तो "कस्मा आहा"तिआदिमाह । पियसमुदाचाराति पियालापा। तस्माति तथा पियसमुदाचारस्स पवत्तनतो। न केवलं अयमेव, अथ खो अञपि पब्बजिता येभुय्येन भगवतो अपचितिं करोन्तेवाति तद सम्पि बाहुल्लकम्मेन तदत्थं साधेतुं "भगवन्तव्ही"तिआदि वुत्तं । तत्थ कारणमाह
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.९.४११-४११)
"उच्चाकुलीनताया"ति, महासम्मतराजतो पट्ठाय असम्भिन्नखत्तियकुलतायाति अत्थो । तथा हि सोणदण्डेन वुत्तं “समणो खलु भो गोतमो उच्चाकुला पब्बजितो असम्भिन्नखत्तियकुला''ति, (दी० नि० १.३०४) तेन सासने अप्पसन्नानम्पि कुलगारवेन भगवति अपचितिं दस्सेति । एतस्मिं अन्तरे का नाम कथाति यथावुत्तपरिच्छेदब्भन्तरे कीदिसा नाम कथा । विप्पकताति आरद्धा हुत्वा अपरियोसिता । “का कथा विप्पकता''ति पन वदन्तो अत्थतो तस्सा परियोसापनं पटिजानाति नाम । का कथाति च अविसेसचोदना, तस्मा यस्सा तस्सा सब्बस्सापि कथाय परियोसापनं पटिञातं होति, तञ्च पटिजाननं पदेस नो अविसंयन्ति आह "याव...पे०... सब्ब पवारणं पवारेसी"ति । एसाति परिब्वाजकपरिसाय कथिता राजकथादिका । निस्साराति निरत्थकभावेन साररहिता।
अभिसञ्जानिरोधकथावण्णना
४११. “तिठ्ठतेसा''ति एतस्स आपन्नमत्थं दस्सेन्तो "सचे"तिआदिमाह । सुकारणन्ति सुन्दरं अत्थावहं हितावहं कारणं । यत्थाति अञतरिस्सं सालायं । नानातित्थसङ्घातासु लद्धीसु नियुत्ताति नानातित्थियाणियसद्देन । णिकसद्देन वा क-कारस्स य-कारं कत्वा यथा “अन्तियो''ति । “अयं किं वदति अयं किं वदती"ति कुतूहलं कोलाहलमेत्थ अत्थीति कोतूहला, सा एव साला कोतूहलसालाति आह “कोतूहलुप्पत्तिहानतो"ति । उपसग्गमत्तं धात्वत्थानुवत्तनतो। सञआसीसेनायं देसना, तस्मा सञआसहगता सब्बेपि धम्मा गम्हन्ति, तत्थ पन चित्तं पधानन्ति वुत्तं “चित्तनिरोधे"ति | पहानवसेन पन अच्चन्तनिरोधस्स तेहि अनधिप्पेतत्ता, अविसयत्ता च "खणिकनिरोधे"ति आह । कामं सोपि तेसं अविसयोव, अत्थतो पन निरोधकथा वुच्चमाना तत्थेव तिट्ठति, तस्मा अत्थापत्तिमत्तं पति तथा वुत्तन्ति वेदितब्बं । तस्साति अभिसञ्जानिरोधकथाय । “कित्तिघोसो"ति 'अहो बुद्धानुभावो, भवन्तरपटिच्छन्नम्पि कारणं एवं हत्थामलकं विय पच्चक्खतो दस्सेति, सावके च एदिसे संवरसमादाने पतिट्ठापेती'ति थुतिघोसो याव भवग्गा पत्थरतीति । आचरियेन वुत्तं । इदानि पन “सकलजम्बुदीपे भगवतो कथाकित्तिघोसो पत्थरती"ति पाठो दिस्सति । पटिभागकिरियन्ति पळासवसेन पटिभागभूतं पयोगं । भवन्तरसमयन्ति तत्र तत्र वुढानसमयं अभूतपरिकप्पितं किञ्चि उस्सारियवत्थु अत्तनो समयं कत्वा कथेन्ति । किञ्चिदेव सिक्खापदन्ति “एकमूलकेन भवितब्बं, एत्तकं वेलं एकस्मिंयेव ठाने निसीदितब्बन्ति
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(२.९.४११-४११)
अभिसञानिरोधकथावण्णना
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एवमादिकं किञ्चिदेव कारणं सिक्खाकोट्ठासं कत्वा पञपेन्ति । निरोधकथन्ति निरोधसमापत्तिकथं ।
तेसूति कोतूहलसालायं सन्निपतितेसु नानातित्थियसमणब्राह्मणेसु । एकच्चेति एके । पुरिमोति “अहेतू अप्पच्चया पुरिसस्स सञ्जा उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपी"तिआदिना वुत्तवादी । एत्थाति चतूसु वादीसु । य्वायं इध उप्पज्जतीति सम्बन्धो। समापत्तिन्ति असञीभवावहं वायोकसिणपरिकम्मं, आकासकसिणपरिकम्मं वा रूपावचरचतुत्थज्झानसमापत्तिं, पञ्चमज्झानसमापत्तिं वा। निरोधेति हेट्ठा वुत्तनयेन सञानिरोधे । हेतुं अपस्सन्तोति येन हेतुना असञ्जीभवे सञ्जाय निरोधो सब्बसो अनुप्पादो, येन च ततो चुतस्स इध पञ्चवोकारभवे सजाय उप्पादो, तदुभयम्पि हेतुं अविसयताय अपस्सन्तो।
दुतियोति “सा हि भो पुरिसस्स अत्ता"तिआदिना वुत्तवादी । नन्ति पठमवादिं । निसेधेत्वाति “न खो पन मेतं भो एवं भविस्सती"ति एवं पटिक्खिपित्वा । मिगसिङ्गतापसस्साति एवंनामकतापसस्स । तस्स किर मत्थके मिगसिङ्गाकारेन द्वे चूळा उट्ठहिंसु, “इसिसिङ्गो''तिपि तस्स नामं। असञकभावन्ति मुञ्छापत्तिया किरियामयसञ्जावसेन विगतसञिभावं। वक्खति हि “विसञी हुत्वा''ति । चत्तालीसनिपाते आगतनयेन गिसिङ्गतापसवत्थु सङ्खपतो दस्सेतुं "मिगसिङ्गतापसो किरा"तिआदि वुत्तं । विक्खम्भनवसेन किलेसानं सन्तापनतो अत्तन्तपो। दुक्करतपताय घोरतपो तिब्बतपो। निब्बिसेवनभावापादनेन सब्बसो मिलापितचक्खादितिक्खिन्द्रियताय परमधितिन्द्रियो। सक्कविमानन्ति पण्डुकम्बलसिलासनं सन्धायाह । तहि तथारूपपच्चया कदाचि उण्हं, कदाचि थद्धं, कदाचि चलितं होति । “सक्क...पे०... पत्थेती"ति अयोनिसो चिन्तेत्वा पेसेसि । भग्गोति भञ्जितकुसलज्झासयो, अधुना पन “लग्गो'ति पाठं लिखन्ति । तेन दिब्बफस्सेनाति हत्थग्गहणमत्तदिब्बफस्सेन । तन्ति तथा सञआपटिलाभं । एवमाहाति एवं “सञा हि भो पुरिसस्स अत्ता''तिआदिना आकारेन सञ्जानिरोधमाह । इमिनाव नयेन इतो परेसुपि द्वीसु ठानेसु पाळिमाहरित्वा योजना वेदितब्बा ।
ततियोति “सन्ति हि भो समणब्राह्मणा'तिआदिना वुत्तवादी। आथब्बणपयोगन्ति आथब्बणवेदविहितं आथब्बणिकानं विसञिभावापादनप्पयोगं । उपकड्डनं आहरणं । अपकडनं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.९.४११-४११)
अपहरणं । आथब्बणं पयोजत्वाति आथब्बणवेदे आगतं अग्गिजुहनपुब्बकं मन्तपदं पयोजेत्वा सीसच्छिन्नतादिदस्सनेन सानिरोधमाह । तस्साति यस्स सीसच्छिन्नतादि दस्सितं, तस्स |
चतुत्थोति “सन्ति हि भो देवता महिद्धिका"तिआदिना वुत्तवादी । यक्खदासीनन्ति देवदासीनं, या “योगवतियो''तिपि वुच्चन्ति, योगिनियोतिपि पाकटा। मदनिहन्ति सुरामदनिमित्तकं सुपनं । देवतूपहारन्ति नच्चनगायनादिना देवतानं पूजं । सुरापातिन्ति पातिपुण्णं सुरं । दिवाति अतिदिवा, उस्सूरेति अत्थो। तन्ति तथा सुपित्वा वुट्ठहनं । सुत्तकाले देवतानं सापकडनवसेन निरोधं समापना, पबुद्धकाले सञ्जपकड्डनवसेन निरोधा वुट्ठिताति मञमानोति अधिप्पायो ।
एळमूगकथा वियाति इमेसं पण्डितमानीनं कथा अन्धबालकथासदिसी । चत्तारो निरोधेति अञमञविधुरे चत्तारोपि निरोधे । एकेन भवितब्बन्ति एकसभावेनेव भवितब्बं । न बहुनाति न च अञमञविरुद्धेन बहुविधेन नानासभावेन भवितब्बं । तेनापि एकेनाति एकसभावभूतेन तेनापि निरोधेन । अजेनेवाति तेहि वुत्ताकारतो अाकारेनेव भवितब्बं । सोति एकसभावभूतो निरोधो। अत्र सब्ब नाति सब्ब बुद्धं ठपेत्वा । इधाति कोतूहलसालायं । अयं निरोधो अयं निरोधोति द्विक्खत्तुं ब्यापनिच्छावचनं सत्था अत्तनो देसनाविलासेन अनेकाकारवोकारं निरोधं विभावेस्सतीति दस्सनत्थं कतं । अहो नूनाति एत्थ अहोति अच्छरिये निपातो, नूनाति अनुस्सरणे । तस्मा अहो नून भगवाति अनञसाधारणदेसनत्ता भगवा निरोधम्पि अहो अच्छरियं कत्वा आराधेय्य मोति अधिप्पायो । अहो नून सुगतोति एत्थापि एसेव नयो। अच्छरियविभावनतो एव चेत्थ द्विक्खत्तुं आमेडितवचनं । अच्छरियत्थोपि हेस अहोसद्दो अनुस्सरणमुखेनेव पोट्टपादेन गहितो। तस्मा वुत्तं "अनुस्सरणत्थे निपातद्वय"न्ति । तेनाति अनुस्सरणत्थमुखेन पवत्तनतो । "अहो...पे०... सुगतो''ति वचनेन एतदहोसीति योजना । “यंतंसद्दा निच्चसम्बन्धा"ति साधिप्पायं योजनं दस्सेतुं “यो एतेस"न्तिआदिमाह। कालदेसपुग्गलादिविभागेन बहुभेदत्ता इमेसं निरोधधम्मानन्ति बहुत्ते सामिवचनं, कुसलसद्दयोगे चेतं भुम्मत्थे दट्ठब्बं । कुसलो निपुणो छेकोति परियायवचनमेतं । अहो नून कथेय्याति अच्छरियं कत्वा कथेय्य मजे । सो सुगतोति सम्बन्धो । चिण्णवसितायाति निरोधसमापत्तियं चिण्णवसीभावत्ता। सभावं जानातीति निरोधसभावं याथावतो जानाति ।
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(२.९.४१२-४१३)
अहेतुकसञ्जुप्पादनिरोधकथावण्णा
. अहेतुकसञ्जुप्पादनिरोधकथावण्णना
४१२. घरमज्झेयेव पक्खलिताति यथा घरतो बहि गन्तुकामा पुरिसा मग्गं अनोतरित्वा घरविवरे समतले विवटङ्गणे एव पक्खलनं पत्ता, एवंसम्पदमिदन्ति अत्थो । असाधारणो हेतु, साधारणो पच्चयोति एवमादिविभागो अञ्ञत्र वृत्तो, इध पन तेन विभागेन पयोजनं नत्थि सञ्चाय अकारणभावपटिक्खेपपरत्ता चोदनायाति वुत्तं " कारणस्सेव नाम "न्ति। यं पन पाळियं वुत्तं "सहेतू हि पोट्टपाद सप्पच्चया पुरिसस्स सञ्ञ उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपीति, तत्थ सहेतू सप्पच्चया उप्पज्जन्ति, उप्पन्ना पन निरुज्झन्तियेव, न तिट्ठन्तीति दस्सनत्थं "निरुज्झन्तिपी" ति वचनं, न तु निरोधस्स सहेतुसपच्चयतादस्सनत्थं । उप्पादोयेव हि सहेतुको, न निरोधो । यदि हि निरोधोपि सहेतुको सिया, तस्सपि पुन निरोधेन भवितब्बं अङ्कुरादीनं पुन अङ्कुरादिना विय, न च तस्स पुन निरोधो अत्थि, तस्मा वुत्तनयेनेव पाळिया अत्थो वेदितब्बो । अयञ्च खणनिरोधवसेन वुत्तो। यो पन यथापरिच्छिन्नकालवसेन सब्बसो अनुप्पादनिरोधो, सो " सहेतुको "ति वेदितब्बो तथारूपाय पटिपत्तिया विना अभावतो । तेनाह भगवा “सिक्खा एका सञ्ञ उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञ निरुज्झती 'ति ( दी० नि० १.४१२) ततो एव च अट्ठकथायम्पि (दी० नि० अट्ठ० १.४१३) वृत्तं “ सञ्ञाय सहेतुकं उप्पादनिरोधं दीपेतु"न्ति । एतञ्हि पाळिवचनं, अट्ठकथावचनञ्च अनुप्पादनिरोधं सन्धाय वुत्तन्ति दट्ठब्बं । सिक्खाति हेत्वत्थे पच्चत्तवचनं, य-कारलोपो वा “सङ्ख्यापि तम्हा वनपत्ता पक्कमितब्ब’'न्तिआदीसु (म० नि० १.१९२) विय । हेतुभावो चस्सा उपरि आवि भविस्सति । एकसद्दो च अञ्ञपरियायो, न सङ्ख्यावाची " इत्येके सतो सत्तस्सा' 'तिआदीसु ( दी० नि० १.८५ - ९१, ९४-९८ म० नि० ३.२१) वियाति आह “सिक्खाय एकच्चा सञ्ञा जायन्ती'ति । सेसपदेसुपि एसेव नयो
४१३. वित्थारेतुकम्यताति वित्थारेतुकामताय । पुच्छावसेनाति कथेतुकम्यतापुच्छावसेन, वित्थारेतुकम्यतापुच्छावसेनाति वा समासो । “पोट्टपादस्सेवायं पुच्छा "ति आसङ्काय “भगवा अवोचा "ति पाळियं वृत्तं । सञ्ञाय... पे०... दीपेतुं ता दस्सेन्तोति योजेतब्बं । तत्थाति तस्सं उपरि वक्खमानाय देसनाय । ततियाति अधिपञसिक्खा आगताति सम्बन्धो । “अयं... पे०... देसितोति एत्थ सम्मादिट्ठिसम्मासङ्कष्पवसेन आगता । कस्माति चे ? परियापन्नत्ता, सभावतो, उपकारतो च यथारहं पञ्ञाक्खन्धे अवरोधत्ता सङ्गहितत्ताति अधिप्पायो । तथा हि चूळवेदल्लसुत्ते वुत्तं "या चावुसो विसाख सम्मादिट्टि, यो च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.९.४१३-४१३)
सम्मासङ्कप्पो, इमे धम्मा पञ्जाक्खन्धे सङ्गहिता"ति (म० नि० १.४६२) कामञ्चेत्थ वुत्तनयेन तिस्सोपि सिक्खा आगता, तथापि अधिचित्तसिक्खाय एव अभिसआनिरोधो दस्सितो | इतरा पन तरसा सम्भारभावेन आनीताति अयमत्थो पाळिवसेन वेदितब्बो ।
पञ्चकामगुणिकरागोति पञ्च कामकोट्ठासे आरब्भ उप्पज्जनकरागो । असमुप्पनकामचारोति वत्तमानुप्पन्नतावसेन नसमुप्पन्नो यो कोचि कामचारो, या काचि लोभुप्पत्ति । अधुना पन “असमुप्पन्नकामरागो"ति पाठो, सो अयुत्तोव अत्थतो विरुद्धत्ता । कामरागो चेत्थ विसयवसेन नियमितत्ता कामगुणारम्मणोव लोभो दट्टब्बो, कामचारो पन झाननिकन्तिभवरागादिप्पभेदो सब्बोपि लोभचारो। कामनढेन, कामेसु पवत्तनटेन च कामचारो। सब्बेपि हि तेभूमकधम्मा कामनीयढेन कामा। यस्मा उभयेसम्पि सहचरणञायेन कामसञआभावो होति, तस्मा "कामसञ्जा"ति पदुद्धारं कत्वा तदुभयमेव निद्दिवन्ति वेदितब्बं । “तत्था"तिआदि असमुप्पन्नकामचारतो पञ्चकामगुणिकरागस्स विसेसदस्सनं, असमुप्पन्नकामचारस्सेव वा इधाधिप्पेतभावदस्सनं । कामं पञ्चकामगुणिकरागोपि असमुप्पन्नो एव अनागामिमग्गेन समुग्घाटीयति, तस्मिं पन समुग्घाटितेपि न सब्बो रागो समुग्घाटं गच्छति तस्स अग्गमग्गेन समुग्घाटितत्ता। तस्मा पञ्चकामगुणिकरागग्गहणेन इतरस्स सब्बस्स गहणं न होतीति उभयत्थसाधारणेन परियायेन उभयमेव सङ्गहेत्वा पाळियं कामसाग्गहणं कतं, अतो तदुभयं सरूपतो, विसेसतो च दस्सेत्वा सब्बसङ्गाहिकभावतो "असमुप्पनकामचारो पन इमस्मिं ठाने वट्टती"ति वुत्तं । तस्माति असमुप्पन्नकामचारस्सेव इध वट्टनतो अयमत्थो वेदितब्बोति योजना । तस्साति पठमज्झानसमङ्गिनो पुग्गलस्स । सदिसत्ताति कामसञ्जादिभावेन समानत्ता, एतेन पाळियं “पुरिमा'"ति इदं सदिसकप्पनावसेन वुत्तन्ति दस्सेति । अनागता हि इध “निरुज्झती"ति वुत्ता अनुप्पादस्स अधिप्पेतत्ता । तस्मा अनागतमेव दस्सेतुं "अनुष्पत्राव नुप्पज्जतीति वुत्तं ।
विवेकजपीतिसुखसङ्घाताति विवेकजपीतिसुखेहि सह अक्खाता, न विवेकजपीतिसुखानीति अक्खाता। तंसम्पयुत्ता हि सञ्जायेव इधाधिप्पेता, न विवेकजपीतिसुखानि । अथ वा विवेकजपीतिसुखकोट्टासिकाति अत्थो। सङ्घातसद्दो हेत्थ कोट्ठासत्थो “अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदियेय्या'तिआदीसु (पारा० ८९, ९१) विय । कामच्छन्दादिओळारिकङ्गप्पहानवसेन नानत्थसञ्जापटिघसञ्जाहि निपुणताय सुखुमा। भूतताय सच्चा। तदेवत्थं दस्सेति "भूता''ति इमिना। सुखुमभावेन, परमत्थभावेन च अविपरीतसभावाति अत्थो। एवं ब्यासवसेन यथापाठमत्थं दस्सेत्वा समासवसेनपि
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(२.९.४१४-४१४)
अहेतुकसअप्पादनिरोधकथावण्णना
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यथापाठमेव दस्सेन्तो “अथ वा"तिआदिमाह । समासब्यासवसेन हि द्विधा पाठो दिस्सति । "कामच्छन्दादिओळारिकङ्गप्पहानवसेना''ति इमिना सम्पयुत्तधम्मानं भावनानुभावसिद्धा, सञ्जाय सण्हसुखुमता नीवरणविक्खम्भनवसेन विज्ञायतीति दस्सेति । भूततायाति सुखुमभावेन, परमत्थभावेन च अविपरीतताय, विज्जमानताय वा। विवेकजेहीति नीवरणविवेकतो जातेहि । इदानि झानसमङ्गीवसेन वुत्तस्स दुतियपदस्स अत्थं दस्सेतुं “सा अस्सा"तिआदि वुत्तं । सब्बत्थाति सब्बवारेसु ।
___ समापज्जनाधिट्ठानं विय वुट्ठानम्पिझाने परियापन्नं होति यथा तं धम्मानं भङ्गक्खणो धम्मेसु, आवज्जनपच्चवेक्खणानि पन न झानपरियापन्नानि, तस्मा झानपरियापन्नमेव वसीकरणं गहेत्वा "समापज्जन्तो, अधिगृहन्तो, वुट्ठहन्तो च सिक्खती"ति वुत्तं । तन्ति पठमज्झानं । तेन...पे०... झानेनाति इदम्पि "सिक्खा''ति एतस्स संवण्णनापदं । तेनाति च हेतुम्हि करणवचनं, पठमज्झानेन हेतुनाति अत्थो । हेतुभावो चेत्थ झानस्स विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसजाय उप्पत्तिया सहजातादिपच्चयभावो। कामसजाय पन निरोधस्स उपनिस्सयपच्चयभावोव । सो च खो सुत्तन्तपरियायेन । तथा चेव हेट्ठा संवण्णितं "तथारूपाय पटिपत्तिया विना अभावतो''ति एतेनुपायेनाति य्वायं पठमज्झानतप्पटिपक्खसञवसेन “सिक्खा एका सञ्जा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्जा निरुज्झती"ति एत्थ नयो वुत्तो, एतेन नयेन । सब्बत्थाति सब्बवारेसु ।।
४१४. इदानि आकिञ्चायतनपरमाय एव सञ्जाय दस्सने कारणं विभावेन्तो “यस्मा पना"तिआदिमाह । यस्मा इदञ्च...पे०... उद्धटन्ति सम्बन्धो । केसं पनिदं अङ्गतो सम्मसनन्ति वुत्तं "अट्ठसमापत्तिया"तिआदि। अङ्गतोति झानङ्गतो।. इदहि अनुपदधम्मविपस्सनाय लक्खणवचनं । अनुपदधम्मविपस्सनहि करोन्तो समापत्तिं पत्वा अङ्गतोव सम्मसनं करोति, न च सज्ञा समापत्तिया किञ्चि अङ्गं होति । अथ च पनेतं वुत्तं "इदञ्च सञा सञ्जाति एवं अङ्गतो सम्मसनं उद्धट"न्ति, तस्मा लक्खणवचनमेतं । अङ्गतोति वा अवयवतोति अत्थो, अनुपदधम्मतोति वुत्तं होति । कलापतोति समूहतो । यस्मा पनेत्थ समापत्तिवसेन तंतंसानं उप्पादनिरोधे वुच्चमाने अङ्गवसेन सो वुत्तो होति, तस्मा “इदञ्चा"तिआदिना अङ्गतोव सम्मसनं दस्सेतीति वेदितब् । तस्माति सञावसेनेव अङ्गतो सम्मसनस्स उद्धटत्ता। तदेवाति आकिञ्चायतनमेव, न नेवसञानासायतनं तत्थ पटुसाभावतो।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-२
“यो”ति वत्तब्बे “यतो 'ति वुत्तन्ति आह “यो नामा" ति यथा " आदिम्ही ति वत्तब्बे “आदितो”ति वुच्चति अत्थे परिग्गय्हमाने यथायुत्तविभत्तियाव तो - सद्दस्स लब्भनतो । नाम - सद्दो चेत्थ खो सद्दो विय वाचासिलिट्ठतामत्तं । सस्सेदन्ति सकं, अत्तना अधिगतझानं, तस्मिं सञ्ञ सकसञ्ञा, सा एतस्सत्थीति सकसञ्जीति वुत्तं "अत्तनो पठमज्झानसञ्ञाय सञ्ञवा "ति । ईकारो चेत्थ उपरि वुच्चमाननिरोधपादकताय सातिसयाय झानसञ्ञाय अत्थिभावजोतको दट्ठब्बो । तेनेवाह “अनुपुब्बेन सञ्ञग्गं फुसती "तिआदि । तस्मा तत्थ तत्थ सकसञ्ञिताग्गहणेन तस्मिं तस्मिं झाने सब्बसो सुचिण्णवसीभावो दीपितोति वेदितब्बं ।
(२.९.४१४-४१४)
लोकियानन्ति निद्धारणे सामिवचनं, सामिअत्थे एव वा । यदग्गेन हि तं तेसु सेट्टं, तदग्गेन तेसम्पि सेट्ठन्ति । विभत्तावधिअत्थे वा सामिवचनं । एत्थ पन " लोकियान "न्ति विसेसनं लोकुत्तरसमापत्तीहि तस्स असेट्ठभावतो कतं । सेसं “ किच्चकारकसमापत्तीनन्ति पन विसेसनं अकिच्चकारकसमापत्तितो तस्स असेट्टभावतोति दट्ठब्बं । अकिच्चकारकता चस्सा " यथेव हि तत्थ सञ्ञा, एवं फस्सादयोपी"ति, “यदग्गेन हि तत्थ धम्मा सङ्घारावसेसभावप्पत्तिया पकतिविपस्सकानं सम्मसितुं असक्कुणेय्यरूपेन ठिता, तदग्गेन हेट्ठिमसमापत्तिधम्मा विय पटुकिच्चकरणसमत्थापि न होन्ती 'ति च अट्ठकथासु (विसुद्धि० १.२८७) पटुसञ्ञकिच्चाभाववचनतो विञ्ञायति । स्वायमत्थो परमत्थमञ्जूसाय नाम विसुद्धिमग्गटीकाय आरुप्पकथायं (विसुद्धि० टी० १.२८६ ) आचरियेन सविसेसं वुत्तो, तस्मा तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बो । केचि पन “यथा हेट्ठिमा हेट्टिमा समापत्तियो उपरिमानं उपरिमानं समापत्तीनं अधिट्ठानकिच्चं साधेन्ति, न एवं नेवसनासञ्ञायतनसमापत्ति कस्सचिपि अधिट्ठानं साधेति, तस्मा सा अकिच्चकारिका इतरा किच्चकारिका" ति वदन्ति, तदयुत्तं तस्सापि विपस्सनाचित्तपरिदमनादीनं अधिट्ठानकिच्चसाधनतो, तस्मा पुरिमोयेव अत्थो युत्तो । कस्मा चेतं तेसमग्गन्ति आह “आकिञ्चञ्ञायतनसमापत्तियन्तिआदि । "इती” ति वत्वा "लोकियानं ... पे०... अग्गत्ता" ति तस्सत्थो वुत्तो, "अग्गत्ता "ति एत्थ वा निदस्सनमेतं ।
पकपेतीति संविदहति । झानं समापज्जन्तो हि झानसुखं अत्तनि संविदहति नाम । अभिसङ्करोतीति आयूहति सम्पिण्डेति । सपिण्डनत्थो हि समुदायत्थो । यस्मा पन निकन्तिवसेन चेतनाकिच्चस्स मत्थकप्पत्ति, तस्मा फलूपचारेन कारणं दस्सेन्तो “निकन्तिं... पे०... नामा" ति वृत्तं । इमा आकिञ्चञ्ञायतनसञ्ञति इदानि लब्भमाना
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(२.९.४१४-४१४)
अहेतुकस प्पादनिरोधकथावण्णना
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आकिञ्चायतनसञ्जा। तंसमतिक्कमेनेव उपरिझानत्थाय चेतनाभिसङ्खरणसम्भवतो निरुज्झेय्युं। अञाति आकिञ्चञायतनसजाहि अञा । ओळारिकाति ततो थूलतरा । का पन ताति आह "भवङ्गसा 'ति । आकिञ्चायतनतो वुट्ठाय एव हि उपरिझानत्थाय चेतनाभिसङ्खरणानि · भवेय्युं, · एवञ्च आकिञ्चायतनसञआ निरुज्झेय्युं, वुट्ठानञ्च भवङ्गवसेन होति, ततो परम्प याव उपरिझानसमापज्जनं, ताव अन्तरन्तरा भवङ्गसञ्जा उप्पज्जेय्यु, ता च आकिञ्चायतनसचाहि ओळारिकाति अधिप्पायो ।
चेतेन्तोवाति नेवसानासचायतनज्झानं एकं द्वे चित्तवारेपि समापज्जनवसेन पकप्पेन्तो एव । न चेतेतीति तथा हेट्ठिमझानेसु विय वा पुब्बाभोगाभावतो न पकप्पेति नाम । पुब्बाभोगवसेन हि झानं पकप्पेन्तो इध "चेतेतीति वुत्तो। अभिसङ्घरोन्तोवाति तत्थ अप्पहीननिकन्तिकतावसेन आयूहन्तो एव । नाभिसङ्घरोतीति तथा हेट्ठिमझानेसु विय वा पुब्बाभोगाभावतो नायूहति नाम। “अहमेतं झानं निब्बत्तेमि उपसम्पादेमि समापज्जामी"ति हि एवं अभिसङ्घरणं तत्थ सालयस्सेव होति, न अनालयस्स, तस्मा एकद्विचित्तक्खणिकम्पि झानं पवत्तेन्तो तत्थ अप्पहीननिकन्तिकताय “अभिसङ्घरोन्तो एवाति वुत्तो । यस्मा पनस्स तथा हेट्ठिमझानेसु विय वा तत्थ पुब्बाभोगो नत्थि, तस्मा "न अभिसङ्घरोती''ति वुत्तं । "इमस्स भिक्खुनो"तिआदि वुत्तस्सेवत्थस्स विवरणं । तत्थ यस्मा इमस्स...पे०... अस्थि, तस्मा “न चेतेति, नाभिसङ्घरोती"ति च वुत्तन्ति अधिप्पायो। आभोगसमन्नाहारोति आभोगसङ्घातो, आभोगवसेन वा चित्तस्स आरम्मणाभिमुखं, आरम्मणस्स वा चित्ताभिमुखं अन्वाहारो। "स्वायमत्थो"तिआदिना तदेवत्थं उपमाय पटिपादेति । पुत्तघराचिक्खणेनाति पुत्तघरस्स आरोचननयेन ।
___ गन्त्वा आदाय आगतन्ति सम्बन्धो । पच्छाभागेति आसनसालाय पच्छिमदिसायं ठितस्स पितुघरस्स पच्छाभागे । ततोति पुत्तघरतो । लद्धघरमेवाति यतोनेन भिक्खा लद्धा, तमेव घरं पुत्तगेहमेव । आसनसाला विय आकिञ्चायतनसमापत्ति ततो पितुघरपुत्तघरट्ठानियानं नेवसञ्जानासायतननिरोधसमापत्तीनं उपगन्तब्बतो । पितुगेहं विय नेवसञ्जानासचायतनसमापत्ति अमनसिकातब्बतो, मज्झे ठितत्ता च । पुत्तगेहं विय निरोधसमापत्ति मनसिकातब्बतो, परियन्ते ठितत्ता च । पितुघरं अमनसिकरित्वाति पविसित्वा समतिक्कन्तम्पि पितुघरं अमनसिकरित्वा । पुत्तघरस्सेव आचिक्खणं विय एकं द्वे चित्तवारे समापज्जितब्बम्पि नेवसानासायतनं अमनसिकरित्वा परतो निरोधसमापत्तत्थाय एव मनसिकारो दट्टब्बो। एवं अमनसिकारसामञ्जन, मनसिकारसामञ्जेन च उपमोपमेय्यता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.९.४१४-४१४)
वुत्ता आचिक्खणेनपि मनसिकारस्सेव जोतनतो। न हि मनसिकारेन विना आचिक्खणं सम्भवति ।
___ता झानसज्ञाति एकं द्वे चित्तवारे पवत्ता नेवसञ्जानासचायतनझानसभा । निरोधसमापत्तियहि यथारहं चतुत्थारुप्पकुसलकिरियजवनं द्विक्खत्तुमेव जवति, न तदुत्तरि । निरुज्झन्तीति सरसवसेनेव निरुज्झन्ति, पुब्बाभिसङ्खारबलेन पन उपरि अनुप्पादो। यथा च झानसानं, एवं इतरसञानम्पीति आह "अञआ चा"तिआदि। नुप्पज्जन्ति यथापरिच्छिन्नकालन्ति अधिप्पायो । सो एवं पटिपन्नो भिक्खूति यथावुत्ते सजग्गे ठितभावेन पटिपन्नो भिक्खु, सो च खो अनागामी वा अरहा वा द्वीहि फलेहि समन्नागमो, तिण्णं सङ्खारानं पटिप्पस्सद्धि, सोळसविधा आणचरिया, नवविधा समाधिचरियाति इमेसं वसेन निरोधपटिपादनपटिपत्तिं पटिपन्नोति अत्थो। अनुपुब्बनिरोधवसेन चित्तचेतसिकानं अप्पवत्तियेव सञ्जावेदनासीसेन "सजावेदयितनिरोध"न्ति वुत्ता । फुसतीति एत्थ फुसनं नाम विन्दनं पटिलद्धीति दस्सेति "विन्दति पटिलभती"ति इमिना | अस्थतो पन वुत्तनयेन यथापरिच्छिन्नकालं चित्तचेतसिकानं सब्बसो अप्पवत्तियेव ।
निरत्थकताय उपसग्गमत्तं, तस्मा सञआ इच्चेव अत्थो । निरोधपदेन अनन्तरिकं कत्वा समापत्तिपदे वत्तब्बे तेसं द्विन्नमन्तरे सम्पजानपदं ठपितन्ति आह "निरोधपदेन अन्तरिकं कत्वा वुत्त"न्ति । तेन वुत्तं "अनु...पे०... अत्थो"ति, तेन अयुत्तसमासोयं यथारुतपाठोति दस्सेति । तत्रापीति तस्मिं यथापदमनुपुब्बिठपनेपि अयं विसेसत्थोति योजना । सम्पजानन्तस्साति तं तं समापत्तिं समापज्जित्वा वुट्ठाय तत्थ तत्थ सङ्घारानं सम्मसनवसेन पजानन्तस्स पुग्गलस्स। अन्तेति यथावुत्ताय निरोधपटिपादनपटिपत्तिया परियोसाने । दुतियविकप्पे सम्पजानन्तस्साति सम्पजानकारिनो, इमिना निरोधसमापत्तिसमापज्जनकस्स भिक्खुनो आदितो पट्ठाय सब्बपाटिहारिकपञआय सद्धिं अत्थसाधिका पञ्जा किच्चतो दस्सिता होति । तेनाह “पण्डितस्स भिक्खुनोति । वचनसेसापेक्खा' नपेक्खता द्विन्नं विकप्पानं विसेसो।
संवण्णनोकासानुप्पत्तितो निरोधसमापत्तिकथा कथेतब्बा। सब्बाकारेनाति निरोधसमापत्तिया सरूपविसेसो, समापज्जनको, समापज्जनट्ठानं, समापज्जनकारणं, समापज्जनाकारोति एवमादिना सब्बप्पकारेन । तत्थाति विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.३०७)
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(२.९.४१५-४१५)
अहेतुकसञ्जप्पादनिरोधकथावण्णना
३३७
कथिततोवाति कथितहानतो एव, तेवीसतिमपरिच्छेदतोति अत्थो, न इध तं वदाम पुनरुत्तिभावतो, गन्थगरुकभावतो चाति अधिप्पायो ।
पाळियं एवं खो अहन्ति एत्थ आकारत्थो एवं-सद्दो उग्गहिताकारदस्सनन्ति कत्वा । एवं पोट्ठपादाति एत्थ पन सम्पटिच्छनत्थो तथैव अनुजाननन्ति कत्वा । तेनाह "सुउग्गतितं तया'ति अनुजानन्तो"ति ।
४१५. सञा अग्गा एत्थाति सञग्गं, आकिञ्चचायतनं । अवसेससमापत्तीसुपि सञग्गं अत्थीति एत्थ पन सञ्जग्गभावो “सञ्जग्ग''न्ति वुत्तो, सञ्जायेव अग्गन्ति तुल्याधिकरणसमासो वा । "पुथू"ति अयं लिङ्गविपल्लासो, निकारलोपो वाति वुत्तं "बहूनी"ति। “यथा"ति इमिना करणप्पकारसङ्घातो पकारविसेसो गहितो, न पकारसामञन्ति दस्सेति “पथवीकसिणादीसू"तिआदिना। "इदं वुत्तं होती"तिआदि तबिवरणं । झानानं ताव युत्तो करणभावो सञ्जानिरोधफुसनस्स साधकतमभावतो, कसिणानं पन कथन्ति ? तेसम्पि सो युत्तो एव । यदग्गेन हि झानानं निरोधफुसनस्स साधकतमभावो, तदग्गेन कसिणानम्पि तदविनाभावतो। अनेककरणापि च किरिया होतियेव यथा “अञ्जन मग्गेन यानेन दीपिकाय गच्छती''ति ।
एकवारन्ति सकिं। पुरिमसानिरोधन्ति कामसञ्जानिरोधं, न पन निरोधसमापत्तिसञ्जितं सानिरोधं । एकं सञग्गन्ति एकं सञ्जाभूतं अग्गं, एको सञ्जग्गभावो वा हेट्ठिमाय सञ्जाय उक्कट्ठभावतो। सञा च सा अग्गञ्चाति हि सञग्गं, न सञासु अग्गन्ति । यथा पन सञा अग्गो एत्थाति सजग्गं, आकिञ्चञायतनं, एवं सेसझानम्पि | येन च निमित्तेन झानं “सञग्ग"न्ति वुत्तं, तदेव सञासङ्खातं निमित्तं भावलोपेन, भावप्पधानेन वा इधाधिप्पेतं । द्वे वारेति द्विक्खत्तुं । सतसहस्सं सञग्गानीति मिगपदवळञ्जननिद्देसो। सेसकसिणेसूति कसिणानमेव गहणं निरोधकथाय अधिकतत्ता, ततो एव चेत्थ झानग्गहणेनपि कसिणज्झानानि एव गहितानीति वेदितब्बं । यथा “पथवीकसिणेन करणभूतेना"ति तदारम्मणिकं झानं अनामसित्वा वुत्तं, एवं “पठमज्झानेन करणभूतेना"ति तदारम्मणं अनामसित्वा वदति। "इती"तिआदिना तदेवत्थं सङ्गहेत्वा निगमनं करोति | सब्बम्पीति एकवारं समापन्नज्झानसझम्पि । सङ्गहेत्वाति सञ्जाननलक्खणेन तंसभावानतिवत्तनतो सङ्गहं कत्वा, समापज्जनवसेन, सञ्जाननलक्खणेन च एकताति वुत्तं होति । अपरापरन्ति पुनप्पुनं । बहूनि सजग्गानि होन्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.९.४१६-४१६)
४१६. पठमनये झानपदट्ठानं विपस्सनं वड्डेन्तस्स पुग्गलस्स वसेन सञआजाणानि दस्सितानि । दुतियनये पन यस्मा विपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा मग्गेन घटेन्तस्स मग्गजाणं उप्पज्जति, तस्मा विपस्सनामग्गवसेन सञ्जात्राणानि दस्सितानि । ततियनये च यस्मा पठमनयो ओळारिको, दुतियनयोपि मिस्सकोति तदुभयं असम्भावेत्वा अच्चन्तसुखुमगम्भीरं निब्बत्तितलोकुत्तरमेव दस्सेतुं मग्गफलवसेन सञआणानि दस्सितानि । तयोपेते नया मग्गसोधनवसेन दस्सिता ।
“अयं पनेत्थ सारो' ति विभावेतुं तिपिटकमहासिवत्थेरवादो आभतो। तथा हि "अरहत्तफलसञ्जाय उप्पादा''तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.४१६) थेरवादानुकूलमेव उपरि अत्थो संवण्णितोति । इमे भिक्खूति पुरिमवादिनो भिक्खू । तदा दीघनिकायतन्तिं परिवत्तन्ते इमं ठानं पत्वा यथावुत्तपटिपाटिया तयो नये कथेन्ते भिक्खू सन्धाय एवं थेरो वदति । निरोधं पुच्छित्वा तस्मिं कथिते तदनन्तरं सञ्जात्राणुप्पत्तिं पुच्छन्तो अत्थतो निरोधा वुट्टानं पुच्छति नाम। निरोधतो च वुढानं अरहत्तफलुप्पत्तिया वा सिया, अनागामिफलुप्पत्तिया वा, तत्थ सञआ पधाना, तदनन्तरञ्च पच्चवेक्खणाणन्ति तदुभयं निद्धारेन्तो थेरो “पोट्ठपादो हेवा''तिआदिमाह । तत्थ भगवाति आलपनवचनं ।
यथा मग्गवीथियं मग्गफलञाणेसु उप्पन्नेसु नियमतो मग्गफलपच्चवेक्खणञाणानि होन्ति, एवं फलसमापत्तिवीथियं फलपच्चवेक्खणञाणन्ति वुत्तं "पच्छा पच्चवेक्खणाण"न्ति । "इदं अरहत्तफल"न्ति पच्चवेक्खणञाणस्स उप्पत्तिआकारदस्सनं । अयमेव पच्चयो इदप्पच्चयो म-कारस्स द-कारं कत्वा । द-कारेनपि पकतिपदमिच्छन्ति केचि सद्दविदू । सो पन थेरवादे न फलसमाधिसा एवाति आह "फलसमाधिसज्ञापच्चया"ति, अरहत्तफलसमाधिसहगतसञापच्चयाति अत्थो । किराति अनुस्सरणत्थे निपातो । यथाधिगतधम्मानुस्सरणपक्खिया हि पच्चवेक्खणा । समाधिसीसेन चेत्थ सबं अरहत्तफलं गहितं सहचरणञायेन, तस्मिं असति पच्चवेक्खणाय असम्भवोति पाळियं "इदप्पच्चया''ति वुत्तं । एवमिध दीघभाणकानं मतेन फलपच्चवेक्खणाय एकन्तिकता दस्सिता । चूळदुक्खक्खन्धसुत्तट्ठकथायं पन एवं वुत्तं “सा पन न सब्बेसं परिपुण्णा होति । एको हि पहीनकिलेसमेव पच्चवेक्खति, एको अवसिट्ठकिलेसमेव, एको मग्गमेव, एको फलमेव, एको निब्बानमेव । इमासु पन पञ्चसु पच्चवेक्खणासु एकं वा द्वे वा नो लड़े न वट्टन्ती"ति, (म० नि० अट्ठ० १.१७५) तदेतं मज्झिमभाणकानं मतेन वुत्तं । आभिधम्मिका पन वदन्ति -
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(२.९.४१७-४१७)
सञआअत्तकथावण्णना
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"मग्गं फलञ्च निब्बानं, पच्चवेक्खति पण्डितो । हीने किलेसे सेसे च, पच्चवेक्खति वा (अभिधम्मत्थसङ्गहट्ठकथायं कम्मट्ठानसङ्गहविभागे विसुद्धिभेदे)
न
वा"ति ।।
साअत्तकथावण्णना
४१७. “गामसूकरो"ति इमिना वनसूकरमपनेति । एवहि उपमावचनं सूपपन्नं होतीति । देसनाय सहभावेन सारम्भमक्खइस्सादिमलविसोधनतो सुतमयजाणं न्हापितं विय, सुखुमभावेन अनुविलित्तं विय, तिलक्खणब्भाहतताय कुण्डलाद्यालङ्कारविभूसितं विय च होति । तदनुपविसतो आणस्स, तथाभावा तंसमङ्गिनो च पुग्गलस्स तथाभावापत्ति, निरोधकथाय निवेदनञ्चस्स सिरिसयने पवेसनसदिसन्ति आह “सण्हसुखुम...पे०... आरापितोपी"ति । तत्थाति तिस्सं निरोधकथायं । मन्दबुद्धिताय सुखं न विन्दन्तो अलभन्तो, अजानन्तो वा । मलविदूसितताय गूथट्ठानसदिसं। अत्तनो लद्धिन्ति अत्तदिहिँ । अनुमति गहेत्वाति अनुवं गहेत्वा “एदिसो मे अत्ता"ति अनुजानापेत्वा, अत्तनो लद्धियं पतिवापेत्वाति वुत्तं होति ।
पाळियं कं पनाति ओळारिको, मनोमयो, अरूपीति तिण्णं अत्तवादानं वसेन तिविधेसु अत्तानेसु कतरं अत्तानं पच्चेसीति अत्थो । “देसनाय सुकुसलो"ति इमिना “अवस्सं मे भगवा लद्धिं विद्धंसेस्सती"ति तस्स मनसिकारं दस्सेति । परिहरन्तोति विद्धंसनतो अपनेन्तो, अरूपी अत्ताति अत्तनो लद्धिं निगूहन्तोति अधिप्पायो । पाळियं "ओळारिकं खो"तिआदिम्हि परिब्बाजकवचने अयमधिप्पायो - यस्मा चतुसन्ततिरूपप्पबन्धं एकत्तवसेन गहेत्वा रूपीभावतो “ओळारिको अत्ता''ति पच्चेति अत्तवादी, अन्नपानोपट्ठानतञ्चस्स परिकप्पेत्वा “सस्सतो"ति मञति, रूपीभावतो एव च साय अञत्तं ज्ञायागतमेव, यं वेदवादिनो “अन्नमयो, पानमयो"ति च द्विधा वोहरन्ति, तस्मा परिब्बाजको तं अत्तवादिमतं अत्तानं सन्धाय “ओळारिकं खो''तिआदिमाहाति ।
"ओळारिको च हि ते पोट्ठपाद अत्ता अभविस्सा'"तिआदिम्हि भगवतो वचने चायमधिप्पायो- यदि अत्ता रूपी भवेय्य, एवं सति रूपं अत्ता सिया, न च सञ्जी सजाय अरूपभावतो, रूपधम्मानञ्च असञ्जाननसभावत्ता । रूपी च समानो यदि तव मतेन निच्चो, सज्ञा च अपरापरं पवत्तनतो तत्थ तत्थ भिज्जतीति भेदसब्भावतो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२(२.९.४१८-४२०-४१८-४२०)
अनिच्चा, एवम्पि “अञा सञ्जा, अञो अत्ता"ति सञआय अभावतो अचेतनोव अत्ता होति, तस्मा एस अत्ता न कम्मस्स कारको, न च फलस्स उपभुञ्जनकोति आपन्नमेवाति इमं दोसं दस्सेन्तो भगवा “ओळारिको चा''तिआदिमाहाति। तत्थाति "रूपी अत्ता''ति वादे । पच्चागच्छतोति सेसकिरियापेक्खाय कम्मत्थेयेव उपयोगवचनं, पच्चागच्छतोति च पच्चागच्छन्तस्स, जानन्तस्स, पटिच्च वादेन पवत्तस्साति वा अत्थो । "अञा च सञ्जा उप्पज्जति, अञा च सा निरुज्झन्ती"ति कस्मा वुत्तं, ननु उप्पादपुब्बको निरोधो, न च उप्पन्नं अनिरुज्झनकं नाम अत्थीति चोदनं सोधेतुं “चतुत्रं खन्धान"न्तिआदि वुत्तं । सतिपि नेसं एकालम्बणवत्थुकभावे उप्पादनिरोधाधिकारत्ता एकुप्पादनिरोधभावोव वुत्तो । अपरापरन्ति पोङ्खानुपोङ्ख ।
४१८-४२०. पाळियं मनोमयन्ति झानमनसो वसेन मनोमयं । यो हि बाहिरपच्चयनिरपेक्खो, सो मनसाव निब्बत्तोति मनोमयो। रूपलोके निब्बत्तसरीरं सन्धाय वदति । यं वेदवादिनो “आनन्दमयो, विज्ञाणमयो"ति च द्विधा वोहरन्ति । तत्रापीति "मनोमयो अत्ता''ति वादेपि । दोसे दिनेति “अभाव सञ्जा भविस्सती''तिआदिना दोसे दिन्ने अत्तनो लढ़ियेव वदन्तो “अरूपिं खो"तिआदिमाहाति सम्बन्धो । इधापि पुरिमवादे वुत्तनयेन “यदि अत्ता मनोमयो सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो भवेय्य, एवं सति रूपं अत्ता सिया, न च सजी सञाय अरूपभावतो"तिआदि सब्बं दोसदस्सनं वेदितब्बं । तमत्थहि दस्सेन्तो भगवा “मनोमयो च हि ते पोट्टपादा'तिआदिमवोच । कस्मा पनायं परिब्बाजको पठमं ओळारिकं अत्तानं पटिजानित्वा तं लद्धिं विस्सज्जेत्वा पुन मनोमयं अत्तानं पटिजानाति ? तम्पि विस्सज्जित्वा पुन अरूपिं अत्तानं पटिजानातीति ? कामज्वेत्थ कारणं “ततो सो अरूपी अत्ताति एवंलद्धिको समानोपि...पे०... आदिमाहा"ति हेट्ठा वुत्तमेव, तथापि इमे तित्थिया नाम अनवट्टितचित्ता थुसरासिम्हि निखातखाणुको विय चञ्चलाति कारणन्तरम्पि दस्सेतुं “यथा नामा"तिआदि वुत्तं । सञा नप्पतिद्वातीति आरम्मणे सञ्जाननवसेन सञा न पतिठ्ठाति, आरम्मणे सझं न करोतीति वुत्तं होति । सञ्जापतिद्वानकालेति एत्थापि अयं नयो।।
तत्रापीति “अरूपी अत्ता"ति वादेपि। सञ्जायाति पकतिसञ्जाय, एवं भदन्तधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.४१८-४२०) वुत्तं । अस्मिं तित्थायतने उप्पादनिरोधन्ति हि सम्बन्धो । तेन वेदिकानं मतेन नानक्खणे उप्पन्नाय नानारम्मणाय सञ्जाय उप्पादनिरोधमिच्छतीति दस्सेति । केचि पन “आचरियसझाया''ति पठन्ति,
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(२.९.४१८-४२०-४१८-४२०)
साअत्तकथावण्णना
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तदयुत्तं अत्थस्स विरुद्धत्ता, थेरेन च अनुद्धटत्ता। अपरापरं पवत्ताय सञाय उप्पादवयदस्सनतो उप्पादनिरोधं इच्छति। तथापि “सञा सञ्जा''ति पवत्तसमझें “अत्ता'"ति गहेत्वा तस्स अविच्छेदं परिकप्पेन्तो सस्सतं मजति । तेनाह "अत्तानं पन सस्सतं मचती"ति। तस्माति अपरापरं पवत्तसञाय नाममत्तेन सस्सतं मानतो । सजाय उप्पादनिरोधमत्ते अट्ठत्वा तदुत्तरि सस्सतग्गाहस्स गहणतो दोसं दस्सेतीति अधिप्पायो । तथेवाति यथा “रूपी अत्ता, मनोमयो अत्ता'"ति च वादद्वये अत्तनो असञता, एवञ्चस्स “अचेतनता"तिआदिदोसप्पसङ्गो दुन्निवारो, तथेव इमस्मिं वादेपीति अत्थो। मिच्छादस्सनेनाति अत्तदिट्ठिसङ्घातेन मिच्छाभिनिवेसेन । अभिभूतत्ताति अनादिकालभावितभावेन अज्झोत्थटत्ता, निवारितञाणचारत्ताति वुत्तं होति । येन सन्ततिघनेन, समूहघनेन च वञ्चितो बालो पबन्धवसेन पवत्तमानं धम्मसमूह मिच्छागाहवसेन “अत्ता''ति च “निच्चो"ति च अभिनिविस्स वोहरति, तं एकत्तसञ्जितं सन्ततिघनं, समूहघनञ्च विनिभुज्ज याथावतो जाननं घनविनिब्भोगो, सो च सब्बेन सब्बं तिथियानं नत्थि । तस्मा अयम्पि परिब्बाजको तादिसस्स जाणपरिपाकस्स अभावतो वुच्चमानम्पि नानत्तं नाञासीति आह "तं नानत्तं अजानन्तो"ति । सञा नामायं नानारम्मणा नानाक्खणे उप्पज्जति, वेति चाति वेदिकानं मतं । सञ्जाय उप्पादनिरोधं पस्सन्तोपि सज्ञामयं सञ्जाभूतं अत्तानं परिकप्पेत्वा यथावुत्तघनविनिब्भोगाभावतो निच्चमेव कत्वा दिट्ठिमञ्जनाय मञति। तथाभूतस्स च तस्स सण्हसुखुमपरमगम्भीरधम्मता न आयतेवाति इदं कारणं पस्सन्तेन भगवता “दुज्जानं खो'तिआदि वुत्तन्ति दस्सेन्तो "अथस्स भगवा"तिआदिमाह ।
दिद्विआदीसु “एवमेत''न्ति दस्सनं अभिनिविसनं दिदि । तस्सा एव पुब्बभागभूतं "एवमेत"न्ति निज्झानवसेन खमनं खन्ति। तथा रोचनं रुचि। “अञथायेवा''तिआदि तेसं दिट्ठिआदीनं विभज्ज दस्सनं । तत्थ अञथायेवाति यथा अरियविनये अन्तद्वयं अनुपगम्म मज्झिमपटिपदावसेन दस्सनं होति, ततो अञथायेव । अञदेवाति यं परमत्थतो विज्जति खन्धायतनादि, तस्स चापि अनिच्चतादि, ततो अञदेव परमत्थतो अविज्जमानं अत्तसस्सतादिकं तया खमते चेव रुच्चते चाति अत्थो । आभुसो युञ्जनं आयोगो। तेन वुत्तं "युत्तपयुत्तता"ति । पटिपत्तियाति परमत्तचिन्तनादिपरिब्बाजकपटिपत्तिया। आचरियस्स भावो आचरियकं, यथा तथा ओवादानुसासनं, तदस्सत्थीति आचरियको यथा “सद्धो"ति आह “अञत्था"तिआदि । अझस्मिं तित्थायतने तव आचरियभावो अत्थीति योजना । "तेना"तिआदि सह योजनाय यथावाक्यं दस्सनं । “अयं परमत्थो, अयं सम्मुती"ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२(२.९.४१८-४२०-४१८-४२०)
इमस्स विभागस्स दुब्बिभागत्ता दुज्जानं एतं नानत्तं । “यज्जेतं दुज्जानं ताव तिट्टतु, अनं पनत्थं भगवन्तं पुच्छामी"ति चिन्तेत्वा तथा पटिपन्नतं दस्सेतुं “अथ परिब्बाजको"तिआदि वुत्तं । अञो वा सञ्जातोति सञ्जासभावतो अञसभावो वा अत्ता होतूति अत्थो । अधुना पन “अञा वा सञ्जा"ति पाठो दिस्सति । अस्साति अत्तनो ।
लोकीयति दिस्सति, पतिठ्ठहति वा एत्थ पुञपापं, तब्बिपाको चाति लोको, अत्ता । सो हिस्स कारको, वेदको चाति इच्छितो । दिद्विगतन्ति “सस्सतो अत्ता च लोको चा"तिआदि (दी० नि० १.३१; उदा० ५५) नयपवत्तं दिविगतं । न हेस ट्ठिाभिनिवेसो दिट्ठधम्मिकादिअत्थनिस्सितो तदसंवत्तनतो। यो हि तं संवत्तनको, सो “तं निस्सितो"ति वत्तब्बतं लभेय्य यथा तं पुञाणसम्भारो। एतेनेव नयेन न धम्मनिस्सिततापि संवण्णेतब्बा | ब्रह्मचरियस्स आदि आदिब्रह्मचरियं, तदेव आदिब्रह्मचरियकं यथा “विनयो एव वेनयिको"ति (पारा० अट्ठ० ८)। तेनाह "सिक्खत्तयसङ्घातस्सा"तिआदि | सब्बम्पि वाक्यं अन्तोगधावधारणं तस्स अवधारणफलत्ताति वुत्तं "आदिमत्त"न्ति । तदिध अधिसीलसिक्खाव । सा हि सिक्खत्तयसङ्गहिते सासनब्रह्मचरिये आदिभूता, न अञत्थ विय आजीवट्ठमकादि आदिब्रह्मचरियकन्ति दस्सेति “अधिसीलसिक्खामत्त"न्ति इमिना । निबिन्दनत्थायाति उक्कण्ठितभावाय । “अभिजाननायाति जातपरिञावसेन अभिजाननत्थाय । सम्बुज्झनत्थायाति तीरणपहानपरिञावसेन सम्बोधनत्थाया''ति वदन्ति | अपिच अभिजाननायाति अभिज्ञापञ्जावसेन जाननाय । तं पन वट्टस्स पच्चक्खकरणमेव होतीति आह “पच्चक्खकिरियाया"ति। सम्बुज्झनत्थायाति परिञाभिसमयवसेन पटिवेधत्थाय । दिट्ठाभिनिवेसस्स संसारवट्टे निब्बिदाविरागनिरोधुपसमासंवत्तनं वट्टन्तोगधत्ता, तस्स वट्टसम्बन्धनतो च । तथा अभिञासम्बोधनिब्बानासंवत्तनञ्च दट्ठब्बं ।
कामं तण्हापि दुक्खसभावा एव, तस्सा पन समुदयभावेन विसुं गहितत्ता "तण्हं ठपेत्वा"ति वुत्तं । पभावनतोति उप्पादनतो। दुक्खं पभावेन्तीपि तण्हा अविज्जादिपच्चयन्तरसहिता एव पभावेति, न केवलाति आह "सप्पच्चया'ति । अप्पवत्तीति अप्पवत्तिनिमित्तं । न पवत्तन्ति एत्थ दुक्खसमुदया, एतस्मिं वा अधिगतेति हि अप्पवत्ति। दुक्खनिरोधं निब्बानं गच्छति, तदत्थञ्च सा पटिपज्जितब्बाति दुक्खनिरोधगामिनिपटिपदा। मग्गपातुभावोति मग्गसमुप्पादो। फलसच्छिकिरियाति फलस्साधिगमवसेन पच्चक्खकरणं । तं आकारन्ति तं तुण्हीभावसङ्खातं गमनलिङ्ग आरोचेन्तो विय, न पन अभिमुखं आरोचेति ।
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(२.९.४२१-४२२)
चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्ठपादवत्थुवण्णना
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४२१. समन्ततो निग्गण्हनवसेन तोदनं विज्झनं सत्रितोदकं। मनोगणादीनं विसेसनस्स नपुंसकलिङ्गेन निद्दिद्वत्ता "वाचाय सन्नितोदकेना"ति वुत्तं । तेनाह "वचनपतोदकेना"ति । अथ वा "वाचाया"ति इदं “सन्नितोदकेना"ति एत्थ करणवचनं दट्ठब्बं । “वचनपतोदकेना"ति हि वचनेन पतोदकेनाति अत्थो, “वाचाया''ति वा सम्बन्धे सामिवचनं । वाचाय सन्नितोदनकिरियाय सज्झब्भरितमकंसूति योजेतब् । "सज्झब्भरित"न्ति एतस्स “सं अधि अभि अरिभ''न्ति पदच्छेदो, समन्ततो भुसं अरितन्ति अत्थो, सतमत्तेहि तत्तकेहि विय विविधेहि परिब्बाजकवाचातोदनेहि तदिं सति वुत्तं होति । तथा हि वुत्तं "उपरि विज्झिंसू'ति । सभावतो विज्जमानन्ति परमत्थसभावतो उपलब्भमानं, न पकतिआदि विय अनुपलब्भमानं । तच्छन्ति सच्चं । तथन्ति अविपरीतं । अत्थतो वेवचनमेव तं पदत्तयं । नवलोकुत्तरधम्मेसूति विसये भुम्मं, ते धम्मे विसयं कत्वा । ठितसभावन्ति अवट्ठितसभावं, तदुप्पादकन्ति अत्थो। लोकुत्तरधम्मनियामनियतन्ति लोकुत्तरधम्मसम्पापननियामेन नियतं । इदानि पन "लोकुत्तरधम्मनियामत''न्ति पाठो, सो न पोराणो आचरियेन अनुद्धटत्ता । कस्मा पनेसा पटिपदा धम्मद्वितता धम्मनियामताति आह "बुद्धानही"तिआदि । साति पटिपदा । एदिसाति “धम्मट्टितत' 'न्तिआदिना वुत्तप्पकारा ।
चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्टपादवत्थुवण्णना ४२२. हत्थिं सारेति दमेतीति हथिसारी, हत्थाचरियो। सुखुमेसु अत्यन्तरेसूति खन्धायतनादीसु सुखुमञाणगोचरेसु धम्मेसु । अभिधम्मिको किरेस । कुसलोति पुब्बेपि बुद्धसासने कतपरिचयताय छेको । तादिसे चित्तेति गिहिभावचित्ते । इतरो पन तं सुत्वाव न विब्भमि, पब्बज्जायमेव अभिरमीति अधिप्पायो । गिहिभावे आनिसंसकथाय कथितत्ताति एत्थ सीलवन्तस्स भिक्खुनो तथा कथनेन विब्भमने नियोजितत्ता इदानि सयम्पि सीलवा एव हुत्वा छ वारे विब्भमीति अधिप्पायो गहेतब्बो । कम्मसरिक्खकेन हि कम्मफलेन भवितब्बं । कथेन्तानन्ति अनादरे सामिवचनं । महासावकस्स कथितेति महासावकभूतेन महाकोटिकत्थेरेन अपसादनवसेन कथिते, कथननिमित्तं पतिद्वं लद्धं असक्कोन्तोति अत्थो । "विभमित्वा गिही जातो"ति इदं सत्तमवारमिव वुत्तं । धम्मपदट्ठकथायं (ध० प० अट्ठ० १.३ चित्तहत्थत्थेरवत्थु) पन कुदालपण्डितजातके (जा० अट्ठ० १.१.७ कुद्दालजातकवण्णना) च छक्खत्तुमेव विब्भमनवारो वुत्तो । गिहिसहायकोति गिहिकाले सहायको । अपसक्कन्तोपि नामाति अपि नाम अपसक्कन्तो, गारय्हवचनमेतं । पब्बजितुं वट्टतीति पब्बज्जा वट्टति |
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.९.४२३-४२५)
४२३. पाचक्खुनो नत्थितायाति सुवुत्तदुरुत्तसमविसमदस्सनसमत्थस्स पञाचक्खुनो अभावेन | यादिसेन चक्खुना सो "चक्खुमा'"ति वुत्तो, तं दस्सेतुं "सुभासिता"तिआदि वुत्तं । अयं अट्ठकथातो अपरो नयो- एकंसिकाति एकन्तिका, निब्बानवहभावेन निच्छिताति वुत्तं होति । पञत्ताति ववत्थपिता। न एकंसिकाति न एकन्तिका निब्बानावहभावेन निच्छिता वट्टन्तोगधभावतोति अधिप्पायो । अयमत्थो हि “कस्मा चेते पोट्टपाद मया एकंसिका धम्मा देसिता पञत्ता, एते पोट्टपाद अत्थसंहिता...पे०... निब्बानाय संवत्तन्ती"तिआदिसुत्तपदेहि संसन्दति समेतीति ।
एकंसिकधम्मवण्णना
४२५. "कस्मा आरभी"ति कारणं पुच्छित्वा "अनिय्यानिकभावदस्सनत्थ"न्ति पयोजनं विस्सज्जितं । फले हि सिद्धे हेतुपि सिद्धो होतीति, अयं आचरियमति (दी० नि० टी० १.४२५) अपरे पन “एदिसेसु अत्थसद्दो कारणे वत्तति, हेत्वत्थे च पच्चत्तवचनं, तस्मा अनिय्यानिकभावदस्सनन्ति एत्थ अनिय्यानिकभावदस्सनकारणा''ति अत्थमिच्छन्ति । पञापितनिट्ठायाति पवेदितविमुत्तिमग्गस्स। वट्टदुक्खपरियोसानं गच्छति एतायाति निद्वाति हि विमुत्ति वुत्ता “गोट्ठा पट्ठितगावो"ति (म० नि० १.१५६) महासीहनादसुत्तपदे विय ठा-सद्दस्स गतिअत्थे पवत्तनतो । निट्ठामग्गो च इध उत्तरपदलोपेन "निट्ठा''ति अधिप्पेतो। तस्सेव हि निय्यानिकता, अनिय्यानिकता च वुच्चति, न निट्ठाय । निय्यातीति निय्यानिका य-कारस्स क-कारं कत्वा । अनीयसद्दो हि बहुलं कत्तुत्थाभिधायको, न निय्यानिका अनिय्यानिका, तस्सा भावो तथा । निय्यानं वा निग्गमनं निस्सरणं, वट्टदुक्खस्स वूपसमोति अत्थो, निय्यानमेव निय्यानिकं, न निय्यानिकं अनिय्यानिकं, सो एव भावो सभावो अनिय्यानिकभावो, तस्स दस्सनत्थन्ति योजेतब्बं ।
"सब्बे ही"तिआदि तदत्थविवरणं । अमतं निब्बानं निट्ठमिति पञपेति यथाति सम्बन्धो । लोकथूपिकादिवसेन निहँ पञपेन्तीति “निब्बानं निब्बान''न्ति वचनसामञमत्तं गहेत्वा तथा पञपेन्ति । लोकथूपिका नाम ब्रह्मभूमि वुच्चति लोकस्स थूपिकसदिसतापरिकप्पनेन । केचि पन “नेवसञ्जानासञ्जायतनभूमिं लोकथूपिका"ति वदन्ति, तदयुत्तं अट्ठकथासु तथा अवचनतो। आदिसद्देन चेत्थ “अञो पुरिसो, अञा पकती"ति पकतिपुरिसन्तरावबोधो मोक्खो, बुद्धिआदिगुणविनिमुत्तस्स अत्तनो असकत्तनि अवठ्ठानं मोक्खो, कायविपत्तिकति जातिबन्धानं अपवज्जनवसेन अप्पवत्तो मोक्खो, परेन
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एकंसिकधम्मवण्णना
पुरिसेन पलोकता मोक्खो, तंसमीपता मोक्खो, तंसमायोगो मोक्खोति एवमादीनं सङ्ग्रहो दट्ठब्बो । तस्मिं तस्मिहि समये निट्टं अपञ्ञपेन्तो नाम नत्थि । ब्राह्मणानं पठमज्झानब्रह्मलोको निट्टा । तत्थ हि नेसं निच्चाभिनिवेसो यथा तं बकस्स ब्रह्युनो, (म० नि० १.५०१) वेखनसादितापसानं आभस्सरा, सञ्चयादिपरिब्बाजकानं सुभकिण्हा, आजीवकानं ‘“अनन्तमानसो "ति परिकप्पितो असञ्जीभवो । इमस्मिं पन सासने अरहत्तं निट्ठा, सब्बेपि चेते दिट्ठिवसेन ब्रह्मलोकादीनि अरहत्तमञ्जनाय " निब्बानं निब्बान "न्ति वचनसामञ्ञमत्तं गहेत्वा तथा पञ्ञपेन्ति, न पन परमत्थतो नेसंसमये निब्बानपञ्ञापनस्स लब्भनतोति आह “सा च न निय्यानिका " तिआदि । यथापञ्ञत्ताति येन येन पकारेन पञ्ञत्ता, पञ्ञत्तप्पकारा हुत्वाति अत्थो । न निय्यातीति " येनाकारेन निट्ठा पापणीयती 'ति तेहि पवेदिता, तेनाकारेन तस्सा अपत्तब्बताय न निय्याति । पण्डितेहि पटिक्खित्ताति " नायं निट्ठा पटिपदा वट्टस्स अनतिक्कमनतो "ति बुद्धादीहि पण्डितेहि पटिक्खित्ता । निवत्ततीति पटिक्खेपकारणवचनं, यस्मा तेहि पञ्ञत्ता निट्ठा पटिपदा न निय्याति न गच्छति, अञ्ञदत्थु तंसमङ्गिनं पुग्गलं संसारे एव परिब्भमापेन्ती निवत्तति, तस्मा पण्डितेहि परिक्खित्ताति अत्थो । तन्ति अनिय्यानिकभावं ।
(२.९.४२५ - ४२५)
जानं, परसन्ति च पुथुवचनविपरियायोत आह " जानन्ता पस्सन्ताति । गच्छन्तादिसद्दानहि " या पन भिक्खुनी जानं सभिक्खुकं आरामं अनापुच्छा पविसेय्या''तिआदीसु (पाचि० १०२४) लिङ्गवसेन विपरियायो, जानन्तीति अत्थो । “याचं अददमप्पियो'' तिआदीसु ( पारा० ३४६, जा० १.७.५५ ) विभत्तिवसेन, याचन्तस्साति अत्थो । इध पन पुथुवचनवसेनाति वेदितब्बं । पधानं जाननं नाम पच्चक्खतो जाननं तस्स जेट्टभावतो, दस्सनमप्पधानं तस्स संसयानुबन्धत्ताति अयं कमो वुत्तो “जानं परस "न्ति । तेनेत्थ जाननेन दस्सनं विसेसेति । एवञ्हि दिदूपुब्बानि खो तस्मिं लोके मनुस्सानं सरीरसण्ठानादीनीति एकतो अधिप्पायदस्सनं सूपपन्नं होति । अयञ्हेत्थाधिप्पायो " किं तुम्हाकं एकन्तसुखे लोके पच्चक्खतो आणदस्सनं अत्थी'ति । जानन्ति वा तस्स लोकस्स अनुमानविसयतं वुच्चति, पस्सन्ति पच्चक्खतो विसयतं । इदं वृत्तं होति " अपि तुम्हाकं लोको पच्चक्खतो जातो, उदाहु अनुमानतो 'ति ।
यस्मा पन लोके पच्चक्खभूतो अत्थो इन्द्रियगोचरभावेन पाकटो, तस्मा पाकटेन अत्थेन अधिप्पायं दस्सेतुं “दिपुब्बानी " ति आदि वृत्तं । दिट्ठपदेन वा दस्सनं, तदनुगतञ्च जाननं गत्वा तदुभयेनेव अत्थेन अधिप्पायं विभावेतुं एवं वुत्तन्तिपि दट्ठब्बं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.९.४२६-४२९)
हि दस्सनेन, तदनुगतेन च आणेन गहितपुब्बानीति अत्थो। एवञ्च कत्वा "सरीरसण्ठानादीनीति समरियादवचनं समस्थितं होति । "अप्पाटिहीरकत"न्ति अयं अनुनासिकलोपनिद्देसोति आह "अप्पाटिहीरकं त"न्ति । तं वचनं अप्पाटिहीरकं सम्पज्जतीति सम्बन्धो । अप्पाटिहीरपदे अनुनासिकलोपो, “कतन्ति च एकं पदन्ति केचि, तदयुत्तं समाससम्भवतो, अनुनासिकलोपस्स च अवत्तब्बत्ता । एवमेत्थ वण्णयन्तिपटिपक्खहरणतो पटिहारियं, तदेव पाटिहारियं। अत्तना उत्तरविरहितवचनं । पाटिहारियमेवेत्थ “पाटिहीरक"न्ति वुत्तं परेहि वुच्चमानउत्तरेहि सउत्तरत्ता, न पाटिहीरकन्ति अप्पाटिहीरकं। विरहत्थो चेत्थ अ-सहो। तेनाह "पटिहरणविरहित"न्ति । सउत्तरहि वचनं तेन उत्तरवचनेन पटिहरीयति विपरिवत्तीयति, तस्मा उत्तरवचनं पटिहरणं नाम, ततो विरहितन्ति अत्थो। तस्मा एव निय्यानस्स पटिहरणमग्गस्स अभावतो “अनिय्यानिक''न्ति वत्तब्बतं लभति । तेन वुत्तं “अनिय्यानिक"न्ति ।
४२६. विलासो इथिलीळा, यो “सिङ्गारभावजा किरिया"तिपि उच्चति । आकप्पो केसबन्धवत्थग्गहणादिआकारविसेसो, वेससंविधानं वा । आदिसहेन हावादीनं सङ्गहो । हावाति हि चातुरियं वुच्चति ।
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
४२८. आहितो अहंमानो एत्थाति अत्ता, अत्तभावोति आह "अत्तभावपटिलाभो"ति। कथं दस्सेतीति वुत्तं “ओळारिकत्तभावपटिलाभेना"तिआदि । कामभवं दस्सेति इतरभवद्वयत्तभावतो ओळारिकत्ता । रूपभवं दस्सेति झानमनेन निब्बत्तं हुत्वा रूपीभावेन उपलब्भनतो । अरूपभवं दस्सेति अरूपीभावेन उपलब्भनतो । संकिलेसिका धम्मा नाम द्वादस अकुसलचित्तुष्पादा तदभावे कस्सचि संकिलेसस्स असम्भवतो। वोदानिया धम्मा नाम समथविपस्सना तासं वसेन सब्बसो चित्तवोदानस्स सिज्झनतो।
४२९. पटिपक्खधम्मानं असमुच्छेदे सति न कदाचिपि अनवज्जधम्मानं वा पारिपूरी, वेपुल्लं वा सम्भवति, समुच्छेदे पन सति सम्भवतीति मग्गफलपञानमेव गहणं दट्ठब्बं, ता हि सकिं परिपुण्णापि अपरिहीनधम्मत्ता परिपुण्णा एव भवन्ति । तरुणपीतीति उप्पन्नमत्ता अलद्धासेवना दुब्बलपीति । बलवतुट्ठीति पुनप्पुनं . उप्पत्तिया लद्धासेवना उपरिविसेसाधिगमस्स पच्चयभूता थिरतरा पीति । इदानि सोपतो पिण्डत्थं दस्सेन्तो “किं
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(२.९.४२९-४२९)
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
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वुत्त"न्तिआदिमाह । तत्थ यं विहारं सयं...पे०... विहरिस्सतीति अवोचुम्हाति सम्बन्धो । इदं वुत्तं होति- यं विहारं “संकिलेसिकवोदानियधम्मानं पहानाभिवुद्धिनिटुं पञ्जाय पारिपूरिवेपुल्लभूतं इमस्मिंयेव अत्तभावे अपरप्पच्चयेन जाणेन पच्चक्खतो सम्पादेत्वा विहरिस्सती"ति कथयिम्हाति । तत्थाति तस्मिं विहारे । तस्साति ओवादकरस्स भिक्खुनो । एवं विहरतोति वुत्तप्पकारेन विहरणहेतु, विहरन्तस्स वा । तन्निमित्तं पामोज्जं, पमोदप्पभवा पीति, तप्पच्चयभूतं पस्सद्धिद्वयं, तथा सूपट्ठिता सति, उक्कंसगतताय उत्तमञाणं। सुखो च विहारो भविस्सतीति योजना । कायचित्तपस्सद्धी हि “पस्सद्धी"ति वुत्ता, अयमेव वा पाठो । “नामकायपस्सद्धी''तिपि पठन्ति, तदयुत्तमेव पस्सद्धिद्वयस्स अविनाभावतो । कस्मा पनेस सुखो विहारोति आह "सब्बविहारसू"तिआदि, सब्बेसुपि इरियापथविहारादीसु सन्तपणीतताय इमस्सेव सुखत्ता “सुखो विहारो''ति वत्तब्बतं अरहतीति वुत्तं होति । कथं सुखोति वुत्तं "उपसन्तो परममधुरो'ति ।
पठमज्झाने पटिलद्धमत्ते हीनभावतो पीति दुब्बला पामोज्जपक्खिका, सुभाविते पन तस्मिं पगुणे सा पणीता बलवभावतो परिपुण्णकिच्चा पीतीति वुत्तं “पठमझाने पामोज्जादयो छपि धम्मा लब्भन्ती"ति । पामोज्जं निवत्ततीति दुब्बलपीतिसङ्घातं पामोज्जं छसु धम्मेसु निवत्तति हायति । वितक्कविचारक्खोभविरहितेन हि चतुक्कनयविभत्ते दुतियज्झाने सब्बदा पीति बलवती एव होति, न पठमज्झाने विय कदाचि दुब्बलाति एवं वुत्तं । पीति निवत्तति तप्पहानेनेव ततियज्झानस्स लब्भनतो । “सुखो विहारो''ति इमिना समाधि गहितोति आह "तथा चतुत्थे"ति । ये पन “सुखो विहारो'ति एतेन सुखं गहित''न्ति वदन्ति, तेसं मतेन सन्तवुत्तिताय उपेक्खापि चतुत्थज्झाने “सुख मिच्चेव भासिताति (विभं० अट्ठ० २३२; विसुद्धि० २.६४४; महानि० अट्ठ० २७; पटि० म० अट्ठ० १०५) कत्वा तथा वुत्तन्ति दट्ठब्बं । इमस्मिंयेव दीघनिकाये (दी० नि० १.४३२; ३.१६६, ३५८) आगतं अनेकधा देसनानयमुद्धरित्वा इध देसितनयं नियमेतुं "इमेसू"तिआदि वुत्तं । सुद्ध...पे०... कथितन्ति उपरिमग्गं अकथेत्वा केवलं विपस्सनापादकमेव झानं कथितं । चतूहि...पे०... कथिताति विपस्सनापादकभावेन झानानि कथेत्वा ततो परं विपस्सनापुब्बका चत्तारोपि मग्गा कथिता । चतुत्थज्झानिकफलसमापत्ति कथिताति पठमज्झानिकादिका फलसमापत्तियो अकथेत्वा चतुत्थज्झानिका एव फलसमापत्ति कथिता । पीतिवेवचनमेव कत्वाति द्विनं पीतीनं एकस्मिं चित्तुष्पादे अनुप्पज्जनतो पामोज्जं पीतिवेवचनमेव कत्वा, तदुभयं अभेदतो कत्वाति वुत्तं होति । पीतिसुखानं अपरिच्चत्तत्ता, "सुखो विहारो"ति च सातिसयस्स सुखविहारस्स गहितत्ता "दुतियज्झानिकफलसमापत्ति
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(२.९.४३२-४३७-४३८)
नाम कथिताति वृत्तं । कामं पठमज्झानेपि पीतिसुखानि लब्भन्ति, तानि पन वितक्कविचारपरिक्खोभेन न तत्थ सन्तपणीतानि, इध च सन्तपणीतानेव अधिप्पेतानि, तस्मा दुतियज्झानिका एव फलसमापत्ति गहिता, न पठमज्झानिकाति दट्ठब्बं ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
४३२-४३७. विभावनत्थोति पकासनत्थो सरूपतो निरूपनत्थो " न समणो गोतमो ब्राह्मणे जिणे ...पे०... अभिवादेति वा पच्चुट्टेति वा आसनेन वा निमन्तेती 'तिआदीसु (अ० नि० ३.८.११; पारा० २) विय। तेनाह “अयं सो" तिआदि । "अयं अत्तपटिलाभो सो एवा "ति एवं सरूपतो विभावेत्वा पकासेत्वा । अयन्ति हि भगवता पुब्बे वृत्तं अत्तपटिलाभं आसन्नपच्चक्खभावेन पच्चामसति, सोति पन परेहि पुच्छियमानं परम्मुखभावेन । न नं एवं वदामाति एत्थ नन्ति ओळारिकमत्तपटिलाभं । सप्पाटिहीरकतन्ति एत्थ पुब्बे वृत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो । परेहि चोदितवचनपटिहारकं सउत्तरवचनं सप्पाटिहीरकन्ति हि अयमेव विसेसो । तुच्छोति मुसा अभूतो । सोति मनोमयो, अरूपो वा अत्तपटिलाभो । स्वेवाति सो एव ओळारिको अत्तपटिलाभो । तस्मिं समये सच्चो होतीति तस्मिं पच्चुप्पन्नसमये विज्जमानो होति । अत्तपटिलाभोत्वेव निय्यातेसीति अत्तपटिलाभसद्देन तथा एव परियोसापेसि, न पन नं “ अत्तपटिलाभो”ति सङ्ख्यं गच्छतीति पञ्ञत्तिं सरूपतो नीहरित्वा दस्सेसीति अधिप्पायो । रूपादयो चेत्थ धम्माति रूपवेदनादयो एव एत्थ लोके सभावधम्मा । नाममत्तमेतन्ति रूपादिके पञ्चक्खन्धे उपादाय नामपञ्ञत्तिमत्तमेतं " अत्तपटिलाभो 'ति । एवरूपा वोहराति “ओळारिको अत्तपटिलाभो”तिआदिवोहारा । नामपञ्ञत्तिवसेनाति नामभूतपञ्ञत्तिमत्तवसेन । " अत्तपटिलाभो 'ति सङ्ख्यं गच्छती "ति निय्यातनत्थं ।
४३८. एवञ्च पन वत्वाति रूपादिके उपादाय पञ्ञत्तिमत्तमेतं अत्तपटिलाभोति इममत्थं ‘“यस्मिं चित्त समये 'तिआदिना वत्वा । पटिपुच्छित्वाति यथा परे पुच्छेय्युं, तथा कालविभागतो पटिपदानि पुच्छित्वा । विनयनत्थन्ति यथापुच्छितस्स अत्थस्स ञापनवसेन विनयनत्थाय | ये ते अतीता धम्माति अतीतसमये अतीतत्तपटिलाभस्स उपादानभूता रूपादयो धम्मा । ते एतरहि नत्थि निरुद्धत्ता । ततो एव " अहेसु "न्ति सङ्ख्यं गता | तस्मात उपादानस्स अतीतस्मियेव समये लब्भनतो । सोपीति तदुपादानो मे अत्तपटिलाभोपि । तस्मिंयेव समयेति अतीते एव समये । सच्चो अहोसीति भूतो विज्जमानो विय अहोसि | अनागतपच्चुप्पन्नानन्ति अनागतानञ्चेवपच्चुप्पन्नानञ्च रूपादिधम्मा उपादानभूतानं । तदा अभावाति तस्मिं अतीतसमये अभावा
अविज्जमानत्ता ।
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(२.९.४३९-४४३-४३९-४४३)
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
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तदुपादानभूतो अनागतो, पच्चुप्पन्नो च अत्तपटिलाभो तस्मिं अतीत समये मोघो तुच्छो मुसा नत्थीति अत्थो । अत्थतोति पञत्तिअस्थतो । नाममत्तमेवाति समझामत्तमेव । परमत्थतो अनुपलब्भमानत्ता अत्तपटिलाभं पटिजानाति।
"एसेव नयो"ति इमिना ये ते अनागता धम्मा, ते एतरहि नत्थि, “भविस्सन्ती"ति पन सङ्ख्यं गता, तस्मा सोपि मे अत्तपटिलाभो तस्मिंयेव समये सच्चो भविस्सति । अतीतपच्चुप्पन्नानं पन धम्मानं तदा अभावा तस्मिं समये “मोघो अतीतो, मोघो पच्चुप्पन्नोति एवं अत्थतो नाममत्तमेव अत्तपटिलाभं पटिजानाति । ये इमे पच्चुप्पन्ना धम्मा, ते एतरहि “अत्थी''ति सङ्ख्यं गता, तस्मा स्वायं मे अत्तपटिलाभो, सो इदानि सच्चो होति । अतीतानागतानं पन धम्मानं अधुना अभावा एतरहि “मोघो अतीतो, मोघो अनागतो''ति एवं अत्थतो नाममत्तमेव अत्तपटिलाभं पटिजानातीति इममत्थं अतिदिसति ।
४३९-४४३. संसन्दितुन्ति समानेतुं । गवाति गावितो। तत्थाति खीरादीसु पञ्चगोरसेसु । यस्मिं समये खीरं होतीति यस्मिं काले भूतुपादायसञितं उपादानविसेसं उपादाय खीरपञत्ति होति। न तस्मिं...पे०... गच्छति खीरपञत्तिउपादानस्स भूतुपादायरूपस्स दधिआदिपञत्तिया अनुपादानतो। पटिनियतवत्थुका हि एता लोकसमझा। तेनाह “ये धम्मे उपादाया"तिआदि । सङ्घायति कथीयति एतायाति सङ्घा । अत्तं नीहरित्वा उच्चन्ति वदन्ति एतायाति निरुत्ति। तं तदत्थं नमन्ति सत्ता एतेनाति नामं, तथा वोहरन्ति एतेनाति वोहारो, पञत्तियेव । “यस्मिं समये"तिआदिना खीरे वुत्तनयं दधिआदीसुपि “एस नयो सब्बत्था"ति अतिदिसति ।
समनुजाननमत्तकानीति “इदं खीरं, इदं दधी''तिआदिना तादिसेसु भूतुपादायरूपविसेसेसु लोके परम्परागतं पञत्तिं अप्पटिक्खिपित्वा समनुजाननं विय पच्चयविसेसविसिटुं रूपादिखन्धसमूहं उपादाय “ओळारिको अत्तपटिलाभो''ति च "मनोमयो अत्तपटिलाभो''ति च "अरूपो अत्तपटिलाभो''ति च तथा तथा समनुजाननमत्तकानि, न च तब्बिनिमुत्तो उपादानतो अञ्जो कोचि परमत्थतो अत्थीति वुत्तं होति । निरुत्तिमत्तकानीति सद्दनिरुत्तिया गहणूपायमत्तकानि । “सत्तो फस्सो''तिआदिना हि सहग्गहणत्तरकालं तदनविद्धपण्णत्तिग्गहणमखेनेव तदत्थावबोधो । तथा चाह -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२(२.९.४३९-४४३-४३९-४४३)
“पठमं सदं सोतेन, तीतं दुतियचेतसा । नामं ततियचित्तेन, अत्थं चतुत्थचेतसा'ति ।। (मणिसारमञ्जुसाटीकार्य पच्चयसङ्गहविभागेपि)
वचनपथमत्तकानीति तस्सेव वेवचनं । निरुत्तियेव हि अ सम्पि दिहानुगतिमापज्जन्तानं कारणद्वेन वचनपथो। वोहारमत्तकानीति तथा तथा वोहारमत्तकानि । नामपण्णत्तिमत्तकानीति तस्सेव परियायो, तंतंनामपआपनमत्तकानीति अत्थो। सब्बमेतन्ति "अत्तपटिलाभो"ति वा “सत्तो"ति वा “पोसो''ति वा सब्बमेतं वोहारमत्तकं। कस्माति चे, परमत्थतो अनुपलब्भनतोति दस्सेतं “यस्मा"तिआदि वृत्तं । सुझोति परमत्थतो विवित्तो।
यज्जेवं कस्मा चेसा बुद्धेहिपि वुच्चतीति चोदनं सोधेन्तो "बुद्धानं पना"तिआदिमाह । सम्मुतिया वोहारस्स कथनं सम्मुतिकथा। परमत्थस्स सभावधम्मस्स कथनं परमत्थकथा। परमत्थसन्निस्सितकथाभावतो अनिच्चादिकथापि “परमत्थकथा"ति वुत्ता। परमत्थधम्मोयेव हि “अनिच्चो, दुक्खो"ति च वुच्चति, न सम्मुतिधम्मो ।
“अनिच्चा सब्बे सङ्घारा, दुक्खानत्ता च सङ्घता।। निब्बानञ्चेव पञत्ति, अनत्ता इति निच्छया" ति ।। (परि० २५७) -
वचनतो पनेस “अनत्ता"ति वुच्चति, खन्धादिपञत्ति पन तज्जापञत्ति विय परमत्थसन्निस्सया, आसन्नतरा च, पुग्गलपञत्तिआदयो विय न दूरे, तस्माखन्धादिकथापि "परमत्थकथा"ति वुत्ता, खन्धादिसीसेन वा तदुपादानसभावधम्मा एव गहिताति दट्ठब्बं । ननु च सभावधम्मापि सम्मुतिमुखेनेव देसनमारोहन्ति, न परमत्थमुखेन, तस्मा सब्बापि देसना सम्मुतिकथाव सियाति ? नयिदमेवं कथेतब्बधम्मविभागेन कथाविभागस्स अधिप्पेतत्ता, न च सद्दो केनचि पवत्तिनिमित्तेन विना अत्थं पकासेतीति ।
___ कस्मा चेवं दुबिधा बुद्धानं कथा पवत्ततीति अनुयोगं कारणविभावनेन परिहरितुं "तत्थ यो"तिआदि वुत्तं । अत्थं विजानितुं चतुसच्चं पटिविज्झितुं वट्टतो निय्यातुं अरहत्तसङ्खातं जयग्गाहं गहेतुं सक्कोति। यस्मा परमत्थकथाय एव सच्चसम्पटिवेधो, अरियसच्चकथा च सिखाप्पत्ता देसना, तस्मा विनेय्यपुग्गलवसेन आदितो सम्मुतिकथं
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(२.९.४३९-४४३-४३९-४४३)
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
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कथेन्तोपि भगवा परतो परमत्थकथंयेव कथेतीति आह “तस्सा"तिआदि । “आदितोव सम्मुतिकथं कथेती"ति हि वदन्तो परतो परमत्थकथम्पि कथेतीति दीपेति, इतरत्थ पन "आदितोव कथेती"ति अवदन्तो सब्बत्थपीति। "तथा"तिआदिना कथाद्वयकथने परियायन्तरं विभावेति । बोधेत्वाति वेनेय्यज्झासयानुरूपं तथा तथा देसेतब्बमत्थं जानापेत्वा, इमिना पन इममत्थं दस्सेति- कत्थचि सम्मुतिकथापुब्बिका परमत्थकथा होति पुग्गलज्झासयवसेन, कत्थचि परमत्थकथापुब्बिका सम्मुतिकथा, इति विनेय्यदम्मकुसलस्स सत्थु वेनेय्यज्झासयवसेन तथा तथा देसना पवत्ततीति । सब्बत्थ पन भगवा धम्मतं अविजहन्तो एव सम्मुतिमनुवत्तति, सम्मुति अपरिच्चजन्तोयेव धम्मतं विभावेति, नं तत्थ अभिनिवेसातिधावनानि । वुत्तज्हेतं भगवता "जनपदनिरुत्तिं नाभिनिविसेय्य, समवं नातिधावेय्या''ति (दी० नि० टी० १.४३९-४४३) ।
पठमं सम्मुतिकथाकथनं पन वेनेय्यवसेन येभुय्येन बुद्धानमाचिण्णन्ति तं कारणेन सद्धिं दस्सेन्तो “पकतिया पनातिआदिमाह । लूखाकाराति वेनेय्यानमनभिसम्बुज्झनवसेन लूखसदिसा । ननु च सम्मुति नाम परमत्थतो अविज्जमानत्ता अभूता, तं कथं बुद्धा कथेन्तीति वुत्तं "सम्मुतिकथं कथेन्तापी"तिआदि । सच्चमेवाति तथमेव । सभावमेवाति सम्मुतिभावेन तंसभावमेव । तेनाह "अमुसावा"ति । परमत्थस्स पन सच्चादिभावे वत्तब्बमेव नत्थि ।
को पनिमेसं सम्मुतिपरमत्थधम्मानं विसेसोति ? यस्मिं भिन्ने, बुद्धिया वा अवयवविनिब्भोगे कते न तंसा , सो घटपटादिप्पभेदो सम्मुति, तब्बिपरियायतो परमत्थो । न हि कक्खळफुसनादिसभावे अयं नयो लब्भति । एवं सन्तेपि वुत्तनयेन सम्मुति च सच्चसभावा एवाति आह "दुवे सच्चानि अक्खासी"तिआदि । तत्थ दुवे सच्चानि अक्खासीति नानादेसभासाकुसलो तिण्णं वेदानमत्थसंवण्णनको आचरियो विय नानाविधसम्मुतिपरमत्थकुसलो भगवा वेनेय्यज्झासयानुरूपं दुवेयेव सच्चानि अक्खासीति अत्थो । तं सरूपतो, परिमाणतो च दस्सेति "सम्मुतिं परमत्थञ्च, ततियं नूपलब्भती"ति इमिना । वदतं वरोति सब्बेसं वदन्तानं वरो | लोकसङ्केतमत्तसिद्धा सम्मुति। परमो उत्तमो अविपरीतो यथाभूतसभावो परमत्थो।
इदानि नेसं सच्चसभावं सह कारणेन दस्सेतुं “सङ्केतवचन"न्ति गाथा वुत्ता । यस्मा लोकसम्मुतिकारणं, तस्मा सङ्केतवचनं सच्चं, यस्मा च धम्मानं भूतलक्खणं, तस्मा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२ (२.९.४३९-४४३ - ४३९-४४३)
परमत्थवचनं सच्चन्ति योजना | लोकसम्मुतिकारणन्ति हि सङ्केतवचनस्स सच्चभावे कारणदस्सनं, लोकसिद्धा सम्मुति सङ्केतवचनस्स अविसंवादनताय कारणन्ति अत्थो, विसंवादनाभावतो सङ्केतवचनं सच्चन्ति वृत्तं होति । धम्मानं भूतलक्खणन्ति च परमत्थवचनस्स सच्चभावे कारणदस्सनं । सभावधम्मानं यो भूतो अविपरीतो सभावो, तस्स लक्खणं अङ्गनं आपनन्ति अत्थो, याथावतो अविसंवादनवसेन पवत्तनतो परमत्थवचनं सच्चन्ति अधिप्पायो । अनङ्गणसुत्तटीकायं पन आचरियेनेव निस्सक्कवचनेन पदमुल्लिङ्गेत्वा "लोकसम्मुतिकारणाति लोकसम निस्साय पवत्तनतो । धम्मानन्ति सभावधम्मानं । भूतकारणाति यथाभूतसभावं निस्साय पवत्तनतो 'ति वृत्तं ।
""
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अञ्ञत्थ पन -
" तस्मा वोहरकुसलस्स, लोकनाथस्स सत्थुनो ।
सम्मुतिं वोहरन्तस्स, मुसावादो न जायती 'ति । । (म० नि० अट्ठ० १.५७; अ० नि० अट्ठ० १.१७०; इतिवु० अट्ठ० २४) -
अयम्पि गुणपरिदीपनी गाथा दिस्सति । तत्थ तस्माति सच्चस्स दुविधत्ता, सङ्केतवचनस्स वा सच्चभावतो । सम्मुतिं वोहरन्तस्साति “ पुग्गलो सत्तो" तिआदिना लोकसम कथेन्तस्स मुसावादो नाम न जायतीति अत्थो । अपिच " अट्ठहि कारणेहि भगवा पुग्गल कथं कथेति हिरोत्तप्पदीपनत्थं, कम्मस्सकतादीपनत्थं, पच्चत्तपुरिसकारदीपनत्थं, आनन्तरियदीपनत्थं, ब्रह्मविहारदीपनत्थं, पुब्बेनिवासदीपनत्थं, दक्खिणाविसुद्धिदीपनत्थं, लोकसम्मुतिया अप्पहानत्थञ्चा' 'तिआदिना (म० नि० अट्ठ० १.५७; अ० नि० अट्ठ० १.१७०; इतिवु० अट्ठ० २४; कथाव० अनुटी ० १ ) तत्थ तत्थ वुत्तकारणम्पि आहरित्वा इध वत्तब्बं ।
यदि तथागतो परमत्थसच्चं सम्मदेव अभिसम्बुज्झित्वा ठितोपि लोकसमञ्ञभूतं सम्मुतिसच्चं गहेत्वाव वदति एवञ्चेत्थ को लोकियमहाजनेहि विसेसोति वृत्तं “याही” तिआदि, अयं पाळियं सम्बन्धो । इदं वृत्तं होति - लोकियमहाजनो अप्पहीनपरामासत्ता " एतं ममा" तिआदिना परामसन्तो वोहरति । तथागतो पन सब्बसो पहीनपरामासत्ता अपरामसन्तोव यस्मा लोकसमाहि विना लोकियो अत्थो लोकेन दुब्बिय्यो, तस्मा ताहि तं वोहरति । तथा वोहरन्तो च अत्तनो देसनाविलासेन
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(२.९.४३९-४४३-४३९-४४३)
तयोअत्तपटिलाभवण्णना
वृत्ताय
वेनेय्यसत्ते परमत्थसच्चे पतिट्ठापेतीति । देसनं विनिवट्टेत्वाति दिट्ठाभिनिवेसपटिसञ्जुत्ताय वट्टकथाय विनिवत्तेत्वा विवेचेत्वा । अरहत्तनिकूटेन निट्ठापेसीति “अपरामस’”न्ति इमिना पदेन तण्हामानपरामासप्पहानकित्तनेन तप्पहायकअरहत्तसङ्घातनिकूटेन देसनं परियोसापेसि । यं पनेत्थ अत्थतो न विभत्तं तं सुविज्ञेय्यमेव ।
1
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्ञावेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया नाम पोट्ठपादसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
पोट्टपादसुत्तवण्णना निट्ठिता ।
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लीनत्थपकासनिया
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१०. सुभत्तवण्णना
सुभमाणवकवत्थुवण्णना ४४४. एवं पोट्ठपादसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि सुभसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, पोट्टपादसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स सुभसुत्तभावं वा पकासेतुं "एवं मे सुतं...पे०... सावत्थियन्ति सुभसुत्त"न्ति आह । अनुनासिकलोपेन “अचिर परिनिब्बते''ति वुत्तन्ति दस्सेति “अचिरं परिनिब्बुते"ति इमिना यथा पोट्ठपादसुत्ते “अप्पाटिहीरक तं भासितं सम्पज्जती"ति, अचिरं परिनिब्बुतस्स अस्साति वा अचिरपरिनिब्बुतो यथा “अचिरपक्कन्तो, मासजातो"ति । अत्थमत्तं पन दस्सेतुं एवं वुत्तं । अचिरपरिनिब्बुतेति च सत्थु परिनिब्बुतभावस्स चिरकालतापटिक्खेपेन आसन्नतामत्तं दस्सितं, कालपरिच्छेदो पन न दस्सितोति तं दस्सेन्तो "परिनिब्बानतो"तिआदिमाह । विसाखपुण्णमितो उद्धं याव जेट्टपुण्णमी, ताव कालं सन्धाय "मासमत्ते"ति वुत्तं । मत्तसद्देन पन तस्स कालस्स किञ्चि असम्पुण्णतं जोतेति । तुदिसञितो गामो निवासो एतस्साति तोदेय्यो। तं पनेस यस्मा सोणदण्डो (दी० नि० १.३००) विय चम्पं, कूटदन्तो (दी० नि० १.३२३) विय च खाणुमतं अज्झावसति, तस्मा वुत्तं "तस्स अधिपतित्ता"ति, इस्सरभावतोति अत्थो। अयम्पि हि रञो पसेनदिकोसलस्स पुरोहितब्राह्मणो । पुत्तम्पि आहाति सुभं माणवम्पि ओवदन्तो आह ।
अञ्जनानन्ति अक्खिअञ्जनत्थाय घंसितअञ्जनानं । वम्मिकानन्ति किमिसमाहटवम्मिकानं सञ्चयं दिस्वाति सम्बन्धो। मधूनन्ति मक्खिकमधूनं । समाहारन्ति मकरन्दसन्निचयं । पण्डितो घरमावसेति यस्मा अप्पतरप्पतरेपि गव्हमाने भोगा खीयन्ति, अप्पतरप्पतरेपि च सञ्चियमाने वड्डन्ति, तस्मा यथावुत्तमुपमत्तयं पञ्जाय दिस्वा
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(२.१०.४४४-४४४)
सुभमाणवकवत्थुवण्णना
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वि जातिको किञ्चिपि वयमकत्वा आयमेव उप्पादेन्तो घरेवसे घरावासमनुतिद्वैय्याति लोभादेसितपटिपत्तिं उपदिसति ।
अदानमेव सिक्खापेत्वा सिक्खापनहेतु लोभाभिभूतताय तस्मिंयेव घरे सुनखो हुत्वा निब्बत्ति । लोभवसिकस्स हि दुग्गति पाटिकङ्खा, "जनवसभो नाम यक्खो हुत्वा निब्बत्ती"ति (दी० नि० अट्ठ० १.१५०) एत्थ वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो । पुब्बपरिचयेन अतिविय पियायति। वुत्तहि “पुब्बेव सन्निवासेना"तिआदि। (जा० १.२.१७४) निक्खन्तेति केनचिदेव करणीयेन बहि निग्गते । सुभं माणवं अनुग्गण्हितुकामो एककोव भगवा पिण्डाय पाविसि। भुक्कारन्ति “भु भू"ति सुनखसद्दकरणं । “भो भो"ति ब्राह्मणसमुदाचारेन परिभवित्वा परिभवनहेतु | “भोवादि नाम सो होति, सचे होति सकिञ्चनो''ति (ध० प० ३९६; सु० नि० ६२५) हि वुत्तं । ननु च हेट्ठा “अदानमेव सिक्खापेत्वा सुनखो हुत्वा निब्बत्तो"ति आह, कस्मा पनेत्थ “पुब्बेपि मं 'भो भो'ति परिभवित्वा सुनखो जातो"ति वदतीति ? तथा निब्बत्तिया तदुभयसाधारणफलत्ता । आनिसंसफलन्हि साधारणकम्मेनपि जातं, न विपाकफलं विय एककम्मेनेवाति दट्ठब्बं । अवीचिं गमिस्ससि कतोकासस्स कम्मस्स पटिबाहितुमसक्कुणेय्यभावतो। “जानाति मं समणो गोतमो''ति विप्पटिसारी हुत्वा। उद्घनन्तरेति चुल्लिकन्तरे | नन्ति सुनखं ।
तं पवत्तिन्ति भगवता यथावुत्तकारणं | ब्राह्मणचारित्तस्स अपरिहापिततं सन्धाय, तथा पितरं उक्कंसेन्तो "ब्रह्मलोके निब्बत्तो"ति आह । मुखारुल्हन्ति सयंपटिभानवसेन मुखमारुळ्हं । तं पवत्तिं पुच्छीति “सुतमेतं भो गोतम मय्हं पिता सुनखो हुत्वा निब्बत्तो"ति तुम्हेहि वुत्तं, “किमिदं सच्चं वा असच्चं वा''ति पुच्छि। तथैव वत्वाति यथा पुब्बे सुनखस्स वुत्तं, तथैव वत्वा । अविसंवादनत्थन्ति सच्चापनत्थं, “तोदेय्यब्राह्मणो सुनखो हुत्वा निब्बत्तो"ति वचनस्स अविसंवादनेन अत्तनो अविसंवादिभावदस्सनत्थन्ति वुत्तं होति । अप्पोदकन्ति अप्पकेन उदकेन सम्पादितं । मधुपायासन्ति सादुरसं, मधुयोजितं वा पायासं । तथा अकासि, यथा भगवता वुत्तं । “सब्बं दस्सेसीति बुद्धानुभावेन सो सुनखो तं सब्बं नेत्वा दस्सेसि, न जातिस्सरताय । भगवन्तं दिस्वा भुक्करणं पन पुरिमजातिसिद्धवासनावसेना''ति (दी० नि० टी० १.४४४) एवं आचरियेन वुत्तं । उपरिपण्णासके पन चूळकम्मविभङ्गरुत्तट्ठकथायं “सुनखो ‘ञातोम्हि इमिना'ति रोदित्वा हुं हुन्ति करोन्तो धननिधानट्ठानं गन्त्वा पादेन पथविं खणित्वा सञ्ज अदासी"ति (म० नि० अट्ठ० ३.२८९) जातिस्सराकारमाह, वोमंसित्वा गहेतब्बं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.१०.४४५-४४५)
"भवपटिच्छन्नं नाम एवरूपं सुनखपटिसन्धिअन्तरं पाकटं समणस्स गोतमस्स, अद्धा एस सब्बञ्जू"ति भगवति पसत्रचित्तो। अङ्गविज्जापाठको किरेस । तेनस्स एतदहोसि “इमं धम्मपण्णाकारं कत्वा समणं गोतमं पहं पुच्छिस्सामी''ति, ततो सो चुद्दस पञ्हे अभिसङ्घरित्वा भगवन्तं पुच्छि। तेन वुत्तं “चुद्दस पन्हे पुच्छित्वा"ति । तत्थ चुद्दस पहेति "दिस्सन्ति हि भो गोतम मनुस्सा अप्पायुका, दिस्सन्ति दीघायुका । दिस्सन्ति बव्हाबाधा, अप्पाबाधा । दुब्बण्णा, वण्णवन्तो। अप्पेसक्खा, महेसक्खा | अप्पभोगा, महाभोगा । नीचकुलीना, उच्चाकुलीना । दिस्सन्ति दुप्पञ्जा, दिस्सन्ति पञ्चवन्तो । को नु खो भो गोतम हेतु को पच्चयो, येन मनुस्सानंयेव सतं मनुस्सभूतानं दिस्सन्ति हीनपणीतता'"ति (म० नि० ३.२८९) इमे चूळकम्मविभङ्गसुत्ते आगते चुद्दस पन्हे । “कम्मस्सका माणव सत्ता कम्मदायादा"तिआदिना (म० नि० ३.२८९) सङ्घपतो, वित्थारतो च विस्सज्जनपरियोसाने भगवन्तं सरणं गतो। अङ्गसुभताय "सुभो" तिस्स नामं। माणवोति पन महल्लककालेपि तरुणवोहारेन नं वोहरति । अत्तनो भोगगामतोति तुदिगामतो आगन्त्वा तङ्क्षणिकं वसति । तेनेव पाळियं “केनचिदेव करणीयेना''ति वुत्तं ।
४४५. “एका च मे का अत्थी"ति इमिना उपरि पुच्छियमानस्स पञ्हस्स पगेव तेन अभिसङ्घतभावं दस्सेति । माणवकन्ति खुद्दकमाणवं “एकपुत्तको, (म० नि० २.२९६, ३५३; पारा० २६) पियपुत्तको"तिआदीसु विय क-सद्दस्स खुद्दकत्थे पवत्तनतो। विसभागवेदनाति दुक्खवेदना। सा हि कुसलकम्मनिब्बत्ते अत्तभावे उप्पज्जनकसुखवेदनापटिपक्खभावतो “विसभागवेदना'ति च कायं गाळ्हा हुत्वा बाधनतो पीळनतो “आबाधो"ति च वच्चति । कीदिसा पन साति आह "या एकदेसे"तिआदि । एकदेसे उप्पज्जित्वाति सरीरेकदेसे उट्ठहित्वापि अपरिवत्तिभावकरणतो अयपट्टेन आबन्धित्वा विय गण्हाति, इमिना बलवरोगो आबाधो नामाति दस्सेति । किच्छजीवितकरोति असुखजीवितावहो, इमिना दुब्बलो अप्पमत्तको रोगो आतङ्को नामाति दस्सेति । उट्ठानन्ति सयननिसज्जादितो उट्ठहनं, तेन यथा तथा अपरापरं सरीरस्स परिवत्तनं वदति । गरुकन्ति भारियं अकिच्चसिद्धिकं । गिलानस्सेव काये बलं न होतीति सम्बन्धो । लहट्टानेन चेत्थ गेलञाभावो पुच्छितो। हेट्ठा चतूहि पदेहि अफासुविहाराभावं पुच्छित्वापि इदानि पुन फासुविहारभावं पुच्छति, तेन सविसेसो एत्थ फासुविहारो पुच्छितोति विज्ञायति । असतिपि हि अतिसयत्थजोतने सद्दे अत्थापत्तितो अतिसयत्थो लब्भतेव यथा “अभिरूपस्स कञा दातब्बा''ति । तेनाह “गमनहाना''तिआदि । पुरिमं आणापनवचनं, इदं पन पुच्छितब्बाकारदस्सनन्ति अयमिमेसं विसेसोति दस्सेति “अथस्सा"तिआदिना।।
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(२.१०.४४७-४४९)
सुभमाणवकवत्थुवण्णना
तस्सेव
४४७. कालो नाम उपसङ्कमनस्स युत्तपत्तकालो, समयो नाम पच्चयसामग्गी, अत्थतो पनेस तज्जं सरीरबलञ्चेव तप्पच्चयपरिस्सयाभावो च । उपादानं नाम आणेन तेसं गहणं सल्लक्खणन्ति आह " पञ्ञाया" तिआदि । " स्वे गमनकालो भविस्सती " ति इमिना कालं, “काये"तिआदिना समयञ्च सरूपतो दस्सेति । फरिस्तीति फरणवसेन ठस्सति ।
४४८. चेतियरट्ठेति चेतिरट्ठे । य-कारेन हि पदं व ेत्त्वा एवं वृत्तं । “चेतिरट्ठतो अञ्ञ विसुंयेवेकं रट्ठ" न्तिपि वदन्ति । “यस्मा मरणं नाम तादिसानं दसबलानं रोगवसेनेव होति, तस्मा येन रोगेन तं जातं, तस्स सरूपपुच्छा, कारणपुच्छा, मरणहेतुकचित्तसन्तापपुच्छा, तस्स च सन्तापस्स सब्बलोकसाधारणता, तथा मरणस्स च अप्पटिकरणता’”ति एवमादिना मरणपटिसनुत्तं सम्मोदनीयं कथं कथेसीति दस्सेतुं “भो आनन्दाति आदि वृत्तं । " को नामा" तिआदिना हि रोगं पुच्छति, “किं भगवा परिभुञ्जी "ति इमिना कारणं, "अपिचा' 'तिआदिना चित्तसन्तापं, “सत्था नामा'' तिआदिना तस्स सब्बलोकसाधारणतं, "एका दानी" तिआदिना मरणस्स अप्पटिकरणतं दस्सेतीति दट्ठब्बं | महाजानीति महाहानि । यत्राति येन कारणेन परिनिब्बुतो, तेन को दानि अञ मरणा मुच्चिस्सतीतिआदिना योजेतब्बं । इदानीति च अत्तनो मनसिकारं पति वोहारमत्तेन वृत्तं । लज्जिस्तीति लज्जा विय भविस्सति, विज्जिस्सतीति अत्थो । पीतभेसज्जानुरूपं आहार भोजनं पोराणाचिण्णन्ति आह “ पीत ... पे० ... दत्वा "ति ।
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हुत्वाति पाठसेसो सन्तिकावचरभावस्स विसेसनतो । मारो पापिमा विय न रन्धगवेसी, उत्तरमाणवो विय च न वीमंसनाधिप्पायो, अपि तु खलु उपट्टाको हुत्वा सन्तिकावचरोति हि विसेसेति । न रन्धगवेसीति न छिद्दगवेसी । येसु धम्मेसूति विमोक्खुपायेसु निय्यानिकधम्मेसु । धरन्तीति अधुना तिट्ठन्ति, पवत्तन्तीति अत्थो ।
४४९. अत्थतो पयुत्तताय सद्दपयोगस्स सद्दपबन्धलक्खणानि तीणि पिटकानि तदत्थभूतेहि सीलादीहि तीहि धम्मक्खन्धेहि सङ्गय्हन्तीति वुत्तं “तीणि पिटकानि तीहि खन्धेहि सङ्गहेत्वा"ति | सङ्घित्तेन कथितन्ति “ तिण्णं खो माणव खन्धान "न्ति एवं गणनतो, सामञ्ञतो च सङ्क्षेपेनेव कथितं । " कतमेसं तिष्ण' "न्ति अयं अदिट्ठजोतनापुच्छायेव, न कथेतुकम्यतापुच्छा | माणवस्सेव हि अयं पुच्छा, न थेरस्साति आह " माणवो "तिआदि । अञ्ञत्थ पन ईदिसेसु ठानेसु कथेतुकम्यतापुच्छायेव दिस्सति न अदिट्ठजोतनापुच्छा । इध
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
पन अट्ठकथायं एवं वुत्तं, तदेतं अट्ठकथापमाणतो पच्चेतब्बं । तदा पवत्तमानहि पच्चक्खं कत्वा अट्ठकथम्पि सङ्गहमारोपिंसु । कथेतुकम्यतापुच्छाभावे पनस्स थेरस्सेव वचनता सिया |
सीलक्खन्धवण्णना
४५०-४५३. सीलक्खन्धस्साति एत्थ पदत्थविपल्लासकारी इतिसद्दो लुत्तो, अत्थनिसो विय सद्दनिद्देसो वा, यथारुतो च इतिसद्दो आद्यत्थो, पकारत्थो वा, तेन "अरियस्स समाधिक्खन्धस्स...पे०... पतिट्ठपेसी" ति अयं पाठो गहितोति दट्ठब्बं । तेन वुत्तं " तेसु दस्सितेसू "ति, तेसु तीसु खन्धेसु उद्देसवसेन दस्सितेसूति अत्थो । भगवता वृत्तनयेनेवाति सामञ्ञफलादीसु (दी० नि० १.१९४) देसितनयेनेव तेन इमस्स सुत्तस्स बुद्धभासितभावं दस्सेतीति वेदितब्बं । सासने न सीलमेव सारोति अरियमग्गसारे भगवतो सासने यथादस्सितं सीलं सारो एव न होति सारवतो महतो रुक्खस्स पपटिकट्ठानिकत्ता । अट्ठापयुत्त हि एवसद्दी यथाठाने न योजेतब्बो । यज्जेवं कस्मा तमिध गहितन्ति आह "केवल "न्तिआदि । झानादिउत्तरिमनुस्सधम्मे अधिगन्तुकामस्स अधिट्ठानमत्तं तत्थ अप्पतिट्ठितस्स तेसमसम्भवतो । वुत्तहि “सीले पतिट्ठाय नरो सपञ्ञो "तिआदि (सं० नि० १.१.२३, १९२; पेटको० २२) अथ वा सासने न सीलमेव सारोति कामञ्चेत्थ सासने मग्गफलसीलसङ्घातं लोकुत्तरसीलम्पि सारमेव, तथापि न सीलक्खन्धो एव सारो होति, अथ खो समाधिक्खन्धोपि पञ्ञाक्खन्धोपि सारो एवाति एवम्पेत्थ यथापयत्तेन एवसद्देन अत्थो वेदितब्बो, पुरिमोयेव पनत्थो युत्ततरी । तथा हि वुत्तं " इतो उत्तरी "तिआदि । अञ्ञम्पि कत्तब्बन्ति सेसखन्धद्वयं ।
समाधिक्खन्धवण्णना
४५४. कस्मा पनेत्थ थंरो समाधिक्खन्धं पुट्ठोपि इन्द्रियसंवरादिके विस्सज्जेसि, ननु एवं सन्ते अञ्ञ पुट्ठो अञ्ञ ब्याकरोन्तो अम्बं पुट्टो लबुजं ब्याकरोन्तो विय होतीति ईदिसी चोदना इध अनोकासाति दस्सेन्तो " कथञ्च... पे०... आरभी "ति आह, तेनेत्थ इन्द्रियसंवरादयोपि समाधिउपकारकतं उपादाय समाधिक्खन्धपक्खिकभावेन उद्दिट्ठाति दस्सेति । ये ते इन्द्रियसंवरादयोति सम्बन्धो । अभिञासनाय अवसरोति कत्वा रूपज्झानानेव आगतानि, न अरूपज्झानानि । रूपावचरचतुत्थज्झानपादिका हि सपरिभण्डा छपि
रूपावचरचतुत्थज्झानदेसनानन्तरं
अभिञायो ।
यस्मा पन
(२.१०.४५०-४५३-४५४)
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(२.१०.४७१-४८०-४७१-४८०)
समाधिक्खन्धवण्णना
लोकियाभिञायो इज्झमाना अट्ठसु समापत्तीसु चुद्दसविधेन चित्तपरिदमनेन विना न इज्झन्ति, तस्मा अभिञ्ञासु देसियमानासु अरूपज्झानानिपि देसितानेव होन्ति नानन्तरिकभावतो। तेनाह " आनेत्वा पन दीपेतब्बानी "ति, वुत्तनयेन देसितानेव कत्वा संवण्णकेहि पकासेतब्बानीति अत्थो । अट्ठकथायं पन " चतुत्थज्झानं उपसम्पज्ज विहरती 'ति इमिनाव अरूपज्झानम्पि सङ्गहितन्ति दस्सेतुं “चतुत्थज्झानेन ही "तिआदि वृत्तं । चतुत्थज्ज्ञानमेव हि रूपविरागभावनावसेन पवत्तं " अरूपज्झान "न्ति वुच्चति ।
४७१-४८०. न चित्तेकग्गतामत्तकेनेवाति एत्थ हेट्ठा वुत्तनयानुसारेन ठानाठानपयुत्तस्स एवसद्दस्सानुरूपमत्थो वेदितब्बो । लोकियसमाधिक्खन्धस्स पन अधिप्पेतत्ता "न चित्तेकग्गता...पे०... अत्थी" ति वुत्तं । अरियो समाधिक्खन्धोति एत्थ हि अरियसद्दो सुद्धमत्तपरियायोव, न लोकुत्तरपरियायो । यथा चेत्थ, तथा अरियो सीलक्खन्धोति एत्थापि । इतोति पञ्ञाक्खन्धतो, सो च उक्कट्ठतो अरहत्तफलपरियापन्नो एवाति आह "अरहत्तपरियोसान "न्तिआदि । लोकियाभिञापटिसम्भिदाहि विनापि हि अरहत्ते अधिगते "नत्थेव उत्तरिकरणीय "न्ति सक्का वत्तुं यदत्थं भगवति ब्रह्मचरियं वुस्सति, तस्स सिद्धत्ता । इध पन लोकियाभिज्ञायोपि आगतायेव । सेसमेत्थ सुविज्ञेय्यं ।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्ञवेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया नाम सुभसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
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सुभसुत्तवण्णना निट्ठिता ।
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लीनत्थपकासनिया
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११. केवट्टसुत्तवण्णना
केवट्टगहपतिपुत्तवत्थुवण्णना ४८१. एवं सुभसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि केवट्टसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, सुभसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स केवट्टसुत्तभावं वा पकासेतुं "एवं मे सुतं...पे०... नाळन्दायन्ति केवट्टसुत्त"न्ति आह । पावारिकस्साति एवंनामकस्स सेट्ठिनो। अम्बवनेति अम्बरुक्खबहुले उपवने । तं किर सो सेट्टि भगवतो अनुच्छविकं गन्धकुटिं, भिक्खुसङ्घस्स च रत्तिहानदिवाट्ठानकुटिमण्डपादीनि सम्पादेत्वा पाकारपरिक्खित्तं द्वारकोट्ठकसम्पन्नं कत्वा बुद्धप्पमुखस्स सङ्घस्स निय्यातेसि, पुरिमवोहारेन पनेस विहारो “पावारिकम्बवन"न्त्वेव वुच्चति । "केवट्टो" तिदं नाममत्तं । “केवट्टेहि संरक्खितत्ता, तेसं वा सन्तिके सम्बुद्धत्ता''ति केचि | गहपतिपुत्तस्साति एत्थ कामञ्चेस तदा गहपतिट्ठाने ठितो, पितु पनस्स अचिरकालकतताय पुरिमसमझाय “गहपतिपुत्तो'त्वेव वोहरीयति । तेनाह "गहपतिमहासालो"ति, महाविभवताय महासारो गहपतीति अत्थो, र-कारस्स पन ल-कारं कत्वा “महासालो"ति वुत्तं यथा “पलिबुद्धो"ति (चूळनि० १५; मि० प० ६.३.७; जा० अट्ठ० २.३.१०२) सद्धो पसनोति पोथुज्जनिकसद्धावसेन रतनत्तयसद्धाय समन्नागतो, ततोयेव रतनत्तयप्पसन्नो । कम्मकम्मफलसद्धाय वा सद्धो, रतनत्तयप्पसादबहुलताय पसनो। सद्धाधिकत्तायेवाति तथाचिन्ताय हेतुवचनं, सद्धाधिको हि उम्मादप्पत्तो विय होति ।
समिद्धाति सम्मदेव इद्धा, विभवसम्पत्तिया वेपुल्लप्पत्ता सम्पुण्णा, आकिण्णा बहू मनुस्सा एत्थाति अत्थं सन्धाय “अंसकूटेना"तिआदि वुत्तं । “एहि त्वं भिक्खु अन्वद्धमासं, अनुमासं, अनुसंवच्छरं वा मनुस्सानं पसादाय इद्धिपाटिहारियं करोही''ति एकस्स भिक्खुनो आणापनमेव समादिसनं, तं पन तस्मिं ठाने ठपनं नामाति आह "ठानन्तरे
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(२.११.४८२ - ४८३-४)
इद्धिपाटिहारियवण्णना
ठपेतू 'ति । उत्तरिमनुस्सानन्ति पकतिमनुस्सेहि उत्तरितरानं उत्तमपुरिसानं बुद्धादीनं झायीनं, अरियानञ्च । धम्मतोति अधिगमधम्मतो, झानाभिज्ञामग्गफलधम्मतोति अत्थो, निद्धारणे चेतं निस्सक्कवचनं। ततो हि इद्धिपाटिहारियं निद्धारेति । एवं उत्तरिसद्दं मनुस्ससद्देन एकपदं कत्वा इदानि पाटिहारियसन सम्बज्झितब्बं विसुमेव पदं करोन्तो “ दसकुसलसङ्घाततो वा" तिआदिमाह । मनुस्सधम्मतोति पकतिमनुस्सधम्मतो | पज्जलितपदीपोति पज्जलन्तपदीपो । तेलस्नेहन्ति तेलसेचनं । राजगहसेट्ठिवत्थुस्मिन्ति राजगहसेट्ठिनो चन्दनपत्तदानवत्थुम्हि (चूळव० २५२)। सिक्खापदं पञ्ञापेसीति “न भिक्खवे गिहीनं उत्तरिमनुस्सधम्मं इद्धिपाटिहारियं दस्सेतब्बं । यो दस्सेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा" ति ( चूळव० २५२) विकुब्बनिद्धिपटिक्खेपकं इदं सिक्खापदं पञ्ञपेसि ।
४८२. गुणसम्पत्तितो अचावनं सन्धाय एतं वुत्तन्ति दस्सेति “न गुणविनासनेना" ति इमिना। तेनाह “सीलभेद ' ' न्तिआदि । विसहन्तो नाम नत्थीति निवारितट्ठाने उस्सहन्तो नाम नत्थि । एवम्पि इमिना कारणन्तरेनायं उस्सहन्तोति दस्सेतुं “अयं पना" तिआदि वृत्तं । यस्मा विस्सासिको, तस्मा विस्सासं वड्ढेत्वाति योजना । वड्डेत्वाति च ब्रूहेत्वा, विभूतं पाकटं कत्वाति अत्थो ।
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इद्धिपाटिहारियवण्णना
४८३-४. आदीनवन्ति दोसं । कथं तेन कता, कत्थ वा उप्पन्नाति आह " तत्थ किरा "तिआदि । एकेनाति गन्धारेन नाम इसिनाव । एवहि पुब्बेनापरं संसन्दतीति । गन्धारी नामेसा विज्जा चूळगन्धारी, महागन्धारीति दुविधा होति । तत्थ चूळगन्धारी नाम तिवस्तो औरं मतसत्तानं उपपन्नट्ठानजानना विज्जा । वङ्गीसवत्थु (सं० नि० अट्ठ० १.१.२२०; अ० नि० अट्ठ० १.१.२१२) चेत्थ साधकं । महागन्धारी नाम तस्स चेव जानना, तदुत्तरि च इद्धिविधञाणकम्मस्स साधिका विज्जा । येभुय्येन हेसा इद्विविधञाणकिच्चं साधेति । तस्सा किर विज्जाय साधको पुग्गलो तादिसे देसे, काले च मन्तं परिजप्पेत्वा बहुधापि अत्तानं दस्सेति, हत्थिआदीनिपि दस्सेति, अदस्सनीयोपि होति, अग्गिथम्भम्पि करोति, जलथम्भम्पि करोति, आकासेपि अत्तानं दस्सेति, सब्बं इन्दजालसदिसं दट्ठब्बं । अट्टोति दुक्खतो बाधितो । तेनाह “पीळितो "ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.११.४८५-४८६)
आदेसनापाटिहारियवण्णना
४८५. कामं "चेतसिक"न्ति इदं ये चेतसि नियुत्ता चित्तेन सम्पयुत्ता, तेसं साधारणवचनं, साधारणे पन गहिते चित्तविसेसो दस्सितो नाम होति । सामञजोतना च विसेसे अवतिद्वति, तस्मा चेतसिकपदस्स यथाधिप्पेतमत्थं दस्सेन्तो "सोमनस्सदोमनस्सं
अधिप्पेत"न्ति आह । सोमनस्सग्गहणेन चेत्थ तदेकट्ठा रागादयो, सद्धादयो च धम्मा दस्सिता होन्ति, दोमनस्सग्गहणेन दोसादयो । वितक्कविचारा पन सरूपेनेव दस्सिता । पि-सद्दस्स वत्तब्बसम्पिण्डनत्थो सुविओय्योति आह "एवं तव मनो"ति, इमिना पकारेन तव मनो पवत्तोति अत्थो । केन पकारेनाति वुत्तं "सोमनस्सितो वा"तिआदि । “एवम्पि ते मनोति इदं सोमनस्सिततादिमत्तदस्सनं, न पन येन सोमनस्सितो वा दोमनस्सितो वा, तं दस्सनन्ति तं चित्तं दस्सेतुं पाळियं "इतिपि ते चित्त"न्ति वुत्तं । इतिसद्दो चेत्थ निदस्सनत्थो “अत्थीति खो कच्चान अयमेको अन्तो"तिआदीसु (सं० नि० १.२.१५; २.३.९०) विय। तेनाह "इदञ्चिदञ्च अत्थ"न्ति । पि-सद्दो इधापि वुत्तसम्पिण्डनत्थो । परस्स चिन्तं मनति जानाति एतायाति चिन्तामणि न-कारस्स ण-कारं कत्वा, सा एव पुब्बपदमन्तरेन मणिका। चिन्ता नाम न चित्तेन विना भवतीति आह "परेसं चित्तं जानाती"ति। "तस्सा किर विज्जाय साधको पुग्गलो तादिसे देसे, काले च मन्तं परिजप्पित्वा यस्स चित्तं जानितुकामो, तस्स दिठ्ठसुतादिविसेससञ्जाननमुखेन चित्ताचारं अनुमिनन्तो कथेती''ति केचि । “वाचं निच्छरापेत्वा तत्थ अक्खरसल्लक्खणवसेन कथेती"ति अपरे । सा पन विज्जा पदकुसलजातकेन (जा० १.९.४९ आदयो) दीपेतब्बा।
अनुसासनीपाटिहारियवण्णना ४८६. पवत्तेन्ताति पवत्तनका हुत्वा, पवत्तनवसेन वितक्केथाति वुत्तं होति । एवन्ति हि यथानुसिट्ठाय अनुसासनिया विधिवसेन, पटिसेधवसेन च पवत्तिआकारपरामसनं, सा च अनुसासनी सम्मावितक्कानं, मिच्छावितक्कानञ्च पवत्तिआकारदस्सनवसेन तत्थ आनिसंसस्स, आदीनवस्स च विभावनत्थं पवत्तति । अनिच्चसञ्जमेव, न निच्चसञ्ज । पटियोगीनिवत्तनत्थहि एव-कारग्गहणं । इधापि एवं-सद्दस्स अत्थो, पयोजनञ्च वुत्तनयेनेव वेदितब् । इदं-गहणेपि एसेव नयो । पञ्चकामगुणिकरागन्ति निदस्सनमत्तं तदञरागस्स चेव दोसादीनञ्च पहानस्स इच्छितत्ता, तप्पहानस्स च तदरागादिखेपनस्स उपायभावतो
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(२.११.४८६-४८६)
अनुसासनीपाटिहारियवण्णना
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दुट्ठलोहितविमोचनस्स पुब्बदुट्ठमंसखेपनूपायता विय। लोकुत्तरधम्ममेवाति अवधारणं पटिपक्खभावतो सावज्जधम्मनिवत्तनपरं दट्ठब्बं तस्साधिगमूपायानिसंसभूतानं तद सं अनवज्जधम्मानं नानन्तरिकभावतो। इद्विविधं इद्धिपाटिहारियन्ति दस्सेति इद्धियेव पाटिहारियन्ति कत्वा । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो ।
पाटिहारियपदस्स पन वचनत्थं (उदा० अट्ठ० पठमबोधिसुत्तवण्णना; इतिवु० अट्ठ० निदानवण्णना) “पटिपक्खहरणतो, रागादिकिलेसापनयनतो पाटिहारिय"न्ति वदन्ति, भगवतो पन पटिपक्खा रागादयो न सन्ति ये हरितब्बा । पुथुज्जनानम्पि विगतुपक्किलेसे अट्ठङ्गगुणसमन्नागते चित्ते हतपटिपक्खे इद्धिविधं पवत्तति, तस्मा तत्थ पवत्तवोहारेन च न सक्का इध “पाटिहारिय"न्ति वत्तुं। सचे पन महाकारुणिकस्स भगवतो वेनेय्यगता च किलेसा पटिपक्खा, तेसं हरणतो "पाटिहारिय"न्ति वुत्तं, एवं सति युत्तमेतं । अथ वा भगवतो चेव सासनस्स च पटिपक्खा तित्थिया, तेसं हरणतो पाटिहारियं। ते हि दिट्ठिहरणवसेन, दिट्ठिप्पकासने असमत्थभावेन च इद्धिआदेसनानुसासनीहि हरिता अपनीता होन्तीति । “पटी"ति वा अयं सद्दो “पच्छा"ति एतस्स अत्थं बोधेति "तस्मिं पटिपविट्ठम्हि, अञ्जो आगञ्छि ब्राह्मणो"ति (सु० नि० ९८५; चूळनि० ४) पारायनसुत्तपदे विय, तस्मा समाहिते चित्ते विगतुपक्किलेसे च कतकिच्चेन पच्छा हरितब्बं पवत्तेतब्बन्ति पटिहारियं, अत्तनो वा उपक्किलेसेसु चतुत्थज्झानमग्गेहि हरितेसु पच्छा हरणं पटिहारियं, इद्धिआदेसनानुसासनियो च विगतुपक्किलेसेन कतकिच्चेन च सत्तहितत्थं पुन पवत्तेतब्बा, हरितेसु च अत्तनो उपक्किलेसेसु परसत्तानं उपक्किलेसहरणानि होन्तीति पटिहारियानि नाम भवन्ति, पटिहारियमेव पाटिहारियं । पटिहारिये वा इद्धिआदेसनानुसासनिसमुदाये भवं एकेकं "पाटिहारिय"न्ति वुच्चति । पटिहारियं वा चतुत्थज्झानं, मग्गो च पटिपक्खहरणतो, तत्थ जातं, तस्मिं वा निमित्तभूते, ततो वा आगतन्ति पाटिहारियं, इद्धिआदेसनानुसासनीहि वा परसन्ताने पसादादीनं पटिपक्खस्स किलेसस्स हरणतो वुत्तनयेन पाटिहारियं। सततं धम्मदेसनाति सब्बकालं देसेतब्बधम्मदेसना ।
इद्धिपाटिहारियेनाति सहादियोगे करणवचनं, तेन सन्द्रिं आचिण्णन्ति अत्थो । इतरत्थापि एस नयो । धम्मसेनापतिस्स आचिण्णन्ति योजेतब्बं । तमत्थं खन्धकवत्थुना साधेन्तो "देवदत्ते"तिआदिमाह । गयासीसेति गयागामस्स अविदूरे गयासीसनामको हस्थिकुम्भसदिसो पिट्ठिपासाणो अत्थि, यत्थ भिक्खुसहस्सस्सपि ओकासो होति, तस्मिं पिट्ठिपासाणे |
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.११.४८६-४८६)
"चित्ताचारं ञत्वा"ति इमिना आदेसनापाटिहारियं दस्सेति, "धम्मं देसेसी"ति इमिना अनुसासनीपाटिहारियं, "विकुब्बनं दस्सेत्वा"ति इमिना इद्धिपाटिहारियं । महानागाति महाखीणासवा अरहन्तो । “नागो''ति हि अरहतो अधिवचनं नत्थि आगु पापमेतस्साति कत्वा । यथाह सभियसुत्ते
“आगुं न करोति किञ्चि लोके.
सब्बसंयोगे विसज्ज बन्धनानि । सब्बत्थ न सज्जती विमुत्तो,
नागो तादि पवुच्चते तथत्ता'ति ।। (सु० नि० ५२७; महानि० ८०; चूळनि० २७, १३९)
अट्ठकथायं पनेत्थ "धम्मसेनापतिस्स धम्मदेसनं सुत्वा पञ्चसता भिक्खू सोतापत्तिफले पतिहिंसु । महामोग्गल्लानस्स धम्मदेसनं सुत्वा अरहत्तफले''ति (दी० नि० अट्ठ० १.४८६) वुत्तं । सङ्घभेदकक्खन्धकपाळियं पन “अथ खो तेसं भिक्खूनं आयस्मता सारिपुत्तेन आदेसनापाटिहारियानुसासनिया, आयस्मता च महामोग्गल्लानेन इद्धिपाटिहारियानुसासनिया ओवदियमानानं अनुसासियमानानं विरजं वीतमलं धम्मचक्खं उदपादि 'यं किञ्चि समुदयधम्म, सब्बं तं निरोधधम्म'न्ति" (चूळव० ३४५) उभिन्नम्पि थेरानं धम्मदेसनाय तेसं धम्मचक्खुपटिलाभोव दस्सितो, तयिदं विसदिसवचनं दीघभाणकानं, खन्धकभाणकानञ्च मतिभेदेनाति दट्ठब्बं । सङ्गाहकभासिता हि अयं पाळि, अट्ठकथा च तेहेव सङ्गहमारोपिता, अपिच पाळियं उपरिमग्गफलम्पि सङ्गहेत्वा “धम्मच उदपादी"ति वुत्तं यथा तं ब्रह्मायुसुत्ते, (म० नि० २.३४३) चूळराहुलोवादसुत्ते (म० नि० ३.४१६) चाति वेदितब्बं ।
"अनुसासनीपाटिहारियं पन बुद्धानं सततं धम्मदेसना"ति सातिसयताय वुत्तं । सउपारम्भानि यथावुत्तेन पतिरूपकेन उपारम्भितब्बतो। सदोसानि परारोपितदोससमुच्छिन्दनस्स अनुपायभावतो। सदोसत्ता एव अद्धानं न तिट्ठन्ति चिरकालट्ठायीनि न होन्ति । अद्धानं अतिद्वनतो न निय्यन्तीति फलेन हेतुनो अनुमानं ।
अनिय्यानिकताय हि तानि अनद्धनियानि । अनुसासनीपाटिहारियं अनुपारम्भं विसुद्धिप्पभवतो, विसुद्धिनिस्सयतो च। ततोयेव निहोस। न हि तत्थ पुब्बापरविरोधादिदोससम्भवो अस्थि । निद्दोसत्ता एव अद्धानं तिट्ठति परप्पवादवातेहि,
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(२.११.४८७-४८७)
भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना
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किलेसवातेहि च अनुपहन्तब्बतो। अद्धानं तिट्ठनतो निय्यातीति इधापि फलेन हेतुनो अनुमानं । निय्यानिकताय हि तं अद्धनियं। तस्माति यथावुत्तकारणतो, तेन च उपारम्भादि, अनुपारम्भादिञ्चाति उभयं यथाक्कम उभयत्थ गारव्हपासंसभावानं हेतुभावेन पच्चामसति ।
भूतनिरोधेसकवत्थुवण्णना ___४८७. अनिय्यानिकभावदस्सनत्थन्ति यस्मा महाभूतपरियेसको भिक्खु पुरिमेसु द्वीसु पाटिहारियेसु वसिप्पत्तो सुकुसलोपि समानो महाभूतानं अपरिसेसनिरोधसङ्घातं निब्बानं नावबुज्झि, तस्मा तदुभयानि निय्यानावहत्ताभावतो अनिय्यानिकानीति तेसं अनिय्यानिकभावदस्सनत्थं । निय्यानिकभावदस्सनत्थन्ति अनुसासनीपाटिहारियं तक्करस्स एकन्ततो निय्यानावहन्ति तस्सेव निय्यानिकभावदस्सनत्थं ।
एवं एतिस्सा देसनाय मुख्यपयोजनं दस्सेत्वा इदानि अनुसङ्गिकपयोजनं दस्सेतुं "अपिचा"तिआदि आरद्धं । निय्यानमेव हि एतिस्सा देसनाय मुख्यपयोजनं तस्स तदत्थभावतो। बुद्धानं पन महन्तभावो अनुसङ्गिकपयोजनं अत्थापत्तियाव गन्तब्बतो । कीदिसो नामेस भिक्खूति आह “यो महाभूते"तिआदि । परियेसन्तोति अपरियेसं निरुज्झनवसेन महाभूते गवेसन्तो, तेसं अनवसेसनिरोधं वीमंसन्तोति वुत्तं होति । विचरित्वाति धम्मताय चोदियमानो परिचरित्वा । धम्मतासिद्धं किरेतं, यदिदं तस्स भिक्खुनो तथा विचरणं यथा अभिजातियं महापथविकम्पादि । विस्सज्जोकासन्ति विस्सज्जट्टानं, "विस्सज्जकर"न्तिपि पाठो, विस्सज्जकन्ति अत्थो । तस्माति बुद्धमेव पुच्छित्वा निक्कसत्ता, तस्सेव विस्सज्जितुं समत्थतायाति वुत्तं होति | महन्तभावप्पकासनत्थन्ति सदेवके लोके अनञसाधारणस्स बुद्धानं महन्तभावस्स महानुभावताय दीपनत्थं । इदञ्च कारणन्ति "सब्बेसम्पि बुद्धानं सासने एदिसो एको भिक्खु तदानुभावप्पकासको होती"ति इमम्पि कारणं ।
कत्थाति निमित्ते भुम्मं, कस्मिं ठाने कारणभूतेति अत्थं दस्सेतुं "किं आगम्मा"ति वुत्तं, किं आरम्मणं पच्चयभूतं अधिगन्त्वा अधिगमनहेतूति अत्थो। तेनाह "किं पत्तस्सा"ति । किमारम्मणं पत्तस्स पुग्गलस्स निरुज्झन्तीति सम्बन्धो, हेतुगब्भविसेसनमेतं । तेति महाभूता। अप्पवत्तिवसेनाति पुन अनुप्पज्जनवसेन। सब्बाकारेनाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२ (२.११.४८८-४९१-४९३)
वचनत्थलक्खणरसपच्चुपट्टानपदट्ठान-समुट्ठानकलापचुण्णनानत्तेकत्तविनिब्भोगाविनिब्भोगसभागविसभागअज्झत्तिकबाहिरसङ्गहपच्चयसमन्नाहारपच्चयविभागाकारतो, ससम्भारस पससम्भारविभत्तिसलक्खणसङ्केपसलक्खणविभत्तिआकारतो चाति सब्बेन आकारेन ।
__ ४८८. दिब्बन्ति एत्य पञ्चहि कामगुणेहि समङ्गीभूता हुत्वा विचरन्ति, कीळन्ति, जोतेन्ति चाति देवा, देवलोका। ते यन्ति उपगच्छन्ति एतेनाति देवयानियो यथा “निय्यानिका"ति (ध० स० दुकमातिका ९७) एत्थ अनीयसद्दो कत्वत्थे, तथा इध करणत्थेति दट्ठब्बं । तथा हि वुत्तं "तेन हेसा"तिआदि । वसं वत्तेन्तोति एत्थ वसवत्तनं नाम यथिच्छितट्ठानगमनं । तन्ति इद्धिविधञाणं । चत्तारो महाराजानो एतेसं इस्सराति चातुमहाराजिका। कस्मा पनेस समीपे ठितं सदेवकलोकपज्जोतं भगवन्तं अपुच्छित्वा दूरे देवे उपसङ्कमीति चोदनमपनेति "समीपे ठित"न्तिआदिना । “ये देवा मग्गफललाभिनो, तेपि तमत्थं एकदेसेन जानेय्युं, बुद्धविसयो पनायं पञ्हो पुच्छितो''ति चिन्तेत्वा “न जानामा'"ति आहंसु । तेनाह "बुद्धविसये"तिआदि । न लब्भाति न सक्का, अज्झोत्थरणं नामेत्थ पुच्छाय निब्बाधनन्ति वुत्तं "पुनप्पुनं पुच्छती"ति । "हत्थतो मोचेस्सामा"ति वोहारवसेन वुत्तं, हन्द नं दूरमपनेस्सामाति वुत्तं होति । अभिक्कन्ततराति एत्थ अभिसद्दो अतिसद्दत्थोति आह “अतिक्कन्ततरा''ति, रूपसम्पत्तिया चेव पञापटिभानादिगुणेहि च अम्हे अभिभुय्य परेसं कामनीयतराति अत्थो। पणीततराति उळारतरा। तेन वुत्तं "उत्तमतरा"ति ।
४९१-४९३. सहस्सक्खो पन सक्को अभिसमेतावी आगतफलो वितसासनो, सो कस्मा तं भिक्खु उपायेन निय्योजेसीति अनुयोगमपनेति “अयं पन विसेसो"तिआदिना ।
खज्जोपनकन्ति रत्तिं जलन्तं खुद्दककिमि । धमन्तो वियाति मुखवातं देन्तो विय । अत्थि चेवाति एदिसो महाभूतपरियेसको पुग्गलो नाम विज्जमानो एव भवेय्य, मया अपेसितोयेव पच्छा जानिस्सतीति अधिप्पायो। ततोति तथा चिन्तनतो परं । इद्धिविधञाणस्सेव अधिप्पेतत्ता देवयानियसदिसोव। “देवयानियमग्गोति वा...पे०... अभिजात्राणन्ति वा सब्बमेतं इद्धिविधज्ञाणस्सेव नाम"न्ति इदं पाळियं, अट्ठकथासु च तत्थ तत्थ आगतरुळिहनामवसेन वुत्तं । सब्बासुपि इ भिञासु देवयानियमग्गादिएकचित्तक्खणिकअप्पनादिनामं यथारहं सम्भवति ।
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(२.११.४९४-४९८)
तीरदस्सीसकुणूपमावण्णना
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४९४. आगमनपुब्बभागे निमित्तन्ति ब्रह्मनो आगमनस्स पुब्बभागे उप्पज्जनकनिमित्तं । उदयतो पुब्बभागेति आनेत्वा सम्बन्धो । इमेति ब्रह्मकायिका । वेय्याकरणेनाति ब्याकरणेन | अनारद्धचित्तोति अनाराधितचित्तो अतुट्ठचित्तो । वादन्ति दोसं । विक्खेपन्ति वाचाय विविधा खेपनं ।
४९५. कुहकत्ताति वुत्तनयेन अभूततो अ सं विम्हापेतुकामत्ता। "गुहकत्ता"ति पठित्वा गुम्हितुकामत्ताति अत्थम्पि वदन्ति केचि ।
तीरदस्सीसकुणूपमावण्णना ४९७. पदेसेनाति एकदेसेन, उपादिन्नकेन सत्तसन्तानपरियापन्नेनाति अत्थो । अनुपादिनकपीति अनिन्द्रियबद्धेपि । निप्पदेसतोति अनवसेसतो। तस्माति तथा पुच्छितत्ता, पुच्छाय अयुत्तभावतोति अधिप्पायो। पुच्छामूळ्हस्साति पुच्छितुमजाननतो पुच्छाय सम्मूळहस्स। वितथपञ्हो हि "पुच्छामूळहो"ति वुच्चति यथा “मग्गमूळहो'"ति । पुच्छाय दोसं दस्सेत्वाति तेन कतपुच्छाय पुच्छिताकारे दोसं विभावेत्वा । पुच्छाविस्सज्जनन्ति तथा सिक्खापिताय अवितथपुच्छाय विस्सज्जनं । यस्मा विस्सज्जनं नाम पुच्छानुरूपं, पुच्छासभागेन विस्सज्जेतब्बतो, न च तथागता विरज्झित्वा कतपुच्छानुरूपं विरज्झित्वाव विस्सज्जेन्ति, अत्थसभागताय च विस्सज्जनस्स पुच्छका तदत्थं अनवबुज्झन्ता सम्मुव्हन्ति, तस्मा पुच्छं सिक्खापेत्वा अवितथपुच्छाय विस्सज्जनं बुद्धानमाचिण्णन्ति वेदितब् । तेनाह "कस्मा"तिआदि । दुविज्ञापयोति यथावुत्तकारणेन दुविज्ञापेतब्बो ।
४९८. न पतिद्वातीति पच्चयं कत्वा न पतिठ्ठहति । “कत्था'"ति इदं निमित्ते भुम्मन्ति आह "किं आगम्मा"ति। अप्पतिद्वाति अप्पच्चया, सब्बेन सब्द समुच्छिन्नकारणाति अत्थो। उपादिन्नंयेवाति इन्द्रियबद्धमेव । यस्मा एकदिसाभिमुखं सन्तानवसेन बहुधा सण्ठिते रूपप्पबन्धे दीघसञ्जा, तमुपादाय ततो अप्पकं सण्ठिते रस्ससञ्जा, तदुभयञ्च विसेसतो रूपग्गहणमुखेन गम्हति, तस्मा "सण्ठानवसेना"तिआदि वुत्तं । अप्पपरिमाणे रूपसङ्घाते अणुसचा, तदुपादाय ततो महति थूलसा , इदम्पि द्वयं विसेसतो · रूपग्गहणमुखेन गव्हतीति आह "इमिनापी"तिआदि। "पि-सद्देन चेत्थ 'सण्ठानवसेन उपादारूपं वुत्तन्ति एत्थापि वण्णमत्तमेव कथितन्ति इममत्थं समुच्चिनाती"ति वदन्ति । वण्णसद्दो हेत्थ रूपायतनपरियायोव | सुभन्ति सुन्दरं, इठ्ठन्ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
अत्थो । असुभन्ति असुन्दरं, अनिट्ठन्ति अत्थो । तेनाह “ इट्ठानिट्ठारम्मणं पनेवं कथितन्ति दीघं रस्सं अणुं थूलं सुभासुभन्ति तीसुपि ठानेसु रूपायतनमुखेन उपादारूपस्सेव गहणं भूतरूपानं विसुं गहितत्ताति दट्ठब्बं । “कत्थ आपो च पथवी, तेजो वायो न गाधती 'ति हि भूतरूपानि विसुं गय्हन्ति । नामन्ति वेदनादिक्खन्धचतुक्कं । तहि आरम्मणाभिमुखं नमनतो, नामकरणतो च " नाम "न्ति वुच्चति । हेट्ठा " दीघं रस्स "न्तिआदिना वुत्तमेव इध रूप्पनट्ठेन रूपसञ्जय गहितन्ति दस्सेति “ दीघादिभेद "न्ति इमिना । आदिसद्देन आपादीनञ्च सङ्ग्रहो । यस्मा वा दीघादिसमञ्ञा न रूपायतनवत्थुकाव, अथ खो भूतरूपवत्थुकापि । तथा हि सण्ठानं फुसनमुखेनपि गय्हति, तस्मा दीघरस्सादिग्रहणेन भूतरूपम्पि गय्हतेवाति इममत्थं विञ्ञापेतुं "दीघादिभेदं रूप" मिच्चेव वृत्तं । किं आगम्माति किं अधिगन्त्वा किस्स अधिगमनहेतु। “ उपरुज्झती 'ति इदं अनुप्पादनिरोधं सन्धाय वृत्तं, न खणनिरोधन्ति आह " असेसमेतं नप्पवत्तती 'ति ।
४९९. तत्र वैय्याकरणं भवतीति अनुसन्धिवचनमत्तं चुण्णियपाठं व वेय्याकरणवचनभूतं विज्ञाणन्तिआदिं सिलोकमाहाति अधिप्पायो । विज्ञातब्बन्ति विसि आणेन ञतब्बं, सब्बञाणुत्तमेन अरियमग्गञाणेन पच्चक्खतो जानितब्बन्ति अत्थो । तेनाह “ निब्बानस्सेतं नामन्ति । निदस्सीयतेति निदस्सनं चक्खुविज्ञेय्यं, न निदस्सन अनिदस्सनं, अचक्खुविज्ञेय्यन्ति अत्थं वदन्ति । निदस्सनं वा उपमा, तदेतस्स नत्थीति अनिदस्सनं । न हि निब्बानस्स निच्चस्स एकभूतस्स अच्चन्तपणीतसभावस्स सदिस् निदस्सनं कुतोचि लब्भतीति । यं अहुत्वा सम्भोति, हुत्वा पटिवेति, तं सङ्घ उदयवयन्तेहि सअन्तं, असङ्घतस्स पन निब्बानस्स निच्चस्स ते उभोपि अन्ता न सन्ति ततो एव नवभावापगमसङ्घाता जरतापि तस्स नत्थीति वुत्तं " उप्पादन्तो वा "तिआदि । त उप्पादन्तोति उप्पादावत्था । वयन्तोति भङ्गावत्था | ठितस्स अञ्ञथत्तन्तोति जरता वृत्ता अवसेसग्गहणेन ठितावत्था अनुञ्ञाता होति । तित्थस्साति पानतित्थस्स । तत्थ निब्बचन दस्सेति “तही "तिआदिना । पपन्तीति पकारेन पिवन्ति । तथा हि आचरियेन त् " पपन्ति एत्थाति पपन्ति वृत्तं । एत्थ हि पपन्ति पानतित्थ "न्ति ( दी० नि० टी० १.४९९, निरुत्तिनयेन, यथारुतलक्खणेन वा प-कारस्स भ-कारो कतो। सब्बतोति सब्बकम्मट्ठानमुखतो । तेनाह “अट्ठतिसाय कम्मट्ठानेसु येन येन मुखेना "ति । अय अट्ठकथातो अपरो नयो- पकारेन भासनं जोतनं पभा, सब्बतो पभा अस्साति सब्बतोपभं, केनचि अनुपक्किलिट्ठताय समन्ततो पभस्सरं विसुद्धन्ति अत्थो । ए निब्बानेति निमित्ते भुम्मं दस्सेति “ इदं निब्बानं आगम्मा "ति इमिना । येन निब्बानमधिगतं
(२.११.४९९-४९९)
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(२.११.४९९-४९९)
तीरदस्सीसकुणूपमावण्णना
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तं सन्ततिपरियापन्नानंयेव इध अनुप्पादनिरोधो अधिप्पेतोति वुत्तं "उपादिनकधम्मजातं निरुज्झति, अप्पवत्तं होती"ति ।
तत्थाति यदेतं "विज्ञाणस्स निरोधेना''ति पदं वुत्तं, तस्मिं । विज्ञाणं उद्धरति तस्स विभज्जितब्बत्ता । चरिमकविञआणन्ति अरहतो चुतिचित्तसङ्खातं परिनिब्बानचित्तं । अभिसङ्कारविज्ञआणन्ति पुञादिअभिसङ्घारचित्तं । एत्थेतं उपरुज्झतीति एतस्मिं निब्बाने एतं नामरूपं अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया निरुज्झति । तेनाह "विज्झात...पे०... भावं याती"ति। विज्झातदीपसिखा वियाति निब्बुतदीपसिखा विय। “अभिसङ्घारविज्ञाणस्सापी"तिआदिना सउपादिसेसनिब्बानधातुमुखेन अनुपादिसेसनिब्बानधातुमेव वदति नामरूपस्स अनवसेसतो उपरुज्झनस्स अधिप्पेतत्ता। तेन वुत्तं "अनुप्पादवसेन उपरुज्झती"ति । सोतापत्तिमग्गजाणेनाति कत्तरि, करणे वा करणवचनं, निरोधेनाति पन हेतुम्हि । एत्थाति निब्बाने । सेसं सब्बत्थ उत्तानत्थमेव ।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञआवेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया केवट्टसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
केवट्टसुत्तवण्णना निहिता
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१२. लोहिच्चसुत्तवण्णना
लोहिच्चब्राह्मणवत्थुवण्णना ५०१. एवं केवट्टसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि लोहिच्चसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, केवट्टसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स लोहिच्चसुत्तभावं वा पकासेतुं "एवं मे सुतं...पे०... कोसलेसूति लोहिच्चसुत्त"न्ति आह । सालवतिकाति कारणमन्तरेन इथिलिङ्गवसेन तस्स गामस्स नामं। गामणिकाभावेनाति केचि । वतियाति कण्टकसाखादिवतिया। लोहितो नाम तस्स कुले पुब्बपुरिसो, तब्सवसेन लोहितस्स अपच्चं लोहिच्चोति ब्राह्मणस्स गोत्ततो आगतनामं ।
५०२. “किहि परो परस्स करिस्सती"ति परानुकम्पा विरहितत्ता लामकं। न तु उच्छेदसस्सतानं अञतरस्साति आह "न पना"तिआदि । दिट्ठिगतन्ति हि लद्धिमत्तं अधिप्पेतं, अञथा उच्च्छेदसस्सतग्गाहविनिमुत्तो कोचि दिट्ठिग्गाहो नाम नत्थीति तेसमञ्जतरं सिया। “उप्पन्नं होती"ति इदं मनसि, वचसि च उप्पन्नतासाधारणवचनन्ति दस्सेति "न केवलञ्चा"तिआदिना। सो किर...पे०... भासतियेवाति च तस्सा लद्धिया लोके पाकटभावं वदति । यस्मा पन अत्ततो अञो परो होति, तस्मा यथा अनुसासकतो अनुसासितब्बो परो, एवं अनुसासितब्बतोपि अनुसासकोति दस्सेतुं "परो"तिआदि वुत्तं । किं-सद्दापेक्खाय चेत्थ "करिस्सती"ति अनागतकालवचनं, अनागतेपि वा तेन तस्स कातब्बं नत्थीति दस्सनत्थं । कुसलं धम्मन्ति अनवज्जधम्मं निक्किलेसधम्मं, विमोक्खधम्मन्ति अत्थो । “परेसं धम्म कथेस्सामी"ति तेहि अत्तानं परिवारापेत्वा विचरणं किमत्थियं, आसयवुद्धस्सपि अनुरोधेन विना तं न होति, तस्मा अत्तना...पे०... विहातब्बन्ति वदति । तेनाह “एवंसम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामी''ति ।
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(२.१२.५०४-५१०-५११)
लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना
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५०४. "इथिलिङ्गवसेना'ति इमिना पुल्लिङ्गिकस्सपि अत्थस्स इथिलिङ्गसमझाति दस्सेति । सोति लोहिच्चब्राह्मणो। भारोति भगवतो परिसबाहुल्लत्ता, अत्तनो च बहुकिच्चकरणीयत्ता गरु दुक्करं ।
५०८. कथाफासुकत्थन्ति कथासुखत्थं, सुखेन कथं कथेतुञ्चेव सोतुञ्चाति अत्थो । अयं उपासकोति रोसिकन्हापितं आह । अप्पेव नाम सियाति एत्थ पीतिवसेन आमेडितं दट्टब् । तथा हि तं "बुद्धगज्जित"न्ति वुच्चति । भगवा हि ईदिसेसु ठानेसु विसेसतो पीतिसोमनस्सजातो होति, तस्मा पीतिवसेन पठमं गज्जति, दुतियम्पि अनुगज्जति । किं विसेसं गज्जनमनुगज्जनन्ति वुत्तं "अय"न्तिआदि । आदो भासनं अल्लापो, सञ्जोगे परे रस्सो। तदुत्तरि सह भासनं सल्लापो।
लोहिच्चब्राह्मणानुयोगवण्णना ५०९. समुदयसञ्जातीति आयुप्पादोति आह “भोगुप्पादो"ति। ततोति सालवतिकाय । लाभन्तरायकरोति धनधञलाभस्स अन्तरायकरो। अनुपुब्बो कपि-सद्दो आकङ्घनत्थोति दस्सेति "इच्छती"ति इमिना । अयं अट्ठकथातो अपरो नयो- सातिसयेन हितेन अनुकम्पको अनुग्गण्हनको हितानुकम्पीति । सम्पज्जतीति आसेवनलाभेन निप्पज्जति, बलवती होति अवग्गहाति अत्थो । तेन वुत्तं "नियता होती"ति ।
५१०-५११. दुतियं उपपत्तिन्ति "ननु राजा पसेनदिकोसलो"तिआदिना वुत्तं दुतियं उपपत्तिं ठानं युत्तिं । कारणहि भगवा उपमामुखेन दस्सेति, इमाय च उपपत्तिया तुम्हे चेव अछे चाति लोहिच्चम्पि अन्तोकत्वा संवेजनं कतं होति । ये च इमे कुलपुत्ता दिब्बा गब्भा परिपाचेन्तीति योजना । उपनिस्सयसम्पत्तिया, आणपरिपाकस्स वा अभावेन असक्कोन्ता। कम्मपदेन अतुल्याधिकरणत्ता परिपाचेन्ति किरियाय विभत्तिविपल्लासेन उपयोगत्थे पच्चत्तवचनं। ये पन “परिपच्चन्ती"ति कम्मरूपेन पठन्ति, तेसं मते विभत्तिविपल्लासेन पयोजनं नत्थि कम्मकत्तुभावतो, अत्थो पनस्स दुतियविकप्पे वुत्तनयेन दानादिपुञ्जविसेसो वेदितब्बो । अहितानुकम्पादिता च तस्स तंसमङ्गीसत्तवसेन होति । दिवि भवाति दिब्बा। गब्भेन्ति परिपच्चनवसेन अत्तनि पबन्धेन्तीति गम्भा, देवलोका । "छन्नं देवलोकान"न्ति निदस्सनवचनमेतं । ब्रह्मलोकस्सापि हि दिब्बगब्भभावो लब्भतेव दिब्बविहारहेतुकत्ता । एवञ्च कत्वा "भावनं भावयमाना''ति इदम्पि वचनं समत्थितं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.१२.५१३-५१३)
होति । “देवलोकगामिनिं पटिपदं पूरयमाना''ति वत्वा तं पटिपदं सरूपतो दस्सेतुं “दानं ददमाना"तिआदि वृत्तं । भवन्ति एत्थ यथारुचि सुखसमप्पिताति भवा, विमानानि । देवभावावहत्ता दिब्बा। वुत्तनयेनेव गभा। दानादयो देवलोकसंवत्तनिक पुञ्जविसेसा। दिब्बा भवाति इध देवलोकपरियापन्ना उपपत्तिभवा अधिप्पेता। तदावहो हि कम्मभवो पुब्बे गहितोति आह "देवलोके विपाकक्खन्धा'ति |
तयोचोदनारहवण्णना
५१३. अनियामितेनेवाति अनियमितेनेव, “त्वं एवं दिठ्ठिको, एवं सत्तानं अनत्थस्स कारको''ति एवं अनुद्देसिकेनेव। सब्बलोकपत्थटाय लद्धिया समुप्पज्जनतो याव भवग्गा उग्गतं। मानन्ति “अहमेतं जानामि, अहमेतं पस्सामी'"ति एवं पवत्तं पण्डितमानं । भिन्दित्वाति विधमेत्वा, · जहापेत्वाति अत्थो। तयो सत्थारेति असम्पादितअत्तहितो अनोवादकरसावको च असम्पादितअत्तहितो ओवादकरसावको च सम्पादितअत्तहितो अनोवादकरसावको चेति इमे तयो सत्थारे । चतुत्थो पन सम्मासम्बुद्धो न चोदनारहो, तस्मा "तं तेन पुच्छितो एव कथेस्सामी''ति चोदनारहेव तयो सत्थारे पठमं दस्सेति, पच्छा चतुत्थं सत्थारं । कामञ्चेत्थ चतुत्थो सत्था एको अदुतियो अनञसाधारणो, तथापि सो येसं उत्तरिमनुस्सधम्मानं वसेन “धम्ममयो कायो"ति वुच्चति, तेसं समुदायभूतोपि ते गुणावयवे सत्थुठ्ठानिये कत्वा दस्सेन्तो भगवा “अयम्पि खो लोहिच्च सत्था''ति अभासि ।
अाति य-कारलोपनिदेसो “सयं अभिञा''तिआदीसु (दी० नि० १.२८, ३७; म० नि० १.१५४, ४४४) विय, तदत्थे चेतं सम्पदानवचनन्ति दस्सेति "अञआया"तिआदिना। सावकत्तं पटिजानित्वा ठितत्ता एकदेसेनस्स सासनं करोन्तीति आह "निरन्तरं तस्स सासनं अकत्वा"ति । उक्कमित्वा उक्कमित्वाति कदाचि तथा करणं, कदाचि तथा अकरणञ्च सन्धाय विच्छावचनं, यदिच्छितं करोन्तीति अधिप्पायो । पटिक्कमन्तियाति अनभिरतिया अगारवेन अपगच्छन्तिया । तेन वुत्तं “अनिच्छन्तिया'तिआदि । एकायाति अदुतियाय इत्थिया, सम्पयोगन्ति मेथुनधम्मसमायोगं । एको इच्छेय्याति अदुतियो पुरिसो सम्पयोगं इच्छेय्याति आनेत्वा सम्बन्धो । ओसक्कनादिमुखेन इत्थिपुरिससम्बन्धनिदस्सनं गेहस्सितागेहस्सितअपेक्खवसेन तस्स सत्थुनो सावकेसु पटिपत्तिदस्सनत्थं । अतिविरत्तभावतो दगुम्पि अनिच्छमानं परम्मुखिं ठितं इत्थिं । लोभेनाति परिवारं निस्साय उप्पज्जनकलाभसक्कारलोभेन । ईदिसोति एवंसभावो सत्था ।
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नचोदनारहसत्थुवण्णना
येनाति लोभधम्मेन । तत्थ सम्पादेहीति तस्मिं पटिपत्तिधम्मे पतिट्ठितं कत्वा सम्पादेहि | कायवङ्कादिविगमेन उजुं करोहि ।
५१४. सस्सरूपकानि तिणानीति सस्ससदिसानि नीवारादितिणानि ।
५१५. एवं चोदनं अरहतीति वुत्तनयेन सावकेसु अप्पोस्सुक्कभावापादने नियोजनवसेन चोदनं अरहति, न पठमो विय " एवरूपो तव लोभधम्मो ''तिआदिना, न च दुतियो विय " अत्तानमेव ताव तत्थ सम्पादेही "तिआदिना । कस्मा ? सम्पादित अत्तहितताय ततियस्स ।
(२.१२.५१४-५१७)
नचोदनारहसत्थुवण्णना
५१६. न चोदनारहोति एत्थ यस्मा चोदनारहता नाम सत्थुविप्पटिपत्तिया वा सावकविप्पटिपत्तिया वा उभयविप्पटिपत्तिया वा होति, तयिदं सब्बम्पि इमस्मिं सत्थरि नत्थि, तस्मा न चोदनारहोति इममत्थं दस्सेतुं " अयञ्ही” तिआदि वृत्तं । अस्सवाति पटिस्सवा ।
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५१७. मया गहिताय दिट्ठियाति सब्बसो अनवज्जे अनुपवज्जे सम्मापटिपन्ने, परेसञ्च सम्मदेव सम्मापटिपत्तिं दस्सेन्ते सत्थरि अभूतदोसारोपनवसेन मिच्छा हिताय निरयगामिनिया पापदिट्ठिया । नरकपपातन्ति नरकसङ्घातं महापपातं । पपतन्ति एत्थाति हि पपातो | धम्मदेसनाहत्थेनाति धम्मदेसनासङ्घातेन हत्थेन । सग्गमग्गथलेति सग्गगामिमग्गभूते पुञ्ञधम्मथले चातुमहाराजिकादिसग्गसोतापत्तिआदिमग्गसङ्घाते वा थले । सेसं सुवियमेव ।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्ञावेय्यत्तियजननाय साधुविलासिनिया नाम लोहिच्चसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
लोहिच्चसुत्तवण्णना निट्ठिता ।
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लीनत्थपकासनिया
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१३. तेविज्जसुत्तवण्णना
५१८. एवं लोहिच्चसुत्तं संवण्णेत्वा इदानि तेविज्जसुत्तं संवण्णेन्तो यथानुपुब्बं संवण्णनोकासस्स पत्तभावं विभावेतुं, लोहिच्चसुत्तस्सानन्तरं सङ्गीतस्स सुत्तस्स तेविज्जसुत्तभावं वा पकासेतुं “एवं मे सुतं...पे०... कोसलेसूति तेविज्जसुत्त"न्ति आह । नामन्ति नाममत्तं । दिसावाचीसद्दतो पयुज्जमानो एनसद्दो अदुरत्थे इच्छितो, तप्पयोगेन च पञ्चमियत्थे सामिवचनं, तस्मा “उत्तरेना"ति पदेन अदूरत्थजोतनं, पञ्चमियत्थे च सामिवचनं दस्सेतुं “मनसाकटतो अविदूरे उत्तरपस्से"ति वुत्तं । “दिसावाचीसद्दतो पञ्चमीवचनस्स अदूरत्थजोतनतो अदूरत्थं दस्सेतुं एनसद्देन एवं वुत्त'न्ति केचि, सत्तमियत्थे चेतं ततियावचनं “पुब्बेन गामं रमणीय"न्तिआदीसु विय । “अक्खरचिन्तका पन एन-सहयोगे अवधिवाचिनि पदे उपयोगवचनं इच्छन्ति, अत्थो पन सामिवसेनेव इच्छितो, तस्मा इध सामिवचनवसेनेव वुत्त"न्ति (दी० नि० टी० १.५१८) अयं आचरियमति । तरुणअम्बरुक्खसण्डेति तरुणम्बरुक्खसमूहे । रुक्खसमुदायस्स हि वनसमा ।
५१९. कुलचारित्तादिसम्पत्तियाति एत्थ आदिसद्देन मन्तज्झेनाभिरूपतादिसम्पत्तिं सङ्गण्हाति । तत्थ तत्थाति तस्मिं तस्मिं देसे, कुले वा। ते निवासट्ठानेन विसेसेन्तो "तत्था"तिआदिमाह। मन्तसज्झायकरणथन्ति आथब्बणमन्तानं सज्झायकरणत्थं । तेन वुत्तं "अक्षेसं बहूनं पवेसनं निवारेत्वा''ति । नदीतीरेति अचिरवतिया नदिया तीरे ।
मग्गामग्गकथावण्णना
५२०. जवचारन्ति चङ्कमेन, इतो चितो च विचरणं । सो हि जवासु किलमथविनोदनत्थं चरणतो “जङ्घविहारो, जवचारो"ति च वुत्तो। तेनाह पाळियं "अनुचङ्कमन्तानं अनुविचरन्तान''न्ति । चुण्णमत्तिकादि न्हानीयसम्भारो। तेन वुत्तन्ति
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(२.१३.५२१-५२२-५२३)
मग्गामग्गकथावण्णना
३७८
उभोसुपि अनुचङ्कमनानुविचरणानं लब्भनतो एवं वुत्तं । मग्गो चेत्र ब्रह्मलोकगमनूपायपटिपदाभूतो उजुमग्गो । इच्छितट्टानं उजुकं मग्गति उपगच्छति एतेनाति हि मग्गो, तदञो अमग्गो, अ-सद्दो वा वुद्धिअत्थो दट्ठब्बो। तथा हि "कतमं न खो"तिआदिना मग्गमेव दस्सेति । पटिपदन्ति ब्रह्मलोकगामिमग्गस्स पुब्बभागपटिपदं ।
अञ्जसायनोति उजुमग्गस्स वेवचनं परियायद्वयस्स अतिरेकत्थदीपनतो यथा "पदट्ठान"न्ति । दुतियविकप्पे अञ्जससद्दो उजुकपरियायो । निय्यातीति निय्यानियो, सो एव निय्यानिकोति दस्सेति "निय्यायन्तो"ति इमिना। निय्यानिको निय्यातीति च एकन्तनिय्यानं वुत्तं, गच्छन्तो हुत्वा गच्छतीति अत्थो। कस्मा मग्गो “निय्याती''ति वुत्तो नन्वेस गमने अब्यापारोति ? सच्चं । यस्मा पनस्स निय्यातु-पुग्गलवसेन निय्यानभावो लब्भति, तस्मा निय्यायन्तपुग्गलस्स योनिसो पटिपज्जनवसेन निय्यायन्तो मग्गो "निय्याती"ति वुत्तो। करोतीति अत्तनो सन्ताने उप्पादेति । तथा उप्पादेन्तोयेव हि तं पटिपज्जति नाम । सह ब्येति वत्ततीति सहब्यो, सहवत्तनको, तस्स भावो सहब्यताति वुत्तं "सहभावाया'ति । सहभावोति च सलोकता, समीपता वा वेदितब्बा । तथा चाह "एकट्ठाने पातुभावाया"ति । सकमेवाति अत्तनो आचरियेन पोक्खरसातिना कथितमेव | थोमेत्वाति “अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो''तिआदिना पसंसित्वा । तथा पग्गण्हित्वा भारद्वाजोपि सकमेव अत्तनो आचरियेन तारुक्खेन कथितमेव आचरियवादं थोमेत्वा पग्गण्हित्वा विचरतीति योजना। तेन वुत्तन्ति यथा तथा वा अभिनिविठ्ठभावेन पाळियं वुत्तं ।
५२१-५२२. अनिय्यानिकावाति अप्पाटिहारिकाव, अञ्जमअस्स वादे दोसं दस्सेत्वा अविपरीतत्थदस्सनत्थं उत्तररहिता एवाति अत्थो । तुलन्ति मानपत्थतुलं । अञमञवादस्स आदितोव विरुद्धग्गहणं विग्गहो, स्वेव विवदनवसेन अपरापरं उप्पन्नो विवादोति आह "पुब्बुप्पत्तिको"तिआदि । दुविधोपि एसोति विग्गहो, विवादोति द्विधा वुत्तोपि एसो विरोधो । नानाआचरियानं वादतोति नानारुचिकानं आचरियानं वादभावतो । नानावादो नानाविधो वादोति कत्वा, अधुना पन “नानाआचरियानं वादो नानावादो''ति पाठो।।
५२३. एकस्सापीति तुम्हेसु द्वीसु एकस्सापि । एकस्मिन्ति सकवादपरवादेसु एकस्मिम्पि । संसयो नत्थीति “मग्गो नु खो, न मग्गो''ति विचिकिच्छा. नत्थि, अञ्जसानञ्जसाभावे पन संसयो । तेन वुत्तं “एस किरा''तिआदि एवं सतीति यदि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२ (२.१३.५२४-५२७-५२९)
सब्बत्थ मग्गसचिनो, एवं सति “किस्मिं वो विग्गहो"ति भगवा पुच्छति । इतिसद्देन चेत्थ आद्यत्थेन विवादो, नानावादो च सङ्गहितो।
५२४. “इच्छितट्टानं उजुकं मग्गति उपगच्छति एतेनाति मग्गो, उजुमग्गो । तदजो अमग्गो, अ-सद्दो वा वुद्धिअत्थो दट्टब्बो"ति हेट्ठा वुत्तोवायमत्थो । अनुजुमग्गेति एत्थापि अ-सद्दो वुद्धिअत्थो च युज्जति । तमेव वत्थुन्ति सब्बेसम्पि ब्राह्मणानं मग्गस्स मग्गभावसवातं, सकमग्गस्स उजुमग्गभावसङ्घातञ्च वत्थु | सब्बे तेति सब्बे ते नानाआचरियेहि वुत्तमग्गा, ये पाळियं “अद्धरिया ब्राह्मणा''तिआदिना वुत्ता । अयमेत्थ पाळिअत्थो - अद्धरो नाम यज्ञविसेसो, तदुपयोगिभावतो अद्धरियानि वुच्चन्ति यजूनि, तानि सज्झायन्तीति अद्धरिया, यजुवेदिनो । तित्तिरिना नाम इसिना कता मन्ताति तित्तिरा, ते सज्झायन्तीति तित्तिरिया, यजुवेदिनो एव । यजुवेदसाखा हेसा, यदिदं तित्तिरन्ति । छन्दो वुच्चति विसेसतो सामवेदो, तं सरेन कायन्तीति छन्दोका, सामवेदिनो । "छन्दोगा"तिपि ततियक्खरेन पठन्ति, सो एवत्थो । बहवो इरियो थोमना एत्थाति बव्हारि, इरुवेदो, तं अधीयन्तीति बव्हारिज्झा।
बहूनीति एत्थायं उपमासंसन्दना-- यथा ते नानामग्गा एकंसतो तस्स गामस्स वा निगमस्स वा पवसाय होन्ति, एवं ब्राह्मणेहि पापियमानापि नानामग्गा एकंसतो ब्रह्मलोकूपगमनाय ब्रह्मना सहब्यताय होन्तीति ।
५२५. पटिजानित्वा पच्छा निग्गव्हमाना अवजानन्तीति पुब्बे निद्दोसतं सल्लक्खमाना पटिजानित्वा पच्छा सदोसभावेन निग्गरहमाना “नेतं मम वचन"न्ति अवजानन्ति, न पटिजानन्तीति अत्थो ।
५२७-५२९. ते तेविज्जाति तेविज्जका ते ब्राह्मणा । एवसद्देन आपितो अत्थो इध नत्थीति व-कारो गहितो, सो च अनत्थकोवाति दस्सेति “आगमसन्धिमत्त"न्ति इमिना, वण्णागमेन पदन्तरसन्धिमत्तं कतन्ति अत्थो। अन्धपवेणीति अन्धपन्ति । "पण्णाससद्धि अन्धा"ति इदं तस्सा अन्धपवेणिया महतो गच्छगुम्बस्स अनुपरिगमनयोग्यतादस्सनं । एवहि ते "सुचिरं वेलं मयं मग्गं गच्छामा"ति सचिनो होन्ति । अन्धानं परम्परसंसत्तवचनेन यढिगाहकविरहता दस्सिताति वुत्तं “यढिगाहकेना"तिआदि । तदुदाहरणं दस्सेन्तेन "एको किरा"तिआदि आरद्धं । अनुपरिगन्त्वाति कञ्चि कालं अनुक्कमेन
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(२.१३.५३०-५४४)
अचिरवतीनदीउपमाकथावण्णना
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समन्ततो गन्त्वा । कच्छन्ति कच्छबन्धदुस्सकण्णं । “कच्छं बन्धन्ती"तिआदीसु (चूळव० अट्ठ० २८०; वि० सङ्ग० अट्ठ० ३४.४२) विय हि कच्छसद्दी निब्बसनविसेसपरियायो । अपिच कच्छन्ति उपकच्छकट्ठानं । “सम्बाधो नाम उभो उपकच्छका मुत्तकरण"न्तिआदीसु (पाचि० ८००) विय हि कायेकदेसवाचको कच्छसद्दो। चक्खुमाति यट्ठिगाहकं वदति । "पुरिमो"तिआदि यथावुत्तक्कमेन वेदितब्बो । नामकओवाति अत्थाभावतो नाममत्तमेव, तं पन भासितं तेहि सारसञितम्पि नाममत्तताय असारभावतो निहीनमेवाति अत्थमत्तं दस्सेति “लामकंयेवा''ति इमिना ।
५३०. योति ब्रह्मलोको । यतोति भुम्मत्थे निस्सक्कवचनं । सामञ्जजोतनाय विसेसे अवतिठ्ठनतो विसेसपरामसनं दस्सेतुं “यस्मिं काले"ति वुत्तं । "उग्गमनकाले"तिआदिना पकरणाधिगतमाह । आयाचन्तीति उग्गमनं पत्थेन्ति । कस्मा ? लोकस्स बहुकारभावतो | तथा थोमनादीसु । सोम्मोति सीतलो। अयं किर ब्राह्मणानं लद्धि “पुब्बेब्राह्मणानमायाचनाय चन्दिमसूरिया'गन्त्वा लोके ओभासं करोन्ती''ति ।
५३२. इध पन किं वत्तब्बन्ति इमस्मिं पन अप्पच्चक्खभूतस्स ब्रह्मनो सहब्यताय मग्गदेसने तेविज्जानं ब्राह्मणानं किं वत्तब्बं अत्थि, ये पच्चक्खभूतानम्पि चन्दिमसूरियानं सहब्यताय मग्गं देसेतुं न सक्कोन्तीति अधिप्पायो। “यत्था"ति इमिना “इधा"ति वुत्तमेवत्थं पच्चामसति ।
अचिरवतीनदीउपमाकथावण्णना
५४२. समभरिताति सम्पुण्णा। ततो एव काकपेय्या। पाराति पारिमतीर, आलपनमेतन्ति दस्सेतुं “अम्भो"ति वुत्तं । अपारन्ति ओरिमतीरं । एहीति आगच्छाहि । वताति एकंसेन । अथ गमिस्ससि, एवं सति एहीति योजना। "अत्थिमे"तिआदि अव्हानकारणं ।
५४४. पञ्चसील...पे०... वेदितब्बा यमनियमादिब्राह्मणधम्मानं तदन्तोगधभावतो । तब्बिपरीताति पञ्चसीलादिविपरीता पञ्चवेरादयो । इन्दन्ति इन्दनामकं देवपुत्तं, सक्कं वा । “अचिरवतिया तीरे निसिन्नो"ति इमिना यस्सा तीरे निसिन्नो, तदेव उपमं कत्वा आहरति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.१३.५४६-५४६)
धम्मराजा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ताति दस्सेति । “पुनपी"ति वत्वा “अपरम्पीति वचनं इतरायपि नदीउपमाय सङ्गण्हनत्थं ।
५४६. कामयितब्बटेनाति कामनीयभावेन | बन्धनद्वेनाति कामयितब्बतो सत्तानं चित्तस्स आबन्धनभावेन । कामञ्चायं गुणसद्दो अत्यन्तरेसुपि दिट्ठपयोगो, तेसं पनेत्थ असम्भवतो पारिसेसजायेन बन्धनट्ठोयेव युत्तोति दस्सेतुं अयमत्थुद्धारो आरद्धो । अहतानन्ति अधोतानं अभिनवानं । एत्थाति खन्धकपाळिपदे पटलट्ठोति पटलसहस्स, पटलसङ्घातो वा अत्थो । गुणट्ठोति गुणसद्दस्स अत्थो नाम । एस नयो सेसेसुपि । अच्चेन्तीति अतिक्कम्म पवत्तन्ति । एत्थाति सोमनस्सजातकपाळिपदे । दक्खिणाति तिरच्छानगते दानचेतना । एत्थाति दक्खिणविभङ्गसुत्तपदे (म० नि० ३.३७९) मालागुणेति मालादामे । एत्थाति सतिपट्ठान(दी० नि० २.३७८; म० नि० १.१०९) -धम्मपदपाळिपदेसु, (ध० प० ५३) निदस्सनमत्तञ्चेतं कोट्ठासापधानसीलादिसुक्कादिसम्पदाजियासुपि पवत्तनतो । होति चेत्थ -
"गुणो पटलरासानिससे कोट्ठासबन्धने । सीलसुक्काद्यपधाने, सम्पदाय जियाय चा''ति ।।
एसेवाति बन्धनट्ठो एव । न हि रूपादीनं कामेतब्बभावे वुच्चमाने पटलट्ठो युज्जति तथा कामेतब्बताय अनधिप्पेतत्ता । रासट्ठादीसुपि एसेव नयो । पारिसेसतो पन बन्धनट्ठोव युज्जति । यदग्गेन हि नेसं कामेतब्बता, तदग्गेन बन्धनभावोति ।
कोट्ठासट्ठोपि चेत्थ युज्जतेव चक्खुवि य्यादिकोट्ठासभावेन नेसं कामेतब्बतो । कोट्ठासे च गुणसद्दो दिस्सति “दिगुणं वड्वेतब्ब"न्तिआदीसु विय ।
“असङ्ख्येय्यानि नामानि, सगुणेन महेसिनो । गुणेन नाममुद्धेय्यं, अपि नामसहस्सतो"ति ।। (ध० स० अट्ठ० १३१३; उदा० अट्ठ० ५३; पटि० म० अट्ठ० १.१.७६)
आदीसु पन सम्पदाह्रो गुणसद्दो, सोपि इध न युज्जतीति अनुद्धटो ।
दस्सनमेव इध विजाननन्ति
आह “पस्सितब्बा"ति। “सोतविज्ञाणेन
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(२.१३.५४८-९-५५०)
संसन्दनकथावण्णना
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सोतब्बा''तिआदिअत्थं "एतेनुपायेना''ति अतिदिसति । गवेसितापि "इट्ठा'ति वुच्चन्ति, ते इध नाधिप्पेताति दस्सेतुं “परियिट्ठा वा होन्तु मा वा"ति वुत्तं । इच्छिता एव हि इध इट्ठा, तेनाह "इट्ठारम्मणभूता"ति, सुखारम्मणभूताति अत्थो । कामनीयाति कामेतब्बा | इट्टभावेन मनं अप्पयन्ति वड्डेन्तीति मनापा। पियजातिकाति पियसभावा । आरम्मणं कत्वाति अत्तानमारम्मणं कत्वा । कम्मभूते आरम्मणे सति रागो उप्पज्जतीति तं कारणभावेन निदस्सेन्तो “रागुप्पत्तिकारणभूता"ति आह ।
गेधेनाति लोभेन । अभिभूता हुत्वा पञ्च कामगुणे परिभुञ्जन्तीति योजना । मुच्छाकारन्ति मोहनाकारं । अधिओसनाति अधिगय्ह अज्झोसाय अवसन्ना। तेन वुत्तं "ओगाळ्हा"ति । सानन्ति अवसानं । परिनिडानप्पत्ताति गिलित्वा परिनिट्ठापनवसेन परिनिट्ठानं उय्याता। आदीनवन्ति कामपरिभोगे सम्पति, आयतिञ्च दोसं अपस्सन्ता। घासच्छादनादिसम्भोगनिमित्तसंकिलेसतो निस्सरन्ति अपगच्छन्ति एतेनाति निस्सरणं, योनिसो पच्चवेक्खित्वा तेसं परिभोगपञ्जा। तदभावतो अनिस्सरणपज्ञाति अत्थं दस्सेन्तो "इदमेत्था"तिआदिमाह | पच्चवेक्षणपरिभोगविरहिताति यथावुत्तपच्चवेक्खणञाणेन परिभोगतो विरहिता।
५४८-९. आवरन्तीति कुसलधम्मुप्पत्तिं आदितो वारेन्ति । निवारेन्तीति निरवसेसतो वारयन्ति । ओनन्धन्तीति ओगाहन्ता विय छादेन्ति। परियोनन्धन्तीति सब्बसो छादेन्ति । आवरणादीनं वसेनाति यथावुत्तानं आवरणादिअत्थानं वसेन । ते हि आसेवनबलवताय पुरिमपुरिमेहि पच्छिमपच्छिमा दळहतरतमादिभावप्पत्ता ।
संसन्दनकथावण्णना
५५०. इत्थिपरिग्गहे सति पुरिसस्स पञ्चकामगुणपरिग्गहो परिपुण्णो एव होतीति वुत्तं "इत्थिपरिग्गहेन सपरिग्गहो"ति। "इत्थिपरिग्गहेन अपरिग्गहो"ति च इदं तेविज्जब्राह्मणेसु दिस्समानपरिग्गहानं दुडुल्लतमपरिग्गहाभावदस्सनं । एवं भूतानं तेविज्जानं ब्राह्मणानं का ब्रह्मना संसन्दना, ब्रह्मा पन सब्बेन सब्बं अपरिग्गहोति । वेरचित्तेन अवेरो, कुतो एतस्स वेरपयोगोति अधिप्पायो। चित्तगेलञसङ्घातेनाति चित्तुप्पादगेलञसञितेन, इमिना तस्स रूपकायगेलञभावो वुत्तो होति। ब्यापज्झेनाति दुखेन । उद्धच्चकुक्कुच्चादीहीति एत्थ आदिसद्देन तदेकट्ठा संकिलेसधम्मा सङ्गय्हन्ति । अतोयेवेत्थ
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(२.१३.५५२-५५४)
“उद्धच्चकुक्कुच्चाभावतो”ति तदुभयाभावमत्तहेतुवचनं समत्थितं होति । अप्पटिपत्तिहेतुभूताय विचिकिच्छाय सति न कदाचि चित्तं पुरिसस्स वसे वत्तति, पहीनाय पन ताय सिया चित्तस्स पुरिसवसे वत्तनन्ति आह “ विचिकिच्छाया "तिआदि । चित्तगतिकाति चित्तवसिका । तेन वुत्तं "चित्तस्स वसे वत्तन्ती 'ति । न तादिसोति ब्राह्मणा विय न चित्तवसिको होति, अथ खो वसीभूतझानाभिञ्ञताय चित्तं अत्तनो वसे वत्तेतीति वसवत्ती ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-२
५५२. ब्रह्मलोकमग्गेति ब्रह्मलोकगामिमग्गे पटिपज्जितब्बे, पञ्ञापेतब्बे वा, तं पञ्ञपेन्ताति अधिप्पायो । उपगन्त्वाति मिच्छापटिपत्तिया उपसङ्कमित्वा, पटिजानित्वा वा । समतलन्ति सञ्ञयाति मत्थके एकङ्गुलं वा उपड्डङ्गुलं वा सुक्खताय समतलन्ति सञ्जय । पङ्कं ओतिण्णा वियाति अनेकपोरिसं महापङ्कं ओतिण्णा विय। अनुप्पविसन्तीति अपायमग्गं ब्रह्मलोकमग्गसञ्जय ओगाहन्ति । ततो एव संसीदित्वा विसादं पापुणन्ति । एवन्ति "समतल "न्तिआदिना वुत्तनयेन । संसीदित्वाति निमुज्जित्वा । मरीचिकायाति मिगतहिकाय कत्तुभूताय । वञ्चेत्वाति नदीसदिसं पकासनेन वञ्चेत्वा । वायमानाति वायममाना, अयमेव वा पाठो । सुक्खतरणं मज्ञे तरन्तीति सुक्खनदीतरणं तरन्ति मञे । अभिन्ननेपि भेदवचनमेतं । तस्माति यस्मा तेविज्जा अमग्गमेव " मग्गो" ति उपगन्त्वा संसीदन्ति, तस्मा । यथा तेति ते " समतल "न्ति सञ्ञाय पङ्कं ओतिण्णा सत्ता हत्थपादादीनं संभञ्जनं परिभञ्जनं पापुणन्ति यथा । इधेव चाति इमस्मिञ्च अत्तभावे । सुखं वा सातं वा न लभन्तीति झानसुखं वा विपस्सनासातं वा न लभन्ति, कुतो मग्गसुखं वा निब्बानसातं वाति अधिप्पायो । मग्गदीपकन्ति “ मग्गदीपक" मिच्चेव तेहि अभिमतं । तेविज्जकन्ति तेविज्जत्थञापकं । पावचनन्ति पकट्ठवचनसम्मतं पाठं । तेविज्जानं ब्राह्मणानन्ति सम्बन्धे सामिवचनं । इरिणन्ति अरञ्ञानिया इदं अधिवचनन्ति आह " अगामकं महारज्ञ”न्ति । अनुपभोगरुक्खेहीति मगरुरुआदीनम्पि अनुपभोगारहेहि किं पक्कादिविसरुक्खेहि । यत्थाति यस्मिं वने । परिवत्तितुम्पि न सक्का होन्ति महाकण्टकगच्छगहनताय । ञातीनं ब्यसनं विनासो ञातिब्यसनं । एवं भोगसीलब्यसनेसुपि । रोगो एव व्यसति विबाधतीति रोगब्यसनं । एवं दिट्ठिब्यसनेपि ।
५५४. ननु जातसद्देनेव अयमत्थो सिद्धोति चोदनमपनेति “यो ही "तिआदिना । जातो हुत्वा संवड्ढितो जातसंवड्ढोति आचरियेन ( दी० नि० टी० १.५५४) वुत्तं, जातो च सो संवड्डो चाति जातसंवड्डोति पन युज्जति विसेसनपरनिपातत्ता । न सब्बसो पच्चक्खा होन्ति परिचयाभावतो । चिरनिक्खन्तोति निक्खन्तो हुत्वा चिरकालो । चिरं निक्खन्तस्स
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(२.१३.५५५-५५६-७)
ब्रह्मलोकमग्गदेसनावण्णना
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अस्साति हि चिरनिक्खन्तो। “जातसंवड्डो"ति पदद्वयेन अत्थस्स परिपुण्णाभावतो "तमेन''न्ति कम्मपदं "तावदेव अवसट"न्ति पुन विसेसेतीति वुत्तं होति । दन्धायितत्तन्ति विस्सज्जने मन्दत्तं सणिकवुत्ति, तं पन संसयवसेन चिरायनं नाम होतीति आह "कलावसेन चिरायितत्त"न्ति । वित्थायितत्तन्ति सारज्जितत्तं । अट्ठकथायं पन वित्थायितत्तं नाम थम्भितत्तन्ति अधिप्पायेन "थद्धभावग्गहण"न्ति वुत्तं । अप्पटिहतभावं दस्सेति तस्सेव अनावरणाणभावतो। नन्वेतम्पि अन्तरायपटिहतं सियाति आसङ्कं परिहरति "तस्स ही"तिआदिना। मारावट्टनादिवसेनाति एत्थ चक्खुमोहमुच्छाकालादि सङ्गय्हति । न सक्का तस्स केनचि अन्तरायो कातुं चतूसु अनन्तरायिकधम्मेसु परियापन्नभावतो ।
५५५. उइच्चुपसग्गयोगे लुम्पसद्दो, लुपिसद्दो वा उद्धरणत्थो होतीति वुत्तं "उद्धरतू"ति । उपसग्गविसेसेन हि धातुसद्दा अत्थविसेसवुत्तिनो होन्ति यथा “आदान"न्ति । पजासदो पकरणाधिगतत्ता दारकविसयोति आह "ब्राह्मणदारक"न्ति ।
ब्रह्मलोकमग्गदेसनावण्णना
५५६-७. “अपुब्बन्ति इमिना संवण्णेतब्बताकारणं दीपेति । यस्स अतिसयेन बलं अस्थि, सो बलवाति वुत्तं "बलसम्पन्नोति । सङ्ख धमेतीति सङ्घधमको, सङ्ख धमयित्वा ततो सद्दपवत्तको । “बलवा"तिआदिविसेसनं किमत्थियन्ति आह "दुब्बलो ही"तिआदि । बलवतो पन सङ्घसद्दोति सम्बन्धो । अप्पनाव वट्टति पटिपक्खतो सम्मदेव चेतसो विमुत्तिभावतो, तस्मा एवं वुत्तन्ति अधिप्पायो ।
पमाणकतं कम्मं नाम कामावचरं वुच्चति पमाणकरानं संकिलेसधम्मानं अविक्खम्भनतो। तथा हि तं ब्रह्मविहारपुब्बभागभूतं पमाणं अतिक्कमित्वा ओदिस्सकानोदिस्सकदिसाफरणवसेन वड्डेतुं न सक्का । वुत्तविपरियायतो पन रूपारूपावचरं अप्पमाणकतं कम्मं नाम। तेनाह "तही"तिआदि । तत्थ अरूपावचरे ओदिस्सकानोदिस्सकवसेन फरणं न लब्भति, तथा दिसाफरणञ्च । केचि पन “तं आगमनवसेन लब्भती"ति वदन्ति, तदयुत्तं । न हि ब्रह्मविहारनिस्सन्दो आरुप्पं, अथ खो कसिणनिस्सन्दो, तस्मा यं सुभावितं वसीभावं पापितं आरुप्पं, तं अप्पमाणकतन्ति दट्ठब्बं । “यं वा सातिसयं ब्रह्मविहारभावनाय अभिसङ्खतेन सन्तानेन निब्बत्तितं, यञ्च
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३८२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.१३.५५९-५५९)
ब्रह्मविहारसमापत्तितो वुट्ठाय समापन्नं अरूपावचरज्झानं, तं इमिना परियायेन फरणपमाणवसेन अप्पमाणकतन्ति अपरे | वीमंसित्वा गहेतब्बं ।
रूपावचरारूपावचरकम्मेति रूपावचरकम्मे च अरूपावचरकम्मे च सति । न ओहीयति न तितीति कतपचितम्पि कामावचरकम्मं यथाधिगते महग्गतज्झाने अपरिहीने तं अभिभवित्वा पटिबाहित्वा सयं ओहीयकं हुत्वा पटिसन्धिं दातुं समत्थभावे न तिठ्ठति । "न अवसिस्सती''ति एतस्स हि अत्थवचनं "न ओहीयती''ति, तदेतं “न अवतिकृती''ति एतस्स विसेसवचनं, परियायवचनं वा। तेनाह "किं वुत्तं होती"तिआदि । लग्गितुन्ति आवरितुं निसेधेतुं । ठातुन्ति पटिबलं हुत्वा पतिट्ठातुं । फरित्वाति पटिफरित्वा । परियादियित्वाति तस्स सामत्थियं खेपेत्वा । ओकासं गहेत्वाति विपाकदानोकासं गहेत्वा, इमिना “लग्गितुं वा ठातुं वाति वचनमेव वित्थारेतीति दट्ठब् । “अथ खो"तिआदि अत्थापत्तिदस्सनं । कम्मस्स परियादियनं नाम तस्स विपाकुप्पादनं निसेधेत्वा अत्तनो विपाकुप्पादनमेवाति आह "तस्सा"तिआदि । तस्साति कामावचरकम्मस्स विपाकं पटिबाहित्वा। सयमेवाति रूपारूपावचरकम्ममेव । ब्रह्मसहव्यतं उपनेति असति तादिसानं चेतोपणिधिविसेसेति अधिप्पायो । तिस्सब्रह्मादीनं विय हि महापुआनं चेतोपणिधिविसेसेन महग्गतकम्मं परित्तकम्मस्स विपाकं न पटिबाहतीति दट्टब् ।
अथ महग्गतस्स गरुककम्मस्स विपाकं पटिबाहित्वा परित्तं लहुककम्मं कथमत्तनो विपाकस्स ओकासं करोतीति ? तीसुपि किर विनयगण्ठिपदेसु एवं वुत्तं “निकन्तिबलेनेव झानं परिहायति, ततो परिहीनझानत्ता परित्तकम्मं लद्धोकासन्ति । केचि पन वदन्ति “अनीवरणावत्थाय निकन्तिया झानस्स परिहानि वीमंसित्वा गहेतब्बा'ति । इदमेत्थ युत्ततरकारणं- असतिपि महग्गतकम्मुनो विपाकपटिबाहनसमत्थे परित्तकम्मे “इज्झति भिक्खवे सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता सीलस्सा"ति (दी० नि० १.५०४; सं० नि० २.४.३५२; अ० नि० ३.८.३५) वचनतो कामभवे चेतोपणिधि महग्गतकम्मस्स विपाकं पटिबाहित्वा परित्तकम्मुनो विपाकोकासं करोतीति । एवं मेत्तादिविहारीति वुत्तनयेन अप्पनापत्तानं मेत्तादीनं ब्रह्मविहारानं वसेन विहारी।
५५९. पठममुपनिधाय दुतियं, किमेतं, यमुपनिधीयतीति वुत्तं "पठममेवा"तिआदि । मज्झिमपण्णासके सङ्गीतन्ति अज्झाहरित्वा सम्बन्धो। पुनप्पुनं सरणगमनं दळहतरं, महप्फलतरञ्च, तस्मा दुतियम्पि सरणगमनं कतन्ति वेदितब्बं । कतिपाहच्चयेनाति
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(२.१३.५५९-५५९)
ब्रह्मलोकमग्गदेसनावण्णना
द्वीतीहच्चयेन । पब्बजित्वाति सामणेरपब्बज्जं गहेत्वा । अग्गञ्ञसुत्तम्पि (दी० नि० ३.११२) अमुंयेव वासेट्ठमारम्भ कथेसि, नाञ्ञन्ति ञपेतुं "अग्गञ्ञसुत्ते "तिआदि वृत्तं । तत्थ आगतनयेन उपसम्पदञ्चेव अरहत्तञ्च अलत्युं पटिलभिसूति अत्थो । यमेत्थ अत्थतो न विभत्तं, तदेतं सुविज्ञेय्यमेव ।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्ञावेय्यत्तियजननाय अज्जवमद्दवसोरच्चसद्धासतिधितिबुद्धिखन्तिवीरियादिधम्मसमङ्गिना साट्ठकथे पिटकत्तये असङ्गासंहीरविसारदञाणचारिना अनेकप्पभेदसकसमयसमयन्तरगहनज्झोगाहिना महागणिना महावेय्याकरणेन ञाणाभिवंसधम्मसेनापतिनामथेरेन महाधम्मराजाधिराजगरुना कताय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया तेविज्जसुत्तवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
तेविज्जसुत्तसंवण्णना निट्ठिता ।
तत्रिदं साधुविलासिनिया साधुविलासिनित्तस्मिं होति -
ब्यञ्जनञ्चेव अत्थो च, विनिच्छयो च सब्बथा । साधकेन विना वृत्तो, नत्थि चेत्थ यतो ततो ।।
सम्पस्सतं सुधीमतं, साधूनं चित्ततोसनं । करोति विविधं सायं तेन साधुविलासिनीति । ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.१३.५५९-५५९)
निगमनकथा
एत्तावता च
सद्धम्मे पाटवत्थाय, सासनस्स च बुद्धिया । वण्णना या समारद्धा, सीलक्खन्धकथाय सा ।।
साधुविलासिनी नाम, सब्बसो परिनिट्ठिता । पण्णासाय साधिकाय, भाणवारप्पमाणतो ।।
अनेकसेतिभिन्दो यो, अनन्तबलवाहनो । सिरीपवरादिनामो, राजा नानारट्ठिस्सरो ।।
जम्बुदीपतले रम्मे, मरम्मविसये अका | तम्बदीपरटे पुरं, अमरपुरनामकं ।।
मण्डलाचलसामन्तं, एरावतीनदिस्सितं । नानाजनानमावासं, हेमपासादलङ्कतं ।।
तत्राभिसेकपत्तो सो, रज्जं कारेसि धम्मतो । राजागारमहाथूपं, अकासि सम्पसादनं ।।
उद्धम्म उब्बिनयञ्च, पहाय जिनसासनं । विसोधेसि यथाभूतं, सततं दळहमानसो ।।
तेनेव कारिते रम्मे, छायूदकसमप्पिते । द्विपाकारपरिक्खित्ते, भावनाभिरतारहे ।।
महामुनिसमा या, सम्बुद्धसम्मुखा कता । पटिमा तंपासादम्हा, उजुआसन्नदक्खिणे ।।
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(२.१३.५५९-५५९)
निगमनकथा
३८५
असोकारामआरामे, पञ्चभूमिमहालये । रतनभूमिकित्ति व्हये, धम्मपासादलङ्कते ।।
तथा दक्खिणदेविया, नगरसमीपे कते। पुब्बुत्तरे जयभूमि-कित्ताभिधानकेपि च ।।
तथेवुत्तरदेविया, नगरब्भन्तरे कते । सोण्णगुहथूपन्तिके, परिमाणकनामके ।।
तथा च उपराजेन, कते नगरपच्छिमे । महागुहथूपन्तिके, मङ्गलावासनामके ।।
इति सोण्णविहारेसु, वसंनेकेसु वारतो । सक्कतो सब्बराजूनं, तिक्खत्तुं लद्धलञ्छनी ।।
आणाभिवंसधम्मसेनापतीति सुविख्यातो । द्वेविभङ्गादिधारणा, उपज्झाचरियतं पत्तो ।।
लङ्कादीपागतानम्पि, परदीपनिवासिनं । भिक्खूनं वाचको धम्मं, पटिपत्तिं नियोजको ।।
यं निस्साय विसोधेसि, सासनं एस भूपति । अत्थब्यञ्जनसम्पन्नं, सो'कासि वण्णनं इमं ।।
सम्बुद्धपरिनिब्बाना, पञ्चतालीसके'द्धके । तिसते द्विसहस्से च, सम्पत्ते सा सुनिट्टिता ।।
पेटकालङ्कारव्हयं, नेत्तिसंवण्णनं सुभं । इमञ्च सङ्घरोन्तेन, यं पुञ्ज पसुतं मया ।।
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३८६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
(२.१३.५५९-५५९)
अजम्पि तेन पुञ्जन, पत्वान बोधिमुत्तमं । तारयित्वा बहू सत्ते, मोचेय्यं भवबन्धना ।।
सदा रक्खन्तु राजानो, धम्मेनेव पजं इमं । निरता पुञकम्मेसु, जोतेन्तु जिनसासनं ।।
इमे च पाणिनो सब्बे, सब्बदा निरुपद्दवा । निच्चं कल्याणसङ्कप्पा, पप्पोन्तु अमतं पदन्ति ।।
इति दीघनिकायट्ठकथाय सीलक्खन्धवग्गसंवण्णनाय
साधुविलासिनी नाम अभिनवटीका समत्ता ।
सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका निद्विता ।
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सद्दानुक्कमणिका
अकटविधाति-४४ अकथेन्तीति-६ अकथंकथीति-११० अकरणसीलोति - २६५ अकल्याणजनन्ति-४४ अकिच्चकारकसमापत्तितो-३३४ अकिरियदिट्ठिको-४१ अकिरियवादा-४१. अकुटिलचित्तेसु-२७८ अकुसलचित्तुप्पादो-११२ अकुसलधम्मसङ्घातो-१४६,१६६ अकुसलाति -३०८ अक्खरचिन्तकाति-१४७ अक्खरप्पभेदो-१९१ अक्खित्तोति-२४७ अक्खिदलन्ति-८१ अगणाति - २४६ अगारवोति - २३ अग्गानि-२८४ अग्गदक्खिणेय्योति-१५७ अग्गब्राह्मणोति - १८० अग्गभिक्खन्ति-३१२ अग्गसावकानं -७७ अग्गळं-८५ अग्गिजुहनन्ति-२७३
अग्गिधमनकं-२३१ अग्गिपक्किका - २३३ अग्गिसालन्ति - २३३ अग्गिहोमो-२२८ अग्गेति-३०, १६५, २२४, २९१ अशलिपब्बानीति -- २५२ अङ्गोति-७ अङ्ग-६८,१००, १२९, २०६, २४६,३३३ अचलाति-२७१ अचलो -२०२ अचिरपरिनिब्बुतो - ३५४ अचिरूपसम्पन्नो - ३२२ अचेलोति-३०४ अचोपेत्वाति-२४१ अच्चन्तविसुद्धताय - ३१६ अच्चन्तसुखुमगम्भीरं-३३८ अच्चयो-१६५,१६६ अच्चायिकं-११३ अच्चेन्तीति-३७८ अच्छरियब्भुतधम्मताय - २०४ अच्छादनं-४८ अच्छादेत्वाति-६६ अच्छिद्दकपाठका -३० अच्छिन्दित्वाति-७,२४१ अछम्भी-१०१ अजातसत्तु -५, १३ अजितोति-१५ अजिनक्खिपं-३१३
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[२]
अजिनं - ३१३ अज्जतनायाति - १०२ अज्जतनं - २४१
अज्जतन्ति - १६५ अज्जभावन्ति - १६५
अज्झासयो - १९७
अञ्जनानन्ति - ३५४
अञ्जलिन्ति - १६७
अञ्ञतित्थियो - ३२१
अञ्ञाति - ३१६, ३३५, ३७२ अञ्ञासिकोण्डञ्ञति - १५
अट्टोति - १०४, ३६१ अट्ठकथानयतो - १९०
अट्ठकथापमाणतो - २१२,३५८
अट्ठङ्गिकोति - २९४
अट्ठपरिक्खारिको - १००
अट्ठसमापत्तिवसेन - ३०९ अट्ठारसहिरञ्ञकोटीहेव - ३२४
अढळस - ५ अड्डयोगोति - १०४ अणणो - ११०
अणूति - ६६ अतिथीति - ८२
अतिहरणं - ७८, ७९, ९२
अतुरितचारिका - १७६
अतुरितोति - २१२ अतुलोति - २५१ अत्थन्तरविञ्ञापनन्ति - ४९
अत्थसिद्धि - २१०,२११
अत्थापत्तिदस्सनं - ३२७,३८२
अत्थिकवादो - ४१
अस्थिका - ४१ अत्थुद्धारोतिपि - १०
अत्तकामा ७५
अत्तकिलमथानुयोगमनुयुत्ता - ३७ अत्तकिलमथानुयोगो - ३०५
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-२
अत्तदिट्ठि - ३३९
अत्तन्तपो - ३२९
अत्तपटिलाभोति - ३४८, ३४९, ३५०
अत्तपरिच्चजनं - १५५
अत्तभावसमिद्धिया - २४५
अत्तसन्निय्यातनं - १५४
अत्ताति - १५९, ३२२, ३३९, ३४०, ३४१ अदिट्ठजोतनापुच्छा - ३५७
अदिभेदवता - ३०१
अदिन्नादाना - २८१ अदुक्खमसुखभूमीति – ३६ अदोसोति - १६१
अद्धरिया - ३७६
अदुवा - २४२ अधम्मकारी - २६५
अधम्मेनाति - १६६ अधिओसन्नाति - ३७९
अधिकरूपोति - २४८
अधिगण्हन्तीति - १६०
2
अधिगतझानं - ३३४
- ६६
अधिगमुपायं - अधिचित्तन्ति - ९७ अधिचित्तसुखन्ति - ७०
अधिचित्तानुयोगो - ७०
अधिट्ठानकिच्चं - ३३४ अधिपञसिक्खा - ३३१
अधिप्पायोति – १६
अधिमत्तं - १११
अधिवत्थाति - १०२
अधिविमुत्तीति - ३१८ अधिसीलन्ति - ३१६,३१७
अधीनोति - १११
अधीयतीति - १९२ अनङ्गणसुत्तटीकायं - ३५२
अनत्थकरोति - ११४
अनत्तानुपस्सना - ३०९
[31-37]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ अ - अ ]
सद्दानुक्कमणिका
M
अनुपदधम्मविपस्सनव्हि - ३३३ अनुपादानोति – १३९ अनुपादिसेसनिब्बानधातुवसेन - ६१ अनुष्पविसन्तीति - ३८० अनुप्पादनिरोधो - १५८, ३३१,३६९ अनुमतियाति - २६८ अनुसासनीपाटिहारिथं - ३६४, ३६५ अनुहसन्तीति - २१८ अनोतत्तदहे - २७१ अन्तकरन्ति - २७ अन्तरन्तराति - १४० अन्तराभत्तेति - ७४ अन्तलिक्खे - १०२ अन्तेति - ३३६ अन्तोकुच्छि - २२६ अन्तोजातो - ४६, २७४ अन्तोमण्डलन्ति - १७६ अन्धपवेणीति - ३७६ अन्धबालन्ति - ३२१ अन्धाति - ३७६ अन्वद्धमासन्ति - १२०
- २७
अपचितिकम्पन्ति - २१७ अपच्चाति - २१५ अपतनधम्मोति - २९३ अपनामेन्तोति - ७१ अपरद्धन्ति - ३२७ अपरप्पच्चयो - ३२२ अपराधोति - १६५, १६६
अपरिक्खीणन्ति - १८७ अपरिपतन्तन्ति - ४ अपरिसुद्धोति - - २२८ अपलिखतीति - ३११ अपलिबुद्धायाति - अपसादेस्सामीति - २१४
- २४९
- ९८
अनभिरतो
अननुसुतोति - १५ अनन्तकानीति अनन्तरायिकधम्मेसु - ३८१ - २१ अनरियो - ३०५ अनवट्टितचित्ता - ३४० अनवयोति - १९४ अनवसेसनिरोधं - ३६५ अनाकिण्णन्ति - १०३ अनागतवंससंवण्णनायं - १९८
अनागामिउपासको ३२१ अनागामिफला - ५५ अनागामिमग्गो - १४८ अनागामी- -३३६ अनाथपिण्डिको - ३००,३२४
अनावरणदस्सावी अनाविलोति - १३९ अनासवोति - २७८ अनिच्चधम्मोति - १२४ अनिच्चन्ति - ३०९ अनिच्चसञ्ञमेव - ३६२ अनिच्चानुपस्सनाय - १०९
अनिच्चोति – ४६ अनिट्ठफलोति - १६१ अनित्थिगन्धाति - २३७ अनियमेत्वाति - २१५ अनिय्यानिका - ३४४ अनिस्सरणपञ्ञति - ३७९
अनुकुलयञ्ञानीति - २७५ अनुगताति - ११९ अनुजानामि - ७६ अनुजुमग्गेति - ३७६ अनुभत्वाति-८ अनुत्तरन्ति - ५८, ३१६ अनुद्धचित्तो-५१ अनुपक्किलिट्ठाति - २५८
अपापपुरेक्खारोति - २५३, २५४ अपायगामिमग्गो - १४६
3
[३]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
[अ-अ]
अपायभूमिन्ति-१६० अपायमगं-३८० अपायविनिमुत्तकं- १४८ अपारन्ति-३७७ अपारुता-१४ अपेक्खासिद्धि-२९१ अप्पकेनपीति-२६६ अप्पटिकूलन्ति-१४९ अप्पतिट्ठा-१३९ अप्पतिट्ठाभावो- १३९ अप्पत्थतरोति-२७५ अप्पनालक्खणो-११७ अप्पनासमाधि-११७ अप्पनासमाधिनाति-११७ अप्पनासुखं-११७ अप्पनिग्घोसन्ति-१०३ अप्पपुञतायाति-३०५ अप्पमादो-३२२ अप्पवत्ति-३४२ अप्पसद्दन्ति - १०३, ३२७ अप्पाटिहीरकं-३४६ अप्पोदकन्ति-३५५ अब्भन्तरन्ति-२७३ अब्भानुमोदनेति-१४३ अब्भोकासोति -६५, १०७ अब्यापज्झन्ति-२८४ अब्यासेकसुखन्ति-७० अब्रह्मचरिया-२८१ अभयगिरिवासिनो-७१ अभयाति-२६७ अभिक्कन्ततरोति-१४३ अभिजाननायाति-३४२ अभिज्झा-१०८ अभिजातकोलो -२१२ अभिजाति - ५९ अभिज्ञादेसनाय-३५८
अभिधम्मे-१०५,१०९ अभिनीहरतीति - १२४ अभिभूतत्ताति-३४१ अभिमारेति-२२ अभिरूपेति-१४३ अभिसङ्घतभावं-३५६ अभिसङ्घरोतीति-३३४, ३३५ अभिसञानिरोधो-३३२ अभिसन्देतीति-११७ अभिसम्परायोति-३९ अभिसम्बुद्धोति-१७० अभिसम्बोधि-१६ अभिसेकविधानविनिच्छयो-६८ अभिहरन्तोति-७१ अभिहारोति - ४८ अभिहितकम्मं -२७४ अभेददस्सनं -१५७ अमक्खेत्वाति-६३ अमलीनचित्तता-२८६ अमलीनन्ति-६५ अम्बट्ठसुत्तन्ति-१७२ अम्बट्ठोति-२२७ अम्बलट्ठिकाति-२६२ अम्बविमाने -१६३ अम्बिलग्गन्ति-१६४ अम्बिलयागु-२३३ अयकण्टकेति-३१४ अयकारो-३० अयमुट्टिका-२३३ अयानभूमिन्ति-२१२ अरणीति- २३१ अरहतीति-३०, २१०, २१३, २४८, २८९, ३४७,
३७३ अरहत्तन्ति-३०१ अरहत्तफलन्ति-३३८ अरहत्तफलसमापत्ति - १२३
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________________
[ आ आ ]
अरहत्तमग्गक्खणे - ५५ अरहत्तमग्गी- ५५, १३४, १४८
अरहत्तसिद्धि - २१०
अरहन्ति - ५३, ५४, २१०, २११
अरहाति - १५९
अराति - १३४
अरानन्ति - १८
अरियपुग्गला - १५०
अरियफलं - ३० अरियमग्गोति- २४२
अरियविहारा - ३ अरियसच्चदस्सनं - १५८
अरियसच्चधम्मो - २४३
अरियो - १६६, ३५९
अरियं - २५२, ३१६ अरीनन्ति - - १८
अरूपज्झानन्ति - ३५९ अरूपज्झानलाभीति - १२२
अरूपधम्मा - ७९ अरूपभवन्ति - १३३
अरूपावचरकम्मे - ३८२
अरूपावचरज्झानं - ३८२
अरूपावचरलोको - ५७
अलङ्कारविधिं - ३० अलाबुकटाहन्ति - २१७
अलोभो - ९७, २६८ अल्लकप्परट्ठन्ति - २९९ अल्लवेळुवण्णोति - १२५ अल्लापो - ३७१
अवकंसो -३९
अवमानन्ति - ७ अवसरितब्बन्ति - - १७८ अवसित्तोति - ६८ अविक्खित्तचित्तोति - ५१
असब्भिवाक्यन्ति - १७८ असम्पवेधी - २०२
सद्दानुक्क
असम्मोहधुरं - ९४
असामपाका- २३३
अन्ति - ३६८ असंकिण्णानि - २८४
अस्सद्धो- - १६४, २७०
अस्सवाति - ३७३ अहतानन्ति - ३७८ अहेतुकवादाति - ४१
आ
आकप्पो - ३४६ आकरोति - २७३ आगमनमग्गोति- १२०
आचरियको - ३४१
आचरियकं - १९४, ३४१ आचारो - आजीवका - ३८
- १४, २१४
आजीवट्ठमकसीलं - २९६
आजीवपारिसुद्धिसीलं - ६७
आजीवसम्पदाति- १६४
आजीवोति - १६२
आणण्यनिदानं - ११०
आणत्तियन्ति - ५०
-
आतङ्को – ३५६ आथब्बणवेदो - १९०,१९२
आदिकल्याणता - ६१
आदिच्चगोत्तं - २१७
आदिच्चबन्धुं - १८६ आदिब्रह्मचरियकन्ति - ३४२ आदिब्रह्मचरियकसीलं - २९७ आदिमज्झपरियोसानन्ति - ६०, १४२ आदीनवन्ति - - ३६१, ३७९ आदेसनापाटिहारियं - ३६४ आधारभावतो - १८२ आनन्तरियकम्मानि - १७१
5
[4]
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________________
[६]
आनन्तरियपरिमुत्ति - १७१ आनन्दोति - ३२७
आनिसंसदस्सनं - २८४
आनिसंसफलन्ति - १५८ आनुभावसम्पत्तिया - २६८ आनुभावोति - २६७
आनुयन्ता - २६७
आपायिको - २३५
आबाधेतीति - ११० आबाधोति - ११०,३५६ आभस्सराति - १२१
आभिधम्मिका ९५,३३८ आभुजतीति - ९० आमिसपूजा - ७६
आमेडितवचनन्ति - २७३
आयतन्ति - १९३
आयाचनेति - - ५० आयाचन्तीति - ३७७
आयोगो - ३४१
आरकत्ताति - १८ आरञ्ञकधुतङ्गस्स - १०५
आरद्धन्ति - २९७
आरामोतिपि - २९९
आरुप्पकथायं - ३३४ आरुप्पज्झानमेवाधिप्पेतन्ति - २८५
आरुप्पसङ्घातं - २८५
आरोहपरिणाहसम्पत्तिया - २४८ आलकमन्दादिदेवपुरे - १७९
आलोकसञ्ञा - १०९
आलोको - ८३, २०९ आवज्जनपच्चवेक्खणानि - ३३३
आवरणीयेहीति - ७२
आवरन्तीति
- ३७९
आवाहविवाहविनिबद्धाति - २३० आवाहेत्वातिआवाहो - २२४
- २२६
दीघनिकाये सीलक्बन्धवग्ग अभिनवटीका-२
आविभूतकालोति - १२६, १३२
आवुतसुतं - १२६
आसङ्गो - १०१ आसतीति - १०४
आसत्तखग्गानीति - २०
आसनन्ति - ७४, ३१४
आसनसाला - ३३५
आसप्पनं - ११३
आसभं - २१०, ३१८ आसयानुसयत्राणं - ७० आसवक्खयाति - १३४ आसिनेसूति - - ८३ आसीविसन्ति - ४४
आळवकसुत्ते - १५६
आळवियं - ३०४
आळारिका - ३०
6
इच्छानङ्गलेति – १७८
इट्टाति - ७५
इणदानादीनं - २६४
इतिहासो - १९२ इत्थिलिङ्गो - १८७ इत्थिलीळा - ३४६ इद्धन्ति - ६४ इद्धाभिसङ्घारनयो - २३९ इद्धि - २५, १९८ इद्धिनिम्मितमिवाति - १२० इद्धिपाटिहारियन्ति - ३६३ इद्धिबलेनाति - २५१
इद्धियाति - १४३ इद्धिविधञणकिच्चं - ३६१ इद्धिविधञाणं - १३०,३६६ इन्दखीलं - १८० इन्दजालसदिसं - ३६१
[ इ-इ]
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________________
[ई-उ]
सद्दानुक्कमणिका
[७]
इन्दन्ति-३७७ इन्दसालगुहायं - ५३ इन्द्रियगोचरभावेन-३४५ इन्द्रियदमेनाति-३३ इन्द्रियसंवरो-१०२,३१० इब्भाति-२१५ इरिणन्ति-३८० इरिया-३ इरियापथचक्कं-२०० इरियापथो-३,९२,१०८ इरु-१९० इरुविज्जाति-२५६ इरुवेदयजुवेदसामवेदादिवसेन -२३६ इरुवेदो-३७६ इसीति-२३७ इस्सरत्ताति- २४५ इस्सराति-१७४, ३६६ इस्सरियसुखं -२०६ इस्सरोति-२४८
उग्गतुग्गताति-२९ उग्गतुग्णतेहीति - २३६ उग्गहनिमित्तं-७२ उग्गहितन्ति-१५७ उग्घाटेय्याति-१४५ उच्चङ्गो-७ उच्चभूमियं-३१४ उच्चाकुलीनभावदस्सनत्थं - २२८ उच्चासद्दमहासदाभावं-३२७ उच्छग्गन्ति-१६४ उच्छादनधम्मोति- १२४ उच्छेदवादो-३०१ उजुमग्गो-३७५, ३७६ उज्झानसञिनोति - १३४ उञ्छाचरिया -२३३ उट्ठहतीति-४६ उट्ठापेत्वाति-२१६ उण्हन्ति-२७८ उण्हपकतिकस्साति-८५ उण्हलोहितन्ति-९ उतुपुण्णता-११ उतुफरणथन्ति-१२१ उत्तमजाणं-३४७ उत्तमब्राह्मणोति-२४६ उत्तमसम्पजानकारी-८८ उत्तमसूराति-२०६ उत्तमोति-२४८ उत्तरिकरणीयन्ति-३५९ उत्तरिमनुस्सधम्म-३६१ उत्तरिमनुस्सानन्ति - ३६१ उत्रस्तो-६, २२७ उत्रासन्ति-११३ उदकन्हानतित्थं- २२४ उदग्गचित्तता-२८६ उदयभद्दो- २४ उदानन्ति - १२
ईकारो-३३४ ईसनसीलो-२४८ ईसिकाति- १२९
उक्कट्ठगुणयोगतो- १८१ उक्कट्ठाति-१८१ उक्कण्ठितोति-२१ उक्कुटिकवीरियं-३१४ उक्कंसो-३९ उक्खलीति-३१२ उग्गच्छनकउदकोति-१२० उग्गण्हनं-३४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[<]
उदीरयीति - ५२ उदुम्बरिकसुत्ते - ३२० उद्धच्चकुक्कुच्चविगमेन - २८६ उद्धनन्तरेति - ३५५
उद्धनं - ९०
उद्धरणं - १०, ७८ उन्द्रियिस्सतीति - २२७
उपकडुनं - ३२९ उपकुट्ठोति -
१- २४७
उपक्किलेसोति - १२ उपगन्त्वाति
-३८०
१९७, २५७ उपवदतीति - ३०४ उपसग्गमत्तन्ति - ६५
उपसन्तस्साति - १६
उपसमन्ति - २३
उपसम्पदा - ६०, १७६, २३२ उपारम्भो -
-३०१ उपासककुलानि - १८१ उपासकचण्डालसुत्तं - १६४
उपासक पुण्डरीकं - १६४
उपासकरतनं - १६४ उपासकसहो -
-- १६२ उपासकोति - १६२, ३७१
उपासनतोति - १६२
उपेक्खको - २६
उपेहि - १५१ उपोसथसद्दो - १० उपोसथोति - १०,२२१ उप्पण्डनकथन्ति - २१४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
उप्पण्डेतीति - ३०४ उप्पततीति - १०२
उप्पतित्वाति - २९४
उप्पादन्तोति - ३६८
उब्बिग्गो - ६ उम्मिदोदको - ११९
उपचारसमाधितो - ११७
उपजीवन्तीति - ३०
उपज्झायोति - १९५
उमङ्गसदिसन्ति – १०६ उरुञ्ञानामजनपदे - ३०४ उरुञ्जायन्ति - ३०४ उसभोति - ३१८
उपपोसथोति - ३०१ उपनिस्सयपच्चयोति - ८३
उपयोगवचनन्ति - १६, ६६, १७८, १८०, १८१, १८२, उस्सङ्कितपरिसङ्कितोति - ११३
उस्सङ्की - - ६, २२७ उस्सापेत्वाति - २०, १०६
उप्पन्न अकुसल चित्तुप्पादवसेन - ६६
उप्पन्नन्ति - ३०२ उप्पलगन्धो - १९८
उप्पलानीति - १२०
उप्पलं - १२१ उप्पादनिरोधन्ति - ३४०
8
ऊ
ऊहनिस्सामीति - २६६
ए
एककम्मभावो - १४७
एकक्खणा - २९५ एकच्चवादो - १५ एकत्थिभावलक्खणो - २९४
एकन्तसुखी - १५९
एकन्तसूराति २९
एकपुग्गलो- ५५
एकरुक्खतोति - २३४ एकवारन्ति - ३३७
एकसाटका - ३७
[ ऊ ए ]
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________________
[ओ - क]
सद्दानुक्कमणिका
ओरिमतीरं- ३७७ ओरोधा-२२३ ओवट्टिकायाति-११९ ओवादधम्म-२०८ ओवादानुसासनिन्ति -३४ ओळारिकाति-३३५
एकसालको - ३२५ एकागारिको - ३२, ३१२, ३१४ एकालोपिको -- ३१२ एकाहिको-३१३ एकीभावन्ति-२१३ एकप्पादनिरोधभावोव-३४० एकंसायाति-२९२ एकंसिकाति-३४४ एत्तकउक्कंसकोटिका- २५९ एलगळा-२४९ एलन्ति-२४९ एहिभद्दन्तिको -३१२ एहीति-३७७ एळमूगो-२५८ एळागळेनाति-२४९
ओ
ओकप्पनीयाति-१४ ओकारो-२४२ ओकासोति-२४८ ओकासं-३८२ ओक्काकराजाति-२२२ ओघन्ति-३११ ओघो-१२ ओजवन्तियाति-१७० ओदनकञ्जियं-३१३ ओनन्धन्तीति-३७९ ओनीतपत्तपाणीति-२४१ ओपपातिकोति-२९३ ओपरज्जं-६ ओपवय्हन्ति-१९ ओपानभूतन्ति-६३ ओपानभूतो- २६९ ओमत्ताति-७८ ओरब्मिका-३७
कायाति-२३८ कलावितरणाणं-१७६ कच्छन्ति-३७७ कञ्चनासनेति-११ कटच्छु-८९ कण्टकवुत्तिकाति-३७ कण्टकेति-३७ कण्णसक्खलियन्ति -२९१ कण्हपक्खन्ति-३१ कण्हाति-२१५, २२४ कण्हायनोति-२१९ कतसुत्तगुळेति-३९ कतसुधाकम्म- २३८ कतावकासाति-२६ कतिपाहच्चयेनाति-३२५, ३८२ कत्तब्बधम्मो-२६५ कत्तिकपुण्णमायन्ति - १७६ कथननिमित्तं -३४३ कथाफासुकत्थन्ति-३७१ कथासल्लापन्ति - २१४,३२१ कथिततोवाति -३३७ कथेतुकम्यतापुच्छा – ३५७ कन्तारो-११२ कन्दित्वा-३१३ कपिलब्राह्मणो - २२३ कपिलमुनिनो-२२४ कप्पका-३०
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________________
दीघनिकाये सीलकखन्धवग्गअभिनवटीका-२
[क-क]
कबळन्तरायोति -३१२ कमण्डलूति - २३१ कम्मकरणस्थायाति-७ कम्मकारोति-४६ कम्मक्खयलक्खणन्ति - ४५ कम्मजतेजोति -७४ कम्मजतेजोधातु-२४७ कम्मजरूपं-११८ कम्मट्ठानविनिमुत्ता-७३,७४ कम्मट्ठानविप्पयुत्तचित्तेन-७५,७६ कम्मन्ति-३६, ६५, १६४,२९९ कम्मफलन्ति-३३ कम्मस्सकताजाणन्ति-३१७ कम्मस्सकतापजाति-३१७ कम्मस्सका-३५६ कम्मुनो-३६ करजकायन्ति-११७ करजोति-११७ करणसीलो-७१,२६५ करणीयन्ति-१३८,२८९ करणीयं-१६७ करण्डो-१२९,१३० करमरानीतो-४६ करुणादिगुणा-१९६ करेणु-१९ कल्याणधम्मे-२७९ कल्याणभावो-१७ कल्याणवाक्करणो-२२५ कल्याणोति-१७ कल्लचित्तता -२८६ कसिणज्झानानि-३०२, ३३७ कसिणपरिकम्म-३०२ कसिरं-११३ काकणिकं- १११ काचो-२३१ काजरो-१५
काजो- २३१ कामचारो-३३२ कामच्छन्दनीवरणं-१०८ कामच्छन्दो-११२ कामनीयाति-३७९ कामभवतो-१४८ कामरागो-१४९,३३२ कामवितक्का-९९ कामसञ्जाति-३३२ कामसञ्जानिरोधं-३३७ कामावचरकम्मं -३८२ कामूपसंहितानि - २९१ कामोघं-२५ कामंगमो-१११ कायकम्म-६७, २९७ कायचित्तपस्सद्धी-३४७ कायचित्तानि-१०१ कायन्ति-१०७ कायपरिहारिया- १०० कायबलन्ति-१११ कायवित्तिं-७८, ८१ कायवेदनाचित्तधम्मसु-२९७ कायसक्खिन्ति-८१ कायिकदुक्खेन-११३ कायिकसुखन्ति-६९ कायोति-४०,११६, ३७२ कारणदस्सनं-२२,१५५, १५७, ३५२ कारो -७१, १४२ कालचू-२०० कालामोति-१२३ कालुसियभावोति-२३९ काळको-१०३ काळमेघराजीति - १८० किच्चसिद्धि - २९२ किच्चं-१३८,१६७,१७४, २७५ किच्छजीवितकरोति-३५६
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________________
[ख-ख]
सद्दानुक्कमणिका
[११]
केसग्गहणन्ति-२२४ कोटियन्ति-१६४ कोट्ठागारन्ति-२६४ कोण्डो -१९६ कोतूहलमङ्गलिको - १६४ कोतूहलसालाति - ३२८ कोमारभच्चो-५ कोरण्डसेट्टिपुत्तो - १७५ कोलरुक्खो-२२४ कोसम्बियन्ति-२९९ कोसलरोति-९ कोसलो- १८४ कोसोति-२६४, २६५ कंसथालकस्स-११८
किच्छतीति-२३८ किच्छं-११३ किञ्चनानि-१८६ किञ्चनं-६५ किट-धातुतो-१९० कित्तिघोसोति - ३२८ किरियधम्म-२४२ किरियाकप्पो-१९० किलन्ताति-३०० कुच्छिपरिहारियापि-१०० कुञ्चिका-८९ कुण्डकन्ति-३१३ कुम्भी-१६९ कुम्मग्गो-१४६ कुरूरकम्मन्ताति-३७ कुलपरियायेनाति-२५१ कुलसद्दो-२६७ कुलूपकेति-१३ कुसलकिरियं-१६४ कुसलधम्म-१९९ कुसलन्ति-१७४ कुसलमूलेन - २०६ कुसलोति- २४०, ३४३ कुसुमगन्धसुगन्धेति-२४५ कुहकतायाति-२६० कुहकत्ताति-३६७ कूटट्ठा-४४ कूटदन्तसुत्ते-२३१ कूटागारसालाति- २८९ केणियजटिलवत्थु-२३३ केराटिकाति-२५६ केलनाति-२५३ केवट्टसुत्तन्ति-३६० केवट्टो-३६० केवलन्ति-२६० केसकम्बलं-३१४
खग्गविसाणकप्पोति-१०१ खग्गविसाणसुत्ते-१०१ खग्गो-१०१ खज्जोपनकन्ति-३६६ खणनिरोधो- १३४ खणभङ्गवसेन-१०८ खणिकनिरोधेति-३२८ खत्तियगणा-६९ खन्ति-१३३,३४१ खन्तिसंवरो-३०९ खन्धादिपञत्ति-३५० खयाणनिब्बत्तनत्थायाति-१३४ खयजाणे-१३५ खयाणं-१३४ खयोति-१३४ खराति-२१७ खाणुमतं-३५४ खारिभरितन्ति-२३१ खिड्डाभूमि-३८
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________________
[१२]
खीणाति - १३७ खीणासवभावतो - २९०
खीणासवसामणेरो- १७५, २३१ खीणासवो - १३७, १५९, २९७
खीणासवं - २९७
खीरपञ्ञत्ति - ३४९
खुद्दकभावो - ४९ खुरधारूपमन्ति - २३२
खुरपरियन्तो - ३२
खेत्तड्डूनन्ति - २१८
खेत्तविज्जाति - २३५
खेमन्तभूमिं - ११३ खेळफुसितानीति - २४९ खोतीति - १२० खोभेत्वाति - ८
ग
गङ्गाय - ३३, २२६
गङ्गोदकञ्च - ६८
गणयन्तोति - २३८ गणसङ्गणिका - ४८ गणाचरियोति - ३२५ गणीति
- १४, २५५
गणीभूताति - २४६ गण्ठिकाति - ३९
गण्ठिम्हीति - ३८ गतपच्चागतिकं - ७५
- २९७
गतियोति गन्थोति - १९० गन्धकुटिपरिवेणेति - २५२
गन्धारराजा - १७५
गन्धारेन
- ३६१ गब्भा - ३७१, ३७२
गयासीसनामको गयासीसेति
- ३६३ - ३६३
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
गरु - १५२, ३७१ गरुकन्ति - ३५६
गरुडो - १६
गरुन्ति - २७ गरुपत्तोति - ८७ गलग्गाहाति - गवाति - ३४९ गवेसीति - २३८
- २७६
गहकारक - १३२
गहणी - २४७ गहपतिकोति - ४९
गहितधम्मा - १२६ गहितभावदस्सनन्ति - १३५ गहं - २,४९
गामघातका - २६५
गामन्ति - १५६
गामपूजितोति - १५७ गामभागेनाति - २७५
गामोति - २६७
गावुतं - ७५
गिज्झकूटे - ३२०, ३२१
गीतन्ति - ११३, २३६ गुणकथायाति - १५ गुणत - ३७८ गुणदस्सनं ४, १२२ गुणना- २१९
-
गुणे - १८, १४४, २५०
गुहा - १०४ गूथट्ठानसदिसं - ३३९ गेधेनाति - ३७९ गेलञ्ञाभावो - ३५६ गोचरगामस्स - ४ गोचरन्ति - ७२ गोचरसम्पजञ्ञभावतो - ८१
गोचरसम्पज - ७१, ९५
गोतमोति - १८६, १८७, १८८, १९६, ३५५
12
[ग-ग]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[घ-च]
सद्दानुक्कमणिका
[१३]
गोत्तन्ति-२१६, २१९ गोत्तवादोति-२२९ गोत्तं-१८६, १८७,१९६,२१६, २१९, २२९ गोत्रभुजाणं-१२७ गोत्रभूति-२३८ गोपदकन्ति-२५१ गोमयसिञ्चनं-२६६ गोरक्खन्ति-१८६ गोरूपानन्ति-७४ गोसालायाति-१५
घट्टेन्तोति-२१७ घनन्ति-८५ घनवनसण्डो-१४५ घनविनिब्भोगो-३४१ घरदासयोधाति-२९ घरसन्धि-३२ घरसामिकेहीति-११२ घासच्छादनपरमो-४८ घासो-४८ घोरतपो-३२९ घोरोति-२७९ घोसप्पमाणे-३०९ घोसितारामेति-३०१ घोसो-१७ घंसित्वा-३२१
चक्कवत्तिराजा-२०१ चक्कवत्तीति-२०१ चक्कवाळे - १७८ चक्कवीरियोति - २६८ चक्खादिकन्ति - १२३ चक्खुन्ति-१६८ चक्खुमाति-३४४, ३७७ चक्खुमोहमुच्छाकालादि-३८१ चक्खुविज्ञाणं - ८३, १०८ चक्खुसद्दो-७० चक्खूति-७० चञ्चलाति-३४० चण्डालोति-१६४ चतुइरियापथन्ति- ११० चतुत्थज्झानचित्तं- १३३ चतुत्थज्झानसमाधि-२९६ चतुत्थज्झानसुखं- १२२ चतुत्थज्झाने-३४७ चतुत्थज्झानं-१२२, ३५९,३६३ चतुत्थोति-३३० चतुधातुववत्थाने - १३३ चतुत्रमरियसच्चानं - २९४ चतुपञ्चभूमको - १०४ चतुपटिसम्भिदापत्तेन- २३९ चतुपारिसुद्धिसीलालङ्कारो-२६८ चतुब्बिधोति-५५ चतुमधुरन्ति-९९ चतुमधुरेनाति-७ चतुमासं-१७७ चतुसच्चधम्म-२४३ चन्दनगन्धो-१९८ चन्दसूरियविमानादि - २०३ चन्दिकङ्गणयुत्तं - १०४ चमरो- २३१ चम्पकरुक्खा -२४५ चम्पाति-२४५
चक्कनउपासकस्स-२८१ चक्कन्ति-१९९ चक्करतनन्ति-१९९ चक्कलक्खणं- २०० चक्कवत्तिरो-१७९, २०४
13
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१४]
दीघनिकाये सीलकखन्धवग्गअभिनवटीका-२
[छ-छ]
चम्मकञ्चुकन्ति-२९ चम्मखण्डो-१०५ चम्मन्ति-२९ चरणन्ति-२३०,२३१ चरतीति-७५,१६६, १७८, २०१,३११ चरिमकचित्तन्ति-६५ चरिमकविज्ञाणन्ति-३६९ चरिया-२३३ चलकाति-२९ चागो-२०७ चातुद्दिसो-१०१ चातुमहाभूतिककायं-११७ चातुमहाभूतिको - ४०, १२४ चातुमहाराजिका-३६६ चातुयाम-४५ चातुरन्ता-२०१ चापल्यं -२५३ चामरन्ति-११ चारिका-१७५, १७६, १७८ चारिकाय-१७५, २४५ चिण्णचरणो-२५ चित्तकम्मकतपटिमायो-७२ चित्तकारो-३० चित्तगतिकाति-३८० चित्तगेलनं-१०९ चित्तजरूपस्सापि-११८ चित्तजाननाकारदस्सनं-२४ चित्ततोसनं-३८३ चित्तदुक्खं-२५६ चित्तनिरोधेति-३२८ चित्तन्ति-८०,२१६, ३६२ चित्तविसुद्धिं-४८ चित्तसन्तापं-३५७ चित्तसमाधाने-११६ चित्तसमुट्ठानानि -- ६२ चित्ताभिमुखं-३३५
चित्ताराधनत्थन्ति-१३० चित्तीकतन्ति-२०४ चित्तुप्पादोति-८६,१५४ चित्तेति-३४३ चिन्तनभावन्ति-४७ चिन्तामणि-३६२ चिन्तामयजाणसम्बन्धिका-१३३ चिमिलिका-१०५ चिरकालो-३८० चिरकालं-२२७,२५० चिरनिक्खन्तोति-३८० चीरन्ति-३२५ चुतिचित्तं-६५ चुतिभङ्गवसेन-१०८ चूळकम्मविभङ्गसुत्ते-३५६ चूळगन्धारी-३६१ चूळराहुलोवादसुत्ते - २४२, ३६४ चेतनाकिच्चस्स-३३४ चेतसाति-१२१,१२२ चेतसिकगेलञन्ति-१०९ चेतसिकन्ति-३६२ चेतसिकसुखं-६९,११६ चेतियङ्गणेति-७ चेतेतीति -३३५ चेतोविमुत्ति-१२३ चेतोविमुत्तीति-२९३ चेतोसमाधि-२ चोरबलं-२२
छ
छकामावचरदेवलोकोति-५७ छकामावचरिस्सरो-५८ छड्डितनन्तकानीति-३१३ छत्तमाणवको-१४८ छत्तविमाने-१४८
14
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ज-ठ]
सद्दानुक्कमणिका
जुतीति-६३ जेगुच्छं-३१७
छन्दोका-३७६ छन्नपरिब्बाजकोति-३२४ छम्भितत्तन्ति-११३ छविमंसलोहितानुगतन्ति-११८ छातकेति-७४ छायन्ति-२३९ छायारूपकमत्तन्ति-२३९ छेकोति-११८,३३० छेज्जभेज्जन्ति-१८३ .
झानखोति-२६८ झानङ्गतो-३३३ झानपञ्ज-२५९ झानमयअक्खो-२६८ झानसजाति--३३६ झानसमापत्तिया- २८९ झानसुखं-३३४, ३८० झानानि-२८५,३४७ झानाभिज्ञा-२९१ झानाभिज्ञामग्गफलधम्मतोति-३६१ झायन्तीति-१८९ झायीति-८४
श
जवचारन्ति-३७४ जङ्घविहारवसेनाति-१७७ जनपदिनोति-१७२ जनपदोति-१७२, २४५ जनितो-२२८ जम्बुदीपतले-३८४ जम्बुदीपे-१७८ जयधजन्ति-२९ जलन्ति-१४३ जातकन्ति-१९३ जातरूपेनेवाति-१४ जातसंवड्डोति-३८०,३८१ जातिमरणसंसारो-२५ जातियाति-२७ जातिवादो-२२५ जातिसिद्धन्ति-१८५ जायम्पतिकाति-६५ जिगुच्छतीति-३१७ जिनोति- १२, ३८ जीरापेतुन्ति-२९९ जीवको-१८, १९, २१ जीवा-३५ जीवितन्ति-१६३ जीवितिन्द्रिये-१६५
आणजालं-१७८ आणदस्सनं-१२३, १२४, ३४५ आणन्ति-१३४,२४३ जाणसंवरो-३१० जातपरिञावसेन-३४२ ञातयो-६६ जातिकुलदस्सनं-१५७ जातिब्यसनं-३८० जातिवसेनाति-१५६ आपनन्ति -३५२
ठातुन्ति-३८२ ठानकरणसम्पत्तिया-२४८ ठानन्तरं -६,२६७
15
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१६]]
दीघनिकाये सीलक्वन्धवग्गअभिनवटीका-२
[त-त]
ठितउदकं - २५१ ठितत्ताति-४४ ठितसभावन्ति-३४३ ठितेनाति-१६
तप्पभेदो-१८६ तप्परायणो-१५२,१५५ तम्बपट्टवण्णेनाति-५ तयोअत्तपटिलाभवण्णना-३४६, ३४७, ३४९, ३५१,
३५३
तक्करस्स-१५०, २११, ३६५ तगरसिखी-२७१ तग्गरु-१५२ तङ्घणानुरूपायाति-२६० तच्छन्ति-३४३ तज्जिताति-२७४ तण्डुलभिक्खन्ति-२३४ तण्हाति-२०९ ततियचित्तेन --३५० ततियज्झानसुख-१२१ ततोनिदानं-३२ तदङ्गप्पहानमत्तन्ति-३०९ तदत्थसिद्धीति-२१० तदहो-९ तद्धितवसेनाति-१९२ तद्धितसिद्धीति-२६८ तनु-२४० तनुकखेळोति-८९ तनुसरीरो-१८४ तन्तावुतानीति-१५,३१४ तन्तिधम्म-२९७ तन्निन्नन्ति-१२४,१३५ तपब्रह्मचारीति-३२० तपस्सिनोति -१७ तपस्सी-६४,३०४ तपारम्भाति-३११ तपोकम्मेनाति-३९ तपोजिगुच्छाति-३१७ तपोपक्कमाति-३११
तरुणअम्बरुक्खसण्डेति-३७४ तरुणपीतीति-३४६ तरुणभावो-१७६ तरुणविपस्सनाति-१७६ तसिताति-३०० तळाकं-१८२ ताणन्ति-२२६ तापनगेहं -७ तापसा-२२६, २३२ तायतीति-१८६,२२६ तालवण्टं-१७५ तावकालिकानि-८३ तावर्तिसभवने-१४९, २९९ तिगोचरो-२०५ तिणरुक्खा -३५ तिणसन्थारोति-१०५ तिथियवादो-३१५ तित्थं-१४,२६९ तित्तिरियन्ति-६४ तित्तिरिया-३७६ तिन्दुकचीरो - ३२५ तिबिधारम्मणन्ति-१४२ तिरच्छानगते -३७८ तिरोकुड्डे-२५६ तिलकानि-१३१ तिलकोति-१०३ तिलक्खणसम्पत्तिया-३०८ तिलभेदलक्खणं-७९ तिविधसत्तियोगफलं-२०६ तिविधसीलपारिपूरियं-२८५ तुच्छोति-३४८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[थ-द]
सद्दानुक्कमणिका
____ [१७]
तुट्ठस्साति- ११५, ११६ तुट्ठीति-२६४ तुण्हीभूतन्ति - २३ तुरितचारिकाय - १७६ तुलन्ति-३७५ तेजोति-२२ तेजोधातु-७८ तेभूमकधम्मा-३३२ तेलनाळि-१०० तेलपज्जोतं- १४५ तेविज्जकन्ति-३८० तेविज्जसुत्तन्ति-३७४ तेविज्जाति-३७६ तोदेय्यब्राह्मणो-३५५ तोदेय्यो-३५४
दक्खिणविभङ्गे-२९३ दक्खिणाति-३७८ दण्डकीरो-२२७ दण्डको-९० दण्डेन -३१,३२ दत्ति-२३५, ३१२ दत्तिकन्ति-२३५ दन्तकारो-३० दन्तमयसलाका - २७६ दन्तवक्कलिका-२३३,२३४ दप्पं-६५ दब्बीति-८९, ९०, २३१ दमिळरट्ठन्ति- २९९ दयालुकाति-८८ दसबलजाणं-१९ दसराजधम्म-१६६ दस्सनन्ति-७०,१८९,३६२ दस्सनमप्पधानं-३४५ दस्सनीयोति-२४८ दस्सवो-२६५ दहरायाति-३०६ दळ्हमानसो-३८४ दळ्हीकम्मेति-५० दाठिका -२२४ दानकथापटिस त्तं - १६० दानचित्तं- २७२ दानचेतना-३७८ दानन्ति-३० दानपति-२९० दानसालं- २७५ दानसीलं-२४२ दानसूरो-२६८ दायकचित्तम्पीति - २६९ दायं-१८३ दारुचीरियोति-७७ दारुयन्तस्साति-८५
थण्डिलन्ति-३१४ थद्धगत्तो-२५६ थपति-६७ थावरियं-२०२ थिनमिद्धविगमेन-२८६ थुतिघोसोति-१७ थुसमुट्ठीति-२२७ थूणन्ति -२६३ थूलसरीरोति - २९० थूलानीति-८८ थेरवादानुकूलमेव-३३८ थेरवादे-३३८ थोमेत्वाति-३७५
दक्खतीति-३१० दक्खिणविभङ्गसुत्तपदे -३७८
17
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[१८]
दालिद्दियेनाति - २७६ दासब्यन्ति - ४६ दासिपुत्तवचनेति - २२५ दिट्ठधम्मिकसम्परायिकं - १७०,२६०
दिट्ठधम्मिको - १७० दिट्ठधम्मिकंयेव - १५७
दिट्ठसच्चानन्ति - १५३ दिट्ठसुतमुतविञ्ञतमत्तेन - ३०६ दिट्ठि - १५०, १५४, १८६, ३४१ दिट्ठिगतन्ति - ३४२, ३७०
दिट्ठिजुकम्मन्ति - १५४ दिट्ठिविप्पयुत्तचित्तेन - १५९
दिट्ठिसम्पन्नोति – १५९ दिब्बचक्खुत्राणन्ति - १४१
दिब्बचक्खु - १३२ दिब्बब्रह्म अरियविहारा - ३
दिब्बरूपदस्सनत्थं - २९२
दिब्बविहारो - ३ दिब्बसम्पत्तियो दिब्बसोतञाणं - २९२
- २४२
दिब्बा - ३७१, ३७२
दिब्बो - ३
दिवापधानिकाति - २१२ दीघकालवाचको - २४९
दीघागमे - ११४
दीपकन्ति - १२५ दुकूलं - ८५ दुक्करकम्मविपाकतो - १६९ दुक्खक्खयायाति - २११ दुक्खनिरोधगामिनिपटिपदाति दुक्खनिरोधगामिं - १५८ दुक्खनिरोधोति - १३५ दुक्खवेदना - ११०, ३५६ दुक्खसच्चं - १०९
दुक्खति - ३५०
दुक्ख - १३५, १३६, १५१, १५९, ३४२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-२
- १३५
दुग्गतिपरिकिलेसन्ति - १५१ दुजानाति - २२५
दुतियचेतसा - ३५० दुतियज्झानिकफलसमापत्ति - ३४७ दुतियज्झाने - ३४७
दुतियसिद्धीति - २११
18
दुपरिच्चजा - २८०
दुब्बलाति- ३४७ दुल्लभदरसनं - २०३, २०४ दुल्लभधम्मरतनं - ५१
-
दुस्सपट्टे - २३७ दुयुगन्ति ५ दुसवेणी - २३७ दुस्सीलो - १६४
देय्यधम्मं - २६९ देवकायन्ति - १६०
देवदत्तपरिसं - ६
देवनगरेति - १७९
देवयानियो - ३६६
देविद्धि - ६३
देवेहीति – ५६
देसनाति - ६०, ६१
दोणेनाति - ३९ दोसाभिसन्नन्ति - ५
दोसिना - १२
दोसोति - ३१, १०२, १६५, ३०६ दोहळोति - ६ द्वाहिकं - ३१३
द्विक्खत्तुमत्थदीपका - २३० द्विपाकारपरिक्खित्ते - ३८४ द्विमत्तकालमक्खरं- ६२ द्विलिङ्गिकभावविञ्ञापनत्थं - १२० विभङ्गादिधारणा - ३८५
देवसिकं - १३४, १८४, २६४, २६७, २७४, ३०१
देवाति - ५७ देवानमिन्दो - २०६
[द-द]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ध-न]
ध
धजो - १२ धनक्कीतो - ४६ धनपालन्ति - २२ धनसम्बन्धाभावेन - ११४
धनुग्गहा - २९ धनुपन्तिपरिक्खेपोति -
धन्वाचरिया - २९
धम्मकथा - १९,७३,७४
धम्मक्खन्धा - १४९
धम्मघोसको - १५६ धम्मचक्खुन्ति - २४२
धम्मचक्खुति - १६८
धम्म - २००
धम्मतोति - २७४, ३६१
धम्मदसा - १५०, १५१
-२०
धम्मदायादा - १८३
धम्मदेसनाति - १४४, ३६३, ३६४
धम्मनिद्देसो - १६७
धम्मपीतिसुखं - २७७
धम्मरसं - १७०
धम्मराजाति - २०१
धम्मरुचीति - ५०
धम्मसेनापति - १८
धम्मस्सवनं - २७९,२८०
धम्मस्सामी - ६५
धम्माति - १२,३४८ धम्मानुधम्मपटिपत्ति - ३१९
धम्मारम्मणा - २५४
धम्मिको - २०१
धम्मोति - २७,२८० धरन्तीति - ३५७
धातुसमताति - २१४ धारेतीति - ९०, १४८, १८९, २४७
सद्दानुक्कमणिका
धारेतूति - १६१, १६५ धारेन्तो - ३५
धितङ्गरूपाति - २०७
धितिसद्दो- २०७
धीरङ्गरूपा - २०६, २०७
धुतङ्गनिद्देसे - १०६
धुरसमाधीति - २६८
धुराति - ६ धुवदानानीति - २७५
धुवसीलेन - २४८ धोवतीति - २५८ धोवनं - १२६
न
नक्खत्तन्ति - ११, ११४ नक्खत्तं - ११३ नगरन्ति - २२४
नत्थिकवादा - ४१
नत्ता - ६६, ८४, २५९
नदीतीरेति - ३७४
नप्पसहेय्याति - २२३
नरकपपातन्ति - ३७३
नवलोकुत्तरधम्मेसूति - ३४३
नवलोकुत्तरं - ५८
नवानिसंसाति - २७६ नागवम्मिको - ८७
नागाति - ६३ नाटकित्थियो - २२३
नादिब्रह्मचरियको - ३०२
नानक्खणा - २९५ नानातित्थियाणियसद्देन - ३२८
नानाधातुणं - ८०
नानानाटकानीति - १७३ नानावादोति - ३७५ नामगोत्तन्ति - २१९
19
[१९]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[२०]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
[प-प]
नामपत्ति -१० नासिकग्गेति-१०८ नाळतोति-१८० नाळागिरि-२२ निक्खित्तधुरोति-७४ निखण्डु-१९० निगण्ठा-३७ निगण्ठीनन्ति-१६४ निगण्ठोति-१५ निगमो-२६७ निग्योसोति-५२ निग्रोधो-३२०,३२१ निघण्डूति-१९० निच्चन्ति-१५८ निच्चभत्तानीति-२७५ निच्चसळ-३६२ निच्चोति - १५९, ३०२, ३४१ निच्छरतीति-२२० निट्ठन्ति-२३५ निट्ठाति-१९६, ३४४ निट्ठापेतुन्ति-३२२ निट्ठभनन्ति-७६ निन्नामेत्वाति-२४० निन्नेत्वाति-२४० निबद्धचारिका-१७८ निबद्धदानानीति-२७६ निबन्धित्वाति-६ निब्बत्तसरीरं-३४० निब्बानधम्मो-१५३ निब्बानधातु-६१ निब्बानन्ति-१३४,२४२,३४४,३४५ निब्बानसच्छिकिरियाय - ६१ निब्बानारम्मणं-१५३,१५४ निबिखेपन्ति-१३ निब्बुतस्साति-१९ निमित्तकम्म-१३
निम्मानेति-२१९ नियामोति-३५ निय्यातिताति-२३१ निरामगन्धाति-२३७ निरुज्झतीति-८०,१९३, ३३१, ३३२, ३३३ निरुत्तीति-१९१ निरुपधीनन्ति- ४८ निरोधकथन्ति-३२९ निरोधधम्मन्ति-३६४ निरोधसमापत्ति-३३५ निरोधोति- ३३० निरोधं-३२५,३३०,३३८ निलीनोति-२८९ निलीयतीति-२२६ निल्लेपतायाति -११४ निल्लोपोति-३२ निवारेन्ति-२०९ निसामेहीति-५१ निस्सङ्गो-१०२ निस्सट्ठपरिच्चत्तं-१८४ निस्सरणन्ति-३४ निस्सरणविमुत्ति-३१८ नीलमक्खिका-८८ नीलाभिजाति-३७ नीवरणप्पहानवारे - १३० नेक्खम्मसुखेनाति-११६ नेवसञानासज्ञायतनज्झानं-३३५ नेवसञानासआयतनसमापत्ति-३३४,३३५ न्हानतित्थन्ति-२२४ न्हापिका-३०
पकतञ्जू-११३ पकति-२३, ४९, १६६, १९३, ३१५, ३१६ पकतिन्ति-४४
20
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[२१]]
पकतिमनुस्सधम्मतो-३६१ पकतिविपस्सकानं-३३४ पकतिसीले-२५७ पकप्पेतीति-३३४ पकिण्णकं-१६२ पकुधो-१५ पक्खन्दन्तीति- २९ पक्खाति-२६८ पगुणं- १४९, १५० पगोति-३२६ पच्चक्खधम्मा-२०९ पच्चग्घन्ति-३२६ पच्चयोति-३३१ पच्चवेक्खणाणन्ति-१३६,३३८ पच्चवेखणविधिं-१३८ पच्चागच्छतोति-३४० पच्चासंसरन्तोति-७१ पच्चाहरतीति-७२ पच्चुग्गच्छन्तोति-१७५ पच्चुप्पन्नोति-३४९ पच्चूसकालतोति-४६ पच्चेकबुद्धो-१७०, १७१, २७१, २७२ पच्चेकसम्बुद्धं-२७१ पच्चेका-२० पच्छीति-३१२ पजातत्ताति-५६ पजानातीति --१३५,१३७,१३८ पज्जलतीति-७४ पज्जलितपदीपोति-३६१ पञ्चकामगुणपरिग्गहो-३७९ पञ्चकामगुणिकरागोति-३३२ पञ्चकामावचरदेवेहि-५६ पञ्चङ्गाद्वयङ्गसम्पत्तिया-१७० पञ्चङ्गिकं-२९४ पञ्चपतिट्ठितवन्दनाति-१६ पञ्चपरिवट्टोति-२४
पञ्चमज्झानसमापत्तिं - ३२९ पञ्चवण्णायाति- १९ पञ्चसिखमुण्डकरणं-२६६ पञ्चसीलधम्मेनाति-२०८ पञ्चसीलानि-२५९ पञ्चाभिज्ञालोकियसमापत्तिलाभो-३४ पञ्चालिकाति-८५ पञ्चिन्द्रियानि-३६ पञ्चुपादानखन्धा --१०९ पञत्तीति-१३९ पञवाति-२५ पञाचक्खु-७० पञ्ण न्ति-२५८ पाणवाति-५० पञ्जाबलं-२०५ पञाविमुत्तीति- २९३ पञ्होति-२५८ पटलट्ठो-३७८ पटाको-१२ पटिकिट्ठतरन्ति - १५ पटिकिट्ठोति-३१४ पटिकूलन्ति-१४९ पटिकूलसञ्जी-२६ पटिक्कमन्तियाति - ३७२ पटिजग्गामीति - १८० पटिजानातीति-३१८, ३४०, ३४९ पटिवेदेसीति - १९, १५१, २५२ पटिवेधो-५१ पटिसन्धिं-३००,३८२ पटिहचतीति-२७८ पटिहन्तीति-२७८,२७९ पटिहारियानि -३६३ पट्टण्णं-८५ पठमकप्पिकानन्ति-२२० पठमज्झानब्रह्मलोको -३४५ पठमज्झानसमाधि-२९६
21
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________________
[२२]
दीघनिकाये सीलकखन्धवग्गअभिनवटीका-२
[प-प]
पठमज्झानं-३३३ पठमं झानं–२,११५, २८५, ३०२ पणिपातकम्म-२१७ पणिपातो-१५५, १५६ पणीततराति-३६६ पण्डरतराति -३७ पण्डितोति-३१६ पण्डुपलासिका-२३३, २३४ पण्णन्ति-११४ पतिद्वाति-२७७,३४० पतिट्टितपादो-७८ पत्थटायाति-१२९ पत्थोति-१०७ पथविकायो-४५ पथविपालको-४४ पथवीति-२२७ पदकोति-१९३ पदक्खिणन्ति-१६७ पदसिद्धि-९, १९, २०, ३४, १२१, १९१, २२७,
२३६,२९०,२९४,३१० पदानुपदन्ति-१९ पदीपो-१४६, २४३ पदुट्ठचित्तोति- १५९ पदुमं-१२१, १६४ पदूसितचित्तो-१५९ पद्मबन्धूति-२५४ पधानोति-१७ पन्थदुहा-२६५ पन्नकोति-३८ पपन्तीति-३६८ पब्बजिंसूति-१४ पब्बतन्ति-१०६ पब्बन्ति-७९ पभूसत्ति-२०६ पमाणन्ति–२०,५२,१६२,१७६ पमुखयोनीनन्ति-३६
पयिरुपासतोति-१३ परमगम्भीरं-१३३ परमत्थकथाति-३५० परमत्थदीपनियं-१२५ परमत्थोति-३४ परमविसुद्धं-३१६ परमाणुआदि-३८ परम्परपयोजनदस्सनं-१०७ परिकप्पनासिद्धा-१३९ परिकम्मानीति-२७४ परिक्खारा-२६८,२६९, २७० परिग्गहितत्ताति-२ परिग्गहिताति-११९ परिचारकोति-८,२३२ परिच्चागचेतना-२७१ परिच्चागसीलो-२४२ परिजिण्णो-१८७ परिञाताति-१३९ परिनिब्बानधम्मोति-२९३ परिपक्कजाणा-१७८ परिपक्किन्द्रिये - १७८ परिपुण्णकम्मन्ति-३६ परिपुण्णन्ति-६३ परिष्फोसकन्ति-११८,११९ परिब्बयदानं-२६४ परिब्धमतीति-२०२ परिभिन्दिस्सतीति-२२५ परिभोगतो-३७९ परिभोगपञ्जा-३७९ परिमण्डलपदब्यञ्जनाति-२४८ परिमद्दनधम्मोति - १२४,१२५ परियत्तिधम्मो-६०,६१,१४९ परियत्तिभूतं-२९७ परियादियित्वाति-३८२ परियायोति- १४२ परियेसन्तोति-३६५
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
__ [२३]
परियोदातताति-१२१ परियोनन्धन्तीति-३७९ परिवट्टो-४९ परिवत्तितेति-२२८ परिवितक्कोति-२७० परिसप्पनं-११३ परिसुज्झनन्ति-२५८ परिसुद्धताति-७०, २५२ परिसुद्धन्ति -६५,७०,१२१, २५२ परिस्सन्तकाया-३०० परिस्सया-१०१,२७७, २७९ परिहरन्तोति-३३९ पलिबुद्धोति-३९, १०७, ३६० पलेतीति-३९ पल्लङ्केति-७३ पल्लङ्को-७३, १०७, २१८ पल्लोमोति-२२७ पवत्तपरिवितक्को-३२६ पवत्तफलभोजिनो -२३३ पवत्तानि-९३ पवत्तेन्तो--५८, १४२,२८२,३३५ पवेणीधम्मो-२७ पवेसितो-११४ पसतमत्तन्ति-२६९ पसन्नचित्तो-३५६ पसादाभिवुद्धिया -३१९ पस्सद्धीति-३४७ पस्ससुखं-७५ पहतन्ति-४५ पहातब्बधम्मानं-३०८ पहीनकिलेसपच्चवेक्खणदस्सनं -१३७ पहूतजिव्हाय-२४० पहूतभावन्ति-२३९ पाकटमन्तनन्ति-२३६ पाचरिया-२१४ पाचीनमुखाति-२९०
पाचीनाभिमुखा- २२३ पाटिपददिवसेति - १७६ पाटिहारियन्ति-३६३ पाणवधोति-२७४ पाणाति-३५ पाणिनीब्याकरणचन्द्रव्याकरणादि-१९२ पाणुपेतोति-१६५ पातब्बतन्ति-३०६ पातिमोक्खसंवरसंवुतभावस्स-६६ पातिमोक्खसंवरसंवुतो-२, ६७ पातेसीति-२४१ पापकम्म-२५३ पापधम्मतो-२८० पापधम्मानं-२४३,२८० पापनिज्जरलक्खणं-४५ पापभिक्खु-२२० पाभतन्ति-२२३, २६६ पामोज्जं-११०,१११,११५, ११६, २१३, ३४७ पारगूति-१९० पारन्ति-१८० पारमितानुभावसिद्धिदस्सनं - २५२ पारमियो-१८, २५२ पारमीसम्भरणजाणं-२७ पारिजुलं- १८७, १८८ पारिसज्जा-२६८ पारिसुद्धिविभागञ्च -३२० पावचनन्ति-३८० पासादिको-२४५, २४८, ३१८ पासादो-१०४,१३२ पाहुनकाति-२५५ पाहुनकानन्ति- २२८ पिण्डदायका-२९ पितामहयुगो-२४७ पितुगुणन्ति-८ पित्तरोगातुरो- ११२ पियजातिकाति-३७९
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________________
[२४]
पियजातिकानीति - २९१ पिसाचाति - २२४
पिहितोति - ४७
पीति - ११५, ११६, २१३, ३२७, ३४६, ३४७ पीतिवचनन्ति - १२
पीतिसमुट्ठानवचनं - १२
पीतिसोमनस्सं
पीळनं - ११३, १२४ पीळेत्वाति – ४६ पुग्गलाधिट्ठानधम्मदेसना - १६७ पुच्छाविस्सज्जनन्ति - ३६७
पुञ्ञकम्मं - १६१ पुञ्ञकिरियवत्थु - १५४
पुञ्ञक्खयेन - ३०० पुञ्ञन्ति - ३०, ६३, २८० पुञ्ञफलं - ६३
पुञ्ञवाति - ३०५
२०३, २८५
पुनीति-४७
पुञ्ञ - ४७, १५२, १६३, २४१, २५२, २७७, ३८५ पुण्डरीकन्ति - १२१
पुण्णचन्दसस्सिरिकं - २५४
पुणाति - ११
- १३८
पुण्णोति - ११ पुथुज्जनकल्याणकोपि पुथुलतोति - २५२ पुति - ५८, ३३७ पुप्फन्ति - २४५ पुरिमसञ्ञानिरोधन्ति - ३३७
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
पुरिमसिद्धीति - २१० पुरिसथामो - ३५ पुरिसन्तरगतायाति - ३१२
पुरिसोति - ८२, ११४
पुरेक्खारोति - २५३ पूरणकिरियायोगे - १८२ पूरणमक्खलिआदयो - ३०९ पूविकाति - ३०
पेसाचा - ३८ पेसितचित्तोति - ३२२
पोक्खरणी - १८२
पोक्खरसातीति -- १७९, १८०
पोट्ठपादो - ३२४, ३३८ पोत्थकं - ८७ पोत्थनियन्ति - ६
पोत्थलिका - ८५
पोथुज्जनिकसद्धापटिलाभं - १७०
पोथुनिका - १७०,२४२ पोनोभविका - ११२ पोराणानि - २८४
पोरी - २४९ पंसुपिसाचकादयोति - २५४
फ
फरिस्तीति - ३५७
फलन्ति - ३९, ४०, ९१, १३४, २१०, २४२ फलपच्चवेक्खणञाणन्ति - ३३८
फलसच्छिकिरियाति - ३४२ फलसमापत्ति - ३४७, ३४८
फलसमापत्तिसुखं - ५९ फासुविहरोति - १२३ फीतन्ति - ६४ फुट्ठोति - ४५
फुसतीति – ११८, ३३६
24
व
बन्धनागारिका - ३७
बन्धु - २१५ बलक्कारो - ११५
बलन्ति - ३५, ९७, २६७ बलमत्ताति - १११ बलवरोगो - ३५६
[ फ-ब]
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________________
[भ-भ]
सद्दानुक्कमणिका
[२५]]
ब्रह्मचारी-३२० ब्रह्मजालेति-६८ ब्रह्मा -२५३ ब्रह्मयानसञितो-२६८ ब्रह्मलोकगामिमग्गे-३८० ब्रह्मवच्छसीति-२४८ ब्रह्मविहारा-३ ब्रह्मनाति-५६ ब्रह्म-६३, १९५, २५३ ब्राह्मणतापसाति-२२६ ब्राह्मणन्ति-१८५ ब्राह्मणभावं-२५७ ब्राह्मणसीलं-२५७ ब्राह्मणोति-१९६, ३१५, ३६३
बलवसिनेहाति-२९ बव्हारिज्झा-३७६ बहलखेळोति-८९ बहलन्तरेनाति-२५२ बाराणसिरो -२२३,२८८ बालातपेति-३२७ बाहन्तरन्ति -२५२ बाहुजञ्जन्ति-६४ बाळ्हजिण्णो-१७७ बिम्बिसारोति - २४५ बुद्धकरधम्मपारिपूरितो- ५४ बुद्धगुणा - १८, १५३ बुद्धचक्खु-७० बुद्धञाणं-१७८ बुद्धत्तसिद्धि-२११ बुद्धधम्मोति- १३५ बुद्धपा -३१७ बुद्धभावादि – १९३ बुद्धभूमिन्ति-२७ बुद्धमन्ता-१९३ बुद्धरस्मियो-२९० बुद्धरूपं - २४० बुद्धसीलं-३१७ बुद्धानुभावो-२२, १७८, ३२८ बुद्धोति-१४३, १४७,२८०, ३०१ बोज्झङ्गसंयुत्तेति-२०६ बोधिपक्खियधम्मे-२८५ बोधिमुत्तमं -३८६ बोधिसत्तमातु-२८३,२९० बोधेत्वाति-३५१ ब्यग्घपथेति-२२४ ब्यन्ती-११० ब्याकरणं - १९१, १९२ ब्यापज्झेनाति-३७९ ब्यासेको-७० ब्रह्मचरियन्ति-६४
भगवतोति-१७,१५७, १६६, १७५ भगवन्तरूपो-३१ भगवाति - १७, १८, ५६, ६५, २५२, ३३०, ३३८ भङ्गानुपस्सनतो-१२४ भजन्तीति - २३४ भण्डिकन्ति-३०७ भतकानन्ति-३०० भत्तकिलमथन्ति-७७ भत्तवेतनन्ति-२७४ भदन्तधम्मपालत्थेरेन-३४० भदन्तनागसेनत्थेरेन-२३९,२४० भद्दकन्ति-५१ भद्दकेनाति-२५१ भद्दन्ति -१३ भमुकन्तरन्ति - २५२ भयदस्सनसीलो -६६ भयदस्सीति -६६ भयभेरवसुत्ते - २२७ भयभेरवं-२१
25
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________________
[२६]
दीघनिकाये सीलकावन्धवग्गअभिनवटीका-२
[म - म]
भयाति-२१ भयानकन्ति-२१ भवग्ग-२१४ भवङ्गसाति-३३५ भवत्ताति-२४९ भवरागोति-१४९ भवाति-२४९, ३७१, ३७२ भवोघं-२५ भस्मन्ताति-४१ भायित्वाति-२२ भारतपुराणरामपुराणनरसीहपुराणादिगन्थो - १९२ भारद्वाजोपि-३७५ भारोति-२७,३७१ भिक्खूति-६,३७, १२३, ३३६, ३३८,३६५ भिन्नपतिट्टो-१६८ भिसि-१०४ भीतो -६, २२७ भुक्कारन्ति-३५५ भुजिस्सो-११२ भुस्सतीति-२९९ भूतिकामोति-४४ भूतोति-३२१ भूमिपालो-२२१ भूमि-६५, ११३ भेदनधम्मो-१२५ भोगसुखन्ति-२०६
मग्गफलपच्चवेखणाणानि-३३८ मग्गवीथियं-३३८ मग्गसमुष्पादो-३४२ मग्गसुखं-२८६, ३८० मग्गामग्गाणन्ति-१७६ मग्गोति-१४६, २४२, ३७५, ३८० मघदेवराजा - २२२ मज्जवणिज्जाति-१६३ मज्झिममण्डलन्ति-१७६ मज्झेकल्याणता-६१ मञ्चा-७० मञसीति-२०,२३७ मणिइत्थिगहपतिरतनानि-२०६ मणिका -३६२ मणिदण्डतोमरेति-२० मण्डलन्ति-१७६ मतीति-२३८ मत्त-२०० मदनिद्दन्ति-३३० मदहत्थी-१०१ मद्दन्ताति-७६ मधुकं-१०० मधुपायासन्ति-३५५ मधुरन्ति-२७५,२९१ मधुरायाति - १७० मधुस्सवोति-६३ मधूनन्ति-३५४ मनापा-३७९ मनुस्सधम्मतोति-३६१ मनुस्सलोकोति-५७ मनुस्ससरीरो-२५३ मनुस्ससोभग्यतन्ति-३४ मनुस्साति-३१२ मनोकम्मं -३६ मनोदुच्चरितं-९ मनोद्वारे-८२
मकसेति-२७९ मगधा-२६२ मगधेसूति-२६२ मग्गजाणं-२४३,३३८ मग्गधम्मो-१५३ मग्गपटिपन्नोति-२५० मग्गफलनिब्बानानि-१४९
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________________
[म-म]
सद्दानुक्कमणिका
[२७]
मनोपुब्बङ्गमा -८ मनोमयाणस्स-१४१ मनोमयन्ति-१२८,३४० मनोमयिद्धिया-२८६ मनोमयो-३३९,३४०, ३४१, ३४८,३४९ मनोरथो-७,२२७ मन्ताति-१७९,३७६ मन्तोति-१९५ मरणवसन्ति - २६५ मरीचिकायाति-३८० मसाणानि -३१३ महग्गतकम्म-३८२ महग्गतचित्तन्ति-३०२ महग्गतज्झानानि-३ महग्धं-५,९८, २०४, ३२६ महद्धनोति-२६३ महप्फलतरो-२७५ महप्फलाति-२८६ महाअट्ठकथायं-१२ महाकरुणासमापत्तिं- १७८ महाकस्सपो-१५५ महाखीणासवा-३६४ महागन्धारीति-३६१ महागोविन्दोति-२ महाजानीति-३५७ महाजुतिकन्ति-१६१ महाधम्मराजाधिराजगरुना-१७१,२४४,३८३ महानत्थकरन्ति-११४,११५ महानिरयेति-९ महानिसंसो-२७५ महापधानन्ति-७६ महापपाताति-३९ महापुञो-८४, १७५ महापुरिसलक्खणे-२२ महापूजायाति-७२ महाफुस्सदेवत्थेरो-७६
महामण्डलन्ति - १७६ महामत्ता-२०,२१८ महामत्तो-२४६ महामोग्गल्लानत्थेरेन-१६० महायागन्ति-३३ महायागो --४० महावजिराणन्ति-१३४ महावनं-२८८,२८९ महावायुक्खन्धतो-४० महावीरो-२२१ महासक्कारकिरियं-१७० महासतिपट्ठानसुत्ते- ९४,११४ महासालोति-३६० महासीहनादन्ति-३१६,३२० महोघो-२७६ माणवोति-३५६ मातापेत्तिकन्ति-२१९ मातिकन्ति - २२३ मातुलाति-२२४ मानद्धजं-२१७ मानवादोति-२२९ मानसिकोपि-२३ मानं-६४, ६५, १९८, २२९ मारिसाति-२२ मालागुणेति-३७८ मासको-२६३ मासिकं-२६७ माळोति-१०४ मिगपक्खीनन्ति-२६२ मिगसिङ्गतापसो-३२९ मिछत्तधम्मा--१४६ मिच्छाजीवो-८५, ८६ मिच्छाजाणं-१६१ मिच्छादिट्ठि-१४५, २०९ मिच्छामग्गो-१४६ मिच्छावणिज्जाति-१६३
27
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________________
[२८]
दीघनिकाये सीलकखन्धवग्गअभिनवटीका-२
[य-य]
मिच्छावितक्केन-४२ मिच्छाविमोक्खो-१६४ मिच्छासति-४२ मिच्छासमाधि-४२ मिद्धसुखं -७५ मुखसिपीळका-१३१ मुखदोसोति--१३१ मुखनिमित्तन्ति-१३१ मुखारुळहन्ति-३५५ मुख्यपयोजनं-३६५ मुच्छाकारन्ति - ३७९ मुत्तोति-११३ मुदुकायाति-३०६ मुदुचित्ताति-३१९ मुदुचित्तं- २८६ मुदुभावो-२४० मुदुहदयो-६३ मुद्दिका-३० मुसलकिच्चं -८९ मुसावादो-३३, ३५२ मेघवण्णन्ति-३२५ मेधावीति - २६६ मोक्खमग्गो-१४६ मोक्खोति-३४५ मोग्गल्लानसंयुत्ते-१६० मोहो-२०९ मोळियन्ति-७ मंसचक्खुना–१२८ मंसवणिज्जाति-१६३
यजुवेदसाखा-३७६ यजुवेदिनो- ३७६ यचभत्तेति-२२८ यज्ञानुभवनत्यन्ति - २४६ यावाटोति-२७५ योति-२८४ यट्ठि-९० यथाकथन्ति-२५२ यथाबलं-७६,८०,९७ यथाभुच्चं - १५२,१८५ यथाभूतसभावो-३५१ यथाभूतं-८०, १३५, १३६, १३८, १८५, ३०७,
३१०,३८४ यथालाभं-४१,९७,३०९ यन्तकेनाति-८२,८९ यन्तकं-८९ यन्तं-८५ यमकपाटिहारियदेवोरोहनानि-१६ यमुनोदकन्ति-२४० यससाति-१४३, २६८ यसोति-१४ याचित्वाति-९ यामोति-४५, १४३ युगन्धरपब्बतं-३२५ युगसद्दो-२४७ युगोति - २४७ युत्तयोगो-९९ युद्धमण्डलेति-८२ युवभावप्पत्तानि-२६२ यूथाति--१०१ येनकामो-१०२ योगतो-३६, ६६, १४० योगिनो-१२२, २९६ योगी-२९६
यक्खदासीनन्ति-३३० यक्खिनी-१०६ यक्खो -८,२२५, ३५५ यजु-१९०
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________________
[र-ल]
सद्दानुक्कमणिका
[२९]
रच्छा-१२ रजतबिम्बकन्ति-१८० रजतमयं-६९, १७९ रजतविमानतो-११ रजोजल्लधराति-२३७ रजोजल्लं-३१४ रज्जेनाति-७ रञ्जनतो-१९८ रज्जेतीति-५, २०१ रोति-५, २२३, २७६ रट्ठियपुत्ता -२० रट्ठिया-२० रटुं-२५४ रतनकूट-१४२ रतनत्तयसद्धाय -३६० रतनत्तयं - १५२, १५४, २१९ रतिअन्तरायोति-३१२ रत्तञानि-२८४ रत्तिहानदिवाट्ठानानि-१०४ रथरक्खा -२९ रथिका - १२,२९ रथूपत्थरेति-२३६ रथोति-२६८ रन्धगवेसीति-३५७ रमणीयोति-१४४,३०४ रमेतीति-३२४ रस्मियो - २२, १८६ रहाभावाति-१८,२१० रागदोसमोहानं-५३ रागपधानो-११२ रागविरागो-१४९ रागो - २४, ६५, १३९, १४९, १६८, २०९, ३३२,
३७९
राजगहन्ति -२ राजो -२३६ राजति-२ राजदायन्ति-१८३ राजपूजितोति-१५७ राजलीलायाति-१८३ राजामच्चाति-३१ राजामच्चेहीति-११ रासिकतं-२३६ रुक्खमूलन्ति-१०६ रुचि-१०२,३४१ रूपकलापो-१४२ रूपकायो-११७ रूपज्झानानं -१२२ रूपधम्मा-७९,८० रूपधम्मानमभावतोति-१३३ रूपन्ति-२०७ रूपवेदनादयो-३४८ रूपसम्पत्तिं-३०९ रूपादिधम्मानं-३४८ रूपारूपधम्माति-७९ रूपावचरचतुत्थज्झानसमापत्तिं - ३२९ रूपावचरचतुत्यज्झानं-३ रूपावचरारूपावचरब्रह्मना-५६ रोगब्यसनं-३८० रोगवूपसमनभावं - ९९ रोगो - २२३, ३५६, ३८०
ल
लक्खञा-१२ लक्खणन्ति-१८१,१९३ लक्खणानीति-१९६ लग्गितुं-३८२ लज्जिस्सतीति-३५७ लद्धघरमेवाति-३३५
29
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________________
[३०]
लद्धसद्धानन्ति - १८८ लबुजन्ति - ३३
लभनसीलो - १२२
लहुककम्मं - ३८२
हुकाति- २१७ लाभी - १२२ लामकभावो - २४२
लिखित्वाति - ३१३
लिच्छवि - २९७
लिच्छवीति - २९०
लुच्चननाति - १०८ लूखाकाराति - ३५१ लेणत्थन्ति - २७८,२७९
लेणं - १०४, १५२ लोक थूपिकाति - ३४४ लोकधम्मतानुस्सरणेन - २४६
लोकधम्मानं
- ३१९
लोकन्ति - ५३, ५६ लोकसिद्धवादो - ३१५
लोकायतं - १९३
लोकियधम्मे - ३४ लोकियसीलम्पि - ३१६
लोकियाभिञ्ञानं - १२७ लोकुत्तरकुसलस्सपि - २६०
लोकुत्तरधम्मे - ३४
लोकुत्तरधम्मं - १७० लोकुत्तरसमापत्तीहि - ३३४
लोकुत्तरसीलं - ३१६
लोकुत्तराभिज्ञाय - १२७ लोकोति - ३१, १०८, १०९ लोभसहगतमत्तं - ८२ लोमसायाति - ३०६ लोहकुम्भियन्ति - १६९ लोहिच्चोति - ३७०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
व
वचीसुचरितञ्च - २९६ वच्छतरसतानीति - २६२
वञ्चितो - १४२, ३४१
वञ्चेत्वा - ३८०
वञ्झाति -४४
वटरुक्खन्ति - ३००
वड्डियाति - २३३
वढेति –
- २६६ वणिब्बकाति - २६९
वण्णसम्पत्तिन्ति - १२६ वण्णसम्पत्तिं - १२६, ३२५
वण्णेनाति - १४३, २४८
वण्णोति - ३०, २५७
वतियाति - ३७०
वत्थगुहं - २३९ वत्थिकोसेनाति - २३९
वत्थिकोसो - ३५
वत्तमानकालिकेन - १४८ वधकचित्तेन - १५९
वनपत्थोति - १०७
वनपब्भारन्ति - १०१
वम्मिकानन्ति - ३५४
वयन्तोति - ३६८
वयो - १९४ वरकल्याणो - २२१
वरगन्धहत्थिनो - २३९
वसनवनन्ति - २
वसभो - ३१८ वसवत्तिदेवराजस्सेव - ५८ वसवत्तीति - ५८ वाक्यपरियायो - ३१ वाचासिलिट्ठतामत्तं - ३३४ वाचितं - २३६
30
[ व व]
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________________
[ व व]
वादोति - २२९, ३७५ वामोरुं - १०७ वायुवेगसमुप्पीळितातिवायोकसिणपरिकम्मं- ३२९
- ९२
वायोधातु - ७८,९०
वालाति - २३८
वालिका
– १५
वासनाभागिया - २६०
वाळमिगानि - २७७
विकप्पो - १९० विकारमापज्जनेन - १०९
विक्खित्तचित्तो - २७८
विक्खेपं - ७६ विगतसम्मोहो - २९७
विग्गहो - ५६, ३७५
विघातन्ति - २५६ विचक्खणोति - ४४, २६६ विचरित्वा - ७५, १७७ विचिकिच्छाति - २४३
विजातितायाति - ६४
विजितावी- १७०, १७१ विजितं - ३३, २६३, २६७
विजेतीति – २०२ विज्जन्ति - २२६ विज्जमानगुणेहीति - २६० विज्जमानं - १४१, २३० विज्जाचरणपरिदीपनी - २२९ विज्जाचरणसम्पत्तियं - २३०
विज्जाचरणसम्पदाति - २५०
विज्जाचरणसम्पन्नोति - २२९
विज्जाबलेन - २२७
विज्जामयिद्धिसम्पन्ना - २०
विज्जासम्पत्तिया - २४६
विज्जु - १२१ विञ्ञत्तिन्ति - ७८, ८१ विञ्ञाणन्ति - १२५, १२६
सद्दानुक्कमणिका
विञ्ञू - २८४ वितक्कविचारपीतिसुखोपेक्खानंवितक्कविचारा- ३६२ वितक्को - २९६
वितण्डवादा - १९३
वितण्डो - १९३
वित्थायितत्तं - ३८१
विदन्तीति - ९ विदितधम्मोति -- २४३
विदेहरञोति - ९ विद्वंसनधम्मोति - १२५
विधुनन्ताति - १०२
विनयो - १६६, ३४२
विनेय्यदम्मकुसलस्स - ३५१ विपत्तीति - १६२, १६३, १६४ विपरिणामधम्मोति - २५८
31
विपरीतकिच्चं - ६
विपस्सना - ६१, १३३, २८५ विपस्सनाकाले - ८१
विपस्सनाचारो - १३४ विपस्सनाचित्तपरिदमनादीनं- ३३४ विपस्सनाचित्तमेव - १२५
- २९५
विपस्सनाचित्तुष्पादपरियापन्ना - १२६ विपस्सनाञाणन्ति - १२६, १४१
विपस्सनाञाणसम्पयुत्तं - १२६
विपस्सनालाभी- १२६
विपस्सनावसाना - २७९ विपस्सनाविञ्ञाणन्ति - १२६ विपस्सनासम्पयुत्तानं - २६८
विपस्सनाञाणे - २८६
विपस्सनात्राणं- १२३, १२६, १२७, १३३, १४१
विपस्सनापञ्ञाति - ३१७
विपस्सनापादकन्ति - १३३
विपस्सनापुब्बका - ३४७ विपस्सनामग्गवसेन - ३३८ विपस्सनायं - १२४
[३१]
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________________
[३२]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
[व-व]
विपस्सनासुखं - १२८ विपाकन्ति-४१ विपाकफलं-१५८, १५९, ३५५ विपाकोति-४० विप्पटिसारविनोदना-२६३ विप्पसन्नचित्तस्स-२७८ विप्पसन्नरहदमिवाति-२३ विब्भमतीति-११२ विभज्जवाद-३०५ विभत्तिविपरिणामता-१४४ विभावितोति-८४,९६,१२९ वियाकरोहीति-२७ विरतिचेतना-२९५ विरागो-१४८ विरुळ्हधम्मा-३५ विरूपरूपन्ति-२२६ विरेचेत्वाति-५ विलम्बितं-२४९ विलासो-३४६ विवटच्छदो-२०९ विवट्टच्छदाति-२०९, २११ विवठूत्वाति-२०९ विवट्टो-२०९,२१० विवाहो-२२४ विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसाय - ३३३ विवेकजपीतिसुखानीति-३३२ विवेकजेहीति-३३३ विवेकट्ठकायानन्ति-४८ विवेकसुखन्ति-५९ विसभागवेदनाति-३५६ विसवणिज्जाति-१६३ विसाखपुण्णमितो-३५४ विसाखाति-६१ विसुद्धिपच्चयन्ति-३४ विसुद्धिपवारणन्ति-७६ विसोसेतीति-९०
विस्सज्जनामग्गो - २४० विस्सत्थन्ति-१९ विस्सासिकभावं-२९० विहरतीति – ४, १५०, १७३, १७९, ३०४, ३१५,
३५९ विहारदानफलं-२७९ विहारदानेन-२७८ विहारदानं-२७७, २७८ विहिंससञी-१४९ वीतच्चितेहीति-७ वीतमलं-३६४ वीतिहरणन्ति-७८ वीथि-१२ वीरङ्गन्ति -२०७ वीरियबलं-३५, २०५ वीरियसंवरोति -३१० वुट्ठिन्ति- १२० वुत्थवस्सो-१७७ वुत्तवादी-३२९, ३३० वुद्धसीलेनाति-२४८ वुद्धि-१६६, १६७, २६२ वुद्धं-२४८ वूपसमोति -३४४ वेठकेहीति-२३७ वेदको-३४२ वेदङ्गानि-१९१ वेदनाक्खन्धञ्च - ४३ वेदनाति - ८३, १०७ वेदनापरिग्गहमत्तम्पीति-२५८ वेदयतीति-११६, २५८ वेदवाचकब्राह्मणलिङ्गेनेव-१९६ वेदवादिनो-३३९, ३४० वेदानन्ति-१९२ वेदेनाति-९ वेदोति-१९५ वेधनं-१२६
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________________
[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[३३]
वेनेय्यसत्ताति-१७७ वेरज्जानि-२४६ वेरमणिन्ति-२८१,२८२ वेरमणियोति-१६३ वेरमणीति - २८० वेसारज्जप्पत्ति-२४३ वेसारज्जानीति-३१८ वेसालीति-२८८ वेळुरियोति-१२५ वोहारकुसलो - २६६ वोहारो-८,११, ३४९ वंसानि- २८४
सकदागामिनो-१६० सकदागामिमग्गो-१४८ सकम्मनिरतोति-२०२ सकसञ्जा-३३४ सक्खराति-१४० सक्या-२२०,२२४ सग्ग-२७२ सङ्घतधम्मारम्मणन्ति-२४३ सङ्खधमको-३८१ सङ्खलिखितं-६५, ६६ सङ्खा-३४९ सङ्खारन्ति-१५९ सङ्केपो-८८, १३९ सङ्घट्ट -११ सङ्घोति-१५२, २८० सचम्मिकाति-२९ सचीवरभत्तेनाति-५ सच्चन्ति-३५२ सच्चपटिवेधो-१३६ सच्चसम्पटिवेधो-३५० सच्छिकतनिरोधेति-१४८
सच्छिकातब्बधम्मा-२९२ सछन्दचारिनो-२३२ सजालिकाति-२९ सज्जावुधोति-११५ सञ्चुण्णेतीति-९० सञ्जग्गन्ति-३३७ साति-३३३, ३४१, ३४२ सञानिरोधं-३२५,३३७ सञआपटिलाभं-३२९ सञआवेदनासीसेन -३३६ सञ्जावेदयितनिरोधन्ति-३३६ सण्ठपेसीति-३२७ सतपत्तन्ति-१२१ सतिमाति-२५ सतिं- १०८ सतीति-१५२, १६८, ३०७,३७६ सतोति-५३ सत्थवणिज्जाति-१६३ सत्थुपटिञातो-१३ सत्तवणिज्जाति-१६३ सत्तहिंसनमिवाति-१५१ सत्ताति-१९६ सत्तु -५ सदिसफलं-४० सदेवमनुस्सन्ति-५७,५९ सदोसानि-३६४ सद्दकण्टकत्ता-१०३ सद्धन्ति-६५,२२८ सद्धम्मविमुखो - १४५ सद्धापटिलाभो-१५४ सद्धामूलिकाति-१५४ सद्धासम्मादिट्ठीनं-१५४ सनङ्कुमारभासितं - २२९ सन्तकभावतो- २७४ सन्तरबाहिरा-११९ सन्तासन्ति-२१,१५१
33
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________________
[३४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
[स-स]
सन्तासो-१२८ सन्तिकावचरभावो- १४७ सन्दच्छायन्ति-१०६ सन्दिट्टिकं -३०,३३, ५२,१२८ सन्दिटुं-२४९ सन्धि-३२,७९ सन्धीति-७९ सन्नितोदकं-३४३ सन्निद्ध-२४९ सन्निरुज्झनं-७९ सन्निरोधो-७९ सपति-१३९, २७४ सपत्तभारो-१०२ सप्पायसम्पजनं-७१ सप्पुरिसोति-१४ सब्बअरियसाधारणभावदस्सनत्थं -३११ सब्बकलापारिपूरिया-११ सब्ब तं-३१८ सब्ब बुद्धं -३३० सब्बञ्जूति-३५६ सब्बतोपभं-३६८ सब्बत्थकं-११९ सब्बधम्मकुसलो-२७ सब्बधम्मविदू-२७ सब्बवारिधुतोति-४५ सब्बवारिफुटोति-४५ सब्बवारियुत्तोति-४५ सब्बवारिवारितो-४५ सब्बसंकिलेसविप्पयुत्तं-२४२ सब्बसंयोगे-३६४ सब्बाभिआनं-१२३, १२७ सब्यजनो-५१ सभागो- ९७ सभावधम्म-१४९ सभावनिरुत्तिया-३६ समणभण्डनन्ति-३१
समथविपस्सना-१७६,३४६ समथविपस्सनातरुणभावतो-१७७ समथविपस्सनाधम्मेन - १६८ समथविपस्सनुप्पादनम्पि-७१ समधिगतं- २९२ समनुपस्सतीति -६८, ६९, ३०१ समन्तचक्-२११ समन्ततोति-१०७ समन्तभावो-१०७ समभरिताति-३७७ समवेपाकिनियाति-२४७ समसमन्ति-३१७ समसमो-२५७ समादानविरति-२८०, २८१ समाधानलक्खणोति-२९५ समाधिकोन्तन्ति-१७९ समाधिक्खन्धोति -३५९ समाधिभावना-२९२ समानयीति-२३८ समानाति-२१७ समारम्भोति-२७६ समासोति-१६५,२९४ समाहारन्ति-३५४ समितपापत्ताति-१८५ समिताति-१८५ समिद्धतन्ति- ११४ समिद्धाति-३६० समुग्घाटको-२९६ समुच्छेदपटिप्पस्सद्धिविमुत्तियो-३१७,३१८ समुट्ठानरूपधम्मेहि-८ समुत्तेजेत्वाति-२६० सम्पजज्ञजातिका- २७२ सम्पजञन्ति-७१ सम्पजअपरिग्गहणं-७२ सम्पजअपरियायता-७१ सम्पज न-७१,९५
34
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________________
[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[३५]
सम्पजानकारिनो-३३६ सम्पजानकारीति-७१,९४ सम्पजानकारो-७१ सम्पजाननं-७१ सम्पजानातीति-११० सम्पजानोति-२६,११० सम्पजानं-७१,८३ सम्पटिच्छनं-२२६ सम्पत्तविरति-२८०,२८१ सम्पयुत्तचित्तो-७५ सम्पयुत्तधम्मा-२९५ सम्पयोगन्ति-३७२ सम्पहंसनेति-५० सम्पहंसेत्वाति-२६० सम्पापकन्ति-१३५ सम्बुको-१४० सम्बुद्धपरिनिब्बाना-३८५ सम्बोधिं-१७० सम्भवकुमारो-२७ सम्मत्तधम्मा-१४६ सम्मसति-१२८,२८६ सम्मसनाणं-१७६ सम्माआजीवं - २९७ सम्माकम्मन्तो-२९४ सम्मादस्सनलक्खणाति-२९४ सम्मादिट्ठि-१५४,२९६, ३३१ सम्मादिट्ठीति-१५४ सम्मासङ्कप्पो-२९६,३३२ सम्मासमाधि-२९५ सम्मासम्बुद्धो -६५, १५२, १५४, २१०, ३७२ सम्मासम्बोधिं-१८,३४ सम्मुखावट्टनी-२३५ सम्मुट्ठन्ति-३१ सम्मुतिधम्मो-३५० सम्मोदनियं-३१,२१३ सम्मोदनीयं -३१,३५७
सम्मोदितन्ति-२१३ सयम्भुञाणभूता-- १३३ सयंजातन्ति-२८८ सरपरित्ताणं-२९ सरसो-१३५ सरावमत्तन्ति-२६९ सरीरपरिकम्मन्ति -७३ सरीसपेति-२७९ सल्लहुकवुत्ति-१०१ सल्लापो-२२,२४०,३७१ सल्लीनोति-२८९ सवडिकं-११४ सस्सतोति-३३९ सहधम्मिकोति-२२५ सहधम्मो-२२५ सहब्यताति-३७५ सहितचित्तो-६९ सहिताति-१०१ सहोत्तप्पाणं-२१ साचरियकोति- २३५, २३७ साणानि-३१३ सास्थकसम्पजञवसेन- ७२ सात्थकसम्पजङ-७१,८७ सात्यकं-७१,७२,१९५,३०५ साधयमानन्ति-८२ साधुकन्ति--५१,५२ साधुरूपाति-२७ सानन्ति-३७९ सापतेय्यं -२७५ सामञफलं-३०, ३३, ५०,१२८ सामं-३०,१९०,२८० सारणीयं-३१, २१४ सावकबोधिं- १७१ सावकविपत्तिया-३०९ सावज्जोति-१६१ सावत्थियन्ति-३२४,३५४
35
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________________
[३६]
दीघनिकाये सीलकखन्धवग्गअभिनवटीका-२
[स-स]
सासनधम्मोति-६० सासनरसन्ति -११२ साहसिकाति-२१७ सितमत्तम्पीति-१७३ सिद्धाति-१३७ सिद्धोति-३,३२, १४८,३८० सिनेहेतीति-९० सिप्पूपजीविनो-२८ सिलेसोपीति -३१३ सिवेय्यक-५ सिसिरेति -२७९ सिस्सभावूपगमनं -१५५ सीतन्ति-१२०,२७८ सीलन्ति-६७, १६२, २३०, २४८, ३१६ सीलपञआणन्ति-२५९ सीलपरिसुद्धाति-२५८ सीलवा-२५८, ३४३ सीलवाति-२५ सीलसमाधिविपस्सना-६१ सीलसमाधिविपस्सनातिआदिना-६० सीलसमाधिविपस्सनासङ्घातानं - ६१ सीलसम्पदाति-१६४ सीलूपसमेनाति-२३ सीहनादन्ति-३१० सुकारणन्ति-३२८ सुकिच्चकारी-७ सुक्कपक्खन्ति-३१ सुखन्ति-१२२,१८८ सुखपटिसंवेदना-११६ सुखविपाकद्वेन-२५२ सुखवेदनाय-११० सुखितन्ति-३० सुखुमा-३३२ सुखोति-३०,१५९, ३४७ सुगतोति-३३० सुचरितधम्मे-५०
सुचिण्णं-६३ सुञोति-३५० सुतमयाणं-३३९ सुदुङ्गाति-१०६ सुधामट्ठपोक्खरणियोति-२५१ सुपण्णोति -१६ सुपरिसुद्धो-२९७, ३०९, ३१० सुप्पतिहितचित्तो-४६ सुप्पतिट्टितोति-२५ सुभकिण्हा-३४५ सुभोति-१२५ सुभं-३५४, ३५५, ३८५ सुरापातिन्ति-३३० सुरापानमेवाति-३१२ सुवट्टिताति-१८० सुवण्णचुण्णपिञ्जरो-१८० सुवण्णसत्थकेनाति-६ सुविभत्तन्ति-१५० सुविसुद्धन्ति-७० सूरन्ति-२१ सूरभावं-२११ सूरा-२०६ सूरियरंसिं-४० सेट्ठमन्तेति-२२७ सेणियोति-२० सेतपरिक्खारोति-२६८ सेतीति-१०४ सेतुघातविरति - २८०,२८१ सेतं-१२०,१२१, २१२, २२६ सेनासनन्ति-१०५ सेनियोति-२०, २४५ सेलमयपत्तन्ति-३२६ सेसझानम्पि-३३७ सोतविज्ञाणेन -३७८ सोतापत्तिफले -३०१, ३६४ सोतापत्तिमग्गो-१४८
36
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________________
[ह-ह]
सद्दानुक्कमणिका
[३७]]
सोतिन्द्रियविक्खपवारणं-५१ सोधेस्सामीति-२२७,२३८ सोमनस्सन्ति -११०,१११ सोम्मोति-३७७ सोवग्गिका-३० सोवीरकन्ति-३१२ सोळससहस्सं-१९३ संकित्ति-३१२ संकिलेसपच्चयन्ति -३४ संकिलेसविसुद्धीसु-३५ संकिलेसं - २४२ संयोजनानं-५३ संयोजेन्तीति -२९३ संवरतोति-६८ संवेगन्ति-२१ संसीदित्वाति -३८० संहतोति-१५०
हत्थिसारी-३४३ हदयङ्गमतो-१४५ हदयमंसं-२४० हदयं - २९९ हम्मियं-१०४ हितानुकम्पी-३११ हिरिकरणं-२३९ हिरी-२३९ हिरोत्तप्पदीपनत्थं -३५२ हिंसतीति-५, १५१,१५२ हिंसादिपापधम्म-२८४ हीनधातुको-३८ हीनवाचको-३१३ हीळेन्तोति-२१७ हेतुकिरिया - ११८ हेतुदस्सनं-१३० होमकरणतो-२५६ होमकरणवसेनाति-२३३
हञिस्सतीति-६ हट्टतुट्ठोति-५२ हतत्ताति-१८ हतभावदीपनतो-२११ हत्थकुक्कुच्चं - २३ हत्थमुद्दा-३० हत्थसद्दो-३० हत्थाचरिया-२९ हत्थारोहा-२८ हत्थिकायोति-४५ हत्थिगणतो - १०१ हत्थिघटाति-२० हत्थिनागं-१२८ हत्थिनिकासतानीति-१९ हत्थिमेण्डा-२९ हत्थिवेज्जा-२९
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________________
अ
अकणं असं सुद्धं - १११ अञ्ञम्पि तेन पुञ्ञेन - ३८६ अट्ठक्खरा एकपदं - १९३ अत्थन्तरदस्सनम्हि - १२७ अनावरणदस्सावी - २७
अनिच्चा सब्बे सङ्घारा - १५९, ३५० अनेकसेतिभिन्दो यो - ३८४
अन्नं पानं खादनीयं - ९१
अम्बो च सित्तो समणो च न्हापितो- १६३
असङ्ख्येय्यानि नामानि - ३७८
असमाने सद्दे तिधा - १३१
असोकाराम आरामे - ३८५
आ
आगुं न करोति किञ्चि लोके - ३६४ आदिच्चकुलसम्भूतो - २२०
आदिच्चा नाम गोत्तेन - १८६, २१७ आरभित्वान अमतं - २८२
इति सोण्णविहारेसु - ३८५ इमे च पाणिनो सब्बे - ३८६
गाथानुक्कमणिका
उ
उत्तरस्मिं पदे ब्यग्घ-पुङ्गवोसभकुञ्जर- ३१० उद्धम्मं उब्बिनयञ्च - ३८४
ए
एकधम्मं अतीतस्स - ३३ एकायनं जातिखयन्तदस्सी - ३११ एते च सङ्गहा नास्सु - १९८ एते संवरविनया - २३२
क
कप्पो व्याकरणं जोति-सत्थं सिक्खा निरुत्ति च - १९१ कालं दीपञ्च देसञ्च - २०४
39
ख
खणवत्थुपरित्तत्ता - २५४
ग
गमिस्स एककम्मत्ता - १४७
गुणो पलसानिससे कोट्ठासबन्धने - ३७८ गो गोणे चेन्द्रिये भुम्यं - १८६
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[४०]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-२
[च-म]
चित्तीकतं महग्घञ्च -२०३ चुल्लासीति सहस्सानि-३७
ददेय्य उजुभूतेसु - २७८ दानञ्च पेय्यवज्जञ्च-१९८ दीपप्पसादको थेरो-८४ दुन्नामकञ्च अरिसं-१०३
जम्बुदीपतले रम्मे-३८४
नक्खत्तेन सहोदय-मत्थं याति सूरमन्ति-११ नवकोटिसहस्सानि-२३२ न पच्छतो न पुरतो-२३ निच्चपवत्ति समीपो-५५
आणाभिवंसधम्मसेनापतीति सुविख्यातो-३८५
ठपिता येन मरियादा-२२०
पठमाभिसित्तो राजा-२२१ पठमं सदं सोतेन-३५० पतिरूपे वसे देसे-१९९ पभावुस्साहमन्तानं-२०५ पमार्ण एकमत्तस्स-६२ पेटकालङ्कारव्हयं-३८५
ब्यञ्जनञ्चेव अत्थो च-३८३
ततो वातातपो घोरो-२७७ तत्राभिसेकपत्तो सो-३८४ तथा च उपराजेन-३८५ तथा दक्खिणदेविया - ३८५ तथेवुत्तरदेविया-३८५ तस्मा गमनीयत्थस्स-१४७ तस्मा वोहरकुसलस्स-३५२ तस्स पुत्तो मघदेवो-२२१ तस्स पुत्तो महातेजो - २२१ तस्स पुत्तो महावीरो-२२१ तस्स पुत्तो रोजो नाम - २२१ तस्स सूनु महातेजो-२२१ तस्सासि कल्याणगुणो-२२१ तेनेव कारिते रम्मे-३८४ तेसं पच्छिमको राजा-२२१
मग्गं फलञ्च निब्बानं-३३९ मण्डलाचलसामन्तं -३८४ मनुजस्स सदा सतीमतो-१८४ मनोपुब्बङ्गमा धम्मा-८ मन्धाता सत्तमो तेसं-२२१
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[य-स]
गाथानुक्कमणिका
[४१]
महापुओ महाथूपं- ८४ महामुनिसमा या-३८४ महासम्मतराजस्स-१८७, २२२ मिद्धी यदा होति महग्घसो च-१८३
सदा रक्खन्तु राजानो-३८६ सद्धम्मे पाटवत्थाय-३८४ सन्ति पुत्ता विदेहानं-१७३ सबलादीसु भिन्नेसु-१९७ सब्बपापस्स अकरणं -६० सम्पस्सतं सुधीमतं - ३८३ सम्बुद्धपरिनिब्बाना-३८५ साकरुक्खपटिच्छन्नं-२२४ साधु धम्मरुचि राजा - १८८ साधुविलासिनी नाम-३८४ सीतं उण्हं पटिहन्ति - २७७ सुवण्णं रजतं मुत्ता-२६४
यतो यतो सम्मसति- १२८, २८६ यसस्सिनं तेजस्सिनं-२२० यस्मा च सङ्गहा एते - १९८ यावता चन्दिमसूरिया-२०२ यो चक्खुभूतो लोकस्स - २२० यो च बुद्धञ्च धम्मञ्च-१५८ यं निस्साय विसोधेसि-३८५
रथने लक्खणे धम्मो-रचक्के स्विरियापथे-२०० रथो सेतपरिक्खारो-२६८ रोजो च वररोजो च-२२२
लङ्कादीपागतानम्पि-३८५
वण्णागमो वण्णविपरियायो-१९१ वत्तब्बस्सावसिट्ठस्स-१३१ वरो नाम महातेजो-२२१ विहारदानं सङ्घस्स-२७७ विहारे कारये रम्मे-२७७
से
सट्ठिवस्ससहस्सानि-१६९
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May the merits and virtues earned by the donors and selfless workers of Vipassana Research Institute, Igatpuri
be shared by all beings.
May all those who come in contact with
the Buddha Dhamma through this meritorious deed put the Dhamma into practice and attain the best
fruits of the Dhamma.
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DEDICATION OF MERIT ******0%BN****$*»="MINGO*****
May the merit and virtue
accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above,
and relieve the suffering of those on the three paths below.
May those who see or hear of these efforts
generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma,
and finally be reborn together in
the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA
Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan RO.C. Tel: 886-2-23951198 , Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw
Printed in Taiwan 1998, 1200 copies
IN046-2011
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Jain Education Interational
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________________ OF THE ON Printed Ike Corporate Social e Sua Essonel Foundation 114.com, 55 Hang Chow Sath Roeri Sess pei, Taiwen, BOO This Sortis for Pro us fr m east to to sale 1998, 1200 comes INO46-2011