Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 21 Sooryapragyapti Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आज नमो नमो निम्मलदसणस्स 23 पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः ॥ नमो निम्मलदसणस्स भाग सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि 21 आगम १६ "सूर्यप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति: मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब ___ अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D.. श्रुतमहर्षि। पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा Ja MARATHE BOBO ~ 2 ~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म लान आजम आप नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता M | ASTHAN पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/9825306275 ~3~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਸਵਾਸ ਤਰਕ ਹ ਹਾਲ ਗਲ ਕਰ ਲੈਗਸ਼ । मायागम हाला काय वाचना शताब्दी वर्ष ~4~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-२१] श्री सूर्यप्रज्ञप्ति (उपांगसूत्रम्-१६) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्तिः ]' [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ पर सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि' श्रेणि भाग-२१ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम दण-प्रोजेक्ट': ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | . सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... . -.. -.. -.. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। *मुनि दीपरत्नसागर... -.. -.. -.. -.. -.. ~7~ . . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। - मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १०८+१०३ सूर्यप्रज्ञप्ति (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: २१४ मूलांक: | विषय: | पृष्ठांक | | मूलांक: | विषय: पष्ठाका ०११ १७५ ३११ ३१३ ०१६ ०२२ ०४२ ३१५ | ०२६ ।। ३१६ ०४१ ०५१ ०५७ ३५६ ३५९ ४०४ ४१३ ४७७ ००१ | प्राभूतं- ०१ अरिहंत वंदना, समवसरणादि ००२ | गौतम-वर्णनं एवं कथनं ००३ | प्राभूतानां संख्यादि निर्देश: ०१८ | प्राभूतप्राभूत-१ ०२२ प्राभृतप्राभृत- २ ०२४ प्राभूतप्राभूत- ३ ०२५ | प्राभृतप्राभृत- ४ ०२६ | प्राभूतप्राभूत-५ ०२८ प्राभृतप्राभृत-६ ०२९ | प्राभूतप्राभूत-७ ०३० | प्राभृतप्राभृत-८ ०३१ | प्राभूतं- ०२ ०३१ प्राभूतप्राभृत-१ ०३२ | प्राभूतप्राभूत- २ ०३३ | प्राभूतप्राभूत- ३ ०३४ | प्राभूत- ०३ ०३५ | प्राभूतं- ०४ ०३६ | प्राभूतं- ०५ ०३७ प्राभूतं- ०६ ०६७ ०७२ ०८१ | पृष्ठांक: | मूलांक: विषय: प्राभूतं- ...१० वर्तते १७७ ०७० | प्राभूतप्राभूत- १७ १९४ ०७१ प्राभूतप्राभूत- १८ २०८ प्राभूतप्राभूत- १९ ०७५ प्राभूतप्राभूत- २० २१० ०८६ प्राभृतप्राभृत- २१ २१७ ०८७ प्राभूतप्राभूत- २२ २१९ ०९८ | प्राभृतं- ११ २३१ ०९९ | प्राभृतं- १२ २३२ प्राभूतं- १३ २६६ प्राभूतं- १४ | प्राभृतं- १५ २७० | प्राभूतं- १६ રાકર प्राभृतं- १७ २८३ ११७ | प्राभूतं- १८ । ३०० १२९ । | प्राभूतं- १९ ३०२ | प्राभृतं- २० ३०३ २०८ उपसंहार-गाथा २१२ सूत्रदाने पात्रता २१३ । | वीर-वंदना १०७ ०३८ प्राभतं-०७ ०३९ । प्राभूतं- ०८ ०४० | प्राभूतं- ०९ ०४२ | प्राभूतं- १०.... ०४२ | प्राभूतप्राभूत- १ ०४३ | प्राभूतप्राभूत-२ ०४५ प्राभूतप्राभृत- ३ ०४६ | प्राभूतप्राभूत-४ ०४७ प्राभूतप्राभूत-५ ०४८ प्राभृतप्राभृत-६ ०५० प्राभूतप्राभूत-७ ०५१ | प्राभृतप्राभृत-८ ૦ર | प्राभूतप्राभूत-९ प्राभूतप्राभृत- १० ०५४ प्राभूतप्राभूत- ११ ०५६ प्राभूतप्राभूत- १२ ०५७ | प्राभूतप्राभूत-१३ ०६१ | प्राभूतप्राभूत- १४ ०६८ | प्राभूतप्राभूत- १५ ०६९ | प्राभूतप्राभूत- १६ ११० ४९७ ०८३ २६८ ४९९ ५२१ ५२३ ५२५ ०९९ ०९९ १०६ ११० १३५ १४३ १४५ १९४ ५८० ६०१ | १६७ ०| ६०३ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: । ~9~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['सूर्यप्रज्ञप्ति' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रम्" के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई , इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई , जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया , मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा , और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमदसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों?आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया , जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी , ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम , फिर प्राभृत, प्राभृतप्राभृत और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए , ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा प्राभृत , प्राभृतप्राभृत एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ |||| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक प्राभृत, प्राभृतप्राभृत और मूल लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है |अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-२१ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | ......मुनि दीपरत्नसागर. ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: SESABSE ॥ अहम् ॥ श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं । श्रीमत् सूर्यप्रज्ञस्याख्यमुपाङ्गम् । womesasran यथास्थितं जगत्सर्वमीक्षते यः प्रतिक्षणम् । श्रीवीराय नमस्तस्मै, भास्वते परमात्मने ॥१॥ श्रुतकेवलिनः सर्वे, विजयन्तां तमश्छिदः । येषां पुरो विभान्ति स्म, खद्योता इव तीथिकाः ॥२॥ जयति जिनवचनमनुपममज्ञानतमःसमूहरविबिम्बम् । शिवसुखफलकल्पतरूं प्रमाणनयभङ्गगमबहुलम् ॥३॥ सूर्यप्रज्ञप्तिमहं गुरूपदेशानुसारतः किश्चित् । विवृणोमि यथाशक्ति स्पष्टं स्वपरोपकाराय ॥४॥ अस्या नियुक्तिरभूत् पूर्व श्रीभद्रबाहुसूरिकृता । कलिदोषात साऽनेश व्याचक्षे केवलं सूत्रम् ॥ ५॥ तत्र यस्यां नगर्यो यस्मिन्नुद्याने यथा भगवान् गौतमस्वामी भगवतखिलोकीपतेः श्रीमन्महावीरस्यान्ते सूर्यवक्तव्यता पृष्टवान् यथा च तस्मै भगवान् व्यागृणाति स्म तथोपदिदर्शयिषुः प्रथमतो नगर्युद्यानाभिधानपुरस्सरं सकलवक्तव्यतोपक्षेपं वक्तुकाम इदमाह नमः श्रीवीतरागाय ॥ नमो अरिहंताणं॥ तेणं कालेणं तेणं समए णं मिथिला नाम नयरी होत्था रित्थिमियसमिद्धा पमुइतजणजाणवया जाव पासादीया एक(४),(तीसेणं मिहिलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे JABEducatun inematuna Heathe. अत्र प्रथमं प्राभूतं आरब्धं ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रस्तावना. तिवृत्तिः (मल.) दिसिभाए एस्थणं माणिभदेणामं चेहए होत्था वपणओ)। तीसे णं मिहिलाए जितसत्तू राया, धारिणी देवी, (वण्णओ, तेणं कालेणं तेणं समए णं तमि माणिभद्दे चेहए)सामी समोसदे,परिसा निग्गता, धम्मो कहितो. (पडिगया परिसा) जाच राजा जामेव दिसिं पादुन्भूए तामेव दिसि पडिगते (सूत्र १) 'तेणं काले णमित्यादि, त इति प्राकृतशैलीवशात् तस्मिन्निति द्रष्टव्यं, अस्यायमों-यदा भगवान् विहरति स्म तस्मिन् | णमिति वाक्यालङ्कारे दृष्टश्चान्यत्रापि शंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थे यथा 'इमा णं पुढवी' इत्यादाविति, काले अधिकृतावसर्पिणीचतुर्धभागरूपे, अत्रापि णंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, 'ते णं समए णं'ति समयोऽवसरवाची, तथा च लोके | वक्तारो-नाचाप्येतस्य वक्तव्यस्थ समयो वर्तते, किमुक्तं भवति -नाद्याप्येतस्य वक्तव्यस्थावसरो वर्तत इति, तस्मिन् | समये भगवान् प्रस्तुतां सूर्यवक्तव्यतामचकथत् , तस्मिन् समये मिथिला नाम नगरी अभवत् , नन्विदानीमपि सा नगरी | वर्तते ततः कथमुक्तमभवदिति, उच्यते, वक्ष्यमाणवर्णकग्रन्थोक्तविभूतिसमन्विता तदैवाभवत् न तु प्रन्थविधानकाले, एतदपि कथमवसेयमिति चेत् 1, उच्यते, अयं कालोऽवसर्पिणी, अवसर्पिण्यां च प्रतिक्षणं शुभा भावा हानिमुपगच्छन्ति, पतच सुप्रतीतं जिनप्रवचनवेदिनां, अतोऽभवदित्युच्यमानं न विरोधभाक्, सम्प्रति अस्या नगर्या वर्णकमाह"रिस्थिमियसमिन्हा पमुइयजणजाणवया पासाईया क'इति, ऋद्धा:-भवनैः पौरजनैश्वातीव वृद्धिमुपगता 'ऋधू वृद्धा'विति वचनात् स्तिमिता-स्वचक्रपरचक्रतस्करडमरादिसमुत्थभयकल्लोलमालाविवर्जिता समृद्धा-धनधान्यादिविभूतियुक्ता, ततः पदत्रयस्यापि कर्मधारयः, तथा 'पमुइयजणजाणवय'त्ति प्रमुदिताः-प्रमोदवन्तः प्रमोदहेतुवस्तूनां तत्र SAEXSXSA5%-5 - सूत्रस्य प्रस्तावना, नगरी-वर्णन ~ 12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सद्भावाजना-नगरीवास्तव्या लोका जानपदा-जनपदभवास्तत्र प्रयोजनवशादायाताः सन्तो यत्र सा प्रमुदितजनजानपदा, यावच्छन्देनीपपातिकग्रन्थप्रतिपादितः समस्तोऽपि वर्णकः 'आइन्नजणसमूहा(मणुस्सा) इत्यादिको द्रष्टव्यः, (सू.१)स च अन्धगौरवभयान लिख्यते, केवलं तत एवापपातिकादवसेयः, कियान द्रष्टव्य इत्याह-पासाईया एक' इति अत्र कशब्दोपादानात् प्रासादीया इत्यनेन पदेन सह पदचतुष्टयस्य सूचा कृता, तानि च पदान्यमूनि-प्रासादीया दर्शनीया अभि| रूपा प्रतिरूपा, तत्र प्रासादेषु भवा प्रासादीया प्रासादबहुला इत्यर्थः, अत एव दर्शनीया-द्रष्ट योग्या, प्रासादानामतिरमणीयत्वात् , तथा अभिमुखमतीवोक्तरूपं रूपं-आकारो यस्याः सा अभिरूपा प्रतिविशिष्ट-असाधारणं रूपं-आकारो यस्याः सा प्रतिरूपा, 'तीसेणं मिहिलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरछिमे दिसीभाए एत्थ णं माणिभद्दे नाम चेइए होत्था वण्णओं' इति तस्या मिथिलानगर्या बहिर्य औसरपौरस्त्यः-उत्तरपूर्वारूपो दिग्विभाग ईशानकोण इत्यर्थः, एकारोल मागधभाषानुरोधतः प्रथमैकवचनप्रभवः,यथा कयरे आगच्छइ दित्तरूबे (उत्त०१२-६)इत्यादौ,'अत्र' अस्मिन् औत्तरपौरस्त्ये दिग्विभागे माणिभद्रमिति नाम चैत्यमभवत्, चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यं, तच्च संज्ञाशब्दत्वाद्देवताप्रतिविम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं यद्देवताया गृहं तदप्युपचाराचैत्यं, तच्चेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं, नतु भगवतामहतामायतनमिति वण्णओ'त्ति तस्यापि चैत्यस्य वर्णको वक्तव्यः, स चौपपातिकग्रन्थादवसेयः (सू.२)। तीसेणं मिहिलाए'इत्यादि, तस्या ४ाच मिथिलायां नगर्यो जितशत्रु म राजा, तस्य देवी-समस्तान्तःपुरप्रधाना भार्या सकलगुणधारणाद् धारिणीनाम्नी देवी, 'वण्णओ'त्ति तस्य राज्ञः तस्याश्च देव्या औपपातिकग्रन्थोको वर्णकोऽभिधातव्यः, (सू.७) ते णं काले णं तेणं समए अनुक्रम ॐॐॐॐ सूत्रस्य प्रस्तावना, माणिभद्रचैत्यस्य वर्णनं ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१] प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥२॥ सूर्यप्रज्ञ- तंमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, पडिगया परिसा' तस्मिन् काले तस्मिन् समये तस्मिन् प्रस्तावना. तिवृत्तिः २ माणिभद्रे चैत्ये 'सामी समोसढे 'त्ति स्वामी जगद्गुरुर्भगवान् श्रीमहावीरो अर्हन् सर्वज्ञः सर्वदर्शी सप्तहस्तप्रमाणशरी( मल० ) रोच्छ्रयः समचतुरस्रसंस्थानो वज्रर्षभनाराचसंहननः कज्जलप्रतिम कालिमोपेतस्निग्धकुञ्चितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्धजः उत्तप्ततपनीयाभिरामकेशान्त केश भूमिरातपत्राकारोत्तमाङ्गसन्निवेशः परिपूर्णशशाङ्कमण्डलादप्यधिकतरवदनशोभः पद्मोत्पलसुरभिगन्धनिःश्वासो वदन त्रिभागप्रमाणकम्बूपमचारुकन्धरः सिंहशार्दूलवत्परिपूर्णविपुलस्कन्धप्रदेशो महापुरकपाटपृथुलवक्षःस्थलाभोगो यथास्थितलक्षणोपेतः श्रीवृक्षपरिघोपमप्रलम्बबाहुयुगलो रविशशिचक्र सौवस्तिकादिप्रशस्त लक्षणोपेतपाणितलः सुजातपार्श्वे झषोदरः सूर्यकरस्पर्शसञ्जातविकोशपद्मोपमनाभिमण्डलः सिंहवत्संवर्त्तितकटीप्रदेशो निगूढजानुः कुरुविन्दवृत्तजङ्घायुगलः सुप्रतिष्ठितकूर्म्मचारुचरणतल प्रदेशः अनाश्रवो निर्ममः छिन्नश्रोता निरुपलेपोऽपगत| प्रेमरागद्वेषश्चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतो देवोपनीतेषु नवसु कनककमलेषु पादन्यासं कुर्वनाकाशगतेन धर्म्मचक्रेण आकाशगतेन छत्रेण आकाशगताभ्यां चामराभ्यामाकाशगतेनातिस्वच्छस्फटिकविशेषमयेन सपादपीठेन सिंहासनेन पुरतो देवैः प्रकृध्यमाणेन २ धर्म्मध्वजेन चतुर्दशभिः श्रमणसहस्रैः पटूत्रिंशत्सरायिकासहस्रैः परिवृतो यथास्वकल्पं सुखेन विहरन् यथारूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा चाऽऽत्मानं भावयन् समवसृतः समवसरणवर्णनं च भगवत औपपातिकग्रन्थादवसेयं (सू. १० यावत् ३३) 'परिसा निग्गय'त्ति मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो लोकः समस्तोऽपि भगवन्तमागतं श्रुत्वा भगवद्वन्दनार्थ स्वस्मादाश्रयाद्विनिर्गत इत्यर्थः, तन्निर्गमश्चैवम्- 'तए णं मिहिलाए नयरीए सिंघाडगतियच उच्चञ्चरचउम्मुहमहापहेसु सूत्रस्य प्रस्तावना, भगवत् महावीरस्य वर्णनं For Parts Only ~14~ ॥ २ ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], ------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कर बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासेइ एवं पन्नवेइ एवं परूबेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे। आइगरे जाव सबन्नू सबदरिसी आगासगएणं छत्तेणं जाव सुहंसुहेर्ण विहरमाणे इह आगए इह समागए इह समोसढे इहेच मिहिलाए नयरीए वहिआ माणिभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता अरिहा जिणे केबली समणगणपरिबुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ,तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया!तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपजुवासणयाए , तं सेयं खलु एगस्सवि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अहस्सगणयाए ?,तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पजुवासेमो, एयं णो इहभवे परभवे य हियाए सुहाए| खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तएण मिहिलाएनयरीए वहवे उग्गा भोगा' इत्याद्यौपपातिकग्रन्थोक्त(सू.२७) सर्वमवसेयं यावत्समस्ताऽपि राजप्रभृतिका पर्षत् पर्युपासीना तिष्ठति । 'धम्मो कहिओ'त्ति तस्याः पर्षदः पुरतो निःशेपजनभाषानुयायिन्या अर्द्धमागधभाषया धर्म उपदिष्टः, स चैवम्-'अस्थि लोए अस्थि जीवा अस्थि अजीवा' इत्यादि, तथा-"जई जीवा वझंति मुच्चती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करिंति केई अपडिबद्धा ॥१॥ अट्टनियट्टियअचित्ता जह जीवा सागरं भवमुर्विति । जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्विति ॥ २॥'तहा आइक्खइ'त्ति या जीवा बध्यन्ते मुच्यन्ते यथा च संक्लिश्यन्ते । यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केचिदप्रतिबद्धाः॥॥ मार्शनियत्रितचिता यथा जीवाः सागरं । ४ भवं (दुखसागर) उपयान्ति । यथा च परिहीमकर्माणः सिद्धाः सिबाळयमुपयान्ति ॥२॥ अनुक्रम ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [3] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [१] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल०) ॥ ३ ॥ 'जाब राजा जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए' इति, अत्र यावच्छन्दादिदमीपपातिकमन्थोक्तं द्रष्टव्यं - 'तए णं सा महइमहालिया परिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हडतुडा समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आंयाहिणपयाहिणं करेइ करिता बंदर नर्मसह वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी- सुयक्खाए णं भंते ! निम्गंथे पावयणे, नत्थि य केइ अने समणे वा माहणे वा परिसं धम्ममा इक्खिसए, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउथ्भूया तामेव दिसं पडिगया, तए णं से जियसत्तू राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सुच्चा निसम्म हडतुडे जाव हयहि* यए समणं भगवं महावीरं बंदर नर्मसह वंदित्ता नर्मसित्ता पसिणाई पुच्छइ पुच्छित्ता अट्ठाई परियाएइ परिवाइत्ता * उठाए उडाइ उठाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव एरिसं धम्ममा इक्खित्तए, एवं वइत्ता हत्थि दुरूहइ दुरूहित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियाओ माणिभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए' (सू. ३५० ३६-३७) इति इदं च सकलमपि सुगमं, नवरं यामेव दिशमवलम्ब्य किमुक्तं भवति ? यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः -- समवसरणे समागतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । २ * समणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती णामे (मं) अणगारे गोतमे गोणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसहनारायसंघयणे जाव एवं बयासी (सूत्रं २ ) "ते काले णं तेणं समए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामे अणगारे गोयमे Eucation International For Parts Use One ~16~ प्रस्तावना. ॥ ३ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: CANADACCASCARSAAROCKS गोसेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बनरिसहमारायसंघयणे जाव एवं वयासी' इति, तस्मिन् काले तस्मिन् समये, अंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठ इति प्रथमः, अन्तेवासी शिष्यः, अनेनपदद्वयेन तस्य सकलसहाधिपतित्वमावेदयति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः, नामति प्राकृतत्वात् विभक्तिप-IA रिणामेन नाम्नेति द्रष्टव्यं, अन्तेवासी च किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यात् अतस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थमाह-'अनगार न विद्यते अगार-गृहमस्येत्यनगार!, अयं च विगीतगोत्रोऽपि स्यादत आह-गौतमो गोत्रेण गौतमायगोत्रसमन्वित | इत्यर्थः, अयं च तरकालोचितदेहपरिमाणापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादत आह-सप्तोत्सेधः' सप्तहस्तप्रमाणशरीरोउड़ायः, अयं चेत्थंभूतो लक्षणहीनोऽपि सम्भाब्येत अतस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह-समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता' समा:-शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाधिसंवादिन्यश्चतम्रोऽनयो यस्य तत्समचतुरस्त्रं, अम्रयस्त्विह चतुर्दिगविभागोपलक्षिताः शरीरावयवा द्रष्टव्याः, अन्ये वाहुः-समा-अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यनयो यत्र तत्समचतुरस्त्रं, अश्रयश्च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य | जानुनोरन्तरं १ आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं २ दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरं ३ वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तर ४ मिति, अपरे स्वाहुः-विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरनं, तच्च तत्संस्थानं च २ संस्थान-आकारस्तेन |संस्थितो-व्यवस्थितो यः स तथा, अयं च हीनसंहननोऽपि केनचित्सम्भाव्येत तत आह-बजरिसहनारायसंघयणे नाराचं-उभयतो मर्कटवन्धः ऋषभः-तदुपरिवेष्टनपट्टः कीलिका अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, 'एवं जाव वयासी' इति, यावच्छन्दोपादानादिदमनुक्कमप्यवसेयं-कणगपुलगनिषसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे For P OW इन्द्रभूतिगौतमस्य वर्णनं ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [2] दीप अनुक्रम [२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [२] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञमहातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलते उसे चउदसपुवी चडनाणोवगए शिवृत्तिः सक्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ महावीररस अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरे झाणकोडोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं ( मल० ) * भावेमाणे विहरइ, तए णं से भयवं गोयमे जायसढे जायसंसए जायको उहले उप्पन्नसढे उप्पन्नसंसद उप्पन्नको उहले समुप्पण्णसद्धे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नको उहले उडाए उडेर उडाए उहित्ता जेणेव समणे भगवं महाचीरे तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, आयाहिणपयाहिणं करिता वंदइ नर्मसद् वंदित्ता नर्मसित्ता णच्चासने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नर्मसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासेमाणे एवं वयासी, | अस्यायमर्थ:- कनकस्य- सुवर्णस्य यः पुलको -लवस्तस्य यो निकष:-- (कप) पट्टके रेखारूपः, तथा पद्मग्रहणेन पद्मकेसर राण्युच्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात् यथा देवदत्तस्य हस्ताग्ररूपोऽप्यवयवो देवदत्तः, तथा च देवदत्तस्य हस्तायं स्पृष्ट्वा लोको वदति-देवदत्तो मया स्पृष्ट इति, ततः कनकेषु (कस्य) पुलकनिकपवत्पद्म केसरवच यो गौरः स कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, अथवा कनकस्य यः पुलको द्रुतत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो-वर्णः तत्सदृशः कनकपुलकनिकषः, तथा पद्मवत् पद्मकेसर इव यो गौरः स पद्मगौरः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः समासः, अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि शोत अत आह'उग्गतवे' उग्गं- अप्रधृष्यं तपः-अनशनादि यस्य स तथा, यदन्येन प्राकृतेन पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि मनसा तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीर्घं - जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहन दहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्म्मध्यानादि यस्य स तथा, 'तत्ततवेति तप्तं तपो येन स तप्ततपाः, एवं हि तेन तपस्तप्तं येन सर्वाण्यप्यशुभानि कर्माणि भस्मसा ॥ ४ ॥ Education Internationa For Pasta Use Only ~18~ प्रस्तावना. ॥ ४५ war Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: कृतानीति, महत्-प्रशस्तमाशंसादोपरहितत्वात्तपो यस्य स महातपाः, तथा 'उराले'त्ति उदारः-प्रधानः अथवा ओरालो-४ भीष्मः, उग्रादिविशेषणतः पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः, तथा घोरो-निष॑णः परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविना शनमधिकृत्य निर्दय इत्यर्थः, तथा घोरा-अन्यैर्दुरनुचरा गुणा-ज्ञानादयो यस्य स तथा, तथा घोरस्तपोभिस्तपस्वी, 'घोरसबभचेरवासित्ति घोरं-दारुणं अल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वात् ब्रह्मचर्य यत्तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, उच्छूढं-उज्झितं उज्झि-४ तमिव उज्झितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स उच्छूढशरीरः, 'सखित्तविउलतेउलेसे'त्ति संक्षिप्ता-शरीरान्तर्गतत्वेन हस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेष-17 ४ प्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, 'चउदसपुषि'त्ति चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव रचितत्वात् , असौ चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह-चउनाणोवगए' मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानरूपज्ञानचतुष्टयसमन्वित इत्यर्थः, उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति, चतुर्दशपूर्वविदामपि पदस्थानपतितत्वेन श्रवणादत आह-'सर्वाक्षरसन्निपाती' अक्षराणां सन्निपाता:-संयोगाः सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयानि स तथा, किमुक्तं भवति ?-या काचित् जगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा सम्भवति ताः सर्वा अपि आनातीति, एवंगुणविशिष्टो भगवान् विनयराशिरिव साक्षादितिकृत्वा शिष्याचारत्वाच्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते विहरतीति योगः, तत्र दूर-विप्रकृष्टं सामन्त-सन्निकृष्टं तत्प्रतिषेधा|ददूरसामन्त, तत्र नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत आह-'उहुंजाणु'त्ति अा जानुनी CASSEMBER ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रस्तावना सूयमज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) བྷྱཱ ཀྱ ཀྵ ཟླ ॥५ ॥ ACCSCANNAR यस्यासौ ऊर्ध्वजानुः, शुद्धपधिच्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्यायास्तदानीमभावाच उत्कटुकासन इत्यर्थी, अधःशिरा नोधै तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरिति भावः, 'झाणकोट्टोवगए'त्ति ध्यान-धर्म्य शुक् वा तदेव कोष्ठ:-कुशूलो धानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतो, यथा हि कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्तमविप्रसृतं भवति, एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्तःकरणवृत्तिरित्यर्थः, 'संयमेन पञ्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन तपसा' अनशनादिना, चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थों लुप्तो द्रष्टव्यः, संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थ, प्राधान्यं च संयमस्य |नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जराहेतुत्वेन, तथाहि-अभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच जायते सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, ततो भवति संयमतपसोर्मोक्षं प्रति प्राधान्यमिति, 'अप्पाणं भावेमाणे विहरई' इति आत्मानं भावयन्-वासयन् तिष्ठतीत्यर्थः, 'ततो णं से इति ततो-ध्यानकोष्ठोपगतविहरणादनन्तरं, णमिति वाक्यालङ्कारार्थः, 'स' भगवान् गौतमो 'जायस?' इत्यादि जातश्रद्धादिविशेषणः सन् उत्तिष्ठतीति योगः, तत्र जाताप्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वज्ञान प्रति यस्यासी जातश्रद्धः, तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयो । नामानवधारितार्थ ज्ञानं, स चैवं भगवतः-इह सूर्यादिवक्तव्यता अन्यथा, अन्यथा च तीर्थान्तरीयरुपदिश्यते, ततः किं| तत्त्वमिति संशयः, तथा 'जायकुऊहल्ले त्ति जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहलः जातीत्सुक्य इत्यर्थः, यथा कथमेनां | सूर्यवक्तव्यतां भगवान् प्रज्ञापष्यितीति, तथा 'उप्पन्नसहे'त्ति उत्पन्ना-प्रागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासी उत्पन्नश्रद्धः, अथ जातश्रद्धः इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इत्यभिधीयते ,प्रवृत्तबद्धत्वेनोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात्, न धनुत्पन्ना । ॥५ ॥ ~20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------प्राभृतप्राभूत -, -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रद्धा प्रवर्तत इति, अत्रोच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थ, तथाहि-कथं प्रवृत्तश्रद्धः', उच्यते यत उत्पन्नश्रद्ध' इति, हेतुत्वप्रदर्शनं चोपपन्नं, तस्य काव्यालङ्कारत्वात् , यथा 'प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरी'मित्यत्र यद्यपि प्रवृत्तदीपत्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमवगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीप्तत्वादेहेतुतयोपन्यस्तमिति समीचीनं, 'उप्पन्नसहे उप्पन्नसंसए''उप्पन्नकोउहल्ले' इति प्राग्वत् , तथा संजायसहे'इत्यादि पदषद प्राग्वत् ,नवरमिह सम्शब्दः प्रकर्षादिवचनो वेदितव्यः, तत 'उडाए उढेई' इति उत्थानमुत्था ऊर्व-वर्त्तनं तया उत्तिष्ठति, इह 'उठूई' इत्युक्त क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयते यथा वक्तुमुत्तिष्ठते ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुत्थयेत्युक्तम्, 'जेणे'त्यादि प्राकृतशैलीवशादव्ययत्वाच्च येनेति यस्मिन्नित्यर्थे द्रष्टव्यं, यस्मिन् दिग्भागे श्रमणो भगवान् महावीरो वर्तते 'तेणेच'त्ति तस्मिन् दिग्भागे उपागच्छति, इह वर्तमानकालनिर्देशस्तरकालापेक्षया उपागमनक्रियाया वर्तमानत्वात्, परमार्थतस्तूपागतवानिति द्रष्टव्य, उपागम्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं कर्मतापन्नं विकृत्वः-त्रीन् बारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, आदक्षिणात्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः-परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणः तं करोति, कृत्वा धन्दते-स्तौति नमस्यति-कायेन प्रणमिति, वन्दित्वा नमस्थित्वा च 'न'नैव अत्यासन्नोऽतिनिकटः अवग्रहपरिहारात् अथवा नात्यासन्नस्थाने वर्तमान इति: गम्यं, तथा 'न' नैवातिदूरोऽतिविप्रकृष्टोऽनौचित्यपरिहारात्, अधवा नातिदूरे स्थाने 'सुस्मूसमाणे त्ति भगवद्वचनानि |श्रोतुमिच्छन्, 'अभिमुहे ति अभि-भगवन्तं प्रति मुखमस्येत्यभिमुखः 'विणयेण'त्ति विनयेन हेतुना 'पंजलियडे'त्ति प्रकृष्टः-प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन अञ्जलिः हस्तन्यासविशेषः कृतो-विहितो येन स प्राञ्जलिकृतः, भार्योढादेराकृतिग-18 ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: R सूर्यप्रज्ञ- तिवत्तिः (मल.) २०मामृताथोधिकाराः णतया कृतशब्दस्य परनिपातः, 'पजुवासेमाणे इति पर्युपासीन:-सेवमानः, अनेन विशेषणकदम्बकेन श्रवणविधिरुप- दर्शितः, उक्तं च-"निदाविगहापरिवजिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुर्व उवउत्तेहिं सुणेयवं ॥१॥" इति, 'एवं वदासि'त्ति एवं-पक्ष्यमाणेन प्रकारेण सूर्यादिवतव्यताविषयं प्रश्नमवादीत्-उक्तवान्, कथमुक्तवानिति शिष्यस्य प्रश्नावकाशमाशक्षा प्रथमतो विंशती प्राभूतेषु यद्वक्तव्यं तदुपक्षिपन् गाथापञ्चकमाह&ा का मंडलाइ बच्चा १ तिरिच्छा किं च गच्छद २ ओभासइ केवइयं ३ सेयाइ किं ते संठिई ४॥१॥ कहिं पडिहया लेसा ५, कहिं ते ओयसंठिई ६। के सूरियं वरयते ७, कहं ते उदयसंठिई ८॥२॥ कह कट्ठा पोरिसीच्छाया ९, जोगे किंते व आहिए १० किं ते संवच्छरेणादी ११, कह संबच्छराइय १२॥ ३॥ कह। चंदमसो बुढी १३, कया ते दोसिणा बह १४ । के सिग्घगई वुत्ते १५, कह दोसिणलक्षणं ॥४॥चयणोववाय १७ उच्चत्ते १८, सूरिया कह आहिया १९ । अणुभावे के व संवुत्ते २०, एवमेयाई वीसई॥५॥ (सूत्रं ३) प्रथमे प्राभृते सूर्यो वर्षमध्ये कति मण्डलान्येकवारं कति वा मण्डलानि द्विकृत्वो ब्रजतीत्येतन्निरूपणीयं, किमुक्त भवति ?-एवं गौतमेन प्रश्ने कृते तदनन्तरं सर्व तद्विषयं निर्वचनं प्रथमे प्राभूते वक्तव्यमिति । एवं सर्वत्रापि भावनीयं ।। द्वितीये प्राभृते 'किं' कथं वाशब्दः सर्वप्राभृतवक्तव्यतापेक्षया समुच्चये तिर्यग्नजतीति २, तृतीये चन्द्रः सूर्यो वा कियक्षेत्रमवभासयति-प्रकाशयतीति ३, चतुर्थे श्वेतताया-प्रकाशस्य 'कि' कथं 'ते' तव मते संस्थितिः-व्यवस्थेति ४, पश्चमे परिवर्तितनिनाविकधैर्गुतैः कृतप्राञ्जलिभिः । भक्तिबहुमानपूर्वमुपयुक्तः श्रोतव्यं ॥१॥ ACCOCOCCASESCANCS २०-प्राभूतस्य नामानि एवं तस्य विषय-वर्णनं ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [३] + गाथा:(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-५|| कस्मिन् सूर्यस्य प्रतिहता लेश्येति ५, षष्ठे 'कथं केन प्रकारेण किं सर्वकालमेकरूपावस्थायितया उत्ताग्यथा ओजस:-प्रका| शस्य संस्थिति:-अवस्थानमिति ६, सक्षमे के पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति-सूर्यलेश्यासंसृष्टा भवन्तीति ७, अष्टमे 'कथा केन प्रकारेण भगवन् ! 'ते', तव मतेन सूर्यस्योदयसंस्थितिः८, नवमे कतिकाष्ठा-किंप्रमाणा पौरुषीच्छाया ९, दशमे योग इति वस्तु कि 'ते' त्वया भगवताऽऽख्यातमिति १०, एकादशे कस्ते-तव मतेन संवत्सराणामादिरिति ११, द्वादशे कति संवत्सरा इति १२, त्रयोदशे 'क' केन प्रकारेण चन्द्रमसो वृद्धि:-वृद्धिप्रतिभासः, उपलक्षणमेतत्तेन वृयवृद्धि-14 प्रतिभास इत्यर्थः १३, चतुर्दशे 'कदा कस्मिन् काले 'ते तब मतेन चन्द्रमसो ज्योत्स्ना बहु-प्रभूतेति, १४, पञ्चदशे | कश्चन्द्रादीनां मध्ये शीघ्रगतिरुक्त इति १५, पोडशे किं ज्योत्स्नालक्षणमिति वक्तव्यं १५, सप्तदशे चन्द्रादीनां च्यवनमुपपातश्च स्वमतपरमतापेक्षया वक्तव्यः १७, अष्टादशे चन्द्रादीनां समतलाभागादूर्वमुच्चरव-यावति प्रदेशे व्यवस्थि| तत्वं तत्स्वमतपरमतापेक्षया प्रतिपाद्य १८, एकोनविंशतितमे कति सूर्या जम्बूद्वीपादावाख्याता इत्यभिधेयं १९, विंश-| तितमे कोऽनुभावश्चन्द्रादीनामिति २० । एवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण एतानि अनन्तरोदितार्थाधिकारोपेतानि विंशतिः प्राभृतान्यस्यां सूर्यप्रज्ञप्तौ वक्तव्यानि, अथ प्राभृतमिति कः शब्दार्थः, उच्यते, इह प्राभृतं नाम लोकप्रसिद्धं यदभीष्टाय देशकालोचितं दुर्लभ वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते, प्रकर्षणासमन्ताद् भ्रियते-पोष्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुपस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तेः, 'कृहुल'मिति वचनाच्च करणे कप्रत्ययः, विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभाः परिणामसुन्दराश्चाभीष्टेभ्यो-विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येनोपनीयन्ते, ततः प्राभृतानीव | दीप अनुक्रम [३-७] ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [3] + ॥१-५॥ दीप अनुक्रम [3-b] प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [३] + गाथा: (१-५) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ- प्राभृतानि, प्राभृतेषु चान्तरगतानि प्राभृतप्राभृतानि, तदेवमुक्ता विंशतेरपि प्राभृतानामर्थाधिकाराः । सम्प्रति प्रथमे सिवृत्तिः * प्राभृते यान्यपान्तरालवर्त्तीभ्यष्टौ प्राभृतप्राभृतानि तेषामर्थाधिकारान् उपदिदिक्षुराह-( मल० ४ || 6 || “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) होही मुताण १ मदमंडलसंठिई २ । के ते चिनं परियरह ३ अंतरं किं चरंति य ४ ॥ ६ ॥ उग्गाहर केवइयं ५, केवतियं च विकंपड़ ६ । मंडलाण य संठाणे ७, विक्खंभो ८ अट्ठ पाहुया ॥ ७ | (सूत्रं ४) छप्पंच य सत्तेव य अट्ठ तिनि य हवंति पडिवती । पढमस्स पाहुडस्स हवंति एयाउ पडिवसी ॥ ८ ॥ सूत्रं ५) पडिबत्तीओ उदए, तह अस्थमणेसु य। भियवाए कण्णकला, मुहसाण गतीति य ॥ ९ ॥ निक्खममाणे सिग्धगई पविसंते मंदगईइ य । चुलसीइस पुरिसाणं, तेसिं च पडिवत्तीओ ॥ १० ॥ उदयम्मि अट्ट भणिया भेदग्धाए दुबे य पडिवशी । चत्तारि मुहुत्तगईए हुंति तइयंमि पडिवन्ती ॥ ११ ॥ सूत्रं ६) आवलिय १ मुहत्तग्गे २, एवं भागा य ३ जोगस्सा ४ । कुलाई ५ पुन्नमासी ६ य, सन्निवाए७य संठिई ८ ॥ १२ ॥ तार (थ) गं च ९ नेता य १०, चंदमग्गत्ति ११ यावरे । देवताण य अज्झयणे १२, मुहसाणं नामया इस १३ ।। १३ ।। दिवसा राइ वृत्ता य १४, तिहि १५ गोत्ता १६ भोयणाणि १७ य । आइथवार १८ मासा १९ य, पंच संवछरा इस २० | १४ || जोइसस्स य दाराई २१, नक्खन्तविजए विय २२ । दसमे पाहुडे एए, बावीसं पाहुडपाडा ॥ १५ ॥ ( सूत्रं ७ ) प्रथमस्य प्राभृतस्य सत्के प्रथमे प्राभृतप्राभृते मुहूर्त्तानां दिवसरात्रिगतानां वृद्ध्यपवृद्धी वक्तव्ये १, द्वितीयेऽर्द्धमण्ड Education Internation प्राभृतप्राभृतस्य विषयाधिकारः वर्ण्यते For Parts Only ~ 24~ १ प्राभृते १ प्राभूतप्राभूतं ॥ ७ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------ मूलं [४-७] + गाथा:(६-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४-७] ||६-१५|| लालस्य द्वयोरपि सूर्ययोः प्रत्यहोरात्रमर्द्धमण्डलविषया संस्थितिः-व्यवस्था वक्तव्या २, तृतीये तव मतेन कः सूर्यः किय-४ दपरेण सूर्येण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचरतीति निरूप्यं ३, चतुर्थे द्वावपि सूर्यों परस्परं कियत्परिमाणमन्तरं कृत्वा चारं चरत है इति प्रतिपाद्यं ४, पञ्चमे कियत्प्रमाणं द्वीप समुद्रं वाऽवगाह्य सूर्यश्चारं चरतीति ५, षष्ठे एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकैकः सूर्यः कियत्प्रमाण क्षेत्र विकम्प्य-विमुच्य चारं चरतीति ६, सप्तमे मण्डलानां संस्थानमभिधानीयं ७, अष्टमे मण्डलाना-1 मेव विष्कम्भो-बाहल्यमिति ८, एवमर्थाधिकारसमन्वितानि प्रथमे प्राभृते अष्टी प्राभृतप्राभृतानि । सम्प्रति प्रथम एव प्राभृते चतुरादिषु प्राभूतप्राभूतेषु यत्र यावत्यः प्रतिपत्तयः परमतरूपास्तत्र तावतीरभिधित्सुराह-छप्पंचे'त्यादि, प्रथलामस्य प्राभृतस्य चतुरादिषु प्राभृतप्राभूतेषु यथाक्रममेताः प्रतिपत्तयः-परमतरूपा भवन्ति, तद्यथा-चतुर्थे प्राभृतप्राभृते षट् प्रतिपत्तयः ४, पश्चमे पश्च ५, षष्ठे सप्त ७, सप्तमे अष्टौ ८, अष्टमे तिन ३ इति ॥ सम्प्रति द्वितीये प्राभृते यदर्धाधि कारोपेतानि श्रीणि प्राभूतप्राभृतानि तान् प्रतिपादयति-पडिवत्ती'त्यादि, द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते &सूर्यस्योदये अस्तमयनेषु च प्रतिपत्तयः-परमतरूपाः प्रतिपाद्याः स्वमतप्रतिपत्तिश्च, द्वितीये भेदधातः कर्णकला च वक्तव्या, किमुक्तं भवति ?-भेदो मण्डलस्थापान्तरालं तत्र घातो-गमनं, 'हन हिंसागत्यो रिति वचनात् , स एकेषां मतेन प्रति पाद्यः, यथा विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तदनन्तरं सूर्योऽपरमनन्तरं मण्डलं सामतीति, तथा कर्ण: कोटिलाभागः तमधिकृत्यापरेषा मतेन कला वक्तव्या, यथा विवक्षिते मण्डले द्वावपि सूर्यो प्रथमक्षणे प्रविष्टौ सन्तौ पूर्वापरको-11 टिद्वयं लक्षीकृत्य बुद्ध्या परिपूर्ण यथावस्थितं मण्डलं विवक्षित्वा ततः परमण्डलस्य कर्ण-कोटिभागरूपमभिसमीक्ष्य ततः 5555555 दीप अनुक्रम [८-१७] ~25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------ मूलं [४-७] + गाथा:(६-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभृते प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) सूत्रांक [४-७]] ||६-१५|| SROS कलया २-मात्रया २ इत्यर्थः अपरमण्डलाभिमुखमभिसर्पन्ती चार चरत इति । तृतीये प्राभृतप्राभृते प्रतिमण्डलं मुहर्तेषु गति:-गतिपरिमाणमभिधातव्यं, तत्र निष्कामति प्रविशति वा सूर्ये याशी गतिर्भवति तादृशीमभिधित्सुराहला निक्खमे'त्यादि निष्क्रामन् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादहिनिर्गच्छन् सूर्यो यथोत्तर मण्डलं सामन् शीघ्रगतिः शीघ्रतरग-IX तिर्भवति, प्रविशन्-सर्वेबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरमागच्छन् प्रतिमण्डलं मन्दगतिः मन्दमन्दगतिः, तेषां च मण्डलाना चतुरशीत-चतुरशीत्यधिक शतं सूर्यस्य भवति, तेषां मण्डलानां च विषये प्रतिमुहर्त सूर्यस्य गतिपरिमाण-IN |चिन्तया पुरुषाणां प्रतिपत्तयो नाम-मतान्तररूपा भवन्ति । सम्पति कस्मिन् प्राभृतमाभृते कति प्रतिपत्तय इत्येतत्परूप-| यति-द्वितीये प्राभृते त्रिष्वपि प्राभृतप्राभृतेषु यथाक्रममेवंसयाः प्रतिपत्तयो भवन्ति, तद्यथा-प्रथमे प्राभृतप्राभृते उदये-सूर्योदयवक्तव्यतोपलक्षिते अष्टौ भणितास्तीर्थकरगणधरैः प्रतिपत्तयो, द्वितीये प्राभृतप्राभूते भेदधाते-भेदधातरूपे परमतवक्तव्यतोपलक्षिते दे एवं प्रतिपत्ती भवतः, तृतीये प्राभृतप्राभृते मुहूर्तगतौ-मुहूर्तगतिवक्तव्यतोपलक्षिते चतस्रः प्रतिपत्तयो भवन्ति, 'चत्तारी'ति च सूत्रे नपुंसकत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि लि व्यभिचारि, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-'लिङ्गं व्यभिचार्यपी'ति । सम्पति दशममाभृते यान्यपान्तरालवत्तीनि द्वाविंशतिसायानि प्राभृत-1 प्राभृतानि तेषामथाधिकारमाह-दशमे प्राभृते एतानि-सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् एतदर्थाधिकारोपेतानि द्वाविंशतिःXI प्राभूतप्राभूतानि भवन्ति, तद्यथा-प्रथमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्राणामावलिकाक्रमो वक्तव्यो, यथा अभिजिदादीनि नक्षत्राणि भवन्तीति १, द्वितीये नक्षत्रविषयं मुहू ग्रं-मुहर्त्तपरिमाणं वक्तव्यं २, तृतीये 'एवं भागा'इति 'पूर्वभागा' इति पूर्वपश्चि दीप अनुक्रम [८-१७] ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः) प्राभृत [१], ------------------ प्राभृतप्राभृत [-], ------------------ मूलं [४-७] + गाथा:(६-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४-७] ||६-१५|| मादिप्रकारेण भागा वक्तव्याः ३, चतुर्थे 'योगस्सति योगस्यादिर्वक्तव्यः, तथा च वक्ष्यति–ता कहं ते जोगस्स४ आई आहियत्ति बइज्जा'इति ४, पश्चमे कुलानि चशब्दादुपकुलानि कुलोपकुलानि च वक्तव्यानि ५, पछे पौर्णमासीति पौर्णमासीवक्तव्यता अभिधेया ६, सप्तमे 'सन्निपात'इति अमावास्यापौर्णमासीसन्निपातो वक्तव्यः ७, अष्टमे नक्षत्राणां संस्थितिः-संस्थानं वक्तव्यं ८, नवमे नक्षत्राणां तारानं-तारापरिमाणमभिधेयं, दशमे नेता वक्तव्यो, यथा कत्ति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमाप्त्या के मासं नयन्तीति १०, अपरस्मिन्नेकादशे प्राभृतप्राभृते चन्द्रमार्गाः-चन्द्रमण्डलानि नक्षत्राद्यधिकृत्य वक्तव्यानि ११, द्वादशे नक्षत्राधिपतीनां देवतानामध्ययनानि-अधीयते-ज्ञायते एभिरित्यध्ययनानि-नामानि वक्तव्यानि १२, त्रयोदशे मुहर्तानां नामकानि वक्तव्यानि १३, चतुर्दशे दिवसा रात्रयश्चोक्काः १४, पञ्चदशे तिथयः १५, षोडशे गोत्राणि नक्षत्राणां १६ सप्तदशे नक्षत्राणां भोजनानि वाच्यानि, यथेदं नक्षत्रमेवंरूपे भोजने कृते शुभाय भवतीति १७, अष्टादशे आदित्यानामुपलक्षणमेतचन्द्रमसां च चारा वक्तव्याः १८, एकोनविंशतितमे मासाः १९, विंशतितमे संवत्सराः २०, एकविंशतितमे ज्योतिषां-नक्षत्र चक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि, यथाऽमूनि नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि अमूनि च पश्चिमद्वाराणीत्यादि २१, द्वाविंशतितमे नक्षत्राणां विषय:-चन्द्रसूर्ययोगादिविषयो | निर्णयो वक्तव्य इति ॥ तदेवमुक्ता प्राभृतप्राभृतसक्या तेषामर्थाधिकाराश्च, सम्प्रति यदुक्तं प्रथमस्थ प्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतमाभृते मुहूर्तानां वृदयपवृद्धी वक्तव्ये ' इति तद्विवक्षुर्यथा तद्विषये गौतमनामा प्रथमगणधरो भगवन्तं पृच्छति स्म यथा च भगवान् तस्वमचकथत् तथोपदर्शयन्नाह दीप REAKERS अनुक्रम [८-१७] For P OW ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक सूर्यप्रज्ञ-४ ता कहं ते वद्धोवद्धी मुहुत्ताणं आहितेति वदेजा? ता अट्ठएकूणवीसे मुहत्तसते सत्तावीसं च सहिभागे१प्राभृते प्तिवृत्तिः मुहत्तस्स आहिते वि(ति)वदेजा (सूत्रं ८) १प्राभृत(मल.) प्राभूत | 'ता कहं ते बद्धोबडी मुहुत्ताण मित्यादि, अत्र तावच्छब्दः क्रमार्थः, क्रमश्चायमस्त्यन्यदपि चन्द्रसूर्यादिविषय ॥९॥ प्रभूतं प्रष्टव्यं, परं तदास्तां सम्प्रत्येतावदेव तावत्पृच्छामि-'कथं केन प्रकारेण भगवन् ! 'ते' त्वया 'मुहूर्तानां' दिवसरात्रिविषयाणां वृद्ध्यपवृद्धी आख्याते इति भगवान् प्रसादमाधाय 'वदेत्' यथावस्थितं वस्तुस्वरूपं कथयेत् येन मे संशयापगमो भवति, अपगतसंशयश्च परेभ्यो निःशङ्कमुपदिशामीति । अत्राह-ननु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधरः सर्वाक्षरसन्निपाती सम्भिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञाकुशलः सूत्रतश्च प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव, उक्त च-संखाईएवि भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेजा । नयणं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्थो ॥१॥" ततः कथं संशयसम्भवस्तदभावाञ्च किमर्थं पृच्छतीति !, उच्यते, यद्यपि भगवान् गौतमो यथोकगुणविशिष्टस्तथापि तस्याद्यापि मतिज्ञानावरणीयाधुदये वर्तमानत्वात् छद्मस्थता, छद्मस्थस्य च कदाचिदनाभोगोऽपि जायते, यत उक्कम्-"न हि नामानाभोग छमस्थस्येह कस्यचिन्नेति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृतिकर्म ॥१॥" ततोऽनाभोगसम्भवादुपपद्यते [भगवतोऽपि संशया, न चैतदना, यत उर्फ उपासकश्रुते आनन्दश्रमणोपासकावधिनिर्णयविषये-'तेर्ण' भत। कि आणदेणं समणोवासपणं तस्स ठाणस्स आलोइयवं जाव पडिक्कमियवं उयाहु मए , ततो गं गोयमादी समणे भगवं संपातीतानपि भवान् कथयति महा परः पृच्छत् । न चैनं अनतियायी विजानाति यसैप उपयः ॥ १॥ अनुक्रम [१८ ॥९ ॥ wereluctaram.org अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ आरभ्यते ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [१८] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [८] प्राभृत [१], ----- ----- प्राभृतप्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः महावीरे गोयमं एवं बयासी तुमं चैव णं तरस ठाणस्स आलोएहि जाव पडिक्कमाहि, आनंदं च समणोवासयं एयमहं खामेहि, तए णं समणे भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयम विणणं पडिसुणेइ, पडिणित्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिक्कमइ, आनंदं च समणोवासयं एयम खामेइ' इति, अथवा भगवान् अपगतसंशयोऽपि शिष्य सम्प्रत्ययार्थं पृच्छति, तथाहि - तमर्थ शिष्येभ्यः प्ररूप्य तेषां सम्प्रत्ययार्थं तत्समक्षं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छतीति यदिवा इत्थमेव सूत्ररचनाकल्प इति न कश्चिद्दोषः । एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवान् श्रीवर्द्धमानस्वामी | प्रतिवचनमभिधातुकामः सविशेषबोधाधानाय प्रथमतो नक्षत्रमासे यावन्तो मुहूर्त्ताः सम्भवन्ति तावतो निरूपयति'ता अट्ठे'त्यादि, तावदिति शिष्योक्तपदानुवादः स च भ्यायमार्गप्रदर्शनार्थे, तथाहि - सर्वेणापि गुरुणा शिष्येण प्रश्ने कृते सति शिष्यपृष्टस्य पदस्य अन्यस्य वा शिष्योक्तस्य तथाविधस्य पदस्य अनुवादपुरस्सरं प्रतिवचनमभिधातव्यं येन गुरुषु शिष्याणां बहुमानो भवति यथाऽहं गुरूणां सम्मत इति, अन्यच्च तावच्छन्द स्यायमर्थः- आस्तामन्यत्प्रतिवक्तव्य| मिदानीं तावदेव तवाग्रे कथयामि एतस्मिन्नक्षत्रमासे अष्टौ मुहूर्त्तशतानि एकोनविंशानि - एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिं सप्तषष्टि भागानहमाख्याता इति स्वशिष्येभ्यो वदेत्, एतेन चैतदावेदयति-इह शिष्येण सभ्यगधीतशास्त्रेणापि गुर्वनुज्ञातेन सता तत्त्वोपदेशोऽपरस्मै दातव्यो नान्यथेति, अथ कथमेकस्मिनक्षत्रमासे अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति १, उच्यते, इह युगे चन्द्रचन्द्राभि| वर्द्धितचन्द्राभिवर्द्धित रूपसंवत्सरपञ्चकात्म के सप्तषष्टिर्नक्षत्रमासाः, युगे चोक्तस्वरूपे अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशद For Parts Only ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) धिकानि १८३०, तत एतेषां सप्तपध्या भागो हियते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, शेषा तिष्ठति एकविंशतिः, सा मुहू- १प्राभूते नयनार्थ त्रिंशता गुण्यते, जातानि पटू शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तेषां सप्तपश्या भागे हृते लब्धा नव मुहूर्ताः ९,५१माभृत#शेषाऽवतिष्ठते सप्तविंशतिः, आगतं नक्षत्रमासः सप्तविंशतिरहोरात्राः नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्त-1 प्राभृतं पष्टिभागाः, तत्र सप्तविंशतिरहोरात्रा मुहर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते जातान्यष्टौ शतानि दशोत्तराणि ८१०, तेषां मध्ये उपरितना नव मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि ८१९, आगतं नक्षत्रमासे मुहूर्तपरिमाणमष्टी शतान्येकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागा इति । इदं च नक्षत्रमासगतमुहूर्तपरिमाणं है उपलक्षणं, तेन सूर्यादिमासानामध्यहोरात्रसवां परिभाव्य मुहूर्तपरिमाणं यथाऽऽगर्म भावनीयं, तश्चैवम्-सूर्यमासा युगे |वष्टिर्भवन्ति, युगे चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणां, ततस्तेषां षष्ट्या भागे हृते लब्धा त्रिंशदहोरात्राः एकस्य चाहोरावस्था, एतावत्सूर्यमासपरिमाणं त्रिंशन्मुहर्तश्चाहोरात्र इति त्रिंशत्रिंशता गुण्यते, जातानि नव शतानि मुहूर्ताना, अर्ने चाहोरात्रस्य पञ्चदश मुहूर्ताः, तत आगतं सूर्यमासे मुहर्तपरिमाणं नव शतानि पश्चदशोत्तराणि ९१५॥ तथा युगे द्वापष्टिश्चन्द्रमासास्ततोऽष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य, तत्र द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागा मुहर्तस्य करणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव है। |शतानि षष्ठयधिकानि ९६०, तेषां द्वाषष्ठ्या भागो हियते, लब्धाः पश्चदश मुहूर्ताः, शेषा तिष्ठति त्रिंशत् ३०, एकोनत्रिशचाहोरात्रा मुहर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टौ शतानि सप्तत्यधिकानि ८७०, ततः पाश्चात्याः पश्चदश मुहत्तों अनुक्रम [१८ ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [<] दीप अनुक्रम [PC] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [८] प्राभृत [१], ----- ----- प्राभृतप्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः एषु मध्ये प्रक्षिष्यन्ते तत आगतं चन्द्रमासे मुहूर्त्तपरिमाणमष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि त्रिंशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य । कर्म्ममासश्च त्रिंशदहोरात्र प्रमाणस्ततस्तत्र मुहूर्त्त परिमाणं नव शतानि परिपूर्णानि, तदेवं मासगतं मुहूर्त्तपरिमाणमुक्तं, प्रतदनुसारेण च चन्द्रादिसंवत्सरगतं युगगतं च मुहूर्त्तपरिमाणं स्वयं परिभावनीयं । तथा च सत्यवगतं मुहूर्त्तपरिमाणं, सम्प्रति प्रत्ययने थे दिवसरात्रविषये मुहर्त्तानां वृद्ध्यपवृद्धी ते अवबोद्धुकाम इदं पृच्छति ता जया णं सूरिए सबभंतरातो मंडलातो सबबाहिरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति सङ्घबाहिरातो मंडलातो सवन्तरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति, एस णं अद्धा केवतियं रातिंदियग्गेणं आहितेत्ति यदेखा ?, ता तिण्णि छावडे रातिंदियसए रातिंदियग्गेणं आहितेतिवदेखा (सूत्रं ९) ता एताए अद्धाए सूरिए कति मंडलाई चरति ?, ता चुलसीयं मंडलसतं चरति, घासीति मंडलसतं दुक्खुप्तो चरति, तंजहा- क्खि| ममाणे चेव पवेसमाणे चेव, दुवे य खलु मंडलाई सई चरति, तंजहा- सङ्घभंतरं चैव मंडल सङ्घबाहिरं चेव मंडलं ( सूत्रं १० ) ॥ 'ता जया णमित्यादि, तावच्छन्दार्थभावना सर्वत्रापि प्रागुक्तानुसारेण यथायोगं स्वयं परिभावनीया, शेषस्य च वाक्यस्यायमर्थ:-'यदा' यस्मिन् काले, णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्विनिर्गत्य प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलचारेण यावत् सर्ववा मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति परिभ्रमणमुपपद्यते, सर्वबाह्याञ्च मण्डलादपसृत्य प्रतिरात्रिन्दिवमेकैकमण्डलपरिभ्रमणेन यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'एषा' एतावती, णमिति पूर्ववत् अद्भा Education International For Pasta Use Only ~31~ wor Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [९-१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभृते प्रत सूत्रांक [९-१०] ॥११॥ दीप अनुक्रम [१९-२०] सूर्यप्रज्ञ- कियता 'रात्रिदिवाण' रात्रिदिवपरिमाणेन आख्याता इति वदेत् १, अत्र प्रतिवचनं-'ता तिन्नि'इत्यादि, एपा अद्धा प्तिवृत्तिःराविन्दिवाण विभी रात्रिदिवसशतैः पट्पष्टैः-पट्यध्यधिकैराख्याता इति, स्वशिष्येभ्यो वदेत् । पुनः पृच्छति-'ता (मलाएयाए ण'मित्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, एतया-एतावत्या षट्षष्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणया अद्धया कति मण्ड-14 लानि सूर्यो द्विकृत्वश्चरति ?, कति वा मण्डलान्येकवारमिति शेषः, अत्र प्रतिवचनवाक्यम्-'ता चुलसीय'मित्यादि, सामान्यतश्चतुरशीत-चतुरशीत्यधिक मण्डल शतं चरति, अधिकस्य मण्डलस्य सूर्यसत्कस्याभावात् , 'तत्रापि चतुरशीतशतमध्ये 'व्यशीतं' घशीत्यधिक मण्डलशतं द्विकृत्वश्चरति, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाहिर्निष्कामन् सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशंश्च, द्वे च मण्डले-सर्वाभ्यन्तर सर्वबाह्यरूपे 'सकृदू एकैकं वारं 'चरति परिभ्रमति। भूयः प्रश्नयति जह खलु तस्सेय आदिचस्स संवच्छ रस्स सयं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति सई अवारसमुहत्ता राप्ती भवति सई दुवालसमुहसे दिवसे भवति सई दुवालसमुलुत्ता राती भवति, पढमे छम्मासे अस्थि अद्वारसमुहुत्ता राती भवति, दोचे उम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे,णत्थि अट्ठारसमुहुत्ताराती, अस्थि दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति पढमे छम्मासे, दोचे छम्मासे णत्थि पण्णरसमुहत्ते दिवसे भवति, णस्थि पण्णरस-| मुहुत्ता राती भवति, तत्थ णं के हेतुं वदेजा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ सवदीवसमुदाणं सबभतराए जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णते, ता जता णं सूरिए सबभंतरमंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुहत्ता राती भवति, से| ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभूत [१], -------------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] निक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पदमसि अहोरसंसि अम्भितरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति, शता जयाण सरिए अमितराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहते दिवसे भवति दोहिं एगट्ठभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राती भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया, से णिक्खममाणे मूरिए दोसि अहोरसि अन्भतरं तच्च मंडलं स्वसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अम्भितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति चाहिं एगद्विभाग-2 मुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहसा राती भवति चाहिं एगहिभागमुलुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं |णिक्खममाणे सूरिए एगमेगे मंडले दिवसे खेत्तस्स णिबुड्ढेमाणे २रतणिक्खेसस्स अभियुद्धेमाणे २ सबवाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं मूरिए सबभंतरातो मंडलाओ सबबाहिरं मंडलं उचसंक-18 मित्ता चार चरति तता णं सबभंतरमंडलं पणिधाय एगणं तेसीतेणं राईदियसतेणं तिण्णि छाबड एगडिग हत्ते सते दिवसे खेत्तस्स णिहित्ता रतणिक्खेत्तस्स अभिबुद्वित्ता चारं चरति, तदा णं उत्तमकट्टपत्ता उकोसासिया अट्ठारसमहत्ता राती भवति, जहण्णए वारसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस ॥ पढम छम्मासस्स पजवसाणे । से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे (आयमाणे) पढमंसि अहोशरसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमेत्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए वाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अहारसमुहत्ता राती भवति, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए अनुक्रम [२१] ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) सूत्रांक -* दोसि अहोरसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरं तचं मंडलं उव-४१माभृते संकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहत्ता राती भवति च रहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए। एवं खलु एतेणुचाएणं पविसमाणे सूरिए तदाण- प्राभृत तरातो तयाणतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे दो दो एगहिभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले रतणिखेत्तस्स णिबुड्डेमाणे २ दिवसखेत्तस्स अभिवढेमाणे २ सयभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सबबाहिराओ मंडलाओ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं सबवाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसतेणं तिन्नि छावठे एगट्ठिभागमुहुत्तसते रयणिखेत्तस्स निवुद्वित्ता दिवसखेत्तस्स अभिवद्वित्ता चारं चरति तथा णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राती भवति, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दुच्चस्स छम्मासस्स पजवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे एस णं आदिचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे, इति खलु तस्सेवं आदिचस्स संवच्छरस्स सह अट्ठारसमुहुत्ते कादिवसे भवति, सई अट्ठारसमुदत्ता राती भवति, सईदवालसमहत्ता राती भवति, पढमे छम्मासे अस्थिर अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे नस्थि दुवालसमुहुत्ता राई अस्थि दुवालसमुहूत्ता राई नस्थि दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, पढमे वा उम्मासे णत्थि पण्णरसमुहत्ते दिवसे भवति, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता अनुक्रम [२१] 9-24-2 ॥१. ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] राई भवति णस्थि रातिदियाणं वहोवड्डीए मुहुत्ताण वा चयोवचएणं, णण्णस्य वा अणुवायगईए, गाधाओ भाणितबाओ (सूत्रं ११) पढमस्स पाहुडस्स पढमं पाहुड पाहुडं ॥ १-१॥ | 'जह खलु इत्यादि, यदि खलु षट्पट्याधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणायामद्धायां व्यशीतं मण्डलशतं द्विकृत्वश्चरति द्वे च मण्डले एकैकं वारमिति तत एवं सति यदेतद्भगवद्भिः प्ररूप्यते, तस्य षट्पष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणस्य सूर्यसंवसरस्य मध्ये सकृद्-एकवारमष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसोभवति, सकृच्चाष्टादशमुहूतोंरात्रिः, तथा सकृद्-एकवारद्वादशमु-14 हत्तॊ दिवसो भवति सकृय द्वादशमुहर्ता रात्रिः, तत्रापि षण्मासे प्रथमेऽस्ति अष्टादशमुहर्ता रात्रिनत्वष्टादशमुहूत्तों दिवसः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे पण्मासे द्वादशमुहूत्र्तो दिवसो न तु द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, द्वितीये पण्मासेऽस्त्यष्टादशमुहूत्तों दिवसो नत्वष्टादशमुहर्ता रात्रिः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव द्वितीये पण्मासे द्वादशमुहतों राबिनेंतु द्वादशमुहतों दिवसः, तथा प्रथमे षण्मासे द्वितीये वा पण्मासे नास्त्येतत् यदुत-पञ्चदशमुहूर्तोऽपि दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतत्, यदुत पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिरिति, तत्र एवंविधे वस्तुतत्त्वावगमे को हेतुः -किं कारणं कया युक्त्या एतत्प्रतिपत्तव्यमिति भावार्थः, 'इति वदे दिति, अत्रार्थे भगवान प्रसादं कृत्वा वदेत् । अत्र प्रतिवचनमाह-ता अयण्ण'मित्यादि, 'अयं'प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो णमिति वाक्यालङ्कारे 'जम्बूद्वीपो'जम्बूद्वीपनामा द्वीपः, स च सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः-सर्वमध्यवर्ती सर्वेषामपि शेषद्वीपसमुद्राणामित आरम्य यथागमोतक्रमद्विगुणविष्कम्भतया भवनात् 'जाव परिक्खेवेणं पन्नत्ते'इति, अत्र यावच्छन्दोपादानादिदमन्यदू पन्थान्तरे प्रसिद्धं सूत्रमवगम्तव्यं 'सबक्खुड्डागे पट्टे तेलापूयसंठाणसं अनुक्रम [२१] ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] सूर्यप्रज्ञ-४ ठिए बढे रहचकवालसंठाणसंठिए वझे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुन्नचंदसंठाणसठिए जोयणसयसहस्समायाम- १प्राभृते विक्खंभेण तिन्नि जोयणसयसहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगु- १प्राभृत(मल०) लाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते' इति, अत्र 'सचखुड्डागत्ति सर्वेभ्योऽप्यन्येभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः | प्राभृतं क्षुलको-लघुरायामविष्कम्भाभ्यां योजनलक्षप्रमाणत्वात् , शेषं प्रायः सुगर्म परिधिपरिमाणं गणितं च क्षेत्रसमासटी-1 कातः परिभावनीयं, 'ता'इति ततो यदा णमिति पूर्ववत्, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा णमिति प्राग्वत् उत्तमकाष्ठाप्राप्तोऽत्र काष्ठाशब्दः प्रकर्षवाची परमप्रकर्षप्राप्तो यतः परमन्योऽधिको न भवति स इत्यर्थः, 'उकोस'त्ति उत्कर्षतीत्युत्कर्षः उत्कर्ष एवोत्कर्षका उत्कृष्ट इत्यर्थः, अष्टादशमहत्तों दिवसो भवति, तस्मिन्नेव च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले सूर्ये चारं चरति जघन्या-सर्पलध्वी द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, एषोऽहोरात्रः पाश्चात्यस्य सूर्यसंवत्सरस्य पर्यवसानं, ततः स |सूर्यस्तस्मात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानिष्कामन् नवं सूर्यसंवत्सरमाददान:-प्रवर्तमानः प्रथमे अहोरात्रे 'अभितरानंतर-1 |न्ति सोभ्यन्तरान्मण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति ततो यदा सूर्योऽभ्यन्तरानन्तरं-सवोभ्यन्त-| राममण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा अष्टादशमहतो दिवसो द्वाभ्यां महतैकषष्टिभागाभ्यामूनो ॥ १३ ॥ |भवति, द्वाभ्यां च मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहर्ता राषिः, कथमेतदवसीयते इति चेत् ?, उच्यते, इहेक मण्डलमेकेनाहोरात्रेण द्वाभ्यां सूर्याभ्यां परिसमाप्यते, एकैकश्च सूर्यः प्रत्यहोरात्र मण्डलस्य त्रिंशदधिकोऽष्टादशशतसङ्ग्यान् |भागान् परिकल्प्य एकैकं भार्ग दिवसक्षेत्रस्य रात्रिक्षेत्रस्य वा यथायोग्य हापयिता वर्द्धयिता वा भवति, स चेको मण्ड-13 अनुक्रम [२१] ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] लगतस्त्रिंशदधिकाष्टादशशततमो भागो द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां गम्यते, तथाहि-तानि मण्डलगतानि त्रिंशदधि-18 कान्यष्टादशशतानि भागानां द्वाभ्यां सूर्याभ्यामेकेनाहोरात्रेण गम्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणः, ततः सूर्यद्वयापेक्षया पष्टिर्मुहर्ता लभ्यन्ते ततखैराशिककर्मावकाशः, यदि पट्या मुहूर्तेरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि मण्डलस्य भागानां गम्यते तत एकेन मुहूर्तेन किं गम्यते !, राशित्रयस्थापना-। ६० । १८३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनाजातानि तान्येवाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि तेषामायेनराशिना पष्टिलक्षणेन भागो हियते लब्धाः सार्दास्त्रिंशद्भागाः, एतावन्मुहूर्त्तन गम्यते, मुहूर्तश्चैकपष्टिभागीक्रियते तत आगतमेको भागो द्वाभ्यां मुहूतेकपष्टिभागाभ्यां गम्यते, यदिवा यदि ज्यशीत्यधिकेनाहोरात्रशतेन षट् मुहूर्ता हानी वृद्धौ वा प्राप्यन्ते तत एकेनाहोरानेण किं प्राप्यते ?, राशित्रयस्थापना-1 १८३ । ६।१ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशि ण्यते, जातास्त एव षद, तेषां ज्यशीत्यधिकेन शतेन भागहरणं, अनोपरितनराशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते ततश्छेद्यच्छेदकराश्योखिकेनापवर्त्तना, जात उपरितनो राशिद्धिकरूपोऽधस्तन एकपष्टिरूपः, आगतं द्वावेकषष्टिभागौ मुहूर्तस्य एकस्मिन्नहोरात्रे वृद्धी हानी वा प्राप्यते इति, तथा 'ता'इति तस्माद् द्वितीयान्मण्डलानिष्क्रामन् सूर्यों द्वितीये अहोराने सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमपेक्ष्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा तस्मिन्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमवेक्ष्य तृतीये मण्डले उपसङ्कम्य चारं चरति तदा चतुर्भिर्मुहूर्त्तस्यैकपष्टिभागेहींनोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, चतुर्भिमुहूर्तस्यैकषष्टिभागैरधिका द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिः, एवमुक्तनीत्या 'खलु'निश्चितमेतेनानम्तरोदितेनोपायेन प्रतिमण्डलं अनुक्रम [२१] SHARE ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ------ मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [११] सूर्यप्रज्ञ- दिवसरात्रिविषयमुहूर्त्तकषष्टिभागद्वयहानिवृद्धिरूपेण निष्कामन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैर्दक्षिणाभिमुखं गच्छन् । प्तिवृत्तिः सूर्यः, 'तयाणंतरा इति तस्माद्विवक्षितादनन्तरान्मण्डलात् 'तयाणंतर मिति तद्विवक्षितमनन्तरं मण्डलं सामन् २ माभ प्राभृतएककस्मिन् मण्डले मुहर्तस्य द्वौ द्वायेकषष्टिभागौ दिवसक्षेत्रस्य 'निर्वेष्टयन २'हापयन २ रजनिक्षेत्रस्य प्रतिमण्डल द्वी दी। प्राभूत ॥१४॥ मुहूर्तस्यैकषष्टिभागौ अभिवर्द्धयन् २ ज्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे प्रथमषण्मासपर्यवसानभूते सर्ववाद्यं मण्डलमुपसङ्कम्य प्राचार चरति 'ता'इति ततो यदा तस्मिन् काले अहोरात्ररूपे णमिति प्रागिव सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्मण्डलपरिच-४ | मणगत्या शनैः शनैः निष्कम्य सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलं 'प्रणिधाय'मर्यादीकृत्य द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एकेन व्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि 'षट्पष्टानि' षट्पट्याधिकानि मुहूर्त्तकपष्टिभागशतानि दिवसक्षेत्रस्य निर्वेष्ट्य'हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य तान्येव त्रीणि मुहूत्र्तकषष्टिभागशतानि पट्पट्याधिकानि अभिवर्स चार चरति, तदा णमिति पूर्ववत्, उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-परमप्रकर्षमाप्ता उत्कर्पिका-तस्कृष्टा अष्टादशमुहर्ताअष्टादशमुहर्त्तप्रमाणा रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहर्तप्रमाणो दिवसः, एषा प्रथमा षण्मासी, यदिवा एतत् प्रथम षण्मासं, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात् , एष व्यशीत्यधिकशततमोऽहोरात्रः प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानं । 'से पविसमाणे इत्यादि, 'स'सूर्यः सर्ववाद्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयं षण्मासमाददाना-प्रतिपद्यमानो द्वितीयस्य ॥१४॥ पण्मासस्य प्रथमे अहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वागनन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्काम्य चारं चरति 'ता'इति तत्र यदा सूर्यो| मावाद्यात्-सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वातनं द्वितीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामूना अष्टा LORSCOACA अनुक्रम [२१] werstudiorarycom ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यां मुहूत्तैंकषष्टिभागाभ्यामधिको द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, ततस्ततोऽपि द्वितीयान्मण्ड-४ लादभ्यन्तरं स सूर्यः प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीये अहोरात्रे 'बाहिरं तच्चंति सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तन तृतीयं मण्डलमुपसङ्काम्य चार चरति 'ता जया 'मित्यादि, ततो यदा णमितिपूर्ववत्, सूर्यः सर्ववाह्यान्मण्डलादा-12 फनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति 'ता जया णमित्यादि ततो यदा णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्ववाह्यान्मण्डलादर्वातनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिश्चतुर्भिः 'एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ति प्राकृतत्वाद व्यत्यासेन पदोपन्यासः, एवं तु यथास्थितपदनिर्देशो द्रष्टव्यो-मुहूकषष्टिभागैरूना भवति, चतुर्भिर्मुहकपष्टिभागैरधिको द्वादशमुहूत्तों दिवसः । 'एवं खलु एएण'मित्यादि, एवं-उक्कनीत्या खल्वेतेन-अनन्तरोदितेनोपायेन प्रति-8 मण्डलं रात्रिदिवसविषयमुहूत्तैकषष्टिभागद्वयहानिवृद्धिरूपेण प्रविशन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैरुत्तराभिमुख गच्छन् 'तयाणंतरा'त्ति तस्माद्विवक्षितान्मण्डलात् 'तयाणंतर मिति तद्विवक्षितमनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २ एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तस्य द्वौ द्वावेकषष्टिभागौ रजनिक्षेत्रस्य निर्वेष्टयन दिवसक्षेत्रस्य प्रतिमण्डलं द्वौ द्वौ मुहूर्तस्यैकषष्टिभागी अभिवर्द्धयन २ यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूते 'सबभंतति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता'इति ततो यदा-यस्मिन् काले णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलामण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविश्य सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा सर्वबाह्यमण्डलं 'प्रणिधाय'मर्यादीकृत्य तदाकनाद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एकेन ज्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि पशष्टानि-पटूपठाधिकानि मुहूर्त-ला अनुक्रम [२१] SARERainintamanna wwrajastaram.org ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [२१] ----- प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [११] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल०) ॥ १५ ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - स्यैकषष्टिभागशतानि रजनिक्षेत्रस्य निर्वेष्य-हापयित्वा दिवसक्षेत्रस्य च तान्यव त्रीणि षट्षष्टानि मुइलैकपष्टिभागशतानि अभिव चारं चरति, तदा णमिति वाक्यालङ्कारे उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षकः- उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति जघन्या च द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, एतद् द्वितीयं षण्मासं, यदिवा एषा द्वितीया षण्मासी, सूत्रे पुस्खनिर्देश ॐ आर्षत्वात्, एष षट्षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽहोरात्रो द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानभूतः, 'एप' एवंप्रमाण आदित्य संवत्सरा, एष षट्षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽहोरात्रः 'आदित्यस्य' आदित्यसम्बन्धिनः संवत्सरस्य पर्यवसानम् । सम्प्रत्युपसंहारमाह'इह खलु तस्सेव' मित्यादि, यस्मादेवं 'इति' तस्मात्कारणात्तस्यादित्यस्य - आदित्य संवत्सरस्य मध्ये 'एवं उत्केन प्रकारेण 'सकृद् एकवारमष्टादशमुत्त दिवसो भवति सकृच्चाष्टादशमुहर्त्ता रात्रिः, तथा सकृद् द्वादशमुत्तों दिवसो भवति सकृच्च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तत्र प्रथमे षण्मासे अस्त्यष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, सा च प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे, नत्वष्टादशमुत्तों दिवसः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे षण्मासे द्वादशमुहूर्ती दिवसः, सोऽपि प्रथमषण्मासपर्यवसानेऽहोरा, नतु द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, द्वितीये षण्मासेऽस्त्येतद् यदुत अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति, स च द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽ-होरात्रे नत्वष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तथा अस्त्येतत् यदुत तस्मिन्नेव द्वितीयषण्मासे अस्ति द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः साऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयपण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे, न पुनरस्त्येतत् यदुत द्वादशमुहून्त दिवसो भवतीति, तथा प्रथमे वा षण्मासे नास्त्येतद् | यदुत पञ्चदशमुहर्त्ता दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः, किं सर्वथा नेत्याह- नान्यत्र - रात्रिन्दिवानां वृध्यपवृद्धेरन्यत्र न भवति, रात्रिन्दिवानां तु वृद्ध्यपवृद्धौ च भवत्येव पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः पश्चदशमुहन्त दिवसः, ते च वृक्ष Eucation International For Parts Only ~40~ १ प्राभूते १ प्राभृतप्राभूत ।। १५ ।। waryru Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] पवूद्धी रात्रिन्दिचानां कथं भवत इत्याह-मुहुत्ताणंचयोवचएण'मुहूर्तानां पञ्चदशसङ्ख्यानां चयोपचयेन चयेन-अधिकत्वेन वृद्धिरपचयेन-हीनत्वेनापवृद्धिः, इयमत्र भावना-परिपूर्णपञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे दिवसरात्रीन भवतो, हीनाधिकपञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे तु दिवसरात्रीभवतः, एवं 'अन्नत्थ वा अणुवायगईए'इति वाशब्दः प्रकारान्तरसूचने अन्यत्रानुपातगतेः-अनुसारगतेः पञ्चदशमुहूत्तों दिवसः पञ्चदशमुहूर्ता वा रात्रिने भवति, अनुसारगत्या तु भवत्येव, साचानुसारगतिरेवं-यदि ज्यशी-2 त्यधिकशततमे मण्डले षण्मुहूर्त्ता वृद्धौ हानौ वा प्राप्यन्ते ततोऽर्वाक् तदर्द्धगतौ यो मुहूर्ताःप्राप्यन्ते,व्यशीत्यधिकशतस्य वाई सार्दा एकनवतिः तत आगतं एकनवतिसक्कोषु मण्डलेषु गतेषु द्विनवतितमस्य च मण्डलस्याङ्के गते पञ्चदश मुहूर्ताः प्राप्यन्ते, तवस्तत उर्दू रात्रिकल्पनायां पश्चदशमुहूत्र्तो दिवसः, पञ्चदशमुहूर्ता च रात्रिर्लभ्यते नान्यथेति, 'गाहाओ भणितव्याओ'त्ति अत्र अनन्तरोक्तार्थसवाहिका अस्या एव सूर्यप्रज्ञप्तेर्भद्रबाहुवामिना या नियुक्तिः कृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन ग्रन्थान्तरसुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते ता 'भणितव्याः'पठनीयाः, ताश्च सम्पति कापि पुस्तके न दृश्यन्त इति व्यवच्छिन्नाः सम्भाव्यन्ते ततो न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते, यो वा यथा सम्प्रदायादवगच्छति तेन तथा शिष्येभ्यः कथनीया व्याख्यानीयाश्चेति । इति मलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथमस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ।। अनुक्रम [२१] तदेवमुकं प्रथमस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभृतं सम्पति द्वितीयमर्द्धमण्डलसंस्थितिप्रतिपादकं विवक्षुरिदं प्रश्नसूत्रमाह weredturary.com अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ आरभ्यते ~ 41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: २प्राभूत प्रत सूत्रांक [१२-१३] (मल.) ॥१६॥ दीप अनुक्रम [२२-२३] ता कहं ते अद्धमंडलसंठिती आहिताति वदेजा ?, तत्थ खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिती पं०,०-दाहिणा १प्राभृते ४ चेव अद्धमंडलसंठिती उत्तरा चेव अडमंडलसंठिती । ता कहं ते दाहिणअद्धमंडलसंठिती आहिताति &वदेजा, ता अयणं जंबुद्दीवे दीचे सबदीवसमुदाणंजाब परिक्खेवेर्ण ता जया णं सूरिए सबभंतरं दाहिणं * प्राभूत अमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्टपत्ते उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहत्ता राती भवति, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तंसिर दाहिणाए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते अभितराणतरं उत्तरं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमित्ता चार चरति, जता गं सूरिए अभितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहले[हिं] दिवसे भवति दोहिं एगट्ठभागमुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राती दोहिं एगट्ठिभागमुत्तेहिं| अधिया से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए अम्भितरं तचं दाहिणं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमिसा चारं चरति ।ता जया णं सूरिए अभितरं तचं दाहिणं अद्धमंडलं संठिति उवर्सकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ते [हिं] दिवसे भवति चाहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहि ऊणे |दुवालसमुहुत्ता राई भवति चाहिं एगडिभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तदणंतरातोऽणंतरंसि तंसि २ देसंमि तं तं अद्धमंडलसंठिति संकममाणो २ दाहिणाए २ अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते, सववाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए ~ 42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप सबबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिर्ति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ता उकोसिया अट्ठारसमु-14 हुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति । एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमछम्मासस्स पज्जवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराते अंतरभागाते तस्सादिपदेसाते चाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं दाहिणअद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहि एगडिभागमुहुरोहिं अणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि दाहिणाते अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए पाहिरंतरं तचं उत्तरं अद्धमंडलसं-18 ठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सरिए बाहिरं तचं उत्तरं अहमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरति तदा णं अट्ठारसमुहुसा राई भवति चाहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एतेणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तदाणंतराउ तदाणतरं तंसि २ देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठितिं संकममाणे २ उत्तराए अंतराभागाते तस्सादिपदेसाए सबभंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिर्ति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया गं सरिए सवन्भंतरं दाहिणं अन्डमंडलहिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एस णं दोचे छम्मासे, एस ण दोचस्स छमासस्स पनवसाणे, एस गं आदिचे संवच्छरे, एस णं आदिचसंवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं १२)ता कहं ते अनुक्रम [२२-२३] ~ 43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२२-२३] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१२-१३] प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञसिवृत्तिः ( मल०) ॥ १७ ॥ उत्तरा अद्धमंडलसंठिती आहितातिचदेखा ?, ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सबदीवजावपरिक्खेवेणं, ता जता णं सूरिए सबभंतरे उत्तरं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्टपत्ते उशोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति जहा दाहिणा तहा चेष णवरं उत्तरडिओ अतिरातरं दाहिणं उबसंकम, दाहिणातो अभितरं तवं उत्तरं उबसंकमति, एवं खलु एएणं उबा | एणं जाव सबबाहिरं दाहिणं उवसंकमति, सङ्घबाहिरं दाहिणं वचसंकमति २ त्ता दाहिणाओ बाहिराणंतरं उत्तरं उवसंकमति उत्तरातो बाहिरं तवं दाहिणं तथातो दाहिणातो संकममाणे २ जाव सवन्तरं वसंकमति, तहेव । एस णं दोघे छम्मासे एस णं दोबस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे, एस पं आदिचस्स संवछरस्स पज्जवसाणे गाहाओ । (सूत्रं १३) बीयं पालुङपाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहं ते' इत्यादि, 'ता' इति क्रमार्थः पूर्ववद् भावनीयः, 'कथं केन प्रकारेण भगवन् ! 'ते' तव मते 'अर्द्धमण्डलसंस्थितिः' अर्द्धमण्डलम्यवस्था आख्यातेति वदेत् पृच्छतश्चायमभिप्रायः-इह एकैकः सूर्य एकैकेनाहोरात्रेणैकैकस्य मण्डलस्यार्द्धमेव भ्रमणेन पूरयति, ततः संशयः कथमेकैकस्य सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रमेकैकार्द्ध मण्डलपरिभ्रमणव्यवस्थेति पृच्छति, अत्र भगवान् प्रत्युत्तरमाह-'ता खलु' इत्यादि, 'ता' इति तत्रार्द्ध मण्डलव्यवस्थाविचारे खलु निश्चितमिमे द्वे अर्द्धमण्डउसंस्थिती मया प्रज्ञसे, तद्यथा-एका दक्षिणा चैव-दक्षिणदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थिति:- अर्द्धमण्डलव्यवस्था द्वितीया उत्तरा चैव-उत्तरदिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिः, एवमुकेऽपि भूयः पृच्छति-ता कहं ते' इत्यादि, ह For Parts Only ~ 44~ १ प्राभृते २ प्राभूतप्राभूतं ॥ १७ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप द्वे अपि अर्जमण्डलसंस्थिती ज्ञातव्ये तत्रेदं तावत्पृच्छामि-कथं स्वया भगवन् 'दक्षिणा'दक्षिणदिग्भाघिसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिराख्याता इति वदेत् ?,भगवानाह-'ता अयपण'मित्यादि, इदं जम्यूहीपवाक्यं प्रागिव स्वयं परिपूर्ण परि|भावनीयम् , ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा, णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरी-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चार चरति तदा णमिति पूर्ववत् , उत्तमकायाप्राप्त:-परमप्रकर्षप्राप्तः, उत्कर्षक-उत्कृष्टोऽटादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादू शनैः शनैः सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि मण्डलगत्या परिचमति येनाहोरात्रपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागानपरे च द्वे योजने अतिक्रम्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयोत्सरार्जुमण्डलसीमायां वर्तते, तथा चाह-से निक्खममाणे इत्यादि स सूर्यः सर्वाभ्यन्तरगतात् प्रथमक्षणादूई शनैः शनैर्निष्क्रामन् अहोरात्रेऽतिकान्ते सति नवम्-अभिनव संवत्सरमाददानो नवस्य प्रथमेऽहोरात्रे दक्षिणस्माद्-दक्षिणदिग्भाविनोऽन्तरात्-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद्विनिर्गत्य 'तस्सादिपएसाए'इतितस्य-सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्याभ्यन्तरानन्तरां-सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चार चरति, स चादिप्रदेशादूद्ध शनैः शनैरपरमण्डलाभिमुखमत्रापि तथा कथञ्चनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते तदपि मण्डलमन्ये च द्वे योजने परित्यज्य दक्षिणदिग्भाविनस्तृतीयस्य मण्डलस्य सीमायां भवति, ता जया ण'मित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरानन्तरां द्वितीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्खम्य चारं चरति अनुक्रम [२२-२३] ~45~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२२-२३] मूलं [१२-१३] प्राभृत [१], प्राभृतप्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) - ( मल० ) सूर्यप्रज्ञ- ४ तदा दिवसोऽष्टादशमुहर्त्ता द्वाभ्यां मुहत्कषष्टिभागाभ्यामूनो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहर्त्तकशिवृत्तिः षष्टिभागाभ्यामभ्यधिका, ततस्तस्या अपि द्वितीयस्था उत्तरार्द्धमण्डलसंस्थितेरुकप्रकारेण स सूर्यो निष्क्रामन् अभिनवस्य सूर्यसंवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविनोऽन्तरादू द्वितीयोत्तरार्द्धमण्ड लगताष्टाचत्वारिंशद्योजनैकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद् विनिःसृत्य 'तस्साइपएसाए' इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनस्तृतीयस्यार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'अभितरं तचं'ति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमपेक्ष्य तृतीयां दक्षिणामर्द्ध मण्डलसंस्थितिमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, अत्रापि तथा चारं चरति आदिप्रदेशादूर्द्ध शनैः शनैरपरमण्डलाभिमुखं येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते तन्मण्डलगतानष्टाचत्वारिंशद्यो जनैकषष्टिभागानपरे च द्वे योजने अपहाय चतुर्थस्योत्तरार्द्ध मण्डलस्य सीमायामवतिष्ठते, 'ता जया णमित्यादि, ततो यंदा णमिति पूर्ववत् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानृतीयां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्क्रम्य चारं चरति | तदा अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति चतुर्भिर्मुहत्कषष्टिभागैरुनो द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः चतुर्भिर्मुहतैकषष्टिभागैरभ्यधिका, 'एवं खलु' इत्यादि, एवं उक्तनीत्या खलु निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमष्टाचत्वारिंशद्योजनै कषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयविकम्पनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तरादर्द्धमण्डलात्तदनन्तरं तस्मिन् २ देशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे वा तां तां अर्द्धमण्डलसंस्थितिं सङ्क्रामन् २ द्व्यशीत्यधिकशततमाहोरात्रपर्यन्ते गते दक्षिणस्मात् दक्षिणदिग्भाविनोऽन्तरात् व्यशीत्यधिकशततममण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्यो जनैक षष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरयोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपा| द्वागात् 'तस्साइपएसाए' इति तस्य - सर्व बाह्यमण्डल गतस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलादिप्रदेशमाश्रित्य सर्व बाह्यामुत्तरार्द्धमण्डल संस्थि ॥ १८ ॥ ४. For Penal Use Only ~ 46~ १ प्राभूते २ प्राभृत प्राभृतं ॥ १८ ॥ www.landbrary or Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप तिमुपसङ्कम्य चार चरति, स चादिप्रदेशादूई शनैः २ सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणा मण्डलाभिमुखं स्था कथंचनापि चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणार्द्धमण्डलसीमावां भवति, नतो बदा णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वबाह्यामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्खम्य चारं चरति, तत्र उत्तमकाष्ठां प्राप्ता (परमप्रकर्षगता) उत्कपिका-उत्कृष्टा अष्टादशमुहूर्ण रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहूत्तों दिवसः, 'एस ण'मित्यादि, निगमनवाक्यप्राग्वत्, 'स पविसमाणे इत्यादि, सूर्यः सर्वचाह्योत्तरार्द्धमण्डलादिप्रदेशार्प शनैः शनैः सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयदक्षिणार्द्धमण्डलाभिमुखं सामन् तस्मिन्नेवाहोरात्रेऽतिकान्ते सति अभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानो द्वितीयस्य पण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविसर्वबाह्यमण्डलगतादन्तरात् सर्वबाह्यान्तरार्द्धमण्डलगताष्टाचत्वारिंशयोजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरार्वाग्भावियोजनदयप्रमाणादपान्तरालरूपानागात् 'तस्साइपएसाए'इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनः सर्वबाह्यानन्तरस्य दक्षिणस्यार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'बाहिराणंतरंति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्यानन्तरामभ्यPन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्क्रम्य चार चरति, अत्रापि चार आदिप्रदेशादूर्व तथा कथंचनाप्यभ्यन्तराभिमुख बचते येनाहोराघपर्यन्ते सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरस्य तृतीया मण्डलस्य सीमायां भवति, 'ता जया ण'मित्यादि, ततो दमदा सूर्यो बाह्यानन्तरा-सर्वबाह्यादनन्तरांदक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहर्ता रात्रि - Pा मुहकपष्टिभागाभ्यामूना भवति, द्वादशमुहर्चप्रमाणो दिवसोद्वाभ्यां मुहत्तैकषष्टिभामाभ्यामधिका 'से पविसमा स्मादि सतामिवोरात्रेऽतिक्रान्वे सतिसूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्व पण्मासस द्वितीयेभोराने दक्षिणमादामाद अनुक्रम [२२-२३] ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: १प्राभृते ३प्राभृतप्राभूत प्रत सूत्रांक [१२-१३]] दीप सूर्यप्रज्ञ-15क्षिणदिग्भाविनोऽन्तरादक्षिणदिग्भाविसर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरा- शिवृत्तिः र्वाग्भावियोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपानागाद्विनिःसृत्य 'तस्साइपएसाए' इति तस्य-सर्वबाह्यादभ्यन्तरस्य तृतीयस्योत्त(मल.) रार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशात्-आदिप्रदेशमाश्रित्य बाह्यतृतीयां सर्वबाह्याया अर्द्धमण्डलसंस्थितेस्तृतीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थि तिमुपसङ्गम्य चारं चरति, अत्रापि चार आदिप्रदेशादारभ्य शनैः शनैरपरार्द्धमण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि प्रवर्त्तमानो द्रष्टलव्यो येन तदहोरात्रपर्यन्ते सर्ववाह्यादर्द्धमण्डलात्तृतीयामकिनीमर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहू रात्रिश्चतुर्भिर्मुहूकषष्टिभागैरूना भवति, द्वादशमुहूर्त्तश्च दिवसश्चतुभिर्मुहूर्सेकषष्टिभागैरभ्यधिकः, 'एच'मित्यादि, एवम्-उक्तप्रकारेण खलु-निश्चितमेतेनोपायेन-प्रत्यहोरात्रमभ्यन्तरमष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागयोजनद्वयविकम्पनरूपेण शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तराद् अर्द्धमण्डलात् तदनन्तरां तस्मिन् २ प्रदेशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरापरभागे वा ता तामर्द्धमण्डलसंस्थिति सङ्क्रामन् द्वितीयस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमाहोरात्रपर्यन्ते गते उत्तरस्मादुत्तरदिग्भा| विनोऽन्तरात्सर्वबाह्यमण्डलमपेक्ष्य यद् व्यशीत्यधिकशततम मण्डलं तद्गताष्टाचत्वारिंशद्योजनकपष्टिभागाभ्यधिकतद-| नन्तराभ्यन्तरयोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाडागात् 'तस्साहपएसाए इति तस्य-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतस्य दक्षिणस्थार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति, स चादिप्रदेशादूर्व शनैः शनैः सर्वाभ्यन्तरानन्तरचाह्योत्तरार्द्धमण्डलाभिमुखं तथा कथश्चनापि चार प्रतिपद्यते येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलस्य सीमायां भवति, 'ताजया णमित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणा 48655286665 अनुक्रम [२२-२३] १९ X ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] ++5154545 दीप मर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकः-उत्कृष्टः अष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, सर्वजघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, 'एस ण'मित्यादि, निगमनवाक्यं प्राग्वत्, तदेवमुक्ता दक्षिणा अर्द्धमण्डलसंस्थितिः। साम्प्रतमुत्तरामीमण्डलसंस्थितिं जिज्ञासुः प्रश्नयति-ता कहं ते इत्यादि, एतत्प्राग्वद् व्याख्येयं, 'ताजयाण मित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्ष* कोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, 'जहा दाहिणा तह चेव'त्ति यथा दक्षिणा अर्द्धमण्ड|लव्यवस्थितिः प्रागभिहिता तथा चैव-तेनैव प्रकारेणैषाऽप्युत्तरार्द्धमण्ड लव्यवस्थितिराख्येया, नवरं 'उत्तरे ठिओ अम्भितराणतरं दाहिणं उवसंकमइ, दाहिणाओ अभितरं तच्चं उत्तरं उवसंकमइ, एएणं उवाएणं जाव सबबाहिरं दाहिणं उवसंकमइ, सबबाहिराओ बाहिराणतरं उत्तरं उवसंकमइ, उत्तराओ बाहिरं तच्चं दाहिणं तच्चाओ दाहिणाओ संकममाणे २ |जाव सबभंतरमुत्तरं स्वसंकमह'इति, नवरमय दक्षिणा मण्डलव्यवस्थितेरस्यामुत्तरार्द्धमण्डलव्यवस्थायां विशेषोन्यदुत। सर्वाभ्यन्तरे उत्तरस्मिन्नर्द्धमण्डले स्थितः सन् तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते नवं संवत्सरमाददानः प्रथमस्य षण्मासस्य प्रथमेड-४ होरात्रे अभ्यन्तरानन्तरां सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, तस्मिन्नहोरात्रेऽतिकान्ते प्रथमस्य पण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरतृतीयां सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयामुत्तरामद्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, एवं खल्वनेनोपायेन प्रागिव तावद् वक्तव्यं यावत्प्रथमस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे पर्यवसानभूते सर्ववाह्यां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्कामति, एतत्प्रधमस्य षण्मासस्य पर्यवसानं, ततो द्वितीयस्य षण्मासस्य अनुक्रम [२२-२३] ~ 49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप अनुक्रम [२२-२३] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृतप्राभृत [२], मूलं [१२-१३] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ २० ॥ प्रथमेऽहोरात्र बाह्यानन्तरां सर्वबाह्यस्य मण्डलस्यार्वाकनीमुत्तराम र्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामति ततस्तस्मिन्नहोरात्रे ऽतिकान्ते द्वितीयस्य षण्मासस्याऽहोरात्रे उत्तरस्या अर्द्धमण्डलसंस्थितेर्विनिःसृत्य बाह्यतृतीयां सर्वबाह्यस्य मण्डलस्यार्वाचन तृतीयां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसङ्क्रामति, तस्याश्च तृतीयस्था दक्षिणस्या अर्द्धमण्डल संस्थितेरे कै केनाहोरात्रेणैकम्मर्द्धमण्डलसं+ स्थितिं सङ्क्रामन् २ तावदवसेयो यावद् द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरामुत्तरार्द्ध मण्डलसंस्थितिमुपसङ्गमति, तदेवं दक्षिणस्या अर्द्धमण्डलसंस्थितेः उत्तरस्यामर्द्ध मण्डलसंस्थितौ नानात्वमुपदर्शितं एतदनुसारेण च स्वयमेव | सूत्रालापको यथावस्थितः परिभावनीयः, सचैवं 'से निक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरमयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि २ उत्तराए अंतराए भागा तस्साइपएसाए अग्भितराणंतरं दाहिणं अद्धमंडल संठिर्ति उवसंकमित्ता चारं चरति, जया में सूरिए अभितराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उबसंकमित्ता चारं चरति तथा णं अट्ठारसमुहुचे दिवसे भवति कोहि गहिभागमुहुत्तेहि ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहि एट्टिभमुहुत्तेहिं अहिया, से निक्सममाणे सूरिए दोबांस रत्तंसि दाहिणार अंतराय भागाए तरसादिपदेखाए अभितरं तचं उत्तरं अमंडलसंठि उवसंकमित्ता चारं चरति, तथा णं अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एगट्टिभागमुहुचेहिं ऊणे, दुबालसमुहुत्ता राई भत्रति चतहिं समभागमुहुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयागंतराओ तयागतरं संसि तंसि देसंसि तं तं मंडलसंठिई संकममाणे उत्तराम भागाए' तस्साइपरसाए सबबाहिरं दाहिणमद्ध मंडल संटि उवसंकमिता चारं चरति, ता जया णं सूरिप सबबाहिरं दाहिणं अद्धमंडल संठिमुवसंकमित्त चारं चरति तका णं उत्तमकता उकोरिया अकार सूर्यप्रज्ञ सिवृत्तिः ( मल०) can Internation For Parts Only ~50~ १ माभूते २ प्राभूत प्राभृर्त ॥ २० ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [१२-१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२-१३] दीप मुहुत्ता राई भवति, जहाए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एस पढमे छम्मासे एस गं पढमस्स छम्मासस्स फवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोच्च छम्मासमयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिराणमातरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिइमुवसंक|मित्ता चारं चरति तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहि य एगहिभागमुहुत्तेहि ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चर(दो)हिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं तंति तंसि देससि *तं ते अद्धमंडलसंठिई संकममाणे दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए सबभंतरं उत्तरं अहमंडलसंठिइमुवसंक४मित्ता चार चरइ, ता जया णं सूरिए सबभंतरं उत्तरं अमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चार चरह तया णं उत्तमककृपत्ते उक्कोसिए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवतित्ति, एस णं दुच्चे छम्मासे'इत्यादि प्राग्वत् ॥ इति श्रीमलयगिरि विरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथमस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभूतप्राभृतं समाप्तम् ।। - - तदेवमुक्तं द्वितीय प्राभृतप्राभृतं, सम्पति तृतीयमभिधातव्यं, तत्र चार्थाधिकारश्चीर्णप्रतिचरणं, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता के ते चित्र पहिचरति आहितेति वदेवा, तत्थ खलु श्मे दुवे सूरिया पं०, तं०-भारहे चेव सूरिए एरवए चेव सुरिए, ता एते ण दुबे सरिए पत्तेयं २तीसाए २ मुहुत्तेहिं एगमेगं अद्धमंडलं चरंति, सट्ठीए २ मुहुत्तेहिं एगमेगं मंहलं संघातंति, ता णिक्खममाणे खलु एते दुचे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्ण पडि-31 चरति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिपणं पडिचरंति, तं सतमेगं चोतालं,तत्थ के हेऊ अनुक्रम [२२-२३] अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ आरभ्यते ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [२४] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [१४] प्राभृत [१], ----- प्राभृतप्राभृत [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ( मल०) ॥ २१ ॥ सूर्यप्रज्ञ- ४ वदेज्जा ?, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, तत्थ णं तत्थ णं अयं भारहए चैव सूरिए जंबुद्दीवस्स सिवृत्तिः २ पाईणपडिणापतउदीर्णदाहिणायताए जीवाय मंडलं चडवीस एणं सतेणं छेत्ता दाहिणपुरत्थिमिलंसि च - भागमंडलसि बाणउतियसुरियमताई जाई अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरति, उत्तरपचत्थिमेांसि च भागम४) डलंसि एक्काणउतिं सूरियमताई जाई सूरिए अप्पणो चेव चिण्णं पडिचरति, तत्थ अयं भारहे सूरिए एरवतस्स सूरियस्स जंबुद्दीवरस २ पाईणपडिणीयायताए उदीणदाहिणायताएं जीवाए मंडलं चडवीसएणं सतेणं छेत्ता उत्तरपुरथिमिलंसि च भागमंडलंसि बाणउतिं सूरियमताई जाव सूरिए परस्स चिण्णं पडिचरति, दाहिणपञ्चत्थिमेल्लंसि च भागमंडलंसि एकूणणउर्ति सूरियमताएं जाएं सूरिए परस्स चेव चिपणं पडिचरति, तत्थ अयं एरवए सूरिए जंबुद्दीवरस २ पाईणपडिणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चडवीसएणं सतेणं छेत्ता उत्तरपुरस्थिमिह्यंसि चउभाग मंडलंसि बाणउर्ति सूरियमयाई जाव सूरिए अप्पणो चेव चिण्णं पडिपरति दाहिणपुरत्थिमिहंसि च भागमंडलंसि एक्काणउतिसूरियमताई जाव सूरिए अप्पणो चैव चिण्णं पडिचरति, तत्थ णं एवं एरवतिए सूरिए भारहस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स पाईणपडिणायताप उदीर्णदाहिणायलाए जीवाए मंडलं चडवीसएणं सतेणं छित्ता दाहिणपचत्थिमेल्लंसि च भागमंडलंसि बाणउर्ति सूरियमताई सूरिए परस्स चिण्णं पडिचरति, उत्तरपुरत्थिमेल्लंसि च भागमंडलंसि एकाउर्ति सूरियमताई जाएं सूरिए परस्स चेव चिष्णं पडिचरति, ता निक्खममाणे खलु एते दुवे सूरिया णो Ecation International For Parts Only ~ 52~ १ प्राभृते ३ प्राभूतप्राभृर्त ॥ २१ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 5 [१४] अण्णमण्णस्स चिण्णं पहिचरंति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमपणस्स चिणं पडिचरंति, सतमेगं चोतालं । गाहाओ (सूत्र) १४ ॥ तइयं पाहुड पाहुई सम्मत्तं । 'ता के ते'इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कस्त्वया भगवन् ! सूर्यः स्वयं परेण वा सूर्येण चीर्ण क्षेत्रं प्रतिचरति-प्रतिचरन् आख्यात इति वदेत् १, एवं भगवता गौतमेनोक्त भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह-तत्व'इत्यादि, तब-अस्मिन् जम्बूद्वीपे परस्परं चीर्णक्षेत्रप्रतिचरणचिन्तायां खटु-निश्चितं यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमधिकृत्येमौ द्वौ सूयौं प्रज्ञप्ती, तद्यथा-भारतश्चैव सूर्यः ऐरावतश्चैव सूर्यः, 'ता एए ण'मित्यादि, तत एतौ णमिति वाक्यालङ्कारे द्वौ सूयौं प्रत्येक त्रिंशता मुहूरेकैकमर्द्धमण्डलं चरतः षष्ट्या २ मुहूतैः पुनः प्रत्येकमेकैकं परिपूर्ण मण्डलं 'ससातयतः'पूरयतः 'ता |निक्खममाणा' इत्यादि, ता इति तत्र सूर्यसत्कैकसंवत्सरमध्ये इमो द्वावपि सूयौँ सर्वाभ्यन्तराम्मण्डलान्निष्क्रामन्ती | नोऽन्योऽन्यस्य-परस्परेण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचरतः, नैकोऽपरेण चीर्ण क्षेत्रं प्रति चरति, नाप्यपरोऽपरेण चीर्णमिति भावः, इदं स्थापनावशादवसेयं, सा च स्थापना इयम्-। सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरी प्रविशन्ती द्वावपि खलु सूर्यावन्योMऽन्यस्य-परस्परेण चीर्ण प्रतिचरतः, तद्यथा-शतमेकं चतुश्चत्वारिंशं, किमुक्तं भवति -यैश्चतुर्विंशत्यधिकशतसांग मण्डलं पूर्यते तेषां चतुश्चत्वारिंशदधिक शतमुभयसूर्यसमुदायचिन्तायां परस्परेण चीर्णप्रतिचीर्ण प्रतिमण्डलमवाप्यते | इति, एतदवगमा प्रश्नसूत्रमाह-'तत्थ को हेतू'इति, 'तत्र एवंविधाया वस्तुतत्त्वव्यवस्थाया अवगमे को हेतुः, का| उपपत्तिरिति ?, अत्रार्थे भगवान् वदेत्, अत्र भगवानाह–ता अयण्ण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपस्वरूपप्रतिपादकं वाक्य BARSASA अनुक्रम [२४] 44%%% SARERatantntanational ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल.) सूत्राक [१४] ॥२२॥ पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण परिभावनीयं 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र जम्बूद्वीपे णमिति प्राग्वत् , 'अयं भारहे चेष सूरिप इति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्य दक्षिणस्मिन्नर्द्धमण्डले यश्चारं चरितुमारभते स भरतक्षेत्रप्रकाशकत्वादारत इत्युच्यते, यस्त्वितर-४३प्राभृतस्तस्यैव सर्ववाह्यस्य मण्डलस्योत्तरस्मिन्बर्द्धमण्डले चार चरति स ऐरावतक्षेत्रप्रकाशकत्वादैरावतः, तत्रायं प्रत्यक्षत उप- प्राभूत लभ्यमानो जम्बूद्वीपस्य सम्बन्धी भारतः सूर्यो यस्मिन् मण्डले परिभ्रमति तत्तन्मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वाविभज्य चतुर्विशत्यधिकशतसयान् भागान् तस्य २ मण्डलस्य परिकल्प्येत्यर्थः, सूर्यश्च प्राचीनापाचीनायतया उदगदक्षिणायतया च जीवया-प्रत्यञ्चया दवरिकया इत्यर्थः, तन्मण्डलं चतुर्भािगैर्विभज्य दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्व आग्नेये 1 कोणे इत्यर्थः 'चभागमंडलंसित्ति प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययो मण्डलचतुर्भागे-तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्षे भामे सूर्य-15 संवत्सरसत्कद्वितीयषण्मासमध्ये द्विनवति सूर्यगतानि-द्वानवतिसङ्ग्यानि मण्डलानि स्वयं सूर्येण गतानि-चीर्णानि, किमुक्त भवति ।-पूर्व सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलानिष्कामता स्वचीर्णानि प्रतिचरतीति गम्यते, एतदेव व्याचष्टे-'जाई. सरिए अप्पणा चिण्णं पबियरई'इति यानि सूर्य आत्मना-स्वयं पूर्व सर्वाभ्यन्तराममण्डलानिष्क्रमणकाले इतिशेष, चीर्णाचि प्रतिघरति, तानि च द्विनवतिसक्यानि मण्डलानि चतुर्भागरूपाणि चीर्णानि प्रतिचरति, न परिपूर्णचतुर्भागमात्राणि, किन्तु स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसत्काटादशाष्टादशभागप्रमितानि, ते चाष्टादशाष्टादशभागा न सर्वव्यापि मण्ड- * ॥२२॥ लेषु प्रतिनियते पब देश, किन्तु कापि मण्डले कुत्रापि, केवलं दक्षिणपौरस्त्यरूपचतुर्भागमध्ये ततो 'दाहिणपुरस्थिमसिपउभागमंडलंसी'त्युकम्, पवमुत्तरेष्वपि मण्डलचतुर्भागवष्टादशभागप्रमितत्वं भावनीय, स एव भारतः सूर्यस्तेषामेव EXERॐ अनुक्रम [२४] ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] द्वितीयानां षण्मासानां मध्ये उत्तरपश्चिमे चतुर्भागमण्डले-मण्डलचतुर्भागे एकनवतिसक्यानि मण्डलानि स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसत्काष्टादशाष्टादशभागप्रमितानि 'खयंमतानि'स्वयं सूर्येण पूर्व सर्वाभ्यन्तराममण्डलान्निष्क्रमणकाले चीर्णानि प्रतिचरतीति गम्यते, पतदेव व्याचष्टे-'जाई सूरिए अप्पणा चेव चिपणाई पहिचरति एतत्पूर्ववद् ब्याख्येयं, इह सर्ववाह्यान्मण्डलात् शेषाणि मण्डलानि ज्यशीत्यधिकशतसङ्ख्या नि तानि च द्वाभ्यामपि सूर्याभ्यां द्वितीयषण्मासमध्ये प्रत्येक परिश्रम्यन्ते, सर्वेष्वपि च दिग्विभागेषु प्रत्येकमेकं मण्डलमेकेन सूर्येण परिश्रम्यते द्वितीयमपरेण एवं यावत्सर्वान्तिमं मण्डलं, तत्र दक्षिणपूर्व दिग्भागे द्वितीयषण्मासमध्ये भारतः सूर्यों द्विनवतिमण्डलानि परिचमति, एकनवतिमण्डलानि ऐरावतः, उत्तरपश्चिमे दिग्विभागे द्विनवतिमण्डलान्पैरावतः परिभ्रमति, एकनवतिमण्डलानि भारतः, एतश्च पट्टिकादी मण्डलस्थापनां कृत्वा परिभावनीयं, तत उक्तम्-दक्षिणपूर्वे द्विनवतिसक्यानि मण्डलानि उत्तरपश्चिमे वेकनबतिसक्यानि भारतः स्वयं चीर्णानि प्रतिचरतीति । तदेवं भारतसूर्यस्य स्वीयं चीर्णप्रतिपरणपरिमाणमु कमिदानीं तस्यैव भारतसूर्यस्य परचीर्णप्रतिचरणपरिमाणमाह-तत्थ य अयं भारहे'इत्यादि, 'तत्र'जम्बूद्वीपे 'अयं &प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो जम्बूद्वीपसम्बन्धी भारतः सूर्यो यस्मिन् मण्डले परिचमति तत्तन्मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन भाग-18| शतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनापाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया च जीवया तत्तन्मण्डलं चतुभिर्विभज्य उत्तरपूर्वे इंसाने कोणे इत्यर्थः 'चतुर्भागमण्डले'तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्थे भागे तेषामेव द्वितीयानां षण्मासाना मध्ये ऐरावतस्य सूर्यस्य द्विनवतिसूर्यमतानि-द्विनवतिसामान्यैरावतेन सूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिचरति, एतदेव अनुक्रम [२४] ॐॐॐॐ KISAS*XXXXX ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभृते सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) प्रत % प्राभृत सूत्राक [१४] ॥२३॥ % व्यक्तीकरोति-'जाई सूरिए परस्स चिण्णाई पडिचरइ' यानि सूर्यो भारतः 'परस्स चिन्नाई'इत्यत्र षष्ठी तृतीयार्थे परेण- ऐरावतेन सूर्येण निष्क्रमणकाले चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपश्चिमे च मण्डलचतुर्भागे एकनवतिं-एकनवतिसक्यानि | ऐरावतस्य सूर्यस्येत्यत्रापि सम्बध्यते, ततोऽयमर्थः-ऐरावतस्य सूर्यस्य सम्बन्धीनि सूर्यमतानि, किमुक्तं भवति -ऐरावतेन सूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिचरति, एतदेवाह-'जाई सूरिए परस्स चिपणाई पडियरह'पतत्पूर्ववद् व्याख्येयं, अत्राप्येकस्मिन् विभागे द्विनवतिरेकस्मिन् भागे एकनवतिरित्यत्र भावना प्रागिव भावनीया, तदेवं भारतः सूर्यो दक्षिणपूर्वे द्विनवतिसङ्ख्यानि उत्तरपश्चिमे एकनवतिसङ्ग्यानि स्वयं चीर्णानि उत्तरपूर्वे द्विनवतिसक्यानि दक्षिणपचिमे एकनवतिसमान्यैरावतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीत्युपपादितं, सम्पति ऐरावतः सूर्य उत्तरपश्चिमदिग्भागे द्विनवतिसयानि मण्डलानि दक्षिणपूर्व एकनवतिसयानि स्वयं चीर्णानि दक्षिणपश्चिमे द्विनवतिसक्यान्युत्तरपूर्षे एकनवतिसङ्ग्यानि भारतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीत्येतत्प्रतिपादयति-तत्य अयं एरवए सूरिए इत्यादि, एतच्च सकलमपि प्रागुक्तसूत्रव्या-1 ख्यानुसारेण स्वयं व्याख्येयं । सम्प्रत्युपसंहारमाह-'ता निक्खममाणा खलु'इत्यादि, अस्थायं भावार्थ:-इह भारतः सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् प्रतिमण्डलं द्वौ चतुर्भागौ स्वयं चीणों प्रतिचरति द्वौ तु परचीौँ ऐरावतोऽप्यभ्यन्तरं प्रविशन् | प्रतिमण्डलं द्वौ चतुर्भागी स्वचीणौं प्रतिचरति द्वौ तु परचीर्णाविति सर्वसङ्ख्यया प्रतिमण्डलमेकैकेनाहोरात्रद्वयेन उभयसूर्यचीर्णप्रतिचरणविवक्षायामष्टी चतुर्भागाः प्रतिचीर्णाः प्राप्यन्ते, ते च चतुर्भागाश्चतुर्विंशत्यधिकशतसत्काष्टादशभाग-12 प्रमिताः, एतच्च प्रागेव भावितं, ततोऽष्टादशभिर्गुणिताश्चतुश्चत्वारिंशदधिकं शत भागानां भवति, तत एतदुक्तं भवति % अनुक्रम [२४] ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 'पविसमाणा खलु एए दुवे सूरिया अन्नमन्नस्स चिन्नं पडियरंति, तंजहा-सयमेगं चोयाल मिति, 'गाहाओ'ति, अत्राप्येतदर्थप्रतिपादिकाः काश्चनापि सुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते, ताश्च व्यवच्छिन्ना इति कथयितुं न शक्यन्ते, यो वा यथा सम्प्रदायादवगच्छति तेन तथा वक्तव्याः । यदत्र कुवेता टीका, विरुद्धं भाषितं मया । क्षन्तव्यं तत्र तत्त्वज्ञैः, शोध्यं तच्च विशेषतः ॥१॥" इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथमस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभूत-1 प्राभृतं समाप्तम् ।। सूत्रांक 15534 [१४] अनुक्रम [२४] तदेवमुक्तं तृतीयं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति चतुर्थ वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारः कियत्प्रमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा चार चरत इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता केवइयं एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमातो छ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थ एगे एवमाहंसु-ता एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सरिया चारं चरंति आहिताति बदेजा, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु-ता एग जोयणसहस्सं एगं चउतीसं जोयणसयं अन्नमन्नस्स अंतरं कटु सूरिया चार चरति आहियत्ति वहज्जा, एगे एवमासु २, एगे पुण एवमाहंसु-ता एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसय अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु सूरिया चारं चरंति आहिताति वदेजा, एगे एवमाहंसु ३, एवं एगं समुई अण्णमण्णस्स अंतरं अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ४ आरभ्यते ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्राभृते प्राभूत प्राभूत सूत्राक [१५] सूर्यप्रज्ञ- कटु ४, एगे दो दीवे दो समुहे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति आहियाति वदेजा, एगे एका प्तिवृत्तिः माहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु तिणि दीवे तिणि समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कहु सूरिया चार चरंति आहिया ति वएज्जा, एगे एचमाहंसु ६, वयं पुण एवं वयामो, ता पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगहिभागे जोयणस्स ॥२४॥ एगमेगे मण्डले अण्णमण्णस्स अंतर अभिवढेमाणा वा निवढमाणा वा सूरिया चारं चरंति । तत्थ पं को हेज आहिताति वदेवा, ता अयषणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्वेवेणं पण्णत्ते, ता जया णं एते दुवे सूरिया सचम्मतरमंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तदा णं णवणउतिजोयणसहस्साइंछचत्ताले जोपणसते अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं घरंति आहिताति वदेवा । तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुटुत्ता राई भवति, ते निक्खममाणा सरिया णवं संवच्छरं अयमाणा पतमसि अहोरसि अन्भितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जता गं एते दुवे सरिया' अभितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा ण नवनवति जोयणसहस्साई छच पणताले जोयणसते पणवीसं च लिएगहिमागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट चारं चरति आहिताति वदेजा, तता णं अट्ठारसमुकुत्ते SA दिवसे भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहत्ता राती भवति दोहि एमविभागमुडसेहि अधिया, ते णिक्खममाणे सूरिया दोसि अहोरसि अभितरं तचं मंडलं उवसंकमिसा चारं चरतिता जता दुवे सूरिया अम्भितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तया णं नवनवई जोयणसहस्साई -1 अनुक्रम [२५] ॥२४॥ ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२५] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [१५] प्राभृत [१], ----- प्राभृतप्राभृत [४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः कावणे जोयणसर नब य एगद्विभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरति आहियत्ति वइज्जा, तदा णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवर चउहिं एट्टिभागमुहुरोहिं ऊणे दुबालसमुत्ता राई भवइ उहिं एगट्टिभागमुहतेहिं अधिया, एवं खलु एतेणुवारणं क्खिममाणा एते दुवे सूरिया ततोणंतरातो तदाणंतरं मंडलातो मंडल संकममाणा २ पंच २ जोयणाई पणतीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवर्द्धमाणा २ सबबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, तता णं एवं जोयणसतसहस्सं छच सट्टे जोपणसते अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं परति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहन्ता राई भवर, जहण्णए दुबालसमुहसे दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, ते पविसमाणा सूरिया दोघं छम्मासं अयमाणा पढमंसि अहोरसंसि बाहिरातरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरंति तदा णं एवं जोयणसयसहस्सं छच चडप्पण्णे जोपणसते छत्तीसं च एगद्विभागे जोपणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट चारं चरंति आहिताति बदेखा, तदा णं अट्ठारसमुत्ता राई भवई दोहिं एगट्टिभागमुतेहिं ऊणा दुवालसमुहसे दिवसे भवति दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं अहिए, ते पविसमाणा हरिया दोबंसि अहोरसंसि बाहिरं तथं मंडलं उवसंकमिशा चारं चरंति, ता जता णं एते दुवे सूरिया बाहिरं तवं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तता णं एवं जोयणसयसहस्सं छच अडयाले जोयणसते पावण्णं च पट्टिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं Jan Eucation International For Parts Only ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], ------------ ----- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत मल०) सूत्राक [१५]] सूर्यमज्ञ चिरंतितताणं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ चउहिं एगहिभागमुहत्तेहिं ऊणा दुधालसमुहुरते दिवसे भवति चउहि || १ प्राभृते तिवृत्तिः &ाएगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए। एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणा एते दुवे सरिया ततोऽणंतरातो तदाणंतरं मंड-IIमामृतलाओमंडलं संकममाणा पंच २जोयणा पणतीसे एगहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्संतरंणिबुढे-II प्राभृतं माणा २ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, जया णं एते दुवे सूरिया सबभंतरं मंडलं उवसंकमिसा चारं चरंति तता णं णवणउति जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसते अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरंति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुष्टुत्ता राई भवति, एस णं दोचे छमासे एस णं दोबस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस णं आइचे संवच्छरे, एस णं आइचसंवकछरस्स। पज्जवसाणे । (सूत्रं १५)चउत्थं पाहुडपाहुई समतं ॥१-४॥ 'ता केवइयं एए दुवे सरिया इत्यादि, 'ता'इति प्राग्वत्, एतौ द्वावपि सूयौँ जम्बूद्वीपगती कियत्प्रमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, चरन्तावाख्याताविति भगवान् वदेत, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति शेषकुमतविषयतत्त्वबुद्धिब्युदासाथै परमतरूपाः प्रतिपत्तीर्दर्शयति-तत्व खलु इमाओ'इत्यादि, 'तत्र' परस्परमन्तरचिन्तायां खलुनिश्चितमिमाः वक्ष्यमाणस्वरूपाः षट् प्रतिपत्तयो-यथास्वरुचि वस्त्वभ्युपगमलक्षणास्तैस्तैस्तीर्थान्तरीयैः श्रीयमाणाः प्रजप्ताः, |ता एव दर्शयति-तत्थेगे' इत्यादि, तेषां षण्णां तत्तत्प्रतिपत्तिप्ररूपकाणां तीर्थकानांमध्ये एके तीर्थान्तरीयाः प्रथम स्वशिष्य | प्रत्येवमाहुः-ता एग'मित्यादि, ता इति पूर्ववद्धावनीयः, एक योजनसहनमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशर्त परस्पर अनुक्रम [२५] 44-56 ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], ------------ ----- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत -964645 सूत्रांक [१५] स्यान्तरं कृत्वा जम्बुद्वीपे द्वौ सूर्यों चार चरतश्चरन्तावाख्यातावितिस्वशिष्येभ्यो वदेत् , अत्रैवोपसंहारमाह-'एके एव-18 माहुरिति, एवं सर्वत्राप्यक्षरयोजना कर्त्तव्या, एके पुनर्द्वितीयास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः-एक योजनसहस्रमेकं च चतुर्विंशचतुर्खिशदधिक योजनशतं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके तृतीयाः पुनरेवमाहुः-एक योजनसहस्रं एकं च पञ्चत्रिंशदधिक योजनशतं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके पुनश्चतुर्था एक्माहुः-एक द्वीपं एकं च समुद्रं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके पुनः पञ्चमा एवमाहुः-द्वी द्वीपी द्वौ समुद्रौ परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, एके षष्ठाः पुनरेवमाह-बीन् द्वीपान त्रीन् समुद्रान् परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरत इति । एते च सर्वे तीर्थान्तरीया मिथ्यावादि-1. नोऽयथातत्त्ववस्तुव्यवस्थापनात् , तथा चाह-वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरासादितकेवलज्ञानलाभाः परतीथिकव्यवस्थापितवस्तुव्यवस्थाब्युदासेन 'एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमुपलभ्य वदामः, कथं वदथ | यूर्य भगवन्त इत्याह-ता पंचे'त्यादि, 'ता' इति आस्तामन्यद्वक्तव्यं इदं तावत्कथ्यते, द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यतरान्म| ण्डलाविष्कामन्तौ प्रतिमण्डलं पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणे अभिवर्द्धयन्ती वाशब्द उत्तरविकल्पापेक्षया समुच्चये 'निवुड्डेमाणा वा' इति सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तो प्रतिमण्डलं पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य निर्वेष्टयन्तौ पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणात हापयन्ती, वाशब्दः पूर्वविकल्पापेक्षया समुच्चये, सूयौं चार चरतः, चरन्तावाख्याताविति स्वशिष्येभ्यो वदेत्, एवमुक्ते भगवान् गौतमो निजशिष्यनिःशक्तित्वव्यवस्थापनार्थ भूयः प्रश्नयति-तत्थ 'मित्यादि, तत्र एवंविधाया वस्तुतत्त्व अनुक्रम [२५] ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], ------------ ----- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [१५] सूर्यप्रज्ञ- व्यवस्थाया अवगमे को हेतु:-का उपपत्तिरिति प्रसादं कृत्वा वदेव !, भगवानाह–ता अयन'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीप- प्राभृते सिवृत्तिः४ स्वरूपप्रतिपादकं वाक्यं पूर्ववत्परिपूर्ण स्वयं परिभावनीयम्, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे ४४प्राभृत(मल.) एतौ जम्बूद्वीपप्रसिद्धौ भारतैरावती द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः तदा नक्नवतियोजनसह प्राभृतं ॥ २६॥ स्राणि षट् योजनशतानि चत्वारिंशानि-चत्वारिंशदधिकानि परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः चरन्तावाख्याताविति चदेत् , कथं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वयोः सूर्ययोः परस्परमेतावत्प्रमाणमन्तरमिति चेत् , उच्यते, इह जम्बूद्वीपो योजनलक्षप्रमाणविष्कम्भस्तत्रैकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य मध्ये अशीत्यधिक योजनशतमवगाहा सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरति, द्वितीयोऽप्यशीत्यधिक योजनशतमवगाह्य, अशीत्यधिकं च शतं द्वाभ्यां गुणितं त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि ३६० भवन्ति, पतानि जन्यूजीपे विष्कम्भपरिमाणालशरूपादपनीयन्ते, ततो यथोक्तमन्तरपरिमाणं भवति, 'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरे द्वयोरपि सूर्ययोश्चरणकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्त:-परमप्रकर्षप्राप्तः उत्कर्षका उत्कृष्टो अष्टादशमुहूसों हैं दिवसो भवति, जघन्या-सर्वजघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः 'ते निक्खममाणा इत्यादि ततस्तस्मात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला-12 सी बावपि सूर्यो निष्कामन्तौ नवं सूर्यसंवत्सरमाददानी नवस्य सूर्यसंवत्सरस्थ प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानग्तरमिति सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः 'ता जया ण'मित्यादि ततो यदा |एतौ द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरतस्तदा नवनवतियोजनसहस्राणि पटू पातानि | | पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनानां पञ्चत्रिंशतं चैकपधिभागान् योजनस्येत्येतावत्प्रमाण परस्परमन्तरं कृत्वा चार अनुक्रम [२५] ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२५] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [४], मूलं [१५] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः | चरतश्चरन्तावाख्याताविति वदेत्, तदा कथमेतावत्प्रमाणमन्तरमिति चेत् ?, उच्यते, इह एकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदे कषष्टिभागान योजनस्य अपरे च द्वे योजने विकम्प्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले चरति, एवं द्वितीयोऽपि ततो द्वे योजने अष्टाचत्वारिंश चैकषष्टिभागा योजनस्येति द्वाभ्यां गुण्यंते, गुणिते च सति | पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येति भवति, एतावदधिकं पूर्व मण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्र प्राप्यते, ततो यथोक्तमन्तरपरिमाणं भवति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीय मण्डलचार चरणकालेऽष्टादशमुहूर्त्तो दिवसो भवति, द्वाभ्यां 'एगट्टिभागमुत्तेहि ति मुहूर्त्तेक पष्टिभागाभ्यामूनो, द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहर्त्तेकपष्टिभागाभ्यामधिका, 'ते निक्खममाणा' इत्यादि, ततस्तस्मादपि द्वितीयान्मण्डलान्निष्क्रामन्तौ सूर्यौ नवस्य सूर्य संवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरस्य - सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः 'ता जया ण'मित्यादि, ततो यदा णमिति पूर्ववत्, एतौ द्वौ सूर्यो अभ्यन्तरतृतीयं सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरतः 'तदा' तस्मिंस्तृतीयमण्डलचारचरणकाले नवनवतियोजन सहस्राणि पटू च शतानि एकपञ्चाशदधिकानि योजनानां नव चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतश्चरन्तावाख्याताविति वदेत् तदा कथमेतावत्प्रमाणमन्तरकरणमिति चेत् १, उच्यते, इहाप्येकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरद्वितीयमण्डल गतानष्टा चत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजने विकम्प्य चारं चरति, द्वितीयोऽपि ततो द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशच्चै कषष्टिभागा योजनस्येति द्वाभ्यां गुण्यते, द्विगुणमेव पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशचैकपष्टिभागा योजनस्येति भवति, एतावत्पूर्वमण्डलगतादन्तर परिमाणादत्राधिकं Educatin internationa For Parts Only ~63~ wor Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [२५] ----- प्राभृतप्राभृत [४], मूलं [१५] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) * ७.२७ ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - प्राप्यते इति भवति यथोक्तमन्त्रान्तरपरिमाणं, 'तया णमित्यादि, यदा सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् तृतीये मण्डले चारं चरतस्तदा अष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, चतुर्भिः 'एमट्टिभागमुहन्तेर्हि' प्राकृतत्वात्पद व्यत्यासः, ततोऽयमर्थः - मुहूर्त्ते कपष्टिभागैरुनो, द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिश्चतुर्भिर्मुह तक पष्टिभागैरधिका, 'एव' मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन प्रतिमण्डल मेकतोऽप्येकः सूर्यो द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् विकरूप्य चारं चरति, अपरतोऽप्यपरः सूर्य इत्येवंरूपेण निष्क्रामन्ती तौ जम्बूद्वीपगतौ द्वौ सूर्यो पूर्वस्मात्पूर्वस्मात्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन्तौ एकैकस्मिन् मण्डले पूर्व पूर्व मण्डलगतान्तरपरिमाणापेक्षया पश्च पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमभिवर्द्धयन्तावभिवर्द्धयन्तौ नवसूर्य संवत्सरस्य त्र्यशीत्यधिकशततमेऽहोरात्रे प्रथमषण्मासपर्यवसानभूते सर्वत्राह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरतः, 'ता जया णमित्यादि ततो यदा एतौ द्वौ सूर्यो सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरतः तदा तावेकं योजनशतसहस्रं षट् च शतानि पश्यधिकानि १००६६० परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, कथमेतदवसेयमिति चेत् १, उच्यते, इह प्रतिमण्डलं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्यन्तरपरिमाणचिन्तायामभिवर्द्धमानं प्राप्यते, सर्वाभ्य न्तराच्च मण्डलात्सर्ववाह्यं मण्डलं त्र्यशीत्यधिकशततमं ततः पञ्च योजनानि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि योजनानां ९१५, एकषष्टिभागाश्च पञ्चत्रिंशत्सङ्ख्या अशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातानि तेषां चतुःषष्टिशतानि पञ्चोत्तराणि ६४०५, तेषामेकषष्ट्या भागे हृते लब्धं पञ्चोत्तरं योजनशतं १०५, एतत्प्राक्कने योजनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि योजनानि १०२०, एतत् सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतोत्तर परिमाणे Education international For Paren ~64~ १ प्राभृते ४ प्राभूतप्राभृतं ॥ २७ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], ------------ ----- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] नवनवतियोजनसहस्राणि षट् शतानि चत्वारिंशदधिकानि ९९६४० इत्येवंरूपे प्रक्षिप्यते, ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डले अन्सरपरिमाणं भवति, 'तया ण'मित्यादि तदा सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-परमप्रकर्षप्राप्ता उत्कृष्टा अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहत्तों दिवसः, 'एस णं पढमे छम्मासे इत्यादि प्राग्वत्, 'ते पविस-4 |माणा'इत्यादि, तो ततः सर्ववाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ द्वौ सूयौं द्वितीयं षण्मासमाददानी द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे बाह्यानन्तरं-सर्वबाह्यान्मण्डलादागनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरतस्तदा एक योजनशतसहस्रं षट् शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि पड्विंशतिं चैकषष्टिभागान योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, चरन्तावाख्यातावितिवदेत्, कथमेतावत्तस्मिन् सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तने द्वितीये मण्डले परस्परमन्तरकरणमिति चेत् १, उच्यते, इहकोऽपि सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजने अभ्यन्तरं प्रविशन सर्ववाह्यामण्डलादाक्तने द्वितीये मण्डले चारं चरति, अपरोऽपि, ततः सर्वबाह्यगतादष्टाचत्वारिंशदतरपरिमाणाद् अत्रान्तरपरिमाणं पशभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्योनं प्राप्यते इति भवति यथोक्तमत्रान्तरपरिमाणं,'तया ण'मित्यादि, तदा सर्ववाह्यानन्तराक्तिनद्वितीयमण्डलचारचरणकालेऽष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यां मुहूत्तैकषष्टिभागाभ्यामूना, द्वादशमुहूत्तों दिवसो द्वाभ्यां मुहत्तैकषष्टिभागाभ्यामधिकः, 'ते पविसमाणा'इत्यादि, ततस्तस्मादपि सर्वबाह्यमण्डलार्वाक्तनद्वितीयमण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ तौ द्वौ सूयौं द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरं तचंति सर्वबाह्यान्मण्ड लादाक्तनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरतः 'ता जया णमित्यादि तत्र यदा एती द्वी सूर्यो सर्ववाह्यान्मण्ड अनुक्रम *% [२५] % % SARERatininemarana ~65~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], ------------ ----- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत तिवृत्तिः (मल०) प्राभृतमाभृतं ॥२८॥ सूत्राक [१५] लादाक्तनं तृतीय मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरतः तदा एक योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि द्विपञ्चाशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः, प्रागुक्तयुक्त्या पूर्वमण्डलगतादन्तरपरि- माणादत्रान्तरपरिमाणमस्य पञ्चभिर्योजनैः पञ्चत्रिंशता चैकपष्टिभागैर्योजनस्य हीनत्वात् , 'तया णमित्यादि, तदासर्ववाह्यान्मण्डलादाक्तनतृतीयमण्डलचारचरणकालेऽष्टादशमुहूत्तो रात्रिर्भवति, चतुर्भिर्मुहकपष्टिभागैरूना, द्वादशमु-1 हूतॊ दिवसश्चतुर्भिरेकषष्टिभागैर्मुहूर्तस्याधिकः । एवं खलु'इत्यादि, एवम्-उक्तप्रकारेण खलु-निश्चितमनेनोपायेन एकतो|ऽप्येकः सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् पूर्वपूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादनन्तरे अनन्तरे विवक्षिते मण्डले अन्तरपरिमाणस्याष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान द्वे च योजने वर्धयति हापयत्यपरतोऽप्यपरः सूर्य इत्येवंरूपेण एतौ जम्बूद्वीपगतौ सूर्यो तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सामन्ती सामन्ती एकैकस्मिन् मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणात् अनन्तरेऽनन्तरे विवक्षिते मण्डले पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरपरिमाणं निर्वेष्टयन्ती-हापयन्ती हापयन्तावित्यर्थः, द्वितीयस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सूर्यसंवत्सरपर्यवसानभूते सर्वा|भ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरतः, 'ता जया ण'मित्यादि, तन्त्र यदा एती द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरतः तदा नवनवतियोजनसहस्राणि पद योजनशतानि चत्वारिंशानि-चत्वारिंशदधिकानि परस्परमन्तरं कृत्वा | |चारं चरतः, अत्र चैवं रूपान्तरपरिमाणे भावना प्रागेव कृता, शेष सुगमम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथमस्य प्राभृतस्य चतुर्थ प्राभूतप्राभृतम् ॥ अनुक्रम [२५] For P OW अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-४ परिसमाप्तं ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], ------------ ----- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] तदेवमुक्तं चतुर्थं प्राभृतप्राभृतं सम्पति पञ्चममारभ्यते, तस्य चायं पूर्वमुपदर्शितोऽर्थाधिकारो-यथा कियन्त द्वीप समुद्रं वा सूर्योऽवगाहते इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवतियं ते दीवं समुदं वा ओगाहित्ता सूरिप चारं चरति, आहितातिवदेवा, तस्थ खल इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ-एगे एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं दीवं वा समुई &ावा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु १, एगे, पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एग चउ-ते. |त्तीसं जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु२, एगे पुण एवमासु-ता एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसतं दीवं वा समुई वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु &|३, एगे पुण एवमाहंसु-ता अवडं दीवं वा समुई वा ओगाहित्ता मूरिए चारं चरति, एगे एवमाइंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एग तेत्तीसं जोयणसतंदीवं वा समुई मोगादित्ता सरिए चारं चरति ५ तस्थ जे ते एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसतं दीवं वा समुदं वा उग्गाहित्ता सूरिए चारं चरति, ते एवमाहंसु, जता णं सूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तथा णं जंबुद्दीवं एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं ओगाहित्ता सूरिए चार चरति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई, ता जया णं सूरिए सबबाहिरं मंडलं: जवसंकमित्ता चार चरइ तपाणं लवणसमुरं एक जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसपं ओगाहित्ता चार अनुक्रम [२६] अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ५ आरभ्यते ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [9], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्राक ॥२९॥ [१६] AMROCECACAY चरइ, तया णं लवणसमुई एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया गं|१प्राभूते उत्तमकट्ठपत्सा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहषिणए दुवालसमुहसे दिवसे भवइ । एवं चोत्तीसंद जोयणसतं । एवं पणतीसं जोयणसतं। (पणतीसेवि एवं चेव भाणियवं)तस्थ जे ते एवमासुता अवडं दीवं वा| प्राभूत समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरति, ते एवमाहंसु-जताणंसूरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरत्ति, तताणं अवहुंजंबुद्दीवं २ ओगाहित्ता चारं चरति,तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एवं सबबाहिरएवि, णवरं अवडं लवणसमुई, तता णं राइंदियं तहेव, तत्य जे ते एवमाहंसु-ता णो किश्चि दीवं वा समुई वा ओगाहिता सूरिए चारं चरति, ते एवमाहंसु-ता जता णं सरिए सबभतरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तता णं णो किंचि दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सरिए चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति, तहेव एवं सबषाहिरए मंडले, णवरं णो किंचि लवणसमुई ओगाहिसा चारं चरति, रातिदियं तहेव, एगे एवमासु (सूत्रं १६)॥ 'ता केवइयं दीवं समुई वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरह'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , 'कियन्तं कियत्प्रमाणं द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, चरन्नाख्यात इति वदेत्, एवं प्रश्नकरणादनन्तरं भगवाभिवचनमभिधातु IN॥२९॥ काम पतद्विषये परतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनार्थं प्रथमतस्ता एव परतीर्थिकप्रतिपत्तीः सामान्यत उपन्यस्यति-1 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र सूर्यस्य चार चरतो द्वीपसमुद्रावगाहनविषये खस्विमाः-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च प्रतिपत्तयः EARROTHERS RESANSAR अनुक्रम [२६] ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [9], ------------ ----- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] परमतरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एके तीर्थान्तरीया एवमाहुः–ता इति तावच्छन्दस्तेषां तीर्थान्तरीयानां प्रभूतवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः एक योजनसहस्रमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिक योजनशतं द्वीपं समुद्र वा अवगाह्य सूर्यचारं चरति, किमुक्तं भवति -यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा एक योजनसहनमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशतं जम्बूद्वीपमवगाह्य चार चरति, तदा च परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, सर्वजघन्या च द्वादशमु हतों रात्रिः, यदा तु सर्ववायं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरितुमारभते तदा लवणसमुद्रमेक योजनसहनमेकं च त्रयखि दशदधिकं योजनशतमवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, तदा चोत्तमकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहर्त्तप्रमाणा रात्रिर्भवति, सर्वजघन्यो: द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' १, एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः, 'ता' इति पूर्ववत् , एक योजनसहस्रमेकं च चतुर्विंशदधिक योजनशतं द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, भावना प्राग्वत् , अत्रैवोपसंहार|माह-एगे एवमासु', एके पुनस्तृतीया एवमाहुः-एक योजनसहनमेकं च पंचत्रिंशदधिकं योजनशतमवगाह्य सूर्यश्चार चरति अत्रापि भावना प्रागिव,अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु'एके पुनश्चतुर्थास्तीर्थान्तरीया एवमाहुर, अवहुं'ति अपगतं सदप्यवगाहाभावतो न विवक्षितमद्धे यस्य तमपार्द्धमर्द्धहीनमद्धमानमित्यर्थः, द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, इयमत्र भावना-यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्गम्य सूर्यश्चारं चरति तदा अर्द्ध जम्बूद्वीपमवगाहते, तदा च दिवसः परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहर्तप्रमाणो भवति,सर्वजघन्या च द्वादशमुहत्तंप्रमाणारात्रिः, यदा पुनः सर्वेबाह्य मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्यश्चारं चरति तदा अर्द्ध अपरिपूर्ण लवणसमुद्रमवगाहते, तदा च सर्वोत्कर्षकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणा रात्रिः सर्व ASRACKS अनुक्रम [२६] ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], ------------ ----- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) ॥३०॥ सूत्रांक %9- 6 [१६] सन्न जघन्यो द्वादशमुहूत्तों दिवसः, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु'४, एके पुनः पञ्चमास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः-न किश्चित् १ प्राभृते द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, अत्राय भावार्थः यदापि सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्यश्चारं चरति५प्राभूत तदापि न किमपि जम्बूद्वीपमवगाहते, किं पुनः शेषमण्डलपरिभ्रमणकाले, यदापि सर्ववाद्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्यश्चार प्राभृतं चरति तदापि न लवणसमुद्रं किमप्यवगाहते, किं पुनः शेषमण्डलपरिभ्रमणकाले, किन्तु द्वीपसमुद्रयोरपान्तराल एव | सकलेवपि मण्डलेषु चार घरति, अनोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' ५। तदेवमुक्का उद्देशतः पथापि प्रतिपत्तयः, सम्प्रत्येता एव स्पष्टं भावयति| 'तस्थ जेते एवमाहंसुइत्यादि, प्रायः समस्तमपीदं व्याख्याताई सुगम च, नवरं 'चोत्तीसेवित्ति एवं त्रयत्रिंशदधिक-15 योजनशतविषयप्रतिपत्तिवत् चतुर्विंशे शते या प्रतिपत्तिस्तस्यामालापको वक्तव्यः, स चैवम्-'तत्थ जे ते एवमाहंसु एग जोयणसहस्सं एगं च चउतीसं जोयणसयं दीवं समुई वा ओगाहित्ता चार चरइ, ते एवमासु जयाणं सूरिए सबभंतर मंडल उवसंकमित्ता चार चरति तया णं जंबुद्दीवं एग जोयणसहस्समेगं च चोत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरह, तयाणं | उत्तमककृपत्ते उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहनिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ, ता जया णं सूरिए सबबाहिरं मंडलं | उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं लवणसमुदं एग जोयणसहस्सं एगं चोत्तीस जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरति, तयाणं उत्तमकद्वपत्ता उक्कोसिया अद्वारसमुहुत्ता राई भवति जहन्नए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवई' 'पणतीसे वि एवं चेव भाणिसायब' एवमुफेन प्रकारेण पञ्चत्रिंशदधिकयोजनशतविषयायामपि प्रतिपत्ती सूत्र भणितव्यं, तच सुगमत्वारस्वयं भावनीयं अनुक्रम 952 [२६] ॥३० ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [२६] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [१६] प्राभृत [१], ----- प्राभृतप्राभृत [५], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 'एवं सङ्घमाहिरेवित्त एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डल इव सर्वबाह्येऽपि मण्डले आलापको वक्तव्यः, नवरं जम्बूद्वीपस्थाने 'अवद्धलवणसमुदं ओगाहिता' इति वक्तव्यं तच्चैवम्- 'जया णं सूरिए सपबाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरड़, तया णं अवङ्कं लवणसमुद्दे ओगाहित्ता चारं चरति, तथा णं राईदियष्पमाणउच्भासगत्ति,' 'तथा णमिति वचनपूर्वकं रात्रिन्दिवपरिमाणं जबूद्वीपापेक्षया विपरीतं वक्तव्यं, यज्जम्बूद्वीपावगाहे दिवसप्रमाणमुक्तं तद्रात्रेर्द्रष्टव्यं यद्रात्रेस्तद्दिवसस्य, तच्चैवम्- 'तथा णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्ने दुवालसमुहन्ते दिवसे भवइ', एवमुत्तरसूत्रेऽप्यक्षरयोजना भावनीया । तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रत्येतासां मिथ्याभावोपदर्शनार्थ स्वमतमुपदर्शयति वयं पुण एवं बदाम, ता जया णं सूरिए सकभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तता णं जंबुद्दीवं असीतं जोयणसतं ओगाहित्ता चारं चरति, तदा णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एवं सबबाहिरेवि, णवरं लवणसमुहं तिष्णि तीसे जोयणसते ओगाहित्ता चारं चरति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जण्णए दुबालसमुहुत्ते दिवसे भवति, गाथाओ भाणितवाओ । (सूत्रं १७ ) पढमस्स पंचमं पाहुडपाहुडं ॥ १-५ ॥ "वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञानदर्शना 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेत्र प्रकारमाह--यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा जम्बूद्वीपमशीत्यधिकं योजनशतमवगाह्य चारं चरति, तदा चोत्तमकाष्ठाप्रास Education International For Parts Only ~71~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], ------------ ----- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक सूर्यप्रज्ञ उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, सर्वजघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, 'एवं सववाहिरेवित्ति एवं सर्वाभ्यन्तरम- १प्राभृतेप्तिवृत्तिःण्ड ल इव सर्ववाहोऽपि मण्डले आलापको वक्तव्यः, स चैवम्-'जया णं सबबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरह', (मल.) इति, नवरमिति सर्वबाह्यमण्डलगतादालापकादस्यालापकस्य विशेषोपदर्शनार्थः, तमेव विशेषमाह-'तया णं लवण-12 प्राभूत समुदं तिन्नितीसे जोयणसए ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई|४ भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' इति, इदं च सुगर्म, कचिनु 'सबबाहिरेवी' त्यतिदेशमन्तरेण सक| लमपि सूत्रं साक्षाल्लिखितं दृश्यते, 'गाहाओ भाणियवाओं' अत्रापि काश्चन प्रसिद्धा विवक्षितार्थसङ्घाहिका गाथाः सन्ति ता भाणितव्याः, ताश्च सम्प्रति व्यवच्छिन्ना इति न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते, यथासम्प्रदाय वाच्या इति ॥ इति मलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथमस्य प्राभृतस्य पञ्चमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ [१७] अनुक्रम [२७] RAXAM तदेवमुक्तं पञ्चमं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति षष्ठं वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकार:-कियन्मानं क्षेत्रमेकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो: विकम्पते इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह Pा॥३१॥ - ता केवतियं (A) एगमेगेण रातिदिएणं विकंपइत्ता २ मूरिए चार चरति आहिनेत्ति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता दो जोयणाई अद्धदुचत्तालीसं तेसीतसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं रातिदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु १, एगे पुण एवमाहंसु SCAL अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ५ परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-६ आरभ्यते ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------ ----- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८] CAMERASAC हता अहातिलाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सरिए चारं चरति, एगे एवमासु २, एगे पुण| एवमाहंसु ता तिभागूणाई तिन्नि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ मूरिए चारं चरति, एगे एव-| मासु ३, एगे पुण एवमासु-ता तिषिण जोयणाई अद्धसीतालीसं च तेसीतिसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राईदिएणं विकंपहत्ता २ सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता अदुहाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २सूरिए चारं चरति, एगे एवमासु ५, एगे पुण एवमाहंसु, ता घउ-1 भागूणाई चत्तारि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि जोयणाई अद्धवावण्णं च तेसीतिसतभागे जोयणस्स एगगेगेणं राइदिएणं विक-1 पइत्ता २ सूरिए चारं चरति एगे एबमाहंसु ७। वयं पुण एवं वदामो ता दो जोषणाई अडतालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता २ सूरिए चारं चरति, तत्थ णं को हेतू इतिवदेजा, ता अपण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं पन्नत्ते, ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं उयसं-XI कमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संबच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं वसंकमित्ता चार चरति तदा णं दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगणं राइदिएणं विकंपइत्ता चारं चरति, तता णं अनुक्रम [૨૮] RECHAR ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------ ----- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूयमज्ञ- सिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्राक ॥३२॥ [१८]] अहारसमुहत्ते दिवसे भवति दोहिं एगहिभागमुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगडिभा-17 गमुटुत्तेहिं अहिया । से णिक्खममाणे सरिए दोचंसि अहोरसि अभितरं तथं मंडल उपसंकमित्ता चारं ६प्राभृतचरति, ता जया णं मूरिए अम्भितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पणतीसं च एगट्ठिभागे प्राभूत जोयणस्स दोहिं राइदिएहि विकंपहत्ता चारं चरति, तता णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहि-1 भागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अधिया, एवं खलु एतेणं उबाएणं णिक्खममाणे सूरिए तताणंतराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडतालीसं च एगहिभागे जोयणरस एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकम्पमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ना जया णं सूरिए सबभंतरातो मंडलातो सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता गं सबभंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीतेणं राईदियसतेणं पंचदसुत्तरजोयणसते विकंपइसा चारं चरति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहपणए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमछम्मासे एस णं पढमछम्मासस्स पजवसाणे, से य पविसमाणे सरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरतसि बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता जताणं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उचसंक- ॥३२॥ मित्ता चारं चरति तया णं दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगडिभागे जोयणसए एगेणं राइदिएणं विकम्पइत्ता चारं चरति, तता णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, दोहिं एगविभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ते । अनुक्रम [२८] 056960-800 For P OW ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------ ----- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८] दिवसे भवति दोहिं एगहिभागेहिं मुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सरिए दोसि अहोरत्तंसि बाहिरत सि मंडलंसि वसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं सूरिए बाहिरतचं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति, तया णं पंच जोयणाई पणनीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स दोहिं राइदिएहि विकंपइत्ता चारं चरति, राइदिए तहेव, एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सरिए ततोऽणंतरातो तयाणंतरं च णं मंडलं संकममाणे २ दो जोयणाई अडयालीसं च एगहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे २ सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं सूरिए सववाहिरातो मंडलातो सच्चभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सबबाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणं राईदियसतेणं पंचसुत्तरे जोयणसते विकंपइत्ता चार चरति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दोबस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आदिचे संबच्छरे एस णं आदिचरस संवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं १८) छ8 पाहुडपाहुडं ॥१-६॥ HI 'ता केवइयं ते एगमेगेण राईदिएणं विकंपइत्ता इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कियत्प्रमाणं क्षेत्रमिति गम्यते, 'एग-2 मेगेणं ति अत्र प्रथमादेकशब्दान्मकारोऽलाक्षणिकस्ततोऽयमर्थः-एकैकेन रात्रिन्दिवेन-अहोरात्रेण विकम्प्य विकम्य वि-13 कम्पनं नाम स्वस्वमण्डलाद्वहिरवष्वष्कणमभ्यन्तरप्रवेशनं वा सूर्यः-आदित्यश्चारं चरति, चारं चरन् आख्यात इति अनुक्रम [२८] ॐ%25-2564640 ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------ ----- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत तिवृत्तिः (मल.) सुत्राक ॥३३॥ चदेत !, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव प्ररूप-15 प्राभतेयति-तत्धे'त्यादि, 'तत्र' सूर्यविकम्पविषये खल्विमाः सप्त प्रतिपत्तयः-परमतरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्थेगे'त्यादि, प्राभूत 'तत्र' तेषां सप्तानां प्रवादिनां मध्ये एके एवमाहुः, द्वे योजने अद्धों द्वाचत्वारिंशत्-द्वाचत्वारिंशत्तमो येषां ते अर्धद्वाचत्वारिंशतस्तान् साढ़ेंकचत्वारिंशत्सवानित्यर्थः, त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य, किमुक्तं भवति -व्यशीत्यधिकशतसमभोगैः प्रविभक्तस्य योजनस्य सम्बन्धिनोऽर्दाधिकैकचत्वारिंशत्सङ्ग्यान् भागान् एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य विकम्प्य सूर्यश्चारं चरति, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु । एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः, अर्द्धतृतीयानि योजनानि पाएकैकेन रात्रिन्दिवेन बिकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्राप्युपसंहारः 'एगे एवमाहंमु'२ । एके पुनस्तृतीया एवमाहुःत्रिभागोनानि त्रीणि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अनोपसंहारः 'एगे एवमासु' ३,। एके पुनश्चतुर्थास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः त्रीणि योजनानि अर्द्धसप्तचत्वारिंशतश्च, सार्द्धषट्चत्वारिंशतश्चेत्यर्थः, त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्यरसूर्यश्चारं चरति, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एवमासु'४। एकेका पुनः पञ्चमा एवमाहुः-अर्द्धचतुर्थानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य २ सूर्यश्चारं चरति, अत्रोपसंहारवाक्यं 'एगे एवमासु'५, एके पुनः षष्ठास्तीयोन्तरीया एचमाहुः-चतुर्भागोनानि चत्वारि योजनानि एकैकेन राबिन्दिवेन ॥३१ विकम्प्य २ सूर्यश्वार चरति, अनोपसंहारवाक्यं 'एगे एवमाहंसु'६, एके पुनः सप्तमा एवमाहु-चत्वारि योजनानिक अर्द्धपश्चाशतक्ष-साकपश्चाशत्सङ्ख्यांश्च व्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य २ चारं अनुक्रम [२८] wwwmarary.org ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [२८] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [१८] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः चरति अत्रोपसंहारवाक्यं 'एगे एवमाहंस' । तदेवं मिथ्यारूपाः परप्रतिपत्तीरुपदर्थं सम्प्रति स्वमतं भगवानुपदर्शयति'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण केवलज्ञानोपलम्भपुरस्सरं वदामः, यदुत द्वे द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशकषष्टिभागान योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य २ चारं चरति, चारं चरन् आख्यात इति वदेत्, साम्प्रतमस्यैव वाक्यस्य स्पष्टावगमनिमित्तं प्रश्नसूत्रमुपन्यस्यति -- 'तत्थ को हेतू इति वएज्जा' तत्र एवंविधवस्तुतत्वावगतौ को हेतुः १, का उपपत्तिरिति वदेत् भगवान्, एवमुक्ते भगवानाह - 'ता अयण्ण' मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षकः- उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, 'से निक्खममाणे' इत्यादि, ततः सर्वाभ्यन्तराम्मण्डलान्निष्क्रामन् स सूर्ये नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'अमितराणंतरं'ति सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरं - बहिर्भूतं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा तस्मिन्नवसंवत्सरसत्के प्रथमेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य सूर्यश्चारं चरति, चारं चरितुमारभते, 'तदा ण'मिति प्राग्वत्, द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन पाश्चात्येनाहोरात्रेण विकम्प्य चारं चरति, इयमत्र भावना - सर्वाभ्यन्तरे मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादूर्ध्वं शनैः शनैस्तदनन्तरं द्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचन मण्डलगत्या परिभ्रमति यथा तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशतमेकपष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजने अतिक्रान्तो भवति, Ja Education International For Parts Only ~77 ~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------ ----- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) प्रत १प्राभृते प्राभ प्राभूत ॥३४॥ ततो द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे एव द्वितीयमण्डलमुपसम्पन्नो भवति, तत उक्तम्-'तया णं दो जोयणाई अडयालीसं च एगढिमागे जोयणस्स एगेणं राइंदिएणं विकंपइत्ता सूरिए चारं चरति', 'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वा- भ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारचरणकाले णमिति पूर्ववत् अष्टावशमुहूर्तों दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहूतेकषष्टिभागाभ्यामूनः द्वादशमुहत्तों रात्रि द्वाभ्यां मुहूत्तकषष्टिभागाभ्यामधिका, तस्मिन्नपि द्वितीये मण्डले प्रथमक्षणादूर्व तथा कथञ्चनापि तृतीयमण्डलाभिमुखं मण्डलपरिभ्रमणगत्या चारं चरति यथा तस्याहोरात्रख पर्यन्ते द्वितीयमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च तद्वहिर्भूते द्वे योजने अतिक्रान्तो भवति, ततो नवसंवत्सरस्व द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षण एव तृतीयं मण्डलमुपसङ्कामति, तथा चाह-से निक्खममाणे इत्यादि, स सूर्यो द्वितीयान्मण्डलात्मथमक्षणादूर्व शनैः शनैर्निष्कामन्-बहिर्मुखं परिभ्रमन् नवसंवत्सरसत्के द्वितीयेऽहोरात्रे 'अम्भितरतचंति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां यावत्प्रमाण क्षेत्र विकम्प्य चार चरति तावनिरूपयितुमाह-ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां सर्वाभ्यन्तरमण्डलगततदनन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशत च एकपष्टिभागान् योजनस्य षिकम्प्य, तथाहि-एकेनाप्यहोरात्रेण द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशच्च योजनस्यैकषष्टिभागा | अविकम्पिता द्वितीयेनाप्यहोरात्रेण, तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति, एतावन्मानं विकम्प्य चारं घरति, 'तया ण'मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगम, सम्प्रति शेषमण्डलेषु गमनमाह-'एवं खलु'इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रका अनुक्रम [૨૮] ॥ ४ ॥ ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------ ----- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८] रेण खलु-निश्चितमेतेनोपायेन तत्तन्मण्डलप्रवेशप्रथमक्षणादूर्ध्वं शनैः शनैस्तत्तद्वहिर्भूतमण्डलाभिमुखगमनरूपेण तस्मात्तनमण्डलान्निष्कामन् तदनन्तराम्मडलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्कामन् २एकैकेन रात्रिन्दिवेन दे द्वे योजने अष्टाच-1 त्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयन् २ प्रथमपण्मासपर्यवसानभूते त्र्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति, 'ता जया 'मित्यादि, सुगम, 'तया 'मित्यादि, सदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधायअवधीकृत्य तत्तद्गतमहोरात्रमादि कृत्वा इत्यर्थः, व्यशीतेन-व्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि विकम्प्य, तथाहि-एकैकस्मिन्नहोरात्रे द्वे द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयति, ततो दे द्वे योजने न्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्येते, जातानि त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि ३६६, येऽपि चाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा (प्रथा |१०००) तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, तेषां योजनानयनार्थमेकपश्या भागो हियते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशं योजनशतं १४४, एतत्पूर्वस्मिन् योजनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि पञ्च शतानि दशोत्तराणि ५१०, एतावत्प्रमाणं विकम्प्य चारं चरति, 'तया णमित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगम, सर्यवाही च मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादू शनैः शनैरभ्यन्तरसर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथञ्चनापि मण्डल गत्या परिभ्रमति येन प्रथमषण्मासपर्यवसानभूताहोरात्रपर्यवसाने सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकपष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वे योजने अतिक्रम्य सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलसीमायां वर्तते, ततोऽनन्तरे द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे सर्वबाह्यानन्तरं द्वितीयमभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशति, तथा चाह-से पविसमाणे इत्यादि, 4-549 अनुक्रम [૨૮] ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], ------------ ----- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: राते सूर्यपज्ञ पाभूत प्रत ठिवृत्तिः (मल०) ॥३५॥ स सूर्यः सर्ववाह्यान्मण्डलादुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयषण्मासस्य प्रथमेऽहोराने चाहिराणतरंति सर्वबाह्यस्य प्राभूते ४ मण्डलस्याभ्यन्तरं द्वितीयमनन्तरमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'ता जया णमित्यादि, ता इति-तत्र यदा सूर्यो बाह्यानन्तरं-सर्वबाह्यमण्डलानन्तरमभ्यन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकेन रात्रिन्दिवेन सर्वबाह्यमण्डल प्राभूत गतेन प्रथमपण्मासपर्यवसानभूतेन द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य, एतच्चानन्तरमेव भावित, चारं चरति-चार प्रतिपद्यते, 'तया ण'मित्यादि, राबिन्दिवपरिमाणं सुगम, 'से पविसमाणे इत्यादि, स सूर्यः सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरद्वितीयमण्डलादपिप्रथमक्षणादूर्व शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्य पण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरतचंति सर्ववाश्यस्य मण्डलस्याभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां सर्वबाह्यमण्डलगतहे सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य तथा एकेनाप्यहो रात्रेण प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेन द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयति, द्वितीयेनाप्यहो रात्रेण द्वितीयषण्मासप्रथमेन, तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति, 'तया 'मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं & सुगर्म, 'एवं खलु एएण उषाएणं पविसमाणे इत्यादि सूत्रं प्रागुक्तसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयम् ॥ M३५॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां प्रथमस्य प्राभूतस्य पाठ प्राभूतपाभूत समाप्तम् ॥ 25 [૨૮] 000000000 अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ६ परिसमाप्तं ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [७], -------------- ----- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९ तदेवमुक्त षष्ठं प्राभृतमाभृत, सम्प्रति सप्तममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः पूर्वमुद्दिष्टो यथा 'मण्डलानां संस्थान वक्तव्य'मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते मंडलसंठिती आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमातो अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता सचावि मंडलवता समचउरंससंठाणसंठिता पं० एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु, ता सवा-13 विणं मंडलवताविसमचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु२, एगे पुण एवमाहंसु सवाविणं मंडलवया। समचदुकोणसंठिता पं० एगे ए०३, एगे पुण एवमाहंसु सवावि मंडलवता विसमचजकोणसंठिया पं० एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवया समचकवालसंठिया पं० एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवता विसमचक्वालमंठिया प० एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमाहंसुता समावि मंडलवता चक्कद्धवालसंठिया पं० एगे एवमाहंमु७, एगे पुण एवमाहंसु-ता सवावि मंडलवता छत्तागारसंठिया पं० एगे एवमासु, तत्थ जेते एवमासु ता सवावि मंडलवता छत्ताकारसंठिता पं० एतेणं |गएणं णायवं, णो चेव णं इतरेहिं, पाहुडगाहाओ भाणियबाओ (सूत्रं १९)॥ पढमस्स पाहुडस्स सत्तम पाहुडपाहुड समत्तं ॥ १-७॥ | 'ता कहं ते मंडलसंठिई' इत्यादि, 'ता'इति पूवित्, कथं भगवन् ! तत्त्वया मण्डलसंस्थितिराख्याता इति भगवान विदेत् , एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सत्येतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनार्थं प्रथमतस्ता एवोप अनुक्रम [२९] अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ७ आरभ्यते ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [२९] मूलं [१९] प्राभृत [१], ----- प्राभृतप्राभृत [७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - सूर्यप्रज्ञ शिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ३६ ॥ |दर्शयति- 'तत्थ खलु' इत्यादि, 'तत्र' तस्यां मण्डलसंस्थितौ विषये खल्विमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः प्रज्ञष्ठाः, तद्यथा-तत्र तेषामष्टानां परतीर्थिकानां मध्ये एके-प्रथमे तीर्थान्तरीया एवमाहुः, 'ता' इति तेषामेव तीर्थान्तरीयाणामनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थ', 'सङ्घावि मंडलवय'त्ति मण्डलं-मण्डलपरिभ्रमणमेषामस्तीति मण्डलवन्ति चन्द्रा| दिविमानानि तद्भावो मण्डलवत्ता, तत्राभेदोपचारात् यानि चन्द्रादिविमानानि तान्येव मण्डलवत्ता इत्युच्यन्ते, तथा ॐ चाह- सर्वा अपि समस्ता मण्डलवत्ता - मण्डलपरिभ्रमणवन्ति चन्द्रादिविमानानि, समचतुरस्रसंस्थान संस्थिताः प्रज्ञप्ताः, अत्रोपसंहारः 'एंगे एवमाहंसु' एवं सर्वाण्युपसंहारवाक्यानि भावनीयानि, एके पुनद्वितीया एवमाहुः सर्वा अपि भण्डलवत्ता विषमचतुरस्र संस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः २, तृतीया एवमाहुः सर्वा अपि मण्डलवत्ताः समचतुष्कोणसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ३, चतुर्थी आहुः सर्वा अपि मण्डलबत्ता विषमचतुष्कोण संस्थिताः प्रज्ञप्तः ४, पञ्चमा आहुः सर्वा अपि मण्डल वित्ताः समचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ५, षष्ठा आहुः सर्वा अपि मण्डलवत्ता विषमचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञता ६, सप्तमा आहुः सर्वा अपि मण्डलबत्ताश्चक्रार्द्धचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः ७, अष्टमा पुनराहुः सर्वा अपि मण्डलवत्ता छत्राकारसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः- उत्तानीकृतछत्राकारसंस्थिताः, एवमष्टावपि परप्रतिपत्तीरुपदर्थ सम्प्रति स्वमतमुपदिदर्शयिषुराह'तत्थ' इत्यादि, तत्र तेषामष्टानां तीर्थान्तरीयाणां मध्ये ये एवमाहुः सर्वा अपि मण्डलवत्ता छत्राकार संस्थिताः प्रज्ञप्ता इति एतेन नयेन, नयो नाम प्रतिनियतैकवस्त्वंशविषयोऽभिप्रायविशेषो यदाहुः समन्तभद्रादयो-'नयो ज्ञातुरभिप्राय' इति, तत एतेन नयेन- एतेनाभिप्रायविशेषेण सर्वमपि चन्द्रादिविमानज्ञानं ज्ञातव्यं सर्वेषामप्युत्तानी कृत कपि Education International For Palata Use Only ~ 82~ ४१ प्राभृते ७ प्राभृत प्राभृतं ॥ ३६ ॥ waryru Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [७], ------------ ----- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक merorer [१९ यार्डसंस्थानसंस्थितत्यान चैक-बैच इतरैः बोनयलथावस्तुतखाभावात्, 'पाहुनाहाओ भाणियवाओंति अत्रापि अधिकृतमाभृतमामृतार्थप्रतिपादिकाः काश्चन गाथा वर्सम्ते, ततो यथासम्प्रदाय भणितव्या इति । इति श्रीमदयगिरिविरचितायां सूर्यपज्ञप्तिदीकायां प्रथमस्य मामृतस्य सक्षम प्राभूतप्राभूतं समाप्तर ॥ तदेवमुक्त सप्तमं प्राभृतप्राभूत, साम्प्रतमष्टममारभ्यते-तस्य चायमर्थाधिकारी-'मण्डलानां विष्कम्भो वक्तव्य ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता सवावि णं मंडलवया केवतियं बाहल्लेणं केवलियं आयामविक्रमेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहिताति वदेजा ?, तत्थ खलु इमा तिपिण पडिवत्तीओ पपणत्ताओ, तत्थेगे एबमासु-ता सघाविणं मंडलवता जोयर्ण वाहल्लेणं एगं जोयणसहस्सं एग लेत्तीस जोयणसतं आपामविक्खंभेषां तिपिण जोयणसहस्साई तिषिण य नवणए जोयणसते परिक्खेवेणं १०, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसुला सघावि णं मंडलवता जोवर्ण पाहल्लेणं एगं जोयणसहस्सं एगं च चउत्तीर्स जोपणसर्य आयामविक्खं भेणं तिषिण जोयणसहस्साई चत्तारि विउत्तरे जोपणसते परिक्खेवणं पं०, एगे एषमासु, एगे पुण एवमाहंसु-ता जोक्णं बाहल्लेणं एगं जोषणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसतं मायामविक्खंभेणं तिमि जोयणसहस्साई सारि पंचुसरे जोयणसले परिक्खेषेण पक्षणसा, एगे एवमासु, वयं पुष एवं वयामो-ता सबाषि मंगलयता अडतालीसं एगहिभागे जोपणस बाहलेणं अधियता आयामरिक्रमेणं परिक्खेत्रेणं आहिताति बदेजा, तस्थ अनुक्रम [२९] 961 अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- " परिसमाप्तं अथ प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ८ आरभ्यते ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३०] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [२०] प्राभृत [१], ----- प्राभृतप्राभृत [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यज्ञ- ४ को ऊत्ति बदेजा १, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, ता जया णं सूरिए सबअंतरं मंडल उबसिवृत्तिः संकमित्ता चारं चरति तथा णं सा मंडलवता अडतालीस एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणउइजोयण(मल०) सहस्सा छच्च चत्ताले जोयणसते आयामविक्वं भेणं तिष्णि जोयणसतसहस्साई पण्णरसजोयणसहस्साई ॥ ३७ ॥ * एगूणण जोयणाई किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसर अट्ठारसमुन्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, से णिकखममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोर तंसि अभितराणंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितरातरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं सा मंडलवता अडयालीसं एगट्टिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणवई जोयणसहस्साइं छच्च पणताले जोयणसते पणतीसंच एगद्विभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिष्णि जोयणसत सहस्साई पन्नरसं च सहस्साई एवं चउत्तरं जोयणसतं किंचिविसेसृणं परिक्खेवेणं तदा णं दिवसरातिप्यमाणं तहेव । से णिक्खभमाणे सूरिए दोघंसि अहोरत्तंसि अभितरं तचं मंडलं उयसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभितरं तवं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं सा मंडलवता अड़तालीसं एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणवतिजोयणसहस्साई छच एकावण्णे जोयणसते णव य एगट्टिभागा जोयणस्स आयाम विक्खंभेणं तिष्णि जोयणसय सहस्साई पन्नरस य सहस्साई एगं च पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवेणं पं० तता णं दिवसराई तहेब, एवं खलु एतेण णएणं निक्खममाणे सुरिए तताणंतंरातो तदाणं Educatuny Internationa For Park Use Only ~84~ १ प्राभूते ८ प्राभृत प्राभूतं Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ------------ ----- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: AR प्रत सूत्रांक [२०] दीप तर मंडलातो मंडलं उवसंकममाणे २ जोयणाई पणतीसं च एगहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विखंभवुहिं अभिवहेमाणे २ अट्ठारस २जोयणाई परिरयबुर्खि अभिवहेमाणे २ सववाहिरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सवयाहिरमंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति तता णं सा मंडलयता अडतालीसं एगट्ठिभागा जोयणसयसहस्सं उच्च सद्धे जोयणसते आयामविखंभेणं तिनि जोयणसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साई तिणि य पण्णरसुत्सरे जोयणसते परिक्खेवेणं तदा णं उकोसिया 'अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, एस णं पतमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पल्लवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पतमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं वाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ताचारं चरति, ताजया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं जवसंकमित्ता चारें चरति तता णं सा मंडलवता अडतालीसं एगहिभागे जोयणस्स चाहल्लेणं एग जोयणसयसहस्सं छच्च चउपपणे जोयणसते छच्चीसं च एगहिभागे जोयणस्स आयामविखंभेणं तिन्नि जोयणसतसहस्साई अट्ठारससहस्साई दोण्णि य सत्ताणउते जोयणसते परिक्खेवेणं पं०, तता णं राइदियं तहेच, से पविसमाणे सरिए दोचे अहोरसि बाहिरं तचं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिर तचं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, तता णं सा मंडलवता अडयालीसं एगट्टिभागे जोयणस्स पाहल्लेणं एग जो यणसतसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावणं च एगहिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिणि जोय SAROKAR SEXBABASAHES अनुक्रम [३०] ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३०] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [८], मूलं [२०] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ ३८ ॥ सूर्यप्रज्ञ-सतसहस्साइं अट्ठारस सहस्साई दोष्णि अडपणाती से जोपणसने परिकखेवेणं पं०, दिवसराई लहेब, एवं सिवृत्तिः ४ खलु एतेषाएणं पचिसमाणे सूरिए लताणंतरात तदाणंतरं मंडलातो मंडल संकमधाणे २ पंच २ जोम( मल०) गावं पणतीसं च पपद्विभागे ओपणास एगमेगे मंडले विक्संभवुद्धिं जिबुट्टेमाचे २ अट्ठारस जोवणारं परित्यबुद्धिं निवुडेमाणे २ सन्भंतरं मंडलं उबसंकमिता चारं चरति, ता जता णं सुरिए सहभंतरं ४ मंडल उबसंकमिला चारं चरति, सत्ता णं सा मंडलषया अडवालीसं एगद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं व्यवणउर्ति जोपणसहस्साएं सब बसाले जोपणसए आयामविक्संभेणं लिपिण जोपणसय सहस्साइं पण्णरस य सहस्साइं अडणाउति जोपणा किंचिविसेसाहियाई परिक्खेवेनं पं० तताणं उत्तमकटुपले उक्कोसए अहारसमुहसे दिवसे भवति, जहणिया दुधालसमुहसा राई भवति, एस पां दोबस्स छम्मासस्स पजचसाणे एस वं आदिवे संवरे एस णं आदिजस्स संकच्छरस्स पजचसाणे, ता सङ्घाचि पां मंडलवता अडतालीसं एगट्टिभामे जोयणास बाइलेणं, समावि पां मंडलसरिया दो जोयणाई बिक्वंभेषणं, एस णं अडा तेसीयसत पपन्नो पंचदमुत्तरे ओघणसले आहिताति वदेजा, ता अभिंतरातो मंडलवलाओ बाहिरं मंडलबतं याहिराओ वा अभितरं मंडलवतं एस पां अद्धा केवतियं आहिनाति वदेजा ?, ता पंचदसुप्तरजोपणसते आदिताति वदेजा, अतिराते मंडलवताले बाहिरा मंडलच्या बाहिराओ मंडवलातो भितरा मंडलता एस अद्धा केवलियं आहितानि बदेखा ?, ता पंचदप्तरे जोपसते अडताही एमहिलाये जोपास्ट आहि Education Internation For Parts Only ~86~ १ प्राभूते ८ प्राभृतप्राभूतं ॥ ३८ ॥ wor Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ------------ ------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप नाति बवेजा, ता अम्भलरातो मंडलवतातोशाहिरमंडलपला वाहिरालो. अभंतरमंदसवता एस है केवतियं आहिताति वदेखा, ता पंचणवुसरे जोपणसते तेरस प पहिमाये जोक्पास्स आहिताति बदेजा, अम्भितराते मंडलषताए बाहिरा मंडलक्या बाहिराते मंडलबताले अन्तरमंडलवया, पस अद्धा केवति Xआहितालिषदेजा, ता पंचदसुसरे जोयणसए आहियत्ति बवेजा (सन २.) अहम पाहुबपाहुई। पब पाहुई समत्तं॥ PM तासबारिणं मण्डलवपा' इस्पादि, 'सा' इति पूर्ववत् , सर्वाण्यपि माइलपदावि मण्डलरूपाणि पदानि मण्डलपदानि, मण्डलपदानि] सूर्यमण्डलस्थानानीत्यर्थः, फियम्माचं बाहल्येग कियदायामविष्कम्भाभ्यां किवत्परिक्षेपेण-परिधिना आख्याट्रातानि इति वदेत्, सूत्रे स्त्रीवनिर्देश प्राकृतावात,माकृते रिलिजव्यभिचारि, बदाह पाणिनिः स्थमाकृतलक्षणे-लिई व्यभिचार्यपी लि, एवं भगवता गोलमेन प्रश्शे कृते सतिभगवानेतद्विषयपर तीर्थिकप्रतिपसीनां मिथ्याभाकोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एबोपन्यस्यसि तत्स्थ स्वम्' इत्यादि, तत्र मण्डलकाहल्यादिविचारविषये खतिवमास्तिमा प्रतिपयःप्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तब-४ तेषां बयाणां परतीथिकानांमध्ये एके तीर्थान्तरीकराएवमाहु:-'ता' इति प्राम्बत् , सर्यापयपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि जोयणं बाहल्लेणं तिप्रत्येक योजनमेक 'बाहस्पेन' पिण्डेन एक बोजनसहरमेकं च बखिंशयवखिंवादधिक योजनशत, आयामविसंभेण सि आयाम विष्कम्भन आयामरिक समाहारो दबलेम प्रलोकमायामेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः बीणि योजनसहचामि चीणि पनवस्यतानियोजनशताविपरिक्षेपःप्रजापि, सर नीर्थान्तरीबायां मवेष मण्डल अनुक्रम [३०] Emational ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], --------------------- प्राभृतप्राभृत [८], -------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभूते प्रत प्राभूत प्तिवृत्तिः (मल.) ॥ ३९॥ सूत्राक [२०] दीप स्यायामविष्कम्भमेवं योजनसहनमेकं योजनशतं च त्रयस्त्रिंशदधिकमायामविष्कम्माभ्यां ते परिरयपरिमाणं वृत्तपरिमाणात विगुणमेव परिपूर्णमिच्छन्ति, नविशेषाधिकमतस्त्रीणि योजनसहस्राणि श्रीणि शतानि नवनवतानीत्युक्तं, तथाहि-सहस्रस्य | त्रीणि सहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि त्रयविंशतश्च नवनवतिरिति, इदं परिरयपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वहस्स परिरओ होइ' इति परिरयगणितेन व्यभिचारि, तेन हि परिरयपरिमाणानयने त्रीणि योजनसहस्राणि पश्च शतानि ब्यशीत्यधिकानि किश्चित्समधिकान्यागच्छन्ति, तथाहि-एक योजनसहनमेकं च योजनशतं त्रयस्त्रिंशदधिकमित्येकादश योजनशतानि त्रयविंशदधिकानि ११३३, एतेषां वर्गों विधीयते, जात एकको द्विकोऽष्टकखिकः षट्कोऽष्टको नवकः १२८३६८९, सतो दशभिर्गुणितेन जातमेकमधिकं शून्य १२८३६८९०, एतेषां वर्गमूलानयने आगच्छति यथोकं परिरयपरिमाणमतस्तम्मतेन परिरयपरिमाणं व्यभिचारि, एवमुत्तरमपि मतद्वयं परिभावनीय, अत्रैव प्रथममते उपसंहार &एगे एवमासु १, एके पुनरेवमाहुः-सर्वाण्यपि सूर्यमण्डलपदानि प्रत्येकमेकं योजनं बाहल्येन एक योजनसहनमेकं च | योजनशतं चतुर्विंश-चतुर्खिशदधिकमाषामविष्कम्भाभ्यां ११३४ त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि व्युत्तराणि १४०२ परिक्षेपतः, तथाहि-एतेषामपि मतेन विष्कम्भपरिमाणात् परिरयपरिमाणं परिपूर्णत्रिगुणरूपं, ततः सह-1ळू अस्य श्रीणि सहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि चतुर्विंशतो व्युत्तरं शतमिति, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमासु' एके पुनरेवमाहुः-सर्वाण्यपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि प्रत्येकमेक योजनं बाहल्येन एकं योजनसहनमेकं च योजनशतं पञ्चत्रिशं-पश्चत्रिंशदधिकमायामविष्कम्भाभ्यां ११३५ त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि पञ्चोत्तराणि ३४०५/ अनुक्रम [३०] 45-505461555 ॥३९॥ ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३०] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [२०] प्राभृत [१], ----- प्राभृतप्राभृत [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः परिक्षेपतः, तथाहि - एकस्य योजनसहस्रस्य त्रीणि योजनसहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि पञ्चत्रिंशतः पश्चोत्तरं शतमिति, एतानि त्रीण्यपि मतानि मिथ्यारूपाणि परिरयपरिमाणमात्रेऽपि व्यभिचारात् अतो भगवान् तेभ्यः पृथक् स्वमतमुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता सहावी'त्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् सर्वाण्यपि मण्डलपदानि - सूर्यमण्डलानि प्रत्येकं बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य आयाम विष्कम्भपरि| क्षेपेण-आयाम विष्कम्भपरिक्षेपैः पुनरनियतानि आख्यातानि, कस्यापि मण्डलस्य कियान आयामो विष्कम्भः परिक्षेप| श्वेति भाव इति स्वशिष्येभ्यो वदेत्, एवमुक्ते भगवान् गौतमः पृच्छति- 'तत्थ णं को हेऊ इति वज्जा' तत्र-मण्डलपदानामायामविष्कम्भपरिक्षेपानियतत्वे को हेतुः- का उपपत्तिरिति वदेत् ?, अत्र भगवानाह - 'ता अयन मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं परिभावनीयं व्याख्यानीयं च 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा सम्मण्डलपदं, सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वाद्, बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य ज्ञातव्यं, आयामविष्कम्भाभ्यां नवनवतियोंजनसहस्राणि षट् शतानि चत्वारिंशदधिकानि ९९६४०, तथाहि - एकतोऽपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमशीत्यधिकं योजनशतं जम्बूद्वीपमवगाह्य स्थितमपरतोऽपि, ततोऽशीत्यधिकं योजनशतं द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि षष्यधिकानि ३६०, एतानि जम्बूद्वीपविष्कम्भपरिमाणालक्षरूपात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश सहस्राणि एकोनवत्यधिकानि ३१५०८९ परिक्षेपतः, तथाहि - तस्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य विष्कम्भो नवनवतिय जनस Education International For Pernal Use Only ~ 89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ------------ ------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- (मल०) प्रत सूत्रांक ॥४०॥ [२०] श्रीप हवाणि पद शतानि चारिंगरपिचनि १९१४०, पतेषां पा विधीयते, जातो नवको नवको बिकोऽहक एककोशिको १ प्राभृते नक्की डोर शून्वे ९९२८१२९६०, ततो दशभिर्युषचे जातमेकमधिकं शून्य ९९२८१२९६०००, अलबर्ग- प्राभृतमूलानयनेन सम्ध यो परिश्यममाणं, शेषं सिधति द्विक पककोऽष्टक शून्यं सप्तको नवका २१८०७९ पतत् त्व, प्रामृत लिया गमित्याविना रात्रिदिवपरिमाण सुगम । 'से निक्खममा' इत्यादि, स सूर्यः सर्वाभ्यन्तराममण्डलामागुरुप्रकारेण विष्कासन् नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्व प्रथमेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसहायडू चारं चरति तन यदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा तन्मण्डलपदमष्टाचयारिंशदेकर हिभागा योजनस्य बाहस्येन, नवनवतियोंजनसहस्राणि षट् शतानि पश्चचत्वारिंशदधिकानि पञ्चविंशश्चकषष्टिभागा योजनस्थायामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-एकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यस्तरमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्वापरेच योजने बहिरवष्टभ्य द्वित्तीये मण्डले चारं चरति द्वितीयोऽपि, ततो द्वयोर्योजनयोरष्टाचत्वारिंशतकपष्टिभामानां योजनख द्वाभ्यां गुणने पक्ष बोजवानि पञ्चविंशकपष्टिभागा योजनस्पति भवति, एतत्प्रथममण्डलविष्कम्भपरिमाणे[धिकत्वेन प्रक्षिप्यते, तसो भवति यथोक वितीयमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणमिति, तत्र त्रीणि योजनशतसहस्राणि परदश सहमाणि पच समोत्तरं बोजनमतं किचिद्विशेषाधिक परिरयेपा प्रज्ञलं, तथाहि-पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमा- ॥४०॥ णादस्य मण्डलस्य विषकम्भायायपरिमाणे पञ्च योजनानि पचत्रिंशचैपष्टिभागा योजनस्थाधिकल्वेन प्राप्यन्ते, सतोऽस्व राशेः पृथक परिरक्परिमाथमानेतव्यं, तब पच योजनान्येष्टिभागकरणार्थमेकका गुण्यन्ते, जातानि चीणि शतानि अनुक्रम [३०] ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ------------ ----- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप नोत्तराणि ३०५, पतेषां मध्ये उपरितनाः पञ्चत्रिंशदेकषधिभामा प्रक्षिप्यन्ते, जातानि बीपि शतामि चत्वारिंशवधिगानि ३४०, एतेषां वर्गो विधीयते, वर्गपित्वा प दशभिर्गुणनात् ततो जास एकक एकक पक्षका बस्त्रीणि शून्यानि ११५९०.०, तत एषां वर्गभूलानयने लब्धानि दश शतानि पञ्चसमत्यधिकानि १०७५, एतेषां योजनान वनार्थमेकपा भागे हते लब्धानि सप्तदश योजनानि अत्रिंशकपष्टिभागा योजनस्य १७६, एतत्पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणेऽधिकरवेगी है प्रक्षिप्यते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं भवति, किश्चिविशेषोनता च किश्चिदूनत्रयोविंशत्या एकपष्टिभाग-2 रूनला द्रष्टव्या, 'तया पांदिवसरापमाणं तह घेव' तदा-द्वितीयमण्डलधारचरणकाले दिवसरात्रिप्रमाणं तथैव-12 यावत् ज्ञातव्यं, तधम्तया णं अवारसमुहसे विक्से हवा दोदि एगद्विभागमुहत्तेहि ऊणे दुवाससमुद्र हुत्ता राई भषति दोहि एगविभागमुडत्तेहिं अहिया, 'से मिक्सममाणे इत्यादि, ततः सूर्यो द्वितीयस्मारमण्ड-* लादुतप्रकारेण निष्कामन मक्सक्स्सरसरके द्वितीयेवोरात्रे 'अम्भितरं तचंति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरलि, 'ता जया व्यमित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्ब चार चरति तदा सत्तृतीयं मण्डलपद अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट् योजन शशाग्येकपश्चाशदधिकानि बब चैकाधिभागा योजनख ९९१५१ आयामरिष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि प्रायिवात्रापि पूरीपाडलरिकम्भायामपरिमाणात् पञ्च योजनानि पञ्चशिकपष्टिभान योजनस्थापिकत्वेन प्राप्यन्ते, ततो५ है थोकमायामविष्कम्भपरिमाणं भवति चीणि योजनासहवापि पचदश बरखाणि एप पञ्चविंशत्यधिक योजना अनुक्रम [३०] ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ------------ ----- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२०] दीप सूर्यप्रश- परिक्षेपेण प्रज्ञप्त, तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य विष्कम्भे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकवष्टिभागा योजनस्याधिकत्वेन प्राप्यन्ते, ४१ प्राभृते प्तिवृत्तिः मततो यथोक्तमत्रायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, तस्य च पृथक् परिरयपरिमाण सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशच एकप-ल (मल.) ष्टिभागा योजनस्य, एतन्निश्चयनयमतेन, परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतमवलम्ब्य परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि विवक्षि- प्राभृतं ॥४१॥ तानि, व्यवहारनयमतेन हि लोके किशिदूनमपि परिपूर्ण विवक्ष्यते, तथा यदपि पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणे किञ्चिदून-४ त्वमुक्तं तदपि व्यवहारनयमतेन परिपूर्णमिव विवक्ष्यते, ततः पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणे अष्टादश योजनान्यधिकस्वेन प्रक्षिप्यन्ते इति भवति यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं, 'तया णं दिवसराई तहेव' इति तदा तृतीयमंडलचा-1 रचरणकाले दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, तच्चैवम्-तया णं अवारसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहुसेहि ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चउहि एगडिभागमुहुत्तेहि अहिया, 'एवं खल्वि'त्यादि, एवं-उक्तप्रकारेण खलु & निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमे कैकमण्डलमोचनरूपेण निष्कामन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सामन्| सामन् एकैकस्मिन् मण्डले पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्येवंपरिमाणां विष्कम्भवृद्धिमभिव-14 आईयनभिवर्द्धयन् एकैकस्मिन्नेतन्मण्डले अष्टादश अष्टादश योजनानि परिरयवृद्धिमभिवर्द्धयन्नभिवर्धयन इहाष्टादश अष्टा दशेति व्यवहारत उकं, निश्चयनयमतेन तु सप्तदश सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशतं चैकषष्टिभागा योजनस्येति द्रष्टव्यं, एतच्च प्रागेव भावित, न चैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितं, यत उक्तं तद्विचारप्रक्रमे एव करणविभावनायां-'सत्तरस जोयणाई अद्वतीसं च एगहिभागा १७६६ एयं निच्छएण संववहारेण पुण अट्ठारस जोयणाई' इति प्रथमषण्मासपर्य अनुक्रम [३०] ॥४१॥ weredturary.com ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३०] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [२०] प्राभृत [१], ----- प्राभृतप्राभृत [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः वसानभूते त्र्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वत्राह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा तत्सर्वबाद्यं मण्डलपदं अष्टचत्वारिंशदेकपष्टि भागा योजनस्य बाहल्येन एक योजनशतसहस्रं पट् शतानि षष्ट्यधिकानि १००६६० आयामविष्कम्भेन- आयामविष्कम्भाभ्यां तथाहि - सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः सर्वबाह्यं मण्डलं पर्यवसानीकृत्य त्र्यशीत्यधिकं मण्डलशतं भवति, मण्डले २ च विष्कम्भे २ परिवर्द्धन्ते पश्ञ्च २ योजनानि पञ्चत्रिंशश्चैकषष्टिभागा योजनस्य, ततः पञ्च योजनानि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, येऽपि च पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य तेऽपि व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि चतुःषष्टिः शतानि पश्चोत्तराणि ६४०५, तेषामेकषष्ट्या भागे हृते लब्धं पञ्चोत्तरं योजनशतं १०५, एतत्पूर्वस्मिन् राशौ प्रक्षिप्यते, जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि १०२०, एतानि सर्वाभ्यन्तरमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणे अधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डलगतविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५ परिक्षेपतः, नवरं पञ्चदशोत्तराणि किञ्चिश्यूनानि द्रष्टव्यानि, तथाहि - अस्य मण्डलस्य विष्कम्भो योजनलक्षं पट्र योजनशतानि षष्ट्यधिकानि १००६६०, अस्य वर्गों विधीयते, जात एककः शून्यमेककत्रिको द्विकञ्चतुष्कस्त्रिकः पञ्चकः पङ्को द्वे शून्ये १०१२२४३५६००, ततो दशभिर्गुणने जातमेकमधिकं शून्यं १०१३२४३५६०००, अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशोत्तराणि ३१८३१४, शेषमुद्धरति पञ्चकः' पञ्चकस्त्रिकञ्चतुष्कः शून्यं चतुष्कः For Parts Only ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३०] मूलं [२०] प्राभृत [१], ----- प्राभृतप्राभृत [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल०) ॥ ४२ ॥ ५५३४०४ छेदराशिः पङ्कखिकः पङ्कः पङ्को द्विकोऽष्टकः ६२६६२८ तत एतेन पश्चदशं योजनं किञ्चिदूनं किल उभ्यते इति व्यवहारतः सूत्रकृता परिपूर्ण विवक्षित्वा पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तं, अथवा मण्डले २ पूर्व २ मण्डलापरिरयवृद्धी सप्तदश २ योजनानि अष्टात्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्य लभ्यन्ते, ततः सप्तदश योजनानि व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, ५ जाताम्येकत्रिंशच्छताम्येकादशोत्तराणि ३१११, येsपि चाष्टात्रिंशदेकपष्टिभागास्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातान्येकोनसप्ततिशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ६९५४, तेषां योजनानयनार्थये कषष्ट्या भागो हियते, लब्धं चतुर्दशोत्तरं योजनशतं ११४, तच पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते जातानि द्वात्रिंशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि २२२५, एतानि सर्वाभ्य न्तरमण्डलपरिश्यपरिमाणे त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि नवाशीत्यधिकानि ३१५०८९ इत्येवंरूपेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशोत्तराणि २१८३१४, तथा सप्तदशानां योजनानां अष्टात्रिंशतो कषष्टिभागानामुपरि यानि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि २७५ शेषाण्युद्धरन्ति तानि ध्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातान्यष्टषष्टिसहस्राणि षट् शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि ६८६२५, तेषां छेदराशिना पश्चाशद|धिकैकविंशतिशतरूपेण २१५० भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य, शेषं स्तोकत्वात् त्यकं परं व्यव हारतः परिपूर्ण योजनं विवक्षितमिति पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तं, 'तथा ण' मित्यादिना रात्रिन्दिवपरिमाणं पण्मासोपसंहरणं च सुगमं, 'से पविसमाणे' इत्यादि, ततः स सूर्यः सर्वबाद्यान्मण्डलात् प्रायुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं पचमासमाददानो द्वितीयस्व पण्मासस्य प्रथमे अहोरात्रे सर्वबाद्यानन्तरमर्वाचनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति, 'ता Education Internation For Parts Only ~94~ १ प्राभूते ८ प्राभूत प्राभृतं ॥ ४२ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३०] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [८], मूलं [२०] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जया णमित्यादि, तत्र यदा णमितिवाक्यालङ्कारे सर्ववाह्यानन्तरमर्वाचनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदं अष्टाचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य बाहस्थेन, एकं योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि चतुष्पखाशदधिकानि पशितिश्चैकषष्टिभागा योजनस्य १००६५४२१ आयामविष्कम्भेन- आयामविष्कम्भाभ्यां तथाहि एकतोऽपि तन्मण्डलं सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे द्वे योजने विमुच्याभ्यन्तरमवस्थितमपरतोऽपि ततो योजनद्वयस्याष्टा चत्वारिंशतश्चैकषष्टिभागानां द्वाभ्यां गुणने पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशश्चैकषष्टिभागा योजनस्येति भवति एतत्सर्वबाह्यमण्डलगत विष्कम्भायामपरिमाणात् शोभ्यते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तनवत्यधिके ३१८२९७ परिक्षेपतः प्रक्षिप्तं तथाहि पूर्व मण्डलादस्य मण्डलस्य विष्कम्भायामपरिमाणे पच योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येति व्यन्ति, पञ्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशतश्चैकपष्टिभागानां परिरये सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य भवन्ति परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतेन परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि विवक्षितानि, प्रागुक्तात्सर्वबाह्यमण्डलपरिरयपरिमाणात् त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि इत्येवंरूपादष्टादश योजनानि शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डल परिश्यपरिमाणं भवति, 'तया णं राइंदियाणं तह चेव'ति तदा रात्रिन्दिवं रात्रिदिवसौ तथैव वक्तव्यौ तौ चैवम्-तथा णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहि एगट्टिभागमुहुत्तेहि ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे हव दोहि एगद्विभागमुहुत्तेहि अहिए' इति, 'से पविसमाणे इत्यादि, ततः स सूर्यस्तस्मादपि द्वितीयस्मान्मण्डलात्प्रागुक्त Eucation International For Pass Use Only ~95~ www.landbrary or Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ------------ ----- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२०]] दीप सूर्यप्रज्ञ-IXप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयस्य पण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सवबाह्यान्मण्डलादवाक्तनं तृतीय मण्डलमुपसङ्गाम्य चार प्तिवृत्तिःचरति, तत्र यदा सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वातनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदं अष्टाचत्वा-| ८प्राभूत(मल०) प्राभृत रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन एक योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि द्विपञ्चाशचै॥४३॥ कषष्टिभागा योजनस्य १००६४८५२ आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-पूर्वस्मान्मण्डलादिदं मण्डलमायामविष्कम्भेन पञ्चभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य हीनं, ततः पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणादेक योज-2 नशतसहस्रं षट् शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि पड्विंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनस्वेत्येवंरूपात्पञ्च योजनानि पञ्चविंशबैक पष्टिभागा योजनस्य शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८२७९ परिक्षेपतःप्रक्षिप्तं, तथाहि-प्राक्तनमण्डलादिदं मण्डलं पञ्चभियोजनैः पश्चशिता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य विष्कम्भतो हीन, पश्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशतकषष्टिभागानां परिरयपरिमाणं व्यवहारतोऽष्टादश योजनानि, ततस्तानि पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतपरिरयपरिमाणं भवति, 'दिवसराई तहेव'त्ति दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगविभागमुहत्तेहिं ऊणा, दुधालसमुहत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगहिभागमहत्तेहि अहिए' इति, 'एवं खस्वि'त्यादि || एतत्सूत्रं मागुक्तव्याख्यानानुसारेण स्वयं परिभाषनीयं, नवरं 'निवेढेमाणे' इति निवष्टयन निर्वेष्टयन हापयन् हापयनित्यर्थः, 'ता जया 'मित्यादि सुगम, अधुना प्रस्तुतवक्तव्यतोपसंहारमाह-'ता सवावि ण'मित्यादि, ततः सर्वाण्यपि अनुक्रम [३०] RSS ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ------------ ----- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप भण्डलपदानि प्रत्येक बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, उपलक्षणमेतत् , अनियतानि चायामविष्कम्भपरिघिभिः तथा सर्वाग्यपि च मण्डलान्तरकाणि-मण्डलान्तराणि, सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, देद्वे योजने विष्कम्भेन, तत एष द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशकपष्टिभागा योजनस्वेत्येवंरूपो, णमिति वाक्यालङ्कारे, अध्वा-पन्याख्यशीत्यधिकशतप्रत्युत्पन्न:-त्र्यशीत्यधिकेन बातेन गुणिता सन् पश्चदशोत्तराणि योजनशताम्याख्याता इति वदेत, तथाहि-वे| योजने व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते जातानि त्रीणि शतानि षट्पट्याधिकानि ३६६, येऽपि च अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागास्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, तेषां योजनानय नार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशं योजनशतं १४४, तत् पूर्वराशी प्रक्षिप्यते, जातानि पश्च शतानि दादशोत्तराणि ५१०, अस्यैवार्थस्य व्यक्तीकरणार्थं भूयः प्रश्नसूत्रमाह-'ता अम्भितरा इत्यादि, 'ता' इति तत्र अभ्यन्तरात्-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलपदात् परतो यावद्बाह्य-सर्वबाह्यं मंडलपर्द बाह्याद्वा-सर्वबाह्याद्वा मण्डलपदादाक् यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलपदमेष--एतावान् अध्वा कियान्-कियत्प्रमाण आख्यात इति वदेत् , एवमुक्ते गौतमेन भगवानाह-'ता' इत्यादि, तावानध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि आख्यात इति वदेत् । स्वशिष्येभ्यः, पश्चदशोत्तरयोजनशतभावना प्रागुक्कानुसारेण स्वयं परिभावनीया, "अभितराए'इत्यादि, अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अभ्यन्तरामण्डलपदादारभ्य यावद्वाह्य-सर्वबाह्य मण्डलपदं यदिवा बाह्येन-सर्वबाझेन मण्डलपदेन सर्वबाद्यान्मण्डलपदादारभ्य | यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं एष एतावान् अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् 1, भगवानाह-'ता पंथे'त्यादि, स एतावान् BEE5345 अनुक्रम [३०] ~97~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [३०] ----- प्राभृतप्राभृत [८], मूलं [२०] प्राभृत [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञसिवृत्तिः ( मल०) ॥ ४४ ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - | अध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतान्यष्टाचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्याख्यात इति वदेत्, पूर्वस्मादध्वपरिमाणात् एतस्याध्वपरिमाणस्य सर्वबाह्यमण्डलगतेन बाहल्यपरिमाणेनाधिकत्वात्, 'ता अभितरे'त्यादि, 'ता' इति अभ्यन्तरान्मण्डलपदात्परतो बाह्यमण्डलपदात् सर्वबाह्यमण्डलादर्वाक् यद्वा बाह्यमण्डलपदादवाक् अभ्यन्तरमण्डलात्परत एषः अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् ?, भगवानाह - 'ता पंचे 'त्यादि, पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि त्रयोदश चैकषष्टिभागा योजनस्य आख्यात इति वदेत्, पूर्वस्मादध्वपरिमाणादस्याध्यपरिमाणस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलगत सर्वबाह्यमण्डलगत - बाहल्यपरिमाणेन पश्चत्रिंशदे कषष्टिभागाधिकैकयोजनरूपेण हीनत्वात्, तदेवमभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो यावत्सर्ववाचं मण्डलं सर्व बाह्याद्वा मण्डलादर्वाक् यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं तथा सर्वाभ्यन्तर सर्व बाह्यमण्डलाभ्यां सह तथा सर्वाभ्यन्तर| सर्वबाह्यमण्डलाभ्यां विना यावदध्वपरिमाणं भवति तावन्निरूपितं, सम्प्रति सर्वाभ्यन्तरेण मण्डलेन सह सर्वाभ्यन्तरा| न्मण्डलात्परतो बाह्यमण्डलादर्वाक् यदिवा सर्वत्राह्यमण्डलेन सह सर्वत्राह्यमण्डलादर्वाक् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो यावदध्वपरिमाणं भवति तावन्निरूपयति- 'अभितराएं इत्यादि, अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः सर्ववायान्मण्डलादर्वागिति गम्यते, यदिवा सर्वबाह्येन मण्डलपदेन सह सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वाक् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परत इति गम्यते, योऽध्वा एष णमिति वाक्यालङ्कारे अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् १, भगवानाह - 'ता'' इत्यादि, तावानध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि आख्यात इति वदेत्, भावना सुगमत्वान्न क्रियते । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञसिटीकायां प्रथमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ Education Internation For Parts Only | अत्र प्रथमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ८ परिसमाप्तं तत् समाप्ते प्रथमं प्राभृतं अपि परिसमाप्तं ~98~ १ माभूते ८ प्राभृतप्राभृर्त ॥ ४४ ॥ www.landbrary or Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] तदेवमुक्तं प्रथमप्राभूत, सम्प्रति द्वितीय वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारः 'कथं तिर्यक् सूर्पः परिश्रमतीति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह. ता कहं तेरिच्छगती आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पहिवत्तीओ पण्णताओ, तत्धेगे एवमा इंसु ता पुरच्छिमातोलोअंतातो पादोमरीची आगासंसि उत्तिति सेणं इमं लोयं तिरियं करेह तिरियं करेत्ता-18 पिचत्थिमंसि लोयंसि सायंमि रायं आगासंसि विद्धंसिस्संति एगे एवमाहेसु १, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरच्छिमातो लोअंतातो पातो सूरिए आगासंसि उत्तिद्दति, से णं इमं तिरियं लोपं तिरियं करेति करित्ता पचत्धिर्मसि लोयंसि सरिए आगासंसि विडंसंति, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमासु-ता पुरत्धि-18 माओ लोयंतातो पादो मूरिए आगासंसि उत्तिट्ठति, से इमं तिरिय लोयं तिरिय करेति करित्ता पचत्थिमंसि लोयंसि सायं अहे पडियागच्छंति, अधे पडियागच्छेत्ता पुणरवि अवरभूपुरस्थिमातो लोयंतातो पातो सूरिए आगासंसि उत्तिट्ठति, एगे एघमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरथिमाओ लोगताओ पाओस् रिए पुढविकायंसि उत्तिकृति, से णं इमं तिरियं लोयं तिरिय करेति करेत्ता पचत्थिमिल्लंसि लोयंतसि सायं सूरिए पुढविकार्यसि विद्धंसह, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए छापुढविकासि उत्तिहइ से णं इमं तिरियं लोयं तिरियं करोह करेत्ता पचस्थिमंसि लोयंतंसि सायं सरिए। पुढविकायंसि अणुपविसह अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छद २ पुणरवि अवरभूपुरस्थिमाओ लोगंताओ| दीप अनुक्रम [३१] अथ द्वितियं प्राभूतं आरब्धं अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ आरभ्यते ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) सुत्राक ॥४५॥ [२१] GACA पाओ सूरिए पुदविकायंसि उत्तिइ, एगे एच०५, एगे पुण एवमाहंसु ता पुरस्थिमिल्लाओ लोयंताओ पाओग्राभृतः मूरिए आउकायंसि उत्तिइ, से णं इमं तिरियं लोयं तिरियं करेइ करेत्ता पचत्थिमंसि लोयंतंसि पाओ १प्राभृतसूरिए आउकायंसि विद्धसंति, एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरथिमातो लोगंतातो पाओ प्राभृतं सूरिए आपकार्यसि उत्तिट्ठति, से णं इमं तिरिय लोयं तिरियं करेति २सा पञ्चस्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए आउकायंसि पविसह, पविसित्ता अहे पडियागच्छति २त्ता पुणरवि अवरभूपुरत्धिमातो लोयंतातो पादो सूरिए आउकायंसि उत्तिट्ठति, एगे एव०७, एगे पुण एवमाहंसु-ता पुरस्थिमातो लोयंताओ बहूई जोयणाई यह जोयणसाई बहूई जोयणसहस्साई उहुं दूरं उप्पतित्ता एत्य गं पातो सूरिए आगासंसि उत्तिदृति, से गं इमं दाहिणहुं लोयं तिरियं करेति करेसा उत्तरडलोयं तमेव रातो, से णं इमं उत्सरलोयं तिरियं करेइ २त्ता दाहिणहलोयं तमेव राओ, से णं इमाई दाहिणुत्तरडलोयाई तिरियं करेइ करित्ता पुरस्थिमाओ लोयंतातो पहुई जोयणाई बहुयाई जोयणसताई बहूई- जोयणसहस्साई उहं दूर उप्पतित्ता एत्थ णं पातो सूरिए आगासंसि उत्तिकृति एगे एवमाहंसु८ । वयं पुण एवं वयामो, ताग अंबुवस्स २ पाइणपडीणायतओदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउबीसेणं सतेणं छेत्ता दाहिणपुर-1४॥ ४५ ॥ च्छिमंसि उत्तरपञ्चस्थिमंसि य चउम्भागमंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभा-18 गातो अट्ठ जोयणसताई उडे उष्पतित्सा एत्थ णं पादो दुवे सूरिया उसिटुंति, ते णं इमाई दाहिणुसराई KARNER दीप अनुक्रम [३१] ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] दीप जंचुरीवभागाई तिरियं करेंति २सा पुरथिमपचत्थिमाई जंबुद्दीवभागाई तामेव रातो, ते णं इमाई पुर-14 छिमपञ्चत्थिमाई जंबुरीवभागाइं तिरियं करेंति २त्ता दाहिणुत्तराई जंबुद्दीवभागाइं तामेव रातो, ते णं| इमाई दाहिणुत्तराई पुरच्छिमपचत्थिमाणि य जंबुद्दीवभागाई तिरियं करेति २सा जंबुद्दीवस्स २ पाईणपडियायतओदीणदाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउबीसेणं सतेणं छेसा दाहिणपुरच्छिमिल्लंसि उत्तरपच्चथिमिल्लसि य चउभागमंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो भट्ट जोयमाणसयाई उहं पप्पइत्ता, एस्थ णं पादो दुवे सूरिया आगासंसि उत्तिट्ठति (सूत्रं २१)॥ पितीयस्स परमं ॥१॥ 'ता कहं तेरिफछगई'इत्यादि, अस्त्यन्यदपि प्रभूतं प्रष्टयं परं एतावदेव तावत्पृच्छामि कथं 'ते' त्वया भगवन् ! सूर्यस्य तिर्यग्गतिः-तिर्यकपरिभ्रमणमाख्याता इति वदेत्, एवमुक्के भगवान् एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनार्थ प्रथमतस्ता एव प्रतिपत्तीरुपन्यस्यति-तस्थ खलु'इत्यादि, तब-तस्यां सूर्यस्य तिर्यग्गती-तिर्यग्गतिविषये खविमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, ता एवं क्रमेणाह-तत्थेगे'इत्यादि, तत्र-तेपामष्टानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एचमाहुः, 'ता' इति पूर्ववत् पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्वमिति गम्यते, पूर्वस्यां दिशीति भावार्थः, प्राता-प्रभातसमये मरीचिः-मरीचिसङ्घातः किरणसवात इत्यर्थः, आकाशे उत्तिष्ठति-उत्पयते, एतेन एतदुक्तं भवति-नैतद्विमानं नापि रथो नापि कोऽपि देवतारूपः सूर्यः किन्तु किरणसात एवैष वर्तुलगोलाकारो लोकानुभावात्प्रतिदिवसं पूर्वस्यां दिशि प्रातराकाशे समुत्पद्यते, यतः सर्वत्र प्रकाशः प्रसरमधिरोहति, स इत्थंभूतो अनुक्रम [३१] ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः (मल) प्रत सुत्रांक ॥४६॥ [२१] *SATTA दीप मरीचिसात उपजातः सन् णमिति वाक्यालङ्कारे इम-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं लोक-तिर्यग्लोक तिर्यकरोति, किमुक्त प्राभूते भवति !-तिर्यक् परिभ्रमन्निम तिर्यग्लोक प्रकाशयतीति, तिर्यक् कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये विध्वंसते, ४१ प्राभूत* अत्रोपसंहार:-'एगे एवमासु तथा जगत्स्वाभाव्यात् स मरीचिसङ्घात आकाशे विध्वंसते-विध्वंसमुपयाति एवं सकल- प्राभूत कालमपि, अत्रैवोपसंहारः, 'एगे एवमाइंसु'१, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यों लोकप्रसिद्धो देव-14 तारूपो भास्करस्तथाजगत्स्वाभाच्यादाकाशे उत्पद्यते, स चोत्पन्नः सन्निम तिर्यग्लोक तिर्यकरोति-तिर्यक परिश्रमतिम लोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यक् च कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये आकाशे विध्वंसते अत्रोपसंहारः 'एगे एवमासु'२, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी तथाविधपुराणशास्त्रप्रसिद्ध आकाशे उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोगतः सन्तिम प्रत्यक्षत उपलभ्यमान मनुष्यलोक तिर्यक् करोति तिर्यक् च कृत्वा || पश्चिमलोकान्ते सायं-सन्ध्यासमये अध आकाशमनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति-अधोभागेन प्रत्यागच्छति, अधोलोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्त्तते इत्यर्थः, तन्मतेन हि भूरियं गोलाकारा लोकोऽपि च गोलाकारतया व्यवस्थितः, | इदं च मतं सम्प्रत्यपि तीर्थान्तरीयेषु विज़म्भते, ततस्तद्गत पुराणशास्त्रादेतत्सम्यगवसेयं, अस्य त्रयो भेदाः, एके एव-18 & माहुः-प्रातः सूर्य आकाशे उद्गच्छति, अपरे आहुः-पर्वतशिरसि, अन्ये आहुः-समुद्रे इति, तत्र प्रथमानामिदं मतमुप- T॥६॥ न्यस्तं, अधः प्रत्यागत्य च पुनरप्यवरभुव:-अधोभुवः पृथिव्या अधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः, पौरस्त्याल्लोकान्तादूयेमाकाशे | प्रातः सूर्य उदूगच्छति, एवं सर्वदापि द्रष्टव्यं, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु'३, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्ता अनुक्रम [३१] ~102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [३१] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [१], मूलं [२१] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः दूर्ध्वं प्रातः सूर्यो देवतारूपस्तथाविधपुराणप्रसिद्धः पृथिवीकार्य - पृथिवी कायमध्ये उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति - उत्पद्यते, स चोत्पन्नः सन्निमं मनुष्यलोकं तिर्यक्करोति, तिर्यक् परिभ्रमन्निमं मनुष्यलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यकृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-साम्ध्ये समये सूर्यः पृथिवीकाये-अस्तमयभूधरशिरसि विध्वंसते- विध्वंसमुपयाति, एवं प्रतिदिवस सकलकालं जगत्स्थितिः परिभावनीया, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' ४, एके पुनरेवमाहुः - पौरस्त्याहोकान्तादूर्ध्वं प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी पृथ्वीकार्य - उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति उद्गच्छति स चोङ्गतः सन्निमं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, तिर्यक्कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये पृथिवीकार्य - अस्तमयभूधरमनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति अधोभागवर्त्तिनं ठोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्त्तते, ततः पुनरप्यवरभुवः अधोभुवः पृथिव्या अधोभागाद्विनिर्गत्येत्यर्थः, पौरस्त्यालोकान्तादूर्ध्वं प्रातः सूर्यः पृथिवीकाये-उदयभूधर शिरसि उत्तिष्ठति, एतेऽपि भूगोलवादिनः परं पूर्वे आकाशे उत्तिष्ठतीति प्रतिपन्नाः एते तु पर्वतशिरसीति शेषः, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंस' ५, एके | पुनरेवमाहुः - पौरस्त्या लोकान्तादूर्ध्वं प्रातः सूर्योऽकाये - पूर्व समुद्रे उत्तिष्ठति उत्पद्यते स चोत्पन्नः सन्निमं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानं तिर्यग्लोकं तिर्यक्करोति, तिर्यक्कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये सूर्योऽकाये - पश्चिमसमुद्रे विध्वंसमुपगच्छति, एवं सर्वदापि, अत्रोपसंहारः 'एंगे एवमाहंस' ६, एके पुनरेवमाहुः- पौरस्त्यालोकान्तादूर्ध्वं प्रातः सूर्यः सदावस्थायी पुराणशास्त्रप्रसिद्धोऽकाये - पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति - उद्गच्छति, स चोद्गतः सन्निमं तिर्यग्लोकं तिर्यकरोति, तिर्यक् परिभ्रमन्निमं तिर्यग्लोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, तिर्यक् कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं-सान्ध्ये समये सूर्योऽकार्य-पश्चिमसमुद्र For Parts Only ~103~ war Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमज्ञतिवृत्तिः (मल प्रत सूत्रांक [२१] ॥४७॥ दीप मनुप्रविशति, प्रविश्य चाधः प्रत्यागच्छति-अधोभागवत्तिनं लोकं प्रकाशयन् प्रतिनिवर्तत इति भावा, अधः प्रत्यागत्या प्राभुते चावरभुवः-अध:पृथिव्या अधोभागाद्विनिर्गत्ये त्यधर, पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रातः सूर्योऽप्काये पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति- १प्राभृतउद्गच्छति, एवं सकलकालमपि, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु' ७, एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रथमतो प्राभूत बहूनि योजनानि ततः क्रमेण बहूनि योजनशतानि तदनन्तरं क्रमेण बहूनि योजनसहस्राणि दूरमूर्ध्वमुत्प्लुत्य-बुझ्या गत्वा अत्र-अस्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्यो देवतारूपः सदावस्थायी उत्तिष्ठति-उद्गच्छति, स चोद्गतः सन्निम दक्षिणा - लोक-दक्षिणदिग्भाविनमर्द्धलोकं, दक्षिणं लोकस्यामित्यर्थः, तिर्यक्करोति-तिर्यक् परिश्रमन् दक्षिणलोकाई प्रकाशयतीत्यर्थः, दक्षिणं चार्द्धलोक तिर्यकुर्वन् तदैवोत्तरमलोकं रात्रौ करोति, ततः स सूर्यः क्रमेणेममर्द्धलोकमुत्तरं तिर्यकरोति, तत्रापि तिर्यक् परिभ्रममन् उत्तरमर्द्धलोकं प्रकाशयतीत्यर्थः, उत्तरं चालोकं तिर्यपरिभ्रमणेन प्रकाशयन् तदैव दक्षिणमर्द्धलोकं रात्री करोति, ततः स सूर्य इमी दक्षिणोत्तरार्द्धलोकौ तिर्यकत्वा भूयोऽपि पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्व प्रथमतो बहूनि योजनानि गत्वा ततः क्रमेण बहूनि योजनशतानि तदनन्तरं बहूनि योजनसहस्राणि दूरमूर्ध्वमुत्प्लुत्य-गुळ्या गत्वा अत्र-अस्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्य आकाशे उत्तिष्ठति-उद्गमछति, एवं सकल कालं, अत्रोपसंहारमाह-एगे एकमाहंसु'८। तदेवं परप्रतिपत्तीरुपदय स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पत्रकेवलज्ञाना केवलज्ञानेन M॥४७॥ यथावस्थित वस्तूपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपस्य शाद्वीपस्योपरि यद्वा तद्वा मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा, चतुर्विंशत्यधिकशतसमवान् भागान् मण्डलं परिकल्प्ये अनुक्रम [३१] ~ 104~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] दीप त्यर्थः, भूयश्च प्राचीनापाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया प्रत्यश्चया-दवरिकयेत्यर्थः, तन्मण्डल पतुर्भािगविभज्य | दक्षिणपौरस्त्य उत्तरपश्चिमे च चतुर्भागमण्डले-मण्डलचतुर्भागे एकत्रिंशद्भागप्रमाणे, एतावति किल चतुरशीत्यधिकमपि मण्डलशतं सूर्यस्योदये प्राप्यते इति 'चउवीसेणं सरणं छित्ता चउम्भागमंडलंसी'स्युकं, अस्याः-प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाया रक्षप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्ध्वमष्टौ योजनशतान्युत्प्लुत्य-चुच्या गत्वा अत्रान्तरे प्रातद्वौं । सूर्यावृत्तिष्ठतः-उद्गच्छतः, दक्षिणपौरस्त्यमण्डलचतुर्भागे भारतः सूर्य उगच्छति अपरोत्तरस्मिन् मण्डलचतुर्भागे ऐरावतः सूर्यः, तो चैवमुद्गती भरतैरावतसूर्यों यथाक्रममिमौ दक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीपभागौ तिर्यफुरुतः, किमुक्तं भवति :भारतः सूर्यो दक्षिणपौरस्त्यमण्डल चतुर्भागे सद्गतः सन् तिर्यक् परिभ्रमति तिर्यक् परिश्रमन् मेरोदक्षिणभागं प्रकाश यति, ऐरावतः पुनः सूर्योऽपरोत्तरदिग्विभागे उद्गच्छति, स चोद्गतः सन् तिर्यक् परिधमन् मेरोरुत्तरभागं प्रकाशय*तीति, इत्थं च भारतैरावतसूयौं यदा मेरोदक्षिणोत्तरी जम्बूद्वीपभागौ तिर्यकुरुतः तदैव ती पूर्वपक्षिमी जम्बूद्वीपभागौ[] रात्री कुरुतः, एकोऽपि सूर्यस्तदा पूर्वभागं पश्चिमभागं वा न प्रकाशयतीत्यर्थः, दक्षिणोत्तरौ च भागो तिर्यकत्वा ताविमौ । पूर्वपश्चिमौ जम्बूद्वीपभागौ तिर्यकुरुतः, इयमत्र भावना-ऐरावतः सूर्यो मेरोरुत्तरभागे तिर्यक् परिभ्रम्य तदनन्तरं मेरोरेव पूर्वस्यां दिशि तिर्यक् परिचमति, भारतः सूर्यो मेरोदक्षिणतस्तिर्यक् परिचम्य सदनन्तरं मेरोः पश्चिमे भागे तिर्यक परिभ्रमतीति, इत्थं च यदा ऐरावतभारतौ सूयौं यथाक्रम पूर्वपश्चिमभागी तिर्यक् कुरुतस्तदैव दक्षिणोत्सरौ जम्बूद्वीप| भागौ रात्री कुरुतः, एकोऽपि सूर्यस्तदा दक्षिणभागं उत्तरभागं वान प्रकाशयतीति भावः, तत इत्थं यथाक्रममैरावत 5ॐ55 अनुक्रम [३१] ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], ------------ ----- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रज्ञ- मिसत्तिः प्रत सुत्राक ॥४॥ [२१] भारतसूयौं पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कृत्वा यो भारतः सूर्यः स उत्तरपश्चिममण्डल चतुर्भागे उदयमासादयति, यश्चैरावतः४२प्राभृते स दक्षिणपौरस्त्ये मण्डलचतुर्भागे इति, एतदेवोपदर्शयन्नुपसंहारमाह-ते ण' इत्यादि, तौ भारतैरावतौ सूर्यो प्रथमतो प्राभूत यथाक्रममिमौ दक्षिणोत्तरी जम्बूद्वीपभागौ ततो यथायोग पूर्वपश्चिमी जम्बूद्वीपभागौ, भारतः पश्चिमभागमैरावसः पूर्व- प्राभूत भागमित्यर्थः, तिर्यक् कृत्वा जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि यद्वा तद्वा मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनापाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया च जीवया प्रत्यञ्चया दवरिकया इत्यर्थः, चतुर्भिर्विभग्य यथायोगं दक्षिणपौरस्त्ये उत्तरपश्चिमे वा मण्डलचतुर्भागे अस्या रसप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्वमष्टी योजनशतान्युत्प्लुत्य अत्रास्मिन्नवकाशे प्रातद्वौं सूर्यावाकाशे उत्तिष्ठतः-उद्गच्छतः, य उत्तरभागं पूर्वस्मिन्नहोरात्रे प्रकाशितवान् स दक्षिणपौरस्त्ये मण्डल चतुर्भागे उद्गच्छति, यस्तु दक्षिण भार्ग प्रकाशयति स्म स उत्तरपश्चिमे मण्डल चतुर्भागे, एवं सकलकालं जगत्स्थितिः परिभावनीया । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितीयस्य प्राभूतस्य प्रथमं | माभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ दीप + अनुक्रम SEARCE [३१] ॥४ तदेवमुक्तं द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभृतप्राभूत, सम्प्रति द्वितीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारी यथाशा ४'मण्डलान्तरे सङ्क्रमणं वक्तव्य'मिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह&ा ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे २ सूरिए चारं चरति आहिताति वदेजा , तत्थ खलु इमातो दुवे अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १ परिसमाप्तं अथ द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ आरभ्यते ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], ------------ ----- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॐ4% [२२] टीप पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एषमाहंसु ता मंडलातो मंडलं संकममाणे २ सूरिए भेयघाएणं संकामा पाएगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु ता मंडलाओ मंडल संकममाणे सरिए कण्णकलं णिवेदेति, तत्थ जे ते एक मासु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे २ भेयधारण संकमइ, तेसि णं अयं दोसे, ता जेणंतरेणं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ सूरिए भेयघाएणं संकमति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो न गच्छत्ति, पुरतो अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेति, तेसिणं अयं दोसे, तस्थ जे ते एवमाइंसु,ता मंडलातो मंडलं संकममाणे सरिए कण्णकलं णिवेदेति, तेसि णं अयं विसेसे ता जेणंतरेणं मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिवेदेति, एवलियं च णं अद्धं पुरतो गच्छति, पुरतो गच्छमाणे मंडलकालं ण परिहवेति, तेसि णं अयं विसेसे, तस्थ जे ते एवमाहंसु-मंडलातो मंडलं संकममाणे सरिए कपणकलं णिवेढेति, एतेणं णएणं तवं, णो पेष णं इतरेणं । (सूत्रं २२) वितियस्स पाहुसस्स वितीयं ॥ "ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं भगवन् ! मण्डलान्मण्डल सञ्जामन् सूर्यश्चारं चरति, चारं घरमाख्यात इति वदेत्, किमुक्तं भवति -कथं भगवन्नेष सूर्यश्चार चरम् मण्डलाम्मण्डलं सङ्क्रामन् आख्यात इति, अब हि मण्डलान्मण्डलान्तरसमणमेय वक्तव्यमतस्तदेव प्रधानीकृत्य वाक्यस्य भावार्थो भाषनीयः, एषमुक्त भगवानाह-'तत्व खलु। इत्यादि, तत्र-मण्डलान्मण्डलान्तरसङ्क्रमणविषये खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते तद्यथा-तत्रैके एवमाहुर-ता इति पूर्ववत्स्वयं परिभाषनीयं, मण्डलादपरमण्डलं सझामन्-सङ्कमितुमिच्छन् सूर्यो भेदधातेन सङ्कामति, भेदो-मण्डलस्य मण्डलस्यापा अनुक्रम [३२] 94%ER weredturary.org ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], --------------------प्राभृतप्राभृत [२], ------------ ----- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) सूत्रांक ॥४९॥ न्तराळं तत्र घातो-गमन, एतच्च प्रागेवोतं, तेन संक्रामति, किमुक्तं भवति -विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तद- प्राभृते. |न्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीयं मण्डलं सङ्कामति, सङ्क्रम्य च तस्मिन्मण्डले चारं चरति, अनोपसंहारः 'एगे एवमासु | २प्राभूत|१, एके पुनरेवमाहुः 'ता' इति पूर्ववत् मण्डलान्मण्डलं सामन्-सङ्क्रमितुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतं मण्डलं प्रथमक्षणादू | प्राभृतं ज़मारभ्य कर्णकलं निर्वेष्टयति-मुञ्चति, इयमत्र भावना-भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्वस्वस्थाने उद्गतः सन् अपरमण्डलगतं कर्ण प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्य शनैः शनैरधिकृतं मण्डलं तया कयाचनापि कलया मुश्चन् चारं चरति येन तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अपरानन्तरमण्डलस्यारम्भे वर्तते इति, कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यं, तच्चैवं 37 |भावनीय-कर्ण-अपरमण्डलगतप्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादूर्वं क्षणे क्षणे कलयाऽतिकान्तं यथा भवति तथा निर्येष्टयतीति, तदेवं प्रतिपत्तिद्वयमुपन्यस्य यद्वस्तुतत्त्वं तदुपदर्शयति-तत्थेत्यादि, तत्र-तेषां द्वयानां मध्ये ये एषमाहुः-मण्डलान्मण्डलं सङ्कामन भेदघातेन सङ्कामति तेषामयं-अनन्तरमुच्यमानो दोषः, तमेवाह-येन-यावता | कालेन अन्तरेण-अपान्तरालेन मण्डलान्मण्डल सामन् सूर्यो भेदघातेन सङ्कामतीत्युच्यते, एतावतीमा पुरतो-द्वितीये मण्डले न गच्छति, किमुक्तं भवति -मण्डलान्मण्डलं सामन् यावता कालेनापान्तरालं गच्छति तावत्कालाऽनन्तरं परिचमितुमिष्टे, द्वितीयमण्डलसत्काहोरात्रमध्यात् श्रव्यति, ततो द्वितीये मण्डले परिभ्रमन् पर्यन्ते तावन्तं कालंन परिश्रमेत् ॥४९॥ तद्गताहोरात्रस्य परिपूर्णीभूतत्वात् , एवमपि को दोष इत्याह-पुरतो द्वितीयमण्डलपर्यन्तेऽगच्छन् मण्डलकालं परिभ-| वति, यावता कालेन मण्डल परिपूर्ण भ्रम्यते तस्य हानिरुपजायते, तथा च सति सकलजगद्विदितप्रतिनियतदिवस [३२] ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], ------------ ----- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत R रात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः, 'तेसि णमयं दोसे'त्ति तेषामयं दोषः, 'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-मण्डलान्मण्डल सङ्क्रामन् सूर्योऽधिकृतमण्डलं कर्णकलं निर्वेष्टयति-मुञ्चति तेषामयं विशेषो-गुणः, तमेव गुणमाह-'जेणेस्यादि, येन-यावता कालेनापान्तरालेन मण्डलाम्मण्डलं सामन् सूर्यः कर्णकलमधिकृतं मण्डलं निर्वेष्टयति, एतावती-४ मद्धां पुरतोऽपि द्वितीयमण्डलपर्यन्तेऽपि गच्छति, इयमत्र भावना अधिकृतं मण्डल किल कर्णकलं निर्वेष्टितं अतोऽपान्तरालगमनकालोऽधिकृतमण्डलसत्क एवाहोरात्रेऽन्तर्भूतस्तथा च सति द्वितीये मण्डले सङ्कान्तः सन् तद्गतकालस्य मनागप्यहीनत्वाद् यावता कालेनापान्तरालं गम्यते तावता कालेन पुरतो गच्छत्ति, ततः किमित्याइ-पुरतो गच्छन्मण्डलकालं न परिभवति यावता कालेन प्रसिद्धेन तन्मण्डल परिसमाप्यते तावता कालेन तन्मण्डलं परिपूर्ण समापयति, न पुनर्म-| नागपि मण्डलकालपरिहाणिस्ततो न कश्चित् सकलजगत्प्रसिद्धप्रतिनियतदिवसरात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः, एष तेषाः | मेवंवादिना विशेषो-गुणः, तत इदमेव मतं समीचीनं नेतरदित्यावेदयन्नाह तत्धेत्यादि तत्र ये ते वादिन एवमाहु| मण्डलामण्डलं सङ्कामन सूर्योऽधिकृतं मण्डलं कर्णकलं निर्वेष्टयति, एतेन नयेन-अभिप्रायेणासान्मतेऽपि मण्डलान्मण्डलान्तरसङ्ग मणं ज्ञातव्यं, न चैवमितरेण नयेन, तत्र दोषस्योक्तत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितीयस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभूतपाभूत समाप्तम् ॥ है + अनुक्रम [३२] SAREairalM ond अत्र द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ परिसमाप्त ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) * तदेवमुक्तं द्वितीयस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति तृतीयमुच्यते तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा 'मण्डले २ प्रतिमुहूर्त गतिर्वक्तव्ये ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवति ते तं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति आहिताति वदेज्जा ?, तत्थ खलु इमातो चत्तारि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तस्थ एगे एवमाहंसु-ताछ छ जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेण गच्छति, ॥ ५० ॥ ४एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंस-ता पंच पंच जोयणसहस्साई सुरिए एगमेगेणं मुहतेणं गच्छति एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि २ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु ता छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सृरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंस ४, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता छ छ जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुतेणं गच्छति ते एवमाहंसु-जता णं सूरिए सबभंतरं मंडल उवसंकमित्ता चरति तथा णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसे अट्ठारसमुहुसे दिवसे भवति, जहणिया दुबालसमुहसा राई भवति, तेसिं च णं दिवसंसि एवं जोपणसतसहस्सं अट्ठ य जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णसे, ता जया णं सूरिए सङ्घबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं उत्तमक पत्ता उशोसिया अट्ठार समुहन्ता राई भवति, जहण्णए दुबालसमुत्ते दिवसे भवति, तेर्सि चणं दिवसंसि बावन्तरि जोयणसहस्साइं तावक्खेते पण्णत्ते, तथा णं छछ जोपणसहस्साइं सूस्पि एन मेगेणं मुटुसेणं गच्छति, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता पंच पंच जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुसेणं गच्छति, For Paren अथ द्वितिये प्राभृते प्राभृतप्राभृतं ३ आरभ्यते ~110~ २ प्राभृते ३ प्राभृतमाभृतं ॥ ५० ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ॐ*5 प्रत सूत्राक [२३] 56-05 दीप ते एवमाहंसु-ता जता णं मूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तहेव दिवसराइप्पमाणं तंसिच (ण तायखेतं नजइजोपणसहस्साई, ता जया णं सबबाहिरं मंडलं)उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं तं व राइंदियप्पमाणं तंसि च गं दिवसंसि सहि जोयणसहस्साई नाववेत्ते पन्नत्ते, तता णं पंच (पंच) जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता जया णं मूरिए सबभंतरं मंडलं |उवसंकमित्ता चार चरति तता णं दिवसराई तहेव, तंसि च णं दिवससि बावत्तरि जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पपणत्ते, ता जया णं सूरिए सत्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं राइंदियं तधेव, तसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साई ताबक्खेत्ते पं०, तता णं चत्तारि २ जोयणसहस्साई मूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति तस्थ जे ते एवमासु छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति ते एवमाहंसु-ता सूरिए णं उग्गमणमुहुत्तेणं सिप अत्थमणमुहुर्त सिग्धगता भवति, तता णं छ छ जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, मज्झिमतावखेत्तंसमासादेमाणे २ सूरिए ४ है मज्झिमगता भवति, तताणं पंच पंच जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, मज्झिमं तावखेत्तं संपत्ते । मूरिए मंदगती भवति, तता णं चत्तारि जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ को हेऊत्ति वदेजा ?, ४ता अयपणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, ता जया णं मूरिए सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं दिवसराई तहेब तंसि च णं दिवसंसि एक्काणउतिं जोयणसहस्साई तावखेत्ते पं०, ता जया णं अनुक्रम [३३] ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) २ प्रामृते३ प्राभृतप्राभूत ॥५१॥ IDI SACH सरिए सबवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तताणं राइंदियं तहेब, तस्सि च दिवसंसि एगहि- जोयणसहस्साई तावखेत्ते पण्णते, तता णं छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुसेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं बदामो तासातिरेगाई पंच रजोयणसहस्साइंसूरिए एगमेगेणं मुहुसेणं गच्छति, तत्थ को हेतूत्ति वदेजा, ता अयपणं जंबुद्दीवे २ परिक्खेवेणं ता जता णं मूरिए सबभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई दोषिण य एकावण्णे जोयणसए एगूणतीसं च सहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इधगतस्स मणुसस्स सीतालीसाए जोपणसहस्सेहिं| दोहि य तेवढेहिं जोयणसतेहि एकवीसाए य सहिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हवमागच्छति, तया णं दिवसे राई तहेव, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तंसि अम्भितराणं&तरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति, ता जयाणं सूरिए अम्भितराणंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई दोणि य एकावणे जोयणसते सीतालीसच सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुह-| तेणं गच्छति, तता णं इहगयस्स मणूसस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं अउणासीते य जोयणसते सत्ताव-| पणाए सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सहिभागं च एगद्विहा छेत्ता अउणावीसाए चुणियाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छति, तता णं दिवसराई तहेव, से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि अम्भितरतचं मंडलं । उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अम्भितरतचं मंडलं जवसंकमित्ता चारं चरति तता पंच २ अनुक्रम [३३] ॥५१॥ ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ------ मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] दीप जोपणसहस्साई दोणि य यावण्णे जोयणसते पंच य सहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, II तता णं इहगतस्स मणू० सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं छण्णउतीए य जोयणेहिं तेत्तीसाए य सविभागेहिं । जोयणस्स सहि भागं च एगविधा छेत्ता दोहिं चुण्णियाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छति, तता || दिवसराई तहेव, एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तताणंतराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ अट्ठारस २ सहिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुटुत्तगति अभिघुहृमाणे २चुलसीति सीताइ है जोयणाई पुरिसच्छायं णिबुढेमाणे २ सबवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ताजया गं सूरिए सववाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई तिनि य पंचुत्तरे जोयणसते पण्णरस य सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणूसस्स एकतीसाए जोयणेहिं अट्ठहिं एक्कतीसेहिं जोयणसतेहिं तीसाए प सहिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हषमागच्छति तता गं उत्तमकट्टपत्ता उकोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पढमे छम्मासे एस ण पदमस्स छम्मासस्स पजवसाणे ॥ से पविसमाणे सूरिए दो छम्मासं अयमाणे | पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चारं चरति ता जता णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच २ जोयणसहस्साई तिण्णि य चत्तरे जोषणसते सत्तावणं च* सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्ता णं इधगतस्स मणूसस्स एकतीसाए जोयणसहस्सेहि अनुक्रम [३३] wireluctaram.org ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [२३] प्राभृत [२], • प्राभृतप्राभृत [३], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ ५२ ॥ सूर्यप्रज्ञनवहि य सोलेहिं जोयणसएहिं एगूणतालीसाए सहिभागेहिं जोयणस्स सद्विभागं च एगट्टिहा छेत्ता सहिए सिवृत्तिः चुण्णियाभागे सूरिए चक्खुफासं हवमागच्छति, तता णं राईदियं तहेब, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि ( मल० ) * अहोरत्तंसि बाहिरं तथं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच पंच जोयणसहस्साई तिन्निय नउत्तरे जोयणसते ऊतालीसं च सहिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहतेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणूसस्स एगाधिगेहिं बत्तीसाए जोपणसहस्सेहिं एकावण्णाए य सहभागेहिं जोयणस्स सहिभागं च एगद्विधा छत्ता तेवीसाए चुण्णियाभागेहिं सरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छति, राईदियं तहेब, एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सूरिए तताणंतरातो तताणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे २ अट्ठारस २ सद्विभागे जोपणस्स एगमेगे मंडले मुहत्तगई णिबुद्देमाणे २ सातिरेगाई पंचासीति २ जोयणाई पुरिसच्छायं अभिवुद्देमाणे २ सङ्घभंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जता णं सूरिए सबभंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पञ्च २ जोयणसहस्साइं दोणि य एक्कावण्णे जोयणसए अट्ठतीसं च सट्टिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहतेणं गच्छति तता णं इहगयस्स मणूस स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य दोवद्वेहिं जोयणसतेहिं एकवीसाए य सद्विभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्ष्फासं हवमागच्छति, तता णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहसे दिवसे भवति, जहणिया दुवा Education Internation For Parts Only ~ 114~ २ प्राभृते ३ प्राभृतप्राभृतं ।। ५२ ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक 53433 [२३] दलसमुहुत्ता राई भवति, एस णं दोचे छम्मासे एसणं दोचस्स छम्मासस्स पजवसाणे एस णं आदिचे संबच्छरे एस णं आदिचसंवच्छरस्स पज्जवसाणे (सूत्रं २३) वितियं पाहुडं समतं ॥ 'ता केवतियं ते खित्तं सूरिए'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कियन्मानं क्षेत्रं भगवन् ! ते त्वया सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, गच्छनाख्यात इति वदेत् , एवमुक्ते सति भगवान् एतद्विषयपरतीथिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव परप्रतिपत्तीरुपदर्शयति-तस्थ'इत्यादि, तत्र-प्रतिमुहर्तगतिपरिमाणचिन्तायां खल्विमाश्चतस्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां चतुर्णा वादिना मध्ये एके एवमाहुः-षट् २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु' १, एवमग्रेतनान्युपसंहारवाक्यानि भावनीयानि, एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः-पश्च २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्सेन गच्छति २, एके पुनस्तृतीया एवमाहु:-चत्वारि २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहर्तेन गच्छति, ३, अपरे पुनश्चतुर्था एवमाहुः-पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदेवं चतम्रोऽपि प्रतिपत्तीः सझेपत उपदर्य सम्प्रत्येतासां यथाक्रम भावनिकामाह-'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-पटू पटू योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूत्तेन गच्छति ते एवमाहुः यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य | चार चरति तदा उत्तमकाछाप्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहत्तॊ दिवसो भवति सर्वजघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे तापक्षेत्र प्रशष्ठ एक योजनशतसहस्रमष्टौ च योजनसहस्राणि, तथाहि-तस्मिन्नपि मण्डले उदयमानः हैसूर्यो दिवसस्यार्डेन यावन्मात्र क्षेत्रं व्यामोति तावति व्यवस्थितश्चक्षुर्गोचरमायाति तत एतावत्किल पुरतस्तापक्षेत्रं, यावच्च दीप अनुक्रम [३३] 4G FarPranaswamincom ~115~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] ----- प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ तिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ५३ ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - पुरतस्तापक्षेत्रं तावत्पश्चादपि यत उदयमान इवास्तमयमानोऽपि सूर्यो दिवसस्यार्थेन यावन्मात्रं क्षेत्रं व्याप्नोति तावति २ व्यवस्थितश्चक्षुषोपलभ्यते, एतच्च प्रतिप्राणि सुप्रसिद्धं सर्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसस्यार्द्धं नव मुहूर्त्तास्ततोऽष्टादशभिर्मुहर्यावन्मात्रं क्षेत्रं गम्यं तावत्प्रमाणं तापक्षेत्रं, एकैकेन मुहूर्त्तेन पट् षट् योजनसहस्राणि गम्यन्ते, ततः पण्णां योजनसहखाणामष्टादशभिर्गुणने भवत्येकं योजनशतसहस्रमष्टौ योजन सहस्राणीति, एवमुत्तरत्रापि तत्तन्मण्डलगतदिवसपरिमाणं प्रतिमुहूर्त्तगतिपरिमाणं च परिभाव्य तापक्षेत्रपरिमाणभावना भावनीया, यदा च सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति सर्वजघन्यश्च द्वादशमुहर्त्ती दिवसः तस्मिंश्च दिवसे तापक्षेत्रपरिमाणं द्विसप्ततिर्योजन सहस्राणि ७२०००, तदा हि तापक्षेत्रं द्वादशमुह संगम्यप्रमाणं, अत्रार्थे च भावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं भावनीया, मुहर्त्तेन च षटू पटू योजन सहस्राणि गच्छति, ततः षण्णां योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणने भवन्ति द्वासप्ततिरेव योजन सहस्राणीति, इमामेवोपपत्तिं लेशत आह- 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां हि तीर्थान्तरीयाणां मतेन सूर्य: षटू पड् योजनसहस्राण्येकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति ततः सर्वाभ्यन्तरे सर्ववाये च मण्डले यथोक्तमेव तापक्षेत्रपरिमाणं भवतीति, तथा 'तस्थे'त्यादि, तत्र तेषां वादिनां मध्ये ये ते एवमाहुः पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति त एवमाहुः यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति 'तहेब दिवसराइप्यमाण' मिति अत्र प्रस्तावे दिवसरात्रप्रमाणं तथैव-प्रागिव द्रष्टव्यं, 'तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे हवश, जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई इति, 'तस्सि च ण' मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं-तापक्षेत्रपरिमाणं प्रज्ञप्तं Education Intiation For Parts Only ~116~ २ प्राभूते २ प्राभृतप्राभृर्त ॥ ५३ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], --------------------प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] नवतियोंजनसहस्राणि, तदा हि प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादशमुहूर्तप्रमाणं तापक्षेत्रं, एकैकेन च मुहूर्तेन गच्छति सूर्यः पञ्च पथ योजनसहस्राणि, ततः पञ्चानां योजनसहस्राणामष्टादशभिर्गुणनेन नवतिरेव योजनसहस्राणि भवन्ति, 'ता जया मित्यादि, यदा सूर्यः सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा 'तं चेव राइंदियप्पमाण'मिति, तदेव प्रागुकं रात्रिंदिवप्रमाणं-रात्रिदिवसप्रमाणं वक्तव्यं, तद्यथा-"उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अटारसमुहुत्ता राई हवइ जहन्निए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवतीति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिन् सर्ववाह्यमण्डलगते सर्वजघन्ये द्वादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं षष्टिोजनसहस्राणि ६००००, तदा ह्यनन्तरोक्तयुक्तिवशाद् द्वादशमुहूर्ध्वगम्यप्रमाणं तापक्षेत्रमै कैकेन च | मुहूसेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छति ततः पञ्चानां योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणने भवति षष्टियोजनसहस्राणि,| अत्रैवोपपत्तिलेशमाह-'तया णं पंच पंचे'त्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारचरणकाले सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले च पश्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, ततः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले यथोक्तमातपक्षेत्रप-14 रिमाणं भवति २,'तत्थे त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-चत्वारि २ योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति। त एवं सूर्यतापक्षेत्रप्ररूपणां कुर्वन्ति-यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा दिवसरात्री तथैव-प्रागिव | वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे हवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई'। इति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं द्विसप्ततियोंजनसहस्राणि ७२०००, तथा हि-एतेषां मतेन सूर्य एकैकेन मुहून चत्वारि २ योजनसहस्राणि गच्छति, सर्वाभ्यन्तरे च दीप अनुक्रम [३३] For P OW aurwancharary.orm ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ॥५४॥ सूयप्रज्ञ-४ मण्डले तापक्षेत्रपरिमाणं प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादशमुहूर्तगम्यं, ततश्चतुर्णा योजनसहस्राणामष्टादशभिर्गुणने भवन्ति द्विस- २ प्राभृते तिवृत्तिः सतियोजनसहस्राणि, 'ता जया 'मित्यादि, सतो यदा सूर्यः सर्ववाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, तदा 'राईदियं३ प्राभूत (मल.) तहेव'त्ति रात्रिंदिवं-रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव-प्रागिव वक्तव्यं, तच्चैवम्-'तया णं उत्तमकट्ठपत्ता नकोसिया अझारसमुहुत्ता प्राभृत राई भवइ, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति' 'तस्सि च णमित्यादि, तस्मिंश्च सर्ववाह्यमण्डलगते द्वादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं अष्टाचत्वारिंशयोजनसहस्राणि ४८०००, तदा हि तापक्षेत्रं द्वादशमुहर्तगम्यं, एकैकेन च मुहूर्तेन चत्वारि २ योजनसहस्राणि गच्छति, ततश्चतुर्णा योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणनेऽष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्ति, इमामेवोपपत्ति लेशतो भावयति–'तया णमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले सर्वबाह्यमण्डलचारकाले च यतश्चत्वारि योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ततः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले यथोक्तं तापक्षेत्रपरिमाण भवति ३ । 'तत्थे त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ते एवमाहुः-एवं सूर्यचारं प्ररूपयन्ति, सूर्य सद्गमनमुहूत्ते अस्तमयनमुहूर्ते च शीघ्रगतिर्भवति ततस्तदा-उद्ग-1 मनकालेऽस्तमयनकाले च सूर्य एकैकेन मुहुर्तेन षट् ष योजनसहस्राणि गच्छति, तदनन्तरं सर्वाभ्यन्तरगतं मुदतैमात्रगम्य तापक्षेत्रं मुक्खा शेष मध्यम तापक्षेत्रं परिश्रमेण समासादयन् मध्यमगतिर्भवति, ततस्तदा पञ्च पश्च योजनसहस्राणि का॥५४॥ एकैकेन मुहून गच्छति, सर्वाभ्यन्तरं तु मुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं सम्प्राप्तः सन् सूर्यो मन्दगतिर्भवति, ततस्तदा यत्र तत्र सवा मण्डले चत्वारि २ योजनसहस्राणि एकैकेन मुहलेन गच्छति, अत्रैव भावार्थ पिच्छिषुराह-'तत्धेत्यादि, तत्र अनुक्रम [३३] ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] ॐॐॐॐॐॐॐॐ दीप ४ा एवं विधवस्तुतत्त्वव्यवस्थायां को हेतुः -का उपपत्तिरिति वदेत, एवं स्वशिष्येण प्रश्ने कृते सति ते एवमाहः 'ता| अयपण'मित्यादि, अत्र जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च, 'जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमकहपत्ते उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ,' 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च सर्वा-४ भ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहर्तप्रमाणदिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं एकनवतियोजनसहस्राणि ९१०००, तानि चैवमुपपद्यन्ते-15 उद्गमनमुहूर्तेऽस्तमयमुहर्ने च प्रत्येक घटू योजनसहस्राणि गच्छतीत्युभयमीलने द्वादश योजनसहस्राणि १२०००, सर्वाकाभ्यन्तरं मुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्र मुक्त्वा शेषे मध्यमे तापक्षेत्रे पञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छतीति | पञ्चानां योजनसहस्राणां पञ्चदशभिर्गुणने पश्चसप्ततियोजनसहस्राणि ७५०००, सर्वाभ्यन्तरे तु मुहूर्तमात्रगम्ये तापक्षेत्रे | चत्वारि योजनसहस्राणि ४००० गच्छतीति सर्वमीलने एकनवतियोजनसहस्राणि ९१००० भवन्ति, न चैतान्यन्यथा घटन्ते, तथा 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सर्वबाह्य मण्डलमुपसङ्कम्य सूर्यश्चारं चरति तदा रात्रिंदिवं-रात्रिंदिवपरि-18 माणं तथैव-आगिव वेदितव्यं, तचैवम्-'तया णं उत्तमकडपत्ता उक्कोसिया अवारसमुहत्ता राई भवइ, जहाए दुवालस-16 मुहुत्ते दिवसे भवई' इति, 'तसि च णमित्यादि, तस्मिंश्च सर्ववाह्यमण्डलगते द्वादशमुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्त, एकपष्टियोजनसहस्राणि ११०००, तानि चैवं घटा प्राश्चन्ति-उद्गमनमुहूर्ते अस्तमयमुहूर्ते च प्रत्येक पट् षट् योजनसहस्राणि गच्छन्ति, तत उभयमीलने द्वादश योजनसहस्राणि भवन्ति १२०००, सर्वाभ्यन्तरं मुहर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्र अनुक्रम [३३] RESERECTR ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्रत तिवृत्तिः (मल०) सूत्राक ॥५५॥ [२३] दीप मुक्त्या शेषे मध्य मे तापक्षेत्रे नवमुर्तगम्यप्रमाणे पश्च पश्च योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, ततः पश्चानां प्राभूते योजनसहस्राणां नवभिर्गुणने पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि भवन्ति ४५०००, सर्वाभ्यन्तरे तु मुहूर्तमात्रगम्ये तापक्षेत्रे ४३.ग्राभृतचत्वारि योजनसहस्राणि ४००० गच्छति, सर्वमीलने एकषष्टिर्योजनसहस्राणि, न तान्यन्यथोपपद्यन्ते, ततः 'तया णमि- प्राभूत त्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले सर्ववाह्यमण्डलधारकाले चोकप्रकारेण पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहवाणि सूर्य एकैकेन 'मुहतेन गच्छति, अत्रैवोपसंहारः-'एगे एवमासु एके चतुर्था वादिन एवं-अनन्तरोक्केन ५ प्रकारेणाहुः। तदेवं परतीधिकप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-वयंपुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानाः | केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तूपलभ्य पर्व-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता साइरेगाई'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् सातिरेकाणि-समधिकानि पश्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकै केन मुहतेन गच्छति, शह कापि मण्डले कियताऽधिकेन पश्च पश्च योजनसहस्राणि गच्छति, ततः सर्वमण्डलप्राप्तिमपेक्ष्य सामान्यत उक्तं सातिरेकाणीति, एवमुक्त है भगवान् गौतमस्वामी स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधनाय भूयः पृच्छति-तत्थेत्यादि, सत्र-एवंविधायामनन्तरोदितायो| वस्तुव्यवस्थायां को हेतु:-का अपपसिरिति वदेत, भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह-'ता अयण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीप PIL५५॥ वाक्यं पूर्ववत्स्वयं परिपूर्ण परिभाषनीयं, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं| | चरति तदा पश्च पश्च योजनसहस्राणि द्वे द्वे योजनशते एकपश्चाशदधिके एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान योजनस्य ५२५१३० | एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह द्वाभ्यां सूर्याभ्यामेकं मण्डलमेकेनाहोरात्रेण परि अनुक्रम [३३] IN awraturasurare.org ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] दीप 2155*55555 समाप्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुर्तप्रमाणः, प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां मण्डलं परिभ्रमणतः18 लपरिसमाप्यते, द्वयोश्चाहोरात्रप्रमाणयोर्मुहुर्ताः पष्टिर्भवन्ति, ततो मण्डलपरिरयस्य पट्या भागं हारयेत् , भागलब्धं भवति तन्मुहर्तगतिप्रमाणं, तत्र सर्वाभ्यन्तरे मण्डले परिरयप्रमाणं त्रीणि लक्षाणि पश्चदश सहस्राणि नवाशी(एकोननवत्यधिकानि | ३१५०८९ अस्य षष्ट्या भागेहते लब्धं यथोकं मुहर्तगतिपरिमाणमिति। अत्रास्मिन् सर्वाभ्यन्तरे मण्डले कियति क्षेत्रे व्यवस्थित उदयमानः सूर्य इहगताना मनुष्याणां चक्षुर्गोचरमायातीतिप्रश्नावकाशमाशश्याह-'तया ण'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरमण्डल चारचरणकाले उदयमानः सूर्य इहगतस्य मनुष्यस्य, अत्र जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थ:-इहगतानां भरतक्षेत्रगतानां| मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशाता योजनसहर्टाभ्यां त्रिषष्टाभ्यां-त्रिषष्ठ्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्या च पष्टिभाग-1 |र्योजनस्य चक्षुःस्पर्श 'हवं ति' शीघ्रमागच्छति, काऽनोपपत्तिरिति चेत्, उच्यते, इह दिवसस्यान यावन्मानं क्षेत्र च्याप्यते तावति व्यवस्थित उदयमानः सूर्यः उपलभ्यते, सर्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहर्सप्रमाणस्तेषामढ़ें नव मुहूर्ताः, एककस्मिक्ष मुह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं परन् पश्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते एकपश्चाशदधिके एकोन-13/ त्रिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य गछति, तत एतावन्मुद्रगतिपरिमाणं नवभिर्मुहतैर्गुण्यते, ततो भवति यथोकं दृष्टिपथप्राप्तताविषये परिमाणमिति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारधरणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तया णं उत्तमकपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुत्ता राई भवई'। Mइति, 'से निक्खममाणे इत्यादि, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलामागुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् सूर्यों नवं संवत्सरमाददानो अनुक्रम [३३] ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभूते प्राभृत प्रत माभूत सूर्यप्रज्ञ- नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितरानंतर ति सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य तिवृत्तिः४ चार चरति 'ता जया ण'मित्यादि तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार (मल०) चरति तदा पञ्च योजनसहस्राणि द्वे योजनशते एकपञ्चाशदधिके सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५२५१।। ॥५६॥ एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तथाहि-अस्मिन् सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं व्यवहारतः परिपूर्ण सप्तोत्तरं निश्चयमतेन तु किंचिन्यून ३१५१०७, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्ति-14 वशात् षश्या भागो हियते, लब्धं यधोकमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं, अथवा पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणादस्य मण्डलस्य | परिरयपरिमाणे व्यवहारतः परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि वर्द्धन्ते, निश्चयतः किश्चिदूनानि, अष्टादशानां च योजनानां पश्या भागे हृते लब्धा अष्टादश षष्टिभागा योजनस्य, ते प्राक्तनमण्डलगतमुहर्तगतिपरिमाणेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो भवति यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणमिति, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणमाह-तया 'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनं इहगताना मनुष्याणां सक्षचत्वारि-15 शता योजनसहरेकोनाशीत्यधिकेन योजनशतेन सप्तपञ्चाशता पष्टिभागैरेकै च षष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तल सस्कैहारेकोनविंशत्या चूर्णिकाभागः सूर्यश्चक्षुास्पर्शमागछति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले मुहर्तगतिपरिमाणं पश्च योजनसहवाणि देशते एकपञ्चाशदधिक सप्तचत्वारिंशत पष्टिभागा योजनस्य ५२५१४ दिवसोऽष्टादशमुहर्तप्रमाणो द्वाभ्यों महतैकष-15 ष्टिभागाभ्यामूनस्तस्यार्द्ध नव मुहतो एकेन एकषष्टिभागेन हीनाः, ततः सकलैकषष्टिभागकरणार्थ नव मुहूर्ता एकषष्ट्या OCTORS अनुक्रम [३३] -AVM weredturary.com ~122~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तत एकं रूपमपनीयते, जातानि पञ्च शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि ५४८, ततोऽस्य द्वितीयस्य मण्डलस्य यत्परिश्यपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरमिति ३१५१०७, तत्पञ्चभिः शतैरष्टाचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते, ततो जात एककः सप्तको द्विकः पङ्कः सप्तकोऽष्टकः षत्रिकः पङ्कः १७२६७८६३६, ततो योजना नयनार्थमेकषष्टेः पष्ट्या गुणिताया यावान् राशिर्भवति तेन भागो हियते, एकपट्यां च षष्ठ्या गुणितायां पत्रिंशच्छतानि पयधिकानि भवन्ति ३६६०, तैर्भागे हृते लब्धं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकोनाशीत्यधिकं योजनानां, शेषमुद्धरति चतुखिंशच्छतानि पण्णवत्यधिकानि ३४९६, सतोऽस्माद्योजनानि नायान्तीति षष्टिभागानयनार्थं छेदराशिरे कषष्टिर्भियते, वेन भागे हुते लब्धाः सप्तपञ्चाशत्पष्टिभागाः एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागा इति । 'तया पदमित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीय मण्डलचारचरणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्- 'तया णं अंद्वारसमुहुत्ते दिवसे हवइ दोहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्टिभागमुहुतेहिं अहिया' इति, 'से निक्खममाणे' इत्यादि, द्वितीयस्मादपि मण्डलात् स सूर्यः प्रागुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् नवस्य संवत्सरस्य सत्के द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभितरतचं' ति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीर्य मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा पश्च पथ योजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्विपञ्चाशे द्विपञ्चाशदधिके पञ्च च पष्टिभागान् योजनस्य ५२५२ एकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति, तथाहि-अस्मिम्मण्डले परिरय परि मार्णे श्रीणि योजनउक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं पञ्चविंशत्यधिकं ११५१२५ ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ठ्या Educatin internation For Penal Use On ~ 123~ waryra Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] ----- प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल०) ॥ ५७ ॥ भागो हियते, लब्धं यथोक्तमन्त्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं, अथवा पूर्वमण्डलमुहूर्त्तगतिपरिमाणादस्मिन् मण्डले मुहूर्त्त - गलिपरिमाणचिन्तायां प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादश एकषष्टिभागा योजनस्याधिकाः प्राप्यन्ते, ततस्तत्प्रक्षेपे भवति यथोक्तमन्त्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमाह- 'तया ण' मित्यादि, सदा-सर्वाभ्यन्तरानन्तरतृती य मण्डल चारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनस्य भावादिहगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजन सहस्रैः ४ पणवत्या च योजने स्वयत्रिशता च पष्टिभागर्योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां पुर्णिका भागाभ्यां ४७०९६ । सूर्यः स्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहूर्तममाणश्चतुर्भि| मुहर्त्तकपष्टिभाग नस्तस्यार्द्ध नव मुहूर्त्ता द्वाभ्यां मुहूर्त्तेकपष्टिभागाभ्यां हीनाः, ततः सामस्त्येनैक षष्टिभागकरणार्थं नवापि मुहूर्ता एकपथा गुप्यन्ते, गुणयित्वा च द्वावेक पष्टिभागी तेभ्योऽपनीयेते, ततो जाता एकषष्टिभागाः पञ्च शतानि सप्तचत्वारिंशताऽधिकानि ५४७, ततोऽस्य तृतीयमण्डलस्य यत्परिश्यपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पश्चदश सहस्राणि शतमेकं पचविंशत्यधिकमिति ३१५१२५, तत्पश्चभिः शतैः सप्तचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते, जाताः सप्तदश कोटयस्त्रयोविंशतिः शतसहस्राणि त्रिरुतिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि १७२३७३३७५, एतेषामेकषष्ट्या पध्या गुणितया ३६६० भागो हियते, लब्धानि सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि ४७०९६, शेषमुद्धरति विंशतिशतानि पश्चदशोत्तराणि २०१५, ततोऽस्मायोजनानि नायान्तीति पष्टिभागानयनार्थं छेदराशिरेकषष्टिप्रियते, तेन भागे हृते लब्धाख यत्रिशत्पष्टिभागाः एकस्य च पष्टिभागस्य सत्कौ द्वावेकषष्टिभागी के 'तथा ण'मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरतृतीय Eaton Internationa For Para Use Only ~124~ २ प्राभृते३ प्राभृतप्राभृर्त ॥ ५७ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [२३] प्राभृत [२], ----- प्राभृतप्राभृत [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मण्डल चारणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वेदितव्ये, ते चैदम्- 'तथा णं अट्ठारसमुहुते दिवसे हवइ, चहिं एगट्टिभागमुडुतेहिं ऊणे दुवालसमुहन्ता राई भवइ चहिं एगट्टिभागमुहुतेहिं अहिया' इति, सम्प्रति चतुर्थादिषु मण्डलेष्वविदेशमाह-' एवं खल्वि'त्यादि, एवं उच्केन प्रकारेण खलु निश्चितमेवेन-अनन्तरोदितेनोपायेन शनैः शनैस्त तद्बहिर्मण्डलाभिमुखगमनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तराम्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुक्तप्रकारेण सङ्क्रामन् सङ्क्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगतिमित्यन सूत्रे द्वितीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वाद्भवति प्राकृतलक्षणवशात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, यथा--'कस्तो रति मुद्धे । पाणियसद्धा सउणघाण' मित्यन [कुतो रात्रौ मुग्धे ! पानीयश्रद्धा शकुनकानाम् ] ततोऽय| मर्थः- मुहूर्त्तगतौ अष्टादश २ षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान्निश्चयतः किशिदूनानभिवर्द्धयमानः २ 'पुरिस|च्छायमिति पुरुषस्य छाया यतो भवति सा पुरुषच्छाया सा चेह प्रस्तावात् प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य दृष्टिपथप्राप्तता, अत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे, ततोऽयमर्थः तस्यामेकैकस्मिन् मण्डले चतुरशीतिः २ 'सीपाई'ति शीतानि किञ्चिन्यूनानीत्यर्थः, योजनानि निर्वेष्टयन् २- दापयन्नित्यर्थः, इदं च स्थूलत उक्त, परमार्थतः पुनरिदं द्रष्टव्यं प्रयशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिधा छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद्भागाश्चेति दृष्टिपथप्राप्तताविषये विषयहानौ ध्रुवं ततः सर्वभ्यन्तरान्मण्डला तृतीयं यन्मण्डलं तत आरभ्य यस्मिन् यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातु| मिष्यते तत्तन्मण्डलसाया षटूत्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीये मण्डले एकेन चतुर्थे द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिर्यावत् सर्ववाये मण्डले व्यशीत्यधिकेन शतेन, गुणयित्वा च ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षिष्ठे सति यद्भवति तेन Education International For Parts Only ~ 125 ~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यमज्ञ- हीना पूर्वमण्डलगता दृष्टिपथप्राप्तता-तस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता द्रष्टव्या, अथ त्र्यशीतियोजनानीत्यादि- २ प्राभृते प्तिवृत्तिः कस्य भुवराशेः कथमुत्पत्तिः!, उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते प्राभूत(मल.) विषयधिके योजनानामेकविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य ४७२६३३०, एतच्च नवमुहूर्तगम्यं, तत एकस्मिन् मुहूर्तेकषष्टि-II प्राभृतं ०५८॥ भागे किमागच्छतीति चिन्तायां नव मुहर्ता एकषष्टया गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतान्येकोनपश्चाशदधिकानि ५४९, तैर्भागो || हियते, लब्धा षडशीतियोजनानि पञ्च पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य एकपष्टिवा छिन्नस्य सत्काश्चतुर्विंशति र्भागाः ८६ पूर्वस्मात् २ च मण्डलादनन्तरानन्तरे मण्डले परिरयपरिमाणचिन्तायामष्टादश २ योजनानि व्यवहा| रतः परिपूणोंनि वर्द्धन्ते, ततः पूर्वपूर्वमण्डलगतमुहर्त्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे मण्डले मुहत्तंगतिपरिमाणचिन्तायां मितिमुहूर्त्तमष्टादशाष्टादश पष्टिभागा योजनस्य प्रवर्द्धमाना द्रष्टव्याः, प्रतिमुहूर्ते कषष्टिभार्ग चाष्टादश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाः, सर्वाभ्यन्तरानन्तरे च द्वितीये मण्डले सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति नवभिर्मुहू कषष्टिभागनोनर्याचन्मार्च क्षेत्र व्याप्यते तावति स्थितस्ततो नव मुहूर्ता एकपट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तेभ्य एक रूपमपनीयते, जातानि पञ्च शतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि ५४८, तैरष्टादश गुण्यन्ते, जातान्यष्टानवतिः शतानि चतुःषष्टिसहितानि A९८६४, तेपो षष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धमेकषष्ट्याधिक शतं षष्टिभागानां त्रिचत्वारिंशदेकषष्टिभागस्य । सत्का एकषष्टिभागाः , तत्र विंशत्यधिकेन षष्टिभागशतेन द्वे योजने लब्धे पश्चादेकचत्वारिंशत्पष्टिभागा अबति-13 छन्ते, एतच्च द्वे योजने एकचत्वारिंशषष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्कात्रिचत्वारिंशदेव ष्टिभागा इत्येवं अनुक्रम [३३] 55ॐॐॐॐ EARS nimlainturary.orm ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] BRE दीप रूपं प्रागुतात् षडशीतियोजनानि पञ्च पष्टिभागा योजनस्य एकपष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागा इत्येतस्माछो-13 | ध्यते, शोधिते च तस्मिन् स्थितानि पश्चात् ध्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिःषष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्कार सद्विचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः ८३३० । एतावद् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषये सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथ प्राप्ततापरिमाणात् हानी प्राप्यते, किमुक्कं भवति ?-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततायां हानौ वर्व, अत एवं ध्रुवराशिपरिमाणात् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमेतावता हीनं भवतीति, एतच्चोत्तरोत्तरमण्डलविषयदृष्टिपथप्राप्तताचिन्तायां हानौ ध्रुवं, अत एव ध्रुवराशिरिति ध्रुवराशेरुत्पत्तिः, ततो द्वितीयस्मान्मण्डलादनन्तरे तृतीये मण्डले एष एव ध्रुवराशिः एकस्य षष्टिभागस्य सत्कैः पत्रिंशतकपष्टिभागैः सहितः सन् यावान् भवति तद्यथा-त्र्यशीतियोंजनानि चतुर्विंशतिः षष्टिभागा योजनस्य सप्तदश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा इति, एतावान् द्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपधप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते, ततो भवति यथोकं तस्मिन् तृतीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणं, चतुर्थे मण्डले स एव ध्रुवराशि सप्तत्या सहितः क्रियते, चतुर्थ हि मण्डलं तृतीयापेक्षया द्वितीय, ततः पत्रिंशद् द्वाभ्यां Kगुण्यते, गुणिता च सती द्विसप्ततिर्भवति, तया च सहितः सन् एवंरूपो जातरुयशीतिर्योजनानि चतुर्विंशतिः पष्टिभागा है। योजनस्य त्रिपश्चाशदेकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिभागाः ८३३४ साएतावान् तृतीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्तताप-14 रिमाणात् शोध्यते, ततो यथावस्थितं चतुर्थे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चेदम्-'सप्तचत्वारिंशद्योजनसहहैमाणि त्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का दश एकषष्टिभागाः ४७०१३ तास अनुक्रम [३३] SAREauratonintamational ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] ----- प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ५९ ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - सर्वान्तिमे तु मण्डले तृतीयमण्डलापेक्षया व्यशीत्यधिकशततमे यदा दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा सा पटूत्रिंशत् व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ६५५२, ततः षष्टिभागानयनार्थमेकपष्ट्या भागो द्रियते, लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां १०७, शेषाः पञ्चविंशतिरेकपष्टिभागा उद्धरन्ति २५, एतत् ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते, ततो जातमिदं पश्ञ्चाशीतियजनानि एकादश षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पटू एकषष्टिभागाः ८५ । इह पटूशित एवमुत्पत्तिः- पूर्वस्मात् २ मण्डलादनन्तरेऽनन्तरे मण्डले दिवसो द्वाभ्यां द्वाभ्यां मुत्कषष्टिभागाभ्यां हीनो भवति, प्रतिमुहूत्र्त्तेकपष्टिभागं चाष्टादश एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा दीयन्ते, तत उभयमीलने षटूत्रिंशद्भवति, ते चाष्टादश एकषष्टिभागाः कलया न्यूना लभ्यन्ते न परिपूर्णाः परं व्यवहारतः पूर्व परिपूर्णा विवक्षिताः तच कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा एकषष्टिरेकपष्टिभागास्त्रुट्यन्ति एतदपि व्यवहारत उच्यते, परमार्थतः पुनः किश्चिदधिकमपि त्रुव्यदवसेयं, ततोऽमी अष्टषष्टिरेकपष्टिभागा अपसार्यन्ते, तदपसारणे पश्चाशीतिर्योजनानि नव पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ८५ । इति जातं, ततः सर्वमाद्यमण्डलानन्तरार्वा कनद्वितीय मण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्तापरिमाणादेक त्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योजनानामे को न चत्वारिंशत्यष्टिभागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ३१९१६ । इत्येवंरूपात् शोध्यते, ततो यथोक्तं सर्ववाये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चाने स्वयमेव सूत्रकृद्वक्ष्यति, तत एवं पुरुषच्छायायां दृष्टिपथमाततारूपायां द्वितीयादिषु केषुचि Education Internation For Parts Only ~128~ २ प्राभृते ३ प्राभूतप्राभृर्त ॥ ५९ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः न्मण्डलेषु चतुरशीतिं २ किश्चिन्यूनानि योजनानि उपरितनेषु तु मण्डलेष्वधिकानि अधिकतराणि उक्तप्रकारेण निर्वेष्टयन् २ तावदवसेयं यावत्सवबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत् सर्व वाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्त्तेन पश्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि त्रीणि शतानि पञ्चदश च षष्टिभागान् योजनस्य ५३०५ गच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिश्यपरिमाणं त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५ तत एतस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ट्या भागो हियते, ततो लब्धं यथोक्तमत्र मुहूर्त्तगतिपरिमाणमिति, अत्रैव दृष्टिपथप्रासतापरिमाणमाह-'तया णमित्यादि, तदा-सर्वबाह्यमण्डलचार| काले इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनमिगतानां मनुष्याणां एकत्रिंशता योजनसह सैरष्टभिरेकत्रिंशदधिकैर्योजनशतैस्त्रिंशता च षष्टिभागेर्योजनस्य ३१८३१३ सूर्यः शीघ्रं चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तदा ह्यस्मिन् मण्डले चारं चरति सूर्ये द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति, दिवसस्य चार्जेन यावन्मात्रं क्षेत्रं व्याप्यते तावति व्यवस्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते, द्वादशानां च मुहर्त्तानामर्द्धे षट् मुहूर्त्तास्ततो यदत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चोतराणि पञ्चदश च षष्टिभागा योजनस्य ५३०५ तत् षद्भिर्गुण्यते, ततो यथोक्तमन्त्र दृष्टिपथप्राप्तत्तापरिमाणं भवति, | अत्रापि दिवसरात्रप्रमाणमाह- 'तया णमित्यादि, सुगमम् । 'से पविसमाणे' इत्यादि, स सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलादुप्रकारेणाभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानो द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिरानंतरं 'ति सर्वबाह्यान्मण्डलादनन्तरमर्वाक्तनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति 'ता जया ण मित्यादि तत्र यदा सर्वबाह्यानन्त Education International For Parts Only ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], -------------- ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक • सूर्यप्रज्ञ-18 रमर्वातनं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति तदा एकेन मुहूर्तेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि चतुरुत्तराणि प्राभृते प्तिवृत्तिः योजनशतानि सप्तपश्चाशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५३०४ गच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं तिम्रो प्राभृत(मल.) लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानां ३१८२९७, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् पट्या भागो हियते, प्राभृतं हते च भागे लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाहू-'तया ण'मित्यादि, तदा ॥ ६ ॥ इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनं इहगताना मनुष्याणामेकत्रिंशता योजनसहर्नवभिः षोडशैः-पोडशोत्तरैर्योजनशतैरेकोनचत्वारिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैः षष्ट्या चूर्णिकाभागैः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहकषष्टिभागाभ्यामधिकः,४ तेषां चाई षट् मुहर्ता एकेन मुहकपष्टिभागेनाभ्यधिकाः, ततः सामस्त्येनैकपष्टिभागकरणार्धं पडपि मुहर्ता एकषध्या & गुण्यन्ते गुणयित्वा च एकपष्टिभागस्तत्राधिकः प्रक्षिप्यते ततो जातानि त्रीणि शतानि सप्तषष्ठयधिकानि एकषष्टिभागाना21 ४३६७, ततः सर्ववाह्यादाक्तने तस्मिन् द्वितीये मण्डले यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि देवाते सप्तनवत्यधिके २१८२९७, तदेभित्रिभिशतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुण्यते, जाता एकादश कोटयोऽष्टषष्टिलक्षाश्चतुर्दश सहस्राणि |नव शतानि नवनवत्यधिकानि ११६८१४९९९, एतस्य एकपष्ट्या गुणितया षष्ट्या ३६६० भागो हियते, हते च भागेश लब्धान्यकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पोडशोत्तराणि ३१९१६, शेषमुद्धरति चतुर्विंशतिः शतानि एकोनचत्वारिंशदधि-1|| IMकानि २४३९, न चातो योजनान्यायान्ति ततः पष्टिभागानयनार्थमेकपाट्या भागो हियते, लब्धा एकोनचत्वारिंशत्पष्टि [३३] ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] भागाः १९ एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः'तया णं राइदिय तहेव' तदा-सर्वबाह्यानन्तराक्तिनद्वितीयमण्डलयोश्चारकाले रात्रिन्दिवं-रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव-प्रागिव वक्तव्यं, तचैवम्-'तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई| भवति दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहि जणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे हवा दोहि एगहिभागमुहत्तेहि अहिए' इति, 'से पवि-12 समाणे' इत्यादि, ततः सर्वबाह्यानन्तराक्तिनद्वितीयस्मादपि मण्डलादुक्तप्रकारेण प्रविशन् सूर्यो द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'याहिरतचं'ति सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वातनं तृतीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति 'ता जया 'मित्यादि तत्र यदा णमिति पूर्ववत् सर्ववाह्यान्मण्डलादकनं तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५३०४३० एकैकेन मुहन गच्छति, तस्मिन् हि मण्डले परिरयपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके इति ३१८२७९, अस्य षष्ट्या भागो हियते, हते च भागे लब्धं यधोकमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं, अत्रापि हि दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमाह'तया ण'मित्यादि, तदा इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनस्य भावादिहगताना मनुष्याणामेकाधिकात्रिंशता सहस्र-18 रकोनपश्चाशता षष्टिभागैरेकं च पष्टिभागमेकपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैस्त्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणश्चतुर्भिरेकषष्टिभागैरधिकस्तस्यार्दू षट् मुहूर्ता द्वाभ्यां मुहू कषष्टिभागाभ्यामधिकाः, ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थं पडपि मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च द्वावेकष ष्टिभागी प्रक्षिष्येते, ततो जातानि त्रीणि शतान्यष्टषष्ट्यधिकान्येकषष्टिभागानां ३६८, ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परिरयपरि SHARE दीप अनुक्रम [३३] ~131~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: दा प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्ति: (मल०) प्राभूत सूत्राक ॥६१ ॥ [२३] दीप माणे श्रीणि लक्षाण्यष्टादश सहवाणि बेशते पकोमाशीत्यधिके ११८२७९ इति, सदेभिसिमिः शतैर षष्ठयधिकगुण्यति, प्राभते जाता एकादश कोटवा एकसप्ततिः शतसहस्राणि पदिशतिः सहस्राणि पट शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ११७१२६६७२,४प्राभृतएतस्य षष्ट्या पकपया गुणितया ३१६० भागो हियते, हृते च भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि एकोत्तराणि ३२००१, शेषमुद्धरति श्रीणि सहस्राणि द्वादशोत्तराणि ३०१३, तेषां पष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनपश्चाशत्पष्टिभागाः प्रयोविंशतिश्च एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकवष्टिभागा इति, रसिदियं तहेव'त्ति रात्रिन्दिवं-रात्रिदिवसपरिमाणमत्र तथैव-प्रागिव वक्तव्यं, तचैवम्-'तया णं अवारसमुहुत्ता राई भवइ चरहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहत्ते दिवसे हवइ पाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं अहिए' इति, सम्प्रति सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तनेषु चतुरादिषु मण्डलेषु अतिदेशमाह-एवं खस्चित्वादि, एवं' उक्केन प्रकारेण 'खलु' निश्चितमेतेनोपायेन शनैः शनैस्तसवभ्यन्त-18 रानन्तरमण्डलाभिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तराम्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डल सामन् २ एकैकस्मिन् । मण्डले मुहर्तगतिमित्यत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे मुहूर्तगतौ-मुहूर्त्तगतिपरिमाणे अष्टादश २ षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहा-12 रतः परिपूर्णान् निश्चयतः किश्चिदूनान्निवेष्टयन् २-हापयन २ इत्यर्थः, पूर्वपूर्वमण्डलापेक्षया अभ्यन्तराभ्यन्तरमण्डलस्य । ६१॥ परिरयमधिकृत्याष्टादशभियोजनैनित्वात् पुरुषच्छायामित्यत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे, ततोऽयमर्थ:-पुरुषच्छायायां रष्टि-I पथमाप्ततारूपायो सातिरेकाणि पञ्चाशीतिः २ योजनानि अभिवर्धयन् २, इदं च सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तनानि कतिपय यानि प्रथमद्वितीयादिमण्डलान्यपेक्ष्य स्थूलत उक्त, परमार्थतः पुनरेवं द्रष्टव्यं-इह येनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला अनुक्रम [३३] ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] दीप त्परतो दृष्टिपथप्राप्तता हापयन विनिर्गतस्तेनैव क्रमेण सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तनेषु मण्डलेषु दृष्टिपथप्राप्ततामभिवर्द्धयन् । प्रविशति, तत्र सर्वबाह्यमण्डलाक्तिनद्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् सर्वबाह्यमण्डले पञ्चाशीतियोजनानि नव षष्टिभागान योजनस्य एकं च पष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कान् पष्टिभागान् हापयति, एतच्च मागेवभावितं, ततस्तस्मात्सर्वबाह्यान्मण्डलादाक्तने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तावद्भूयोऽपि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणेऽभिवर्द्धयति ध्रुवं, ततोऽक्तिनेषु मण्डलेषु यस्मिन् २ मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते (तत्र तत्र तृतीयमण्डलादारभ्य तत्त न्मण्डलसङ्ग्यायां पत्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-तृतीयमण्डलचिन्तायामेकेन चतुर्थमण्डलचिन्तायां द्वाभ्यामेवं यावत्सर्वाभ्यन्त|सरमण्डलचिन्तायां वशीत्यधिकेन शतेन, इत्थं च गुणयित्वा यल्लभ्यते तद् ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिना सहितं पूर्व 12 पूर्वमण्डलगतै दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं तत्र २ मण्डले द्रष्टव्यं, तद्यथा-तृतीये मण्डले षट्त्रिंशत् एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता पत्रिंशदेव, सा ध्रुवराशेरपनीयते, जातं शेषमिदं पश्चाशीतियोजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाश्चतुर्विंशतिः ८५ एतेन सहितं पूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं एकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पोडशोत्तराणि योजनानामेकोनचत्वारिंशत्वष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभा-18 गस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ३१९१६ । इत्येवरूपं क्रियते, ततोऽधिकृते तृतीये मण्डले यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्त-IN तापरिमाणं भवति, तच्च प्रागेवोपदर्शित, चतुर्थे मण्डले पट्त्रिंशद् द्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा ध्रुवराशेरपनीय शेपेण ध्रुवराशिना तृतीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सहितं क्रियते, तत इदं तत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं अनुक्रम [३३] ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [३३] ----- प्राभृतप्राभृत [३], मूलं [२३] प्राभृत [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल०) ॥ ६२ ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - भवति द्वात्रिंशत्सहस्राणि पडशीत्यधिकानि योजनानामष्टापञ्चाशच पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागस्य सत्का एकादशैकषष्टिभागाः २२०८६ । है । है, एवं शेषेष्वपि मण्डलेषु भावनीयं, यदा तु सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा पटूत्रिंशद् द्व्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, तृतीयमण्डलादारभ्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य व्यशीत्यधिकशततमत्वात्, ततो जातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ६५५२, तेषामेकषष्ट्या भागे हुते लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां शेषं पञ्चविंशतिः १०५ । एतत्पञ्चाशीतिर्योजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ८५ ।। इत्येवंरूपात् ध्रुवराशेः शोध्यते, जातानि पश्चात् त्र्यशीतियोंजनानि द्वाविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः इह पत्रिंशत् २ एकषष्टिभागाः कलया न्यूनाः परमार्थतो लभ्यन्ते एतच्च प्रागेवोकं तच कलान्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकपष्टिभागा लभ्यन्ते, ततस्ते भूयः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातमिदं - व्यशीतियोंजनानि त्रयोविंशतिः पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः ८३ है । एतेषु सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकमेकोनाशीत्यधिकं योजनानां सप्तपञ्चाशत्षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः ४७१७९ ।। इत्येवंरूपं सहितं क्रियते, ततो यथोक्तं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्च सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिषष्यधिके योजनानामेकविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य ४७२६३ । २ एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेषु मण्डलेषु Education International For Parks Use One ~ 134~ २ प्राभूते ३ प्राभूत प्राभृर्त ॥ ६२ ॥ waryr Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२], -------------------- प्राभृतप्राभृत [३], ------------ ----- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२३] दीप | सातिरेकाणि पश्चाशीति योजनानि अग्रेतनेषु चतुरशीतिं पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि ध्यशीति योजनानि अभिवर्धयन् ।। सायद वक्तव्यः यावत्सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसतम्य चारं चरति 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा पञ्च पश्च योजनसहस्राणि द्वे एकपश्चाशदधिके योजनशते एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५२५१४एकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदा च इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनं इहगताना मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहर्टाभ्यां त्रिषष्टाभ्या-विषष्ट्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामकविंशत्या षष्टिभागैर्योजनस्य ४७२६३ सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, एतच्च मुहूर्तगतिपरिमाणं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं च प्रागेव भावितं सूत्रकृताऽपि प्रस्तावाभय उक्त ततो न पुनरुक्ततादोषः, 'तया णं उत्तमकट्टपत्ते इत्यादि सुगम, यावत्याभृतप्राभृतपरिसमाप्तिः । इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितीयस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तं ॥ द्वितीयं प्राभृतं समाप्तम् ।। ॥ इति श्रीमत्यां सूर्यप्रज्ञप्तौ द्वितीयं प्राभृतं समाप्तम् ॥ . अथ तृतीयं प्राभृतम् ॥ तदेवमुक्तं द्वितीयं प्राभृतं, सम्प्रति तृतीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः, "कियक्षेत्रं चन्द्रः सूर्यों या प्रकाशयतीति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवतियं खेत्तं चंदिमसरिया ओभासंति उज्जोवेंति तवेंति पगासंति आहितातिवदेजा ?, तत्व खलु Mइमाओ यारस पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्थेगे एवमासु, ता एगं दीवं एगं समुई चंदिमसूरिया ओभासेंति Roccero अनुक्रम [३३] 5A5%* weredturary.com अत्र द्वितियं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ तृतीयं प्राभृतं आरभ्यते ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ---- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२४] उज्जोति तवेंति पगासेंति, एगे एवमासु ता तिणि दीवे तिणि समुद्दे चंदिमसूरिया ओमासंति०, एगेर प्राभृतम् तिवृत्तिः एवमासु २, एगे पुण एवमासुता अद्धचउत्थे दीवसमुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति उज्जोति तवेंति पगासिंति मल०) एगेएवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु ता सत्त दीचे सत्त समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासिति ४ एगे एव माहंसु ४,५ एगे पुण एवमासु ता दस दीवे दस समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति ४, एगे एवमाइंसु ५, एगे पुण एवंमा६३॥ सु, ता बारस दीवे वारस समुद्दे चंदिमसूरिया ओभासंति ४, एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमाहंसु, पायालीसा हीदीवे यायालीसं समुद्दे दिमसूरिया ओभासंति पक(४),एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु बावत्तरिंदीवे वावत्तरि समुदे दिमसूरिया ओभासंति, एक(४),एगे एवमाईसु८, एगे पुण एवमाहंसु तापातालीसं दीवसतं बायालं समुद्दसतं चंदिमसूरिया ओभासंति४ एगे एवमाहंसु ९, एगे पुण एबमाहंसु, ता बावसरि समुहसतं चंदिमसूरिया ओभासंतिक(४)एगे एबमासु१०, एगे पुण एवमाहंसुताचायालीसं दीवसहस्सं वायालं समुद-15 संहस्सं चंदिमसूरिया ओभासंति, पक(४), एगे, एवमाहंस ११, एगे पुण एवमाहंसुतावावसरं दीवसहस्सं वायत्तरं समुदसहस्सं चंदिमसूरिया ओभासंति पक (४) एगे एवमासु १२, वयं पुण एवं बदामो-अयपणं जंबुडीवे सबदीवसमुहाणं जाव परिक्खेवेणं पण्णसे, सेणं एगाए जगतीए सपतो समंता संपरिक्खिसे, सा गं जगती ॥१३॥ तहेच जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जाव एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे २ चोइस सलिलासयसहस्सा छप्पन्नं च सलिलासहस्सा भवन्तीति मक्खाता, जंबुद्दीवेणं दीवे पंचचकभागसंठिता आहितातिवदेज्जा, ता कहं CITO अनुक्रम [३४] weredturary.com ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ---- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] जबुद्दीवे २ पंचचकभागसंठिते आहिताति बदेला, ता जता णं एते दुवे सूरिया सबभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं जंबुद्दीवस्स २ तिणि पंचचउक्तभागे ओभासंति उज्जोति तवंति पभासंति, तक-एगेवि एग दिवढे पंचचक्कभागं ओभासेति एक (४) एगेषि एवं दिवढं पंचचक्कभागं ओभासेति एक (४) तता ण उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुहत्ता राई भवर, ता जता गाणं एते दुवे सूरिया सबबाहिरं मंडलं वसंकमित्ता चारं चरति तदार्ण जंबुरीवस्स २ दोषिण चक्कभागे ओभा संति उज्जोति तवंति पगासंति, ता एगेवि एर्ग पंचचक्कवालभागं ओभासति जोवेइ तवेइ पभासइ, एगेवि एक पंचचक्कवालभागं ओभासह पक(४), तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवह जहण्णए दुवालसमुह से दिवसे भवति ॥ (सूत्रं २४)॥ ततियं पारडं समत्तं ॥ 'ता केवाइय'मित्यादि, ताइति पूर्ववत् कियत् क्षेत्रं चन्द्रसूर्याः, बहुवचनं जम्बूद्वीपे चन्द्रद्वयस्य सूर्यद्वयस्य च भावात्, अवभासयन्ति, तत्रावभासो ज्ञानस्यापि प्रतिभासो व्यबहियते अतस्तव्यवच्छेदार्थमाह-उद्योतयन्ति, स चोद्योतो यद्यपि लोके भेदेन प्रसिद्धो यथा सूर्यगत आतप इति चन्द्रगतः प्रकाश इति, तथाप्यातपशब्दश्चन्द्रप्रभायामपि वर्तते, यदुक्तम्MI"चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रातपः स्मृतः" इति, प्रकाशशब्दः सूर्यप्रभायामपि, एतच्च प्रायो बहूनां सुप्रतीतं, तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थमुभयसाधारणं भूयोऽप्येकार्थिकद्वयमाह-तापयन्ति प्रकाशयन्ति आख्याता इति,इहार्षत्वात्तिवाद्यन्तपदेनापि सह नामपदस्य समन्वयो भवति, तत एवमर्थयोजना द्रष्टव्या-कियत् क्षेत्रं चन्द्रसूर्या अवभासयन्त उद्योतयन्त अनुक्रम [३४] 494 SAREaraturintimational ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ---- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मातम प्रत (मल.) ॥६४ प्रास्तापयन्तः प्रकाशयन्त आख्याता भगवतेति भगवान् वदेत् !, एवं गौतमेनोके भगवानेतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एवोपन्यस्यति-तत्थेत्यादि, तत्र-चन्द्रसूर्याणां क्षेत्रावभासनविषये इमाः खलु द्वादश प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्थे'त्यादि, तत्र-तस्यां द्वादशानां परतीर्थिकानां मध्ये एकेप्रथमास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः, एक द्वीपं एक समुद्रं चन्द्रसूयौँ अवभासयन्तौ उद्योतयन्तो तापयन्तौ प्रकाशयन्ती, सूत्रे | | द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात्, उक्तं च-बहुवयणेण दुवयण मिति, द्विवचनं चात्र तात्त्विकमवसेयं, परतीथिकैरेकस्य चन्द्रमस एकस्य च सूर्यस्याभ्युपगमात् , सम्प्रति अस्यैव प्रथममतस्योपसंहारमाह-'एगे एबमासु' एवं सर्वाण्यपि उप-12 संहारवाक्यानि भावनीयानि १, एके द्वितीयाः पुनरेवमाहुः-त्रीन् द्वीपान् बीन समुद्रान् चन्द्रसूर्यो यावच्छ(एकश)ब्दोपादानात् अवभासयत इत्यनेन सह पदचतुष्टयं द्रष्टव्यं, तद्यथा-अवभासयत उद्योतयतस्तापयतः प्रकाशयत इति, एवमुत्त-15) स्वापि द्रष्टव्यं, २, एके पुनस्तृतीया एवमाहुः- अद्धच उत्थे'इति अर्द्ध चतुर्थ येषां ते अर्द्धचतुर्थाः, त्रयः परिपूर्णाश्चतुर्थस्य चार्द्धमित्यर्थः, अर्द्ध चतुर्थान् द्वीपान् अर्घचतुर्धान समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयत इत्यादि प्राग्वत् ३, एके चतुर्थाः पुनरे-12 |वमाहुः-सप्त द्वीपान् सप्त समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः४, एके पुनः पञ्चमा एवमाचक्षते-दश द्वीपान् दश समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ५, एके पुनः षष्ठा एवमभिदधति-द्वादश द्वीपान द्वादश समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ६, एके पुनः सप्तमा एवं भाषन्ते-द्विचत्वारिंशतं द्वीपान् द्विचत्वारिंशतं समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः ७, एके पुनरष्टमा एवमाहुः-18 द्वासप्तति द्वीपान् द्वासप्तति समुद्रान् चन्द्रसूर्याववभासयतः८, एके पुनर्नवमा एवमाहुः-द्विचत्वारिंश-द्वाचत्वारिंशद अनुक्रम [३४] ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [३], -------------------- प्राभूतप्राभूत [-1, ------------ ---- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: का प्रत सूत्रांक [२४] &ाधिक द्वीपशतं द्वाचत्वारिंशदधिक समुद्रशतं चन्द्रसूर्याषवभासयतः ९, एके पुनर्दशमा एवं जल्पन्ति-द्वासप्तत-द्वासप्त त्यधिक द्वीपशतं द्वासप्तत्यधिकं समुद्रशतं चन्द्रसूर्याववभासयतः १०, एके एकादशाः पुनरेवमाहुः-द्वाचत्वारिंशंद्वाचत्वारिंशदधिकं द्वीपसहस्रं द्वाचत्वारिंशदधिकं समुद्रसहवं चन्द्रसूर्याववभासयतः ११, एके द्वादशाः पुनरेवमाहुःद्वासप्ततं-द्वासप्तत्यधिक द्वीपसहयं द्वासप्तत्यधिकं समुद्रसहस्र चन्द्रसूर्याववभासयतः १२, एताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपास्तथा च भगवानेता व्युदस्य स्वमतं भिन्नमेव कथयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवल चक्षुषः केवलचक्षुषा यथावस्थितं जगदुपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता अयन्न'मित्यादि, अत्र 'जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए'त्ति यथा जम्बूदीपप्रज्ञप्तौ 'अयण्णं जंबुद्दीषे इत्यारभ्य यावत् एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे | चोद्दस सलिलसयसहस्साई छप्पन्नं च सलिलासहस्सा भवंतीति मक्खाय' मित्युक्तं, तथा एतावग्रन्थसहस्रचतुष्टयप्रमाणमत्रापि वक्तव्यं परं ग्रन्थगौरवभयान्न लिख्यते, केवलं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपुस्तकमेव निरीक्षणीयमिति, अयमेवंरूपो जम्बूद्वीपः पञ्चभिः पासङ्खयोपेतैश्चक्रभागैः-चक्रवालभागैः संस्थित आख्यातो मया इति वदेत्स्वशिष्याणां पुरतः, एव| मुक्त भगवान् गौतमः स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधार्थं भूयः पृच्छति-'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं भगवान् । त्वया जम्बूद्वीपो द्वीपः पश्चचक्रभागसंस्थित आख्यात इति वदेत् , भगवानाह-ता जया ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववित्, यदा णमिति वाक्यालङ्कारे, एतौ प्रवचनवेदिनां प्रसिद्धी द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसतम्य चारं चरतः तदा तो समुदितौ द्वावपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य त्रीन् पश्यचक्रवालभागान् अवभासयत उद्योतयतस्तापयंतःप्रकाशयतः, अनुक्रम 5 [३४] ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [३४] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२४] प्राभृत [ ३ ], ------ ----- प्राभृतप्राभृत [-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ ६५ ॥ सूर्यप्रज्ञ कथं प्रकाशयत इति परप्रश्नाव काशमाशय एतदेव विभागत आह-'एगोडवी' त्यादि, एकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य शिवृत्तिः २) एकं पश्चचक्रवालभागं पञ्चमं चक्रवालभागं व्यर्द्धमिति - द्वितीयमर्द्ध यस्य स व्यर्द्ध:, पूरणार्थी वृत्तावन्तर्भूतो यथा ( मल०) तृतीयो भागस्त्रिभाग इत्यत्र, तं, अयं च भावार्थ:- एकं पञ्चमं चक्रवालभागं द्वितीयस्य पञ्चमस्य चक्रवालभागस्यार्द्धेन * सहितं प्रकाशयति, तथा एकोऽपि - अपरोऽपि द्वितीयोऽपीत्यर्थः, एकं पञ्चमं चक्रवालभागं व्यर्द्ध प्रकाशयतीत्युभयप्रका - शितभागमीलने परिपूर्ण भागत्रयं प्रकाश्यं भवति, इयमत्र भावना - जम्बूद्वीपगतं प्रकाश्यं चक्रवालं पष्ट्यधिकषत्रिंशच्छत भागं कल्प्यते ३६६०, तस्य पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतप्रमाणः ७३२, सार्द्धः सन् अष्टानवत्यधिकसहस्र भागमा नः १०९८, ततः सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्त्तमान एकोऽपि सूर्यः षष्यधिकषट्त्रिंशच्छतसङ्ख्यानां भागानामष्टानवत्यधिकं सहस्रं प्रकाशयति, द्वितीयोऽप्यष्टानवत्यधिकं सहस्रं, उभयमीलने एकविंशतिः शतानि षण्णवत्यधिकानि २१९६ प्रकाश्यमानानि लभ्यन्ते, तदा च द्वौ पञ्चचक्रवालभागौ रात्रिः, तद्यथा एकतोऽपि पञ्चमो भागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशत भागुसङ्ख्य रात्रिरपरतोऽपि एकः पञ्चमभागो द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागसङ्ख्यो रात्रिः, उभयमीलने चतुर्दश शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि १४६४ षष्यधिकषटूत्रिंशच्छत भागानां रात्रिः सर्वभागमीलने षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि भवन्ति, सम्प्रति तत्र दिवसरात्रिप्रमाणमाह-'तया ण'मित्यादि, तदा-अभ्यन्तरमण्डलचारकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्तः-परमप्रकर्ष प्राप्तः उत्कृष्टोऽष्टादशमुहर्त्ता दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, ततो द्वितीयेऽहोरात्रे द्वितीये मण्डले वर्त्तमान एकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्यैकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्धं षष्ट्यधिकषटूत्रिंशच्छ Education Internation For Parts Only ~ 140~ ३ प्राभृतम् ॥ ६५ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ---- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - 5 प्रत सूत्रांक [२४] 4-582-% C *-* तभागसत्कभागद्वयहीन प्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्ध षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतभागद्वयहीनं X/प्रकाशयति, तृतीयेऽहोरात्रे तृतीये मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्य एक पञ्चमं चक्रवालभार्ग साई षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छ-11 तभागसत्कभागचतुष्टयन्यून प्रकाशयति, अपरोऽप्येकं पञ्चमं चक्रवालभागं सार्द्ध षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागचतुटयन्यून प्रकाशयति, एवं प्रत्यहोरात्रमेकैकः सूर्यः षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतभागसत्कभागद्वयमोचनेन प्रकाशयन् तावदवसेयः यावत्सर्वबाह्य मण्डलं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः व्यशीत्यधिकशततम, ततः प्रतिमण्डलं भागद्वयमोचनेन यदा सर्वबाह्ये मण्डले चरति तदा त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि भागानां त्रुष्यन्ति, व्यशीत्यधिकस्य शतस्य द्वाभ्यां गुणने एतावत्याः सवाया भावात् , त्रीणि च शतानि षट्पध्यधिकानि पञ्चमचक्रवालभागस्य द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागप्रमाणस्या?, ततः पञ्चमचक्रवालभागस्या परिपूर्ण तत्र मण्डले त्रुव्यतीति एक एव परिपूर्णः पश्चमचक्रवालभागस्तत्र प्रकाश्यः, तथा चाहता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत् एतौ प्रवचनप्रसिद्धी द्वावपि सूर्यो सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरतः तदा तौ समुदितौ जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य द्वौ चक्रवालपञ्चमभागी अवभासयत उद्योतयतस्तापयतः प्रकाशयतः, तद्यथा-एकोऽपि सूर्य एक पञ्चमं चक्रवालभार्ग प्रकाशयतीत्येकोऽपिअपरोऽपि द्वितीयोऽपीत्यर्थः एकं पञ्चमं चक्रवालभागं प्रकाशयति, 'तया णमित्यादि, तदा सर्वबाह्यमण्डलचारकाले उत्तमकाष्ठापाता उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिर्जघन्यतो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, इह यथा अनुक्रम [३४] -960-6 ~141~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [३], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------- ---- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ-1 निष्कामतोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपविषयः प्रकाशविधिः क्रमेण हीयमान उक्तः तथा सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशतोः क्रमेण ४३प्राभृतम् प्तिवृत्तिःवर्द्धमानो वेदितव्यः, तद्यथा-द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादकनेऽनन्तरे द्वितीये मण्डले (मल०) वर्तमान एकोऽपि सूर्य एकं जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य पश्चमचक्रवालभागं षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतसयभागसत्कभागद्वयाधिक NEERIप्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं चक्रवालभागं षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतसवभागसत्कभागद्वयाधिकं प्रकाशयति, द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादतिने तृतीये मण्डले वर्तमान एकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग षट्यधिकपत्रिंशच्छतसंख्यभागसत्कभागचतुष्टयाधिकं प्रकाशयति, अपरोऽपि सूर्यः परत एक पञ्चमं चक्रवालभार्ग यथोक्तभागचतु| ट्याधिक प्रकाशयति, एवं प्रतिमण्डलमेकैकः सूर्यः षष्ट्यधिकषट्त्रिंशच्छतभागसस्कभागद्वयवर्द्धनेन प्रकाशयन् तावदवसेयः॥४॥ यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं, तस्मिंश्च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले द्वितीयस्य पञ्चमचक्रवालभागस्याई परिपूर्ण भवति, तत एको ऽपि सूर्यस्तत्र मण्डले एकं पञ्चमं चक्रवालभार्ग साई जम्बूद्वीपस्य प्रकाशयत्यपरोऽप्येक पञ्चमं चक्रवालभार्ग साई, तथा चैतदेव जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दश भागान् परिकल्प्यान्यत्राप्युक्तम्-'छच्चेव उ दसभागे जंबुद्दीवस्स दोवि दिवसयरा। ताविति दित्तलेसा अभितरमंडले संता ॥१॥चत्तारि य दसभागे जंबुदीवस्स दोवि दिवसयरा । ताविति संतलेसा ॥६६ बाहिरए मंडले संता ॥२॥ छत्तीसे भागसए सहि काऊण जंबुदीवस्स । तिरिय तत्तो दो दो भागे बढेइ हायइ वा ॥३॥" इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां तृतीयं प्राभूतं समाप्तम् ।। अनुक्रम [३४] अत्र तृतीयं प्राभृतं परिसमाप्तं ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ---- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] 355131513545% श्रीप ॥अथ चतुर्थं प्राभृतम् ॥ तदेवमुक्त तृतीयं प्राभृतं, सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः कथं वेततायाः संस्थितिराख्याते'ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते सेआते संठिईया आहितातिवदेजा, तत्थ खलु इमा दुविहा संठिती पं०, तं-चंदिमसूरियसंठिती य१तावक्खेत्तसंठिती य २, ता कहं ते चंदिमसूरियासंठिती आहितातिवदेजा, तत्थ खलु इमातो सोलस पडिवत्तीओ पपणत्ताओ, तत्धेगे एवमाहंसु-ता समचउरससंठिता चंदिमसूरियासंठिती एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमासु, ता विसमचउरंससंठिता चंदिमसूरियसंठिती पं० २, एवं समचउक्कोणसंठिता ३ ता विसमचउकोणसंठिया ४ समचक्कवालसंठिता ५ विसमचकवाल संठिता ६ चकचकवालसंठिता पं० एगे एवमाहंसु७, एगे पुण एवमासु ता छत्तागारसंठिता चंदिमसूरियसंठिता पं०८ गेहसंठिता ९गेहावणसंठिता १० पासादसंठिता ११ गोपुरसंठिया १२ पेच्छाघरसंठिता १३ वलभीसंठिता १४ हम्मियतलसंठिता १५ वालग्गपोतियासंठिता १६ चंदिमसूरियसंठिती पं०, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता समचउरंससंठिता चंदिमसूरियसंठिती पं०, एतेणं गएणं तवं णो चेवणं इतरेहिं । ता कहं ते तावक्वेत्तसंठिती आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्थ णं एगे एवमाहंसुता गेहसंठिता तावखित्तसंठिती पं०, एवं जाब वालग्गपोतियासंठिता तावक्खेत्तसंठिती, एगे एवमासु ता जस्सं 437454554*********** अनुक्रम [३५] अथ चतुर्थं प्राभृतं आरभ्यते ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: DI प्राभृतम् प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- ठिते जंबुद्दीवे तस्संठिते तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता एगे एवमाहंसु ९, एगे पुण एचमाहंसु ता जस्संठित तिवृत्तिःभारहे वासे तस्संठिती पण्णत्ता १०, एवं उज्जाणसंठिया निजाणसंठिता एगतो णिसघसंठिता, दुहतो णिस-3 (मल.) हसंठिता सेयणगसंठिता एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता सेणगपट्ठसंठिता ताबखेत्तसंठिती पण्णता, एगे एवमासु, वयं पुण एवं वदामो, ता उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठिता तावक्खेत्तसंठिती पं० अंतो संकुला बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिधुला अंतो अंकमुहसंठिता बाहिं सस्थिमुहसंठिता उभतो पासेणं तीसे दुवे वाहाओ अवहिताओ भवंति पणतालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, तीसे दुवे पाहाओ अणवहिताओ भवंति, तं०-सपन्भंतरिया चेव पाहा सबबाहिरिया चेव बाहा, तत्थ को हेतूसिवदेजा, ता अयणं *जबरीव २ जाच परिकखेवेणं ता जया णं सूरिए सवन्भंतरं मंडलं उथसंकमित्ता चारं चरति तता उद्धी-|४| मुहकलं बुआपुप्फसंठिता तावखेससंठिती आहितातिवदेजा अंतो संकुडा पाहिं वित्थता अंतो बट्टा बाहिं। पिधुला अंतो अंकमुहसंठिता बाहिं सस्थिमुहसंठिआ, दुहतो पासेणं तीसे तथैव जाव सपबाहिरिपाचेच वाहा, तीसे गं सबभतरिया बाहा मंदरपचयंतेणं णव जोयणसहस्साई चत्तारि य छलसीते जोषणसते मणव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितातिवदेजा, ता से णं परिक्खेवविसेसे कतो आहितातिव देजा, ताजे णं मदरस्स पचयस्स परिक्खेचे तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहि छित्ता दसहि भागे हीर-1 माणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहिताति वदेजा, तीसे णं सघयाहिरिया बाहा लवणसमुइंतेणं चउणउति अनुक्रम [३५] ॥६७॥ ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] ॐॐॐॐ श्रीप जोयणसहस्साई अट्ट य अट्ठसडे जोयणसते चसारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितातिबदेला, ता से णं परिक्खेवविसेसे कतो आहिताति वदेज्जा, ताजे णं जंबुद्दीवस्स २ परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहि गुणित्ता दसहि छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एसणं परिक्खेवविसेसे माहिताति वदेज्जा, सीसे णं तावक्खेसे केवतियं आयामेणं आहितातिवदेजा?, ता अत्तरि जोयणसहस्साई तिणि च तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागे च आयामेणं आहितेति वदेजा, तया णं किंसंठिया अंधगारसंठिई आहितेति वदेजा ?, उद्धीमुह-14 कलंबुआपुरफसंठिता तहेव जाव बाहिरिया चेव बाहा, तीसे गं सबभतरिया बाहा मंदरपवतंतेणं छनोयणसहस्साई तिण्णि य चउवीसे जोयणसते छच्च दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितेतिवदेजा, तीसे णं परिक्खेवविसेसे कतो आहितेति वदेजा , ता जे मंदरस्स पचयस्स परिक्खेवेणं तं परिक्खेवं दोहिदा गुणेत्ता सेसं तहेव, तीसे णं सघयाहिरिया बाहा लवणसमुदंतेणं तेवहिजोयणसहस्साई दोपिण य पणयाले जोयणसते छच्च दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा, ता से णं परिक्खेवविसेसे कत्तो आहितेति वदेजा, ता जेणं जंबुद्दीवस्स २ परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणित्ता दसहि छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे आहितेति बदेजा, ता सेणं अंधकारे केवतिय आयामेणं आहितेति वदेजा, ता अट्ठत्तरि जोयणसहस्साई तिण्णि य तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं च आयामेणं आहितेति वदेज्जा, तता णं उत्तमकपत्ते अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवर, ता जया णं अनुक्रम [३५] ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक ॥६८॥ [२५]] दीप सूरिए सबबाहिर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तता णं किंसंठिती तावखेत्तसंठिती आहिताति वदेजा, तावखत्तसालता.राहताताप्राभूतम् ता उद्धामुहकलंबुयापुष्फसंठिती तावक्खेत्तसंठिती आहिताति वदेजा, एवं जं अम्भितरमंडले अंधकारसं- ठितीए पमाणं तं बाहिरमंडले तावक्खेससंठितीए जं तहिं तावखेससंठितीए तं वाहिरमंडले अंधकारसंठितीए भाणियवं, जाव तता णं उत्तमकट्ठपत्ता पक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुते दिवसे भवति, ता जंबुद्दीवे २ सूरिया केवतियं(खेत) उर्दु तवंति केवतियं खेतं अहे तवंति केवतियं खेतं तिरियं तवंति, ता जंयुद्दीवे णं दीवे सूरिया एर्ग जोयणसतं उहुं तवंति अट्ठारस जोयणसताई अधे पतवंति सीतालीसं जोयणसहस्साई दुन्नि य तेवढे जोयणसते एकवीसं च सद्विभागे जोयणस्स तिरिय तवंति (सूत्रं २५)॥ चउत्थं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहं ते सेयाए संठिई आहिया इति वदेजा" ता इति पूर्ववत् , कथं भगवन् ! त्वया श्वेततायाः संस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् !, एवं भगवता गौतमेनोके वर्द्धमानस्वामी भगवानाह-तत्थे'त्यादि, तत्र श्वेतताया विपये खल्वियं-बक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा संस्थितिः, तद्यथा' तामेव तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति, तद्यथेत्यत्र तच्छब्दोऽव्यय, ततोऽ यमर्थः-सा श्वेतता यथा-येन प्रकारेण द्विधा भवति तथोपदयते, चन्द्रसूर्यसंस्थितिस्तापक्षेत्रसंस्थितिश्च, इह श्वेतता ॥६८॥ चन्द्रसूर्यविमानानामपि विद्यते तस्कृततापक्षेत्रस्य च ततः श्वेततायोगादुभयमपि श्वेतताशब्देनोच्यते, तेनोक्तप्रकारेपा श्वेतता द्विविधा भवति, तत्र चन्द्रसूर्यसंस्थितिविषये प्रश्नयति-ता कहं ते इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कथं ते वया अनुक्रम [३५] ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३५] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२५] प्राभृत [ ४ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः भगवन् ! चन्द्रसूर्य संस्थितिराख्याता इति वदेत् ?, इह चन्द्रसूर्यविमानानां संस्थानरूपा संस्थितिः प्रागेवाभिहिता तत इह चन्द्रसूर्यविमानसंस्थितिश्चतुर्णामपि अवस्थानरूपा पृष्टा द्रष्टव्या, एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः परतीर्थिकाणां प्रतिपत्तयस्ताव तीरुपदर्शयति- 'तत्थे'त्यादि, तत्र चन्द्रसूर्यसंस्थितौ विचार्यमाणायां खल्विमाः षोडश प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एके वादिन एवमाहुः - समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, समचतुरस्रं संस्थितिं संस्थानं यस्याश्चन्द्रसूर्यसंस्थितेः सा तथा अत्रैवोपसंहारवाक्यमाह - एगे एवमाहंसु, एवं सर्वत्रापि प्रत्येकमुपसंहारवाक्यं द्रष्टव्यं १, एके पुनरेवमाहुः विषमचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिराख्याता, अत्रापि विषमचतुरस्रं संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः २, एवं 'समचउकोणसंठिय'ति एवं उक्तेन प्रकारेणापरेषामभिप्रायेण समचतुष्कोणसंस्थिता चन्द्रसूर्य संस्थितिवक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु समचउकोणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु' अत्र 'समचउकोणसंठिय'त्ति समाश्चत्वारः कोणा यत्र तत् समचतुष्कोणं ( तत् ) संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः ३, 'विसमचउकोणसंठिय'त्ति 'एगे पुण एवमाहंसु-विसमचक्कोणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पत्ता, एगे एवमाहंसु' ४ 'समचकवालसंठिय'त्ति समचक्रवाल - समचक्रवालरूपं संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण चन्द्रसूर्यसंस्थितिवक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे एवमाहंसु समचकवालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु' ५, 'विसमचकवालसंठिय'त्ति विषमचक्रवालं विषमचक्रवालरूपं संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषां मतेन चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वतव्या, सा चैवम्-'एगे एवमाहंसु विसमचक्कवालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु' ६, 'चकद्वचकवाल Ja Education International For Parts Only ~147~ waryru Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------- ---- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) सूत्राक [२५] ॥१९॥ दीप संठिय'त्ति चक्रस्य-रथाङ्गस्य यदर्द्धचक्रवाल-चक्रवालस्यार्द्ध तद्रूपं संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाइंसु चकद्धचक्वालसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु'७,'एगे| पुण'इत्यादि, एके पुनराहुः छत्राकारसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिःप्रज्ञप्ता, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमासु'८'गेहसंठिय'ति गेहस्येव-वास्तुविद्योपनिबद्धस्य गृहस्पेव संस्थित--संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेन चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु गेहसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु' ९, 'गेहावणसंठिय'त्ति गृहयुक्त आप-४ णो गृहापणो-वास्तुविद्याप्रसिद्धस्तस्येव संस्थितः-संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाइंसु, गेहावणसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाइंसु' १०,'पासायसंठिय'त्ति प्रासादस्वेव संस्थानं | यस्याः सा तथाऽन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु, पासायसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु' ११ 'गोपुरसंठिय'त्ति, गोपुरस्येव-पुरद्वारस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथाऽन्येषां मतेनाभिधा-13 तव्या, सा चैवम् -'एगे पुण एवमाहंसु गोपुरसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु' १२ 'पेच्छाघरसंठिया सि प्रेक्षागृहस्येव वास्तुविद्यामसिद्धस्य संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेनाभिधातच्या, तथथा-'एगे पुण एवमासु पिच्छाघरसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु' १३, 'बलभीसंठिय'ति बलभ्या श्व-गृहाणा |॥ ६९॥ माच्छादनस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषां मतेनाभिधातव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाईसु बउभीस-1 ठिया चंदिमसूरियसंठिई पत्नत्ता, एगे एवमासु' १४,'हम्मियतलसंठिय'त्ति हयै-धनवतां गृह तस्य तल-उपरितनो अनुक्रम [३५] K ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] भागस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्-'एगे पुण एवमाहेसु हम्मियतलसंठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमासु'१५ 'वालग्गपोत्तियासंठिय'त्ति वालाप्रपोतिकाशब्दो देशीशब्दत्वादाकाशतडागमध्ये व्यवस्थितं क्रीडास्थानं लघुप्रासादमाह तस्या इव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतेन अभिधानीया, तद्यथा-'एगे पुण एवमाईसुवालग्गपोत्तिया संठिया चंदिमसूरियसंठिई पण्णचा, एगे एवमासु'१६॥ तदेवमुक्ताः परतीपिकानां प्रतिपत्तयः, एतासां च मध्ये या प्रतिपत्तिः समीचीना तामुपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-तेषां पोडशानां परतीधिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः-समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः प्रज्ञप्ता इति, एतेन नयेन नेतन्यएतेनाभिप्रायेणास्मन्मतेऽपि चन्द्रसूर्यसंस्थितिरवधार्येति भावः, तथाहि-इह सर्वेऽपि कालविशेषाः सुषमसुषमावयो युगमूलाः, युगस्य चादौ श्रावणे मासि बहुलपक्षप्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि वर्तते तद्विती-14 यस्त्वपरोत्तरस्यां चन्द्रमा अपि तत्समये एको दक्षिणापरस्यां दिशि वर्तते द्वितीय उत्तरपूर्वस्यामत एतेषु युगस्यादौ चन्द्रसूर्याः समचतुरस्रसंस्थिता वर्तन्ते, यत्त्वत्र मण्डल कृतं वैषम्यं यथा सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डले वचैते चन्द्रमसौ सर्वबाझे इति तदल्पमितिकृत्वा न विवक्ष्यते, तदेवं यतः सकल कालविशेषाणां सुषमासुषमादिरूपाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंस्थिताः सूर्यचन्द्रमसो भवन्ति ततस्तेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानेनोपवर्णिता, अन्यथा वा यथासम्प्रदाय समचतुरनसंस्थितिः परिभावनीयेति, 'नो चेव णं इयरेहिंति नो चेव-नैव इतरैः-शेषैर्नयैश्चन्द्रसूर्यसंस्थितिख़तम्या, तेषां मिथ्यारूपत्वात् , तदेवमुक्ता चन्द्रसूर्यसंस्थितिः । सम्प्रति तापक्षेत्रसंस्थितिमभिधातुकामः प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसू KERASNA श्रीप अनुक्रम [३५] SAREauratonintamarana ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ माभतम् निवत्तिः प्रत मल.) सुत्रांक ॥७०॥ [२५]] दीप माह-'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं भगवन् ! त्वया तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत्?, एव- मुक्ते भगवान् एतद्विषये यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपत्त्यस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-तस्यां तापक्षेत्रसं-14 स्थिती विषये खल्विमाः षोडश प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां षोडशानां परतीर्थिकानां मध्ये एके एवमाहुः-गेहसंठिय'त्ति गेहस्येव-वास्तुविद्याप्रसिद्धगृहस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु, एवं जाव वालग्गपोत्तियासंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता इति, एवं-अनन्तरोकेन प्रकारेण चन्द्रसूर्यसंस्थितिगतेन प्रकारेणेत्यर्थः, गृहसंस्थिताया ऊव ताव वक्तव्यं यावद्वालाग्रपोत्तिकासंस्थिता प्रज्ञप्ता इति, तथैवम्-'एगे पुण एवमाहंसु गेहावणसंठिया तावखेत्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाईसु २, एगे पुण एवमाइंसु पासायसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु २, एगे पुण एवमाइंसु गोपुरसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहंसु पिच्छाघरसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहम ५, एगे पुण एवमासु वलभीसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमाइंसु हम्मियतलसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु ७, एगे पुण एवमासु वालग्गपोत्तिवासंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमासु अत्र सर्वेष्वपि पदेषु विग्रहभावना प्रागिव कर्तव्या, 'एगे पुण'इत्यादि एके पुनरेवमाहुः 'जस्संठिय'त्ति यत् संस्थित-संस्थानं यस्य स यत्संस्थितो जम्बूद्वीपो द्वीपस्तत्संस्थिता-तदेव--जम्बूद्वीपगतं संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु'९, एके पुनरेवमाहुः-यत्संस्थितं भारतं वर्षे तत्संस्थिता अनुक्रम [३५] ॥७०॥ CC SAREaratinintenational ~150~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३५] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२५] प्राभृत [ ४ ], ----- प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः तापक्षेत्र संस्थितिः प्रज्ञष्ठा, अत्र विग्रहभावना प्रागित्र वेदितव्या, अत्रोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' १०, एवं उनकेन प्रकारेण उद्यानसंस्थिता तापक्षेत्र संस्थितिरपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु, उज्जाणसंठिया तावखित्तसंठिई पक्षता, एगे एवमाहंसु, (ग्रंथाग्रं २०००) अत्र उद्यानस्येव संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः ११, 'निज्जाणसंठिय'त्ति निर्याणं पुरस्य निर्गमनमार्गः तस्येव संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु, निजाणसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंस' १२, 'एगतोनिसहसंठियत्ति एकतो- रथस्य एकस्मिन् पार्श्वे यो नितरां सहते स्कन्त्रः पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो बलीवईस्तस्येव संस्थितंसंस्थानं यस्याः सा एकतोनिषधसंस्थिता अपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या, सा चैवम्- 'एगे पुण एवमाहंसु, एगतोनिसहसं |ठिया तावस्त्रित्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु १३, 'दुहतोनि सहसंठिय'त्ति अपरेषामभिप्रायेणोभयतो निषधसंस्थिता वक्तव्या, उभयतो- रथस्योभयोः पार्श्वयोर्यो निषधौ-चलीबद्द तयोरिव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, सा चैवं वक्तव्या - एगे पुण एवमाहंसु दुहओनिसहसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता, एगे एवमाहंसु' १४ 'सेपणगसंठिय'त्ति | श्येनकस्यैव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेणाभिधातव्या, सा चैत्रम्- 'एगे पुण एवमाहंसु सेयाणसंठिया तावखित्तसंठिई पन्नत्ता एगे एवमाहंसु' १५, 'एंगे पुण' इत्यादि, एके पुनरेवमाहुः, सेचनकपृष्ठस्येव श्येनपृष्ठस्येव संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अत्रोपसंहारमाह- 'एगे एवमाहंसु' १६, तदेवमुक्ताः षोढ| शापि प्रतिपत्तयः, एताश्च सर्वा अपि मिध्यारूपा अत एता व्युदस्य भगवान् स्वमतं भिन्नमुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, Education Internation For Parts Only ~ 151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * प्राभृतम् प्रत * र्यप्रज्ञ- वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तूपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण बदामः, तमेव प्रकारमाह-'उद्धी- प्तितिः मुखे'त्यादि, अर्ध्वमुखकलम्बुकपुष्पसंस्थिता-ऊर्ध्वमुखस्य कलम्बुकापुष्पस्येव-नालिकापुष्पस्येव संस्थित-संस्थानं यस्याः (मल०) सा तथा, तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, मया शेपैश्च तीर्थकृद्भिः, सा कथम्भूतेत्यत आह-अन्तः-मेरुदिशि सङ्कचा-सचिता बहिः-लवणदिशि विस्तृता, तथा अन्तर्मेरुदिशि वृत्ता-वृत्तार्द्धवलयाकारा सर्वतोवृत्तमेरुगतान् बीन् द्वौ वा दशभागान॥७१॥ भिव्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात् , बहिर्लवणदिशि पृथुला मुत्कलभावेन विस्तारमुपगता, एतदेव संस्थानकथनेन स्पष्ट स्पष्टयति-'अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठियत्ति अन्तर्मेरुदिशि अङ्क:-पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूप आसनबन्धः तस्य मुख-अग्रभागोऽद्धेवलयाकारस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा बहिर्लवणदिशि स्वस्तिकमुखसं-| स्थिता-स्वस्तिकः-सुप्रतीतः तस्य मुख-अग्रभागः तस्येवाति विस्तीर्णतया संस्थित-संस्थानं यस्याः सा तथा, 'उभओपासेणं ति उभयपार्थेन मेरुपर्वतस्योभयोः पार्श्वयोस्तस्याः-तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्विधाव्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकैकभावेन ये द्वे बाहे ते आयामेन-जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः, सा चैकैका आयामतः किंप्रमाणा इत्याहपश्चचत्वारिंशत् २ योजनसहस्राणि ४५०००, तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेरेकैकस्या दे च बाहे अनवस्थिते भवतः, तद्यथा-1 सर्वाभ्यन्तरा सर्वबाह्या च, तत्र या मेरुसमीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा, या तु लवणदिशि जम्बूद्वीप-15 पर्यन्ते विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्ववाह्या, आयामश्च दक्षिणोत्तरायततया प्रतिपत्तन्यो विष्कम्भः पूर्वापरायततया, एवमुक्ते सति भगवान् गौतमः स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधनार्थं भूयः पृच्छति-'तत्थेत्यादि, तत्र-तस्यामेवंविधायामनन्त अनुक्रम 45* [३५] ॥७१॥ wirectorarycom ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4 % प्रत B सूत्रांक [२५] E रोदितायां वस्तुच्यवस्थायां को हेतुः ?-का उपपत्तिरिति भगवान् वदेत् !, एवमुक्त भगवानाह-'ता अयण्ण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्य पूर्ववत् परिपूर्ण भावनीयं, 'ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य |चार चरति तदा 'उद्धमुहकलंबुयापुप्फे'त्यादि, प्राग्वत् व्याख्येयं यावत्सर्वाभ्यन्तरा वाहा सर्वबाह्या च वाहा, 'तीसे 'मित्यादि, तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा बाहा मेरुपर्वतान्ते-मेरुपर्वतसमीपे, सा च परिक्षेपेण-मन्दरपरिक्षेपग-12 ततया नव योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि पडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योजनस्य ९४८६ आख्याता मया इति वदेत्, एवमुक्ते भगवान् गौतमः प्रश्नयति-ता से ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , स तापक्षेत्रसंस्थितपरिक्षेपविशेषो-मंदरपरिरयपरिक्षेपणविशेषः कुतः-कस्मात्कारणादेवंप्रमाण आख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत् , भगवानाह-ता जे ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालकारे मन्दरस्य-मेरोः पर्वतस्य परिक्षेप:-परिरयगणितप्रसिद्धस्तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा तदनन्तरं च दशभिश्छित्त्वा-विभज्य, अथ कसमादेवं क्रियत इति चेत् , उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानः सूर्यो जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तच्चक्रवालक्षेत्रप्रमाणानुसारेण त्रीन् दशभागान् प्रकाशयति, एतच मागेवोर्क, सम्प्रति च मन्दरसमीपे तापक्षेत्रे चिन्ता क्रियमाणा वर्त्तते ततो मन्दरपरिरयः सुखावबोधार्थे प्रथमतस्त्रि(भिर्गुण्यते गुणयित्वा च दशभिर्विभज्यत इति, दशभिश्च भागे हियमाणे यथोक्तं मन्दरसमीपे तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति, तथाहि-मन्दरपर्वतस्य विष्कम्भो दश सहस्राणि १०००० तेषां वर्गो दश कोब्यः १०००००००० तासां दशभिर्गुणने कोटिसतं १००००००००० अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि एकत्रिंशत्सहस्राणि पट् शतानि किश्चिन्यूनत्रयोविंशत्यधिकानि 5500RSAD श्रीप + अनुक्रम [३५] +S ~153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], ------------- ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्राभृतम् प्रत (मल.) सूत्रांक ॥७२॥ [२५]] दीप परं व्यवहारतः परिपूर्णानि विवक्ष्यन्ते ३१६२३, एष राशिस्त्रिभिर्गुण्यते, जातानि चतुर्नवतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि एकोनसप्तत्यधिकानि ९४८७९, एतेषां दशभिर्भागहारे लब्धानि नव योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योजनस्य, तत एष एतावान्-अनन्तरोदितप्रमाणः परिक्षेपविशेषो-मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषस्तापक्षे संस्थितेराख्यात इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः, अयं चार्थोऽन्यत्राप्युक्त:-"मन्दरपरिरयरासीतिगुण दसभाइयमिजं लड़। & होइ तावखेत्तं अम्भितरमंडले रविणो ॥१॥" तदेवं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये मन्दरसमीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरवाहाया विष्कम्भपरिमाणमुक्तं, इदानीं लवणसमुद्रदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्ते या सर्वबाह्या बाहा तस्या विष्क४म्भपरिमाणमाह-तीसे 'मित्यादि, तस्याः-तापक्षेत्रसंस्थितेः लवणसमुद्रान्ते-लवणसमुद्रसमीपे सर्वबाह्या बाहा सा परि-1 |क्षेपेण-जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपेण चतुर्नवतियोजनसहस्राणि अष्टौ च अष्टषध्याधिकानि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान। योजनस्य ९४८६८ यावदाख्याता इति वदेत्, अत्रैव स्पष्टावबोधाधानाय प्रश्नं करोति-ता से ण'मित्यादि, ता. इति पूर्ववत्, स एतावान् परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेः कुतः१-कस्मात् कारणादाख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत्, भगवानाह-'ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् यो जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः-परिरयगणितप्रसिद्धस्तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा तदनन्तरं च दशभिश्छित्वा-दशभिर्विभज्य अत्रार्थे कारणं प्रागुक्तमेवानुसरणीय, दशभिर्भागे ह्रियमाणे यथोकं जम्बूद्वीपपर्यन्ते तापक्षेत्रपरिमाणमागच्छति, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपस्त्रीणि लक्षाणि पोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्य- |धिके ३१६२२७ त्रीणि गव्यूतानि ३ अष्टाविंशं धनु शतं १२८ त्रयोदश अङ्गुलानि १३ एकमोडलं, एतावता च अनुक्रम [३५]] " retunaturary.com ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] +355625% श्रीप कायोजनमेकं किल किशिन्यूनमिति व्यवहारतः परिपूर्ण विवक्ष्यते, ततो दे शते अष्टाविंशत्यधिके वेदितव्ये ३११२२८.४ एष त्रिभिर्गुण्यते जातानि नव लक्षाणि अष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि ९४८६८४, एतेषां दशभिर्भागो हियते, लब्धं यथोकै जम्बूद्वीपपर्यन्ते सर्वबाह्याया बाहाया विष्कम्भपरिमाणं, ततः 'एस 'मित्यादि, एप | एतावान् अनन्तरोदितप्रमाणः परिक्षेपविशेपो जम्बूद्वीपपरिरयः परिक्षेपविशेषस्तापक्षेत्रसंस्थितेराख्यात इति वदेत , उक्त चैतदन्यत्रापि-"जंबुद्दीवपरिरये तिगुणे दसभाइयमि जं लद्धं । तं होइ तावखित्तं अभितरमंडले रविणो ॥१॥ | तदेवं जम्बूद्वीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरायाः सर्वबाह्यायाश्च बाहाया विष्कम्भपरिमाणमुक्तं । सम्प्रति सामस्त्येना यामतस्तापक्षेत्रपरिमाण जिज्ञासुस्तद्विषयं प्रश्नमाह-'ता से णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, तापक्षेत्रं आयामतः सामस्त्येन | ४ दक्षिणोत्तरायततया कियत्-किंग्रमाणमाख्यातमिति वदेत्, भगवानाह-ता अछुत्तर मित्यादि ता इति पूर्ववत् अष्टसप्ततिः योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशानि-त्रयस्त्रिंशद धिकानि योजनविभागं च यावत् आयामेन दक्षिणोत्तरायततया आख्यातमिति वदेत्, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रं दक्षिणोत्तरायततया मेरोरारभ्यतावद्ध ते यावालवणसमुद्रस्य षष्ठो भागः, उक्तं च-"मेरुस्स मज्झभागाजाव य लवणस्स रुंदछन्भागा।तावायामो एसो सगडद्धीसंठिओ नियमा ॥१॥" अन 'एसो'इत्यादि, एष तापो नियमात् शकटोद्धिसंस्थितः, शेष सुगर्म, तत्र मेरोरारभ्य। जम्बूद्वीपपर्यन्तं यावत्पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि लवणस्य विस्तारो द्वे योजनलक्षे तयोः षष्ठो भागस्त्रयस्त्रिंशद्योजन-8 सहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनस्य च विभागः, तत उभयमीलने यथोक्तमायामप्रमाणं भवति अनुक्रम [३५] RING ~155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५]] द्वीप सूर्यप्रज्ञ-18 इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य लेश्या अभ्यन्तरं प्रविशन्ती मेरुणा प्रतिस्खल्यते, यदि पुनर्न प्रतिस्खल्यते ततो| प्तिवृत्तिः | मेरोः सर्वमध्यभागगतं प्रदेशमवधीकृत्यायामतो जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशतं योजनसहस्राणि प्रकाशयेत् , अत एवेत्थं जम्बू-12 k४ प्राभूते (मल०) द्वीपस्य पञ्चाशतं योजनसहस्राणि प्रकाश्यानि सम्भाव्य सर्वाभ्यन्तरेऽपि मण्डले वर्तमाने सूर्ये तापक्षेत्रस्यायामप्रमाणं भातापक्षेत्र प्रमाण ज्योतिष्करण्डकमूलटीकायां श्रीपादलिप्तसूरिभिरुयशीतिर्योजनसहवाणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योज-21 सू२५ नस्य च त्रिभाग इत्युक्त, युफ चैतत्सम्भावनया तापक्षेत्रायामपरिणाम, अन्यथा जम्बूद्वीपमध्ये तापक्षेत्रस्य पञ्चचत्वारिंश-II सहस्रमात्रपरिमाणाभ्युपगमे यथा सूर्यो बहिनिष्कामति तथा तत्प्रतिबद्धं तापक्षेत्रमपि, ततो यदा सूर्यः सर्वबाह्यं मण्ड-* लमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा सर्वथा मन्दरसमीपे प्रकाशो न प्राप्नोति, अथ च तदापि तत्र मन्दरपरिरयपरिक्षेपेणी विशेषपरिमाणमग्रे वक्ष्यते, तस्मात्पादलिप्तसूरिव्याख्यानमप्यभ्युपगन्तव्यमिति । तदेवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्य |ट्रा | तापक्षेत्रसंस्थितिरुक्का, सम्पति तदेव सर्वाभ्यन्तरमण्डलमधिकृत्यान्धकारसंस्थितिं प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले 'सिंठिय'त्ति किं संस्थित-संस्थानं यस्याः यदिवा कस्येव | संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा किंसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिराख्याता इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता इत्यादि, ता इति *पूर्ववत् कवींमुखकृतकलम्बुकापुष्पसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिराख्याता इति वदेत्, सा च अन्तः-मेरुदिशि विष्कम्भ ॥७३॥ कामधिकृत्य सङ्कुचा-सङ्कचिता, बहिः-लवणदिशि विस्तृता, तथा अन्तः-मेरुदिशि वृत्ता-वृत्तावलयाकारा, सर्वतो वृत्त मेरुगती बी दशभागी व्याप्य तस्या व्यवस्थितत्वात, बहिः-लवणदिशि पृथुला-विस्तीर्णो, एतदेव संस्थानकथनेन अनुक्रम [३५] *45* * SAREauratonintamanna ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [२५] दास्पष्टयति-अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सस्थिमुहसंठिया' अनयोश्च पदयोाख्यानं प्रागिव वेदितव्यं, 'उभओ पासे | 'मित्यादि, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेस्तापक्षेत्रसंस्थितिद्वैविध्यवशाद् द्विधा व्यवस्थिताया मेरुपर्वतस्योभयपानउभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमेकैकभावेन ये जम्बूद्वीपगते बाहे ते आयामेन-आयामप्रमाणमधिकृत्यावस्थिते भवतस्तद्यथापञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि ४५०००, द्वे च बाहे विष्कम्भमधिकृत्यैकैकस्या अन्धकारसंस्थितेर्भवतस्तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरा सर्ववाह्या च, एतयोश्च व्याख्यान प्रागिव द्रष्टव्यं, तत्र सर्वाभ्यन्तराया बाहाया विष्कम्भमधिकृत्य प्रमाणमभिधित्सुराह-तीसे 'मित्यादि, तस्या-अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा या बाहा मन्दरपर्वतान्ते-मन्दरपर्वतसमीपे सा च षटू योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विंशानि-चतुर्विशत्यधिकानि ६३२४ षट् द्वादशभागान् योजनस्य यावत्परिक्षेपेणपरिरयपरिक्षेपणेनाख्याता इति वदेत् , अमुमेवार्थ स्पष्टावबोधनार्थ पृच्छति–ता से ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सः यथोकप्रमाणपरिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषः कुतः-कस्मात्कारणात् आख्यातो नोनोऽधिको वेति भगवान् वदेत् १, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालङ्कारे मन्दरस्य पर्वतस्य परिक्षेपः प्रागुक्तप्रमाणः तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा, कस्माद् द्वाभ्यां गुणनमिति चेत्, उच्यते, इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतोः सूर्ययोरेकस्यापि सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र वा प्रदेशे यत्तचक्रवालक्षेत्रानुसारेण दशभागात्रयः प्रकाश्या भवन्ति अपरस्यापि सूर्यस्य वयः प्रकाश्या दशभागास्तत उभयमीलने पटू दशभागा भवन्ति, तेषां च त्रयाणां २ दशभागानामपान्तराले द्वौ २ दशभागी रजनी ततो द्वाभ्यां SARNERB श्रीप अनुक्रम [३५] :5*5*-* ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३५] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [२५] प्राभृत [ ४ ], ----- प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ ७४ ॥ सूर्यप्रज्ञ + गुणनं, तौ च द्वौ दशभागाविति दशभिर्भागहरणं, 'सेसं तं चेव'ति शेषं तदेव प्रागुक्तं वक्तव्यं तच्चेदम्- 'दसहिं छित्ता सिवृत्तिः दसहिं भागे हीरमाणे एस णं परिकखेवविसेसे आहियत्ति वइज्जा' अस्यायमर्थः- दशभिश्छित्त्वा दशभिर्विभज्य दशभि( मल० ) ॐ र्भागे द्रियमाणे यथोक्तमन्धकारसंस्थितेर्मन्दरपरिरयपरिक्षेपपरिमाणमागच्छति, तथाहि - मेरुपर्वतपरिरयपरिमाणमेक त्रिंशयोजन सहस्राणि षट् शतानि त्रयोविंशत्यधिकानि २१६२३, एतद् द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि त्रिषष्टिः सहस्राणि द्वे शते * ४ पचत्वारिंशदधिके ६३२४६, एतेषां दशभिर्भागे हुते लब्धानि षट्र योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि षट् च दशभागा योजनस्य ६३२४ । तत एष एतावाननन्तरोदितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो मन्दरपरिश्यपरिक्षेपणविशेष आख्यात इति वदेत् । तदेवमुक्तमन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तराया बाहाया विष्कम्भपरिमाणम् अधुना सर्वत्राद्याया वाहाया आह- 'तीसे ण'मित्यादि, तस्याः - अन्धकार संस्थितेः सर्वबाह्या बाहा लवणसमुद्रान्तेलवणसमुद्रसमीपे जम्बूद्वीपपर्यन्ते सा च परिक्षेपेण- जम्बूद्वीपपरिश्यपरिक्षेपणेनाख्याता त्रिषष्टियोंजनसहस्राणि द्वे पश्चचत्वारिंशे योजनशते पटू च दशभागान् योजनस्य यावत् ६१२४५ । एतदेव स्पष्टं स्वशिष्यानवबोधयितुं भगवान् गौतमः पृच्छति- 'ता से णमित्यादि, ता इति प्राग्वत्, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सः- तावान् परिक्षेपविशेषो जम्बूदीपपरिक्षेपणविशेषः कुतः ? - कस्मात्कारणात् आख्यातो नोनोऽधिको वेति वदेत् १, भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह-'ता जे णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यो णमिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपः प्रागुक्तप्रमाणः तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा दशभिश्छित्वा दशभिर्विभज्य, अत्र कारणं प्रागेवोकं दशभिर्भागे हियमाणे यथोक्तमन्धकारसंस्थितेर्जम्बुद्वीपप Education International For Parts Only ~158~ ४ प्राभूते तापक्षेत्रप्रमाणं स २५ ॥ ७४ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३५] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२५] प्राभृत [४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः रिश्यपरिक्षेपणमागच्छति, तथाहि - जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि षोडश सहस्राणि द्वे शते अष्टाविंशत्यधिके ३१६२२८, एतद् द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि पटू लक्षाणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि ६३२४५६, तेषां दशभिर्भागे हृते लब्धानि त्रिषष्टिर्योजन सहस्राणि द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके पट् च दशभागा योजनस्य ६३२४५ । तत एष एतावान् अनन्तरोदितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरयपरिक्षेपणविशेष आख्यात इति वदेत्, तदेवमुक्तं सर्वमाह्याया अपि बाहाया विष्कम्भपरिमाणं, सम्प्रति सामस्त्येनान्धकारसंस्थितेरायामप्रमाणमाह-'ती से ण'मित्यादि, इदं चायामप्रभाणं तापक्षेत्रसंस्थितिगतायामपरिमाणवत्परिभावनीयं समानभावनिकत्वात् । अत्रैव सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्त्तमानयोः सूर्ययोदिवसरा त्रिमुहूर्त्तप्रमाणमाह-'तया ण'मित्यादि सुगमं । तदेवं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिं अन्धकारसंस्थितिं चाभिधाय सम्प्रति सर्वबाह्यमण्डले तामभिधित्सुराह - 'ता जया रणमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यदा सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा किंसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् ?, भगवानाह 'ता ऊद्धमुहे त्यादि, ता इति पूर्ववत्, ऊर्ध्वमुख कलम्बुका पुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिराख्याता (इति) वदेत् स्वशिष्येभ्यः, 'एव' मित्यादि, एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण यदभ्यन्तरमण्डले अभ्यन्तरमण्डलगते सूर्ये अन्धकार संस्थितेः प्रमाणमुक्तं तद्वाह्यमण्डले - बाह्यमण्डलगते सूर्ये तापक्षेत्रसंस्थितेः परिमाणं भणितव्यं, यत्पुनस्तत्र - सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्त्तमाने सूर्ये तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणं तद्वाह्यमण्डले वर्त्तमाने सूर्येऽन्धकारसंस्थितेः प्रमाणमभिधातव्यं तच्च तावत् 'तथा णं उत्तमकडपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई'त्यादि, तच्चैवं सूत्रतो भणनीयं- 'अंतो संकुडा For Parts Only ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल०) सुत्रांक प्रमाणं सू२५ ॥७५॥ [२५]] दीप बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिहला अंतो अंकमुहसंठिया चाहिं सब्धिमुहसंठिया,उभयोपासेणं तीसे दुवे चाहाओ अवडियाओ प्राभृते भवंति, पणयालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, दुवे य णं तीसे बाहाओ अणवडिआओ भवंति, तंजहा-अम्भितरिया चेव तापक्षत्र: चाहा सबबाहिरिया चेव वाहा, तीसे ण सबभंतरिचा बाहा मंदरपबयंतेणं छ जोयणसहस्साई तिन्नि य चउबीसे जोय-II णसए छच्च दसभागा जोयणस्स परिक्खेवणं आहियत्ति वएज्जा, तीसे णं परिक्खेवविसेसे कओ आहिवत्तिवएज्जा ?, ता जेणं मंदरस्स पबयस्स परिक्खेवे ते गं दोहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे, एसप परिक्खेवविसेसे आहियत्ति वएज्जा', ता से णं तावक्खेत्ते केवइयं आयामेणं आहियत्ति वएजा?, ता तेसीइ जोयणसहस्साई तिनि तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभाग आहियत्ति वएज्जा, तया णं किंसंठिया अंधकारसंठिई आहिअत्ति वइज्जा, ता उड्डीमुहकलंबुयापुप्फसंठाणसंठिया आहियत्ति वएज्जा, अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा अंतो चट्टा बाहिं पिहला अंतो अंकमुहसठिया है बाहिं सस्थिमुहसंठिया उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ भवंति, पणयालीसं २ जोयणसहस्साई आयामेणं, दुवे व णं तीसे पाहाओ अणवाहियाओ भवंति, तंजहा-सबभतरिया चेव बाहा सबबाहिरिया चेव बाहा, तीसे णं सबभतरिया 2 प्रवाहा मंदरपत्यंतेणं नव जीयणसहस्साई चत्तारि य छलसीए जोयणसए नव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवणं आहि यत्ति वएज्जा, ता जे णे मंदरस्स पबयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहिं भागे हीरमाणे, एस सण परिक्खेवविसेसे आहियति वएज्जा, तीसे णं सबबाहिरिया बाहा लवणसमुदंतेण चउणउई जोयणसहस्साई अह य अहढे जोयणसए चत्वारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिए इति वएज्जा, ता एस णं परिक्खेवविसेसे को अनुक्रम [३५]] ॥७५।। ~160~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] श्रीप आहिए इति वएजा?, ताजे णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे पण्णते. तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता दसहिं छित्ता दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्वेषविसेसे भाहिए इति वएज्जा, तीसे णं अंधकारे केवइए आयामेणं आहिए इति वइजारी, ता तेसीइ जोयणसहस्साई तित्रिय तित्तीसे जोयणसए जोयणत्तिभागं च आहिए इति वएजा, तया णं उत्तमकहपत्ता* उक्कोसिया अट्ठारसमुहुना राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवई' इदं च सकलमपि मागुक्तसूचव्याख्यानुसाशरण स्वयं परिभावनीयं, तापक्षेवसंस्थिती चिन्त्यमानायां यन्मंदरपरिरयादि द्वाभ्यां गुण्यते अन्धकारचिन्तायां तुर | तनिभिस्तदनन्तरं चोभयत्रापि दशभिविभजनं तथा सर्ववाद्ये मण्डले सूर्यस्य चारं चरतो लवणसमुद्रमध्ये पश्च योजनसहस्राणि तापक्षेत्रं तदनुरोधाद, अन्धकारश्चायामतोवर्द्धते ततख्यशीतियोजनसहस्राणि इत्युक्तमिति । तदेवमुक्तं तापक्षेत्रसंस्थितिपरिमाणमन्धकारसंस्थितिपरिमाणं च, सम्प्रत्यूर्ध्वमधः पूर्वविभागेऽपरविभागे च यावत्प्रकाशयतः सूर्यों तन्निरूपणार्थ सूत्रमाह-ता जंबुद्दीवे ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, जंबूद्वीपे कियत्-कियत्प्रमाणं क्षेत्रं सूर्यावूर्व तापयतः-प्रकाशयतः कियरक्षेत्रमधः कियरक्षेत्रं तिर्यक, पूर्वभागे अपरभागे चेत्यर्थः, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपेक द्वीपे सूर्यों प्रत्येक स्वविमानादूर्ध्वमेकं योजनशतं तापयत:-प्रकाशयतः अधस्तापयतोऽष्टादश योजनशतानि, एतच्चाघो-14 लौकिकयामापेक्षया द्रष्टव्यं, तथाहि-अधोलौकिकग्रामाः समतलभूभागमवधीकृत्याधो योजनसहस्रेण व्यवस्थिता तत्रापि सूर्यप्रकाशः प्रसरति, ततः समतलभूभागस्थाधो योजनसहस्रं तदूर्व चाष्टी योजनशतानीत्युभयमीलनेऽष्टादश योजनशतानि, तिर्यक् स्वविमानात् पूर्वभागेऽपरभागे च प्रत्येकं तापयतः सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि द्वे योजनशते अनुक्रम [३५] ~161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [४], -------------------- प्राभृतप्राभृत ------------- ----- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) ॥७६ ॥ सुत्रांक [२५]] दीप त्रिषष्टे-त्रिषष्ट्यधिके एकविंशतिं च पष्टिभागान योजनस्य । ४७२६३३ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां चतुर्थः५प्राभूतेप्राभृतं समाप्तम् ॥ लश्याप्रति हतिः सू२६ तदेवमुक्तं चतुर्थं प्राभृत, सम्पति पञ्चममारभ्यते-तस्य चायमाधिकारः 'कस्मिन् लेश्या प्रतिहते ति, ततस्तद्विषयं ४ प्रश्नसूत्रमाह ता कस्सि णं सरियस्स लेस्सा पडिहताति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमासु ता मंदरंसिणं पञ्चतंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहता आहिताति बदेजा, एगे एवमाहंसु१४ एगे पुण एवमाहंसु ता मेऊसि णं पवतंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहता आहितातिवदेजा, एगे एवमाहंसु २ एवं एतेणं अभिलावेणं भाणियर, ता मणोरमंसि णं पवयंसि, ता सुदंसणंसि णं पवयंसि, ता सर्यपभंसि णं पवतंसि ता गिरिरायंसि णं पचतंसि ता रतणुच्चयंसिणं पचतंसि ता सिलुच्चयंसिणं पवयंसि ता लोअममंसि पवर्तसि ता लोयणार्भिसि णं पचतंसिता अच्छंसिणं पञ्चतंसि तासूरियावत्तंसि णं पचतंसि सूरियाचरणसि गं पचतंसि ता उत्तमंसि णं पवयंसि ता दिसादिस्सिणं पचतंसि ता अवतंसंसि णं पचतंसि ता धरणिखीलंसि णं पचयंसि ता धरणिसिंगंसिणं पञ्चर्यसि ता पचतिदंसि णं पचतंसि ता पचयरायसि णं पञ्चयंसि सूरियस्स लेसा पडिहता आहिताति चदेजा, एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं बदामो-ता मंदरेवि पवुचति अनुक्रम [३५] ।। ७६॥ अत्र चतुर्थं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ पञ्चमं प्राभतं आरभ्यते ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [३६] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२६] प्राभृत [ ५ ], ------ ----- प्राभृतप्राभृत [-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जाव पवयराया बुच्चति, ता जेणं पुग्गला सूरियस्स लेस फुसति ते णं पुग्गला सूरियस्स लेसं परिणति, अदिट्ठावि णं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, चरिमलेसंतरगतावि णं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं पडि - हणंति ॥ सूत्रं २६ ) ॥ सूरियपण्णत्तीए भगवतीए पंचमं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कस्सि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, अभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य देश्या प्रसरतीति कस्मिन् स्थाने लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत् ?, अयमिह भावार्थ:--इहावश्यमभ्यन्तरं प्रविशन्ती सूर्यस्य लेश्या कस्मिन् स्थाने प्रतिहतेत्यभ्युपगन्तव्यं यतः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले जम्बूद्वीपगतं तापक्षेत्रमायामतः पञ्चचत्वारिंशद्योजन सहस्रप्रमाणमेवाख्यातमेतच्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगते सूर्ये वेश्याप्रतिहतिमन्तरेण नोपपद्यते, अन्यथा निष्क्रामति सूर्ये तत्प्रतिवद्धस्य तापक्षेत्रस्यापि निष्क्रमणभावात् सर्ववाये मण्डले चारं चरति सूर्ये हीनमायामतो भवेत् न च हीनमुक्तमतोऽवसीयते कापि लेश्या प्रतिघातमुपयाति ततस्तदवगमाय प्रश्न इति एवं प्रश्ने कृते सति भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति- 'तत्थे'त्यादि, तत्र - सूर्यलेश्याप्रतिहतिविषये खल्विमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञसाः, तद्यथा 'तत्र' तेषां विंशतेः परतीर्थिकानां मध्य एक एवमाहुः मन्दरे पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, वदेदिति तेषां मूलभूतं स्वशिष्यं प्रत्युपदेशः, अत्रैवोपसंहारः 'एंगे एवमाहंस' १, एके पुनरेवमाहुः - मेरो पर्वते सूर्यलेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, एके एवमाहुः २, 'एवमित्यादि एवं उक्तेन प्रकारेण एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्तिविशेषभूतेनालापकेन शेषप्रतिपत्तिजातं नेतव्यं, तानेव प्रतिपत्तिविशेषभूतानालापकान् दर्शयति- 'ता मणोरमंसि णं पवतंसी For Pale Only ~ 163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [५], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२६]] दीप सूर्यप्रज्ञ- त्यादि प्रत्यालापकं च पूर्वोक्तानि पदानि योजनीयानि, तत एवं सूत्रपाठ:-'एगे पुण एवमाहंसु ता मणोरमंसि णं पवयंसि प्राभूते प्तिवृत्तिः सूरियलेसा पडिहया आहियत्ति वइजा एगे एवमासु ३, एगे पुण एवमाहंसु, ता सुदंसणंसि णं पञ्चपंसि सूरियलेसा लेश्याप्रति(मल.) पिडिहया आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमासु, ता सर्यपहंसि ण पवयंसि सूरियलेसा पडिहया हतिः सू२६ ॥७७॥ | आहियत्ति वइज्जा एगे एवमासु ५, एगे पुण एवमाहंसु ता गिरिरायसि णं पवयंसि सूरियलेसा पडिहया आहियत्ति | वएज्जा, एगे एवमाहंसु ६, एगे पुण एवमाइंसु ता रयणुचयंसि पवयंसि सूरियलेसा पडिहया आहियत्ति वइज्जा एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमाहंसु ता सिलुच्चयंसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे पवमा सासु ८, एगे पुण एवमासु ता लोयमज्झसि णं पचयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएजा, एगे एवमाहंसु ९, जाएगे पुण एवमाहंसु ता लोगनाभिंसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वइजा एगे एवमाहंसु १०, एगे पुण एवमाईसु ता अच्छसि गं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वइज्जा एगे एवमाइंसु ११, एगे पुण एवमाहंसु ता सूरियावत्तसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु १२, एगे पुण एवमाहंसु ता सूरियावरणंसि पश्यसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु १३, एगे पुण एव-18 माहंसु ता उत्तमंसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु १४, एगे पुण एवमाहंसु ता दिसादिस्सि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिया आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु १५, एगे पुण एवमाहंसु ता R ॥ ७७॥ अवतससि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा पगे एवमासु १६, एगे पुण एवमाहंसु ता धरणि-I अनुक्रम [३६] ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [५], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 555 सूत्रांक [२६] दीप खीलंसि णं पधयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु १७, एगे पुण एवमाहंसु ता धरणिसिं४ गंसि शं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमासु १८,एगे पुण एवमाहंसु ता पबईदंसि णं पब-४ दयसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु १९, एगे पुण एवमाहेसु ता पवयरायसि णं पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु २०, तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्योतिष एवं वदामः यदुत 'ता'इति पूर्ववत् यस्मिन् पर्वतेऽभ्यन्तरं प्रसरन्ती सूर्यस्य लेश्या प्रतिघातमुपगच्छति स मन्दरोऽप्युच्यते यावत्पर्वतराजोऽप्युच्यते, सर्वेषामप्येतेषां शब्दानामेकार्थिकत्वात् , तथा मन्दरो नाम देवस्तत्र पल्योपमस्थितिको महर्द्धिका परिवसति तेन तद्योगान्मन्दर इत्यभिधीयते१, सकलतिर्यग्लोकमध्यभागस्य मर्यादाकारित्वान्मेरुः २, मनांसि देवानामपि अतिसुरूपतया रमयतीति मनोरमः ३, शोभनं जाम्बूनदमयतया वजरनबहुलतया च मनोनिर्वृतिकरं दर्शनं यस्यासौ सुदर्शनः, ४, स्वयमादित्यादिनिरपेक्षा रनबहुल तया प्रभा-प्रकाशो यस्य स स्वयंप्रभः ५, तथा सर्वेषामपि गिरीणामुच्चस्त्वेन तीर्थकरजन्माभिषेकाश्रयतया च राजा A गिरिराजः ६, तथा रत्नानां नानाविधानामुत्-प्राबल्येन चयः-उपचयो यत्र स रनोच्चयः ७, तथा शिलाना-पाण्डुक-14 कम्बलशिलामभृतीनामुत्-फर्य शिरस उपरि चयः-सम्भवो यत्र स शिलोच्चयः ८, तथा लोकस्य-तिर्यग्लोकस्य समस्त-15 स्यापि मध्ये वर्तते इति लोकमध्यः ९, तथा लोकस्य-तिर्यग्लोकस्य स्थालप्रख्यस्य नाभिरिव-स्थालमध्यगतसमुन्नतवृत्तच अनुक्रम [३६] ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) सूत्राक [२६] दीप न्द्रक इव लोकनाभिः १०, तथा अच्छ:-स्वच्छ सुनिर्मलजाम्बूनदरलबहुलत्वात् ११, तथा सूर्य उपलक्षणमेतत् चन्द्र-४५प्राभृते ग्रहनक्षत्रतारकाच प्रदक्षिणमावर्त्तन्ते यस्य स सूर्यावर्तः १२, तथा सूर्यैरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाभिश्च समन्ततःपालेश्याप्रतिपरिभ्रमणशीलैरात्रियते स्म-वेष्ट्यते स्मेति सूर्यावरणः 'कृद्धहुल'मिति वचनात्कर्मण्यनट्प्रत्ययः १३, तथा गिरीणामु सहति सू२६ सम इति उत्तमः १४, दिशामादिः प्रभवो दिगादिः, तथाहि-रुचकात दिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्चाष्टप्रदेशात्मको। मेरुमध्यवत्ती, ततो मेरुरपि दिगादिरित्युच्यते १५, तथा गिरीणामवतंसक इवेत्यवतंसकः १६, अमीषां च षोडशानां नाम्नां सवाहिके इमे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्ध गाथे-"मंदर मेरुमणोरम सुदंसण सयपभे य गिरिराया । रयणोच्चए सिलोच्चय मझे लोगस्स नाभी य ॥१॥ अच्छे य सूरियावत्ते, सूरियावरणे इय । उत्तमे य दिसाई य, वडिसे इय सोलसे ॥२॥" तथा धरण्या:-पृथिव्याः कीलक इव धरणिकीलकः, तथा धरण्याः शृङ्गमिव धरणिङ्गः, पर्वतानामिन्द्रः पर्वतेन्द्रः, पर्वतानां राजा पर्वतराजः, तदेवं सर्वेऽपि मन्दरादयः शब्दाः परमार्थत एकार्थिकास्ततो भिन्नाभिप्रायतया प्रवृत्ताः प्राक्तनाः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवगन्तव्याः। यापि च लेश्याप्रतिहतिः सा मन्दरेऽप्यस्ति अन्यत्रापि च, तथा चाहता जे गं'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् ये णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिताः सूर्यस्य लेण्यां। स्पृशन्ति ते पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, अभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायास्तैः प्रतिस्खलितत्वात्, येऽपि पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिता अपि दृश्यमानपुद्गलान्तर्गताः सूक्ष्मत्वान चक्षस्पर्शमुपयान्ति तेऽप्यष्टा अपि सूर्यलेश्यां प्रति-13॥७८। मन्ति, तैरप्यभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायाः स्वशक्त्यनुरूपं प्रतिस्खल्यमानत्वात् , येऽपि मेरोरन्यत्रापि चरमलेश्या अनुक्रम [३६] ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: न्तरगता:-चरमलेश्याविशेषसंस्पर्शिनः पुद्गलास्तेऽपि सूर्यलेश्या प्रतिघ्नन्ति, तैरपि चरमलेश्यासंस्पर्शितया चरमलेश्यायाः प्रतिहन्यमानत्वात् ॥ इतिश्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां पश्चमं प्राभूत समाप्तम् ॥ प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [३६] तदेवमुक्तं पञ्चमं प्राभृतं, सम्पति पष्ठमारभ्यते, सस्य चायमर्थाधिकारः-'कथमोजःसंस्थितिराख्याता इति, ततस्तद्धिषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते ओयसंठिती आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थेगे ४ एवमाहंसु ता अणुसमयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजे, अण्णा अबेति, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव सरियस्स ओया अण्णा उप्पजति अण्णा अवेति २, एतेणं अभिलावेणं णेतवा, ता अणुराइंदियमेव ता अणुपक्खमेव ता अणुमासमेव ता अणुउडुमेव ता अणुअयणमेव ता अणुसंवच्छरमेव ता अणुजुगमेव ता अणुवाससयमेव ता अणुवाससहस्समेव ता अणुवाससयसहस्समेव ता अणुपुषमेव ता अणुपुषसपमेव अणुपुषसहस्समेव ता अणुपुषसतसहस्समेव ता अणुपलितोवममेव ता अणुपलितोवमसतमेव ता अणुपलितोवमसहस्समेव ता अणुपलितोबमसयसहस्समेव ता अणुसागरोवममेव, ता अणुसागरोवमसतमेव ता अणुसागरोवमसहस्समेव ता अणुसागरोचमसयसहस्समेव एगे एवमाहंसु अत्र पञ्चमं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ षष्ठं प्राभतं आरभ्यते ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ----- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ६ ओजःस्थिति प्रत सूर्यप्रज्ञ- विवृत्ति (मल.) ॥७९॥ सूत्रांक प्राभूते सू२७ ता अणुउस्सप्पिणिओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पजति अण्णा अवेति, एगे एवमाहंसुवयं पुण एवं वदामो ता तीसं २ मुहुत्ते सूरियस्स ओया अवहिता भवति, तेण परं सूरियस्स ओया अणवाहिता भवति, छम्मासे सरिए ओयं णिचुड्डेति छम्मासे मूरिए ओर्य अभिवति, णिक्खममाणे मूरिए देस णिचुडेति पविसमाणे सूरिए देसं अभिवुहेइ, तत्व को हेतूति वदेजा,ता अयपणं जंबुद्दीवे २सबदीवसमु० जाव परि-18 क्लेवेणं, ता जया णं सूरिए सबभंतरं मंडलं उथसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छर अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं मूरिए अभितराणतरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तताणं एगणं राइदिएणं एगं भागं ओयाए दिवसखित्तस्स णिबुद्वित्ता रतणिक्खेत्तस्स अभिवहित्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं सतेहिं छित्ता,तता णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगहिभागमुष्टुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगडिभागमुहुत्तेहिं अहिया, से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि अम्भितरतचं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, ता| जया णं सूरिए अम्भितरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं दोहिं राईदिएहिं दो भागे ओयाए दिवसखेत्तस्स णिबुडित्ता रयणिखित्तस्स अभिवढेसा चारं चरति, मंडलं अट्ठारसतीसेहिं सरहिं छेत्ता, तताणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चाहिं एगहिभागमु अनुक्रम CAS [३४] ॥७९॥ + ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ---- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] हुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एतेणुवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओतदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे रएगमेगे मंडले एगमेगेणं राइदिएणं पगमेगेणं २ भागं ओयाए दिवसखेत्तस्स णिबुडेमाणे २रयणिवेत्तस्स अभिवढेमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सबभंतरातो मंडलातो सवबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तता णं सबभंतरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीतेणं राइंदियसतेणं एग तेसीतं भागसतं ओयाए दिवसखेत्तस्स णिव्युहेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिबुहेत्ता चार चरति मंडलं. अट्ठारसहिं तीसेहिं छेत्ता, तता णं उत्समकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवति जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति, एस णं पहमळम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढ़मंसि अहोरसि बाहिराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं घरति, ता जया णं सूरिए याहिराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरति तता णं एगेणं राईदिएणं एग भागं ओयाए रतणिक्खेत्तस्स णिचुहेत्ता दिवसखेप्सस्स अभिवत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिंतीसेहिं छेत्ता, तता णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगट्ठिभागमुष्टुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगहिभागमुहूत्तेहिं अधिए, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तर्थ मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सरिए बाहिरतचं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति तता णं दोहिं राइदिएहिं दो भाए ओयाए रगणिखेत्तस्स णिचुढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवुहेत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं छेत्ता, तया णं अनुक्रम [३७] ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] 4 % सूर्यप्रज्ञ- अट्ठासमुहत्ता राई भवति चाहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति चाहिं एमद्विभा-1 सिवृत्तिः गमुहुत्तेहिं अधिए, एवं खलु एतेणुगएणं पविसमाणे सूरिए तताणंतरातो तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संक-23 | स्थिति(मल०) ममाणे २ एगमेगेणं राइदिएणं एगमेगेणं भागं ओयाए रयणिखेत्तस्स णिब्वुहेमाणे २ दिवसखेत्तस्स अभिवड्डेमाणे प्राभृते २ सम्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सववाहिरातो मंडलातो सधभंतरं मंडल Bउवसंकमित्ता चार चरति तता णं सबबाहिरं मंडलं पणिधाय एगणं तेसीतेणं राइंदियसएण एग तेसीत| भागसतं ओयाए रयणिखित्तस्स णिवुहेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवढेत्ता चारं चरति, मंडलं अट्ठारसतीसेहि सएहिं छेत्ता, तता णं उत्समकहपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुष्टुत्ता राई। भवति, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दोचस्स छम्मासस्स पजवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे, एस णं| आदिचस्स संवच्छरस्स पचवसाणे (सूत्रं २७) ॥ छई पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहं ते ओयसंठिई इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कधं?-केन प्रकारेण किं सर्वकालमेकरूपावस्थायितया उतान्यथा ओजस:-प्रकाशस्य संस्थिति:-अवस्थानमाख्याता इति वदेत्, एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयः सम्भवन्ति तावतीः कथयति-तत्थे'त्यादि, तत्र-ओजःसंस्थिती विषये खल्विमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-तत्र-तेषां पश्चविंशते परतीथिकानां मध्ये एके वादिन एवमाहुः, 'ता'इति पूर्ववत्, अनुसमयमेव-प्रतिक्षणमेव सूर्यस्य ओजोऽन्यदुत्पद्यते अन्यदपैति, किमुक्तं भवति -प्रतिक्षणं सूर्यस्य ओजः प्राक्तनभिन्नप्रमाणं विनश्यति, अन्य अनुक्रम [३७] 9525% ~170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ----- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] देव प्राफनामिप्रमाणमोज उत्पद्यते, सूत्रे च ओजःशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वादापत्वाद्वा, अत्रैवोपसंहारः || 'एगे एवमासु'१, एके पुनरेवमाहुः, 'ता इति पूर्ववत्, अनुमुहूर्तमेव-प्रतिमुहूर्तमेव सूर्यस्य ओज़ोऽन्यदुत्पद्यते अन्यच्च माप्राक्तनमपति, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' २, एवं'मित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्तिविशेष-13 भूतेनालापकेन शेष प्रतिपत्तिजातं नेतव्यं, तानेवाभिलापविशेषान् दर्शयति-ता अणुराइदियमेवे'त्यादि, सुगम, नवरं रात्रिन्दिवं रात्रिन्दिवमनु अनुरात्रिंदिवमित्येवं सर्वत्र विग्रहभावना करणीया, पाठः पुनरेवं सूत्रस्य वेदितव्य:एगे एवमाहेसु ता अणुराइंदियमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अन्ना अवेति, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपक्खमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ४, एगे पुण एवमाहसु ता अणुमासमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जति(अन्ना) अवेइ,एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुउउमेव सूरियस्स ओआ अन्ना उपजइ, अन्ना अवेह, एगे एवमाहंसु ६, एगे एवमासु ता अणुअयणमेव सूरियरस ओया अन्ना उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एषमाइंसु ता अणुसंवच्छरमेव सूरियस्स ओजा अन्ना उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहेसु ता अणुजुगमेव सूरियस्स ओआ अन्ना उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु ९, एगे. पुण एवमाहंसु ता अणुवाससयमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ अण्णा अवेइ,एगे एवमाहंसु १०, ता एगे पुण एवंमाइंसु अणुवाससहस्समेव सूरियस्स ओआ अण्णा उप्पजइ अन्ना अवेइ, एगे एवमासु ११, एगे पुण एवमासु ता अणुवाससय-४ सहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु १२, एगे पुण एवमाहेसु ता अणुपुषमेव मूरि अनुक्रम [३७] ~171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ---- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] सूर्यप्रज्ञ- यस्स ओथा अन्ना उपजइ अन्ना अबेइ, एगे एवमासु १२, एगे पुण एवमाइंसु ता अणुपुबसयमेव सूरियस्स ओया 31 ओजःप्तिवृत्तिः ४ अन्ना उप्पज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु १४, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपुषसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्प(मल०) जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमासु १५, एगे पुण एवमासु ता अणुपुषसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उपज्जइFI प्राभृते अन्ना अबेइ, एगे एवमाईसु १६, एगे पुण एवमासु ता अणुपलिओवममेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अशा अवेइ, सू २७ एगे एवमासु १७, एगे पुण पवमासु ता अणुपलिओवमसयमेव सूरियस्स ओया अन्ना उपजाइ, अन्ना अबेइ, एगे | एवमाहंसु १८, एगे पुण एबमाइंसु ता अणुपलिओवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उपज्जइ अन्ना अवेइ, एगे एवमाहंसु १९, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पज्जइ, अन्ना अवेइ, एगे एव-15 माहंसु २०, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोषममेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमासु २१, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोवमसयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जा, अण्णा अवेह, एगे एवमासु २२, एगे* [पुण एवमाहंसु ता अणुसागरोवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जा, अन्ना अवेइ, एगे पचमाहंसु २३, एगे पुष्प |एवमासु ता अणुसागरोवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ, अण्णा अबेइ, एगे एवमासु २४, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुउस्सप्पिणिओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अन्ना उप्पजइ, अन्ना अवेइ, एगे एवमाइंसु २५' एताच ॥८१॥ पतिपत्तयः सवों अपि मिथ्यात्वरूपा यतोऽत एतासामपोहेन भगवान् स्वमतमुपदर्शयति-वयं पुनरेवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण| विदामः, तमेव प्रकारमाह-ता तीस मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपे प्रतिवर्ष परिपूर्णतया त्रिंशतं त्रिंशतं मुहचान अनुक्रम [३७] ~172~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] प्राभृत [ ६ ], ------ ----- प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः यावत् सूर्यस्य ओजः - प्रकाशोऽवस्थितं भवति, किमुक्कं भवति, सूर्य संवत्सरपर्यन्ते यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चार चरति तदा सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतभोजः परिपूर्णप्रमाणं त्रिंशतं मुहूर्तान् यावद् भवति, 'लेण परं'ति ततः परं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परमित्यर्थः, सूर्यस्यौजोऽनवस्थितं भवति, कस्मादनवस्थितं भवतीति चेत्, अत आह—'छम्मासे' इत्यादि, यस्मात्कारणात्सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः प्रथमान् सूर्य संवत्सरसत्कान् षण्मासान् यावत्सूर्यो जम्बूद्वीपमतमोजः - प्रकाशं प्रत्यहोरात्रमेकैकस्य त्रिंशदधिकाष्टादशशत सङ्ख्य भागसत्कस्य भागस्य हापनेन निर्देष्टयति- हापयति, तदनन्तरं द्वितीयान् षण्मासान् सूर्यसंवत्सरसत्कान् यावत्सूर्यः प्रत्यहोरात्रमेकै कत्रिंशदधिकाष्टादशशत सत्य सत्क भागवर्द्धनेनौज : - प्रकाशमभिवर्द्धयति, एतदेव व्यक्तं व्याचष्टे - 'निक्खममाणे' इत्यादि, सुगमम्, नवरं देशमिति - त्रिंशदधिकानामष्टादशशतसङ्ख्यानां भागानां सत्कं प्रत्यहोरात्रमेकैकं भागं, तेनोच्यते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले परिपूर्णतया त्रिंशतं मूहूर्त्तानं यावदवस्थितं सूर्यस्वौजस्ततः परमनवस्थितमिति, एतदेव वैतत्येन विभावयिषुः प्रश्नसूत्रमुपन्यस्यन्नाह - 'तत्थे'त्यादि, तत्र- निष्क्रामन् सूर्यो देशं यथोक्तरूपं निर्वेष्टयति प्रविशन्नभिवर्द्धयतीत्येतस्मिन् विषये को हेतुः ?-का उपपत्तिरिति वदेत्, भगवानाह - 'ता अयन्न' मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहर्त्ता दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् सूर्ये नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरान Education International For Parts Only ~ 173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३७] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] प्राभृत [ ६ ], ------ ----- प्राभृतप्राभृत [-], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः १८२ ॥ सूर्यप्रज्ञ- ॐ तरं द्वितीयं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकेन रात्रिन्दिवेन सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेन प्रथमक्षणादूर्ध्वं शनैः शनैः (०) ४ कलामात्रकलामात्र हा पन्नाहोरात्रपर्यन्ते एकं भागमोजसः - प्रकाशस्य दिवसक्षेत्रगतस्य निर्वेध - हापयित्वा तमेव चैकं * भागं रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धयित्वा चारं चरति, कियत्प्रमाणं पुनर्भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य वर्द्धथिवा १, तत आह- मण्डलमष्टादशभिखिशः - त्रिंशदधिकैः शतैरिछत्त्वा किमुक्तं भवति ? -द्वितीयं मण्डलमष्टादशभिस्त्रिंशदधिकैर्भागंश तैर्विभज्य तत्सत्कमेकं भागमिति, कस्मात्पुनर्मण्डलस्याष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि भागानां परिकल्प्यन्ते १, उच्यते, इह एकैकं मण्डलं द्वाभ्यां सूर्याभ्यां एकेनाहोरात्रेण भ्रम्या पूर्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहूर्त्त प्रमाणः, प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वावहोरात्रौ भवतः, द्वयोश्चाहोरात्रयोः पष्टिर्मुहर्त्ताः, ततो मण्डलं प्रथमतः षष्ठ्या भागैर्विभज्यते, निष्क्रामन्तौ च सूर्यो प्रत्यहोरात्रं प्रत्येकं द्वौ द्वौ मुहत्कषष्टिभागी हापयतः प्रविशन्तौ चाभिवर्द्धयतः, यो च द्वौ मुहर्त्तकपष्टिभागौ तौ समुदितावेकः सार्द्धत्रिंशत्तमो भागः, ततः षष्टिरपि भागाः सार्द्धया त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशताऽधिकानि च भागानां एवं निष्क्रामन् सूर्यः प्रतिमण्डलं त्रिंशदधिकाष्टादशशतसङ्ख्यानां भागानां सत्कमेकैकं भागं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयन् रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धयन् ' तावद्वक्तव्यः यावत्सर्वचाये मण्डले व्यशीत्यधिकं भागशतं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्य हापयिता रजनिक्षेत्रस्य चाभिवर्द्धयिता भवति, व्यशीत्यधिकं च भागशतमष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानां दशमो भागः, ततः 'सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् सर्वषाह्ये मण्डले जम्बूद्वीपचक्रवाल दशभाग खुय्यति रजनिक्षेत्रस्याभिवर्द्धते' इति यत्प्रागभिहितं तदपि समीचीनं जातमिति, एवमभ्यन्तरं प्रविशन् Education International For Parts Only ~ 174~ ६ ओज: स्थितिप्राभृते सू २७ ॥ ८२ ॥ www.ra Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [६], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, ------------ ----- मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 4656545 सूत्रांक [२७] दीप प्रतिमण्डलमष्टादशशतभागानां त्रिंशदधिकानां सत्कमेकैक भागमभिवर्द्धयन् तावद्वक्तव्यो यावत्सर्वाभ्यन्तरे मण्डले न्यशीत्यधिक भागशतं दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्याभिवर्द्धयति रजनिक्षेत्रगतस्य च हापयति, ज्यशीत्यधिकं च भागशतं . जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशमो भागस्ततः सर्वबाह्यान्मण्डलात्सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दिवसक्षेत्रगतस्य प्रकाशस्यैको दशमश्चक्र-14 वालभागोऽभिवर्द्धते रजनिक्षेत्रगतस्य तु ग्रुट्यतीति यत्प्रागवादि तदविरोधीति, सूत्र तु-तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे इत्यादिकं सकलमपि प्राभृतपरिसमाप्तिं यावत्सुगम, नवरमेवमत्रोपसंहारः-यत एवं सूर्यचारस्ततः प्रतिसूर्यसंवत्सरं सूर्यसंवत्सरपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रिंशतं २ मुहर्तान् यावत्परिपूर्णमवस्थितमोजस्ततः परमनवस्थित, सर्वाभ्यन्तरेऽपि च मण्डले त्रिंशतं मुहूर्तान् यावत्परिपूर्णमवस्थितमोज उच्यते व्यवहारतो निश्चयतः पुनस्तत्रापि प्रथमक्षणादूर्व शनैः शनैहींयमानमवसेयं, प्रथमक्षणादूर्व सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं चारचरणादिति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां पष्ठं प्राभतं परिसमाप्तम् ॥ nocee - -- AI तदेवमुक्तं पाठ प्राभृतं, सम्पति सप्तमं आरभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः 'कस्तव मतेन भगवन् ! सूर्य वरयती ति, ततIA भएतद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहशता के ते सूरियं वरंति आहिताति वदेजा?, तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एव माहंसु-ता मंदरे णं पचते सरियं वरयति आहितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमासु ता मेरू अनुक्रम [३७] Purwancharary.org अत्र षष्ठं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ सप्तमं प्राभतं आरभ्यते ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३८] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२८] प्राभृत [७]), ------ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल० ॥ ८३ ॥ णं पचते सूरियं वरति आहितेति वदेजा, एवं एएणं अभिलावेणं णेत जाव पछतराये णं पवते सूरियं वरयति आहितेति वदेखा, तं एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वदामो-ता मंदरेवि पचति तहेव जाव पञ्चतराएवि पचति, ता जेणं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसति ते पोग्गला सूरियं वरयति, अदिट्ठावि णं पोग्गला सूरियं वरयति, चरमले संतरगतावि णं पोग्गला सूरियं वरयति (सूत्रं २८ ) । सत्तमं पाहुडं समन्तं 'ता के ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कस्तव मतेन भगवन् ! सूर्य वरयति ?, वरयन् 'वर ईप्सायां' आप्तुमिच्छन् स्वप्रकाशकत्वेन स्वीकुर्वन्, आख्यात इति वदेत्, एवमुक्ते भगवान् एतद्विषया यावत्यः परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयः तावतीः कथयति- 'तस्थे'त्यादि, तत्र सूर्ये प्रति वरणविषये खल्विमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र तेषां विंशतेः परतीर्थिकानां मध्ये एके प्रथम एवमाहुः मन्दरः पर्वतः सूर्यं वरयति, मन्दरः पर्वतो हि सूर्येण मण्डल परिश्रम्या सर्वतः प्रकाश्यते, ततः सूर्य प्रकाशकत्वेन वरयतीत्युच्यते, अत्रोपसंहारः- एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः, मेरुपर्वतः सूर्य वरयन्नाख्यात इति वदेत्, अत्राप्युपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' २, 'एवमित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण लेश्याप्रतिहतिविषयविप्रतिपत्तिवत् तावन्नेतव्यं यावत्पर्वतराजः पर्वतः सूर्य वरयन् आख्यात इति वदेत्, एके एवमाहुरिति, किमुक्कं भवति १-यथा प्राकू लेश्याप्रतिहतिविषये विंशतिः प्रतिपत्तयो येन क्रमेणोक्तास्तेन क्रमेणात्रापि वक्तव्याः, सूत्रपाठोऽपि प्रथमप्रतिपत्तिगत पाठानुसारेणान्यूनातिरिक्तः स्वयं परिभावनीयो, ग्रन्थगौरवभयात्तु न लिख्यते, तदेवमुक्ताः परतीर्थिकमतिपत्तयः, संप्रति भगवान् स्वमतमुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकार Educatin internation For Parts Only ~ 176~ ७ वरण प्राभूते सू २७ ॥ ८३ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [७], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ----- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] माह-'ता मंदरेऽवी'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, योऽसौ पर्वतः सूर्यं वरयन् आख्यातः स मन्दरोऽप्युच्यते मेरुरप्युच्यते यावत्पर्वतराजोऽप्युच्यते, एतच्च प्रागेव भावितं, ततो भिन्नभिन्नविषयतया प्रवृत्ताः प्राक्तन्यः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवगन्तव्याः, अपि च-न केवलो मेरुरेव सूर्य वरयति, किं त्वन्येऽपि पुद्गलाः, तथा चाहता जे णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् जे णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गला मेरुगता अमेरुगता वा सूर्यलेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गलाः स्वप्रकाशकत्वेन सूर्य वरयन्ति, ईप्सितं हि सूर्येण प्रकाश्यते, ततो लेश्यापुद्गलैः सह सम्बन्धात्परंपरया ते सूर्य स्वं कुर्वन्तीत्युच्यते, ये च प्रकाश्यमानपुङ्गलस्कन्धान्तर्गता मेरुगता अमेरुगता वा सूर्येण प्रकाशिता अपि सूक्ष्मत्वान्न चक्षुःस्पर्शमुपगच्छन्ति तेऽपि प्रागुक्तयुक्त्या सूर्य परयन्ति, येऽपि च चरमलेश्यान्तरगताः-स्वचरमलेश्याविशेषस्पर्शिनः पुदलास्तेऽपि सूर्य वरयन्ति, तेषामपि सूर्येण प्रकाश्यमानत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां सप्तम प्राभृतं समाप्तम् ॥ दीप WER-52- 53 अनुक्रम [३८] तदेवमुक्त सप्तमं प्राभृतं, सम्मति अष्टममारभ्यते-तस्य चायमर्थाधिकार:-कथं त्वया भगवन् ! उदयसंस्थितिराख्याता' इति, तत इत्थंभूतमेव प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते उदयसंठिती आहितेति बदेजा, तत्थ खलु इमाओ तिणि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमासु, ता जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिणढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तता णं उत्तरहेवि अट्ठारसमु-४ अत्र सप्तमं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ अष्टमं प्राभृतं आरभ्यते ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६],उपांगसूत्र- [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रक- हुत्ते दिवसे भवति, जया णं उत्तरढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं दाहिणड्डेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे ८उदयप्तिवृत्तिः भवति, त(ज,दा णं जंबुद्दीवे २ दाहिणढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरडेवि सत्तरसमुष्टुत्ते दिवसे स्थितिभवति, जया णं उत्तरहे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं दाहिणहेवि सत्तरसमुटुत्ते दिवसे भवति, एवं प्राभूत परिहावेतई,सोलसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे चउदसमुष्टुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ते दिवसे जाव णं जंयु-18 सू२९ ॥८४॥ लाहीवे२ दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे तया णं उत्तरद्धेवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवति,जता णं उत्तरद्धे बारसमुहुत्ते दिवसे भवति तता णं दाहिणहेवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवति, तता णं दाहिणडे बारसमुहुत्ते दिवसे भवति तताणं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पचयस्स पुरच्छिमपचस्थिमेणं सता पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति सदा | पपणरसमुहुत्ता राई भवति, अवहिता णं तत्थ राइंदिया पण्णता समणाउसो, एगे एवमासु, एगे पुण 87 एचमासु जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणद्ध अवारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तया णं उत्तरद्धेवि अट्ठारसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरडे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ तता णं दाहिणहृवि अट्ठार समुहत्ताणतरे दिवसे भवह एवं परिहावेतवं, सत्तरसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति, सोलसमुहुत्ताणतरे०, पण्णसारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति, चोदसमुहत्ताणंतरे,तेरसमहत्ताणतरे०.जयाणं जंबुद्दीवे २दाहिणद्धे बारसमु-18 सत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धेवि बारसमुहत्ताणतरे दिवसे, जता णं उत्तरद्धे वारसमुहुत्ताणतरे ४ दिवसे भवइ तया णं दाहिणदेवि बारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पञ्चयस्स अनुक्रम [३९] ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ----- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] पुरस्थिमपचस्थिमै णं णो सदा पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति णो सदा पपणरसमुहुत्ता राई भवति, अणव-1 हिता णं तत्थ राइंदिया णं समणाउसो, एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमाहंसु, ता जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं उत्तरडे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्सरहे अट्ठारसमुलुत्ते दिवसे भवति तदा णं दाहिणढे यारसमुहुत्ता (राई भवइ, जया णं दाहिणहे अट्ठारसमुहुत्ता) तरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धे वारसमुष्टुत्ता राई भवइ, जता णं उत्तरहे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं दाहिणद्धे बारसमुहुत्ता राई भवति, एवं णेतचं सगलेहि य अर्णतरेहि य एकेके दो दो आलाचका, सबहिं दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जाव ता जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणढे बारसमुहुत्तार्णतरे। दिवसे भवति तदा णं उत्सरद्धे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्तरद्धे दुधालसमुहुत्साणंतरे दिवसे भवति तदा णं दाहिणद्धे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, तता णं जंबुद्दीवे २ मन्दस्स पच्चयस्स पुरस्थिमपचस्थिमेणं णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति पणेवत्थि पण्णरसमुहत्ता राई भवति, बोच्छिण्णाणं तत्थ राईदिया पं० समणाउसो! एगे एवमाहंसु ३ । वयं पुण एवं वदामो, ता जंबुद्दीचे २ सूरिया उदीणपाईणमुग्ग-18 ति पाईणदाहिणमागच्छति, पाईणदाहिणमुम्गच्छंति दाहिणपडीणमागच्छंति दाहिणपडीणमुग्ग-1 मच्छति पडीणउदीणमागच्छन्ति पडीणउदीणमुग्गच्छन्ति उदीणपाईणमागच्छन्ति, ता जता णं जंबुद्दीवे २|| दाहिणढे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धे दिवसे भवति, जदा णं उ० तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स परयस्स पुरच्छि अनुक्रम [३९] ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ---- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ८प्राभूते उदयसंस्थितिः सू २९ सूर्यप्रज्ञ-18 मपञ्चच्छिमेणं राई भवति, ता जया णं जंबुद्दीये २ मंदरस्स पञ्चयस्स पुरथिमे णं दिवसे भवति तदाणं पञ्चच्छिप्तिवृत्तिः मेणवि दिवसे भवति, जया णं पचत्थिमे गं दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पचयस्स उत्तरदाहि-I (मल.) णे णं राई भवति, ता जया णं दाहिणद्धेवि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरद्धे उकोसए ॥८५॥ अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जदा उत्तरद्धे० तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पवयस्स पुरस्थिमे णं जहपिणया दुवालसमुहुत्ता राई भवति,ता जयाणं जबुद्दीवे २ मन्दरस्स पवतस्स पुरकिछमे णंउकोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति तताणं पञ्चत्यिमेणषि उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जता णं पचत्थिमे णं उफोसए अट्ठारसमुहुत्ते |दिवसे भवति तता णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पचयस्स उत्तरदाहिणे गं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एवं एएणं गमेणं णेतच, अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगदुवालसमुहत्ता राई भवति, सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहसा राई, सत्तरसमुहसाणंतरे दिवसे भवति सातिरेगतेरसमुहत्ता राई भवति, सोलसमुहुत्ते दिवसे भवति चोइसमुहुत्ता राई, भवति, सोलसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति सातिरेगचोदसमुहत्ता राई भवति, पपणरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई, पण्णरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगपण्णरसमुदुत्ता राई भवइ, चउद्दसमुहुत्ते दिवसे सोल समुहुत्ता राई, चोहसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगसोलसमुहुत्ता राई, तेरसमुहुते दिवसे सत्तरसमुहसा राई, तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगसत्तरसमुहुत्ता राई, जहणए| |दुवालसमुहुरते दिवसे भवति उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, एवं भणितवं, ता जया णं जंबुद्दीवे २ अनुक्रम [३९] ॥५॥ 4555 ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ----- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: RSSC प्रत सूत्रांक [२९] दाहिणद्धे वासाणं पढमे समए पडिचजति तताणं उत्तरद्धेवि वासाणं पढमे समए पडिवज्जति,जता णं उत्तरद्धा वासाणं पढमे समए पडिवज्जति तता णं जंबुद्दीवे २मंदरस्स पवयस्स पुरच्छिमपचत्धिमे णं अर्णतरपुरक्ख डकालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवजइ, ता जया णं जंबुद्दीवे मंदरस्स पच्चयस्स पुरच्छिमेणं वासाणं दापढमे समए पडिवजइ तता णं पचस्थिमेणवि वासाणं पढमे समए पडिवजह, जया गं पचत्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवजह तताणं जंबुद्दीवे २ मंदरदाहिणेणं अणंतरपच्छाकयकालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवण्णे भवति, जहा समओ एवं आवलिया आणापाणू थोवे लवे मुलुत्ते अहोरत्ते पक्खे मासे उऊ, एवं दस आलावगा जहा चासाणं एवं हेमंताणं गिम्हाणं च भाणितवा, ता जता णं जंबुद्दीवे २ दाहिणद्धे |पढमे अयणे पडिवजति तदा णं उत्तरद्धेवि पढमे अयणे पडिवजह, जताणं उत्तरढे पढमे अयणे पडिवजति तदा णं दाहिणद्धेवि पढमे अयणे पडिवज्जइ, जता णं उत्तरद्धे पढमे अयणे पडिवजति तताणं जंबुरीवे २ मंदरस्सं पवयस्स पुरत्धिमपञ्चस्थिमेणं अतरपुरक्खडकालसमयंसि पढमे अयणे पडिवज्जति, ता जया णं जंबु-12 दीवे २ मन्दरस्स पच्चयस्स पुरत्थिमे णं पढमे अयणे पडिवजति तता णं पचत्थिमेणवि पढमे अयणे पडिवजह, जया णं पञ्चस्थिमेणं पढमे अयणे पडिवजह तदा पां जंबुद्दीवे २मंदरस्स पचयस्स उत्तरदाहिणे णं अणंतरपच्छाकडकालसमयंसि पढमे अयणे पडिवणे भवति, जहा अयणे तहा संवच्छरेजुगे वाससते, एवं वाससहस्से वास-४ सयसहस्से पुबंगे पुछ एवं जाव सीसपहेलिया पलितोवमे सागरोवमे, ता जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिणहे अनुक्रम [३९] HASABS ~181~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ----- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत DA.A AMATA सूत्रांक सू२९ सूर्यप्रज्ञ- उस्सप्पिणी पडियज्जति तता णं उत्तरद्धेवि उस्सप्पिणी पडिवजति, जता णं उत्तरद्धे उस्सप्पिणी पडिवनतिमाभृते हिवृत्तिः सतता गं अंबुद्दीवे २ मंदरस्स पवयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमे णं वस्थि ओसप्पिणी व अस्थि उस्सप्पिणी अब- उदयसं द्विते णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो!, एवं उस्सप्पिणीवि । ता जया णं लवणे समुद्दे दाहिणद्धे दिवसे भवति ॥८६॥ तता णं लवणसमुद्दे उत्तरद्धे दिवसे भवति, जता णं उत्तरद्धे दिवसे भवति तता णं लवणसमुरे पुरच्छिमपञ्चत्यिमे णं राई भवति, जहा जंबुद्दीवे २ तहेव जाव उस्सप्पिणी, तहा धायइसंडे णं दीवे सूरिया ओदीण तहेव, ता जता णं घायइसंडे दीवे दाहिणद्धे दिवसे भवति तता णं उत्तरद्धेवि दिवसे भवति, जता णं उत्तरद्ध दिवसे भवति तता णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पचताणं पुरथिमपचत्थिमेणं राई भवति, एवं जंबुरीवे २ जहा तहेव जाव उस्सप्पिणी, कालोए णं जहा लवणे समुद्देतहेव, ता अम्भतरपुक्खरद्धे णं सूरिया उदीणपा-1 ईणमुग्गच्छ तहेव ता जया णं अभंतरपुक्खर णं दाहिणद्धे दिवसे भवति तदा णं उत्तरडेवि दिवसे भवति, Mजता णं उत्तरद्धेवि दिवसे भवति तताणं अभितरपुक्खरद्धे मंदराणं पवताणं पुरस्थिमपचत्थिमेणं राई भवति सेसं जहा जंबुद्दीवे तहेव जाव उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ॥ (सूत्रं २९)॥ अट्ठमं पाहुडं समसं॥ | 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण सूर्यस्य उदयसंस्थितिस्ते-खया भगवाख्याता इति । मावदेत्, एवमुक्त भगवानेतद्विषया यावत्यः प्रतिपत्तयः तावतीरुपदर्शयति-तस्धे'त्यादि, तब-तस्थामुदयसंस्थिती विषये|ne तिम्रः प्रतिपत्तया-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां त्रयाणां परतीथिकानां मध्ये एके-प्रथमाः परती-| अनुक्रम [३९] S ~182~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ---- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] र्थिका एवमाहुः-ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा अष्टादश मुहूर्तो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि अष्टादशमुहूर्तो दिवसः, तदेवं दक्षिणार्द्धनियमनेनोत्तराईनियम ' उक्तः, सम्प्रति उसरार्द्धनियमनेन दक्षिणार्द्धनियमनमाह-'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा उत्तरार्द्ध अष्टादशमुहूर्तो दिव सो भवति तदा दक्षिणाऽपि अष्टादशमुहूर्तो दिवसः, 'ता जया 'मित्यादि, यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा सप्तदश-18 मुहूर्तो दिवसो भवति तदा उत्तराद्देऽपि सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति, यदा चोत्तरार्दै सप्तदशमुहूों दिवसो भवति तदा दक्षिणार्डेऽपि सप्तदशमुहत्तों दिवसः, 'एवं'इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण एकैकमुहर्सहान्या परिहातव्यं, परिहानिमेव क्रमेण दर्शयति-प्रथमत उक्तमकारेण षोडशमुहूत्तों दिवसो वक्तव्यः, तदनन्तरं पञ्चदशमुहूर्तस्ततचतुर्दश मुहूर्तस्ततखयोदशमुहः, सूत्रपाठोऽपि प्रागुक्कसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयः, स चैवम्-'जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरडेवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं उत्तरहे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणहेवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवई'इत्यादि, द्वादशमुहूर्त्तदिवसप्रतिपादक सूत्रं साक्षादाह-ता जया 'मित्यादि,४ ता इति-तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाढ़े द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि द्वादशमुहूत्तों दिवसो, यदा उत्तरा द्वादशमुहूत्तों दिवसस्तदा दक्षिणाईऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, तदा च अष्टादशमुह दिदिवसकाले| जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि सदा-सर्वकालं पञ्चदशमुहूत्तों दिवसो भवति, सदैव च पश्चदशमुहूर्चा रात्रिः, कुत इत्याह-अवस्थितानि-सकलकालमेकप्रमाणानि, णमिति वाक्यालङ्कारे, तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य । CABAR अनुक्रम [३९] ~183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ---- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) प्राभृते उदयस| स्थितिः सू २९ सुत्राक [२९] ESCRIBE दीप पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिंदिवानि प्रज्ञप्तानि, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, एतच्च प्रथमानां परतीर्थिकानां मूलभूतं |स्वशिष्यं प्रत्यामन्त्रणवाक्यं, अत्रैवोपसंहारमाह-एगे एचमाहंसु'१, एके पुनरेवमाहुः यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणे- स्मिन्नर्देऽष्टादशमुहर्त्तानन्तर:-अष्टादशभ्यो मुहूर्तेभ्योऽनन्तरो-मनाकू हीनो हीनतरो वा यावत्सप्तदशभ्यो मुहर्तेभ्यः | किश्चित्समधिकप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तराःऽप्यष्टादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति, यदा चोत्तरार्धेऽष्टादश मुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा दक्षिणाद्धेऽपि अष्टादशमुहुनिन्तरो दिवसः, तथा यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिवाणा सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तराद्धेऽपि सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसः, यदा उत्तरार्दै सप्तदशमुहू निन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणा.ऽपि सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसः, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण एकैकमुहूर्चहान्या परिहातव्यं, परिहानिप्रकारमेवाह-सोलसे'त्यादि, प्रथमतः पोडशमुहूर्तानन्तरो दिवसो वक्तव्यः, ततः पञ्चदशमुहर्ता| नन्तरस्तदनन्तरं चतुर्दशमहत्तानन्तरः, ततः त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरः, एतेषां हि मतेन न कदाचनापि परिपूर्णमुहर्तप्रमाणो दिवसो भवति, ततः सर्वत्रानन्तरशब्दप्रयोगः, द्वादशमुहूर्त्तानन्तरसूत्रं तु साक्षाद्दर्शयति,"ता जया 'मित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा. द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसस्तदा उत्तरार्दैऽपि द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसः, यदा चोत्तरार्द्ध द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणाद्धेऽपि द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसः, तदा चाष्टादशमुहूत्तानन्तरादिदिवसकाले जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि नो-नैव सदा-सर्वकालं पश्चदशमुहतों दिवसो भवति नापि सदा पश्चदश मुहूर्ती रात्रिः, कुत इत्याह-'अणवहिया णमित्यादि, अनवस्थितानि-अनियतप्रमाणानि, अनुक्रम [३९]] ~184~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ----- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] प्राणमिति वावयालंकारे खलु स्त्र-मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिंदिवानिप्रज्ञप्तानि, हे श्रमण हे आयुष्मन् !, अत्रोप सहारमाह-एगे एवमाहंमु'२, एके पुनरेवमाहुः-ता' इति पूर्ववत् ,जम्बूद्वीपे द्वीपे यदा दक्षिणार्थेऽष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति तदा उत्तरा द्वादशमुहर्ता रात्रिः, यदा चोत्तराद्धेऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा दक्षिणा द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः, तथा यदा दक्षिणाढे 'अट्ठारसमुहुत्ताणतरे'त्ति अष्टादशभ्यो महूर्तेभ्योऽनन्तरो-मनाक् हीनो हीनतरोयावत्सप्सद श यो महतेभ्यः किश्चिदधिक एवंप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्ध द्वादशमुहर्ता रात्रिः, यदाच उत्तरार्धे अष्टादश मुहूर्ता रात्रिः तदा दक्षिणार्धे द्वादशमुहत्तों दिवसः यदा चोत्तराद्धेऽष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसः तदा दक्षिणार्डे द्वादश मुहू रात्रिः, एवं'मित्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत्रयो दशमुहूर्तानन्तरदिवसवक्तव्यता एकैकस्मिंश्च सप्तदिशादिके सङ्ग्याविशेषे सकलैर्मुहत्तैरनन्तरैश्च किश्चिदूनद्वाँ द्वावालापको वक्तव्यो, सर्वत्र च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तद्यथा-'जयार गणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणहे सत्तरसमुहत्ते दिवसे भवइ तयाणं उत्तरढे दुवालसमुहुत्ताराई भवति, जया णं उत्तरहे सत्तरसमुहुत्ते। दिवसे भवइ तया णं दाहिण हे दुवालसमुहत्ता राई भवति, जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणहृसत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे हवइ तथा |णं उत्तरहे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, जया णं उत्तरहे सत्तर समुहुत्ताणतरे दिवसे हवा तया णं दाहिणद्वे दुवालसमुहुत्ता राई |X भवई' एवं षोडशमुहूर्तपोड शमुहू नन्तरपञ्चदशमुहूर्तपश्चदशमहूर्त्तानन्तरचतुर्दशमुहूर्तचतुर्दशमुहानन्तरत्रयोदशमुहूर्त त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरद्वादशमुहर्जगता अपि नव आलापका वक्तव्याः, द्वादशमुहूर्त्तानन्तरगतं आलापकं साक्षादाह-'जया ण'मित्यादि, यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाढे द्वादशमुहूर्त्तानन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तरार्दै द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, अनुक्रम [३९] % AX weredturarycom ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३९] ----- प्राभृतप्राभृत [-1, मूलं [२९] प्राभृत [८]), ------ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ८८ ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - यदा चोत्तरार्द्धं द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति तदा दक्षिणार्थे द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति) यदा चोत्तरार्द्धे द्वादशमुहूर्त्ता५ नन्तरो दिवसो भवति तदा दक्षिणा द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, तदा चाष्टादश मुहूर्त्तानन्तरादिदिवस काले जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं'ति पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि नैवास्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुत्त दिवसो भवति, नाप्यस्येतत् यथा पञ्चदशमुहर्त्ता रात्रिर्भवतीति, कुत इत्याह-'वोच्छिन्ना णमित्यादि, व्यवच्छिन्नानि णमिति वाक्वाकारे खलु तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि रात्रिन्दिवानि प्रज्ञतानि, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु ३' एताश्च तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः, भगवतोऽननुमतत्वात्, अपिच-ये तृतीया वादिनः सदैव रात्रिं द्वादशमुहूर्त्त प्रमाणामिच्छन्ति तेषां प्रत्यक्षविरोधः, प्रत्यक्षत एवं हीनाधिकरूपाया रात्रेरुपलभ्यमानत्वात् । सम्मति स्वमतं भगवानुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् जम्बूद्वीपे २ सूर्यो यथायोगं मण्डलपरिभ्रम्या भ्रमन्तौ मेरोरुदकप्राच्यां-उत्तरपूर्वस्यां दिशि उद्गच्छतः, तत्र चोद्गत्य प्राग्दक्षिणस्यां - दक्षिणपूर्वस्यामागच्छतः, ततो भरतादिक्षेत्रापेक्षया प्राग्दक्षिणस्यां दक्षिणपूर्वस्यामुद्गत्य दक्षिणापायां-दक्षिणा परस्यामागच्छतस्तत्रापि च दक्षिणापरस्याम पर विदेहक्षेत्रापेक्षया उद्गस्यापागुदीच्यां अपरोत्तरस्यामागच्छतः, तत्रापि चापरोत्तरस्यामैरावतादिक्षेत्रापेक्षया उद्गस्य उदक्प्राच्यां - उत्तरपूर्वस्यामागच्छतः, एवं तावत्सामान्यतो द्वयोरपि सूर्ययोरुदयविधिरुपदर्शितो, विशेषतः पुनरयं यदैकः सूर्यः पूर्वदक्षिणस्यामुद्गच्छति तदा अपरोऽपरोत्तरस्यां दिशि समुद्गच्छति, दक्षिणपूर्वोतश्च सूर्यो भरतादीनि क्षेत्राणि मेरुदक्षिणदिग्वसति मण्डलभ्रम्या ४ Eucation Internation For Pale Onl ~ 186~ ८ प्राभृते उदयसंस्थितिः सू २९ ॥ ८८ ॥ waryru Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ----- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] परिचमन प्रकाशयति, अपरोऽपरोत्तरस्यामुद्गतः सन् तत ऊर्च मण्डलपरिधम्या परिभ्रमन ऐरावतादीनि क्षेत्राणि मेरोरुत्तरदिग्भावीनि प्रकाशयति, भारतश्च सूर्यो दक्षिणापरस्यामागतः सन्नपरविदेहक्षेत्रापेक्षया उदयमासादयति, पेरावत: सूर्यः पुनरुत्तरपूर्वस्थामागतः पूर्व विदेहापेक्षया समुद्गच्छत्ति, ततो दक्षिणापरस्यामुद्गतः सन् तत ऊर्ध्वं भण्डलञ्चम्या : परिधमन् अपरविदेहान् प्रकाशयति, उत्तरपूर्वस्यामुद्तस्तु तत ऊर्ध्वं मण्डलगत्या चरन् पूर्व विदेहानवभासवति, तत एष पूर्वविदेहप्रकाशको भूयो दक्षिणपूर्वस्यां भरतादिक्षेत्रापेक्षयोदयमासादयति, अपरविदेहप्रकाशकस्त्वपरोत्तरस्यामिति । तदेवं जम्बूद्वीपे सूर्ययोरुदयविधिरुक्तः, सम्प्रति क्षेत्रविभागेन दिवसरात्रिविभागमाह-ता जया णमित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाढे दिवसो भवति तदा उत्तरार्दैऽपि दिवसो भवति, एकस्व सूर्यस्य दक्षिणदिशि परिभ्रमणसम्भवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमुत्तरदिशि परिभ्रमणसंभवात् , यदा चोत्तरार्धेऽपि दिवसस्तदा जम्बूद्वीपे | द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपचत्थिमेणं'ति पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि रात्रिर्भवति, तदानीमेकस्यापि सूर्यस्य तत्राभावात् 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि दिवसो भवति तदा पश्चिमायामपि दिशि दिवसो भवति, एकस्य सूर्यस्य पूर्वदिग्भावसम्भवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमपरस्यां दिशि भावात् , एतच्च प्रागेव भावितं, यदा च पश्चिमायामपि दिशि दिवसो भवति तदा जम्बूदीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे 'ति ४ उत्तरतो दक्षिणतश्च रात्रिर्भवति, 'ता जया 'मित्यादि तत्र यदा णमिति प्राग्वत्, जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाढ़ें उत्क पकः-उत्कृष्टोऽष्टादशमुहर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तराद्धेऽपि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, उत्कृष्टो अनुक्रम [३९] ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ---- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल० सूत्रांक [२९] SAGASEDCASSAGAR ह्यष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारित्वे, तत्र च यदैकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारी भवति तदा अप- प्राभृते रोऽप्यवश्यं तत्समया श्रेण्या सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारी भवतीति दक्षिणार्दै उत्कृष्टदिवससम्भवे उत्तराद्धेऽप्युत्कृष्टदिवस-1 उदयसंसम्भवः, यदा उत्तरारें उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिम- स्थितिः पञ्चत्थिमे ण'ति पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतोः सूर्ययोः सू२९ सर्वत्रापि रात्रेदशमुहर्सप्रमाणाया एव भावात् , तथा 'जया ण'मित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि उत्कर्षका उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूचों दिवसो भवति तदा मन्दरपर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसः, कारणं दक्षिणोत्तरार्द्धगतं प्रागुक्तमनुसरणीयं, यदा च मन्दरपर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे ण'ति उत्तरतो दक्षिणतश्च जघन्या द्वादशमुहर्ता रात्रिः, अत्रापि कारणं पूर्वपश्चिमार्द्धरात्रिगतं प्रागुक्तमनुसरणीयं, एव'मित्यादि, एवम्-उकेन प्रकारेण पते-15 मानानन्तरोदितेन गमेन-आलापकगमेन वक्ष्यमाणमपि नेतव्यं, किं तद् वक्ष्यमाणमित्याह-'अट्ठारसमुहुसाणतरह त्यादि, यदा मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणोत्तरार्द्धयोः पूर्वपश्चिमयोर्वा अष्टादशमुहानन्तर:-सप्तदशभ्यो मुहुर्तेभ्य ऊर्चामा किश्चिन्यूनाष्टादशमुहर्त्तप्रमाणो दिवसः तदा पूर्वपश्चिमयोदक्षिणोत्तरार्द्धयोर्वा सातिरेकद्वादशमुहतों रात्रिर्भवतीति, एवंद्र शेषाण्यपि पदानि भावनीयानि, सूत्रपाठोऽपि प्रागुक्तालापकगमानुसारेण स्वयं परिभावनीयः, स चैवम्-'ता जया MI॥ ८९ बुद्दीवे दीवे दाहिणढे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे हवइ तयाणं उत्तरहृवि अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जया णं उत्तरहे | अनुक्रम [३९] awranasurary.orm ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ---- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे हवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पदयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं सातिरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवइ, ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स पुरच्छिमेणं अठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे हवइ तया णं पञ्चस्थिमेणं अहारसमुहत्ताणतरे दिवसे हवइ, जया णं पञ्चस्थिमेणवि अहारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीचे दीवे मदरस्स पबयस्स उत्तरदाहिणे णं साइरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं सप्तदशमुहुर्तदिवसादिप्रतिपादका अपि सूत्रालापका भावनीयाः, 'ता जया 'मित्यादि तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा वर्षाणां-वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते-भवति तदा उत्तरार्थेऽपि वर्षाणां प्रधमः समयो भवति, समकालनैयत्येन दक्षिणा उत्तरार्द्धं च सूर्ययोश्चारभावात् , यदा चोत्तरार्द्ध वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं' पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि 'अर्णतरपुरक्खडे'त्ति अनन्तरं-अव्यवधानेन पुरष्कृतः-अग्रेकृतो यः सोऽनन्तरपुरस्कृतोऽनन्तरं द्वितीय इत्यर्थः, तस्मिन् 'कालसमयंसित्ति समयः सङ्केत्तादिरपि भवति ततस्तव्यवच्छेदार्थ कालग्रहणं, कालश्चासौ समयश्च कालसमयः, तत्र वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते-भवति, किमुक्त भवति !-यस्मिन् समये दक्षिणाोत्तरार्द्धयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तस्मादूर्ध्वमनन्तरे द्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा 'ण'मिति प्राग्वत् जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति, सर्वकालनयत्येन पूर्वपश्चिमयोरपि सूर्ययोश्चारचरणात्, यदा च पश्चिमायामपि दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा जम्बूद्वीपे अनुक्रम [३९] ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ---- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सू२९ सूर्यप्रज- द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरदाहिणे णति उत्तरतो दक्षिणतश्च अनन्तरम्-अव्यवधानेन पश्चात्कृतोऽनन्तरपश्चात्कृतः:प्राभूते प्तिवृत्तिः तस्मिन् कालसमये वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपन्नो भवति, भूत इत्यर्थः, इह यस्मिन् समये दक्षिणाः उत्तरार्द्धं च उदयस(मल.) वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदनन्तरे अग्रेतने द्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाणां प्रथमः समयो भवतीति, पता॥९ ॥ ४वन्मात्रोक्तावपि यस्मिन् समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति ततोऽनन्तरे पश्चाद्भाविनि समये दक्षिणो-IX त्तरार्द्धयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवतीति गम्यते तकिमर्थमस्योपादान ?, उच्यते, इह क्रमोत्कमाभ्यामभिहितोऽर्थः अपश्चितज्ञानां शिष्याणामतिसुनिश्चितो भवति ततस्तेषामनुग्रहाय तदुक्तमित्यदोषः, 'जहा समय'इत्यादि, यथा समय उक्त तथा आवलिका प्राणापानी स्तोको लबो मुहत्तोऽहोरात्रः पक्षो मास ऋतुश्च-प्रावृडादिरूपो वकव्या, एवं च समयगतमालापकमादिं कृत्वा दश आलापका एते भवन्ति, ते च समयगतालापकरीत्या स्वयं परिभावनीयाः, तद्यथा-'जया ण जंबुद्दीवे हीवे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तया णं उत्तरद्धेवि वासाणं पढमा आवलिया पडिवजह, जया | उत्तरहे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पपयस्स पुरच्छिमपञ्चस्थिमे थे अणंतरलापुरक्खडकालसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, ता जया णं जंबुद्दीवे मंदरस्त पवयस्स पुरछिमे णं वासाणं ॥९ ॥ पढमा आवलिया पडियाजा [लया णं पञ्चत्थिमेणं पढमा आवलिया पडिवजन २] तया णं जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पक्ष्यस्स उत्तरदाहिणे णं अर्णतरपच्छाकटकालसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवन्ना भवई' इदं च प्रागुक्तव्याख्यानुसारेण व्याख्येयं, नवरं 'आवलिया पडिवजईत्ति आवलिका परिपूर्णा भवति, शेष तथैव, एवं प्राणापानादिका अन्यालापका अनुक्रम [३९] ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------- ----- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] भणनीयाः 'एए'इत्यादि, यथा वर्षाणां-वर्षाकालस्य एते अनन्तरोदिताः समयादिगता अत्र आलापका भणिताना 'एवं हेमंताणं'ति शीतकालस्य, 'गिम्हाणं ति ग्रीष्मकालस्योष्णकालस्येत्यर्थः, प्रत्येकं समयादिगता दश दश आलापका भणितव्याः, अयनगतं त्वालापर्क साक्षात्पठति-ता जया णमित्यादि सुगम, 'जहा अयणे इत्यादि,यथा अयने आलापापको भणितः तथा संवत्सरे युगे-वक्ष्यमाणस्वरूपे चन्द्रादिसंवत्सरपञ्चकात्मके वर्षशते वर्षसहने वर्षशतसहने पूर्वाङ्गे पूर्व एवं 'जाव सीसपहेलिय'त्ति, एवं यावस्करणादमून्यपान्तराले पदानि द्रष्टव्यानि, 'तुडियंगे तुडिए अडडंगे अडडे अव-15 वंगे अववे हूहूयंगे हरये उप्पलंगे उप्पले पउमंगेपउमे नलिणंगे नलिणे अत्यनिउरंगे अत्यनिउरे अउयंगे अउए नऊ अंगे नउए चूलियंगे चूलिए सीसपहेलियंगे' इति, अत्र चतुरशीतिवर्षलक्षाण्येक पूर्वाङ्ग, चतुरशीतिः पूर्वाङ्गलक्षाणि एक पूर्वमेवं पूर्वः पूर्वी राशिचतुरशीतिलभैर्गुणित उत्तरोत्सरो राशिभवति, यावच्चतुरशीतिशीर्षप्रहेलिकाङ्गलक्षाणि एका शीर्षप्रहेलिका, एतावान् राशिर्गणितविषयोऽत ऊर्ध्वं गणनातीतः, स च पल्योपमादि, 'पलिओवमे सागरोवमे' अनयोः स्वरूपं सङ्घहणीटीकामायामुक्त, आलापकास्तु स्वयं वक्तव्याः, अवसर्पिण्युत्सर्पिणीविषयमालापर्क साक्षादाह-'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणा॰ऽवसप्पिणी प्रतिपद्यते-परिपूर्णा भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते, यदा उत्तरार्दै अवसर्पिणी प्रतिपद्यते-परिपूर्णा भवति, तदा दक्षिणार्धेऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते-प्रतिपूर्णा भवति, यदा उत्तरार्द्धऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि नैवा-15 रस्त्यवसर्पिणी नाप्युत्सर्पिणी, कुत इत्याह-अवस्थितो णमिति खलु तत्र पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि कालः प्रज्ञप्तो मया अनुक्रम [३९] ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ----- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ-1शेषैश्च तीर्थकरैः हे श्रमणायुष्मन् ! ततस्तत्रावसप्पिण्युत्सर्पिण्यभावः, 'एवमुस्सप्पिणीवित्ति, एवमुक्केन प्रकारेणोस्सप्तिवृत्ति: ८प्राभृते पिण्यपि-उत्सपिण्यालापकोऽपि वक्तव्या, स चैवम्-'ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जइ तया & लवणादौ (मल०) णं उत्तरद्धेवि पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जइ, जया णं उत्तरद्धेवि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे समयादि ॥९१॥ मदरस्स पबयस्स पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं नेव अस्थि अवसप्पिणी णेवत्थि उस्सप्पिणी अवडिए णं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो!' तदेवं जंयुद्धीपवक्तव्यतोका, सम्पति लवणसमुद्रवक्तव्यतामाह-'लवणे णं समुद्दे' इत्यादि, तहेव'त्ति यथा जम्बूद्वीपे उद्गम-15 | विषये आलापक उका तथा लवणसमुद्रेऽपि वक्तव्यः, स चैवम्-'लवणे गं सूरिया उईणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिण-17 मागच्छंति, पाईणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपाईमागच्छति, दाहिणपाईणमुग्गच्छ पाईणउईणमागच्छति, पाईणनईण-15 मुग्गच्छ उईणपाईणमागच्छति' इदं च सूत्रं जम्बूद्वीपगतोद्गमसूत्रवत् स्वयं परिभावनीयं, नवरमत्र सूर्योश्चत्वारो वेदि-ल तव्याः, 'चत्तारि य सागरे लवणे' इति वचनात् , ते च जम्बूद्वीपगतसूर्याभ्यां सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः, तथथा-दो ४ सूर्यों एकस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिबद्धी द्वौ द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य, तत्र यदकः सूर्यो जम्बूका द्वीपे दक्षिणपूर्वस्यामुगच्छति तदा तत्समश्रेण्या प्रतिबद्धौ द्वौ सूयौं लवणसमुद्रे तस्यामेष दक्षिणपूर्वस्यामुदयमागच्छतस्तदैव जम्बूद्वीपगतेन सूर्येण सह तत्समवेण्या प्रतिवद्धौ द्वावपरौ लवणसमुद्रे अपरोत्तरस्यां दिशि उदयमासादयता, तत उदयविधिरपि योद्धयोः सूर्ययोर्जम्बूद्वीपसूर्ययोरिव भावनीयः, तेन दिवसरात्रिविभागोऽपि क्षेत्रविभागेन तथैव द्रष्टव्यः, तथा चाहता जया ण'मित्यादि सुगम, नवरं 'जहा जंबुद्दीवे दीवे'इत्यादि, यथा जम्बूद्वीपे द्वीपे 'पुरच्छिमपच 295ERABASE अनुक्रम [३९]] ~192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३९] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [२९] प्राभृत [८]), ------ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः च्छिमे णं राई भवइ' इत्यादिकं सूत्रमुक्तं यावदुत्सर्पिण्यव सर्पिण्या लापकस्तथा लवणसमुद्रेऽप्यन्यूनातिरिक्तं समस्तं भणितव्यं, नवरं जम्बूद्वीपे द्वीपे इत्यस्य स्थाने लवणसमुद्रे इति वक्तव्यमिति शेषः । तदेवं लवणसमुद्रागताऽपि वक्तव्यतोता, सम्प्रति धातकीखण्डविषयां तामाह-'घायइसंडे णं सूरिया' इत्यादि, अत्राप्युद्गमविधिः प्राग्वद् भावनीयः, नवरमत्र सूर्या द्वादश, 'धायइसंडे दीवे वारस चंदा य सूरा य' इति वचनात्, ततः षट् सूर्या दक्षिणदिकुचारिभिर्जम्बूद्वीपगतलवण समुद्रगतैः सूर्यैः सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः षट् उत्तरदिक्चारिभिः सम्प्रत्यत्रापि क्षेत्रविभागेन दिवस त्रिविभागमाह'ता जया ण'मित्यादि, यदा घातकीखण्डे द्वीपे दक्षिणार्जे दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धेऽपि दिवसो भवति, यदा उत्तरार्द्धेऽपि दिवसस्तदा धातकीखण्डे मन्दरयोः पर्वतयोः पूवार्द्ध पश्चिमार्द्धगतयोः प्रत्येकं पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिभवति, 'एवमित्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण यथा जम्बूद्वीपे उक्तं तथैवात्रापि वक्तव्यं तच्च तावद्यावदुत्सर्पिण्यालापकः । 'कालोए' इत्यादि, कालोदे समुद्रे यथा लवणेऽभिहितं तथैवाभिधातव्यं, नवरं कालोदे सूर्या द्विचत्वारिंशत्, तत्रैकविंशतिर्दक्षिणदिक्चारिभिर्जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डगतैः सह समश्रेण्या सम्बद्धा एकविंशतिरुत्तर दिक्चारिभिः, तत उदयविधिर्दिवसरात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन तथैव वेदितव्यः । साम्प्रतमभ्यन्तरपुष्करवरार्द्धवक्तव्यतामाह-'ता अभितरपुक्खरद्धे' इत्यादि, इदमपि सूत्रं सुगमं, 'तहेब'त्ति तथैव जम्बूद्वीप इव वक्तव्यं, नवरमत्र सूर्या द्वासप्ततिः, तत्र पत्रिंशदक्षिणदिक् चारिभिर्जम्बूद्वीपादिगतैः सह समश्रेण्या प्रतिबद्धाः षत्रिंशदुत्तरदिक् चारिभिः तत उदयविधिर्दिवस Eucation International For Parts Use Only ~ 193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ----- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ॐ सूर्यप्रज्ञ- रात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन प्राग्वदवसेयः, तथा चाह-'ता जया ण'मित्यादि, सुगमम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचि- ९ प्राभृते प्तिवृत्तिःतायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां अष्टमं प्राभृतं समाप्तम् ॥ लेश्या (मल०) तदेवमुक्तमष्टमं प्राभृतं, सम्पति नवममारभ्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः-'कतिकाष्ठा पौरुषीच्छायेति ततस्त॥१२॥ द्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कतिकडं ते सुरिए पोरिसीच्छायं णिवत्तेति आहितेति वदेजा, तत्थ खलु इमाओ तिषिण पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला संतप्पति, ते णं पोग्गला संतप्पमाणा तदर्णतराई बायराइंपोग्गलाई संतातीति एस णं से समिते तावक्खेत्ते एगे एवमा-18 हंसु, एगे पुण एवमाहंसु-ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला नो संतप्पंति, ते पोग्गला असंतप्पमाणा तदर्णतराई बाहिराई पोग्गलाई णो संतावतीति एस णं से समिते तावक्खेसे पगे। एवमाहंसु २, एगे पुण एवमासु, ताजे पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसति ते णं पोग्गला अत्थेगतिया णो संतप्पंति अत्थेगतिया संतप्पंति, तत्थ अत्धेगहआ संतप्पमाणा तवणंतराइं बाहिराई पोग्गलाई अत्येग पा ॥९ ॥ तियाई संतावेति अत्यंगतियाई णो संतावेंति, एस णं से समिते तावखेस, एगे एवमाहंसु ३। वयं पुण एवं वदामो, ता जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेसाओ बहिसा (उच्छूडा) अभि अनुक्रम [३९] अत्र अष्टमं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ नवमं प्राभृतं आरभ्यते ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] -+SHARA |णिसवाओ पताति, एतासि णं लेसाणं अंतरेसु अण्णतरीओ छिपणलेसाओ संमुच्छंति, तते ण ताओ दछिण्णलेस्साओ संमुच्छियाओ समाणीओ तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई संतावेंतीति एस णं से समिते तावक्खेत्ते ॥ (सूत्रं ३०) "ता कइकहते'इत्यादि पूर्ववत् 'कति' किंप्रमाणा काष्ठा-प्रकों यस्याः सा कतिकाष्ठा तां कतिकाष्ठां-किंप्रमाणां। लाते' तव मते सूर्यः 'पौरुषी' पुरुषे भवा पौरुषी तो पौरुषी छायां निवर्तयति, निवर्तयन्नाख्यात इति वदेत् !, किंप्रमाणां | पौरुषीछायामुत्पादयन् सूर्यों भगवान् त्वया आख्यात इति वदेदिति स पार्थः, एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः। प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-तस्याः पौरुष्याः छायायाः प्रमाणचिन्तायां प्रथमतस्तावदिमास्तापक्षेत्रस्वरूपविषयाः खलु तिखः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तत्र' तेषां त्रयाणां परतीथिकानां मध्ये एके-प्रथमा एवमाहु-15 ताजे ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , ये णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गलाः सूर्यशलेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्ते-सन्तापमनुभवन्ति, सन्तप्यन्त इति कर्मकत्तेरि प्रयोगः, ते च पुद्गलाः सन्तप्यमानाः तद नन्तरान्-तेषां सन्तप्यमानानां पुद्गलानामव्यवधानेन ये स्थिताः पुद्गलास्ते तदनन्तरास्तान् बाह्यान् पुद्गलान् , सूत्रे च नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात्, सन्तापयन्ति, इतिशब्दः प्रस्तुतवक्तव्यतापरिसमाप्तिसूचका, 'एस 'मित्यादि। एतत्-एवंस्वरूप 'से' तस्य सूर्यस्य समित-उपपन्नं तापक्षेत्र, अत्रोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु' १, एके पुनरेवमाहुः, 'ता इति पूर्ववत्, ये णमिति प्राग्वत् पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गला न सन्तप्यन्ते-न सन्तापमनुभव मित, अनुक्रम [४०] ॐॐॐकार ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत माभूते लेश्या सू ३० सुत्रांक सूर्यप्रज्ञ- यश्च पीठफलकादीनां सूर्यलेश्यासंस्पृष्टानां सन्ताप उपलभ्यते स तदाश्रितानां सूर्यलेश्यापुद्गलानामेव स्वरूपेण, न पीठ- प्तिवृत्तिः फलकादिगतानां पुद्गलानामिति न प्रत्यक्षविरोधः, ते णमिति प्राग्वत्, पुद्गला असन्ताप्यमानास्तदनन्तरान् बाह्यान् (मल.) पुद्गलान्न सन्तापयन्ति-नोष्णीकुर्वन्ति, स्वतस्तेषामसन्तप्तत्वात् , इतिशब्दः प्राग्वत् व्यक्तः, 'एस ण'मित्यादि, एतत्॥१३॥ एवंस्वरूप 'से' तस्य सूर्यस्य तापक्षेत्र समितं-उपपन्नमिति, अत्र उपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' २, एके पुनरेवमाहुः, ता इति पूर्ववत् , णमिति प्राग्वत् ये पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गला अस्तीति प्राकृतत्वाग्निपातत्वाहा | सन्ति एककाः केचन पुद्गला ये सूर्यलेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्ते-सन्तापमनुभवन्ति, तथा सन्त्येककाः केचन पुद्गला ये न सन्तप्यन्ते, तत्र ये सन्त्येककाः सन्तप्यमानास्ते तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् अस्त्येतत् यत् एककान्-कांश्चित्सन्तापयन्ति, अस्त्येतद्यदेककान्-कांश्चिम सन्तापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववत्, 'एस णमित्यादि, एतत्-एवंस्वरूपं 'से' तस्य सूर्यस्य समित-उपपन्नं तापक्षेत्र, अत्रोपसंहारमाह-एगे एचमाहंसु'एतास्तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपास्तथा च एता| काव्युदस्य भगवान् भिन्न स्वमतमाह-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेव-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता| जईए (जाओ इमाओ) इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , या इमाःप्रत्यक्षत उपलभ्यमानाश्चन्द्रसूर्याणां देवानां सत्केभ्यो विमानेभ्यो IMलेश्या उच्छूढाः, एतदेव ब्याचष्टे-अभिनिःसृतास्ताः प्रतापयन्ति-बाह्यं यथोचितमाकाशवर्ति प्रकाश्य प्रकाशयन्ति, एतासां चेत्थं विमानेभ्यो निम्सूतानां लेश्यानामन्तरेषु-अपान्तरालेष्वन्यतराश्छिन्नलेश्याः सम्मूर्छन्ति, ततस्ता मूलच्छिना लेश्याः। सम्मूपिछताः सत्यस्तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् संतापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववत्, 'एस 'मित्यादि, एतत्-एवंस्वरूप, अनुक्रम [४०] IK९३ ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: BRE प्रत सूत्रांक [३०] से तस्य सूर्यस्य समित-उपपन्नं तापक्षेत्रमिति । तदेवं तापक्षेत्रस्य स्वरूपसम्भव उक्तः, सम्प्रति किंप्रमाणां पोरुषीछायां है निवर्तयतीत्येतत् बोडुकामः पृच्छन्नाह| ता कतिकडे ते सूरिए पोरिसीकछायं णिवत्तेति आहितेति वदेज्या ?, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवसीओ'पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेइ आहितेति वदेजा, | एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुत्तमेव सरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेति आहितेति वदेजा, एतेणं अभिलावेणं तवं, ता जाओ चेव ओयसंठितीए पणुचीसं पडिवत्तीओ ताओ चेव णेतवाओ, जाव अणुउस्सप्पिणीमेव सूरिए पोरिसीए छायं णिवत्तेति आहिताति वदेजा, एगे एवमाहंसु । वयं पुण एवं ब-4 लादामो-ता सरियस्स णं जसं च लेसंच पडुच छाउद्देसे उच्चत्तं च छायं च पडुच लेसुरेसे लेसं चायं च पडच्च उच्चत्तोडेसे, तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता अस्थि णं से दिवसेजंसि पणं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसीच्छायं निवत्तेइ, अत्थि णं से दिवसे जसिणं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसीच्छायं |णिवत्तेति एगे एवमाहंसु१,एगे पुणएवमासुता अस्थि णं से दिवसे जंसिणं दिवसंसि सरिए दुपोरिसीच्छायं |णिवत्तेति अस्थि णं से दिवसे जंसि दिवसंसि सूरिए नो किंचि पोरिसिच्छायं णिवत्तेति २, तत्थ जे ते एव माहंसु ता अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि मृरिए चउपोरिसियं छायं णिवत्तेति, अस्थि णं से दिवसे दसिणं दिवसंसि मूरिए दोपोरिसियं छायं निवत्तेइ ते एवमासु, ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं अनुक्रम [४०] A KER weredturary.com ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकहपत्ते उक्कोसिए अट्ठारसमुहुसे दिवसे भवति, जहणिया दुवा-1 ९माभूते तिवृत्तिः लसमुहत्ता राई भवति, तेर्सि च णं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसीयं छायं निबत्तेति, ता उग्गमणमुहुर्ससि य* पौरुषीछा(मल. अस्थमणमुहत्तंसि य लेसं अभिवढेमाणे नो चेव णं णिबुढेमाणे, ता जता णं मूरिए सबबाहिरं मंडलं उब-1 या सू३१ संकमित्ता चारं चरति तताणं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवाल॥९४॥ समुहुत्ते दिवसे भवति, तसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं निवत्तेइ, तं०-उग्गमणमुहुरासिय अस्थमणमुहसि य, लेसं अभिवढेमाणे नो चेव णं निवुहेमाणे १, तत्थ णं जे ते एवमासु ता अस्थि से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेइ अस्थि णं से दिवसे जंसि र्ण दिवसंसि सूरिए .के.सा, Xणो किंचि पोरिसियं छायं णिवत्तेति ते एवमाहंसु, ता जता णं सरिए सबभंतरं मंडलं पघसंकमित्ता चार चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसिए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, तं०-उग्गमणमुहसंसि अस्थमणमुहुरासि प लेसंग अभिवढमाणे णो व पंणिब्बुहमाणे, ता जया णं सरिए सत्वबाहिरं मंडलं उघसंकमिसा चारं चरति तता|४|॥ ९४ णं उत्तमकढपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवति तंति च णं दिवसंसि सरिए णो किंचि पोरिसीए छायं णिवत्तेति, तंब-जग्गमणमुहतंसि य अस्थमणमुहुरासि य, नो चेव क लेसं अभिवुहेमाणे वा निबुड्डेमाणे वा, ता कइकट्ठ ते सरिए पोरिसीच्छायं निवसई आहियत्तिक-४ कोचा अनुक्रम [४१] ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [९], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], ------------ ---- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] ट्राजा, तत्थ इमाओ छण्णउइ पडिवत्तीओ पपणत्ताओ, तत्धेगे एवमाहंसु, अस्थि णं ते से देसे जंसि देससि सरिए एगपोरिसीयं छायं निवत्तेइ एगे एवमासु, एगे पुण एवमासु, ता अस्थि णं से देसे जंसि देसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, एवं एतेणं अभिलावेणं तवं, जाव छण्णउतिं पोरिसियं छायं| [णिवत्तेति, तत्थ जे ते एचमासु ता अत्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए एगपोरिसियं छायं णिवत्तेति ते एवमासु ता सरिपस्स णं सबहेडिमातो सूरप्पडिहितो यहित्ता अभिणिसट्टाहिं लेसाहिं ताडिज्ज- Pमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावतियं सरिए उहूं उपतेर्ण एच तियाए एगाए अद्वाए एगेणं छायाणुमाणप्पमाणेणं उमाए तत्थ से सरिए एगपोरिसीयं छायं णिवसेति, तस्थ जे ते एषमाहंसु, ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं णिवत्तेति, ते एवमान कासु-ता सूरियस्स गं सबहेडिमातो मरियपडिधीतो बहित्ता अभिणिसहिताहिं लेसाहिं ताडिजमाणीहिं| इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातोभूमिभागातो जावतियं सूरिए उहुं उच्चत्तेणं एवतियाहिं दोहिं अद्धाहिं दोहिं छायाणुमाणप्पमाणेहिं उमाए एत्व णं से सूरिए दुपोरिसियं छायं णिवत्तेति, एवंणेयर जाव तत्थ जे ते एवमासु ता अत्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छपणउतिं पोरिसियं छायं णिवत्तेत्ति ते एवमाहंसु-ता सरियस्स णं सबहिडिमातो सूरप्पडिधीओ बहित्ता अभिणिसट्ठाहिं लेसाहिं ताडिजमाणीहिं इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो जावतियं मूरिए उहुं उच्चत्तेणं एवतियाहिं अनुक्रम [४१] ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [४१] ----- प्राभृतप्राभृत [-1, मूलं [३१] प्राभृत [९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ९५ ॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - छष्णवतीए छायाणुमाणुप्पमाणेहिं उमाए एत्थ णं से सूरिए छण्णउतिं पोरिसियं छायं णिवत्तेति एगे एव९ प्राभृते पौरुपीछा• माहंसु, वयं पुण एवं वदामो, सातिरेगअडणद्विपोरिसीणं सूरिए पोरिसीछायं णिवन्तेति, अवद्धपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा ?, ता तिभागे गते वा सेसे वा, ता पोरिसी णं छाया दिवसस्स किंवा सू ३१ गते वा सेसे वा ?, ता चभागे गते वा सेसे वा, ता दिवद्धपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा ?, ता पंचमभागे गते वा सेसे वा, एवं अद्धपोरिसिं छोढुं पुच्छा दिवसस्स भागं छोढुं वाकरणं जाव ता अद्धअणासहिपोरिसीछायादिवसस्स किं गते वा सेसे वा ?, ता एगूणवीस स्वतभागे गते वा सेसे वा, ता अउणसद्विपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा बाबीससहस्सभागे गते वा सेसे वा, ता सातिरेगअउणसद्विपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा?, ता णत्थि किंचि गते वा सेसे वा, तत्थ खलु इमा पणवीस निविट्ठा छाया पं० तं०-खंभछाया रजुछाया पागारछाया पासायछाया उबग्गछाया उच्चत्तछाया | अणुलोमछाया आरुभिता समा पडिहता खीलच्छाया पक्खच्छाया पुरतोउद्या पुरिमकंठ भाउवगता पच्छि मकंठ भाउवगता छायाणुवादिणी किट्टाणुवादिणाछाया छायछाया (गोलछाया तत्थ णं गोलच्छाया अड विहा) पं० तं०- गोलच्छाया अवद्धगोलच्छाया गाढलगोलछाया अवगाढलगोल छाया गोलावलिच्छाया अबगोलावलिच्छाया गोलपुंजछाया अवद्धगोलपुंजछाया ॥ ( सूत्रं ३९ ) ॥ णवमं पाहुडं समत्तं ॥ Education intemat For Patron ~200~ ।। ९५ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [९], -------------------- प्राभृतप्राभूत --------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] SARALES 'ता कइकट्ठ ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कतिकाष्ठां-किंप्रमाणां भगवन् ! त्वया सूर्यः पौरुषीच्छायां निवर्तयना-II ख्यात इति वदेत् , एवमुके भगवान् प्रथमतो लेश्यास्वरूप विषये यावन्त्यः परतीथिकानां प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-तत्व खलु'इत्यादि, तब-तस्यां पौरुष्यां छायायां विषये लेश्यामधिकृत्य खल्विमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-तत्र-तेषां पञ्चविंशतेः परतीथिकानां मध्ये एके एवमाहुः-ता इति पूर्ववत् , अनुसमयमेव-प्रतिक्षणमेव सूर्यः पौरुपीछायां, इह लेश्यावशतः पौरुषीछाया भवतीति ततः कारणे कार्योपचारात् पौरुपीछायेति लेश्या द्रष्टव्या, तां निवर्तयति निवर्तयन्नाख्यात इति वदेत् , किमुक्तं भवति -प्रतिक्षणमन्यामन्यां सूर्यो लेश्यां निवर्तयन् आख्यात इति वदेत्, अत्रोपसंहारः-'एगे एवमाहंसु, 'एवमित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन सूर्यपाठगमेन या एव ओजःसंस्थितौ पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः उक्ताः ता एव क्रमेणात्रापि नेतन्याः, तावद्यावच्चरमप्रतिपत्तिप्रतिपादकमिदं सूत्र-'एगे पुण एवमाहंसु-ता अणु-ओसप्पिणिउस्सप्पिणिमेव सूरिप'इत्यादि, मध्यमास्त्वालापका एवं ज्ञातव्या'एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहुर्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं निवत्तेइ आहियत्ति वएज्जा 'एगे एवमाहेसु' इत्यादि, तदेवं लेश्याविषयाः परप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति तद्विषयं स्वमतमाह-'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वदामः, कथमित्याह'ता सूरियस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , सूर्यस्य णमिति वाक्यालङ्कारे उच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायोद्देशः, किमुक्तं | भवति !-यथा सूर्य उचैरुचस्तरामधिरोहति यथा च मध्याह्लादूर्व नीचैस्तरामतिकामति एतदपि लौकिकव्यवहारापेक्षया उच्यते, लौकिका हि प्रथमतो दूरतरवर्तिनं सूर्य उदयमानमतिनीचैस्तरां पश्यन्ति, ततः प्रत्यासन्नं प्रत्यासन्नतरं अनुक्रम [४१] ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्रामृत -, ------------- ----- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्राभृते पौरुषीछा प्रत या सू३१ सूत्राक [३१] o भवन्तमुचैरुच्चस्तरां मध्याह्रादूर्व च क्रमेण दूरं दूरतरं भवन्तं नीचैींचैस्तरामिति, तथा यथा लेश्याः सञ्चरन्ति, तद्यथा- तिवृत्तिः अतिनीस्तरां वर्तमाने सूर्ये सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुन उपरि प्लवमाना वस्तुनो दूरतः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य | (मला वस्तुनो महती महत्तरा छाया भवति, उच्चैरुचस्तरां वर्द्धमाने सूर्ये प्रत्यासन्नाः प्रत्यासनतराः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य ॥९६॥ वस्तुनो हीना हीनतरा छाया भवति, सत एवं तथा तथा वर्तमानं सूर्यस्योच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायाया अन्यथा भवन्त्या उद्देशो ज्ञातव्यः, इह प्रतिक्षणं तत्तत्पुद्गलोपचयेन तत्तत्पुद्गलहान्या वा यत् छायाया अन्यत्वं तत्केवल्येव जानाति छमस्थस्तूद्देशतस्तत उक्तं-छायोद्देश इति, 'उत्तं च छायं च पडुच्च लेसोद्देस इति, तथा तथा विवर्त्तमानं सूर्यस्योधत्वं छायां च हीनां हीनतरामधिकामधिकतरां च तथा तथा भवन्तीं प्रतीत्य-आश्रित्य लेश्यायाः-प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रत्यासन्नं प्रत्यासन्नतरं दूर दूरतरं वा परिपतन्त्या उद्देशो ज्ञातव्या, तथा 'लेसं च छायं च पडुच उच्चत्तोडेसे इति, लेश्या-प्रकाश्यस्य वस्तुनो दूरं दूरतरमासन्नमासनतरं परिपतन्तीं छायां च हीनां हीनतरामधिकामधिकतरां च तथा तथा भवन्तीं प्रतीत्य सूर्यगतस्योच्चत्वस्य तथा तथा विवर्त्तमानस्योद्देशो ज्ञातव्यः, किमुक्तं भवति -त्रीण्यप्येतानि प्रतिक्षणमन्यथान्यथा विवर्तन्ते, तत एकस्य द्वयस्य वा तथा तथा विवर्तमानस्योद्देशत उपलम्भादितरस्याप्युद्देशतोऽवगमः कर्त्तव्य इति । तदेवं लेश्यास्वरूपमुक्कं, सम्पति पौरुष्याश्छायायाः परिमाणविषये परतीर्थिकमतिपत्तिसम्भवं कथ-I यति-तत्थे त्यादि, तब-तस्यां पौरुष्याश्छायायाः परिमाणचिन्तायां विषये खस्विमे हे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, तद्यथा-तत्रलातेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये एके एवमाहुः अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्य उगमनमुहर्ते अस्तमयमुहूचे च अनुक्रम [४१] ॥९६॥ SARERainintenarama ~202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्रामृत -, ------------- ----- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] चतुष्पौरुषी-चतुष्पुरुषप्रमाणां पुरुषग्रहणमुपलक्षणं तेन सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनश्चतुर्गुणां छायां निवर्तयति, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे उद्गमनमुहूर्ते अस्तमयमुहूर्ते च द्विपौरुषीं-द्विपुरुषप्रमाणां छायां सूर्यो निर्वर्त्तयति, अत्रापि पुरुषग्रह्णमुपलक्षणं ततः सर्वस्यापि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणां छायां निवर्तयतीति द्रष्टव्यं, अत्रोपसंहारः- एगे एकमाइंसु' १, एके पुनरेवमाहुः-ता इति पूर्ववत्, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे उद्गमनमुहूर्ते अस्तमयमुहूत्रे च सूर्यो द्विपौरुषी-पुरुषद्वयप्रमाणां छायां निवर्तयति, पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनो द्विगुणां छायां निर्वतैयतीत्यर्थः, तथा अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्योऽस्तमयमुहूर्ते उद्गमनमुहूर्तेच न काश्चिदपि पौरुषी छायां निर्वर्तयति । सम्प्रत्येते एव मते भावयति-तत्थे' त्यादि, तत्र-तेषां द्वयानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः-अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे चतुष्पौरुषी छायां सूर्यो निवर्तयति, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्यों द्विपौरुषी छायां निवर्तयति, एवं स्वमतविभावनार्थमाहुः-'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा-पस्मिन् काले णमिति वाक्यालकारे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यश्चतुष्पौरुषी-चतुष्पुरुषप्रमाणां छायां निर्वयति, तद्यथा-उद्गमनमुहूर्तेऽस्तमयमुहुर्ने च, स चोद्गम-15 नमुहूर्तेऽस्तमयमुहूत्रं च चतुष्पौरुषी छायां निर्वर्तयति लेश्यामभिवर्द्धयन् प्रकाश्यवस्तुन उपरि प्लवमानां दूरं दूरतरं परिक्षिपन् नो चैव-नैव निर्वेष्टयन्-प्रकाश्यवस्खुन उपरिप्लवमानां प्रत्यासन्नं प्रत्यासनतरं परिक्षिपन तथा सति छायाया हीनहीनतरत्वसम्भवात्, 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा सर्ववाद्यं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा उत्तमकाष्ठा अनुक्रम [४१]] For P OW ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [४१] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [३१] प्राभृत [९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः *सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ९१ ॥ प्राप्ता पत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, जघन्यो द्वादशमुहूर्त्ता दिवसः तस्मिंश्च दिवसे सूर्यो द्विपौरुषी-पुरुषद्वयप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति, तद्यथा-उद्गमनमुहूर्त्ते अस्तमयमुहर्त्ते च स च तदा द्विपौरुष छायां निर्वर्त्तयति, लेश्यामभिवर्द्धयन् नो वैध निर्वेष्टयन् अस्य वाक्यस्य भावार्थः प्राग्वद्भावनीयः । तथा तत्र तेषां द्वयानां मध्ये ये वादिन एवमाहुःअस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे स सूर्यो द्विपौरुष छायां निर्वर्त्तयति अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्यो न कांचिदपि पौरुषीं छायां निर्वर्तयति त एवं स्वमतविभावनार्थमाचक्षते- 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुत्त दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहर्त्ता रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यो द्विपौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति, तद्यथा - उद्गमन मुहूर्त्तेऽस्तमयमुहूर्त्ते च स च तदानीं द्विपौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति लेश्यामभिवर्द्धयन् नो चैव निर्वेष्टयन्, 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः सर्वबाह्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः, जघन्यो द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसस्तस्मिंश्च दिवसे उद्गमनमुंहर्त्तेऽस्तमयमुहूर्त्ते च सूर्यो न काश्चिदपि पौरुषीं छायां निर्वर्त्तयति, 'नो चेव ण'मित्यादि, न च-नैव तदानीं सूर्यो लेश्यामभिवर्द्धयन् भवति निर्वेष्टयन् वा, अभिवर्द्ध[य]ने अधिकाधिकतराया निर्वेष्ट [य]ने हीनहीनतरायाश्छायायाः सम्भवप्रसङ्गात् । तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान् गौतमः स्वमतं पृच्छति'ता कइकट्ठ' मित्यादि, यद्येवं परतीर्थिकानां प्रतिपत्ती 'ता' तर्हि भगवान् स्वमतेन त्वया कतिकाष्ठां - किंप्रमाणां सूर्यः पौरुषीं छायां निर्वर्त्तयन् आख्यात इति वदेत् १ तत्र भगवान् स्वमतेन देशविभागतः पौरुषीं छायां तथा तथा अनिय For Parts Only ~204~ ९ प्राभृते पौरुषीछाया सू ३१ ॥ ९१ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्रामृत -, ------------- ----- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] SARKARKERSE तप्रमाणां वक्ष्यति, परतीथिकास्तु प्रतिनियतामेव प्रतिदिवसं देशविभागेनेच्छंति ततः प्रथमतस्तन्मताम्येवोपदर्शयति'तत्थे'त्यादि, तत्र-तस्मिन् देशविभागेन प्रतिदिवसं प्रतिनियतायाः पौरुष्याश्छायाया विषये षण्णवतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र-तेषां षण्णवतेः परतीथिकानां मध्ये एके एवमाहुर, ता इति पूर्ववत्, अस्ति स देशो यस्मिन् देशे |सूयें आगतः सन् एकपीरुषी-एकपुरुषप्रमाणां पुरुष ग्रहणमुपलक्षणं सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः स्वप्रमाणां छायाँ निर्वःयति, अत्रोपसंहारः-'एगे एवमाईसु'१, एके पुनरेवमाहुः अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्यो द्विपौरुषीं-द्विपुरुषप्रमाणां पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्यापि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणामित्यर्थः, छायां निर्वर्त्तयति, अनोपसंहारः-'एगे एवमासु' २, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन-सूत्रपाठगमेन शेषप्रतिपत्तिगतमपि सूत्र नेतव्यं तावद्यावच्चरमप्रतिपत्तिगतं सूत्र, तदेव खण्डशो दर्शयति-'छन्नउ'इत्यादि, एतचैवं परिपूर्ण द्रष्टव्यं-'एगे पुण पषमाइंसु, अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छन्न उइपोरसिं छायं निवत्तइ आहियत्तिवएज्जा एगे एवमाहंसु' मध्यमप्रतिपत्तिगतास्त्वालापकाः सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयाः, सम्प्रत्येतासामेव पण्णवतिप्रतिपत्तीनां भावनिकां चिकी-| राह-तत्धे'त्यादि, तत्र-तेषां षण्णवतिपरतीथिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्य एकपौरुषी-प्रकाश्यवस्तुनः स्वप्रमाणां छायां निर्वःयति त एवं स्वमतविभावनार्थमाहुः-'ता सूरियस्स ण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, सूर्यस्य सर्वाधस्तनात् सूर्यप्रतिधेः-सूर्यप्रतिधानात् सूर्यनिवेशादित्यर्थः बहिनिःसृता या जलेश्यास्ताभिः 'साडिजमाणाहिं'ति ताज्यमानाभिरस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयादू भूमिभागाद्यावति सूर्य अनुक्रम [४१] ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [४१] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], ---- मूलं [३१] प्राभृत [९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ ९२ ॥ "ए" ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन व्यवस्थित एतावताऽध्वना, सूत्रे चाध्वशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वात्, एकेन च छायानुमानप्रमाणेन प्रकाश्यस्य वस्तुनो यदुद्देशतः प्रमाणमनुमीयते तेन, इहाकाशदेशे सूर्यसमीपे प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणं नैव साक्षात् परिग्रहीतुं शक्यते किन्तु देशतोऽनुमानेन ततश्छायानुमानप्रमाणेनेत्युक्तं, 'उमाए'त्ति अवमितः परिच्छिन्नो यो देशः- प्रदेशो यस्मिन् प्रदेशे आगतः सन् सूर्य एकपौरुष पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणभूतां छायां निर्वर्त्तयति, इयमत्र भावना - प्रथमत उदयमाने सूर्ये या लेश्या विनिर्गत्य प्रकाशमाश्रितास्ताभिः प्रकाश्यवस्तुदेशे ऊर्द्ध क्रियमाणाभिः किञ्चित्पूर्वाभिमुखमवनताभिः प्रकाश्येन च वस्तुनां यः सम्भाव्यते परिच्छिन्न | आकाशप्रदेशः तत्रागतः सूर्यः प्रकाश्यवस्तुप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या, 'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः अस्ति स देशों यस्मिन् देशे समागतः सूर्यो द्विपीरुपीं छायां निर्वर्त्तयति त एवं स्वमतविस्फारणार्थमाहु:-'ता सूरियस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् सूर्यस्य सर्वाधस्तात् सूर्यप्रतिधेः- सूर्यनिवेशाद्वहिर्निःसृताभिर्लेश्याभिस्ताड्यमानाभिरस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद्भूमिभागादूर्ध्वमुञ्चखेन व्यवस्थितः एतावञ्चयां द्वाभ्यामद्वाभ्यां द्वाभ्यां छायानुमानप्रमाणाभ्यां प्रकाश्यवस्तुप्रमाणाभ्यामवमितः परिच्छिन्नो यो देशस्तत्र समागतः सूर्यो द्विपौरुषी-प्रका श्यवस्तुनो द्विगुणां छायां निर्वर्त्तयति एवमेकैकप्रतिपत्तावे के कच्छायानुमानप्रमाणवृद्ध्या तावन्नेतव्यं यावत्पण्णवतितमा प्रतिपत्तिः, तद्गतानि च सूत्राणि स्वयं परिभावनीयानि, सुगमत्यात्, तदेवमुक्ताः परतीर्थिकप्रतिपत्तयः । सम्प्रति स्वम्तमुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'सातिरेगे' त्यादि, सूर्य an Internation For Parts Only ~206~ ९ प्राभूते पौरुषीछाया सू ३१ Je. ॥ ९२ ॥ wor Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्रामृत -, ------------- ----- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३१] ASCARSC उदगमसमये अस्तम नसमये च सातिरेकै कोनषष्टिपुरुषप्रमाणां छायां निवर्तयति-एतदेव विभावयिपुराहता अबढे। इत्यादि, अपगतमद्धे यस्याः सा अपार्द्धा सा चासौ पौरुषी च अपार्द्धपौरुषी छाया पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्थापि वस्तुनः प्रकाश्य स्थार्द्धप्रमाणा छाया, एवमुत्तरत्राप्युपलक्षणव्याख्यानं द्रष्टव्यं, दिवसस्य किं गते-कतमे भागे गते। | शेषे वेति-कतितमे भागे शेपे भवति !, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , दिवसस्य त्रिभागे गते भवति, दिव-| सस्य त्रिभागे वा शेषे, 'ता'इत्यादि, पौरुषी पुरुषप्रमाणा, प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाणा इत्यर्थः, छाया कि गते-कतितमे भागे गते शेषे वेति-कतितमे वा भागे शेषे भवति ?, भगवानाह-दिवसस्य चतुर्भागे गते चतुर्भागे शेषे वा, प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाणभूता छाया अन्यत्र ग्रन्थान्तरे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमधिकृत्योता, तथा च नन्दि चूर्णिग्रन्ध:-"पुरिसत्ति संक पुरिससरीरं वा, ततो पुरिसे निप्फन्ना पोरिसी, एवं सबस्स वत्थुणो यदा स्वप्रमाणा छाया भवति तदा पोरिसी। हवइ, एयं पोरिसिप्रमाणं उत्तरायणस्स अंते दक्षिणायणस्स आईए इकं दिणं भवइ, अतो परं अद्धएगसहिभागा अंगुकालस्स दक्षिणयणे पहुंति, उत्तरायणे हस्संति, एवं मंडले २ अन्ना पोरिसी" इति, तत इदं सकलमपि पौरुषीविभागम-18 माणप्रतिपादनं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमधिकृत्यावसेयं, तथा 'ता'इति पूर्ववत् , ब्यर्द्धपौरुषी-सार्द्धपुरुषप्रमाणा छाया दिषसस्य किंभागे-कतितमे भागे गते भवति, किं शेषे वा-कतितमे वा भागे शेषे ?, भगवानाह-'ता' इति पूर्ववत् , दिवसस्य पञ्चमे भागे गते वा भवति, शेपे वा पञ्चमे भागे, 'एव'मित्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण अर्द्धपौरुषी-अर्द्धपुरुषप्रमाणां छायां क्षित्वा २ पृच्छा-पृच्छासूत्रं द्रष्टव्यं, 'दिवसभाग'ति पूर्वपूर्वसूत्रापेक्षया एकैकमधिकं दिवसभागं क्षित्वा २ व्याकरण-उत्त अनुक्रम [४१] ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [९], -------------------- प्राभृतप्रामृत -, ------------- ----- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [३१] सूर्यप्रज्ञ- रसूत्र ज्ञातव्यं, तश्चैवम्-'विपोरिसी णं छाया किं गए वा सेसे वा?, ता छब्भागगए वा सेसे वा, ता अड्डाइज्जपोरिसी माभृते प्तिवृत्तिःणं छाया किंगए वा सेसे वा ?, ता सत्तभागगए वा सेसे वा इत्यादि, एतच्च एतावत् तावत् यावत् 'ता उगुणही त्यादि- पीरुषीछा(मल) [सुगम, सातिरेकैकोनषष्टिपौरुषी तु छाया दिवसस्य प्रारम्भसमये पर्यन्तसमये वा, तत आह-ता नस्थि किंचि गए पाया सू२१ सेसे वा' इति, सम्प्रति छायाभेदान् ब्याचष्टे-'तत्थे'त्यादि, तत्र तस्यां छायायां विचार्यमाणायां खल्वियं पञ्चविंशति" विधाः छायाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा 'खंभछायेत्यादि, प्रायः सुगम, विशेषव्याख्यानं चामीपां पदानां शास्त्रान्तरायथासम्प्र दायं धाच्य, गोलछायेत्युक्तं ततस्तामेव गोलछायां भेदत आह-तत्थे'स्यादि, तत्र-तासां पञ्चविंशतिच्छायानां मध्ये खल्वियं गोलछाया अष्टविधा प्रज्ञता, तद्यथा-'गोलछाया' गोलमात्रस्य छाया गोलछाया, अपार्द्धस्य-अर्द्धमात्रस्य गोलस्य लाछाया अपार्द्धगोलछाया, गोलानामावलिौलावलिस्तस्या छाया गोलावलिच्छाया अपार्थायाः-अपार्बमात्राया गोलावले छाया अपार्द्धगोलावलिच्छाया, गोलानां पुञ्जो गोलपुञ्जो गोलोत्कर इत्यर्थः तस्य छाया गोलपुजछाया, अपार्द्धस्य-अईमात्रस्य गोलपुञ्जस्य छाया अपार्द्धगोल पुअच्छाया॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां नवमं प्राभृतं समाप्तम् || अनुक्रम [४१] | ॥१२॥ तदेवमुक्तं नवमं प्राभृतं, सम्प्रति दशममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकासे यथा 'योग इति किं भगवन् । त्वया समाख्यायते' इति, ततस्तद्विषयनिर्वचनसूत्रमाह ता जोगेति वत्थुस्स आवलियाणिवाते आहितेति वदेज्जा, ता कहं ते जोगेति वत्थुस्स आवलियाणि अत्र नवमं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ दशमं प्राभतं आरभ्यते ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] वाते आहितेति वदेज्जा !, तत्थ खलु इमाओ पंच परिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्धेगे एवमाइंसु ता सब्वेवि णं णक्खत्ता कत्तियादिया भरणिपजवसाणा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाइंसु, ता सबेवि णं णक्खत्ता महादीया अस्सेसपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाइंसु, ता सबेवि णं णक्वत्ता घणिहादीया सवणपज्जयसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एवमासु, ता सब्वेवि गं णक्खत्ता अस्सिणीआदीया रेवतिपज्जवसाणा प०, एगे एवमासु ४, एगे पुण एवमाहंसु-सब्वेविणं णक्खत्ताभरणीआदिया अस्सिणीपज्जवसाणा एगे एवमासु । वयं पुण एवं वदामो, सचेवि णं णक्वत्ता अमिईआदीया उत्तरा साढापजवसाणा पं०२०-अभिईसवणो जाव उत्तरासादा।। (सूत्रं ३२) दसमस्स पढम पाहुडपाहुई समत्तं ।।४ &ा 'ता जोगेति बत्थुस्से'त्यादि, ता इति आस्तां तावदन्यत्कथनीयं सम्प्रत्येतावदेव कथ्यते-योग इति वस्तुनो नक्षत्रजातस्य 'आवलिकानिवायो'त्ति आवलिकया क्रमेण निपातः-चन्द्रसूर्यैः सह सम्पात आख्यातो मयेति वदेत् स्वशिप्येभ्यः, एवमुक्त भगवान् गौतमः पृच्छति-'ता कहते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण भगवान् त्वया योग इति योगवस्तुनो-नक्षत्रजातस्यावलिकानिपातः स आख्यात इति वदेत् १, भगवानाह-तस्थ खलु इत्यादि, तत्र-तस्मिन्नक्षत्रजातस्यावलिकानिपातविषये खल्विमाः पञ्च प्रतिपत्तयः-परतीथिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ता,तद्यथा-तत्र-तेषां पञ्चानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः-ता इति पूर्ववत् सर्वाण्यपि नक्षत्राणि कृत्तिकादीनि भरणिपर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात, अत्रैवोपसंहार:-'एगे एवमासु' १, एवं शेषप्रतिपत्तिचतुष्टयगता अनुक्रम [४] SAREauratonintamarana अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- आरभ्यते ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१], -------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) सूत्राक [३२]] न्यपि सूत्राणि परिभावनीयानि, तदेवं परप्रतिपत्तीरुपदर्थ सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेवं-12१०माभते वक्ष्यमाणेन प्रकारेण बदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता सवेऽपि 'मित्या दि, ता इति पूर्ववत्, सर्वाण्यपि नक्षत्राणिश्माभूत. अभिजिदादीनि उत्तराषाढापर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि, कस्मादिति चेत् १, उच्यते, इह सर्वेषामपि सुषमसुषमादिरूपाणां नक्षत्राव कालविशेषाणामादि युग 'पए उ सुसमसुसमादयो अद्धाविसेसा जुगादिणा सह पवतंति जुगतेण सह समर्पती'ति श्रीपा कालिकासू१२ दलिप्तसूरिवचनप्रामाण्यात् , युगस्य चादिः प्रवर्तते श्रावणमासि बहुलपक्षे प्रतिपदि तिथी बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे | चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति, तथा चोक्तं ज्योतिष्करण्डके-"सावणबहुलपडिवए बालवकरणे अभीइनक्खत्ते । सवत्थ पढमसमये जुगस्स आई वियाणाहि ॥१॥' अत्र सर्वत्र भरतैरवते महाविदेहे च, शेष सुगम, ततः इत्थं सर्वेषामपि कालविशेषाणामादौ चन्द्रयोगमधिकृत्याभिजिनक्षत्रस्य वर्तमानत्वादभिजिदादीनि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानि, तान्येव तयथेत्यादिनोपदर्शयत्ति-अभिई सचणे'त्यादि, ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य प्रथमं | प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ अनुक्रम [४२ M तदेवमुक्कं दशमस्य प्राभृतस्य प्रथम प्राभूतप्राभृतं, सम्प्रति द्वितीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो 'नक्षत्रविषय मुर्तपरिमाणं वक्तव्यमिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह४. ता कहं ते मुहत्ता य आहितेति वदेजा, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णवत्ताणं अस्थि णक्वते जेणं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं-१ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ आरभ्यते ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] श्रीप प्रणव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तहिभागे मुहुत्तस्स चंदेणं सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरस-1 मुहुत्ते चंदेणं सद्धिं जोयं पजोएंति, अस्थि णक्खत्ता जेणं पणतालीसे मुहुत्ते चंदेणं सर्द्धि जोएंति, ता एएसि णं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं कयरे नक्खत्ते जे णं नवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभाए मुहत्तस्स चंदेणं सद्धिं 12 जोएन्ति, कयरे नक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएंति, कतरे नक्खत्ता जे तीसं मुष्टुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोइंति, कतरे नक्खत्ता जेणं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सहि जोयं जोइंति ?, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तस्थ जे ते णक्खत्ते जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण ४सद्धिं जोयं जोएंति से णं एगे अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति लते णं छ, तं०-सतभिसया भरणी अद्दा अस्सेसा साति जेहा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे गं तीसं मुहत्तं चंदेण सद्धिं जोयं जोयति ते पण्णरस, तं०-सवणे धणिट्ठा पुबा भद्दवता रेवति अस्सिणी कत्तिया मग्गसिर पुस्सा महा| पुवाफग्गुणी हत्थो चित्ता अणुराहा मूलो पुवआसाढा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं पणतालीसं मुहुसे चंदेण सद्धि जोगंजोएंति तेणंछ, तंजहा-उत्तराभहपद रोहिणी पुणवसू उत्तराफग्गुणी विसाहा उत्तरासादा(सूत्रं३३) |'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं भगवन् ! प्रतिनक्षत्रं मुहूर्ताग्रं-मुहर्सपरिमाणमाख्यातमिति वदेत् १, ठाएवमुक्त भगवानाह-'ता एएसि 'मित्यादि, 'ता'इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्येऽस्ति तन्नक्षत्रं यन्नव मुहान एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशति सप्तषष्टिभागान यावत् चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति-उपैति, तथा अस्ति-निपात अनुक्रम [४३] ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], ----------- ----- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमज्ञ प्रत प्तिवृत्तिः (मल०) ॥१५॥ वाद् व्यत्ययाद्वा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चदश मुहूर्तान यावच्चन्द्रेण सह योगमुपयान्ति, तथा सन्ति तानि नक्ष- १० प्राभृते वाणि यानि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगमश्नुवते, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पश्चचत्वारिंशतं मुहर्त्तान यावञ्चन्द्रेण सह योग युञ्जन्ति, एवं सामान्येन भगवतोक्ने विशेषनिर्धारणार्थ भगवान पृच्छति गौतमः-ता एएसिण-K प्राभाते नक्षत्राणां मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये कतरनक्षत्रं यन्नव मुहूर्त्तानेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशति चन्द्रेग सप्तपष्टिभागान् यावचन्द्रेण सह योग युनक्ति, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चदश मुहत्तोन यावचन्द्रेण सहयोगम३३ योगं युञ्जन्ति, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावचन्द्रेण सह योगमश्नवते, तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि यानि पञ्चचत्वारिंशतं मुहर्तान् यावश्चन्द्रेण सार्द्ध योगमुपयन्ति, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-ता एएसिण'मित्यादि, 'ता'इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यन्नक्षत्रं नव मुहूर्त्तानेकस्य च मुहस्य सप्तविंशति सप्तपष्टिभागान् यावचन्द्रेण सह योगं युनक्ति तदेकमभिजिन्नक्षत्रमवसेयं, कथमिति चेत्, उच्यते, इह अभिजिन्नक्षत्रं सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्यैकविंशति भागान् चन्द्रेण सह योगमुपैति, ते च एकविंशतिरपि भागा मुहूर्तगतभागकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तथा च एतावान् कालमधिकृत्य सीमाविस्तारोऽभिजिन्नक्ष त्रस्थान्यत्राप्युक्तः “छ चेव सया तीसा भागाण अभिइ सीमविक्खंभो । दिद्यो सबडहरगो सधेहिं अणंतनाणीहिं ॥१॥" मातेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा नव मुहर्ता एकस्य च महतस्य सप्तर्षिशतिः सक्षषष्टिभागाः ९ क च-"अभि-12 इस्स चंदजोगो सत्तडीखंडिओ अहोरत्तो । भोगा य एगवीसं ते पुण अहिया नव मुहत्ता ॥१॥" तथा 'तत्थे'त्यादि, अनुक्रम [४३] ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] श्रीप तत्र-तेषामष्टाविंशति नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पञ्चदश मुहूर्तान् यावश्चन्द्रेण सह योगमश्नुवते तानि षट्, तद्यथाशतभिषक् इत्यादि, तथाहि-एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कान् सार्वान् त्रयस्त्रिं|शद्भागान् यावच्चन्द्रेण सह योगो भवति, ततो मुहूत्र्तगतसप्तपष्टिभागकरणार्थ त्रयस्त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि नवत्यधिकानि ९९०, यदपि सार्द्ध तदपि त्रिंशता गुणयित्वा द्विकेन भज्यते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्सस्य सप्तपष्टिभागास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातः पूर्वराशिः सहनं पञ्चोत्तरं १००५, तथा चैतेषां प्रत्येक कालमधिकृत्य सीमाविस्तारो मुहूर्त्तगतसप्तषष्टिभागानां पञ्चोत्तरं सहनं, उक्तं च-"सयभिसयाभरणीए अद्दा अस्सेस साह जिहाए । पंचोत्तरं सहस्सं भागाणं सीमविक्खंभो ॥१॥" अस्य पञ्चोत्तरसहस्रस्य सप्तषट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहर्चाः, उक्तं च-"सय| भिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जिहा य । एए छन्नक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा ॥२॥" तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि त्रिंशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति तानि पश्चदश, तद्यथा-'सवणों इत्यादि, तथाहिएतेषां कालमधिकृत्य प्रत्येक सीमाविष्कम्भो मुहर्तगतसप्तषष्टिभागानां दशोत्तरे द्वे सहस्रे २०१०, ततस्तयोः सप्तपट्या भागे हृते लब्धाः त्रिंशन्मुहूर्ताः, तथा तत्र यानि नक्षत्राणि पश्चचत्वारिंशतं मुहर्तन यावचन्द्रेण | सार्द्ध योगं युञ्जन्ति तानि पद, तद्यथा-'उत्तरभद्रपदा इत्यादि, तेषां हि प्रत्येक कालमधिकृत्य सीमाविष्कम्भो मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागानां त्रीणि सहस्राणि पश्चदशोत्तराणि ३०१५, ततस्तेषां सप्तपथ्या भागे हते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशदेव मुहूर्त्ता लभ्यन्ते, उकंच-"तिमेव उत्तराई पुणवसू रोहिणी विसाहा य । एए छन्नक्खत्ता पणयालमुहुससंजोगा॥१॥ अनुक्रम [४३] ~213~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [३३]] दीप सूर्यप्रज्ञ- अवसेसा नक्षत्ता पनरस ए टुति तीसइमुहुत्ता । चंदमि एस जोगो नक्खत्ताणं समक्खाओ ॥२॥" तदेवमुको नक्ष-151१०प्राभते प्तिवृत्तिःविाणां चन्द्रेण सह योगः, सम्प्रति सूर्येण सह तमभिधित्सुराह |२प्राभृत(मल II ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अत्थि णवत्ते जेणं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि प्राभृते जोय जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एकवीसं च मुहत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि सूर्योण यो णक्खत्ता जेणं तेरस अहोरत्ते वारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, अत्धि णवत्ता जे णं थीसं अहो-४ गःसू ३४ रत्से तिपिण य मुहुत्ते सूरेण.सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खत्तेज चत्तारि अहोरसे छच मुहसे सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ते जे णं छ अहोरते एकवीसमुहत्ते " सूरेणं सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ता जेणं तेरस अहोरत्ते यारस मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति कतरे णक्खत्ता जे णे वीसं अहोरत्ते सरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थ जे से णक्खत्ते जे णं चत्तारि अहोरते छच मुहते सूरेण सहि जोयं जोएंति से णं अभीयी, तत्थ जे ते णक्खता जे णंछ अहोरत्ते एकवीसं च मुदत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति ते गं छ, तं०-सतभिसया भरणी ॥१६॥ * अदा अस्सेसा साती जेट्ठा, तत्थ जे ते तेरस अहोरत्ते दुवालस य मुहले सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं पण रस, तंजहा-सवणो धणिट्ठा पुवाभवता रेवती अस्सिणी कसिया मग्गसिरं पूसो महा पुषाफरगुणी हत्थो। चित्ता अणुराधा मूलो पुवाआसाढा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं वीसं अहोरत्ते तिपिण य मुहासे सूरेण 49 अनुक्रम [४३] १०२ ~214~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] सिद्धिं जोयं जोएंति ते णं छ, तंजहा-उत्तराभवता रोहिणी पुणवसू उत्तरफग्गुणी विसाहा उत्तरासाढा (सूर्य ३४) दसमस्स वितीयमिति ॥ IFA ता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽस्ति तन्त्रक्षन यचतरो-IK |ऽहोरात्रान् षट् च मुहूर्तान् यावत् सूर्येण साह योगमुपैति, तथा अस्तीति सन्ति तानि यानि षट् अहोरात्रान् एकवि-1 शतिं च मुहूर्तान् सूर्येण सार्द्ध योग युञ्जन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश मुहूर्तान् यावत्सूर्येण सह योगमुपयन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि विंशतिमहोरात्रान् बीन मुहूर्तान यावत्सूर्येण समं| योग युद्धन्ति, एवं भगवता सामान्येनोक्त विशेषावगमनिमित्तं भूयोऽपि भगवान् गीतमः पृच्छति-'ता एएसि ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवान् निर्वचनमाह-ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेनेक्षत्राणां मध्ये यन्नक्षत्रं चतुरोऽहोरात्रान् षट् च मुहर्त्तान् सूर्येण सार्ड योग युनक्ति तदेकमभिजिन्नक्षत्रमवसेयं, तथाहि-सूर्ययोग-1 विषयं पूर्वाचार्यप्रदर्शितमिदं प्रकरणं-"ज रिक्खं जावइए वच्चइ चंदेण भाग सत्तडी । तं पणभागे राईदियस्स सूरेण | तावइए ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-यत् ऋक्ष-नक्षत्रं यावतो राबिन्दिवस्य-अहोरात्रस्य सम्बन्धिनः सप्तपष्टिभागान् चन्द्रेण सह योग व्रजति तन्नक्षत्रं रात्रिन्दिवस्य पश्चभागान् तावतः सूर्येण समं ब्रजति, तत्राभिजिदेकविंशति । सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण समं वर्तते, तत एतावतः पञ्चभागानहोरात्रस्य सूर्येण समं वर्तमानमवसेयं, एकविंशतिश्च पञ्च-15 मिभोगे हते लब्धाश्चत्वारोऽहोरावाः एकः पञ्चमो भागोऽवतिष्ठते, स मुहू नयनाय त्रिंशता गुण्यते, जाता त्रिंशत्तस्याः अनुक्रम [४४] 9AR ~215~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२], -------------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ-15 पञ्चभिर्भागे हुते लब्धाः षण्मुहर्ता इति, उक्त च-"अभिई छच्च मुहत्ते चत्तारि य केवले अहोरत्ते । सूरण सम बच्चइ २० प्राभृते प्तिवृत्तिः इत्तो सेसाण बुच्छामि ॥१॥"[ग्रंथा० ३०००] तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि षट् २प्राभृत(मल.) अहोरात्रानेकविंशतिं च मुहूर्तान् यावत् सूर्येण समं योगमुपयन्ति तानि षट्, तद्यथा-सयभिसया'इत्यादि, तथाहि- प्राभृतं, ॥१०३॥ एतानि नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण सम सार्वान् यखिंशत्सयाकान् सप्तपष्टिभागानहोरात्रस्य ब्रजन्ति अपार्द्धक्षेत्रत्वादे- नक्षत्रासूय तेषां, तत एतावतः पचभागानहोरात्रस्य सूर्येण समं वजन्तीति प्रत्येयं, प्रागुक्तकरणप्रामाण्यात्, त्रयस्त्रिंशतश्च पश्चभि-II MAT योगःसू३४ भीगे हृते लब्धाः षट् अहोरात्राः, पश्चादवतिष्ठन्ते सा स्त्रयः पञ्चभागाः, ते सवर्णनाया जाताः सप्त, मुहू नयनाय |त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते द्वे शते दशोत्तरे २१०, एते च मुहार्द्धगते, ततः परिपूर्णमुह नयनाय दशभिर्भागो हियते, | लब्धा एकविंशतिर्मुहाः, उच-"सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जिहा य । वचंति मुहुत्ते इतकवीस छोवऽहोरत्ते ॥ १॥" तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेनेक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि त्रयोदश अहोरात्रान् द्वादश च मुहर्तान् यावत् सूर्येण समं योगं युञ्जन्ति तानि पञ्चदश, तद्यथा-'सवणो' इत्यादि, तथाहि-अमूनि परिपूर्णान् सप्तपष्टिभागान् चन्द्रेण समं ब्रजन्ति, ततः सूर्येण सह एतानि पञ्चभागानप्यहोरात्रस्य सप्तपष्टिसयान गच्छन्ति, सप्तपष्टेच | पञ्चभिर्भागे लब्धास्त्रयोदश अहोरात्राः, शेषौ च द्वौ भागौ तिष्ठतः, तौ त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टिः, तस्याः पञ्चभि-I भीगे हते लब्धा द्वादश मुहाः , उक्तं च-“अवसेसा नक्खत्ता पन्नरसवि सूर सहगया जंति । बारस चेव मुहुत्ते तेर-13 सय समे अहोरते ॥१॥" तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतिर्नक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि विंशतिमहोरात्रान् श्रीन मुहू अनुक्रम [४४] |॥१०॥ ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभूत [२], -------------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] तन् यावत्सूर्येण समं योगमश्नुवते तानि षट्, तद्यथा-'उत्तरभवषया'इत्यादि, एतानि हि षडपि नक्षत्राणि प्रत्येक चन्द्रेण सम सप्तषष्टिभागानां शतमेकस्य च सप्तषष्टिभागस्यार्द्ध ब्रजन्ति, तत एतावतः पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सूर्येण समं व्रजनमवगन्तव्यं, शतस्य च पश्चभिर्भागे हृते लब्धा विंशतिः अहोरात्राः, यदपि चैकस्य पञ्चभागस्यार्द्धमुद्धरति | तदपि त्रिंशता गुण्यते, जाता विंशत् , तस्या दशभिर्भागे हृते लब्धास्त्रयो मुहर्ता इति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचि-| तायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ।। अनुक्रम KCORG [४४] उक्त दशमस्य प्राभूतस्य द्वितीयं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति तृतीयमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:-'एवंभागानि नक्ष-IX | त्राणि वक्तव्यानीति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते एवंभागा आहितातिवदेजा ?, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णवत्ता एवंभागा समखेत्ता पं०, अस्थि णक्खत्ता पच्छभागा समक्खेत्ता तीसमुहुत्ता पं०, अस्थि णक्षत्ता णतंभागा अवडखेत्ता पण्णरसमुहत्ता पं०, अस्थि णक्खत्ता उभयंभागा दिवङखेत्ता पणतालीसं मुहत्तापं०,ता एएसिणं अट्ठावीसाए णवत्ताणं कतरे णक्खत्ता पुर्वभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं० कतरे कतरे कतरे नक्खत्ता उभयंभागा दिवहखेत्ता पणतालीसतिमुहुत्ता पं०,ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णकखत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता पुवंभागा समखेत्ता तीसतिमुहुत्ता पं० ते णं छ, तंजहा-पुच्चापोहवता कत्तिया मघा पुवाफग्गुणी मूलो! अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ आरभ्यते ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [४५] ----- प्राभृतप्राभृत [२], मूलं [३५] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ सिवृत्तिः ( मल० ) ॥१०४॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - | पुबासाढा, तत्थ जे णक्खत्ता पच्छंभागा समखेत्ता तीसतिमुत्ता पं०, ते णं दस, तंजा-अभिई सवणो धणिट्ठा रेवती अस्सिणी मिगसिरं पूसो हत्थो चित्ता अणुराधा, तत्थ जे ते णक्खत्ता संभागा अद्धखेत्ता पण्णरसमुहुत्ता पं० ते णं छ, तंजा-संयभिसया भरणी अदा अस्सेसा साती जेट्ठा, तत्थ जे ते सुणक्स्त्रत्ता उभयं भागा दिवस्खेत्ता पण्णतालीसं मुहुत्ता पं० ते णं छ, तंजहा - उत्तरापोडवता रोहिणी पुण-पश्चाद्भागावसू उत्तराफरगुणी विसाहा उत्तरासाढा (सूत्रं ३५ ) दसमस्स ततियं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ दीनि सू३५ 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं ? - केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया एवंभागानि - वक्ष्यमाणप्रकारभागानि नक्षत्राणि आख्यातानि इति भगवान् वदेत् ?, एवमुक्ते भवगानाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, एते| पामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्येऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पूर्वभागानि - दिवसस्य पूर्वभागश्चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य विद्यते येषां तानि पूर्वभागानि 'समक्खेत्ता' इति सम् पूर्णमहोरात्रप्रमितं क्षेत्रं चन्द्रयोगमधिकृत्यास्ति येषां तानि समक्षेत्राणि अत एव त्रिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि पश्चाद्भागानि - दिवसस्य पश्चात्तनो | भागञ्चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य विद्यते येषां तानि पश्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञतानि, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि 'नभागानि' नक्तं-रात्रौ चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य भागः- अवकाशों येषां तानि तथा, 'अपार्द्धक्षेत्राणी' ति अपगतमर्द्ध यस्य तदपार्द्ध, अर्द्धमात्रमित्यर्थः, अपार्द्धमर्द्धमात्र क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं येषां चन्द्रयोगमधिकृत्य तानि अपार्द्धक्षेत्राणि, अत एव पञ्चदशमुहर्त्तानि पञ्चदश चन्द्रयोगमधिकृत्य मुहूर्त्ता विद्यन्ते येषां तानि तथा प्रज्ञधानि, तथा Education Internation For Parts Only ~ 218~ १० माभृते ३ प्राभृतप्राभूतं ॥१०४॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२],-------------------- मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक * [३५] सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि नक्षत्रांणि 'उभयभागानि' उभयं-दिवसरात्री तस्य दिवसस्य रात्रेश्चेत्यर्थः, चन्द्रयोगस्यादिमधिकृत्य भागो येषां तानि तथा, तथाहि-बर्द्धक्षेत्राणि, द्वितीयम. यस्य तद् व्यर्धं सार्द्धमित्यर्थः, व्यर्द्ध-सार्द्धमहोरात्रप्रमितं क्षेत्रं येषां तानि तथा, अत एव पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि प्रज्ञप्तानि, एवं भगवता सामान्येनोक्त विशेषावबोधनार्थ | भगवान् गौतमः पृच्छति-'ता एएसिण'मित्यादि सुगम, भगवान प्रतिवचनमाह-'ता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि तानि षट्, तद्यथा-'पुचपुट्टवया' इत्यादि, एतच्चानन्तरे एवं प्राभृतप्राभृते योगस्यादौ चिन्त्यमाने भावयिष्यते, तथा तेषामष्टात्रिशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पश्चाद्भागानि समक्षेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि प्रज्ञप्तानि तानि दश, तद्यथा-'अभिई। इत्यादि, तथा तत्र-तेषां अष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि नक्तंभागानि अपार्द्धक्षेत्राणि पश्चदशमुहर्तानि प्रज्ञधानि तानि पटू ,तद्यथा-सयभिसया'इत्यादि,तथा तत्र-तेपामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राण्युभयभागानि तानि ब्बर्द्धक्षेत्राणि पश्चचत्वारिंशन्मुहर्तानि तानि षट्, तद्यथा-'उत्तरापुटवया इत्यादि, सर्वत्रापि च भावना अग्रेऽनन्तरमेव भावयिष्यते ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य तृतीयं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम्। *5 अनुक्रम [४५] तदेवमुक्तं तृतीयं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते-तस्य चायमाधिकारो 'योगस्यादिर्वकव्य' इति, किच-पूर्वमनन्तरमाभृतमाभृते नक्षत्राणां पूर्वभामगताधुकं,तच योगस्यादिपरिज्ञानमन्तरेण नावगन्तुं शक्यते ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ४ आरभ्यते ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत (मल.) सूत्रांक [३६]] सूर्यप्रज्ञ-13 ता कहं ते जोगस्स आदी आहिताति वदेवा,ता अभियीसवणा खलु दुवे णक्खत्ता पच्छाभागा सम- १० माभृते प्तिवृत्तिः खित्ता सातिरेगऊतालीसतिमुहुत्ता तपढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयंजोएंति, ततो पच्छा अवरं सातिरेयं प्राभृत. दिवसं, एवं खलु अभिईसवणा दुवे णक्खत्ता एगराई एगं च सातिरेग दिवसं चंदेण सर्द्धि जोगं जोएंति, प्राभूत योगादिः ॥१०५॥ जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियहति जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं धणिट्ठाणं समप्पंति, ता पणिहा खल्लु सू३६ णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसतिमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएति, २ सा चंदणं सद्धिं जोगं जोएत्ता ततो पच्छाराई अवरंच दिवसं, एवं खलु धणिहाणक्खत्ते एगं चराई एगंच दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टिति जोयं अणुपरियहित्ता सागं चंदं सतभिसयाणं समप्पेति ता सयभिसया खलु णक्वत्ते णतंभागे अबढे खेत्ते पपणरसमुहत्ते पदमताए सागं चंदेण सहिं जोएति को लभति अवरं दिवसं, एवं खलु संयभिसया णक्खत्ते एगं च राई चंदेण सविंद जोपं जोएति, जोयं जोएसा| जोयं अणुपरियट्टति, जोयं अणुपरियट्टित्ता तो चंदं पुवाणं पोट्ठवताणं समप्पेति, ता पुवापोट्ठवता खलु नक्खत्ते पुर्षभागे समखेते तीसतिमुहते तप्पक्षमताए पातो चंदेणं सद्धिं जोपं जोएति, ततो पच्छा अबरराई, एवं खलु पुषापोट्ठवताणक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राई चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुप-1 रियति २ पातो चंदं उत्तरापोहचताणं समप्पेति, ता उत्तरपोढवता खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवहखेसे 31 पणतालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएति अवरं च रातिं ततो पच्छा अवरं दिवस, अनुक्रम [४६] ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] एवं खलु उत्तरापोट्ठवताणक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएति अवरं च रातिं, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु उत्सरापोहचताणक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएति जोइत्ता जोयं अणुपरियति त्ता सागं चंदं रेवतीणं समप्पेति, ता रेवती खलु णक्खत्ते पच्छभागे समखेत्ते तीसतिमुहुत्ते तप्पतमताए सागं चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु रेवतीणक्खत्ते एग राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियति २त्ता सागं चंदं अस्सिणीणं समप्पेति, ता अस्सिणी खलु णक्खत्ते पच्छिमभागे समवेत्ते तीसतिमुहुत्ते तपढमताए सागं चंदेण सदि जोयं जोएति, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु अस्सिणीणक्खत्ते एर्ग च राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोगं अणुपरियहइ २सा सागं चंदं भरणीणं समप्पेति, ता भरणी खलु णक्खत्ते णसंभागे अवडखेत्ते पण्णरसमुहत्ते तप्पढमताए सागं चंदेण सद्धिं जोयंजोएति, णो लभति अवरं दिवसं, एवं खलु भरणीणक्खत्ते एर्ग राई चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियति २त्ता पादो चंदं कत्ति-x &याणं समप्पेति, ता कत्तिया खलु णक्खत्ते पुचंभागे समक्खित्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमताए सागं चंदेणं सद्धिं जोगं जोएति २त्ता जोयं अणुपरियइ २ हित्ता पादो चंदं रोहिणीणं समप्पेति, रोहिणी जहा उत्तरभद्दवता मगसिरं जहा धणिहा अद्दा जहा सतभिसया पुणवसु जहा उत्तराभद्दवता पुस्सो जहा धणिट्ठा अस्सेसा जहा सतभिसया मघा जहा पुवाफग्गुणी पुवाफग्गुणी जहा पुवाभवया उत्तराफग्गुणी जहा अनुक्रम [४६] ~221~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सूत्राक [३६]] ॐॐॐ SCA सू३६ उत्तराभहवता हस्थो चित्ता य जहा धणिट्ठा साती जहा सतभिसया विसाहा जहा उत्तरभद्दयदा अणुराहा| प्रभात ठिवृत्तिः जहा धणिट्ठा सयभिसया मूला पुवासाढा य जहा पुखभद्दपदा उत्तरासादा जहा उत्तराभद्दवता (सूत्रं ३६)॥ (मल.) लदसमस्स चउत्थं पाहुडपाहुढं समतं ।' प्राभृत योगादिः ॥१०६॥ . 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं त्वया भगवन् योगस्यादिराख्यात इति वदेत् ?, इह निश्चयनयमतेन चन्द्रयोगस्यादिः सर्वेषामपि नक्षत्राणामप्रतिनियतकालप्रमाणा, ततः सा करणवशादवगन्तव्या, तच्च करणं ज्योतिष्कर-] ण्डके समस्तीति तट्टीको कुर्वता तत्रैव सप्रपञ्च भाषितं अतस्ततोऽवधार्य, अत्र तु व्यवहारनयमधिकृत्य बाहुल्येन यस्य नक्षत्रस्य यदा चन्द्रयोगस्यादिर्भवति तमभिधित्सुराह-अभीइ'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, द्वे अभिजिच्छवणाख्ये नक्षत्रे पश्चामागे समक्षेत्रे, इहाभिजिन्नक्षत्रं न समक्षेत्रं नाप्यपार्द्धक्षेत्रं नापि बर्द्धक्षेत्रं, केवलं श्रवणनक्षत्रेण सह सम्बद्धमु-४ पात्तमित्यभेदोपचारात् तदपि समक्षेत्रमुपकल्प्य समक्षेत्रमित्युक्तं, सातिरेकैकोनचत्वारिंशन्मुहर्सप्रमाणे, तथाहि-साति-| रेका नव मुहूर्त्ता अभिजितस्त्रिंशन्मुहूर्ताः श्रवणस्येत्युभयमीलने यथोक्तं मुहूर्तपरिमाणं भवति, तत्प्रथमतया-चन्द्रयोगस्य प्रथमतया सायं-विकालवेलायां, इह दिवसस्य कतितमाचरमाद्भागादारभ्य यावदानेः कतितमो भागो यावन्नाद्यापि परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकस्तावान् कालविशेषः सायमिति विवक्षितो द्रष्टव्यः, तस्मिन् सायंसमये चन्द्रेण सार्द्ध योग युतः, इहाभिजिन्नक्षवं यद्यपि युगस्यादी. प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति तथापि श्रवणेन सह सम्बद्धमिह तद्विवक्षित, १०६ । श्रवणनक्षत्रं च मध्याह्रादूर्ध्वमपसरति दिवसे चन्द्रेण सह योगमुपादत्ते ततस्तत्साहचर्यात् तदपि सायंसमो चन्द्रेण| अनुक्रम [४६] ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] युज्यमानं विवक्षित्वा सामान्यतः सायं चन्द्रेण 'सद्धिं जोगं जुजति' इत्युक्त, अथवा युगस्यादिमतिरिच्यान्यदा बाहुस्यमधिकृत्येदमुक्तं ततो न कश्चिदोषः, 'ततो पच्छा इत्यादि, पश्चात्-तत ऊर्ध्वं अपरमन्यं सातिरेक दिवसं यावत्, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति–'एवं खलु इत्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण खस्थिति निश्चये अभिजिच्छ्रवणे वे नक्षत्रे सायंसमयादारभ्य एकां रात्रि एकं च सातिरेक दिवसं चन्द्रेण सार्द्ध योगं युक्तः, एतावन्तं च कालं योगं युक्त्वा तद|नन्तरं योगमनुपरिवर्तयते, आत्मनश्च्यावयत इत्यर्थः, योगं चानुपरिवर्त्य सार्य दिवसस्य कतितमे पश्चामागे चन्द्रं धनिछायाः समर्पयतस्तदेवमभिजिच्छ्रवणधनिष्ठाः सायंसमये चन्द्रेण सह प्रथमतो योगं युञ्जन्ति, तेनामूनि त्रीण्यपि पश्चाझा-1 गान्यवगन्तव्यानि, 'ता'इत्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं धनिष्ठा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं, सायंसमये तस्य प्रथमतश्चन्द्रेण |सह युज्यमानत्वात् , समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया सायंसमये चन्द्रेण सह योगं युनक्ति, चन्द्रेण सह योग युक्त्वा ततः सायंसमयादूच ततः पश्चाद्रात्रिमपरं च दिवसं यावद्योगं युनक्ति, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्याचष्टे-'एवं खल्वि त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायसमये चन्द्रं शतभिषजः समर्पयति प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमण्डलावलोके, तत | इदं नक्षत्रं नक्तंभाग द्रष्टव्यं, तथा चाह-'ता'इत्यादि, ता इति ततः समर्पणादनन्तरं शतभिषक् नक्षत्रं खलु नकंभाग-3 ममार्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्त तत्प्रथमतया चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, तच्च तथायुक्तं च सन्न लभते अपरं दिवसं, पञ्चदशमुहर्त्तप्रमाणत्वात् , किन्तु राज्यन्तरेव योगमधिकृत्य परिसमाप्तिमुपैति, तथा चाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावघोगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं पूर्वयोः प्रोष्ठपदयोः-भद्रपदयोः समर्पयति, इह पूर्वप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य प्रातश्चन्द्रेण सह प्रथम अनुक्रम [४६] For P OW ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल०) ॥१०७॥ SRI प्राभृतं सुत्राक [३६] तया योगः प्रवृत्त इतीदं पूर्वभागमुच्यते, तथा चाहता पुधे'त्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं पूर्वप्रोष्ठपदानक्षत्रं खलु १० प्राभृत पूर्वभागं समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्त तत्पथमतया प्रातश्चन्द्रेण सह योग युनक्ति, तच्च तथायुक्तं सत् ततः प्रातः समयादूर्व तं ४ प्रामृत सकलं दिवसमपरां च रात्रिं यावद्वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेनाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगमं यावद्योगमनुपरिवत्यै पातश्चन्द्रभुत्तरयोः प्रोष्ठपदयोः समर्पयति, इदं किलोत्तराभद्रपदाख्यं-नक्षत्रमुक्तप्रकारेण पातश्चन्द्रेण सह योगमधि सायोगादिः | गच्छति, केवलं प्रथमान् पञ्चदश मुहूर्तान् अधिकानपनीय समक्षेत्रं कल्पयित्वा यदा योगश्चिन्त्यते तदा नक्तमपि योगो- II सू ३६ |ऽस्तीत्युभयभागमवसेयं, तथा चाह-'ता'इत्यादि, ततः समर्पणादनन्तरं (उत्तर) प्रोष्ठपदानक्षत्रं खलूभयभागं ब्यर्द्धक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त तत्प्रथमतया-योगप्रथमतया प्रातश्चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, तब तथायुक्तं सत्तं सकलमपि दिवसमपरां च रात्रिं ततः पश्चादपरं दिवसं यावद् वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति-'एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायंसमये चन्द्र रेवत्याः समर्पयति, तत्र रेवतीनक्षत्रं सायंसमये चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति, ततस्तत्पश्चाद्भागमवसेयं, तथा चाहता रेवई' इत्यादि, 'ता' इति ततः समर्पणादनन्तरं शेष सुगम, इदं च चन्द्रेण सह युक्तं सत्सायसमयादर्दू सकलां रात्रिं अपरं च दिवस यावचन्द्रेण सह युक्तमवतिष्ठते, समक्षेत्रत्वात्, एतदेवोपसंहारत आह-'एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायंसमये चन्द्रमन्विन्याः समर्प-II ॥१०७॥ यति, तत इदमप्यश्विनीनक्षत्रं सायंसमये चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् पश्चामागमवसेयं, तथा चाह-'ता'इत्यादि। सुगम, नवरमिदमपि अश्विनीनक्षत्रं समक्षेत्रत्वात् सायंसमयादारभ्य तां सकलां रात्रिमपरं च दिवसं यावचन्द्रेण सह | अनुक्रम [४६] ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] 5 यक्तमवतिष्ठते. एतदेवोपसंहारव्याजेनाह-एवं खल्वि'त्यादि सुगर्म, यावयोगमनुपरिवर्त्य सायं प्रायः परिस्फटनक्ष-18 |ब्रमण्डलालोकसमये चन्द्र भरण्याः समर्पयति, इदं च भरणीनक्षत्रमुक्तयुक्त्या रात्री चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततो नक्तंभागमबसेयं, तथा चाह-ताभरणी'त्यादि, पाठसिद्ध, नवरमिदमपार्द्धक्षेत्रत्वाद्रात्रावेव योग परिसमापयति, ततो न लभते चन्द्रेण सह युक्तमपरं दिवस, एतदेवोपसंहारव्याजेन परिस्फुटयति-'एवं खल्वि'त्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य | प्रातश्चन्द्रं कृत्तिकानां समर्पयति, इदं च कृत्तिकानक्षत्रमुक्तयुक्त्या प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः पूर्वभागमवसेयं, एतदेवाह-ता कत्तियेत्यादि सुगम, नवरमिदं समक्षेत्रत्वात् प्रातःसमयादूर्व सकलं दिवसं ततः पश्चाद्रात्रि परिपूर्णा चन्द्रेण सह युक्तं वर्तते, एतदेवोपसंहारव्याजेन व्यक्तीकरोति एवं खलु इत्यादि सुगम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं रोहिण्याः समर्पयति, इदं च कृत्तिकानक्षत्रं यद्धक्षेत्रं, अतः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागं प्रतिपत्तव्यं, 'रोहिणी जहा उत्तरभद्दवय'त्ति रोहिणी यथा प्रागुत्तरभद्रपदा उक्ता तथा वक्तव्या, सा चैवम्-'ता रोहिणी खलु नक्खत्ते उभयभागे दिवड्डखेत्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरं च राई ततो पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु रोहिणीनक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियहेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं मिगसिरस्स समप्पेइ 'मिगसिरं जहा धणि?'त्ति मृगशिरा नक्षत्रं यथा पार धनिकायोक्ता तथा वक्तच्या, तद्यथा-'ता मिगसिरे नक्खत्ते पच्छंभागे तीसइमुहसे तपढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोग जोएइ, सायं चंदेण सद्धिं जोगं जोएत्ता ततो पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु मिगसिरे नक्खत्ते एगं राई एगं च दिवस अनुक्रम [४६] ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] सूर्यप्रज्ञ- चन्देण सद्धिजोयं जोएर, जोगं जोइता जोगं अणुपरियडेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अदाए समप्पेह' अत्र .प्राभृत प्तिवृत्तिः सायमिति प्रायः परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकसमये अत एवैतन्नक्तंभाग, तथा चाह-'अहा जहा सयभिसया' आ IX४प्राभृत यथा प्राक् शतभिषगभिहिता तथाऽभिधातच्या, सा चैवम्-'ता अद्दा खलु नक्खत्ते नत्तंभागे अबहुखेत्ते पारसमुहुरो रामाभृतं ॥१०८॥ मतपढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जो जोएइ, नो लभेइ अवरं दिवस, एवं खलु अहा एग राई चंदेण सद्धिं जोर्ग जोएइ, योगादिः जोयं जोएत्ता जोय अणुपरियट्टेइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं पुणधसूर्ण समप्पेई' इदं च पुनर्वसुनक्षत्रं व्यर्बथेनत्वात् प्रागुक्तयुक्तः उभयभागमवसेयं, तथा चाह-'पुणवसू जहा उत्तरभद्दवया पुनर्वसुनक्षत्रं यथा प्राक् उत्तरभन्न-Ik पदानक्षत्रमुक्त तथा वक्तव्यं, तच्चैवम्-'ता पुणवसू खलु नक्खत्ते उभयभागे दिवडते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, अपरं च राई ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु पुणवसू नक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सचिं जो जोपइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियडेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुस्सस्स समप्येह इदं च पुष्यनक्षत्रं सायंसमये दिवसाचसानरूपे चन्द्रेण सह योगमधिगच्छति, ततः पश्चादागमवसेयं, तथा चाह|'पुस्सो जहा पणिहा' पुष्यो यथा पूर्व धनिष्ठाऽभिहिता तथाऽभिधातव्या, तद्यथा-ता पुस्से खलु नक्खत्ते पच्छभागे | समक्खे से तीसइमुहुत्ते तपढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ जोयं जोएचा ततो पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु पुस्से १०८। नक्खत्ते एर्ग राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं जोएड, जोग जोइत्ता जोग अणुपरियडेइ जोग अणुपरियट्टित्ता सायं 4 चंदं असिलेसाए समापेइ,' इदं चाश्लेपानक्षत्र सायंसमये-परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकरूपे प्रायश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, %AM अनुक्रम CACANCY [४६] A asurary.com ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] तत इद नभागमवसेयं, अपार्द्धक्षेत्रत्वाच तस्यामेव रात्री योग परिसमापयति, तथा चाह-'असलेसा जहा सपभि-IP सया' यथा शतभिषक् प्रागभिहिता तथा अश्लेषापि वक्तव्या, सा चैवम्-'ता असिलेसा खलु नक्खत्ते नत्तंभागे अबहुखेत्ते ४ | पारसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जो जोएत्ता नो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु असिलेसान क्खन्ने एग राई चंदेण सर्बि जोगं जोएइ जोयं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं मघाणं | समप्पेइ,'इदं च मपानक्षत्रमुक्तयुक्त्या प्रातश्चन्द्रेण सह योगमश्नुते, ततः पूर्वभागमवसातव्यं, तथा चाह-मघा यथा| पूर्वफाल्गुनी तथा द्रष्टच्या, तद्यथा-'ता मघा खलु नक्खत्ते पुषभागे समक्खेते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ ततो पच्छा अवरं राई, एवं खलु मघानक्वत्ते एग दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोग अणुपरियट्टे जोगं अणुपरियहित्ता पाओ चंदं पुवफग्गुणीणं समप्पेइ,' इदमपि पूर्वफाल्गुनीनक्षत्र प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुक्तनीत्या समधिगच्छति, ततः पूर्वभागं प्रत्येतन्यं, तथा चाह-'पुवाफग्गुणी जहा पुचभद्दवया, यथा प्राक् पूर्वभाद्रपदाऽभिहिता तथा पूर्वफाल्गुन्यप्यभिधातव्या, तद्यथा-'ता पुषफग्गुणी खलु नक्खसे पुषभागे सम झित्ते तीसमुहुत्ते तपढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोइं जोएइ, ततो पच्छा अवरं राई, एवं खलु पुवाफग्गुणीनक्खत्ते वाक्यं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोर्ग जोइत्ता जोग अणुपरियट्टेइ जोगं अणुपरियहित्ता पाओ चंदं | स्तराणं फस्गुणीणं समप्पेई' एतच्चोत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं पर्चक्षेत्रमतः प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागं वेदितव्यं, तथा चाह-- बचरफराणीजहा उत्तरभद्दषया' यथा प्रागुत्तरभद्रपदोका तोत्तरफाल्गुन्यपि वक्तव्या, सा चैवम्-'उत्तरफग्गुणी अनुक्रम *SIC [४६] ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः (मल.) ॥१०॥ [३६] | खलु णक्खत्ते पणयालीसइमुहुसे तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं च दिवस, १० प्राभृते | एवं खलु उत्तरफग्गुणीनक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोग अणुपरियट्टेइ जोगं प्राभृत| अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं हत्थस्स समप्पेइ,' इदं च हस्तनक्षत्रं सायं-दिवसावसानसमये चन्द्रेण सह योगमधिरोहति प्राभूत तेन पश्चाद्भागमवसेय, चित्रानक्षत्रं तु किश्चित्समधिके दिवसावसाने चन्द्रयोगमधिगच्छति, ततस्तदपि पश्चाद्भाग मन्तव्यं, पैतदेवाह-'हत्थो चित्ता य जहा धणिवा' यथा धनिष्ठा तथा हस्तं चित्रा च वक्तव्या, तद्यथा-ता हत्थे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खित्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु हत्थनक्खचे एग राई एगं च दिवस चंदेण सद्धिं जोगं जोषद, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियो जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं चित्ताए समप्पेइ'त्ति, 'ता चित्ता खलु नक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तपढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, ततो पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु चित्ता नक्खत्ते एगं राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोयं में जोएइ, जोयं जोइत्ता जोगं अणुपरियडे जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं साईए समप्पेई, स्वातिश्च सायं-प्रायः परि-2 स्फुटदृश्यमाननक्षत्रमण्डलरूपे चन्द्रेण सह योगमुपैति, तत इयं नक्तंभागा प्रत्येया, तथा चाह-'साई जहां सयभिसया ॥१०॥ यथा शतभिषक् तथा वक्तव्या, सा चैवम्-'साई खलु नक्खत्ते नभागे अवलुखेत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ, नो लभेइ अवरं दिवसं, एवं खलु साई नक्खत्ते एर्ग राईचंदेण सद्धिं जोयं जोएड, जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंद विसाहाणं समप्पेइ' इदं च विशाखानक्षत्रं व्यर्द्धक्षेत्रं, अतः अनुक्रम [४६] NEXT ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: SHEKH प्रत सूत्रांक * [३६] है प्रागुक्तयुक्तिवशादुभयभागमवगन्तव्यं, तथा चाह-विसाहा जहा उत्सरंभदवया' यथा उत्तरभद्रपदा तथा विशाखा वक व्या, तद्यथा-'ता विसाहा खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवढखित्ते पणयालीसमुहुत्ते तपढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोयं जोएइ अवरं च राई, तओ पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु विसाहानक्खत्ते दो दिवसं एगं च राई चंदेणं सद्धिं जोर्ग जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेव जोगं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अणुराहाए समप्पेई, तत एवमनुराधानक्षत्रं | सायंसमये-दिवसावसानरूपे चन्द्रेण सह योगमुपैतीति पश्चाद्भागमवसेयं, तथा चाह-'अणुराहा जहा धणिट्ठा' यथा धनिष्ठा तथाऽनुराधा वक्तव्या, सा चैवम्-'अणुराधा खलु नक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तपढमयाए| सायं चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु अणुराहा नक्खत्ते एग राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोग अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं जिहाए समप्पेई' ज्येष्ठायाश्च सार्यसमये समप्यति, प्रायः परिस्फुटं दृश्यमाने नक्षत्रमण्डले, तत इदं ज्येष्ठानक्षत्रं नकभागमवसेयं, तथा चाह-'जिट्ठा जहा सयभिसया'. यथा शतभिषक् तथा ज्येष्ठा वक्तव्या, तद्यथा-'ता जेट्ठा खलु नक्खत्ते नत्तंभागे अवलुखेत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धिं जो जोएइ, नो लभइ अवर दिवस, एवं खलु जिट्टानक्खत्ते एगं राई चंदेण सद्धिं | जोगं जोएइ, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ, जोगं अणुपरियहित्ता पातो चंदं मूलस्स समप्पेई' मूलनक्षत्रं चेदमुक्तलियुक्त्या प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपागच्छत् पूर्वभागमवसेयं, तथा चाह–'मूलो जहा पुषभइवया' यथा पूर्वभद्रपदा तथा |मूलनक्षत्रमभिधातव्यं, तच्चैवम्-ता मूले खलु नक्खत्ते पुचंभागे समक्खित्ते तीसइमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदण सर्टि। *5* 5 अनुक्रम [४६] For P OW wereturasurary.org ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [४], -------------------- मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत (मलाला सूत्राक [३६]] जोगं जोएइ, तओ पच्छा अवरं च राई, एवं खलु मूलनक्खत्तं एगं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोगं प्तिवृत्तिःजोइत्ता जोग अणुपरियट्टे जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं पुबासाढाणं समप्पेई' इदमपि पूर्वापाढानक्षत्रं प्रातश्चन्द्रेण प्राभृतसह योगमुक्तयुक्त्या समुपैति इति पूर्वभागं विज्ञेयं, एतदेवाह-'पुवासादा जहा पुत्वभवया,' यथा पूर्वभद्रपदा तथा|| प्राभृतं ॥११ ॥ पूर्वापाढा वक्तव्या, सा चैवम्-'ता पुषासाढा खलु नक्खत्ते पुवभागे समकूखेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पडमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, अवरं च राई, एवं खलु पुवासादानक्खत्ते एगं च दिवस एग च राई चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, जोग जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टेइ जोग अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं उत्तरासाढाणं समप्पेई', उत्तराषाढानक्षत्रं च बर्द्धक्षेत्रत्वादुभयभागमवसेयं, तथा चाह-उत्सरासादा जहा उत्तरभद्दवया' यथा उत्तरभद्रपदा तथा उत्तराषाढा वक्तव्या, तद्यथा-'उत्तरासादा खलु नक्खत्ते उभयंभागे दिवङखेत्ते पणयालीसमुहुत्ते तप्पढमयाए पातो चंदेण सद्धिं जोग जोएइ अवरं च राई तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु उत्तरासादानक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धिं जोग जोएइ, जोगं जोइत्ता सायं चंदमभिईसवणाणं समष्पेइ, तदेवं बाहुल्यमधिकृत्योकप्रकारेण यथोक्तेषु कालेषु नक्षत्राणि चन्द्रेण सह योगमुपयन्ति, ततः कानिचित्पूर्वभागानि कानिचित्पश्चानागानि कानिचिन्नतभागानि कानिचिदुभयभागा-IN न्युक्तानीति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्थ प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ अनुक्रम [४६] ॥११०॥ ॐ ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], -------------------- मूलं [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत --+C+PAK सूत्रांक ॐॐॐॐॐ [३७] . तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्थ प्राभृतप्राभृत, सम्प्रति पश्चममारभ्यते, तस्य चायमाधिकारो-यथा 'कुलानि वक्तव्यानीति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते कुला आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमे वारस कुला वारस वकुला चत्तारि कुलोचकुला, वारस है कुला, तंजहा-पणिहाकुलं उत्तराभवताकुलं अस्सिणीकुलं कत्तियाकुलं संठाणाकुलं पुस्साकुलं महाकुलं उत्तराफग्गुणीकुलं चित्ताकुलं विसाहाकुलं मूलाकुलं उत्तरासाढाकुलं,वारस उपकुला, तंजहा-सवणो उपकुल पुचपट्ठवताउवकुलं रेवतीवकुलं भरणीउबकुलं पुणवसुउवकुलं अस्सेसाउवकुलं पुषाफग्गुणीजवकुलं हत्याउचकुल सातीयकुलं जेट्टाउचकुलं पुषासाढाउचकुलं, चत्तारि कुलोवकुलातं०-अभीयीकुलोवकुलं सतभिसया-12 कुलोवकुलं अद्धाकुलोवकुलं अणुराधाकुलोषकुलं (सूत्रं ३७)॥दसमस्स पाहुडस्स पंचमं पाहुड पाहुडं समत्त। 'ता कहं तेइत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया कुलान्याख्यातानीति वदेत् , एवमुक्त भगवा-10 नाह-तत्थे त्यादि, इह न केवलं भगवता कुलान्येवाख्यातानि किंतूपकुलानि कुलोपकुलानि च, ततो निर्धारणार्थप्रतिपत्त्यर्थ तत्रेति, भगवान् घूते-'तत्र' तेषां कुलादीनां मध्ये खस्विमानि द्वादश कुलानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , इमे इति च प्रतिपदमभिसम्बध्यते, इमानि वक्ष्यमाणस्वरूपाणि द्वादश उपकुलानि, इमानि-वक्ष्यमाणस्वरूपाणि चत्वारि कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि, अथ किं कुलादीनां लक्षणम् ?, उच्यते, इह थैर्नक्षत्रैः प्रायः सदामासानां परिसमाप्तय उपजायन्ते माससद शमा-2 मानि च तानि नक्षत्राणि कुलानीति प्रसिद्धानि, तद्यथा-श्राविष्ठो मासः प्रायः श्रविष्ठया धनिष्ठापरपर्यायया परिसमा-४ अनुक्रम [४७] A asurary.com अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ४ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ५ आरभ्यते ~231~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [५], -------------------- मूलं [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सयप्रज प्रत तिवृत्तिः (मल०) ॥११॥ प्तिमुपैति १ भाद्रपद उत्तरभद्रपदया २ अश्वयुक अश्विन्या इति ३, धनिष्ठादीनि प्रायो मासपरिसमापकानि माससदृशना-131१० प्राभृते मानि कुलानि, यानि च कुलानामुपकुलाना चाधस्तनानि तानि कुलोपकुलानि अभिजिदादीनि चत्वारि नक्षत्राणि, उक्तलामत च-"मासाणे परिणामा हुंति कुला उवकुला उ हिडिमगा। हुंति पुण कुलोवकुला अभिईसयभअणुराहा ॥१॥" प्राभृतं अत्र 'मासाण परिणामा' इति प्रायो मासानां परिसमापकानि कचित् 'मासाण सरिसनामा' इति पाठा, तत्र मासानांसा कुलादि सदशनामानीति व्याख्येयं, 'सय'त्ति शतभिषकू, शेष सुगम, सम्पति यानि द्वादश कुलानि यानि च द्वादश उपकुलानि | यानि च चत्वारि कुलोपकुलानि तानि क्रमेण कथयति-बारस कुला तंजहा इत्यादि सुगम ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य पश्चमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ अनुक्रम [४७] तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य पश्चम प्राभृतप्राभृत, सम्प्रति षष्ठमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:-'यथा पौर्णमास्योऽमावास्यश्च वक्तव्या' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता-कहं ते पुषिणमासिणी आहितेति वदेजा, तस्थ खलु इमाओ बारस पुण्णिमासिणीओ बारस अमावासाओ पणत्ताओ, तंजहा-साविट्ठी पोहवती आसोया कत्तिया भग्गसिरी पोसी माही फग्गुणी चेती विसाही जेहामूली आसाढी, ता साविडिण्णं पुण्णमासिं कति णक्वत्ता जोएति ,ता Mतिषिण णवत्ता जोइंति, तं0-अभिई सवणो धणिहा, ता पुढवती, पुढवतीपणं पुषिणमं कति सक्ससा ॥१११॥ SARERainintainarana weredturary.com अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ५ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ६ आरभ्यते ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] जोएंति, ता तिन्नि नक्खत्ता जोयंति, तं०-सतिभिसया पुवासाढवती उत्तरापुट्टवता, ता आसोदिण्णं पुण्णिमं कति णक्खत्सा जोएंति , ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-रेवतीय अस्सिणी य, कत्तियण्णं पुण्णिम कति णक्वत्ता जोएंति !, ता दोणि णक्वत्ता जोएंति तं०-भरणी कत्तिया य, ता मागसिरीपुन्निम कति णक्खत्ता जोएंति , ता दोषिण णक्वत्ता जोएंति, तं०-रोहिणी मग्गसिरो य, ता पोसिपणं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति ?, ता तिणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-अहा पुणवसू पुस्सो, ता माहिण्णं पुषिणमं कति णक्खत्ता जोएंति ?, ता दोणि नक्खत्ता जोयंति, तं०-अस्सेसा महा य, ता फग्गुणीण्णं पणिम कति णक्खत्ता जोएंति , ता दुन्नि नक्खत्ता जोएंति, तं०-पुषाफरगुणी उत्तराफग्गुणी य, ता चित्तिषणं पुषिणमं कति णक्खत्ता जोएंति , ता दोणितं०-हत्थो चित्ता य, ता विसाहिणं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति !, दोषिण णक्खत्ता जोएंति तं०-साती विसाहा य, ता जेट्ठामूलिण्णं पुण्णिमालासिपणं कति णक्खत्ता जोएंति , ता तिन्नि णक्खत्ताजोयंति, सं०-अणुराहा जेट्ठा मूलो, आसाढिपणं पुषिणम कति णक्खत्सा जोएंति , ता दो णक्खत्ता जोएंति, तं-पुवासाढा उत्तरासादा (सूत्रं ३८)॥ 'ता कहते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं । केन प्रकारेण केन नक्षत्रेण परिसमाप्यमाना इत्यर्थः, पौर्णामास्य आख्याताः, अत्र पौर्णामासीग्रहणममावास्योपलक्षणं, तेन कथममावास्या अभ्याख्याता इति वदेत् , एवमुक्त भगवानाह'तस्थेत्यादि, तत्र-तासां पौर्णामासीनाममावास्यानां च मध्ये जातिभेदमधिकृत्य खल्विमा द्वादश पौर्णमास्यो द्वादश. अनुक्रम [४८ wwwrajastaram.org ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्रत (मल०) प्राभृतं सुत्रांक [३८] 4 % चेमा अमावास्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-श्राविष्ठी प्रौष्ठपदी' इत्यादि, तत्र श्रविष्ठा-धनिष्ठा तस्यां भवा श्राविष्ठी-श्रावण- १०पाभृते मासभाविनी प्रोष्ठपदा-उत्तरभाद्रपदा तस्यां भवा प्रौष्ठपदी-भाद्रपदमासभाविनी, अश्वयुजि भवा आश्वयुजी अश्व ६प्राभूतयुगमासभाविनी, एवं मासक्रमेण तत्तन्नामानुरूपनक्षत्रयोगात् शेषा अपि वक्तव्याः । सम्प्रति यैनक्षत्ररेकैका पूर्णमासी पूर्णिमादि परिसमाप्यते तानि पिपृच्छिषुराहता सावविन्न'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अाविष्ठी पौर्णमासी कति नक्षत्राणि नक्षत्र युञ्जति ?-कति नक्षत्राणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्ति, भगवानाह-'ता तिन्नि' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति-त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह यायोगं संयुज्य परिसमापयन्ति, तद्यथा-अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा च, इह श्रवणधनिष्ठारूपे द्वे एव नक्षत्रे श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयतः, केवलमभिजिनक्षत्रं श्रवणेन सह सम्बद्धमिति तदपि परिसमापयतीत्युक्त, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, इह प्रवचनप्रसिद्धममावास्यापौर्णमासीविषयंचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थमिदं करणम् नाउमिह अमावासं जह इच्छसि कमि होइ रिक्सम्मि । अवहारं ठरविज्जा तत्तियरूवेहि संगुणए ॥ १ ॥ छावट्ठी व मुहुचा विसति- भागा य पंच पडिपुना । पास ट्ठिभागसहिगो य इको हवह भागो ॥२॥ एयमवहाररासि इच्छअमावाससंगुणं कुजा । नक्सत्ताणं एनो। | सोहणगविहिं निसामेह ॥ ३॥ बाबीसं च मुहुणा छायालीसं विसट्ठिभागा य । एवं पुणवसुस्स य सोहेयर्थ हबद बुच्छ ॥ ॥ बावतरं । सयं फग्गुणीण बाणउदय वे विसाहामु । चत्वारि अ यायाला सोज्झा अह उत्तरासाढा ॥ ५ ॥ एवं पुणवसुस्सय मिसट्ठिभागसहियं II ला॥११२॥ सोहणगं । इचो अमिईआई विइयं वुच्छामि सोहणगं ॥ ६॥ अभिइस्स नव मुहुत्ता बिसटिभागा य हुँति चउवीसं । छावट्ठी असमचा अनुक्रम [४८] ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 13 सूत्रांक [३८] भागा सत्चहिछेअकया ॥ ७ ॥ उगुणहुँ पोट्ठवयातिसु चेव नवोत्तरं च रोहिणिया । तिसु नवनवएसु भवे पुणवसू फग्गुणीओ य ॥८॥ पंचेब उगुणपन्नं सयाइ उगुणुत्तराई छवेव । सोज्झाणि विसाहासुं मूले सत्तेव चोआला ॥ ९॥ अट्ठसय उगुणवीसा सोहणगं उत्तराण. | साढाणं । चउवीसं खलु भागा छावट्टी चुण्णिआओ य ॥१०॥ एआइ सोहइत्ता जे सेसं तं हवेइ नक्खतं । इत्थं करेइ उडुबइ सूरेण | समं अमावास ॥ ११ ॥ इच्छापुनिमगुणिओ अवहारो सोत्थ होइ कायबो । तं चेव य सोहणगं अभिई भई तु काय ॥ १२ ॥ सुद्धमि लअ सोहणगे जं सेसं तं भविज नक्खतं । तत्थ य करेइ उडुबइ पडिपुनो पुन्निमं विउलं ॥ १३ ॥ A एतासां गाथानां क्रमेण व्याख्या-याममावास्यामिह-युगे ज्ञातुमिच्छसि, यथा कस्मिन्नक्षत्रे वर्तमाना परिसमाता भवतीति तावद्रूपैर्यावत्योऽमावास्या अतिक्रान्तास्तावत्याः सङ्ग्याया इत्यर्थः, वक्ष्यमाणस्वरूपं अवधार्यते-प्रथमतया स्था-12 प्यते इलाधार्यो-ध्रुवराशिस्तमवधार्यराशि पट्टिकादौ स्थापयित्वा चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सङ्गणयेत्, अथ किंप्रमा-४ णोऽसाववधार्यों राशिरिति तत्प्रमाणनिरूपणार्धमाह-'छावट्ठी' गाहा, षट्पष्टिमुंहूत्तों एकस्य च मुहर्तस्य पश्च परिपूणों द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टितमो भागः, एतावत्प्रमाणोऽवधार्यराशिः, कथमेतावत्प्रमाणस्यास्योत्पत्तिरिति चेत् ?, उच्यते, इह यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पश्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं| लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४।५।२। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चलक्षणो गुण्यते, जाता दश, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, तत्र छेद्यच्छेदकराश्योर्द्विकेनापवर्तना क्रियते, जात उपरितनश्छेद्यो| राशिः पथकरूपोऽऽधस्तनो द्वापष्टिरूपः, लब्धाः पञ्च द्वापष्टिभागाः, एतेन नक्षत्राणि कर्तव्यानीति नक्षत्रकरणार्थमष्टा -15 अनुक्रम [४८] ~235~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: विवृत्तिः प्रत XXN सूर्यप्रज्ञ दशभिः शतत्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुण्यन्ते, जातान्येकनवतिः शतानि पश्चाशदधिकानि ९१५०. छेदराशिरपि31१० प्राभूते द्वापष्टिप्रमाणः सप्तपण्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि ४१५४, उपरितनराशिर्मुहर्तान-12 ६प्राभृत (मल०)। यनाय भूयस्त्रिंशता गुण्यते, जाते द्वे लक्षे चतुःसप्ततिः सहस्राणि पश्च शतानि २७४५००, तेषां चतुष्पश्चाशदधिकैकच प्राभृतं पूर्णिमादि ॥११॥ त्वारिंशच्छतैर्भागहरणं, लब्धाः षट्षष्टिर्मुहर्ताः ६६, शेषा अंशास्तिष्ठन्ति त्रीणि शतानि पत्रिंशदधिकानि ३३६, ततो नक्षत्रं द्वापष्टिभागानयनार्थं तानि द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि विंशतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि द्वात्रिंशदधिकानि' २०८३२, सू३८ तेषामनन्तरोक्तेन छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धाः पञ्च द्वापष्टिभागाः ५, शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः, ततस्तस्या द्वापध्या अपवर्तना क्रियते, जात एककः, छेदराशेरपि द्वापट्याऽपवर्तनायां लब्धाः सप्तषष्टिः, तत आगतं पट्पष्टिमहतो एकस्य च मुहूर्तस्य पश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इति, तदेवमुक्तमवधार्यराशिप्रमाणे, | सम्पति शेषविधिमाह-एपमवहारे'त्यादि, एतं-अनन्तरोदितस्वरूपमवधार्यराशिमिपछाऽमावास्यासंगुण-याममा-It वास्यां ज्ञातुमिच्छसि तत्समया गुणितं कुर्यात, अत ऊर्च च नक्षत्राणि शोधनीयानि, ततोऽत अय नक्षत्राणां शोधनक- ट्राविधि-शोधनकमकारं वक्ष्यमाणं निशमयत-आकर्णयत । तत्र प्रथमतः पुनर्वसशोधनकमाह-बावीसं'चेत्यादिगाथा, द्वाविंशतिमुत्तों एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः एतद्-एतावत्प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य परिपूर्ण भवति । शोद्धयं, कथमेवं प्रमाणस्य शोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत् १, उच्यते, इह यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पश्च सूर्यनक्षत्र-12 | ॥११॥ पर्याया लभ्यन्ते तदैक पतिक्रम्य कतिपयास्तेनैकेन पर्वणा लभ्यन्ते !, राशिवयस्थापना-१२४ । ५।१। अत्रान्त्येन अनुक्रम [४८] ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [४८] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [३८] प्राभृत [१०], ---- प्राभृतप्राभृत [६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः राशिना एक लक्षणेन मध्यराशिः पश्ञ्चकरूपो गुण्यते, जाताः पञ्चैव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् तेषां चतुविंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः पञ्च चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः, ततो नक्षत्रानयनार्थमेतेऽष्टादशभिः शतैस्त्रिशदधिकैः सप्तषष्टिभागरूपैः गुणयितव्या इति, गुणकारच्छेदराश्योर्द्विकेनापवर्त्तना, जातो गुणकारराशिर्नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिद्वषष्टिः ६२, ततः पश्च नवभिः पञ्चदशोत्तरैः शतैर्गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५, छेदराशिद्वषष्टिलक्षणः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधि कानि ४१५४, तथा पुष्यस्य ये त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्राक्तनयुगचरमपर्वणि सूर्येण सह योगमायान्ति ते द्वापष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि षडविंशत्यधिकानि १४२६, एतानि प्राक्तनात् पञ्चसप्तत्यधिकपञ्चचत्वारिंशच्छतप्रमाणात् शोध्यन्ते, शेषं तिष्ठन्ति एकत्रिंशच्छतानि एकोनपञ्चाशदधिकानि ३१४९, तत एतानि मुहर्त्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुर्णवतिः सहस्राणि चत्वारि शतानि सप्तत्यधिकानि ९४४७०, तेषां छेदराशिना चतुष्पञ्चाशदधिकेकचत्वारिंशच्छतरूपेण भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ताः शेषं तिष्ठन्ति त्रीणि सहस्राणि व्यशीत्यधिकानि ३०८२, एतानि द्वाषष्टिभागानयनार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षमेकनवतिः सहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि १९१०८४, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धाः षट्चत्वारिंशन्मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागाः, एषा पुनर्वसु नक्षत्रस्य शोधनकनिष्पत्तिः । शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह - 'बावन्तरं सय' मित्यादि, द्वासप्ततं द्विसप्तत्यधिकं शतं फाल्गुनीनां-उत्तरफाल्गुनीनां शोध्यं किमुक्तं भवति १- द्विसप्तत्यधिकेन शतेन पुनर्वसुप्रभृतीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, Education Internation For Parts Only ~ 237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) सुत्राक ॥११४॥ [३८] एवमुत्तरत्रापि भावार्थों भावनीयः, तथा विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधनकं द्वे शते द्विनवत्यधिके २९२, अथा-11१० प्राभृत नन्तमुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राण्यधिकृत्य शोध्यानि चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि ४४२, 'एवं पुणे त्यादि-४ |६प्राभृतगाथा, एतदनन्तरोत शोधनकं सकलमपि पुनर्वसुसत्कद्वापष्टिभागसहितमवसेयं, एतदुक्तं भवति-ये पुनर्वसुसत्का द्वाविं- | प्राभूतशतिर्मुहर्तास्ते सर्वेऽप्युत्तरस्मिन् शोधन केऽन्तःप्रविष्टाः प्रवर्तन्ते, नतु द्वापष्टिभागा, ततो यद्यच्छोधन शोध्यते तत्र पूर्णिमादि तत्र पुनर्वसुसत्काः षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा उपरितना शोधनीया इति, एतच्च पुनर्वसुप्रभृत्युत्तराषाढापर्यन्तं प्रथम नक्षत्रं सू३८ शोधनक, अत ऊर्ध्वमभिजितमादिं कृत्वा द्वितीय शोधनकं वक्ष्यामि, तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति–'अभिहस्से'त्यादिगाथाचतुष्टयं, अभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकं नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य सत्काश्चतुर्विंशतिषष्टिभागाः, एकस्य च | द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिश्छेदकृताः परिपूर्णाः षट्पष्टिभागाः, तथा एकोनषष्ट-एकोनपट्यधिक शतं प्रोष्ठपदाना-उत्तर-18 भद्रपद्मनां शोधनकं, किमुकं भवति । एकोनपाध्यधिकेन शतेनाभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुक्ष्यन्ति, एवमुत्तरत्रापि भावना कर्तव्या, तथा त्रिषु नवोत्तरेषु शतेषु रोहिणिका-रोहिणिपर्यन्तानि शुख्यन्ति, तथा त्रिषु नवनव-12 | तेषु-नवनवत्यधिकेषु शतेषु शोधितेषु पुनर्वसुपर्यन्तं नक्षत्रजातं शुक्रवति, तथा एकोनपश्चाशदधिकानि पञ्च शतानि प्राप्य फाल्गुन्यश्व-उत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु एकोनसप्तत्यधिकानि | ११४॥ षट् शतानि ६६९ शोध्यानि, मूलपर्यन्ते नक्षत्रजासे सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि शोध्यानि ७४४, उत्तराषाढाना-1 | उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकमष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि ८१९, सर्वेन्यपि च शोधनेषूपरि अभिजितो| अनुक्रम +915415 EKES +5 [४८] ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] दीप CASSESEX नक्षत्रस्य सम्बन्धिनो मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागाश्चतुर्विंशतिः षट्षष्टिश्च चूर्णिकाभागा एकस्य द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागार ४ शोधनीयाः, 'एयाई इत्यादि, एतान्यनन्तरोदितानि शोधनकानि यथायोगं शोधयित्वा यच्छेषमवतिष्ठते तद्भवति नक्षत्रं, पतस्मिंश नक्षत्रे करोति सूर्येण सममुडुपतिरमावास्यामिति । तदेवममावास्याविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थं करणमुक्त, सम्पति पौर्णमासीविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमाह-इच्छापुनिमे त्यादि, यः पूर्वममावास्याचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानामवधार्यराशिरुक्तः स एवात्रापि पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविधौ ईप्सितपौर्णमासीगुणितो-यां पौर्णमासी ज्ञातुमि-14 च्छति तत्सङ्ख्यया गुणितः कर्तव्यः, गुणिते च सति तदेव पूर्योकं शोधनं कर्तव्यं, केबलमभिजिदादिकं नतु पुनर्वसप्रभृतिक, शुद्धे च शोधनके यत् शेषमवतिष्ठते तद्भवेन्नक्षत्रं पौर्णमासीयुक्त, तस्मिंश्च नक्षत्रे करोति उडुपतिः-चन्द्रमाः परिपूर्णः पूर्णमासी विमलामिति। एष पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविषयकरणगाथाद्वयाक्षरार्थः, सम्पत्यस्यैव भावना क्रियतेकोऽपि पृच्छति-युगस्यादी प्रथमा पौर्णमासी श्राविष्ठी कस्मिंश्चन्द्रनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति , तत्र षट्पष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इत्येवंरूपोऽवधार्यराशिधियते, प्रथमायां किल | पौर्णमास्यां पृष्टमित्येकेन गुप्यते, एकेन गुणितं तदेव भवति, ततस्तस्मादभिजितो नव मुहूर्ता एकस्य चे मुहूर्तस्य चतुर्विंशति षष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागा इत्येवंपरिमाणं शोधनकं शोधनीय, तत्र षट्पष्टेनव मुहूर्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्सप्तपश्चाशत् , तेभ्य एको मुद्दों गृहीत्वा द्वापष्टिभागीकृतस्ते च द्वापष्टिरपि द्वापष्टिभागराशी पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जानाः सप्तषष्टिः द्वापष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विशतिः शुद्धा स्थिताः पश्चात्रिचत्वारिंशत् , तेभ्य एक रूपमादाय सप्तप REERASACSTERes अनुक्रम [४८ ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल.) ॥११५॥ सूत्राक [३८] ष्टिभागीक्रियते, ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तपष्टिभागैकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागास्तेभ्यः षट्षष्टिः १. प्राभृते शुद्धाः स्थितौ पश्चाद् द्वौ सप्तषष्टिभागौ, ततस्त्रिंशता मुहूत्तैः श्रवणः शुद्धः स्थिताः पश्चान्मुहूर्ताः पड्विंशतिः, तत इदमागतं- प्राभृत. धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेष्वेकस्य मुहूर्तस्य एकोनविंशतिसङ्ख्येषु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टिसखयेषु सप्त- प्राभूत षष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमाप्तिमेति । यदा तु द्वितीया श्राविष्ठीपौर्णमासी चिन्त्यते तदा सा युग- पूर्णिमाद स्यादित आरभ्य त्रयोदशी, ध्रवराशिः ६६ ।। त्रयोदशभिर्गुण्यते, जाता मुहूर्तानामष्टौ शतानि अष्टापश्चाशदधिकानि नक्षत्रं ८५८, एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चषष्टिषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कास्त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः ८५८॥ तत्रा-1 |ष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकैर्मुहानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कैः पट्पट्या सप्तपष्टिभागैरेको नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, ततः स्थिताः पश्चादेकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तपष्टिभागाः ३९ ततो नवभिर्मुहरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्र शुद्ध्यति, स्थिताः पश्चात्रिंशन्मुहूताः पञ्चदश मुहूत्तेस्य द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चदश सप्तपष्टिभागाः३० ।। १७ तेभ्यस्त्रिंशता श्रवणः शुद्धः, आगतं एकोन-11॥११५।। . |त्रिंशतिमुहूत्तेपु एकस्य च मुहर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु । धनिष्ठायां द्वितीया श्राविष्ठीपौर्णमासी परिसमाप्तिमेति । यदा तु तृतीया श्राविष्ठी पौर्णमासी चिन्त्यते तदा सा युगस्यादितः पञ्चविंशतितमेति पूर्वोक्तो धुवराशिः ६६ ।। पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानि षोडश शतानि पञ्चाशदधिकानि अनुक्रम 1-9- 4 [४८ ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 1515% प्रत सूत्रांक [३८] १६५०, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशं शतं द्वाषष्टिभागानां १२५ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः || P२५, तत्र षोडशभिः शतैरष्टात्रिंशदधिः १६३८ मुहानामेकस्य च मुहूर्तस्थाष्टाचत्वारिंशता द्वापष्टिभागः ४८ एकस्य हैं इच द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकेन शतेन १३२ द्वौ नक्षत्रपोयो शुख्यतः, स्थिताः पश्चाद् द्वादश मुहूर्ताः १२ एकस्य च है मुहर्तस्य पञ्चसप्ततिद्वाषष्टिभागाः ७५ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २७, ततो नवभिमुहरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्रं शुजत्यति, स्थिताः पश्चात्रयोदश मुहूर्ताः १३ एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः १३ एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशतिः सप्तषष्टिभागाः | २९, आगतं श्रवणनक्षत्रं षड्दिशती मुहर्नेम्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनचस्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयति, एवं चतुर्थी आविष्ठीं पौर्णमासी धनिष्ठानक्षत्रं षोडशसु मुहूतेषु एकस्य च सुमुहूर्चस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, पञ्चमी श्राविष्ठी पौर्णमासी श्रवणनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च सुमुहूर्तस्य षष्टिसक्येषु द्वापष्टिभागेष्वे कस्य द्वापष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमाप्तिं नयतीति । तदेवं यानि नक्षत्राणि श्राविष्ठी पौर्णमासी सपरिसमापयन्ति तान्युक्तानि, सम्पति यानि प्रोष्ठपदी समापयन्ति तान्याह-ता पोहवइपणं इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , प्रोष्ठपदी-भाद्रपदी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति-कति नक्षत्राणि यथायोग चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्तीत्यर्थः, एवं सर्वत्रापि युञ्जन्तीत्यस्य पदस्य भावना कर्तव्या, भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'ता'इति पूर्व अनुक्रम [४८] ~241~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यपज- प्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सुत्रांक ॥११६॥ [३८] वत् , त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-शतभिषक् पूर्वप्रोष्टपदा उत्तरप्रोष्ठपदा च, तत्र प्रथमा प्रोष्ठपदी पौर्णमासीमुत्तर १०प्राभूते भद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेषु चतुःषष्टौ सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिस-31 IP६प्राभृतमाप्तिं नयति, द्वितीयां प्रौष्ठपदी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमष्टसु मुहर्तेषु शेषेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाप- प्राभृतं |ष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकपश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति, तृतीयां प्रौष्ठपदी पौर्णमासीं शतभिषक् । पूर्णिमादि पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पदसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु. नक्षत्र चतुर्थी प्रौष्ठपदी पौर्णमासी उत्तरभद्रपदानक्षत्रं चत्वारिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य सू३८ च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी प्रौष्ठपदी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमेकविंशती मुहूत्रेधेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकादशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति, 'ता आसोई 'मित्यादि, आश्वयुजी णमिति वाक्यलङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति १, भगवानार'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-रेवती अश्विनी च, इहोत्तरभद्रपदानक्षत्रमपि कांचिदा-| श्वयुजी पौर्णमासी परिसमापयति, परं तत्पौष्ठपदीमपि पौर्णमासी परिसमापयति, तत्रैव च लोके तस्य प्राधाम्ब, |तन्नाम्ना तस्याः पौर्णमास्याः अभिधानादतस्तदिह न विवक्षितमित्यदोषः, तथाहि-प्रथमामाश्वयुजी पौर्णमासीमश्विनी-II नक्षत्रमेकर्षिशती मुहूर्तेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, द्वितीयामाश्वयुजी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं सप्तदशसु मुहूत्र्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्चाशति सप्त अनुक्रम [४८ SAREaratunintamational ~242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] पष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयामाश्वयुजी पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्र चर्तुदशम मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य एकस्मिन् बायटिभागे एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थीमाश्वयुजी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं चतुर्घ मुहूसेंध्येकस्य च मुहर्त्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमीमाश्वयुजी पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चायति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य दशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । कत्तियपण'मित्यादि, कार्तिकी पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह-वे नक्षत्रे युः, तद्यथाभरणी कृत्तिका वा, इहायश्विनीनक्षत्रमपि काश्चित् कार्तिकी पौर्णमासी परिसमापयति परं तदाश्वयुज्यां पौर्णमास्यां प्रधानमितीह तन्न विवक्षितं, तत्र प्रथमा कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्यु द्वापष्टिभागेलावेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टौ सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्र पत्रिंशती मुहवेकस्य । च मुहर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां कार्तिकी पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्याप्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी कार्तिकी पौर्णमासी भरणीनक्षत्रं नव मुहर्सेव्यकस्य च मुहूर्तस्य पश्चचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवसु.सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । 'ता मग्गसिरणं पुषिणमं करणखत्ता जोइंति'त्ति ता इति पूर्ववत्, कति नक्षत्राणि मार्गशीर्षी पौर्णमासी युञ्जन्तिी, अनुक्रम [४८] ~243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [४८] मूलं [३८] प्राभृत [१०], ---- प्राभृतप्राभृत [६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ शिवृत्तिः ( मल० ) ॥११७॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - भगवानाह - 'ता दोणी 'त्यादि, ता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे युङ्कः, तद्यथा - रोहिणिका मृगशिरश्च तत्र प्रथमां मार्गशीर्षी पौर्णमासी मृगशिरोऽष्टसु मुहर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सम्बन्धिनो द्वाषष्टिभागस्य सत्केष्वेकपष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां मार्गशीर्ष पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहर्त्तस्य षशितौ द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टि४. भागस्याष्टाचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां मार्गशीष पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रमेकविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मार्गशीर्षी पौर्णमासीं मृगशिरोनक्षत्रं द्वाविंशती मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोदशसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी मार्गशीर्ष पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रं अष्टादशसु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति, 'ता पोसीं णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, पौष णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, भगवानाह 'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यश्व, तत्र प्रथमां पौषीं पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्वयोर्मुहर्त्तयोरेकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु, द्वितीयां पौष पौर्णमासी एकोनत्रिंशति मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहर्त्तस्यैकविंशती द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां पौष पौर्णमासीमधिकमासादव तनीमार्द्रानक्षत्रं दशसु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहर्त्तस्याष्टाचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, अधिकमासभाविनीं पुनस्तामेव तृतीयां पौर्णमासी Eucation internation For Parks Use One ~244~ १० प्राभूते ६ प्राभूत प्राभूतं पूर्णिमादि नक्षत्रं सू ३८ ॥११७॥ waryru Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] पुष्यनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति | सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी पौषी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य अष्टसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य विंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पश्चमी पौषी पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षवं द्विचत्वारिंशति मुहष्वेकस्य च मुहूर्तस्य | पञ्चत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तसु सप्तपष्ठिभागेषु शेषेषु परिसमाप्तिं नयति। 'तामाहीपण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , माघी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह-'ता दोण्णी'त्यादि, दे नक्षत्रे युङ्कः, तद्यथा-अश्लेषा मघा च, चशब्दात्काश्चिन्माधी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं काश्चित्पुष्यनक्षत्रं च, तद्यथाप्रथमा माघी पौर्णमासी मघानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकपश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप-31 ष्टिभागस्य एकोनषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां माघी पौर्णमासीमश्लेषानक्षत्रमष्टसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां माघी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रमष्टाविंशती मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टात्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी माघी पौर्णमासी मघानक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेपेषु, पञ्चमी माघी पौर्णमासी पुष्यनक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, 'ता फग्गुणीण्ण मित्यादि, ता इति पूर्ववत् फाल्गुनी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह–ता दोणी त्यादि, अनुक्रम [४८ ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सुत्राक [३८] मता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-पूर्वफाल्गुनी उत्तरफाल्गुनी च, तत्र प्रथमा फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनी- १. प्राभृते सिवृत्तिः नक्षत्रं विंशतौ मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टापञ्चाशति सप्तपष्टि- प्राभृत(मल०)| भागेषु शेषेषु, द्वितीयां फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्र द्वयोमुहर्त्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य प्राभृतं च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेष्वे॥११८॥ कस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी फाल्गुनी | नक्षत्र सू ३८ पौर्णमासीमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रयस्त्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टो द्वापष्टिभागेप्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टादशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूसेवेकस्य च मुहर्तस्य पश्चविंशतौ द्वापष्टिसङ्ग्येषु भागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । 'ता चित्तिण्ण'मित्यादि, लता इति पूर्ववत् , चैत्रीं पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, भगवानाह-'ता'इत्यादि, द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-हस्तः चित्रा च, तत्र प्रथमां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापष्टिभानेवेकस्य च वापष्टिभागस्य सप्तपञ्चासति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां चैत्री पौर्णमासी हस्तनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेप्वेकस्य च मुहूर्तस्य षट्स द्वाषष्टिभलोषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु; तृतीयां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रमेकस्मिन् मुहूसे एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशलो द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तप-19 ष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेषु पकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु अनुक्रम [४८] For P OW ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: क + प्रत सूत्रांक [३८] CIXXXSAX 15+5% एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी चैत्री पौर्णमासी हस्तनक्षत्रं चतुर्विशती मुहूर्तेष्वेकस्य च ल मुहर्सस्य विंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति । 'ता वइसाहिशमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , वैशाखी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ,भगवानाह-ता दोग्णीत्यादि, ता इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे युकः, तद्यथा-स्वातिः विशाखा च, चशब्दादनुराधा च, इदं हि अनुराधानक्षत्र विशाखातः परं, विशाखा चास्यां पौर्णमास्यां प्रधाना, ततः परस्यामेव पौर्णमास्यां तत्साक्षादुपात्तं नेहेति, तत्र प्रथमां वैशाखी पौर्णमासीं विशाखानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रं पञ्चविंशती मुहूत्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकस्मिन् द्वापष्टि-18 &भागे एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां वैशाखी पौर्णमासी अनुराधानक्षत्रं पञ्चविंद शतौ मुहत्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनविंशति सप्तषष्टिभामेषु शेषेषु, चतुर्थी वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य पश्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप-18 |ष्टिभागस्य षोडशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी वैशाखी पौर्णमासी स्वातिनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य पश्चदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति । 'ता जेट्टामूलिंण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत, ज्येष्ठामौली णमिति वाक्यभूषणे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति , भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्व-15 पत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-अनुराधा ज्येष्ठा मूलं च, तत्र प्रथमा ज्येष्ठामौली पौर्णमासी मूलनक्षत्र सप्तक-ला % अनुक्रम [४८ ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः (मल०) ॥११९॥ १० प्राभृते प्रभृतप्राभृतं सुत्रांक नक्षत्रं [३८] शसु महतैषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकत्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पश्चपश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टापञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप- ष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां ज्येष्ठामौली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं चतुएं मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्थाष्टादशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठान-1 मेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पशदशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, पनामी ज्येष्ठामूली पौर्णमासी अनुराधानक्षत्रं द्वादशसु मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य | द्वयोः सप्तषष्टिभागयोः परिसमाप्तिमुपनयति । 'आसादिन्न'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , आषाढी णमिति वाक्यालङ्कारे पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति !, भगवानाह-ता दो'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, द्वे नक्षत्रे युङ्गा, तद्यथा-पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, तत्र प्रथमामाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं षड्विंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुष्पश्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयामाषाढी पौर्णमासी पूर्वाषाढानक्षत्र सप्तसु मुहर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैक चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयामाषाढी पौर्णमासी उत्तराषाढानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहर्तस्य त्रयोदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च | द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशती सप्तेषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तरापादानक्षत्रमेकोनचत्वारिंशति मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्दशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, अनुक्रम [४८] ॥११९॥ ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [४८] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [३८] प्राभृत [१०], ----- प्राभृतप्राभृत [६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पञ्चमीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं स्वयं परिसमाप्नुवन् परिसमापयति, किमुक्तं भवति ?- एकत्र पञ्चमी आषाढी पौर्णमासी समाप्तिमेति अन्यत्र चन्द्रयोगमधिकृत्योत्तराषाढा नक्षत्रमिति । इह सूत्रकृत एव शैलीयं यद् यद् नक्षत्रं पौर्णमासीममा| वास्यां वा परिसमापयति तद्यावत् शेषे परिसमापयति तावत्तस्य शेषं कथयति, ततस्तदनुरोधेनास्माभिरप्यत्र तथैवो कम्, यावता पुनर्यावत्यतिक्रान्ते परिसमापयति तावदेव प्रागुक्तकरणवशात् कथनीयं चन्द्रप्रज्ञतावपि तथैव वक्ष्यामि, अमावास्याधिकारमपि अनन्तरं तथैव वक्ष्यामः, तदेवं यानि नक्षत्राणि यां पौर्णमासीं युञ्जन्ति तान्युक्तानि, सम्प्रति गतार्थामपि मन्दमतिविबोधनार्थं कुलादियोजनामाह ता साविट्टिणं पुष्णिमासिं णं किं कुलं जोएति उबकुलं जो० कुलोवकुलं जोएति ?, ता कुलं वा जोएति बकुलं वा जोएति कुलोवकुलं वा जोएति, कुलं जोएमाणे घणिट्ठाणकखत्ते ० उबकुलं जोएमाणो सवणे णक्खत्ते जोएति, कुलोवकुलं जोएमाणे अभिणक्खते जोएति, साविद्धिं पुष्णिमं कुलं वा जोएति उबकुलं वा जोएति कुलोववकुलं वा जोएनि, कुलेण वा ( उचकुलेण वा कुलोवकुलेण वा ) जुत्ता साविट्ठी पुष्णिमा जुत्तातिवत्तवं सिया, ता पोडवतिष्णं पुण्णमं किं कुलं जोएति उबकुलं जोएति कुलोवकुलं वा जोएति ?, ता कुलं वा जोएति उबकुलं वा जोएति कुलोवकुलं वा जोएति, कुलं जोएमाणे उत्तरापोवा ते जोएति, उबकुलं जोएमाणे पुछापुडवता णक्खत्ते जोएति, कुलोबकुलं जोएमाणे सतभिसया क्खते जोएति, पोडवतिष्णं पुण्णमासिं णं कुलं वा जोएति उबकुलं वा जोएति कुलोबकुलं वा जोएति, कुलेण वा जुत्ता ३ पुढ Education Internation For Park Use Only ~ 249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- वता पुषिणमा जुत्ताति वत्त सिया, ता आसोई णं पुण्णिमासिणं किं कुल जोएति उचकुलंजोएति १० प्राभूत तिवृत्तिः कुलोवकुलं जोएति, णो लभति कुलोचकुलं, कुलं जोएमाणे अस्सिणीणक्खत्ते जोएति, उचकुलं जोएमाणे ६प्राभृत(मल०) वतीणक्खत्ते जोएति, आसोईणं पुण्णिमं च कुलं वा जोएति उपकुलं वा जोएति, कुलेण वा जुत्ता उब प्राभृतं लकुलोपकुला कुलण वा जुत्ता अस्सादिणं पुण्णिमा जुत्तति वत्त सिया, एवं तबाउ, पोस पुषिणमं जेहामूलं पुषिणमंच ॥१२०॥ वा, पाताल धिसू ३९ कुलोचकुलंपि जोएति, अवसेसासु णत्थि कुलोवकुलं, ता साविढि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति, दुन्नि नक्खत्ता जोएंति, तं०-अस्सेसा य महा य, एवं एतेणं अभिलावणं णेतवं, पोट्ठवतं दो णक्खत्ता जोएंति, ०-पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी, अस्सोई हत्थो चित्ता य, कत्तिय साती बिसाहा य, मग्गसिरं अणुराधा जेट्टामूलो, पोसिं पुवासादा उत्तरासाढा, माहिं अभीयी सवणो धणिठ्ठा, फग्गुणी सतभिसया पुषपोट्ठवता उत्तरापोहवता, चेति रवती अस्सिणी, विसाहिं भरणी कत्तिया य, जेट्ठामूलं रोहिणी मगसिरंच, ता आसादि| णं अमावासिं कति णवत्ता जोएंति ?, ता तिषिण णक्खत्ता जोएंति, तं-,अद्दा पुणवस पुस्सो, ता साविढि णं सा॥१२॥ अमावासं किं कुलं जोएति उपकुलं वा जोएति कुलोवकुलं वा जोएह, कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएड नो लम्मा कुलोवकुलं, कुलंजोएमाणे महाणक्खत्ते जोएति, उवकुलं वा जोएमाणे असिलसा जोएइ, कुलेण वा जुसा XI उचकुलेण वा जुत्ता'साविट्ठी अमावासा जुत्ताति वसईसिया?,एवं णेतचं, णवरं मग्गसिराएमाहीए आसाठीए| Xय अमावासाए कुलोवकुलपि जोएति, सेसेसु णस्थि (सू० ३९) ॥ समस्स पाहुडस्स गई पाहुडपाहुकमत। अनुक्रम %496 [४९] ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ****** K (३९) ता साविहिपण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, श्राविष्ठी पौर्णमासी किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति, भगवानाह-'ता कुलं वा' इत्यादि, कुलं वा युनक्ति, वाशब्दः समुच्चये, ततः कुलमपि युनक्कीत्यर्थः, एवं उप-|| |कुलमपि कुलोपकुलमपि, तत्र कुलं युञ्जन् धनिष्ठानक्षत्रं युनक्ति, तस्यैव कुल (लतया) प्रसिद्धस्य सतः श्राषिष्ट्यां पौर्णमास्या भावात् , उपकुलं युजन् श्रवण नक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युजन् अभिजिन्नक्षत्रं युनक्ति, तद्धि तृतीयायां श्राविष्ठप 2 पौर्णमास्यां द्वादशसु मुहूर्तेषु किश्चित्समषिकेषु शेषेषु चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः श्रवणेन सह सहचरत्वात् स्वयमपि तस्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्तित्वात् तदपि तां परिसमापयतीति विवक्षितत्वाद् युनक्कीत्युक्तं, सम्प्रति उपसंहारमाह'साथिहिन्न'मित्यादि, यत एवं त्रिभिरपि कुलादिभिः श्राविछ्याः पौर्णमास्यां योजनाऽस्ति ततः श्राविष्ठी पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनतीति वक्तव्यं स्यात्-इति स्थशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात्, यदिवा कुलेन वा युक्ता सती श्राविष्ठी पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता युक्तेति वक्तव्यं स्यात् , एवं शेषमपि सूत्रं निगमनीयं, यावत् 'एवं नेयवाओ'इत्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण शेषा अपि पौर्णमास्यो नेतव्याः-पाठक्रमेण वक्तव्याः, नवरं पीपी पौर्णमासी ज्येष्ठामूली च पौर्णमासी कुलोपकुलमपि युनक्ति, अवशेषासु च पौर्णमासीषु कुलोपकुल नास्तीति परिभाच्य वक्तव्याः, ताश्चैवम्-'ता कत्तियण्णं पुन्निमासिणी किं कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, ता कुलंपि जोएइ उवकुलंपि जोएइ, नो लभेइ कुलोबकुलं, कुलं जोएमाणे कत्तिआणखत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे भरणीनक्खत्ते जोएइ, ता कत्तिअन्नं पुण्णिमं कुलं वा जोपड उवकुलं वा जोपइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कत्तियपु अनुक्रम [४९] ONSUMUASSASA ~251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४९] ---- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [३९] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥१२१॥ सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - पिणमा जुत्तत्ति वत्तवं सिआ इत्यादि, तावद्वक्तव्यं यावदापाढी पौर्णमासी सूत्रपर्यन्तः, तथा चाह-'जाव आसादीपुन्निमा ५ जुत्तत्तिवत्तवं सिया' । तदेवं पौर्णमासीवक्तव्यतोक्ता, सम्प्रति अमावास्यावक्तव्यतामाह-'दुबालसेत्यादि, द्वादश अमावास्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा श्राविष्ठी प्रोष्ठपदी इत्यादि, तत्र मासपरिसमापकेन श्रविष्ठानक्षत्रेणोपलक्षितो यः श्रावणो मासः सोऽप्युपचारात् श्राविष्ठा तत्र भवा श्राविष्ठी, किमुक्तं भवति ? - श्रविष्ठानक्षत्रपरिसमाप्यमानश्रावणमास भाविनीति, प्रोष्ठपदी प्रोष्ठपदा नक्षत्रपरिसमाप्यमानभाद्रपदमासभाविनी, एवं सर्वत्रापि वाक्यार्थो भावनीयः, 'ता साविट्टिष्ण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् श्रविष्ठीममावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ? कति नक्षत्राणि यथायोगं चन्द्रेण सह संयुज्य श्राविष्ठीं अमावास्यां परिसमापयन्ति, भगवानाह - 'ता दोष्णी'त्यादि, ता इति पूर्वत्, द्वे नक्षत्रे युङ्कः, तद्यथा - अश्लेषा मघा च, इह व्यवहारनयमते यस्मिन्नक्षत्रे पौर्णमासी भवति तत आरभ्यावृतिने पञ्चदशे नक्षत्रे अमावास्या भवति, यस्मिंश्च नक्षत्रे अमावास्या तत आरभ्य परतः पञ्चदशे नक्षत्रे पौर्णमासी, तत्र श्राविष्ठी पौर्णमासी किल श्रवणे धनिष्ठायां वोक्ता ततोऽमावास्यायामप्यस्यां श्राविष्ठ्यां अश्लेषा मघाश्वोकाः, लोके च तिथिगणितानुसारतो गतायामप्यमावास्यायां वर्त्तमानायामपि च प्रतिपदि यस्मिन्नहोरात्रे प्रथमतोऽमावास्याऽभूत् स सकलोऽप्यहोरात्रो अमावास्येति व्यवहियते, तत मघा नक्षत्रमप्येवं व्यवहारतोऽमावास्यायां प्राप्यत इति न कश्चिद्विरोधः, परमार्थतः पुनरिमाममावास्यां श्राविष्ठीमिमानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा- पुनर्वसुः पुष्योऽश्लेषा च, तथाहि - अमावास्याचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थं करणं प्रागेवोकं, तत्र तद्भावना क्रियते कोऽपि पृच्छति-युगस्यादौ प्रथमा श्राविश्यमावास्या केन चन्द्रयुक्तेन नक्षत्रेणोपेता सती Education internationa For Parts Only ~ 252~ १० प्राभृते ६ प्राभृत प्राभृतं कुलोपकुला धि सू ३९ ॥१२१॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) &समाप्तिमुपयाति !, तत्र पूर्वोदितस्वरूपोऽवधार्यराशिः षट्षष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभाग इति प्रमाणो ध्रियते, धृत्वा चैकेन गुण्यते, प्रथमाया अमावास्यायाः पृष्टत्वात् , एकेन |गुणितं तदेव भवतीति राशिस्तावानेव जातः, ततस्तस्माद् द्वाविंशतिमहत्तों एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टि-18 भागा इत्येवंपरिमाणं पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते, तत्र षषष्टेर्मुहुर्तेभ्यो द्वाविंशतिर्मुद्वर्ताः शुद्धाः, स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वा-13 रिंशत् ४४, तेभ्य एकं मुहर्तमपकृष्य तस्या द्वापष्टिभागाः क्रियन्ते, कृत्वा च ते द्वापष्टिभागराशिंमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता सक्षषष्टिः, तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः, शेषास्तिष्ठन्त्येकविंशतिः, त्रिचत्वारिंशतो मुहूर्तेभ्यस्त्रिंशता मुहूतैः पुष्यः शुद्धः, स्थिताः पश्चात् त्रयोदश मुहर्ताः, अश्लेषानक्षत्रं च द्विक्षेत्रमिति पश्चदश मुहूर्तप्रमाणे, तत इदमागतं-अश्लेषानक्षत्रमेक|स्मिन् मुहूर्ते एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिधाछिन्नस्य षट्पष्टिसङ्ख्येषु भागेषु शेषेषु प्रथमाऽमावास्या समाप्तिमुपगच्छति, तथा च वक्ष्यति-ता एएसिं पंचण्ह संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे कणं नक्खण जोएछ , ता असिलेसाहि, असिलेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीस वावडिभागा मुहूत्तस्स बावडिभागं च सत्तहिहा छेत्ता छावडी चुण्णिाभागा सेसा'इति, यदा तु द्वितीयामावास्या चिन्त्यते तदा सा युगस्यादित आरभ्य त्रयो दशीति स ध्रुवराशिः ६६।। त्रयोदशभिर्गुण्यते, जातानि मुहूर्तानामष्टौ शताम्यष्टापश्चाशदधिकानि ८५८ एकस्य | तीच मुहर्तस्य पश्चषष्टिषष्टिभागा ६५ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कास्त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः १३, तत्र 'चत्तारि य चायाला अह सोज्झा उत्तरासाढा' इति वचनात् चतुर्भिर्द्विचत्वारिंशदधिकैर्मुहसंशतैः षट्चत्वारिंशता च द्वापष्टिभाग-1 अनुक्रम [४९] ~253 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः (मल प्रत सूत्राक ॥१२२॥ [३९] रुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां चत्वारि शतानि षोडशोत्तराणि एकस्य च मुहूर्तस्य तस्याल १०प्राभृते एकोनविंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्कारयोदश सप्तपष्टिभागाः । ४१ ।। तत एतस्मात् ६प्राभृतलत्रीणि शतानि नवनवत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्- प्राभृतं पष्टिः सप्तषष्टिभागाः ३९९ ३३ ६० इति शोधनीयं, तत्र षोडशोत्तरेभ्यश्चतुःशतेभ्यः त्रीणि शतानि नवनवत्यधिकानि कुलोपकुला शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्ताः, तेभ्यः एकं मुहूर्त गृहीत्वा तस्य द्वाषष्टि गाः क्रियन्ते, कृत्वा च द्वापष्टिभाग पाधि सू ३९ राशौ प्रक्षिप्यन्ते, जांता एकाशीतिः, तस्याश्चतुर्विशतिः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत् , तस्या रूपमेकमादाय सप्तपष्टिर्भागाः क्रियन्ते, तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः, पश्चादेकोऽवतिष्ठते, स सप्तपष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यते, जाताश्चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः, आगतं पुण्यनक्षत्र-पोडशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुईशसु सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु द्वितीयां श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयति, यदा तु तृतीयाश्राविष्ठ्यमावास्या चिन्त्यते सा युगादित आरभ्य पञ्चविंशतितमेति स ध्रुवराशिः ६६।३।। पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानि षोडश शतानि पश्चाशदधिकानि मुहूर्तानां १६५० एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशं द्वाषष्टिभागशतं । । एकस्य द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तपष्टिभागाः तत्र चतुर्भिईिचत्वारिंशदधिकर्मुहूर्तशतैरेकस्य प मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वापष्टिभागैः प्रथममु|त्तराषाढापर्यन्तं शोधनकं शुद्ध, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां द्वादश शतान्यष्टोत्तराणि १२०८ द्वापष्टिभागाश्च मुहस्य एकोनाशीतिः ७१ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २५, ततोऽष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिक ८१९ 4%AGAR अनुक्रम [४९] ॥१२२। For P OW ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) महानामेकस्य मुहर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तषष्टिभागैरेको नक्षत्रपर्यायः शुद्ध्यति, स्थितानि पश्चात्रीणि शतानि नवाशीत्यधिकानि मुहूर्तानां ३८९ एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः ५४ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पडूविंशतिः सप्तपष्टिभागाः २६, ततो भूयविभिनवोत्तरैर्मुहूर्त्तशतैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतु|विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि रोहिणिकापर्यन्तानि शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चान्मुहूर्ता अशीतिः एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, ८018। ततत्रिंशता मुहतैगशिरः शुद्धं, स्थिताः पश्चात्पञ्चाशन्मुहूर्ताः ५०, ततः पञ्चदशभिराद्र शुद्धा स्थिताः पञ्चत्रिंशत् ३५, आगतं पुनर्वसुनक्षत्रं पञ्चत्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनविंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशती सप्तपष्टिभागेषु गतेषु तृतीयां श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयति, एवं चतुर्थी श्राविष्ठीममावास्यामश्लेषानक्षत्रं प्रथमस मुहूर्तस्य सप्तसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु परिसमापयति , पञ्चमी श्राविष्ठीममावास्यां पुष्यनक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेष्वेकस्य मुहूर्त्तस्य द्विचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ३।३। परिणमयति, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन ४ प्रकारेण एतेन-अनन्तरोदितेन अभिलापेन-आलापकेन शेषमप्यमावास्याजातं नेतन्यं, विशेषमाह-पोहवयं दो नक्सत्ता जोपति,' अत्र चैवं सूत्रपाठः-'ता पोहवइण्णं अमावासं कह नक्खत्ता जोएंति , ता दोन्नि नक्खत्ता जोएंति, तंजहापुवफग्गुणी उत्तरफग्गुणी य' इदमपि व्यवहारत उच्यते, परमार्थतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि प्रोष्ठपदीममावास्यां परिसमाप अनुक्रम [४९] ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४९] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [३९] प्राभृत [१०], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ शिवृत्तिः मल० ) ॥ १२३॥ यन्ति, तद्यथा - मघा पूर्वफाल्गुनी उत्तरफाल्गुनी च, तत्र प्रथम प्रोष्ठपदीममावास्यामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं चतुर्षु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य षडविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वयोः सप्तषष्टिभागयोः ४ । २६ । २ अतिक्रान्तयोः, २) द्वितीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकषष्टौ द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चदशसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ७ । ६१ । १५ । तृतीयां प्रोष्ठपदीममावास्यां मघानक्षत्र मेकादशसु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुस्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ११ । ३४ । २८, चतुर्थी प्रोष्ठपदीममावास्यां पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रमेकविंशतौ मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वादशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २१ । १२ । ४२ । पञ्चमीं प्रोष्ठपदीममावास्यां मधानक्षत्रं चतुर्विशतो मुहूर्त्तेष्वे| कस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २४ । ४७ । ५५ । परिसमापयति, 'आसोई दोष्णी' त्यादि, अत्राप्येवं पाठ:- 'ता आसोइण्णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता दोण्णि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा - हत्थो चित्ता य' एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनराश्वयुजी ममावास्यां श्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-उत्तरफाल्गुनी हस्तः चित्रा च तत्र प्रथमामाश्वयुजीममावास्यां हस्तनक्षत्रं पञ्चविंशती मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिषु सप्तषष्टिभागेषु २५ । ३१ । ३ गतेषु, द्वितीयामाश्वयुजी ममावास्यामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं चतुश्चत्वारिंशति मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्षु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षोडशसु सप्तषष्टिभागेषु ४४ । ४ । १६ गतेषु, तृतीयामाश्वयुजीममावास्यां उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रं सप्तद Eaton International For Parts Only ~256~ १० प्राभूते ६ प्राभृत प्राभृतं कुलोपकुला धि सू ३९ ॥ १२३॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) शसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु १७॥ ३९।२९ गतेषु, चतुर्थीमाश्वयुजीममावास्यां हस्तनक्षत्रं द्वादशसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु १२ गतेषु, पञ्चमीमाश्वयुजीममावास्यां उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रिंशत्ति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूत्तस्य द्विपश्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशति | सप्तपष्टिभागेषु ३०। ५२१५४ गतेषु परिसमापयति, 'कत्तियणं साई विसाहा यत्ति, अत्राप्येवं सूत्रपाठः-'ता कत्तियष्ण अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता दोणि नक्खत्ता जोइंति, तंजहा- 'साईबिसाहा यत्ति, एतदपि व्यवहारनयमते, निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि कार्तिकीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा-स्वातिविशाखा चित्रा च, तत्र प्रथमां कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु १६ । ३६ । ४ गतेषु, द्वितीयां कार्तिकीममावास्यां स्वातिनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तपष्टिभागेषु ५। २२ । १७ गतेषु, तृतीयां। कार्तिकीममावास्यां चित्रानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य | त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु ८।४४।३० गतेषु, चतुर्थी कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाविंशतौ द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु १३ ॥ २२॥ ४४ गतेषु, पञ्चमी कार्तिकीममावास्यां चित्रानक्षत्रं एकविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य अनुक्रम [४९] SCX RECE5CE ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४९] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [ ३९ ] प्राभृत [१०], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥ १२४ ॥ सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु २१ । ५७ । ५७ । गतेषु समाधिमुपनयति, 'मग्गसिरं तिण्णि, तंजहा-अणुराहा जिट्ठा मूलो' इति, अत्रापि सूत्रालापक एवम् -'ता मग्गसिरं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता तिन्नि नक्खता जोएंति, तंजहाअनुराहा जिट्ठा मूलो य' इति एतदपि व्यवहारतो निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि नक्षत्राणि मार्गशीर्षीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा - विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा च तत्र प्रथमां मार्गशीर्षी ममावास्यां ज्येष्ठानक्षत्रं सप्तसु मुहर्त्तेषु एकस्य च | मुहूर्त्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु ७।४१।५, द्वितीयां मार्गशीषममाॐ वास्यामनुराधा नक्षत्रमेकादशसु मुहत्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टादशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ११ । १४ । १८, तृतीयां मार्गशीर्षी ममावस्यां विशाखा नक्षत्रमेकोनत्रिंशति मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्यतिक्रान्तेषु २९ । ४९ । ३१, चतुर्थी | मार्गशीर्षीममावास्यामनुराधानक्षत्रं चतुर्विंशतौ मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतौ द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभा गस्य पशचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २४ । २७ । ४५, पञ्चमीं मार्गशीषममावास्यां विशाखानक्षत्रं त्रिचत्वारिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सम्बन्धिनो द्वाषष्टिभागस्याष्टापश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ४३ । ० । ५८ । परिसमापयति । 'पोसिं च दोन्नि - पुञ्धासाठा उत्तरासादा य'त्ति, अत्रैवं सूत्रालापकः 'ता पोसिं अमावासं कइ नक्खत्ता जोएंति ?, ता दोन्नि नक्खत्ता जोएंति, संजहा- पुवासाढा व उत्तरासादा यत्ति, एतदपि व्यवहारत उक्तं, निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति तद्यथा मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, तथाहि प्रथमां पौषीममावास्यां पूर्वाषाढा नक्षत्रमष्टाविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च Eucation International For Parts Only ~ 258~ १० प्राभृते ६ प्राभृतप्राभृतं कुलोपकुला धि सू ३९ ॥ १२४ ॥ www.landbrary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) मुहर्सस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्सु समष्टिभागेषु गतेषु २८।२६।६। द्वितीयां पौषीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्र द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्यैकोनविंशतौ द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनविंशतौ सप्तषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २११९ । १९ । तृतीयामधिकमासभाविनी पौषीममावास्थामुत्तराषाढानक्षत्रमेकादशसु | मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनषष्टी द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयविंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ११॥ ५९।१३, चतुर्थी पौषीममावास्यां पूर्वापाढानक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाप ष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सक्षषष्टिभागेषु गतेषु १५। ५६। ४६, पञ्चमी पौषीममावास्यां मूलनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्ते4वेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनपष्टौ सप्तषष्टिभागेवंतिकान्तेषु १९ । ५।५९ परि समापयति । 'माहिं तिण्णि अभीई सवणो धणिहा' इति, अत्राप्येवं सूत्रालापक:-'ता माहिणं अमावासं कह नक्खत्ता जोएंति ?, ता तिणि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा-अभिई सवणो धणिहा य एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि माघीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा-उत्तराषाढा अभिजित् श्रवणश्च, तथाहि-प्रथमां माघीममावास्यां श्रवणनक्षत्रं दशसु मुहूत्र्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पइविंशतौ द्वापष्टिभागेष्वेकस्य द्वापष्टिभागस्याष्टसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु । १०।२६। ८, द्वितीयां माधीममावास्यामभिजिन्नक्षत्रं त्रिषु मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षडूविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्थ विंशती सप्तपष्टिभागेषु गतेषु । ३।२६।२०, तृतीयां माघीममावास्यां श्रवणनक्षत्र योविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु ॐॐॐॐॐॐ अनुक्रम [४९] weredturary.com ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४९] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [३९] प्राभृत [१०], ----- ----- प्राभृतप्राभृत [६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥१२५॥ गतेषु २३ । ३९ । ३५, चतुर्थी माघीममावास्यां अभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तत्रिंशति द्वापष्टिभागेमध्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु ६ । ३७।४७, पश्चमी माघीममावास्यामुत्तराषाढानक्षत्रं पञ्चविंशतो मुद्दत्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य दशसु द्वाषष्टिभागेष्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु गतेषु २५ । १० । ६० परिसमापयति । 'फग्गुणीं दोन्नि तंजहा सयभिसया पुत्रमद्दवयति, अत्राप्येवं सूत्रालापक:'ता फग्गुणीं णं अमावासं कइ नक्खत्ता जोति १, ता दोणि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा सयभितया पुबभद्दवया य, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि श्रीणि नक्षत्राणि फाल्गुनीममावास्यां परिसमापयन्ति, तद्यथा धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा च तत्र प्रथम फाल्गुनीममावास्यां पूर्व भद्रपदानक्षत्रं षट्सु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्यैकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य नवसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु । ६ । ३१।९, द्वितीयां फाल्गुनीममावास्यां धनिष्ठानक्षत्रं विंशतौ मुहूर्त्ते| ध्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्षु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु २०।४ । २२, तृतीया फाल्गुनीममावास्यां पूर्वाषाढा नक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षटूत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु १४ । ४४ । ३६, चतुर्थी फाल्गुनीममावास्यां शतभिषक् नक्षत्रं त्रिषु मुहर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तदशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ३ । १७ । ४९, पञ्चमी फाल्गुनीममावास्यां घनिष्ठानक्षत्रं षट्सु मुहर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्विपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्केषु द्वाषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ६ । ५२ । ६२ । परिणमयति । 'चित्तिं तिन्नि, तंजहा-उत्तरभद्दवया रेवती Ja Eucation International For Parts Only ~260~ १० प्राभूते ६ प्राभृत प्राभृर्त कुलोपकुला धि सू ३९ ॥१२५॥ www.anibrary or Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) अस्सिणी य'त्ति अत्राप्येवं सूत्रालापक:-'ता चित्तिन्न अमावासं कइ नक्षत्ता जोएंति ?, ता तिणि नक्खत्ता जोएंति, IA |तंजहा-उत्तरभदयया रेवई अस्सिणी य एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि नक्षत्राणि चैत्रीममावास्यां परि-1 समापयन्ति, तद्यथा-पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती च, तत्र प्रथमा चैत्रीममावास्थामुत्तरभद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य दशसु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ३७ । ३६ ॥ १०, द्वितीयां चैत्रीममावास्यामुत्तरभद्रपदानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टि-ट भागस्य त्रयोविंशती सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ११।९।२२, तृतीयां चैत्रीममावास्यां रेवतीनक्षत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनपश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु ५ । ४२ । ३७, चतुर्थी चैत्रीममावास्यामुत्तरभद्रपदानक्षत्रं त्रयोविंशती मुहर्तेषु एकस्य च मुहूत्र्तस्य द्वाविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च दापष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु २३ ॥ २२॥५०, पञ्चमी चैत्रीममावास्यां पूर्वभद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूत्तेवे कस्य च मुहूर्तस्य सप्तपश्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषष्टी सप्तपष्टिभागेष्वतिकान्तेषु २७ । ५७ । ६३| & परिसमापयति । 'वइसाही भरणी कत्तिया यत्ति, अत्राप्येवं सूत्रपाठः-'ता वइसाहिणं अमावासं कई नक्वत्ता जोएन्ति !, ता दोणि नक्खत्ता जोएंति, तंजहा-'भरणी कत्तिया यत्ति, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयतः पुनस्त्रीणि ४ नक्षत्राणि वैशाखीममावास्यां परिसमापयन्ति, तानि चामूनि-तद्यथा-रेवती अश्विनी भरणी च, तत्र प्रधमां वैशाखी-| & ममावास्यामश्विनीनक्षत्रमष्टाविंशता मुहूतेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्यै अनुक्रम [४९] ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत १० प्राभृते प्राभूतप्राभृतं कुलोपकुला धिसू३९ सूत्राक [३९] सूर्यप्रज्ञ- कादशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु २८॥४१॥११, द्वितीयां वैशास्त्रीममावास्यां अश्विनीनक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्त- प्तिवृत्तिः स्यैकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु व्यतिक्रान्तेषु २।१९।२३, (मल.) तृतीयां वैशाखीममावास्यां भरणीनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःपञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च ॥१२६॥ द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु । ११॥ ५४।३८, चतुर्थी वैशाखीममावास्यामधिनीनक्षत्रं पञ्चदशसु। मुहर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशती द्वाषष्टिभागेष्त्रेकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकपाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु १५ । २७१५१, पञ्चमी वैशाखीममावास्यां रेवतीनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिनो द्वापष्टिभागस्य सत्केषु चतुःषष्टी सप्तषष्टिभागेषु १९।०।१४। परिणमयति, 'जिह्वामूलिं रोहिणी मिगसिरं च'त्ति, अत्राप्येवं सूत्रालापक:-'ता जेहामूलिण्णं अमावासं कइ णक्खत्ता जोएंति , ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-रोहिणी मिगसिमारो य'त्ति, एतदपि व्यवहारतः, निश्चयतः पुनढे नक्षत्रे ज्येष्ठामूलीममावास्यां परिसमापयतः, तद्यथा-रोहिणी कृत्तिका च, तन्त्र प्रथमा ज्येष्ठामूलीममावास्यां रोहिणीनक्षत्रमेकोनविंशतो मुहूर्तेष्वेकस्य मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेकस्य Mच द्वापष्टिभागस्य द्वादशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु १९।४६।१२, द्वितीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां कृत्तिकानक्षत्रं त्रयोविंशती मुहर्नेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशती सक्षषष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु २३॥ १९॥२५, तृतीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां रोहिणीनक्षत्रं द्वात्रिंशति मुहर्नेम्वेकस्य मुहूर्तस्यैकोनषष्टी द्वापष्टिभागेष्वेलोकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु समतिकान्तेषु ३२॥ ५९॥ ३९, चतुर्थी ज्येष्ठामूलीममावास्यां | अनुक्रम [४९] ॥१२६॥ weredturary.com ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत रोहिणीनक्षत्रं षटुसु मुहत्तेवेकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तपष्टिभा-४ गेषु । ३२ । ५२ । पञ्चमी ज्येष्ठामूलीममावास्यां कृत्तिकानक्षत्रं दशसु मुहर्तेषु एकस्य मुहूर्तस्य पश्चसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चषष्टी सप्तपष्टिभागेषु गतेषु १०। ५। ६५ परिसमापयति । ता आसाढीण'मित्यादि, ता. इति पूर्ववत्, आसाढी णमिति वाक्यालङ्कारे, कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, भगवानाह–ता इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, दात्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यश्च, एतदपि व्यवहारत उक, परमार्थतः पुनरमूनि त्रीणि नक्ष त्राणि आषाढीममावास्यां परिणमयन्ति, तद्यथा-मृगशिर आद्रों पुनर्वसुश्च, तत्र प्रथमामाषाढीममावास्यामादानक्षत्रं द्वादशसु महाब्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तपष्टिभागेषु गतेषु। २५१ । १३ । द्वितीयामाषाढीममावास्यां मृगशिरो नक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशती द्वापष्टि भागेध्येकस्य च द्वापष्टिभागस्य षड्विंशती सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु १४ । २४।२६ातृतीयामाषाढीममावास्यां पुनर्वसुनम मानवसु मुहर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वयोषिष्टिभागयोरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु (९।२।४० । चतुर्थीमाषाढीममावास्यां मृगशिरोनक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशति द्वापष्टिभागेपके |कस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपश्चाशति सक्षषष्टिभागेषु गतेषु २७१ ३७१५३॥पञ्चमीमाषाढीममावास्या पुनर्वसुनक्षत्रं द्वाविंशती सामुहष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पोडशसु द्वापष्टिभागेषु समतिक्रान्तेषु २२॥ १५॥ । परिसमापयतीति। तदेवं द्वादशानामध्य-18 मावास्यानां चन्द्रयोगोपेतनक्षत्र विधिरुक्तः । सम्प्रत्येतासामेव कुलादियोजनामाह-'ता साविहिन्न'मित्यादि, ता. इति अनुक्रम RECORASAN [४९] ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४९] सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [६], मूलं [३९] प्राभृत [१०], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पूर्ववत् श्रविष्ठी - श्रावणमासंभाविनीममावास्यां किं कुलं युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा सुनक्ति १, भगवानाह - 'कुलं 'त्यादि, कुलमपि युनक्ति, वाशब्दोऽपिशब्दार्थः, उपकुलं वा युनक्ति, न लभते योगमधिकृत्य फुलो( मल० ) 2 पकुलं, तत्र कुलं- कुलसंज्ञं नक्षत्रं श्राविष्ठीममावास्यां युञ्जत् मघानक्षत्रं युनक्ति, एतद् व्यवहारत उच्यते, व्यवहारतो सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ॥१२७॥ हि गतायामप्यमावास्यायां वर्त्तमानायामपि च प्रतिपदि योऽहोरात्रो मूलेऽमावस्यया सम्बद्धः स सकलोऽप्यहोरात्रोSमावास्येति व्यवहियते, तत एवं व्यवहारतः श्राविश्यामप्यमावास्यायां मघानक्षत्रसम्भवादुक्तं कुलं मुञ्जन्मधानक्षत्रं युनकीति, परमार्थतः पुनः कुलं युञ्जत्पुष्यनक्षत्रं युनक्कीति प्रतिपसव्यं तस्यैव कुलप्रसिद्ध्या प्रसिद्धस्य श्रविध्याममावास्यायां सम्भवात् एतच्च प्रागेवोक्तम्, उत्तरसूत्रमपि व्यवहारनयमधिकृत्य यथायोगं परिभावनीयमिति, उपकुलं युञ्जत् अश्लेषानक्षत्रं युनक्ति, सम्प्रत्युपसंहारमाह- 'ता साविट्ठिन्न' मित्यादि यत उक्तप्रकारेण द्वाभ्यां कुलोपकुलाभ्यां श्राविश्याममावास्यायां चन्द्रयोगः समस्ति नतु कुलोपकुलेन ततः श्राविष्ठीममावास्यां कुलमपि वाशब्दोऽपिशब्दार्थः युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति इति वक्तव्यं स्थात्, यदि कुलेन वा युक्ता उपकुलेन वा युक्ता सती श्राविश्यमावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात्, 'एवं नेयव' मिति एवमुक्तप्रकारेण शेषमप्यमावास्याजातं नेतव्यं, नवरं मार्गशीष माघ फाल्गुनीमापाडीममावास्यां कुलोपकुलमपि युनक्तीति वक्तव्यं, शेषासु त्वमावास्यासु कुलोपकुलं नास्ति, सम्प्रति पाठकानुग्रहाय सूत्रालापका दर्यन्ते'ता पुढवइण्णं अमावास किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएड १, ता कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, नो लब्भइ कुलोवकुलं कुठं जोएमाणे उत्तरा फग्गुण जोएइ, उवकुलं जोएमाणे पुवाफग्गुणीं जोएइ, ता पुटुवइण्णं अमावास Education Internation For Parts Only ~ 264~ १० प्राभृते ६ प्राभृत प्राभृतं अमावस्या नक्षत्रं सू ३९ ॥१२७॥ } Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (३९) कुलं वा जोएइ उपकुलं वाजोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता पोछवया अमावासा जुत्तत्तिपत्त सिया । ता आसा-19 दिइण्णं अमावासं किं कुलं जोएइ उपकुलं जीएइ कुलोषकुलं जोएइ, ता कुलं वा जोएइ, उवकुल वा जोएइ, नो लम्भ कुलोबकुलं, कुल जोएमाणे चित्तानक्खत्ते जोएइ, उपकुलं जोएमाणे हत्थनक्खत्ते जोपर, ता आसाइणं अमावासं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता आसाई अमावासा जुत्तत्ति वत्त सिया । ता कत्तियणं अमावासं किं कुलं वा जोपा अवकुलं वा जोएइ कुलोबकुलं वा जोएइ, ता कुलं वा जोपद उपकुलं वा जोएइ, नो लगभइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे विसाहानक्खत्ते जोएइ, उपकुलं वा जोएमाणे साइनक्खत्ते जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उबकुलेण वा जुत्ता कत्तिई अमावासा जुत्तत्ति वत्त सिया । ता मग्गसिरिणं अमावास कि कुलं जोएइ उवकुले जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ ?, ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोचकुलं लावा जोपद, कुल जोएमाणे मूलनक्खत्ते जोएइ, उपकुलं जोएमाणे जेहानक्षत्ते जोएड, कुलोचकुल जोएमाणेx अणुराहानक्खत्ते जोएइ, कुत्रेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता मागसिरिण अमावासा जुत्तत्ति वत्त सिया । पोसिण्णं अमावासं किं कुलं वा जोएइ उबकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, नो लम्भइ कुलोचकुलं, कुलं जोएमाणे पुषासाढा णक्खत्ते जोपड उपकुलं जोएमाणे & उत्तरासाढा णक्सत्ते जोएइ, ता कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा .जुत्ता पोसी अमावासा जुत्तत्ति वत्त अनुक्रम [४९] For P OW ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [६], -------------------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] सूर्यप्रज्ञ- सिया'इत्यादि, निश्चयतः पुनः कुलादियोजना मागुतं चन्द्रयोगमधिकृत्य स्वयं परिभावनीया ।। इति श्रीमलयगिरि- १०प्राभृते प्तिवृत्तिःविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभूतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ।। ७प्राभृत(मल.) | प्राभृतं पूर्णिमामा॥१२८॥ तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य षष्ठं प्राभृतप्राभृतं, सम्पति सप्तममारभ्यते. तस्य चायमर्थाधिकार:-'पौर्णमास्यमावा प्रति सक्षममारभ्यत, तस्य चायमथाधिकारः-'पाणमास्यमावा-पावास्या सचिन स्यानां चन्द्रयोगमधिकृत्य सन्निपातो वक्तव्यः' ततस्तद्विपयं प्रश्नसूत्रमाह पातः सू४० ता कहं ते सण्णिवाते आहितेति वदेजा , ता जया णं साविट्ठीपुषिणमा भवति तता णं माही अमावासा भवति, जया णं माही पुण्णिमा भवति तता णं साविट्ठी अमावासा भवति, जता णं पुट्ठवती पुण्णिमा भवति तता णं फग्गुणी अमावासा भवति, जया णं फग्गुणी पुषिणमा भवति तता णं पुट्ठवती| अमावासा भवति, जया णं आसाई पुषिणमा भवति तताणं चेत्ती अमावासा भवति, जया णं चित्ती पुण्णिमा भवति तया णं आसोइ अमावासा भवति, जया णं कत्तियी पुषिणमा भवति तता णं वेसाही| अमावासा भवति, जता णं वेसाही पुषिणमा भवति तता णं कत्तिया अमावासा भवति, जया णं मग्गसिरी पुषिणमा भवति तता णं जेवामूले अमावासा भवति, जता णं जेट्टामूले पुषिणमा भवति तता णं मग्ग M ॥१२८॥ |सिरी अमावासा भवति, जता णं पोसी पुषिणमा भवति तता णं आसाढी अमावासा भवति, जता णं आ-1 साढी पुषिणमा भवति तता णं पोसी अमावासा भवति (सूत्रं४०)दसमस्स पाहुडस्स सत्तम पाहुडपाहुड समत्त। +565555 दीप अनुक्रम [४९] सर % FriaTMEPIVARuwant अथ दशमे प्राभृते प्राभूतप्राभृतं- ६ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभूतप्राभूतं- आरभ्यते ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [७], -------------------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: + प्रत सूत्रांक [४०] +5 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं -केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया चन्द्रयोगमधिकृत्य पौर्णमास्यमावास्यानां I सन्निपात आख्यात इति वदेत् १, एवमुक्ते भगवानाह-'ता जया ण'मित्यादि, इह व्यवहारनयमतेन यस्मिनक्षत्रे पौर्ण- & मासी भवति तत आरभ्याक्तिने पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे नियमतोऽमावास्या, ततो यदा श्राविष्ठी-श्रविष्ठानक्षत्र४ायुक्का पौर्णमासी भवति तदा तस्यामक्तिनी अमावास्या माघी-मघानक्षत्रयुक्ता भवति, मधानक्षत्रादारभ्य श्रविष्ठान-I &ाक्षत्रस्य पश्चदशरवात्, एतच्च श्रावणमासमधिकृत्य भावनीयं, यदा तु णमिति वाक्यालङ्कारे माघी-मपानक्षत्रयुका पौर्ण-t मासी भवति तदा पाश्चात्त्या अमावास्या श्राविष्ठी-श्रविष्ठायुक्ता भवति, मघात आरभ्य पूर्व श्रविष्ठानक्षत्रस्य पश्चदशत्वात् , एतच्च माघमासमधिकृत्य वेदितव्यं, तथा 'ता जया ण'मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे प्रोष्ठपदी-उत्तरभद्रपदायुक्ता पौर्णमासी भवति तदा णमिति प्राग्वत् पाश्चात्या अमावास्या फाल्गुनी-उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रयुक्ता भवति, उत्तरभद्रपदात आरभ्य पूर्वमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य पश्चदशत्वात् , यत्त्वपान्तराले अभिजिन्नक्षत्रं तरस्तोककालत्वात् प्रायो: न व्यवहारपथमवतरति, तथा च समवायानसूत्रम्-'जंबुद्दीवे दीवे अभिईवजेहिं सत्तावीसाए नक्खत्तेहिं सैववहारो वट्टइ'त्ति, ततः सदपि तन्न गण्यते इति पञ्चदशमेवोत्तरभद्रपदात आरभ्य पूर्वमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रमिति, एतच भाद्रपदमासमधिकृत्योकमवसे यं, 'जयाण'मित्यादि, यदाच फाल्गुनी-उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदापा-1 श्चात्या अमावास्या प्रौष्ठपदी-उत्तरभाद्रपदोपेता भवति, उत्तरफाल्गुन्या आरभ्य पूर्वमुत्तरभद्रपदानक्षत्रस्य चतुर्दशत्वात्, इदं |च फाल्गुनमासमधिकृत्योतं, 'जया ण'मित्यादि, यदा च आश्वयुजी-अश्वयुग्नक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या दीप अनुक्रम [५०] 1545%20% F OR ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [७], ----------- ----- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * * सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः मल.) प्रत ॥१२९॥ सूत्राक [४०] नन्तरामावास्या चैत्री-चित्रानक्षत्रसमन्विता भवति, अश्विन्या आरभ्य पूर्व चित्रानक्षत्रस्य पश्चदशत्वात्, एतच्च व्यवहा-12.प्राभृते रनयमधिकृत्योक्तमवसेय, निश्चवत एकस्यामप्यश्वयुग्मासभाविन्याममावास्यायां चित्रानक्षत्रासम्भवाद्, एतच प्रांगेव दर्शितं,४८प्राभूत , यदा च चैत्री-चित्रानक्षत्रोपेता पौर्णमासी जायते सदा ततः पाश्चात्यानन्तरामावास्या आश्वयुजी-अश्वयुग्नक्षत्रोपेता प्राभृतं भवति, एतदपि व्यवहारतो, निश्चयत एकस्यामपि चैत्रमासभाविन्याममावास्यायामश्विनीनक्षत्रस्थासम्भवात्, एतच्च सूत्र- पूर्णिमामालामश्वयुकचैत्रमासमधिकृत्य प्रवृत्तं वेदितव्यं, 'जया ण'मित्यादि, यदा च कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवतिलाता तदा वैशाखी-विशाखानक्षत्रोपेता अमावास्या भवति, कृत्तिकातोऽर्वाग्विशाखायाः पञ्चदशत्वात् , यदा वैशाखी-विशाखा पातःसूट. नक्षत्रोपेता पौर्णमासी भवति तदा ततोऽनन्तरा-पाश्चात्या अमावास्या कार्तिकी कृत्तिकानक्षत्रोपेता भवति, विशाखातः। पूर्व कृतिकायाश्चतुर्दशत्वात्, एतच्च कार्तिकवैशाखमासावधिकृत्योक्तं, एयमुत्तरसूत्रमपि भावनीयम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभूतप्राभूतं समाप्तम् ॥ ** टीप अनुक्रम [५०] ।॥१२९॥ तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य सप्तमं प्राभृतप्राभृतं, साम्प्रतमष्टममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:-मक्षत्राणां संस्थानं बक्तव्य'मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते नक्खत्तसंठिती आहितेति वदेजा', ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीयी ण णक्खत्ते किंसंठिते पपणत्ते, गो! गोसीसावलिसंठिते पणत्ते, सवणे णक्खसे किंसंठिते पण्णसे, काहारस CHER अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- । परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ८ आरभ्यते ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ----------- ------ मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] विते ५०, धणिहाणक्खत्ते किंसंठिते ५०१, सउणिपलीणगसंठिते पं०, सयभिसयाणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, पुष्फोवयारसंठिते पण्णत्ते, पुवापोट्टवताणक्खत्ते किंसंठिते पण्णसे?, अवहुवा विसंठिते पण्णत्ते, एवं उचरावि, रेवतीणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, णावासंठिते पं०, अस्सिणीणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, आसक्खंघसंठिते पण्णते, भरणीणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, भगसंठिए पं०, कत्तियाणक्खत्ते किंसंठिते पण्णते?, छुरघरगसंठिते पं०, रोहिणीणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, सगडुड्डिसंठिते पण्णत्ते, मिगसिराणक्खत्ते किंसंठिते पण्णत्ते, मगसीसावलिसंठिते पं०, अहाणक्खत्ते किंसंठिते पं० १, रुधिरविंदुसंठिए पपणत्ते, | पुणवसू णक्खत्ते किंसंठिते पं०१, तुलासंठिए पं०, पुप्फे णवखत्ते किंसंठितेपण्णसे, बद्धमाणसंठिए पण्णत्ते, अस्सेसाणक्खत्ते किंसंठिए पण्णते?, पडागसंठिए पण्णत्ते, महाणक्खसे किंसंठिए पण्णत्ते, पागारसंठिते पण्णत्ते, पुषाफग्गुणीणवखत्ते किंसंठिए पं०, अद्धपलियंकसंठिते पं०, एवं उत्सरावि, हत्थे णकखत्ते किंसंठिते पं०१, हत्थसंठिते पं०, ता चित्ताणक्खत्ते किंसंठिते पं०, मुहफुल्लसंठिते पण्णत्ते, सातीणक्वत्ते किंसंठिते पण्णसे , खीलगसंठिते पन्नत्ते, विसाहाणक्खत्ते किंसंठिए पपणते ?, दामणिसंठिते प०, अणु-1 राधाणक्खत्ते किंसंठिते पं०१, एगावलिसंठिते पं०, जेहानक्खत्ते किंसंठिते पं०१, गयदंतसंठिते पण्णत्ते, मूले | णक्खत्ते किंसंठिए पं०१, विच्छुयलंगोलसंठिते पं०, पुवासादाणक्खत्ते किंसंठिए पपणत्ते ?, गयविकामसंठिते |पं०, उत्तरासाढाणक्खते किंसंठिए पपणत्ते, साइयसंठिते पं०(सूत्रं४१) दसमस्स अट्ठमं पाहुडपाहुडं समत्तं॥ अनुक्रम [५१] ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [८], ----------- ------ मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मज प्रत सुत्राक [४१] 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण भगवन् ! नक्षत्राणां संस्थिति:-संस्थानमाख्यातेति १० प्राभते त्तिः वदेत् ?, एवमुक्त्वा भूयः प्रत्येक प्रश्नं विदधाति-'ता'इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतिनक्ष- प्राभृतमल.) त्राणां मध्ये यदभिजिन्नक्षत्रं तत् 'किंसंठितंति कस्येच संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्किसंस्थितं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह- प्राभृतं ॥१३॥ 'ता एएसिण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, एतेषाममन्तरोदितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽभिजिन्नक्षत्रं गोशीविलि- नक्षत्रसंस्था संस्थितं प्रज्ञप्त, गोः शीर्षे गोशीर्ष तस्यावली-तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिः तत्सम संस्थान प्रज्ञप्त, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि #भावनीयानि, नवरं दामनी-पशुवन्धन, शेष प्रायः सुगम, संस्थानसङ्घाहिकाश्चेमा जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसत्कास्तिस्रो गाथाः'गोसीसावलि १काहार २ सउणि ३ पुष्फोक्यार ४ यावी ५य [उत्तराद्वयं] । णावा ६ आसक्खंधग ७ भग८ छुरघरए ९ य सगडुद्धी १०॥१॥ मिगसीसावलि ११ रुधिरबिंदु १२ तुल १३ वद्धमाणग १४ पड़ागा १५ । पागारे १६| पल्लंके १७ [फाल्गुनीद्वयं ] हत्थे १८ मुहल्लए १९ चेव ॥२॥खीलग २० दामणि २१ एगावली २२ य गयदंत ४२३ विच्छुयले २४ य । गयविक्कमे २५ य तत्तो सीहनिसाई २६ य संठाणा ॥३॥” इति श्रीमलयगिरिविरचितायां । सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्थाष्टमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ अनुक्रम [११] ॥१३०॥ तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्याष्टमं प्राभृतप्राभृतं, सम्पति नवममारभ्यते, तस्य चायम_धिकार:-'प्रतिनक्षत्र ताराप्रमाणं षकव्य'मिति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ८ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ९ आरभ्यते ~270~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [९], ----------- ----- मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२] 1- ता कहं ते तारग्गे आहितेति वदेज्जा, ता एतेसिणं अट्ठावीसाए णक्वत्ताणं अभीईणक्खसे कतितारे पं०१, तितारे पपणत्ते, सवणेणक्खत्ते कतितारे पं०१, तितारे पण्णत्ते, धनिट्ठाणक्खत्ते कतितारे ५०१, पण तारे पण्णत्ते, सतभिसयाणक्खत्ते कतितारे पं०१, सततारे पण्णत्ते, पुवापोहवता कतितारे पं०१, दुतारे पपणत्ते, एवं उत्तरावि, रेवतीणक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते, बत्तीसतितारे पण्णत्ते, अस्सिणीणक्खत्ते कतितारे पपणत्ते, तितारे पण्णते, एवं सचे पुच्छिज्जति, भरणी तितारे ५०, कत्तिया छतारे पण्णत्ते, रोहिणी |पंचतारे पण्णत्ते, सवणे तितारे पं०, अद्दा एगतारे पं०, पुणवसू पंचतारे पण्णत्ते, पुस्से णक्खत्ते तितारे प०, अस्सेसा छत्तारे पन्नत्ते, महा सत्ततारे पण्णत्ते, पुवाफग्गुणी दुतारे पन्नत्ते, एवं उत्तरावि, हत्थे पंचतारे पण्णत्ते, चित्ता एकतारे पण्णत्ते, साती एकतारे पण्णत्ते, विसाहा पंचतारे पं०, अणुराहा पंचतारे पं०, जेट्ठा तितारे पं०, मूले एगतारे पण्णत्ते, पुवासाढा चउतारे पण्णत्ते, उत्तरासाढाणक्खत्ते चउतारे पं०॥४ (सूत्रं ४२) दसमस्स पाहुडस्स नवमं पाहुडपाहुड समत्तं ।। 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण ते-त्वया भगवन् ! नक्षत्राणां 'ताराग्रं ताराप्रमाणमाख्यातं इति वदेत् , एवं सामान्यतः प्रश्नं कृत्वा सम्प्रति प्रतिनक्षत्रं पृच्छति–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणामभिजिन्नक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्त, एवं शेषाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि, ताराप्रमाणसङ्क्राहिके चेमे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्के गाथे-“तिग १ तिग २ पंचग ३ सय ४ दुग ५ दुग ६ बत्तीसं ७ तिर्ग अनुक्रम [२] weredturary.com ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [९], ----------- ------ मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [४२] सूर्यप्रज्ञ तह तिगं९ च । छ १० पंचग ११ तिग १२ इक्कग १३ पंचग १४ तिग १५ इकर्ग १६ चेव ॥१॥ सत्सग १७ दुग १० प्राभृते प्तिवृत्तिःला ४१८ दुग १९ पंचग २० इकि २१ ग २२ पंच २३ चउ २४ तिर्ग २५ चेव । इकारसग २६ चउकं २७ चउक्कगं २८४ ९प्राभूत(मल) चेव तारग्गं ॥२॥" इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य नवमं प्राभूतप्रामृतं समाप्तम्॥ प्राभृते नक्षत्रतारा॥१३॥ मंसू ४२ तदेवमुक्त दशमस्य प्राभूतस्य नवमं प्राभूतप्राभृतं, सम्प्रति दशममारभ्यते-तस्य चायमर्थाधिकार:-यथा 'कति | १० प्रा० नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया के मासं नयन्ती'ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-. १० प्रा० ता कहं ते णेता आहितेति बज्जा, तावासाणं परमं मासं कति णक्खत्ता ति?, ता चत्तारि णवत्ता मासनेतृ. णिति, तंजहा-उत्तरासाढा अभिई सवणो धणिहा, उत्तरासाढा चोदस अहोरत्ते णेति, अभिई सत्स अहोरते नक्षत्र णेति,सवणे अट्ठ अहोरत्ते णेति घणिहा एग अहोरतं नेह, तंसिणं मासंसि चरंगुलपोरिसीए छायाए सरिए ट्रा अणुपरियति, तस्स णं मासस्स परिमे दिवसे दोपादाइं चत्तारिय अंगुलाणि पोरिसी भवति। ता वासाणं दोचं मासं कति णक्खत्ता णति ?, ता चत्तारिणक्खत्ता ति, तं०-धणिहा सतभिसपा पुषहवता उत्तरपोहवया, धणिट्ठा चोइस अहोरसे णेति, सयभिसया सत्त अहोरते णेति, पुवाभवया अह अहोरत्ते णेइ, उत्तरापो ॥१३१॥ ट्ठवता एर्ग अहोरत्तं णेति, तसिणं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियति, सस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पदाई अट्ट अंगुलाई पोरिसी भवति । ता वासाणं ततियं मासं कति गक्ससा अनुक्रम [२] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ९ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १० आरभ्यते ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] कति ?, ता तिणि णक्खत्ता णिति, तं०-उत्तरपोहवता रेवती अस्सिणी, उत्तरापोट्टवता चोइस अहोरत्ते दाणेति, रेवती पण्णरस अहोरते णेति, अस्सिणी एग अहोरसं गेह, तंसिं च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरि-18|| सीए छायाए मूरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमदिवसे लेहत्थाई तिणि पदाईपोरिसी भवति, ता वासाणं चउत्थं मासंकतिणक्खत्ता णेति, ता तिन्नि नक्खत्ता णेंति, तं०-अस्सिणी भरणी कत्तिया, अलास्सिणी चउदस अहोरते णेह, भरणी पन्नरस अहोरत्ते इ, कत्तिया एग अहोरत्तं जेड. तसिं च णं मासंसिसो लसंगुला पोरिसी छायाए सूरिए अणुपरियइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिन्नि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ ।ता हेमंताणं पढमं मासं कह णक्खत्ता ऐति?,ता तिणि णक्खत्ता ऐति, तं०-कत्तिया रोहिणी संठाणा, कत्तिया चोइस अहोरत्तेणेति, रोहिणी पन्नरस अहोरत्ते णेति, संठाणा एग अहोरणेति, तंसि च णं मासंसि वीसंगल पोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिषिण पदाइं अgl |अंगुलाई पोरिसी भवति । ता हेमंताणं दो मासं कति णक्खता णेति, चत्तारिणक्खत्ताणेंति,तं०-संठाणा अद्दा पुणवसू पुस्सो, संठाणा चोइस अहोरत्ते णेति अद्दा सत्त अहोरत्ते णेति पुणवसू अह अहोरत्तेणेति पुस्से एग अहोरत्तं ति, तंसि च णं मासंसि चउवीसंगुलपोरिसीए छायाएसूरिए अणुपरियति, तस्सणं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाणि चत्तारि पदाइं पोरिसी भवति । ता हेमंताणं ततियं मासं कति णक्वत्ता ऐति ?, ता तिषिण णक्खत्ता ऐति, तं०-पुस्से' अस्सेसा महा, पुस्से चोइस अहोरते णेति, अस्सेसा पंचदस अहोरत्तेणेति, ॐॐ4%9525434 दीप अनुक्रम [५३] ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [४३] सूर्यप्रज्ञ- महा एग अहोरत्तं ति, तसि च णं मासंसि वीसंमुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स णं मा-४१० प्राभृते तिवृत्तिः सस्स चरिमे दिवसे तिष्णि पदाई अटुंगुलाई पोरिसी भवति। ता हेमंताणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ऐति, प्राभृत(मल.) ता तिपिण नक्खत्ता णेंति, तं०-महा पुवफग्गुणी उत्तराफग्गुणी, महा चोदस अहोरत्तेणेति, पुवाफग्गुणी पनरसप्राभृते अहोरत्ते णेति, उत्तराफरगुणी एग अहोर णेति, तसिं च णं मासंसि सोलस अंगुलाई पोरिसीए छायाए नक्षत्रतारा॥१३॥ ग्रं सू४२ लिरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिषिण पदाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवति । ता गिम्हाणं पढमं मासं कतिणक्खत्ता ऐति ?, ता तिन्नि णक्खत्ता ऐति, तं-उत्तराफग्गुणी हस्थो चित्ता, उत्त १०मा० ॥राफरगुणी चोस अहोरत्ते णेति, हत्थो पपणरस अहोरत्ते णेति, चित्ता एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मास- मासनेतृ० लिसि दुवालसअंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहटाइ या नक्षत्रं तिणि पदाई पोरिसी भवति । ता गिम्हाणं वितियं मासं कति णक्खत्ता 0ति?, ता तिपिण णक्खत्ताणेंति, पतं०-चित्ता साई विसाहा, चित्ता पोरस अहोरत्ते णेति, साती पण्णरस अहोरत्ते णेति, विसाहा एग अहो-४ हारत्तं ति, तसि च णं मासंसि अटुंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे| दिवसे दो पदाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवति । गिम्हाणं ततियं मासं कति णक्खत्ता ऐति', ता ति णक्खस्ता आणति, तं-विसाहा अणुराधा जेट्ठामूलो, विसाहा चोदस अहोरते णेति, अणुराधा सत्त (पणरस), जेवामूलं लाएग अहोरत्तं ति, तंसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्सा अनुक्रम [५३] ~274~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] 4% दीप परिमे दिवसे दो पादाणि य चत्तारि अंगुलाणि पोरिसी भवति, ता गिम्हाणं चंउत्थं मासं कति पाकवता लणेति , ता तिणि णक्खत्ता गति, तं०-मूलो पुवासाढा उत्तरासाढा, मूलो चोइस अहोरत्तेणेति, पुषासादा पण्णरस अहोरते णेति, उत्तरासाढा एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि बहाए समचउरंससंठिताए Bणग्गोधपरिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए छायाए सूरिए अणुपरियति, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहडामा दो पदाई पोरिसीए भवति (सूत्र ४३) दसमस्स पाहुडस्स दसमं पाहुडपाहुई समतं ॥१०-१० ॥ 'ता कहं ते नेता आहियत्ति वएजा'ता' इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण भगवंस्ते--स्वया स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापको नक्षत्ररूपो नेता आख्यात इति वदेत्, एतदेव प्रतिमासं पिपृच्छिषुराह-'ता वासाण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् वर्षाणां-वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य प्रथम मासं श्रावणलक्षणं कति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्र परिसमापकतया नयन्ति-गमयन्ति ?, भगवानाह-"ता चत्तारी'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, चत्वारि नक्षत्राणि स्वयमस्तबागमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया कमेण नयन्ति, तद्यथा-उत्तरासाढा अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा च, तत्रोत्तराषाढा प्रथमान्धी चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, तदनन्तरमभिजिन्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान्नयति, ततः परं श्रवणनक्षत्रमष्टौ अहोरात्रान्नयति, एवं च सर्वसङ्कलनया श्रावणमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्रा गताः, ततः परं श्रावणमासस्य सम्बन्धिनं चरममेकमहोरात्रं धनिष्ठानक्षत्रं स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, एवं चत्वारि नक्षत्राणि श्रावण मासं नयन्ति, तस्सि च णमित्यादि, तस्मिंश्च श्रावणे मासे चतुरङ्गलपौरुष्या-चतुरङ्गलाधिकपारुष्या छायया । % अनुक्रम [५३] ~275~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: Eare प्रत सूर्यमज्ञ- तिवृत्तिः (मल. ॥१३॥ सुत्राक [४३] श्रीप सूर्योऽनु-प्रतिदिवस परावर्त्तते, किमुक्तं भवति । श्रावणमासे प्रधमादहोराबादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डलसङ्कान्त्या प्राभूते तथा कथञ्चनापि परावर्तते यथा तस्य श्रावणमासस्य पर्यन्ते चतुरहुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति, तदेवाह-तस्स ण ९प्राभृत. मित्यादि, तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे चत्वारि चाङ्गलानि पौरुषी भवति, ता वासाण'मित्यादि, ता इति प्राभूते पूर्ववत् वर्षाणां-वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य द्वितीयं भाद्रपदलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति', अस्य वाक्यस्य नक्षत्रताराभावार्थः प्राग्वभावनीया, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत , चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-धनिष्ठा शत-| ग्रं सू४२ १० प्रा० भिषक् पूर्वप्रोष्ठपदा उत्तरप्रोष्ठपदा 'च, तत्र धनिष्ठा तस्मिन् भाद्रपदे मासे प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमने १.प्रा० नाहोरात्रपरिसमापकतया नयति, तदनन्तरं शतभिषक्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान् ततः परमष्टावहोरात्रान् पूर्वप्रोष्टपदा तदन मासनेतृ० न्तरमेकमहोरात्रमुत्तरप्रोष्ठपदा, एवमेनं भाद्रपद मासं चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, 'तस्सि च ण'मित्यादि, तस्मिंश्च नक्षत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, मासे भाद्रपदे अष्टाङ्गलपौरुध्या-अष्टाहुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनु-प्रतिदिवस परावर्त्तते, सू ४३ |अत्राप्यय भावार्थ:-भाद्रपदे मासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसङ्क्रान्त्या तथा कथमपि परावर्त्तते । यथा तस्य भाद्रपदस्य मासस्यान्ते अष्टाङ्गुलिका पौरुषी भवति, एतदेवाह-'तस्स ण'मित्यादि सुगम, एवं शेषमासगतान्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं 'लेहत्थाई तिम्नि पयाईन्ति रेखा-पादपर्यन्तवर्जिनी सीमा तत्स्थानि त्रीणि पदानि पीरुपी भवति, किमुक्तं भवति -परिपूर्णानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति, एषा चतुरङ्कला प्रतिमासं वृद्धिस्तावदवसेया ॥१३॥ यावत्पौषो मासा, तदनन्तरं प्रतिमासं चतुरङ्गला हानिर्वक्तव्या, सा च तावत् यावदापाढो मासः, तेनापाढपर्यन्ते द्विपदा ॐ535 अनुक्रम [५३] ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] KARॐ पौरुषी भवति, इदं च पौरुषीपरिमाणं व्यवहारत उक्त, निश्चयतः साविंशता अहोरात्रैश्चतुरङ्गाला वृद्धिोनिर्वा वेदि-18 है तव्या, तथा च निश्चयतः पौरुषीपरिमाणप्रतिपादनार्थमिमाः पूर्वाचार्यप्रदर्शिताः करणगाथा:-"पवे पन्नरसगुणे तिहिट सहिए पोरिसी' आणयणे । छलसीयसयविभत्ते जं लद्धं तं वियाणाहि ॥१॥ जइ होइ विसमलद्धं दक्खिणमयणं ठविज नायव । अह हवइ समं लद्धं नायब उत्तरं अयणं ॥२॥ अयणगए तिहिरासी चतुग्गुणे पक्षपाय भइयवं । जलद्धमंगुलाणि खयबुड्डी पोरुसीए उ ॥३॥ दक्खिणबुद्दी दुपया अंगुलयाणं तु होइ नायबा। उत्तर अयणे हाणी कायबा चउहि पाएहिं ॥४॥ सावणबहुलपडिवया दुपया पुण पोरिसी धुवा होइ । चत्तारि अंगुलाई मासेणं बहुए तत्तो ॥५॥इक- चीसइ भागा तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि । दक्षिणअयणे वुड्डी जाव उ चत्तारि उ पयाई ॥६॥ उत्तर अयणे हाणी चाहिं पायाहि जाव दो पाया । एवं तु पोरिसीए बुहिखया हुंति नायथा ॥७॥ बुट्ठी वा हाणी वा जावइया पोरिसीए दिहा उ। ततो दिवसगएणं जं लद्धं तं खु अयणगयं ॥८॥" एतासां क्रमेण व्याख्या-युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथौ | पौरुषीपरिमाणं ज्ञातुमिष्यते ततः पूर्व युगादित आरभ्य यानि पर्वाण्यतिक्रान्तानि तानि प्रियन्ते, धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, गुणयित्वा च विवक्षितायास्तिथेयोः प्रागतिक्रान्तास्तिथयस्ताभिः सहितानि क्रियन्ते, कृत्वा च षडशीत्यधिकेन शतेन तेषां भागो हियते, इह एकस्मिन्नयने ज्यशीत्यधिकमण्डलशतपरिमाणे चन्द्रनिष्पादितानां तिथीनां पडशीत्यधिक शतं भवति, ततस्तेन भागहरणं भागे च हते यल्लब्धं तद्विजानीहि सम्यगवधारयेत्यर्थः । तत्र यदि लब्धं विषमं भवति यथा एकत्रिका पञ्चकः सप्तको नवको वा तदा तत्पर्यन्तवर्ति दक्षिणमयनं ज्ञातव्यं, अथ भवति लब्ध सम तद्यथा-द्विकश्चतुष्कः षट्कोड दीप SHAREHENSES अनुक्रम [५३] SAREauratonintimational For P OW ~277 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक ॥१३४॥ [४३] टीप को दशको वा तदा तत्पर्यन्तवत्ति उत्तरायणमवसेय, तदेवमुक्तो दक्षिणायनोत्तरायणपरिज्ञानोपायः । सम्पति षडशील्य १० प्राभृते धिकेन शतेन भागे हृते यच्छेषमवतिष्ठते यदिवा भागासम्भवेन यच्छेषं तिष्ठति तद्गतविधिमाह-'अयणगए इत्यादि, प्रभातयः पूर्व भागे हते भागासम्भवे या शेषीभूतोऽयनगतस्तिथिराशिर्वतते से चतुर्भिर्गुण्यते, गुणयित्वा च पर्वपादेन- प्राभृते युगमध्ये यानि सर्वसङ्ग्या (ग्रंथा० ४०००) पर्याणि चतुर्विशत्यधिकशतसक्यानि तेषां पादेन-चतुर्थेनांशेन एकत्रि- पौरुष्याधिशता इत्यर्थः, तया भागे हृते यल्लब्धं तान्यङ्गलानि चकारादलांशाश्च पौरुष्याः श्यवृक्ष्या ज्ञातव्यानि, दक्षिणायने कारःसू४६ पदध्रुवराशेरुपरि वृद्धी ज्ञातव्यानि, उत्तरायणे पदधुवराशेः क्षये ज्ञातव्यानीत्यर्थः, अथैवंभूतस्य गुणकारस्य भागहारस्य वा कथमुत्पत्तिः, उच्यते, यदि पढशीत्यधिकेन तिथिशतेन चतुर्विशतिरङ्गलानि क्षये वृद्धी वा प्राप्यन्ते, तत एकस्यां तिथी का वृद्धिः क्षयो वा, राशित्रयस्थापना १८६ ॥ २४॥ १ अत्रान्त्येन राशिना एकलक्षणेन मध्यमो राशिश्चतुर्विशतिरूपो गुण्यते, जातः स तावानेय, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , तत आयेन राशिना पडशीत्यधिकशतरूपेण भागो प्रियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते, ततः छेद्यच्छेदकराश्योः पढ़ेनापवर्तना, जात उपरितनो | |राशिचतुष्करूपोऽधस्तन एकत्रिंशत्, लब्धमेकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशदूभागाः क्षये पूजी वेति चतुष्को गुणकार: उक्त एकत्रिंशत् भागहार इति, इह यल्लब्धं तान्यङ्गलानि क्षये वृद्धौ वा ज्ञातव्यानि इत्युक्तं, तत्र कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणं M ॥१३४॥ ध्रुवराशेरुपरि वृद्धी कस्मिन् वा अयने किंप्रमाणे धुवराशेः क्षये इत्येतन्निरूपणार्थमाह-"दक्षिणबुडी'इत्यादि, दक्षिणायने द्विपदात्-पदद्वयस्योपरि अङ्गुलानां वृद्धिर्शातव्या, उत्तरायणे चतुर्थ्यः पादेभ्यः सकाशादङ्गलानां हानिः, तत्र युग अनुक्रम [१३] ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] IRI . || मध्ये प्रथम संवत्सरे दक्षिणायने यतो दिवसादारभ्य वृद्धिस्तनिरूपयति-'सावणे त्यादि गाथाद्वयं, युगस्य प्रथमे ४ * संवत्सरे श्रावणे मासि बहुलपक्षे प्रतिपदि पौरुषी द्विपदा-पदद्वयप्रमाणा वा भवति, ततस्तस्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथिक्रमेण तावद धर्द्धते यावत् मासेन-सूर्यमासेन सार्वत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन चन्द्रमासापेक्षया एकत्रिंशतिथिभिपरित्यर्थः, चत्वारि अकुलानि वर्द्धन्ते, कथमेतदवसीयते यथा मासेन-सूर्यमासेन साङ्घत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशति-II बाध्यात्मकेनेत्यत आह-'एक्कतीसे त्यादि, यत एकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशनागा बर्द्धन्ते, एतच्च प्रागेव भावित, परि पूर्णे तु दक्षिणायने वृद्धिः परिपूर्णानि चत्वारि पदानि, ततो मासेन सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशत्तिथ्यात्मकेनेत्युक्तं, तदेवमुक्ता वृद्धिः। सम्पति हानिमाह-'उसरे'त्यादि, युगस्य प्रथमे संवत्सरे माघमासे बहुलपक्षे सप्तम्या आरभ्य चतुर्यः पादेभ्यः सकाशात् प्रतितिधि एकत्रिंशभागचतुष्टयहानिस्तावदवसेया यावदुत्तरायणपर्यन्ते द्वौ पादौ पौरुषीति, एष प्रथमसंवत्सरगतो विधिः, द्वितीये संवत्सरे श्रावणे मासि बहुलपक्षे त्रयोदशीमादी कृत्वा वृद्धिः, माघमासे शुक्लपक्षे चतुर्थीमादिं कृत्वा आया, तृतीयसंवत्सरे श्रावणे मासे शुक्ले पक्षे दशमी वृद्धेरादिर, माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपत्४ क्षयस्यादिः, चतुर्थे संवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तमी वृद्धरादिः, माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदशी क्षयस्यादिः, पश्चमे संवत्सरे श्रावणे मासे शुक्लपक्षे चतुर्थी वृद्धेरादिः, माघमासे शुक्लपक्षे दशमी क्षयस्यादिः, एतच्च करणगाथानुपात्तमपि पूर्वा-1 चार्यप्रदर्शितब्याख्यानादवसितं, सम्प्रत्युपसंहारमाह-एवं तु'इत्यादि, एवम्-उकेन प्रकारेण पौरुष्या-पीरुषीविषये वृद्धिलाक्षयौ यथाक्रम दक्षिणायने पूत्तरायणेषु येदितव्यो, तदेवमक्षरार्थमधिकृत्य व्याख्याताः करणगाथा, सम्प्रत्यस्य करणस्य दीप अनुक्रम [५३] ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञशिवत्तिः मल.) प्रत 12 माभूते सुत्राक ॥१३५॥ [४३] श्रीप भावना क्रियते-कोऽपि पृच्छति-युगे आदित आरभ्य पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति ?, तत्र १० प्राभृते चतुरशीतिधियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्चम्यां तिथी पृष्टमिति पञ्च, चतुरशीतिश्च पश्चदशभिर्गुण्यते जातानि द्वादश शतानि मामूत पध्यधिकानि १२६०, एतेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वादश शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि १२६५, तेषां पौरुष्याधि|पडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः षट्, आगतं षट् अयनान्यतिक्रान्तानि सप्तममयनं वर्तते, तद्गतं च शेषमे-IPS कारःसू४३ कोनपश्चाशदधिकं शतं तिष्ठति १४९, ततश्चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि षण्णवत्यधिकानि ५९६, तेषामेकत्रिंशता भागहरणे लब्धा एकोनविंशतिः, शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, तत्र द्वादशाङ्कलानि पाद इत्येकोनविंशतेद्वादशभिः पदं लब्ध, शेषाणि तिष्ठन्ति सप्त अङ्गुलानि, पष्ठं चायनमुत्तरायणं तद् गतं सप्तमं तु दक्षिणायनं वर्त्तते, ततः पदमेकं सप्त अङ्गलानि पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि पदानि सप्त अकुलानि, ये च सप्त एकत्रिंशदागाः शेषीभूता ४ वर्तन्ते तान् यवान् कुर्मः, तत्राष्टौ यवा अङ्गले इति ते सप्त अष्टभिर्गुण्यन्ते, जाताः षट्पञ्चाशत् ५६, तस्या एकत्रिंशता भागे हृते लब्ध एको यवः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, आगतं पश्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां त्रीणि पदानि सप्त अकुलानि एको यव एकस्य च यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इत्येतावती पौरुषीति । तथाऽपरः कोऽपि पृच्छति-सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी, तत्र षण्णवनिर्धियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्च, षण्णवतिश्च | पञ्चदशभिगुण्यते, जातानि चतुर्दश शतानि चत्वारिंशदधिकानि १४४०, तेषां मध्येऽधस्तनाः पश्च प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि १४४५, तेषां पडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त अयनानि, अनुक्रम [५३] ~280~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] शेष तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकं शतं १४३, तत् चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पश्च शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ५७२, तेषामेकत्रिंशता भागो ह्रियते, लब्धान्यष्टादशाङ्कलानि १८, तेषां मध्ये द्वादशभिरजुलैः पदमिति लब्धमेकं पदं षट् अङ्गलानि, उपरि | चांशा उद्धरन्ति चतुर्दश १४, ते यवानयनार्थमष्टभिर्गुण्यन्ते, जातं द्वादशोत्तर शतं ११२, तस्यैकत्रिंशता भागे हते लब्धाखयो यवाः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, सप्त चायनान्यतिक्रान्तानि अष्टमं वर्तते, अष्टम चायनमुत्तरायण, उत्तरायणे च पदचतुष्टयरूपात् ध्रुवराशेहानिर्वक्तच्या तत एक पद सप्त अङ्गलानि यो यवा एकस्य च यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इति पदचतुष्टयात्पात्यते, शेष तिष्ठति दे पदे पश्चाङ्गलानि चत्वारो यवा एकस्य च यवस्य द्वादश एकत्रिंशधागा, एतावती युगे आदित आरभ्य सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथी पौरुषीति, एवं सर्वत्र भावनीयं । सम्प्रति पौरुषीपरिमाणतोऽयनगतपरिमाणज्ञापनार्थमियं करणगाथा-बुद्दी 'त्यादि, पौरुष्यां यावती वृद्धिहानिर्वा दृष्टा ततः सकाशाद् दिवसगतेन प्रवर्त्तमानेन वा त्रैराशिककर्मानुसारणतो यत् लब्धं तत् अयनगतं-अयनस्य तावत्प्रमाणं, गतं वेदितव्यं, एष करणगाथाक्षरार्थः। भावना त्वियम्-तत्र दक्षिणायने पदद्वयस्योपरि चत्वारि अङ्गलानि वृद्धौ दृष्टानि, ततः कोऽपि पृच्छति-किय गतं दक्षिणायनस्य, अत्र त्रैराशिककर्मावतारो-यदि चतुर्भिरङ्गलस्य एकमात्रिंशद्भागैरेका तिथिर्लभ्यते ततश्चतुर्भिरङ्गलैः कति तिथीलभामहे ?, राशित्रयस्थापना ४,१, ४ । अत्रान्त्यो राशिरगलरूप एकत्रिंशदागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यते जातं चतुर्विंशत्यधिक शर्त १२४, तेन मध्यो राशिर्गुण्यते, जातं तदेव चतुर्वि| शत्यधिकं शतं १२४, 'एकगुणने तदेव भवतीति वचनात् , तस्य चतुष्करूपेणादिराशिना भागो हियते, लब्धा एकत्रि दीप अनुक्रम [५३] ~281~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------- ------ मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [४३] दीप शत्तिधयः, आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ चतुरङ्गाला पौरुष्यां वृद्धिरिति । तथा उत्तरायणे पदचतुष्टयाद- १० माभूते गलाष्टकं हीनं पौरुष्यामुपलभ्य कोऽपि पृच्छति-किं गतमुत्तरायणस्य !, अत्रापि त्रैराशिक-यदि चतुर्भिरङ्गलस्थ एकत्रि १०याभूत प्राभृते शदागरेका तिथिर्लभ्यते ततोऽष्टभिरङ्गलैहीनः कति तिथयो लभ्यन्ते !, राशित्रयस्थापना ४।१।८। अत्रात्यो राशि-INTAMIN रेकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता गुप्यते, जाते वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके २४८, ताभ्यां मध्यो राशिरेककरूपो गुण्यते, AIRAT जाते ते एव द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके २४८, तयोराद्येन राशिना चतुष्करूपेण भागहरणं, लब्धा द्वाषष्टिः ६२, आगतमुत्तरायणे द्वापष्टितमाया तिथी अष्टावकलानि पौरुष्या हीनानीति । तस्सि च णं मासंसि वहाए'इत्यादि, तस्मिनापाढे मासे प्रकाश्यस्य वस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितस्य समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितया ग्यमोधपरिमण्डलसंस्थानस्य न्यग्रोधपरिमण्डलया उपलक्षणमेतत् शेषसंस्थानसंस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शेषसंस्थानसंस्थितया, आषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयतः पुनरापाढमासस्य चरमदिवसे, तत्रापि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये, ततो यत्प्रकाश्य वस्तु यरसंस्थान भवति तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते, तत उक-वत्तस्य वत्तयाए' इत्यादि, एतदेवाह--'खकायमनुरङ्गिन्या'X स्वस्थ-स्वकीयस्य छायानिवन्धनस्य वस्तुनः काया-शरीरं खकायस्तं अनुरज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवंशीलाऽनुरङ्गिनीXI ॥१३६॥ "द्विषद्गृहे त्यादिना घिनश्प्रत्ययः, तया स्वकायमनुरबिन्या छायया सूर्योऽनु-प्रतिदिवसं परावते, एतदुकं भवतिआषाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसङ्क्रान्त्या तथा कथानापि सूर्यः परावत्तेते यथा सर्वेस्थापि अनुक्रम [५३] ERSAR ~282~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१०], -------------------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % & प्रकाश्यवस्तुनो दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवतीति, शेषं सुगमम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य दशमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ।। प्रत सूत्रांक %2515 [४३] दीप अनुक्रम [५३] तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य दशमं प्राभृतप्राभृत, साम्प्रतमेकादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा 'नक्षत्राण्यधिकृत्य चन्द्रमार्गा वक्तव्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह. ता कहं ते चंदमग्गा अहितेति वदेजा, ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खताणं अस्थि णक्वत्ता जे गं सता चंदस्स दाहिणेणं जो जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णं सता चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोयंति, अत्धि ४ णक्वत्ता जे गं चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमईपि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खता जे चंदस्स दाहि-1 णवि पमपि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ते जेणं चंदस्स सदा पमई जोअंजोएंति, ता एएसिणं अट्ठावीसाए। नक्षत्साणं कतरे नक्षत्सा जे णं सता चंदस्स दाहिणणं जोयं जोएंति, तहेव जाच कतरे नक्खत्ता जे गं है सदा चंदस्स पमई जोयं जोएंति ?, ता एतेसि णं अहाबीसाए नक्खत्ताणं जे णं नक्खत्ता सया चंदस्स दाहि-8 गण जोयं जोएंति ते णं छ, तं०-संठाणा अद्दा पुस्सो अस्सेसा हत्थो मूलो, तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं सदा चंदस्स उत्तरेणं जोयं जोएंति,ते गं बारस, तंजहा-अभिई सवणो धणिट्ठा सतभिसया पुषभदवया उत्तरा-18 पोट्टषता रेवती अस्सिणी भरणी पुषाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी साती १२, तस्थ जे ते णक्खत्ता जे गं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १० परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ११ आरभ्यते ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- (मल०) प्रत सुत्रांक [४४] ॥१३७॥ पोप चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमईपि जोयं जोएंति ते णं सत्त, तंजहा कत्तिया रोहिणी पुणवसू महा १० प्राभृते चित्ता विसाहा अणुराहा, तत्थ जे ते नक्षत्ता जेणं चंदस्स दाहिणेणवि पमपि जोयं जोएंति ताओ णं ११प्राभुतदो आसाढाओ सबबाहिरे मंडले जोयं जोएंमु वाजोएंति वा जोएस्संतिवा, तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं सदा प्राभृते चंदस्स पमई जोयं जोएंति, साणं एगा जेट्टा (सूत्रं ४४)॥ चन्द्रम णमार्ग: | 'ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं !-केन प्रकारेण नक्षत्राणां दक्षिणत उत्तरतः प्रमईतो यदिवा सूर्यनक्षत्रै-121 सू४४ Xविरहिततया अविरहिततया चन्द्रस्य मार्गा:-चन्द्रस्य मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपा मण्डलरूपा वा मागों आख्याता इति विदेत , भगवानाह-'ता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्येऽस्तीति निपातत्वादाप-14 स्वाद्वा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि णमिति वाक्यालङ्कारे सदा चन्द्रस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग युञ्जन्ति-कुर्वन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग युञ्जन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि स्थितानि उत्तरस्यामपि दिशि स्थितानि योगं युञ्जन्ति, प्रमईमपि-प्रमईरूपमपि योगं कुर्वन्ति, तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि IM ॥१३७॥ योग युआन्ति प्रमईरूपमपि योग युञ्जन्ति, अस्ति तन्नक्षत्रं यत्सदा चन्द्रस्य प्रमईरूपं योग युनक्ति, एवं सामान्येन भग-1 वतोके भगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्तं भूयः प्रश्नयति-ता एएसि ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता एएसि ण'-IN मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतिनक्षत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि सदा चन्द्रस्य दक्षिणस्यां 51 अनुक्रम [५४] 54545 ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] दिशि व्यवस्थितानि योगं कुर्वन्ति तानि षट्, तद्यथा-मृगशिर आर्द्रा पुष्योऽश्लेषा हस्तो मूलश्च, एतानि हि सर्वाण्यपि पञ्चदशस्य चन्द्रमण्डलस्य बहिश्चारं चरन्ति, तथा चोक्तं करणविभावनायां-पन्नरसमस्स चंद्दमंडलस्स बाहिरओ मिग| सिर अद्दा पुस्सो असिलेहा हत्थ मूलो य" जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तावप्युक्तम्-"संठाण अद्द पुस्सोऽसिलेस हत्थो तहेव मूलो य । बाहिरओ बाहिरमंडलस्स छप्पे य नक्खत्ता ॥१॥" ततः सदैव दक्षिणदिग्व्यवस्थितान्येव तानि चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्युपपद्यन्ते नाम्यथेति, तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि यानि सदा-सर्वकालं चन्द्रस्योत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग युजन्ति-कुर्वन्ति तानि द्वादश, तद्यथा-'अभिई इत्यादि, एतानि हि द्वादशापि नक्षत्राणि सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डले चारं चरन्ति, तथा चोक्तं करणविभावनायां-“से पढमे सबभतरे चंद|मंडले नक्खत्ता इमे, तंजहा-अभिई सवणो धणिहा सयभिसया पुषभद्दवया उत्तरभद्दबया रेवई अस्सिणी भरणी पुषफग्गुणी उत्तरफग्गुणी साई" इति, यदा चैतैः सह चन्द्रस्य योगस्तदा स्वभावाच्चन्द्रः शेषेष्वेव मण्डलेषु वर्त्तते, ततः सदैवैतान्युत्तरदिग्व्यवस्थितान्येव चन्द्रमसा सह योगमुपयन्तीति, तथा तत्र तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि योगं युञ्जन्ति उत्तरस्यामपि दिशि व्यवस्थितानि योग युञ्जन्ति प्रमईरूपमपि योगं युञ्जन्ति तानि सप्त, तद्यथा-कृत्तिका रोहिणी पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा, केचित् पुनज्येपठानक्षत्रमपि दक्षिणोत्तरप्रमईयोगि मन्यन्ते, तथा चोकं लोकश्रियाम्-'पुणवसु रोहिणिचित्तामहजेडणुराह कत्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोगी'त्ति, अन 'उभयजोगि'त्ति व्याख्यानयता टीकाकृतोतं-एतानि नक्षत्राणि उभययो अनुक्रम [१४] ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत ०प्राभूते११माभूतप्राभृते चन्द्रधमणमार्गः सू४४ सूत्रांक [४४] सूर्यप्रज्ञ- गीनि-चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिद् भेदमप्युपयान्तीति, तच्च वक्ष्यमाणज्येष्ठासूत्रेण सह विरोधीति न प्तिवृत्तिः प्रमाण, तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये ये ते नक्षत्रे ये णमिति वाक्यालङ्कारे सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनापि-दक्षि- (मलाणस्यामपि दिशि व्यवस्थिते योगं युङ्गः, प्रमई च-प्रमईरूपं च योगं युक्तः, ते णमिति वाक्यालङ्कारे, द्वे आषाढे पूर्वाषाढी- तरापाढारूपे, ते हि प्रत्येक चतुस्तारे, तथा च प्रागेवोक्तम्-'पुधासाढे चउत्तारे पण्णत्ते' इति, तत्र द्वे द्वे तारे सर्वबाद्यस्य ॥१३८॥ पञ्चदशस्य मण्डलस्याभ्यन्तरतो वे द्वे बहिः, तथा चोक्तं करणविभावनायाम्-"पुवुत्तराण आसाढाणं दो दो ताराओ अम्भितरओ दो दो बाहिरओ सघबाहिरस्स मंडलस्स" इति, ततो ये द्वे द्वे तारे अभ्यन्तरतस्तयोर्मध्येन चन्द्रो गच्छतीति तदपेक्षया प्रमई योगं युत इत्युच्यते, ये तु द्वे द्वे तारे बहिस्ते चन्द्रस्य पश्चदशेऽपि मण्डले चारं चरतः सदा दक्षिणदिगब्यवस्थिते ततस्तदपेक्षया दक्षिणेन योग युङ्ग इत्युकं, सम्प्रत्येतयोरेव प्रमईयोगभावनार्थ किश्चिदाह-ताओ य सबबाहिरे'त्यादि, ते च-पूर्वाषाढोत्तराषाढारूपे नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमयुक्तां युक्ती योक्ष्येते वा सदा सर्वबाह्ये मण्डले व्यवस्थिते, ततो यदा पूर्वाषाढोत्तराषाढाभ्यां सह चन्द्रो योगमुपैति तदा नियमतोऽभ्यन्तरतारकाणां मध्येन गच्छतीति तदपेक्षया प्रमदमपि योग युक्त इत्युक्तं, तथा तत्र-तेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये यत्तनक्षत्रं यत्सदा चन्द्रस्य प्रमईप्रमई रूपं योगं युनक्कि सा एका ज्येष्ठा । तदेवं मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपाश्चन्द्रमार्गा उक्ताः, सम्प्रति मण्डलरूपान् चन्द्रमार्गानभिधित्सुः प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह1 ता कति ते चंदमंडला पपणत्ता , ता पण्णरस चंदमंडला पं०, ता एएसि णं पण्णरसण्डं चंदमंहलाणं अनुक्रम [१४] ॥१३॥ SAREaratinintentiational For Pare ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] साथि चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहिं विरहिया, अस्थि चंदमंडला जे णं रविससिणक्वत्ताणं सामण्णा भवति, अस्थि मंडला जे णं सया आदिचेहिं विरहिया, ता एतेसि र्ण पण्णरसह चंदमंडलाणं कयरे चंदमंडला जे णं सता णक्खत्तेहिं अविरहिया, जाव कयरे चंदमंडला जे णं सदा आदिचविरसाहिता?, ता एतेसि णं पण्णरसण्हं चंदमंडलाणं तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सदा णक्खत्तेहिं अविरहिता तेणं अह, तं०-पढमे चंदमंडले ततिए चंदमंडले छठे चंदमंडले सत्तमे चंदमंडले अट्ठमे चंदमंडले दसमे चंदमंडले एकादसे चंदमंडले पण्णरसमे चंदमंडले, तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सदा णक्खत्तेहिं विरहिया तेणं सत्त, तं०-वितिए चंदमंडले चउत्थे चंदमंडले पंचमे चंदमंडले नवमे चंदमंडले बारसमे चंदमंडले तेरसमे चंदमंडले चउद्दसमे चंदमंडले, तत्थ जे ते चंदमंडले जे णं ससिरविनक्खताणं समाणा भवंति, ते नणं चत्तारि, तंजहा-पढमे चंदमंडले बीए चंदमंडले इक्कारसमे चंदमंडले पारसमे चंदमंडले, तत्थ जेते| ४चंदमंडला जे णं सदा आदिवविरहिता ते णं पंच, तं०-छठे चंदमंडले सत्तमे चंदमंडले अट्ठमे चंदमंडले & नवमे चंदमंडले दसमे चंदमंडले, (सूत्र ४५) दसमस्स एक्कारसमं पाहुडपाहुई समत्तं ॥ | "ता कइ णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , कतिसङ्ख्यानि णमिति वाक्यालङ्कारे, चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि !, भगवानाह–ता पण्णरसे'त्यादि, ता इति प्राग्वत् , पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, तत्र पश्च चन्द्रमण्डलानि जम्बूद्वीपे शेषाणि च दश मण्डलानि लवणसमुद्रे, तथा चोक्तं "जंबूदीपप्रज्ञप्ती-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहिता केव-त अनुक्रम [१५] airaturasurary.com ~287~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] सूर्यप्रश- इया चंदमंडला पन्नता ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे असीय जोयणसयं ओगाहित्ता एत्थ थे पंच चंदमंडला पण्णत्ता, प्राभते प्तिवृत्तिःलवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं ओगाहिता केवइया चंदमंडला पण्णत्ता, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिणि तीसाई जो-४११माभृत(मल०) यणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दस चंदमंडला पण्णत्ता, एवामेव सपुषावरेणं जंबुद्दीवे लवणे य पन्नरस चंदमंडला प्राभृते भवन्तीति अक्खायं" 'ता' इत्यादि, 'ता' इति तत्र-एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये 'अत्थि' ति सन्ति तानि चन्द्रमण्ड॥१३९॥ लमागे चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्षत्रैरविरहितानि, तथा सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्षत्रविरहितानि, तथा| सू४५ सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि रविशशिनक्षत्राणां सामान्यानि-साधारणानि, किमुक्तं भवति ?-रविरपि तेषु मण्डलेषु गच्छति शश्यपि नक्षत्राण्यपीति, तथा सन्ति तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा आदित्याभ्यां सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं माकृतत्वात् विरहितानि, येषु न कदाचिदपि द्वयोः सूर्ययोर्मध्ये एकोऽपि सूर्यो गच्छतीति भावः, एवं भगवता सामान्येनोके भगवान् गौतमो विशेषावगमननिमित्तं भूयः प्रश्नयति-ता एएसिण'मित्यादि सुगर्म, भगवानाह-'ता एएसिण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् एतेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि णमिति प्राग्वत् सदा नक्षत्रैरविरहितानि तान्यष्टौ, तद्यथा-'पढमे चंदमंडले' इत्यादि, तत्र प्रथमे चन्द्रमण्डले अभिजिदादीनि द्वादशहू नक्षत्राणि, तथा च तत्सङ्ग्रहणिगाथा-'अभिई सवण धणिवा सयभिसया दो य होंति भद्दवया । रेवइ अस्सिणी भरणी ॥१३॥ दो फरगुणि साइ पढममि ॥१॥ तृतीये चन्द्रमण्डले पुनर्वसुमधे पष्ठे चन्द्रमण्डले कृत्तिका सप्तमे रोहिणीचित्रे अष्टमेA विशाखा दशमे अनुराधा एकादशे ज्येष्ठा पञ्चदशे मृगशिर आपुष्यौ अश्लेषा हस्तो मूलः पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, अनुक्रम [१५] ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] RX तित्राद्यानि पट नक्षत्राणि यद्यपि पञ्चदशस्य मण्डलस्य बहिश्चारं चरन्ति तथापि तानि तस्य प्रत्यासन्नानीति तत्र गण्यन्ते.. ततो न कश्चिद्विरोधः, तथा तत्र-तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा नक्षविरहितानि तानि सप्त, तद्यथा-द्वितीयं चन्द्रमण्डलमित्यादि, तथा तत्र-तेषां पश्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि रविशशिनक्षत्राणां सामान्यानि भवन्ति तानि णमिति प्राग्वत् चत्वारि, तद्यथा-पढमे चंदमंडले इत्यादि, तथा तत्र-तेषां पञ्चदशानां चन्द्रमण्डलानां मध्ये यानि तानि चन्द्रमण्डलानि यानि सदा आदित्याभ्यां विर-13 हितानि तानि पश्च, तद्यथा-'छठे चंदमंडले'इत्यादि सुगम, एतगणनाञ्च यान्यभ्यन्तराणि पश्च चन्द्रमण्डलानि, तद्यथाप्रथम द्वितीयं तृतीयं चतुर्थं पञ्चम, यानि च सर्ववाह्यानि चन्द्रमण्डलानि, तद्यथा-एकादर्श द्वादशं त्रयोदर्श चतुर्दश पञ्चदशमित्येतानि दश सूर्यस्यापि साधारणानीति गम्यते, तथा चोक्तमन्यत्र-'दस चेच मंडलाई अम्भितरबाहिरा रविससीणं । सामन्नाणि उ नियमा पत्तया होंति सेसाणि ॥१॥" अस्याक्षरगमनिका-पश्चाभ्यन्तराणि पञ्च बाह्यानि सर्वसङ्ख्यया दश मण्डलानि नियमाद्रविशशिनो सामान्यानि-साधारणानि, शेषाणि तु यानि चन्द्रमण्डलानि पडादीनि दशपर्यन्तानि तानि प्रत्येकानि-असाधारणानि चन्द्रस्य, तेषु चन्द्र एव गच्छति नतु जातुचिदपि सूर्य इति भावः, इह किं चन्द्रमण्डलं कियता भागेन सूर्यमण्डलेन न स्पृश्यते कियन्ति वा चन्द्रमण्डलस्यापान्तराले सूर्यमण्डलानि कथं वा षडा. दीनि दशपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्येण न स्पृश्यन्ते इति चिन्तायां विभागोपदर्शनं पूर्वाचायः कृतं, ततस्तद्विनेयजनानुग्रहायोपदयते-तत्र प्रथमत एतद्विभावनार्थ विकम्पक्षेत्रकाष्ठा निरूप्यते, इह सूर्यस्य, विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पण अनुक्रम (५५) 64% ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] तू४५ सूर्यप्रज्ञ- योजनशतानि दशोत्तराणि, तथाहि-यदि सूर्यस्यैकेनाहोरात्रेण विकम्पो द्वे योजने एकस्य च योजनस्याष्टाचत्वारिंश-18 प्तिवृत्तिादेकपष्टिभागा लभ्यन्ते, ततरुयशीत्यधिकेनाहोरात्रशतेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना- अत्र सवर्णनार्थ प्राप्त (मल.) ११प्राभृतयोजने एकपल्या गुण्यते, गुणयित्वा चोपरितना अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातं सप्तत्यधिक प्राभृते शतं १७०, एतण्यशीत्यधिकेन शतेनान्त्यराशिना गुण्यते, जातान्येकत्रिंशत् सहस्राणि शतमेकं दशोत्तरं ३१११०, तत ॥१४॥ चन्द्रमण्डएतस्य राशेयोजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि पश्च योजनशतानि दशोत्तराणि ५१०, एतावती सूर्यस्य | लमागे विकम्पक्षेत्रकाष्ठा, चन्द्रमसः पुनर्विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि एकस्य च योजनस्य त्रिपश्चाशदेकपष्टिभागाः, तथाहि-यदि चन्द्रमस एकेनाहोरात्रेण विकम्पः षटूत्रिंशद्योजनानि एकस्य च योजनस्य पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागा लभ्यन्ते ततश्चतुर्दशभिरहोरात्रैः किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १४ अत्र सवर्णनार्थं प्रथमतः पत्रिंशतं एकषध्या गुण्यते गुणयित्वा चोपरितनाः पश्चविंशतिरेकषष्टिभागास्तत्र प्रक्षिसे प्यन्ते, जातानि द्वाविंशतिः शतानि एकविंशत्यधिकानि २२२१, एतानि सप्तभिर्गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाश्चत्वारः सप्तभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो जातानि पञ्चदश सहस्राणि पञ्च शतान्येकपश्चाशदधिकानि १५५५१, ॥१४॥ ततो योजनानयनार्थ छेदराशिरप्येकषष्टिलक्षणः सप्तभिर्गुण्यते, जातानि चत्वारि शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ४२७, तत उपरितनो राशिचतुर्दशभिरम्त्यराशिरूपैर्गुण्यते, ततो जातो द्वे लक्षे सप्तदश सहस्राणि सप्तदशानि चतुर्दे शाधिकानि |२१७७१५, ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः सप्तभिरपवर्तना, जात उपरितनो राशिरेकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं व्युत्तरं ३११०२ १.१६१४.. . अनुक्रम [५] SARERatinintamatara ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] छेदराशिरेकषष्टिस्ततस्तया भागे हते लब्धानि पञ्च योजनशतानि नचोत्तराणि एकस्य च योजनस्य त्रिपश्चाशदेकषष्टि-18 भागाः ५०९१५३, एतावती चन्द्रमसो विकम्पक्षेत्रकाष्ठा, सूर्यमण्डलस्य २ च परस्परमन्तरं द्वे द्वे योजने चन्द्रमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य च परस्परं अन्तरं पश्चत्रिंशद् योजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागाः, उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ-"सूरमंडलस्स णं भंते ! सूरमंडलस्स एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णते ?, गोअमा! दो जोयणाई सूरमंडलस्स सूरमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते" तथा "चंदमंडलस्स णं भंते । चंदमंडलस्स एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णते?, गोयमा पन्नत्तीसं जोयणाई तीसं च एगठिभागा जोअण-12 स्स एगं च एगहिभार्ग सत्तहा छित्ता चत्तारि अ चुण्णिा भागा सेसा चंदमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णते" इति, एत-13 ट्र देव च सूर्यमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य च स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणयुक्तं सूर्यस्य चन्द्रममश्च विकम्पपरिमाणमवसेयं, II तथा चोक्तम्-"सूरविकंपो एको समंडला होइ मंडलंतरिया। चंदविकंपो य तहा समंडला मंडलंतरिया ॥१॥" अस्या । गाथाया अक्षरगमनिका-एकः सूर्यविकम्पो भवति 'मंडलंतरियत्ति अन्तरमेव आन्तये, भेषजादित्वात् स्वार्थे यण, ततः स्त्रीत्वविवक्षायां डीप्रत्यये आन्तरी आन्तर्येवं आन्तरिका मण्डलस्य मण्डलस्यान्तरिका मण्डलान्तरिका 'समंडल'त्ति इह मण्डलशब्देन मण्डलविष्कम्भ उच्यते, परिमाणे परिमाणवत उपचारात् , ततः सह मण्डलेन-मण्डलविष्कम्भपरिमाणेन | परिमाणेन वर्तते इति समण्डला, किमुक्तं भवति-एकस्य सूर्यमण्डलान्तरस्य यत्परिमाणं योजनद्वयलक्षणं तदेकसूर्यमण्डलविष्कम्भपरिमाणेन अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागलक्षणेन सहितमेकस्य सूर्यमण्डलस्यविकम्पपरिमाणमिति, तथा मण्डलान्त ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुक्रम [५] ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः मल०) प्रत पाभृते सूत्रांक ॥१४॥ [४५] रिकाचन्द्रमण्डलान्तरपरिमाणं पञ्चत्रिंशत् योजनानि एकस्य च योजनस्य त्रिंशदेकषष्टिभागा एकस्य चैकषष्टिभागस्य चत्वारः१०प्राभृते &११प्राभृतसप्तभागा इत्येवंरूपं 'समंडल'त्ति मण्डलविष्कम्भपरिमाणेन सहिता एकश्चन्द्रविकम्पो भवति, यस्तु विकम्पक्षेत्रकाष्ठा-४ दर्शनतो विकम्पपरिमाणं ज्ञातुमिच्छति तं प्रतीय पूर्वाचार्योपदर्शिता करणगाथा-"सगमंडलेहि लद्धं सगकठाओ हवंति | चन्द्रमण्डसविकंपा । जे सगविक्खंभजुया हवंति सगमंडलंतरिया ॥१॥" अस्या अक्षरमात्रगमनिका-ये चन्द्रमसः सूर्यस्य वा लमागे विकम्पाः, कथम्भूतास्ते इत्याह-'स्वकविष्कम्भयुताः स्वकमण्डलान्तरिकाः' स्वस्वमण्डलविष्कम्भपरिमाणसहितस्वस्वमण्डलान्तरिकारूपा इत्यर्थः, भवन्ति स्वकाष्ठातः-स्वस्वविकम्पयोग्यक्षेत्रपरिमाणस्य स्वकमण्डलैः-स्वस्वमण्डलसङ्ख्यया भागे हुते यलब्धं तावत्परिमाणास्ते स्वविकम्पा:-स्वस्वविकम्पा भवन्ति, तथाहि-सूर्यस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजन-1 शतानि दशोत्तराणि ५१०, तान्येकपष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या' गुण्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि शतमेकं देशोत्तरं ३१११०, सूर्यस्य मण्डलानि विकम्पक्षेत्रे व्यशीत्यधिकं शतं १८३, ततो योजनानयनार्थ व्यशीत्यधिक मण्डलशतमेकषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकादश सहस्राणि शतमेकं त्रिषध्यधिकं १११६३, एतेन पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धे द्वे योजने, शेषमुपरिष्टादुद्धरति सप्ताशीतिः शतानि चतुरशीत्यधिकानि ८७८४, ततः सम्प्रत्येकषष्टिभागा आनेतन्या इत्यधस्तात् छेदराशिः यशीत्यधिक शतं १८३, तेन भागे हृते लब्धा अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः ४८, एतावदेकैकस्य सूर्यविकम्पस्य परि-| | ॥१४१॥ माणं, तथा चन्द्रस्य विकम्पक्षेत्रकाष्ठा पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि त्रिपञ्चाशच्चैकपष्टिभागा योजनस्य ५०९ तत्र योजनान्येकषष्टिभागकरणार्थ एकपट्या गुण्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहस्राणि एकोनपञ्चाशदधिकानि ३१०४९, तत४ अनुक्रम [१५] ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [११], -------------------- मलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] उपरितनास्त्रिपश्चाशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्येकत्रिंशत्सहखाणि शतमेकं व्युत्तरं ३११०२, चन्द्रस्य तु विकम्पक्षेत्रमध्ये मण्डलानि चतुर्दश १४, ततो योजनानयनाथू चतुर्दश एकषया गुण्यन्ते, जातान्यष्टौ शतानि चतुःपञ्चाशदअधिकानि ८५५, तैः पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धानि षट्त्रिंशद् योजनानि ३५, शेषाणि तिष्ठन्ति त्रीणि शतान्यष्टापश्चाशदधिकानि ३५८, अत ऊर्व एकपष्टिभागा आनेतव्याः, ततश्चतुर्दशरूपोऽधस्तात् छेदराशिः १४, तेन भागे हृते लब्धाः | पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागाः २५, शेषास्तिष्ठन्ति अष्टौ, सप्तभागकरणार्थ सप्तभिर्गुण्यन्ते जाताः षट्पश्चाशत् ५६, तस्याश्च| तुर्दशभिर्भागे लब्धाश्चत्वारः सप्तभागाः, एतावत्परिमाण एकैकश्चन्द्रविकम्प इति । तदेवं चन्द्रस्य सूर्यस्य च विकम्पक्षेत्र| काष्ठा चन्द्रमण्डलानां सूर्यमण्डलानां च परस्परमन्तरमुक्तं, सम्प्रति प्रस्तुतमभिधीयते-तत्र सर्वाभ्यन्तरे चन्द्रमण्डले | सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं सर्वात्मना प्रविष्टं, केवलमष्टावेकपष्टिभागाश्चन्द्रमण्डलस्य बहिः शेषा वर्तन्ते, चन्द्रमण्डलात् सूर्यमण्डलस्याष्टाभिरेकपष्टिभागहीनत्वात् , ततो द्वितीयाचन्द्रमण्डलादागपान्तराले द्वादश सूर्यमार्गाः, तथाहिद्वयोश्चन्द्रमण्डलयोरन्तरं पश्चत्रिंशत् योजनानि त्रिंशच्चैकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र योजनान्येकपष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्येकविंशतिः शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि २१६५, सूर्यस्य विकम्पो द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, तत्र द्वे योजने एकपट्या गुण्येते, जातं द्वाविंशं शतं १२२, तत उपरितना अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्तत्यधिकं शतं १७०, तेन पूर्वराशेर्भागो हियते, लब्धा द्वादश, एतावन्तोऽपान्तराले सूर्यमार्गा भवन्ति, अनुक्रम [५] * * wereumstaram.org ~293~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] सूर्यप्रज्ञ शेष तिष्ठति पञ्चविंशं शतं १२५, तत्र द्वाविंशेन शतेन द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि द्वे योजने लब्धे शेषास्तिष्ठन्ति त्रय/१० प्राभृते तिवृत्तिः एकपष्टिभागाः, येऽपि च प्रथमे चन्द्रमण्डले रविमण्डलात् शेषा अष्टावेकषष्टिभागास्तेऽप्यन प्रक्षिप्यन्ते इति जाता११माभूत(मल.) एकादश एकपष्टिभागाः, तत इदमागतं द्वादशात्सूर्यमार्गात् परतो द्वितीयाचन्द्रमण्डलादाक् द्वे योजने एकादश च प्राभृते एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र योजनद्वयानन्तरं सूर्यमण्डलमतो द्वि चन्द्रमण्ड॥१४॥ लमागे तीयाञ्चन्द्रमण्डलादोगभ्यन्तरं प्रविष्टं सूर्यमण्डलं एकादश एकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरः सप्तभागान् , ततः परं पर्शिवदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयः सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमण्डलं चन्द्रमण्डलसम्मिश्चं, ततः सूर्यमण्डलात्परतो बहिर्विनिर्गतं चन्द्रमण्डलमेकोनविंशतिमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान , ततः परं भूयस्तृतीय[स्य चन्द्रमण्डलादर्वाग् यथोक्तपरिमाणमन्तरं, तयथा-पञ्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशदेक-14 पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, एतावति चान्तरे द्वादश सूर्यमागों लभ्यन्ते, उपरि चढे योजने त्रयबैकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागास्ततोऽत्र प्रागुक्ता द्वितीयस्य चन्द्रमण्डलस्य सत्काः सूर्यमण्डलाद बहिर्विनिर्गता एकोनविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य ट्रा चत्वारः सप्तभागाः प्रक्षिष्यन्ते, ततो जाताखयोविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सरक एकः सप्तभागा, तत इदमायात-द्वितीयाचन्द्रमण्डलारपरतो द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच सूर्यमार्गात् परतो योजनदयातिक्रमेण सूर्य-15 लामण्डलं, तच तृतीयाबन्द्रमण्डलाद गभ्यन्तरं प्रविष्टं त्रयोविंशतिमेकषष्टिभागान एक च एकषष्टिभागसत्कं सतभागं, ततः अनुक्रम [१५] ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] शेषाचतुर्विशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य पटू सप्तभागाः सूर्यमण्डलस्य तृतीयचन्द्रमण्डलसम्मिश्नाः ततस्तशातीयं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गतमेकत्रिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कमेके सप्तमार्ग, ततो | भूयोऽपि यथोकं चन्द्रमण्डलान्तरं तस्मिंश्च द्वादश सूर्येमागों लभ्यन्ते, द्वादशस्य सूर्यमार्गस्योपरि योजने त्रय एक-1४॥ पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागास्ततो येऽत्र तृतीयमण्डलसत्काः सूर्यमण्डलादहिविनिर्गता एकत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्क एकः सप्तभागस्तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाताश्चतुर्विंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पश्च सप्तभागास्तत इदं वस्तुतत्त्वं जातं-तृतीयाचन्द्रमण्डलात्परतो द्वादश सूर्यमार्गा द्वादशाच सूर्यमार्गात् परतो योजनद्वयमतिक्रम्य सूर्यमण्डलं तच्चतुर्थाचन्द्रमण्डलादाक् अभ्यन्तरं प्रविष्टं चतुर्विंशतमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् पश्च सप्तभागान, ततः शेष सूर्यमण्डलस्य त्रयोदश एकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्को द्वौ भागौ इति, एतावच्चतुर्थचन्द्रमण्डलसम्मिश्र, चतुर्थस्य च चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलादू बहिर्विनिर्गतं द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागा, ततः पुनरपि यथोदितपरिमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, द्वादशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि दे। योजने त्रय एकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र चायचतुधेचन्द्रमण्डलमा सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गता द्वाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागास्ते अब राशी प्रक्षिप्यन्ते, ततो जाताः षट्चत्वारिंशदेकषष्टिभागा द्वौ च एकषष्टिभागस्य सत्को सप्तभागा, तत एवं वस्तुस्वरूपमवग 54555555 अनुक्रम [१५] -44 ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] सूर्यप्रज्ञ- न्तव्यं-चतुर्थाच्चन्द्रमण्डलात् परतो द्वादश सूर्यमार्गा द्वादशाच्च सूर्यमार्गात्परतो योजनद्वयातिक्रमे सूर्यमण्डलं, तच्च प्राभृते प्तिवृत्तिः। पञ्चमाञ्चन्द्रमण्डलादक अभ्यन्तरं प्रविष्टं षट्चत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् द्वौ च एकस्यैकपष्टिभागस्य सत्को सप्तभागी, ४११प्राभूत(मला शेष सूर्यमण्डलस्य एक एकषष्टिभाग एकस्य च एकषष्टिभागस्य पञ्च सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं पञ्चमचन्द्रमण्डलसम्मिश्र, प्राभृते ॥१४३॥ तस्य पश्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाहिर्षिनिर्गतं चतुःपश्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य द्वी सप्त चन्द्रमण्ड णमार्ग: भागौ, तदेवं पञ्च सर्वाभ्यन्तराणि चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलसम्मिश्राणि, चतुर्यु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश सू४५ सूर्यमार्गा इति जातं, सम्प्रति पष्ठादीनि दशमपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्यमण्डलासंस्पृष्टानि भाव्यन्ते-तत्र पञ्चमाञ्चन्द्रमण्डलात्परतो भूयः षष्ठं चन्द्रमण्डलमधिकृत्यान्तरं [तञ्च पश्चत्रिंशद् योजनानि त्रिंशकषष्टिभागा योजनस्य, एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागाः, तत्र च पञ्चत्रिंशद्योजनान्येकषष्टिभागकरणाथेमेकषष्ट्या गुण्यन्ते,15 गुणयित्वा चोपरितनास्त्रिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिष्यन्ते, ततो जातान्येकविंशतिः शतानि पाषट्यधिकानि २१६५, येऽपि |च पश्चमस्य चन्द्रमण्डलस्य सूर्यमण्डलाद् बहिर्विनिर्गताश्चतुःपञ्चाशदेकषष्टिभागा द्वौ च एकषष्टिभागस्य सत्को सप्तभागौ तेऽत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वाविंशतिः शतान्येकोनविंशत्यधिकानि २२१९, सूर्यस्य विकम्पो द्वे योजने अष्टाच-31 त्वारिंशदेकषष्टिभागाधिके, तत्र द्वे योजने एकपल्या गुण्येते जातं द्वाविंशं शतमेकपष्टिभागानां, तत उपरितना अष्टाचसात्वारिंशदेकषष्टिभागाः प्रक्षिष्यन्ते, जातं सप्तत्यधिकं शतं १७०, तेन पूर्वरायोर्भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश, शेषास्तिष्ठन्ति || 13ानव एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तभागास्तत इदमागतं-पश्चमाञ्चन्द्रमण्डलात्परतत्रयोदश सूर्यमागास्त्र-IN अनुक्रम (५५) ॥१४॥ ~2964 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५] योदशस्य च सूर्यमार्गस्योपरि षष्ठाचन्द्रमण्डलादाक् अन्तरं नव एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य | सत्काः पट् सप्तभागाः, ततः परतः षष्ठं चन्द्रमण्डलं, तच्च षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागात्मक, ततः परतः सूर्यमण्डलादागन्तरं षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य एकः सप्तभागस्तदनन्तरं सूर्यमण्डलं तस्माश्च परत एकपष्टिभागानां चतुरुत्तरेण शतेन एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्केनैकेन सप्तभागेन हीनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं प्राप्यते इति तस्मात्सूर्यमण्डलात्परतोऽन्ये द्वादशसूर्यमाई लभ्यन्ते, ततः सर्वसङ्कलनया तस्मिन्नप्यन्तरे त्रयोदश सूर्य-४ मार्गाः, तस्य च त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि सप्तमाञ्चन्द्रमण्डलार्वाक् अन्तरमेकविंशतिरेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रयः सप्तभागाः, ततः सप्तमं चन्द्रमण्डलं, तस्माच्च सप्तमाचन्द्रमण्डलात्परतः चतुश्चत्वारिंशता एकषष्टि-12 भागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सस्कैश्चतुर्भिः सप्तभागैः सूर्यमण्डलं, ततो द्विनवतिसरेकषष्टिभागैश्चतुर्भिश्च एकस्य | एकपष्टिभागस्य सत्कैः सप्तभागः न्यूनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं ततः परमस्तीत्यन्येऽपि द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गास्त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्य बहिरष्टमाचन्द्रमण्डलादक अन्तरं त्रयस्त्रिंशदेकषष्टिभागाः, ततोऽष्टमं चन्द्रमण्डलं, तस्माचाष्टमाचन्द्रमण्डलात्परतस्त्रयस्त्रिंशता एकपष्टिभागः सूर्यमण्डलं, ततः एकाशीतिसयरेकषष्टिभागैरूनं यथोदितप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं पुरतो विद्यते इति ततः पुरतोऽन्येऽपि | द्वादश सूर्यमार्गास्ततस्तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गास्त्रयोदशाच सूर्यमार्गात् पुरतो नवमाञ्चन्द्रमण्ड-12 लादर्वागन्तरं चतुश्चत्वारिंशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य चत्वारः सप्तभागा, ततः परं नवमं चन्द्रमण्डलं, अनुक्रम (५५) SARERatininemarana ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) ॥१४॥ सूत्रांक [४५] दीप तस्माच नवमाचन्द्रमण्डलात् परत एकविंशत्या एकषष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रिभिः सप्तभागैः सूर्यमण्डलं ततो एकोनसप्ततिसरेकषष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य त्रिभिः सप्तभागः परिहीणं यथोक्तप्रमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र ११माभृतचान्ये द्वादश सूर्यमार्गाः, एवं चास्मिन्नष्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः, तस्य च त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि प्राभूते दशमाञ्चन्द्रमण्डलादर्वाक् अन्तरं षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य एकः सप्तभागः, ततो दशमं चन्द्र-४ चन्द्रमण्डमण्डलं, तस्माच दशमाचन्द्रमण्डलात्परतो नबभिरेकषष्टिभागैरेकस्य च एकपष्टिभागस्य सस्कैः पङ्गिः सप्तभागैः सूर्य- मागे मण्डलं ततः सप्तपञ्चाशता एकपष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैः पद्भिः सप्तभागैरूनं प्रागुक्तपरिमाणं चन्द्रमण्ड-12 सू४५ लान्तरं, ततो भूयोऽपि द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते इति तस्मिन्नप्यन्तरे सर्वसङ्कलनया त्रयोदश सूर्यमार्गाः, ततस्त्रयोदशस्य सूर्यमार्गस्योपरि एकादशाच्चन्द्रमण्डलाद गन्तरं सप्तपष्टिः एकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काः पञ्च सप्तभागाः, तदेवं पञ्च चन्द्रमण्डलानि षष्ठादीनि दशमपर्यन्तानि सूर्यासम्मिश्राणि, षट्सु च चन्द्रमण्डलान्तरेषु त्रयोदश सूर्यमार्गा इति जातं । सम्प्रत्येतदनन्तरमुच्यते-तत्र एकादशे चन्द्रमण्डले चतुष्पञ्चाशदेकषष्टिभागा एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्को द्वौ सप्तभागौ इत्येतावत् सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टं एक एकषष्टिभाग एकस्य च एकपष्टिभागस्य पश्च सवभागाः इत्येतावन्मानं सूर्यमण्डलसम्मिश्रं एकादशाच्चन्द्रमण्डलाहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्डलं, षट्चत्वारिंशदेकपष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कौ द्वौ सप्तभागी तत् एतावता हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरमस्तीति द्वादश सूर्यमार्गा लभ्यन्ते, ततः परमेकोनाशीत्या एकपष्टिभागैरेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां सतभागाभ्यां द्वादशं चन्द्रमण्डलं, तच्च अनुक्रम [१५] | ॥१४॥ SARELatin international ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत + सूत्रांक + [४५] C+ द्वादशं चन्द्रमण्डल सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्टं द्वाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकपष्टिभागस्य सत्कान् पश्च। | सप्तभागान , शेष च त्रयोदश एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्को द्वी सप्तभागी इत्येतावन्मानं | सूर्यमण्डलसम्मिश्र, तस्माच द्वादशाश्चन्द्रमण्डला(हिर्विनिगतं सूर्यमण्डलं चतुर्विंशतमेकपष्टिभागान् योजनस्य एकस्य। |च एकपष्टिभागस्य सत्कान् पश्च सप्तभागान् , तत एतावन्मात्रेण हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गा | लभ्यन्ते, द्वादशाच सूर्यमार्गात्परतो नवतिसपरेकषष्टिभागैरेकस्य च एकपष्टिभागस्य सरकैः पद्भिः सप्तभागैखयोदर्श चन्द्रमण्डलं, तब त्रयोदशं चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलादभ्यन्तरं प्रविष्ट, एकत्रिंशतमेकषष्टिभागान् एकस्य च एकपष्टिभागस्य | सत्कमेकं सप्तभागं, शेष चतुर्विंशतिरेकपष्टिभागाः एकस्य एकषष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तभागा इत्येतावन्मानं सूर्यमण्डलसम्मिश्र, तस्साच त्रयोदशचन्द्रमण्डला बहिः सूर्यमण्डलं विनिर्गतं त्रयोविंशतिमेकषष्टिभागान् एकस्य एकषष्टिभागस्य सत्कमेकं सप्तभागं, तत एतावता हीनं परतश्चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्रच द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परत एक पष्टिभागानां व्युत्तरेण शतेन एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कैत्रिभिः सप्तभागैश्चतुर्दशं चन्द्रमण्डलं, तच्च चतुर्दशं चन्द्रम-18 Cण्डलं सूर्यमण्डादभ्यन्तरं प्रविष्टमेकोनविंशतिमेकषष्टिभागानेकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कान् चतुरः सप्तभागान् , शेष षट्त्रिं शदेकषष्टिभागा एकस्य च एकषष्टिभागस्य सत्कास्त्रयः सप्तभागा इत्येतावत्परिमाणं सूर्यमण्डलसम्मिश्र, तस्माचतुर्दशाच्चन्द्रमण्डला बाहिर्विनिर्गतं सूर्यमण्डलमेकादश एकपष्टिभागान् एकस्य च एकषष्टिभागस्य चतुरः सप्तभागान्, तत एतावता हीनं यथोक्तपरिमाणं चन्द्रमण्डलान्तरं, तत्र च द्वादश सूर्यमार्गाः, द्वादशाच्च सूर्यमार्गात् परतः एकपष्टिभागानां चतुर्दशोत्तरेण HEReso अनुक्रम (५५) CRACC ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [११], -------------------- मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [४५] सूर्यप्रश-18 शतेन पञ्चदशं चन्द्रमण्डलं, तच्च पश्चदर्श चन्द्रमण्डलं सर्वान्तिमात्सूर्यमण्डलादगभ्यन्तरं प्रविष्टमष्टावेकपष्टिभागान , २.प्राभृते प्तिवृत्तिःत शेषा अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः सूर्यमण्डसम्मिश्राः, तदेवमेतान्येकादशादीनि पश्चदशपर्यन्तानि पञ्च चन्द्रमण्डलानि सूर्य-१प्राभूत(मल०) मण्डलसम्मिश्राणि भवन्ति, चतुर्यु च परमेषु चन्द्रमण्डलान्तरेषु द्वादश द्वादश सूर्यमार्गाः, एवं तु यदन्यत्र चन्द्रमण्ड-II ॥१४५॥ लान्तरेषु सूर्यमार्गप्रतिपादनमकारि यथा-'चंदंतरेसु अहसु अभितर बाहिरेसु सूरस्स । चारस बारस मग्गा छसु तेरस नक्षत्रदेवाः तेरस भवति ॥१॥ तदपि संवादि द्रष्टव्यम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य cा सू४६ एकादशं प्राभूतपाभृतं समाप्तम् ॥ अनुक्रम [१५] तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभूतस्य एकादशं प्राभृतमाभृतं, सम्पति द्वादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः-देवतानाम-18 ध्ययनानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह । ता कहं ते देवताणं अज्झयणा आहिताति वदेजा , ता एएणं अट्ठावीसाए नक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते हाकिंदेवताए पण्णते ?, भदेवयाए पं०. सवणे णक्खसे किंदेवयाए पन्नते, ता विण्डदेवयाए पण्णते, धणिट्ठाणक्खसे किंदेवताए पं०१, ता वसुदेवयाएपण्णत्ते,सयभिसयानक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते , ता वर णदेवयाए पपणत्ते, (पुचपोह अजदे)उत्तरापोहचयानक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्तो,ता अहिवहिदेवताए पण्णसे, लाएवं सबेवि पुच्छिजंति, रेवती पुस्सदेवता .स्सिणी अस्सदेवताभरणी जमदेवता कत्तिया अग्गिदेवतारोहिणी ॥१४५॥ FRImurary.org अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- ११ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १२ आरभ्यते ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१२], -------------------- मूलं [४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] SUSMSSSSSSS |पयावहदेव या सट्ठाणा सोमदेवयाए अहा रुहदेवयाए पुणवसू अदितिदेवयाए पुस्सो वहस्सइदेवयाए अस्सेसा सप्पदेवयाए महा पितिदेवताएपं० पुवाफग्गुणी भगदेवयाए उत्सराफग्गुणी अजमदेवताए हत्थे सवियादे बताए चित्ता तहदेवताए साती वायुदेवताए विसाहा इंदग्गीदेवयाए अणुराहा मित्तदेवताए जेट्ठा इंददे-17 हवताए मूले णिरितिदेवताए पुखासाढा आउदेवताए उत्तरासादा विस्सदेवयाए पण्णत्ते॥ (सूत्रं ४६) सदसमस्स बारसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ | ता कहं ते देवयाण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं :-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया नक्षत्राधिपतीनां देवतानाम ध्ययनानि-अधीयन्ते ज्ञायन्ते यैस्तानमध्ययनानि नामानीत्यर्थः, आख्यातानीति , वदेत् , एवं प्रश्ने कृते भगवानाहमाता एएसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषां-अनन्तरोदितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्येऽभिजिनक्षत्रं किंदेवताककिंनामधेयदेवताकं प्रज्ञप्तम् , भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, ब्रह्मदेवतार्क-ब्रह्माभिधदेवताकं प्रज्ञावं, श्रवणनक्षत्रं फिंदेवताकं प्रज्ञप्तं !, भगबानाह-'ता'इत्यादि, विष्णुनामदेवताकं प्रज्ञप्तं, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, देवताभिधानसङ्घाहिकाश्चमास्तिस्रः प्रवचननसिद्धाः सङ्ग्रहणिगाथा:-"बम्हा विण्डू य वसू वरुणो तह जो अर्ण-| तरं होई । अभिवहिपूस गंधव चेव परतो जमो होइ॥१॥ अग्गि पयावइ सोमे रुहे अदिई बहस्सई चेव । नागे पिइ भग| अज्जम सविया तहा य वाऊ य॥२॥ इंदग्गी मित्तोवि य इंदे निरई य आउविस्सोय । नामाणि देवयाणं हवंति रिक्खाण जहकमसो ॥३॥" इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ अनुक्रम [५६] POOR SARERatininemarana ~301~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१३], -------------------- मूलं [४७] + गाथा:(१-३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७] ॥१-३|| सर्यप्रज-1 तदेवमुक्कं दशमस्य प्राभृतस्य द्वादशं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति त्रयोदशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः-'मुहूर्तानां 21१० प्राभृते तिवृत्तिः[नामधेयानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह १३ प्राभृत(मल.) ता कहं ते मुहत्ताणं नामधेजा आहिताति वदेजा, ता एगमेगस्स णं अहोरत्तस्स तीसं मुहत्ता तं- प्राभूते "रोदे सेते मित्ते, वायु सुगीए (पी)त अभिचंदे । महिंद् बलवं बंभो, यहुसचे चेव ईसाणे ॥१॥ तहे य मुर्चना॥१४६॥ भावियप्पा वेसमणे बरुणे य आणंदे । विजए (प) वीससेणे पयावई चेव उवसमेय ॥२॥ गंधव अग्गिवेसे मानि सयरिसहे आयवं च अममे य । अणवं च भोग रिसहे सबढे रक्खसे चेव ॥ ३॥ (सत्र ४७) दसमस्स पाहुडस्स तेरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ ४ ता कहं ते मुटुत्ताण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं!-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया मुहूर्तानां नामधेयानि-४ नामान्येच नामधेयानि, 'नामरूपभागाद्धेय' इति स्वार्थे धेयप्रत्ययः, आख्यातानीति वदेत् , भगवानाह–ता एगमेगबस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत, एकैकस्याहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्त्ता वक्ष्यमाणनामधेययुक्ता इति शेषः, तान्येव नामधे-17 यान्याह-तंजहा-रोईत्यादि गाथात्रयं, तत्र प्रथमो मुहूर्तों रुद्रो द्वितीयः श्रेयान् तृतीयो मित्रश्चतुर्थो वायुः पञ्चमः ||१४६॥ सुपीतः षष्ठोऽभिचन्द्रः सप्तमः 'माहेन्द्रोऽष्टमः बलवान् नवमः ब्रह्मा दशमः बहुसत्यः एकादश ईशानो द्वादशः त्वष्टा त्रयोदशः भावितात्मा चतुर्दशः वैश्रमणः पञ्चदशः वारुणः षोडशः आनन्दः सप्तदशो विजयः अष्टादशो विश्वसेनः एकोनविंशतितमः प्राजापत्यः विंशतितमः उपशमः एकविंशतितमो गन्धर्वः द्वाविंशतितमोऽग्निवेश्यः त्रयोविंशतितमः *EX दीप अनुक्रम [५७-६०] wwwmarary.org अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १२ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ आरभ्यते ~302~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१३], -------------------- मूलं [४७] + गाथा:(१-३) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७] शतवृषभा चतुर्विंशतितमः आतपवान् पञ्चविंशतितमोऽममः पडूविंशतितमः ऋणवान् सप्तविंशतितमो भीमः अष्टाविंशतितमो वृषभः एकोनत्रिंशत्तमः सर्वाः त्रिंशत्तमो राक्षसः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ ||१-३|| तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य त्रयोदशं प्राभृतप्राभृत, सम्प्रति चतुर्दशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार-दिवसरा-1 विप्ररूपणा कर्तव्या, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते दिवसा आहियत्तिवइजा ?, ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पनरस दिवसा पं० सं०-पडिवादिबसे। बितियदिवसे जाव पण्णरसे दिवसे, ता एतेसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं पन्नरस नामधेजा पं०२०-पुवंगे सिद्धमणोरमे य तत्तो मणोरहो (हरो) चेव । जसभ य जसोधर सबकामसमिद्धेति य ॥१॥इंद मुद्धा भिसित्ते य सोमणस धणंजए य योद्धछ । अत्यसिद्धे अभिजाते अचासणे य सतंजए ॥२॥ अग्गिवेसे उव-४ * समे दिवसाणं नामधेजाई। ता कहं ते रातीओ आहिताति वदेज्जा ?, ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस है राईओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पडिवाराई बिदियाराई जाव पण्णरसा राई, ता एतासि णं पण्णरसहं राहणं पण्णरस नामधेजा पपणता, तं०-उत्तमा य सुणक्खत्ता, एलावचा जसोधरा । सोमणसा चेव तथा सिरि* संभूता य योद्धच्चा ॥१॥ विजया य विजयंता जयंति अपराजियाय गच्छा य । समाहारा चेव तधा तेया दीप अनुक्रम [५७-६० अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १४ आरभ्यते ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१४], -------------------- मूलं [४८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ॐ % प्रत सूत्रांक [४८] सू४८ गाथा: श सूर्यप्रज्ञ- य तहा य अतितेया ॥१॥ देवाणंदा निरती रयणीणं णामधेज्जाई ॥ (सूत्रं ४८) दसमस्स पाहुस्स| १० प्राभृते प्तिवृत्तिःचउद्दसमं पाछपाहुदं समत्तं ।। १४ माभूतमल.) माभृते MI 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः, भगवन् ! त्वया दिवसा आख्याता दिवसरा॥१४७॥ इति वदेत् , भगवानाह-'ता एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकस्य अत्रापान्तरालवत्ती मकारोऽलाक्ष- त्रिनामानि णिका, णमिति वाक्यालङ्कारे, पक्षस्य पश्चदश पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः वक्ष्यमाणक्रमयुक्ताः, तमेव कममाह-'तंजहेत्यादि, तद्यथा-प्रतिपत्प्रथमो दिवसो द्वितीया द्वितीयो दिवसः तृतीया तृतीयो दिवसः एवं यावत्पश्चदशी पञ्चदशो दिवसः, 'ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र एतेषां पञ्चदशानां दिवसानां क्रमेण पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाप्रथमः प्रतिपलक्षणः पूर्वाङ्गनामा द्वितीयः सिद्धमनोरमः तृतीयो मनोहरः चतुओं यशोभद्रः पञ्चमो यशोधरः षष्ठः सर्वकामसमृद्धः सप्तम इन्द्रमूर्दाभिषिक्त अष्टमः सौमनसः नवमो धनञ्जयः दशमोऽर्थसिद्धः एकादशोऽभिजातः द्वादशो अत्यशनः त्रयोदशः शतञ्जयः चतुर्दशोऽग्निवेश्मा (श्यः) पञ्चदश उपशमः, एतानि दिवसानां क्रमेण नामधेयानि, ४'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः रात्रय आख्याता इति वदेत् !, भगवानाह'ता एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , एकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश पश्चदश रात्रयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रतिपत्ता ॥१४॥ प्रतिपत्सम्बन्धिनी प्रथमा रात्रिः द्वितीयदिवससम्बन्धिनी द्वितीया रात्रिः, एवं पञ्चदशदिवससम्बन्धिनी पञ्चदशी रात्रिः, एतश्च कर्ममासापेक्षया द्रष्टव्यं, तत्रैव पक्षे पक्षे परिपूर्णानां पञ्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात् , 'ता एएसि ' दीप अनुक्रम [६१-६७]] ACAO VAJanataram.org अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १३ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १४ आरभ्यते ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१४], -------------------- मूलं [४८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: H+ प्रत सूत्रांक [४८] मित्यादि, तत्र एतासां पश्चदशानां रात्रीणां यथाक्रमममूनि पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-प्रथमा प्रतिपत्सम्बधिनी रात्रिरुत्तमा-उत्तमनामा द्वितीया सुनक्षत्रा तृतीया एलापत्या चतुर्थी यशोधरा पञ्चमी सौमनसी षष्ठी श्रीसम्भूता| सप्तमी विजया अष्टमी वैजयन्ती नवमी जयन्ती दशमी अपराजिता एकादशी इच्छा द्वादशी समाहारा त्रयोदशी तेजा चतुर्दशी अतितेजा पञ्चदशी देवानन्दा, अमूनि क्रमेण रात्रीणां नामधेयानि भवन्ति ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य चतुदर्श प्राभूतप्राभूतं समाप्तम् ।' +S+5-45% ॐॐॐॐॐॐ गाथा: % % दीप अनुक्रम [६१-६७]] तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दशं प्राभृतप्राभृतं, सम्पति पश्चदशमारभ्यते, तस्य चायमर्धाधिकारः-'तिथयो । वक्तव्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते तिही आहितेति बदेजा, तत्थ खलु इमा दुविहा तिही पण्णत्ता, तंजहा-दिषसतिही राई तिही य, ता कहं ते दिवसतिही आहितेति चदेजा?, ता एगमेगस्स णं पण्णरस २ दिवसतिही पण्णत्ता, ट्रात०-णंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्वस्स पंचमी पुणरवि गंदे भद्दे जए तुच्छे पुणे पक्खस्स दसमी पुणरविX गंदे भहे जये तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पण्णरस, एवं ते तिगुणा तिहीओ सधेसि दिवसाणं, कहं ते राईतिधी आहितेति वदेजा ?, एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस रातितिधी पं०, तं०-उग्गवती भोगवती जसवती सबहै सिद्धा सुहणामा पुणरवि उग्गवती भोगवती जसवती सबसिद्धा सुहणामा पुणरवि उग्गवती भोगवती AX अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १४ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १५ आरभ्यते ~305~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], -------------------- प्राभूतप्राभत [१५], -------------------- मलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत तिथिनामा सूर्यप्रज्ञ- जसवती सधसिद्धा सुहणामा, एते तिगुणा तिहीओ सवासिं रातीणं ॥ (सूत्रं ४९) दसमस्स पाहुखस्स १० प्राभूते सिवृत्तिःपण्णरसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ।। १५माभृत(मल०) 'ता कहं ते तिही त्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् , कथं: केन प्रकारेण केन क्रमेण तिथय आख्याता इति वदेत्, ननु प्राभृते [दिवसेभ्यस्तिथीनां का प्रतिविशेषः येन एताः पृथक् पृछचन्ते, उच्यते, इह सूर्यनिष्पादिता अहोरात्राः चन्द्रनिष्पा-नादव दिवसरात्रि ॥१४८॥ |दिताः तिथयः, तत्र चन्द्रमसा तिथयो निष्पाद्यन्ते वृद्धिहानिभ्यां, तथा चोक्तम्-"तं रयय कुमुयसिरिसप्पभस्स चंदरसला जानि सू ४९ राइसुरुगरस । लोए तिहित्ति निययं भण्णइ बुट्टीएँ हाणी ॥१॥"[त्वं रचय (पूजा) कुमुदश्रीसत्प्रभस्य चन्द्रस्य रात्रिसुरुचेः । लोके तिथिरिति नियत भण्यते ( यस्य) वृद्ध्या हान्या ॥१॥] तत्र वृद्धिहानी चन्द्रमण्डलस्य न स्वरूपतः किन्तु राहुषिमानावरणानावरणकृते, तथाहि-इह द्विविधो राहुर, तद्यथा-पराहुः ध्रुवराहुश्च, तत्र यः पर्वराहुः तत्गता चिन्ताऽत्रानुपयोगिनीत्यने वक्ष्यते क्षेत्रसमासटीकायां वा कृतेति ततोऽवधार्या, यस्तु वराहुस्तस्य विमान कृष्णं, तच चन्द्रमण्डलस्याधस्ताचतुरङ्गलमसम्माप्तं सत् चारं चरति, तत्र चन्द्रमण्डलं बुज्या द्वाषष्टिसपिभोगः परिकलाहप्यते, परिकल्प्य च तेषां भागानां पशदशभिर्भागो हियते, लब्धाश्चत्वारो द्वापष्टिभागाः शेषौ द्वौ भागी तिष्ठता, तो च सदा ता वृद्धी (सदानावृतौ) एषा फिल चन्द्रमसः षोडशी कलेति प्रसिद्धिः, तत्र कृष्णपक्षे प्रतिपदि वराहुवि-1* ॥१४८॥ मानं कृष्णं, तच्च चन्द्रमण्डलस्याधस्तापातुरङ्गलमसंप्राप्तं सत् चारं चरत् आत्मीयेन पश्चदशेन भागेन द्वी द्वापष्टिभागी | सदाऽनावार्यस्वभावी मुक्त्वा शेषषष्टिसत्कषष्टिभागात्मकस्य चन्द्रमण्डलस्य एक चतुर्भागात्मक पश्चदशभागमावृणोति, [६८ weredturary.com ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१५], -------------------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (४९) द्वितीयस्यामात्मीयाभ्यां द्वाभ्यां पञ्चदशभागाभ्यां द्वौ पञ्चदशभागौ, तृतीयस्यामात्मीय खिभिः पञ्चदशभागैत्रीन् पश्चदशभागान, एवं यावदमावास्यायां पश्चदश भागानावृणोति, ततः शुक्लपक्षे प्रतिपदि एकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, द्वितीयस्यां दी पश्चदशभागी तृतीयस्यां त्रीन् पश्चदशभागान् एवं यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशापि भागाननावृतान् करोति, तदा च सर्वात्मना परिपूर्ण चन्द्रमण्डलं लोके प्रकटं भवति, वक्ष्यति चामुमर्थमग्रेऽपि सूत्रकृत्-'तत्थ णं जे से धुवराइ से णं बहुलपक्खस्स पडिवए पण्णरसभागेण' मित्यादिना ग्रन्थेन, तत्र यावता कालेन कृष्णपक्षे पोडशो भागो द्वाप|ष्टिभागसत्कचतुर्भागात्मको हानिमुपगच्छति स तावान् कालविशेषस्तिथिरित्युच्युते, तथा यावता कालेन शुक्लपक्षे षोड| शभागो द्वापष्टिभागसत्कभागचतुष्टयप्रमाणः परिवर्द्धते तावत्प्रमाणः कालविशेषस्तिधिर्भवति, उक्तं च-"सोलसभागा काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरस । तित्तियमित्ते भागे पुणोऽवि परिवहुए जोण्हे ॥१॥ कालेण जेण हायइ सोलस भागो उ सा तिही होइ । तह चेव य वुडीएएवं तिहिणो समुप्पत्ती ॥२॥" अत्र 'जोण्हे' इति जोत्स्ने शुक्लपक्षे इत्यर्थः, शेषं सुगम, अयं च पूर्वाचार्यपरम्परायात उपनिषदुपदेश:-अहोरात्रस्य द्वापष्टिभागप्रविभक्तस्य ये एकषष्टिभागास्तावत्प्रमाणा तिथिरिति, अथाहोरात्रस्त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणः सुप्रतीतः, प्रागेव सूत्रकृता तस्य तावत्प्रमाणतयाऽभिधानात्, तिथिस्तु किंमुहूर्तप्रमाणेति !, उच्यते, परिपूर्णा एकोनत्रिंशन्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागाः, उक्तं च"अउणत्तीसं पुन्ना उ मुहुत्ता सोमओ तिही होइ । भागावि य बत्तीसं बाव(दुस)हिकाएण छेएणं ॥१॥" कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह अहोरात्रस्य द्वापष्टिभागीकृतस्य सत्का ये एकषष्टिभागास्तावत्प्रमाणा तिथिरित्युच्यते, तत्रैकषष्टि अनुक्रम [६८ ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१५], -------------------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [४९] दीप सूर्यप्रक त्रिंशता गुण्यते जातानि अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एते च किल द्वापष्टिभागीकृतसकलतिथिगतमुहर्त-IIपाते तिवृत्तिःसत्का अंशाः, ततो मुहर्रानयनार्थं तेषां द्वापश्या भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहर्ता द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा मुहू-15/१५प्राभूत(मल.) लास्य, एतावन्मुहूर्तप्रमाणा तिथिः, एतावता हि कालेन चन्द्रमण्डलगतः पूर्वोदितप्रमाणः षोडशो भागो हानि वोपगच्छति प्राभृते ॥१४९॥ वर्द्धते वा, तत एतावानेव तिथेः परिमाणकालः, तदेवमहोराबादस्ति तिथेः प्रतिविशेष इत्युपपन्नस्तिथिविषये पृथक्मना,दिवसरात्रि एवं गीतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र-तिथिविचारविषये खल्विमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा-अतिथिनामा स्तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दिवसतिथयो रात्रितिथयश्च, तत्र तिथेः पूर्वार्द्धभागः स दिवसतिधिरित्युच्यते, यस्तु पश्चार्च-15 नि सू४९ |भागः स रात्रितिथिरिति, 'ता कह'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण कया नानां परिपाव्या इत्यर्थः, दिवसतिथय आख्याता इति वदेत् , भगवानाह-एगमेगस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकस्य णमिति वाक्यालङ्कारे पक्षस्य मध्ये पशदश दिवसतिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा नन्दा द्वितीया भद्रा तृतीया जया चतुर्थी तुच्छा पञ्चमी पक्षस्य पूर्णा, ततः पुनरपि षष्ठी तिथिनन्दा सप्तमी भद्रा अष्टमी जया नवमी तुच्छा दशमी पक्षस्य पूणों, ततः पुनरप्येकादशी तिथिर्नन्दा द्वादशी भद्रा त्रयोदशी जया चतुर्दशी तुच्छा पक्षस्य पञ्चदशी पूर्णा, एवं'मित्यादि, एवं-उक्केन प्रकारेण, एते इति खीत्वेऽपि प्राप्ते पुरस्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , एता अनन्तरोदितास्तिथयो नन्दाचार, नन्दादीन्यनन्तरो-14 ॥१४९॥ |दितानि तिथिनामानीत्यर्थः, त्रिगुणाः, विगुणितानीति भावः, सर्वेषां पक्षान्तर्वर्तिनां दिवसानां, सर्वासा पक्षान्तवर्तिनीनां दिवसतिथीनामित्यर्थः, 'ता कहते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं -केन प्रकारेण, कया नानां परिपाव्या अनुक्रम 35 [६८) ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१५], -------------------- मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 15454555 इत्यर्थः, भगवन् ! ते त्वया रात्रितिथय आख्याता इति वदेत् , भगवानाह–ता एगमेगस्स 'मित्यादि, ता इति| 24 प्राग्वत्, पंकैकस्य पक्षस्य पशदश पञ्चदश रात्रितिधयः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-प्रथमा उग्रवती द्वितीया भोगवती तृतीया || यशोमती चतुर्थी सर्वसिद्धा पश्चमी शुभनामा ततः पुनरपि षष्ठी उग्रवती सप्तमी भोगवती अष्टमी यशोमती नवमी सर्वसिद्धा दशमी शुभनामा ततः पुनरप्येकादशी उग्रवती द्वादशी भोगवती त्रयोदशी यशोमती चतुर्दशी सर्वसिद्धा | पञ्चदशी शुभनामा, एवमेताख्रिगुणास्तिथयः, एवमेतानि त्रिगुणानि तिथिनामानीत्यर्थः, सर्वासां रात्रीणां-रात्रितिथीनां | वाचकानीति शेषः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चदशं प्राभृतमाभृतं समाप्तम् ॥ [६८ तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य पञ्चदशं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति षोडशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:-यथा 'गोत्राणि ।। वक्तव्यानी'ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते गोता आहिताति वदेजा?, ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णवत्ताणं अभियी णक्खत्ते किंगोते?, |ता मोग्गल्लायणसगोते पण्णत्ते, सवणे णक्खत्ते किंगोते पण्णते, संखायणसगोते पण्णत्ते, धणिहाणक्खते | किंगोत्ते पं०१, अग्गतावसगोत्ते पं०, सतभिसयाणक्खत्ते किंगोसे पण्णते ?, कण्णलोयणसगोत्ते पं०, पुवा|पोट्ठवताणक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते?, जोउकपिणयसगोते पण्णते, उत्सरापोहवताणक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते, धणंजयसगोसे पण्णसे, रेवतीणक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते ? पुस्सायणसगोते पण्णत्ते, अस्सिणीनक्खसे किंगोते ४ FRImurary.org अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १५ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १६ आरभ्यते ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [६९] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [५० ] प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [१६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रशतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ १५०॥ पण्णत्ते ?, अस्सादणसगोते पण्णत्ते, भरणीणक्खते किंगोत्ते पण्णत्ते ?, भग्गबेससगोत्ते पं०, कत्तियाणक्खले किंगोते पण्णत्ते ?, अग्गिवेससगोते पं०, रोहिणीणक्खते किंगोते पं० १, गोतमगोते पण्णत्ते, संठाणाणक्खते किंगोते पं० ?, भारद्दायसगोते पण्णत्ते, अाणक्खत्ते किंगोते पं० १, लोहियापणसगोत्ते पं०, पुणवसूणक्खते किंगोत्ते पण्णत्ते ?, वासिहसगोत्ते पं०, पुस्से णक्खन्ते किं गोते पं०, उमज्जायणसगोत्ते पं०, अस्सेसाणक्खते किंगोते पं०१, मंडवायणसगोते पं०, महाणक्खत्ते किंगो पं० १, पिंगायणसगोते पं०, पुत्राफरगुणीणक्खत्ते किंगोते पं० १, गोवल्लापणसगोते पं०, उत्तराफग्गुणीणक्खत्ते किंगोत्ते पं० १, कासव५. गोते पण्णत्ते, हत्थेणक्वत्ते किंगोते पं० १, कोसियगोते पण्णत्ते, चित्ताणक्खते किंगोत्ते पं०, दर्भियाणस्सगोसे पण्णत्ते, साईणक्खते किंगोते पण्णत्ते ?, चामरछगोत्ते पं०, विसाहाणक्खते किंगोत्ते पं० १, संगायसगोते पं०, अणुराधाणक्खसे किंगो से पं० १, गोलवायणसगोत्ते पं०, जेहानक्खत्ते किंगोत्ते पं० १, तिगि च्छायणसगोते पं०, मूलेणक्खते किंगोत्ते पं०१, कच्चायणसगोते पण्णत्ते, पुल्वासाढानक्खत्ते किंगोत्ते पण्ण से?, वशियायणसगोते पण्णन्ते, उत्तरासादाणक्खते किंगोते पण्णत्ते १, वग्धावचसगोत्ते पण्णत्ते ॥ (सूत्रं ५० ) दसमस्स पालुडस्स सोलसमं पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ ' - 'ता कहं ते' इत्यादि, इति ( अत्र ) नक्षत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसम्भवः, यत इदं गोत्रस्य स्वरूपं लोकप्रसिद्धिमुपा| गमत् प्रकाशका द्यपुरुषाभिधानतस्तदपत्यसन्तानो गोत्रं यथा गर्गस्यापत्यं सन्तानो गर्णाभिधानो गोत्रमिति, न चैवस्वरूपं For Parts Only ~310~ १० प्राभूते १६ प्राभृतप्राभृते नक्षत्रगो. त्राणि सू ५० ॥ १५० ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१६], -------------------- मूलं [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] दीप नक्षत्राणां गोत्रं सम्भवति, तेषामपिपातिकत्वात् , तत इत्थं गोत्रसम्भवो द्रष्टव्यः-यस्मिनक्षत्रे शुभैरशुभैा प्रहः समानं | 5 यस्य गोत्रस्य यथाक्रमं शुभमशुभं वा भवति तत्तस्य गोत्रं, ततः प्रश्नोपपत्तिः, 'ता'इति पूर्ववत्, कथं त्वया नक्षत्राणां गोत्राणि आख्यातानीति वदेत् १, भगवानाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये अभिजिन्नक्षत्रं मोद्गल्यायनसगोत्र-मोद्गल्यायनेन सह गोत्रेण वर्तते यत्तत्तथा, श्रवणनक्षत्रं शाङ्खायनसगोत्रं, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, क्रमेण गोत्रसट्टाहिकाश्चेमा जम्बूदीपमज्ञप्तिसत्काश्चतस्रः सङ्ग्रहणिगाथा:"मोग्गल्लायण १ संखायणे २ य तह अग्गभाष ३ कण्णल्ले ४ । तत्तो य जोकण्णे ५ धणंजए ६ चेव बोद्धबे ॥१॥ पुस्सायण ७ अस्सायण ८ भग्गवेसे ९ य अग्गिवेसे १०य । गोयम ११ भारदाए १२ लोहिचे १३ चेव वासिढे १४ ॥ २ ॥ उज्जायण १५ भंडषायणे १६ य पिंगायणे १७ य गोवल्ले १८ । कासव १९ कोसिय २० दब्भिय २१ भाग (चाम) रच्छा य २२ सुंगाए २३ ॥॥ गोलनायण २४ तिगिंछायणे य २५ कच्चायणे २६ हवइ मूले । तचोय चम्झि-17 यायण २७ वग्यायचे २८ य गुत्ताई ॥४॥" इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्राप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य पोडशं | पाभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥' . तदेवमुक्त दशमस्य प्राभूतस्य षोडशं प्राभृतमाभृतं, सम्पति सप्तदशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:-'भोजनानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते भोयणा आहिताति वदेज्जा १, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णं णक्खत्ताणं, कत्तियाहिं अनुक्रम [६९]] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १६ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १७ आरभ्यते ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१७], -------------------- मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: + प्रत (मल.) सूत्राक [५१] सू ५१ सूर्यप्रज्ञ- दधिणा भोया कजं साधिति, रोहिणीहिं चसम (मस) मंसं भोचा कर्ज साधेति, संठाणाहिं मिगमंसं १० प्राभृते भोचा कज्ज साधिति, अदाहिं णवणीतेण भोच्चा कजं साधेति, पुणवसुणाऽथ घतेण भोचा कर्ज साधेति, १७प्राभृत पुस्सेणं खीरेण भोचा कर्ज साधेति, अस्सेसाए दीवगमंसं भोचा कजं साधेति, महाहिं कसोतिं भोचा कज्जाभृते ॥१५॥ साधेति, पुवाहिं फग्गुणीहिं मेढकमंसं भोचा कजं साधेति, उत्तराहिं फग्गुणीहिं णक्खीमंसं भोचा कळनक्षत्र साति, हत्थेण वत्थाणीएण भोचा कजं साधेति, चित्ताहि मग्गसूवेणं भोचा कजं साधेति, सादिणा फलाई भोजनानि भोचा कजं साधेति, विसाहाहिं आसित्तियाओ भोचा कज्जं साधेति, अणुराहाहिं मिस्साकरं भोचा कळसा धेति, जेहाहिं लट्टिएणं भोचा कजं साधेति, पुवाहिं आसाढाहिं आमलगसरीरे भोचा कजं साधेति, उत्तराहिं। ट्राआसाढाहिं बलेहिं भोचा कर्ज साधेति, अभीयिणा पुप्फेहि भोचा कजं साधेति, सवणेणं खीरेणं भोबा कर्ज साधेति, सयभिसयाए तुवराउ भोचा कर्ज साधेति, पुवाहिं पुट्ठचयाहि कारिल्लएहि भुच्चा कजं साधेति, एस राहिं पुढवताहिं वराहमंस भोचा कर्ज साधेति, रवेतीहिं जलयरमसं भोचा कजं साधेति, अस्सिणीहिं तित्ति-18 परमंसं भोचा कर्ज साधेति वद्दकमंसं वा, भरणीहिं तलं तंदुलकं भोचा कर्ज साधेति (सूत्रं ५१) दसमस्स |पाहुडस्स सत्तरसमं पाहुडपाहुदं समत्तं ।।। 'ता कहं ते भोयणे त्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं ?-केन प्रकारेण नक्षत्रविषयाणि भोजनानि आख्यातानीति वदेत्, भगवानाह–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये कृत्तिकाभिः अनुक्रम [७०] 5+-455 454555 ॥१५॥ ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१७], -------------------- मूलं [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] [पुमान कार्य साधयति, दना सम्मिनमोदनं भुक्त्वा, किमुक्तं भवति -कृत्तिकासु प्रारब्धं कार्य दभि भुक्ते प्रायो निर्विघ्नं ४ सिद्धिमासादयतीति, एवं शेषेष्वपि सूत्रेषु भावना द्रष्टव्या ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य माभृतस्य सप्तदर्श प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ तदेवमुर्फ दशमस्य प्राभूतस्य सप्तदर्श प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रत्यष्टादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:-'चन्द्रादित्य चारा वक्तव्या' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते चारा आहिताति वदेजा, तत्थ खलु इमा दुविहा चारा पं०, तं-आदिच्चचारा य चन्द्रचारा य, ता कहं ते चंदचारा आहितेति वदेजा , ता पंचसंवच्छरिएणं जुगे, अभीइणक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, सवणे ण णक्खत्ते सत्तहि चारे चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, एवं जाव उत्तरासादाणक्खत्ते सत्तहिचारे चंदेणं सद्धिं जोयं जोएति । ता कहं ते आइचचारा आहितेति वदेजा,ता पंचसंवच्छ रिए णं जुगे, अभीयीणक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, एवं जाव उत्तरासादाणक्खते पंचचारे ट्रसरेण सद्धिं जोयं जोएति (सूत्रं ५२) दसमस्स पाहुस्स अट्ठारसमं पाहुडपाहुर समत्तं ॥ * 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण किंप्रमाणया साया इत्यर्थः, चारा आख्याता इति भवदेत् , भगवानाह-तत्थे'त्यादि, तत्र-चारविचारविषये खल्विमे वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा-द्विप्रकाराचाराः प्रज्ञप्ता, हाविध्यमेवाह-तद्यथा-आदित्यचाराश्चन्द्रचाराश्च, चशब्दौ परस्परसमुच्चये, तत्र प्रथमतश्चन्द्रचारपरिज्ञानार्थं तद्विषयं SEARCH अनुक्रम [७०] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १७ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १८ आरभ्यते ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१८], -------------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्तिवृत्तिः (मल०) प्रत सूत्रांक [१२] ॥१५॥ प्रश्नसूत्रमाह-'ता कहं ते इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , कथं ?-केन प्रकारेण, कया सङ्ख्यया इत्यर्थः, त्वया भगवन् ! १०प्राभृते चन्द्रचारा आख्याता इति वदेत् , भगवानाह-'तापंचे'त्यादि, ता इति पूर्ववत , पञ्चसांवत्सरिके-चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितचन्द्रा-121१८मामतभिवतिरूपपञ्चसंवत्सरप्रमाणे णमिति वाक्यालङ्कारे युगे अभिजिन्नक्षत्रं सप्तपष्टिं चारान यावत् चन्द्रेण सार्द्ध योग प्राभते युनक्ति-योगमुपपद्यते, किमुक्तं भवति ?-चन्द्रोऽभिजिन्नक्षत्रेण सह संयुक्तो युगमध्ये सप्तषष्टिसङ्ग्यान चारान् चरतीति, चारा सू५२ कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, इह योगमधिकृत्य सकलनक्षत्रमण्डलीपरिसमाप्तिरेकेन नक्षत्रमासेन भवति, नक्षत्रमासाश्च युगमध्ये सप्तपष्टिरेतच्चाने भावयिष्यते ततः प्रतिनक्षत्रपर्यायमेकैक चारमभिजिता नक्षत्रेण सह चन्द्रस्य योगसम्भवादुपपद्यते चन्द्रोऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तो युगमध्ये सप्तषष्टिसलमान चारान् चरतीति, एवं प्रतिनक्षत्रं भाव-13 नीयं । सम्प्रति आदित्यचारविषयं प्रश्नसूत्रमाह-ता कहं तेइत्यादि, ता इति प्राग्वत्, कर्थ-किंप्रमाणया सश्या है भगवन् ! त्वया आदित्यचारा आख्याता इति वदेत् , भगवानाह-'पंचसंवच्छरिए ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, पश्चसांवत्सरिके-चन्द्रादिपञ्चसंवत्सरप्रमाणे युगे-युगमध्येऽभिजिन्नक्षत्रं पञ्च चारान यावत् सूर्येण सह योग युनकि, अत्राप्ययं भावार्थ:-अभिजिता नक्षत्रेण संयुक्ता सूर्यो युगमध्ये पञ्चसायान् चारान् चरति, कथमेतदवगम्यते इति चेत्, उध्यते, इह योगमधिकृत्य सूर्यस्य सकलनक्षत्रमण्डलीपरिसमाप्तिरेकेन सूर्यसंवत्सरेण, सूर्यसंवत्सराश्च युगे भवन्ति पञ्च, ततः प्रतिनक्षत्रपर्यायमेकैकं वारमभिजिता नक्षत्रेण सह योगस्य सम्भवात् घटतेऽभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तः सूर्यो| अनुक्रम [७१] ॥१५२॥ 45 ~314~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१०], ...............----- प्राभूतप्राभत [१८], -------------------- मलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] युगे पश्चारान् परति, एवं शेषनक्षत्रेष्यपि भावना भावनीया ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रशप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य अष्टादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ ____तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्याष्टादशं प्राभृतप्राभृतं, साम्प्रतमेकोनविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकार:'मासप्ररूपणा करीब्येति, ततस्त द्विषयं प्रश्नसूत्रमाह| ता कहं ते मासा आहिताति वदेजा ?, ता एगमेगस्स णं संवच्छस्स बारस मासा पण्णता, तेसिं च दुबिहा नामघेजा पण्णत्ता, सं०-लोइया लोउत्तरिया य, तत्थ लोइया णामा सावणे भहवते आसोए जाव आसाढे, लोउत्तरियाणामा-अभिणंदे सुपइडे य, विजये पीतिवद्धणे। सेजसे य सिवे यावि, सिसिरेवि य हेमवं ॥१॥ नवमे वसंतमासे, दसमे कुसुमसंभवे । एकादसमे णिदाहो, वणविरोही य बारसे ॥२॥(सूत्रं ५३) दसमस्स पाइडस्स एगूणवीशतितम पाहुडपाहुई समतं ॥ 'ता कहं ते इत्यादि, पूर्ववत्, कथं ?-केन प्रकारेण कया नानां परिपाट्या इत्यर्थः भगवन् ! त्वया मासानां नामधेयानि आख्यातानीति वदेत् , भगवानाह-'एगमेगस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकैकस्य संवत्सरस्य द्वादश मासाः प्रज्ञष्ठाः, तेषां च द्वादशानामपि मासानां नामधेयानि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि-लौकिकानि लोकोत्तराणि च, तत्र लोके प्रसिद्धानि लौकिकानि, लोकादुत्तराणि यानि न लोके प्रसिद्धानि किन्तु प्रवचन एव तानि लोकोत्तराणि, तत्र बालौकिकलोकोत्तराणां मध्ये लौकिकानि नामान्यमूनि, तद्यथा-'श्रावणो भाद्रपद' इत्यादि, लोकोत्तराणि नामान्यमूनि, अनुक्रम [७१] SHRA अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १८ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १९ आरभ्यते ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [१९], -------------------- मूलं [१३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [५३] ||१-२|| सूर्यप्रश- तथा-प्रथमः श्रावणरूपो मासोऽभिनन्दः द्वितीयः सुप्रतिष्ठः तृतीयो विजयः चतुर्थः प्रीतिवर्द्धनः पश्चमः श्रेयान विवृत्तिःषष्ठः शिवः सप्तमः शिशिरः अष्टमो हैमवान् नवमो वसन्तमासः दशमः कुसुमसम्भवः एकादशो निदाघः द्वादशो वन-४११माभृत. (म.) द विरोधी ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूप्रिज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकोनविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं समाप्तम् ॥ प्राभूत माता तदेवमुक्त दशमस्य प्राभृतस्य एकोनविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं, सम्प्रति विंशतितममारभ्यते, तस्य चायमाधि-I सू ५३ PIकारा-'यथा पञ्च संवत्सराः प्रतिपाद्या' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह २.प्राभूते 1 सा कति णं भंते ! संबच्छरे आहिताति वदेजा', ता पंच संबच्छरा आहितेतिवदेजा, तं०-क्वत्तसं-४ प्राभृत विच्छरे जुगसंवकछरे पमाणसंवच्छरे लक्खणसंवच्छरे सणिच्छरसंवच्छरे (सूत्रं ५४)।ता णक्खत्तसंवच्छरे । |संवत्सरा नाणं दुवालसविहे पण्णत्ते, सावणे भवए जाव आसादे, जंवा वहस्सतीमहग्गहे दुवालसहि संवच्छरेहि सर्व। णक्खत्तमंडलं समाणेति (सूत्रं ५५)॥ नक्षत्रसंव० | 'ता कह णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति-किंसङ्ख्याः णमिति वाक्यालङ्कारे संवत्सरा आख्याता इति वदेत्। भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति प्राग्वत् , पश्च संवत्सरा आख्याता इति वदेत् , तद्यथा-नक्षत्रसंवत्सर इत्यादि, तत्र यावता कालेनाष्टाविंशत्यापि नक्षत्रैः सह क्रमेण योगपरिसमाप्तिस्तावान् कालविशेषो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः ॥१५॥ उर्फ च-"नक्खत्तचंदजोगो बारसगुणिओ य नक्खत्तो" अन पुनरेकोनितनक्षवपर्याययोग एको नक्षत्रमासः सप्तर्षि-12 शतिरहोरात्रा एकविंशतिश्च सप्तपष्टिभागा अहोरात्रस्य, एष राशिर्यदा द्वादशभिर्गुण्यते तदा त्रीण्यहोरात्रशतानि सप्त, | सू५४ दीप सू५५ अनुक्रम [७२-७४] अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- १९ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २० आरभ्यते ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], ------------- ------ मूलं [५४-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५४-५५] दीप अनुक्रम [७५-७६] विंशत्यधिकानि एकपञ्चाशच सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतावत्प्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। युगं पश्चवर्षात्मकं तत्पूरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः । युगस्य प्रमाणहेतुः संवत्सरः प्रमाणसंवत्सरः । लक्षणेन यथावस्थितेनोपेतः संवत्सरो लक्षणसंवत्सरः। शनैश्चर| निष्पादितः संवत्सरः शनैश्चरसंवत्सरः शनैश्चर सम्भवः । तदेवं पश्चापि शनैश्चर संवत्सरान् नामतः प्रतिपाद्य सम्प्रत्येतेपामेव संवत्सराणां यथाक्रर्म भेदानाह–ता नक्खत्ते स्यादि, ता इति प्राग्वत् नक्षत्रसंवत्सरो द्वादधाविधो-द्वादशपकारः, तब था-'श्रावणो भाद्रपद'इत्यादि, इह एकः समस्तनक्षत्रयोगपर्यायोद्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः, ततो ये नक्षत्रसंवत्सरस्य Mपूरका द्वादश समस्तनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रावणभाद्रपदादिनामानस्तेऽप्यवयवे समुदायोपचारात् नक्षत्रसंवत्सरः, ततः श्नाव णादिभेदात् द्वादशविधो नक्षत्रसंवत्सरः, 'जं वे'त्यादि, वाशब्दः पक्षान्तरसूचने, अथवा यत् सर्व-समस्त नक्षत्रमण्डलं बृहस्पतिर्महामहो योगमधिकृत्य द्वादशभिः संवत्सरैः समानयति-परिश्रमन् समापयति एष नक्षत्रसंवत्सरः, किमुक्तं भवति ?-थावता कालेन बृहस्पतिनामा महामहो योगमधिकृत्याभिजिदादीन्यष्टाविंशतिमपि नक्षत्राणि परिसमापयति ४ तावान् कालविदोपो द्वादशवर्षप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। | ता जुगसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णते, तं०-चंदे चंदे अभिवहिए चंदे अभिवहिए चेव, ता पढमस्स णं चंदस्स संबच्छरस्स चवीसं पचा पं०, दोचस्स णं चंदसंबच्छरस्स चवीसं पचा पं०, तच्चस्स णं अभिवहितदसंबकछरस्स छंचीसं पवा पं०, चउत्थरस णं चंदसंबच्छरस्स चवीसं पवा ५०, पंचमस्स णं अभिवहिषसंव-| 5-% RSS SARERatinintamatara For P OW ~317 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभत [१०], ----------------प्राभूतप्राभत २०], --.................- मलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१६]] टीप सूर्यप्रज मच्छरस्स छच्चीसं पहा पण्णत्ता, एवामेव सपुधावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउवीसे पवसते भवतीति ४१० प्राभृते तिवृत्तिःमक्खातं (सूत्रं ५६)॥' २०प्राभृत(मल.) 'ता जुगसंवच्छरे णमित्यादि, युगसंवत्सरो-युगपूरकः संवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-चान्द्रश्चान्द्रोऽभिवर्द्धि- प्राभृते. मातश्चान्द्रोऽभिवतिश्चैव, उक्त च-"चंदो चंदो अभिवडिओ यचंदोऽभियाहिओ चेष । पंचसहियं जुगमिणं दिह युगसंवत्सतेलोकदंसीहि ॥१॥ पढमविया उ चंदा तइयं अभिवडियं बियाणाहि । चंदं चेव चउरथं पंचममभिवहियं जाण| CI राः सू ५६ ॥२॥" तत्र द्वादशपूर्णमासीपरावर्ता यावता कालेन परिसमाप्तिमुपयान्ति तावान् कालविशेषश्चान्द्रः संवत्सरः, उक्त च–'पुष्णिमपरियट्टा पुण बारस संबच्छरो हवइ चंदो।' एकश्च पूर्णमासीपरावर्त एकश्चान्द्रमासः, तस्मिंश्च चान्द्रमासे रात्रिन्दिवपरिमाणचिम्तायामेकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य, एतत् द्वादशभिर्गुण्यते, जाता-13 नि त्रीणि शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादश च द्वापष्टिभागा रानिन्दिवस्य, एवं परिमाणश्चान्द्रः संच-12 त्सरः, तथा यस्मिन् संवत्सरेऽधिकमाससम्भवेन त्रयोदश चन्द्रमासा भवन्ति सोऽभिवतिसंवत्सर, उक्तं च-"तेरस या चंदमासा एसो अभिवहिमओ उ नाययो ।' एकस्मिंश्चन्द्रमासे अहोरात्रा एकोनत्रिंशद्भवति द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा अहो-II *रात्रस्य, एतच्चानन्तरमेवोतं, तत एष राशिखयोदशभिर्गुण्यते, जातानि त्रीण्यहोरात्रशतानि ज्यशीत्यधिकानि चतु-II P ॥१५४॥ श्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य, एतावदहोरात्रप्रमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सर उपजायते । कथमधिकमाससम्भवो सायनाभिवतिसंवत्सर उपजायते ।, कियता या कालेन सम्भवतीति ?, उच्यते, इह युगं चन्द्रचन्द्राभिषतिचन्द्राभि अनुक्रम [७७] ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक %4%+5% [१६]] टीप लवतिरूपपञ्चसंवत्सरं सूर्यसंवत्सरापेक्षया परिभाव्यमानमन्यूनातिरिक्तानि पञ्च वर्षाणि भवन्ति, सूर्यमासश्च सात्रिंश-* दहोरात्रप्रमाणश्चन्द्रमास एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा दिनस्य, ततो गणितसम्भावनया सूर्यसंवत्सरसत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चन्द्रमासोऽधिको लभ्यते, स च यथा लभ्यते तथा (ज्ञापनाय) पूर्वाचार्यप्रदर्शितेयं करणगाथा-14 'चंदस्स जो विसेसो आइयरस य हविज मासस्स । तीसइगुणिओ संतो हवइ हु अहिमासगो एको ॥१॥ अस्या* | अक्षरगमनिका-आदित्यसंवत्सरसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात चन्द्रस्य-चन्द्रमासस्य यो भवति विश्लेषः, इह विश्लेषे कृते | सति यदवशिष्यते तदप्युपचाराद्विश्लेषः, स त्रिंशता गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः, तत्र सूर्यमासपरिमाणात् साईत्रिंशदहोरात्ररूपाञ्चन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच्च द्वापष्टिभागा दिनस्येत्येवंरूपं शोध्यते, ततः स्थित हैं पश्चाहिनमेकमे केन द्वापष्टिभागेन न्यूनं, तच दिनं त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रिंशदिनानि, एकश्च द्वाषष्टिभागस्त्रिंशता गुणितो जातात्रिंशद् द्वापष्टिभागास्ते विंशदिनेभ्यः शोध्यन्ते, ततः स्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच४ हद्वाषष्टिभागा दिनस्य, एतावत्परिमाणश्चान्द्रो मास इति भवति सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिकमे एकोऽधिकमासो, युगे च सूर्यमासाः षष्टिस्ततो भूयोऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति, उक्तं च-"सट्टीए अइयाए हवइ हु अहिमासगो जुगळूमि । बावीसे पबसए हवाइ य बीओ जुगद्ध मि ॥१॥ अस्याप्यक्षरगमनिका|एकस्मिन् युगेऽनन्तरोदितस्वरूपे पर्वणां-पक्षाणां षष्टी अतीतायां, षष्टिसत्येषु पक्षेष्वतिक्रान्तेषु इत्यर्थः, एतस्मिन्नवसरे युगाढेषु-युगाप्रमाणे एकोऽधिकमासो भवति, द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वाविंशे-द्वाविंशत्यधिके पर्वशते-पक्षशतेऽति अनुक्रम 9454594 [७७]] ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत २०प्राभृत % सूर्यम- कान्ते युगस्यान्ते-युगस्य पर्यवसाने भवति, सेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेऽधिकमासः पश्चमे वेति द्वौ युगेऽभिवद्धिंतसंप्तिवृत्तिः वत्सरौ । सम्प्रति युगे सर्वसङ्ख्यया यान्ति पर्वाणि भवन्ति तावन्ति निदिदिक्षुः प्रतिवर्ष पर्वसङ्ख्यामाह-ता पढमस्स १. प्राभृवे ण'मित्यादि, 'ता' इति तत्र युगे प्रथमस्य णमिति वाक्याल ती चान्द्रय संघसरस्य चतुर्विंशतिः पाणि प्रज्ञप्तानि, प्राभृते द्वादशमासात्मको हि चान्द्रः संवत्सरः, एकैकस्मिंश्च मासे दे द्वे पर्वणी, ततः सर्वसञ्जयया चान्द्रे संवत्सरे चतुर्विंशतिः ॥१५५॥ युगसंवत्सपर्याणि भवन्ति, द्वितीयस्यापि 'चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति, अभिवतिसंवत्सरस्य षडविंशतिः पर्वाणि,रासू ५६ | तस्य त्रयोदशमासात्मकत्वात् , चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्याणि, पञ्चमस्य अभिवतिसंवत्सरस्य पहर्षि- पर्वकरणानि शतिः पर्वाणि, कारणमनन्तरमेवोतं, तत एवमेव-उक्तेनैव प्रकारेण 'सपुच्चावरेणं'ति पूर्वापरगणितमीलनेन पश्चसां-I वत्सरिके युगे चतुर्विशत्यधिक पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकृर्मिया च । इह कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले किं पर्ये समाप्तिमुपयातीति चिन्तायां पूर्वाचार्यैः पर्वकरणगाथा अभिहिताः, ततस्ता विनेयजमानुग्रहार्थमुपदिश्यन्ते"इच्छापहि गुणिजे अयणं रूवाहि तु कायर्व । सोझं च हवइ एत्तो अयणक्खेत्तं उडुवइस्स ॥ १ ॥ जइ अयणा सुझंती तइपवजुया उ रुवसंजुत्ता । तावइयं तं अयणं नस्थि निरंसंमि रूबजुयं ॥२॥ कसिणमि होइ रूवं पक्खेवो दोय होति भिन्नंमि । जावया सावइया एते ससिमंडला होति ॥३॥ ओयम्मि उ गुणकारे अम्भितरमंडले हवइ आई। जुग्गमि माय गुणकारे बाहिरगे मंडले आई ॥४॥" एषां क्रमेण व्याख्या-यस्मिन् पर्वणि अयनमण्डलादिविषया ज्ञातुमिच्छा तेन ॥१५५ ४ावराशिर्गुण्यते, अथ कोऽसी ध्रुवराशिः?, उच्यते, इह ध्रुवराशिप्रतिपादिकेयं पूर्वाचार्योपदर्शिता गाथा-“एगंच मंडला अनुक्रम [७७] %X4%+34560 ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] मंडलस्स सत्तहभाग चत्तारि । नव चेव चुणियाओ इगतीसकएण छेएण॥१॥ अस्या अक्षरयोजना-एक मण्डलमेकस्य च मण्डलस्य सप्तषष्टिभागाश्चत्वारः च नव चूर्णिकाभागा एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशत्कृतेन छेदेन ये चूर्णिका भागास्तेन च | एतावत्प्रमाणो ध्रुवराशिः, अयं च पर्वगतक्षेत्रादयनगतक्षेत्रापगमे शेषीभूतः, एतस्य चोत्पत्तिमात्र भावयिष्यामः, तत एवंभूतं ध्रुवराशिमीप्सितपर्वभिर्गुणयित्वा तदनन्तरमयनं रूपाधिकं कर्त्तव्यं, तथागुणितस्य मण्डलराशेः यदि चन्द्रमसोऽयनक्षेत्र परिपूर्णमधिक वा सम्भाव्यते तत एतस्मादीप्सितपर्षसयागुणितात् मण्डलराशरुडपते:-चन्द्रमसोऽयनक्षेत्रं भवति शोध्य, यति च-यावत्सल्यानि चायनानि शुद्ध्यन्ति ततिभिर्युक्तानि पर्वाणि अयनानि क्रियन्ते, कृत्वा च भूयो रूपसंयुक्तानि है। विधेयानि, यदि पुनः परिपूर्णानि मण्डलानि शुक्ष्यन्ति राशिश्च पश्चानिलेपो जायते तदा तदयनसङ्ख्यानै निरंशं सद्रूपयुक्तं नास्ति, न तत्रायनराशौ रूपं प्रक्षिप्यते इति भावः, तथा कृत्स्ने-परिपूर्णे राशी भवत्येकं रूपं मण्डलराशौ प्रक्षेपणीयं, भिन्ने-खण्डे अंशसहिते राशावित्यर्थः, द्विरूपे मण्डलराशौ प्रक्षेपणीये प्रक्षेपे च कृते सति यावान् मण्डलराशिर्भवति | तावन्ति मण्डलानि तावतिथे ईप्सिते पर्वणि भवन्ति । तथा यदि ईप्सितेन पर्वणा ओजोरूपेण-विषमलक्षणेन गुणकारों भवति तत आदिरभ्यन्तरे मण्डले द्रष्टव्या, युग्मे तु-समे तु गुणकारे आदिबर्बाह्ये मण्डलेऽवसेयः, एष करणगाधासमू| हाक्षरार्थः, भावना स्वियम्-कोऽपि पृच्छति-युगादौ प्रथम पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमुपयाति , तत्र | प्रथम पर्व पृष्टमिति घामपार्वे पर्वसूचक एककः स्थाप्यते, ततस्तस्यानुश्रेणि दक्षिणपार्षे एकमयनं, तस्य चानुश्रेणि एकं| मण्डलं, तस्य च महलस्याधस्ताचत्वारः सप्तपष्टिभागास्तेषामप्यधस्तानव एकत्रिंशदागाः, एष सर्वोऽपि राशि वराशिः, टीप 9845 अनुक्रम [७७] ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] टीप सूर्यप्रज्ञ- सच ईप्सितेन एकेन पर्वणा गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव राशिः, ततः-'अयनं रूपाधिकं च याभृते प्तिवृत्तिः कर्तव्य मिति वचनादेकं रूपमयने प्रक्षिप्यते, मघडलराशौ चायनं न शुद्ध्यति, ततो 'दो य होति भिन्नंमि' इति वचनातू प्राभूत(मल०) मण्डलराशौ द्वे रूपे प्रक्षिप्येते, तत आगतमिदं प्रथम पर्व द्वितीयेऽयने तृतीयस्य मण्डलस्य, ओयंमि य गुणकारे अन्भितर प्राभृते |मंडले हवाइ आई' इति वचनात् , अभ्यन्तरवर्तिनश्चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषुलायुगसव ॥१५६॥ * गतेषु समाप्तिमुपयातीति, अयन चेह चन्द्रायणमवसेयं, चन्द्रायणं च युगस्यादौ प्रथममुत्तरायणं द्वितीयं दक्षिणायन रासू ५६ पर्वकरणानि मिति द्वितीयेऽयनेऽभ्यन्तरवर्तिनस्तृतीयस्य मण्डलस्येत्युक्तं, तथा कोऽपि पृच्छति-द्वितीयं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमधिगच्छतीति, तत्र द्वितीय पर्व पृष्टमिति स एव प्रागुक्तो ध्रुवराशिः समस्तोऽपि द्वाभ्यां गुण्यते, ततो जाते द्वे अयने द्वे मण्डले अष्टौ सप्तपष्टिभागा अष्टादश एकत्रिंशद्भागास्ततः 'अयनं रूपाधिकं कर्तव्य'मिति वचनात् है अयने रूपं प्रक्षिप्यते, मण्डलराशौ चायनं न शुद्ध्यति, सतो 'दो य होंति भिन्नंमि' इति वचनान्मण्डलराशी हे प्रक्षि-15 प्येते, तत आगतं द्वितीयं पर्व तृतीयेऽयने चतुर्थस्य मण्डलस्य 'जुग्गमि व गुणकारे बाहिरगे मंडले हवाइ आई' इति ४ विचनात् बाह्यमण्डलादग्विचिनः अष्टसु सप्वषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्याटादशस्वेकत्रिंशद्भागेष्वतिक्रान्तेषु परिसमाप्तिमुपैति, तथा कोऽपि प्रश्नयति-चतुर्दशं पर्व कतिसक्वेष्वयनेषु मण्डलेषु वा समाप्तिं गच्छतीति, स एव प्रागुक्तो ॥१५६॥ धूिवराशिः समस्तोऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यते, जातानि अयनानि चतुर्दश मण्डलान्यपि चतुर्दश, चत्वारः सप्तपष्ठिभागाश्चतु| देशभिगुणिताः षट्पश्चाशत् ५६, नव एकत्रिंशद्भागाश्चतुर्दशभिर्गुणिता जातं पट्टविंशत्यधिकं शतं १२६, तत्र पड्रिंशत्य अनुक्रम + 9 [७] -१४ E ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] टीप ANSANE धिकस्य शतस्य एकत्रिंशता भागो हियते, लब्धाः चत्वारः सप्तपष्टिभागाः, द्वौ चूर्णिकाभागौ तिष्ठतः, चस्वारश्च सप्तषष्टिभागा उपरितने सप्तषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाताः षष्टिः सप्तपष्टिभागाचतुर्दशभ्यश्च मण्डलेभ्यस्त्रयोदशभिमण्डलैस्त्रयोदशभिश्च सप्तपष्टिभागैरयनं शुद्ध, तेन पूर्वाण्ययनानि चतुर्दशसवानि युतानि क्रियन्ते, ततः 'अयनं रूपाधिक कर्त्तव्य मिति वचनानूयोऽपि तत्रैक रूपं प्रक्षिप्यते, जातानि षोडश अयनानि, सप्तपष्टिभागाश्च चतुष्पश्चाशत्सङ्ख्या मण्डलराशाबुद्धरितास्तिष्ठन्ति, ते सप्तपष्टिभागराशी षष्टिरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जातं चतुर्दशोत्तरं शतं ११४, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धमेकं मण्डलं, पश्चादबतिष्ठन्ते सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः, ततो 'दो य होति भिन्नमि' इति वचनान्मण्डलराशौ द्वे रूपे प्रक्षिप्येते, जातानि त्रीणि मण्डलानि, चतुर्दशभिश्चात्र गुणितं कृतं, चतुर्दशराशिश्च यद्यपि युग्मरूपस्तथाऽप्यत्र मण्डलराशेरेकमयनमधिकं प्रविष्टमिति त्रीणि मण्डलान्यभ्यन्तरमण्डलादारभ्य द्रष्टव्यानि, तत आगतं चतुर्दशं पर्व पोडशेऽयनेऽभ्यन्तरमण्डलादारभ्य तृतीये मण्डले सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य द्वयोरेकत्रिंशदागयोर्गतयोः परिसमामोतीति । तथा द्वापष्टितमपर्वजिज्ञासायां स पूर्वोक्तो ध्रुवराशिषिष्ट्या गुण्यते, जातानि द्वापष्टिरयनानि द्वापष्टिमण्डलानि वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके सवषष्टिभागानो २४८ पश्च शतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि एकत्रिंशद्भागानां ५५८, तेषामेकत्रिंशता भागे हुते लब्धाः परिपूर्णाः अष्टादश सप्तषष्टिभागास्ते उपरितने सप्तपष्टिभागराशी प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते षट्पट्यधिके २६६, उपरि च द्वापष्टिमण्डलानि, तेभ्यो द्विपश्चाशता मण्डलैर्द्धिपश्चाशता च एकस्य मण्डलस्य सप्तपष्टिभागैश्चत्वारि अयनानि लब्धानि, तान्ययनराशी प्रक्षिष्यन्ते, जातानि अनुक्रम [७७] ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] सूर्यप्रज्ञ- शिवृत्तिः (मल) M ॥१५॥ टीप पट्पष्टिरयनानि ६६, पश्चादवतिष्ठन्ते नव मण्डलानि पञ्चदश च सप्तषष्टिभागा मण्डलस्य, तत्र पञ्चदश सप्तपष्टिभागाः१० प्राभूत सप्तषष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते एकाशीत्यधिके २८१, तयोः सप्तपष्टया भागे हते लब्धानि चत्वारि मण्ड- २० प्राभूत लानि, शेषा अवतिष्ठन्ते त्रयोदश सप्तपष्टिभागा मण्डलस्य, ते च मण्डलाराशौ प्रक्षिष्यन्ते, जातानि त्रयोदश मण्डलानि, MAD प्राभूत त्रयोदशभिर्मण्डलैत्रयोदशभिश्च सप्तषष्टिभागः परिपूर्णमेकमयनं लब्धमिति तदयनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि सप्तषष्टि-11 रयनानि, 'नस्थि निरंसंमि रूवजुय'मिति वचनादयनराशौ रूपं न प्रक्षिप्यते, केवलं 'कसिणंमि होइ रुवं पक्खयो' इति| करणात वचनान्मण्डल स्थाने एकं रूपं न्यस्यते, द्वाषष्ट्या पात्र गुणकारः कृतो द्वापष्टिरूपश्च राशियुग्मो यान्यपि च चत्वायेयनानि प्रविष्टानि तान्यपि युग्मरूपाणि रूपं चात्राधिकमेकं न प्रक्षिप्तमिति पञ्चममयनं तत्स्थाने द्रष्टव्यमिति बाह्यमण्डलमादिष्टव्यं, तत आगतं द्वापष्टितम पर्व सप्तषष्टावयनेषु परिपूर्णेषु जातेषु बाह्यमण्डले प्रथमरूपे परिसमाप्ते परिसमाप्तिं गतमिति, एवं सर्वाण्यपि पर्वाणि भावनीयानि, केवलं विनेयजनानुग्रहाय पर्वायनप्रस्तारो लेशतोऽक्षरताडित उपदर्यते, तत्र प्रथमं पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्यु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्तमिति ध्रुवराशिं कृत्वा पर्वायनमण्डलेषु प्रत्येकमेकैकं रूपं प्रक्षेप्तव्यं, भागे च तावत्सलयाका भागाः, मण्डले चायनक्षेत्रे परिपूर्णे त्रयोदश मण्डलानि एकस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा INT॥१५७॥ इत्येतावत्प्रमाणमयनक्षेत्रं शोधयित्वाऽयनमयनराशी' प्रक्षेप्तव्यं, अनेन क्रमेण वक्ष्यमाणः प्रस्तारः सम्यक् परिभावनीयः, स च प्रस्तारोऽयं-प्रथम पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्प सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभा-13 अनुक्रम [७७] 35 weredturary.com ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक EXCES [१६]] टीप गस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्त, द्वितीयं पर्व तृतीयेऽयने चतुर्थे मण्डले चतुर्थस्य मण्डलस्य अष्टसु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशद्भागेषु अष्टादशस, तृतीय पर्व चतुर्थेऽयने पश्चमे मण्डले पञ्चसस्य मण्डलस्य द्वादशसु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य सप्तविंशतौ एकत्रिंशद्भागेषु, चतुर्थं पर्व पञ्चमेऽयने षष्ठे मण्डले षष्ठस्य मण्डलस्य सप्तदशसु सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य पञ्चस्वेकत्रिंशदागेषु, पञ्चमं पर्व षष्ठेऽयने सप्तमे मण्डले सप्तमस्य मण्डलस्य एकविंशती सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य चतुर्दशस्वेकत्रिंशद्भागेषु,षष्ठं पर्व सप्तमेऽयनेऽष्टमे मण्डलेऽष्टमस्य मण्डलस्य पञ्चविंशती सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य त्रयोविंशतावेकत्रिंशदागेषु, सप्तमं पर्व अष्टमेऽयने नवमे मण्डले नवमस्य मण्डलस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकस्मिन्नेकत्रिंशद्भागे अष्टम पर्व नवमेऽयने दशमे मण्डले दशमस्य मण्डलस्य चतुखिंशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य दशस्वेकत्रिंशद्भागेषु, नवमं पर्व दशमेऽयने एकादशे मण्डले एकादशस्य मण्डलस्याष्टात्रिंशति सप्तपष्टिभागेब्वेकस्य च सतषष्टिभागस्य एकोनविंशतावेकत्रिंशभागेषु, दशमं पर्व एकादशेऽयने द्वादशे मण्डले द्वादशस्य च मण्डलस्य द्वाचत्वारिंशत्ति सप्तपष्टिभागेषु एकस्य च सप्त| षष्टिभागस्याष्टाविंशती एकत्रिंशद्भागेषु, एकादशं पर्व द्वादशेऽयने त्रयोदशे मण्डले प्रयोदशस्य मण्डलस्य सप्तचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य षट्सु एकत्रिंशदागेषु, द्वादशं पर्व चतुर्दशेऽयने प्रथमे मण्डले प्रथमस्य मण्डलस्याष्टात्रिंशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य पञ्चदशस्वेकत्रिंशद्भागेषु, त्रयोदर्श पर्व पञ्चदशेऽयने द्वितीये मण्डले द्वितीयस्य मण्डलस्य द्वाचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य चतुर्षिशती एकत्रिंशद्भागेषु, चतु-ट्र RG अनुक्रम [७७]] ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] टीप सूर्यप्रज्ञ- दशं पर्व षोडशेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य द्वयोप्तिवृत्तिः रेकत्रिंशद्भागयोः, पञ्चदशं पर्व सप्तदशेऽयने चतुर्थे मण्डले चतुर्थस्य मण्डलस्य एकपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेष्वेकस्य च ४० प्रामृत सप्तपष्टिभागस्य एकादशस्वेकत्रिंशद्भागेषु, एवं शेषेष्वपि पर्वस्वयनमण्डलप्रस्तारोभावनीयो, ग्रन्थगौरवभयात्तु न लिख्यते। प्राभृते अथ किं पर्व कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे परिसमाप्तिमुपयातीति चिन्तायां पूर्वाचायः करणमुपदर्शितं, सम्प्रति तदप्युपद- युगसंवत्स॥१५८॥ येते-चउवीससयं काऊण पमाणं सत्तसहिमेव फलं । इच्छापधेहिं गुणं काऊणं पजया लद्धा ॥१॥ अहारसहिदासः सू ५६ |सएहिं तीसेहिं सेसगम्मि गुणियम्मि । तेरस चिउत्तरेहिं सएहिं अभिइम्मि सुद्धम्मि ॥२॥ सत्तहिबिसठ्ठीणं सबग्गेणं पकरणानि तओ उजं सेसं । तं रिक्खं नायव जत्थ सम हवइ पर्व ॥३॥' त्रैराशिकविधौ चतुर्विशत्यधिक शतं प्रमाण-प्रमाण राशिं कृत्वा सप्तषष्टिरूपं फलं-फलराशिं कुर्यात् , कृत्वा च ईप्सितैः पर्षभिर्गुणं-गुणकारं विदध्यात्, विधाय चान दाराशिना चतुर्विंशत्यधिकशतेन भागे हृते यल्लन्धं ते पर्याया ज्ञातव्याः, यत्पुनः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सङ्गुण्यते, सङ्गुणिते च तस्मिन् ततस्त्रयोदशभिः शतैर्युत्तरैरभिजित् शोधनीयः, अभिजितो भोग्यानामेकविंशतेः सप्तपष्टिभागानां द्वाषष्ट्या गुणने एतावतः शोधनकस्य लभ्यमानत्वात् , ततस्तस्मिन् शोधने सप्तषष्टिसक्या या द्वाषष्टय-18 तासां सर्वाग्रेण यद्भवति, किमुक्तं भवति, -सप्तपट्या द्वाषष्टौ गुणितायां यद भवति तेन भागे हृते यल्लब्ध तावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि, यत्पुनस्ततोऽपि भागहरणादपि-शेपमवतिष्ठते तादृशं नक्षत्र ज्ञातव्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति, एष करणगाथाक्षरार्थः, भावना त्वियम्-यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तषष्टिः पर्याया लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा कि SSC अनुक्रम [७७]] For P OW ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] टीप लभामहे १, राशित्रयस्थापना--१२४ । ६७।१। अत्र चतुर्विशत्यधिकशतरूपो राशिः प्रमाणभूतः, सप्तपष्टिरूपा फर्स, तत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातस्तापानेव, तस्यायेन राशिना चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, स च स्तोकत्वाद् भागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुणयिष्याम इति गुणकार छेदराश्योर.नापवर्तना, जातो गुणकारराशिव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिषिष्टिः १२, तत्र सप्तपष्टिर्न-1x वशतैः पञ्चदशोत्तरैगुण्यते, जातान्येकषष्टिः सहस्राणि त्रीणि शातानि पञ्चोत्तराणि ६१३०५, एतस्मादभिजितखयोदश शतानि * वृत्तराणि शुद्धानि, स्थितानि शेषाणि षष्टिसहस्राणि व्युत्तराणि ६०००३, तत्र छेदराशिषिष्टिरूपः सप्तपध्या गुण्यते.12 जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते, लब्धाश्चतुर्दश १४, तेन श्रवणादीनि पुष्य-18 पर्यन्तानि चतुर्दश नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि १८४७, एतानि मुहनियनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्चपश्चाशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि पशोत्तराणि ५५४१०, तेषां भागे हृते लन्धास्त्रयोदश मुहूर्ताः, शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दश शतानि अष्टोत्तराणि १४०८, एतानि द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वाषट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योपियाऽपवर्त्तना क्रियते, तत्र गुणकारराशिर्जात एककश्छेदराशिः सप्तषष्टिः, एकेन च गुणित उपरितनो राशिर्जातस्तावानेव, तस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा एकविंशतिः २१, पश्चादवतिष्ठते एकः सप्तषष्टिभागः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य, आगतं प्रथमपर्व अश्लेषायाखयोदश मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिषिष्टिभागान् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकं सप्तपष्टिभागं भुक्त्वा समाप्तमिति, तथा यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तषष्टिः अनुक्रम [७७] ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) १०माभृते २०प्राभूत प्राभृते युगसंवत्सराः सू५६ पर्वकरणानि सुत्राक ॥१५९|| [१६]] दीप पर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४ । ६७ । २। अत्रान्त्येन राशिना मध्य-| राशिगुण्यते, जातं चतुर्विंशदधिकं शतं १३४, तस्यायेन राशिना चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागो हियते, लब्ध एको नक्षत्रपर्यायः, स्थिताः शेषा दश, तत एतान् नक्षत्रानयनायाष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकः सप्तपष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरनापवर्त्तना, जातो गुणकारराशिव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिद्वषष्टिः ६२, तत्र दश नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते, जातान्ये कैनवतिः शतानि पञ्चाशदधिकानि ९१५०, तेभ्यस्त्रयोदश शतानि द्रवत्तराव्यभिजितः शुद्धानि, स्थितानि पश्चादष्टसप्ततिः शतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि ७८७८, तत्र द्वापष्टिरूप-छ-1 दराशिः सप्तपट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते, लब्धमेकं श्रवणरूपं नक्षत्र, शेषाणि तिष्ठन्ति षट्त्रिंशच्छतानि चतुर्नवत्यधिकानि ३६९४, एतानि मुहानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्ष दश सहस्राणि अष्टौ शतानि विंशत्युत्तराणि ११०८२०, तेषां छेदराशिना भागे हते लब्धाः षड्विंशतिर्मुहत्तो। २६, शेषाणि तिष्ठन्ति पोडशोत्तराणि अष्टाविंशतिः शतानि २८१६, एतानि द्वापष्टिभागानयनाथ द्वापध्या गुणयितव्यानि, तत्र गुणकारच्छेद्यराश्योषष्ट्याऽपवर्तना, तत्र गुणकारराशिरेककरूपो जात छेदराशिः सप्तषष्टिः, तत्रैकेन उपरितनो राशिगुणितो जातस्तावानेव तस्य सप्तषध्या भागे हृते लब्धा द्वाचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा। एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागी, आगतं द्वितीयं पर्व धनिष्ठानक्षत्रस्य पडूविंशतिं मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाचत्वारिंशतं द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ भुक्त्वा समाप्तिमुपगच्छति, एवं शेषेष्वपि पर्वसु सर्वाणि नक्ष अनुक्रम [७७]] 4 ॥१५९॥ ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] टीप त्राणि भावनीयानि, तत्सङ्घाहिकाश्चमाः पूर्वाचार्यप्रदर्शिताः पञ्च गाथा:-"सप्प धाणहा अजम अभिवुही चित्त आस | लाइंदरिंग । रोहिणि जिट्ठा मिगसिर विस्साऽदिति सवण पिउदेवा ॥१॥ अज अज्जम अभिवुही चित्ता आसो तहा विसाहाओ।। रोहिणि मूलो अदा वीस पुस्सो धणिहा य ॥२॥ भग अज अजम पूसो साई अग्गी य मित्तदेवा य । रोहिणि पुषासाहा पुणवसू वीसदेवा य ॥३॥ अहिवसु भगाभिवृड्डी हत्थस्स विसाह कत्तिया जेठा । सोमाउ रवी सवणो पिउ वरुण भगाभिवुड्डी य ॥४॥ चित्तास विसाहग्गी मूलो अद्दा य विस्स पुस्सो अ । एए जुगपुबद्धे बिसहिपबेसु नक्खत्ता ॥ ५॥" एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सर्पः-सप्पदेवतोपलक्षितं नक्षत्रं (अश्लेषा) १ द्वितीयस्य धनिष्ठा २ तृती-1 यस्यार्यमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः २ चतुर्थस्याभिवृद्धिः--अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा ४ पञ्चः मस्य चित्रा ५ षष्ठस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी ६ सप्तमस्य इंद्राग्निः-इन्द्राग्निदेवतोपलक्षिता विशाखा ७ अष्टमस्य रोहिणी ८ नवमस्य ज्येष्ठा ९ दशमस्य मृगशिरः १० एकादशस्य विश्वदेवतोपलक्षिता उत्तराषाढा ११ द्वादशस्यादितिःअदितिदेवतोपलक्षितः पुनर्वसुः १२ प्रयोदशस्य श्रवणः १३ चतुर्दशस्य पितृदेवा-मघाः १४ पञ्चदशस्याजा-अजदेवतो. पलक्षिताः पूर्वभद्रपदाः १५ पोडशस्यार्यमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः १६ सप्तदशस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा १७ अष्टादशस्य चित्रा १८ एकोनविंशतितमस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी १९ विंशतितमस्य विशाखा २० एकविंशतितमस्य रोहिणी २१ द्वाविंशतितमस्य मूलः २२ त्रयोविंशतितमस्य आद्रो २३ चतुर्विंशतितमस्य विष्वक्-विष्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा २४ पञ्चविंशतितमस्य पुष्पः २५ पडूविंशतितमम्य धनिष्ठा अनुक्रम [७७] For P OW ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक [१६] ॥१६० टीप २६ सप्तविंशतितमस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २७ अष्टाविंशतितमस्याजः-अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभ-11१. प्राभृते द्रपदाः २८ एकोनत्रिंशत्तमस्यार्यमा-अर्यमदेवता उत्तरफाल्गुन्यः २९ त्रिंशत्तमस्य पुष्या-पुष्यदेवताका रेवती ३० एकत्रि- २०प्राभृतशत्तमस्य स्वातिः ३१ द्वात्रिंशत्तमस्याग्नि:-अग्निदेवतोपलक्षिताः कृत्तिकाः ३२ त्रयस्त्रिंशत्तमस्य मित्रदेवा-मित्रनामा देवो प्राभूते यस्याः सा तथा अनुराधा इत्यर्थः ३३ चतुर्विंशत्तमस्य रोहिणी ३४ पश्चत्रिंशत्तमस्य पूर्वाषाढा ३५ षट्त्रिंशत्तमस्य युगसंवत्सपुनर्वसुः ३६ सप्तत्रिंशत्तमस्य विष्वग्देवाः उत्तराषाढा इत्यर्थः ३७, अष्टात्रिंशत्तमस्थाहि:-अहिदेवतोपलक्षिता अश्लेषा ठार राः सू५६ पर्षकरणानि ३८ एकोनचत्वारिंशत्तमस्य वसुः वसुदेवोपलक्षिताः धनिष्ठा ३९ चत्वारिंशत्तमस्य भगो-भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः ४० एकचत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा ४१ द्वाचत्वारिंशत्तमस्य हस्तः ४२, त्रिचत्वारिंशत्त-| मस्याश्वः-अश्वदेवा अश्विनी ४३ चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य विशाखा ४४ पश्चचत्वारिंशत्तमस्य कृत्तिका ४५ षट्चत्वारिंशत्तमस्य ४ ज्येष्ठा ४६ सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः-सोमदेवोपलक्षितं मृगशिरोनक्षत्रं ४७ अष्टाचत्वारिंशत्तमस्यायु:-आयुर्देवाः पूर्वा-It पाहाः ४८ एकोनपश्चाशत्तमस्य रविः-रविनामकदेवोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रं ४९ पञ्चाशत्तमस्य श्रवणः ५० एकपञ्चाश| तमस्य पिता-पितृदेवा मघाः ५१ द्विपञ्चाशत्तमस्य वरुणो-वरुणदेवोपलक्षितं शतभिषा नक्षत्रं ५२ त्रिपशाशत्तमस्य भगो-15 भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः ५३ चतुःपञ्चाशत्तमस्याभिवृद्धि:-अभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदा ५४ पञ्चपञ्चाशत्तमस्य चित्रा ५५ पट् ॥१६॥ पञ्चाशत्तमस्याश्वः-अश्वदेवा अश्विनी ५६ सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा ५७ अष्टपञ्चाशत्तमस्थानि:-अग्निदेवोपलक्षिताः कृ- त्तिका-५८ एकोनषष्टितमस्य मूलः ५९ षष्टितमस्य आ६० एकषष्टितमस्य विष्वक्-विष्वग्देवा उत्तरापाढा वापष्टितमस्य अनुक्रम [७७]] CER weredturary.com ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] टीप पुष्यः ६२, एतदुपसंहारमाह-एतानि नक्षत्राणि युगस्य पूर्वाद्धे यानि द्वाषष्टिसङ्ग्यानि पर्वाणि तेषु क्रमेण वेदितव्यानि एवं प्रागुक्तकरणवशादुत्तराद्देऽपि द्वाषष्टिसमवेषु पर्वस्ववगन्तव्यानि । सम्पति कस्मिन् सूर्यमण्डले कि पर्व समाप्ति यातीति चिन्तायां यत्पूर्वाचार्यैरुपदर्शितं करणं तदभिधीयते-"सूरस्सवि नायवो सगेण अयण मंडलविभागो। अयणमि जे दिवसा स्वहिए मंडळे हवइ ॥१॥" अस्या व्याख्या-सूर्यस्यापि पर्व विषयो मण्डलविभागो ज्ञातव्यः स्वकीयेनायनेन, किमुक्तं भवति ।-सूर्यस्य स्वकीयमयनमपेक्ष्य तस्मिन् तस्मिन् मण्डले तस्य तस्य पर्वणः परिसमाप्तिरवधारणीयेति, तत्र अयने शोधिते सति ये दिवसा उद्धरिता वर्तन्ते तत्सये रूपाधिके मण्डले तदीप्सितं पर्व परिसमा भवतीति वेदितव्यं, एषा करणगाथाऽक्षरघटना, भावार्थस्त्वयम्-इह यत्पर्व कस्मिन् मण्डले समाप्तमिति ज्ञातुमिष्यते तत्समया ध्रियते. धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते, गुणयित्वा च रूपाधिका क्रियते, ततः सम्भवन्तोऽवमरात्राः पात्यन्ते, ततो यदि व्यशीत्यधिकेन शतेन भागः पतति तर्हि भागे हुते यलब्धं तान्ययनानि ज्ञातव्यानि, केवलं या पश्चादिवससमयाऽवतिष्ठते तदन्तिमे मण्डले विवक्षितं पर्व समाप्तमित्यवसेयं, उत्तरायणे वर्तमाने बाह्य मण्डलमादिः कर्त्तव्य दक्षिणायने च सों- भ्यन्तरमिति । सम्प्रति भावना क्रियते-ततः कोऽपि पृच्छति-कस्मिन् मण्डले स्थितः सूर्यो युगे प्रथम पर्व समापयतीति, इह प्रथमं पर्व पृष्टमित्येकको ध्रियते, स पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाताः पञ्चदश, अत्रैकोऽप्यवमरात्री न सम्भवतीति न किमपि पात्यते, ते च पश्चदश रूपाधिकाः क्रियन्ते, जाता षोडश, युगादौ च प्रथम पर्व दक्षिणायने, तत आगतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा पोडो मण्डले प्रधर्म पर्व परिसमाप्तमिति । तथाऽपरः पृच्छति-चतुर्थ पर्व कस्मिन् मण्डले परिसमामो अनुक्रम [७७] ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [७७] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५६ ] प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [२०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥१६१॥ सूर्यप्रज्ञ- तीति ?, तत्र चतुष्को धियते, धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाता षष्टिः, अत्रैकोऽत्रमरात्रः सम्भवतीत्येकः पात्यते, जाता तिवृत्तिः ४ एकोनषष्टिः ५९, सा भूयोऽप्येकरूपयुता क्रियते, जाता षष्टिः, आगतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा षष्टितमे मण्डले चतुर्थी ( मल०) पर्व समाप्तमिति । तथा पञ्चविंशतितमपर्वजिज्ञासायां पञ्चविंशतिः स्थाप्यते, सा पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि पश्चस सत्यधिकानि ३७५, अत्र पडवमरात्रा जाता इति पटू शोध्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि एकोनसप्तत्यधिकानि ३६९, तेषां त्र्यशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धौ द्वौ पश्चात्तिष्ठन्ति त्रीणि, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातानि चत्वारि, यौ च द्वौ लब्धौ ताभ्यां द्वे अयने दक्षिणायनोत्तरायणरूपे शुद्धे, तत आगतं तृतीये दक्षिणायनरूपे सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा चतुर्थे मण्डले पञ्चविंशतितमं पर्व परिसमाप्तमिति । चतुर्विंशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञासायां चतुर्विंशत्यधिकं शतं स्थाप्यते, तत्पश्चदशभिर्गुण्यते, जातान्यष्टादश शतानि षष्ट्यधिकानि १८६०, चतुर्विंशत्यधिकपर्वशते च त्रिंशदमवरात्रा भूता इति त्रिंशत्पात्यते, जातानि पश्चादष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातानि अष्टादश शतान्येक त्रिंशदधिकानि १८३१, तेषां त्र्यशीत्यधिकेन शतेन भागे हुते लब्धानि दशायनानि पश्चादवतिष्ठते एकः, दशमं च अयनं युगपर्यन्ते उत्तरायणं, तत आगतमुत्तरायणपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चतुर्विंशत्यधिकं शततमं पर्व समाप्तमिति । सम्प्रति किं पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे समाप्तिमधिगच्छति एतन्निरूपणार्थं यत्पूर्वाचार्यैः करणमुक्तं तदुपदश्यते - 'चवीससयं काऊण पमाणं पजए य पंच फलं । इच्छापत्रेहिं गुणं काऊणं पजया रुद्धा ॥ १ ॥ अट्ठारस य सएहिं ती सहिं से सगंमि गुणियम्मि । सत्तावीससएसुं अट्ठावीसेसु पूसंमि || २ || सत्तइविसहीणं सवग्गेणं तओ उ Internationa For Paren ~332~ १० प्राभृते २२० प्राभूतप्राभृते युगसंवत्स ४ : सू ५६ * पर्वकरणानि ॥ १३१ ॥ wor Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5 प्रत सूत्रांक - [१६]] - जं सेसं । तं रिक्खं सूरस्स उ जत्थ समत्तं हवा पर्व ॥ ३॥ एतासां तिहणां गाथानां क्रमेण व्याख्या-त्रैराशिकविधी चतुर्विशत्यधिकशतप्रमाणे प्रमाणराशिं कृत्वा पञ्च पर्यायान फलं कुर्यात् , कृत्वा च ईप्सितैः पर्वभिर्गुण-गुणकारं विदध्यात्, विधाय चायेन राशिना-चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागो हर्तव्यो, भागे हुते यलब्ध ते पर्यायाः शुद्धा ज्ञातव्याः, यत्पुनः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैगुण्यते, गुणिते च तस्मिन् सप्तविंशतिशतेषु अष्टाविंशत्यधिकेषु शुद्धेषु पुष्यः शुक्यति, तस्मिन् शुद्धे सप्तषष्टिसङ्ख्या या द्वाषष्टयस्तासां सर्वाग्रेण यनवति, किमुक्तं भवति ?-सप्तपथा द्वाषष्टौ गुणितायां यद् भवति तेन भागे हते थलब्धं तावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि द्रष्टव्यानि, यत्पुनस्ततोऽपि-भागहरगादपि शेषमवतिष्ठते तदक्षं सूर्यस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति, एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः । भावना स्वियम्-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना-१२४ । ५।१। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातस्तावानेव पञ्चकरूपः, तस्यायेन राशिना चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, स च स्तोकत्वाद्भागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनार्थ अष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागगुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरनापवर्तना, जातो गुणकारराशिव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ छेदराशिषिष्टिः ६२, तत्र पश्च नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि |४५७५, पुष्यस्य चतुश्चत्वारिंशद् भागा वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि सप्तविंशतिः शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि | २७२८, एतानि पूर्वराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चादष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि १८४७, तत्र छेदरा टीप अनुक्रम 6545%A5% [७७]] 多头众多交次 ~333~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [१६]] टीप सूर्यप्रज्ञ- शिषिष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातानि एकचत्वारिंशत् शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते,१०याभृते प्तिवृत्तिः तत्र राशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते, ततो दिवसा आनेतव्याः, तत्र च छेदराशिषिष्टिरूपः, परिपूर्णनक्षत्रानयनाथै २०याभूत(मल) हि द्वापष्टिः सप्तपध्या गुणिताः, परिपूर्ण च नक्षत्रमिदानी नायाति, ततो मूल एव द्वापष्टिरूपश्छेदराशिः, केवलं पञ्चभिः प्राभृते सप्तषष्टिभागैरहोरात्रो भवति, ततो दिवसानयनाय द्वाषष्टिः पञ्चभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि दशोत्तराणि ३१०, युगसंवत्स॥१६॥ तैर्भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्च दिवसाः, शेष तिष्ठति द्वे शते सप्तनवत्यधिके २९७, ते मुहुर्तानयनाथै त्रिंशता गुण्यन्ते, तत्र |राः सू५६ पकरणानि गुणकारच्छेदराश्योः शून्येनावपर्तना जातो गुणकारराशिस्त्रिकरूपश्छेदराशिरेकत्रिंशत् , तत्र त्रिकेनोपरितनो राशिर्गुण्यते जातान्यष्टौ शतान्येकनवत्यधिकानि ८९१, तेषामेकत्रिंशता भागो हियते, लब्धा अष्टाविंशतिर्मुहूर्ताः २८ एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः आगतं प्रथमं पर्व अश्लेषानक्षत्रस्य पश्च दिवसानेकस्य च दिवसस्याष्टाविंशति मुहूर्तानेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागान् भुक्त्वा समाप्तं, अथवा पुष्ये शुद्धे यानि स्थितानि पश्चादष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि १८४७, तानि सूर्यमुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि चत्वारि श&ातानि दशोत्तराणि ५५४१०, तेषां प्रागुतन छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धास्त्रयोदश मुहूताः १३, शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दश शतान्यष्टोत्तराणि १४०८, ततोऽमूनि द्वापष्टिभागानयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्यो १६२॥ दोषध्याऽपवत्तेना, तत्र गुणकारराशिरेककरूपश्छेदराशिः सप्तषष्टिरूपस्तत्र एकेन गुणितो राशिस्तावानेव जातः १४०८, तस्य सप्तषया भागो हियते, लब्धा एकविंशतिः २१ द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टि अनुक्रम [७७] AXEE* ~334~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 45%E5% [१६]] भागः, तत आगतं युगस्यादी प्रथम पर्व अमावास्यालक्षणमश्लेषानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहूर्त्तानेकस्य च मुहर्तस्य एकविंशति। द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एक सप्तपष्टिभागं भुक्त्वा सूर्यः समापयति, तथा च वक्ष्यति-ता एएसिणं पंचहं संबच्छराणं पढम अमावासं चंदे केण नक्खत्तेणं जोएड, ता असिलेसाहि, असिलेसाणं एकमुहुत्ते चत्तालीसे बावहिभागा मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तहिहा छित्ता छावहि चुण्णिआ सेसा । तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएइ, ता असिलेसाहिं चेष, असिलेसाणं एको मुहत्तो चत्तालीसं बावडिभागा मुहुत्तस्स पावहिभागं च सत्तहिहा छेत्ता छावही चुणिया सेसा' इति, तथा यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्षशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना-१२४।५।२। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाता दश १०, तेषामायेन राशिना भागहरणं, ते च स्तोकवाद् भागं न प्रयच्छन्ति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैर्गुणयितच्या इति, गुणकारकछेदराश्योरट्टेनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि १९१५ छेदराशिषिष्टिः ६२, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः दश गुण्यन्ते, जातानि एकनवतिः शतानि पञ्चाशदुत्तराणि ९१५०, तेभ्यः सप्तविंशतिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चाचतुःषष्टिः शतानि द्वाविंशत्यधिकानि ६४२२, छेदराशिौषष्टिरूपः सप्तपट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि । |४१५४, तैर्भागो हियते, लग्धमेकं नक्षत्र, तथाश्लेषारूपमश्लेषानक्षत्रं चाद्धक्षेत्रं अत एतर्गताः पञ्चदश सूर्यमुहत्तो अधिका| वेदितव्याः, शेषाणि तिष्ठन्ति द्वाविंशतिः शतान्यष्टषश्यधिकानि २२६८, ततो मुहू नयनार्थमेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जाता टीप अनुक्रम [७७] ASA5655 ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] सूर्यप्रज्ञ-18 म्यष्टषष्टिः सहस्राणि चत्वारिंशदधिकानि ६८०४०, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लग्धाः पोडश मार्ताः १६. १० प्राभृते विवृत्तिलाशेषाण्यवतिष्ठन्ते पञ्चदश शतानि षट्सप्तत्यधिकानि १५७६, तानि द्वापष्टिभागानयनाई द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुण-४२० प्राभृत. (मल.) कारच्छेदराश्योपट्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तषष्टिः ६७, तत्रोपरितनो राशिरेकेन गुणितस्ता- प्राभृते ॥१६३॥ वानेव जातः, तस्य सप्तषष्ट्या भागे हुते लब्धास्त्रयोविंशतिषष्टिभागाः २३ एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तपष्टि- युगसंवत्स भागाः ३५, तत्र ये लब्धाः षोडश मुहूर्त्ता ये चोद्धरिताः पाश्चात्याः पञ्चदश मुहूर्तास्ते एकत्र मील्यन्ते, जाताएकत्रिंशत् ३१, " पर्वकरणानि तत्र त्रिंशता मघा शुद्धा, पश्चादुद्धरत्येकः सूर्यमुहूर्तः, तत आगतं द्वितीय पर्व श्रावणमासभावि पौर्णमासीरूपं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्यैकं मुहूर्तमेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशति द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टिभागान भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयतीति, तथा च वक्ष्यति-"ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम पुण्णमासिं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ, तापणिहादि, धणिकाणं तिमि मुहुत्ता एगूणवीसं च बावहिभागा मुहुत्तस्स वावडिभागं च सत्तविहा छेत्ता पण्णट्टी चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केण नक्खत्तेणं जोएइ, ता पुषाहिं फगुणीहिं पुषाणं फग्गुणीणं अट्ठावीस व मुहुत्ता अठ्ठावी(ती)संच बावद्विभागा मुहुत्तस्स बावडिभागं च सत्तहिहा छेत्ता बत्तीस चुणिया भागा सेसा" इति, तथा यदि चतु-18 |विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततनिभिः किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-१२४ । ५।३॥ १६३॥ अत्रान्त्येन राशिना त्रिकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाताः पञ्चदश १५, तेषामायेन राशिना भागहरणं, तत्र राशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सतषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति अनुक्रम [७७]] 04-9-% 85 ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [१६]] टीप गुणकारच्छेदराश्योरःनापवर्तना, जातो गुणकारराशिव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिपष्टिः ६२, तत्र नवभिः शतैः पश्चदशोत्तरैः पञ्चदश गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १३७२५, तेभ्यः सप्तविंशतिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चाद्दश सहस्राणि नव शतानि सप्तनवत्यधिकानि १०९९७, छेदराशि षष्टिरूपः सप्तपट्या गुणितो जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि ४१५४, तैर्भागो हियते, लब्धे दे नक्षत्रे २, ते चाश्लेषामधारूपे, अश्लेषानक्षत्रं चार्द्धक्षेत्रमित्येतद्गताः पञ्चदश सूर्यमुहूत्तो उद्धरिता वेदितव्याः, शेषाणि तिष्ठन्ति पडूविंशतिः शतानि नवाशीत्यधिकानि २६८९, पतानि मुहानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यशीतिः सहस्राणि पटू शतानि सप्तत्यधिकानि ८०६७०, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहर्ताः १९, शेषाण्यवतिष्ठन्ते सप्तदश शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि १७४४, एतानि द्वापष्टिभागानय नार्थं द्वाषष्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्यो षष्ट्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तषष्टिः १६७, तत्रोपरितनो राशिरेकेन गुणितस्तावानेव जातः १४४४, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः षड्विंशतिषष्टि* भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ । २६ , तत्र ये लब्धा एकोनविंशतिर्मुहर्ताः ये चोद्धरिताः पाभश्चात्याः पञ्चदश मुहूर्तास्ते एकत्र मील्यन्ते, जाताश्चतुर्विंशन्मुहूताः, तत्र त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, शेषास्तिष्ठन्ति प्रचत्वारो मुहूर्ताः, तत आगतं तृतीयं पर्व भाद्रपदगतामावास्यारूपं उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुरो मुहानेकस्य च मुहूहास्य पडूविंशतिं द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयति, तथा च वक्ष्यति अनुक्रम [७७]] SARERatinintennatural Auditurary.com ~337~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [७७] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५६ ] प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [२०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ तिवृत्तिः ( मल० ॥१६४॥ २० प्राभृत 'ता एएसि णं पंचहं संवच्छरणं दोघं अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जीएइ ?, ता उत्तराहिं फग्गुणीहिं, उत्तरफग्गु- २१० प्राभृते णीणं चत्तालीस मुहुत्ता पण्णत्तीसं बावट्टिभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विहा छेत्ता पण्णही चुष्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएइ १, ता उत्तराहिं चैव फग्गुणीहिं, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावडिभागा मुहुत्तरस वावट्टिभागं च सत्तडिहा छेत्ता पण्णडी चुष्णिया भागा सेसा" इति, एवं शेषपर्व समापकान्यपि सूर्य नक्षत्राण्यानेतव्यानि । अथवेदं पर्वसु सूर्यनक्षत्रपरिज्ञानार्थे पूर्वाचार्योपदर्शितं करणं- 'तित्तीसंच मुहुत्ता विसट्टि भागो य दो मुहुत्तस्स । चुत्ती चुण्णियभागा पीकया रिक्खधुवरासी ॥ १ ॥ इच्छापत्रगुणाओ घुवरासीओ य सोहणं कुणसु । पूसाईणं कमसो जह दिहमणंतनाणीहिं ॥ २ ॥ उगवीसं च मुहुत्ता तेयालीसं विसट्टिभागा य । तेत्तीस चुण्णियाओ पुसस्स य सोहणं एवं ॥ ३ ॥ उगुयालसयं उत्तर फग्गु उगुण्ड दो विसाहासु । चत्तारि नवोत्तर उत्तराण साढाण सोझाणि । ( ग्रं० ५००० ) ॥ ४ ॥ सवत्थ पुस्ससेसं सोउझं अभिइस्स चउरउगवीसा | बावट्टी छन्भागा बत्तीसं | चुण्णिया भागा ॥ ५ ॥ उगुणत्तरपंचसया उत्तरभद्दवय सत्त उगुवीसा। रोहिणि अनवोत्तर पुणवसंतम्मि सोज्झाणि ॥ ६ ॥ अट्टसया उगुवीसा बिसडिभागा य होति चडवीसं । छावडी सत्तट्ठिभागा पुसरस सोहणगं ॥ ७ ॥ एतासां क्रमेण व्याख्यात्रयस्त्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वौ द्वाषष्टिभागावेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशन्चूर्णिकाभागाः ३३ । २ । ३४, एष सर्वेष्वपि पर्वसु पर्वीकृत - एकेन पर्वणा निष्पादित ऋक्ष ध्रुवराशिः - सूर्यनक्षत्रविषयो ध्रुवराशिः, कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेत्, उच्यते, त्रैराशिकात्, तच्चेदं त्रैराशिकं यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन Education International For Pernal Use On ~338~ प्राभृते युगसंवरसराः सू ५६ पर्वकरणानि ૬મા ra Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६],उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 555 प्रत सूत्रांक [१६]] टीप पर्वणा किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-१२४।५।१। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातः स तावानेव. एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , ततः चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन भागो दियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद भागो न लभ्यते, लब्धा एकस्य सूर्यनक्षत्रपर्यायस्य पञ्च चतुर्विशत्यधिकशतभागाः, तत्र नक्षत्राणि कुर्म इत्यष्टादशभिः ४ शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागैः पञ्च गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरट्टैनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, छेदराशिषिष्टिः ६२, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः पश्च गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५, एतानि मुहूर्त्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षं सप्तत्रिंशत्सहस्राणि शते पञ्चाशदधिके १३७२५०, छेदराशिश्च द्वापष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पश्चाशद-13 धिकानि ४१५४, तैर्भागो झियते लब्धात्रयस्त्रिंशन्मुहर्ताः ३३, शेष तिष्ठत्यष्टषष्यधिकं शतं १६८, एतद् द्वापष्टिभागानयनार्थं द्वाषष्ट्या गुणयितव्यमिति गुणकारच्छेदराश्योषध्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपश्छेदराशिः सप्तपष्टिरूपः, एकेन च गुणितं तदेव भवति, ततोऽष्टपट्यधिकमेव शतं जातं, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धौ द्वौ द्वापष्टिभागौ, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इति । 'इच्छापोत्यादि, इच्छाविषयं यत्पर्व-पर्वसङ्ख्यानं तदिच्छापर्व तद्गुणो-गुणकारो यस्य ध्रुवराशेस्तस्मात् , किमुक्तं भवति ?-ईप्सितं यत्पर्व तत्सलाया गुणितात् ध्रुवराशेः पुष्यादीनां नक्षत्राणां क्रमश:-क्रमेण शोधनं कुर्याद्यथा दिष्ट-यथा कथितमनन्त ज्ञानिभिः, कथं कथितमित्याह-'उगवीसं चेत्यादि गाथा, एकोनविंशतिर्मुहुर्ता एकस्य च मुइतस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयविंशर्णिका 545 अनुक्रम WHEREBEEBAS [७७] ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] सूर्यप्रज्ञ-माभागाः १९ ॥४३ । ३३ । एतद्-एतावत्प्रमाणं पुष्यशोधनक, कथमेतावतः पुष्यशोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत, पश्यते, हा १० प्राभृते प्तिवृत्तिः पाश्चात्य युगपरिसमाप्ती पुष्यस्य त्रयोविंशतिः सतषष्टिभागा गताश्चतुश्चत्वारिंशदवतिष्ठन्ते, ततस्ते मुहूर्तानयना) त्रिंशता ४२० प्राभूत(मल.) गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १३२०, तेषां सप्तषट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुद्राः का प्राभूते युगसंवत्स॥१६॥ १९, शेषास्तिष्ठति सप्तचत्वारिंशत् ४७, सा द्वाषष्टिभागानयनार्थ द्वापट्या गुण्यते, जातान्येकोनत्रिंशत् शतानि चतुई-12 लाराः सू५६ शोत्तराणि २९१४, तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धानिचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य उपकरणानि त्रयस्त्रिंशत् सप्तपष्टिभागा इति । 'उगुयालसय मित्यादि, एकोनचत्वारिंश-एकोनचत्वारिंशदधिकं मुहूर्त्तशतमुत्तराफा-1 काल्गुनीनां-उत्तराफाल्गुनीपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यम् १३९, द्वे शते एकोनषष्टे-एकोनषष्ट्यधिके विशाखासु-विशाखा-12 पर्यन्तेषु शोध्ये २५९, चत्वारि मुहूर्तशतानि नबोत्तराणि उत्तराषाढानां-उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि ४०९, 'सबस्थे'त्यादि, एतेषु सर्वेष्वपि शोधनेषु यत्पुष्यस्य मुहूर्तेभ्यः शेष-त्रिचत्वारिंशन्मुहर्तस्य द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाष-I |ष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इति तत्प्रत्येक शोधनीयं, तथा अभिजितश्चत्वारि मुहूर्त शतानि एकोनविंशानि-एको नविंशत्यधिकानि षटू द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्यैकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वात्रिंशचूर्णिकाभागाः-सप्तपष्टिभागा इति शोध्यम् , Mएतावता पुष्यादीन्यभिजिदन्तानि नक्षत्राणि शुक्ष्वन्तीतिभावार्थः । तथा 'उगुणत्तरे त्यादि, एकोनसप्ततानि-एकोनसप्त-IM॥१५॥ त्यधिकानि पश्च मुहूर्तशतानि उत्तरभाद्रपदानां-उत्तरभाद्रपदान्तानां शोध्यानि ५६९, तथा सप्तशतान्येकोनविंशानि४ एकोनविंशत्यधिकानि ७१९ रोहिणीपर्यन्तानां शोध्यानि, पुनर्वस्वन्ते-पुनर्वसुपर्यन्ते अष्टौ शतानि नवोत्तराणि ८०९४ अनुक्रम [७७]] ~340~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५६ ] दीप अनुक्रम [७७] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) • प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५६ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education Int शोध्यानि । 'असत्यादि, अष्टौ शतान्येकोनविंशानि - एकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिर्द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा इति पुष्यस्य शोधनकं, एतावता परिपूर्ण एको नक्षत्रपर्यायः शुद्धयतीति तात्पर्यार्थः, एष करणगाथाक्षरार्थः । सम्प्रतिकरण भावना क्रियते तत्र कोऽपि पृच्छति प्रथमं पूर्व कस्मिन् सूर्य नक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति १, तत्र ध्रुवराशिस्त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वौ द्विषष्टिभागावेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागा इत्येवंरूपो घ्रियते ३३ । २ । ३४ | धृत्वा चैकेन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव भवति, ततः पुष्यशोधनक मे कोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशसप्तषष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, तत स्थितास्त्रयोदश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकविंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभागः । १३ । २१ । १, तत आगतमेतावदश्लेषा नक्षत्रस्य सूर्यो भुक्त्वा प्रथमं पर्व श्रावणमासभाव्यमावास्याउक्षणं परिसमापयतीति । द्वितीयपर्वचिन्तायां स एव ध्रुवराशिः ३३ । २ । ३४ द्वाभ्यां गुण्यते, जाता पट्षष्टिर्मुहर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभागः । ६६ । ५ । १, एतस्माद् यथोदितप्रमाणं १९ । ४३ । ३३ पुष्यशोधनकं शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चात् षट्चत्वारिंशन्मुहूर्त्ताः त्रयोविंशतिद्वषष्टिभागाः मुहूर्त्तस्य एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सपष्टिभागाः ४६ । २३ । ३५ । ततः पञ्चदशभिर्मुहत्र श्लेषा शुद्धा त्रिंशता मघा, स्थितः पश्चादेको मुहूर्त्तः तत आगतं द्वितीयं पर्व पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्यैकं मुहर्त्तमेकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशतिं द्वाषष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टिभागान् भुक्त्वा सूर्यः परिसमाप्तिं नयति । तृतीय For Parts Only ~341~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] टीप पर्वचिन्तायां स एव धुवराशिः । ३३ । २।३४ त्रिभिर्गुण्यते जाता नवनवतिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य सप्त द्वाषष्टि-13 प्राभते शिवृत्तिःल भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः ९९। ७ । ३५, एतस्मात्पुण्यशोधनं १९ । ४३ । ३३ शोध्यन्ते, ०प्राभृत(मल.) स्थिताः पश्चादेकोनसप्ततिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पविंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागी परभागा माभूते |६९।२६।२, ततः पश्चदंशभिर्मुह रश्लेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी, स्थिताः पश्चात् चत्वारो मुहर्ता, आगतंयुगसंवत्स॥१६६॥ तृतीयं पर्व भाद्रपदामावास्यारूपमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुरो मुहूर्त्तानेकस्य च मुहूर्तस्य पनिंशति द्वापष्टिभागान् एकस्य सः सू५६ |च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागी भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयति, एवं शेषपर्वस्वपि सूर्यनक्षत्राणि वेदितव्यानि । तत्र । कापर्वकरणानि युगपूर्वार्द्धभाविद्वापष्टिपर्वगतसूर्यनक्षत्रसूचिका इमाः पूर्वाचार्योपदर्शिता गाथा:-"सप्पभग अजमदुगं हत्थो चित्ता विसाह मित्तो य । जेट्टाइगं च छकं अजाभिवुहीदु पूसासा ॥१॥छकं च कत्तियाई पिइभग अज्जमदुर्ग च चित्ता य । वाउ विसाहा अणुराह जे आउं च वीसुदुर्ग ॥२॥ सवण धनिहा अजदेव अभिवुड्डी दु अस्स जमबहुला । रोहिणि | सोमदिइदुगं पुरसो पिइ भगजमा हत्थो ॥ ३॥ चित्ता य जिवज्जा अभिईअंताणि अह रिक्साणि । एए जुगपुरद्धे |बिसहिपधेसु रिक्वाणि ॥४॥" एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सूर्यनक्षत्रं सर्प-सप्पदेवतोपलक्षिता | अश्लेषा १, द्वितीयस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः २ ततोऽयमद्विकमिति तृतीयस्य पर्वणोऽर्थमदेवतोपलक्षिता ॥१६६॥ उत्तरफाल्गुन्यः ३ चतुर्थस्याप्युत्तरफाल्गुन्यः ४ पञ्चमस्य हस्तः ५ षष्ठस्य चित्रा ६ सप्तमस्य विशाखा ७ अष्टमस्य मित्रोमित्रदेवतोपलक्षिता अनुराधा ८ ततो ज्येष्ठादिक पटू क्रमेण वक्तव्यम् , तद्यथा-वमस्य ज्येष्ठा ९ दशमस्य मूलं १० अनुक्रम [७७] ॐॐॐ ~342~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] टीप एकादशस्य पूर्वाषाढा ११ द्वादशस्योत्तराषाढा १२ त्रयोदशस्य श्रवणः १३ चतुर्दशस्य धनिष्ठा १४ पञ्चदशस्य अजः-- अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभद्रपदाः १५ षोडशस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा १६ सप्तदशस्योत्तरभद्र-I पदा १७ अष्टादशस्य पुष्यः-पुष्यदेवतीपलक्षिता रेवती १८ एकोनविंशतितमस्याश्वः-अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी १९ पदं च कृत्तिकादिकमिति, विंशतितमस्य कृत्तिकाः २० एकविंशतितमस्य रोहिणी २१ द्वाविंशतितमस्य मृगशिरः २२ त्रयोविंशतितमस्याी २३ चतुर्विंशतितमस्य पुनर्वसुः २४ पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः २५ षविंशतितमस्य पितरः-पितृदेवतोपलक्षिता मघाः २६ सप्तविंशतितमस्य भगो-भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्दः २७ अष्टाविंशतितमस्यार्यमा-अर्थमदेवा उत्तरफाल्गुन्यः २८ एकोनत्रिंशत्तमस्याप्युत्तरफाल्गुन्यः २९ त्रिंशत्तमस्य चित्रा ३० एकत्रिंशत्तमस्य वायु:-वायुदेवतोपलक्षिता स्वातिः ३१ द्वात्रिंशत्तमस्य विशाखा ३२ त्रयस्त्रिंशत्तमस्थानुराधा ३३ चतुर्विंशत्तमस्य ज्येष्ठा ३४ पञ्चत्रिंशत्तमस्य पुनरायु:-आयुर्देवतोपलक्षिताः पूर्वाषाढाः ३५ पत्रिंशत्तमस्य विष्वगदेवा उत्तराषाढा ३६ सप्तत्रिंशत्तमस्याप्युत्तरापाढा ३७ अष्टात्रिंशत्तमस्य श्रवणः ३८ एकोनचत्वारिंशत्तमस्य धनिष्ठा ३९ चत्वारिंशत्तमस्याज:-अजदेवतोपलक्षिता पूर्वभद्रपदा ४० एकचत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिः-अभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदाः ४१ द्वाचत्वारिंशत्तमस्याप्युत्तरभद्रपदा ४२ चत्वारिंशत्तमस्याश्या-अश्वदेवा अश्विनी ४३ चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य यमो-यमदेवा भरणी ४४ पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य बहुला:-कृत्तिकाः ४५ षट्चत्वारिंशत्तमस्य रोहिणी ४६ सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः-सोमदेवोपलक्षितं मृगशिरः ४७ अदितिद्वि कमिति अष्टचत्वारिंशत्तमस्यादितिः-अदितिदेवोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्र ४८ एकोनपश्चाशत्तमस्यापि अनुक्रम [७७] ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] ॥१६॥ पीप 94 सूर्यप्रज्ञ- पुनर्वसुनक्षत्र ४९ पश्चाशत्तमस्य पुष्यः ५० एकपश्चाशत्तमस्य पिता-पितृदेवा मघाः ५१ द्वापश्चाशत्तमस्य मनोभगदे- 1१० प्राभृते प्तिवृत्तिः४ वतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः ५२ त्रिपश्चाशत्तमस्यार्यमा-अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः ५३ चतुःपश्चाशत्तमस्य ४२० प्राभृत. (मल०) हस्तः ५४ अत अझै चित्रादीनि अभिजित्पर्यन्तानि ज्येष्ठावर्जान्यष्टौ नक्षत्राणि क्रमेण वक्तव्यानि, तद्यथा-पचपश्चाशत्त &ा प्राभृते मस्य चित्रा ५५ षट्पञ्चाशत्तमस्य स्वातिः ५६ सप्तपश्चाशत्तमस्य विशाखा ५७ अष्टपशाशत्तमस्य अनुराधा ५८ एकॉनष- युगसवत्स|ष्टितमस्य मूलः ५९ षष्टितमस्य पूर्वाषाढाः५० एकपष्टितमस्योत्तराषाढाः ६१ द्वापष्टितमस्याभिजिदिति १२, एतानि X पर्वकरणानि नक्षत्राणि युगस्य पूवार्द्ध द्वापष्टिसहयेषु पर्वसु यथाक्रम युक्तानि । एवं करणवशेन युगस्योत्तराद्धेऽपि द्वापष्टिसह पर्वसु ज्ञातव्यानि । किं पर्व चरमदिवसे कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु समाप्तिमियतीत्येतद्विषयं यत्करणमभिहितं पूर्वाचार्यस्तदभिधीयते-चरहिं हियम्मि पये एके सेसमि होइ कलिओगो । बेसु य दावरजुम्मो तिसु तेया चमु कडजुम्मो॥१॥कलि-13I [ओगे तेणबई पक्खेवो दावरम्मि बावही । तेऊए एकतीसा कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो ॥२॥ सेसद्धे तीसगुणे वावठी भाइ-ला यंमि जंली । जाणे तइसु मुहत्तेसु अहोरत्तस्स तं पर्व ॥३॥" एतासां क्रमेण व्याख्या-पर्वणि-पर्वराशी चतुभिभके। सति योकः शेषो भवति तदा स राशिः कल्योजो भण्यते द्वयोः शेषयोर्वापरयुग्मस्थिषु शेषेषु वेतीजक्षतुएं शेपेषु कृतयुग्मः, 'कलि ओयेत्यादि, तत्र कल्योजोरूपराशी विनवतिः प्रक्षेपः-प्रक्षेपणीयो राशिः, द्वापरयुग्मे द्वाषष्टिः तौजसि | [एकत्रिंशत् कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः, एवं प्रक्षिप्तप्रक्षेपाणां पर्वराशीनां सतां चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन भागो हियते, हते च भागे यच्छेषमवतिष्ठते तस्यायं विधि:-'सेसद्धे'इत्यादि, शेषश्चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागे हते अवशिष्ट अनुक्रम [७७] तीजसि ॥१६७॥ ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] टीप स्थाई क्रियते, कृत्वा च त्रिंशता गुण्यते, गुणयित्वा च द्वापट्या भव्यते, भक्ते सति यलब्धं तान् मुहूर्तान् जानीहि, लब्धशेष मुहर्तभागान् , तत एवं स्वशिष्येभ्यः प्ररूपय, तद्विवक्षितं पर्व चरमे अहोरात्रे सूर्योदयात्तावत्सु मुहूर्तेषु तावत्सु च मुहूर्तभागेषु अतिक्रान्तेषु परिसमाप्तमिति, एष करणगाथाक्षरार्थः । भावना त्वियम्-प्रथमं पर्व परमेऽहोरात्रे कति | मुहर्त्तानतिक्रम्य समाप्तमिति जिज्ञासायामेको ध्रियते, अयं किल कल्योजो राशिरित्यत्र त्रिनवतिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुनवतिः, अस्य चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हर्त्तव्यः, स च भागो न लभ्यते राशेः स्तोकत्वात् , ततो यथासम्भवं कर-4 णलक्षणं कर्तव्यं, तत्र चतुर्नवतेरबै क्रियते, जाता सप्तचत्वारिंशत् ४७, सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि चतुर्दश शतानि दशोत्तराणि १४१०, तेषां द्वाफ्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिमहतो २२, शेषा तिष्ठति षट्चत्वारिंशत् ४६, ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरद्धेनापवर्तना, लब्धास्खयोविंशतिरेकत्रिंशदागाः आगतं प्रथमं पर्व चरमे अहोरात्रे द्वाविंशति मुहर्तान एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति । द्वितीयपर्वजिज्ञासायां द्विको प्रियते, स किल द्वापरयुग्मराशिरिति द्वापष्टिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुःषष्टिः, सा च चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भार्ग न प्रयच्छति ततस्तस्याई क्रियते, जासा द्वात्रिंशत् , सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि नव शतानि पट्यधिकानि ९६०, तेषां | द्वाषया भागो हियते, लब्धाः पश्चदश मुहर्ताः१५, पश्चादवतिष्ठते त्रिंशत् ,ततश्छेद्यच्छेदकराश्योरट्टेनापवर्तना, लब्धाः | पञ्चदश एकत्रिंशदागाः १५, आगतं द्वितीय पर्व चरमेऽहोरात्रे पञ्चदश मुहूर्त्तानेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदश एकत्रिंशदा-1 गानतिक्रम्य [ द्वितीय पर्व ] समाप्तमिति । तृतीयपर्वजिज्ञासायां त्रिको प्रियते, स किल त्रेतीजोराशिरिति तत्रैकत्रिंशत् अनुक्रम [७७]] ~345~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [4] दीप अनुक्रम [७७] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५६ ] प्राभृत [१०], - प्राभृतप्राभृत [२०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल० ॥१६८॥ प्रक्षिप्यते, जाता चतुस्त्रिंशत् १४, सा चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भागं न प्रयच्छति ततस्तस्यार्द्धं क्रियते, जाताः सप्तदश, ते त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतानि दशोत्तराणि ५१०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा अष्टौ ८, शेषा- ४ स्तिष्ठन्ति चतुर्द्दश १४, ततच्छेद्यच्छेदकरा श्योर नापवर्त्तना, लब्धाः सप्त एकत्रिंशद्भागाः आगतं तृतीयं पर्व चरमेहोरात्रे अष्टौ मुहर्त्तानेकस्य सप्त एकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति । चतुर्थपर्वजिज्ञासायां चतुष्को प्रियते, स किल कृतयुग्मराशिरिति न किमपि तत्र प्रक्षिप्यते, चत्वारश्चतुर्विंशत्यधिकस्य शतस्य भागं न प्रयच्छति, ततस्तेऽर्द्ध क्रियन्ते, जातौ द्वौ तौ त्रिंशता गुण्येते, जाता पष्टिः ६०, तस्या द्वापथा भागो हियते, भागश्च न लभ्यते इति छेद्यच्छेदक राज्योरद्धेनापवर्त्तना, जातास्त्रिंशदेक त्रिंशद्भागाः आगतं चतुर्थ पर्व चरमेऽहोरात्रे मुहूर्त्तस्य त्रिंशतमेकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्ति गच्छतीत्येवं शेषेण्यपि पर्वसु भावनीयं । चतुर्विंशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञासायां चतुर्विंशत्यधिकं शर्तें प्रियते, तस्य किल चतुर्भिर्भागे हृते न किमपि शेषमवतिष्ठते इति कृतयुग्मोऽयं राशिः ततोऽत्र न किमपि प्रक्षिप्यते, ततश्चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, जातो राशिर्निर्लेपः आगतं परिपूर्ण चरममहोरात्रं भुक्त्वा चतुर्विंशतितमं पर्व समाप्तिं गतमिति । तदेवं यथा पूर्वाचार्यैरिदमेव पर्वसूत्रमवलम्ब्य पर्वविषयं व्याख्यानं कृतं तथा मया विनेयजनानुग्रहाय स्वमत्यनुसारेणोपदर्शितं, सम्मति प्रस्तुतमनुश्रियते तत्र युगसंवत्सरोऽभिहितः, साम्प्रतं प्रमाण संवत्सरमाह Ja Education International तापमाणसंयच्छरे पंचविहे पं० तं० नक्खते चंदे उडू आइचे अभिवहिए (सूत्रं ५७ ) ॥ - 'पमाणे'त्यादि, प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नक्षत्र संवत्सर ऋतुसंवत्सरश्चन्द्रसंवत्सरः आदित्यसंव For Parts Only ~346~ १० प्राभूते २० प्राभूतप्राभृते युगसंवत्स राः सू ५६ पर्वकरणाि ॥१६८॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५७ ] दीप अनुक्रम [७८] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) • प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५७ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः त्सरोऽभिवर्द्धितसंवत्सरश्च तत्र नक्षत्रचन्द्राभिवर्द्धितसंवत्सराणां स्वरूपं प्रागेवोक्तमिदानीं ऋतुसंवत्सरादित्यसंवत्सरयो स्वरूपमुच्यते-तत्र द्वे घटिके एको मुहर्त्तत्रिंशन्मुहूर्त्ता अहोरात्रः पञ्चदश परिपूर्णा अहोरात्राः पक्षः द्वौ पक्षी मासो द्वादश मासाः संवत्सरो, यस्मिंश्च संवत्सरे त्रीणि शतानि पश्यधिकानि परिपूर्णान्यहोरात्राणां भवति एष ऋतुसंवत्सरा, ऋतवो लोकप्रसिद्धाः वसन्तादयः तत्प्रधानः संवत्सर ऋतुसंवत्सरः, अस्य चापरमपि नामद्वयमस्ति तद्यथा कर्मसंवत्सरः सवन संवत्सरः, तत्र कर्म्म-लौकिको व्यवहारस्तत्प्रधानः संवत्सरः कर्म्मसंवत्सरः, लोको हि प्रायः सर्वोऽप्यनेनैव संवत्सरेण व्यवहरति, तथा चैतद्गतं मासमधिकृत्याम्यत्रोक्तम् — “कम्मो निरंसयाए मासो वषहारकारगो ढोए । सेसा - ओ संसयाए बवहारे दुक्करो घितुं ॥ १ ॥” तथा सवनं-कर्म्मसु प्रेरणं 'पू प्रेरणे' इति वचनात् तत्प्रधानः संवत्सरः सवनसंवत्सर इत्यप्यस्य नाम, तथा चोक्तं- “वे नालिया मुहुत्तो सही उण नालिया अहोरतो । पद्मरस अहोरता पक्लो तीसं दिणा मासो ॥ १॥ संवच्छरो उ बारस मासा पक्खा य ते चषीसं तिनेव सया सहा हवंति राइंदियाणं तु ॥२॥ एसो उ कमो भणिओ निअमा संयच्छरस्स कम्मस्स । कम्मोसि सावणोत्ति य उउइतिय तस्स नामाणि ॥ ३ ॥” तथा यावता कालेन षडपि प्रावृडादयः ऋतवः परिपूर्णाः प्रावृत्ता भवन्ति तावान् कालविशेष आदित्यसंवत्सरः, उक्तं च"छप्पि उपरियट्टा एसो संवच्छरो उ आइयो" तत्र यद्यपि लोके पयहोरात्रप्रमाणः प्रावृडादिक मतुः प्रसिद्धः तथापि परमार्थतः स एकषष्ट्यहोरात्रप्रमाणो वेदितव्यः तथैयोत्तरकालमव्यभिचारदर्शनात्, अस एव चास्मिन् संवत्सरे श्रीम शतानि षट्षष्यधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरं भवति, तथा चान्यत्रापि पञ्चस्वपि संवत्सरेषु यथोक्त Eucation International For Parts Only ~ 347~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१७] प सूर्यप्रक्ष-5 मेव रानिन्दिवानां परिमाणमुक्त, "तिन्नि अहोरत्तसया छावहा भक्खरो हवाइ वासो । तिन्नि सया पुण सहा कम्मो संव-४१० प्राभते तिवृत्तिः च्छरो होइ ॥१॥ तिन्नि अहोरत्तसया चउपन्ना नियमसो हवइ चंदो । भागो य बारसेव य बावडिकएण छेएण ॥२॥ २० प्राभृत. (मल.) तिन्नि अहोरत्तसया सत्तावीसा य होति नक्षत्ता । एक्कावन्नं भागा सत्तविकएण छेएण॥३॥ तिन्नि अहोरत्तसया तेसी- प्राभृते ॥१६॥ ईचेव होइ अभिवडी । चोयालीसं भागा बावहिकएण छेएण ॥४॥ एताश्चतस्रोऽपि गाधाः सुगमाः, इदं च प्रतिसं- युगसंवत्स वत्सरं रात्रिन्दिवपरिमाणमप्रेऽपि वक्ष्यति परमिह प्रस्तावादुक्कं । सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय संवत्सरसङ्ख्यातो माससङ्ख्या र प्रदर्श्यते-तत्र सूर्यसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि षटूषयधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरस्तत्र पर्वकरणानि त्रयाणां शतानां षट्पट्याधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते, लन्धाः त्रिंशत् ३०, शेषाणि तिष्ठन्ति षट्, ते अर्द्ध क्रियते, जाता द्वादश, ततो लब्धमेकं दिवसस्यार्द्ध मेतावत्परिमाणः सूर्यमासः, तथा कर्मसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि | पश्यधिकानि रात्रिन्दिवानां तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धात्रिंशदहोरात्रा एतावत्कर्ममासपरिमाण, तथा चन्द्रसवत्सरस्य परिमाणं श्रीण्यहोरात्रशतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि द्वादश च द्वापष्टिभागा अहोरात्रस्य, तत्र त्रयाणां शतानां चतुष्पश्चाशदधिकानां द्वादशभिभोगे हते लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्राः, शेषाः तिष्ठन्ति षट् अहोरात्राः, ते द्वापष्टिभागकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जात्तानि त्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ३७२, येऽपि द्वादश द्वापष्टिभागा उपरितना P१६९॥ स्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि, तेषां द्वादशभिर्भागे हते लब्धा द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागा, |एतावच्चन्द्रमासपरिमाणं । तथा नक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि सप्तविंशत्यधिकानि रात्रिन्दिवानामेकस्य च रात्रि अनुक्रम [७८] ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५७ ] दीप अनुक्रम [७८] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५७ ] प्राभृत [१०], - प्राभृतप्राभृत [२०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः न्दिवस्य एकपञ्चाशत्सष्ठपष्टिभागाः, तत्र त्रयाणां शतानां सप्तविंशत्यधिकानां द्वादशभिभागो हियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, शेपास्त्रयस्तिष्ठन्ति, ततस्तेऽपि सप्तषष्टिभागकरणार्थं सप्तपच्या गुण्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, येऽपि च उपरितना एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागास्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके २५२, तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धा एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, एतावन्नक्षत्रमासपरिमाणं तथा अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य तत्र त्र्याणां शतानां व्यशीत्यधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्त्यहोरात्रा एकादश, ते च चतुर्विंशत्युत्तरशतभाग करणार्थं चतुविंशत्युत्तरशतेन १२४ गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि १३६४, येऽपि चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जाताऽष्टाशीतिः, साऽनन्तरराशी प्रक्षिप्यते, जातानि चतुर्दश शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि १४५२, तेषां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां एतावदभिवर्द्धितमासपरिमाणं, तथा चोक्तम्- "आइचो खलु मासो तीस अद्धं च सावणो तीसं । चंदो एगुणतीसं विसद्विभागा य बत्तीसं ॥ १ ॥ नक्खतो खलु मासो सत्तावीसं भवे अहोरत्ता । अंसा य एकवीसा सत्तडिकएण छेएण ॥ २ ॥ अभिवडिओ य मासो एकतीसं भवे अहोरत्ता । भागसय मेगधीसं चडवीससएण छेपणं ॥ २ ॥" सम्प्रति एतैरेव पश्चभिः संवत्सरैः प्रागुक्तस्वरूपं युगं-पञ्चसंवत्सरात्मकं मासानधिकृत्य प्रमीयते, तत्र युगं प्रागुदितस्वरूपं यदि सूर्यमासैर्विभज्यते ततः षष्टिः सूर्यमासा युगं भवन्ति, तथाहि —सूर्यमासे सार्द्धास्त्रिंशदहोरात्रा युगे चाहोरात्रा Ja Eucation International For Park Use Only ~ 349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५७ ] दीप अनुक्रम [७८] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५७ ] प्राभृत [१०], - प्राभृतप्राभृत [२०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल०) ॥ १७० ॥ णामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि भवन्ति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा द्वौ चाभि- + वर्द्धितसंवत्सरौ, एकैकस्मिंश्च चन्द्रसंवत्सरेऽहोरात्राणां त्रीणि शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, द्वादश च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य ३५४ ६३ तत एतत् त्रिभिर्गुण्यते, जातान्यहोरात्राणां दश शतानि द्वापश्यधिकानि १०६२ पत्रिंशञ्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य से अभिवर्द्धितसंवत्सरे च एकैकस्मिन् अहोरात्राणां त्रीणि शतानि त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशश्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य ( तत एतद् द्वाभ्यां गुण्यते जातानि सप्तषष्यधिकानि सप्त शतान्यहोरात्राणां पशितिश्च द्विषष्टिभागा अहोरात्रस्य तदेवं चन्द्र संवत्सरत्रयाभिवर्द्धितसंवत्सरद्वयाहोरात्रमीलने त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणामष्टादश शतानि, सूर्यमासस्य च पूर्वोक्तरीत्या सार्द्धत्रिंशदहोरात्रमानतेति तेन भागे कृते स्पष्टमेव पष्टेर्लाभः, तथाहि - भष्टादशशत्या खिंशदधिकाया अर्धीकरणाय द्वाभ्यां गुणने षष्ठयधिका पत्रिंशच्छती त्रिंशतश्चार्धीकरणाय द्वाभ्यां गुणने षष्टिः एकप्रक्षेपे एकषष्टिस्तेन पूर्वोकराशेः भागे कृते लभ्यते षष्टिः, तथा च युगमध्ये सूर्यमासाः षष्टिरिति स्थितं | सावनस्य तु मासा एकषष्टिः, त्रिंशद्दिनमानत्वाद् तस्य त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्यास्त्रिंशता भागे एकपटेर्लाभात् । चन्द्र| मासा द्विषष्टिर्यत एकोनविंशत्या अहोरात्रैरे कोन त्रिंशता द्विषष्टिभागैरधिकैर्मासः, युगदिनानां तैर्भागे च द्वाषष्टेर्लाभात् कथं? त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्या द्विषष्टिभागकरणार्थं गुणकारे एकं लक्षं त्रयोदश सहस्राणि षष्यधिकमेकं शतं ११३१६६ चन्द्रमासस्यापि भागकरणाय द्विषष्ट्या एकोनविंशति गुणिते प्रक्षिप्ते च द्वात्रिंशति त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्या भाषः तया भके पूर्वोक्कराशी द्वाषष्टेर्भावात् चन्द्रमासा द्वाषष्टिरिति । नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः, कथमिति चेत्, नक्षत्रमासतावत् Ja Education International For Peralata Use Only ~ 350~ १० प्राभृते २० प्राभृत प्राभूते युगसंवत्सराः सू ५६ 1 पर्वकरणानि ॥ १७० ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५७ ] दीप अनुक्रम [७८] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) • प्राभृतप्राभृत [२०], मूलं [ ५७ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सप्तविंशत्या अहोरात्रैरेकविंशत्या च सप्तषष्टिभागैः, ) तत्र सप्तविंशतिरहोरात्राः सप्तषष्टिभागकरणार्थं सष्ठपष्ट्या गुण्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि नवोत्तराणि १८०९, तत उपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, आतान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, युगस्यापि सम्बन्धिनस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणा अहोरात्राः सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जात एको लक्षः द्वाविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि दशोत्तराणि १२२६१०, एतेषामष्टादशशतैस्त्रिंशदधिकैर्नक्षत्र मास सत्कसष्ठपष्टि भागरूपैर्भागो हियते, लब्धाः सप्तषष्टिर्भागाः ६७ । तथा यदि युगमभिवर्द्धितमासैः परिभज्यते तदा अभिवर्द्धितमासा युगे भवन्ति सप्तपञ्चाशत् सप्त रात्रिन्दिवानि एकादश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागास्त्रयोविंशतिः, तथाहि - भ भिवर्द्धितमा सपरिमाणमेकत्रिंशदहोरात्रा एकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंशत्यधिकशतभागानामहोरात्रस्य तत एकत्रिंशदहोरात्राचतुर्विंशत्युत्तरशतभाग करणार्थं चतुर्विंशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जातान्यष्टात्रिंशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ३८४४, तत उपरितन मेकविंशत्युत्तरं शतं भागानां तत्र प्रक्षिप्यते, जातान्येकोनचत्वारिंशच्छतानि पञ्चपश्यधिकानि ३९६५, यानि च युगे अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० तानि चतुर्विंशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते, जाते द्वे लक्षे पि शतिः सहस्राणि नव शतानि विंशत्यधिकानि २२६९२०, तत एतेषामेकोनचत्वारिंशच्छतैः पञ्चषश्यधिकैरभिवर्द्धितमा| ससत्कचतुर्विंशत्युत्तरशत भागरूपैर्भागो हियते, लब्धाः सप्तपञ्चाशन्मासाः शेषाणि तिष्ठन्ति नव शतानि पञ्चदशोचराणि ९१५, तेषामहोरात्रानयनाथ चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त रात्रिन्दिवानि, शेपास्तिष्ठन्ति चतुर्विंशत्युत्तरशत भागाः सप्तचत्वारिंशत्, तत्र चतुर्भिर्भागैरेकस्य च भागस्य चतुर्भिस्त्रिंशद्भागैर्मुहूर्तो भवति, स्थाहि For Parks Lise On ~351~ wor Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) सुत्राक ॥१७१॥ [५७] एकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता अहोरात्रे च चतुर्विंशस्युत्तरं शतं भागानां कल्पितमास्ते, ततस्तस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतस्य व चतुविशत्युत्तरशतस्य १०प्राभृते त्रिंशता भागे हते लब्धाश्चत्वारो भागाः एकस्य च भागस्य सरकाश्चत्वारखिंशद्भागास्तत्र पञ्चचत्वारिंशद्भागैरेकस्य च २० प्राभृतभागस्य सत्कैश्चतुर्दशभित्रिंशद्भागैरेकादश मुहूर्त्ता लब्धाः, शेषस्तिष्ठत्येको भाग एकस्य च भागस्य सत्काः षोडश त्रिंश- प्राभूते भागाः, किमुक्तं भवति -षट्चत्वारिंशत्रिंशदागा एकस्य भागस्य सत्काः शेषास्तिष्ठन्ति, ते च'किल मुहर्तस्य चतुर्विंश युगसंवत्सत्युत्तरशतभागरूपास्ततः षट्चत्वारिंशतश्चतुर्विंशत्युत्तरशतस्य च द्विकेनापपर्तना क्रियते, लब्धा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागा- पर्वकरणानि रा खयोविंशतिः, उक्तं चैतदन्यत्रापि-"तत्थ पडिमिजमाणे पंचहि माणेहिं सबगणिएहिं । मासेहि विभजता जइ मासा होति ते वोच्छं ॥१॥" अत्र 'तत्थे'ति तत्र, 'पंचहि माणेहित्ति पंचभिर्मानैः-मानसंवत्सरः-प्रमाणसंवत्सरैरादित्यचन्द्रादिभिरित्यर्थः, पूर्वगणितैः प्राक्प्रतिसञ्जयातस्वरूपैः प्रतिमीयमाने-प्रतिगण्यमाने मास-सूर्यादिमासैः, शेषं सुगमम् । "आइञ्चेण उ सट्ठी मासा उउणो उ होंति एगही। चंदेण उ बाबही सत्तट्ठी होति नक्खत्ते॥१॥ सत्तावणं मासा सत्त य राईदियाई अभिवढे । इकारस य मुहुत्ता बिसद्विभागा य तेवीसं ॥२॥" सम्पति लक्षणसंवत्सरमाह ता लक्खणसंवच्छरे पंचविहे पं०-नक्खत्ति चंदे उड, आइच्चे अभिवुहिए। ता णक्खत्ते णं संवच्छरेणं पंचविहे पं०-समग णक्खता जोयं जोएंति, समगं उदू परिणमंति । नक्षुण्हं नाइसीए बहुउदए होइ नक्खत्ते । ॥१॥ससि समग पुनिमासिं जोईता विसमचारिनक्खत्ता । कडुओ बहुउदओ य तमाहु संवच्छर चंदं|21॥१७॥ ॥२॥ विसमं पचालिणो परिणमंति अणुऊसु दिति पुप्फफलं । वासं न सम्म वासह तमाहु संवच्छर कम्म अनुक्रम [७८] ~352~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [५८] + गाथा(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] ॥ ३ ॥ पुढविदगाणं च रसं पुप्फफलाणं च देइ आइच्चे । अप्पेणवि वासेणं समं निष्फजए सस्सं ॥ ४॥ आइ-13 चतेयतविया खणलवदिवसा उऊ परिणमन्ति । पूरेति निणय (पण) थलये तमाहु अभिवहितं जाण ॥५॥ ता सणिकछरसंवच्छरे णं अट्ठावीसतिविहे पं०, तं०-अभियी सवणे जाव उत्तरासाढा, जं वा सणिच्छरे महग्गहे तीसाए संवकछरेहि सर्व णक्वत्तमंडलं समाणेति (सूत्रं ५८) ॥ दसमस्स पाहडस्स वीसतिम|४| पाहुडपाहुडं समत्तं ॥ | 'लक्खणे संवच्छरेत्यादि, लक्षणसंवत्सरः पञ्चविधः-पश्चप्रकारः प्रज्ञप्तः, तच्च पञ्चविधत्वं प्रागुक्तमेव द्रष्टव्यं, तद्यथानक्षत्रसंवत्सरः चन्द्रसंवत्सरः ऋतुसंवत्सरः आदित्यसंवत्सरोऽभिवर्द्धितश्च, किमुक्त भवति न केवलमेते नक्षत्रादिसंवत्सरा यथोक्तरानिन्दिवपरिमाणा भवन्ति किन्तु तेभ्यः पृथग्भूता अन्येऽपि वक्ष्यमाणलक्षणोपेताः, ततो लक्षणोपपन्नः संवत्सरः पृथक् पश्यविधो भवतीति, तत्र प्रथमतो नक्षत्रसंवत्सरलक्षणमाह-'ता नक्खत्ते'त्यादि, 'ता' इति तत्र नक्षत्रसंवत्सरो रक्षणमधिकृत्य पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, किमुक्तं भवति-नक्षत्रसंवत्सरस्य पञ्चविध लक्षणं प्रज्ञप्तमिति,131 है तदेवाह-"समर्ग नक्खत्ता जोगं जोएंति समग उऊ परिणमंति । नचुण्ड नातिसीतो बहुउदओ होइ नक्खत्तो १॥" यस्मिन् संवत्सरे समक-समकमेव एककालमेव ऋतुभिः सहेति गम्यते नक्षत्राणि-उत्तराषाढाप्रभृतीनि योग युञ्जन्ति-चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति सन्ति तां पौर्णमासी परिसमापयन्ति, तथा समकमेव-एककाहैलमेव तया तया परिसमाप्यमानया पौर्णमास्या सह ऋतवो निदाघाद्याः परिणमन्ति-परिसमाप्तिमुपयन्ति, इय दीप अनुक्रम [७९-८५] 345845454 For P OW ~353~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [५८] + गाथा(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] सूर्यप्रज्ञ- मत्र भावना-यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्रैर्माससदृशनामकैस्तस्य तस्य ऋतो पर्यन्तवती मासः परिसमाण्यते, तेषु च तां १० तिवृत्तिः तां पौर्णमासी परिसमापयत्सु तया तया पौर्णमास्या सह ऋतवोऽपि निदाघादिकाः परिसमाप्तिमुपयन्ति, यथा/२०प्राभूत(मल०) उत्तरापाढानक्षत्रं आषाढी पौर्णमासी परिसमापषति, तया आषाढपौर्णमास्या सह निदाघोऽपि प्रतुः परिसमाप्तिमुपैत्ति, माभृते ॥१७२॥ मस नक्षत्रसंवत्सरः, नक्षत्रानुरोधेन तस्य तथा तथा परिणममानत्वात् , एतेन च लक्षणद्वयमभिहितं द्रष्टव्यं, तथा न विद्य चरसंवत्सतेऽतिशयेन उष्ण-उष्णरूपः परितापो यस्मिन् स नात्युष्णः तथा न विद्यतेऽतिशयेन शीतं यत्र स नातिशीतो बहु उदक भारी सू ५८ यत्र स बहूदकः एवंरूपैः पश्चभिः समप्रैर्लक्षणैरुपेतो भवति नक्षत्रसंवत्सरः। सम्प्रति चन्द्रसंवत्सरलक्षणमाह-"ससिसमनागपुण्णमासि जोपंता विसमचारिनक्खत्ता । कडओ बहुउदओया तमाहु संक्च्छर चंदं ॥१॥" यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्राणि |2 | विषमचारीणि मासविसदृशनामानीत्यर्थः, शशिना समकं योगमुपगतानि तां तां पौर्णमासी युञ्जन्ति-परिसमापयन्ति, यश्च कटुका-शीतातपरोगादिदोषबहुलतया परिणामदारुणो बहूदकश्च तमामहर्षयः संवत्सरं चान्द्रं-वन्द्रसम्बन्धिना मचन्द्रानुरोधतस्तत्र मासानां परिसमाप्तिभावान माससहशनामनक्षत्रानुरोधतः। सम्प्रति कर्मसंवत्सरलक्षणमाह-"विसम 2 पवालिणो परिणमंति अणुऊसु दिति पुष्फफलं । वासं न सम्म वासइ तमाहु संवच्छर कम्मं ॥१॥" यस्मिन् संघरसरे ॥१७॥ वनस्पतयो विषम-विषमकालं 'प्रवालिनः परिणमन्ति' प्रवाल:-पल्लवाड्रस्तधुक्ततया परिणमन्ति, तथा अनूतुष्यपि-ICI स्वस्वऋत्वभावेऽपि पुष्पं फलं च ददति-प्रयच्छन्ति, तथा वर्ष-पानीयं न सम्यक् यस्मिन् संवत्सरे मेपो वर्षेति तमाहुर्महर्षयः संवत्सरं कर्म-कर्मसंवत्सरमित्यर्थः । अधुना सूर्यसंवत्सरलक्षणमाइ-"पुढविदगाणं व रसं पुष्फफलाणं च दे दीप अनुक्रम [७९-८५] ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२०], -------------------- मूलं [५८] + गाथा(१-५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] आइयो । अप्पेणवि वासेणं सम्म निष्फज्जए सस्सं ॥१॥" पृथिव्या उदकस्य तथा पुष्पानां फलानां च रसमादित्यसं-1 वत्सरो ददाति तथा अल्पेनापि-स्तोकेनापि वर्षेण-वृष्ट्या सस्य निष्पद्यते-अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् सस्य निष्पादयति, किसुक्क है भवति यस्मिन् संवत्सरे पृथिवी तथाविधोदकसम्पर्कादतीव सरसा भवति उदकमपि परिणामसुन्दररसोपेतं परिणमते पुष्पानां च-मधूकादिसम्बन्धिनां फलानां च-चूतफलादीनां रसः प्रचुर सम्भवति स्तोकेनापि वर्षेषा धान्यं सर्वत्र सम्यक् निष्पद्यते तमादित्यसंवत्सरं पूर्वषयः उपदिशन्ति । अभिवतिसंवत्सरलक्षणमाह-"आइयतेयततिया खणलवदिवसा उऊ परिणमंति । पूरेइ निण्णथलए तमाहु अभिवडियं जाण ॥१॥" यस्मिन् संवत्सरे क्षणलवदिवसा ऋतव आदित्यतेजसा कृत्वा अतीव तताः परिणमन्ते यश्च सर्वाण्यपि निम्नस्थानानि स्थलानि च जलेन पूरयति तं संवत्सरं जानीदि यथा तं संवत्सरमभि* वर्द्धितमाहुः पूर्वय इति । तदेवं लक्षणसंवत्सर उक्तः, सम्प्रति शनैश्चरसंवत्सरमाह-तासणिच्छरें'त्यादि, तन्त्र शनैश्वरसं वत्सरोऽष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभिजित्-अभिजित्शनैश्चरसंवत्सरः श्रवणः-श्रवणशनैश्चरसंवत्सर, एवं यावदुत्तराषाढा-उत्तरापाढाशनैश्चरसंवत्सर, तन यस्मिन् संवत्सरे अभिजिता नक्षत्रेण सह पानवरो योगमुपादत्ते सोऽभिजित- शनैश्चरसंवत्सरः, श्रवणेन सह यस्मिन् संवत्सरे योगमुपादत्ते स श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः, एवं सर्वत्र भावनीयं- वे ल्यादि, वाशब्दः प्रकारान्तरताद्योतनाय तत्सर्वे-समस्त नक्षत्रमण्डलं शनैश्वरो महाग्रहत्रिंशता संवत्सरैः समानयति एताजवान कालविशेषत्रिंशद्वर्षप्रमाणः शनैश्चरसंवत्सरः॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभूतस्य विंशतितम प्राभृतप्राभृतं समाक्षं ॥ दीप अनुक्रम [७९-८५] XXXSE ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५९ ] दीप अनुक्रम [८६] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) • प्राभृतप्राभृत [२१], मूलं [ ५९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥ १७३ ॥ तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य विंशतितमं प्राभृतप्राभृतं साम्प्रतं एकविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा 'नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहते जोतिसस्स दारा आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवसीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता कत्तियादी णं सन्त नक्खत्ता पुष्वादारिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंस ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुढदारिया पण्णत्ता एगे एवमाहंसु २, एगे पुण एवमाहं ता घणिद्वादीया सत्त णक्खन्ता पुवदारिआ पण्णत्ता एगे एवमाहंस ३, एगे पुण एवमाहंसु अस्सिणीयादीया णं सत्त णक्खत्ता पुषादारिया पं० एगे एवमाहंस ४, एगे पुण एवमाहंसु ता भरणीयादीआ णं सत्त णक्खता पुवदारिआ पण्णत्ता । तत्थ जे ते एवमाहंसु ता कलियादी णं सप्त णक्खता पुवदारिया पं० ते एवमाहंसु-तं०कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवस पुस्सो असिलेसा, सत्त णक्खन्ता दाहिणदारिया पं० तं० महा पुषफगुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता साई विसाहा, अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० सं०अणुराधा जेट्ठा मूलो पुवासाडा उत्तरासाढा अभियी सवणो, धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पं० तं०- घणिट्ठा सतभिसया पुचापोट्टवता उत्तरापोहवता रेवती अस्सिणी भरणी ॥ तत्थ जे ते एवमाहंसु ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुछदारिया पं० ते एवमाहंसु तं०-महा पुवाफरगुणी हत्थो चित्ता साती बिसाहा, अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पं० तं०-अणुराधा जेट्ठा मूले पुषासाठा उत्तरासादा अभियी For Parts Only अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं २० परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं २१ आरभ्यते ~ 356~ १० प्राभृते २१ प्राभृतप्राभृते नक्षत्रद्वाराणि सू ५९ ॥१७३॥ www.landbrary.org Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२१], -------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सवणे, धणिहादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० सं०-धणिवा सतभिसया पुधापोहचता उत्तरापोहबता रेवती अस्सिणी भरणी, कत्तियादीया सत्त णक्वत्ता उत्तरदारिया पं०, तंजहा कत्तिया रोहिणी संठा णा अहा पुणवस पुस्सो अस्सेसा । तत्थ ण जे ते एवमासु, ता धणिहादीया सस णक्खत्ता पुच्चदारिया पं० साते एवमासु, तंजहा-धणिट्ठा सत्तरिसया पुवामद्दवया उत्तराभवता रेवती अस्सिणी भरणी, कत्तिया-1 दीया सत्तणक्खत्ता दाहिणदारिया पं० संजहा-कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवसू पुस्सो अस्सेसा, महादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० तंजहा-महा पुषाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्यो चित्ता साती विसाहा, अणुराधादीया सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पं०२०-अणुराधा जेट्ठा मूलो पुवासाढा उत्तरासाढा अभीयी सवणो ॥ तत्व जे ते एवमासु, ता अस्सिणीआदीया सत्त णक्खत्ता पुषदारिया पण्णत्ता, एते एवमाहंसु, तंजहा-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवस , पुस्सादिया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता तं०-पुस्सा अस्सेसा महा पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हस्थो चित्ता, सादीयादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पं० तंजहा-साती विसाहा अणुराहा जेट्ठा मृलो पुवासादा उत्तरासाढा, II अभीयीआदि सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पं०, तं०-अभिई सवणो धणिट्ठा सतभिसया पुषभद्दवया उत्तरभदवया रेवती॥ तत्थ जे ते एवमासु ता भरणिआदीया सत्तणक्खत्ता पुखदारिया पं० ते एवमाहंसु, तंजहाभरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवसू पुस्सो, अस्सेसादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, RCMC-%A4%ste अनुक्रम [८६] ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२१], -------------------- मूलं [५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] सूर्यप्रज्ञ- तंजहा-अस्सेसा महा पुवाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता साई, विसाहादीया सत्त णक्खत्ता प्रच्छि-१०माभृते प्तिवृत्तिःमदारिया पं००-विसाहा अणुराहा जेट्ठा मूलो पुषासाढा उत्तरासाढा अभिई, सवणादीया सस णक्खन्ता २१माभृक्त(मल०) उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं०-सवणो धणिहा सतभिसया पुचापोहवया उत्तरपोडवया रेवती अस्मिणी, एते एव-श प्राभृते माहंसु, वयं पुण एवं वदामो ता अभिईयादि सत्त णक्खत्ता पुषदारिया पणत्ता, तं०-अभियी सवणो नक्षत्रद्वारा: णि सू ५९ धणिट्ठा सतभिसया पुषापोहचता उत्तरापोडवया रेवती, अस्सिणीमादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पं००-अस्सिणी भरणी कत्तिया रोहिणी संठाणा अद्दा पुणवसू, पुस्सादीया सत्त णक्वत्ता पछिटमदा-1 रिया पं० २०-पुस्सो अस्सेसा महा पुवाफग्गुणी उत्तरफग्गुणी हस्थो चित्ता, सातिआदीया सत्त णखत्ता उत्तरदारिया पं०, तं०-साती बिसाहा अणुराहा जेट्टा मूले पुषासाहा उत्सरासादा (सूत्रं ५९) दसमस्सटी पाहुडस्स एकवीसतितम पाहुडपाहुई समसं ॥ आता कहं ते जोइसदारा इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं केन प्रकारेण केन क्रमेणेत्यर्थः ज्योतिपो-नक्षत्रयकस्य द्वाराणि आख्यातानीति वदेत् १, एवमुक्के भगवानेतद्विषये यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपसयस्तावतीरुपदर्शयतिला ॥१७॥ 'तत्थे'त्यादि, तत्र-द्वारविचारविषये खस्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च परतीथिकानां प्रतिपत्तयः प्रज्ञसार, ता एवं कमे-म णाह-तस्थेगे'त्यादि, तत्र-तेषां पञ्चानां परतीथिकसाताना मध्ये एके एवमाहुः कृत्तिकादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वलद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि, इह येषु नक्षत्रेषु पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्रायः शुभमुपजायते तानि पूर्वद्वारकाणि, एवं वैक्षिणकाल अनुक्रम [८६] ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ५९ ] दीप अनुक्रम [८६] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) • प्राभृतप्राभृत [२१], मूलं [ ५९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः रकादीन्यपि वक्ष्यमाणानि भावनीयानि अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु, एके पुनरेवमाहुः - अनुराधादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञतानि, अत्राप्युपसंहारः- एगे एवमाहंसु, एवं शेषाण्यभ्युपसंहारवाक्यानि योजनीयानि, एके पुनरेवमाहुः- धनिष्ठादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, एके पुनरेवमाहुः- अश्विन्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञतानि, एके पुनरेवमाहुर्भरण्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि, सम्प्रत्येतेषामेव पञ्चानामपि मतानां भावनिकामाह - 'तत्थ जे ते एवमाहंस' इत्यादि सुगमं, भगवान् स्वमतमाह - 'वयं पुण' इत्यादि पाठसिंद्धम् । इति श्रीमलयगिरि विरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकविंशतितमं प्राभृतप्राभूतं समाप्तम् ॥ तदेवमुक्तं दशमस्य प्राभृतस्य एकविंशतितमं प्राभृतप्राभृतं सम्प्रति द्वाविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा 'नक्षत्राणां विचयो वक्तव्यः' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह 'ता कहं ते णक्खत्तविजये आहितेति वदेज्जा ?, ता अयण्णं जंबुद्दीवे २ जाब परिक्खेवेणं, ता जंबुद्दीये गं दीवे दो चंदा पभासेंसु वा पभाति वा पभासिस्संति वा दो सूरिया तर्विसु वा तवेति वा तविस्संति वा, छप्पण्णं णक्खत्ता जो जोसु वा ३, तंजहा- दो अभीयी दो सवा दो घणिट्ठा दो सतभिसया दो पुद्दापोहवता दो उत्तरापोढबता दो रेवती दो अस्सिणी दो भरणी दो कन्तिया दो रोहिणी दो संठाणा दो अदा हो पुण्वसू दो पुस्सा दो अस्सेसाओ दो महा दो पुवाफग्गुणी दो उत्तर फग्गुणी दो हत्था दो चित्ता दो साई अणुराधा दो जेठ्ठा दो मूला दो पुच्छासाढा दो उत्तरासाढा, ता एएसि णं छप्पण्णाए नक्खन्ताणं अस्थि णक्वता Education Internation For Parts On अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं २९ परिसमाप्तं अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं २२ आरभ्यते ~ 359~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [८७] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) - प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६०] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रशशिवृत्तिः ( मल० ) ॥१७५॥ जे णं णव मुहते सत्तावीसं च सत्तद्विभागे मुहुत्तस्स चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि नक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुसे चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, अस्थि णक्खता जेणंतीसमुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, अस्थि णक्खता जेणं पणयालीसं मुहुप्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खसे जे णं णवमुहते सत्तावीसं च सप्तसट्टिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोपंति, कतरे णक्खत्ता जेणं पत्ररसमुहले चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खता जेणं तीसं मुहत्ते चंदेणं सद्धिं जोयं जोएंति, कतरे णक्खत्ता जे णं पणतालीस मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सप्तद्विभागे मुहत्तस्स चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति ते णं दो अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं पण्णरस मुहुत्ते चंदे सद्धिं जोयं जोएंति ते णं वारस, तंजहा- दो सत भिसया दो भरणी दो अहा दो अस्सेसा दो साती दो जेठ्ठा, तत्थ जे णं तीसं मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोपंति ते णं तीसं, तंजहा- दो सबणा दो घणिट्ठा दो पुछभद्दवता दो रेवती दो अस्सिणी दो कत्तिया दो संठाणा दो पुस्सा दो महा दो पुवा फग्गुणी दो हत्था दो चिन्ता दो अणुराधा दो मूला दो पुबासादा, तत्थ जे ते णक्खता जेणं पणतालीसं मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोपंति ते णं बारस, तंजहा- दो उत्तरापोडवता दो रोहिणी दो पुणइस दो उत्तराफग्गुणी दो विसाहा दो उत्तरासादा, ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ते जेणं चत्तारि अहोरत्ते छन् मुहुत्ते सूरिएण सद्धिं जोयं जोएंति, अत्थि णक्खत्ता जेणं छ अहोरते एकवीसं च Educatin internation For Parts Only ~360~ १० प्राभृते २२ प्राभृत. प्राभृते नक्षत्रयोगा दि सू ६० ॥१७५॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६०] पीप 156845454545454545% मुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति, अस्थि णक्खत्ता जे णवीसं अहोरत्ते तिनि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कयरेणक्खत्ता जे गंतं चेव उच्चारेयई, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खसाणं तत्थ जे ते णक्वत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं दो अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं छ अहोरत्ते एकवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं वारस, तंजहा-दो सतभिसया दो अद्दा दो अस्सेसा दो सातीदो विसाहा दो जेट्ठा, तत्थ जे ते णखत्ता जेणं तेरस अहोरत्ते वारस मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति, ते णं तीसं, तंजहान्दो सवणा जाव दो पुष्वासाढा, तत्थ जे ते णक्खसा जे णं वीसं अहोरसे तिपिण य मुलुत्ते सूरेण जोयं जोएंति, ते णं पारस, तंजहा-दो उत्तरापोहबता जाव उत्तरासाढा (सूत्रं ६०)। । 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं !-केन 'नक्खत्तविजय'ति विपूर्वश्चिडू स्वभावात् स्वरूपनिर्णये वर्त्तते, तथा चोक्तमन्यत्र "आप्तवचनं प्रवचनं ज्ञात्वा विचयस्तदर्थनिर्णयनम् ।" तत्र विचयनं विषयो नक्षत्राणां विचयो नक्षत्रविचयः-नक्षत्राणां स्वरूपनिर्णय आख्यात इति वदेत् १, भगवानाह-ता अयण्ण'मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं कृत्वा परिभावनीयं, 'ता जंबुद्दीवे ण'मित्यादि, तत्र जम्बूद्वीपे णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते, द्वौ सूर्यो तापितवन्तौ तापयतस्तापयिष्यतः, षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि चन्द्रादिभिः सह योगमयुञ्जन् युञ्जन्ति योश्यन्ति, तत्र. तान्येव षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि दर्शयति-तंजहे'त्यादि BOSSABRE5 अनुक्रम [८७] ~361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल.) प्रत ॥१७६॥ सूत्राक [६०] सुगम, इह भरतक्षेत्रे प्रतिदिवसमष्टाविंशतिरेक नक्षत्राणि चारं चरन्ति, ततः पूर्वमस्य दशमस्य प्राभृतस्य द्वितीये प्राभू- १०प्राभूते तप्राभृतेऽष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिमाणं चिन्तितं, सम्पति पुनः सकलमेव जम्बूद्वीपमधिकृत्य २२ प्राभूतनक्षत्राणि चिन्त्यमानानि वर्तन्ते, तानि च सर्वसङ्ख्यया षट्पञ्चाशत् , ततस्तेषां सर्वेषामपि चन्द्रसूर्याभ्यां सह योगमधिकृत्य प्राभृते मुहर्तपरिमाणं चिचिन्तयिषुरिदमाह-ता एएसि ण'मित्यादि, एतच्च प्रागुकद्वितीयप्राभृतप्राभृतवत्परिभावनीयम् नक्षत्रसीमातदेवं कालमधिकृत्य चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिमाणं चिन्तित, सम्पति क्षेत्रमधिकृत्य तचिचिन्तयिषुः प्रथमतः वकभावि सीमाविष्कम्भविषयं प्रश्नसूत्रमाह सू६१-१२ - ता कहं ते सीमाविक्खंभे आहितेति वदेज्जा', ता एतेसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं अत्थि णक्खत्ता जेसि णं छसया तीसा सत्तहिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो, अस्थि णक्वत्ता जेसि णं सहस्सं पंचोसरं सत्तसहिभागतीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो, अत्थि णक्खत्ता जेसिणं दो सहस्सा दसुत्सरा सत्तविभाग तीसतिभागाणं सीमाविक्खंभो, अस्थि णक्खत्ता जेसि गं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं सत्ससहिभागतीसतीभागाणं सीमाविक्खंभो, ता एतेसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कतरे णक्खत्ता जेसिणं छसया तीसा तं चेवन उचारेतर्ष, ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कयरेणक्खत्ता जेसिणं तिसहस्सं पंचदमुत्तरं सससट्ठिभाग-1 ॥१७६॥ तीसइभागाणं सीमाविक्खंभो,ता एतेसिणं छप्पण्णाए णक्वत्ता णं तत्थ जे ते णवत्ता जेसिणंछ सला| तीसा सत्तद्विभागतीसतिभागेणं सीमाविक्खंभो ते णं दो अभीयी, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं सहस्सं पंचु टीप अनुक्रम [८७]] ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [८८-८९] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६१-६२] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः तरं सप्तसट्टिभागती सतिभागाणं सीमाविक्खंभो ते णं बारस, तंजहा- दो सतभिसया जाब दो जेट्ठा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तद्विभागतीसतिभागाणं सीमाविवखंभो ते णं तीसं, सं०-दो सबणा जाव दो पुष्वासाढा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं तिष्णि सहस्सा पण्णरसुत्तरा सत्तट्ठिभागती सतिभागाणं सीमाधिक्लंभो ते णं बारस, तं०-दो उतरा पोडवता जाब उत्तरासादा वा (सूत्रं ६१ ) एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सता पादो चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, ता एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खताणं किं सया सायं चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति?, एतेसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सया दुहा पविसिय २ चंद्रेण सद्धिं जोयं जोपंति ?, ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं न किंपि तं जं सया पादो चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, नो सया सागं चंदेण सद्धिं जोयं जोएंति, नो सया दुहओ पविसित्ता २ चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति, णण्णत्थ दोहिं अभीयीहिं, ता एतेणं दो अभीयी पायंचिय २ चोत्तालीसं २ अमावासं जोएंति, णो चेव णं पुण्णिमा सिणिं (सूत्रं ६२ ) । 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं १-केन प्रकारेण कियत्या विभागसङ्ख्यया इत्यर्थः, भगवन् ! त्वया सीमाविष्कम्भ आख्यात इति वदेत्, भगवानाह 'ता एएसि णमित्यादि, इहाष्टाविंशत्या नक्षत्रैः स्वगत्या स्वस्वकालपरिमाणेन क्रमशो यावत् क्षेत्रं बुद्ध्या व्याप्यमानं सम्भाव्यते तावदेकमर्द्ध मण्डलमुपकल्प्यते एतावत्प्रमाणमेव द्वितीयमर्घमण्डलमित्येवंप्रमाणं बुद्धिपरिकल्पितमेकं परिपूर्णमण्डलं, तस्य मण्डलस्य 'मण्डलं सयसहस्त्रेण अडाणउए सएहिं छिचा इच्चेस Educatin internationa For PanalPrata Use Only ~ 363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [८८-८९] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६१-६२] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः १० प्राभृते प्राभृते नक्षत्रसीमा ॥९७७॥ सू ६१-६२ सूर्यप्रज्ञ- नक्खत्ते खेत्तपरिभागे नक्खत्तविजए पाहुडे आहियत्तिवेमि' इति वक्ष्यमाणवचनात् अष्टानवतिशताधिकशतसहस्रविसिवृत्तिः भागैर्विभज्यते, किमेवंसयानां भागानां कल्पने निबन्धनमिति चेत्, उच्यते, इह त्रिविधानि नक्षत्राणि, तद्यथा- समक्षे- ४ २२ प्रा भूत( मल० ) *त्राणि अर्द्धक्षेत्राणि यर्द्धक्षेत्राणि च तत्र यावत्प्रमाणं क्षेत्रमहोरात्रेण गम्यते नक्षत्रैस्तावत् क्षेत्रप्रमाणं चन्द्रेण सह योगं यानि ॐ गच्छति तानि समक्षेत्राणि तानि च पञ्चदश, तद्यथा-श्रवणो घनिष्ठा पूर्वभद्रपदा रेवती अश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मघा पूर्वफाल्गुनी हस्तः चित्राऽनुराधा मूलः पूर्वाषाढा इति, तथा यानि अहोरात्रप्रमितस्य क्षेत्रस्यार्द्धं चन्द्रेण सह योगमश्नुवते तान्यर्द्धक्षेत्राणि तानि च पटू, तद्यथा - शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वातिर्ज्येष्ठेति, तथा द्वितीयमधैं यस्य तत् द्व्यर्द्ध, मार्धमित्यर्थः, द्व्यर्द्धमधिकं क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं चन्द्रयोगयोग्यं येषां तानि यर्द्धक्षेत्राणि, ताम्यपि षट्, तद्यथा-उत्तरभद्रपदा उत्तरफाल्गुनी उत्तराषाढा रोहिणी पुनर्वसु विशाखा चेति, तत्र सीमापरिमाणचिन्तायामहोरात्रः सप्तषष्टिभागीक्रियते इति समक्षेत्राणां क्षेत्रं प्रत्येकं सप्तषष्टिभागाः परिकल्प्यन्ते, अर्द्धक्षेत्राणां त्रयस्त्रिंशत् अर्द्ध च, पर्द्धक्षेत्राणां शतमेकमर्द्ध व, अभिजिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, समक्षेत्राणि च नक्षत्राणि पञ्चदशेति सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातं सहस्रं पश्चोत्तरं १००५, अर्द्धक्षेत्राणि पडिति ततः सार्द्धा त्रयस्त्रिंशत् पङ्गिर्गुण्यते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, घर्द्धक्षेत्राण्यपि पटू, ततः शतमेकमर्द्ध च पङ्गिस्ताच्यते, जातानि षट् शतानि त्र्युत्तराणि ६०३, अभि जिन्नक्षत्रस्य एकविंशतिः, सर्वसङ्ख्यया जातानि अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावद्भागपरिमाणमेकमर्द्धमण्डलमेतावद्भागमेव द्वितीयमिति त्रिंशदधिकाम्यष्टादश शतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि षटूत्रिंशच्छतानि षष्यधि Education Internation For Parts Only ~364~ ॥ १७७॥ arra Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [८८-८९] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६१-६२] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Educator कानि १६६०, एकैकस्मिनहोरात्रे किल त्रिंशन्मुहर्त्ता इति प्रत्येकमेतेषु षष्ट्यधिकपत्रिंशच्छतसत्येषु भागेषु त्रिंशद्भागकल्पनायां त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि १०९८००, तव इत्थं मण्डलस्य भागान् परिकल्प्य भगवान् प्रतिवचनं ददाति- 'ता' इति तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्येऽस्तीति निपातत्वादार्थत्वाद्वा स्तस्ते नक्षत्रे ययोः प्रत्येकं पट् शतानि त्रिंशानि - त्रिंशदधिकानि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः सीमापरिमाणं, तथाऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं पशोत्तरं सहस्रं सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः सन्ति तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं द्वे सहस्रे दशोत्तरे सप्तषष्टित्रिंशभागानां सीमाविष्कम्भः सन्ति तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, एवं भगवता सामान्येनोके भगवान् गौतमो विशेषावगमनिमित्तं भूयः प्रश्नयति-'ता एएसि णमित्यादि, तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये कतराणि तानि नक्षत्राणि येषां पट् शतानि त्रिंशानि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः, 'तं चैव उच्चारेय'ति तदेवानन्तरोक्तमुक्तप्रकारेणोच्चारयितव्यं तद्यथा- 'कयरे नक्खता जेसिं सहस्सं पंचोत्तरं सप्तट्टिभागतीसहभागाणं सीमाविक्खंभो कयरे नक्खत्ता जेसिं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तट्टिभागा तीसइभागाणं सीमाविक्खंभो' इति, चरमं तु सूत्रं साक्षादाह'कयरे नक्खत्ता' इत्यादि, एतानि त्रीण्यपि सूत्राणि सुगमानि (च), भगवानाह - 'ता एएसि णमित्यादि, तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां षट् शतानि त्रिंशानि सप्तषष्टिभाग त्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः ते द्वे अभिजिनक्षत्रे, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह एकैकस्याभिजितो नक्षत्रस्य सप्तषष्टि For Parts Only ~ 365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [८८-८९] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६१-६२] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥१७८॥ खण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्का एकविंशतिर्भागाश्चन्द्रयोगयोग्याः, एकैकस्मिंश्च भागे त्रिंशङ्गागपरिकल्पनादेकविंशतिस्त्रिंशता गुण्यते, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तथा तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं पश्चोत्तरं सहस्रं सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः तानि द्वादश, तद्यथा-द्वे शतभिषजी 'जाब दो जेट्ठाउ'ति यावच्छब्दकरणादेवं द्रष्टव्यं-दो भरणीओ दो अदाओ दो अस्सेसाओ दो साईओ दो जेठाओ' इति, तथाहि एतेषां द्वादशानामपि नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काः सार्द्धाखयस्त्रिंशद्भागाश्चन्द्र योगे योग्यास्ततस्त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुण्यते जातानि नव शताति नवत्यधिकानि ९९०, अर्द्धस्थापि च त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां भागे हृते लब्धाः पञ्चदश १५, सर्वसाया जातं पश्चोत्तरं सहस्रं १००५, तथा तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां द्वे सहने दशोत्तरे सप्तषष्टिभागन्त्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भस्तानि त्रिंशत्, तद्यथा- द्वौ श्रवणी 'जाथ दो पुच्छासाडा' इति यावच्छन्दादेवं पाठो द्रष्टव्य:-'दो घणिट्ठा दो पुषभश्वया दो रेवई दो अस्सिणी दो कत्तिया दो मिगसिरा दो पुस्सा दो मघा दो पुवफग्गुणीओ दो इत्था दो चित्ता दो अणुराहा दो मूला दो प्रवासाढा' इति, तथाहि - एतानि नक्षत्राणि समक्षेत्राणि, तत एतेषां सप्तषष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काः परिपूर्णाः सप्तषष्टिभागाः प्रत्येकं चन्द्रयोगयोग्याः, तेन सप्तषष्टिस्त्रिंशता गुण्यते, जाते द्वे सहसे दशोत्तरे इति, तथा तत्रतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि येषां प्रत्येकं त्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि सप्तषष्टित्रिंशद्धागानां सीमाविष्कम्भस्तानि द्वादश, तद्यथा द्वे उत्तरे प्रोष्ठपदे 'जाब दो उत्तरासादा' इति यावच्छन्दकरणादेव Education International For Pasta Use Only ~366~ १० प्राभूते २२ प्राभृतप्राभूते नक्षत्रसीमाविष्कंभादि ६१-१२ ॥ १७८ ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ----- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२ द्रष्टव्यं 'दो रोहिणी दो पुणबसू दो उत्तरफग्गुणी दो विसाहा दो उत्तरासादा' इति, एतानि. हि नक्षत्राणि क्षेत्राणि! ततः सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सत्काश्चन्द्रयोगयोग्या भागाः शतमेकमर्थं च प्रत्येकमवगन्तव्याः, तत्र शतं त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रीणि सहस्राणि, अर्द्धमपि त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां विभज्यते लब्धाः पञ्चदशेति । 'ना एएसि ण'मित्यादि, ता इति तत्र तेषां षट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये किं नक्षत्रं यत् सदा प्रातरेव चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति ,किं नक्षत्रं यत्सदा सायं-दिवसावसानसमये चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, किं तन्नक्षत्रं यत्सदा द्विधा-प्रातः सायं च समये प्रविश्य २ चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, भगवानाह-ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र एतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये न किमपि तन्नक्षत्रमस्ति यत्सदा प्रातरेव चन्द्रेण सार्द्ध योग युनक्ति, किं सर्वथा नेत्याह-'नसत्धेत्यादि. नेति प्रतिषेधोऽन्यत्र द्वाभ्यामभिजिद्भ्यामवसेयः, कस्मादित्याह-ता एएसि ण'मित्यादि ता इति तत्र-तेषां षट्पश्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये एते-अनन्तरोदिते द्वे अभिजितौ-अभिजिन्नक्षत्रे युगे युगे प्रातरेव पातरेव चतुश्चत्वारिंशत्तमाममा-४ वास्यां चन्द्रेण सह योगमुपगम्य युकः-परिसमापयतः, नो चैव पौर्णमासी, अथ कथमेतदवसीयते, यथा युगे युगे चतुश्चत्वारिंशत्तमा २ ममावास्यां सदैव प्रातः समये अभिजिन्नक्षत्रं चन्द्रेण साई योगमुपागम्य परिसमापयतीति , उच्यते, पूर्वाचार्योपदर्शितकरणवशात् , तथाहि-तिथ्यानयनार्थं तावत्करणमिदं-'तिहिरासिमेव बावहिभाझ्या सेसमेगसद्विगुणणं| च । बावडीऍ विभत्तं सेसा अंसा तिहिसमती॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका ये युगमध्ये चन्द्रमासा अतिक्रान्तास्ते तिथिराश्यानयनाथै त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तस्य राशेर्भागो द्वापया हियते, हृते च भागे यदवतिष्ठते तस्मिन्नेकपध्या दीप अनुक्रम [८८-८९] SAREauratoninternational ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ----- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२] दीप अनुक्रम [८८-८९] गुणयित्वा द्वाषया विभक्के ये अंशा उद्धरन्ति सा विवक्षिते दिने विवक्षिततिथिपरिसमाप्तिः, ततश्चतुश्चत्वारिंशत्तमाया-II तिवृत्तिः ममावास्यायां चिन्त्यमानायां विचत्वारिंशचन्द्रमासा एकं च चन्द्रमासस्य पर्वावाप्यते, ततखिचत्वारिंशत्रिंशता गुण्यन्ते, २२ ग्राभूत ( माजातानि द्वादश शतानि नवत्यधिकानि १२९०, तत उपरितनाः पर्वगताः पञ्चदश प्रक्षिष्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि Bा प्राभृते ॥१७९॥ पश्चोत्तराणि १३०५, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते लब्धा एकविंशतिः, सा त्यज्यते, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, ते एकपट्या गुण्य-नक्षत्रसीमान्ते, जातं ज्यशीत्यधिकं शतं १८३, तस्य द्वापट्या भागे हते लब्धौ द्वौ, तो त्यक्ती, शेषा तिष्ठत्येकोनषष्टिः ५९, आग- विष्कभादि तमेकोनषष्टिापष्टिभागास्तस्मिन् दिनेऽमावास्या । अमावास्यासु पौर्णमासीषु च नक्षत्रानयनाथै प्रागुक्कमेव करणं, तत्र ६१-६२ ध्रुवराशिः, षट्पष्टिमुंहतों एकस्य च मुहर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः १६ तन्त्र चतुश्चत्वारिंशत्तमा अमावास्या चिन्तयितुमारब्धा, ततश्चतुश्चत्वारिंशता स गुण्यते, जातानि मुहत्तोंनामेकोनत्रिंशपछतानि चतुरुत्तराणि २९०४ एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागानां दे शते विंशत्यधिके २२० एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः तत्र पुनर्वसुप्रभृतिकमुत्तराषाढापर्यन्तं चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि मुदतों-- नामेकस्य च मुहूर्तस्य पट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः ४४२४३ इत्येवंप्रमाणे शोध्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विशतिः शतानि द्वापश्यधिकानि २४६२ एकस्य च मुहूत्तस्य चतुःसप्तत्यधिकं शतं द्वापष्टिभागानां १७४, ततोऽभिजिदादिसक लनक्षत्रमण्डलशोधनकमष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागा एकस्य चद्वापप्राष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागाः ८१९ । २४ । ६६ इत्येवंप्रमाणं यावत्सम्भवं शोधनीय, तत्र त्रिगुणमपि शुद्धिमासा-5॥१७९।। S+ -AC+ SARERatininemarana ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ----- मूलं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१-६२ दीप अनुक्रम [८८-८९] दयतीति त्रिगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थिताः पश्चात् षण्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः ६।३७ । ४७ । आगतं चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्थायामभिजिन्नक्षत्रं षट्सु मुहू-18 तेषु सप्तमस्य च मुहूर्तस्य सक्षत्रिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु परिसमापयति । सम्प्रत्यमावास्यापौर्णमासीप्रक्रमादेव तत्प्ररूपणां चिकीर्षुरिदमाह तत्थ खलु इमाओ वावहिं पुणिमासिणीओ पावहि अमावासाओ पण्णत्ताओ, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम पुण्णिमासिणि चंद किंसि देसंसि जोएइ, ताजंसिणं देसंसि चंदे चरिमं बावहि पुण्णिमासिणि जोएति ताए तेणं पुण्णिमासिणिहाणातो मंडलं चउच्चीसेणं सतेणं छेत्ता दुषत्तीसं भागे उवातिणावित्ता एस्थ णं से चंदे पढमं पुण्णिमासिणि जोएति, ता एएसिणं पंचहं संवच्छराणं दो पुण्णिमासिणि चंदे कसि देसंसि जोएति, ताजंसि गं देसंसि चंदे पदम पुणिमासिणि जोएति, ता तेणं पुषिणमासिणिढाणातो मंडलं चउवीसेणं सतेणं छत्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दोचं पुण्णिमासिणि जोएति, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएति ?, ता जंसिणं देसंसि चंदो हैदोचं पुषिणमासिणि जोएति, ताते पुण्णिमासिणीठाणातो मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता दुबत्तीसं भागे| उवाइणावेत्ता, एत्य णं तचं चंदे पुषिणमासिणि जोएति, ता एतेणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुषिणमा-1 सिणि चंदे कसि देसंसि जोएंति ?, ता जंसि णं देसंसि चंदे तचं पुषिणमासिणि जोएति, ताते पुषिणमा ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [६३] सूर्यप्रज्ञ सिणिवाणाते मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता दोणि अट्ठासीतेभागसते उवायिणावेत्ता एत्थ णं से चंदे दुधा- १०माभृते. प्तिवृत्तिः लसमं पुण्णिमासिणि जोएति, एवं खलु एतेणुवाएर्ण ताते २ पुण्णिमासिणिहाणाते मंडलं चवीसेणं स- २२माभूत (मल तेणं छेत्ता दुबत्तीसंभागे उपातिणावेत्ता तंसि २ देसंसि तं तं पुण्णिमासिणि चंदे जोएति, ता एतेसि प्राभूते पंचण्हं संवच्छराणं चरमं वावडिं पुणिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएति , ताजयुद्धीवस्स णं २ पाईण- पूर्णिमा ॥१८॥ वास्या पडिणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउधीसेणं सतेणं छेत्ता दाहिणिलंसि चउभागमंडलंसि सू६३ सत्तावीसं चउभागे उपायणावेत्ता अट्ठावीसतिभागे वीसहा छेत्ता अट्ठारसभागे उवातिणावेसा तिहिं| भागेहिं दोहि य कलाहिं पञ्चस्थिमिलं चउभागमंडलं असंपत्ते एस्थ णं चंदे चरिमं चावहि पुण्णिमासिणिं जोएति (सूत्र ६३) 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र युगे खलु इमा-वक्ष्यमाणस्वरूपा द्वापष्टिः पौर्णमास्यो द्वापष्टिरमावास्याः प्रज्ञप्ता, एवमुक्के भगवान् गीतमः पृच्छति-'ता'इति तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौणेमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-परिसमापयति !, भगवानाह-'ता जंसि ण' मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे चन्द्रश्च रमा पाश्चात्ययुगपर्यन्तवर्तिनी द्वापष्टितमा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति तस्मात् पूर्णमासीस्थानात्-चरमद्वापष्टित-II | ॥१८॥ Xमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्वा-विभज्य तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागांच उपादाय-गृहीत्वा अत्र द्वात्रिंशद्भागरूपे देशे चन्द्रः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति, भूयः प्रभं करोति, 'ता अनुक्रम [९०] M ~370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३] दीप पएमिणमित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये या द्वितीया पौर्णमासी त चन्द्रः कस्मिन् देशे परिसमापयति !, भगवानाह--'ता सि 'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे चन्द्रः प्रथमा पौर्णमासी युनक्ति-परिसमापयति तस्मात्पूर्णमासीस्थानात्-प्रथमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागानुपादायात्र प्रदेशे चन्द्रो द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति, एवं तृतीयपौर्ण-४ दमासीविषयमपि सूत्र व्याख्येयम्, एवं द्वादशपौर्णमासीविषयमपि, नवरं 'दोण्णि अट्ठासीए भागसए'त्ति तृती यस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी भवति, ततो नवभित्रिंशतो गुणने द्वे शते अष्टाशीत्यधिक भवतः २८८, सम्प्रत्यतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेना। यां यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्ततोऽनन्तरां पौर्णमासी तस्मात्पाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा परतस्तद्गतान् द्वात्रिंशतं द्वात्रिंशतं भागानुपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे चन्द्रः परिसमापयति, स चैवं परिसमापयन् तावद्वेदितव्यो यावद् भूयोऽपि चरमां द्वापष्टिं पौर्ण-15 मासी तस्मिन् देशे परिसमापयति यस्मिन् देशे पाश्चात्ये युगे चरमां द्वापष्टिं पौर्णमासी परिसमापितवान्, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, गणितक्रमवशात्, तथाहि-पाश्चात्ययुगचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतप्रविभक्तस्य सत्कानां द्वात्रिंशतो भागानामतिक्रमे तस्यास्तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, द्वापष्टिश्च सर्वसङ्ख्यया युगे पौर्णमास्यः, ततो द्वात्रिंशत् द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकोनविंशत्यधिकानि चतुरशीत्यधिकानि अनुक्रम [९०] ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ६३ ] दीप अनुक्रम [30] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [ ६३ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल०) ॥१८२॥ १९८४, तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः षोडश सकलमण्डल परावर्त्ताः समस्तस्यापि च राज्ञेनिलेंपीभवनादागतं यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसम्बन्धि चरमद्वाषष्टितमपौर्णमासी परिसमाप्तिः, चरमद्वाषष्टितमपरिसमाप्तिदेशं पृच्छति 'ता एएसि ण' मित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये चरमां द्वाष्टितमां पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-परिसमापयति १, भगवानाह - 'जंबुद्दीवरस णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, जम्बूद्वीपस्य णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपस्योपरि प्राचीनापाचीनायतया, इह प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वा गृह्यते, अपाचीनग्रहणेन दक्षिणापरा, ततोऽयमर्थः- पूर्वोत्तरदक्षिणापरायतया, एवमुदीचिदक्षिणायतया - पूर्वदक्षिणोत्तरापरायतया जीवया४ प्रत्यचया दवरिकया इत्यर्थः, मण्डलं चतुविशेन चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्वा विभज्य भूयश्चतुर्भिर्विभज्यते, ततो दाक्षिणात्ये चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिधा छित्त्वा तद्गतानष्टादश भागानुपादाय शेषैस्त्रिभिर्भागैश्चतुर्थस्य भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां पाश्चात्यं चतुर्भागमण्डलमसम्प्राप्तः, अस्मिन् प्रदेशे चन्द्रो द्वाषष्टितमां चरमां पौर्णमासी परिसमापयति । तदेवं चन्द्रस्य पौर्णमासी परिसमाप्तिदेश उक्तः, सम्प्रति सूर्यस्य पौर्णमासी परिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-- 1 ता एएसिणं पंच बच्छराणं पढमं पुण्णिमा सिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएति ?, ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बावहिं पुष्णिमासिणि जोपति ताते पुणिमा सिणिट्ठाणातो मंडलं चउडीसेणं सतेणं छेत्ता चरणवर्ति भागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सूरिए पढमं पुष्णिमासिणि जोएइ, ता एएसि णं पंचहं संवच्छ Educatin internation For Penal Use Only ~372~ २१० प्राभृते २२ प्राभृत प्राभृते पूर्णिमामावास्याः सू ६३ ॥ १८१॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ------ मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] दीप अनुक्रम [९१-९३] राणं वोचं पुण्णिमासिणि सूरे कसि देसंसिजोएति?, ता जंसिणं देससि मुरे पढमं पुण्णिमासिणि जोएइताए पुण्णिमासिणीठाणाओ मंडलं'चउवीसं सएण छेत्ता दो चउणवहभागे उवाइणावित्ता एस्थ णं से सूरे दोचं हूँ पुषणमासिणि जोएइ, ता एएसिणं पंचण्हं संघच्छराणं तच्चं पुषिणमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोएइ, ता जसिणं देसंसि सूरे दोचं पुषिणमासिणि जोएति ताते पुण्णिमासिणिहाणाते मंडलं चउच्चीसं सतेणं छेसा चउ Kणउतिभागे उवातिणावेत्ता एत्थ णं से सुरे तच्च पुण्णिमासिणि जोएति. ता एतेसिणं पंचण्ई संबच्छराणं दुवालसं पुषिणमासिणि० जोएति, ताते पुणिमासिणिहाणाते मंडलं चउद्दीसेणं सतेणं छेत्ता अट्टछत्ता|ले भागसते ज्वाइणावेत्ता, एस्थ णं से सूरे दुवालसमं पुषिणमासिणि जोएति, एवं खलु एतेणुवाएणं ताते २ पुषिणमासिणिहाणाते मंडलं चवीसेणं सतेण छेत्ता चउणउतिं २ भागे उवातिणावेत्ता तसिणं २ देसंसि तं तं पुण्णिमासिणि सूरे जोएति, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बावद्धिं पुण्णिमासिणि सूरे कसि देसंसि जोएतिी,ताजंबुहीवरसणं पाईणपडिणीयताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउच्चीसेणंसएणं छेसा पुरच्छिमिसि चउभागमंडलंसि ससाथीसं भागे उवातिणावेत्ता अट्ठावीसतिभागं वीसधा छेत्ता अट्टार सभागेउवादिणावेत्ता तिहिं भागेहि दोहिय कलाहिं दाहिणिल्लं चउभागमंडलं असंपत्ते एत्थणं सूरे चरिमं बावर्डि ४ पुषिणमं जोएति (सूत्रं ६४)।ता एएसिणंपंचण्ह संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएति ?, हैता जंसि णं देसंसि चंदे चरिमयावहिं अमावासं जोएति ताते अमावासहाणाते मंडलं चउवीसेणं सतेणं, ~373~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ------ मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] सूर्यप्रज्ञ- छेसा दुषत्तीसं भागे उवादिणावेत्ता एत्थणं से चंदे पढम अमावासं जोएति, एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्स १० प्राभृते प्तिवृत्तिः पुणिमासिणिओ तेणेव अभिलावेणं अमावासाओ भणितवाओ बीइया ततिया दुवालसमी, एवं खलु २२प्राभृत(मल)लाएतेणुवाएणं ताते २ अमावासाठाणाते मंडलं चउघीसेणं सतेणं छेत्ता दुवीसं २ भागे उवादिणावेत्ता तंसि प्राभृते २ देसंसि तं तं अमावासं चंदेण जोएति, ता एतेसि णं पंचण्डं संवच्छराणं चरम अमावासं चंदे कंसिर पूर्णिमामा॥१८॥ वास्याः देसंसि जोएति ?, ता जंसिणं देसंसि चंदे चरिमं बावहि पुण्णिमासिणि जोएति, ताते पुषिणमासिणिट्ठाणाए| सू६४& मंडलं चउधीसेणं सतेणं छत्तीसोलसभागे उक्कोवइत्ता एस्थ गं से चंदे चरिमं वायट्टि अमावासं जोएति ६५-६६ (सूत्रं ६५)ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं सूरे कंसि देसंसि जोएति , ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बावढि अमावासं जोएति ता ते अमावासट्ठाणाते मंडलं चउचीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउतिभागे उवा-४ |यिणावेत्ता एत्थ णं से सूरे पढम अमावासं जोएति, एवं जेणेव अभिलावेणं सूरियस्स पुण्णिमासिणीओ तेणेव अमावासाओवि, तंजहा-बिदिया तइया दुवालसमी, एवं खलु एतेणुवाएणं ताते अमावासहाणाते मंडलं चवीसेणं सतेणं छेत्ता चउणउति २ भागे उवायिणावेत्ता ता जसिणं देसंसि सूरे चरिमं बावर्हि अमावास जोएति ताते पुणिमासिणिहाणाते मंडलं चचीसेणं सतेणं छेत्ता सत्तालीसंभागे उक्कोवइत्सा एत्थ णं से सूरे | ॥१८२॥ चरिमं बावढि अमावासं जोएति (सूत्रं १६)॥ 'ता एएसिणे'मित्यादि, ता इति-तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् | दीप अनुक्रम [९१-९३] AKA4%% awralumitaram.org ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ----- मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] दीप अनुक्रम [९१-९३] र देशे स्थितः सन युनक्ति-परिसमापयति !, भगवानाह-ता जंसि णमित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यश्च-1X रमां-पाश्चात्ययुगवर्तिनी द्वापष्टितमां पौर्णमासी युनक्ति--परिसमापयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात्-वरमद्वाषष्टितमपीबर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य तद्गतान् चतुर्नवति। भागान् उपादाय सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, किमत्र कारणमिति चेत्, उच्यते, इह परिपूर्णेषु त्रिंशदहोरात्रेषु परिसमाप्तेषु सत्सु स एव सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे वर्तमान प्राप्यते, न कतिपयभागन्यूनेषु, पौर्णमासी च चन्द्रमास-12 पर्यन्ते परिसमाप्तिमुपैति, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशद् द्वापष्टिभागास्ततविंशत्तमेऽहोरात्रे द्वात्रिंशति द्वापष्टिभागेषु गतेषु सूर्यश्चरमद्वाषष्टितमात् पौर्णमासीपरिसमाप्ठिनिबन्धनात् स्थानात | चतुर्नवती चतुर्विशत्यधिकशतभागेष्वतिकान्तेषु प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयन्नवाप्यते, किमुक्तं भवति ।-त्रिंशता भागस्तमेव देशमप्राप्तः सन्नवाप्यते इति, त्रिंशतो द्वापष्टिभागानामहोरात्रसत्कानामधापि स्थितत्वात्, भूयः प्रश्नयति-ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति तत्र युगे एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये द्वितीयां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् देशे स्थितः सन् युक्ति-परिसमापयति ।, भगवामाह-'ता जंसि ण'मित्यादि, ता इति तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः प्रथमा पौर्णमासी परिसमापयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात्-प्रथमात् पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्वा तद्गतान चतुर्नवतिभागान् उपादाय अन्न देशे स्थितः सन् सूर्यो द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति एवं तृतीयपौर्णमासीविषयमपि सूत्रं कर्त्तव्यं, एवं द्वादशपौर्णमासीविषयमपि, नवरं 'अहछत्ताले भाग BAR ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ------ मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक [६४-६६] ॥१८॥ सए'त्ति तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी, ततश्चतुर्नवतिर्नवभिर्गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि १० प्राभूतेषट्चत्वारिंशदधिकानि ८४६, सम्प्रति शेषपौर्णमासीविषयमतिदेशमाह-एवं खलु'इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खलु-४२२प्राभूत निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन यां यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्तां तामनन्तरा-II प्राभूते मनन्तरां पौर्णमासी तस्मात् तस्मात् पाश्चात्यपाश्चात्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन | |पूर्णिमामा|शतेन छित्वा परतस्तद्गतान चतुर्नवतिभागानुपादाय तस्मिन् तस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यः परिसमापयति, स चैवं, बास्याः |परिसमापयन् तायडू वेदितव्यों यावत् भूयोऽपि चरमा द्वापष्टि-द्वापष्टितमा पौर्णमासी तस्मिन् देशे परिसमापयति | यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसम्बन्धिी घरमां द्वाषष्टितमा पौर्णमासी परिसमापितवान, एतधावसीयते गणितक्रमवशात्, तथाहि पाश्चात्ययुगचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात् परतो मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशत-13 प्रविभक्तस्य सरकानां चतुर्नवतिचतुर्नवतिभागानामतिक्रमे तस्याः तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, ततश्चतुर्नवतिद्वषिष्या गुण्यते, जातान्यष्टापश्चाशच्छतानि अष्टाविंशत्यधिकानि ५८२८, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः | सप्तचत्वारिंशत्सकलमण्डलपरावर्ताः, न च तैः प्रयोजनं, केवलं राशेनिलपीभवनादागतं यस्मिन् देशे स्थितः सन् पाश्चात्ययुगसम्बन्धिचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमापकस्तस्मिन्नेव देशे विवक्षितस्यापि युगस्य चरमा द्वाषष्टितमा पौर्णमासी X ॥१८॥ परिसमापयतीति, सम्प्रति चरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पृच्छति-ता एएसि 'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता जंबुदीवस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य प्राचीनापाचीनायतया ta दीप अनुक्रम [९१-९३] ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ------ मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] 45%ॐॐॐ दीप अनुक्रम [९१-९३] अत्रापि प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वा दिक् गृह्यते अपाचीनग्रहणेन दक्षिणापरा, ततोऽयमर्थः-उत्तरपूर्वदक्षिणापरायतया एवमुदीच्यदक्षिणायतया-उत्तरापरदक्षिणपूर्वायतया जीवया-दवरिकया मण्डल चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्य भूयश्चतुभिर्भक्त्वा 'पुरस्थिमिल्लसित्ति पूर्वदिग्पत्तिनि चतुभागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिधा छित्त्वा तद्गतानष्टादश भागानुपादाय शेषैत्रिभिर्भागेश्चतुर्थस्य च भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां लाविंशतितमाभ्यामित्यर्थः दाक्षिणात्य व चतुर्भागमण्डलमसंप्राप्तः सन् तत्र प्रदेशे स सूर्यश्वरमां द्वापष्टिं-द्वापष्टितमां पौर्ण-15 मासी परिसमापयति । तदेवं सूर्याचन्द्रमसोः पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश उक्तः, सम्पति तयोरेवामावास्यापरिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः चन्द्रविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चाना संवत्सराणां मध्ये प्रथमाममावास्यां चन्द्रः कस्मिन् देशे स्थितः परिसमापयति , भगवानाह–ता जंसिण'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् चन्द्रश्चरमां द्वापष्टि-द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, ततोऽमावास्यास्थानाद्-अमावास्यापरिसमाप्तिस्थानात्परतो मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा तद्गतान् द्वात्रिंशतं भागान् उपादायात्र प्रदेशे स चन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति एवं मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण येनैवाभिलपिन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणितास्तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि भणितव्याः, तद्यथा-द्वितीया तृतीया द्वादशी च, ताश्चैवम्-'ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं दो अमावासं चंदे कसि देसंमि जोएइ ?, ता जसिणं देसंसि चंदे पदम अमावासं जोएइ ताओ णं अमावासहाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता दुबत्तीसभागे उवायिणावेत्ता एत्थ णं से चंदे दोचं अमावासं जोपद, ता एएसि ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६४-६६ ] दीप अनुक्रम [९१-९३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [६४-६६] प्राभृत [१०], प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ १८४ ॥ सूर्यप्रज्ञणं पंचण्डं संवच्छराणं तचं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ १, ता जंसि णं देसंसि चंदे दोचं अमावासं जोएइ ताओ सिवृत्तिः अमावासद्वाणाओ मंडलं चउबीसएणं सरणं छित्ता दुबत्तीसं भागे उवाइणावेचा एत्थ णं से चंदे तच्चं अमावासं जोएइ, ( मल० ) ता एएसि णं पंचण्डं संवछराणं दुवालसमं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ १, ता जंसि णं देसंसि चंदे तच्चं अमाअमावासडाणाओ मंडलं चडवीसेणं सरणं छेत्ता दोन्नि अहासीए भागसए उवाइणावेत्ता एत्थ णं वासं जोएइ ताओ चंदे दुवालसमं अमावासं जोएइ सम्प्रति शेषासु अमावास्या स्वतिदेशमाह - 'एवं खलु' इत्यादि, एतत् प्राग्वद्वयाख्येयं सम्प्रति चरमद्वापष्टितमामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पृच्छति- 'ता एएसि णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता जंसि ण'मित्यादि, तत्र यस्मिन् देशे स्थितः सन् चन्द्रो द्वाषष्टि-द्वाषष्टितमां चरमां पौर्णमासीं युनक्ति-परिसमापयति तस्मात् पौर्णमासीस्थानात् पौर्णमासी परिसमाप्तिस्थानात् मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य पूर्व षोडशभागानवष्वष्क्य चरमद्वापष्टितमामावास्यायाः चरमद्वाषष्टितमपौर्णमास्याः पक्षेण पश्चात्पक्षेण च विवक्षितप्रदेशात् चन्द्रः षोडशभिश्चतुर्विंशत्यधिकशतभागैः परतः प्ररूप्यते, मासेन द्वात्रिंशता भागैः परतो वर्त्तमानस्य उभ्यमानत्वात् ततः षोडश भागान् पूर्वमवष्वष्क्येत्युक्तं अत्र-अस्मिन् प्रदेशे स्थितः सन् चन्द्रश्वरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति । सम्प्रति सूर्यस्यामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पिपृच्छिपुराह—'ता एएसि णमित्यादि एतत्प्राग्वद्वयाख्येयं, 'एवमित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण येनैवाभिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्य उक्तास्तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि वक्तव्याः, तद्यथा द्वितीया तृतीया द्वादशी च ताश्चैवम्— 'एएसि णं पंचहं संबद्धराणं दोचं अमावासं सूरे कंसि Education Internation For Parts Only ~378~ १० प्राभूते २२ प्राभृतप्राभृते पूर्णिमामा वास्याः सू६४६५-६६ ॥ १८४॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], --------------------प्राभृतप्राभृत [२२], ------------- ------ मूलं [६४-६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४-६६] SAARC दीप अनुक्रम [९१-९३] संसि जोएइ, ता जसिणं देसंसि सूरे पढम अमावासं जोएइ ताओ अमावासवाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता चउणउई भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरे दोचं अमावास जोएइ, ता एएसि पं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावासं सूरे - कसि देसंसि जोएइ, ता जंसिणं देसंसि दोच्च अमावासं जोएइ ताओ अमावासहाणाओ मंडलं चउषीसेणं सएण छेत्ता &चणउहभागे उचाइणावेत्ता तच्चं अमावासं जोएइ, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसं अमावासं सूरे कंसि देसंसि | जोएड, ता सि णं देसंसि सूरे तच्चं अमावासं जोएइ, ताओ अमावासाणाओ मंडलं चउवीसेर्ण सएणं छेत्ता अहछत्ताले भागसए उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरे दुवालसमं अमावासं जोएई' सम्प्रति शेषास्वमावास्यासु अतिदेशमाह-18 'एवं खल्वि'त्यादि, एतत् प्राग्वव्याख्येयं, सम्प्रति चरमद्वापष्टितमामावास्यापरिसमाप्तिनिबन्धनं देशं पृच्छति-'ता |एएसि ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-ता जंसि 'मित्यादि, यस्मिन् देशे स्थितः सन् सूर्यश्वरमां-द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति तस्मात्पौर्णमासीस्थानात्-पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् देशात् मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा-विभज्याक् सप्तचत्वारिंशतं भागान अवष्वक्य अत्र प्रदेशे स्थितः सन् सूर्यश्चरमां द्वापष्टितमाममावास्यां | युनकि-परिसमापयति । अथ का पौर्णमासी केन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रः सूर्यो वा परिसमापयतीति प्रष्टकाम आह ता एएसि गं पंचण्हं संवच्छराणं पढम पुण्णमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणंजोएति ?, ता धणिवाहिं, धणिलाहाणं तिणि मुटुसा एकूणवीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा ऐसा पण्णट्टि चुपिण याभागा सेसा, तं समयं च णं सूरिए केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुवाफग्गुणीणं अट्ठावीस मुहूत्ता अह ECEBOOK SAREauratonintentmational For P OW ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ६७ ] दीप अनुक्रम [४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) - प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [ ६७ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः ४ ( मल०) 1194411 १० प्राभृते तीसं च बायद्विभागा मुहुत्तस्स बावट्टिभागं च सप्तद्विधा छेत्ता दुबत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा, ता. एएसि पंच संवच्छरणं दोघं पुण्णमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति १, ता उत्तराहिं पोहवताहिं, उत्त- ४२२ प्राभूतराणं पोडवताणं सत्तावीसं मुहुत्ता चोदस य बावद्विभागे मुहुत्तस्स वावद्विभागं च सत्तद्विधा छत्ता बावट्टि चुष्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सुरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता उत्तराहिं फग्गुणीहिं उत्तराफग्गुजीणं सत्त मुहुत्ता तेत्तीसं च वाषद्विभागा मुहुत्तस्स बावट्टिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता एकवीसं चुण्णिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंच संघच्छराणं तवं पुष्णिमासिणीं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता अस्सिणीहिं अस्मिणीणं एकवीस मुहुत्ता णव य एगट्टिभागां मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेवट्ठि चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केण णक्खतेणं जोएति ?, ता चित्ताहिं, चित्ताणं एको मुद्दत्तो अट्ठावीसं बाबा भागा मुत्तस्स बावट्टिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तीसं चुण्णिघा भागा सेसा, ता एलेसि णं पंच संवच्छरणं दुबालसमं पुष्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं च आसाढाणं छवीसं मुहुत्ता छदुवीसं च वावट्टिभागा मुहुत्तस्स बाबट्ठि भागं च सत्तद्विधा छत्ता चपण्णं चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति : ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं च आसाढाणं छदुद्दीसं च यावहिं भागा मुहुत्तस्स वावट्टिभागं च सत्तद्विधा छत्ता चडवणं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सुरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुणवसुणा पुणवसुस्स सोलस मुहुत्ता अट्ठ य बावहि Education Internationa For Parts Only ~ 380~ प्राभृते पूर्णिमामा वास्याः सू ६७ ॥१८५॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ६७ ] दीप अनुक्रम [९४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ६७ ] प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः भागा मुहुत्तस्स बायद्विभागं च सत्तट्टिया छेत्ता वीसं चुण्णिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचपहं संवच्छराणं चरमं बावट्ठि पुण्णिमासिणिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, उत्तराहि आसादाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुस्सेणं, पुस्सस्स एकूणवीस मुहुत्ता तेतालीसं च | बावट्टि भागा मुहत्तस्स बायद्विभागं च सप्तद्विधा छत्ता तेत्तीसं चुष्णिया भागा सेसा (सूत्रं ६७ ) ॥ 'ता एएसि ण'मित्यादि, 'ता' इति तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासी चन्द्र उपलक्षणमेतत् सूर्यो वा केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् युनक्ति-परिसमापयति ?, भगवानाह - 'ता घणिद्वाहिं' इत्यादि, ता इति-तत्र तेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासीं चन्द्रः परिसमापयति धनिष्ठाभिः, धनिष्ठानक्षत्रस्य पश्चतारत्वात्तदपेक्षया बहुवचनं अन्यथा त्वेकवचनं द्रष्टव्यं तासां च धनिष्ठानां त्रयो मुहर्त्ताः एकस्य च मुह| र्त्तस्य एकोनविंशतिद्वषष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा हिस्वा पञ्चषष्टिश्चणिका भागाः शेषाः, तथाहि--पौर्णमासीविषयस्य चन्द्रनक्षत्रयोगस्य परिज्ञानार्थं करणं प्रागेवोक्तं, तत्र पद्पष्टिर्मुहर्त्ता एकस्य च मुहर्त्तस्य पथ द्वाषष्टिभागा एकः सप्तषष्टिभागः ६६ । २ । ६७ । इत्येवंरूपो ध्रुवराशिर्धियते, धृत्वा च प्रथमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगो ज्ञातुमिष्ट इत्येकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति तावानेव जातः, तस्मादभिजितो नव मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोधनकं शोध्यते, तत्र षट्षष्टे नैव मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत्, तेभ्य एको मुहत्तों गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीकृतस्ते च द्वाषष्टिरपि भागा For Park Use Only ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल.) ॥१८॥ सूत्राक [६७] सू ६७ दीप बापष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते जाताः सषष्टिषष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विंशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्रिचत्वारि ४१० प्राभृते शत्, एक रूपमादाय सप्तषष्टिभागीक्रियते, ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तपष्टिर्भागमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताः अष्टषष्टिः २२माभृतसप्तपष्टिभागास्तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः स्थिती द्वौ पश्चात्सप्तषष्टिभागौ, ततविंशता मुदतैःश्रवणः शुद्धः स्थिताः पश्चान्मु- प्राभृते हाः षडूविंशतिः, तत इदमागत-धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशतिसक्षेषु द्वाषष्टिभागे-| पूर्णिमामावेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्चषष्टिसनेषु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा पौर्णमासी परिसमाप्तिमुपयाति, सम्पति सूर्यनक्ष वास्याः योगं पृच्छन्नाह-तं समयं च णमित्यादि तं समयमित्यत्र 'कालाध्वनोासा'वित्यधिकरणत्वेऽपि द्वितीया, ततोज्यमर्थः तस्मिन् समये यस्मिन् समये धनिष्ठानक्षत्र चन्द्रेण युक्तं यथोक्तशेष परिसमापयति तस्मिन् क्षणे इत्यर्थः, सूर्यः केन नक्षत्रेण युक्तः सन् तां प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, भगवानाह-'ता पुपाहिं'इत्यादि, ता इति तदा | पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्यां, पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वितारस्वात्तदपेक्षया द्विवचनं, द्विवचने च प्राप्ते प्राकृते बहुवचनं, तयोश्च पूर्वफाल्गुन्योस्तदानीमष्टाविंशतिर्मुहुर्ता अष्टात्रिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का द्वात्रिंशचूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव षट्पष्टिर्मुहुर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इत्येवंप्रमाणो ध्रुवराशिर्धियते ६६।५ ।। धृत्वा च एकेन गुण्यते, एकेन च गुणितं | ॥१८६॥ तदेव भवतीति तावानेव जातः, ततस्तस्मात् पुष्यशोधनकं एकोनविंशतिर्मद्वा एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद्वाप|ष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयखिंशत्सप्तपष्टिभागाः १९ । ४३ । ३३ । इत्येवंप्रमाणे शोभ्यते, अर्थतावत्प्रमाणस्य अनुक्रम [९४] %46 ~382~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६७] दीप अनुक्रम [९४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [ ६७ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पुष्यशोधनकस्य कथमुत्पत्तिरिति, उच्यते, इह पूर्वयुगपरिसमाप्तिवेलायां पुष्यस्य त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः परिसमासाचत्वारिंशदवतिष्ठन्ति ततस्ते चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागा मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १३२०, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः शेषास्तिष्ठन्ति सप्तचत्वारिंशत् ४७, ते (च) द्वाषष्टिभागानयनार्थं द्वापच्या गुण्यन्ते, जातानि एकोनत्रिंशच्छतानि चतुर्दशोत्तराणि २९१४, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धास्त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः एतद् ध्रुवराशेः शोध्यते, तद्यथा-षट्षष्टेर्मुहूर्त्तेभ्यः एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात्सप्तचत्वारिंशत्तेभ्य एको मुहूर्ती गृह्यते स्थिताः षट्चत्वारिंशद्, गृहीतस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागाः कृत्वा द्वाषष्टिभागराशौ पश्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्वाष|ष्टिभागाः सप्तषष्टिस्तेभ्यस्त्रिचत्वारिंशत् शोध्यन्ते स्थिताः पञ्चाञ्चतुर्विंशतिस्तेभ्यः एकरूपमुपादीयते जाता त्रयोविंशतिः गृहीतस्य च रूपस्य सप्तषष्टिभागाः क्रियन्ते कृत्वा च सप्तषष्टिभागेकमध्ये प्रक्षिष्यन्ते जाता अष्टषष्टिः सचषष्टिभागास्तेभ्यस्त्रयस्त्रिंशत् शुद्धाः स्थिताः पञ्चत्रिंशत्, ततः पञ्चदशमुहूतैरश्लेषा त्रिंशता च मुहूर्तेर्मघा शुद्धा स्थितः पचादेको मुहूर्त्त एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः । १ । २३ । ३५ । तत आगतं - पूर्व फाल्गुनी नक्षत्रस्याष्टाविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभा गस्य द्वात्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु सूर्यः प्रथमां पौर्णमासीं परिसमापयति, एते च सूर्यमुहर्त्ताः एवंभूतैश्च सूर्यमुह सैंस्त्रिंशता त्रयोदश रात्रिन्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वादश व्यावहारिका मुहूर्त्ता भवन्ति, तत एतदनुसारेण गते Eucation International For Pass Use Only ~383~ waryru Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सत्राक [६७] सूर्यप्रज्ञ- कदिवसभागगणना शोषस्थितदिवसगणना च पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य स्वयं कर्तव्या, एवमुत्तरसूत्रेष्वपि सूर्यनक्षत्रयोगे परि- १० प्राभृते प्तिवृत्तिः तिभावनीयं । 'ता एएसि ॥'मित्यावि, प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, उत्त-४२२प्राभूत (मल०) राभ्यां प्रोष्ठपदाभ्यामत्रापि द्विवचनं उत्तरप्रोष्ठपदानक्षत्रस्य द्वितारकत्वात् , बहुवचनं च सूत्रे प्राकृतत्वात् , तयोश्च प्रोष्ठ-10 प्राभृते पूर्णिमामा॥१८७॥ पदयोः सप्तविंशतिर्मुहूर्ताश्चतुर्दश च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सस्काश्च वास्याः लातुःषष्टिः चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। द्वितीयपौर्णमासीचिन्तायां द्वाभ्यां गुण्यते, सू६७ मुहूर्तानां जातं द्वात्रिंशतं पातं १३२, एकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वापष्टिभागाः १० एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ २, ततः पूर्वरीत्या अभिजितो नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य |सत्काः षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः शोभ्यनो जातं द्वाविंशं शतं मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशताषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य वयः सप्तषष्टिभागाः १२२ । ४७ ॥ ३ ततत्रिंशता मुहूतैः श्रवणस्त्रिंशता धनिष्ठा पञ्चदशभिः शतभिषक् त्रिंशता पूर्वभभाद्रपदा शुद्धति स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूत्तोः शेषं तथैव १७ । ४७।३। तत आगतं उत्तरभद्रपदानक्षत्रस्य समविलाशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःषष्टी सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु द्विती-| या पौर्णमासी परिसमाप्तिमुपैति, सम्प्रत्यस्यामेव पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-तं समयं च ण'मित्यादि, सुगर्म, | ॥१८७॥ भगवामाह-ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , उत्तराभ्यां फाल्गुनीभ्यो, तयोश्च उत्तरयोः फाल्गुन्योस्तदानीं द्वितीयपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायां सप्त मुहूर्तात्रयस्त्रिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागं च एक सप्तप अनुक्रम SEX555 [९४) RE ~384~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७] ष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का एकत्रिंशचूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एष ध्रुवराशिर्धियते ६५।५।१ धृत्वा च द्वितीयस्याः पौर्णमास्याः सम्प्रति चिन्तेति द्वाभ्यां गुण्यते जातं द्वात्रिंशं शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य दश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वौ सप्तपष्टिभागौ १३२ । १०।२। तत एतस्मात् पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहत्तो है एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः १९ । ४३ । ३३ । इत्येवंपरिमाणं पूर्वरीत्या शोध्यते, स्थितं पश्चात् द्वादशोत्तरं शतं मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्जस्याष्टाविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः ११२ । २८ । ३६ । ततः पश्चदशभिर्मुहूत्तैरश्लेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, स्थिताः पश्चान्मुहूर्ताः सप्तत्रिंशपछेषं तथैव, तत आगतं सूर्येण युक्तमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्र सप्तसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयविंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु। द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति, अधुना तृतीयपौर्णमासीविषयं चन्द्रनक्षत्रयोगं पृच्छति-ता एएसि 'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह–'अस्सिणीहि इत्यादि, अश्विनीनक्षत्रं त्रितारमिति तदपेक्षया बहुवचनं, तदानीं 'च-तृतीयपोर्णमासीपरिसमाप्तिवेलायां अश्विनीनक्षत्रस्य एकविंशतिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य नव द्वापष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभार्ग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काविषष्टिवर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव धुवराशिः १० ।५।१तृतीयपौर्णमासी| अचिन्त्यमाना वर्त्तत इति विभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिकं शतं मुहर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चदश द्वापष्टिभागा एकस्य | च द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागाः १९८ । १५। ३तत 'उगुण8 पोट्टवया' इति वचनात् एकोनषष्ठ्यधिकेन मुह अनुक्रम [९४] ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सत्रांक [६७] सूर्यप्रज्ञ शतेन चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि News विवृत्तिः षट् नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते अष्टात्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूत्र्तस्य द्विपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टि- प्रभात (मल.) | भागस्य चत्वारः सप्तषष्टिभागाः ३८ । ५२॥ ४, ततत्रिंशता मुहूर्त रेवतीनक्षत्रं शुद्ध तिष्ठत्यष्टौ मुहूर्तास्तत आगतं चन्द्र प्राभूते युक्तमश्विनीनक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तपष्टि- पूर्णिमामा॥१८८॥ भागेषु शेपेषु परिसमापयति । सम्प्रत्यस्यामेव तृतीयस्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-तं समयं च ण'मित्यादि वास्याः सुगर्म, भगवानाह-ता चित्ताहि'इत्यादि, चित्रया युक्तः सूर्यः परिसमापयति, तदानीं च-तृतीय पौर्णमासीपरिसमा सू६७ तिवेलायां चित्रायामेको मुहर्स एकस्यं च मुहर्तस्य अष्टाविंशतिषष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य । सत्का त्रिंशत् चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६९।५।१। सम्पति तृतीयपौर्णमासी चिन्तितेति विभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिक शातं मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य पञ्चदश द्वापष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तपष्टिभागाः १९८ । १५ । ३ तत एतस्मात्पुष्यशोधनकं १९ । ४३ । ३३ । पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते, स्थितं पश्चादष्टसप्तत्यधिकं मुहूर्तानां शतमेकस्य च मुहर्तस्य त्रयस्त्रिंशद द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत्सप्तप-18 & ष्टिभागाः १७८ । ३३ । ३७ ॥ ततः पञ्चाशदधिकेन मुहर्तशतेनाश्लेषादीनि हस्तपर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, ॥१८॥ शेषास्तिष्ठन्ति अष्टाविंशतिर्मुहर्ताः शेषं तथैव २८ । ३३ । ३७ । तत आगतं सूर्येण सह सम्प्रयुकं चित्रानक्षत्रमेकस्मिन् का ४ मुहूर्ते एकस्य च मुहूर्चस्याष्टाविंशतौ द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां पौर्ण-14 अनुक्रम [९४] ~386~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: +589 प्रत सूत्रांक [६७] ट्रामासी परिसमापयति । सम्पति द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगं पृच्छति 'ता एएसि ण'मित्यादि सुगम, भगवा-1X नाह-'ता उत्तराहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, उत्तराभ्यामाषाढाभ्यां द्वादशी पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति, तदानी च तयोरुत्तरयोरापादयोः पइविंशतिर्महा एकस्य च मुहर्तस्य षडविंशतिर्दापष्टिभागा एक च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिया छित्त्वा तस्य सत्काश्चतुःपश्चाशधूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६५॥१॥ द्वादशी किल पौर्ण-| #मासी चिन्त्यते इति द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य षष्टिष-* ष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तपष्टिभागाः ७९२।१०।१२। तत एतस्मात् 'मूले सत्तेव बायाला' इत्यादिवचनात्, सप्तभिश्च विचत्वारिंशदधिकमुहर्तानां शतैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य |च द्वापष्टिभागस्य पदपया सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ततत्रिंशता मुर्तेः पूर्वाषाढा, शेष तिष्ठन्ति अष्टादश मुहर्ता एकस्य च मुहुर्तस्य पश्चत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तपष्टि|भागाः १८॥ ३५ ॥ १३ तत आगतं चन्द्रेण युक्तमुत्तराषाढानक्षत्रं द्वादशी पौर्णमासी पडूविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहबस्य पइविंशती द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपश्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति । सम्प्रत्यस्यामेव द्वादश्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोग पृच्छति-तं समयं च ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता पुणवसुणा इत्यादि, |ता इति पूर्ववत्, पुनर्वसुना युक्तः सूर्यः परिसमापयति, तदानीं च-द्वादशीपौर्णमा सीपरिसमाप्तिवेलायां पुनर्वसुनक्षत्रस्य पोडश मुहूर्चा अष्टौ च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का विंशतिथूर्णिका भागाः अनुक्रम [९४] SASSOCK ~387~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७] शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१ । द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्ताना- १० प्राभृतेतिवृत्तिः मेकस्य च मुहूर्तस्य षष्टिषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तपष्टिभागाः ७९३ । ६० । १२, तत पतस्मा-3 मा-IX२२प्राभूत(मल) स्पुष्यशोधनकं १९ । ४३ ॥३३ पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते, स्थितानि पश्चात्सप्त शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च माभृते पूर्णिमामामुहर्तस्य पोडश द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ७७३ । १६ । ४६, ततः एतस्मा-| ॥१८९॥ वास्याः सप्तभिः शनैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुहर्तानामेकस्य च मुहूर्सस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पया सप्तषष्टिभागैरश्लेषादीनि आर्द्रापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, पश्चादवतिष्ठन्ते अष्टाविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुर्तस्य। त्रिपश्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः २८ । ५३ । ४७ । तत आगतं पुन-12 सुनक्षत्रं सूर्येण सह योगमुपागतं पोडशसु मुहूर्वेषु शेषेषु एकस्य च मुहूर्तस्याष्टसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य। विशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु द्वादशी पौर्णमासी परिसमापयति, (साम्प्रतमस्यामेव द्वापष्टितमायां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्र योगं पृच्छति )-'ता एएसिप'मित्यादि सुगर्म, भगवानाह-ता उत्तराहिं'इत्यादि, ता (इति प्राग्वत् ) उत्तराभ्यामाX ढाभ्यां युक्तश्चन्द्रवारमा द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिणमयति, तदानी च-परमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिवेलाया-1 मुत्तरयोराषाढयोबरमसमयः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः१६५।१ । चरमा द्वापष्टितमा पौर्णमासी सम्मति चिन्यमाना ४ ॥१८॥ वत्तेते इति द्वापल्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुर्तव द्वापष्टिभागामा ४ात्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य चद्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः४०९२।३१०। ६२ तत एतस्माद्, 'अवसयाउगु अनुक्रम [९४] ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७] जाणवीसा सोहणगं उत्तराण साढाणं । पवीसं खलु भागा छावडी चुणियाओय॥१॥इत्येवंप्रमाणमेकं सकलनक्षत्रपर्यायशो धनकं पञ्चभिर्गुणयित्वा मोध्यते, तच्च पूर्वोकेन प्रकारेण शोध्यमान परिपूर्णी शुद्धिमासादयतीति न किश्चित्पश्चादवतिष्ठते, तत आगतं उत्तराषाढानक्षत्रं चन्द्रेण सह युक्तं चरमसमये चरमां द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति । सम्प्रत्यस्यामेव द्वाषष्टितमायां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छति-तं समयं चण'मित्यादि सुगमम्, भगवानाह-'ता पुस्सेण मित्यादि, पुष्येण युक्तः सूर्यश्वरमां द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापयति, तदानीं च-द्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तियेलामामेकोनविंशतिर्महानिचत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुर्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयविंशत् चूर्णिकाभागाःशेषाः, तथाहिस एव ध्रुवराशिः६६५श द्वाषष्ट्या गुण्यते,जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य द्वापष्टि भागानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तपष्टिभागाः४०९२ । ३१ । १२ । इह पुष्यस्य हैदशमुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुस्विंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिक्रान्तेषु पाश्चात्य युग परिसमाप्तिमुपैति, तदनन्तरमन्यत् युग प्रवर्तते, पुष्यस्यापि च तावन्मात्रादतिक्रान्तात् परतो यावद्भः योऽपि तावन्मात्रस्य पुष्यस्वातिक्रम एतावत्प्रमाणः एकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायः, तस्य च प्रमाणमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तषष्टिभागाः 1८१९ । २४ । १५।' तत एतत्पञ्चभिर्गुणयित्वा प्रागुक्तात् ध्रुवराशेषिष्टिगुणितात् शोध्यते, तथ परिपूर्ण शुद्ध्यति, पश्चाच्च राशिनिपो जायते, तत आगतं पुष्यस्य सूर्येण युक्तस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहर्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागे अनुक्रम [९४] For P OW ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७] 15 सूर्यप्रज्ञ-8वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशति सप्तपष्टिभागेष्वतिकान्तेषु एकोनविंशती च मुहूर्वेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिच- १.प्राभृते तिवृत्तिःलावारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयविंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु चरमा द्वापष्टितमा पौर्णमासी परि- २२प्राभृत(मल०) समाप्तिमगमदिति । तदेवं पौर्णमासीविषयश्चन्द्रनक्षत्रयोगः सूर्यनक्षत्रयोगश्चोक्तः, सम्प्रत्यमावास्याविषयं सूर्यनक्षत्रयोग। प्राभृते ॥१९॥ चन्द्रनक्षत्रयोगं च प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः प्रथमामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह अमावास्या एतेसि णं पंचाहं संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे केणं णक्वत्तेणं जोएति ?,ता अस्सेसाहिं, अस्सेसाणे एके नक्षत्राणि मुलुत्ते चत्तालीसं च वाचट्ठिभागा मुहत्तस्स वावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता बावढि चुणिया सेसा, तं समयं । RI सू६८ चणं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति,ता अस्सेसाहिं चेव,अस्सेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीसं च वावहिभागामुहुत्तस्स बावट्ठिभागं सत्तद्विधा छेत्ता बावट्टि चुणिया भागा सेसा, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोचं अमावासंडू चंदे केणं णक्खतेणं जोएति?, ता उत्सराहिं फग्गुणीहिं, उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहत्ता पणतीसंबावटि. |भागा मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पषणट्टि चुपिणयाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति?,ता उत्तराहि चेव फग्गुणीहि, उत्तराणं फग्गुणीणं जहेव चंदस्स।ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तचं अमावासं चंदे केणं नकखत्तेणं जोएति, ता हत्थेणं, हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता तीसं च पावविभागा मुहत्तस्स। पावहिभागंच सत्तद्विधा छेत्ता वावढि चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ॥१९०॥ &ाता हत्थेणं चेच, हत्थस्स जहा चंदस्स,ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराण दुवालसमं अमावासं चंदे केणं णक्ख-II अनुक्रम [९४] ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) ཊཡྻཱ ཡྻ [ ६८ ] अनुक्रम “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [६८] प्राभृत [१०], - प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः तेर्ण ओएति ?, अद्दाहिं, अद्दाणं चत्तारि मुहत्ता दस य यावद्विभागा मुहुत्तस्स यावहिं च सत्तट्टिया ऐसा चड़पणं चुण्णिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएति ?, ता अद्दाहिं चैव, अदाणं जहा चंदस्स । ता एएसि णं पंचहं संबच्छराणं चरिमं बावडिं अमावासं चंदे केणं णक्खन्तेर्ण जोएति ?, ता पुणवसुणा, पुणवमुस्स बावीस मुत्ता बायालीसं च वासट्टिभागा मुहत्तस्स सेसा । तं समयं चणं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुणवसुणा चेव, पुणवसुस्स पणं जहा चंदस्स (सूत्रं ६८ ) ॥ 'ता एएसि णमित्यादि सुगर्म, भगवानाह - 'ता असिलेसाहि' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, अश्लेषाभिः सह युक्तचन्द्रः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति, अश्लेषानक्षत्रस्य पट्तारत्वात्तदपेक्षया बहुवचनं तदानीं च प्रथमामावास्यापरिस्मासिवेलायामश्लेषा नक्षत्रस्य एको मुहूर्त्तश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य द्वापष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छिरवा पट्षष्टिब्धूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि - स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । प्रथमामावास्या किल सम्प्रति चिन्त्यमाना वर्त्तते इत्ये केन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति तावानेव जातः, तत एतस्मात् "बावीसं च मुहुत्ता छायालीस विसङि भागा य । एयं पुणयसुरस य सोहेयवं हवइ पुण्णं ॥ १ ॥” इति वचनात् द्वाविंशतिर्मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य पटूचत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते, तत्र पट्षष्टेर्मुहूर्त्तेभ्यो द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चाच्चतुश्चत्वारिंशत् ४४, तेभ्य एकमुहूर्त्तमपेक्ष्य तस्य द्वाषष्टिभागाः कृताः, ते द्वाषष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिः, तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः शेषास्तिष्ठन्ति एकविंशतिः, त्रिचत्वारिंशतो मुहर्त्तेभ्यस्त्रिंशता पुण्यः शुद्धः, For Pal Use Only ~391~ war Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) ཡྻ सूत्रांक [६८] अनुक्रम [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६८] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञ तिवृत्तिः ( मल० ) ॥१९१॥ स्थिताः पश्चात्रयोदश मुहूर्त्ता, अश्लेषानक्षत्रं चार्द्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहूर्त्तप्रमाणं तत इदमागतं - अश्लेषा नक्षत्रस्य एकस्मिन् मुहूर्त्ते चत्वारिंशति मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य षट्षष्टिभागेषु शेषेषु प्रथ| मामावास्या समाप्तिमुपगच्छति । सम्प्रत्यस्यामेव प्रथमायाममावास्यायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छति --'सं समयं च णमित्यादि, * सुगमं, भगवानाह - 'ता असिलेसाहिं चेवे' त्यादि, इह य एवास्याममावास्यायां चन्द्रनक्षत्रयोगे ध्रुवराशिर्यदेव शोधनकं स एव सूर्यनक्षत्रयोगविषयेऽपि ध्रुवराशिस्तदेव च शोधनकमिति तदेव सूर्यनक्षत्रयोगेऽपि नक्षत्रं तावदेव च तस्य नक्षत्रस्य शेषमिति, तदेवाह – अश्लेषाभिर्युक्तः सूर्यः प्रथमाममावास्यां परिसमापयति, तस्यां च परिसमाप्तिवेलायामश्लेषाणामेको मुहूर्त्त एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पटूषष्टिः सप्तषष्टिभागाः शेषाः । द्वितीयामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह- 'ता एएसि ण'मित्यादि सुगमं, भगवानाह - 'ता उत्तराहिं इत्यादि, उत्तराभ्यां फाल्गुनीभ्यां युक्तः चन्द्रो द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति, तदानीं च - अमावास्यापरिसमाप्तिवेलायामुत्तरायाः फाल्गु न्याश्चत्वारिंशन्मुहूर्त्ताः पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः मुहर्त्तस्य द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कार पश्चषष्टिर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-- स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । द्वाभ्यां गुण्यते, जातं द्वात्रिंशदधिकं मुहूर्तानां शतं, एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागा दश एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तपष्टिधा छिन्नस्य द्वौ चूर्णिकाभागी । १३२ । १०।२ । तत्र प्रथमं पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते, द्वात्रिंशदधिकमुहूर्त्तशतात् द्वाविंशतिर्मुहर्त्ताः शुद्धाः स्थितं पश्चादशोत्तरं शतं, तेभ्योऽप्येको मुहतों गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीक्रियते, कृत्वा च ते द्वाषष्टिभागा द्वाषष्टिभागराशी प्रक्षिप्यन्ते, जाता द्विसष्ठति For Pernal Use On ~392~ १० प्राभृते २२ प्राभृतप्राभृते अमावास्या नक्षत्राणि सू ६८ ॥१९१॥ wor Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) ཊཡྻཱ ཡྻ [ ६८ ] अनुक्रम “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [६८] प्राभृत [१०], - प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः द्वषष्टिभागास्तेभ्यः पचत्वारिंशत् शुद्धाः स्थिताः पश्चात् पविंशतिः, नवोत्तराञ्च मुहूर्त्तशतात् त्रिंशता पुष्यः शुद्धः, स्थिताः पश्चादेकोनाशीतिः, ततोऽपि पञ्चदशभिर्मुहूत्रश्लेषा शुद्धा, स्थिक्त पश्चाच्चतुःषष्टिः, ततोऽपि त्रिंशता मघाः शुद्धाः, स्थिता चतुस्त्रिंशत्, ततोऽपि त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, स्थिताः पश्चात् चत्वारः, उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रं द्व्यर्द्धक्षेत्रमिति पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तप्रमाणं, तत इदमागतं - उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य चन्द्रयोगमुपागतस्व चत्वारिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य पश्चत्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य पञ्चपष्टौ चूर्णिकाभागेषु शेषेषु द्वितीयामा| वास्या समाप्तिं याति । सम्प्रति अस्यामेव द्वितीयस्याममावास्यायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छति'ते समयं च णमित्यादि, सुगम, भगवानाह - 'ता उत्तराहि' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, उत्तराभ्यामेव फाल्गुनीभ्यां युक्तः सूर्यो द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति, तदानीं च द्वितीयामावास्यापरिसमाप्तिवेलायामुत्तरायाः फाल्गुन्याः 'सहेव जहा चंदस्स' त्ति यथा चन्द्रस्य विषये उक्तं तथैवात्रापि विषये वक्तव्यं, तद्यथा- 'चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावट्टिभागा मुहुत्तस्स बाबद्विभागं च सत्तहिा छिन्ता पण्णडि चुण्णिाभागा सेसा' इति एतश्चोभयोरपि चन्द्रसूर्ययोर्नक्षत्रयोः परिज्ञानहेतोः करणस्य समानत्वादवसेयम् । | तृतीयामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता इत्थे' इत्यादि, हस्तेन युक्त| चन्द्रस्तुतीयामावास्यां परिसमापयति, तदानी हस्तस्य चत्वारो मुहूर्त्ताविंशश्च द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागं चैकं सप्तषष्टिधा छित्वा तस्य सस्काश्चतुःषष्टिश्चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ । तृतीयस्या अमावास्यायाः सम्प्रति चिन्तेति त्रिभिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिकं शतं मुंहर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य पश्चदश द्वाषष्टि Eucation International For Parts Only ~393~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ६८ ] दीप अनुक्रम [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [६८] प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः २२ प्राभूत ( मल० ) ॥१९२॥ सूर्यमज्ञ- 2 भागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः १९८ । १५ । ३ तत एतस्माद् द्विसप्तत्यधिकेन मुहर्त्तशंतेन षट्च- ४१० प्राभृते सिवृत्तिः त्वारिंशता च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागैरश्लेषादीनि उत्तराफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि पञ्चादवतिष्ठन्ते पञ्चविंशतिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकत्रिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः २५ । ३१ । ३ । । तत आगतं हस्तनक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगमुपागतस्य चतुर्षु मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयाममावास्यां परिसमापयति । अत्रैव सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रमाह 'तं समयं च णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता हत्थेणं चेव'सि हस्तेनैव नक्षत्रेण युक्तः सूर्योऽप्यमावास्यां तृतीयां परिसमापयति, एतच्चोभयोरपि करणस्य समानार्थत्वादवसेयं, एवमुत्तरसूत्रयोरपि द्रष्टव्यं, शेषपाठविषयेऽतिदेशमाह - | 'हत्थस्स जं चैव चंदस्स' यथा चन्द्रस्य विषये हस्तस्य शेष उक्तः तथा सूर्यस्यापि विषये वक्तव्यः, स चैवम् -'हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता तीसं चैव चावद्विभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तट्ठिहा हित्ता बावट्ठी चुण्णिया भागा सेसा' इति, सम्प्रति द्वादशामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह- 'ता एएसि णमित्यादि सुगमं, भगवानाह - 'ता अद्दाहिं' इत्यादि, आर्द्रया युक्तश्चन्द्रो द्वादशीममावास्यां परिसमापयति, तदानीं चार्द्रायाश्चत्वारो मुहर्त्ता दश मुहर्त्तस्य द्वाषष्टिभागा द्वाषष्टिभागं च सप्तषष्टिधा छित्त्वा चतुःपञ्चाशचूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि —स एव ध्रुवराशि:- ६६ । ५ । १ । द्वादश्यमावास्या चिन्त्यमाना वर्त्तते इति द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य पष्टिर्द्धापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७९२ । ६० । १२ । एतस्माच्चतुर्भिः शतैः Education internationa For Parts Only ~ 394~ प्राभृते अमावास्या नक्षत्राणि सू. ६८ ॥ १९२॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] तिचत्वारिंशदधिकद्विर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यम्तानि नामणि शखानि स्थितानि पश्चात्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्दश द्वापष्टिभागा एकस्यचिद्वापछि भागस्य द्वादश सप्तपष्टिभागाः ३५०।१४।१२ ततखिभिः शतेनेवोत्तरहर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभा-1 गैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्थ पट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि रोहिणीपर्यन्तानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाचत्वारिंशन्मुहर्चाः एकस्य च मुहूत्स्य एकपञ्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः ४० । ५९ ॥ १३॥ तकविंशता मुहतैर्मृगशिरः शुद्धः, स्थिताः पश्चाद्दश मुहर्ताः, शेषं तथैव १०। ५१११३ । तत आगतं आनक्षत्रस्य चन्द्रेण | सह संयुक्तस्य चतुएं मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुष्पश्चाशति सप्तपछिमागेष्ठ ४।१०।५४ । शेषेषु द्वादशी अमावास्या परिसमाप्तिमियर्ति, सम्प्रति सूर्य विषये प्रक्षमाह-तं समयं चाण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-ता अहाए चेव' आर्द्रयैव युक्ता सूर्योऽपि द्वादशीममावास्यां परिसमापयति, शेषपाठविषयेऽतिदेशमाह-अदाए जहा चन्दस्स' यथा चन्द्रविषये आोयाः शेष उक्तस्तथा सूर्यविषयेऽपि वक्तव्यः, स चैवम्-'अहाए चतारि मुहत्ता दस य वावडिभागा मुहत्तस्स बावद्विभागं च सत्तविहा छेत्ता चउप्पण्णं चुणिया भागा सेसा' इति । परमद्वाषष्टितमामावास्याविषयं प्रश्नमाह-ता एएसि ॥'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता पुणवसुणा' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, पुनर्वसुना युक्तश्चन्द्रश्चरमा द्वाषष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, तदानीं च-चरमद्वाषष्टितमामावास्थापरिसमाप्तिवेलायां पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वाविंशतिर्मुहर्ताः षट्चत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य शेषाः, तथाहि-सा एकला अनुक्रम [९५] ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६८] सूर्यप्रज्ञ-18वराशिः ६६ । ५।१। द्वापट्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि एकस्य च मुहर्चस्य १० प्राभृते विवृत्तिः दाद्वापष्टिभागानां श्रीणि शतानि दशोत्तराणि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तपष्टिभागाः ४०९२ । ३१०।१२।२२ प्राभृत(मल०) तत एतस्मात् चतुर्भिः शतैर्द्विचत्वारिंशदधिकर्मुहर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशता द्वापष्टिभागैः प्रथम शोधनका प्राभृते ॥१९॥ शुद्धं, जातानि षट्त्रिंशच्छतानि पश्चाशदधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य दे शते चतुःषष्यधिके द्वाषष्टिभागानामे-12 नक्षत्राणि कस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वापष्टिः सप्तपष्टिभागाः ३६५० । २६४ । ६२ । ततोऽभिजिदाद्युत्तराषाढापर्यन्तसकलनक्षत्रप-14 सू६८ यविषयं शोधनकमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिर्दापष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिभागाः ८१९ । २४ । ६६ । इत्येवंप्रमाणं चतुर्भिर्गुणयित्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चा-12 त्रीणि शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुःषयधिक चातं द्वापष्टिभागानामेकस्य च द्वापष्टि-14 भाभागस्य षट्षष्टिः सप्तपष्टिभागा: ३७४ । १६४ । ६६ । ततो भूयस्त्रिभिः शतैर्मुद्वानां नवोत्तरैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतु-1* विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य द्वाषष्टिभागस्य च षट्पष्ट्या सप्तषष्टिभागैः ३०९।२४ । ६६ । अभिजिदादीनि रोहिणी-2 पर्यन्ताति शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तषष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टिभागाः ६७ । १६ । ततत्रिंशता मुहूत्तैर्मृगशिरः पञ्चदशभिराी शुद्धा, स्थिताः शेषा द्वाविंशतिर्मुहुर्ताः एकस्य च मुहर्तस्य षोडश द्वापष्टिभागाः २२, १९३॥ तत आगत चंद्रेण सह संयुक्तं पुनर्वसुनक्षत्रं द्वाविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पटूचरवारिंशति द्वापष्टिभागेषु शेषेषु । चरमा द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, सूर्यविषयं प्रश्नमाह-'तं. समयं च ण'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-I अनुक्रम [९५] ~396~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ६८ ] दीप अनुक्रम [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) - प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [६८] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 'ता पुणवसृणा चेव' सूर्योऽपि पुनर्वसुना चैव सह योगमुपागतः चरमां द्वाषष्टितमाममावास्यां परिणमयति, शेषविषयेऽतिदेशमाह- 'पुणवसुस्स णं' यथा चन्द्रस्य विषये पुनर्वसोः शेष उक्तः तथा सूर्यस्यापि विषये वक्तव्यः, स चैवम्'पुणवसुस्स बावीस मुहुत्ता छायालीस च वावट्टिभागा मुहुत्तस्स सेसा' इति । ता जेणं अज्ज णक्खतेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णं इमाणि अट्ट एकूणवीसाणि मुहुप्तसताई चडवीसं च वावट्टिभागे मुहुतस्स बावट्टिभागं च सत्तद्विधा छत्ता बावट्ठि चुणिया भागे उवायिणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णं सरिसएणं चैव णक्खन्तेणं जोयं जोएति अण्णंसि देसंसि, ता जेणं अज्ज णवश्वत्तेर्ण चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णं इमाई सोलस अडतीसे मुहुत्तमताई अणापण्णं च बावद्विभागे मुहुत्तस्स यावद्विभागं च सत्तद्विघा छेत्ता पण्णट्टि चुण्णियाभागे उवायिणावेत्ता पुणरवि से णं चंदे तेणं चेव णक्खतेणं जोयं जोएति अण्णंसि देसंसि, ता जेणं अज्जणक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि से णं हमाई चप्पण्णमुहतसहस्साइं गवय महत्तसताहूं ज्वादिणावित्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं तारिसएणं जोयं जोएति तंसि देसंसि, ता जेणं अजणक्खत्तेणं चंदे जोयं जोएति जंसि २ देसंसि ( से णं इमाई एगं लक्खं नव य सहस्से अट्ठ य मुहत्तसए उचायिणाविप्ता पुणरवि से चंदे तेण णक्खतेणं जोयं जोएह तंसि देसंसि ) । ता जेणं अज्जणक्खतेणं सूरे जोयं जोएति जर्सि देसंसि से णं इमाई तिष्णि छावट्ठाई राईदियसताई उवादिणावेत्ता पुणरवि से सुरिए अण्णेणं तारिसएणं चैव नक्खत्तेण जोयं जोएति तंसि देसंसि, ता जेणं अज्जनक्खत्तेणं Education Internation For Pernal Use On ~397~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: IGIT प्रत सूत्राक [६९] सूर्यप्रज्ञ- सूरे जोयं जोएति तंसि देसंसि से णं इमाई सत्तदुबीसं राइंदियसताई उवाहणावेत्ता पुणरवि से सूरे तेणं १० प्राभृते विवृत्तिःव नक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि, ता जेणं अज्जणक्खसेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि से २२ फ्राभृत(मल.) इमाई अट्ठारस पीसाईराइंदियसताई उवादिणावेत्ता पुणरवि सूरे अण्णणं चेव णक्खसेणं जोयं जोएति प्राभृते तंसि देसंसि, ता जेणं अजाणक्खसेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि तेण इमाई छत्तीसं सट्टाई राइंदियस- ताहगन्य॥१९४॥ याई उवाइणाविप्ता पुणरवि से सूरे तेणं चेच णक्खत्तेणं जोयं जोएति तंसि देसंसि (सूत्रं ६९) नक्षत्रयोगः । सम्पति वनक्षत्रं तादृशनामकं तदेव वा तस्मिन्नेव देशेऽन्यस्मिन् वा यावता कालेन भूयश्चन्द्रेण सह योगमुपाग-1 च्छति तावन्तं कालं निर्दिदिक्षुराहता जेणं अज्ज नक्खत्तेणं' इत्यादि, ता.इति पूर्ववत्, येन नक्षत्रेण सह पन्द्रोउद्य-विवक्षिते दिने योग युनति-करोति यस्मिन् देशे स चन्द्रोणमिति वाक्यालकारे इमानि-वक्ष्यमाणसालाकानि तान्येवाह-अष्टी मुशतानि एकोनर्विशानि-एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशति द्वापष्टिभागान् एकस्य |च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्टिं सप्तपष्टिभागानुपादाय-गृहीत्वा अतिक्रम्येत्यर्थः पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन द्वितीयेन सहशनाना नक्षत्रेण योग युनक्ति अन्यस्मिन् देशे, इयमत्र भावना-इह चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां मध्ये नक्षत्राणि सर्वशीमाणि तेभ्यो ४ मन्दगतयः सूर्यास्तेभ्योऽपि मन्दगतयश्चन्द्रमसः, एतच्चाने स्वयमेव प्रपञ्चयिष्यति, पट्पञ्चाशनक्षत्राणि प्रतिनियतापा- १९४॥ न्तरालदेशानि चकवालमण्डलतया व्यवखितानि सदैव एकरूपतया परिश्रमन्ति, तत्र किल युगस्यादावभिजिता नक्षबेण सह योगमधिगच्छति पन्द्रमाः, सच योगमुपागतः सन्ः शनैः शनैः पश्चादवष्वकते तस्य नक्षत्रेभ्योऽतीच मन्द-18 अनुक्रम [९६] ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ६९ ] दीप अनुक्रम [९६] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) • प्राभृतप्राभृत [२२], मूलं [ ६९ ] प्राभृत [१०], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः गतित्वात् ततो नवानां मुहर्त्तानामेकस्य च मुहर्त्तस्य चतुर्विंशतेद्वेषिष्टिभागानामेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पदेः ससफ ष्टिभागानामतिक्रमे पुरतः श्रवणेन सह योगमायाति, ततस्ततोऽपि शनैः शनैः पश्चादवष्वष्कमानस्त्रिंशता मुहूः अदजिन सह योगं समाप्य पुरतो घनिष्ठया सह योगमुपगच्छति, एवं स्वं स्वं कालमाचक्ष्य सर्वैरपि नक्षत्रैः सह योगस्ताचव् वक्तव्यो यावदुत्तराषाढा नक्षत्रयोगपर्यन्तः, एतावता च कालेनाष्टी मुहूर्त्तशतानि एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिर्द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा अभवन् तथाहि--पडू नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशम्मुहूर्त्तानीति षट् पञ्चचत्वारिंशता गुण्यंते, जाते द्वे शते सप्तत्यधिके २७०, षट् च नक्षत्राणि पश्चदशमुहूर्त्तानीति भूयः षण्णां पक्षदशभिर्गुणने जाता नवतिः ९०, पञ्चदश त्रिंशन्मुहूर्त्तानीति पश्चदश त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि पशदधिकानि ४५०, अभिजितो नव मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिर्द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षषष्टिः सप्तषष्टिभागा इति भवति सर्वेषामेकत्र मीठने यथोक्ता मुहूर्त्तसङ्ख्या, एष एतावान् नक्षत्रमासः, ततस्तदनन्तरं यदभिजिनक्षत्रं अतिक्रान्तं तदपरेण द्वितीयेनाभिजिता नक्षत्रेण सह नव मुहूर्त्तादिकालं योगमुपागच्छति, ततः परमपरेण द्वितीयाष्टाविंशतिसम्बन्धिना श्रवणेन सह योगमनुते, एवं पूर्ववत् तावद्वाच्यं यावदुत्तराषाढा, तदनन्तरं भूयः प्रथमेनैवाभिजिता नक्षत्रेण सह योगं याति, ततः प्रागुक्तक्रमेण श्रवणादिभिः एवं सकलकालमपि ततो विवक्षिते दिने यस्मिन् देशे येन नक्षत्रेण सह योगमममञ्चन्द्रमाः स यथोक्तमुहूर्त्तमयातिक्रमे भूयः तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे योगमादत्ते न तेनैव नापि तस्मिन् देशे इति, तथा 'ता जेण'मित्यादि, अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह Educatan Internation For Parts Only ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यमज १०माभृते प्रत कायोगं युनक्ति यस्मिन् यस्मिन् देशे चन्द्रमाः स इमानि वक्ष्यमाणसङ्ख्याकानि, तान्येवाह-पोडश मुहर्तशतानि अष्टात्रि-12 ठिवृत्तिः शिदधिकानि एकोनपश्चाशतं द्वापष्टिभागान् मुहूर्तस्य एक च द्वापष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कान् पश्चषष्टिं ४२२ प्राभृत(मल०) चूर्णिकाभागानुपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि स चन्द्रस्तेनैव नक्षत्रेण सह योग युनक्ति, परमन्यस्मिन् देशे, न तु तस्मिन्नेव, प्राभृते कुत इति चेत्, उच्यते, इह भूयस्तस्मिन्नेव देशे तेनैव नक्षत्रेण सह योगो युगद्यकालातिक्रमे यथा(थेः)केवलवेदसा ज्यो-IIताहगन्य॥१९५॥ प्रतिश्चक्रगतरुपलब्धः, जम्बूद्वीपे च पट्पश्चाशदेव नक्षत्राणि, ततो विवक्षितनक्षत्रयोगे सति तत आरभ्य षट्पश्चाशनक्षत्रा-1 नक्षत्रयोगः तिक्रमे तेन नक्षत्रेण सह योगमादत्ते, षट्पञ्चाशन्नक्षत्रातिक्रमश्च प्रागुक्ताष्टाविंशतिनक्षत्रमुहूर्तसङ्ग्याद्विगुणसमया, तत उक्त-'सोलस अहतीस मुहत्ससा' इत्यादि । तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे यावता कालेन भूयोऽपि योग उपजायते तावान् कालविशेष उक्तः, सम्प्रति तस्मिन्नेव देशे तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह भूयोऽपि ४॥ योगो यावता कालेन भवति तावन्तं कालविशेषमाह-'ता जेणं अन्न नक्खतेणं इत्यादि, अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्ष त्रेण सह योगं चन्द्रो युनकि यस्मिन् देशे स:-चन्द्रमा इमानि वक्ष्यमाणसङ्ख्याकानि तान्येवाह-चतुष्पश्चाशन्मुहूर्त्तसहस्राणि पानव मुहत्तेशतान्युपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन तादृशेनैव नक्षत्रेण सह योग युनक्ति तस्मिन्नेव देश, श्यमत्र भावना-विवक्षिते युगे विवक्षितानामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये येन नक्षत्रेण सह यस्मिन् देशे यदा चन्द्रमसो योगो जातो १९५ भूयस्तस्मिन्नेव देशे तदैव तेनैव नक्षत्रेण सह योगो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे, न तु द्वितीये; कुत इति चेत्, उच्यते, इह युगादित आरभ्य प्रथमे नक्षत्रमासे यान्येकान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि समतिकामति द्वितीयेन नक्षत्रमासेन अनुक्रम [९६] 515 ~400~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ६९ ] दीप अनुक्रम [९६] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ६९ ] प्राभृत [१०], • प्राभृतप्राभृत [२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः तेभ्योऽपराणि द्वितीयानि ततो भूयस्तृतीयेन नक्षत्रमासेन तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशतिं नक्षत्राणि चतुर्थेन भूयस्तान्येव द्वितीयानि एवं सकलकालं, युगे च नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः, सा च सप्तषष्टिसङ्ख्या विषमेति विवक्षितयुगपरिसमाष्टावन्यस्य युगस्य प्रारम्भे यानि विवक्षितयुगस्यादौ भुक्तानि नक्षत्राणि तेभ्योऽपराण्येव द्वितीयानि भोगमायान्ति, न तु तान्षेव, युगद्वये च चतुस्त्रिंशन्नक्षत्रमासशतं भवति सा च चतुस्त्रिंशन्नक्षत्रमासशतसङ्ख्या समेति द्वितीययुगपरिसमाप्तौ पटूपञ्चाशदपि नक्षत्राणि समाप्तिमुपयान्ति ततो विवक्षितयुगादारभ्य तृतीये युगे तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव देशे तदा चन्द्रमसो योगः, युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि एकैकस्मिंश्चाहोरात्रे मुहूर्त्तास्त्रिंशत्ततोऽष्टादशानां शतानां त्रिंशदधिकानां त्रिंशता गुणने भवति यथोक्ता मुहूर्त्तसङ्ख्या, यथोक्तमुहूर्त्तसङ्ख्यातिक्रमे च तादृशेनैव नक्षत्रेण सह योगः चन्द्रमसस्तस्मिन्नेव देशे न तु तेन नक्षत्रेणान्यस्मिन् वा देशे इति, 'ता जेण'मित्यादि, इदं सूत्रमक्षरार्थमधिकृत्य सुगमं, भावना तु प्रागेव कृता, नवरं युगद्वयकालः पत्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि अहोरात्राणामेकैकस्मिंश्चाहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्त्ता | इति षटूत्रिंशच्छतानां षष्ट्यधिकानां त्रिंशता गुणने यथोक्ता मुहूर्त्तसङ्ख्या भवति । तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सहान्यस्मिन् तस्मिन् [ अन्यस्मिन् ] वा देशे चन्द्रमसो योगकालप्रमाणमुक्तम्, सम्प्रति सूर्यविषये तदाह-'ता जेण मित्यादि, ता इति पूर्ववत् अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह सूर्यो यस्मिन् देशे योगं युनक्ति स इमानि त्रीणि षट्षष्ट्यधिकानि | रात्रिन्दिवशतानि उपादाय - अतिक्रम्य पुनरपि स सूर्यस्तस्मिन्नेव देशे तादृशेनैवान्येन नक्षत्रेण योगं युनक्ति न तु तेनैव, कुत इति चेत्, उच्यते, इह चन्द्रो नक्षत्रमासेनैकेनाष्टाविंशतिं नक्षत्राणि भुङ्क्ते, सूर्यस्तु त्रिभिरहोरात्रशतैः षट्षष्ट्यधिकैः, Education Intonation For Parts Only ~ 401 ~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्राक [६९] 45 सू६९ सूर्यप्रज्ञ-त्रिीणि चाहोरात्रशतानि षट्पट्यधिकानि एकः सूर्यसंवत्सरः, ततोऽन्यस्त्रिभिरहोरात्रशतैः षषष्ट्यधिकैरन्यानि द्वितीया-१० प्राभूते तिवृत्तिःलान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि परिभुड़े, तदनन्तरं भूयस्तान्येव प्रधमान्यष्टाविंशति नक्षत्राणि तावत्याहोरात्रसञ्जाया क्रमेण २२ प्राभूत(मल०) युनक्ति, ततः षट्षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रयातिक्रमेण सूर्यस्य तस्मिन्नेव देशे तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह योगो न तु प्राभृते ॥१९६॥ तेनैव, 'ता जेण'मित्यादि, इदं सूत्रमक्षरार्धं प्रतीत्य सुगर्म, भावना तु प्रागेव कृता, ता जेण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, अद्य-विवक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह सूर्यो यस्मिन् देशे योगं युनक्ति स इमानि अष्टादश रात्रिन्दिवशतानि त्रिंशतानि नक्षत्रयोगः त्रिंशदधिकानि उपादाय-अतिक्रम्य पुनरपि तस्मिन्नेव देशेऽन्येनैव तादृशेन सह योग युनक्ति, न तु तेनैव, कस्मादिति | चेत्, उच्यते, इह रात्रिन्दियानामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि युगे भवन्ति, तत्र सूर्यो विवक्षितादिनादारभ्य तस्मिनेव देशे तदैव दिने तेनैव नक्षत्रेण सह योगमागच्छति तृतीयसंवत्सरे, युगे च सूर्यवर्षाणि पञ्च, ततस्तृतीये पश्चमे चा सूर्यसंवत्सरे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण तस्मिन्नेव काले योगमादत्ते न तु युगातिकमे षष्ठे वर्षे इति, 'ता जेण'मित्यादि, सुगम, नवरं पत्रिंशद्रात्रिन्दिवशतानि पश्यधिकानि युगद्वये भवन्ति, युगद्वये च दश सूर्यनक्षत्राणि (प्रथा ६०००), ततो युगद्वयातिकमे एकादशे वर्षे सूर्यस्य तेनैव नक्षत्रेण सह तस्मिन्नेव देशे योग उत्पद्यते इति । इह जम्बूहीपे हो चन्द्रमसी द्वौ सूर्यो, एकैकस्य चन्द्रमसो भिन्नो ग्रहादिकः परिवार इति श्रुत्वा कश्चिदेवमपि मन्येत यथा भिन्नकालं मण्ड-2 C ॥१९६॥ शालेषु चन्द्रादीनां गतिर्भिन्नकालं च तेषां नक्षत्रादिभिः सह योग इति, ततस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह ता जया णं इमे चंदे.गतिसमावण्णए भवति तताणं इसरेवि चंदे गतिसमावण्णए भवति, जताणे इतरेवि अनुक्रम [९६] M ~402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक चंदे गतिसमावण्णए भवति तता गं इमेवि चंदे गतिसमावण्णए भवति, ता जया णं इमे सूरिए गइसमावपणे भवति तया णं इतरे सूरिए गइसमावण्णे भवति जता णं इतरे सूरिए गतिसमावण्णे भवति तया गं इमेवि सूरिए गइसमावण्णे भवति, एवं गहेवि णक्खत्तेवि, ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं भवति तता लणं इतरेवि चंदे जुत्ते जोगेणं भवति, जया णं इयरे चंदे जुत्ते जोगेणं भवह तताणं इमेवि चंदे जुत्ते जोगे गं भवति, एवं सूरेवि गहेवि णक्खत्तेवि, सताविणं चंदा जुत्ता जोएहिं सतावि णं सूरा जुत्ता जोगेहिं सयावि णं गहा जुत्ता जोगेहिं सयाविणं नक्खत्ता जुसा जोगेहिं दुहतोवि णं चंदा जुत्ता जोगेहिं दुहतोदि णं सूरामा जुत्ता जोगेहिं दुहतोवि णं गहा जुत्ता जोगेहिं दुहतोवि णं णक्खत्ता जुत्ता जोगेहिं । मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउताए सतेहिं छेत्ता इसणवखत्ते खेत्तपरिभागे णक्खत्तविजए पाहुडेति आहितेत्तियेमि (सूत्र ७०) दसमस्स पाहुडस्स बावीसतिमं पाहुडपाहुई समत्तं ॥ दसमं च पाहुढं समत्तं ।।। 'ता जया 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यस्मिन् कालेऽयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो भरतक्षेत्र प्रकाशयन् विवक्षितश्चन्द्रो विवक्षिते मण्डले इति गम्यते गतिसमापनो-गतियुक्तो भवति तदा-तस्मिन् काले इतरोऽपि-ऐरावतक्षेत्र प्रकाशयन् विवक्षितश्चन्द्रः तस्मिन्नेव विवक्षिते मंडले गतिसमापन्नो भवति, एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं 'एवं| गहेवि एवं नक्सपिसि एवं-उक्तप्रकारेण ग्रहेऽपि द्वावालापको वक्तव्यौ नक्षत्रेऽपि च, तद्यथा-'जया र्ण इमे गहे गहसमावन्ने हवा तयाणे इतरेवि गहे गइसमावन्ने भवइ, ताजयाणं इयरे गहे गइसमावस्ने भवइ तयाणं इमेवि गहे गतिसमावण्णे अनुक्रम [९७] SAREauratoninternational ~403~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१०], -------------------- प्राभृतप्राभृत [२२], -------------------- मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ** प्रत सूत्रांक [७०] भवई' एवं नक्षत्रेऽपि वाच्यं,'ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेण मित्यादि, सुगम, नवरं 'दुहतोवित्ति उभयतोऽपि दक्षिणो- १० प्राभृते तिवृत्तिः त्तरयोः पूर्वपश्चिमयो, 'मण्डलं सयसहस्सेण'मित्यादि, अस्मिन्नक्षत्रविचये-नक्षत्रविचयनाम्नि द्वाविंशतितमे प्राभृतप्राभृते २२ प्राभूत(मल.) इत्येष नक्षत्र क्षेत्रपरिभाग आख्यातो मण्डलं स्वेन स्वेन कालेन षट्पञ्चाशता नक्षत्रैर्यावन्मानं क्षेत्र व्याप्यमानं सम्भाव्यते ताव- प्राभृते न्मानं बुद्धिपरिकस्पितं शतसहस्रेण-लक्षेण अष्टनवत्या च शतैछित्त्वा-विभज्य ब्याख्यातः,एतच्च प्रागेव भावित, इति येमि- चन्द्रादे: ॥१९ ॥ त्ति' इति-एतत् अनन्तरोक्कं भगवदुपदेशेन वीमीति अन्धकारवचनमेतत् , यद्वा भगवद्वचनमिदं शिष्याणां प्रत्ययदायो-13 सर्वत्र समयोगिता त्पादनार्थ यथा इति-एतत् अनन्तरोक्तमहं ब्रवीमीति, ततः सर्व सत्यमिति प्रत्येतव्यमिति । इति श्रीमलयगिरिविरचि-13 तायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभूतस्य द्वाविंशतितमं प्राभूतप्राभूत समाप्तम् ॥ दशम प्राभृतं समाप्तम् ॥' तदेवमुक्त दशमं प्राभृतं साम्प्रतमेकादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा 'संवत्सराणामादिर्वक्तव्यः' इति, ततस्त-11 द्विषयं प्रश्नसूत्रमाहMI ता कहं ते संवच्छराणादी आहितेति वदेजा, तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरे पं०२०-चंदे २ अभिवहिते चंदे अभिवहिते, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स चंदस्स संवकछरस्स के आदी आहितेति वदेजा, ता जेणं पंचमस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पज्जवसाणं से णं पढमस्स चंदस्स संबच्छरस्स आदी अर्णतरपुरक्ख ॥१९॥ समए तीसेणं किंपज्जवसिते आहितेति वदेजा,ताजेणं दोचस्स आदी चंदसंवच्छरस्स सेणं पढमस्स चंदसंव **5* 5 अनुक्रम S [९७]] C+ 555 - For P OW अथ दशमे प्राभृते प्राभृतप्राभृतं- २२ परिसमाप्तं तत्समाप्ते दशमं प्राभृतं अपि परिसमाप्तं • अथ एकादशं प्राभतं आरभ्यते . ~404~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१] मच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खसेणं जोएति, ता उत्तराहि आसादाहि, उत्तराणं आसादाणं छदुवीसं मुहुत्ता छदुवीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तद्विधा छित्ता चउप्पण्णं चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता पुणवसुणा, पुणवसुस्स सोलस मुहत्ता अह य बावहिभागा मुहुत्तस्स बावहिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता वीसं चुणियाभागा सेसा । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंबच्छरस्स के आदी आहितेति वदेजा, ता जेणं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं दोचस्स णं चंदसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये, ता से णं किंपज्जवसिते आहितेति बदेजा , ता जे णं तच्चस्स अभिवडियसंवच्छरस्स आदी से णं दोचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता पुचाहिं आसाढाहिं, पुवाणं आसाहाणं सत्त मुहुत्ता तेवणं च बावडिभागा मुहत्तस्स बावडिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता इगतालीसं चुण्णियाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता पुणवसुणा, पुणअवसुस्स णं यायालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सत्त४ चुणिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचण्हं संचच्छराणं तच्चस्स अभिवहितसंवच्छरस्स के आदी आहिताति वदेजा, ता जे णं दोचस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं तच्चस्स अभिवहितसंबच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समए, ता से णं किंपज्जवसिते आहितेति वदेज्जा ?, ता जे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी अनुक्रम [९८ ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्राक [७१] सर्यप्रज- Xसे गं तच्चस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पजवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए । तं समयं च णं चंदे केणं णक्ख-18/१० प्राभृते तिवृत्तिः तेणं जोएति ?, ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं तेरस मुटुत्ता तेरस य वावहिभागामुत्सस्स ल २२माभृत(मल.) बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सत्तावीसं चुपिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेण जोपाभृते युग एति , ता पुणवसुणा, पुणपसुस्स दो मुहत्ता छप्पणं बावट्ठिभागा मुहत्सस्स बावडिभागं च सत्तद्विधा छेत्सा सवत्सराणा ॥१९८॥ माद्यान्तो सट्ठी चुपिणया भागा सेसा, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स के आदी आहितेति। सू७१ वदेज्जा?, ता जेणं तच्चस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पजबसाणे से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये, ता से णं किंपनवसिते आहितेति वदेजा, ता जे णं चरिमस्स अभिववियसंवच्छरस्स आदी से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये, तं समयं च णं चंदे केणं णक्खतेणं जोएति ?, ता उत्तराहि आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढणं चत्तालीसं मुहत्ता पत्तालीसं च धासहिभागा मुहत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चासही चुणियाभागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केर्ण णक्यतेणं जोएति, ता पुणवसुणा, पुणवसुस्स अउणतीसं मुहुत्ता एकवीसं वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावहिभाग च सत्तद्विधा ऐत्ता सीतालीसं चुणिया भागा सेसा, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिव-IFID१९८॥ साहितसंबच्छरस्स के आदी आहिताति वदेजा,ताजेणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं पंचमस्सा अभिवहितसंवच्छरस्स आदी अणतरपुरक्खडे समये, ता से णं किंपज्जवसिते आहितेति वदेज्जा, सा अनुक्रम [९८ ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१] 15515 जे गं पदमस्स चंदसंवच्छरस्स आदी से णं पंचमस्स अभिवहितसंवच्छरस्स पनवसाणे अणंतरपच्छा-11 कडे समये, तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं चरमसमये, नातं समयं च णं सूरे केण णक्वत्तेणं जोएति ,ता पुस्सेणं, पुस्सस्स गं एकवीसं मुहत्ता तेतालीसं च बावट्टि-1 भागे मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं ससहिधा छेत्ता तेत्तीसं चुणिया भागा सेसा (सूत्रं ७१)॥ एकारसम पाहुड समत्तं ॥ | 'ता कहं ते इत्यादि, सा इति पूर्ववत्, कधं-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया संवत्सराणामादिराख्यात इति वदेत्, भगवानाह-तत्थ खलु इत्यादि, तत्र-संवत्सरविचारविषये खल्विमे पश्च संवत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवतिः चन्द्रोऽभिवद्धितः, एतेषां च स्वरूपं प्रागेवोपदर्शितं, भूयः प्रश्नयति–ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषां द पश्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमस्य चान्द्रस्य संवत्सरस्य क आदिराख्यात इति वदेत् , भगवानाह-'ता जेण'मित्यादि, यत् पाश्चात्ययुगवर्तिनः पञ्चमस्याभिवतिसंवत्सरस्य पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः तस्मादनन्तरं पुरस्कृतो-भावी वः समयः स प्रथमस्य चन्द्रसंवत्सरस्यादिः, तदेवं प्रथमसंवत्सरस्यादिज्ञाता, सम्पति पर्यवसानसमयं पृच्छति–ता से - मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, स प्रथमश्चान्द्रसंवत्सरः किंपर्यवसितः-किंपर्यवसान आख्यात इति वदेत् !, भगवानाह'ता जेण'मित्यादि, यो द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्यादि:-आदिसमयस्तस्मादनन्तरो यः पुरस्कृतः-अतीतसमयः स प्रथमचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः, 'तं समयं च ण'मित्यादि, तस्मिंश्चान्द्रसंवत्सरपर्यवसानभूते समये चन्द्रः अनुक्रम [९८ ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- तिवृत्तिः (मल.) ॥१९॥ केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति-करोति !, भगवानाह–ता उत्तराहिं'इत्यादि, इह द्वादशभिः पौर्णमासीभिश्चान्द्रः ११ प्राभृते संवत्सरो भवति, ततो यदेव प्राक् द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाणं सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं चोक्तं तदेवान्यू- २२प्राभृतनातिरिक्तमत्रापि द्रष्टव्यं, तथैव गणितभावना कर्त्तव्या, एवं शेषसंवत्सरगतान्यादिपर्यवसानसूत्राणि भावनीयानि याव प्राभृते त्याभृतपरिसमाप्तिः, नवरं गणितभावना क्रियते तत्र द्वितीयसंवत्सरपरिसमाप्तिश्चतुर्विशतितमपौर्णमासीपरिसमाप्ती, युगसंवत्सतत्र ध्रुवराशिः षट्पष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पश्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः ६६ । राणामादि५।१ । इत्येवंप्रमाणश्चतुर्विंशत्या गुण्यते, जातानि पञ्चदश शतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहर्तगतानां च द्वाप पर्यवसाने ष्टिभागानां विंशत्युत्तरं शतमेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तपष्टिभागाः १५८४ । १२० । २४ । तत एतस्माद-| टभिः मुहर्तशतैरेकोनविंशत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तपष्टिभागैरेका परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः शुद्ध्यति, ततः स्थितानि पश्चात्सप्त मुहर्तशतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां पञ्चनवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ७६५ । ९५।२५ । ततो 'मूले सत्तेव | |चोयाला' इत्यादि वचनात् सप्तभिश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुहर्त्तशतैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्पट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ततः स्थिताः पश्चात् द्वाविंशतिर्मुहत्तों एकस्य च मुहूर्तस्याष्टी द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २२ । ८।२६।। | तत आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये पूर्वाषाढानक्षत्रस्य सप्त मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य विपश्चाशद् द्वाप-18 ॥१९९॥ ~408~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) (१६) प्राभत [११], ..................-- प्राभतप्राभत ------------- मुल ७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत [७१] दीप ष्टिभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः शेषार, तदानी च सूर्येण युक्तस्य पुनर्वसोचत्वारिंशत मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य पश्चत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः शेषाः, तथाहि-स एव | | ध्रुवराशिः। ६६।५।१। चतुर्विंशत्या गुणितो जातानि पञ्चदश शतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्तगतानां च ६ द्वापष्टिभागानां विंशत्युत्तरं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तपष्टिभागाः १५८४ । १२० । २४ । तत एत-| स्मादष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकमुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तपष्टिभागः ८१९ । २४ । ६५ एकः परिपूर्णी नक्षत्रपोयः शुद्धः, स्थितानि पश्चात् सप्त मुहर्त्तशतानि पञ्चषध्यधि-IN कानि मुहूर्तानामेकमुहूर्तगताश्च द्वाषष्टिभागाः पञ्चनवतिः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ७६५ । ९५ १२५ । तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहरेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशता सप्तषष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनषष्टिः सप्तषष्टिभागाः ७४६ । ५१ । ५९ । ततो भूयोऽप्येतस्मात सप्तभिर्मुहुर्तशतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैरेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तष-1 राष्टिभागैरश्लेषादीनि आद्रापर्यन्तानि शुद्धानि, स्थितौ पश्चाद् द्वौ मुहूर्तावेकस्य च मुहूर्तस्य षविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टिः सप्तषष्टिभागाः २ । २६ । ६० । आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षत्रस्य | द्वाचत्वारिंशन्मुहुर्ता एकस्य च मुहर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः शेषाः, अनुक्रम [९८] -987-% FarPramLPramoOM ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत | ग्राभृते सुत्रांक [७१] सूर्यप्रज- तथा तृतीयाभिवतिसंज्ञसंवत्सरपरिसमाप्तिः सप्तत्रिंशता पौर्णमासीभिस्ततो ध्रुवराशिः ६६ ।५।१ । सप्तत्रिंशता११प्राभूते तिवृत्तिःगुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विंशतिः शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि द्वाषष्टिभागानां च पञ्चाशीत्यधिक शतं सप्तपष्टि २२ प्राभृत(मल) भागाः सप्तत्रिंशत् २४४२ । १८५ । ३७ । तत एतेभ्योऽष्टी मुहूर्तशतानि एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिभागा इत्येकनक्षत्रपर्यायपरिमाणं द्वाभ्यां गुणयित्वा | कायुगसंवत्स॥२०॥ शोध्यते, ततः स्थितानि पश्चादष्टौ मुहूर्तशतानि चतुरुत्तराणि मुहूर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां पञ्चत्रिंशदधिकं शता राणामादिहै एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः८०४।१३५ ।३१। तत एतेभ्यः सप्तभिर्मुहुर्तशतैश्चतुःसप्तत्यधि- सू ७१ कैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तपष्ठिभागैरभिजिदादीनि पूर्वाषाढा-11 पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चादेकत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्याष्टचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशत्सतषष्टिभागाः ३१ । ४८१४० । तत आगतं तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहतों एकस्य च मुहूर्सस्य त्रयोदश द्वापष्ठिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तप|ष्टिभागाः शेषाः, तदानी च सूर्येण सम्प्रयुक्तस्य पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वौ मुहूत्तौं एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशद् द्वापष्टिभागाः एकच द्वापष्ठिभार्ग सतषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः पष्टिश्थूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५। P१ सप्तत्रिंशता गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विंशतिः शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वापष्टिभा गानां पश्चाशीत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः २४४२ । १८५ । ३७। तत एतेभ्यः अनुक्रम [९८ ॥२० ॥ weredturary.com ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१] 515485656545 पूर्ववत सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाण द्विगुणं कृत्वा शोध्यते, स्थितानि पश्चादष्टौ मुहूर्त्तशतानि चतुरुत्तराणि मुहर्तसत्कानां द्वापष्टिभागानां पश्चत्रिंशदधिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः ८०४ । १३५ । ३९॥ ततो भूय एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहूत्रेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशता सप्तपष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां विनवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् सप्तषष्टिभागाः ७८५ । ९२ । ६ । ततो भूयोऽप्येतेभ्यः सप्तभिर्मुहर्तशतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पध्या सप्तपष्टिभागैरश्लेषादीनि आपर्यन्तानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाम्मुहर्ता द्वाचत्वारिंशत्, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्ठ सप्तपष्टिभागाः ४२।५।७। तत आगतं तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपर्यवसानसमये सूर्येण सह संयुक्तस्य पुनर्वसोद्वौं मुहूर्तावेकस्य च मुहूर्तस्य पट्पश्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः, तथा चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानमेकोनपञ्चाशत्तमपौर्णमासीपरिसमाप्तौ ततः स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१।एकोनपञ्चाशता गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां द्वात्रिंशच्छतानि चतुर्विंशदधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ३२३४ । २४५ । ४९ । तत एतस्मात् प्रागुक्त सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गुणयित्वा शोध्यते, ततः स्थितानि सप्त शतानि सप्तसतत्यधिकानि मुहर्तानां | मुहर्त्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां सप्तत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत् सप्तपष्टिभागाः ७७७ । १७० । अनुक्रम [९८ -456 SARERatunintentiational ~411~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [८] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७१] प्राभृत [११], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥२०१॥ ५२ । ततः सप्तभिः शतैः चतुःसप्तत्यधिकैर्मुहर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य २ षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैर्भूयोऽभिजिदादीनि पूर्वाषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात्पञ्च मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकविंशतिर्द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः ५ । २१ । ५१ । तत आगतं चतुर्थचान्द्र संवत्सरपर्यवसानसमये उत्तराषाढा नक्षत्रस्य चन्द्रयुक्तस्य एकोनचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः शेषाः, तदानीं च सूर्येण सह युक्तस्य पुनर्वसु नक्षत्रस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकविंशतिद्वषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सरका सप्तचत्वारिंशच्चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि - स एव ध्रुवराशिरेकोनपञ्चाशता गुण्यते, गुणयित्वा च ततः प्रागुक्तं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गुजयित्वा शोध्यते, स्थितानि सप्त मुहूर्त्तशतानि सप्तसप्तत्यधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तत्यधिकं शतमेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः ७७७ । १७० । ५२, तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहूर्तेरेकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशता सप्तषष्टिभागैः पुण्यः शुद्धः स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि मुहूर्त्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ७५८ । १२७ । १९ । ततः सप्तभिः शतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकर्मुहर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतु विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पट्पट्या सप्तषष्टिभागैरश्लेषादीन्याद्रपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् पञ्चदश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतिः सप्तषष्टिभागाः १५।४०। Education international For Pernal Use Only ~412~ ११ प्राभृते २२ प्राभृत प्राभृते युगसंवत्सराणामादिपर्यवसाने सू ७१ ॥२०१॥ or Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [११], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७१] R २०,तत आगतं चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षत्रस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिःषष्टि-12 भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः शेषा इति, पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरपर्यवसानं च द्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये,ततो यदेव प्राक् द्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाणं सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाण चोक्तं तदेवान्यूनातिरिक्तमत्रापि द्रष्टव्यम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायामेकादशं प्राभृतं समाप्तम् । तदेवमुक्तमेकादशं प्राभृतम् , सम्पति द्वादशमुच्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा 'कति संवत्सरा भवन्ति' तद्विषय प्रश्नसूत्रमाह ता कति णं संवच्छरा आहितातिवदेजा ?, तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पं० सं०-णक्खत्ते चंदे उडू आदिचे अभिवहिते, ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स नक्वत्तसंवच्छरस्स णक्खत्तमासे तीसति|मुहुत्तेणं २ अहोरत्तणं मिजमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति वदेवा?, ता सत्ताधीसं राइंदिदाई एक वीसं च सत्ताहिभागा राइंदिघस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति शवदेवा, ता अट्ठसए एकूणवीसे मुहत्ताणं सत्ताबीसं च' सत्तट्ठिभागे मुटुत्तस्स मुहत्तग्गेणं आहितेतिवदेवा, ता एएसि णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णक्खत्ते संघच्छरे, ता से णं केवतिए राईदिय ग्गेणं आहितातिवदेजा ?, ता तिणि सत्तावीसे राइंदियसते एकावन्नं च सत्सहिभागे राईदियस्स राइंदिदयग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तगण आहितेति चदेज्जा, ता णव मुहत्तसहस्सा अनुक्रम [९८ एकादशं प्राभृतं परिसमाप्तं अत्र अथ द्वादशं प्राभृतं आरभ्यते ~413~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] सू७२ सूर्यप्रज्ञ- अ य बत्तीसे मुहत्तसए छप्पन्नं च सत्तविभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेण आहितेतिवदेज्जा । ता एएसि णं १२ प्राभृते विवृत्तिःला पंचण्डं संवच्छराणं दोचस्स चंदसंवच्छरस्स चंदे मासे तीसतिमुहुत्तेणं २अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए राई-२२प्राभृत(मल०) दियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एगूणतीसं राइंदियाई बत्तीसं बावट्ठिभागा राईदियस्स राइदियग्गेणं प्राभूते आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेज्जा , ता अट्ठपंचासते मुहुत्ते तेत्तीसं च ॥२०२॥ नक्षत्रादिवछावहिभागे मुहत्तग्गेणं आहितेतिवदेजा, ता एस णं अद्धा दुचालसखुत्तकडा चंदे संवच्छरे, ता से पं पस राविन्दिकेवतिए राईदियग्गेणं आहितेति बदेजा ?, ता तिन्नि चउत्पन्ने राइंदियसते दुवालस य चावविभागा| वमुहूर्तमान राइंदियग्गेणं आहितेति वदेवा?, तीसे णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता दस मुहत्तसहस्साई | साउच्च पणुवीसे मुद्दत्तसए पण्णासं च बावहिभागे मुहुत्तेणं आहितेति वदेजा । ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छ-IM राणं तच्चस्स उडुसंवच्छरस्स उडमासे तीसतीसमुहुत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहियाति वदेजा, ता तीसं राइंदियाणं राइंदियग्गेणं आहितेतिवदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा , ता णव मुहुत्तसताई मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेवा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा उडू संवच्छरे, २०२॥ ता से णं केवतिए राइदियम्गेणं आहितेति वदेजारी, ता तिणि सट्टे राइंदियसते राइदियग्गेणं आहितेति वदेवा, ता से णं केवतिए मुहुत्सग्गेणं आहिपतिवदेजा, तादस मुहुत्तसहस्साई अट्टय सयाई मुहुत्सग्गेणं आहितेति चदेजा। ता एएसिणं पंचण्ह संबच्छराणं चउत्थस्स आदिचसंवच्छरस्स आइथे मासे तीसतिमुहुत्तेण: अनुक्रम [९९] ~414~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] टीप अहोरसेणं गणिजमाणे केवइए राइंदियग्गेण आहितेति वदेजा ?, ता तीसं राईदियाई अवद्धभागं च राई-1 दियस्स राइदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता णय पक्षणरस मुहुत्तसए मुहत्तग्गेणं आहितेति बदेजा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा आदिचे संवच्छरे, ता से णं केवतिए राइदियग्गेणं आहितेति बदेजा, ता तिन्नि छाबडे राईदियसए राइंदियग्गेणं आहियत्तिवइज्जा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहियत्ति वइज्जा,ता दस मुहत्तस्स सहस्साई णव असीते मुहत्तसते मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा । ता एएसिणं पंचण्डं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स अभि-13 वहिते मासे तीसतिमुहुत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एकतीस राइंदियाई एगूणतीसं च मुहुत्ता सत्तरस बायट्ठिभागे मुहुत्तस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता णव एगूणसढे मुहुत्तसते सत्तरस यावट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहत्तग्गेणं आहि-18 तेति वदेजा, ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा अभिवहितसंवच्छरे, ता से णं केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति घदेजा ?, तिपिण तेसीते राइंदियसते एकवीसं च मुहुत्ता अट्ठारस थावहिभागे मुहुत्तस्स राइंदिकायग्गेणं आहितेतिवदेजा, तिष्णि तेसीते राइंदियसते एकवीसं च मुहत्ता अट्ठारस बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स राई. दियग्गेणं आहितेति घदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेण आहितेति वदेजा ?, ता एकारस मुहत्तसहस्साई। पंच य एकारस मुहत्तसते अट्ठारस वावहिभागे मुहुत्तस्स मुहत्तग्गेणं आहितेतिवदेजा (सूत्रं ७२)॥ BREA4%A4-3 अनुक्रम [९९] ~415~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [९] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७२] प्राभृत [१२], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ- 'ता कइ संवच्छरा इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कति संवत्सरा भगवन् ! स्वया आख्याता इति वदेत् १, भगवानाह - विवृत्तिः 'तत्रे' त्यादि, तत्र - संवत्सर विचारविषये खल्विमे पञ्च संवत्सरा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - 'नक्खत्ते' त्यादि, पदैकदेशे पदसमु( मल०) दायोपचारात् नक्षत्र संवत्सरश्चन्द्रसंवत्सर ऋतुसंवत्सर आदित्यसंवत्सरोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः, एतेषां च पञ्चानामपि संव॥२०३॥ * त्सराणां स्वरूपं प्रागेवोपवर्णितं, 'ता एएसि ण'मित्यादि प्रश्नसूत्रं, 'ता' इति पूर्ववत्, एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमस्य नक्षत्र संवत्सरस्य सत्रको यो नक्षत्रमासः स त्रिंशन्मुहर्त्तप्रमाणेनाहोरात्रेण गण्यमानः कियान् रात्रिन्दिवाप्रेणरात्रिन्दिवपरिमाणेनाख्यात इति वदेत् ?, भगवानाह - 'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् सप्तविंशतिः रात्रिन्दिवानि एक| विंशतिश्च सप्तषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाप्रेणाख्यात इति वदेत्, तथाहि - युगे नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिरेतच प्रागेव भावितं, युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, ततस्तेषां सप्तषष्या भागे हृते लब्धाः सप्तविं शतिरहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २७ ।। 'ता से ण'मित्यादि, स नक्षत्रमासः कियान् ★ मुहूर्त्ताग्रेण मुहूर्त्तपरिमाणेनाख्यात इति वदेत् १, भगवानाह - 'ता अट्ठसए' इत्यादि, अष्टोत्तरशतान्ये कोनविंशत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ८१९ । २७ । मुहर्त्ताग्रेणाख्यात इति वदेत्, तथाहि-नक्षत्रमासपरिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, ततः सवर्णनार्थं सप्तविंशतिरप्यहोरात्राः सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सप्तषष्टिभागानामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, तानि मुहूर्त्तानयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि Eucation Intelation For Parts Only ~416~ १२ प्राभृते ४२२ प्राभृतप्राभृते नक्षत्रादिवरात्रिन्दि+ वमुत्तेमानं सू ७३ ॥२०३॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] टीप नव शतानि मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागानां ५४९००, तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति ८१९ । ३७,'ता एस 'मित्यादि, एषाअनन्तरमुक्ता नक्षत्रमासरूपा अद्धा द्वादशकृत्वः कृता, द्वादशभिवारगुणिता इत्यर्थः, नक्षत्रसंवत्सरो भवति, सम्प्रति सकलनक्षत्रसंवत्सरगतराबिन्दिवपरिमाणमुहूर्तपरिमाणविषयप्रश्ननिवेचनसूत्राण्याह-ता से 'मित्यादि, सुगम, नवरं रात्रिन्दिवचिन्तायां नक्षत्रमासरात्रिन्दिवपरिमाणं मुहूर्त्तचिन्तायां नक्षत्रमासमुहुर्तपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितव्य ततो यथोक्का रात्रिन्दिवसङ्ख्या मुहूर्तसङ्ख्या च भवति, 'ता एएसि णमित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता एगूणतीसमित्यादि, एकोनत्रिंशत् रात्रिन्दिवानि द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य एतावत्परिमाणश्चन्द्रमासो रात्रिन्दिवानेणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-युगे द्वापष्टिश्चन्द्रमासाः, एतच्च प्रागपि भावितं, ततो युगसत्कानामष्टादशानामहोरात्रशतानां त्रिंशदधिकानां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः २९ । ३३ । 'ता से णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह–ता अट्टे'त्यादि, अष्टौ मुहर्तशतानि पञ्चाशीत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशत् द्वापष्टिभागाः, एतावत्परिमाणश्चन्द्रमासो मुहर्ताओणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-चन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः, तत्र सवर्णनार्थमेकोनत्रिंशदप्यहोरात्रा द्वापश्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च उपरितना द्वात्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि द्वापष्टिभागानां १८३०, तत एतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पश्चाशत्सहस्राणि नव शतानि महर्तगतद्वापष्टि-| अनुक्रम [९९] ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [९] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७२] प्राभृत [१२], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः -सूर्यमज्ञतिवृत्तिः ( मल० ॥२०४॥ भागानां ५४९००, तत एतेषां द्वापट्या भागो हियते, उब्धानि अष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्त्तानामेकस्य च ४२ १२ प्राभृते मुहूर्त्तस्य त्रिंशद् द्वाषष्टिभागाः ८८५ । 'ता एस णं अद्धा इत्यादि, प्राग्वद् भावनीयं, 'ता एएसि णमित्यादि, तृतीयऋतुसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवान् प्रतिवचनमाह-'ता तीसे णमित्यादि ता इति पूर्ववत् त्रिंशता रात्रिन्दिवाप्रेण ऋतुमास आख्यात इति वदेत्, तथाहि-- ऋतुमासाः युगे एकषष्टिः, ततो युगसत्कानामष्टादशशतसक्यानां त्रिंशदधिकानामहोरात्राणामेकपष्ट्या भागो हियते, लब्धात्रिंशदहोरात्राः ३०, 'ता से ण'मित्यादि, मुहूर्त्तविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'ता नव मुहत्तसया' इत्यादि, नव मुहूर्त्तशतानि मुहर्सायेणाख्यात इति वदेत्, तथाहित्रिंशद्रात्रिन्दिवानि ऋतुमासपरिमाणमेकैकस्मिंश्च रात्रिन्दिये त्रिंशन्मुहूर्त्तास्ततस्त्रिंशतस्त्रिंशता गुणने नव शतानि भवन्तीति, 'ता एएसि ण' मित्यादि, प्राग्वद् भावनीयं, 'ता एएसि णमित्यादि चतुर्थ सूर्य संवत्सरविषयं प्रश्नसूत्रं तच सुगमं, भगवानाह - 'ता तीस 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकस्य रात्रिन्दिवस्य एकमपार्श्वभागं, एकमर्द्धमित्यर्थः, एतावत्प्रमाणः सूर्यमासो रात्रिन्दिवात्रेण आख्यात इति वदेत्, तथाहि - सूर्यमासा युगे षष्टिस्ततो युगसत्कानामहोरात्राणां त्रिंशदधिकाष्टादशशत सङ्ख्यानां पट्या भागो हियते, लब्धाः सार्द्धास्त्रिंशदहोरात्रा', 'ता से ण'मित्यादि, मुहूर्त्तविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम्, भगवानाह - 'नवपण्णरे' इत्यादि नव मुहर्त्तशतानि पञ्चदशाधिकानि मुहूर्त्त - परिमाणेनाख्यात इति वदेत्, तथाहि —सूर्यमासपरिमाणं त्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्यार्द्धं तच्च त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि, रात्रिन्दिवार्जे च पञ्चदश मुहर्त्ता इति, 'ता एएसि ण' मित्यादि, प्राग्वद् भाव For Pasta Use Only ~418~ २२प्राभूतप्राभूते नक्षत्रादिवपरात्रिन्दि७ मुहूर्त्तमानं सू ७२ ॥२०४॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [९] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७२] प्राभृत [१२], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education inten नीयं । 'ता एएसि णमित्यादि, पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्रे सुगमं, भगवानाह - 'ता एकतीस 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एकत्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकोनत्रिंशश्च मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तदश द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवाग्रेणाख्यात इति वदेत्, तथाहि - त्रयोदशभिश्चन्द्रमासैरभिवर्द्धितसंवत्सरः, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः २९ । एतत्रयोदशभिर्गुण्यते, ततो यथासम्भवं द्वाषष्टिभागे रात्रिन्दिवेषु जातेषु जातमिदं त्रीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य ३८३ । एतदभिवर्द्धित संवत्सरपरिमाणं, तत एतस्य द्वादशभिर्भागो हियते, तत्र त्रयाणामहोरात्रशतानां त्र्यशीत्य|धिकानां द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः, शेपास्तिष्ठन्ति एकादश, ते च मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि ३३०, येऽपि च चतुश्चत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि १३२०, तेषां द्वापट्या भागो हियते, लब्धा एकविंशतिमुहूर्त्ताः, शेपास्तिष्ठन्त्यष्टादश, तत्रैकविंशतिर्मुहूर्त्ता मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्त्तानां त्रीणि शतान्येकपञ्चाशदधिकानि १५१, तेषां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ताः शेषा स्तिष्ठन्ति त्रयः, ते द्वाषष्टिभागकरणार्थे द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातं पडशीत्यधिकं शतं १८६, ततः प्रागुक्ताः शेषीभूता मुहूर्त्तस्याष्टादश द्वाषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते चतुरुतरे २०४, तयोर्द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा मुहूर्त्तस्य सप्तदश द्वाषष्टिभागाः, 'ता से पणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् सोऽभिवर्द्धितमासः कियान् मुहूर्त्ताप्रेणाख्यात इति वदेत् ?, भगवानाह - 'नवे' त्यादि, नव मुहूर्त्तश For Parts Only ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: शिवृत्तिः प्रत सूत्रांक [७२] टीप सूर्यप्रज्ञ-18 तान्येकोनषष्ठयधिकानि ९५९ सप्तदश च मुहूर्तद्वाषष्टिभागाः, तथाहि एकत्रिंशदप्यहोरात्रास्त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि १२ प्रामृत नव शतानि त्रिंशदधिकानि मुहूर्तानां, तत उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानामेकोनपाप-दार २२ प्राभृतधिकानि नव शतानि । 'ता एस णमित्यादि, प्राग्वद् व्याख्येयं, 'ता से 'मित्यादि, रात्रिन्दियविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, नक्षत्रादिव ॥२०५|| भगवानाह-'ता तिपणी त्यादि, त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि त्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिर्मुहूता एकस्य च मुहूत्तेस्या- रात्रिन्दिसाष्टादश द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवाणाख्यात इति वदेत, तथाहि-एकत्रिंशदहोरात्रा द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि श्रीणि वर्तमान शतानि द्विसप्तत्यधिकानि अहोरात्राणां ३७२, तत एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतान्यष्टा- सू ७२ 18 चत्वारिंशदधिकानि ३८५, तेषामहोरात्रकरणा) त्रिंशता भागो ह्रियते, लब्धा एकादश अहोरात्राः, अष्टादश तिष्ठन्ति, THIयेऽपि च सप्तदश द्वापष्टिभागाः मुहूर्त्तस्य तेऽपि द्वादशभिर्गुण्यन्ते, जाते द्वे शते चतुरुत्तरे २०४, तयोषिष्ट्या भागो माहियते, लब्धास्त्रयो मुहर्तास्ते प्राक्तनेष्वष्टादशसु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकविंशतिर्मुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टादश द्वाप ष्टिभागा मुहूर्तस्य, 'ता से णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह–'एक्कारसे'त्यादि, एकादश मुहूर्तसहस्राणि पश्च मुहूर्तशतान्येकादशाधिकानि अष्टादश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्येति मुहूर्ताग्रेणाभिवतिसंवत्सर आख्यात इति वदेत , तथाहि-अभिवतिसंवत्सरपरिमाणं त्रीण्यहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टादश द्वापष्टिभागाः, तत्रैकस्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ता इति वीण्यहोरात्रशतानि ज्यशीत्यधिकानि त्रिंशता 14 गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिर्मुहूर्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्ता मुहूर्तसङ्ख्या भवतीति । सम्प्रत्येते पश्च-11 अनुक्रम [९९] ~420~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 6*40*86 प्रत सूत्रांक [७२] * टीप संवत्सरा एकत्र मीलिता यावत्प्रमाणा रात्रिन्दिवपरिमाणेन भवन्ति तावतो निर्दिदिक्षुः प्रथमतः प्रश्नसूत्रमाह-1 MI ता केवतिय ते नोजु राईदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता सत्तरस एकाणउते राईदियसते एगणनवीसं च मुहुतं च सत्तावणे यावद्विभागे मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पणपण्णं चुण्णियामागे राईदियग्गेणं आहितेति यदेजा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा , ता तेपपण मुहुत्तसहस्साई सत्त प उणापन्ने मुहूससते सत्तावणं बावविभागे मुहुत्तस्स पावद्विभागं च सत्तद्विधा छत्ता पणपणं चुपिणया भागा मुटुसग्गेणं आहितेति वदेवा, ता केवतिए णं ते जुगप्पत्ते राइंदियग्गेणं आहितेति विदेजा, ता अट्टतीसं राईदियाई दस य मुहुत्ता चत्तारि य यावविभागे मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तद्विधा ऐसा दुवालस चुण्णिया भागे राइंदियग्गेणं आहिताति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति। वदेजा ?, ता एकारस पण्णासे मुहत्तसए चत्तारि य पावद्विभागे यावद्विभागं च सत्तहिहा छेत्ता दुवालस लाचुपिणया भागे मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता केवतियं जुगे राइंदियग्गेणं आहितेति यदेजा, ता अट्ठा रसतीसे राइदियसते राईदियग्गेणं आहियाति वदेजा, ता से णं केवतिए मुहसग्गेणं आहियाति वदेजा, |ता चउप्पणं मुहत्तसहस्साई णव य मुहत्तसताई मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेवा, ता से णं केवतिए थावहिभागमुहत्तग्गेणं आहितेति वदेजा!, ता चउत्तीसं सतसहस्साई अट्टतीसं च वाचविभागमुष्टुत्तसते यावद्विभागमुहुत्तग्गे आहितेति वदेवा (सूत्रं ७३)॥ 5 अनुक्रम [९९] For P OW ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [63] दीप अनुक्रम [१०० ] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७३] प्राभृत [१२], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल० ) ॥२०३॥ २२ प्राभृत. प्राभृते नोयुगयुग मुहूर्त्तमानं सू ७३ ता इति पूर्ववत् कियत्- किंप्रमाणं ते वया भगवन् ! 'नोयुगं' नोशब्दो देशनिषेधवचनः किञ्चिदूनं युगमित्यर्थः, २१२ प्राभूते रात्रिन्दिवाद्येण - शत्रिन्दिवपरिमाणेनाख्यात इति वदेत् ?, भगवानाह - ता सत्तरसेत्यादि, नोयुगं हि किञ्चिदूनं युगं, तच्च नक्षत्रादिपञ्चसंवत्सरपरिमाणमतो नक्षत्रादिपश्च संवत्सरपरिमाणानामेकत्र भीलने भवति यथोक्ता रात्रिन्दिवसङ्ख्या, तथाहि--नक्षत्र संवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चाशत्सतषष्टिभागाः, चन्द्रसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य, १२ रात्रिन्दिवऋतुसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दियशतानि षष्यधिकानि, सूर्य संवत्सरस्य श्रीणि शतानि षट्षष्यधिकानि रात्रिन्दिवानां, अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि त्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिश्च मुहूर्त्ता एकस्य व मुहूर्त्तस्याष्टादश द्वापष्टिभागाः, तत्र सर्वेषां रात्रिन्दिवानामेकत्र मीलने जातानि सप्तदश शतानि नवत्यधिकानि, ये च एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पथदश शतानि त्रिंशदधिकानि १५३०, तेषां सतपा भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्पञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः २२ । मुहर्त्ताश्च लब्धा एकविंशती मुहूर्त्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जातास्त्रिचत्वारिंशन्मुहूर्त्तास्तत्र त्रिंशता अहोरात्रो लन्ध इति जातान्यहोरात्राणां सप्तदश शतान्येकनवत्यधिकानि १७९१, शेषास्तिष्ठन्ति मुहूर्त्तास्त्रयोदश १३, येऽपि च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य द्वादश तेऽपि मुहूर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि पद्मधिकानि ३६०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः पश्च मुहूर्त्तास्ते प्रागुक्तेषु त्रयोदशसु मुहूर्त्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टादश, शेषास्तिष्ठन्ति पश्चाशत् द्वाषष्टिभागा For Parata Use Only ~422~ ॥२०६॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: *% प्रत सूत्रांक [७३] मुहूर्तस्य, येऽपि च षट्पश्चाशत्सप्तपष्टिभागा मुहर्तस्य ते त्रैराशिकेन द्वापष्टिभागा एवं क्रियन्ते-पदि सप्तपट्या द्वाप-1 टिभागा लभ्यन्ते ततः पट्पञ्चाशता सप्तपष्टिभागैः कियन्तो द्वापष्टिभागा लभ्यन्ते, राशित्रयस्थापना ६७ । १२५६ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि चतुर्विंशच्छतानि द्वासप्तत्यधिकानि ३४७२, तेपामादिराशिना सप्तपष्ठया 21 |भागो प्रियते, लब्धा एकपञ्चाशदू द्वाषष्टिभागाः, ते च प्रागुकेषु पश्चाशति द्वापष्टिभागेष्यन्तः प्रक्षिप्यन्ते, जातमेकोत्तरं शतं | | १०१, ततस्तन्मध्येऽभिवतिसंवत्सरसत्का उपरितना अष्टादश द्वाषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातमेकोनविंशत्यधिक शतं द्वाषष्टिभागानां ११९, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चपञ्चाशत् द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः , द्वाषष्ट्या च द्वाषष्टिभागैरेको मुदत्तों लब्धः, स प्रागुक्तेष्वष्टादशसु मुद्दषु मध्ये प्रक्षिष्यते, जाता एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः १९, शेषाः सप्तपश्चाशत् द्वापष्टि- भागा अवतिष्ठन्ते इति, 'ता से णमित्यादि, मुहर्तपरिमाणविषयप्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगर्म, रात्रिन्दिवपरिमाणप त्रिंशता गुणने तदुपरि शेषमुहूर्तप्रक्षेपे च यथोक्तमुहूर्तपरिमाणसमागमात्, ता केवइए ण ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कियता रात्रिन्दिवपरिमाणेन तदेव नोयुग युगप्राप्तमाख्यातमिति यदेव!, कियत्सु रानिन्दिवेषु प्रक्षिप्तेषु तदेव नोयुगं| परिपूर्ण युगं भवतीति भावः, भगवानाह-'ता अहत्तीसमित्यादि, अष्टात्रिंशद् रात्रिन्दिषानि दश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारो द्वापष्टिभागा एक च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्वा तस्य सरका द्वादश चूर्णिका भागा इत्येता-1 वता रानिन्दिवपरिमाणेन युगप्राप्तमाख्यातमिति घदेत् , एतावत्सु रात्रिन्दिवादिषु प्रक्षिप्तेषु तत् नोयुग परिपूर्ण युग भवति इति भावः । सम्पति तदेव नोयुगं मुहूर्तपरिमाणात्मकं यावता मुहूर्तपरिमाणेन प्रक्षिप्तेन परिपूर्ण युगं भवति तद्वि दीप अनुक्रम [१००] % % % For P OW ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: . . प्रत सूत्रांक [७३] I सूर्यप्रज्ञ तापर्य प्रश्नसूत्रमाह-'ता से णमित्यादि सुगम, भगवानाह-सा इकारसे'त्यादि, इदं चाष्टात्रिंशतो रात्रिन्दिवानां १२ प्राभृतेप्तिवृत्तिः त्रिंशता गुणने शेषमुहर्रादिप्रक्षेपे च यथोक्तं भवति, भावार्थश्चार्य-एतायति मुहूर्तपरिमाणे प्रक्षिप्ते प्रागुक्त नोयुगमहर्तपरि-1:२२माभूत(मल०) IPIमाण परिपूर्णयुगमुहुर्तपरिमाणं भवतीति । सम्प्रति युगस्यैव रात्रिन्दिवपरिमाणं मुहूर्तपरिमाणं च प्रतिपिपादयिषुः प्रश्न॥२०७॥ निर्वचनसूत्राण्याह-'ता केवइयं तें'इत्यादि सुगर्म, अधुना समस्तयुगविषये एव मुहूर्तगतद्वापष्टिभागपरिज्ञानार्थी सूर्यादीना माधनूसाप्रश्नसूत्रमाह-'ता से णमित्यादि सुगम, भगवानाह-'ता चोत्तीसमित्यादि, इदमक्षरार्थमधिकृत्य सुगम, भावार्थ | |स्वयम्-चतुष्पश्चाशन्मुहर्तसहस्राणां नवशताधिकानां द्वापल्या गुणनं क्रियते ततो यथोक्का द्वाषष्टिभागसशया भवतीति।स-& म्पति कदाऽसौ चन्द्र(द्रादि)संवत्सरः सूर्य(र्यादि)संवत्सरेण सह समादिः समपर्यवसानो भवतीति जिज्ञासिषुः प्रश्नं करोति| ता कता णं एते आदिवचंदसंवच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहितेति वदेला?, ता सहि एए| आदिश्चमासा पावहि एतेए चंदनासा, एस णं अद्धा उखुत्तकडा दुवालसभयिता तीसं एते आदिचसंघ रा एकतीसं एते चंदसंवकछरा, तता णं एते आदिचर्चदसंबच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहिताति विदेजा । ता कता णं एते आदिवउडुचंदणक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपञ्जवसिया आहितेति वदेज्जा ? ता सहि एते आदिचा मासा एगदि एते उडमासा बावहि एते चंदमासा सत्साहिएते नक्खत्ता मासा एस | अद्धा दुवालस खुत्तकडा दुवालसभयिता सहि एते आदिचा संवच्छरा एगहि एते उडुसंवच्छरा वावडिं| एते चंदा संवच्छरा सत्तहि एते नक्खत्ता संवच्छरा तता णं एते आदिचउडुचंदणक्वत्ता संवच्छरा समा दीप अनुक्रम [१००] २०७॥ ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5 प्रत सूत्रांक [७४] % % दीया समपजवसिया आहितेति वदेला । ता कता णं एते अभिवहिआदिच्चपदुदपाक्सत्ता संवच्छरा समादीया समपञ्जवसिता आहितेति वदेजा , ता सत्तावणं मासा सत्त य अहोरत्ता एकारस य मुहुत्ता तेवीस वावविभागा मुहत्तस्स एते अभिवहिता मासा सदि एते आदिच मासा एगडि एते उडूमासा बावट्ठी एते चंदमासा सत्तट्ठी एते नकलत्तमासा एस गं अद्धा छप्पण्णसत्तखुत्तकडा दुवालसभपिता सत्त सता चोत्ताला एते णं अभिवहिता संवच्छरा, सत्त सता असीता एते णं आदिचा संवच्छरा, सस सता तेणउता एते णं उडूसंवरुछरा, अट्ठसत्ता उलुत्तरा एते णं चंदा संवच्छरा, एकसत्तरी अट्ठसया एए णं नक्षत्ता संव रा, तता णं एते अभिवहितआदिवउद्दचंदनक्खत्ता संबच्छरा समादीया समपजवसिया आहितेति विदेला, ता गयट्ठताए णं चंदे संवच्छरे तिणि चउप्पण्णे राईदियसते वालस य चावविभागे राइंदियस्स IA आहितेति वदेवा, ता अहातशेणं चंदे संवच्छरे तिण्णि घउप्पपणे राईदियसते पंच य मुहुत्ते पण्णासं च यावविभागे मुहुत्तस्स आहितेति वदेजा (सूत्रं ७४) । | 'ता कया णमित्यादि, सुगम, भगवानाह–ता सहिमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एते-एकयुगवर्तिनः षष्टिः सूर्यमासाः एते च एकयुगान्तर्वतिन एव द्वापष्टिश्चन्द्रमासाः, एतावती अद्धा पटुकृत्वः क्रियते-पहिर्गुण्यते, ततो द्वाददाभिर्भग्यते, द्वादशभिश्च भागे हते त्रिंशदेते सूर्यसंवत्सरा भवन्ति एकत्रिंशदेते चन्द्रसंवत्सराः, तदा एतावति कालेऽतिकान्ते एते आदित्य चन्द्रसंवत्सराः समादयः-समप्रारम्भाः समपर्यवसिताः समपर्यवसाना आख्याता इति वदेत्, समपर्य दीप अनुक्रम [१०१] %*ॐ * * ~425~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ॐ भाभूते प्रत सूत्रांक [७४] सूर्यप्रज्ञ- वसाने किमुक्त भवति:-एते चन्द्रसूर्यसंवत्सरा विवक्षितस्यादी समाः समप्रारम्भप्रारब्धाः सन्तस्तत आरभ्य पष्टियुगपर्यवसाने १२ प्राभृते निवृत्तिः समपर्यवसाना भवन्ति, तथाहि-एकस्मिन् युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरी, तौ च प्रत्येकं त्रयोदश- २२प्राभृत(मल.) चन्द्रमासात्मकी, ततः प्रथमयुगे पश चन्द्रसंवत्सरा दौ च चन्द्रमासौ, द्वितीये युगे दश चन्द्रसंवत्सराश्चत्वारश्चन्द्रमासाः सूर्यादीना॥२०॥ एवं प्रतियुग मासद्विकवृद्ध्या षष्ठयुगपर्यन्ते परिपूर्णा एकत्रिंशचन्द्रसंवत्सरा भवन्ति, 'ता कया ण'मित्यादि, ता इति समाधान पूर्ववत्, कदा णमिति वाक्यालकारे आदित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति वदेवयंस ७५ भगवानाह-ता सट्ठी'इत्यादि, षष्टिरेते एकयुगान्तवर्तिनः आदित्यमासा एकपष्टिरेते ऋतुमासाः द्वापष्टिरेते चन्द्रमासाः सप्तषष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्येकमद्धा द्वादशकृत्वः कृता द्वादशभिर्गुणिता इत्यर्थः तदनन्तरं संवत्सरा-12 नयनाय द्वादशभिर्भक्ता तत एवमेते पष्टिरादित्यसंवत्सरा एकपष्टिरेते ऋतुसंवत्सराः द्वापष्टिरेते पन्द्रसंवत्सरा सप्तपष्टिबरते नक्षत्रसंवत्सरास्तदा-द्वादशयुगातिकमे इत्यर्थः एते आदित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आख्याता इति वदेत् , एतदुक्तं भवति-विवक्षितयुगस्यादाषेते चत्वारोऽपि समाः समारब्धप्रारम्भाः सन्तस्तत आरभ्य बादशयुगपर्यन्ते समपर्यवसाना भवन्ति, अर्वाक् चतुर्णामन्यतमस्यावश्यंभावेन कतिपयमासानामधिकतया युगपत् सर्वेषां समपर्यवसानत्वासम्भवात्, 'ता कोणमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता सत्तावण्ण'मित्यादि, सप्तपञ्चाशन्मासाः सप्त अहोरात्रा एकादश मुहूर्ता एकस्य प मुहूर्तस्य प्रयोविंशतिषष्टिभागा एतावत्प्रमाणा एते एकयुगान्तर्वर्तिनोऽभि-IA वर्जितमासाः पष्टिरेते सूर्यमासाः एकषष्टिरेते ऋतुमासा द्वाषष्टिरते चन्द्रमासाः सप्तपष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्ये-15 टीप अनुक्रम [१०१] ~426~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४] 59 दीप कमद्धा षट्पञ्चाशदधिकशतकृत्वः क्रियते, कृत्वा च द्वादशभिर्भग्यते, द्वादशभिश्च भागे हते चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तश-11 तसयाः ७४४ एतेऽभिवतिसंवत्सराः, अशीत्यधिकसप्तशतसङ्ख्याः ७८० एते आदित्यसंवत्सराः, त्रिनवत्यधिकसप्तश| तसङ्ग्याः ७९३ एते ऋतुसंवत्सराः, पदुत्तराष्टशतसङ्ख्या ८०६ एते चन्द्रसंवत्सराः, एकसप्तत्यधिकाष्टशतसक्या ८७१ नक्ष-12 संवत्सराः, तदा णमिति वाक्यालङ्कारे एतेऽभिवर्द्धितादित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः समपर्यवसिता आ-1 ख्याता इति वदेत, अर्वाक कस्यापि कतिपयमासाधिकत्वेन युगपत्सर्वेषां समपर्यवसानस्थासम्भवात् । सम्पति यथोकमेव चन्द्रसंवत्सरपरिमाणं गणितभेदमधिकृत्य प्रकारद्वयेनाह-ता नयनाए'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , नयार्थतया-121 | परतीथिकानामपि सम्मतस्य नयस्य चिन्तया चन्द्रसंवत्सरस्त्रीण्यहोरात्रशतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टि-13 भागा अहोरात्रस्येत्यादिराख्यात इति वदेत् , याथातथ्येन पुनश्चिन्त्यमानश्चन्द्रसंवत्सरस्त्रीणि रात्रिदिवशतानि चतुष्प-14 शाशदधिकानि पञ्च च मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चाशद्वापष्टिभागा इत्येवंप्रमाण आख्यात इति वदेत, तत्राहोरात्र-18 र परिमाणमुभयत्रापि तावदेकरूपं, ये तूपरितना द्वादश द्वापष्ट्रिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहर्तकरणाथै त्रिंशता गुण्यन्ते, Kजातानि त्रीणि शतानि षष्पधिकानि ३६०, तेषां द्वाषष्ट्या भागो दियते, लग्धाः पञ्च मुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति पश्चाशन्मु-11 हूर्तस्य द्वापष्टिभागा इति । तदेवं संवत्सरवक्तव्यता सप्रपञ्चमुक्ता, साम्प्रतं ऋतुवक्तव्यतामाह तत्व खलु इमे छ खडू पं० त०-पाउसे वरिसारत्ते सरते हेमंते वसंते गिम्हे, ता सवेवि णं एते चंदउहू दुवे M२ मासाति चप्पण्णेणं २ आदाणेणं गणिजमाणा सातिरेगाई एगूणसहि २ राइंदियाई राइंदियग्गेणं आहि अनुक्रम [१०१] SAREaratunintamaraa H ~427~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा मज्ञ- तेति वदेला, तत्थ खलु इमे छ ओमरत्सा पं० त०-ततिए पवे सत्तमे पञ्चे एकारसमे पवे पन्नरसमे पवे एग- १२ प्राभृते णवीसतिमे पवे तेवीसतिमे पधे, तस्थ खलु इमे छ अतिरत्ता पं० सं०-चउत्थे पथे अट्ठमे पये वारसमे पवे २२ प्राभृत सोलसमे पधे वीसतिमे पवे चाउधीसतिमे पड़े । छच्चेव य अइरत्ता आइचाओहवंति माणाई । छच्चेच ओमरत्ता प्राभृते ॥२०॥ चंदाहि हवंति माणाहिं ॥१॥(सूत्र ७२) ऋतुन्यूना| 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्रास्मिन् मनुष्यलोके प्रतिसूर्यायनं प्रतिचन्द्रायनं च खल्विमे षट् ऋतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा धिकराय धिकारः हामावृटू वर्षारानः शरत् हेमन्तो वसन्तो ग्रीष्मः, इह लोकेऽन्यथाभिधाना ऋतवः प्रसिद्धास्तद्यथा-प्रावृद्ध शरद् हेमन्तः सू७५ शिशिरो वसन्तो ग्रीष्मति, जिनमते तु यथोक्ताभिधाना एव ऋतवः, तथा चोक्तम्-"पाउस वासारत्तो सरओ हेमंत वसंत गिम्हो य । एए खलु छप्पि उऊ जिणवरदिहा मए सिट्टा ॥१॥" इह ऋतको द्विधा, तद्यथा-सूर्यषिश्चन्द्र-II वश्व, तत्र प्रथमतः सूर्य वक्तव्यता प्रस्तूयते, तत्रैकैकस्य सूर्यत्ततॊः परिमाणं द्वौ सूर्यमासावेकषष्टिरहोरात्रा इत्यर्थः, एकैकस्य सूर्यमासस्य सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणत्वात् , उक्तं चैतदन्यत्रापि-"वे आइचा मासा एगढी ते भवंतहोरत्ता । एयं उपरिमाणं अवगयमाणा जिणा बिति ॥ १॥" इह पूर्वाचारीप्सितसूर्यनियने करणमुक्त तद्विनेयजनानुग्रहायोपद-12 लश्यते-सूरउउस्साणयणे पर्व पक्षरससंगुण नियमा । तहिं सखितं संत बावट्ठीभागपरिहीणं ॥१॥ गणेकडीह जयं ॥२०९॥ बावीससएण भाइए नियमा । जं लद्धं तस्स पुणो इहि हियसेसं उऊ होइ ॥ २॥ सेसाणं असाणं वेहि उ भागेहि | तेसिं जं लद्धं । ते दिवसा नायचा होंति पवत्तस्स अयणस्स" ॥१॥ आसां व्याख्या-सूर्यस्य-सूर्यसम्बन्धिन ऋतोरानयने | दीप अनुक्रम [१०२-१०३ - ~428~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [64] • गाथा दीप अनुक्रम [१०२ -१०३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७५] + गाथा (१) पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education Internati पर्व - पर्वसपानं नियमात् पञ्चदशगुणं कर्त्तव्यं, पर्वणां पञ्चदशतिथ्यात्मकत्वात् इयमत्र भावना - यद्यपि ऋतवः आषाढादिप्रभवास्तथापि युगं प्रवर्त्तते श्रावणबहुलपक्षप्रतिपद आरभ्य ततो युगादितः प्रवृत्तानि यानि पर्वाणि तत्सा पथदशगुणा क्रियते, कृत्वा च पर्वणामुपरि या विवक्षितं दिनमभिव्याप्य तिथयस्तास्तत्र सङ्गिष्यन्ते इत्यर्थः, ततो 'बावट्टीभागपरिहीणं ति प्रत्यहोरात्रमेकैकेन द्वाषष्टिभागेन परिहीयमाणेन ये निष्पन्ना अवमरात्रास्तेऽप्युपचारात् द्वाषष्टिभागास्तैः परिहीनं पर्वसङ्ख्यानं कर्त्तव्यं, ततो 'दुगुणे' ति द्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा च एकषष्ठ्या युतं क्रियते, ततो द्वाविंशेन शतेन भाजिते सति यच्धं तस्य षङ्गिर्भागे हते यच्छेषं स ऋतुरनन्तरातीतो भवति, येऽपि चांशाः शेषा उद्धरितास्तेषां द्वाभ्यां भागे हृते यलब्धं ते दिवसाः प्रवर्त्तमानस्य ऋतोर्ज्ञातव्याः, एष करणगाथाक्षरार्थः । सम्प्रति करणभावना क्रियते, तत्र युगे प्रथमे दीपोत्सवे केनापि पृष्टं कः सूर्यसुरनन्तरमतीतः १ को वा सम्प्रति वर्त्तते १ तत्र युगादितः सप्त पर्वाण्यभिकान्तानीति सप्त भियंते, तानि पश्चादशभिर्गुण्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं शतं एतावति च काले द्वाववमराश्रावभूतामिति द्वौ ततः पात्येते स्थितं पश्चायुत्तरं शतं १०३, तत् द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे शते पडुसरे २०६, तत्रैकषष्टिः प्रक्षिप्यते, जाते द्वे शते सप्तषष्ट्यधिके २६७, तयोर्द्वाविंशेन शतेन भागो हियते, लब्धौ द्वौ तौ पनिर्भागं न सहेते इति न तयोः पतिर्भागहारः, शेपास्त्वंशा उद्धरन्ति त्रयोविंशतिः तेषाम जाता एकादश अर्ज च, सूर्यर्जुश्वाषाढादिकस्ततः आगतंद्वादृतू अतिक्रान्तौ तृतीयश्च ऋतुः सम्प्रति वर्त्तते तस्य च प्रवर्त्तमानस्य एकादश दिवसा अतिक्रान्ता द्वादशो वर्त्तते इति, तथा युगे प्रथमायामक्षयतृतीयायां केनापि पृष्टं के ऋतवः पूर्वमतिक्रान्ताः को वा सम्प्रति वर्त्तते १ तत्र प्रथ For Pal Use Only ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], ------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा सूर्यप्रज्ञ- माया अक्षयतृतीयायाः प्राक् युगस्यादित आरभ्य पर्वाण्यतिक्रान्तानि एकोनविंशतिः, ततः एकोनविंशतिधृत्वा पञ्चद- १२ प्राभूते प्तिवृत्तिःशभिर्गुण्यते, जाते वे शते पञ्चाशीत्यधिक २८५, अक्षयतृतीयायां किल पृष्टमिति पर्वणामुपरि तिम्रस्तिथयः प्रक्षिप्यन्ते, १२ प्राभूतमल जाते देशते अष्टाशीत्यधिक २८८, तावति च काले भवमरात्राः पश्च भवन्ति, ततः पत्र पात्यन्ते, जाते द्वे शते भारत यशीत्यधिक २८३, ते द्वाभ्यां गुण्येते, जातानि पश्च शतानि षषष्ट्यधिकानि ५६५, तान्येकषष्टिसहितानि क्रियन्ते, ॥२१॥ धिकरायजातानि पट् शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ६२७, तेषां द्वाविंशेन शतेन भागहरण, लब्धाः पञ्च, ते च पनिभोग न सहन्तेलाधिकार माइति न तेषां पनि गहारः, शेषास्वंशा उद्धरम्ति सप्तदश, तेषाम. जाताः सार्नी अष्टी, आगतं-पश ऋतधोऽति- स७५ कारताः षष्ठस्य च ऋतोः प्रवर्त्तमानस्याष्टौ दिवसा गता नवमो वर्त्तते, तथा युगे द्वितीये दीपोत्सवे केनापि पृष्टं-11 कियन्त ऋतयोऽतिकान्ताः, को वा सम्प्रति वर्तते । तत्रैतावति काले पर्वाण्यतिक्रान्तान्येकत्रिंशत् , तानि पशदशभिर्गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि पशषध्याधिकानि ४६५, अवमरावाश्चैतावति काले व्यत्यकामन्नष्टी, ततोऽष्टी पात्यन्ते, स्थितानि घोषाणि चत्वारि शतानि सप्तपशाशदधिकानि ४५७, तानि द्विगुणीक्रियन्ते, जातानि नव शतानि चतुर्दशोत्तराणि ९१४, तेष्वेकषष्टिभागप्रक्षेपे जातानि पश्चसप्तत्यधिकानि नव शतानि ९७५, तेषां द्वाविंशेन शतेन भागो दियते, लग्धाः सप्त, उपरिष्टादशा उद्धरन्ति एकविंशं शतं १२१, तस्य द्वाभ्यां भागे हते लब्धाः पष्टिः | ॥२१॥ सार्हाः, सप्तानां च ऋतूनां पतिर्भागे हते लब्ध एक एकः उपरिष्टात्तिष्ठति, आगत-एका संवत्सरोऽतिक्रान्त एकस्य च संवत्सरस्योपरि प्रथम क्रतुः प्रायद्धामाऽतिगतो, द्वितीयस्य च पष्टिदिनान्यतिक्रान्तानि, एकषष्टितम वर्तते इति, एव दीप अनुक्रम [१०२-१०३ ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा मन्यत्रापि भावना कार्या । अथैतेषां ऋतूनां मध्ये क ऋतुः कस्यां तिथी समाप्तिमुपयातीति परस्य प्रश्नावकाशमाशय तत्परिज्ञानाय पूर्वाचायरिद करणमभाणि-"इच्छाउऊ विगुणिओ रूयूणो विगुणिओ उपवाणि । तस्सद्ध होइ तिही |जस्थ समत्ता उऊ तीस ॥१॥" अस्था गाथाया व्याख्या-यस्मिन् ऋतौ ज्ञातुमिच्छा (स इच्छत्तः)स ऋतुर्भियते इत्यर्थः, ततः स द्विगुणितः क्रियते, द्वाभ्यां गुण्यते इति भावः, द्विगुणितः सन् रूपोनः क्रियते, ततः पुनरपि स द्वाभ्यां गुण्यते, गुण-18 यित्वा च प्रतिराश्यते, द्विगुणितश्च सन् यावान् भवति तावन्ति पर्वाणि द्रष्टव्यानि, तस्य च द्विगुणीकृतस्य प्रतिरा-II शितस्यार्द्ध क्रियते, तथाई यायगवति तावत्यस्तिथयः प्रतिपत्तच्याः, यासु युगभाविनखिंधादपि ऋतवः समाप्ताः, समा-IM प्तिमैयरुरिति करणगाथाक्षरार्थः । सम्पति भावना क्रियते-किल प्रथम ऋतुर्तातुमिष्टो यथा युगे कस्यो तिधौ प्रथमः | ४ामावलक्षण ऋतुः समाप्तिमुपयातीति !, तत्र एको धियते, स द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे रूपे, ते रूपोने कियेते, जात एकका, स एव च भूयोऽपि द्वाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे रूपे, ते प्रतिराश्येते, नयोरः जातमेकं रूपं, आगत-युगादौ | पर्वणी अतिक्रम्य प्रथमायां तिथी प्रतिपदि प्रथमऋतुः प्रावृहनामा समाप्तिमगमत् , तथा द्वितीये प्रती ज्ञातुमिच्छति द्वी स्थाप्येते तयोर्दाभ्यां गुणने जाताश्चत्वारस्ते रूपोनाः क्रियन्ते जातात्रयस्ते भूयो द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः षट् ते तिराध्यन्ते प्रतिराशितानां चा क्रियते जातात्रयः, आगतं-युगादितः पटू पर्वाण्यतिक्रम्य तृतीयायां तिथी द्वितीय ऋतुः समाप्तिमुपायात् , तथा तृतीये ऋती ज्ञातुमिच्छेति त्रयो भियन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः षटू ते रूपोनाः क्रियन्ते जाताः पश्च ते भूयो द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता दश ते प्रतिराश्यन्ते प्रतिराशितानां चाबें लब्धाः पञ्च, आगत-युगादित दीप अनुक्रम [१०२-१०३ ~431~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) ུཏྠཡྻོཝཱ ཏྠཾ + ཏུལླཱཡྻ अनुक्रम -१०३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], मूलं [७५] + गाथा (१) प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञठिवृत्ति: ( मल० ) ॥२११॥ Education Internation | आरभ्य दशानां पर्वणामतिक्रमे पञ्चम्यां तिथौ तृतीय ऋतुः समाप्तिमियाय, तथा षष्ठे ऋतौ ज्ञातुमिष्यमाणे षट् स्थाप्यन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता द्वादश ते रूपोनाः क्रियन्ते जाता एकादश ते द्विगुण्यन्ते जाता द्वाविंशतिः सा प्रतिराश्यते प्रतिराशिताया अर्द्ध क्रियते जाता एकादश, आगतं - युगादित आरभ्य द्वाविंशतिपर्वणामतिक्रमे एकादश्यां तिथौ षष्ठ ऋतुः समाप्तिमियाय, तथा युगे नवमे ऋतौ ज्ञातुमिच्छति ततो नव स्थाप्यन्ते ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता अष्टादश ते रूपोनाः क्रियन्ते जाताः सप्तदश ते भूयो द्विगुण्यन्ते जाता चतुस्त्रिंशत् सा प्रतिराश्यते प्रतिराश्य च तस्यार्द्ध ४ क्रियते जाताः सप्तदश, आगतं - युगादितः चतुस्त्रिंशत् पर्वाव्यतिक्रम्य द्वितीये संवत्सरे पौषमासे शुक्लपक्षे द्वित्तीयस्यां तिथ नवम ऋतुः परिसमाप्तिं गच्छति, तथा त्रिंशत्तमे ऋतौ जिज्ञासिते त्रिंशद् प्रियते सा द्विगुणीक्रियते जाता षष्टिः सा रूपोना क्रियते जाता एकोनषष्टिः सा भूयो द्वाभ्यां गुण्यते जातमष्टादशोत्तरं शतं तत् प्रतिराश्यते प्रतिराश्य च तस्यार्द्ध क्रियते जाता एकोनषष्टिः, आगतं - युगादितोऽष्टादशोत्तरं पर्वशतमतिक्रम्य एकोनषष्टितमायां तिथौ, किमुक्तं भवति १पञ्चमे संवत्सरे प्रथमे आषाढमासे शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां त्रिंशत्तम ऋतुः समाप्तिमुपायासीत्, व्यवहारतः प्रथमाषाढपर्यन्ते इत्यर्थः, एतस्यैवार्थस्य सुखप्रतिपत्त्यर्थमियं पूर्वाचार्योपदर्शिता गाथा- "एकंतरिया मासा तिही य जासु ता उक समव्यंति । आसाढाई मासा भद्दवयाई तिही नेया ॥ १ ॥” अस्या व्याख्या - इह सूर्य चिन्तायां मासा आषाढादयो द्रष्टव्याः, आषाढमासादारभ्य ऋतूनां प्रथमतः प्रवर्त्तमानत्वात्, तिथयः सर्वा अपि भाद्रपदाद्याः, भाद्रपदादिषु मासेषु प्रथमादीनामृतूनां परिसमाप्तत्यात्, तत्र येषु मासेषु यासु च तिथिषु ऋतवः प्रावृडादय सूर्यसत्काः परिसमाप्नुवन्ति ते आपा For Praise Only ~ 432~ १२ प्राभृते ऋतुसमाि तिथिकरणं सू ७५ ॥२११॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) ུཏྟཡྻཱཡཱ བྦཱ + དྷལླཱསྶ अनुक्रम “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], मूलं [ ७५ ] + गाथा (१) प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः दादयो मासास्ताञ्च तिथयो भाद्रपदाद्या-भाद्रपदादिमासानुगताः सर्वा अप्येकान्तरिता वेदितव्याः, तथाहि - प्रथम ऋतुर्भाद्रपदमासे समाप्तिमुपयाति, तत एकं मासमश्वयुग्लक्षणमपान्तराले मुक्त्वा कार्तिके मासे द्वितीय ऋतुः परिसमाधिमियति, एवं तृतीयः पौषमा से चतुर्थः फाल्गुने मासे पञ्चमो वैशाखे मासे षष्ठ आषाढे, एवं शेषा अपि ऋतव एष्वेव षट्सु मासेषु एकान्तरितेषु व्यवहारतः परिसमाप्तिमाप्नुवन्ति, न शेषेषु मासेषु तथा प्रथम ऋतुः प्रतिपदि समाप्तिमेति द्वितीयस्तृती यायां तृतीयः पशम्यां चतुर्थः सप्तम्यां पञ्चमो नवम्यां षष्ठ एकादश्यां सप्तमस्त्रयोदश्यां अष्टमः पञ्चदश्यां एते सर्वेऽपि तवो बहुलपक्षे, ततो नयम ऋतुः शुक्लपक्षे द्वितीयायां दशमश्चतुर्थ्यामेकादशः पछ्षां द्वादशोऽष्टम्यां त्रयोदशो दशम्यां चतुर्दशो द्वादश्यां पश्चदशश्चतुर्दश्यां एते सप्त ऋतवः शुकपक्षे एते कृष्णशुक्लपक्षभाविनः पञ्चदशापि ऋतवो युगस्यार्द्धं भवन्ति, तत उक्तक्रमेणैव शेषा अपि पञ्चदश ऋतवो युगस्यार्द्धं भवन्ति, तद्यथा - पोडश ऋतुर्बहुलपक्षे प्रतिपदि सप्तदशः तृती यायामष्टादशः पञ्चम्यामेकोनविंशतितमः सप्तम्यां विंशतितमो नवम्यामेकविंशतितमः एकादश्यां द्वाविंशतितमः त्रयो| दश्यां त्रयोविंशतितमः पञ्चदश्यां एते षोडशादयस्त्रयोविंशतिपर्यन्ता अष्टौ बहुलपक्षे, ततः शुक्लपक्षे द्वितीयायां चतुर्विंश| तितमः पञ्चविंशतितमश्चतुर्थ्यां पविंशतितमः षष्ठ्यां सप्तविंशतितमोऽष्टम्यां अष्टाविंशतितमो दशम्यां एकोनत्रिंशत्तमो द्वादश्यां त्रिंशत्तमश्चतुर्दश्यां तदेवमेते सर्वेऽपि ऋतवो युगे मासेष्वेकान्तरितेषु तिथिष्वपि चैकान्तरितासु भवन्ति, एतेषां च ऋतूनां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थं सूर्यनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थे च पूर्वाचार्यैः करणमुक्तं, ततस्तदपि विनेयजनानुग्रहाय दर्श्यते - " तिनि सया पंचहिगा अंसा छेओ सयं च चोत्तीसं । एगाइचि उत्तरगुणो घुवरासी होइ नाययो ॥ १ ॥ For PanalPrata Use Only ~433~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] सूर्यप्रज्ञ- सिवृत्तिः (मल०) ॥२१२॥ गाथा + सत्तहि अद्धखित्ते दुगतिगगुणिया समे बिदढखेत्ते । अहासीई पुस्सो सोज्झा अभिइम्मि बायाला ॥ २ ॥ एवाणि सोह-IA१२माभते इत्ता जं सेस तं तु होइ नक्खत्तं । रविसोमाणं नियमा तीसाइ उऊसमत्तीसु ॥ ३॥" आसां व्याख्या-त्रीणि शतानि तुषु चन्द्र पश्चोत्तराणि अंशा-विभागाः, किंरूपच्छेदकृता इति चेत्, अत आहछेदश्चतुर्विंशं शतं, किमुक्तं भवति । चतुर्विंश- सूर्यनक्षत्रदधिकशतच्छेदेन छिन्नं यदहोरात्रं तस्य सत्कानि त्रीणि शतानि पञ्चोचराणि अंशानामिति, अयं धुवराशिबोंद्धन्यः, एष योगः च ध्रुवराशिः 'एकादियुत्तरगुण' इति ईप्सितेन ऋतुना एकादिना त्रिंशत्पर्यन्तेन व्युत्तरेण एकस्मादारभ्य तत ऊ_XI व्युत्तरवृद्धेन गुण्यते मेति गुणो-गुणितः क्रियते, तत एतस्माच्छोधनकानि शोधयितव्यानि, तत्र शोधनकप्रतिपादनार्थ द्वितीया गाथा-'सत्तट्ठी'त्यादि, इह यन्नक्षत्रमद्धक्षेत्रं तत् सप्तपट्या शोध्यते, यच्च नक्षत्रं समक्षेत्रं तत् द्विगुणया | सप्तपट्या चतुर्विंशेन शतेनेत्यर्थः शोध्यते, यत्पुनर्नक्षत्रं धड़ क्षेत्रं तत् त्रिगुणया सप्तपथ्या एकोत्तराभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां शोध्यत इत्यर्थः, इह सूर्यस्य पुष्यादीनि नक्षत्राणि शोध्यानि चन्द्रस्याभिजिदादीनि, तत्र सूर्यनक्षत्रयोगचिन्तायां पुष्येपुष्यविषयाऽष्टाशीतिः शोध्या, चन्द्रनक्षत्रयोगचिन्तायामभिजिति द्वाचत्वारिंशत् । 'एयाणी त्यादि, एतानि अर्द्धक्षेत्र-11 समक्षेत्रव्यद्धक्षेत्रविषयाणि शोधनकानि शोधयित्वा यदुक्तप्रकारेण नक्षत्रशेषं भवति-न सर्वात्मना शुद्धिमनुते तत् नक्षत्रं ॥१२॥ | रविसोमयोः-सूर्यस्य चन्द्रमसश्च नियमात् ज्ञातव्यं, क्व इत्याह-त्रिंशत्यपि ऋतुसमाप्तिषु । एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः, सम्पति करणभावना क्रियते-तत्र प्रथम ऋतुः कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे समाप्तिमुपैति इति जिज्ञासायामनन्तरोदितः पश्चो-12 त्तरत्रिशतीप्रमाणो ध्रुवराशिधियते, स एकेन गुणितं तदेव भवतीति तावानेव ध्रुवराशिः जातः, तत्राभिजितो द्वाचत्वा % % दीप अनुक्रम [१०२-१०३ %% %*56 ~434~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा रिंशत् शुद्धा, स्थिते पश्चाद् द्वे शते त्रिषष्ट्यधिक २६३, ततश्चतुर्विंशेन शतेन श्रवणः शुद्धः, शेष जातमेकोनत्रिंशं शतं 81 |१२९, तेभ्यश्च धनिष्ठा न शुद्ध्यति, तत आगतं-एकोनत्रिंशं शतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां धनिष्ठासत्कमवगाह्य चन्द्रः प्रथम सूर्य परिसमापयति, यदि द्वितीयसूर्यक्षुजिज्ञासा तदा स ध्रुवराशिः पशोत्तरशतत्रयप्रमाणखिभिर्गुण्यते, जातानि [21 नव शतानि पश्चदशोत्तराणि ९१५, तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धा, स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि Cl८७३, ततश्चतुस्त्रिंशेन शतेन श्रवणः शुद्धिमुपगतः, स्थितानि शेषाणि सप्त शतान्येकोनचत्वारिंशदधिकानि ७३९, ततोऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन धनिष्ठा शुद्धा, जातानि षट् शतानि पश्चोतराणि ६०५, ततोऽपि सप्तषष्ट्या शतभिषक् । शुद्धा, स्थितानि पश्च शतान्यष्टात्रिंशदधिकानि ५३८, तेभ्योऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन पूर्वभद्रपदा शुद्धा, स्थितानि चत्वारि KIशतानि चतुरधिकानि ४०४, तेभ्योऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरभद्रपदा शुद्धा, स्थिते शेषे व्युत्तरे द्वे शते २०३, ताभ्यामपि चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन रेवती शुद्धा, स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः १९, आगतमश्विनीनक्षत्रस्यैकोन-12 सप्ततिं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानामवगाह्य द्वितीयं सूर्य चन्द्रः परिसमापयति, एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भावनीय, त्रिंशतमसूर्य जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पश्नोत्तरशतत्रयसव एकोनपश्या गुण्यते, जातानि सप्तदश सहस्राणि नव शतानि पञ्चनवत्यधिकानि १७९९५, तत्र पत्रिंशता शतैः पश्यधिकैरेको नक्षत्रपर्यायः शुद्धयति, ततः पत्रिंशच्छतानि पश्यधिकानि चतुभिर्गुणयित्वा ततः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात्रयस्त्रिंशच्छतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि ३३५५ ताभ्यां द्वात्रिंशता शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि शुद्धानि स्थितं पश्चात्रिंशदधिक शतं १३० तेन च पूर्वा दीप अनुक्रम [१०२-१०३ ~435~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] ॥२१शा गाथा पाढा न शुपति, तत आगत त्रिंशदधिक शतं चतुर्विंशदधिकशतभागानां पूर्वाषाढासत्कमवगाय चन्द्रविंशत्तम सूर्य १२ प्राभूतेतिवृत्तिः NM परिसमापयति । सम्पति सूर्यनक्षत्रयोगभावना क्रियते, स एव पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो धुवराशिः प्रथमसूर्य जिज्ञासा-: ऋतुष चन्द्र थामेकेन गुण्यते 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव ततः पुष्यसत्का अष्टाशीतिः शुद्धा.स्थिते शेषे द्वे शतेन सप्तदशोत्तरे २१७ ततः सप्तषश्या अश्लेषा शुद्धा स्थितं शेष सार्द्ध शतं १५० ततोऽपि चतुर्विंशपछतेन मघा शुद्धा स्थिताः पश्चात् षोडश, आगतं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य षोडश चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानवगाह्य सूर्यः प्रथम स्वमृत परिसमापयति, तथा द्वितीयसूर्यजिज्ञासायां स ध्रुवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणस्त्रिभिर्गुण्यते जातानि नष शतानि पञ्चदशोत्तराणि X९१५ ततोऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धिमगमत् , स्वितानि पश्चादष्टौ शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ८२७ तेभ्यः सप्तपश्या अश्लेषा । लाशुद्धा स्थितानि शेषाणि सप्त शतानि षष्यधिकानि ७६० तेभ्यश्चतुर्विंशदधिकेन शतेन मघा शुद्धा स्थितानि शेषाणि पदास शतानि षविंशत्यधिकानि ६२६ तेभ्यश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन पूर्वफाल्गुनी शुद्धा स्थितानि पश्चाञ्चत्वारि शतानि दिनवत्यधिकानि ४९२ ततोऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरफाल्गुनी शुद्धा स्थिते द्वे शते एकनवत्यधिके २९१| ततोऽपि चतुर्विंशेन शतेन हस्तः शुद्धः स्थितं पश्चात् सप्तपश्चाशदधिकं शतं १५७ ततोऽपि चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन | [चित्रा शुद्धा स्थिता शेषास्त्रयोविंशतिः २३, आगतं स्वातेस्खयोविंशति सप्तपष्टिभागानवगाह्य सूर्यों द्वितीयं स्वमूतुं परि ४ ॥२१॥ |समापयति, एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भावनीय, त्रिंशत्तमसूर्य तुजिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः, पञ्चोत्तरशतत्रयपरिमाणमा एकोनपाच्या गुण्यते जातानि सप्तदश सहस्राणि नव शतानि पञ्चनवत्यधिकानि १७९९५ तत्र चतुर्दशभिः सहस्रैः पतिः। दीप अनुक्रम [१०२-१०३ ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा शतैश्चत्वारिंशदधिः १४६४० चत्वारः परिपूर्णा नक्षवपर्यायाः शुद्धाः स्थितानि शेषाणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि पञ्च पश्चाशद-12 IMधिकानि ३३५५ तेभ्योऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धः स्थितानि पश्चात् द्वात्रिंशग्छतानि सप्तषष्ट्यभ्यधिकानि ३२६७ तेभ्यो। द्वात्रिंशता शरष्टापमापदधिक ३२५८ अश्लेषादीनि मृगशिरापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः शेषा नव ९ तेन |चार्दा न शुद्धपति, तत आगतं नव चतुर्विंशदधिकशतभागान् आसत्कानवगाह्य सूर्यस्त्रिंशत्तमं स्वमूतुं परिसमापयति । तदेवमुक्ताः सूर्यर्तवः, सम्पति चन्द्र 'नां चत्वारि शतानि युत्तराणि ४०२, तथाहि-एकस्मिन्नक्षत्रपर्याये चन्द्रस्य षट् ऋतको भवन्ति चन्द्रस्य च नक्षत्रपया युगे भवन्ति सप्तषष्टिसवास्ततः सप्तर्षष्टिः पहिर्गण्यते जातानि चत्वारि शतानि | व्युत्तराणि ४०२ एतावन्तो युगे चन्द्रस्य ऋतवः, उक्तं च-"चत्तारि उउसयाई विउत्तराई जुगंमि चंदस्स । एकैकस्प चंद्रोंः परिमाणं परिपूर्णाश्चत्वारोऽहोरात्राः पञ्चमस्य चाहोरात्रस्य सप्तत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः, तथा चोक्तम्-"चंदस्सुस-1 परिमाणं चत्तारि अ केवला अहोरसा । सत्पत्तीस अंसा सत्तहिकरण छएणं ॥१॥" कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, सहकस्मिनक्षत्रपये पटू ऋतव इति प्रागेवानन्तरमुक्तम् , नक्षत्रपर्यायस्य चन्द्रविषयस्य परिमाण सप्तविंशतिरहोरात्राः एकस्ख चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः तत्राहोरात्राणां पविभागो हियते लब्धाश्चत्वारोऽहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्ति यस्ते सप्तषष्टिभागकरणार्थ सप्तपश्या गुण्यन्ते जाते वे शते एकोत्तरे २०१ तत उपरितना एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जाते वे शते द्वाविंशत्यधिक २२२ तेषां पविर्भागे हते लब्धाः सप्तत्रिंशत् ३७ सप्तषष्टिभागाइति, तेषां च चन्द्रनामानयनाय पूर्वाचायरिदं करणमुक्त-"चंदऊऊआणयणे पर्व पन्नरससंगुणं नियमा। तिहिसखित्तं संत चावट्ठीभागपरिहीणं ॥१॥चोत्तीस दीप अनुक्रम [१०२-१०३ ~437~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा सूर्यप्रज्ञ- सयाभिहयं पंचुत्तरतिसयसंजुयं विभए । छहिं उ दसुत्तरेहि य सएहि लद्धा उऊ होइ ॥२॥" अनयोख्यिा -विवक्षितस्य- प्राभले मित्तिः सचन्द्रौरानयने कर्त्तव्ये युगादितो यत् पर्व-पर्वसङ्ख्यानमतिसक्रान्तं तत्पश्चदशगुणं नियमात् कर्त्तव्यम् , ततस्तिथिसविस- चन्द्रान(मल. मिति-यास्तिथयः पर्वणामुपरि विवक्षितात दिनात् प्रागतिक्रान्तास्तास्तत्र सलिप्यन्ते, ततो द्वापष्टिभागः-द्वापष्टिभाग- यनकरणं ॥२१॥ निष्पन्नैरवमरात्रः परिहीनं विधेयम् , तत एवंभूतं सच्चतुस्त्रिंशेन शतेनाभिहतं-गुणितं कर्तव्यम् , तदनन्तरं च पञ्चो तरैत्रिभिः शतैः संयुक्तं सत् पनिर्दशोत्तरः शतैर्विभजेत्, विभक्ते सति ये लब्धा अकास्ते ऋतवो विज्ञातव्याः । एष करण-12 गाथाद्वयाक्षरार्थः, सम्पति करणभावना क्रियते, कोऽपि पृच्छति-युगादितः प्रथमे पर्वणि पञ्चम्यां कश्चन्द्रवर्तते इति, तत्रैकमपि पर्व परिपूर्णमत्र नाद्याप्यभूदिति युगादितो दिवसा रूपोना प्रियन्ते, ते च चत्वारस्सतस्ते चतुर्विंशदधिकेन । शतेन गुण्यन्ते जातानि पश्श दातानि षटूत्रिंशदधिकानि ५३६ ततः भूयस्त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि ३०५ प्रक्षिप्यन्ते जातान्यष्टौ शतान्येकचरवारिंशदधिकानि ८४१ तेषां पशिः शतैर्दशोत्तरैर्भागो हियते लग्धः प्रथम क्रतुः अंशा उद्धरन्ति । देशते एकत्रिंशदधिके २३१ तेषां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागहरणं लब्ध एकः, अंशानां चतुर्विंशेन शतेन भागो हियते | यलभ्यते ते दिवसा ज्ञातव्याः, शेषास्त्वंशा उद्धरन्ति सपनवतिः तेषां द्विकेनापवर्तनायां लब्धाः सार्द्धा अष्टाचत्वाशारिंशत्सप्तपष्टिभागाः, आगतं युगादितः पञ्चम्यां प्रथमः प्रावृट्लक्षणः ऋतुरतिक्रान्तो द्वितीयस्य ऋतो एको दिवसो गतो द्वितीयस्य च दिवसस्य सार्की अष्टाचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः, तथा कोऽपि पृच्छति युगादितो द्वितीये पर्वणि एकादश्यां । दीप अनुक्रम [१०२-१०३ राजपा पारा २१४|| SARELIEatunintentTATERTA ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] गाथा कश्चन्द्रर्तरिति, तत्रैक पर्व अतिक्रान्तमित्येको ध्रियते, स पञ्चदशभिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश एकादश्यां किल पृष्टमिति | तस्याः पाश्चात्या दश ये दिवसास्ते प्रक्षिप्यन्ते जाताः पञ्चविंशतिः २५ सा चतुस्त्रिंशेन शतेन गुण्यते जातानि प्रयस्त्रिं-12 शच्छतानि पञ्चाशदधिकानि ३३५० तेषु त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते जातानि षट्त्रिंशच्छतानि पञ्चपञ्चाश-11 दधिकानि ३६५५ तेषां पह्निः शतैर्दशोत्तरैर्भागो हियते लब्धाः पञ्च अंशा अवतिष्ठन्ते पटू शतानि पञ्चोत्तराणि ६०५ तेषां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागे हृते लब्धाश्चत्वारो दिवसाः ४ शेषास्त्वंशा उद्धरन्ति एकोनसप्ततिः ६९ तस्या द्विकेना-11 पवर्तनायां लब्धाः सा श्चितुस्विंशरसप्तपष्टिभागाः, आगतं पञ्च ऋतवोऽतिक्रान्ताः षष्ठस्य च ऋतोश्चत्वारो दिवसाः पञ्चमस्य दिवसस्य सार्दाश्चतुर्विंशत्सप्तपष्टिभागाः, एवमन्यस्मिन्नपि दिवसे चन्द्र रवगन्तव्यः। सम्प्रति चन्द्र परिसमाप्तिदि-13 वसानयनाय यत्पूर्वाचार्यैः करणमुक्तं तदभिधीयते-"पुर्वपिव धुवरासी गुणिए भइए सगेण छेएणं । जं लद्धं सो दिवसो सोमस्स उऊ समत्तीए॥१॥ अस्या व्याख्या-इह यः पूर्व सूर्यप्रतिपादने भवराशिरभिहितः पञ्चोत्तराणि त्रीणि 1 शतानि चतुर्विंशदधिकशतभागानां तस्मिन् पूर्वमिव गुणिते, किमुक्त भवति-ईप्सितेन एकादिना व्युत्तरचतुःशततमप-12 कार्यन्तेन-झुत्तरवृद्धेन एकस्मादारभ्य तत ऊर्व व्युत्तरवृझ्या प्रवर्द्धमानेन गुणिते स्वकेन-आत्मीयेन छेदेन चतुर्विंशदधिक-II शतरूपेण भक्ते सति यहम् स सोमस्य-चन्द्रस्य ऋतो समाप्ती वेदितव्यः, यथा केनापि पृष्टं चन्द्रस्य ऋतुः प्रथमः। करयां तिथी परिसमाप्तिं गत इप्ति, तत्र प्रवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो प्रियते ३०५ स एकेन गुण्यते जातस्तावा-II नेय ध्रुवराशिः तस्य स्वकीयेन चतुर्विंशदधिकशतप्रमाणेन छेदेन भागो हियते, लब्धी द्वी शेषास्तिष्ठति सप्तत्रिंशत् । दीप अनुक्रम [१०२-१०३ REauratonintamaranam ~439 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक प्तिवृत्तिः (मला) ॥२१॥ *** [७५]] गाथा तस्या द्विकेनापवर्तना जाताः सार्धष्टादश सप्तषष्टिभागाः, आगतं युगादितो द्वौ दिवसौ तृतीयस्य च दिवसस्य सार्धन प्राभते अष्टादश सप्तषष्टिभागानतिक्रम्य प्रथमश्चन्द्रर्तुः परिसमाप्तिमुपयाति, द्वितीयश्चन्द्र तुजिज्ञासायां स ध्रुवराशिः पश्चोत्तर- चन्द्रतसशतत्रयप्रमाणसिभिर्गुण्यते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाःमाधितिथषट् शेषमुद्धरति एकादवोत्तरक शतं १११ तस्य द्विकेनापवर्तनायां लब्धाः सार्दाः पञ्चपञ्चाशत् ५५ सप्तपष्टिभागा: यासू ७५ |आगतं युगादितः षट्सु दिवसेष्वतिक्रान्तेषु सप्तमस्य च दिवसस्य सार्वेषु पञ्चपश्चाशत्सङ्गोषु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु द्विती| यश्चन्द्रर्तुः परिसमाप्तिं गछति, शुत्तरचतुःशततम जिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पञ्चोचरशतत्रयप्रमाणोऽष्टभिः शतैरूयुतरैगुण्यते-गुत्तरवसा व्युत्तरपसा हि व्युत्तरचतु शततमस्य उयुत्तराष्टशतप्रमाण पर राशिर्भवति, तथाहि-यस्य । एकस्मादू शुत्तरपूज्या राशिश्चिन्त्यते तस्य द्विगुणो रूपोनो भवति यथा द्विषस्य त्रीणि त्रिकस्य पश्च चतुष्कस्य सप्त, |अत्रापि युत्तरचतुःशतप्रमाणस्य राशेर्पातरवृया राशिश्चिन्त्यते ततोऽष्टौ शतानि त्र्युत्तराणि भवन्ति, पर्वभूतेन च | राशिना गुणने जाते हे लक्षे चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि पश्चदशोत्तराणि २४४९१५ तेषां चतुर्विंशेन शतेन भागो द्रियते लब्धान्यष्टादश शतानि सप्तविंशत्यधिकानि १८२७ अंशाश्चोद्धरन्ति सप्तनवतिः तस्या द्विकेनापयर्सना लब्धाः सार्दा अष्टाचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः . आगतं युगादितोऽष्टादशसु दिवसशतेषु सप्तविंशत्यधिकेष्वतिकान्तेषु ॥२५॥ ततः परस्य च दिवसस्य साढ़ेंप्वष्टाचत्वारिंशत्सङ्ख्येषु सप्तषष्टिभागेषु गतेषु घ्युत्तरचतुःशततमस्य चन्द्रोंः परिसमाप्ति-11 | रिति । एतेषु च चन्द्रपुषु चन्द्र नक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ एष पूर्वाचार्योपदेशः,"सो घेच धुवो रासी गुणरासीवि अ हर्वति दीप अनुक्रम [१०२-१०३ ॐॐॐ ~440~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) ུཉྩནྡྲིཝཱ ཡྻཱ + དྷལླཱསྶ अनुक्रम -१०३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मूलं [७५] + गाथा (१) Education Internation ते चैव । नक्खत्तसोहणाणि अ परिमाणसु पुषभणियाणि ॥ १ ॥” अस्या गाथाया व्याख्या -- चन्द्रर्जुनां चन्द्रनक्षत्रयो गार्थं स एव पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिर्वेदितव्यः, गुणराशयोऽपि गुणकारराशयोऽपि एकादिका युत्तरवृद्धास्त एव भवन्ति ज्ञातव्या ये पूर्वमुपदिष्टा नक्षत्रशोधनान्यपि च परिजानीहि तान्येव यानि पूर्वभणितानि द्वाचत्वारिंशत्प्रभृतीनि ततः पूर्वप्रकारेण विवक्षिते चन्द्रत नियतो नक्षत्रयोग आगच्छति, तत्र प्रथमे चन्द्रस कश्चन्द्रनक्षत्रयोग इति जिज्ञासायां स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिर्धियते ३०५ स एकेन गुण्यते एकेन च गुणितः सन् तावानेव भवति ततोऽभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा शेषे तिष्ठ ते द्वे शते त्रिषष्ठ्यधिके २६ श्ततश्चतुस्त्रिंशेन शज्ञेन श्रवणः शुद्धः स्थितं पश्चादेकोनत्रिंशतं शतं १२९ | तस्य द्विकेनापवर्त्तना जाता सार्द्धाश्चतुःषष्टिः सप्तषष्टिभागाः आगतं धनिष्ठायाः सार्द्धा चतुःषष्टिं सप्तषष्टिभागानवगाह्य चन्द्रः प्रथमं स्वमृतुं परिसमापयति, द्वितीयचन्द्रर्चुजिज्ञासायां स एव ध्रुवराशिः पश्चोत्तरशतत्रयप्रमाणस्त्रिभिर्गुण्यते जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा स्थितानि शेषाणि अष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधि कानि ८७३ ततश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन श्रवणः शुद्धिमुपगतः स्थितानि शेषाणि सप्त शतान्येकोनचत्वारिंशदधिकानि १७३९ ततोऽपि चतुस्त्रिशेन शतेन धनिष्ठा शुद्धा जातानि षट् शतानि पश्चोत्तराणि ६०५ ततोऽपि सष्ठषया शतभिषक् शुद्धा | स्थितानि पश्चात्पश्च शतान्यष्टात्रिंशदधिकानि ५३८ एतेभ्योऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन पूर्व भद्रपदा शुद्धा स्थितानि चतुरधिकानि चत्वारि शतानि ४०४ तेभ्योऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरभद्रपदा शुद्धा स्थिते शेषे द्वे शते न्युत्तरे २०३ ताभ्यामपि चतुस्त्रिंशेन शतेन रेवती शुद्धा स्थिता पश्चादेकोनसप्ततिः ६९ आगतमश्विनी नक्षत्रस्यैकोनसप्ततिं चतुखिंशदधिकश For Para Use Only ~ 441 ~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक ॐॐ [७५]] गाथा सूर्यप्रज्ञ तभागानामवगाह्य द्वितीय स्वमृत चन्द्रः परिसमापयति, तथा युत्तरचतुःशततमचन्द्र जिज्ञासायां स धुवराशिः पञ्चो-१२माइते प्तिवृत्तिः सरशतवयप्रमाणो प्रियते, धृत्वा चाष्टभिः शतैः व्युत्तरैगुण्यते, जाते द्वे लक्षे चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि चन्द्रर्तुषु (मल०) पञ्चदशोत्तराणि २४४९१५, तत्र सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि, तथाहि-पसु अर्द्धक्षेत्रेषु का चन्द्रनक्षत्र | नक्षत्रेषु प्रत्येक सप्तपष्टिरंशा व्यर्द्धक्षेत्रेषु नक्षत्रेषु प्रत्येक द्वे शते एकोत्तरे अंशानां पञ्चदशसु समक्षेत्रेषु प्रत्येकं चतुविश करण ||२१६॥ सू७५ शितमिति षट् सप्तपष्टया गुण्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि वृत्तराणि ४०२ तथा पटू एकोत्तरेण शतब्येन गुण्यन्ते जातानि द्वादश शतानि पदुसराणि १२०६ तथा चतुर्विंशं शतं पश्चदशभिर्गुण्यते जातानि विंशतिः शतानि दशोत्सराणि २०१० एते च त्रयोऽपि राशयः एकत्र मील्यन्ते मीलयित्वा च तेष्वभिजितो द्वाचत्वारिंशत्प्रक्षिप्यन्ते, जातानि षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि, एतावता एकनक्षत्रपर्यायपरिमाणेन पूर्वराशेः २४४९१५ भागो हियते, लब्धाः पट्षष्टिर्नक्षत्रपययाः पश्चादयतिष्ठन्ते पञ्चपञ्चाशदधिकानि वयखिंशच्छतानि ३३५५, तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धा स्थितानि शेषाणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि त्रयोदशाधिकानि ३३१३ एतेभ्यस्त्रिभिः सहस्रशीत्यधिकैरनुराधान्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि बशेषे तिष्ठतो वे शते एकत्रिंशदधिके २३१ ततः सप्तषष्ट्या ज्येष्ठा शुद्धा स्थितं चतुःषष्ट्यधिक शतं १६४ ततोऽपि चतु-IC त्रिंशेन शतेन मूलनक्षत्र शुद्ध स्थिता पश्चात् त्रिंशत् ३०, आगतं पूर्वाषाढानक्षत्रस्य त्रिंशतं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागाना-IPI 13॥२१॥ रामवगाह्य चन्द्रो व्युत्तरचतुःशततम स्वमूतुं परिनिष्ठापयति। तदेवमुक्तं सूर्य परिमाणं चन्द्रर्तुपरिमाणं च, सम्पति लोक-II ट्या यावदेकैकस्य चन्दौः परिमाणं तावदाह-ता सवेवि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, सर्वेऽप्येते षट्सङ्ग्याः। दीप अनुक्रम [१०२-१०३ ~442~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] 594 गाथा दाप्रावृद्धादय ऋतयः प्रत्येकं चन्द्रवः सन्तो द्वौ द्वौ मासी वेदितव्यौ, तीच किंप्रमाणावित्याह-तिचउप्पण'मित्यादि. श्रीणि शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि रात्रिंदिवानां द्वादशं च द्वापष्टिभागा रात्रिंदिवस्येति शेषः, इत्येवंरूपेणादानेन | इत्येवरूप संवत्सरममाणमादायेत्यर्थः गण्यमानौ द्वौ मासौ सातिरेकाणि-मनागधिकानि द्वाभ्यां रात्रिंदिवस्य द्वापष्टिभागाभ्यामधिकानीति भावः एकोनषष्टिरेकोनषष्टिः रात्रिंदिवानि रात्रिंदिवाण-रात्रिदिवपरिमाणेनाख्यातापिति वदेत् । तथाहि-द्विद्विमासप्रमाणाः पट् ऋतव इति त्रयाणां चतुःपञ्चाशदधिकानां रात्रिंदिवशतानां पद्दभिर्भागे हते लम्धा एकोनिषष्टिरहोरात्रा द्वादशानां च द्वाषष्टिभागानां षभिर्भागहारे द्वौ द्वाषष्टिभागौ इति, एवं च सति कर्ममासापेक्षया | एकैकस्मिन् ऋतौ लौकिकमेककं चन्द्र मधिकृत्य व्यवहारत एकैकोऽयमरात्रो भवति, सकले तु कर्मसंवत्सरे| पाट अवमराबाः, तथा चाह-'तत्थे"त्यादि, तब-कर्मसंवत्सरे चन्द्रसंवत्सरमधिकृत्य व्यवहारतः खस्विमे यक्ष्यमा क्रमाः षट् अवमरात्राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-'तइए पवे'इत्यादि सुगमम् , इयमत्र भावना-इह कालस्य सूर्यादिक्रियोपलक्षितस्यानादिप्रवाहपतितप्रतिनियतस्वभावस्य न स्वरूपतः कापि हानिर्नापि कश्चिदपि स्वरूपोपचयो यत्विदमवम-18 रात्रातिरात्रप्रतिपादनं तत्परस्परं मासचिन्तापेक्षया, तथाहि-कर्ममासमपेक्ष्य चन्द्रमासस्य चिन्तायामवमराबसम्भवः । कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्तायामतिरात्र कल्पना, तथा चोक्तम्-"कालस्स नेव हाणी नवियुही या अवडिओ कालो। |जायइ बहोवही मासाणं एकमेकाओ ॥१॥" तत्रावमरात्रभाधनाकरणार्थमिदं पूर्वाचार्योपदर्शितं गाथाद्वयं-"चंद क्रमासाणं भंसा जे दिस्सए बिसेसमि । ते भोमरत्तभागा भवंति मासस्स नायबा ॥ १ ॥ बावद्विभागमेग दिवसे | दीप अनुक्रम [१०२-१०३ -45-45 -5 ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक (मळ०) [७५]] गाथा सूर्यमश-18| संजाइ ओमरत्तस्स । बावडीए दिवसेहिं ओमरत्तं तओ हवइ ॥२॥" अनयोाख्या-कर्ममासः परिपूर्णत्रिंशदहो- १२ पाभुते तिवृत्तिःस रात्रप्रमाणश्चन्द्रमास एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशच द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य, ततश्चन्द्रमासस्य-चन्द्रमासपरिमा- चन्द्रत्तुषु णस्य ऋतुमासस्य च-कर्ममासपरिमाणस्य च इत्यर्थः, परस्परविश्लेषः क्रियते, विश्लेषे च कृते सति ये अंशा उद्ध- चन्द्रन क्षत्र ॥२१७॥ |रिता दृश्यन्ते त्रिंशत् द्वापष्टिभागरूपाः ते अवमरात्रस्य भागाः तयपमरात्रंस्य परिपूर्ण मासद्वयपर्यन्ते भवति, सू७५ ततस्तस्य सरकारले भागा मासस्थावसाने द्रष्टव्याः, यदि त्रिंशति दिवसेषु त्रिंशद् द्वापष्टिभागा अधमरात्रस्य प्राप्यन्ते तत 13 अवमरात्रिएकस्मिन् दिवसे कतिभागाः प्राप्यन्ते, राशित्रयस्थापना-३० । ३०।१ । अत्रान्त्येन राशिमा एककलक्षणेन मध्यमस्य करणं राशेविंशद्रूपस्य गुणनं, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातास्त्रिंशदेव, तस्या आदिराशिना त्रिंशता भागे हते लब्ध लाएका, आगतं प्रतिदिवसमेकैको द्वापष्टिभागो लभ्यते, तथा चाह-यावढि'त्यादि, द्वापष्टिभाग एकैको दिवसे दिवसे संजा-II यते अवमरावस्य, गाथायामेकशब्दो दिवसशब्दश्चागृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्याद्वीप्सां गमयति नपुंसकनिर्देशश्च प्राकृत-IN लक्षणवशात् , तदेवं यत एकैकस्मिन् दिवसे एकैको द्वापष्टिभागोऽवमरात्रस्य सम्बन्धी प्राप्यते ततो द्वापण्या दिवसैरेकोऽ-| Mवमरात्रो भवति, किमुक्तं भवति :-दिवसे दिवसे अवमरात्रसत्कैकैकद्वापष्टिभागवख्या द्वापष्टितमो भागः सञ्जायमानो| द्वाषष्टितमदिवसे मूलत एव त्रिषष्टितमा तिथिः प्रवर्तते इति, एवं च सति य एकषष्टितमोऽहोरात्रस्तस्मिन्नेकपष्टितमाT द्वाषष्टितमा च तिथिनिधनमुपगतेति द्वापष्टितमा तिथिलोंके पतितेति व्यवहियते, उक्त च-"एकसि अहोरसे दोवि तिही ४॥२१७३ जत्थ निहणमेज्जासु । सोस्थ तिही परिहायई” इति वर्षाकालस्य-चतुर्मासप्रमाणस्य श्रावणादेः तृतीये पर्वणि सति प्रथमोऽ दीप अनुक्रम [१०२-१०३ CONNECe ~444~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूत्रांक [64] ཡྻཱ + अनुक्रम [१९०२ -१०३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मूलं [७५] + गाथा (१) Education Internation चमरात्रः, तस्यैव वर्षाकालस्य सम्बन्धिनि सप्तमे पर्वणि सति द्वितीयोऽवमरात्रस्तदनन्तरं शीत कालस्य तृतीये पर्वणि मूलापेक्षया एकादशे तृतीयोऽवमरात्रः तस्यैव शीतकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलापेक्षया पञ्चदशे चतुर्थः तदनन्तरं ग्रीष्मकालस्य तृतीये पर्वणि मूलापेक्षया एकोनविंशतितमे पञ्चमस्तस्यैव ग्रीष्मकालस्य सप्तमे पर्वणि मूलापेक्षया त्रयोविंशतितमे पष्ठः, तथा चोक्तम्"तइयम्मि ओमरतं कायर्व सत्तमंमि पर्वमि । वासहिमगिम्हकाले चाउम्मासे विधीयते ॥ १ ॥ इह आषादाया ऋतवो लोके प्रसिद्धिमैयरुः, ततो लौकिकव्यवहारमपेक्ष्यापादादारभ्य प्रतिदिवसमेकैकद्वापष्टिभागहान्या वर्षाकालादिगतेषु तृतीयादिषु पर्वसु यथोक्ता अवमरात्राः प्रतिपाद्यन्ते, परमार्थतः पुनः श्रावण बहुलपक्षप्रतिपलक्षणात् युगादित आरभ्य चतुचतुःपर्वातिक्रमे वेदितव्याः, अथ युगादितः कतिपर्वातिक्रमे कस्यां तिथाववरात्रीभूतायां तया सह का तिथिः परि| समाप्तिं यास्यतीति चिन्तायामिमाः पूर्वाचार्योपदर्शिताः प्रश्ननिर्वचनरूपा गाथा: - " पाडिवय ओमरते कइया बिइया समप्पिहीइ तिही बिइयाए वा तझ्या तइयाए वा चउत्थी उ ॥ १ ॥ सेसासु चैत्र काहिइ तिहीसु ववहारगणियदिद्वासु । सुहुमेण परिहतिही संजायइ कमि पर्वमि१ ॥ २ ॥ रुवाहिगा ऊऊया विगुणा पवा हवंति कायद्या । एमेव हवइ जुम्मे एकत्तीसा जुया पद्या ॥ ३ ॥ एतासां व्याख्या - इह प्रतिपद आरभ्य यावत्पञ्चदशी एतावत्यस्तिथयस्तासां च मध्ये प्रति|पद्यवमरात्रीभूतायां सत्यां कस्मिन् पर्वणि-पक्षे द्वितीया तिथिः समाप्स्यति प्रतिपदा सह एकस्मिन्नहोरात्रे समाप्तिमुपयास्यतीति ?, द्वितीयायां वा तिथाववमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि तृतीया समाप्तिमेष्यति, तृतीयायां वा तिथाववमरात्रीसम्पन्नायां कस्मिन् पर्वणि चतुर्थी निधनमुपयास्यति ?, एवं शेषास्वपि तिथिषु व्यवहारगणितदृष्टासु-लोकप्रसिद्ध For Permalataise Only ~ 445~ wor Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) ཏྠཾ + ཏུལླཱཡྻ अनुक्रम -१०३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१२], प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मूलं [७५] + गाथा (१) सूर्यप्रज्ञव्यवहारगणित परिभावितासु पञ्चमी पष्ठी सप्तम्यष्टमी नवमी दशमी एकादशी द्वादशी त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशीरूपासु तिवृत्तिः ४ शिष्यः प्रश्नं करिष्यति, यथा-सूक्ष्मेण - प्रतिदिवस में कैकेन द्वापष्टिभागरूपेण श्लक्ष्णेन भागेन परिहीयमानायां तिथौ पूर्वस्याः ( मल० ) ४ पूर्वस्या अमवमरात्रीभूतायास्तिथेरानन्तर्येण परापरा तिथिः कस्मिन् पर्वणि सञ्जायते समाप्तिः १ एतदुक्तं भवति - चतुर्थ्या ॥२१८॥ तिथायवमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि पञ्चमी समाप्तिमुपैति पञ्चम्यांचा षष्ठी एवं यावत्पञ्चदश्यां तिथायवमरात्रीभूतायां कस्मिन् पर्वणि प्रतिपद्रूपा तिथिः समाप्नोतीति शिष्यस्य प्रश्नमवधार्य निर्वचनमाचार्य आह-'स्वाहिगाउ' इत्यादि इह याः शिष्येण प्रश्नं कुर्वता तिथय उद्दिष्टास्ता द्विविधास्तद्यथा-ओजोरूपा युग्मरूपाश्च, ओजो विषमं युग्मं समं, तत्र या ओजोरूपास्ताः प्रथमतो रूपाधिकाः क्रियन्ते ततो द्विगुणास्तथा च सति तस्यास्तस्यास्तिथेर्युग्मपर्वाणि निर्वाचन रूपाणि समागतान भवन्ति, 'एमेव हवइ जुम्भे' इति या अपि युग्मरूपास्तिथयस्तास्वपि एवमेव पूर्वोक्तेनैव प्रकारण करणं प्रवर्त्तनीयम् नवरं द्विगुणीकरणानन्तरं एकत्रिंशद्युताः सत्यः पर्वाणि निर्वचनरूपाणि भवन्ति, इयमत्र भावना - यदाज्यं प्रश्नः कस्मिन् पर्वणि प्रतिपदि अवमरात्रीभूतायां द्वितीया समापयतीति, तदा प्रतिपत् किलोद्दिष्टा, सा च प्रथमा तिथिरित्येको प्रियते, स रूपाधिकः क्रियते, जाते द्वे रूपे ते अपि द्विगुणीक्रियेते जाताश्चत्वार आगतानि चत्वारि पर्वाणि ततोऽयमर्थः- युगादितश्चतुर्थे पर्वणि प्रतिपद्यवम रात्रीभूतायां द्वितीयासमाप्तिमुपयातीति युक्तं चैतत् तथाहि प्रतिपद्युद्दिष्टायां चत्वारि पर्याणि | समागतानि पर्व च पञ्चदशतिथ्यात्मकं ततः पञ्चदश चतुर्भिर्गुण्यन्ते जाता षष्टिः ६०, प्रतिपदि द्वितीया समापयतीति द्विरूपे तत्राधिके प्रक्षिसे जाता द्वाषष्टिः, सा च द्वापष्ट्या भज्यमाना निरंशं भागं प्रयच्छति, लब्ध एकक इत्यागतः प्रथमोऽवमरात्र Ja Eratur For Parts Only ~ 446~ १२ प्राभूते अवमरात्रिकरणं सू ७५ ॥२१८॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५]] 385-% गाथा इत्यविसंवादिकरणं, यदा तु कस्मिन् पर्वणि द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीया समाप्नोतीति प्रश्नस्तदा द्वितीया किल परेणोद्दिष्टेति द्विको भियते, सरूपाधिकः कृतो जातानि त्रीणि रूपाणि तानि द्विगुणीक्रियन्ते जाताः पटू द्वितीयाच तिथि |समेति षटू एकत्रिंशद्युताः क्रियन्ते जाताः सप्तत्रिंशत् आगतानि निर्वचनरूपाणि सप्तत्रिंशत् पर्वाणि, किमुक्त भवति ?-युगा-11 ४ादितः सप्तत्रिंशत्तम पर्वणि गते द्वितीयायामवमरात्रीभूतायां तृतीया समामोति, इदमपि करणं समीचीनं, तथाहि-द्वितीयाया| मुद्दिष्टायां सप्तत्रिंशत्पाणि समागतानि, ततः पञ्चदश सप्तत्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि | ५५५ द्वितीया नष्टा तृतीया जातेति त्रीणि रूपाणि तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि पञ्च शतानि अष्टापश्चाशदधिकानि ५५८, एषोऽपि राशिपिया भग्यमानो निरंशं भागं प्रयच्छति, लब्धाच नवेत्यागतो नवमोऽवमरात्र इति समीचीनं करणं, एवं सर्वास्वपि तिथिषु करणभावना करणसमीचीनत्वभावना अवमरात्रसङ्ख्या च स्वयं भावनीया, पर्यनिर्देशमात्रं तु क्रियते, तत्र तृतीयायां चतुर्थी समापयतत्यष्टमे पर्वणि गते 'चतुर्थ्यां पचमी एकचत्वारिंशत्तमे पर्वणि पञ्चम्यां षष्ठी द्वादशे पर्वणि षष्ट्या सप्तमी पञ्चचत्वारिंशत्तमे सप्तम्यामष्टमी षोडशे अष्टम्यां नवमी एकोनपञ्चाशत्तमे | नयम्यां दशमी विंशतितमे दशम्यामेकादशी त्रिपञ्चाशत्तमे एकादश्यां द्वादशी चतुर्विंशतितमे द्वादश्यां त्रयोदशी सप्तपञ्चाशत्तमे त्रयोदश्यां चतुर्दशी अष्टाविंशतितमे चतुर्दश्यां पञ्चदशी एकषष्टितमे पञ्चदश्यां प्रतिपत् द्वात्रिंशत्तमे इति, एवमेता युगपूर्वा, एवं युगोत्तराद्धेऽपि द्रष्टव्याः। तदेवमुक्ता अवमरात्राः, सम्प्रत्यतिरात्रप्रतिपादनार्थमाह-तत्धे'त्यादि, तत्रैकस्मिन् संवत्सरे खल्बिमे पटू अतिरात्राः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-चउत्थे पवे'इत्यादि, इह कर्ममासमपेक्ष्य सूर्यमासचिन्ता-18 A5% दीप अनुक्रम [१०२-१०३ %* REaratinintamataram For P OW ~447~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [७५] + गाथा(१) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७५] ॥२१॥ गाथा सूर्यप्रज्ञ- यामेकैकसूर्य परिसमाप्तावेकैकोऽधिकोऽहोरात्र प्राप्यते, तथाहि-त्रिंशताऽहोरात्रैरेकः कर्ममासः सार्द्धत्रिंशताऽहोरात्रैरेकः १२माभूत प्रसूर्यमासो मासद्वयात्मकश्च ऋतुस्तत एकसूयंत्तुपरिसमाप्ती कर्ममासद्धयमपेक्ष्य कोऽधिकोऽहोरात्रः प्राप्यते. सूर्यर्तश्चाषाढा- भातराना (मल०) दिकस्तत आपाढादारभ्य चतुर्थे पर्वणि गते एकोऽधिकोऽहोरात्रो भवत्यष्टमे पर्वणि गते द्वितीयस्तृतीयो द्वादशे पर्वणि| चतुर्थ: पोडशे पशमो विंशतितमे पष्ठश्चतुर्विंशतितमे इति, अवमरात्रश्च कर्ममासद्वयमपेक्ष्य चन्द्रमासचिन्तायां, चन्द्र-11 आवृत्तयः सू७६ मासाश्च श्रावणाद्यास्ततो वर्षाकालस्य श्रावणादेरित्युक्तं प्राग, सम्प्रति यमपेक्ष्यातिरात्रो यं चापेक्ष्यावमरात्रा भवन्ति तदेतत्प्रतिपादयति-"छचेव च अइरत्ता आइच्चाउ हवंति माणाहि । छच्चेव ओमरत्ता चंदाउ हवंति माणाहि ॥ १॥" अतिरात्रा भवन्त्यादित्यात्-आदित्यमपेक्ष्य, किमुक्तं भवति!-आदित्यमपेक्ष्य कर्ममासचिन्तायां प्रतिवर्ष पद अतिरात्रा भवंति || इति माणाहि-जानीहि, तथा षट् अवमरात्रा भवन्ति चन्द्रात्-चन्द्रमपेक्ष्य चन्द्रमासानधिकृत्य कर्ममासचिन्तायां प्रतिस-13 वत्सरं पटू अवमराना भवन्तीत्यर्थः इति माणाहि-जानीहि । तदेवमुक्ता अवमरात्रा अतिरात्राथ, संप्रत्यावृत्तीविक्षुरिदमाह-1& | तत्व खलु इमाओ पंच वासिकीओ पंच हेमंताओ आउट्टिओ पण्णत्ताओ, ता एएसिणं |पंचण्हं संवच्छराणं पढमं वासिकी आजहि चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएति ?, ता अभीयिणा, अभी-| पिस्स पढमसमएणं, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति , ता पूसेणं, पूसस्स एगूणवीस ॥२१९॥ मुहत्ता तेत्तालीसं च यावद्विभागा मुहत्तस्स बावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीस चुण्णिपा भागा| |सेसा, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोचं वासिकिं आउहि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ता दीप अनुक्रम [१०२-१०३ R SARELIEatunintentmatha ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०४] संठाणाहिं संठाणाणं एफारस मुहत्ते ऊतालीसंच वाचविभागा मुहत्तस्स बाबट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेपणं लाचुणिया भागा सेसा, तं समयं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता पूसेणं, पूसस्स गं तं चेव ज पढमया. | एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तथं चासिक्किं आउदि चंदे केणं णक्खसेणं जोएइ, ता विसाहाहिं विसा| हाणं तेरस मुहुत्ता चप्पणं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स पावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चत्तालीस चुणिया &भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता प्रसेणं, प्रसस्स तं चेव, ता एतेसि णं पंचहर |संबच्छराणं चउत्थं वासिकं आउदि चंदे केणं णक्णत्तेणं जोएति ?, ता रेवतीहि, रेवतीणं पणवीसं मुहुसायासटिभागा मुहत्तस्स चावहि भागं च सत्तद्विधा छत्ता बत्तीस चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केण णक्खत्तेणं जोएति !, ता पूसेणं पूसस्स संचेव, ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमं चासिफि आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता पुत्बाहि फग्गुणीहिं पुवाफग्गुणीणं बारस मुहसा सत्तालीसं च बावहिसभागा मुहत्तस्स यावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेरस चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणंणक्ख तेणं जोएति ?, ता पूसेणं, पूसस्स तं चेव (सूत्रं ७६) का तत्र-युगे खस्विमा:-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पाश वापिक्या-वर्षाकालभाविन्यः पञ्च हेमन्त्यः-शीतकालभाविन्यः सर्वसङ्लया। दश आवृत्तयः सूर्यस्य प्रज्ञप्ताः,इयमत्र भायना-आवृत्तयो नाम भूयो भूयो दक्षिणोत्तरगमनरूपास्ताश्च द्विविधाः, तद्यथा-एका सूर्यस्यावृत्तयोऽपराश्चन्द्रमसः, तत्र युगे सूर्यस्यावृत्तयो दश भवन्ति, चतुस्त्रिंशं च शतमावृत्तीनां चन्द्रमसः, उक्त च-"सूर ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 96- प्रत सूत्रांक [७६] सूर्यप्रज्ञ- सिवृत्तिः (मल.) ॥२२०॥ %2595% स य अयणसमा आउट्टीओ जुगंमि दस होति । चंदस्स य आउट्टी सयं च चोत्तीसय चेव ॥१॥" अथ कथमवसीयते सूर्यस्या- १२ प्राभृतेवृत्तयो युगे दश भवन्ति चन्द्रमसश्चावृत्तीनां चतुस्विंश शतमिति, उच्यते, उक्त नाम आवृत्तयो भूयो भूयो दक्षिणोत्तर- आवृत्तयः गमनरूपास्ततः सूर्यस्य चन्द्रमसो वा यावन्त्ययनानि तावत्य आवृत्तयः, सूर्यस्य चायनानि दश, एतच्चावसीयते त्रैराशि- सू ७६ कबलात् , तथाहि-यदि व्यशीत्यधिकेन शतेन दिवसानामेकमयनं भवति ततोऽष्टादशभिः शतस्त्रिंशदधिकः कति भय|नानि लभ्यन्ते, राशिवयस्थापना १८३ । १ । १८३० । अत्रान्त्येन राशिना मध्यमस्य राशेर्गुणनं एकस्य च गुणने | तदेव भवतीति जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० तेषामायेन राशिना व्यशीत्यधिकशतप्रमाणेन भागहरणं, ४ालब्धा दश, आगतं युगमध्ये सूर्यस्य दश अयनानि भवन्तीत्यावृत्तयोऽपि दश तथा यदि त्रयोदशभिदिवसैश्चतचत्वारिंशतामा च सप्तपष्टिभागैरेकं चन्द्रस्यायनं भवति ततोऽष्टादशभिर्दिवसशतैत्रिंशदधिकैः कति चन्द्राययनानि भवन्ति, 11 १८३० । तत्राचे राशौ सवर्णनाकरणार्थ त्रयोदशापि दिनानि सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशसप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, यानि चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि तान्यपि सवर्णनार्थ सप्तपट्या गुण्यन्ते, जातानि द्वादश लक्षाणि द्वे सहने षट् शतानि दशोत्तराणि १२०२६१०14 ॥२२०॥ तोवरूपेणान्त्येन राशिना मध्यमस्य राशेरेककरूपस्य गुणनं, एकस्य च गुणने तदेव भवतीत्येतावानेव राशिजा-14 तस्तस्य नवभिः शतैः पादोत्तरैर्भागो हियते लब्धं चतुस्त्रिंशं शतं १३४ एतापन्ति चन्द्रायणानि युगमध्ये भयसन्तीत्येतावत्यश्चन्द्रमस आवृत्तयः । सम्पति का सूर्यस्थावृत्तिः कस्यां तिथी भवतीति चिन्तायां यत्पूर्वाचार्यरुपदर्शितं | दीप अनुक्रम [१०४] % % REmiratinintamarati ~450~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७६] प्राभृत [१२], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education International करणं तदुपदर्श्यते "आउट्टीहिं एगूणियाहिं गुणियं सयं तु तेसीयं । जेण गुणं तं तिगुणं रूहियं पक्खिये तत्थ ॥ १ ॥ पण्णरस भाइयंमि उ जं लद्धं तं तइसु होइ पवेसु । जे अंसा ते दिवसा आउट्टी तत्थ बोद्धया ॥ २ ॥" अनयोर्व्याख्या- आवृत्तिभिरेकोनकाभिर्गुणितं शतं व्यशीत्यधिकं किमुकं भवति १-या आवृत्तिर्विशिष्टतिथियुक्ता ज्ञातुमिष्यते तत्सङ्ख्या एकोना क्रियते, ततस्तया व्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, गुणयित्वा च येनाङ्केन गुणितं व्यशीत्यधिकं शतं तदङ्कस्थानं त्रिगुणं कृत्वा रूपाधिकं सत् तत्र पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते ततः पञ्चदशभिर्भागो हियते, हृते च भागे यल्लब्धं ततिषु तावत्सङ्ख्याकेषु पर्वस्वतिक्रान्तेषु सा विवक्षिता आवृत्तिर्भवति, ये वंशाः पश्चादुद्धरितास्ते दिवसा ज्ञातव्याः, तत्र तेषु दिवसेषु मध्ये चरमदिवसे आवृत्तिर्भवतीति भावः इहावृत्तीनामेवं क्रमो युगे प्रथमा आवृत्तिः श्रावणे मासे द्वितीया माघमासे तृतीया भूयः श्रावणे मासे चतुर्थी माघमासे पुनरपि पञ्चमी श्रावणे षष्ठी माघमासे भूयः सप्तमी श्रावणे | अष्टमी माघे नवमी श्रावणे दशमी माघमासे इति, तत्र प्रथमा किल आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति यदि जिज्ञासा तदा प्रथमावृत्तिस्थाने एकको धियते स रूपोनः क्रियते इति न किमपि पश्चाद्रूपं प्राप्यते, ततः पाश्चात्ययुगभाविनी या दशमी आवृत्तिस्तत्सङ्ख्या दशकरूपा प्रियते तथा त्र्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, दशकेन किल गुणितं व्यशीत्यधिकं शतमिति ते दश त्रिगुणाः क्रियन्ते जाता त्रिंशत् सा रुपाधिका विधेया जाता एकत्रिंशत् सा पूर्वराशी प्रक्षिप्यते जातान्यष्टादश शतान्येकषष्ट्यधिकानि १८६१ तेषां पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धं चतुर्विंशत्यधिकं शतं शेषं तिष्ठति एकं रूपं, आगतं चतुर्विंशत्यधिकपर्वशतात्मके पाश्चात्ये युगेऽतिक्रान्ते अभिनवे युगे प्रवर्त्तमाने प्रथमा For Para Use Only ~451~ wor Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७६] प्राभृत [१२], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥२२१॥ आवृत्तिः प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि भवतीति तथा कस्यां तिथौ द्वितीया माघमासभाविन्यावृत्तिर्भवतीति यदि जिज्ञासा ततो द्विको प्रियते, स रूपोनः कृत इति जात एककस्तेन व्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातं त्र्यशीत्यधिकमेव शतं, एकेन गुणितं किल त्र्यशीत्यधिकं शतमिति एकस्त्रिगुणीक्रियते, जातस्त्रिकः स रूपाधिको विधीयते, जाताश्चत्वारः ते पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्ते जातं सप्ताशीत्यधिकं शतं १८७, तस्य पञ्चदशभिर्भागो हियते, लब्धा द्वादश शेपास्तिष्ठन्ति सप्त, आगतं युगे द्वादशसु पर्वस्वतिक्रान्तेषु माघमासे बहुलपक्षे सप्तम्यां तिथौ द्वितीया माघमासभाविनीनां तु मध्ये प्रथमा आवृत्तिरिति तथा तृतीया आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति जिज्ञासायां त्रिको प्रियते, स | रूपोनः कर्त्तव्य इति जातो द्विकः तेन त्र्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि षट्षष्यधिकानि ३६६, द्विकेन | किल गुणितं त्र्यशीत्यधिकं शतं ततो द्विकस्त्रिगुणीक्रियते जाताः षट् ते रूपाधिकाः क्रियन्ते जाताः सप्त ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ३७३ तेषां पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धा चतुर्विंशतिः २४ शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोदशांशाः आगतं युगे तृतीया आवृत्तिः श्रावणमास भाविनीनां तु मध्ये द्वितीया चतुर्विंशतिपर्वात्मके प्रथमे संवत्सरेऽतिक्रान्ते श्रावणमासे बहुउपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ भवतीति एवमन्यास्वध्यावृत्तिषु करणवशाद्विवक्षितास्तिथयः आनेतव्याः, ताश्चेमा युगे चतुर्थी माघमासभाविनीनां तु मध्ये द्वितीया शुक्लपक्षे चतुथ्यो पञ्चमी श्रावणमास भाविनीनां तु मध्ये तृतीया शुक्लपक्षे दशम्यां षष्ठी माघमासभाविनीनां तु मध्ये तृतीया माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपदि सप्तमी श्रावणमासभाविनीनां तु मध्ये चतुर्थी श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तम्यां अष्टमी माघमासभाविनीनां तु मध्ये चतुर्थी माघमासे बहु For Parts On ~452~ १२ प्राभृते आवृत्तयः सू ७६ ॥२२१॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७६] प्राभृत [१२], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः | उपक्षे त्रयोदश्यां नवमी श्रावणमास भाविनीनां तु मध्ये पञ्चमी श्रावणमासे शुक्लपक्षे चतुर्थ्यां दशमी माघमासभावनीनां तु मध्ये पञ्चमी माघमासे शुक्लपक्षे दशम्यां तथा चैता एव पञ्चानां श्रावणमासभाविनीनां पञ्चानां तु माघमासभाविनीनां तिथयोऽन्यत्राप्युक्ताः- “पढमा बहुलपडिवए विइया बहुलरस तेरसीदिवसे । सुद्धस्स य दसमीए बहुलस्स य सचमीए उ ॥ १ ॥ सुद्धस्स चउत्थीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी । पया आउट्टीओ सदाओ सावणे मासे ॥ २ ॥ बहुलस्स सत्तमीए | पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए । बहुलस्स य पाडियए बहुलस्स य तेरसीदिवसे ॥ ३ ॥ सुद्धस्स य दसमीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी । एया आउट्टीओ सदाओ नाहमासंमि ॥ ४ ॥ एतासु सूर्यावृत्तिषु च चन्द्रनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थमिदं करणं- "पंच सया पडिपुण्णा तिसत्तरा नियमसो मुहुत्ताणं । छत्तीस विसद्विभागा छच्चैव य चुण्णिया भागा ॥ १ ॥ आउद्दीहिं एगूनियाहि गुणिओ हविज धुवरासी । एयं मुहुत्तगणियं एतो बोच्छामि सोहण || २ || अभिइस्स नव | मुहुत्ता विसट्ठि भागा य होति चडवीसं । छावही य समग्गा भागा सत्तहिछेयकथा ॥ १ ॥ उगुणडं पोडवया तिसु चैव न वोत्तरेसु रोहिणिया । तिसु नवनउइएस भवे पुण्वसू उत्तरा फग्गू ॥ ४ ॥ पंचे अणपना समाई उगुणत्तराई छच्चेव । सोझाहि बिसाहासुं मूले सत्तेव वायाला ॥ ५ ॥ अहसयमुगुणवीसा सोहण उत्तरा असादाणं । चउवीसं खलु भागा | छावडी चुण्णिया भागा ॥ ६ ॥ एयाई सोहरसा जं से तं हवेज्ज नक्खत्तं । चंद्रेण समाउतं आउट्टीए उ बोद्धयं ॥ ७ ॥" एतासां व्याख्या - पञ्च शतानि त्रिसप्ततानि त्रिसप्तत्यधिकानि परिपूर्णानि मुहर्त्तानां भवन्ति पटूत्रिंशञ्च द्वापष्टिभागाः पटू चैव चूर्णिका भागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्काः षट् सप्तषष्टिभागाः एतावान् विवक्षितकरणे ध्रुवराशिः, कथम For Penal Use Only ~453~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७६] प्राभृत [१२], ---- ----- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः ( मल०) ॥२२२॥ स्योत्पत्तिरिति चेत्, उच्यते, इह यदि दशभिः सूर्यायनैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन सूर्यायनेन किं ४ १२ प्राभूते लभामहे १, राशित्रयस्थापना - १० । ६७ । १ । अत्रान्त्स्येन राशिना एककेन मध्यस्य राशेः सप्तषष्टिलक्षणस्य गुणना 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता सप्तषष्टिः ६० तस्य दशभिर्भागहारे लब्धाः षट् पर्यायाः एकस्य च पर्यायस्य सप्त दशभागास्तद्गतमुहूर्त्तपरिमाणमधिकृत गाथायामुपन्यस्तं कथमेतदवसीयते अथैतावन्तस्तत्र मुहूर्त्ता इति चेत्, उच्यते, त्रैराशिक कमवतार बलात्, तथाहि यदि दशभिर्भागैः सप्तविंशतिदिनानि एकस्य च दिनस्य एकविंशतिः सप्तपष्टिभागा लभ्यन्ते ततः सप्तभिर्भागः किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १० । २७-२८-७ । अत्रान्त्येन राशिना सप्तकलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तविंशतिर्दिनानि गुण्यन्ते, जातं नवाशीत्यधिकं शतं १८९, तस्याद्येन राशिना दशकलक्षणेन भागे हते लब्धाः अष्टादश दिवसाः, ते च मुहर्त्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चत्वारिंशदधिकानि पञ्च शतानि मुहूर्तानां ५४०, शेषा उपरि तिष्ठन्ति नव, ते मुहर्त्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जाते द्वे शते सप्तत्यधिके २७०, ततो दशभिर्भागे लब्धाः सप्तविंशतिर्मुहर्त्ताः ६७, ते पूर्वस्मिन् मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पथ शतानि सप्तपष्ठयधिकानि ५६७, येऽपि च एकविंशतिः सप्तषष्टिभागा दिनस्य तेऽपि मुहूर्त्त भागकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रिंशदधिकानि षट् शतानि ६३०, तानि सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि दशोत्तराणि चतुश्चत्वारिंशच्छतानि ४४१०, तेषां दशभिर्भागे हते लब्धानि चत्वारि शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि ४४१, तेषां सप्तषष्या भागे हुते लब्धाः पटू मुहूर्त्तास्ते पूर्वमुहर्त्तराशी प्रक्षिष्यन्ते जातानि सर्वसङ्ख्या मुहूर्त्तानां पञ्च शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ५७३, शेषा चोद्धरति एकोनचत्वारिंशत् सा For Praise Only ~454~ आवृत्तयः सू ७६ ॥२२२॥ wor Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०४] द्वाषष्ट्या गुण्यते जातानि चतुर्विंशतिः शतानि अष्टादशाधिकानि २४१८ तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते लब्धाः पत्रिंशत् । दापष्टिभागाः शेषास्तिष्ठन्ति पटू ते च एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः सप्तपष्टिभागाः एते चातिश्लक्ष्णरूपा भागा इति चूर्णिका भागा व्यपदिश्यन्ते, तदेयमुक्तो ध्रुवराशिः, सम्प्रति करणमाह-'आउद्दीहि'इत्यादि, यस्यां यस्यामागृती नक्ष बयोगो ज्ञातुमिष्यते तथा तया आवृत्त्या एकोनिकया-एकरूपहीनया गुणितोऽनन्तरोक्तस्वरूपो भवेत् यावान् एन-12 तिन्महगुणित-मुहूर्तपरिमाण, अत आय वक्ष्यामि शोधनकं, अत्र प्रथमतोऽभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकमाह-'अभिहस्से -1 त्यादि, अभिजितः-अभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनक नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिद्वापष्टिभागाः एकस्य च द्धप-1 प्टिभागस्य सत्काः सप्तपष्टिच्छेदकृताः समयाः-परिपूर्णाः षट्पष्टिभागाः, कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेत् , उच्यते, इहाभिजि-IN | तोऽहोरात्रसरका एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः चन्द्रेण योगः, ततोऽहोरात्रे त्रिंशन्मुहुर्ता इति मुहूर्तभागकरणा सा एक। विंशतिः त्रिंशता गुण्यत्ते, जातानि पटू शतानि त्रिंशदधिकानि ६३०, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा नव मुहूर्त शेषास्तिष्ठन्ति सप्तविंशतिः, ते द्वापष्टिभागकरणार्थ द्वापट्या गुण्यन्ते, जातानि पोडश शतानि चतुःसप्तत्यधिकानि M|१६७४, तेषां सप्तपट्या भागे हते लब्धाश्चतुर्विंशतिषिष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति पदपष्टिः, ते च एकस्य द्वापष्टिभागस्य ।। सरकाः सप्तपष्टिभागाः, सम्पति शेषनक्षत्राणां शोधनकान्युच्यन्ते-'उगुणदृ'मित्यादि गाथात्रयं, एकोनषष्ठयधिक पर प्रोष्ठपदा-उत्तरभन्नपदा, किमुक्तं भवति !-एकोनषष्ट्यधिकेन शतेनाभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदान्तानि नक्षत्र.गि शुद्धपन्ति, तथाहि-नय मुहर्ता अभिजितो नक्षत्रस्य त्रिंशत् श्रवणस्य त्रिंशत् धनिष्ठायाः पञ्चदश शतभिपजः त्रिंशत् पूर्वभद्रपदायाः || ~455~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल०) ॥२२॥ दीप अनुक्रम [१०४] पञ्चचत्वारिंशत् उत्तरभद्रपदाया इति शुध्यन्त्येकोनषष्ट्यधिकेन शतेनोत्तरभद्रपदान्तानि नक्षत्राणि, तथा त्रिषु नवोत्तरेषु १२ प्राभूत शतेषु रोहिणिका-रोहिणिकान्तानि शुक्रान्ति, तथाहि एकोनपट्यधिकेन शतेनोत्तरभाद्रपदान्तानि शुस्यन्ति, ततत्रिंशता आवृत्तयः मुहूत्त रेवती त्रिंशताऽश्विनी पञ्चदशभिर्भरणी त्रिंशता कृत्तिका पञ्चचत्वारिंशता रोहिणिकेति, तथा त्रिषु नवनवत्यधिकेषु सू ७६ शतेषु पुनर्वसुः-पुनर्वस्वन्तानि शुद्धयन्ति,तत्र त्रिभिः शतैर्नवोत्तर रोहिणिका-रोहिणिकांतानि शुद्धयन्ति, ततस्त्रिंशता मुहूर्त मंगशिरः पञ्चदशभिरा पंचचत्वारिंशता पुनर्वसुरिति, तथा पञ्च शतान्येकोनपञ्चाशानि-एकोनपञ्चाशदधिकानि उत्तरफाझाल्गुनीपर्यन्तानि, किमुक्तं भवति?-पञ्चभिः शतैरेकोनपञ्चाशदधिकैरुत्तरफाल्गुन्यन्तानि नक्षत्राणि शश्यन्ति, तथाहि-त्रिभिः । शतैर्नवनवत्यधिकः पुनर्वस्वन्तानि शुयन्ति, ततस्त्रिंशता मुदत्तः पुष्यः पञ्चदशभिरश्लेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्वः । फाल्गुनी पञ्चचत्वारिंशता उत्सरफाल्गुनीति, तथा षद् शतान्येकोनसतानि-एकोनसप्तत्यधिकानि विशाखाना-विशा-1 खापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि, तथाहि-उत्तरफाल्गुन्यन्तानां पञ्च शतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि शोध्यानि, तत-14 सिंदान्मुहूर्ता हस्तस्य त्रिंशत् चित्रायाः पञ्चदश स्वातेः पञ्चचत्वारिंशद्विशाखाया इति, तथा भूले-मूलनक्षत्रे शोध्यानि & सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ७४४, तत्र पट् शतान्येकोनसप्तत्यधिकानि ६६९ विशाखान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि, ततः त्रिंशन्मुहर्ता अनुराधायाः पादश ज्येष्ठायास्त्रिंशन्मूलस्येति, तथा अष्टौ शतानि समाहतानि अष्टशतमेकोनविंशत्यधिक. किमक्तं भवति-अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि उत्तराषाढाना-उत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनक, तथाहि-II |मूलान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ७४४, तत्र त्रिंशन्मुहूर्ताः पूर्वापाढानक्षत्रस्य R२२३॥ ~456~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०४] पशचत्वारिंशदुत्तरापाढानामिति, तथा सर्वेषामपि चामूनां शोधनकानामुपरि अभिजितः सम्बन्धिनचतुर्थशतिषिष्टि-11 भागाः शोध्याः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सत्काः षट्पष्टिश्चूर्णिका भागाः । 'एयाई' इत्यादि, एतानि-अनन्तरोदितानि शोधनकानि यथासम्भवं शोधयित्वा यत् शेषमुद्धरति तत्र यथायोगमपान्तरालवर्तिषु नक्षत्रेषु शोधितेषु यन्नक्षत्र || न शुद्धति तनक्षत्रं चन्द्रग समायुक्त विवक्षितायामावृत्तौ चेदितव्यं, तत्र प्रथमायामावृत्ती प्रथमतः प्रवर्तIMमानायां केन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्र इति यदि जिज्ञासा ततः प्रथमावृत्तिस्थाने एकको भियते, स रूपोनः क्रियता इति न किमपि पश्चादूपमवतिष्ठते, ततः पाश्चात्ययुगभाविनीनामावृत्तीनां मध्ये या दशमी आवृत्तिस्तत्सङ्ख्या | दशकरूपा प्रियते, तया प्राचीनः समस्तोऽपि ध्रुवराशिः पञ्च शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुह नामेकस्य च *मुहर्तस्य च पत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट् सप्तषष्टिभागाः । ५७३ । ३६ । इत्येवंप्रमाणे का दशभिर्गुण्यते, तत्र मुहूर्तराशौ दशभिर्गुणिते जातानि सप्तपश्चाशच्छतानि त्रिंशदधिकानि ५७३०, येऽपि च षट्त्रिंशत् | द्विापष्टिभागाः तेऽपि दशभिर्गुणिता जातानि त्रीणि शतानि पट्याधिकानि ३६० तेषां द्वाषषा भागो हियते लब्धाः पश्च मुहूर्तास्ते पूर्वराशी प्रक्षिष्यन्ते जातः पूर्वराशिः सप्तपञ्चाशच्छतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि ५७३५, शेषाणि तिष्ठन्ति द्वापष्टि-| | भागाः पञ्चाशत् ५०, येऽपि षटू चूर्णिका भागास्तेऽपि दशभिर्गुणिता जाता षष्टिस्तत एतस्माच्छोधनकानि शोध्यन्ते, तत्रोत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनकमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि ८१९, तानि किल यथोदितराशौ सप्तकृत्यः शुद्धिमाप्नुवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि सप्तपञ्चाशच्छतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि ५७३३, तानि सप्तपञ्चाशच्छतेभ्यः | RRCCC ~457~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [७६] प्राभृत [१२], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यम सिवृत्तिः ( मल० ॥२२४॥ Education International | पञ्चत्रिंशदधिकेभ्यः पात्यन्ते स्थितौ पश्चात् द्वौ मुहत्तौ, ती द्वापष्टिभागीकरणार्थ द्वाषष्ट्या गुण्येते, जातं चतुत्रिंशं शतं द्वाप - ११२ प्राभृते |ष्टिभागानां १२४ तत्याने पञ्चाशलक्षणे द्वापष्टिभागराशी प्रक्षिप्यते जातं चतुःसप्तत्यधिकं शतं द्वापष्टिभागानां १७४ तथा येऽभिजितः सम्बन्धिनः चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागाः शोध्याः ते सप्तभिर्गुण्यन्ते जातमष्टषष्यधिकं शतं १६८, तत् चतुःसप्तत्यधिकात् शतात् शोध्यते स्थिताः शेषाः पटू द्वाषष्टिभागाः, ते चूर्णिकाभागकरणार्थं सप्तषष्या गुण्यन्ते गुणयित्वा च ये प्राक्तनाः पष्टिः सप्तपष्टिभागास्ते तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि द्वापथ्यधिकानि ४६२, ततो येऽभिजितः सम्बन्धिनः पट्पष्टिचूर्णिका भागाः शोध्याः ते सप्तभिर्गुण्यन्ते, जातानि चत्वारि शतानि द्वाषष्ट्यधि कानि ४६२ तान्यनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितं पश्चात् शून्यं तत आगतं साकल्येनोत्तराषाढा नक्षत्रे चन्द्रेण भुक्ते सति तदनन्तरस्याभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युगे प्रथमा आवृत्तिः प्रवर्त्तते एतदेव प्रश्ननिर्वचनरीत्या प्रतिपादयति'एएसि णमित्यादि एतेषां अनम्सरोदितानां चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथम वार्षिक वर्षाकालसम्ब| न्धिनीं श्रावणमास भाविनीमित्यर्थः आवृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?- केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवर्त्तयति है, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - 'ता अभिहणा' इत्यादि, अभिजिता नक्षत्रेण युनक्ति, एतदेव विशेषतः आचष्टे अभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युनक्ति, तदेवं चन्द्रनक्षत्रमवबुध्य सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नमाह-'तं समयं च ण ेमित्यादि, तस्मिंश्च समये णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः केन नक्षत्रेण युनक्ति-केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् तां प्रथमाऽऽवृत्तिं प्रवर्त्तयतीति ?, भगवानाह 'ता पूसेण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् पुष्येण युक्तस्तां प्रथमामावृतिं युनक्ति, For Parts Only ~458~ आवृत्तयः सू ७६ ॥ २२४ ॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०४] एतदेव सविशेषमाचष्टे-तदानीं पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुह स्त्रिचत्वारिंशश्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वापष्टिभागी &सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयस्त्रिंशचूर्णिका भागाः शेषाः, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, त्रैराशिकबलात्, | तथाहि-यदि दशभिरयनैः पञ्च सूर्यकृतानक्षत्रपर्यायान् लभामहे तत एकेनायनेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना 1१०1५। १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः पञ्चकरूपस्य गुणनं जाताः पञ्चव तेषां दशभिर्भागे हते लब्धमर्द्ध पर्यायस्थ, तत्र नक्षत्रपर्यायः सप्तपष्टिभागरूपोऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८५०, तथाहि-पट नक्षत्राणि शतभिषमभृतीनि अर्बनक्षत्राणि ततस्तेषां प्रत्येक सास्त्रियस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः, ते सा स्त्रयस्त्रिंशत् पङ्गि-1 गुण्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, षट् नक्षत्राणि उत्तरभद्रपदादीनि ब्यक्षेत्राणि, ततस्तेषां प्रत्येकमेकं शतं सप्तषष्टि-४ भागानामेकस्य च सप्तपष्टिभागस्यार्ड, एतत् पद्भिर्गुण्यते, जातानि षट् शतानि ज्युसराणि ६०३, शेषाणि पश्चदश नक्ष त्राणि समक्षेत्राणि तेषां प्रत्येक सप्तपष्टिभागाः ततः सप्तषष्टिः पचदशभिर्गुण्यते, जातं पश्चोत्तरं सहनं १००५, एक४विंशतिश्चाभिजितः सप्तपष्टिभागाः, सर्वसङ्ख्यया सप्तषष्टिभागानामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एष परिपूर्णः४ सप्तपष्टिभागात्मको नक्षत्रपर्यायः, एतस्याओं नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५, तेभ्य एकविंशतिरभिजितः सम्बन्धिनी शुद्धा शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टौ शतानि चतुर्नवत्यधिकानि ८९४, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धात्रयोदश १३, पास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशतिः, त्रयोदशभिश्च पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ये च शेषास्तिष्ठन्ति बयोविंशतिर्भागास्ते मुहर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पट् शतानि नवत्यधिकानि ६९०, तेषां सप्तपष्टया भागो हियते ( मं० ७०००) ~459~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] * सूर्यप्रज्ञ- लब्धा दश मुहूर्ताः १०, शेपास्तिष्ठन्ति विंशतिः, सा द्वापष्टिभागकरणार्थ द्वापट्या गुण्यते, जातानि द्वादश शतानि चत्वारिं- १२प्राभूतप्तिवृत्तिःशदधिकानि १२५०, तेषां सप्तषश्या भागो हियते, लब्धा अष्टादश द्वाषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति चतुर्विंशत् द्वापष्टिभागस्य । Mआवृत्तयः (मल०)| सू७६ सप्तपष्टिभागाः, तत आगतं पुष्यस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टादशसु द्वापष्टिभागेष्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतु-II ॥२२५ स्विंशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु एकोनविंशतौ च मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभालागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेपेषु प्रथमाश्रावणमासभाविन्याऽऽवृत्तिः प्रवर्तते इति । (अथ द्वितीयश्रावणमासभाब्या-141 वृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह) ता पएसिण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषा-अनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पशानां संवत्सराणां मामध्ये द्वितीयां वार्षिकी श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति-केन नक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रो द्वितीयामा-1 वत्ति प्रारम्भयति', एवं प्रश्ने कृते सति भगवानाह-"ता संठाणाहि' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , संस्थानाभि:-संस्थानाशब्देन मृगशिरोनक्षत्रमभिधीयते, तथा प्रवचने प्रसिद्धेः, ततो मृगशिरोनक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रमा द्वितीयां श्रावणमासभाविनी|मावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानीं च मृगशिरोनक्षत्रस्य एकादश मुहूत्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य | च द्वापष्टिभागस्य त्रिपश्चाशत् सप्तपष्टिभागाः शेषाः, तथाहि-इह या द्वितीया श्रावणमासभाविन्यावृत्तिः सा माक्पद-13 शितकमापेक्षया तृतीया ततस्तत्स्थाने त्रिको प्रियते, स रूपोनः कार्य इति जातो द्विकस्तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः पश्च श-161॥२२५ मातानि त्रिसप्तत्यधिकानि महत्तानामेकस्य च मुहर्तस्य पत्रिंशत द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् सप्तपष्टिभागाः ५७३ । । । इत्येवंप्रमाणो गुण्यते, जातान्येकादश शतामि षट्चत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तानां ११४६ द्वासप्तति दीप अनुक्रम [१०४] ** REaratunintamature ~460~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०४] रेकस्य मुहूर्त्तस्य सत्का द्वापष्टिभागाः ७२ एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः । । तत एतेभ्यो मुहूर्ता-12 नामष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुविशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तषष्टिभागैरेकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां शतानि त्रीणि सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूतस्य सप्तचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः ३२७ । । तत एतेभ्यत्रिभिर्महशतनवोत्तरैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पदूषष्ट्या सप्तषष्टिभाग-1 रभिजिदादीनि रोहिणिकापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, 'तेसु चेव नवोत्तरेसु रोहिणिया' इत्यादिप्रागुक्तवचनात् , ततः स्थिताः पश्चादष्टादश मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तपष्टिभागाः |१८ एतावता मृगशिरो न शुक्ष्यति, तत आगतं मृगशिरा नक्षत्रं एकादशसु मुहर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु शेपेषु द्वितीया | श्रावणमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति ( संप्रति सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र निर्वचनसूत्र चाह-) 'तं समय च णमित्यादि, तस्मिंश्च समये सूर्यः केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः तां द्वितीयां वार्षिकीमावृत्तिं युनक्ति !, भगवानाह-'ता पूसेणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , पुष्येण युक्तः, 'तं चेवत्ति वचनसामादिदं द्रष्टव्य'पुस्सस्स एगूणवीस मुत्ता तेयालीसं च वायहिभागा मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तहिहा छेत्ता तेत्तीस पुष्णिया भागातासेसा' इति, इह सूर्यस्य दशभिरयनैः पक्ष सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, द्वाभ्यां चायनाभ्यामेकः, तत्रोत्तरायणं कुर्वन सर्प-12 %Exce S ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] RE-RE56 2 दीप अनुक्रम [१०४] सूर्यप्रज्ञ- देवाभिजिता नक्षत्रेण सह योगमुपागच्छति, दक्षिणायनं कुर्वन् पुष्येण, तस्य च पुष्यस्य एकोनविंशती मुहूर्तेषु एकस्य १२ प्राभृते विवृत्तिः च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु, तथा चोक्तम्- आवृत्तयः (मल०) "अभितराहिं नितो आइच्चो पुस्सजोगमुवगयस्स । सबा आउट्टीओ करेइ से साधणे मासे ॥ १॥" इत्यादि, ततः ॥२२६॥ | 'पुस्सेण मित्यादि उक्त, सम्प्रति तृतीयश्श्रावणमासभाब्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि गमित्यादि, सुगम, भग-1 I&Iवानाह-'ता विसाहाहिं'इत्यादि, ता इति पूर्ववत , विशाखाभिः-विशाखानक्षत्रेण युक्तः सन् चन्द्रमास्तुतीयां श्राव-18 णमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति, तदानीं च-तृतीयावृत्तिप्रवर्तनसमये विशाखाना-विशाखानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य चतुःपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा एक च द्वापष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काश्चत्वारिंशशूर्णिका भागाः दोषाः, तथाहि-तृतीया श्रावणमासमाविन्यावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया पश्चमी, ततस्तत्स्थाने पञ्चको धियते, स रूपोनः कार्य इति जातश्चतुष्कस्तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । ३३ ।। गुण्यते, जातानि द्वाविंशतिः शतानि | द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानां चतुश्चत्वारिंशं शतं मुहूर्त्तगतानां द्वापष्टिभागानामेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः सप्तषष्टिभागाः २२९२ । १४४ । । तत एतेभ्यः षोडशभिर्मुहूर्तशतैरष्टात्रिंशदधिकरष्टाचत्वारिंशता च द्वापष्टिभा-14 P२२६॥ गर्मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागगतानां च सप्तपष्टिभागानां द्वात्रिंशेन शतेन द्वौ परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायौ शुद्धी, स्थितानि पश्चात् पटू शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां चतुर्नवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पदविंशतिः सप्तषष्टिभागाः ६५४१९४।२६, तत एतेभ्यः पञ्चभिः शतैरे कोनपञ्चाशदधिकर्मुह नामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतु-13 -25605645 %A5% ~462~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०४] विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्पण्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुहैद्धानि, स्थितं पश्चात्पञ्चोत्तरं मुहर्चशतं मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानामेकोनसप्ततिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, तत्र द्वापट्या द्वाषष्टिभागैरेको मुहूत्तों लब्धः, स्थिताः पश्चात् सप्त द्वापष्टिभागाः, लब्धश्च मुहूत्तों मुहूर्तलाराशी प्रक्षिप्यते, जात पडुत्तर मुहर्तशतं १०६६१, ततः पञ्चसप्तत्या मुहूर्तहस्तादीनि स्वातिपर्यन्तानि श्रीणि नक्ष त्राणि शुद्धानि, स्थिताः शेषा एकत्रिंशत् महर्ताः, आगतं विशाखानक्षत्रस्य त्रयोदशसु मुहतेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतु:पञ्चाशति द्वापष्टिभागेध्येकस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु पन्द्रस्तृतीयां श्रावणमासभाविनी-15 मावृत्तिं प्रवत्तयति । सम्पति सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं चाह-'तं समयं च ण'मित्यादि, सुगमं । अधुना चतुर्थ्यावृत्तिविषये प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि णमित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता रेवइहिं इत्यादि, रेवत्या युक्तश्चन्द्र चतुर्थी श्रावणमासभाषिनीमावृत्ति प्रवर्तयति, तदानी च रेवतीनक्षत्रस्य पञ्चविंशतिर्मुहूता द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागा मुहूलातस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छिस्था तस्य सत्का पविंशतिश्चणिका भागाः शेषाः, तथाहि-प्रागुपदर्शितकमापे-14 क्षया श्रावणमासभायिनी चतुर्थ्यावृत्तिः सप्तमी ततः सप्तको भियते, स रूपोनः कार्य इति जातः पदः, तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । १६ । ६ । गुण्यते, जातानि चतुर्विंशच्छतानि अष्टात्रिंशदधिकानि ३४३८ मुहुर्राना, मुहूर्त्तगतानां । पच द्वापष्टिभागानां वे शते पोडशोत्तरे २१६, एकस्य च द्वापटिभागस्य पत्रिंशत्सप्तपष्टिभागाः ३६, तत एतेभ्यो द्वा-M त्रिंशता शतैः षट्सप्तत्यधिकमहर्रानां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां पणवत्या द्वापष्टिभागसत्कानां च सप्तपष्टिभा-II ~463~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७६] प्राभृत [१२], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ आवृत्तयः सू ७६ ॥ २२७॥ गानां द्वाभ्यां शताभ्यां चतुःषष्टिसहिताभ्यां चत्वारो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः स्थितं पश्चादेकं द्वापयधिकं मुहर्त्ततं १२ प्राभृते शिवृत्तिः ४ मुहूर्त्तगतानां च द्वापष्टिभागानां पोडशोत्तरं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः १६२ | ११६ । । ( मल० ) ४० । तत एकोनषष्ट्यधिकेन मुहूर्त्तशतेन एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैः १५९ । २४ । ६६ । अभिजिदादीनि उत्तरभाद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि भूयः शुद्धानि स्थिताः पश्चात्रयो मुहर्त्ताः मुहूर्त्तगतानां च द्वापष्टिभागानामेकन वतिरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः, द्वापसा च द्वापष्टिभागैरेको मुहत्तों लब्धः, स मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यते, जाताश्चत्वारो मुहूर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिभागाः ( एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ) ४ । २९ । ४१ । तत आगतं रेवती नक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्त्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वात्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्येकस्य च द्वापष्टिभागस्य पविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चतुर्थी श्रावणमास भाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, 'तं समयं च णमित्यादि सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च प्राग्वद् भावनीयं, साम्प्रतं पञ्चमं श्रावणमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'ता पुचाहिं फग्गुणीहिं' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्यां युक्तश्चन्द्रः पञ्चमी श्रावणमास भाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानीं च तस्य पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य द्वादश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तचत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागाः एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयोदश | चूर्णिका भागाः शेषास्तथाहि पञ्चमी श्रावणमास भाविन्यावृत्तिः प्रागुपदर्शितक्रमशपेक्षया नयमी ततस्तत्स्थाने नवको प्रियते Jain Educator For Parts Only ~464~ ॥२२७॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [१०४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७६] प्राभृत [१२], ---- ----- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः स रूपोनः कार्य इति जाता अष्टौ तैः प्रागुक्तो ध्रुवराशिः ५७३।३।। गुण्यते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि चतु रशीत्यधिकानि मुहूर्त्तानां मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्वे शते अष्टाशीत्यधिके एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः ४५८४ । २८८ । ४८ । तत एतेभ्यश्चत्वारिंशता मुहूर्तातैः पञ्चनवत्यधिकैर्मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां विंशत्यधिकेन शतेन एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कानां सप्तषष्टिभागानां त्रिंशदधिकैस्त्रिभिः शतैः पञ्च नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः स्थितानि पश्चान्मुहूर्त्तानां चत्वारि शतानि एकोननवत्यधिकानि मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां शतं त्रिषष्ट्यधिकं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः ४८९ । १६३ । ५३ । तत एतेभ्यो भूयस्त्रिभिः शतैनवत्यधिकैर्मुहूर्त्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पटूपट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिता पश्चान्मुहूर्त्तानां नवतिः मुहूर्त्तगतानां द्वापष्टिभागानामष्टात्रिंशद|धिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः ९० । १३८ । ५४ । तत्र चतुर्विंशत्यधिकेन द्वापष्टिभागशतेन द्वौ मुहसों लब्धी पश्चात् स्थिता द्वापष्टिभागाः चतुर्दश, लब्धौ च मुहत्तीं मुहर्त्तराशी प्रक्षिप्येते, जाता मुहूसानां द्विनवतिः ९२ । १४ । ५४ । तत्र पञ्चसप्तत्या मुहूर्तेः पुष्यादीनि मघापर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्त्ताः १७ । १४ । ५४ । न चैतावता पूर्वफाल्गुनी शुद्ध्यति, तत आगतं पूर्वफाल्गुनी नक्षत्रस्य द्वादशसु मुहूर्त्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयोदशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी | श्रावणमास भाविन्यावृत्तिः प्रवर्त्तते, सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च प्राग्वद् भावनीयं तदेवं चन्द्रनक्षत्रयोग For Pale Only ~465~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [१०४] सूर्यप्रज्ञ- विषये सूर्यनक्षत्रयोगविषये च पञ्चापि वार्षिकीरावृत्तीः प्रतिपाद्य सम्प्रति हेमन्तीः प्रतिपिपादयिषुस्तद्गतमधमावृत्ति-१२माभूते प्तिवृत्तिः विषयं प्रश्नसूत्रमाह हमन्त्य II ता एएसि णं पंचण्हं संबच्छराणं पदमं हेमंत आउहि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?, ता हत्थेणं, हत्थII सू ७७ ॥२२॥ सणं पंच मुहत्ता पण्णासं च पावद्विभागा मुहत्तस्स पावहिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सहि चुणिया भागा बसेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णवत्तेणं जोएति ?, उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्सराणं आसाढाणं चरिम-14 समए, ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोषं हेमंतिं आउदि चंदे केणं णवत्तणं जोएति !, ता सतभिसपाहि, सतभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता अट्ठावीसं च बाबविभागा मुहत्तस्स चावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता उत्तालीसं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णवत्तेणं जोएति !, ता उत्तराहिं आसादाहिं. उत्तराणं आसाहाणं चरिमसमए, तेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं हेमति आउहि चंदे केणं णक्वत्तेणं | जोएति !, ता पूसेणं, पूसस्स एकूणवीसं मुहत्ता तेतालीस च बावद्विभागा मुहत्तस्स यावहिभागं च सत्त-14 विधा छेत्ता तेत्तीसं चुपिणया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्वत्तेणं जोएति, ता उत्सराहि आसादाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए, ता एतेसि णं पंचण्डं संवच्छराणं चस्थि हेमति आउहि चंदे | ॥२२८॥ ४किणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता मूलेणं, मूलस्स छ मुहुत्ता अट्ठावन्नं च बावद्विभागा मुहत्तस्स घावहिभाग ४ च सत्सद्विधा छेत्ता वीसं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति, ता उत्त-13 REnatantnamaranxi ~466~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] %AE25 दीप राहिं आसाहाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए, ता पतेसि णं पंचण्हं संबच्छराणं पंचमं हेमंतिं आउहि चंदे केणं णक्खसेणं जोएति ?, कत्तिपाहिं, कत्तिपाणं अट्ठारस मुहुत्ता उत्तीसं च वावद्विभागा मुहत्तस्स पाव-II द्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता छ चुण्णिपा भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता| | उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए । ( सूत्रं ७७ ) | 'ता एएसि णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एतेषा-अनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा देमन्तीमापुत्ति चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति ?, केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवर्त्तयतीति भायः, भगवानाह-ता हत्धेणं'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , हस्तेन-हस्तनक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रः प्रवर्तयति, तदानी च हस्तनक्षत्रस्य पश्च मुहतों | एकस्य च मुहूर्तस्य पश्चाशत् द्वापष्टिभागाः एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षष्टिश्चूर्णिका भागाः। शेषाः, तथाहि-हेमन्ती प्रथमा आवृत्तिः प्रागुक्तकमापेक्षया द्वितीया ततस्तत्स्थाने द्विको ध्रियते, स रूपोनः कार्य इति || | जात एककस्तेन प्रागुतो ध्रुवराशिः ५७३ । । । । गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव भुवराशिः, सतत एतस्मात् पञ्चभिः शतैरेकोनपञ्चाशदधिकर्महानामेकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभा गस्य पदपया सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चाचतुर्विशतिर्मुहर्ता । |एकस्य च मुहूर्तस्य एकादश द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तषष्टिभागाः २४ ॥ ११ ॥ ७ ॥ तत आगत-| | हस्तनक्षत्रस्य पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहुर्तस्य पञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पष्टौ सप्तपष्टिभागेषु। अनुक्रम [१०५] FRENCE COM ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप सूर्यप्रज्ञ-1ोपेषु प्रथमां हेमन्तीमावृत्तिं चन्द्रः प्रययतीति । सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रमाह-तं समयं च णमित्यादि, तस्मिंश्च समये १२ प्राभृते सूर्यः केन नक्षत्रेण युक्तस्तां प्रथमा हेमन्तीमावृत्तिं युनक्ति-प्रवर्त्तयति ?, भगवानाह'ता उत्तराहिं'इत्यादि, उत्तराभ्या-1| हेमन्त्य (मल०)। |माषाहाभ्यां, तदानीं चोत्तराषाढायाश्चरमसमयः, समकालमुत्तराषाढानक्षत्रमुपभुज्याभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये प्रथा आवृत्तमा ॥२२९॥ हमन्तीमावृत्ति सूर्यः प्रवर्तयतीति भावः, तथाहि-यदि दशभिरयनैः पश्च सूर्यकृतान्नक्षवपर्यायान् लभामहे तत एकेनालायनेन किं लभामहे 1, राशित्रयस्थापना १०।५।१। अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्य पक्षकरूपस्य राशे-14 गुणनं जाताः पञ्चैव तेषां दशभिर्भागे हते लब्धमेकमाई पर्यायस्य, अर्द्ध च पर्यायस्य सप्तषष्टिभागरूपं नव शतानि पञ्चद४शोत्तराणि ११५, तत्र ये विंशतिः सप्तपष्टिभागाः पाश्चात्ये अयने पुण्यस्य गताः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः स्थिताः ते साम्प्रतमितो राशेः शोध्यन्ते स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि ८७१ तेषां सप्तषट्या भागे हते लब्धास्त्रयोदश पश्चान्न किमपि तिष्ठति, त्रयोदशभिश्चाश्लेषादीन्युत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, तत आगत-अभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये माघमासभाविनी प्रथमा आवृत्तिः प्रवर्तते, एवं सर्वा अपि माघमासभाविन्य आवृत्तयः सूर्यनक्षत्रयोगमधिकृत्य येदितव्याः, उक्तं च-"बाहिरओ पविसंतो आइचो अभिइजोगमुवगम्म । सबा आउट्टीओ करेइ सो माप-1|| मासंमि ॥१॥" द्वितीयहेमन्तावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसिण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता सयभिसपाहि ||२३९॥ इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, शतभिषजा युक्तश्चन्द्रो द्वितीयां हैमन्तीमावृत्ति प्रवयति, तदानीं च शतभिषजो नक्षत्रस्य | लाही महत्वकस्य च महतस्याष्टाविंशतिद्वापष्टिभागा एक च द्वापष्टिभागं सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षट्चत्वारिंदा-IA SACAR-04- 04-2 अनुक्रम [१०५] ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया द्वितीया माघमासभाविन्यावृत्तिश्चतुर्थी ततस्तस्याः स्थाने चतुष्को धियते स रूपोनः कार्य इति जातस्त्रिकः तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । ३६ ॥ ६ । गुण्यते जातानि सप्तदश शतान्थे51कोनविंशत्यधिकानि मुहर्तानां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानामष्टोत्तर शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टादश सप्तपष्टिदाभागाः १७१९ । १०८ । १८ । तत एतेभ्यः पोडशभिः शतैरष्टात्रिंशदधिकैमहानामेकस्य च मुहर्तस्याष्टाचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरेकदापष्टिभागसत्कानां च सप्तपष्टिभागानां द्वात्रिंशदधिकेन शतेन द्वौ नक्षत्रपर्यायी शुद्धौ, स्थिताः पश्चादेकाशीतिर्मुहूत्तोनामेकस्य च मुहूर्तस्याष्टापश्चाशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य बिधातिः सप्तषष्टिभागाः ८१ ॥ ५८ । २० । ततो भूयो नवभिर्मुहूत्तरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षषष्ट्या | सप्तपष्टिभागैरभिजिनक्षत्रं शुद्ध, स्थिताः पश्चाद् द्वासप्ततिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयविंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः ७२ । ३३ । २१ । ततस्त्रिंशता मुहूत्तैः श्रवणः शुद्धतिशता धनिष्ठा पश्चादव-1 |तिष्ठन्ते द्वादश मुहूर्ताः, शतभिषक्नक्षत्रं चार्द्धनक्षत्रं, तत आगतं शतभिषजो नक्षत्रस्य द्वयोर्मुहर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्यासाविंशती द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सधषष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीया हैमन्ती आवृत्तिः प्रवर्तते । सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगम, प्रागेव भावितत्वात् । अधुना तृतीयमाघमासभाव्यावृत्तिविषय | प्रश्नसूत्रमाह-'ता पएसि 'मित्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता पूसेण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् पुष्येण युक्तश्चन्द्रस्तृतीयां माघमासभाविनीमावृत्ति प्रवर्तयति, तदानी च पुष्यस्य एकोनविंशतिर्मुहर्चा एकस्य च मुहत्तेस्य त्रिचत्वारिंशद् । अनुक्रम [१०५] CCCCCCCES ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [66] दीप अनुक्रम [१०५ ] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [७७] प्राभृत [१२], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञविवृत्तिः ( मल० ॥२३०॥ द्वापष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयस्त्रिंशचूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि प्रागुपदर्शित| क्रमापेक्षया तृतीया माघमासभाविन्यावृत्तिः षष्ठी ततस्तस्याः स्थाने पङ्को धियते स रूपोनः कार्य इति जातः पञ्चकस्तेन स प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ | ३६ | ६ | गुण्यते जातान्यष्टाविंशतिः शतानि पश्चषष्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्त्तगतानां द्वापष्टिभागानामशीत्यधिकं शतं एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः २८६५ | १८० । ३० । तत एतेभ्यः सप्तपञ्चाशदधिकैः चतुर्विंशतिशतैर्मुहूर्त्तानामेकमुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्विसप्तत्या एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कानां ॐ सप्तषष्टिभागानामष्टानवत्यधिकेन शतेन २४५७ । ७२ । १९८ । त्रयो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः स्थितानि पश्चात् चत्वारि मुहूर्त्त शतान्यष्टोत्तराणि मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां पश्चोत्तरं शतमेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः ४०८ । १०५ । ३४ । तत एतेभ्यस्त्रिभिः शतैर्नवनवत्यधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः पश्चान्नव मुहूर्त्ता | मुहूर्त्तगतानां च द्वापष्टिभागानामशीतिः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः द्वाषष्ट्या च द्वाषष्टिभागैरेको मुहूर्त्तो लब्धः स मुहूर्त्तराशौ प्रक्षिप्यते जाता दश मुहर्त्ताः शेषास्तिष्ठन्ति द्वापष्टिभागा अष्टादश १० | १८ । ३४ । तत आगतं पुष्यस्य एकोनविंशती मुहूर्तेष्येकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयखिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीया माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्त्तते । सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्र च सुगमं । चतुर्थमाघमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह- 'ता एएसि णमित्यादि, सुगमं, भगवानाह - ता मूलेण' मित्यादि, ता For Par Use Only ~470~ १२ प्राभृर्त हमन्त्य आवृत्तयः ७७ ॥ २३० ॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 5- प्रत 6 सूत्रांक [७७] दीप इति प्राग्वत् मूलेन युक्तश्चन्द्रः चतुर्थी हेमन्तीमावृत्ति प्रयतयति, तदानी च मूलस्य-मूलनक्षत्रस्य पद मुहूर्ता एकस्य च मुहर्तस्यापश्चाशत् द्वापष्टिभागा एकं च द्वापष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का विंशतिश्चणिका भागाः शेषाः, तथाहि-चतुर्थी माघमासभाविन्यावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया अष्टमी तस्याः स्थानेऽष्टको ध्रियते स रूपोनः कार्य इति । जातः सप्तकस्तेन स प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ गुण्यते जातान्येकादशोत्तराणि चत्वारिंशन्मुहुर्त शतानि मुहूर्त-18 गतानां च द्वापष्टिभागानां द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः ४०११।२५२।४२। सतत एतेभ्यः पट्सप्तत्यधिकत्रिंशच्छतैहानां मुहुर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां षण्णवत्या द्वापष्टिभागसत्कानां च। सप्तषष्टिभागानां द्वाभ्यां शताभ्यामष्टषषधिकाभ्यां चत्वारो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मुहानां मुहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां द्विपञ्चाशदधिक शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशसप्तष्टिभागाः ७३५ । १५२ । ४६। तत एतेभ्यो भूयः षद्भिः शतैः मुहूर्तानामे कोनसप्तत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि विशाखापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः | पश्चात् षट्पष्ठिर्मुह मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सतपष्टिभागाः, चतुर्विशत्यधिकेन च द्वापष्टिभागशतेन द्वौ मुहत्तौं लब्धौ तौ मुर्तराशी प्रक्षिप्येते जाताः अष्टपष्टिर्मुइत्तोंः शेषास्तिष्ठन्ति द्वापष्टिभागास्त्रयः ६८॥ ३ ॥ ४७ । ततः पञ्चचत्वारिंशता मुहूत्रनुराधाज्येष्ठे शुद्धे शेषाः स्थितास्त्रयोविंशतिर्मुहर्ताः २३ । ३ । ४७ । नत आगतं मूलस्य षट्सु मुद्गर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याप्टापश्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य अनुक्रम [१०५] -CCC0 ~471~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सू ७७ सूत्रांक 4 [७७] % दीप सूर्यप्रज्ञ- च द्वापष्टिभागस्य विंशती सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु चतुर्थी माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रवर्तते सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्र १२ प्राभृते निर्वाचनसूत्र च सुगम, पञ्चममाघमासभाब्यावृत्तिविषय प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, सुगम, भगवानाह- हेमन्त्य (मल.) ता कत्तियाहि'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कृत्तिकाभियुक्तश्चन्द्रः पश्चमी हेमन्ती (माघ) मासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्तयति, आवृत्तयः ॥२३शा तदानीं च कृत्तिकानक्षत्रस्य अष्टादश मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पत्रिंशद् द्वापष्टिभागा एक च द्वापष्टिभार्ग सप्तषष्टिधा छिया तस्य सत्का पटू चूर्णिकाभागाः दोषाः, तथाहि-पञ्चमी माघमासभाविन्यावृत्तिः प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया दशमी ततस्तस्याः। स्थाने दशको ध्रियते, स रूपोनः कार्य इति जातो नवका, तेन प्राक्तनो ध्रुवराशिः ५७३ । ३६ । ६ । गुण्यते, जातान्येमाकपाशच्छतानि सप्तपश्चाशदधिकानि मुहूर्तानां मुहर्जगतानां च द्वापष्टिभागानां त्रीणि शतानि चतुषिशत्यधिकानि एकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुःपश्चाशत् सप्तपष्टिभागाः । ५१५७ । ३२४ । ५४ । तत एतेभ्य एकोनपश्चाशच्छतमहतIX चतर्दशाधिकहर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां चतुश्चत्वारिंशदधिकेन शतेन द्वापष्टिभागगतानां च सप्तपष्टिभागानां त्रिभिः। शतैः षण्णवत्यधिकैः पट् नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थिते पश्चान्मुहूर्तानां द्वे शते त्रिचत्वारिंशदधिके मुहूर्तगतानां च द्वापटिभागानां चतुःसप्तत्यधिकं शतं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य पष्टिः सप्तपष्टिभागाः २४३ । १७४ । ६० । तत एकोनष-| धिकेन महशतेन एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्ठिभागस्य पषष्ट्या सप्तपष्टिभागेरभि-IFI जिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां चतुरशीतिर्मुहुर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां || शतमेकोनपञ्चाशदधिकं एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकषष्टिः सप्तपष्टिभागाः । ८४ । १४९ । ६१ ॥ ततो द्वापष्टिभागानां अनुक्रम [१०५] ~472~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत P सूत्रांक [७७] दीप चतुधिशल्यधिकेन शतेन द्वौ मुहूत्तौं लब्धौ पश्चात् स्थिताः पञ्चविंशतिषिष्टिभागाः, लब्धौ च मुहूत्तौं मुहूर्तराशौ प्रक्षि|प्येते, जाता पडशीतिर्मुहाना, ततः पञ्चसप्तत्या मुहूर्तानां रेवत्यश्विनीभरण्यः शुद्धाः, स्थिताः पश्चादेकादश मुहूर्ताः, नव ११।२५। ६१ तत आगत-कृत्तिकानक्षत्रस्याष्टादशसु मुहर्तेषु एकस्य च महतस्य पत्रिंशति द्वापष्टिभागे| वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पट्स सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी हैमन्ती आवृत्तिः प्रवर्त्तते, सूर्यनक्षत्रयोगविषये च प्रश्ननिर्वचनसूत्रे सुगमे । तदेवमुक्ता दशापि नक्षत्रयोगमधिकृत्य सूर्यस्यावृत्तयः, सम्प्रति चन्द्रस्य वक्तव्यास्तत्र यस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानः सूर्यो दक्षिणा उत्तरा या आवृत्तीः करोति तस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानश्चन्द्रोऽपि दक्षिणा उत्तराश्चावृत्ती KIकुरुते, ततो या उत्तराभिमुखा आवृत्तयो युगे चन्द्रस्य दृष्टास्ताः सर्वा अपि नियतमभिजिता नक्षत्रेण सह योगे द्रष्टव्याः | यास्तु दक्षिणाभिर्मुखास्ताः पुष्येण योगे, उक्त च-"चंदस्सवि नायबा आउट्टीओ जगमि जा दिवा । अभिपणं पुस्सेण य नियम नक्खत्तसेसेणं ॥१॥" अत्र 'नक्खत्तसेसेणं ति नक्षत्रार्द्धमासेन, शेष सुगम, तत्राभिजित्युत्तराभिमुखा आवृत्तयो भाव्यन्ते, यदि चतुर्विंशदधिकेनायनशतेन चन्द्रस्य सप्तपष्टिनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततः प्रथमेऽयने किं लभ्यते ?, राशित्रयस्थापना-१३४ । ६७ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तषष्टिरूपस्य गुणनं जाता सप्तषपटिरेव, एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , तस्याश्च सप्तषष्टेश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागे हृते लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य, तस्मिंश्चाबें नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि सप्तपष्टिभागानां भवन्ति, तत्र त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु पुष्यनक्षत्रस्य भुक्केषु। दक्षिणायनं चन्द्रः कृतवान् , ततः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागा अनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि अनुक्रम [१०५] ~473~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [66] दीप अनुक्रम [१०५ ] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७७] प्राभृत [१२], ---- ----- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥२३२॥ सूर्यप्रज्ञ- अष्टौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि ८७१, तेषां सप्तपथ्या भागो हियते इह कानिचिन्नक्षत्राणि अर्द्धक्षेत्राणि तानि च सार्द्धत्रविवृत्तिः यस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागप्रमाणानि कानिचित्समक्षेत्राणि तानि परिपूर्ण सप्तषष्टिभागप्रमाणानि कानिचिश्च यर्द्धक्षेत्राणि (मल) * तान्यर्द्धभागाधिकशतसङ्ख्यसपष्टिभागप्रमाणानि, गात्रं त्वधिकृत्य सप्तषष्ट्या शुद्धयन्तीति सप्तपट्या भागहरणं, लब्धाखयोदश, राशिश्चोपरितनो निर्देपतः शुद्धः, तेच प्रयोदशभिरश्लेषादीनि उत्तराषाढा पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, तत आगतमभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये चन्द्र उत्तरायणं करोति, एवं सर्वाण्यपि चन्द्रस्योत्तरायणानि वेदितव्यानि उक्तं च- "पन्नरसे उ मुहुत्ते जोइता उत्तरा असाढाओ। एकं च अहोरतं पविसइ अविभतरे चंदो ॥ १ ॥" अधुना पुष्ये दक्षिणा आवृत्तयो भाव्यन्ते, यदि चतुस्त्रिंशदधिकेनायनशतेन सप्तषष्टिश्चन्द्रस्य पर्याया लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १३४ । ६७ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेः सप्तषष्टिरूपस्य गुणनं जाताः सप्तषष्टिरेव तस्याश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागहरणं लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य, तच्च सप्तपष्टिभागरूपाणि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ तत एकविंशतिरभिजितः सम्बन्धिनः सप्तषष्टिभागाः शोभ्यन्ते स्थितानि पश्चादष्टौ शतानि चतुर्नवत्यधिकानि ८९४ तेषां सप्तपणा भागो हियते, लब्धात्रयोदश, तैश्च त्रयोदशभिः पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि शेषा तिष्ठति त्रयोविंशतिः, एते च किल सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य ततो मुहूर्त्तभागकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पट् शतानि नवत्यधिकानि ६९०, तेषां सप्तपश्या भागे हुते लब्धा दश मुहूर्त्ताः, शेपास्तिष्ठन्ति विंशतिः सप्तषष्टिभागाः, तत इदमागतं - पुनर्वसु नक्षत्रे सर्वात्ममा भुक्ते पुष्यस्य च दशसु मुहूर्त्तेष्येकस्य च मुहूर्त्तस्य विंशती सप्तषष्टि For Penal Use Only ~ 474~ १२ प्राभृते हेमन्त्य आवृत्तयः स् ७७ ॥२३२॥ waryru Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७७] दीप भागेषु भुक्तेषु सर्वाभ्यन्तरामण्डलाहिनिष्कामति चन्द्रः, एवं सर्वाण्यपि दक्षिणायनानि भावनीयानि, उक्त च-"दस | राय मुहुत्ते सगले मुहुत्तभागे य वीसई चेव । पुस्सविसयमभिगओ बहिया अभिनिक्खमइ चंदो ॥१॥" तदेवमुक्का नक्षत्र-स योगमधिकृत्य चन्द्रस्याप्यावृत्तयः, सम्प्रति योगमेव सामान्यतः प्ररूपयति तस्थ खलु इमे दसविधे जोए पं०, तं०-वसभाणुजोए वेणुयाणुजोते मंचे मंचाइमंचे छत्ते छत्तातिच्छत्से || जुअणद्वे घणसंमदे पीणिते मंडकप्पुते णामं दसमे, एतासि णं पंचण्हं संवच्छराणं उत्तातिच्छसं जोपं चंदे कसि देसंसि जोएति !, ता जंयुद्दीवस्स २ पाईणपडिणीआयताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चवीXसेणं सतेणं छित्ता दाहिणपुरच्छिमिर्हसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवादिणावेत्ता अट्ठावीसति-II भागं बीसधा छेत्ता अट्ठारसभागे उवादिणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहिं कलाहिं दाहिणपुरच्छिमिल्लं चउम्भाग मंडलं असंपत्ते एत्थ णं से चंदे छसातिच्छत्तं जोयं जोएति, उप्पि चंदो मझे णक्खत्ते हेटा आदिचे, तं समयं | च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति !, ता चित्ताहिं चरमसमए ॥ (सूत्रं ७८) बारसमं पाहुई समत्तं ॥ 'तस्थ खलु'इत्यादि, तत्र युगे खल्ययं वक्ष्यमाणो दशविधो योगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वृषभानुजातः, अत्र अनुजातशब्दः सदृशवचनो, वृषभस्यानुजात:-सदृशो वृपभानुजातः, वृषभाकारेण चन्द्रसूर्यनक्षत्राणि यस्मिन् योगेऽवतिष्ठन्ते स वृषभानुजात इति भावना, एवं सर्वत्रापि भावयितव्यं, वेणुः-वंशस्तदनुजातः-तत्सदृशो वेणुकानुजातो मञ्चो-मश्वसदृशः। मश्चात्-व्यवहारप्रसिद्धात् द्विवादिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो मञ्चातिमञ्चस्तत्सदृशो योगोऽपि मचातिमञ्चः, छत्र अनुक्रम [१०५] ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७८ ] दीप अनुक्रम [१०६] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ ७८ ] प्राभृत [१२], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञशिवृत्तिः ( मल०) ॥२३३॥ Education Internatio प्रसिद्धं तदाकारो योगोऽपि छत्र, छत्रात्- सामान्यरूपात् उपर्यन्यान्यच्छत्रभावतोऽतिशायि छत्रं छत्रातिच्छत्रं तदा १२ नाते ताद्या योगाः सू ७८ कारो योगोऽपि छत्रातिच्छत्रं, युगमिव नद्धो युगनद्धः, यथा युगं वृषभस्कन्धयोरारोपितं वर्त्तते तद्वत् योगोऽपि यः प्रति- ॐ वृषभानुजा भाति स युगनद्ध इत्युच्यते, घनसम्मईरूपः यत्र चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहस्य नक्षत्रस्य वा मध्ये गच्छति, प्रीणितः - उपचयं नीतः यः प्रथमतश्चन्द्रमसः सूर्यस्य वा एकतरस्य ग्रहेण नक्षत्रेण वा एकतरेण जातस्तदनन्तरं द्वितीयेन सूर्यादिना सहो पचयं गतः स प्रीणित इति भावः, माण्डूकप्लुतो नाम दशमः, तत्र माण्डूकप्लुत्या यो जातो योगः स माण्डूकप्लुतः, स च ग्रहेण सह वेदितव्यः, अन्यस्य माण्डूकप्लुतिगमनासम्भवात् उक्तं च- "चन्द्र सूर्यनक्षत्राणि प्रतिनियतगतानि महास्त्यनियतगतय" इति, तदित्थं यथावबोधं दशानामपि योगानां स्वरूपमात्र भावना कृता यथासम्प्रदायमन्यथा वा वाच्या तत्र युगे छत्रातिच्छत्रवर्णाः शेषा नवापि योगाः प्रायो बहुशो बहुषु च देशेषु भवन्ति, छत्रातिच्छत्रयोगस्तु कदाचित् कस्मिंश्चिदेव देशे ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता एएसि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषामनन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये छत्रातिच्छत्रं योगं चन्द्रः कस्मिन् देशे युनक्ति-करोति १, भगवानाह - 'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्योपरि प्राचीनापाचीनायतया उदग्दक्षिणायतया अत्र चशन्दोऽनुको द्रष्टव्यः यदिवा चित्रविभक्तिनिर्देशादेव समुच्चयो लब्ध इति चशब्दो नोक्तः, यथा 'अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं पशूं-वैवश्वतो न तृप्यति सुराया इव दुर्मदी' इत्यच, चादयो हि पदान्तराभिहितमेवार्थे स्पष्टयति न पुनः स्वातन्त्र्येण कमप्यर्थमभिदधति इति निर्णीतमेतत् स्वशब्दानुशासने, जीवया प्रत्यञ्चया दवरिकया इत्यर्थः मण्डलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन छित्वा विभज्य, For Parts Use Only ~476~ ॥२३३॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१२], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [७८] इयमन भावना-एकया दवरिकया वुझ्या कल्पितया पूर्वापरायतया एकया च दक्षिणोत्तरायतया मंडलं समकालं विभव्यते, विभक्तं च सच्चतुर्भागतया जातं, तद्यथा-एको भाग उत्तरपूर्वस्यामेको दक्षिणपूर्वस्यामेको दक्षिणापरस्यामेकोऽपरो|त्तरस्यामिति, तत्र दक्षिणपौरस्त्ये-दक्षिणपूर्वं चतुर्भागमण्डले-चतुर्भागमात्रे मण्डले मण्डलचतुर्भाग इत्यर्थः, एकत्रिंशदागप्रमाणे सप्तविंशति भागानुपादाय-गृहीत्वा आक्रम्येत्यर्थः, अष्टाविंशतितमं च भाग विंशतिधा छिच्या तस्य सत्कानष्टादश भागानुपादाय-आक्रम्य दोपैखिभिरेकत्रिंशत्सत्काँगाभ्यां च कलाभ्यामेकस्य एकत्रिंशत्सत्कस्य भागस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां विंशतितमाभ्यां भागाभ्यां दक्षिणपश्चिमं चतुर्भागमण्डलं मण्डलचतुर्भागमसम्प्राप्तोऽस्मिन् प्रदेशे स चन्द्रश्चनातिमाछत्ररूपं योगं युनक्ति करोति, एनमेव 'तद्यथेत्यादिना भावयति, उपरि चन्द्रो मध्ये नक्षत्रमधस्ताचादित्य इति, इह मध्ये नक्षत्रमित्युक्त ततो नक्षत्रविशेषप्रतिपत्त्यर्थं प्रश्नं करोति-तं समयं च णमित्यादि, तस्मिन् समये चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति-योगं करोति !, भगवानाह-'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , तस्मिन् समये चित्रया सह योगं करोति, सदानी च चित्रायाचरमसमयः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां द्वादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [१०६] S तदेवमुक्तं द्वादशं प्राभृतं, सम्प्रति त्रयोदशमारभ्यते-तस्य चायमाधिकारो यथा-'चन्द्रमसो वृद्ध्यपवृद्धी वक्तव्ये इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहता कहं ते चंदमसो बहोवही आहितेति वदेजा?, ता अट्ठ पंचासीते मुहत्तसते तीसं च बाबहिभागे मुहु-1 अत्र द्वादशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ त्रयोदशं प्राभतं आरभ्यते ~477~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] “सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२३४॥ दीप सूर्यप्रज्ञ-त्तिस्स, ता दोसिणापक्खाओ अन्धगारपकरखमयमाणे चंदे चत्तारि यायालसते उत्तालीसं च वावविभागे मु. १३माभृते तिवृत्तिः सरस जाई चंदे रज्जति तं०-पढमाए पढमं भागं वितियाए मितियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भाग, चन्द्रमसो (मल) चरिमसमए चंदे रत्ते भवति, अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरसे य भवति, इयणं अमावासा, एस्थ ण परमेाजपपवृद्धी पवे अमावासे, ता अंधारपक्खो, तो णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारे बाताले मुहुत्तासते छातालीस सू ७९ च बावविभागा मुहत्तस्स जाई चंदे विरजति, तं०-पढमाए पढम भार्ग वितियाए वितिय भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भाग चरिमे समये चंदे विरते भवति, अवसेससमए चंदे रसे य विरस्ते व भवति, इयण्णं पुषिणमासिणी, एत्य णं दोचे पवे पुषिणमासिणी (सूत्रं ७९) M. ता कहं ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेण त्वया भगवन् । चन्द्रमसो वृद्धयपवृद्धी आख्याते इति || मावदेत् ।, किमुक्तं भवति ।-कियन्तं कालं यावत् चन्द्रमसो वृद्धिः कियन्तं च कालं यावदपवृद्धिस्त्वया भगवन्नाख्याता इति वदेत् , एवमुक्ते भगवानाह'ता अट्टे' त्यादि, ता इति पूर्ववत् अष्टौ मुहर्चशतानि पञ्चाशीतानि-पञ्चाशीत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशतं द्वापष्टिभागान यावत् वृद्ध्यपवृद्धी समुदायेनाख्याते इति वदेत , यथा एकस्य चन्द्रमासस्य मध्ये एकस्मिन् पक्षे चन्द्रमासो वृद्धिरेकस्मिन् पक्षे चापवृद्धिः, चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रिंशत् राबिन्दियानि एकस्य चास रात्रिन्दिवस्य द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागाः,रात्रिन्दिवं च त्रिंशन्मुहर्तकरणार्थमेकोनत्रिंशत् (त्रिंश)ता गुण्यते जाताम्यष्टौ शतानि BI C ॥२३॥ सप्तत्यधिकानि ८७० मुहूर्तानां येऽपि च द्वात्रिंशत् द्वापष्टिभागा रात्रिंदिवस्य ते मुहूर्तसत्कभागकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, अनुक्रम [१०७] ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ ७९] दीप अनुक्रम [१०७ ] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [७९] प्राभृत [१३], ---- ----- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जातानि नव शतानि षष्यधिकानि ९६०, तेषां द्वापट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्त्ताः १५, ते मुहूर्त्तराशी प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्त्तानामष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि ८८५, शेषाश्चोद्धरन्ति त्रिंशत् द्वाषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, एतदेव प्रतिविशेषावबोधार्थं वैविक्त्येन स्पष्टयति- 'ता दोसिणाओं' इत्यादि, ता इति पूर्वयत्, ज्योत्स्नाप्रधानः पक्षो ज्योत्स्नापक्ष: शुक्लपक्ष इत्यर्थः तस्मात् अन्धकारपक्षमयमानो - गच्छन् चन्द्रः चत्वारि मुहर्त्तशतानि द्विचत्वारिंशानि -द्विचत्वारिंशदधिकानि पचत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान् मुहूर्त्तस्य यावदपवृद्धिं गच्छतीति वाक्यशेषः, यानि यथोक्तसङ्ख्याकानि मुहूर्त्तशतानि यावच्चन्द्रो राहुविमानप्रभया रज्यते, कथं रज्यते । इति तमेव रागप्रकारं तद्यथेत्यादिना प्रकटयति, प्रथ मायां प्रतिपलक्षणायां तिथी परिसमामुवत्यां प्रथमं परिपूर्ण पञ्चदशं भागं यावद्दण्यते द्वितीयायां परिसमाप्नुवत्यां तिथौ परिपूर्ण द्वितीयं पञ्चदशं भागं यावत् एवं यावत्पञ्चदश्यां तिथौ परिसमामुवत्यां परिपूर्ण पञ्चदशं भागं यावद्रज्यते, तस्याश्च पञ्चदश्यास्तिथेश्वरमसमये चन्द्रः सर्वात्मना राहुविमानप्रभया रक्तो भवति, तिरोहितो भवतीति तात्पर्यार्थः, यस्तु षोडशो भागो द्वापष्टिभागद्वयात्मकोऽनावृतस्तिष्ठति स स्तोकस्वादस्यत्वाच्च न गण्यते, 'अबसेसे' इत्यादि, तं च पश्चदश्या स्तिथेश्वरमसमयं मुक्त्वा अन्धकारपक्षप्रथमसमयादारभ्य शेषेषु सर्वेष्वपि समयेषु चन्द्रो रक्तो भवति विरक्तश्च, कियानंशस्तस्य राहुणा आवृतो भवति कियांश्चानावृत इति भावः, अन्धकारपक्षवक्तव्यतोपसंहारमाह-'इयण्ण' मित्यादि, | इयमन्धकारपक्षे पञ्चदशी तिथिः णमिति वाक्यालङ्कारे अमावास्या - अमावास्या नाम्नी अत्र युगे प्रथमं पर्व अमावास्या, इह मुख्यवृत्त्या पर्वशब्दस्याभिधेयममावास्या पौर्णमासी च, उपचारात् पक्षे पर्वशब्दस्य प्रवृत्तिस्तत उक्तम्- " एल्ध णं For Par Use Only ~479~ waryra Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) प्रत सूत्रांक ॥२३५॥ + % दीप अनुक्रम [१०७] पढमे पछे अमावासे” इति । अथ कथं चत्वारि मुहूर्त्तशतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि षट्चत्वारिंशच द्वापष्टिभागा मुहू- १३माभृते तस्य !, उच्यते, इह शुक्लपक्षः कृष्णपक्षो वा चन्द्रमासस्या , ततः पक्षस्य प्रमाण चतुर्दश रात्रिन्दिवं सप्तचत्वारिंशत् चन्द्रमसो द्वापष्टिभागाः, रात्रिन्दिवस्य परिमाणं त्रिंशन्मुहूर्ता इति चतुर्दशा त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारि शतानि वृद्ध्यपवृद्धा विंशत्यधिकानि ४२०, येऽपि च सप्तचत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा रात्रिन्दियस्य तेऽपि मुहूर्तभागकरणा) त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि दशोत्तराणि १४१० सपा द्वापट्या भागो हियते लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्ताः ते मुहूर्तराशी प्रक्षिप्यन्ते जातानि चत्वारि मुहर्तानां शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि ४४२, शेषास्तिष्ठन्ति षट्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागा | मुहूर्तस्य, तदेवं यावन्तं कालं चन्द्रमसोऽपवृद्धिस्तावत्कालप्रतिपादनं कृतं अध यावन्तं कालं वृद्धिस्तावन्तमभिधिरसु राह-ता अंधकारपक्खातो णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् अन्धकारपक्षात् णमिति वाक्यालङ्कारे ज्योत्स्नापक्ष-शुक्पक्षमयमानश्चन्द्रश्चत्वारि द्वाचत्वारिंशदधिकानि मुहर्तशतानि षट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान् मुहूर्तस्य यावद्वद्धिमुपगच्छतीति वाक्यशेषः, यानि-यथोक्तसञ्जाकानि मुहर्तशतानि यावचन्द्रः शनैः शनविरको-राहुविमानेनानायूतो भव-21 तीति, विरागप्रकारमेवाह-तंजहे'स्यादि, तद्यथेति विरागप्रकारोपदर्शने प्रथमावां प्रतिपलक्षणायां तिथी प्रथम पञ्चदश-18 भार्ग यावत् चन्द्रो विरज्यते, द्वितीयायां द्वितीयं पश्चदर्श भागं यावत् एवं पञ्चदश्यां पश्चदर्श भागं यावत् , तस्याश्च | पशदश्याः पौर्णमासीरूपायास्तिधेश्चरमसमये चन्द्रो विरक्तो भवति, सर्वात्मना राहुविमानेनानावृतो भवतीति भावः, तं च पञ्चदश्याचरमसमयं मुक्त्वा शुक्लपक्षप्रथमसमयादारभ्य शेषेषु समयेषु चन्द्रो रक्तश्च भवति विरक्तश्च, देशतो रक्को[RI मा२३५॥ ~480~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप भवति देशतो विरक्तश्चेति भावः, मुहूर्तसङ्ख्या भावना च प्राग्वत्कर्त्तव्या, शुक्लपक्षवक्तव्यतोपसंहारमाह-इयण्ण'मित्यादि। | इयमनन्तरोदिता पञ्चदशी तिथिः पौर्णमासीनामा अत्र च युगे णमिति पूर्ववत् द्वितीय पर्व पौर्णमासी । अथैवरूपा युगे |कियत्यो अमावास्याः कियन्त्यश्च पौर्णमास्य इति तद्गतां सर्वसमामाह| तस्थ खलु इमाओ यावदि पुषिणमासिणीओ पावढि अमावासाओ पण्णताओ, वावडिं एते कसिणारागा पावढि एते कसिणा विरागा, एते चउच्चीसे पवसते पते चाबीसे कसिणरागविरागसते, जावतियाणं पंचण्ठं संवकछराणं समया एगेणं चञ्चीसेणं समयसतेणूणका एबतिया परित्ता असंखेजा देसरागविरागसता भवंतीतिमक्खाता, अमावासातो पुषिणमासिणी चत्तारि वाताले मुहत्तसते छत्तालीसं वावविभागे मुहूत्तस्स आहिति वदेजा, ता पुण्णिमासिणीतो णं अमावासा पत्तारि वायाले मुहप्ससते छत्तालीसं यावद्विभागे ममुहुत्तस्स आहितेति वदेजा, ता अमावासातोणं अमावासा अट्टपंचासीते महत्तसते तीसं च बावहिभागे। मुहूसस्स आहितेति बढेजा, ता पुषिणमासिणीतो गं पुषिणमासिणी अट्टपंचासीते मुहुत्तसेत तीसं बावहि|भागे मुहत्तस्स आहितेति वदेज्जा, एस णं एवतिए चंदे मासे एस णं एवतिए सगले जुगे ॥ (सूत्रं ८०) । | 'तत्थ खलु'इत्यादि, तत्र युगे खल्विमा:-एवंस्वरूपा द्वाषष्टिः पौर्णमास्यो द्वाषष्टिश्चामावास्याः प्रज्ञप्ताः, तथा युगे। ४चन्द्रमस एते-अनन्तरोदित स्वरूपाः कृत्वाः परिपूर्णा रागा द्वापष्टिरमावास्यानां युगे द्वाषष्टिसक्याप्रमाणत्वात् तास्वेव च | चन्द्रमसः परिपूर्णरागसम्भवात्, एते-अनन्तरोदितस्वरूपा युगे चन्द्रमसः कृत्स्ना विरागा:-सस्मिना रागाभावा द्वापष्टिः अनुक्रम [१०७] ~481~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूयप्रज- युग पानाताना प्रत सूत्रांक [८०] ॥२३६॥ युगे पौर्णमासीनां द्वापष्टिसझ्याकत्वात् तास्वेव च चन्द्रमसः परिपूर्णविरागभावात् , तथा युगे सर्वसङ्ख्यया एक चतुर्विशत्यसित्तिःधिक पर्वशतं अमावास्यापौर्णमासीनामेय पर्वशब्दवाच्यत्वात् तासां च पृथक् पृथक् द्वापष्टिसलयानामेकत्र मीलने चतुर्वि- F१३ माभृते पूर्णिमावा(मलाशत्यधिकशतभावात् , एवमेव च युगमध्ये सर्वसङ्कलनया चतुर्विंशस्यधिक कृत्स्नरागविरागशत, 'जावइयाण'मित्यादि, स्थान्तर यावन्तः पश्चानां चन्द्रचन्द्राभिवद्धितचन्द्राभिवर्धितरूपाणां समया एकेन चतुर्विशत्यधिकेन समयशतेनोना एतावन्तः ४परीताः-परिमिताः असङ्ख्याता देशरागविरागसमया भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि चन्द्रमसो देशतोरागविरागभावात् , यत्तु चतु-13 विंशत्यधिक समयशतं तत्र द्वापष्टिसमयेषु कृत्स्नो रागो द्वापष्टौ च समयेषु कृत्स्नो विरागस्तेन तद्वर्जनं इत्याख्यातं, मयेति । गम्यते, एतच भगवचनमतः सम्यक् श्रद्धेयमिति, सम्पति कियत्सु महत्तेषु गतेष्वमावास्यातोऽनन्तरं पौर्णमासी कियत्स। रीवा महतंप गतेषु पौर्णमास्या अनन्तरममावास्या इत्यादि निरूपयति-ता अमावासातो ण'मित्यादि, सुगम, नवरं | अमावास्याया अनन्तरं चन्द्रमासस्थार्डेन पौर्णमासी पौर्णमास्या अनन्तरमई मासेन चन्द्रमासस्थामावास्या अमावास्याया शामावास्या परिपूर्णेन चन्द्रमासेन पौर्णमास्या अपि पौर्णमासी परिपूर्णेन चन्द्रमासेनेति भवति यथोक्का मुरसल्या ४|उपसंहारमाह-एस ण'मित्यादि, एषः-अष्टी मुहूर्तशतानि पश्चाशीत्यधिकानि द्वात्रिंशच द्वापटिभागा मुहूर्तस्येत्येता&वान-एतावत्प्रमाणश्चन्द्रमासः, एतत्-एतावत्प्रमाणं शकलं-खण्डरूपं युगं चन्द्रमासप्रमितं युगशकलमेतदित्यर्थः ॥ सम्पति चन्द्रो यावन्ति मण्डलानि चन्द्रार्द्धमासेन चरति तन्निरूपणार्थं प्रश्नसूत्रमाह २३६॥ ता चंदेणं अद्धमासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता चोइस चउम्भागमंडलाई चरति एगं च पञ्चीस अनुक्रम [१०८] *6644 C%22% ~482 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक |सतभाग मंडलस्स, (ता) आइयेणं अद्धमासेणं चंदे कति मंडलाइं चरति ?,(ता) सोलस मंडलाइं चरति सोलस-11 |मंडलचारी तदा अवराई खलु दुवे अट्टकाई जाई चंदे केणइ असामण्णकाई सयमेव पविहित्ता २ चार चरति, कतराई खलु दुचे अट्टकाइं जाई चंदे केणइ असामण्णकाई सयमेव पविट्टित्तार चारं चरति ?, इमाई खलु ते थे| अहगाई जाई चंदे केणइ असामणगाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति, तंजहा-निक्खममाणे चेवा अमावासंतेणं पविसमाणे चेव पुण्णिमासिंतेणं, एताई खलु दुवे अट्ठगाई जाई चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्तार चारं चरइ, ता पढमायणगते चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे सत्त अद्धमंडलाई जाइंग |चंदे दाहिणाले भागाए पविसमाणे चारं चरति, कतराई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते| भागाते पविसमाणे चारं चरति है, इमाई खलु ताई सत्त अमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे चारं चरति, तं०-विदिए अद्धमंडले चउत्थे अद्धमंडले छट्टे अमंडले अट्ठमे अद्धमंडले दसमे अहम-13 |डले यारसमे अहमंडले चउदसमे अद्धमंडले एताई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाते भागाते पविसमाणे चार चरति, ता पढमायणगते चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तहिभागाइं अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाए पविसमाणे चारं चरति, कतराई खलु ताई छ अहमंड|लाई तेरस य सत्तविभागाई अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे चार चरति !, इमाई| | खलु ताई छ अहमंडलाई तेरस य सत्तद्विभागाई अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाते पविसमाणे चारं अनुक्रम [१०९] 5535 म ~483~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः (मल.) ॥२३७॥ [८१ चरति, तंजहा-तईए अद्धमडले पंचमे अद्धमंडले सत्तमे अद्धमंडले नवमे अमंडले एक्कारसमे अद्धमंडले ||१३प्राभूतेतेरसमे अद्धमंडले पन्नरसमंडलस्स तेरस सत्तट्टिभागाई, एताई खलु ताईछ अद्धमंडलाई तेरस य सत्तहि- चन्द्रायनम भागाइं अहमंडलस्स जाई चंदे उत्तराते भागाते पविसमाणे चारं चरति, एतावया च पढमे चंदायणे समते| ण्डलचारः सू८१ भवति, ता णक्खसे अद्धमासे नो चंदे अदमासे नो चन्दे अद्धमासे णक्खत्ते अडमासे, ता नक्खत्ताओ अद्धमासातो ते चंदे चंदेणं अद्धमासेणं किमधियं चरति एगं अहमंडलं चरति चत्तारिय सत्तविभागाई अहम-13 लस्स सत्तविभाग एकतीसाए छेत्ता णव भागाई, ता दोचायणगते चंदे पुरच्छिमाते भागाते णिक्खममाणे सचउप्पण्णाहं जाहं चंदे परस्स चिन्नं परिचरति सत्त तेरसकाई जाई चंदे अप्पणा चिणं चरति, ता दोचा-II यणगते चंदे पचत्थिमाए भागाए निक्खममाणे चउप्पण्णाजा चंदे परस्स चिपणं परिचरति छ तेरसगाई चंदे अप्पणो चिषणं पहिचरति अपरमाई खलु दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ असमन्नगाई सयमेव पविद्वित्ता २ साधारं घरति, कतराई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ असामणगाई सयमेव पविवित्ता २ चार । चरति , इमाई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाई चंदो केणह असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति सधभंसरे चेव मंडले सबबाहिरे चेव मंडले, एयाणि खलु ताणि दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ जाव चारा चरह, एतावता दोचे चंदायणे समत्ते भवति, ता णक्खत्ते मासे नो चंदे मासे चंदे मासे णो णक्खते मासे, ता पक्खताते मासाए चंदेणं मासेणं किमधियं चरति , ता दो अद्धमंडलाई परति अटप सत्तट्ठिभागाई। अनुक्रम [१०९] ~484~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०९ ] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८१] प्राभृत [१३], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education in अद्धमंडलस्स सत्तद्विभागं च एकतीसभा छेत्ता अट्ठारस भागाई, ता तचायणगते चंदे पञ्चस्थिमाते भागाए। | पचिसमाणे बाहिराणंतरस्स पचत्थिमिल्लरस अमंडलस्स ईतालीस सप्तद्विभागाई जाएं चंदे अप्पणो परस्स यचिष्णं परिचरति, तेरस सप्तट्टिभागाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरति, तेरस सतट्टिभागाई चंदे अप्प - णो परस्स चिण्णं पचिचरति, एतावयाव बाहिराणंतरे पचस्थिमिले अद्धमंडले सम्मत्ते भवति, तचायणगते चंदे पुरच्छिमार भागाए पविसमाणे बाहिरतबरस पुरच्छिमिलस्स अडमंडलस्स इतालीसं सत्तट्टिभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स चिण्णं पडियरति तेरस सत्तद्विभागाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरति, तेरस सत्तट्टिभागाएं जाएं चंदे अप्पणो परस्स व चिपणं पडियरति, एतावताब बाहिरतचे पुरच्छिमिल्ले अद्धमंडले सम्मत्ते भवति, ता तथायणगते चंदे पञ्चत्थिमाते भागाते पविसमाणे बाहिरचउत्थस्स पचत्थिमिलस्स अद्धमंडलरस अससहभागाई सत्तद्विभागं च एकतीसधा छेत्ता अट्ठारस भागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिपणं पडियरति, एतावताच बाहिरचउत्थपञ्चत्थिमिले अजमंडले सम्मत्ते भवइ । एवं खलु चंदेणं मासेणं चंदे तेरस चउप्पण्णगाई दुबे तेरसगाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरति, तेरस २ गाई जाई चंदे अप्पणो चिष्णं पचियरति, दुवे ईतालीसगाई अट्ठ सत्तट्टिभागाहं सत्तद्विभागं च एकतीसा छेत्ता अट्ठारसभागाई जाई चंदे अप्पणी परस्त य चिण्णं पढिचरति, अवराई खलु दुबे तेरसगाई जाई चंदे केणइ अस्सामन्नगाई For Poran Prate On ~ 485~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६],उपांगसूत्र- [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (मल) प्रज्ञ- सयमेव पविद्वित्ता २ चारं चरति, इच्छेसो चंदमासोऽभिगमणणिक्खमणहिणियुढिअणवहितसंठाणसंठितीवि-१३प्राभृते तिवृत्तिः18|उवणगिढिपत्ते रूवी चंदे देवे २ आहितेति वदेज्जा (सूत्र ८१)॥ ॥ तेरसमं पाहुडं समत्तं ॥ चन्द्रायनम | 'ता चंदेण अदमासेण'मित्यादि 'ता इति' पूर्ववत् चान्द्रेण अर्द्धमासेन प्रागुकस्वरूपेण चन्द्रः कति मण्डलानि Aण्डल चरति !, भगवानाह-'ता चोइसे'त्यादि चतुर्दश सचतुर्भागमण्डलानि-पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्भागसहितानि मण्ड-IN ॥२३८॥ लानि चरति, एकं च चतुर्विंशशतभागं मण्डलस्य, किमुक्तं भवति ?-परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्ड-18 लस्प चतुर्भाग-चतुर्विंशत्यधिकशतसत्कैकत्रिंशद्भागप्रमाणमेकं च चतुर्विशशतभागं मण्डलस्य, सर्वसङ्ख्यया द्वात्रिंशत पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विशत्यधिकशतभागान् चरतीति, कथमेतदवसीयते इति चेत् , उच्यते, त्रैराशिकवलात, तथाहि-15 यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तदशा शतान्यष्टपश्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा किं लभ्यते । राशित्रयस्थापना १२४ । १७६८ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुण्यते स च तावानेव जातः, तत्रायेन राशिना || भागहरणं लब्धाश्चतुर्दश शेषास्तिष्ठन्ति द्वात्रिंशत् १४१३४ तत्र छेद्यच्छेदकराश्योकेिनापवर्त्तना क्रियते, तत इदमाग-12 अच्छति-चतर्दश मण्डलानि पश्चदशस्य मण्डलस्य षोडश द्वापष्टिभागाः १४ । उक्त चैतदन्यत्रापि-"चोइस य मंडलाई विसद्विभागा य सोलस इबिजा । मासद्धेण उडुबई एत्तियमित्तं चरइ खित्तं ॥१॥" 'ता आइयेण'मित्यादि, आदित्येना -1 ॥२३८॥ मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ?, भगवानाह-'ता सोलसे'त्यादि, षोडश मण्डलानि चरति, पोशमण्डल चारीच ४ तदा अपरे खलु द्वे अष्टके-चतुर्विंशत्यधिकशतसत्कभागाष्टकप्रमाणे ये केनाप्यसामान्ये-केनाप्यनाचीर्णपूर्वे चन्द्रः स्वयमेव । अनुक्रम [१०९] ~486~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०९ ] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८१] प्राभृत [१३], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education in प्रविश्य चारं चरति, 'कयराई खलु दुबे इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह इमाई खलु एते खलु द्वे अष्टके ये केनाप्यना-चीर्णपूर्वे चन्द्रः स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति, तद्यथा सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला हिर्निष्काम नेवामावास्यान्ते एकमष्टकं केनाप्यनाचीर्ण चन्द्रः प्रविश्य चारं चरति, सर्ववाद्यात् मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन्नेव पौर्णमास्यन्ते द्वितीयमष्टकं केनाप्यनाचीर्ण चन्द्रः प्रविश्य चारं चरति, 'एयाई खलु दुबे अट्टगाई' इत्यादि उपसंहारवाक्यं सुगमं, इह परमार्थतो द्वौ चन्द्री एकेन चान्द्रेणार्द्धमासेन चतुर्द्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् भ्रमणेन पूरयतः | परं लोकरूढ्या व्यक्तिभेदमनपेक्ष्य जातिभेदमेव केवलमाश्रित्य चन्द्रश्चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतं चतुविंशत्यधिकशतभागान् चरतीत्युकं । अधुना एकश्चन्द्रमा एकस्मिन्नयने कति अर्द्धमण्डलानि दक्षिणभागे कत्युतरभागे भ्रम्या पूरयतीति प्रतिपिपादयिषुर्भगवानाह - ता पढमायणगए चंदे इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, प्रथमायनगते प्रथममयनं प्रविष्टे चन्द्रे दक्षिणस्माद्भागादभ्यन्तरं प्रविशति सप्त अर्द्ध मण्डलानि भवन्ति यानि चन्द्रो दक्षिणस्माद् | भागादभ्यन्तरं प्रविशन्नाकम्य चारं चरति, 'कपराई खलु' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'इमाई खलु' इत्यादि, इमानि खलु सप्तार्द्ध मण्डलानि यानि चन्द्रो दक्षिणस्माद्भागादभ्यन्तरं प्रविशन्नाक्रम्य चारं चरति, तद्यथा-द्वितीयमर्द्धमण्डदमित्यादि, सुगर्म, नवरमियमत्र भावना - सर्वबाह्ये पञ्चदशे मण्डले परिभ्रमणेन पूरणमधिकृत्य परिपूर्ण पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिर्भवति, ततोऽपरयुगप्रथमायनप्रवृत्तौ प्रथमेऽहोरात्रे एकञ्चन्द्रमा दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयमण्डलमाक्रम्य चारं चरति, स च पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिदिवसे उत्तरस्यां दिशि चारं चरति चारं चरितवान् स वेदितव्यः, ततः स For Pale Only ~ 487~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१] सूर्यप्रज्ञ-12 तस्मात् द्वितीयात् मण्डलात् शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं १३ प्राभूते तृतीयमर्द्धमण्डलमाक्रम्य चार चरति, तृतीये अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डल चतुर्थे अहोरात्रे उत्तरस्यां चन्द्रायनम Gण्डलचारः (मल०) दिशि पञ्चममर्द्धमण्डलं पञ्चमे अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि षष्ठमर्द्धमण्डलं पठे अहोरात्र उत्तरस्यां दिशि सप्तममर्द्धमण्डल सू८१ सप्तमे अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि अष्टममद्धेमण्डलमष्टमेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि नवममर्द्धभण्डलं नवमे अहोरात्रे दक्षि-1 प्रणयां दिशि दशममीमण्डलं दशमे अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि एकादशममर्द्धमण्डलमेकादशे अहोरात्रे दक्षिणस्यां दिशि द्वादशमब्रमण्डलं द्वादशे अहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशमर्द्धमण्डलं त्रयोदशेऽहोराने दक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशमर्जमण्डलं चतुर्दशे अहोराने उत्तरस्यां दिशि पञ्चदशस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदशसप्तपष्टिभागानाक्रम्य चार चरति, एतावता च कालेन चन्द्रस्यायनं परिसमाप्तं । चन्द्रायनं हि नक्षत्रार्द्धमासप्रमाणं, तेन च नक्षत्रार्द्धमासेन चन्द्रधारे सामान्यतस्त्र-16 योदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागा लभ्यन्ते, तथाहि-यदि चतुर्विंशदधिकेनायनशतेन सप्तदश शतान्यष्टषष्टिसहितानि मण्डलाना लभ्यन्ते तत एकेनायनेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १३४ ॥ १७६८।१। ४ अत्राम्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशि ण्यते जातः स तावानेव ततस्तस्यायेन राशिना धतुलिंदादधिकशातरूपेण भागहरणं लब्धास्त्रयोदश शेषास्तिष्ठन्ति षड्विंशतिः तत्र छेद्यच्छेदकराश्योकेिनापवर्तना लम्धास्त्रयोदशा सप्तपष्टिभागा| | ॥२३॥ इति, उक्तं च-"तेरस य मंडलाणि य तेरस सत्तद्वि चेव भागा य । अयणेण चरह सोमो नक्खणद्धमासेणे ॥१॥" एतच सामान्यत उक्त, विशेषचिन्तायां त्वेकस्य चन्द्रमसो युगस्य प्रथमे अयने यथोक्तेन प्रकारेण दक्षिणभागादभ्यन्तरं RESॐॐ अनुक्रम [१०९] ~488~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८१ मा प्रवेशे द्वितीयादीन्येकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्तामण्डलानि लभ्यन्ते, उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशो तृतीयादीन्ये कान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि षट् परिपूर्णान्यर्द्धमण्डलानि सप्तमस्य तु पञ्चदशमण्डलगतस्यार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्त-४ प्राष्टिभागाः, एतावता च यद्वक्ष्यति उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां 'तईए अद्धमंडले'इत्यादि सूत्रं तदपि भावितमेव, सम्पति दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशे यानि सप्लार्धमण्डलान्युक्तानि तदुपसंहारमाह-एयाई'इत्यादि सुगर्म । अधुना तस्यैव | 24 चन्द्रमसस्तस्मिन्नेव प्रथमेऽयने उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशे यावन्त्यर्द्धमण्डलानि भवन्ति तावन्ति विवक्षुराह-ता परमाय-18 णगए'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , प्रथमायनगते-युगस्यादौ प्रथममयनं प्रविष्टे चन्द्रे उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रविवाति पद अर्द्धमण्डलानि भवन्ति सप्तमस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा यानि चन्द्र उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रविशन् | आक्रम्य चारं चरति, 'कयराई खलु'इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगम 'इमाई खलु' इत्यादि निर्वचनसूत्र एतच्च प्रागेष भावितं, 'एयाई खलु'इत्यादि, निगमनवाक्यं निगदसिद्धं, 'एतावता इत्यादि एतावता कालेन प्रथमं चन्द्रस्यायनं समाप्तं भवति, एतदपि प्राम्भावितं, तदेवं पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तिचरमदिवसे य उत्तरस्यां दिशि चारं चरितवान् तस्याभिनवयुगपक्षे प्रथमेMऽयने यावन्ति दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशेऽर्द्धमण्डलानि यावन्ति चोत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशेऽर्धमण्डलानि तापन्ति साक्षा-12 |दुक्तानि, एतदनुसारेण द्वितीयस्यापि चन्द्रमसस्तस्मिन्नेव प्रथमे चन्द्रायणेऽर्द्धमण्डलानि वक्तव्यानि, तानि चैवम् स पाश्च-| त्ययुगपरिसमाप्तिचरमदिवसे दक्षिणदिग्भागे सर्वबाह्यमण्डले चार चरिस्वा अभिनवस्य युगस्य प्रथमेऽयने प्रथमेऽहोरात्रे | उत्तरस्यां दिशि द्वितीयमर्द्धमण्डलं प्रविश्य चारं चरति, द्वितीयेऽहोराने दक्षिणस्यां दिशि सर्वबाह्यात् तृतीयमर्द्धमण्डल अनुक्रम [१०९] EX ~489~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यप्रज्ञ- प्रविश्य चारं चरति तृतीयेऽहोरात्रे उत्तरस्यां दिशि चतुर्थमर्द्धमण्डलमित्यादि प्रागुक्तानुसारेण सकलमपि वक्तव्यं, तदेव- १३प्राभृते प्तिवृत्ति &ामस्य चन्द्रमसः प्रथमेऽयने उत्तरभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां द्वितीयादीन्येकान्तरितानि चतुर्दशपर्यन्तानि सप्ताईम- चन्द्रायनम (मल.) ण्डलानि भवन्ति, दक्षिणभागादभ्यन्तरप्रवेशचिन्तायां तृतीयादीन्येकान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि षट् अर्द्धमण्डलानि । मण्डलचारः सू८१ ॥२४॥ भवन्ति, पञ्चदशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः, एवं च सति यावान् चन्द्रस्यामासस्तावान् नक्षत्रस्यार्द्ध-18 मासो न भवन्ति, किन्तु ततो न्यून इति सामर्थ्यात् द्रष्टव्य, तथा चाहता नक्ख से इत्यादि, यद्येवमेकस्मिन्नयने नक्ष-| त्रार्द्धमासरूपे सामान्यतश्चन्द्रमसस्त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः 'ता'इति ततो नाक्षत्रोऽर्द्धमासश्चान्द्रोऽर्धमासो न भवति, चान्द्रेऽर्द्धमासे चतुर्दशानां मण्डलानां पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशतश्चतुलिविंशत्यधिकशतभागानां प्राप्यमाणत्वात् , इह नाक्षत्रोऽर्धमासश्चान्द्रोऽर्धमासो न भवतीत्युक्तौ नाक्षत्रोऽर्धमासश्चान्द्रोऽर्ध12मासो न भवति, वस्तु चान्द्रोऽर्धमासः स कदाचित् नाक्षत्रोऽप्यद्धमासः स्यात् , यथा ‘परमाणुरप्रदेश' इत्युक्ती परमा-17 गुरप्रदेश एवं यस्तु अप्रदेशः स परमाणुरपि भवत्यपरमाणुश्च क्षेत्रप्रदेशादिरिति शङ्का स्यात् ततस्तदपनोदार्थमाह-चान्द्रोदमासो नाक्षत्रोऽर्धमासो न भवति, एवमुक्के भगवान् गौतमो नाक्षत्रार्द्धमासचान्द्रार्द्धमासयोविशेषपरिज्ञानार्थमाह-'ता नक्षत्ताओ अद्धमासाओ'इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, नाक्षत्रात अर्धमासात ते-तय मतेन भगवन् । चन्द्रश्चान्द्रे-18 ॥२४॥ जाणार्द्धमासेन किमधिकं चरति !, भगवानाह-'ता एग'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डलं द्वितीयस्य चार्द्धमण्डलस्य चतुरः सप्तप-14 टिभागानेकस्य च सप्तपष्टिभागस्य एकत्रिंशद्धा विभक्तस्य सत्कान् नव भागानधिकं चरति, कथमेतदवसीयते इति चेत्,18 अनुक्रम [१०९] JAMERatininamaran ~490~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक उच्यते, त्रैराशिकवलात्, तथाहि-यदि चतुविशत्यधिकेन तेन सप्तदश शतानि अष्टपश्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन पर्थणा किलभामहे !, राशित्रयस्थापना १२४ । १७६८ ॥ १। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते जातः सर ताबानेव तत आधेन चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण राशिना भागहरणं ठेवच्छेदकराश्योश्चतुष्केनापवर्तना लब्धानि चतु-14 Pाईश मण्डलानि अष्टी च एकत्रिंशद् भागाः, एतस्मान्नक्षत्राद्धमासगम्यं क्षेत्रं त्रयोदश मण्डलानि एकस्य च मण्डलस्य प्रयो-15 ४ दश सप्तपष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, तत्र चतुर्दशभ्यस्त्रयोदश मण्डलानि शुद्धानि एकमवशिष्ट सम्प्रत्यष्टभ्य एकत्रिं भागेभ्यखयोदश सप्तपष्टिभागाः शोध्याः, तत्र सप्तपष्टिरष्टभिगुणिता जातानि पञ्च शतानि पत्रिंशदधिकानि ५३६।। एकत्रिंशता त्रयोदश गुणिता जातानि चत्वारि शतानि व्युत्तराणि ४०३ एतानि पञ्चभ्यः शतेभ्यः पत्रिंशदधिकेभ्यः । शोध्यन्ते स्थितं शेपं त्रयस्त्रिंशदधिक शतं १३३ तत एतत् सप्तषष्टिभागानयनार्थ सप्तषष्पा गुण्यते जातानि नवाशीतिः। शतान्येकादशाधिकानि ८९११ छेदराशिमौल एकत्रिंशत् सा सप्तपश्या गुण्यते जाते वे सहस्रे सप्तसप्तत्यधिके २०७७ जाताभ्यां भागो हियते लब्धाश्चत्वारः सप्तषष्टिभागाः शेषाणि तिष्ठन्ति पट् शतानि व्युत्तराणि ६०३ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः सप्तपश्याऽपवर्तना जाता उपरि नव अधस्तादेकत्रिंशत् लब्धा एकस्य च सप्तपष्टिभागस्य नव एकत्रिंशच्छेदकृता भागा: उक्कं च-"एगं च मंडल मंडलस्स सत्तद्विभाग चत्तारि । नब चेव चुणियातो इगतीसकरण छेएण ॥१॥" इह भावनांना कुर्वता मण्डलं मण्डलमिति यदुक्तं तत्सामान्यतो ग्रन्थान्तरे या प्रसिद्धा भावना तदुपरोधादवसेयं, परमार्थतः पुनरर्ब-12 मण्डलमवसातव्यं, ततो न कश्चित् सूत्रभावनिकयोविरोधः, तदेवमेकचन्द्रायणवक्तव्यतोक्का, सम्पति द्वितीयचन्द्राय-14 अनुक्रम [१०९] RELIGunintentATARIA ~491~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक -% सू८१ C ॥२४॥ सूर्यमज्ञ-प्रणवक्तव्यताभिधीयते, तत्र यः प्रथमे चन्द्रायणे दक्षिणभागादभ्यन्तरं प्रविशन् सप्तार्द्धमण्डलानि उत्तरभागादभ्यन्तरं प्रबि- १३माइते सिवृत्तिः शन् षट् अर्द्धमण्डलानि सप्तमस्य चाईमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् चरितवान् तमधिकृत्य द्वितीयायनभावना चन्द्रायनम क्रियते, तत्रायनस्य मण्डलक्षेत्रपरिमाणं त्रयोदश अर्द्धमण्डलानि चतुर्दशस्य चार्द्धमण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः, तत्र पडलचार माकनमयनमुत्तरस्यां दिशि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले त्रयोदश सप्तपष्टिभागपर्यन्ते परिसमाप्त, तदनन्तरं द्वितीयायनप्रवेशे चतुःपञ्चाशता सप्तपष्टिभागः सर्वाभ्यन्तरं मण्डल परिसमाप्य ततो द्वितीये मण्डले चार चरति, तत्र प्रयोदशभागपर्यन्ते : एकमद्धमण्डलं द्वितीयस्यायनस्य परिसमाप्त, द्वितीयमर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां सर्वाभ्यन्तरात्तृतीये अर्द्धमण्डले त्रयोदशभागपर्यन्ते तृतीयमर्द्धमण्डल दक्षिणस्यां दिशि चतुर्थेऽर्द्धमण्डले चतुर्धमर्द्धमण्डलमुत्तरस्यां दिशि परमेऽर्द्धमण्डले पश्चममद्धे-12 मण्डल दक्षिणस्यां दिशि षष्ठे अर्द्धमण्डले षष्ठमर्द्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि सप्तमेऽर्द्धमण्डले सप्तममब्रमण्डलं दक्षिणयां: दिशि अष्टमेऽर्द्धमण्डलेऽष्टममर्द्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि नवमे अर्द्धमण्डले नवममर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि दशमे अर्द्धमण्डले दशममईमण्डलं उत्तरस्यां दिशि एकादशेऽर्द्धमण्डले एकादशमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि द्वादशे अर्द्धमण्डले द्वादशमद्धमण्डलं उत्तरस्यां दिशि त्रयोदशे अर्द्धमण्डले त्रयोदशमर्द्धमण्डलं दक्षिणस्यां दिशि चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले चतुर्दश|मर्द्धमण्डलं तञ्च त्रयोदशभागपर्यन्ते परिसमाप्तं, तदनन्तरं त्रयोदश सप्तपष्टिभागान अन्यान् चरति, एतायता द्वितीय४ामवन परिसमाप्त, चतुर्दशे च मण्डले सङ्कान्तः सन् प्रथमक्षणाय सर्वबाह्यमण्डलाभिमुखं चारं चरति, ततः परमार्थतः कतिपयभागातिक्रमे पञ्चदश एव सर्ववाह्यमण्डले वेदितव्यः, तदेवमस्मिन्नयने पूर्वभागेन द्वितीयादीन्येकान्तरितानि | CLOCK- अनुक्रम [१०९] EOCOCCORDS- C ~492~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक - 4 x चतुर्दशपर्यन्तानि सप्ताद्धमण्डलानि चीर्णानि, पश्चिमभागे च तृतीयादीन्येकान्तरितानि त्रयोदशपर्यन्तानि पडीमण्ड-18 लानि, तन्त्र पूर्वभागे पश्चिमभागे वा यत् प्रतिमण्डलं स्वयं चीर्णमन्यचीर्ण वा चरति तन्निरूपयति-ता दोच्चायणगए। 18|इत्यादि, ता इति पूर्ववत् द्वितीयायनगते चन्द्रे पौरस्त्यात् भागान्निष्कामति, किमुक्तं भवति -पौरस्त्ये भागे चार चरति, सप्त चतुःपञ्चाशत्कानि भवन्ति यानि चन्द्रः परस्वेति तृतीयार्थे षष्ठी परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्रतिचरति, सप्त 18च त्रयोदशकानि भवन्ति यानि चन्द्र आत्मनैव चीर्णानि प्रतिचरति, इयमन भावना-मेरोः पूर्वस्यां दिशि यो भागः। स पूर्वभागो यश्चापरस्यां दिशि स पश्चिमभागः, तत्र पूर्वभागे सप्तस्वपि द्वितीयादिवेकान्तरितेषु चतुर्दशपर्यन्तेषु सप्तप-121 राष्टिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येक चतुःपञ्चाशतं सप्तपष्टिभागान् चन्द्रः परेण सूर्यादिना चीणान् प्रतिचरति, त्रयोदश प्रयोदशी सप्तपष्ठिभागान स्वयंचीर्णानिति, 'ता दोचायणगए'इत्यादि, तस्मिन्नेय चन्द्रमसि द्वितीयायनगते पश्चिमभागानिष्का मति-पश्चिमभागे चारं चरति, पटु चतुःपञ्चाशत्कानि भवन्ति यानि चन्द्रः 'परस्मेति परेण सूर्यादिना चीर्णानि प्रतिचिरति, षट् त्रयोदशकानि यानि चन्द्रः स्वयंचीर्णानि प्रतिचरति, अत्रापीय भावना-पश्चिमे भागे षट्स्वपि तृतीयादिवे कान्तरितेषु प्रयोदशपर्यन्तेषु अर्द्धमण्डलेषु सप्तपष्टिभागप्रविभक्तेषु प्रत्येक चतुःपञ्चाशतं चतुःपञ्चाशतं - सप्तपष्टिभागान पर चीर्णान् चरति, त्रयोदश सप्तपष्टिभागान स्वयंचीणानिति, 'अबराई खलु दुवे'इत्यादि, अपरे खलु त्रयोदशके 181 तस्मिन्नयने स्तो ये चन्द्रः फेनाध्यसामान्ये-केनाप्यनाचीर्णपूर्व स्वयमेव प्रविश्य चारं चरति, 'कयराई खलु' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, इमाई खल्लु' इत्यादि निर्वचनवाक्यमे तद्, एतञ्च प्रायो निगदसिद्धम् , नवरमेकं यत् त्रयोदशकं सर्वाभ्य अनुक्रम [१०९] x -5 - 5 + ~493~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक E सूर्यप्रज्ञ- Kान्तरे मण्डले तत् पाश्चात्यायनगतत्रयोदशकादूई वेदितव्यं, तस्यैव सम्भवास्पदत्वात् , द्वितीयं सर्यबाह्ये मण्डले तय तच्च १३ माभृते विवृत्तिः पर्यन्तत्र्ति प्रतिपत्तव्यं, 'एयाई खलु ताणि'इत्यादि निगमनवाक्यं सुगर्म, तदेवमेकं चन्द्रमसमधिकृत्य द्वितीयायन | चन्द्रायनम (मल०) वक्तव्यतोक्ता, एतदनुसारेण च द्वितीयमपि चन्द्रमसमधिकृत्य द्वितीयायनवक्तव्यता भावनीया, एवं तस्य पश्चिमभागे। सप्त चतुःपञ्चाशत्कानि परचीर्णाचरणीयानि सप्त त्रयोदशकानि स्वयंचीर्णाचरणीयानि वक्तव्यानि, पूर्वभागे पटू चतुःपश्चा- सू८१ ॥२४२|| शत्कानि परचीर्णाचरणीयानि पटू त्रयोदशकानि स्वयंचीर्णप्रतिचरणीयानि, 'एतावता इत्यादि, एतावता कालेन द्वितीय चन्द्रायणं समाप्तं भवति, 'ता नक्खत्ते त्यादि, यवं द्वितीयमप्ययनमेतावत्प्रमाणं ता इति-ततो नाक्षत्रो मासो न चान्द्रो मासो भवति नापि चान्द्रो मासो नाक्षत्रो मासः, सम्प्रति नक्षत्रमासात् कियता चन्द्रमासोऽधिक इति जिज्ञासुः | पनं करोति-ता नक्वत्ताओ मासाओ'इत्यादि, ता इति-तत्र नाक्षात्रात् मासात् चन्द्रः चन्द्रेण मासेन किमधिक चरति 1, एवं प्रक्षे कृते भगवानाह-'ता दो अद्धमंडलाई इत्यादि, द्वे अर्द्धमण्डले तृतीयस्थार्जुमण्डलस्याष्टी सप्तपष्टि*भागान् एकं च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशद्धा छित्त्वा तस्य सत्कानष्टादश भागान अधिकं चरति, एतच प्रागुक्तमेकायनेऽधि-12 | कमेकमण्डलमित्यादि द्विगुणं कृत्वा परिभाषनीयं, सम्पति यावता चन्द्रमासः परिपूर्णो भवति तावन्मावतृतीयायनयक्तव्यतामाह-'तातचायणगए चंदे'इत्यादि, इह द्वितीयायनपर्यन्ते चतुर्दशेऽर्द्धमण्डले पड्विंशतिसमासप्तपष्टिभागमात्रमाक्रान्तं, तच्च परमार्थतः पञ्चदशमीमण्डलं वेदितव्यं, बहु तदभिमुखं गतत्वात् , तदनन्तरं नीलवत्पर्वतप्रदेशे साक्षात् ॥२४२।। पाखदशमीमण्डलं प्रविष्टस्तत्प्रविष्टश्च प्रथमक्षणादूचं सर्वबाह्यानन्तरातिनद्वितीयमण्डलाभिमुखं चरति, ततस्तस्मिन्नेव ! अनुक्रम [१०९] श SAREnaturintimate ~494~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१३], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॐ----4225-05- सर्वबाह्यानन्तरेऽक्तिने द्वितीयमण्डले चार चरन् विवक्षितः, ततोऽधिकृतसूत्रोपनिपातः, तृतीयायनगते चन्द्रे पश्चिमे 8 भागे प्रविशति बाह्यानन्तरस्थाग्भिागवर्तिनः पाश्चात्यस्यार्द्धमण्डलस्य एकचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागास्ते वर्तन्ते यान चन्द्रः आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति त्रयोदश च सप्तपष्टिभागास्ते यान् चन्द्रः परेणैव चीर्णान् प्रतिचरति अन्ये | च त्रयोदश सप्तषष्टिभागास्ते यान् चन्द्रः स्वयं परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, एतावता परिभ्रमणेन बाह्यानन्तरमाक्तन दूपाश्चात्यमर्द्धमण्डलं परिसमाप्तं भवति, तदनन्तरं च तस्मिन्नेव तृतीयायनगते चन्द्रे पौरस्त्यभागे प्रविशति सर्वबाह्याद किनस्य तृतीयस्य पौरस्त्यार्द्धमण्डलस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा यान् चन्द्र आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, ततः परमन्ये ते त्रयोदश भागा यान् चन्द्रः परेणैव चीर्णान् प्रतिचरति, अन्ये च ते त्रयोदश भागा थान् चन्द्र आत्मना परेण च वीर्णान् प्रतिचरति, एतावता सर्ववाह्यान्मण्डलादाक्तनं तृतीयं पौरस्त्यम मण्डलं परिसमाप्तं भवति, सप्तप-TR टेरपि भागानां परिपूर्णतया जातत्वात् , 'ता'इत्यादि, ततस्तस्मिन्नेव तृतीयायनगते चन्द्रे पश्चिमे भागे प्रविशति सर्व बाह्यान्मण्डलादाकनस्य चतुर्थस्य पावाल्यस्वार्द्धमण्डलस्याप्टौ सप्तषष्टिभागा एक च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशद्धा छित्त्वा तस्य | ४ पूसत्का अष्टादश भागास्ते वर्तन्ते यान् चन्द्र आत्मना परेण च चीर्णान् प्रतिचरति, एतावता च परिभ्रमणेन चान्द्रो मासः परिपूर्णो जातः । सम्प्रति पूर्वोक्तमेव स्मरयन चन्द्रमासगतमुपसंहारमाह-एवं खलु चंदेणं मासेण'मित्यादि, एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितं चान्द्रेण मासेन चन्द्रे त्रयोदश चतुष्पश्चाशत्कानि जातानि द्वे च त्रयोदशके यानि चन्द्रः परेणैव चीर्णानि प्रतिचरति, वर्तमानकालनिर्देशः सकलकालयुगस्य प्रथमे चान्द्रे मासे एवमेव द्रष्ट व्यमिति ज्ञापनार्थः, % * अनुक्रम [१०९] * * * * RELIGunintentATATE ~495 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०९ ] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८१] प्राभृत [१३], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ( मल०) ॥२४३॥ * सूर्यप्रज्ञ- २) तत्र त्रयोदशापि चतुःपञ्चाशत्कानि द्वितीयेऽयने, तत्रापि सप्त चतुःपञ्चाशत्कानि पूर्वभागे पट् पाश्चात्ये भागे, ये च द्वे त्रयोठिवृत्तिः दशके ते द्वितीयस्यायनस्योपरि चन्द्रमासाव धेरर्वाक् द्रष्टव्ये, तबैकं त्रयोदशकं सर्वबाह्यादवा ने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्धमण्डले द्वितीयं पौरस्त्ये तृतीयेऽर्द्धमण्डले, तथा 'तेरसे' त्यादि, त्रयोदश त्रयोदशकानि यानि चन्द्र आत्मनैव चीर्णानि ॐ प्रतिचरति, एतानि च सर्वाण्यपि द्वितीयेऽयने वेदितव्यानि तत्रापि सप्त पूर्वभागे पट् पश्चिमभागे, तथा 'दुवे इत्यादि, द्वे एकचत्वारिंशत्के द्वे च त्रयोदशके अष्टौ सप्तषष्टिभागा एकं च सप्तपष्टिभागमेकत्रिंशद्धा छित्त्वा तस्य सत्का अष्टादश भागा यान्येतानि चन्द्र आत्मना परेण च चीर्णानि प्रतिचरति, तत्र एकमेकचत्वारिंशत्कमेकं च त्रयोदशकं द्वितीयायनोपरि सर्वबाह्यात् मण्डलादवतने द्वितीये पाश्चात्येऽर्द्धमण्डले द्वितीयमेकचत्वारिंशत्कं द्वितीयं च त्रयोदशकं सर्वग्राह्यात् मण्डलादने तृतीये पौरस्त्ये शेषं पाश्चात्ये सर्वत्राह्यादतने चतुर्थेऽर्द्धमण्डले, अधुनोपसंहारमाह-'इश्चेसा' इत्यादि, इत्येषा चन्द्रमसः संस्थितिरिति योगः, किंविशिष्टेत्याह-'अभिगमननिष्क्रमण वृद्धिनिर्वृद्धानवस्थितसंस्थाना' अभिगमनं - सर्वग्राह्याम्मण्डलाभ्यन्तरं प्रवेशनं, निष्क्रमणं - सर्वाभ्यन्तरात् मण्डलाद्वहिर्गमनं वृद्धिः चन्द्रमसः प्रकटताया उपचयो | निर्वृद्धि: - यथोक्तस्वरूपवृद्धाभावः, एताभिरनवस्थितं संस्थानं, अभिगमन निष्क्रमणे अधिकृत्यानवस्थानं वृद्धिनिर्वृद्धी अपेक्ष्य संस्थानं-आकारो यस्याः सा तथारूपा संस्थितिः, तथा परिदृश्यमान चन्द्रविमानस्याधिष्ठाता विकुर्वद्धिप्राप्तो रूपी-रूपवान् अत्रातिशयने मत्वर्थीयोऽतिशय रूपवान् चन्द्रो देव आख्यातो नतु परिदृश्यमानविमानमात्रश्चन्द्रो देव इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः ॥ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां त्रयोदशं प्राभृतं समाप्तं ॥ | Education Internatio For Par Use Only ~ 496~ १३ प्राभूते चन्द्रायनम ण्डलचारः सू ८१ ॥२४३॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [११०] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८२] प्राभृत [१४], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education in तदेवमुक्तं त्रयोदशं प्राभृतं सम्प्रति चतुर्दशं वक्तव्यं, तस्य चायमर्थाधिकारो यथा-कदा ज्योत्स्ना प्रभूता भवती 'ति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ताकता ने दोसिणा बहू आहितेति वदेखा ?, ता दोसिणापक्खे णं दोसिणा वह आहितेति वदेजा, ता कहं ते दोसिणापक्खे दोसिणा वह आहितेति वदेखा ?, ता अंधकारपक्खओ णं दोसिणा बहू आहियाति वदेजा, ता कहं ते अंधकारपक्खानो दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिताति वदेखा ?, ता अंधकार| पक्खातो णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चसारि बाबाले मुत्तसते छसालीसं च बावद्विभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे विरजति, तं०-पढमाए पढमं भागं विदियाए विदियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसं भागे, एवं खलु अंधकारपक्खतो दोसिणापक्खे दोसिणा यह आहितातिवदेजा, ता केवतिया णं दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिताति वदेजा ?, ता परित्ता असंखेला भागा। ता कता ते अंधकारे यह आहितेति वदेखा ?, ता अंधयारपवस्त्रे णं बहू अंधकारे आहिताति वदेजा, ता कहं ते अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहिताति वदेखा ?, ता दोसिणापकखातो अंधकारपक्खे अंधकारे यह आहितेति वदेखा, ता कह ते दोसणापत्रात अंधकारपक्वे अंधकारे बहू आहिताति वदेज्जा ?, ता दोसिणापक्खातो णं अंधकारपक्वं अयमाणे चंदे चत्तारि बाताले मुहुसते बापालीसं च बावद्विभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे रज्जति, तं०-पढमाए पढमं भागं विदियाए चिदियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं, एवं खलु दोसिणापक्त्वातो अंधकारपक्खे अंधकारे बहू | अत्र त्रयोदशं प्राभृतं परिसमाप्तं For Para Lise Only अथ चतुर्द्दशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 497 ~ wor Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१४], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सुर्यप्रज- प्ठिवृत्तिः प्रत (मल०) सूत्रांक सू८२ ॥२४॥ [८२] PostCocieoCCES. दीप आहिताति वदेवा, ता केवतिएणं अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहियाति वदेजा ? परित्ता असंखेज्या भागा॥ १४प्राभृते (सूत्रं ८२)॥ चोद्दसमं पाहुडं समत्तं ॥ ज्योत्स्वान्ध 'ता कया ते दोसिणा'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् 'कदा'कस्मिन् काले भगवन ! त्वया ज्योत्स्ना प्रभूता आख्याता कारबहुत्वं इति वदेत !, भगवानाह'ला दोसिणे'त्यादि, ता इति पूर्ववत्, ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत् । 'ता कहते'इत्यादि, ता इति प्राम्यत् , कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत् ।, भग-1 वानाह-'ता अंधकारल्यादि, सुगर्म, पुनरपिता कहते'इत्यादि प्रश्नसूत्रं निगदसिद्धं, निर्वाचनमाह-'ता अंधकारप क्खातो'इत्यादि, सुगर्म, पुनरपि 'ता कहं ते इत्यादि प्रश्नसूत्र, निर्वचनमाह-'ता अंधकारपक्वाओ'इत्यादि, ता ४ इति पूर्वपत् , अन्धकारपक्षात् ज्योत्स्नापक्षमयमानश्चन्द्रश्चत्वारि मुहुर्तशतानि द्वाचत्वारिंशानि-द्विचत्वारिंशदधिकानि षट्चत्वारिंशतं च द्वापष्टिभागान मुहूर्त्तस्य यावत् ज्योत्स्ना निरन्तर प्रवर्द्धते, तथा चाह-यानि यावत् चन्द्रो विरन्यते-11 शनैः शनै राहुविमानेनानावृतस्वरूपो भवति, मुहूर्त्तसयागणितभावना पाग्यकर्त्तव्या, कथमनावृतो भवतीत्यत आहतद्यथा-प्रथमायां प्रतिपल्लक्षणायां तिथौ प्रथमं पञ्चदर्श द्वापष्टिभागसत्कभागचतुष्टयप्रमाणं यावदनावृतो भवति, द्वितीयस्यां तिथौ द्वितीय भागं यावत् एवं तावद् द्रष्टव्यं यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदशमपि भागं यावदनावृतो भवति, सर्वात्मना | २४४॥ राहुविमानेनानावतो भवतीति भावः, उपसंहारमाह-एवं खलु'इत्यादि, तत एवं-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमन्ध-| कारपक्षात् ज्योत्स्नापले ग्योरक्षा बहुराख्याता इति वदेव, इयमत्र भावना-इइ शुक्लपक्षे यथा प्रतिपत्प्रथमक्षणादारभ्य अनुक्रम [११०] ~498~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [११०] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८२] प्राभृत [१४], ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education Internationa प्रतिमुहूर्त्त यावन्मात्रं यावन्मात्रं शनैः शनैश्चन्द्रः प्रकटो भवति तथा अन्धकारपक्षे प्रतिपत्प्रथमक्षणादारभ्य प्रतिमुहूर्त्त तावन्मात्रं तावन्मात्रं शनैः शनैश्चन्द्र आवृत उपजायते, तत्त एवं सति यावत्येवान्धकारपक्षे ज्योत्स्ना सावत्येव शुक्लपक्षेऽपि प्राठा, परं शुक्लपक्षे या पञ्चदश्यां ज्योत्स्ना साऽन्धकारपक्षादधिकेति अंधकारपक्षात् शुक्लपक्षे ज्योत्स्ना प्रभूता आख्यातेति, 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कियती ज्योत्स्नापक्षे ज्योत्स्ना आख्याता इति वदेत् ?, भगवानाह परीत्ता:परिमिताश्च असोया भागा निर्विभागाः । एवमन्धकारसूत्राण्यप्युक्तानुसारेण भावनीयानि, नवरमन्धकारपक्षेऽमायास्यायां योऽन्धकारः स ज्योत्स्नापक्षादधिक इति ज्योत्स्नापक्षादन्धकारपक्षेऽन्धकारः प्रभूत आख्यात इति वदेत् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां चतुर्दशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ • तदेवमुक्तं चतुर्दशं प्राभृतं सम्प्रति पञ्चदशमारभ्यते तस्य चायमर्थाधिकारो यथा- 'कः शीघ्रगतिर्भगवन्! आख्यात' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह- ताक ने सिग्धगती वत्थू आहितेति बदेला ?, ता एतेसि णं बंदिमसूरियगगणनक्खत्ततारास्वाणं चंदेहिंतो सरे सिग्धगती सुरेहिंतो गहा सिग्धगती गहेहिंतो णक्खत्ता सिग्धगती णक्खतेहिंतो तारा सिग्घगती, सङ्घप्पगती बंदा सबसगती तारा, ता एगमेगेणं मुहुरोणं चंदे केवतियाई भागसताई गच्छति ?, ता जं जं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरति तस्स २ मंडलपरिक्खेवरस सत्तरस अडस हिं | अत्र चतुर्द्दशं प्राभृतं परिसमाप्तं For Parts Only अथ पञ्चदशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 499~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३]] दीप अनुक्रम [१११] सूर्यप्रज्ञ- 1भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउतीसतेहिं छेत्ता, ता पगमेगेणं मुहलेणं सूरिए केवतियाई १५ माभूत प्तिवृत्तिःभागसयाई गच्छति, ताजं ज मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तस्स २ मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारस तीसे चन्द्रादीनां (मल भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउतीसतेहिं छेत्ता, ता एगमेगेणं मुहत्तेणं णक्खत्ते केवतियाई भागसताई गच्छति ?, ता जंज मंडलं उबसंकमित्ता चार चरति तस्स २ मंडलस्म परिक्खेबस्स अट्ठारसा |पणतीसे भागसते गच्छति, मंडलं सतसहस्सेणं अट्ठाणउतीसतेहिं छेत्ता ॥ (सत्र ८३) 'ता कहं ते इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं भगवन् ! त्वया चन्द्रसूर्यादिकं वस्तु शीघ्रगति आख्यातं इति वदेत् । भगवानाह-ता एएसि णमित्यादि, एतेषां-चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारकाणां पञ्चानां मध्ये चन्द्रेभ्यः सूर्याः शीघ्रगतय, सूर्येभ्योऽपि ग्रहाः शीघ्रगतयो ग्रहेभ्योऽपि नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि नक्षत्रेभ्योऽपि ताराः शीघ्रगतयः, अत एतेषां पञ्चाना मध्ये सर्वाल्पगतयश्चन्द्राः सर्वशीप्रगत्यस्ताराः। एतस्यैवार्थस्य सविशेषपरिज्ञानाय प्रश्नं करोति-'ता एगमेगेण'मित्यादि. शता इति पूर्ववत् , एकैकेन मुहर्तेन चन्द्रः कियन्ति मण्डलस्य भागशतानि गच्छति ?, भगवानाह-ताजं ज'मित्यादि। दायत् यत् मण्डलमुपसङ्कम्य चन्द्रश्चारं चरति तस्य तस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परिधेः सप्तदश शतान्यष्टषष्ट्य- &|धिकानि भागानां गच्छति, मण्डलं-मण्डलपरिक्षेपमेकेन शतसहस्रेणाप्टानवत्या च शतभिस्था-विभग्य, इयमत्र भावनाआइह प्रथमतश्चन्द्रमसो मण्डलकालो निरूपणीयः तदनन्तरं तदनुसारेण मुहर्तगतिपरिमाणं परिभावनीयं, तत्र मण्डलकाल- २४५) निरूपणार्थमिदं त्रैराशिक-यदि सप्तदशभिः शतैरष्टषष्ट्यधिकैः सकलयुगवत्तिभिरर्द्धमण्डलैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि SARERatininemarana ~500~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३]] दीप अनुक्रम [१११] | रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यां-एकेन मण्डलेनेति भावः कति रात्रिन्दिवानि लभ्यन्ते !, राशिवयस्थापना-१७६८ । १८३०१२ । अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं, जातानि पत्रिंशत्सहस्राणि पश्य|धिकानि ३६०६०, तेषामायेन राशिना भागहरणं, लब्धे द्वे रानिन्दिघे, शेपं तिष्ठति चतुर्विंशत्यधिक शतं १२४, तत्रैक-l कस्मिन् रानिन्दिये त्रिंशन्मुहूता इति तस्य त्रिंशता गुणने जातानि सप्तत्रिंशच्छतानि विंशत्यधिकानि ३७२०, तेषां । सप्तदशभिः शतैरष्टषष्ट्यधिकः भागे हृते लब्धौ द्वौ मुहूत्तौं, ततः शेषच्छेद्यराशिफ्छेदकराश्योरष्टकेनापवर्त्तना जात छेद्यो । IN राशिखयोविंशतिः छेदकराशिर्वे शते एकविंशत्यधिके, आगतं मुहूर्तस्यैकविंशत्यधिकशतद्वयभागस्त्रियोविंशतिः, एतावता कालेन द्वे अर्द्धमण्डले परिपूर्ण चरति, किमुक्तं भवति !-तावता कालेन परिपूर्णमेकं भण्डलं चन्द्रश्चरति, तदेवं मण्डल-18 कालपरिज्ञानं कृतं, साम्प्रतमेतदनुसारेण मुहूर्तगतिपरिमाणं चिन्त्यते-तत्र ये द्वे रात्रिन्दिवे ते मुहर्तकरणार्थं त्रिंशताR |गुण्येते, जाताः षष्टिमहर्ताः ६०, तत उपरितनौ द्वौ मुहूत्तौ प्रक्षिप्तौ जाता द्वापष्टिः ६२, एपा सवर्णनाथ द्वाभ्यां शताकाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा चोपरितना त्रयोविंशतिः क्षिप्यते जातानि त्रयोदश सहस्राणि सप्त शतानि ट्रपञ्चविंशत्यधिकानि १३७२५, एतत् एकमण्डलकालगतमुहूर्तसत्कै कविंशत्यधिकशतद्वयभागानां परिमाणं, ततस्त्रैराशि ककविसरो-यदि त्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागानां मण्डलभागा एक शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि लभ्यन्ते तत एकेन महत्तेन किलभामहे !, राशिघ्रयस्थापना । १३७२५ । १०९८०० 12113 18Jइहायो राशिर्मुहूर्तगतकविंशत्यधिक शतद्वयभागरूपस्ततः सवर्णनार्थमन्त्यो राशिरेककलक्षणो द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंश 542569NCRACRACKety %-kx ~501~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८३]] दीप अनुक्रम [१११] सूर्यप्रज्ञ त्यधिकाभ्यां गुण्यते, जाते द्वे शते एकविंशत्यधिके २२१, ताभ्यां मध्यो राशिर्गुण्यते, जाते द्वे कोव्यी द्विचत्वारिंशल्लक्षामाभृते तिवृत्तिःला पञ्चषष्टिः सहन्नाण्यष्टौ शतानि २४२६५८००, तेषां त्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागो हियते लब्धानि चन्द्रादीनां (मल०) सप्तदश शतानि अष्टपश्यधिकानि १७६८, एतावतो भागान् यत्र तत्र या मण्डले चन्द्रो मुहतेन गच्छति, 'ता एगमे- 1गतितारतगेयो'त्यादि, ता इलि पूर्ववत्, एकैकेन मुहूर्तेन सूर्यः कियन्ति भागशतानि गच्छति ?, भगवानाह-'ता जंज'मित्यादि, म्यं सू ८३ ॥२४॥ यत् यत् मण्डलमुपसङ्कम्य सूर्यश्चार चरति तस्य तस्य मण्डलसम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परिधेरष्टादश भागशतानि त्रिंशदधिकानि गरछति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैछित्त्वा, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, त्रैराशिकवलात, ४ तथाहि-यदि पथ्या मुहत्तरेक शतसहन्नमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्तेन कति भागान लभामहे !, राशित्रयस्थापना ६०१ १०९८००११। अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं जातः सर तावानेव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , ततस्तस्यायेन राशिना पष्टिलक्षणेन भागो हियते, लब्धान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावतो भागान् मण्डलस्य सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, 'ता एगमेगेण मित्यादि, |ता इति पूर्ववत्, एकैकेन मुहूत्र्तेन कियतो भागान् मण्डलस्य नक्षत्रं गच्छति ।, भगवानाह-'ताज जमित्यादि, यत् यत् आत्मीयमाकालप्रतिनियतं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तस्य तस्यात्मीयस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परि-IRLoan २४६॥ | धेरष्टादश भागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टानयत्या च शतैश्छित्वा, इहापि प्रथमतो| मण्डलकालो निरूपणीयः यतस्तदनुसारेणैव मुहूर्त्तगतिपरिमाणभावना, तन्त्र मण्डलकालप्रमाणचिन्तायामिदं त्रैराशिक RECE ~502~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [८३] दीप अनुक्रम [१११] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८३] प्राभृत [१५], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education Internationa यद्यष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकैः सकलयुगभाविभिरर्द्धमण्डलैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्ध मण्डलाभ्यां एकैकेन परिपूर्णेन मण्डलेनेति भावः किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना १८३५ । १८३० |२| अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि पत्रिंशच्छतानि पण्यधिकानि ३६६० तत आद्येन राशिना १८३५ भागहरणं लब्धमेकं रात्रिन्दिवं १ शेपाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १८२५ ततो मुहर्त्तानयनार्थमेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चाशदधिकानि ५४७५० तेषामष्टादशभिः शतैः पञ्च4. त्रिंशदधिकैर्भागे हृते लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ताः २२, ततः शेषच्छेद्यच्छेदकरारयोः पञ्चकेनापवर्त्तना जात उपरितनो राशिः श्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि ३०७ छेदूकराशि स्त्रीणि शतानि सप्तपयधिकानि ३६७, तत आगतमेकं रात्रिन्दि| वमेकस्य च रात्रिन्दियस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तषष्यधिकत्रिशतभागानां त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि १ । २९ । ३६ । इदानीमे तदनुसारेण मुहूर्त्तगतिपरिमाणं चिन्त्यते, तत्र रात्रिन्दिये त्रिंशन्मुहूर्त्ताः ३० तेषु उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूर्त्ताः प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनषष्टिर्मुहूर्त्तानां ततः सा सवर्णनार्थं त्रिभिः शतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुण्यते, गुणयित्वा चोपरितनानि त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिष्यन्ते, जातान्येकविंशतिः सहस्राणि नव शतानि षष्ट्यधिकानि ४२१९६०, ततस्त्रैराशिकं यदि मुहूर्त्तगत सप्तपयधिकत्रिशतभागानामेकविंशत्या सहस्त्रैर्नवभिः शतैः पथ्यधिकैरेकं शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि मण्डलभागानां लभ्यते तत एकेन मुहूर्त्तेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना । २१९६० । १०९८०० । १। अत्राद्यो राशिर्मुहूर्त्तगतसप्तपश्यधिकत्रिशतभागरूपस्ततोऽन्त्योऽपि राशिस्त्रिभिः शतैः सप्तपथ्यधिकैगुण्यते जातानि For Pale Only ~503~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ प्रत सूत्रांक [८३]] दीप अनुक्रम [१११] बीण्येव शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि ३६७, तैर्मध्यो राशिगुण्यते जाताश्चतस्रः कोटयो द्वे लक्षे षण्णवतिः सहस्राणि षट् १५प्राभृते शतानि ४०२९६६०० तेपामायेन राशिना एकविंशतिः सहस्राणि नव शतानि पश्यधिकानीत्येवंरूपेण भागो नियते लन्धा- चन्दादाना मलान्यष्टादश तानि पश्चत्रिंशदधिकानि १८३५ एतावतो भागान्नक्षत्रं प्रतिमुहूर्त गच्छति । तदेयं यतश्चन्द्रो यत्र तत्र वा मण्डले गतितारतएकैकेन मुहूर्तेन मण्डलपरिक्षेपस्य सप्तदश शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि भागानां गच्छति सूर्योऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि नक्षत्रमष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि ततश्चन्द्रेभ्यः शीघ्रगतयः सूर्याः सूर्येभ्यः शीघ्रगतीनि नक्षत्राणि, ग्रहास्तु वक्रा-13 नुवादिगतिभावतोऽनियतगतिप्रस्थानास्ततो न तेषामुक्तप्रकारेण गतिप्रमाणपरूपणा कृता, उक्त च-"चंदेहि सिग्घयरा | सूरा सूरेहिं होति नक्सत्ता । अणिययगइपत्वाणा हवंति सेसा गहा सवे ॥ १ ॥ अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छई मुहुतेणं । नक्खत्तं चंदो पुण सत्तरस सए उ अडसहे॥ २ ॥ अट्ठारस भागसए तीसे गच्छद रवी मुहत्तेण । नक्षत्तसीमछेदो सो चेव इहपि नायबो ॥३॥" इदं गाधात्रयमपि सुगम, नवरं नक्षत्रसीमाछेदः स एव अत्रापि ज्ञातव्य इति किमुक्तं । भवति ?-अत्रापि मण्डलमेकेन शतसहस्रेणाप्टानवत्या च शतैः प्रविभक्तव्यमिति ।। सम्पत्युक्तस्वरूपमेव चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां परस्परं मण्डलभागविषय विशेष निर्धारयतिता जया पं चंदं गतिसमाचपणं मरे गतिसमावण्णे भवति, से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति ?, थाव-CH M॥२४७॥ द्विभागे विसेसेति, ता जया ण चंदं गतिसमावणं णक्खसे गतिसमावणे भवइ से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेइ , ता सत्तहि भागे विसेंसेति, ता जता णं सूरं गतिसमावणं णखत्ते गतिसमावण्णे भवति ~504~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [११२] से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति ?, ता पंच भागे विसेसेति, ता जना णं चंदं गतिसमावणं अभीयीणक्खत्ते णं गतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादित्ता णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तविभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोएति, जो जोपत्ता जोयं अणुपरिपट्टति, जो ६२ सा विप्पजहाति विगतजोई यावि भवति, ता जता ण चंदं गतिसमावणं सवणे णक्खो गतिसमावणे &|पुरच्छिमाति भागादे समासादेति, पुरच्छिमाते भागाते समासादेत्ता तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धिं जो जोएति १२ जोयं अणुपरियति जो० २ त्ता विप्पजहति विगतजोई यावि भवइ, एवं एएणं अभिलावणं णेतवं, पण्णसरसमुहत्ताई तीसतिमुहत्ताई पणयालीसमुहत्ताई भाणितबाई जाब उत्तरासादा। ता जता णं चंदं । गतिसमावणं गहे गतिसमावणे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति पुर०२त्ता चंदेणं सद्धिं जोग जुजति हा सा जोगं अणुपरिषदृति त्ता विष्पजह ति विगतजोई यावि भवति । ता जया णं सूरं गतिसमावणं अभीगीणक्खत्ते गतिसमावणे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पुर०२ सा चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते &ारेणं सद्धिं जोपं जोएति २ जोयं अणुपरियति २त्ता विजेते विगतजोगी यावि भवति, एवं अहोरत्ता छ एकवीसं मुहत्ता य तेरस अहोरत्ता बारस मुहुत्ता य वीसं अहोरत्ता लिपिण मुहुत्ता य सधे भणितवा। ४/जाय जता णं सूरं गतिसमावणं उत्तरासाढाणक्खत्ते गतिसमावणे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति IM०२ सा वीसं अहोरत्ते तिपिण य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएति जो० २ ता जोयं अणुपरियति जो०२| SECSCAR ~505~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - [८४] दीप अनुक्रम [११२] सर्यप्रज्ञता विजेति विजहति विप्पजहति विगत जोगी यावि भवति, ता जता णं सूरं गतिसमावणं णक्खत्ते (गहे) सामने निवृत्तिःगतिसमावण्णे पुरच्छिमाते भागाते समासादेति, पु०२त्ता मरेण सद्धि जोयं जुजति २ ता जोयं अगुपरि- चन्द्रादीनां (मल.)यति २सा जाब विजेति विगतजोगी पावि भवति । (सूत्रं०८४) गतितारतYe ता जया ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , यदा णमिति वाक्यालङ्कार चन्द्रं गतिसमापन्नमवेक्ष्य सूर्यो गतिसमापनोम्यं सू ८४ . विवक्षितो भवति, किमुक्तं भवति -प्रतिमुहुर्त चन्द्रगतिमपेक्ष्य सूर्यगतिश्चिन्त्यते तदा सूर्यो गतिमात्रया-एकमुहर्तगतगतिपरिमाणेन कियतो भागान् विशेषयति ?, एकेन मुहूर्तेन चन्द्राक्रमितेभ्यो भागेभ्यः कियतोऽधिकतरान भागान, सूर्य आक्रामतीति भावः, भगवानाह-द्वापष्टिभागान विशेषयति, तथाहि-चन्द्र एकेन मुहतेन सप्तदश भागशतान्यष्ट-IN उपाध्यधिकानि गच्छति १७६८ सूर्योऽष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० ततो भवति द्वापष्टिभागकृतः परस्पर विशेषः, ता जया ण'मित्यादि, ता इति प्राग्वत् , यदा चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य नक्षत्रं गतिसमापन विवक्षित भवति तदा नक्षत्रं गतिमात्रया-एकमुहूर्तगतपरिमाणेन कियन्तं विशेषयति', चन्द्राक्रमितेभ्यो भागेभ्धः कियतो भागानधिकान 13आक्रामतीति भावः, भगवानाह-सप्तपष्टिभागान , नक्षत्रं ह्ये केन मुहूर्त्तनाष्टादश भागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति । चन्द्रस्तु सप्तदश भागशतानि अष्टषयधिकानि तत उपपद्यते सप्तपष्टिभागकृतो विशेषः, 'ता जया ण'मित्यादि प्रश्न-II सूर्व प्राम्यद् भावनीयं, भगवानाह-ता पंचे'त्यादि, पञ्च भागान् विशेषयति-सूर्याक्रान्तभागेभ्यो नक्षत्राकान्तभागानां ॥२४॥ पश्चभिरधिकत्वात् , तथाहि-सूर्यः एकेन मुहनाष्टादश भागशतानि त्रिंशदधिकानि गच्छति नक्षत्रमष्टादश भागशतानि | -560 ~506~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [११२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८४] प्राभृत [१५], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education international पञ्चत्रिंशदधिकानि ततो भवति परस्परं पञ्चभागकृतो विशेषः, 'ता जया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यदा णमिति वाक्यालङ्कारे चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्याभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति तदा पौरस्त्याद् भागात् प्रथमतोऽभिनिन्नक्षत्रं चन्द्रमसं समासादयति एतच्च प्रागेव भावितं समासाद्य च नव मुहूर्त्तान् दशमस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविशतिं सप्तषष्टिभा गान् चन्द्रेण सार्द्ध योगं युनक्ति-करोति, एतदपि प्रागेव भावितं, एवंप्रमाणं कालं योगं युक्त्वा पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्त्तयति, श्रवण नक्षत्रस्य योगं समर्पयतीति भावः, योगं च परावर्य स्वेन सह योगं विजहाति, किं बहुना ?, विगत योगी चापि भवति, 'ता जया णमित्यादि, ता इति प्राग्वत्, यदा चन्द्र गतिसमापनमपेक्ष्य श्रवणनक्षत्रं गतिसमापन्नं भवति तदा तत् श्रवणनक्षत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद् भागात् पूर्वेण भागेन चन्द्रमसं समासादयति, समासाद्य चन्द्रेण सार्द्ध त्रिंशतं मुहर्त्तान् यावत् योगं युनक्ति, एवंप्रमाणं च कालं यावत् योगं युक्त्या पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्तयति, घनिष्ठा नक्षत्रस्य योगं समर्पयितुमारभते इत्यर्थः, योगमनुपरिवर्त्य च स्वेन सह योगं विप्रजहाति किं बहुना १, विगतयोगी चापि भवति, 'एवमित्यादि एवमुकेन प्रकारेण | एतेनानन्तरोपदर्शितेनाभिलापेन यानि पञ्चदश मुहूर्त्तानि शतभिषग्रप्रभृतीनि नक्षत्राणि यानि त्रिंशन्मुहूर्त्तानि धनिष्ठाप्रभृतीनि यानि च पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि उत्तरभद्रपदादीनि तानि सर्वाण्यपि क्रमेण तावद् भणितव्यानि यावदुत्तरापाढा, तत्राभिलापः सुगमत्यात् स्वयं भावनीयो ग्रन्थगौरवभयात् नाख्यायते इति । सम्प्रति ग्रहमधिकृत्य योग चिन्तां करोति- 'ता जया णमित्यादि ता इति पूर्ववत् यदा णमिति वाक्यालङ्कारे चन्द्रं गतिसमापन्नमपेक्ष्य ग्रहो गति For Par Lise Only ~ 507~ waryru Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप अनुक्रम [११२] I सूर्यप्रज्ञ- समरपन्नो भवति तदा स ग्रहः पौरस्त्याद् भागात-पूर्वण भागेन प्रथमतश्चन्द्रमसं समासादयति समासाद्य च यथास- मामृते प्तिवृत्तिःम्भवं योगं युनक्ति, यथासम्भवं योग युक्त्वा पर्यन्तसमये यथासम्भवं योगमनुपरिवर्तयति, यथासम्भवमन्यस्य ग्रहस्य चन्द्रादीनां ( म लायोग समर्पयितुमारभते इति भावः, योगमनुवर्त्य च खेन सह योग विप्रजहाति, किंबहुना !, विगतयोगी चापि भवति। गांततारत अधुना सूर्येण सह नक्षत्रस्य योगचिन्तां करोति-'ता जया णमित्यादि, ता इति प्राग्यत् , यदा सूर्य गतिसमापन्नम-11 ॥२४॥ मंसू ८४ पक्ष्याभिजिन्नक्षत्रं गतिसमापन भवति तदा तदभिजिन्नक्षत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद् भागात सूर्य समासादयति समासाद्य । चतुरः परिपूर्णान् अहोरात्रान् पञ्चमस्य चाहोरात्रस्य घडू मुहान यावत् सूर्येण सह योगं युनक्ति, एवंप्रमाणं च कालं यावत् I योगं युक्त्या पर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्तयति, श्रवणनक्षत्रस्य योगं समर्पयितुमारभते इति भावः, अनुपरिवर्त्य च ॥ स्वेन सह योग विजहाति विप्रजहाति, किंबहुना ?, विगतयोगी चापि भवति, 'एव'मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण पश्चदशमुहूर्तानां शतभिषमभृतीनां षट् अहोरात्राः सप्तमस्य अहोरात्रस्य एकविंशतिर्मुहर्ताः त्रिंशन्मुहानां श्रवणादीनां त्रयोदश अहोरात्राश्चतुर्दशस्य अहोरात्रस्य द्वादश मुहूत्तोः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानामुत्तरभद्रपदादीनां विंशतिरहोरात्रा एकविंशसितमस्य चाहोरावस्य त्रयो मुहर्ताः क्रमेण सर्वे तावद् भणितच्याः यावदुत्तरापाढानक्षत्र, तत्रोत्तराषाढानक्षत्रगतमभिलापं साक्षादर्शयति-ता जया ण'मित्यादि, सुगर्म, एतदनुसारेण शेषा अप्यालापाः स्वयं वक्तव्याः, सुगमत्वाचा नोपदपर्यन्ते । सम्पति सूर्येण सह ग्रहस्य योगचिन्तां करोति-'ता जया ण'मित्यादि सुगर्म । अधुना चन्द्रादयो नक्ष-II वण मासेन कति मण्डलानि चरन्तीत्येतन्निरूपयितुकाम आह ~508~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक cekc [८४] % दीप अनुक्रम [११२] %-56-5400-59 ताणक्खत्तेणं मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता तेरस मंडलाई चरति, तेरस य सत्तविभागे मंडलालस्स, ता णक्खत्तणं मासेणं सूरे कति मंडलाई चरति ?, तेरस मंडलाई चरति, चोत्सालीसं च सत्तविभागे| मंडलस्स, ता णक्खत्तेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति ?.ता तेरस मंडलाई चरति अद्धसीतालीस मच सत्तट्ठिभागे मंडलस्स । ता चंदेणं मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति, चोइस चउभागाई मंडलाई चरति एगं च चञ्चीससतं भागं मंडलस्स, ता चंदेणं मासेणं सरे कति मंडलाई चरति , ता पपणरस चउभागूणाई मंडलाई चरति, एमं च चवीससयभागं मंडलस्स, ता चंदेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति , ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाई चरति उच्च चउचीससतभागे मंडलस्स, ता उडणा मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता चोइस मंडलाई चरति तीसं च एगट्ठिभागे मंडलस्स, ता उडणाRI मासेणं सरे कति मंडलाइं चरति ?, ता पण्णरस मंडलाई चरति, ता उडणा मासेणं णक्वते कति मंडलाई। काचरति !, ता पण्णरस मंडलाइं चरति पंच य बाबीससतभागे मंडलस्स, ता आदिचेणं मासेणं चंदे कति मंडलाइं चरति , ता चोइस मंडलाई चरति, एकारस भागे मंडलस्स, ता आदिघेणं मासेणं सूरे कति मंडMलाई चरति !, ता पण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाई चरति, ता आदिचेणं मासेणं णक्खत्ते कति मंडलाई। माचरति !, तापण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाइं चरति पंचतीसं च चवीससतभागमंडलाई चरति, ता अभि वहिएण मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति !, ता पणरस मंडलाई तेसीर्ति छलसीयसतभागे मंडलस्स, ताAI ~509~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] दीप अनुक्रम [११३] सूर्यप्रज्ञ- अभिवहितेणं मासेणं सूरे कति मंडलाइं चरति ?, ता सोलस मंडलाई चरति तिहिं भागेहिं ऊणगाई दोहि १५ प्राभूत निवृत्तिःअडयालेहिं सएहिं मंडलं छित्ता, अभिवहिणं मासेणं नक्खत्ते कति मंडलाई चरति ?, ता सोलस मंडलाईन नक्षत्रादि(मल०) चरति सीतालीसएहिं भागेहिं अहियाई चोद्दसहिं अट्ठासीएहिं मंडलं छेत्ता (सूत्र ८५) दीनां चारः II ता नक्खत्ते णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , नक्षत्रेण मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवा- स् ८५ नाह-'तेरसे'त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य मण्डलस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागान् , कथमेतदवसीयते इति चेत उच्यते, त्रैराशिकबलात् , तथाहि-यदि सप्तपट्या नक्षत्रमासैरष्टौ शतानि चतुरशी त्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन | नक्षत्रमासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-६७१८८४।१। अत्रान्त्येन राशिना गुणनं जातः स ताबानेव तस्य सप्तपश्या भागहरणं लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः १३ ।।ता नक्खत्तेण-12 मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह–ता तेरसे'त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य मचतुश्चत्वारिंशतं सप्तपष्टिभागान् , तथाहि-यदि सप्तषट्या नाक्षत्रैर्मासनव शतानि पश्चदशोत्तराणि मण्डलानां सूर्यस्य लभ्यन्ते तत एकेन नाक्षत्रेण मासेन कति मण्डलानि लभामहे !, राशित्रयस्थापना ६७ । ९१५ । १ । अत्रान्त्येन| २५०॥ राशिना मध्यराशेर्गुणनं तत आयेन राशिना भागहारो लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य चतुश्च-11 त्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः १३ ।। 'ता नक्खत्ते'त्यादि नक्षत्रविपर्य प्रश्नसूत्र सुगर्म, भगवानाह-'ता तेरसे'|त्यादि, त्रयोदश मण्डलानि चतुर्दशस्य च मण्डलस्य अर्द्धसप्तचत्वारिंशत-सार्द्धपटूचत्वारिंशतं सप्तपष्टिभागान् चरति, ~510 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [५] दीप अनुक्रम [११३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८५] प्राभृत [१५], ---- ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Jan Education in तथाहि - यदि सप्तपश्या नाक्षत्रैमासैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्द्धमण्डलानि नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन नाक्षत्रेण मासेन किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना - ६७ ११८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, तत | आद्येन राशिना भागहारो लब्धानि सप्तविंशतिरर्द्धमण्डलानि अष्टाविंशतितमस्य चार्द्ध मण्डलस्य पविंशतिः सप्तषष्टिभागाः २७ । । ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेकं मण्डलमित्यस्य राशेरर्द्धकरणे लब्धानि त्रयोदश मण्डलानि चतुर्द ★ शस्य मण्डलस्य सार्द्धाः पट्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः । १३ १४ । सम्प्रति चन्द्रमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलनिरूपणां करोति ता चंद्रेण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, चान्द्रेण मासेन प्रागुक्तस्वरूपेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ?, भगवानाह- 'ता चोहसे त्यादि, चतुर्द्दश सचतुर्भागमण्डलानि चतुर्भागसहितानि मण्डलानि चरति एकं च चतुर्विंशशतभागं मण्डलस्य, किमुक्तं भवति ?- परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्भागं चतुर्विंशत्यधिकश तसत्कमेकत्रिंशद्भागप्रमाणमेकं च चतुर्विंशत्यधिकशतस्य भागं द्वात्रिंशतं पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् चरति, तथाहि--यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १२४ १८८४ । २ । अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातानि सप्तदश शतान्यष्टपथ्यधिकानि १७६८, तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य द्वात्रिंशत् चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः १४ । । 'ता चंद्रेण' मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, 'ता पन्नरसे'त्यादि, पञ्चदश चतुर्भागन्यूनानि मण्डलानि चरति एकं च चतुर्विंशत्यधिकशतभागं मण्डलस्य, For Palata Use On ~511~ waryra Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [५] दीप अनुक्रम [११३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ---- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८५] प्राभृत [१५], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥२५१॥ सूर्यप्रज्ञ । किमुक्तं भवति ? - चतुर्द्दश परिपूर्णानि मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्नवतिं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् चरति, विवृत्तिः ४२) तथाहि---यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि मण्डलानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां किं लभामहे ?, ( मल०) राशित्रयस्थापना - १२४ । ९१५।२ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतेषामायेन राशिना चतुर्थिशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य चतुर्न४) वतिश्चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः ४ इति 'ता चन्द्रेण मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'ता पण्णरसेत्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागन्यूनानि चरति पटू च चतुर्विंशत्यधिकशतभागान् मण्डलस्य, किमुक्तं * भवति ? - परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि चरति पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नवनवतिं चतुर्विंशत्यधिकशतभागान्, तथाहियदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्द्ध मण्डलानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना - १२४ । १८३५ । २ । अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातानि पत्रि शच्छतानि सप्तत्यधिकानि ३६७०, एतेषामाद्येन राशिना चतुर्विंशत्यधिकशतरूपेण भागहरणं, लब्धा एकोनविंशत् शेषा तिष्ठति चतुःसप्ततिः, इदं चार्द्धमण्डलगतं परिमाणं, द्वाभ्यां चार्द्धमण्डलाभ्यामेकं परिपूर्ण मण्डलं ततोऽस्य राशे - द्विकेन भागहारो लब्धानि चतुर्द्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य च मण्डलस्य नवनवतिश्चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः १४ । १२४ । साम्प्रतं ऋतुमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलनिरूपणां करोति- 'ता उउमासेण नंदे' इत्यादि ऋतुमासेन - कर्ममासेन ॥ २५९ ॥ चन्द्रः कति मण्डलानि चरति १, भगवानाह - 'ता चोदसे त्यादि चतुर्द्दश मण्डलानि चरति पञ्चदशस्य मण्ड | Ja Eucation For Para Use Only १५ प्राभूते नक्षत्रादिमासैश्चन्द्रादीनां चारः सू८५ ~512~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५] OCASSEOCOCCANceec मालस्य त्रिंशतमेकपष्टिभागान् , तथाहि-यदि एकपल्या कर्ममासैरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलाना दालभ्यन्ते तत एकेन कर्ममासेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना । ६१४८८४ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककल क्षणेन मध्यराशेगुणनं जातः स तायानेव तस्य एकषष्ट्या भागहरणं लब्धानि परिपूर्णानि चतुर्दश मण्डलानि पञ्चदशस्य । |च मण्डलस्य त्रिंशदेकषष्टिभागाः । १४ । 'ता उउमासेण'मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-'ता पन्नरसे'त्यादि, पञ्चदश परिपूर्णानि मण्डलानि चरति, तथाहि-यद्येक पट्या कर्ममासनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि PAIसूर्यमण्डलानां लभ्यन्ते तत एकेन कर्ममामेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना । ६१ । ९१५ । १। अत्रान्स्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते जातः स तावानेव तस्य एकपट्या भागहरण रब्धानि परिपूर्णानि पञ्चदश मण्डलानि १५, 'ता उउमासेण'मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह--'ता पन्नरसे'त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चरति, पोडशस्य च मण्डलस्य पश्च द्वाविंशशतभागान , तथाहि-यदि द्वारिंशेन कम्ममासशतेनाष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधि|कानि मण्डलानां नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन कर्ममासेन किंठभामहे !, राशित्रयस्थापना १२२ । १८३५ । १ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेगुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना द्वाविंशत्यधिकशतरूपेण भागहरणं लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि पोडशस्य च पञ्च द्वाविंशशतभागाः १५ । ३३ । सम्पति सूर्यमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि । निरूपयति-ता आइचण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , आदित्येन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति !, भगयानाह-चतुर्दश मण्डलानि चरति पञ्चदशस्य च मण्डलस्य एकादश पञ्चभागान् , तथाहि-यदि षष्ट्या सूर्यमासैरष्टौ दीप अनुक्रम [११३] ~513~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२५२ [८५] दीप अनुक्रम [११३] सूर्यप्रज्ञ- शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां चन्द्रस्य लभ्यन्ते तत एकन सूर्यमासेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना- १५प्राभृते तिवृत्तिः ६०1८८४ ॥ १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्य पश्या भागहरणं लब्धानि चतुर्दशनक्षत्रादि(मल मण्डलानि शेषास्तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशत् ४४ तत छेद्यच्छेदकराश्योश्चतुष्केनापवर्त्तना जात उपरितनो राशिरेकादश-मासचन्द्रारूपोऽधस्तनः पश्चदशरूपः लम्धाः पञ्चदशमण्डलस्य एकादशभागाः १४ ।। 'ता आइमोण'मित्यादि सूर्यविषयं दीनां चारः दान प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-पादश चतुर्भागाधिकानि मण्डलानि चरति, तथाहि-यदि पट्या सूर्यमासनेय शतानि पञ्च-11 वादशोत्तराणि मण्डलानां सूर्यस्य लभ्यन्ते तत एकेन मासेन किं लभामहे , राशिवयस्थापना ६० ॥ ९१५ । १ । अत्रा-11 सत्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्य पछ्या भागहरणं लब्धानि पञ्चदश भण्डलानि पोडशस्य च पष्टिभागविभक्तस्य पञ्चदशभागात्मकश्चतुर्भागः । १५ ।'ता आइचेण मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र |सुगमम् , भगवानाह–ता पण्णरसे'त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागाधिकानि पञ्चविंशतं विंशत्यधिकशतभागान मण्डलस्य चरति, किमुक्तं भवति !-पोडशस्य च मण्डलस्य पचत्रिंशतं विंशत्यधिकशतभागान चरति, तथाहि-यदि पिं-18 शेन सूर्यमासातेनाष्टादश दातानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मण्डलानां नक्षत्रस्य लभ्यन्ते तत एकेन सूर्यमासेन किं लभ्यते । राशित्रयस्थापना-१२० । १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुणितो जासस्तावानेव तस्य विंशत्यधिकेन । शतेन भागहरणं लब्धानि पञ्चदा मण्डलानि पञ्चत्रिंशच्च विंशत्यधिकशतभागाः षोडशस्य १५ । ३५. अधुना अभिव-४॥२५॥ डितमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलानि निरूपयन्नाह-'ता अभिवहिएण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अभिवर्द्धि ~514 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५] दीप अनुक्रम [११३] तेन मासेन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति ?, भगवानाह-ता पण्णरसे' त्यादि, पञ्चदश मण्डलानि परति पोडशस्या ४च मण्डलस्य व्यशीतिः चतुरशीत्यधिकशतभागान् , तथाहि-अत्रैवं राशिक-इह युगेऽभिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशत्र सप्त चाहोरात्रा एकादश मुह खयोविंशतिश्च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, एष च राशिः सांश इति न राशिककर्मविषयस्ततः परिपूर्णमासप्रतिपत्त्यर्थमयं राशिः षट्पञ्चाशदधिकेन शतेन गुण्यते, जातानि परिपूर्णानि नवाशीतिः शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि अभिवतिमासाना, किमुक्तं भवति !-पट्पञ्चाशदधिकशतसङ्ख्येषु युगेषु एतावन्तः परिपूर्णा अभि-12 LSIवद्धितमासाः लभ्यन्ते, एतच्च द्वादशप्राभृते सूत्रकृतैव साक्षादभिहितं, ततस्वैराशिककर्मावतार:-यशष्टाविंशत्यधिकैर-1 भिवतिमासैनवाशीतिशतैः पट्पञ्चाशदधिकशतसङ्ख्ययुगभाविभिश्चन्द्रमण्डलानामेकं लक्षं सप्तत्रिंशत्सहस्राणि नवी शतानि चतुरुत्तराणि लभ्यन्ते तत एकेनाभिवद्धितमासेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना-८९२८ ॥ १३७९०४ ॥ १॥ अचान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेस्ताडनाजातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ८९२८ भागहरणं लब्धानि । पञ्चदश मण्डलानि १५ शेषमुद्धरति एकोनचत्वारिंशत् शतानि चतुरशीत्यधिकानि ३९८४, तत छेद्यच्छेदकराश्योरष्टाचत्वारिंशताऽपवर्तना जात उपरितनो राशिरुयशीतिरधस्तनः पडशीत्यधिक शतं आगतं षोडशमण्डलस्य व्यशीतिः। पडशीत्यधिकशतभागाः। 'ता अभिवहिएणमित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-सोलसे'त्यादि, पोडश मण्डलानि बिभिर्भागैन्यूनानि चरति, मण्डलं द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंशदधिकाभ्यां शताभ्यां छित्त्या, तथाहि-यदि षट्प-121 बाशदधिकशतसययुगभाविभिरष्टाविंशत्यधिकरभिवर्द्धितमासैनवाशीतिशतैः सूर्यमण्डलानामेकं लक्षं द्विचत्वारिंशत्स ~515 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -1, -------------------- मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५] दीप अनुक्रम [११३] सूर्यमज्ञ- हस्राणि सक्ष शतानि चत्वारिंशदधिकानि लभ्यन्ते तत एकेनाभिवद्धितमासेन किं लभामहे 1, राशिनयस्थापना ८९२८॥ १५ प्राभूते तिवृत्तिः | १४२७४०११। अत्राम्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशिगुण्यते जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ८९२८ नक्षत्रादि(मळ०) भागो हियते लब्धानि पञ्चदश मण्डलानि १५ शेषमुद्धरन्ति अष्टाशीतिः शतानि विंशत्यधिकानि ८८२० ततश्छेद्य- मा च्छेदकराश्योः पशिताऽपवर्त्तना जात उपरितनो राशिः द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके २४५ अधस्तनो द्वे शते अष्टाच॥२५३|| | त्वारिंशदधिके २४८ आगतं षोडशं मण्डलं विभिभांगैyनं द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंशदधिकाभ्यां शताभ्यां प्रविभक्त २४८ 11 सू ८५ 'ता अभिवहिएण'मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-'ता सोलसे'त्यादि, पोडश मण्डलानि सप्तच-14 Xत्वारिंशता भागैरधिकानि चतुवाभिः शतैरष्टाशीत्यधिकर्मण्डलं छित्त्या, तथाहि-यदि पट्पनाशदधिकशतसङ्ग्य युगभा-15 विभिरभिवतिमानवाशीतिशारष्टाविंशत्यधिक क्षत्रमण्डलानामेकं लक्ष त्रिचत्वारिंशत् सहस्राणि शतमेकं त्रिंशद-15 आधिकं लभ्यते ततः एकेनाभिवद्धितमासेन किं लभामहे 1, राशित्रयस्थापना । ८९२८ । १४३१३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ८९२८ भागो झियते लब्धानि षोडश मण्डलानि शेषमुद्धरति द्वे शते यशोत्यधिक २८२ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योः पदेनापवर्तना जाता उपरि सप्तचत्वारिंशत् |४७ अधस्तु चतुर्दश शतान्यष्टाशीत्यधिकानि १४८८ आगताः सप्तचत्वारिंशत् अष्टाशीत्यधिकचतुर्दशशतभागाः । सम्पप्रत्येकैकेनाहोरात्रेण चन्द्रादयः प्रत्येकं कति मण्डलानि चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह ता एगमेगेणं अहोरतेणं चंदे कति मंडलाई चरति ?, ता एगं अद्धमंडलं चरति एकतीसाए भागेहिं ऊणं! RECORDARSHAN SARELIEatunintentTATERIA ~516 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [११४] दाणवहिं पण्णरसेहिं अद्धमंडलं छेत्ता, ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं सूरिए कति मंडलाई चरति ?, ता एगं अद्धम-18 पडलं चरति, ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं णक्खत्ते कति मंडलाई चरति,ता एग अद्धमंडलं चरति दोहि भागेहि अधियं सत्तहिं बत्तीसेहिं सरहिंषद्धमंडलं छेत्ता । ता एगमेग मंडलं चंदे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरति !, ता| दोहिं अहोरत्तेहिं चरति एकतीसाए भागेहिं अधितेहिं चउहिं चोतालेहिं सतेहिं राईदिएहि छेत्ता, ता एगमेगं मंडलं सूरे कतिहिं अहोरत्तेहिं चरति ?, ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरति, ता एगमेगं मंडलं णकूखत्ते कतिहिं| अहोरत्तेहिं चरति !, ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरति दोहिं ऊणेहिं तिहिं सत्तसद्धेहिं सतेहिं राईदिएहि | लाछेत्ता । ता जुगेणं चंदे कति मंडलाई चरति !, ता अट्ट चुल्लसीते मंडलसते चरति, ता जुगेणं सरे। कति मंडलाई चरति !, ता णवपण्णारमंडलसते चरति, ता जुगेणं णक्खत्ते कति मंडलाई परति P.IN माता अट्ठारस पणतीसे दुभागमंडलसते चरति । इच्चेसा मुहुत्तगती रिक्खातिमासराईदियजुगमंडलपविभत्ता सिग्घगती वत्थु आहितेत्ति बेमि ।। (सूत्र० ८६ ) पन्नरसमं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता एगमेगेणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एकैकेनाहोरात्रेण चन्द्रः कति मण्डलानि चरति !, भगवानाह--'ता| एग'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डल चरति एकत्रिंशता भागैन्यूंनं नवभिः पञ्चदशोत्तरै! शतरर्द्धमण्डलं छित्त्या, तथाहिरात्रिन्दिवानामष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सप्तदश शतानि अष्टषष्ठ्यधिकानि अर्द्धमण्डलानां चन्द्रस्य लभ्यन्ते तत: एकेन रात्रिन्दिवेन किं लभ्यते !, राशित्रयस्थापना १८३० । १७६८ ॥ १। अत्रान्त्येन राशिना, एककलक्षणेन मध्य ~517~ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [११४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८६] प्राभृत [१५], ---- ----- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञमिवृत्तिः ( मल० ॥२५४॥ Eucation Internation राशिर्गुण्यते जातः स तावानेव तस्याद्येन राशिना १८२० भागहरणं, स चोपरितनस्य राशेः स्तोकत्वाद् भार्ग न लभते ततभ्छेद्यच्छेदकराश्योद्धिं केनापवर्त्तना जातः उपरितनो राशिरष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि अधस्तनो नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ६५ । तत आगतमेकत्रिंशता भागेयूनमेकमर्द्धमण्डलं नवभिः पञ्चदशोत्तरैः प्रविभक्तमिति । 'ता एग ● मेगेण मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'ता एग मित्यादि, एकमर्द्धमण्डलं चरति, एतच्च सुप्रतीतमेव, 'ता एगमेगेण' मित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'ता एगमेगेण'मित्यादि, एकमर्द्धमण्डलं द्वाभ्यां भागाभ्यामधिकं चरति द्वात्रिंशदधिकैः सप्तभिः शतैरर्द्धमण्डलं छित्वा तथाहि यद्यहोरात्राणामष्टादशभिः शतैस्त्रिंशद| धिरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि नक्षत्राणामर्द्ध मण्डलानि लभ्यन्ते तत एकेनाहोरात्रेण किं लभ्यते ?, राशित्रयस्थापना १८३० । १८३५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एककरूपेण मध्यराशेर्गुणना जातः स तावानेव तस्याद्येन राशिना १८३० भागहरणं लब्धमेकमर्द्धमण्डलं दोषस्तिष्ठन्ति पञ्च ततछे यच्छेद कराइयोरर्द्धट नीचैरपवर्त्तना जातावुपरि द्वौ अधस्तात् सर्वेशतानि द्वात्रिंशदधिकानि, लम्धौ द्वौ द्वात्रिंशदधिकसप्तशतभागी २२ । अधुना एकैकं परिपूर्ण मण्डलं ॐ चन्द्रादयः प्रत्येकं कतिभिरहोरात्रैश्चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह- 'ता एग' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् एकैकं मण्डलं चन्द्रः कतिभिरहोरात्रैश्वरति १, भगवानाह - 'ता दोहिं' इत्यादि द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति एकत्रिंशता भागैरधिकाभ्यां चतुर्भिश्चत्वारिंशदधिकैः शतैः रात्रिन्दिवं छिया, तथाहि-- यादे चन्द्रस्य मण्डलानामष्टभिः शतैश्चतुरशीत्यधिकैरहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि लभ्यन्ते तत एकेन मण्डलेन कति रात्रिन्दिवानि लभामहे ?, राशित्रय For Parts Only ~ 518~ १५ प्राभूते चन्द्रादीना महोरात्रम ण्डलयुगगतयः सू८६ ॥२५४॥ wor Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१५], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 25 प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [११४] 360-70-54 स्थापना ८८४ | १८३०११। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना चतुरशीत्य-18 |धिकाष्टशतप्रमाणेन भागहरण लब्धौ द्वावहोरात्री शेषास्तिष्ठति द्वाषष्टिः ६२ ततश्छेद्यच्छेदकराश्योदिकेनापवर्चना जात उपरितनो राशिरेकत्रिंशद्रूपोऽधस्तनश्चत्वारि शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि आगतं एकत्रिंशत् द्विचत्वारिंशद-18 अधिकचतुःशतभागाः । 'ता एगमेग'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , एकैकं मण्डलं सूर्यः कतिभिरहोरात्रैश्चरति !, भगयानाह-'ता दोहिं'इत्यादि, द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति, तथाहि-यदि सूर्यस्य मण्डलानां नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तररष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि अहोरात्राणां लभ्यन्ते तत एकेन मण्डलेन कति अहोरात्रान् लभामहे !, राशित्रयस्थापना-९१५ । १८३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना ९१५ भागहरणं | |लब्धौ द्वायहोरात्राविति । 'ता एगमेग'मित्यादि ता इति पूर्ववत् एकैकमात्मीयं मण्डल नक्षत्र कतिभिरहोरात्रैश्चरतिी, भग-1 यानाह-'ता दोहिं'इत्यादि, द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां द्वाभ्यां भागाभ्यां हीनाभ्यां त्रिभिः सप्तपष्टः-सप्तपश्यधिक शतै रात्रिन्दिवं| छित्त्या, तथाहि-यदि नक्षत्रस्य मण्डलानामष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकैः पट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि राबिन्दियानां 13 दालभामहे तत एकेन मण्डलेन किं लभामहे!,राशित्रयस्थापना १८३५ । ३६६० । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेस्ताडनं जातः स तावानेव तस्यायेन राशिना १८३५ भागहरणं लब्धमेकं रात्रिन्दिवं शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १८२५ ततछेपच्छेदकरायोदि केनापवर्त्तना जात उपरितनो राशिः त्रीणि शतानि पञ्चषध्यधिकानि छेद-15 राशिखीणि शतानि सप्तषष्ठयधिकानि 1 तत आगतं द्वाभ्यां सप्तषष्टपधिकत्रिशतभागाभ्यां हीनं द्वितीयं रात्रिन्दि-| ForpormonwePIVARIUMORN ~519~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [११४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ------ प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८६] प्राभृत [१५], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ• वृत्तिः ( मढ० ) ॥२५५॥ Jain Education Intermati महोरात्रमण्डलयुगगतयः सू८६ वमिति । सम्प्रति चन्द्रादयः प्रत्येकं कति मण्डलानि युगे चरन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाह- 'ता जुगे णमित्यादि, ता इति १५ प्राभूते पूर्ववत्, युगेन कति मण्डलानि चरति ?, भगवानाह - 'ता अट्ठेत्यादि, ता इति पूर्ववत्, अष्टौ मण्डलशतानि चतुर- ४ चन्द्रादीना शीत्यधिकानि चरति, चन्द्रः एकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या शतैः प्रविभक्तस्य मण्डलस्याष्ट्रपश्यधिकसप्तदशशतसङ्ख्यान भागान् एकेन मुहूर्त्तेन गच्छति, युगे च मुहूर्त्ताः सर्वसत्या चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि ततः सप्तदश शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि चतुःपश्चाशता सहस्रैर्नषभिश्च शतैर्गुण्यन्ते जाता नव कोटयः सप्ततिक्षास्त्रिषष्टिः सहस्राणि द्वे शते ९७०६३२०० ततोऽस्य राशेरेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः १०९८०० मण्डलानयनाव भागो बिते, लब्धानि अष्टौ | शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानामिति 'ता जुगेण' मित्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'ता नवपण्णरसेत्यादि, ता इति पूर्ववत्, नय मण्डलशतानि पञ्चदशाधिकानि चरति, तथाहि यदि द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामेकं सूर्य| मण्डलं लभ्यते ततः सकलयुगभाविभिरष्टादशभिरहो। प्रशतैस्त्रिंशदधिकैः कति मण्डलानि लभ्यन्ते १, राशि त्रयस्थापना | २ | १|१८३० । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० तेपामाद्येन राशिना द्विकरूपेण भागहरणं लब्धानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ । 'ता जुगेणमित्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'ता अट्ठारसे' त्यादि, अष्टादश द्विभागमण्डलशतानि - अर्द्ध मण्डल शतानि पञ्चत्रिंशानि पञ्चत्रिंशदधिकानि चरति, तथाहि--नक्षत्रमेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः प्रविभक्तस्य मण्डलस्य सत्कान् पञ्चत्रिंशदधिकाष्टादशशतसङ्ख्यान् भागान् एकेन मुहूर्त्तेन गच्छति, युगे च मुहूर्त्ताः सर्वसङ्ख्या चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नव शतानि, For Use On ~ 520~ ॥२५५॥ www.janelbrary o Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [११४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८६] प्राभृत [१५], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ततस्तैश्चतुःपञ्चाशता सहस्त्रैर्नवभिः शतैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गुण्यन्ते, जाता दश कोटयः सप्त लक्षा एक| चत्वारिंशत्सहस्राणि पञ्च शतानि १००७४१५००, अर्द्धमण्डलानि चेह ज्ञातुमिष्टानि तत एकस्य शतसहस्रस्याष्टानवतेश्व | शतानामर्द्धे यानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि नय शतानि तैर्भागो हियते, लब्धानि अष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि | अर्द्ध मण्डलानामिति । सम्प्रति सकलप्राभृतग तमुपसंहारमाह--' इचेसा मुहुत्तगई' इत्यादि, इति एवमुक्तेन प्रकारेण एषाअनन्तरोदिता मुहूर्त्तगतिः प्रतिमुहूर्त चन्द्र सूर्य नक्षत्राणां गतिपरिमाणं तथा ऋक्षादिमासान्-नक्षत्रमासं चन्द्रमासं सूर्यमासमभिवर्द्धितना तथा रात्रिन्दिवं तथा युगं चाधिकृत्य मण्डलप्रविभक्तिः- मण्डलप्रविभागो वैविकत्येन मण्डलसङ्ख्यामरूपणा इत्यर्थः तथा शीघ्रगत्तिरूपं वस्तु आख्यातमित्येतद् ब्रवीमि अहं, इदं च भगवद्वचनमतः सम्यक्त्वेन पूर्वोक्तं श्रद्धेयं ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां पञ्चदशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ तदेवमुक्तं पञ्चदशं प्राभृतं सम्प्रति षोडशमारभ्यते, तस्य चायमर्धाधिकारो यथा 'कथं ज्योत्स्नालक्षणमाख्यात' मिति तत एवं रूपमेव प्रश्नसूत्रमाह ता कहते दोसिणाखणे आहितेति बदेखा ? ता चंदलेसादी य दोसिणादी य दोसिणाई य चंदले* सादी य के अहे लिक्खणे १, ता एकट्ठे एगलक्खणे, ता सूरलेस्सादी य आयवेद य आतवेतिय सूरतेस्सादी य के अहे किंलक्खणे ?, ता एगट्ठे एगलक्खणे, ता अंधकारेति य छायाइ य छायाति य अंधकारे लि य के अट्ठे किंलक्खणे ?, ता एगट्टे एगलक्खणे || (सूत्रं० ८७) सोलसमं पाहुडं समत्तं ॥ | अत्र पञ्चदशं प्राभृतं परिसमाप्तं For Parts Only अथ षोडशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 521~ www.ra Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१६], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत (मल) सूत्रांक H८० [८७] दीप अनुक्रम [११५] सूर्यमश-13 ता कहते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! ते-त्यया ज्योत्स्नालक्षणमाख्यातं इति वदेत् प्राभूत तिवृत्तिः एवं सामान्यतः पृष्ट्वा विवक्षितप्रष्ट व्यार्थप्रकटनाय विशेषमश्नं करोति,'ता चंदलेसाई इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , चन्द्र- पार (ग्रंथ ८००० ) लेश्या इति ज्योत्स्ना इति अनयोः पदयोरथवा ज्योत्स्ना इति चन्द्रलेश्या इत्यनयोः पदयोः, इहाक्षरा-1 ॥२५६॥ णामानुपूर्वीभेदेनार्थभेदो दृष्टः, यथा वेदो देव इति, पदानामपि चानुपूर्वीभेददर्शनादर्थभेददर्शनं यथा-पुत्रस्य गुरुः |गुरोः पुत्र इति, तत इहापि कदाचिदानुपूर्वीभेदादर्थभेदो भविष्यतीत्याशङ्कायशाचन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्युक्त्या ज्योत्स्ना इति चन्द्रलेच्या इत्युक्तं, अनयोः पदयोरानुपूा अनानुपूा या व्यवस्थितयोः कोऽर्थः, किं परस्परं भिन्न उता-IN |भिन्न इति , स च किंलक्षणः-किस्वरूपो लक्ष्यते-तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येन तल्लक्षणं-असाधारण स्वरूपं किं लक्षणं-12 असाधारणं स्वरूपं यस्य स तथा, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-'ता एगट्टे एगलक्खणे' इति, ता इति पूर्ववत्, चन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्यनयोः पदयोरानुपूा अनानुपूर्ध्या वा व्यवस्थितयोरेक एव-अभिन्न एवार्थः, य एव एकस्य | पदस्य वाच्योऽर्थः स एव द्वितीयस्यापि पदस्येति भावः, एगलक्खणे' इति एक-अभिन्नमसाधारणस्वरूपं लक्षणं | | यस्य स तथा, किमुक्कं भवति ?-यदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेन पदेन वाच्यस्यासाधारणं स्वरूप प्रतीयते तदेव ज्योत्स्ना | इत्यनेनापि पदेन, यदेव च ज्योत्स्ना इत्यनेन पदेन तदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेनापि पदेनेति, एवं आतप इति सूर्यलेश्या इति यदिवा सूर्यलेश्या इति आतप इति, तथा अन्धकार इति छाया इति अधवा छाया इति अन्धकार इति, तेषु पदेषु विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां पोडशं प्राभूतं समाप्तम् ॥ -950-6065804 | अत्र षोडशं प्राभृतं परिसमाप्तं ~522~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ee] दीप अनुक्रम [११६] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८८] प्राभृत [१७], ----- ---- प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education International तदेवमुक्तं षोडशं प्राभृतं सम्प्रति सप्तदशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः च्यवनोपपाती वक्तव्याविति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते चयणोववाता आहितेति बदेखा ?, तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णताओ, तत्थ एगे एवमाहंसु ता अणुसमयमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववनंति एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमुहतमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे उपबति २ एवं जब हा तहेब जाव ता एगे पुण एवमाहंसु ता अणुओसप्पिणी उस्सप्पिणीमेव चंदिमसूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववति एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं बदामो-ता चंदिमसूरियाणं देवा महिहीआ महाजुतीया महाबला महाजसा महासोक्खा महाणुभावा वरवत्थधरा वरमलधरा वरगन्धधरा वराभरणधरा अघोछित्तिणपट्टताए काले | अण्णे चयंति अण्णे उववर्जति ॥ सूत्रं ८८ ) सत्तरसमं पाहुडं समत्तं ॥ 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति प्राग्वत् कथं ?-केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया चन्द्रादीनां चयवनोपपाती व्याख्याताविति यदेत् ?, सूत्रे च द्विवेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् उक्तं च- "बहुधयणेण दुवयण" मिति प्रश्ने कृते भगवानेतद्विपये यावत्यः प्रतिपत्तयः सन्ति तावती रुपदर्शयति तत्थे' त्यादि, तत्र ध्ययनोपपातविषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः- परतीर्थिकाभ्युपगमरूपराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - 'तत्येंगे इत्यादि, तत्र तेषां पञ्चविंशतेः परतीर्थिकानां मध्ये एके-परतीर्थिका एवमाहुः, ता इति तेषां प्रथमं स्वशिष्यं प्रत्यने कवक्तव्य तोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, अनुसम्य For Par Use Only अथ सप्तदशं प्राभृतं आरभ्यते ~ 523~ wor Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ce] दीप अनुक्रम [११६] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) ----- प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [८८] प्राभृत [१७], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥ २५७॥ मेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्चययन्ते च्यवमानाः अन्येऽपूर्वा उत्पद्यन्ते - उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत्, अत्रोपसंहारः-- एके एवमाहुः, एके पुनरेयमाहुः अनुमुहूर्त्तमेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पन्नाच्यवन्ते व्ययमानाः अन्येऽपूर्वा उत्पद्यन्ते उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत्, उपसंहारमाह- 'एगे एवमाहंस एवं जहा हिट्ठा तहेब जावे त्यादि एवं उक्तेन प्रकारेण यथा अघस्तात् षष्ठे प्राभृते ओजःसंस्थितौ चिन्त्यमानायां पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तय उक्तास्तथैवात्रापि वक्तव्याः, यावद् 'अणुओसप्पिणिउस्सप्पिणिमेवेत्यादि चरमसूत्रं, ताश्चैवं भणितव्या:-'एगे पुण एवमाहंसु ता अणुराईदियमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयंति अन्ने उबवज्जंति आहियाति बएज्जा, एगे एवमाहंसु ३, एगे पुण एचमाहंसु ता एव अणुपक्खमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयंति अन्ने उववज्र्जति आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु ४ एगे पुण एवमाहंसु ता अणुमासमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयंति अन्ने उववज्र्ज्जति आहियत्ति बएज्जा एगे एवमाहंसु ५ एगे पुण एवमाहंसु ता अणुउडमेव चंदिमसूरिया अन्ने चयंति अन्ने उववजंति आहियत्ति वएज्जा एमे एवमाहंसु ६ एवं ता अणुअयणमेव ७ ता अणुसंवच्छरमेव ८ ता अणुजुगमेव ९ ता अणुवाससयमेव १० ता अणुवाससहरसमेव ११ ता अणुवाससय सहरसमेघ १२ ता अणुपुवमेव १३ ता अणुपुपसयमेव १४ ता अणुसहस्समेष १५ ता अणुपुवसय सहरसमेव १६ ता अणुपलि ओवममेव १७ ता अणुपलिओयमसयमेव १८ ता अणुपलि ओवमसहरसमेव १९ ता अणुपछि ओवमस्य सहरसमेव २० ता अणुसागरोवममेव २१ ता अणुसागरोवमसयमेव २२ ता अणुसागरोवमसहस्तमेव २३ ता अणुसागरोवमसयस हस्तमेव २४” पञ्चविंशतितमप्रतिपतिसुत्रं तु साक्षादेव सूत्रकृता दर्शितं, तदेवमुक्ताः परतीर्थिकप्रतिपत्तयः, एताश्च सर्वा अपि मिथ्यारूपास्तत एताभ्यः For Parts Only ~ 524~ १७ प्राभृते च्यवनोपपाती सू८८ ॥२५७॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१७], -------------------- प्राभृतप्राभृत -], -------------------- मूलं [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८८] दीप पृथग्भूतं स्वमतं भगवानुपदर्शयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञाना एवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेवी कारमाह-ता चंदिम'त्यादि, ता इति पूर्ववत् चन्द्रसूर्या णमिति वाक्पालकारे देवा 'महडिका' महती ऋद्धिर्वि-II INमानपरिवारादिका येषां ते तथा, तथा महती द्युतिः-शरीराभरणाश्रिता येषां ते महाद्युतयः, तथा महत् बलं-शारीरः। माणो येषां ते महाबलाः, तथा महत्-विस्तीर्ण सर्वस्मिन्नपि जगति विस्तृतत्वात् यशः-लाघा येषां ते महायशसः, तथा महान अनुभावो-क्रियकरणादिविषयोऽचिन्त्यः शक्तिविशेषो येषां ते महानुभावाः, तथा महत्-भवनपतिव्यन्तरेभ्योऽतिप्रभूतं तदपेक्षया तेषां प्रशान्तत्वात् सौख्यं येषां ते महासौख्याः, वरयखधरा माल्यधरा वरगन्धधरा वराभरणधरा अव्यवच्छिन्ननयार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन काले-वक्ष्यमाणप्रमाणस्वस्वायुर्व्यवच्छेदे अन्ये पूर्वोत्पन्नाश्यवन्तेच्यवमानाः अन्ये तथाजगत्स्वाभाव्यारषण्मासादारतो नियमतः उत्पद्यन्तेउत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् स्खशिष्येभ्यः।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां सप्तदर्श प्राभृतं समाप्तम् ।। म तदेवमुक्त सप्तदर्श प्राभूत, साम्पतमष्टादशमारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः यथा-'चन्द्रसूर्यादीनां भूमेरूर्वमुच्चत्वप्रमाणं वक्तव्य मिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कहं ते उच्चत्ते आहितेति बदेला, तत्व खलु इमामो पणवीसं पडिवत्तीओ, तत्धेगे एवमाहंसु-ता Pाएगे जोपणसहस्सं सूरे उहं उच्चत्तेणं दिवई चंदे एगे एवमासु १ एगे पुण एवमाहंसु ता दो जोयणसह|स्साई सूरे उर्दु उचत्तेणं अहातिजाई चंदे एगे एवमाहंसु २ एगे पुण एवमासु ता तिन्नि जोपणसहस्साई k- 24 अनुक्रम [११६] अत्र सप्तदशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ अष्टादशं प्राभृतं आरभ्यते ~525 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा दीप अनुक्रम [११७-१२२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१८], प्राभृतप्राभृत [ - ], मूलं [ ८९-९३ ] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञतिवृत्तिः ( मल० ॥२५८॥ सूरे उहूं उच्चत्तर्ण अजुट्ठाई चंदे एगे एवमाहंसु ३ एमे पुण एवमाहंसु ता चत्तारि जोयणसहस्साई सूरे उहं उत्तणं पंचमाई चंदे एगे एवमाहंसु४एगे पुण एवमाहंसु ता पंच जोपणसहस्साई सूरे उ उच्चसे अज छट्टाई चंदे एगे एवमाहंसु ५ एगे पुण एवमाहंसु ता छ जोयणसहस्साई सूरे उ उच्चतेणं असत्तमाई चंदे एगे एवमाहंसु ६ एगे पुण एवमाहंसु ता सत्त जोपणसहस्साई सूरे उ उच्चरोणं अद्धट्टमाई चंदे एगे एव माहंसु ७ एगे पुण एवमाहंसु ता अट्ठ जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चन्तेणं अडनवमाई चंदे एगे एवमाहंसु ८ एगे पुण एवमाहंसु ता नव जोयणसहस्साई सूरे उ उबसेणं अदसमाई चंदे एगे एवमाहंसु ९ पुण एवमाहंसु ता दस जोयणसहस्साई सूरे पहुं उच्चत्तेणं अएकारस चंदे एगे एवमाहंसु १० एगे पुण एवमाहंसु एक्कारस जोयणसहस्साई सरे उहं उच्चतेणं अद्धबारस चंदे ११ एतेणं अभिलावेणं तवं वारस सूरे अद्धतेरस चंदे १२ तेरस सूरे अद्धचोदस चंदे १३ चोदस सूरे अद्धपण्णरस चंदे १४ पण्णरस सूरे अद्धसोलस चंदे १५ सोलस सूरे अद्धसत्तरस चंदे १६ सत्तरस सूरे अद्धअट्ठारस चंदे १७ अङ्कारस सूरे अद्धएकूणवीसं चंदे १८ एकोणवीसं सूरे अद्धवीसं चंदे १९ वीसं सूरे अद्धraati चंदे २० एकari सूरे अद्धबाबीसं चंदे २१ बावीसं सूरे अद्धतेवीसं चंदे २२ तेवीसं सूरे अडचडवी चंदे २३ चडवीसं सूरे अद्धपणवीसं चंदे २४ एगे एवमाहंसु एगे पुण एवमाहंसु पणवीस जोपणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अछवीसं चंदे एगे एवमाहंसु २५ । वयं पुण एवं वदामो-ता इमीसे रपणष्पभाए पुढबीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सत्त For Pasta Use Only ~526~ १८ प्राभृते चन्द्रसूर्याच सू८९ ॥२५८॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा उइजोयणसए उडे उप्पतित्ता हेडिल्ले ताराविमाणे चारं चरति अट्ठजोयणसते उडे उप्पतित्ता सूरविमाणे । चारं चरति अट्ठअसीए जोयणसए उहं उपइत्ता चंदविमाणे चारं चरति णव जोयणसताई उई उप्पतित्ता उचरिं ताराविमाणे चारं चरति, हेद्विल्लातो ताराविमाणातो दसजोयणाई उई उप्पतित्ता सूरविमाणा चारं चरंति नउति जोयणाई उई उम्पतित्ता चंदविमाणा चारं चरति दसोत्तरं जोयणसतं उहूं उप्पतित्ता उप-11 रिल्ले तारारूवे चारं चरति, सूरविमाणातो असीति जोयणाई उई उप्पतित्ता चंदविमाणे चार चरति जोय|सतं उहूं उप्पतित्ता उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति, ता चंदविमाणातो णं वीसं जोयणाई उहुं उप्पतित्ता उवरिल्लते तारारूवे चारं चरति, एवामेव सपुवावरेणं दसुत्तरजोयणसतं पाहले तिरियमसंखेजे जोतिस-11 विसए जोतिसं चारं परति आहितेति घदेजा। (सूत्र ८९)ता अस्थि णं चंदिमसूरियाणं देवाणं हिडपि । | तारारूवा अणुंपि तुल्लावि समंपि तारारुवा अणुंपि तुल्लावि उपिपि तारारूवा अपि तुल्लावि?, ता अस्थि, |ता कहं ते चंदिमसूरियाणं देवाणं हिडंपि तारारूबा अणुंपि तुल्लावि समपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि उपिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि, ता जहा जहा ण तेसि णं देवाणं तवणियमयंभचेराई उस्सिताई भवंति |तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं भवति, तं०-अणुते वातुल्लसे वा, ता एवं खलु चंदिमसूरियाणं देवाणं हिट्ठपि | तारारूबा अणुपि तुल्लावि तहेब जाव उपिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि (सूत्र९०) ता एगमेगस्स णं चंदस्स | | देवस्स केवतिया गहा परिवारो पं० केवतिया णक्खत्ता परिवारोपण्णत्तो केवतिया तारा परिवारो पण्णतो?, दीप अनुक्रम [११७ -१२२ ~527~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) ""सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्तिवृत्तिः | * सूत्रांक [८९-९३] *50- गाथा प ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स अट्ठासीतिगहा परिवारो पण्णत्तो, अट्ठावीसं णखत्ता परिवारो पण्णतो, १८ प्राभृते (मल०) 'छावहिसहस्साई णव चेव सताई पंचुत्तराई (पंचसयराई)। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥१॥ चन्द्रादेरु सपरिवारो पं० (सूत्रं९१) ता मंदरस्सणं पढतस्स केवतियं अयाधाए (जोइसे)चार चरति ?, ता एक्कारस एकवीसे चत्वं तारक ॥२५९॥ जोयणसते अबाधाए जोइसे चार चरति, ता लोअंतातोणं केवतिय अबाधाए जोतिसे पं०१.ताएकारस एकारेगावाताद जोयणसते अबाधाए जोइसे पं० (सूत्र९२) ता जंबुद्दीवेणं दीवे कतरे णक्वत्ते सबभंतरिलं चार चरति कतरे शेणखत्ते सबबाहिरिलं चारं चरति कयरे णक्खत्ते सब्बुबरिल्लं चारं चरति कयरे णक्खत्ते सबहिटिलं चार भ्यन्तरचा चर, अभीयी णक्खत्ते सबम्भितरिलं चारं चरति, मूले णक्खत्ते सवबाहिरिल्लं चारं चरति, साती ण-IA &खते सम्बुपरिलं चार चरति, भरणी णक्खत्ते सबहेडिल्लं चारं चरति (सूत्रं ९३) |८९-९३ | 'सा कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया भूमेरुदै चन्द्रादीनामुन्थत्वमाख्या तमिति वदेत् , एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयः तावतीरुपदर्शयति-तत्थेत्यादि, तत्र-उच्चत्वविषये &खल्यिमाः वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः-परतीथिकाभ्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः, ता एवं 'तत्थेगे' इत्यादिना ४ दर्शयति, तत्र-तेषां पञ्चविंशतेः परतीर्धिकानां मध्ये एके परतीथिका एवमाहुर, ता इति पूर्ववत् एकं योजनसहनं सूर्योIC॥२५९॥ | भूमेरुर्ध्वमुश्वरपेन व्यवस्थितो बर्द्ध-सार्द्ध योजनसहस्र भूमेरू चन्द्रः, किमुक्तं भवति ?-भूमेरूष योजनसहने गते | |अत्रान्तरे सूर्यो व्यवस्थितः, सार्दै च योजनसहस्र गते चन्द्रः, सूत्रे च योजनसङ्ख्यापदस्य सूर्यादिपदस्य च तुल्याधिकर %- राः सू 5 दीप अनुक्रम [११७ -5 -१२२ ~528~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] ARRC गाथा ताणत्वनिर्देशोऽभेदोपचारात् , यथा पाटलिपुत्रात् राजगृह नव योजनानीत्यादौ, एवमुत्तरेष्वपि सूत्रेषु भावनीय, अत्रोपसंहा|रमाह-'एगे एवमासु' १, एके पुनरेवमाहुः ता इति पूर्ववत् , द्वे योजनसहने भूमेरूर्व सूर्यो व्यवस्थितः अर्द्धतृतीयानि योजनसहस्राणि चन्द्रः अत्रोपसंहारः 'एगे एवमासु'२,एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, एएण'मित्यादि, एतेन-अन्त-| रोदितेनाभिलापेन शेषप्रतिपत्तिगतमपि सूत्रजातं नेतन्यं, तचैवम्-'तिपणी'त्यादि, एगे पुण एवमासु तिण्णि जोअण-| सहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अडुडाई चंदे एगे एवमासु ३, 'ता चत्तारी'त्यादि एगे पुण एवमासु ता चत्तारि जोय-IM माणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अपंचमाई चंदे एगे एवमाहेसु ४, 'ता पंचे'त्यादि, एगे पुण एवमासु ता पंच जो-| यणसहस्साई सूरे उर्दु उच्चत्तेणं अद्धछटाई दे एगे एवमासु ५ 'एवं छ सूरे अद्धसत्तमाई चंदे' एगे पुण एव-131 मासु ता छ जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धसत्तमाई चंदे एगे एवमाहंसु ६ 'सत्त सूरे अट्ठमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता सत्त जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्भहमाई चंदे एगे एवमासु ७ 'अट्ठसूरे अद्धनवमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता अट्ट जोयणाई सूरे उहुँ उच्चत्तेणं अद्धनयमाई चंदे एगे एवमाहंसु ८ 'नव सूरे अद्धदसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाहंसु ता नव जोयणसहस्साई सूरे उडे उच्चत्तेणं अद्धदसमाई चंदे एगे एवमासु ९ 'दस सूरे अद्धएकारसाई चंदे' इति, एगे पुण एवमासु ता दस जोयणसहस्साई सूरे उहुँ उपत्तेणे अद्धएकारसाई चंदे एगे एवमासु १० 'एकारस सूरे अवारस चंदे' इति, एगे पुण एवमासु ता इकारस जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणं अद्धबारस चंदे एगे एवमाहंसु ११ 'पारस सूरे अद्भुतेरसमाई। दीप अनुक्रम [११७ -१२२ For P OW ~529~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] अबाधा अ गाथा सूर्यप्रज्ञ- चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता बारस जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्धतरसमाई चंदे एगे पुण एवमाईसु री मिवृत्तिः||१२, 'तेरस सूरे अद्धचउपसमाई चंदे' इति, एगे पुण एवमाहूंसु ता तेरस जोयणसहस्साई सूरे उहं उच्चत्तेणं अद्ध-[2] (मल चोहसमाई चंदे पगे एवमासु १३, 'चोइस सूरे अपंचदसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाइंस वा चोदस जोय- Iचत्वं तारक REO णसहस्साई सूरे उहुँ उपत्तेणं अपंचदसमाई चंदे एगे एवमाहंसु १४, पनरस सूरे अद्धसोलसमाई चंदे' इति एगे पाणुतादि पुण एवमाहंसु ता पण्णरस जोयणसहस्साई सूरे उहं उच्चत्तेणं असोलसमाई चंदे एगे एवमाहंसु १५, 'सोलस सूरे परिवारः असत्सरसाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता सोलस जोयणसहस्साई सूरे उहुं उच्चत्तेणं अद्भसत्तरसमाई चंदे एगे भ्यन्तरचाएवमाहेसु १६, 'सत्तरस सूरे अद्वारसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाइंसु ता सत्तरस जोषणसहस्साई सूरे उह रासू हा उच्चचेणं अवहारसमाई चंदे एगे एवमाहंसु १७, 'अट्ठारस सूरे अद्धएगूणवीसमाई बंदे' इति एगे पुण एवमाहंसNeel ता अट्ठारस जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चतेणं अद्धएगूणवीसमाई चंदे एगे एबमासु १८ 'एगूणवीस सूरे अद्भवी-1 समाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु ता एगूणवीसं जोयणसहस्साई सूरे उडे उच्चत्तेणं अद्भवीसमाई चंदे एगे एबमाइंसु 11१९, 'बीस सूरे अद्धएकवीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाहंसु ता वीस जोयणसहस्साई सूरे उहं उपत्रेण अद्धपकपीसमाहं चंदे एगे एबमाईसु २०, एकवीसं सूरे अदयावीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमाईस वा इकवीसं जोप ॥२६॥ *णसहस्साई सूरे उह उच्चत्तेणं अद्धबाबीसमाई चंदे एगे एबमाइंसु २१, 'बावीस सूरे अहतेवीसाई चंदे' इति एगे। पुण एवमासु ता पापी जोयणसहस्साई सूरे उहूं उच्चत्तेणे भतेवीसमाई हे एगे एवमासु २२ तेवीसं सूरे दीप अनुक्रम [११७ -१२२ ~530~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा अपचीसमाई चंद्र' इति एगे पुण एवमाईसु ता तेवीसं जोयणसहस्माई सूरे उहं उच्च तेषी अबचावीचमाई पद पापा एवमासु २३ 'चञ्चीम सूरे अपंचवीसमाई चंदे' इति एगे पुण एवमासु चरबीस जोयणसहस्सा सो बाहुं उच्चचेण अद्धपंचवीसमाई चंदे एगे एवमासु २४, पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्षादर्शयति-'एगे पुण एव-| माहंसु-ता पणवीस'मित्यादि, एतानि च सूचाणि सुगमत्वात् स्वयं भावनीयानि, तदेवमुक्ताः परप्रतिपसयः सम्पति स्वमत भगवानुपदर्शयति-'वयं पुणा एवं बदामो' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलवेदसः एवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदा-1 मखमेव प्रकारमाहू-ता इमीसे' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , अस्या रसप्रभायाः पृधिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्य सन योजनशतानि नवतानि-नवत्यधिकानि उत्प्लुत्य गत्वा अत्रान्तरे अधस्तनं ताराविमान चारं पाति-मण्डलगल्या परिचमणं प्रतिपद्यते, तथा अस्या एव रक्षप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्वमष्टौ प्रोजनशतान्युप्लुत्यात्रान्तरे सूर्यविमानं चार चरति, तथा अस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्व परिपूर्णानि IN नव योजनशतान्युत्प्लुत्यानान्तरे सर्वोपरितनं ताराविमानं चारं चरति । अधस्तनाचाराविमानादूर्व दश योजनान्युप्लुत्यात्रान्तरे सूर्यविमानं चार चरति, तत एवाधस्तनातू ताराविमानान्नवति योजनान्यूर्ध्वमुत्प्लुत्यानान्तरे चन्द्रविमानं | चार चरति, तत एव सर्वाधस्तनात् ताराविमानाद्दशोत्तरं योजनशतमूर्ध्वमुत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं वाराविमानं चारं| चरति, 'ता सूरविमाणाओं इत्यादि, ता इति पूर्ववत् सूर्यविमानादूर्वमशीति योजनान्युत्प्लुल्यावान्तरे चन्द्रविमानं चारं परति, तस्मादेव सूर्यविमानादूर्य योजनशतमुत्प्लुयात्रान्तरे सर्वोपरितनं तारारूपं ध्योतिश्चकं चार चरति, 'ता दीप अनुक्रम [११७ -१२२ ~531~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- प्तिवृत्तिः सूत्रांक (मठ) [८९-९३] ॥२६॥ गाथा चंदविमाणाओं' इत्यादि ता इति पूर्ववत् चन्द्रविमानादूर्व विंशति योजनानि उत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं तारारूपं १८ प्राभृते ज्योतिश्चक्रं चार चरति, एवमेवे त्यादि एवमेव-उक्तेनैव प्रकारेण 'सपुत्वावरेण ति सह पूर्वेण वर्तन्ते इति सपूर्व सपूर्व चा/चन्द्रादेरु. तत् अपरं च सपूर्वापरं तेन पूर्वापरमीलनेनेत्यर्थः, दशोत्तरयोजनशतवाहल्येन, तथाहि-सर्वाधस्तनात्तारारूपात् ज्यो- चरखं तारक तिश्चक्रादूर्ध्वं दशभियोजनैः सूर्यविमानं ततोऽप्यशीत्या योजनैश्चन्द्रविमानं ततो विंशत्या सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योति-साताद |श्चक्रमिति भवति ज्योतिश्चक्रचारविषयस्य दशोत्तरं योजनशतं बाहल्यं, तस्मिन् दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये, पुनः कथं-15 अबाधा अभूते इत्याह-तिर्यगसङ्ख्येये-असङ्घययोजनकोटीकोटीप्रमाणे ज्योतिर्विषये मनुष्यक्षेत्रविषयं ज्योतिश्चक्र चार चरति सभ्यन्तरचा|चार चरत् मनुष्यक्षेत्राहिः पुनरवस्थितमाख्यातं इति वदेत् ॥ 'ता अस्थि ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , अस्त्ये | रासू तत् भगवन्! यदुत चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिदिपित्ति क्षेत्रापेक्षया अधस्तना अपि तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा ८९-९३ तिविभवलेश्यादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि-लघवोऽपि भवन्ति, हीना अपि भवन्तीत्यर्थः, केचित्तुल्या अपि भवन्ति, तथा सममपि-चन्द्रविमानैः सूर्यविमानैश्च क्षेत्रापेक्षया समनेण्यापि व्यवस्थितास्तारारूपाः-ताराविमानाधिष्ठातारो देवा-1 |स्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि भवन्ति केचित्तुल्या अपि, तथा चन्द्रविमानानां 31 सूर्यविमानानां चोपर्यपि ये व्यवस्थितास्तारारूपाः-तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिवि-|| माभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि भवन्ति केचित्तुल्या अपि , एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह-ता अत्थि'त्ति यदे तत्त्वया पृष्टं तत्सर्वं तथैवास्ति, एवमुक्ते पुनः प्रश्नयति-'ता कहं ते' इत्यादि, सुगर्म, भगवानाह-'ता जह जहे त्यादि, दीप अनुक्रम [११७ -१२२ ॥२६॥ SAREnaturinamaransiell For P OW ~532~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत [-], -------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा PAR-HROck) |ता इति पूर्ववत् यथा यथा णमिति वाक्यालङ्कारे तेषां देवानां तारारूपविमानाधिष्ठातां प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मच-12 र्याणि उच्छ्रितानि-उत्कटानि भवन्ति तथा तथा तेषां देवानां तस्मिन्-तारारूपविमानाधिष्ठातृभवे एवं भवति यथा अणुत्वं या तुल्यत्वं वा, किमुक्त भवति :-यैः प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि मन्दानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृदेवभवमनुप्राप्ताश्चन्द्रसूर्येभ्यो देवेभ्यो द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य हीना भवन्ति, यैस्तु भवान्तरे तपोनियमब्रह्मचर्याणि अत्युत्कटान्यासेवितानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृरूपदेवत्वमनुप्राप्ता द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य चन्द्रसूर्यैर्देवैः सह स-11 माना भवन्ति, न चैतदनुपपन्न, दृश्यन्ते. हि मनुष्यलोकेऽपि केचिजन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्रारभारा राजस्वम-2 |प्राप्ता अपि राज्ञा सह तुल्ययुतिविभवा इति, 'ता एवं खलु' इत्यादि निगमनवाक्यं सुगमं । 'ता एगमेगस्स ण'मित्यादि, ग्रहादिपरिवारविषयाणि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि सुगमानि, 'ता मदरस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , मन्दरस्य पर्वतस्य जम्बूद्वीपगतस्य सकलतिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः कियत्क्षेत्रमवाधया सर्वतः कृत्वा चारं परति !, भगवानाह-'ता एकारसे'त्यादि, ता इति पूर्ववत् एकादश योजनशतानि एकविंशानि-एकविंशत्यधिकानि अबाधया कृत्वा चार चरति, किमुक्तं भवति ?-मेरोः सर्वत एकादश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि मुक्त्वा तदनन्तरं चक्रवालतया ज्योतिश्चक्रं चार चरति, 'ता लोयंताओणमित्यादि, ता इति पूर्ववत् लोकान्तादाकणमिति वाक्यालङ्कारे कियत् क्षेत्रमवाधया कृत्वा अपान्तरालं कृत्वा ज्योतिष प्रज्ञप्तम् !, भगवानाह–'एकारसे त्यादि, एकादश योजनशतान्येकादशानि-एका दीप अनुक्रम [११७ -१२२ ~533~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत --------------------- मूलं [८९-९३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा सूर्यप्रज्ञ- दशाधिकानि अबाधया कृत्वा-अपान्तरालं विधाय ज्योतिषं प्रज्ञावं, 'ता जंबुद्दीवेणं दीये कयरे नक्खत्ते' इत्यादि सुगम १८ प्राभृते विवृत्तिः नबरमभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलिकामपेक्ष्य एवं मूलादीनि सर्वबाह्यादीनि वेदितव्यानि। चन्द्रादेस(मला ता चंदविमाणेणं किंसंठिते पं०१, ता अडकविट्ठगसंठाणसंठिते सवफालियामए अभुग्गपमूसितपहसिते . मादिचाहिपाविविधमणि रयणभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे एवं सूरबिमाणे गहविमाणे णवत्सविमाणे ताराविमाणे। ता चंदविमाणे ण केवतियं आयामविक्खंभेणं केवतिय परिक्खेवेणं केवतियं बाहल्लेणं पं०, ता छप्पणं एगहिभागे अल्पतरण जोयणस्स आपाममिक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरयेणं अट्ठावीस एगट्ठिभागे जोपणस्स बाहल्लेणं पणते, तिमी ता सूरबिमाणे णं केवतिय आयामविखंभेणं पुच्छा, ता अडयालीसं एगहिभागे जोयणस्स आयामविक्वं-12 सू९५ भणं तं तिगुणं सविसेस परिरएणं चञ्चीसं एगविभागे जोयणस्स बाहल्लेणं ६०, ता णक्खत्तविमाणे णं केव-12 &ातियं पुच्छा, ता कोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं अद्धकोस पाहल्लेणं पं०, ता तारावि-11 |माण णं केवतियं पुरुछा, ता अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिरएणं पंचधणुसयाई पाह-II लग पं० ॥ ता परिमाणं कति देवसाहस्सीओ परिचहति?, सोलस देवसाहस्सीओ परिवहति, सं०-पुर-12 छिमेणं सीहरूबधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीभो परिवहति, दाहिणे गं गयरूबधारी सारि देवसाह-A सीओ परिवहंलि, पञ्चस्थिमेणं वसभरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहति, उत्तरेणं तुरागस्वधारीणं ॥२२॥ चित्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति, एवं पुरविमापि, ता गहविमाणे पं कति देवमाहमीभो परिक दीप अनुक्रम [११७ -१२२ ~534~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [८९-९३] गाथा दीप अनुक्रम [११७ -१२२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [९४-९५] प्राभृत [१८], प्राभृतप्राभृत [-1, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education in हंति ?, ता अट्ठ देवसाहस्सीओ परिवहति, तं०- पुरच्छिमेणं सिंहरूपधारीणं देवाणं दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, एवं जाब उत्तरेणं तुरगख्वधारीणं, ता नक्खत्तविमाणे णं कति देव साहस्सीओ परिवहति?, ता चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहति, तं०- पुरच्छिमेणं सीहरूवधारणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहति एवं जाव उत्तरेणं तुरगरूपधारीणं देवाणं, ता ताराविमाणे णं कति देवसाहस्सीओ परिवहति १, ता दो देवसाहस्सीओ परिवहति तं०- पुरच्छिमेणं सीहरूवधारणं देवाणं पंच देवसता परिवहति एवं जावुत्तरेणं तुरगरूवधारीणं (सूत्रं ९४ ) एतेसि णं चंदिमसूरियग्रहणक्खन्तता राख्वाणं कयरेरहिंतो सिग्धगती वा मंदगती वा १, ता चंदेहिंतो सूरा सिग्धगती सुरेहिंतो गहा सिग्धगती गहेहिंतो णक्खत्ता सिग्धगती णक्ख तेहिंतो तारा सिग्धगती सबप्पगती चंदा सबसिग्धगती तारा। ता एएसि णं चंदिमसूरियगहगणणणततारारूवाणं कपरेरहिंतो अपिडिया वा महिडिया वा ?, ताराहिंतो महिडिया णक्खत्ता णक्खसेहिंतो गहा महिडिया गहेहिंतो | सूरा महिडिया सूरेहिंतो चंदा महिडिया सबप्पहिया तारा सबमहिहिया चंदा (सूनं ९५ ) 'ता चंदविमाणे ण'मित्यादि संस्थानविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - 'ता अडकविट्ठगेत्यादि, उत्तानीकृतमर्द्धमात्रं कपित्थं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितमर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं, आह-यदि चन्द्रविमानमुत्तानी कृतार्द्धमात्रकपित्थफलसंस्थानसंस्थितं तत उदयकाले अस्तमयकाले वा यदिवा तिर्यक् परिभ्रमत् पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्धकपित्थफलोकारं नोपलभ्यन्ते, कामं शिरस उपरि वर्त्तमानं वर्त्तमुपलभ्यते, अर्द्धकपित्थस्य उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागाद For Par Use Only ~535~ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९४-९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४-९५]] ॥२६॥ सूर्यप्रज्ञ- र्शनतो वर्नुलतया दृश्यमानत्वात् , उच्यते, इहार्द्धकपित्थफलाकार चन्द्र विमानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यं किन्तु तस्य १८प्रामृते निवृत्तिः चन्द्रविमानस्य पीठं, तस्य च पीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य ज्योतिश्चक्रराजस्य प्रासादः, स च प्रासादस्तथा कथंचनापि व्यव-चन्द्रादेस(मल स्थितो यथा पीठेन सह भूयान व लाकारो भवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते, ततो न स्थानमाया कश्चिदोषः, न चैतत्स्वमनीपिकाया विजृम्भितं, यत एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणवत्यामाक्षेपपुरस्सरं मादिवाहिउक्तम्-"अद्धकविहागारा उदयधमणमि कह न दीसंति । ससिसूराण विमाणा तिरियक्खेत्तहियाणं च ॥१॥ आ०11 नश्चसू ९४ IN अल्पेतरग| उत्ताणकविठ्ठागार पीढं तदुवरिं च पासाओ । वहालेखेण तओ समवट्ट दूरभाषाओ ॥२॥" तथा सर्व-निरवशेष |स्फटिकमयं-स्फटिकविशेषमणिमयं तथा अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिनुIRTH ४ाप्रसृता या प्रभा-दीप्तिस्तया सितं-शुक्लं अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितं तथा विविधा-अनेकप्रकारा मणय:-चन्द्रकान्तादयो| रत्नानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्रं-अनेकरूपवत् आश्चर्यवद्वा विविधमणिरत्नचित्रं यावत्शब्दात् 'वाउडुयविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालंतररयण पंजरुम्मीलियब । मणिकणगथूभियागे वियसियसयवत्तपुंडरीयतिलयरयणगुचंदचित्ते अंतो बहिं च सण्हे तवणिजबालुगापत्थडे सुहफासे |AI सस्सिरीयरूपे पासाईए दरिसणिजे" इति, तत्र वातोअता-चायुकम्पिता विजयः--अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधाना ॥२६॥ या पताका अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः पताका:Mता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः छत्रातिरछत्राणि च-उपर्युपरिस्थितातपत्राणि तैः कलितं बातो तबिजयवैजयन्तीपता दीप अनुक्रम [१२३-१२४] सू९५ ~536~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभूत --------------------- मूलं [९४-९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [9] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ऊ- [९४-९५]] दीप अनुक्रम [१२३-१२४] काछत्रातिच्छकलितं तुझं-उच्चमत एव 'गगणतलमणुलिहंतसिहरेति गगनतलं-अम्बरतलमनुलिखत्-अभिलञ्जयत्। | शिखर यस्य तत् गगनतलानुलिखशिखरं, तथा जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तत् जालान्तररलं, सूत्रे चात्र प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः, तथा पञ्जरात् उन्मीलित-& ममिव-बहिष्कृतमिव पञ्जरोन्मीलितं, यथा हि किल किमपि वस्तु पञ्जरात-वंशादिमयमच्छादनविशेषादू बहिष्कृतमत्य-IPL म्तमविनष्टछायत्वात् शोभते एवं तदपि विमानमिति भावः, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिकाशिखरं यस्य तत् INमणिकनकस्तूपिकाकं, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकाश्च | भित्त्यादिषु पुण्ड्राणि रलमयाश्चार्द्धचन्द्रा द्वाराग्रादिषु तैश्चित्रं विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकार्द्धचन्द्रचित्रं, तथा अन्त-18 पहिश्च श्लक्ष्णं मसूणमित्यर्थः, तथा तपनीर्य-सुवर्णविशेषस्तन्मय्याः बालुकायाः-सिकतायाः प्रस्तटा-प्रतरो यत्र तत्तथा, तथा सुखस्पशै शुभस्पर्श वा तथा सश्रीकाणि-सशोभानि रूपाणि-नरयुग्मादीनि यत्र तत् सश्रीकरूपं तथा प्रसादीयंकामनःप्रसादहेतुः अत एव दर्शनीयं-द्रष्टुं योग्य, तद्दर्शनेन तृप्तेरसम्भवात् , तथा प्रतिविशिष्ट-असाधारणं रूपं यस्य तत्तथा, 'एवं सूरविमाणेची'त्यादि, यथा चन्द्रविमानस्वरूपमुक्तमेवं सूर्यविमानं ताराविमानं च वक्तव्यं, प्रायः सबैपामपि ज्योतिर्विमानानामेकरूपत्वात् , तथा चोक्तं समवायाङ्गे-"केवइयाणं भंते ! जोइसियावासा पण्णता ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तनजयाई जोयणसयाई उई उप्पइत्ता दसत्तरजोयण-12 सयवाहले तिरियमसंखेजे जोइसविसए जोइसियार्ण देवाणं असंखेजा जोइसियविमाणावासा पन्नत्ता, ते णं जोइसिय रहकर - ~537~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [९४-९५] दीप अनुक्रम [१२३ -१२४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [९४-९५] प्राभृत [१८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञतिवृत्तिः ( मल०) ॥२६४॥ विमाणावासा अग्भुग्गयसमूखियपहसिया विविह्मणिरयणभित्तिचित्ता तं चैव जाव पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा प डिरुवा' इति, 'ता चंदविमाणे णमित्यादीनि आयामविष्कम्भादिविषयाणि सर्वाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि सुगमानि नवरं सर्वत्रापि परिधिपरिमाणं 'विभग्गदहगुणकरणी वरस परिरओ होइ" [ विष्कम्भवर्गदशगुणकरणिर्वृत्तस्य परिरयो भवति ] इति करणयशात् स्वयमेव नेतव्यं तथा यत्ताराविमान स्वायामविष्कम्भपरिमाणमुक्तमर्द्धगच्यूतमुञ्चत्य- ४ मादिवाहिपरिमाणं क्रोशचतुर्भागः तदुत्कृष्टस्थितिकस्य तारादेवस्य सम्बन्धिनो विमानस्यावसेयं यत्पुनर्जघन्य स्थितिकस्य तारा- ॐ अल्पेतरग| देवस्य सम्बन्धि विमानं तस्याऽऽयामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चधनुः शतानि उच्चत्यपरिमाणमर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि तथा स्थानमाया नश्च सू९४ तिऋद्धी सू ९६ | चोक्तं तत्त्वार्थभाष्ये 'अष्टाचत्वारिंशद्योजनै कषष्टिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः चन्द्रमसः षट्पञ्चाशद् ग्रहाणामर्द्धयोजनं गव्यूतं नक्षत्राणां सर्वोत्कृष्टायास्ताराया अर्द्धक्रोशो जघन्यायाः पञ्च धनुःशतानि विष्कम्भार्द्धबाहल्याश्च भवन्ति सर्वे सूर्यादयोऽत्र लोक" इति, 'ता चंदविमाणं कइ देवसाहस्सीओ परिवर्हति' इत्यादीन्यपि वाहनविषयाणि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि सुगमानि, नवरमियमत्र भावना-इह चन्द्रादीनां विमानानि तथाजगत्स्वाभाव्यान्निरालम्बानि वहन्त्यवतिष्ठन्ते, केवलं ये आभियोगिका देवास्ते तथाविधनामकर्मोदयवशात् समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानां निजस्फातिविशेषदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमानाः प्रसादभृतः सततवहनशीलेषु विमानेषु अधः स्थित्वा २ केचित् सिंह- ॥ २६४॥ रूपाणि केचिद् गजरूपाणि केचित् वृषभरूपाणि केचित्तुरगरूपाणि कृत्वा तानि विमानानि वहन्ति, न चैतदनुपपन्नं, तथाहि--यथेह कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां वा पूर्व For Penalta Lise Only ~538~ २८ प्राभृते चन्द्रादेः सं Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [९४-९५] दीप अनुक्रम [१२३-१२४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ५ ( मूलं + वृत्ति:) प्राभृतप्राभृत [-] मूलं [९४-९५] प्राभृत [१८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः परिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य सम्मत इति निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थं सर्वमपि स्वोचितं कर्म नायकसमक्षं प्रमुदितः करोति तथाऽऽभियोगिका अपि देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाजः समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समृद्धा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि वहाम इत्येवं निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्तीति तेषां च चन्द्रादिविमानवहनशीलानामाभियोगिक देवानामिमे सङ्ख्याङ्ग्राहिके जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्के गाथे- “ सोलस देवसहस्सा बर्हति चंदेसु चैव सूरेसु । अहेव सहस्साई एकेकंमी गहविमाणे ॥ १ ॥ चत्तारि सहस्साई नक्खतंमि य हवंति एकेके दो चेव सहस्साई तारारूवेकमेकमि ॥ २ ॥” "ता एएसि णमित्यादि, शीघ्रगतिविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगनं, एतच्च पश्चादप्युक्तं परं भूयो विमानवहनप्रस्तावादुक्तमित्यदोषः, अन्यद्वा कारण बहुश्रुतेभ्योऽत्रगन्तव्यं । ताजंबुद्दी णं दीवे तारारूवरस य २ एस णं केवतिए अबाधाएं अंतरे पण्णत्ते ?, दुविहे अंतरे पं० [सं० वाघातिमे य णिवाघातिमे य, तत्थ णं जे से वाघातिमे से णं जपणेणं दोणि बाबट्टे जोयजसले उफोसेणं बारस जोयणसहस्साइं दोण्णि बाताले जोयणसते तारारूवरस २ प अबाधाए अंतरे पण्णत्ते, तत्थ जे से निवाघातिमे से जहणेणं पंच धणुसताई उक्कोसेणं अद्धजोपणं तारारूवरस य २ अवाधार अंतरे पं० (सूत्र ९६ ) ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ?, ता चत्तारि अग्गामहिसीओ प्रण्णताओ, तं चंदष्पभा दो सिणाभा अचिमाली पभंकरा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि For Parta Use Only ~539~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] वी सू ॥२६५|| दीप अनुक्रम [१२५-१२८] सूर्यप्रज्ञ-18/ देवीसाहस्सी परियारो पण्णत्तो, पभ णं तातो एगमेगा देवी अण्णाई चत्तारि २ देवीसहस्साई परिवार || १८ प्राभृते प्तिवृत्तिः विउवित्तए ?, एवामेव सपुबावरेणं सोलस देवीसहस्सा, सेत्तं तुडिए, ता पभू णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया- तारान्तरं (मल.) चंदवडिसए विमाणे सभाए सुधम्माए तुडिएणं सहिं दिवाई भोगभोमाई भुंजमाणे बिहरित्तए, णो इणढे | समढे, ता कहं ते णो पभू जोतिर्सिदे जोतिसराया चंद्वडिसए विमाणे सभाए सुधम्माए तुडिएणं सद्धिं 21 ९६-९७ |दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ?, ता चंदस्स थे जोतिसिंदस्स जोतिसरपणो चंदवडिसए विमाणे सभाए सुधम्माएमाणवएस चेतियखंभेसु बहरामएसु गोलबद्दसमुग्गएसु यहवे जिणसकपा संणिक्खित्ता चिट्ठति, ताओ णं चंदस्स जोतिर्सिदस्स जोइसरपणो अपणेसिं च यहूणं जोतिसियाणं देवाण प देवीण यी & अचणिज्जाओ बंदणिज्जाओ पूपणिज्जाओ सफारणिजाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज-12 वासणिज्जाओ एवं खलु णो पभू चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवसिए विमाणे सभाए सुहम्माए तुडिए-11 णं सहिं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विह रित्तए । पभू णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिसए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहि अग्गमहिसीहि सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवतीहि सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अपणेहि ॥२६॥ हाय बहूहिँ जोतिसिएहिं देवेहिं देवीहि प सद्धिं संपरिबुडे महताहतणहगीयवाइयतीतलतालतुडियघणमुई गपटुप्पचाइतरवेणं दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परियारणिडीए णो चेव ण मेहुणवत्तियाए।[81 RELIGunintentATATE ~540~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभूत --------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] 9-2 - - ता सूरस्स णं जोइसिंदस्स जोतिसरणो कति अग्गमहिसीओ पं०?, ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पं०11 तिक-सूरप्पभा आतवा अचिमाला पभेकरा, सेसं जहा चंदस्स, णवरं सूरवडेंसए विमाणे जाव णो चेव णं | महणवत्तियताए (सूत्रं ९७ ) जोतिसियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णता?, जहण्णेणं अडभागपदलितोवर्म उक्कोसेणं पलितोवमं बाससतसहस्समन्भहियं, ता जोतिसिणीणं देवीणं केवतियं कालं ठिती ४ 1402, ता जहोणं अट्ठभागपलितोवम उक्कोसेणं अपलिओवमं पन्नासाए वाससहस्सेहिं अम्भहियं, चंद|बिमाणे ण देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता?, जहन्नेणं चउम्भागपलितोवर्म कोसेणं पलितोवर्म वाससयसहस्समम्भहिर्ष, ता चंदविमाणे णं देवीणं केवतियं कालं ठिती पं० १, जहाणेणं चउम्भागपलितोवर्म उकोसेणं अपलितोवमं पपणासाए वाससहस्सेहिं अन्भहिये, सरविमाणे णं देवाणं केवतियं कालं ठिती। पणत्ता, जहण्णणं चउम्भागपलितोवम उक्कोसेणं पलिओवमं वाससहस्समभहियं, ता सूरविमाणे गं देवाणं केवतियं कालं ठिती पं० १, जहणणं चउभागपलितोवमं उकोसेणं अद्भपलितोवमं पंचर्हि वासस-11 एहिं अभहिप, ता गहविमाणे णं देवाणं केवतियं कालं ठिती पं०१, जहण्पोणं चउम्भागपलितोवम उकोसेणं भापलितोवर्म, ता गहघिमाणे णं देवीण केवतियं कालं ठिती पं०१, जहणेणं चउम्भागपलितोयमं पकोसेणं अपलितोवर्म, ता णखत्सविमाणे ण देवाणं केवतियं कालं ठिती पं०१, जहणेणं च उभागपलितोवम उकोसेणं अपलिओवर्म, ताणक्वत्तविमाणे ण देवाणं केवइयं कालं ठिती पं०१, जहाणेणं अट्ठभागपलि. दीप अनुक्रम [१२५-१२८] 8-27 ~541~ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप अनुक्रम [१२५-१२८] तोचमं अकोसेणं चउम्भागपलितोवर्म, ता ताराविमाणे णं देवाणं पुच्छा, जहपणेणं अवभागपलितोवमानते मिवत्तिः।उकोसणं चउभागपलियोवम, ता ताराविमाणे णं देवीणं पुच्छा, ता जहणणं अट्ठभागपलितोवम उकोसेणंशयोकि (मल) साइरेगअहभागपलिओवर्म (सूत्रं ९८) ता एएसि णं चंदिममूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं कतरे २ हितो स्थितिः अ अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, ता चंदा य सूरा य एसे णं दोवि तुल्ला सबथोवा णक्खत्ताल्पबहुत्वं ||२६६|| |संखिजगुणा गहा संखिनगुणा तारा संखिजगुणा ॥ (सूत्रं ९९) अट्ठारसं पाहुडं समत्तं ।। ९८-९९ 'ता जंबुरीवेणं भंते ! दीवे' इत्यादि ताराविमानान्सरविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-ता दुविहे'इत्यादि, लाद्विविधमन्तरं प्रज्ञप्त, तद्यथा-व्याघातिम निर्व्यापातिमंच, तन्न व्याहननं व्याघात:-पर्वतादिस्खलनं तेन निवृत्त व्याघातिम 'भाषादिम' इति इमप्रत्ययः, निळपातिम-व्यापातिमानिर्गतं स्वाभाविकमित्यर्थः, तत्र यत् व्यापातिमं| तत् जपन्यतो वे योजनशते पषध्यधिके, एतच्च निषधकूटादिकमपेक्ष्य वेदितव्य, तथाहि-निषधपर्वतः स्वभावतोऽकायुश्चत्वारि योजनशतानि तस्य चोपरि पञ्च योजनशतोच्चानि कूटानि, तानि च मूठे पश्चयोजनशतान्यायामविष्क भाभ्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि पश्चसप्तत्यधिकानि उपरि अर्द्धतृतीये हे योजनशते, तेषां चोपरितनभागसमवेणि-18 प्रदेश तथाजगत्स्वाभाव्यादष्टावष्टौ योजनान्युभयतोऽवाधया कृत्वा ताराविमानानि परिभ्रमन्ति, ततो जपन्यतो व्यापा-11 तिममन्तरं वे योजनशते षषष्ट्यधिके भवतः, उत्कर्षतो द्वादश योजनसहनाणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके, ॥२६॥ एतन मेरुमपेक्ष्य द्रष्टव्यं, तथाहि-मेरी दश योजनसहस्राणि मेरोश्चोभयतोऽवाधया एकादश योजनशतान्येकर्षिशल्य-18/ ~542~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभूत --------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप अनुक्रम [१२५-१२८] |धिकानि, ततः सर्वसङ्ख्यामीलने भवन्ति द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके । निर्व्याघातिमान्तरबिषयं सूत्र सुगमं । 'ता चंदस्स ण'मित्यादि अग्रमहिषीविषयं सूत्र सुगम, नवरमेकैकस्या देव्याश्चत्वारि देवीसहमाणि परिवार इति किमुकं भवति ?-एकैका अग्रमहिषी चतुर्णी चतुणौ चन्द्रसत्कदेवीसहस्राणां पट्टराज्ञी, एकैका च सा | इत्थंभूता अग्रमहिपी परिचारणावसरे तथाविधां ज्योतिष्फराजचन्द्रदेवेच्छामुपलभ्य प्रभुरन्यानि आस्मसमानरूपाणि ४ | चत्वारि चत्वारि देवीसहस्राणि विकुवितुं, इह सिद्धान्तप्रसिद्धो विकुर्व इति धातुरस्ति, यस्य विकुणा इति प्रयोगः, ततो विकुर्षितुमित्युक्त, एवमेवेति एवमेव-उकप्रकारेणैव 'सपुवावरेणीति सह पूर्वेणेति सपूर्व सपूर्व च अपरं च सपूर्वापरं तेन सपूर्वापरेण-पूर्वापरमीलनेन स्वाभाविकानि पोडश देवीसहस्राणि चन्द्रदेवस्य भवन्ति, तथाहि-चतम्रोऽयमहिष्यः एकैका चात्मना सह चतुश्चतर्देवीसहस्रपरिवारा ततः सर्वसङ्कलनेन भवंति पोडश देवीसहस्राणि 'सेतं तडिए' इति तदेतावत् चन्द्रदेवस्थ तुटिक-अन्तःपुरं, उक्तं च जीवाभिगमचूर्णी-"तुटिकमन्तःपुरमिति" 'पभू णं चंदे'इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'नो इणढे समढे'नायमर्थः समर्थः-उपपन्नो, न युक्कोऽयम इति भावः, यथा चन्द्रावत-| सके विमाने या सुधर्मा सभा तस्यामन्तःपुरेण सार्द्ध दिल्यान् भोगभोगान् भुजानो बिहरतीति, 'ता कहं ते नो पभू। इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-'ता चंदस्स णमित्यादि, चन्द्रावतंसके विमाने सुधर्मायां सभायां माणवको नाम | ४/चैत्यस्तम्भोऽस्ति, तस्मिंश्च माणवके स्तम्भे ये वज्रमयेषु सिक्केषु वज्रमया गोलाकारा वृत्ताः समुहकास्तेषु बहूनि जिन-1 सक्धीनि निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, 'ताओण'मित्यादि, तानि जिनसक्थीनि, इह सूत्रे स्त्रीत्यनिर्देशः प्राकृतत्वात् , चन्द्रस्य ~543~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभूत --------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] दीप सूर्यमज्ञ- ज्योतिपेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्यान्येषां च बहूनां ज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च अर्चनीयानि पुष्पादिभिर्वन्दनीयानि-१८ प्राभृते प्तिवृत्तिः स्तोतव्यानि विशिष्टैः स्तोत्रैः पूजनीयानि वस्त्रादिभिः सत्कारणीयानि आदरप्रतिपत्त्या सन्माननीयानि जिनोचितप्रति.ज्योतिष्का (मल०) पच्या कल्याण-कल्याणहेतुर्मनल-दुरितोपशमहेतुर्दैवतं-परमदेवता चैत्यं-इष्टदेवताप्रतिमा इत्येवं पर्युपासनीयानि त पुसाद तत एवं-अनेन कारणेन खलु-निश्चितं न प्रभुरित्यादि सुगम, 'ता पभू णं चंदे' इत्यादि, केवलं परिचारणा -परिचा 12 लारणसमृद्ध्या, एते सर्वेऽपि मम परिचारका अहं खेतेषां स्वामीत्येवं निजस्फातिविशेषदर्शनाभिप्रायेणेति भावः, प्रभुश्चन्द्रो ४ ज्योतिषेन्द्रो पयोतिषराजश्चन्द्रावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्राभिधानसिंहासने चतुर्भिः सामानिकसहस्त्रैश्चतसभिरममहिषीभिः सपरिवाराभिस्तिसृभिरभ्यन्तरमध्यमवाह्यरूपाभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोड-11 शभिरात्मरक्षकदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिज्योतिष्कदवेदेवीभिश्च सार्द्ध सम्परिवृतो महता रवेणेति योगः, 'आय'त्ति *आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धाः अथवा अहतानि-अव्याहतानि नाट्यगीतवादित्राणि तथा तन्त्री-वीणा तलताला हस्ततालाः त्रुटितानि-शेषतूर्याणि तधा घनो-घनाकारो वनिसाधात् यो मृदङ्गो-मर्दलः पटुना-दक्षपुरुषेण प्रवा-1 |दितस्तत एतेषां पदानां द्वन्द्वस्तेषां यो रवस्तेन दिव्यान-दिवि भवान् अतिप्रधानानित्यर्थः भोगार्हा ये भोगा:-शब्दा-I लादयस्तान् भुजानो विहर्नु प्रभुरिति योगः, न पुनमैथुनप्रत्यय-मैथुननिमित्तं स्पादिभोगं भजानो विहरी प्रभारिति. ॥२६७॥ ता सूरस्स 'मित्यादीन्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि भावनीयानि, 'ता जोइसियाणं देवाण'मित्यादि, सर्व सुगमं यावत् प्राभूतपरिसमाप्तिः, नवरं चन्द्रविमाने चन्द्रदेव उत्पद्यते तत्सामानिकात्मरक्षकादयश्च, तत्रात्मरक्षकादीनां यथोक्का जघ-18 अनुक्रम [१२५-१२८] ~544~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१८], -------------------- प्राभृतप्राभूत --------------------- मूलं [९६-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९६-९९]] 1 दीप अनुक्रम [१२५-१२८] 64%+5%-- ४ान्या स्थितिरुत्कृष्टा तु चन्द्रदेवस्य तत्सामानिकादीनां च, एवं सूर्यविमानादिष्वपि भावनीयम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायामष्टादशं प्राभृतं समाप्तम् ॥ तदेवमुक्तमष्टादशं प्राभृतं, सम्पति एकोनविंशतितममारभ्यते, तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा 'कति चन्द्रसूर्याः | सर्वलोके आख्याता' इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता कति णं चंदिमसूरिया सबलोयं ओभासंति उज्जोएंति तति पभाति आहितेति बदेजा, तत्थ माखलु इमाओ दुवालस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्धेगे एबमासु ता एगे चंदे एगे सूरे सबलोयं ओभा सति उलोएति तवेति पभासति, एगे एवमाहंसु १, एगे पुण एबमासु ता तिणि चंदा तिपिण सूरा सबलोपं ओभासेंति ४ एगे एवंमाहेसु २, एगे पुण एवमाहंसु ता आउहि चंदा आउहि सूरा सबलोपं ओ-K भासेंति उनोवेति तति पगासिति एगे एवमासु ३ एगे पुण एवमाहंसु एतेणं अभिलावेणं तई सत्स चंदा सत्त सूरा दस चंदा दस सूरा बारस चंदा २ यातालीसं चंदा २ बावत्तरि चंदा २ वातालीस चंदसतं २ बावत्तरं चंदसयं बावत्तरि सूरसपं बापालीसं चंदसहस्सं बातालीसं सूरसहस्सं यावत्तरं चन्दसहस्सं वायसरं सूरसहस्सं सबलोयं ओभासंति उज्जोति तति पगासंति, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं बदामो-ता अयपणं जंबुद्दीवे २ जाव परिक्खेवेणं, ता जंबुद्दीवे २ केवतिया चंदा पभासिंसु वा पभासिति -- - - अत्र अष्टादशं प्राभृतं परिसमाप्तं अथ एकोनविंशति प्राभूतं आरभ्यते ~545 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूत्रांक [१०० ] + गाथा: अनुक्रम [१२९ -१९२] प्राभृत [१९], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्ति:) सूर्यप्रश विवृत्तिः ( मल०) ॥ २६८ ॥ वा पभासिस्संति वा?, केवतिया सूरा सर्विसु या तवेति वातविस्संति वा?, केवतिया णक्खत्ता जोअं जोइंसु वा जोएंति वा जोइस्संति वा? केवतिया गहा चारं चरिंसु वा चरंति वा परिस्संति वा? केवतिया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभैंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा?, ता जंबुद्दीवे २ दो चंदा पभासेंसु वा ४ दो सूरिया ॐ तबसु वा ३, छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोएंसु वा ३ पावसरि गहसतं चारं चरिंसु वा ३ एवं समसहस्सं तेत्तीस च सहस्सा णव सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोमेंसु वा ३ | "दो चंदा दो सूरा णक्खता खलु हति उप्पण्णा । यावत्तरं महसतं जंबुद्दीवे विचारणं ॥ १ ॥ एवं च सयसहस्से तित्तीसं खलु भवे सहस्साई । जव य सता पण्णासा तारागण कोडिकोडीणं ॥ २ ॥" ता जंबुद्दीवं णं दीवं लवणे नामं समुद्दे बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते सबतो समता संपरिक्खिताणं चिद्वति, ता लवणे णं समुद्दे किं समचकवालसंठिते विसमचक्रवालसंठिते ?, ता लवणसमुद्दे समचक्कवालसंठिते नो बिसमचकवालसंठिते, ता लवणसमुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितेति वदेखा ?, ता दो जोयणसतसहस्साई चफबालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसतसहस्साई एक्कासीयं च सहस्साई सतं च ऊतालं किंचिविसेसूणं परिक्षेणं आहितेति वदेखा, ता लवणसमुद्दे केवतियं चंदा पभासु वा ३१, एवं पुच्छा जाव केवतिपाउ तारागणकोडिकोडीओ सोभिसु वा ३१, ता लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासु वा ३ चत्तारि सूरिया तवसु वा ३ पारस णक्खत्तसतं जोयं जोरंसु वा ३ तिणि यावण्णा महग्गहसता चारं चरिंसु Jain Educator For Penal Use On ~546~ १९ प्राभूते चन्द्रसूर्यादिपरिमाणं सू १०० ॥ २६८ ॥ wor Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: वा ३ दो सतसहस्सा सत्तद्धिं च सहस्सा णव प सता तारागणकोडीणं सोभिंसु वा ३ । पण्णरस सत सहस्सा एकासीतं सतं च ऊतालं । किंचिविसेसेणूणो लवणोदधिणो परिक्खेवो ॥१॥ चत्तारि चेव चंदा चित्तारिप सूरिया लवणतोये । पारस णक्खत्तसयं गहाण तिपणेव पावणा ॥१॥ दोघेव सतसहस्सा ससहि लखलु भवे सहस्साई । पाव व सता लवणजले तारागणकोडिकोडीणं ॥ २॥ ता लवणसमुई धातईसंडे णाम दीवे बट्टे वलयाकारसंठिते तहेव जाव णो विसमचउकबालसंठिते, धाईसंडे णं दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं केवतिय परिक्खेवेणं आहितेति वदेवा, ता चत्तारि जोधणसतसहस्साई चकवाल विक्खंभेणं ईतालीस जोपणसतसहस्साई दस य सहस्साई णव य एकटे जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं आहि-1 तेति वदेजा, धातईसंडे दीवे केवतिया चंदा पभासु वा ३ पुच्छा तहेव धातईसंडे णं दीवे वारस चंदा पभासेंसु वा ३ पारस सूरिया तवेंसु वा ३ तिषिण उत्तीसाणक्खत्तसताजोअंजोएंसु वा ३ एगं छप्पणं महग्गह-IA सहस्सं चार चरिसुवा३-'अद्वेव सतसहस्सा तिण्णि सहस्साई सत्तय सयाई । (एगससीपरिवारो) तारागणको[डिकोडीओ॥१॥सोभ सोभसुधा३-धातईसंघपरिरओईताल दसुत्तरा सतसहस्सा। णव घ सता एगट्ठा किंचि विसेसेण परिहीणा ॥१॥ चउचीसं ससिरविणो णक्वत्तसता यतिविण छत्तीसा। एगं च गहसहस्सं छप्पणं पधातइसंडे ॥२॥ अद्वेव सतसहस्सा तिणि सहस्साई सत्त य सताई। धायइसंडे दीये तारागणकोडिकोडीणं ४ ॥ ३॥ ता धायईसड णं दीवं कालोपणे णामं समुद्दे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते जाव णो विसमचकवाल दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] *OGA% SARELIEatunintentTATERIA ~547~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१००] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२९ -१९२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१९], मूलं [१००] + गाथा: प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञतिवृत्तिः ( मल० ) ॥२६९ ॥ संठाणसंठिते, ता कालोयणे णं समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्वं भेणं केवलियं परिक्त्रेवेणं आहितेति बदेखा ?, ता कालोयणे णं समुद्दे अङ्क जोयणसतसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते एक्काणउति जोपणसयसहरसाई सत्तारं च सहस्साई छन्द पंत्तरे जोयणसते किंचिविसेसाधिए परिक्लेवेणं आहितेति वदेजा, ता कालोयणे णं समुद्दे केवतिया चंद्रा पभासु वा ३ पुच्छा, ता कालोयणे समुद्दे बातालीसं चंदा पभासेंसु वा ३ बायालीसं सूरिया तवेंसु वा ३ एक्कारस बावतरा णक्खत्तसता जोपं जोइंसु वा ३, तिन्नि सहरसा छच्च छनउया महगहसया चारं चरिंसु वा ३ अट्ठावीसं च सहस्साई बारस सयसहस्साई नव य सवाई | पण्णासा तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोमेंसु वा सोहंति वा सोभिस्संति वा "एक्काणउई सतराई सहस्साई परिरतो तस्स । अहियाई छच पंचुत्तराई कालोदधिवरस्स ॥ १ ॥ वातालीसं चंदा बातालीसं च दिणकरा दित्ता । कालोदधिमि एते चरंति संबद्धलेसागा ॥ २ ॥ णक्खत्तसहस्सं एगमेव छावन्तरं च सतमण्णं । छच्च सया छण्णउया महग्गहा तिष्णि य सहस्सा ॥ ३ ॥ अट्ठावीसं कालोदहिंमि बारस य सहरसाई । णव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं ॥ ४ ॥” ता कालोयं णं समुद्दे पुक्खरवरे णामं दीवे | बट्टे वलयाकारठाणसंठिते सबतो समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति, ता पुक्खरबरे णं दीवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्रवालसंठिए ?, ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्रवालसंठिए, ता पुकखरवरे णं दीवे केवइयं समचकचालवित्रखंभेणं १, केवहअं परिकखेवेणं !, ता सोलस जोयणसयसहस्साई For Parts Only ~548~ १९ प्राभूते चन्द्रसूर्यादिपरिमाणं सू २०० ॥२६९|| Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूत्रांक [१०० ] + गाथा: अनुक्रम [१२९ -१९२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१९], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः चकवालविकखंभेणं एगा जोयणकोडी बाणउतिं च सतसहस्साई अउणावनं च सहस्साई अ चणडते जोअणसते परिक्खेवेणं आहितेति वदेज्जा, ता पुक्खरबरे णं दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा ३ पुच्छा तधेव ता चोलालचंदसदं पभासु वा ३ चोत्ताले सूरियाणं सतं तवसु वा ३ चत्तारि सहस्साई बत्तीसं च नक्खत्ता जोअं जोएंसु वाश्यारस सहस्साई उच्च पावतरा महग्गहसता चारं चरिंसु वा ३ छपणउतिसयसहस्साई चोयालीसं सहस्साई चत्तारि व सपाई तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभैंसु वा ३ 'कोडी बाणउती खलु अडणाणउति भवे सहस्साई । अहसता चडणउता य परिरओ पोक्खरवरस्स || १ || चोत्तालं चंदसतं चत्तालं चैव सूरियाण सतं । पोक्खरवर दीवम्मिच चरंति एते पभासंता || २ || चारि सहस्साई छत्तीसं चेव हुंति णक्खत्ता । छच्च सता बावसर महग्गहा बारह सहस्सा || ३ || छष्णउति सयसहस्सा चोत्तालीसं खलु भवे सहस्साई । चत्तारि य सता खलु तारागणकोडिकोटीणं ॥ ४ ॥ ता पुक्खरवरस्स णं दीवस्त यहुमज्झदेसभाए माणुसुत्तरे णामं पवए वलयाकारसंठाणसंठिते जे णं पुक्खरवरं दीवं दुधा विभयमाणे २ चिट्ठति, तंजहा अभितरपुक्खरद्धं च बाहिरक्खरद्धं च ता अभितरपुक्खरद्धे णं किं समचकवालसंठिए विसमचकवालसंठिए ?, ता समचक्कवालसंठिए णो विसमचकवालसंठिते, ता. अमितरपुक्खर णं केवतियं चक्रवालविक्खभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितेति पदेखा ?, ता अट्ठ जोयणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं एका जोयणकोडी बापालीसं च सपसहस्साई तीसं च सहस्साई दो अउणापण्णे जोयणसते For Parts Only ~ 549~ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञाविसुवा सूत्रांक [१००] गाथा: परिक्खवेणं आहितेति वदेजा, ता अम्भितरपुक्खरद्धे णं केवतिया चंदा पभासेंसु बा ३ केवतिया सूरा १९ प्राभूते विवृत्तिः सर्विसु वा ३ पुच्छा, बावत्तरि चंदा पभासिंसु वा ३ बावसरि सूरिया तवइंसु वा ३ दोणि सोला णक्खत्त- चन्द्रसूर्या(मल) सहस्सा जो जोएंसु वा३छ महग्गहसहस्सा तिन्नि य बत्तीसा चारं चरेसु वाअडतालीससतसहस्साबावीस दिपरिमाणं चि सहस्सा दोपिण य सता तारागण कोडिकोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३। ता समयक्खेत्ते णं केवतियं आयाम-13 ॥२७॥ विकखंभेण केवइयं परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा,ता पणतालीसं जोषणसतसहस्साई आयामविक्खंभेणं एका जोयणकोडी यायालीसं च सतसहस्साई। दोणि य अउणापपणे जोयणसते परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा, ता |समयक्वेसे णं केवतिया चंदा पभासेंसुवापुच्छा लधेच, ता बत्तीसं चंदसतं पभासु वाश्यत्तीसं सूरियाण &सतं तवइंसु वा ३ तिषिण सहस्सा उच छपणउता णक्खत्तसता जोयं जोएंसु वा ३ एकारस सहस्सा छच सोलस महग्गहसता चारं चरिंसु वा ३ अट्ठासीति सतसहस्साई चत्तालीसं च सहस्सा सत्त व सया। तारागणकोडीकोडीणं सोभं सोभिंसु वा ३ । अद्वेव सतसहस्सा अम्भितरपुक्खरस्स विक्खंभो। पणतालसय-18 सहस्सा माणुसखे तस्स विक्खंभो ॥१॥ कोडी यातालीसं सहस्स दुसया य अउणपण्णासा । माणुसखे-& सपरिरओ एमेव प पुक्खरद्धस्स ॥२॥ यावत्तरिंच चंदा चावत्सरिमेव दिपणकरा दित्ता। पुक्खरवरदीवहे। २७०॥ |चरंति एते पभासेंता ॥ ३॥ तिणि सता छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । णक्खत्ताणं तु भये सोलाई दुवे सहस्साई ॥ ४ ॥ अडयालसपसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई । दो त सय पुक्खरन्डे तारागणकोडि-IN दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] 4%95 ~550~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: कोडीणं ॥ ५ ॥ पत्तीसं चंदसतं यत्तीसं चेव सूरियाण सतं । सयलं माणुसलोअंचरंति एते पभासेंता॥६॥13 एकारस य सहस्सा छप्पिय सोला महग्गहाणं तु । छच्च सता छण्णउया णक्वत्ता तिण्णि य सहस्सा ॥७॥ अट्ठासीद पत्ताई सतसहस्साई मणुषलोगमि । सत्त य सता अणूणा तारागण कोडिकोडीणं ॥ ८॥ एसो तारापिंडो सबसमासेण मणुयलोयंमि । बहिता पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेजाओ ॥९॥ एवतियं तारगंज मणिय माणुसंमि लोगमि । चारं कलंबुयापुप्फसंठित जोतिसं चरति ॥ १० ॥ रविससिगहणक्खत्ता एवतिया आहिता मणुयलोए । जेसि णामामोत्तं न पागता पण्णवेहति ।। ११ ।। छावढि पिडगाई चंदादिचाण मणुलोमि । दो चंदा दो सूरा य हुंति एकेकए पिडए ॥ १२ ॥ छाबलुि पिडगाई णक्खत्ताणं तु लामणुयलोयंमि । छप्पणं णक्खता हुंति एकेका पिडए ॥१३॥ छावहि पिडगाई महागहाणं तु मणुघलोमि ।। छावत्तरं गहसतं होइ एककए पिडए ॥१४॥ चत्तारि य पंतीओ चंदाइचाण मणुयलोयम्मि। छावट्टि २ च। होइ एकिकिया पन्ती ॥ १५ ॥ छप्पन्न पंतीओ णवत्ताणं तु मणुपलोयंमि । छाबहिँ २ हवंति एक्वेकिया पती॥१६॥णवत्तरं गहाणं पतिसयं हवति मणुयलोमि । छावहि २ हवइ य एफेकिया पंती ॥१७॥ त मेरुयणुचरंता पदाहिणावत्तमंडला सत्वे । अणववियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥ १८॥णक्खत्ततार-12 गाणं अवविता मंडला मुणेयवा । तेऽविय पदाहिणावत्तमेव मेरु अणुचरंति ॥ १९ ॥ रयणिकरदिणकराणं उद्धं च अहे व संकमो नस्थि । मंडलसंकमणं पुण सम्भंतरवाहिरं तिरिए ॥ २०॥ रयणिकरदिणकराणं णक्ख-151 दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~551~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: ताणं महग्गहाणं च । चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविधी मणुस्साणं ॥ २१॥ तेसिं पविसंताणं तावक्खेतं तु १९प्राभूते तिवृत्तिः ताबडते णिययं । तेणेव कमेण पुणो परिहायति निक्खमंताणं ॥ २२ ॥ तेसिं कलंबुयापुप्फसंठिता हुंति ताव- (मल.) चन्द्रसूर्या | खेसपहा । अंतो य संकुडा बाहि वित्थडा चंदसूराणं ॥२३॥ दिपरिमाणं ॥२७॥ 'ता कइ णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति-किंप्रमाणा णमिति वाक्यालङ्कारे चन्द्रसूर्याः सर्वलोकेऽबभासन्ते-अव- सू १०० भासमाना उद्योतयन्तः तापयन्त:-प्रकाशयन्तः प्रभासयन्त आख्याता इति वदेत् !, एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्त्यः तावतीरुपदर्शयति-'तस्थे'त्यादि, तत्र-सर्वलोकविषय चन्द्रसूर्यास्तिस्वविषये खखिमा:-वक्ष्यमाणखरूपा ४ाद्वादश प्रतिपत्तयः-परतीर्थिकाभ्युपगमरूपा प्रज्ञप्ताः, तत्र-तेषां द्वादशाना परतीथिकानां मध्ये एके परतीथिका एव माहुः, ता इति तेषां परतीपिकानां प्रथम स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थी, एकश्चन्द्रः एकः सूर्यः सर्वलोकमवभासयति, अवभासयन् उद्योतयन तापयन् प्रभासयन् आख्यात इति वदेत् , अत्रैवोपसंहारमाह-'एगे। एक्माईसु' १, एके पुनरेवमाहुः-जयश्चन्द्राः त्रयः सूर्याः सर्वलोकमवभासयन्तः आख्याता इति वदेत् , उपसंहारवाक्य 'एगे एवमासु' २, एके पुनरेवमाहुरीचतुर्थाश्चन्द्रा अर्द्धचतुर्थाः सूर्याः सर्वलोकमवभासयन्त आख्याता इति वदेत् ॥ अत्राप्युपसंहारः 'एगे एबमाईसु' ३, 'एव'मित्यादि एवं-उक्केन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन तृतीयप्राभूत प्राभृतोक्तप्रकारेण द्वादशप्रतिपत्तिविषय सकलमपि सूत्र नेतव्यं, तञ्चैवम्-'सत्त 'चंदा सत्त सूरा' इति, एगे पुण एषमाइंस &ाता सत्त चंदा सत्त सूरा सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति वएज्जा, एगे एवमाइंसु ४, एगे पुण एवमाईसु-ता दस चंदा दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] FOR PERSON ~552~ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: दस सूरा सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति यएज्जा, एगे एवमाहंसु ५, एगे पुण एवमासु ता बारस चंदा बारस सूरा सबलोय ओभासंति ४ आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु ६, एगे पुग एवमाहंसु ता बायालीसं चंदा बायालीस सूरा सबलोयं ओभासंति ४ आहियत्ति बएज्जा एगे एबमाईसु ७, एगे पुण एवमासु-वावत्तरि चंदा बावत्तरि सूरा सब-| | लोयं ओभासंति ४ आहियत्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु ८, एगे पुण एवमाहंसु-बायालीसं चंदसर्थ यायालीसं सूरसयं सबलोयं ओभासेंति ४ आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु ९, एगे पुण एवमासु ता बावत्तर चंदसयं वायत्तरं सूरसयं सबलोयं भोभासेंति ४ आहियत्ति वएना, एगे एवमासु १०, एगे पुण एवमाईसु ता वाचालीस नंदसहस्सं वायालीसं सूरसहस्स सबलोयं भोभासेन्ति ४ आहियत्ति वएना एगे एवमाहंसु ११, एगे पुण एबमाइंसु ता बावतरं चंदसहस्सं बावत्तरं सूरसहस्सं सबलोयं ओभासेंति ४ आहियत्ति वएजा, एगे एवमासु १२, एताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः तथा च भगवान् स्वमतमताभ्यः पृथग्भूतमाह-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञाना एवं-यक्ष्यमाणाप्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ता अयण्णमित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण पठनीयं ब्याख्यानीयं च, 'ता जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते द्रव्यास्तिकनयमतेन | सकलकालमेवंविधाया एव जगत्स्थितेः सद्भावात् , तथा द्वौ सूर्यो तापितवन्तौ तापयतस्तापयिष्यतः, तथा एकैकस्य शशिनोऽष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिवारो जम्बूद्वीपे च द्वौ शशिनौ ततः षट्पञ्चाशनक्षत्राणि जम्बूद्वीपे चन्द्रसूर्याभ्यां सह योग युक्तवन्ति युञ्जन्ति योश्यन्ति वा, तथा एकैकस्य शशिनोऽष्टाशीतिग्रहाः परिवारः ततः शशिद्वयसत्कग्रहमीलने SSC दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] 25 ~553~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] 45%E गाथा: प्रज्ञ- सर्वसङ्क्षपया पट्सप्तत्यधिक प्रहशतं भवति, तत् जम्बूद्वीपे चारं चरितवत् चरति चरिष्यति च, तथा एकैकस्य शशि-Ple सिवृत्तिःनस्तारापरिवारः कोटीकोटीनां पटूपष्टिः सहस्राणि नब शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि जम्बूद्वीपे प दी शशिनी तत चन्द्रसर्या(मल०)लएतत्ताराप्रमाणं द्वाभ्यां गुण्यते, तत एक शतसहस्रं त्रयस्त्रिंशसहस्राणि नव शतानि पञ्चाशदधिकानि तारागण- दिपरिमाण कोटिकोटीनां भवन्ति, एतावत्प्रमाणास्तारा जम्बूद्वीपे शोभितवत्यः शोभन्ते शोभिप्यन्ते । सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय सू १०० ॥२७२॥ यथोक्तजम्बूद्वीपगतचन्द्रादिसल्यासङ्घाहिके द्वे गाणे आह–'दो चंदा इत्यादि, एते च द्वे अपि सुगमे, नवरं 'जंबुद्दीवे [वियारी ण' तब णमिति वाक्यालकारे, ततो वियारीति विभक्तिपरिणामेन चन्द्रादिभिः सह सामानाधिकरण्येन योजसनीयमिति । 'ता जंबुद्दीये णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् , जम्बूद्वीपं द्वीपं णमितिवाक्यालङ्कारे लवणो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः संपरिक्षिष्य-वेष्टयित्या तिष्ठति, एवं उक्ते भगवान गौतमः प्रश्नयति-'ता लवणे णं समुद्दे'इत्यादि सुगम, भगवानाह-'ता समचकवाले'त्यादि सुगमं, पुनः प्रश्नयति-'ता लवणे ण'मित्यादि सुगम, भगवानाह-'ता दो जोयणे'त्यादि, द्वे योजनशतसहस्रे चक्रबालविष्कम्भेन | पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशदधिक किश्चिद्विशेषोन परिक्षेपेण, तथाहि-लव-RI ॥२७॥ समुद्र एकतोऽपि योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भोऽपरतोऽपि द्वे योजनशतसहस्रे मध्ये च जम्बूद्वीपो। योजनशतसहस्रमिति सर्वसम्मीलने पञ्च लक्षा भवन्ति ५००००० एतेषां वर्गे जाताः पञ्चविंशतिर्दश च शून्यानि 2 | २५०००००००००० दशभिर्गुणने जातान्येकादश शून्यानि २५००००००००००० एतस्य राशेवर्गमूलानयने लब्धानि । दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] SAREaratinintamatidnav ~554~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत रक सूत्रांक [१००] गाथा: पञ्चदश लक्षाणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकमष्टात्रिंशदधिकं १५८११३८, शेषमुद्धरति षविंशतिर्लक्षाश्चतुर्विंशतिः सहस्राणि नव शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि छेदराशिरेकत्रिंशल्लक्षा द्वाषष्टिः सहस्राणि द्वे शते षट्सप्तत्यधिक ३१२१२० एतदपेक्षया योजनमेकं किश्चिदूनं लभ्यते, तत उक-"सयं च ऊयालं किंचिविसेसूणमिति, 'ता लवणे णं समुद्दे इत्यादि सुगम, लबणसमुद्रे चत्वारः शशिन इत्यष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि चतुर्भिर्गुण्यन्ते, ततो द्वादशोत्तरं नक्षत्राणां शतं 8 तन्त्र भवति, अष्टाशीतिश्च ग्रहाश्चतुर्भिर्गुण्यन्ते ततस्त्रीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि तेषां भवन्ति, ताराकोटीकोटीनां पट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि चतुभिर्गुण्यन्ते ततो यथोकं ताराप्रमाणं भवति, 'ता लवणं णं समुद'मित्यादि सकलमपि सुगर्म, नवरं परिधिगणितपरिभावना एवं कर्तव्या-जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भे योजनलक्षं लवण&स्योभयतो दे द्वे योजनलक्षे मिलिते इति ताश्चतम्रो लक्षाः घातकीखण्डस्योभयतश्चतम्रो २ लक्षा मिलिता अष्टौ सर्वसषया जाताखयोदश लक्षाणि १३००००० ततोऽस्य राशेचंगों जात एकका पदो नवकः शून्यानि च दश ४|१६९०००००००००० भूयो दशभिर्गुणने जातान्येकादश शून्यानि १६९००००००००००० एतेषां वर्गमूलानयने || लब्धानि एकचत्वारिंशच्छतसहस्राणि दश सहस्राणि नव शतानि एकषयधिकानि ४११०९६१ नक्षत्रादिपरिमाणमप्यटाविंशत्यादिसयानि नक्षत्रादीनि द्वादशभिर्गुणयित्वा स्वयमानेतव्यं । 'ता धायइखंडण्ण'मित्यादि, एतदपि सकलं सुगम, 'ता कालोए णं समुद्देइत्यादि, एतदपि सुगम, नवरं परिक्षेपगणितभावना इयं-कालोदसमुद्रस्य एकतोऽपि चक्रवालतया विष्कम्भोऽष्टौ योजनलक्षा अपरतोऽपीति पोडश धातकीखण्डस्य एकतोऽपि चतम्रो लक्षा अपरतोऽपी दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~555 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्तिवृत्तिः [१००] सू१०० गाथा: सूर्यप्रज्ञ- त्यष्टौ लवणसमुद्रस्य एकतोऽपि द्वे लक्षे अपरतोऽपीति चतनः एका लक्षा जम्बूद्वीपस्येति सर्वसङ्ख्यया एकोनत्रिंशल्लक्षाः १९प्राभूते ४२९००००० एतेषां वो विधीयते जातोऽष्टकश्चतुष्क एककः शून्यानि दश ८४१०००००००००० ततो दशभिर्गुणने चन्द्रसूर्या(मल०) जातान्येकादश शून्यानि ८४१००००००००००० तेषां वर्गमूलानयने लब्धं यथोक्तं परिधिपरिमाणं ९१७०६०५, शेष दिपरिमाण ॥२७॥ त्रिको नवकस्त्रिकखिको नवकः सप्तकः पञ्चकः ३९३३९७५ इति वदवतिष्ठते तदपेक्षया विशेषाधिकत्वमुक्त, 'एकाण-12 उई सपराई सपसहस्साईति एकनवतिः शतसहस्राणि सप्ततानि-सप्ततिसहस्राधिकानि, नक्षत्रादिपरिमाणं च अष्टा-18 विंशत्यादिसपानि नक्षवादीनि द्वाचत्वारिंशता गुणयित्वा भावनीय, 'ता कालोयं णं समुदं पुक्खरवरेण मित्यादि। सुगम, गणितभावना त्वियं-पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वतः षोडश लक्षा अपरतोऽपीति द्वात्रिंशत् लक्षाः कालोदधेः पूर्वतोऽष्टौ अपरतोऽप्यष्टाविति पोडश धातकीखण्डत्य एकतोऽपि चतम्रो लक्षा अपरतोऽपि चतन इत्यष्टौ लवणसमुद्रे एकतोऽपि वेलक्षे अपरतोऽपि द्वे इति चतम्रो जम्बूद्वीपो लक्षमिति सर्वसङ्कलनया जाता एकपष्टिलक्षाः ६१००००० एतस्य राशेर्वगों विधीयते जातखिकः सप्तको द्विक एकका दश च शून्यानि ३७२१०००००००००० ता दशभिर्गुणने जासानि शून्यान्ये-12 कादश ३७२१००००००००००० एतेषां वर्गमूलानयने लब्धं यथोक परिधिपरिमाणं, नक्षत्रादिपरिमाणं चाष्टाविंश-४ त्यादिसयानि नक्षत्रादीनि चतुश्चत्वारिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयं परिभावनीयं । 'ता पुक्खरवरस्स ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , पुष्करवरस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुषोत्तरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, स च वृत्तो, वृत्तं च मध्यपूर्णमपि भवति यथा कौमुदीक्षणे शशांकमण्डलं ततस्तद्रूपताब्यवच्छेदार्थमाह-वलयाकारसंस्थानसंस्थितो यः पुष्करवरद्वीपं द्विधा : दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~556~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च विभजमानो विभजमान स्तिष्ठति, केनोल्लेखेन द्विधा विभजमानस्तिष्ठति अत आह-तद्यथा-अभ्य. &ान्तरपुष्कराद्धं च बाह्यपुष्करा च, पशब्दः समुच्चये, किमुक्तं भवति ?-मानुपोत्तरात्पर्वतादाक् यत् पुकराई तदभ्य-II तरपुष्करार्द्ध यत्पुनस्तस्मान्मानुषोत्तरात्पर्वतात्परतः पुष्करार्द्ध तद्वाह्यपुष्कराद्धमिति, 'ता अम्भितरपुक्खरद्धे ण'-16 समित्यादि सर्वमपि सुगर्म, नवरं परिधिगणितभावना प्राग्वत्कर्चच्या, नक्षत्रादिपरिमाणं चाष्टाविंशत्यादिसपानि नक्षत्रादीनि द्वासप्तत्या गुणयित्वा परिभायनीयं ॥ सम्पति मनुष्यक्षेत्रवक्तव्यतामाह-'ता माणुसखेत्ते णं केवइय'मित्यादि। सुगम, नवरं मानुषक्षेत्रस्यायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चचत्वारिंशल्लक्षा एवं-एका लक्षा जम्बूद्वीपे ततो लवणसमुद्रे एकतोऽपि दे लक्षे अपरतोऽपि द्वे लक्षे इति चतन्त्रः धातकीखण्डे एकतोऽपि घतम्रो लक्षा अपरतोऽपीत्यष्टौ कालोदसमुद्रे एक-121 तोऽपि अष्टावपरतोऽप्यष्टाविति पोडश अभ्यन्तरपुष्कराद्देऽप्येकतोऽप्यष्टौ लक्षा अपरतोऽपीति पोडशेति सर्वसङ्ख्यया पञ्चचत्वारिंशतक्षाः, परिधिगणितपरिभावना तु 'विक्खम्भवम्गदहगुणे त्यादिकरणवशात् स्वयं कर्तव्या, नक्षत्रादिप४रिमाणं तु अष्टाविंशत्यादिसलपानि नक्षत्रादीन्येकशशिपरिवारभूतानि द्वात्रिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयमानेतन्यं, 'अद्वेच सपसहस्सा' इत्यादि, अत्र गाधापूर्वार्द्धनाभ्यन्तरपुष्करार्द्धस्य विष्कम्भपरिमाणमुकं, उत्तराद्धेन मानुपक्षेत्रस्य । 'कोटी-1 त्यादि, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंदात्-द्विचत्वारिंशच्छतसहस्राधिका त्रिंशत् सहस्राणि द्वे शते एकोनपश्चाशदधिके | |२४२३०२४९ एतावत्ममाणो मानुषक्षेत्रस्य परिरयः, एष एतावत्प्रमाण एव पुष्करार्द्धस्य-अभ्यन्तरपुष्करार्द्ध स्थापि परि-15 रया, 'पावसरि च चंदा' इत्यादिगाथात्रयमभ्यन्तरपुष्करागतचन्द्रादिसङ्ग्याप्रतिपादकं सुगम, यदपि च 'पतीस चंद-14 दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~557~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूत्रांक [१०० ] + गाथा: अनुक्रम [१२९ -१९२] प्राभृत [१९], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ सिवृत्तिः ( मल० ) ॥२७४॥ “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्ति:) Jan Eucation intern सय मित्यादि गाथात्रयं सकलमनुष्यलोकगतचन्द्रादिसङ्ख्याप्रतिपादकं तदपि सुगमं, 'अट्ठासीई चत्ता' इति अष्टाशीतिः शतसहस्राणि चत्वारिंशानि चत्वारिंशत्सहस्राधिकानि शेषं गतार्थ, सम्प्रति सकलमनुष्य लोकगततारागणस्यैवोपसंहारमाह- 'एसो इत्यादि, एप:- अनन्तरगाथोक्तसङ्घा कस्तारापिण्डः सर्वसया मनुष्यलोके आख्यात इति गम्यते, बहिः पुनर्मनुष्यलोकात् यास्तारास्ता जिनैः सर्वज्ञैस्तीर्थकृद्भिर्भणिता असङ्ख्याताः द्वीपसमुद्राणामसङ्ख्यातत्वात् प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च यथायोगं सङ्ख्येयानामसङ्ख्यानां च ताराणां सद्भावात् 'एवयमित्यादि एतावत्सङ्ख्याकं तारापरिमाणं यदनन्तरं भणितं मानुषे लोके तत् ज्योतिष्कं - ज्योतिष्कदेवविमानरूपं 'कदम्बपुष्पसंस्थितं कदम्बपुष्पयत् अधः सङ्कु चितं उपरि विस्तीर्णमुत्तानीकृतार्द्धकपित्थसंस्थान संस्थितमित्यर्थः चारं चरति चारं प्रतिपद्यते, तथाजगत्स्वाभाव्यात् ताराग्रहणं चोपलक्षणं तेन सूर्यादयोऽपि यथोक्तसङ्ख्याका मनुष्यलोके तथाजगत्स्वाभाव्याच्चारं प्रतिपद्यन्ते इति द्रष्टव्यं ।। सम्प्रत्येतद्गतमेवोपसंहारमाह- 'रवी' त्यादि, रविशशिग्रहनक्षत्राणि उपलक्षणमेतत् तारकाणि च एतावन्ति एतावत्सयानि आख्यातानि सर्वज्ञैर्मनुष्यलोके येषां किमित्याह--येषां सूर्यादीनां यथोक्तसङ्ख्याकानां सकलमनुष्यलोकभाविनां प्रत्येकं 'नामगोत्राणि' इहान्यर्थयुक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया नामगोत्रमित्युच्यते, ततोऽयमर्थः- नामगोत्राणि - अम्बर्थयुक्तानि नामानि यदिवा नामानि च गोत्राणि च नामगोत्राणि प्राकृता - अनतिशयिनः पुरुषा न कदाचनापि प्रज्ञापविध्यन्ति, केवलं यदा तदा वा सर्वज्ञा एव तत इदमपि सूर्यादिसङ्ख्यानं प्राकृतपुरुषाप्रमेयं सर्वज्ञोपदिष्टमिति सम्यक् श्रद्धेयमिति । 'छावट्ठी पिडगाई इत्यादि, इह द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यौ चैकं पिटकमुच्यते, इत्थम्भूतानि च चन्द्रादित्यानां For Parts Only ~558~ १९ प्राभूते ५ चन्द्रसूर्यादिपरिमाणं सू १०० ॥२७४॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] **+CONCC-CRACK पिटकानि सर्वसङ्ख्यया मनुष्यलोके भवन्ति षट्षष्टिः-षट्पष्टिसङ्ख्याकानि । अथ किंप्रमाणे पिटकमिति पिटकप्रमाण-IM माह-एकैकस्मिन्नपि पिटके द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो भवतः, किमुक्तं भवति ?-द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यायित्येतावत्प्रमाणमेकैकं । चन्द्रादित्यानां पिटकमिति, एवंप्रमाणं च पिटकै जम्बूद्वीये, एकं जम्बूद्वीपे द्वयोरेव चन्द्रमसोईयोरेव च सूर्ययोर्भावात् । ला पिटके लवणसमुढे तत्र चतुर्णा चन्द्रमसा चतुर्णा च सूर्याणां भावात् , एवं पट पिटकानि धातकीखण्डे एकविंशतिः । कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराढ़ें इति भवन्ति सर्वमीलने चन्द्रादित्यानां षट्पष्टिः पिटकानि । 'छावट्ठी'त्यादि, सर्वस्मिन्नपि मनुष्यलोके सर्वसङपया नक्षत्राणां पिटकानि भवन्ति षट्षष्टिः, नक्षत्रपिटकप्रमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिनक्षत्र-| सङ्ख्यापरिमाण, तथा चाह-एकैकस्मिन् पिटके नक्षत्राणि भवन्ति षट्पश्चादात्सवानि, किमुक्तं भवति ?-पट्पश्चाशनक्षत्र-13 सङ्ख्याकमेकैक नक्षत्रपिटक, अत्रापि पट्षष्टिसमाभावना एवं-एक नक्षत्रपिटकं जम्बूद्वीपे दे लवणसमुद्रे षट् धातकीमखण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराः इति । 'छावट्ठी'त्यादि, महाग्रहाणामपि सर्वस्मिन् मनुष्यलोके सर्व-12 लासपया पिटकानि भवन्ति पट्पष्टिः, महपिटकप्रमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिग्रहसङ्घषापरिमाण, तथा चाह-एकैकस्मिन II ग्रहपिटके भवति पटूसप्तत्यधिकं ग्रहशतं, सप्तत्यधिकमहशतपरिमाणमेकैकं ग्रहपिटकमिति भावः, पदूषष्टिसयाभावना |च प्राम्यत्कर्त्तव्या। चत्तारि य' इत्यादि, इह मनुष्यलोके चन्द्रादित्यानां पतयश्चतस्रो भवन्ति, तद्यथा-द्वे पती चन्द्राणां दे सूर्याणां, एक का च पतिर्भवति षट्षष्टिः-षट्षष्टिसूर्यादिसङ्ख्या, तद्भावना चै-एकः किल सूर्यो जम्बूद्वीपे मेरौ दक्षिभागे चारं चरन् वर्तते एक उत्तरभागे एकश्चन्द्रमा मेरोः पूर्वभागे एकोऽपरभागे, तत्र यो मेरोदक्षिणभागे सूर्यश्चारं | गाथा: दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~559~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूर्यम- तिवृत्तिः (मल ॥२७५॥ [१००] -8 गाथा: -* चरन् वर्तते तत्समश्रेणिव्यवस्थितौ द्वौ दक्षिणभागे सूयौं लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशत् १९प्राभूते अभ्यन्तरपुष्कराइँ इत्यस्यां सूर्यपती पक्षष्टिः सूर्याः, योऽपि च मेरोरुत्तरभागे व्यवस्थितः सूर्यश्चारं चरन् वर्तते अस्यापि चन्द्रसूया: समश्रेण्या व्यवस्थितौ द्वावुत्तरभागे सूर्यों लवणसमुद्रे धातकीखण्डे षट् एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराद्धे दिपरिमाण इत्यस्यामपि पङ्खी सर्वसङ्ख्यया षट्षष्टिः सूर्याः, तथा यो मेरोः किल पूर्वभागे चारं चरन् वर्चते चन्द्रमा तत्समश्रेणिज्य- सू१० वस्थितौ द्वौ पूर्वभाग एवं चन्द्रमसौ लवणसमुद्दे पट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराद्धे इत्यस्यां | चन्द्रपती सर्वसङ्ख्यया पट्षष्टिश्चन्द्रमसः, एवं यो मेरोरपरभागे चन्द्रमास्तन्मूलायामपि पकौ पट्षष्टिश्चन्द्रमसो वेदितव्याः।। 'छावट्ठी' इत्यादि, नक्षत्राणां मनुष्यलोके सर्वसङ्ख्यया पतयो भवन्ति षट्पञ्चाशत् , एकैका च पतिर्भवति पट्पष्टिः-11 षट्षष्टिनक्षत्रप्रमाणा इत्यर्थः, तथाहि-अस्मिन् किल जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य शशिनः परिवारभूतानि अभि|जिदादीन्यष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि चार चरन्ति उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूतानि | अष्टाविंशतिसङ्ख्याकान्यभिजिदादीन्येव नक्षत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि, तब दक्षिणतोऽर्द्धभागे यदभिजिन्नक्षत्रं तस्स-17 मश्रेणिव्यवस्थिते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे पट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराइँ इति | सर्वसमाया पक्षष्टिरभिजिन्नक्षत्राणि पङ्क्त्या व्यवस्थितानि, एवं श्रवणादीन्यपि दक्षिणतोऽर्द्धभागे पड्कत्या व्यवस्थितानि || 16॥२७॥ पट्पटिसङ्ख्याकानि भावनीयानि, उत्तरतोऽप्यर्द्धभागे यदभिजिनक्षत्र तत्समश्रेणिव्यवस्थिते उत्तरभागे एव वे अभिजि-श नक्षत्रे लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशत् पुष्कराड़े, एवं श्रवणादिपङ्क्तयोऽपि प्रत्येकं षट् * दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] RELIGunintentRTAL ~560 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: पष्टि सङ्ख्याका वेदितच्या इति भवन्ति सर्वसङ्ख्यया षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणां पतयः, एकैका च पशिः षट्षष्टिसङ्खयेति ।। 'छावट्ठी'त्यादि, ग्रहाणामङ्गारकप्रभृतीनां सर्वसङ्ख्यया मनुष्यलोके षट्सप्तत्यधिक पतिशतं एकैका च परिभवति पद-11 पष्टिः-पट्पष्टिग्रहसङ्ख्या, अचापीय भावना-इह जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृतयोऽष्टाशीतिर्ग्रहाः, उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृतय एवाटाशीतिः, तत्र दक्षिण-2 तोऽर्द्धभागे योऽङ्गारकनामा ग्रहस्तत्समश्रेणिव्यवस्थितौ दक्षिणभागे एव द्वावारको लवणसमुद्रे षट् धातकीखण्डे एक-TA विंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्करार्दै इति पट्पष्टिः एवं शेषा अपि सप्ताशीतिर्महा: पहलत्या व्यवस्थिताः प्रत्येक पटूपष्टिवेदितव्याः, एवमुत्तरतोऽप्यर्द्धभागे अनारकप्रभृतीनामष्टाशीतर्पहाणां पतयः प्रत्येकं पट्पष्टिसयाका भावनीया | इति भयति सर्वसङ्ख्यया ग्रहाणां पट्सप्ततं पतिशतमेकैका च पतिः षट्षष्टिसझ्याकेति । ते मेरुमणुचरंती'त्यादि, ते-13 मनुष्यलोकवासिनः सर्वे चन्द्राः सर्वे सूर्याः सर्वे च ग्रहगणा अनवस्थितैः-यथायोगमन्यैरन्यनक्षत्रेण सह योगैरुपलक्षिताः मापयाहिणावचमंडला' इति प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेरुर्भवति यस्मिन्नाव-12 तन-मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः प्रदक्षिण आवों येषां मण्डलाना तानि तथा प्रदक्षिणावर्तानि मण्डलानि येषां ? ते तथा, मेरुमनुलक्षीकृत्य चरन्ति, एतेनैतदुक्कं भवति-सूर्यादयः समस्ता अपि मनुष्यलोकवर्तिनः प्रदक्षिणावर्त्तमण्डल-11 गत्या परिभ्रमन्तीति, इह चन्द्रादित्यग्रहाणां मण्डलानि अनवस्थितानि, यथायोगमन्यस्मिन् अन्यस्मिन् मण्डले तेषा सञ्चारित्वात् , नक्षत्रताराणां तु मण्डलान्यवस्थितान्येव, तथा चाह-निक्खत्ते'त्यादि, नक्षत्राणां तारकाणां च मण्डला दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~561~ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रजतिवृत्तिः सूत्रांक (मल०) [१००] ॥२७६॥ गाथा: न्यवस्थितानि ज्ञातव्यानि, किमुक्तं भवति ?-आकालं प्रतिनियतमेकैकं नक्षत्राणां तारकाणां च प्रत्येक मण्डलमिति, न||१९ प्राभृते चित्थमयस्थितमण्डलत्योक्तावमाशङ्कनीयं यथतेषां गतिरेव न भवतीति, यत आह-'तेऽविष'इत्यादि, तान्यपि-नक्ष- चन्द्रसूर्यात्राणि तारकाणि च, सूत्र पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्रदक्षिणावर्त्तमेव, इदै क्रियाविशेषणं, मेरुमनुलक्षीकृत्य चरन्ति, एतच दिपरिमाण मेरे लक्षीकृत्य प्रदक्षिणावर्त तेषां चरणं प्रत्यक्षत एवोपलक्ष्यत इति संवादि । 'रमणिपरे'त्यादि, रजनिकरदिनकराणां-18 सू१०० | चन्द्रादित्यानामूर्यमधश्च सङ्कामो न भवति, तथाजगत्स्वाभाच्यात् , तिर्यक् पुनर्मण्डलघु सङ्क्रमण भवति, किंविशिष्टमित्याह-1 साभ्यन्तरवाय-अभ्यन्तरं च बाह्यं च अभ्यन्तरवाह्यं सहाभ्यन्तरबाह्येन वर्तते इति साभ्यन्तरबार्हा, एतदुक्तं भवति-I सर्वाभ्यन्तरामण्डलात्परतः तावन्मण्डलेषु सङ्घमणं यावत् सर्वबाह्य मण्डलं सर्ववाह्याच मण्डलार्वाक् तायन्मण्डलेषु सङ्कमणं यावत् सर्वाभ्यन्तरमिति। रपणियरे'त्यादि, रजनिकरदिनकराणां--चन्द्रादित्यानां नक्षत्राणां च महाग्रहाणां च चारविशेषेण-तेन तेन चारेण सुखदुःखविधयो मनुष्याणां भवन्ति, तथाहि-द्विविधानि सन्ति सदा मनुष्याणां कम्माणि, तद्यथा-शुभवेद्यानि अशुभवेद्यानि च, कर्मणां च सामान्यतो विपाकहेतयः पत्र, तद्यथा-द्रव्य क्षेत्र कालो भायो भवश्व, उक्तं च-“उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जं च कन्मुणो भणिया। दवं च खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥ १॥ |शुभकर्मणां प्रायः शुभवेद्यानां च कर्मणां शुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री विपाकहेतुरशुभवेद्यानामशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री ततो यदा येषां जन्मनक्षत्रादिविरोधी चन्द्रसूर्यादीनां चारो भवति तदा तेषां प्रायो यान्यशुभवेद्यानि कर्माणि तानि तां तथाविधा विपाकसामग्रीमवाप्य विपाकमायान्ति, विपाकमागतानि च शरीररोगोत्पादनेन धनहानिकरणतो वा दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] -56-54-%25-05 ~562~ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: प्रियविप्रयोगजननेन वा कलहसंपादनतो वा दुःखमुत्पादयन्ति, यदा च येषां जन्मनक्षत्राद्यनुकूलः चन्द्रादीनां चारस्तदा। तेषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि तानि तांतधाविधां विपाकसामग्रीमधिगम्य विपाक प्रतिपद्यन्ते, प्रपन्नविषाकानि च तानि शरीरनीरोगतासम्पादनतो धनवृद्धिकरणेन वा वैरोपशमनतः प्रियसम्प्रयोगसम्पादनतोषा यदिवा प्रारब्धाभीष्टप्रयो-10 जननिष्पत्तिकरणतः सुखमुपजनयन्ति, अत एव महीयांसः परमविवेकिनोऽल्पमपि प्रयोजन शुभतिथिनक्षत्रादावारभन्ते दिन तु यथाकथंचन, अत एव जिनानामप्याज्ञा पत्राजनादिकमधिकृत्येत्थमवतिष्ट यथा शुभक्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखी-13 कृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादौ प्रनाजनव्रतारोपणादि कर्त्तव्यं, नान्यथा, तथा चोकं पञ्चवस्तुके-"एसा जिणाणPIमाणा खित्ताईया य कम्मुणो भणिया । उदयाइकारणं जं तम्हा सबस्थ जइयर्थ ॥ १॥" अस्या अक्षरगमनिका-13 एषा जिनानामाज्ञा शुभे क्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथिनक्षत्रमुहूर्तादौ प्रजाजनव्रतारोपणादि कर्तव्य, नान्य-IA था, अपिच-क्षेत्रादयोऽपि कर्मणामुदयादिकारणं भगवद्भिक्ताः , ततोऽशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री प्राप्य कदाचिदशुभविद्यानि कर्माणि विपाकं गत्वोदयमासादयेयुः, तदुदये च गृहीतव्रतभङ्गादिदोषप्रसङ्गः, शुभद्रध्यक्षेत्रादिसामग्यां तु प्रायो| नाशुभकर्मविपाकसम्भव इति निर्विघ्नं सामायिकपरिपालनादि, तस्मादयश्य छद्मस्थेन सर्वत्र शुभक्षेत्रादौ यतितव्यं ।। ये तु भगवन्तोऽतिशयिनस्ते अतिशयवलादेव सविघ्नं निर्विघ्नं वा सम्यगधिगच्छन्ति ते न शुभतिथिमुह दिकमपेक्षन्ते | इति न तन्मार्गानुसरणं छद्मस्थानां न्याय्यं, तेन ये परममुनिपर्युपासितप्रवचनविडम्बका अपरिमलितजिनशासनोपनि-11 पद्भूतशास्त्रा गुरुपरम्परायातनिरवद्यविशदकालोचितसामाचारीप्रतिपन्धिनः स्वमतिकल्पितसामाचारीका अभिदधति दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~563 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूत्रांक [१०० ] + गाथा: अनुक्रम [१२९ -१९२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१९], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञसिवृत्तिः ( मल० ) ॥ २७७॥ Education in यथा- न प्रत्राजनादिषु शुभतिथिनक्षत्रादिनिरीक्षणं कर्त्तव्यं, न खलु भगवान् जगत्स्वामी मन्त्राजनायोपस्थितेषु शुभतिथ्यादिनिरीक्षणं कृतवानिति ते अपास्ता द्रष्टव्याः । 'तेसि' मित्यादि, तेपां - सूर्यचन्द्रमसां सर्वबाह्यात् मण्डलाभ्यन्तरं प्रविशतां तापक्षेत्रं प्रतिदिवसं क्रमेण नियमादायामतो वर्द्धते येन च क्रमेण परिवर्द्धते तेनैव क्रमेण सर्वाभ्यतरान्म४ण्डलाइ बहिः निष्क्रमतां परिहीयते, तथाहि सर्वधाये मण्डले चारं चरतां सूर्याचन्द्रमसां प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशधाप्रविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रं, ततः सूर्यस्याभ्यन्तरं प्रविशतः प्रतिमण्डलं पथ्यधिकपटूत्रिंशच्छत भक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रस्य वद्धेते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येकं पौर्णमासीसम्भवे क्रमेण प्रतिमण्डलं पडूविंशतिः पविंशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च एकः सप्तभाग इति वर्द्धते, एवं च क्रमेण प्रतिमण्डलमभिवृद्धौ यदा सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतः तदा प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य त्रयः परिपूर्णा दशभागास्तापक्षेत्रं, ततः पुनरपि सर्वाभ्यन्तरामण्डलाद्वहिर्निष्क्रमणे सूर्यस्य प्रतिमण्डलं पथ्यधिकपटूत्रिंशच्छतप्रविभक्तस्य जम्बूद्वीपचक्रवालस्य द्वौ द्वौ भागौ परिहीयेते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येकं पौर्णमासीसम्भवे क्रमेण प्रतिमण्डलं षड्विंशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च भागस्य एकः सप्तभाग इति । 'तेसि'मित्यादि, तेषां चन्द्रसूर्यादीनां तापक्षेत्रपथाः कलम्बुकापुष्पसंस्थिता - नालिकापुष्पाकारा भवन्ति, एतदेव व्याचष्टे अन्तः- मेरुदिशि सङ्कुचिता, बहिः-उवगदिशि विस्तृता, एतच्च प्रागेव चतुर्थे प्राभृते भावितमिति न भूयो भाध्यते ॥ सम्प्रति चन्द्रमसमधिकृत्य गौतमः प्रश्नयति hi बहुत चंद्रो ? परिहाणी केण हुंति चंदस्स ? । कालो वा जोव्हो वा केणऽणुभावेण चंदस्स १ ॥ २४ ॥ For Par Lise Only ~564~ १९ प्राभूते चन्द्रसूर्यादिपरिमाणं सू १०० ॥२७७॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१०० ] + गाथा: दीप अनुक्रम [१२९ -१९२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१९], मूलं [१००] + गाथा: प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education International किण्हं राहुविमाणं णिचं चंद्रेण होइ अविरहितं । चतुरंगुलमसंपत्तं हिचा चंदस्स तं चरति ।। २५ ।। बाबि २ दिवसे २ तु सुकपक्खस्स । जं परिवहुति चंदो खदेड़ तं चैव कालेणं ॥ २६ ॥ पण्णरसहभागेण य चंदं | पण्णरसमेव तं चरति । पण्णरसतिभागेण य पुणोवि तं चैव वक्कमति ॥ २७ ॥ एवं बहुति चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स । कालो वा जुण्हो वा एवऽणुभावेण चंदस्स ॥ २८ ॥ अंतो मणुस्मखेत्ते हवंति चारो वगा तु उबवण्णा । पंचचिहा जोतिसिधा चंदा सूरा गगणा य ॥ २९ ॥ तेण परं जे सेसा चंदादिच्चगहतारणक्खत्ता । णत्थि गती णवि चारो अवद्विता ते मुणेपषा ॥ ३० ॥ एवं जंबुद्दीबे दुगुणा लवणे चउरगुणा हुंति । लावणगा यतिगुणिता ससिरा घायसंडे || ३१ || दो चंदा इह दीवे चत्तारि य सायरे लवणतोए । | धायइसंडे दीवे वारस चंदा य सूरा य ॥ ३२ ॥ घातइडप्पभिति उद्दिट्टा तिगुणिता भवे चंदा । आदिलचंदसहिता अनंतराणंतरे खेसे ॥ ३३ ॥ रिक्खग्गहतारग्गं दीवसमुद्दे जहिच्छसी गाउं । तस्ससीहिं तरगुणितं रिक्खग्गहतारगग्गं तु ॥ ३४ ॥ वहिता तु माणुसनगस्स चंदसूराणऽयद्विता जोरहा। चंदा अभीषीजुत्ता सूरा पुण हुंति पुस्सेहिं ॥ ३५ ॥ चंदातो सूरस्त य सूरा चंदस्स अंतरं होई । पण्णास सहस्साई तु जोयणाणं अणूणाई ॥ ३६ ॥ सूररस य २ ससिणो २ य अंतरं होई । बाहिं तु माणुसनगस्स जोयणाणं सतसहस्सं || ३७ || सूरतरिया चंदा चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता । चित्तंतरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा प ॥ ३८ ॥ अट्टासीतिं च गहा अट्ठावीसं च हुंति नक्खता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण वोच्छामि ॥ ३९ ॥ For PPLse Only ~ 565~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) सूत्रांक [१०० ] + गाथा: अनुक्रम [१२९ -१९२] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्ति:) प्राभृत [१९], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यमज्ञ ॥२७८॥ छावट्टिसहस्साई णव चेव सताई पंचसतराई । एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीनं ॥ ४० ॥ अंतो २१९ प्राभृते सिवृत्तिः ४ मणुस्खे से जे चंदिमसूरिया गहगणणक्खत्ततारावा ते णं देवा किं उद्घोववमा कप्पोववण्णा १२ चन्द्रवृक्षा ( मल० विमाणोववण्णगा चारोववण्णमा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा ?, ता ते णं देवा णो उद्घोववदिचन्द्रा पणगा नो कप्पोचवण्णगा विमाणोचवण्णगा चारोववण्णगा नो चारंठितीया गहरइया गतिसमावण्णगा ४१ दीनामूर्ध्व * त्पन्नत्व दि उद्धामुहकलंयु अपुष्फठाण संहितेहिं जोअणसाहस्सिएहिं तावक्खेतेहिं साहस्सिएहिं बाहिराहि यसू १०० याहिं परिसाहिं महताहतणहगीय वाइयतंतीतलता लतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं महता उकट्टिसीहणादकलकलरबेणं अच्छं पचतरायं पदाहिणावसमंडलचारं मेरुं अणुपरियइति, ता तेसि णं देवाणं जाधे इंदे अचयति से कथमिदाणिं पकरेंति ?, ता चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति जाब अण्णे इत्थ इंदे उबवण्णे भवति, ता इंदठाणे णं केयइएणं कालेणं विरहियं पन्नत्तं ?, ता जपणेण इकं समयं उकोसेणं छम्मासे, ता बहिता णं माणूस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगह जाव तारारूया ते णं देवा किं उडो| ववण्णमा कप्पोववण्णगा विमाणोचवण्णगा चारद्वितीया गतिरतीया गतिसमावण्णगा ?, ता ते णं देवा णो उहोचवण्णगा नो कप्पोववण्णगा विमाणोचवण्णगा जो चारोववण्णमा चारठितीया नो गइरहया णो गतिसमावण्णगा पहिगसंठाणसंठितेहिं जोपणसयसाहस्सिएहिं तावकखेत्तेहिं सयसाहस्सियाहिं पाहि| राहिं वेडवियाहिं परिसाहिं महताहत नहगीयवाहयजावरवेणं दिवाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरति, For Penal Use Only ~566~ ॥२७८॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सुहलेसा मंदलेसा मंदायथलेसा चित्तंतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं कूडा इव ठाणठिता ते |पदेसे सबतो समंता ओभासंति उज्जोति तवेंलि पभाति, ता तेसिणं देवाणं जाहे इंदे चयति से कहमिदाणि पकरेंति , ता जाव चत्तारि पंच सामाणियदेवा तं ठाणं तहेव जाव छम्मासे (सूत्रं १००)॥ | 'केण'मित्यादि, केन कारणेन शुक्लपक्षे चन्द्रो बर्द्धते ?, केन वा कारणेन चन्द्रस्य कृष्णपक्षे परिहानिर्भवति, केन | वा अनुभावेन-प्रभावेन चन्द्रस्य एकः पक्षः कृष्णो भवति एको ज्योत्स्न:-शुक्ल इति !, एवमुक्ते भगवानाह-'किण्ह'मि-3 त्यादि, इह द्विविधो राहुस्तद्यथा-पराहुः नित्यराहुश्च, तत्र पर्वराहुः स उच्यते यः कदाचिदकस्मात्समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं च अन्तरितं करोति, अन्तरिते च कृते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः, स इह न गृह्यते, यस्तु नित्य-18 राहुस्तस्य विमानं कृष्णं, तच्च तथाजगत्स्वाभाब्यात् चन्द्रेण सह नित्य-सर्वकालमविरहितं तथा चतुरङ्गलेन-चतुर्भिरङ्गलरमाप्तं सत् चन्द्रविमानस्याधस्ताचरति, तश्चैवं चरत् शुक्लपक्षे शनैः शनैः प्रकटीकरोति चन्द्रमसं कृष्णपक्षे च शनैः शनैरावृणोति, तथा चाह-बावहिमित्यादि, इह द्वापष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्यद्वी भागायुपरितनावपाकृत्य | शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते द्वापष्टिशब्देनोच्यन्ते, 'अवयवे समुदायोपचारात्', एतच व्याख्यानं जीवाभिगमर्यादिदर्शनतः कृतं, न पुनः स्वमनीषिकया, तथा चास्या एव गाथाया व्याख्याने जीवा-12 भिगमचूर्णिः-"चन्द्रविमानं द्वापष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिभांगो हियते, तत्र चत्वारो भागा द्वाषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, शेपी द्वौ भागौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यते" इत्यादि, एवं च सति यत् समया दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~567~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत निवृत्तिः सूत्रांक [१००] गाथा: 05% सूर्यप्रज्ञा याङ्गसूत्र-'सुकपक्खस्स दिवसे २ चंदो बावहिं भागे परिवहुइति तदप्येवमेव व्याख्येयं, सम्प्रदायवशाद्धि सूत्र ||१९प्राभृते व्याख्येयं, न स्वमनीपिकया, सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य दिवसे यत्-वस्मात्कारणात् चन्द्रो द्वापष्टिं चन्द्रवृक्ष्या (मल०) २ भागान-द्वापष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् यावत्परिवर्द्धते, 'कालेन' कृष्णपक्षेन पुनर्दिवसे दिवसे तानेवदि चन्द्रा२७माद्वापष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् क्षपयति-परिहापयति । एतदेव ध्याचष्टे-पन्नरस'इत्यादि. कृष्णपक्षे प्रतिदि-मादानामूवा वसं राहुविमानं स्वकीयेन पञ्चदशेन भागेन चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भागं वृणोति-आच्छादयति, शुक्लपक्षे तु पुनस्तमेव | स्पन्नत्वादि सू१०० |मतिदिवस पञ्चदशभागं आत्मीयेन पञ्चदशभागेन व्यतिक्रामति-मुञ्चति, किमुक्कं भवति ।-कृष्णपक्षे प्रतिपद आर-| भ्यात्मीयेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितनभागादारभ्यावृणोति, शुक्लपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य 2 |तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलवृद्धिहानी प्रतिभासेते, स्वरूपतः । पुनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव । तथा चाह–एवं वहुई'इत्यादि, एवं-राहुविमानेन प्रतिदिवस क्रमेणानावरणकरणतो वर्द्धते-बर्द्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः, एवं-राहुविमानेन प्रतिदिवस क्रमेणावरणकरणतः प्रतिहानिः-प्रतिहानिप्रतिभासो | भवति चन्द्रस्य विषये, एतेनैवानुभावेन कारणेन एकः पक्षः कालः-कृष्णो भवति, यत्र चन्द्रस्य परिहानिः प्रतिभासते, एकस्तु ज्योत्स्न:-शुक्लो यत्र चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः । 'अंतो'इत्यादि, अन्तः-मध्ये मनुष्यक्षेत्रे-मनुष्यस्य । क्षेत्रस्य पञ्चविधा ज्योतिषकार, तद्यथा-चन्द्राः सूर्य ग्रहगणाश्चशब्दानक्षत्राणि तारकाश्च भवन्ति, पारोपगा:-चारयुक्ताः, 'तेण पर'मित्यादि, तेनेति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यथें तृतीया, ततो मनुष्यक्षेत्रात् परं यानि शेषाणि चन्द्रादित्यग्र दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] * ~568~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: हतारानक्षत्राणि-चन्द्रादित्यग्रहतारानक्षत्रविमानानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , तेषां नास्ति गतिः-न स्वस्मात् || | स्थानाञ्चलनं नापि चारो-मण्डलगत्या परिधमणं किन्त्ववस्थितान्येव तानि ज्ञातव्यानि । एवं जंबुद्दीये इत्यादि, एवं | सति एकैको चन्द्रसूयौं जम्बूद्वीपे द्विगुणौ भवतः, किमुक्तं भवति ?-द्वौ चन्द्रमसौ द्वौ सूयौँ जम्बूद्वीपे, लवणसमुद्र तावेको सूर्याचन्द्रमसौ चतुर्गुगौ भवतः, चत्वारश्चन्द्राश्चत्वारश्च सूर्या लवणसमुद्रे भवन्तीति भावः, लावणिका-लव|णसमुद्रभवा शशिसूरास्विगुणिता धातकीखण्डे भवन्ति, द्वादश चन्द्रा द्वादश सूर्या धातकीखण्डे भवन्तीत्यर्थः । 'दो। चंदा इत्यादि सुगम, । 'धायइसंडे'इत्यादि, धातकीखण्डः प्रभृतिः-आदियेषां ते धातकीखण्डप्रभृतयस्तेषु धातकीखण्डमभृतिषु द्वीपेषु समुद्रेषु च य उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वादशादय उपलक्षणमेतत् सूर्या वा ते त्रिगुणिता:-त्रिगुणीकृताः सन्तः 'आइल्लचंदसहिय'त्ति उद्दिष्टचन्द्रयुक्तात् द्वीपात् समुद्राद्वा प्राक् जम्बूद्वीपमादिं कृत्वा ये प्राक्तनाश्चन्द्रास्ने आदिमचन्द्रास्तेरा दिमचन्द्ररुपलक्षणमेतदादिमसूयश्च सहिता यावन्तो भवन्ति एतावत्प्रमाणा अनन्तरे-कालोदादी भवन्ति, तत्र धातकीखण्डे द्वीपे उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वादश ते त्रिगुणाः क्रियन्ते जाताः पत्रिंशत् , आदिमचन्द्राः षट्, तद्यथा-द्वी चन्द्री जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रे, एतैरादिमैश्चन्द्रैः सहिता द्वाचत्वारिंशद् भवन्ति, एतावन्तः कालोदे समुद्रे चन्द्रा एप एव करणविधिः सूर्याणामपि, तेन सूर्या अपि तत्रैतावन्तो वेदितव्याः, तथा कालोदसमुद्रे द्विचत्वारिंशचन्द्रमस | उद्दिष्टास्ते त्रिगुणाः क्रियन्ते, जात पडविंशं शत, आदिमचन्द्रा अष्टादश, तद्यथा-द्वी जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रे | द्वादश धातकीखण्डे एतरादिमचन्द्रः सहित पडूपि शतं जातं चतुश्चत्वारिंशं शत, एतावन्तः पुष्करवरद्वीपे चन्द्रा दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~569~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (मल०) [१००] २८०|| गाथा: तावन्त एव सूर्याः, एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु एतत्करणवशाच्चन्द्रसङ्ख्या प्रतिपत्तव्या । सम्प्रति प्रतिद्वीप प्रतिसमुद्रं १९प्राभृते धिवृत्तिः च ग्रहनक्षत्रतारापरिमाणपरिज्ञानोपाथमाह-रिक्खग्गहतारग्ग'मित्यादि, अत्रापशब्दः परिणामवाची यन्त्र द्वीपे समुदचन्द्रप्रसा वा नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं वा ज्ञातुमिच्छसि तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा सम्बन्धिभिः शशिभिरेकस्य दा-दिचन्द्राशिनः परिवारभूतं नक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च गुणितं सत् यावद् भवति तावत्प्रमाणं तत्र द्वीपे समुद्रे वाचा ट्रानिक्षत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणमिति, यथा-लवणसमुद्रे किल नक्षत्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिष्टं लवणसमुद्रे च शशि त्पन्नत्वाद्रि |सू १०० नश्चत्वारस्तत एकस्य शशिनः परिधारभूतानि यान्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तरं शतंग एतावन्ति लवणसमुद्रे नक्षत्राणि, तथा अष्टाशीतिहा एकस्य माशिनः परिवारभूतास्ते चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातानि त्रीणि 2 शतानि द्विपश्चाशदधिकानि ३५२ एतावन्तो लवणसमुद्रे ग्रहाः, तथा एकस्य शशिनः परिवारभूतानि तारागणकोटी-1 कोटीनां पटूपष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातानि कोटिकोटीना द्वे लक्षे सप्त पष्टिः सहस्राणि नव शतानि २६७९०००००००००००००००० एतावत्यो लवणसमुद्रे तारागणकोटीकोटयः, एवरूपा| हाच नक्षत्रादीनां सङ्ख्या प्रागेवोक्ता, एवं सर्वेष्यपि द्वीपसमुद्रेषु नक्षत्रादिसण्यापरिमाणं परिभाबनीयं । 'पहिया इत्यादि. KIमानुपनगस्य-मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य बहिश्चन्द्रसूर्याणां तेजांसि अवस्थितानि भवन्ति, किमुक्तं भवति ?-सूर्याः सदैवान-14॥२०॥ त्युष्णतेजसो नतु जातुचिदपि मनुष्यलोके ग्रीष्मकाल इवात्युष्णतेजसः, चन्द्रमसोऽपि सर्वदैवानतिशीतलेश्याका नतु | कदाचनाप्यन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य शिशिरकाल इवातिशीततेजसः, तथा मनुष्यक्षेत्राहिः सर्वेऽपि चन्द्राः सर्वदेवाभिजिता -X-CRY दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] -- SAREastatinintenmation ~570~ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: P4% प्रत सूत्रांक [१००] नक्षत्रेण युक्ताः सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्ययुक्ता इति । 'चंदाओ'इत्यादि, मनुष्यक्षेत्राहिश्चन्द्रात् सूर्यस्य सूर्याच्च चन्द्रस्याअन्तरं भवति अन्यूनानि-परिपूर्णानि योजनानां पञ्चाशत्सहस्राणि । तदेवं सूर्यस्य चन्द्रस्य च परस्परमन्तरमुक्त, सम्पति च-IA न्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरमाह-'सूरस्स य सूरस्स य'इत्यादि, मानुषनगस्य-मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिः15 लसूर्यस्य २ परस्परं चन्द्रस्य २ च परस्परमन्तरं भवति योजनानां शतसहस्रं-लक्षं, तथाहि-चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूर्यान्तरि-| ताश्चन्द्राः व्यवस्थिताः चन्द्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि ५००००, तप्तश्चन्द्रस्य सूर्यस्य च परस्प रमन्तरं योजनानां लक्षं भवतीति । सम्पति वहिश्चन्द्रसूर्याणां पङ्काववस्थानमाह--'सूरतरिया इत्यादि, नृलोकादहिः। लिपचा स्थिताः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राश्चन्द्रान्तरिता दिनकरा दीप्ता-दीप्यन्ते स्म दीप्ता भास्क(स्व)रा इत्यर्थः, कथंभूतास्ते चन्द्र-IM सूर्या इत्याह-'चित्रान्तरलेश्याकाः' चित्रमन्तरं लेश्या च-प्रकाशरूपा येषां ते तथा, तत्र चित्रमन्तरं चन्द्राणां सूर्यान्तरि-1 तत्वात् सूर्याणां च चन्द्रान्तरितत्वात् , चित्रलेश्या चन्द्रमसां शीतरश्मित्वात् सूर्याणामुष्णश्मित्वात् । लेश्याविशेषप्रदर्श-14 |नार्थमेवाह-'मुहलेसा मंदलेसा ये सुखलेश्याश्चन्द्रमसो न शीतकाले मनुष्यलोक इवात्यन्तशीतरश्मय इत्यर्थः, मन्द-| लेश्याः सूर्याः न तु मनुष्यलोके निदाघसमये इच एकान्तोष्णरश्मय इत्यर्थः, आह च तत्त्वार्थटीकाकारो हरिभद्रसूरि:"नात्यन्तशीताश्चन्द्रमसो नाप्यत्यन्तोष्णाः सूर्याः, किन्तु साधारणा द्वयोरपी"ति । इहेदमुक्तं यत्र द्वीपे समुद्रे वा नक्ष-12 धादिपरिमाणं ज्ञातुमिप्यते तत्र एकशशिपरिवारभूतं नक्षत्रादिपरिमाणं तावनिः शशिभिर्गुणयितव्यमिति, तत एकश|शिपरिवारभूतानां ग्रहादीनां सङ्ख्यामाह-'अट्ठासीई गहा इत्यादि, गाथाद्वयं निगदसिद्धं । 'अंतो माणुसखेत्से'इ-14 A4%82-%25-259-9-5- गाथा: दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] 56964 ~571~ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यप्रज्ञ-पत्यादि, अन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रसारारूपा देवास्ते किं ऊोपपन्नाः-सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य ||१९सामने विवृत्तिः। ऊर्धमपपन्ना ऊोपपन्नाः कल्पेषु-सौधर्मादिषु उपपन्नाः कल्योपपन्नाः विमानेषु-सामान्येषूपपन्ना विमानोपपन्नाः चारो- चन्द्रवृक्षा (मल०) मण्डलगत्या परिभ्रमणं तमुपपन्ना-आश्रिताश्वारोपपन्नाः चारस्य-यथोक्तरूपस्य स्थितिः-अभावो येषां ते चारस्थितिकादि चन्द्रा२८ अपगतचारा इत्यर्थेः, गती रतिः-आसक्तिः प्रीतियेषां ते गतिरतिकाः, एतेन गती रतिमात्रमुक, सम्पति साक्षाद् गति दीनामूवी प्रश्नयति-गतिसमापना गतियुक्ताः, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-ता ते ण देवा'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् ते चन्द्रा- लन्नत्वादि सू १०० दयो देवा नोोपपन्नाः नापि कल्पोपपन्नाः किन्तु विमानोपपन्नाः चारोपपन्नाः-चारसहिता नो चारस्थितिकाः, तथा स्वभा-11 वतोऽपि गतिरतिकाः साक्षाद् गतियुक्ताश्च, ऊर्ध्वमुखीकृतकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थितैर्योजनसाहनिका-अनेकयोजनसहन प्रमाणैस्तापक्षेत्रैः साहनिकाभिः-अनेकसहस्रसङ्ख्याभिर्वाह्याभिः पर्षद्भिः, अत्र बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, वैकुर्विकाभिःविकुक्तिनानारूपधारिणीभिः, महता रवेगेति योगः अहतानि-अक्षतानि अनघानीत्यर्थः यानि नाव्यानि गीतानि वादि-1 वाणि च याश्च तन्यो-वीणा ये च तलताला-हस्तताला यानि च त्रुटितानि-शेषाणि तूर्याणि ये च धना-घनाकारा ध्वनिसाधात् पटुप्रवादिता-निपुणपुरुषप्रवादिता मृदङ्गास्तेषां रखेण तथा स्वभावतो गतिरतिकर्याह्यपर्षदन्तर्गतैर्देवबेगेन गच्छत्सु विमानेषु उत्कृष्टितः-उत्कर्षवशेन ये मुच्यन्ते सिंहनादा यश्च क्रियते वोलो, बोलो नाम मुखे हस्तं दत्वा ॥२८॥ महता शब्देन पूत्करणं, यश्च कलकलो-व्याकुलः शब्दसमूहस्तद्रवेण, मेरुमिति योगः, किंविशिष्टमित्याह-अच्छ-अतीय स्वच्छमतिनिर्मल जाम्बूनदरमबहुलत्वात् पर्वतराज-पर्वतेन्द्र प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलचारं यथा भवति तथा मेरुमनुलक्षी-12 दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] SARELIEatunintentTATERTA ~572~ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: कृत्य परियति-पर्यटन्ति । पुनः प्रश्नयति-ता तेसि 'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, तेपां-ज्योतिष्काणां देवानां शायदा इन्द्रश्च्यवते तदा ते देवा इदानी-इन्द्रविरहकाले कथं प्रकुर्वन्ति !, भगवानाह-'ता'इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवाः समुदितीभूय तत् शून्यमिन्द्रस्थानमुपसम्पद्य विहरन्ति-तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, सञ्जातौ शुक्लस्थानादिकं पञ्चकुलवत् , कियन्तं कालं यावत्तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्तीति चेदत आह-यावदन्यस्तत्रेन्द्र || उपपन्नो भवति, 'ता इंदठाणे णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् इन्द्रस्थान कियत्कालमुपपातेन विरहितं प्रज्ञप्तं ?, भगवा-XI नाह-'ता'इत्यादि, जघन्येन एक समयं यावत् उत्कर्षेण षण्मासान् । 'ता बहिया ण'मित्यादि प्रश्नसूत्रमिदं प्राग्वत व्याख्येयं, भगवानाह-ता ते ण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत् ते मनुष्यक्षेत्रादहिवर्तिनश्चन्द्रादयो देवा नोवोपपन्ना नापि| रकल्पोपपन्नाः किन्तु विमानोपपन्नास्तथा नो चारोपपन्ना-चारयुक्ताः किन्तु चारस्थितिकाः, अत एव नो गतिरतयो नापि गतिसमापनकाः, पक्केष्टकासंस्थानसंस्थितर्योजनशतसाहनिकैरातपक्षेत्रः, यथा पक्का इष्टका आयामतो दीर्घा भवति बिस्तरतस्तु स्तोका चतुरस्रा च तथा तेपामपि मनुष्यक्षेत्राहियवस्थितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राण्यायामतो अनेकयोजनशतसहन्नप्रमाणानि विस्तरत एकयोजनशतसहस्राणि चतुरस्राणि चेति, तैरित्थंभूतैरातपक्षेत्रैः साहनिकाभिः-अनेकस-3 हनसयाभिर्वाह्याभिः पर्पभिः, अत्रापि बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, 'महये त्यादि पूर्ववत् , दिवि भवान् दिव्यान भोगभोगान्-भोगार्हान् शब्दादीन भोगान् भुजाना विहरन्ति, कथंभूता इत्याह-शुभलेश्याः, एतच विशेषणं चन्द्रमसः प्रति, तेन नातिशीततेजसः किन्तु सुखोत्पादहेतुपरमलेश्याका इत्यर्थः, मन्दलेश्याः, एतच विशेषण सूर्यान् प्रति, तथा च एत दीप अनुक्रम [१२९-१९२]] ~573~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत ,-------------------- मूलं [१००] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] गाथा: सूर्यप्रज्ञ- देव व्याचष्टे-'मन्दातपलेश्याः' मन्दा-अनत्युष्णस्वभावा आतपरूपा लेश्या-रश्मिसङ्घातो येषां ते तथा, पुनः कथंभूता- १९ प्राभृते तिवृत्तिःश्चन्द्रादित्या इत्याह-चित्रान्तरलेश्याः चित्रमन्तरं-अन्तरालं लेश्या च येषां ते तथा, भावार्थश्चास्य पदस्य प्रागेवोपद-पुष्करोदाद (मल०)शर्शितः, ते इत्थंभूताश्चन्द्रादित्याः परस्परमयगाढाभिलेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रमसा सूर्याणां च प्रत्येक लेश्या योजनशत-IPायः सू१०१ सहस्रममाणविस्ताराचन्द्रसूर्याणां च सूचीपतचा व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि ततश्चन्द्रप्रभा-18 ॥२८॥ सम्मिश्राः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभासम्मिश्राश्चन्द्रमभाः, इत्थं परस्परमवगाढाभिलेश्याभिः कूटानीव-पर्वतोपरिव्यवस्थितशिखराणीव स्थानस्थिता:-सदैव एकत्र स्थाने स्थिताः तान् प्रदेशान्-स्वस्वप्रत्यासन्नान उद्योतयन्ति अवभासयन्ति ताप-IPL यन्ति प्रकाशयन्ति, 'ता तेसि णं देवाणं जाहे इंदे चयईत्यादि प्राग्यद् व्याख्येयं । | ता पुक्खरचरं णं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्दे चट्टे वलयाकारसंठाणसंठिते सबजाव चिट्ठति, ता पुक्खरोदे णं समुद्दे कि समचलवालसंठिते जाय णो विसमचकवालसंठिते, ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवतियं चकवालवि-13 क्खंभेणं केवइयं परिक्षेवेणं आहितेति वदेज्जा ?, ता संखेजाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं संखे. जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहितेति बदेजा, ता पुक्खरवरोदे गं समुदे केवतिया चंदा पभासेंस वा ३ पुच्छा तहेब, तहेव ता पुक्खरोदे णं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासें सु वा ३ जाव संखेजाओ तारागणकोडाकोडीओ सोभं सोभेसु वा ३ । एतेणं अभिलावेणं वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुद्दे ४ खीरवरे दीवे खीर-18 चरे समुदे ५ घतवरे दीवे घतोदे समुद६ खोतवरे दीवे खोतोदे समुदे ७ णंदिस्सरवरे दीवे गंदिस्सवरे दीप अनुक्रम [१२९-१९२] अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं ~574~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [१०३] समुद्दे ८ अरुणोदे दीये अरुणोदे समुद्दे ९ अरुणवरे दीवे अरुणवरे समुद्दे १० अरुणवरोभासे दीवे अरुण|घरोभासे समुरे ११ कुंडले दीवे कुंडलोदे समुरे १२ कुंडलवरे दीवे कुंडलवरोदे समुऐ १३ कुंडलवरोभासे | KIदीवे कुंडलवरोभासे समुद्दे १४ सबेसि विक्वंभपरिक्खेवो जोतिसाई पुक्खरोदसागरसरिसाई। ता कंटशालघरोभासणं समुदं रुपए दीवे बढे वलयाकारसंठाणसंठिए २ सघतो जाव चिट्ठति, ता रुपए ण दीवे किं समचकवालजाब णो विसमचकवालसंठिते,तारुपए गंदीवे केवइयं समचकचालविक्खंभेणं केवतिय परिक्खेयेणं आहितेति वदेजा !, ता असंखेजाई जोपणसहस्साई चक्कवालविखंभेण असंखेलाई जोषणसहस्साई परिक्खेवेणं आहितेति वदेजा,तारुयगे णं दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा ३ पुच्छा, तारुयगे ण दीवे असंखे-16 जा चंदा पभासु वा ३ जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोमेंसु वा ३, एवं रुपगे समुदे। रुयगचरे दीवे रुयगवरोदे समुद्दे रुयगवरोभासे दीवे रुयगवरोभासे समुदे, एवं तिपडोयारा तथा जाव सूरे दीवे सूरोदे समुद्दे सूरवरे दीवे सूरवरे समुद्दे सूरबरोभासे दीवे सूरवराभासे समुरे, सवेसि विक्खंभपBारिक्वेयजोतिसाई रुयगवरदीवसरिसाई, ता सूरवरोभासोदपणं समुदं देवे णाम दीचे वडे वलयाकारसंठाण संठिते सघतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति जाव णो विसमचक्कवालसंठिते, ता देवे गं दीवे केवतियं चाकबालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितति बदेजा, असंखेजाई जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहितेति वदेज्जा, ता देवे गं दीवे केवतिया चंदा पभासेंसु वा दीप ACX40-%% A-% अनुक्रम [१९३] E SINE . in ~575~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ १०३ ] दीप अनुक्रम [१९३] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ १०३ ] प्राभृत [१९], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ तिवृत्ति. ( मल० ) ॥ २८३ ॥ ३ पुच्छा तधेव, ता देवे णं दीवे असंखेला चंदा पभासेंसु वा ३ जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभैंसु वा ३ एवं देवोदे समुद्दे जागे दीवे णागोदे समुद्दे जक्रखे दीवे जक्खोदे समुद्दे भूते दीवे भूतोदे समुद्दे सर्पभुरमणे दीवे सर्वधुरमणे समुद्दे सबै देवदीवसरिसा (सू१०३) ॥ एकूणवीसतिमं पाहुडं समत्तं ॥ 'सा पुक्रवरण मित्यादि, ता इति पूर्ववत् पुष्करवरं णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपं पुष्करोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकार संस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति, पुष्करोदे च समुद्रे जलमतिस्वच्छं पथ्यं जात्यं तथ्यपरिणामं स्फटिकवर्णाभं प्रकृत्या उदकरसं, द्वौ च तत्र देवावाधिपत्यं परिपालयतस्तद्यथा - श्रीधरः श्रीप्रभश्च तत्र श्रीधरः पूर्वार्द्धाधिपतिः श्रीप्रभोऽपरार्द्धाधिपतिः, विष्कम्भादिपरिमाणं च सुगमं । 'एएण'मित्यादि एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन वरुणवरो द्वीपो वक्तव्यः, तदनन्तरं वरुणोदः समुद्रः ततः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्र इत्यादि, सूत्रपाठश्चैवम्-ता पुक्खरोदण्णं समुदं वरुणवरे दीवे बट्टे वलयाकार संठाणसंठिए सबओ समता संपरिक्खित्ताणं चिद्द' इत्यादि, वरुणद्वीपे च वरुणवरुणप्रभौ द्वौ देवौ स्वामिनौ नवरमाद्यः पूर्वार्द्धाधिपतिरपरोऽपरार्द्धाधिपतिरेवं सर्वत्र भावनीयं वरुणोदे समुद्रे | परमसुजातमृद्धीकारसनिष्पन्नरसादपीष्टतराखादं तोयं वारुणिरप्रभौ च द्वौ तत्र देवी, क्षीरवरे द्वीपे पण्डरसुप्रदन्तौ देवो, क्षीरोदे समुद्रे जात्यपुण्ड्रेक्षुचारिणीनां गवां यत् क्षीरं तदन्याभ्यो गोभ्यो दीयते तासामपि क्षीरमन्याभ्यस्तासामप्यन्याभ्यः एवं चतुर्थस्थान पर्यवसितस्य क्षीरस्य प्रयनतो मन्दाग्निना कथितस्य जात्येन खण्डेन मत्स्यण्डिकया सम्मिश्रस्य यादृशो रसस्ततोऽपीष्टतरास्वादं [तत्कालविकसितकर्णिकारपुष्पवर्णाभं] तोयं विमलविमलप्रभौ च तत्र देवों, घृतवरे द्वीपे For Parts Only १९ प्राभृते पुष्करोदा द्याः सू१०३ ~576~ ॥ २८३ ॥ अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं wor Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभूत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभूत ], -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत %2564 सूत्रांक [१०३] १960 दीप कनककनकप्रभा देवी, घृतोदे समुद्रे सद्यो विस्थन्दितगोघृतास्वाद तत्कालपविकसितकर्णिकारपुष्पवर्णाभ तोयं कान्तसुकान्ती तत्र देवी, इक्षुवरे द्वीपे सुप्रभमहाप्रभी देवी, इक्षुवरे समुद्रे जाल्यवरपुण्ड्राणामिक्षूणामपनीतालोपरित्रिभागानां विशिष्टगन्धद्रव्यपरियासिताना यो रसः श्लक्ष्णवस्त्रपरिपूतस्तस्मादपीष्टतरास्वादं तोयं पूर्णपूर्णप्रभौ च तत्र देवी, नन्दी-12 |श्वरे द्वीपे कैलाशाहस्तिवाहनौ देवी, नन्दीश्वरे समुद्रे इक्षुरसास्वाद तोयं सुमनःसौमनसी देवौ, एते अष्टायपि च द्वीपा[४] | अष्टायपि समुद्रा एकमत्यवताराः, एकैकरूपा इत्यर्थः, अत ऊर्दू तु द्वीपाः समुद्राश्च त्रिप्रत्यवतारास्तद्यथा-अरुणः| | अरुणवरोऽरुणवरावभासः कुण्डलः कुण्डलवरः कुण्डलवरावभास इत्यादि, तत्रारुणे द्वीपे अशोकवीतशोकी देवी, अरु| णोदे समुद्रे सुभद्रमनोभद्रौ, अरुणवरे द्वीपे अरुणवरभद्रअरुणवरमहाभद्रौ, अरुणवरे समुद्रे अरुणवरभद्रारुणयरमहाभद्रौ अरुणवरावभासे द्वीपे अरुणवरावभासभद्अरुणवरावभासमहाभद्री अरुणवरावभासे समुद्रे अरुणवरावभासवरारुणवरा|वभासमहावरी, कुण्डले द्वीपे कुण्डलकुण्डभद्रौ देवी कुण्डलसमुद्रे चक्षु शुभचक्षुकान्ती कुण्डलघरे द्वीपे कुण्डलवरभद्रलकुण्डलबरमहाभद्री कुण्डवरे समुद्रे कुण्डलवरकुण्डलमहावरौ कुण्डलवरावभासे द्वीपे कुण्डलवरावभासभद्रकुण्डलवरावभा-18 समहाभद्रौ कुण्डलवरावभासे समुद्रे कुण्डलबरावभासवरकुण्डलवरावभासमहावरी,एते सूत्रोपाचा द्वीपसमुद्रा, अत की । तु सूत्रानुपाता दयन्ते, कुण्डलवरावभाससमुद्रानन्तरं रुचको द्वीपः रुचकः समुद्रः, ततो रुचकवरो द्वीपो रुचकवरः समुद्रः तदनन्तरं रुचकवरावभासो द्वीपो रुचकवरावभासः समुद्रः, तत्र रुचके द्वीपे सर्वार्थमनोरमी देवौ रुषकसमुद्रे सुमनःसीमनसी रुचकवरे द्वीपे रुचकवरभद्ररुचकवरमहाभद्री रुचकवरे समुद्रे रुचकवररुचकमहावरौ रुचकवराव अनुक्रम [१९३] सक ~577~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: सूर्यप्रज्ञ- विवृत्तिः प्रत (मल.) सूत्रांक ॥२८॥ [१०३] दीप भासे द्वीपे रुचकवरावभासभद्ररुचकवरावभासमहाभद्रौ रुचकवरावभासे समुद्र रुचकवरावभासवररुचकवरावभास- १९प्राभूत महावरी, कियन्तो नाम नामग्रह द्वीपसमुद्रा वक्तुं शक्यन्ते । ततो यानि कानिचिदाभरणनामानि-हाराहारकनका- पुष्करोदाबलिरत्नावलिप्रभृतीनि यानि च वखनामानि यानि च गन्धनामानि कोष्टपुटादीनि यानि चोत्पलनामानि-जलरुहपन्द्रो-यासू१०३ योतप्रमुखाणि यानि च तिलकप्रभृतीनि वृक्षनामानि यानि च पद्मनामानि शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतीनि यानि च पृथिवीनामानि-पृथिवीशर्करावालुके त्यादीनि यानि च नवानां निधीनां चतुर्दशानां चक्रवर्तिरलानां क्षुल्लहिमवदादीनां वर्ष-11 धरपर्वतानां पद्मादीनां इदानां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां नदीनां कच्छादीनां विजयानो माल्यवदादीनां यक्षस्कारपर्वताना सौध-1 मोदीनां कल्पानां शक्रादीनामिन्द्राणां देवकुरूत्तरमन्दराणामावासानां शकादिसम्वन्धिना मेरुभत्यासन्नानां गजदन्ताना कूटादीनां क्षुलहिमवदादिसम्बन्धिना नक्षत्राणां-कृत्तिकादीनां चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्राणां त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानि, तद्यथा-हारो द्वीपो हारः समुद्रो हारबरो द्वीपो हारवरः समुद्री हारवरावभासो द्वीपो हारवरावभासः समुद्र इत्यादि, एतेषु समस्तद्वीपसमुद्रेषु सङ्ख्येययोजमशतसहस्रप्रमाणो विष्कम्भः सङ्ख्येययोजनशतसहस्रप-14 माणः परिक्षेपः सङ्ख्येयाश्च चन्द्रादयस्ताव वक्तव्याः यावदन्यः कुण्डलवरावभासः समुद्रः, तथा चाह-सबेसि'मित्यादि. सर्वेषामुक्तस्वरूपाणां द्वीपसमुद्राणामन्यकुण्डलवरावभाससमुद्रपर्यन्तामा विष्कम्भपरिक्षेपम्योतिषाणि पुष्करोदसागरसहशानि वक्तव्यानि-सोययोजनप्रमाणो विष्कम्भः सोययोजनप्रमाणः परिक्षेपः सायोश्चन्द्रादयो यतच्या इत्यर्थः, ततस्तदनन्तरं योऽन्यो चकनामा द्वीपस्तत्प्रभृतिषु रुचकसमुद्ररुचकवरद्वीपरुषकवरसमुद्ररुचकवरावभासद्वीपरुचक अनुक्रम [१९३] अत्र सूत्र १०१ एव वर्तते परन्तु मूल-संपादकस्य किञ्चित् स्खलनत्वात् अस्य सूत्रक्रमस्य नोन्ध-करणे सूत्रान्ते सूत्रक्रम १०३ लिखितं ~578 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत -, -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 25%* प्रत सूत्रांक -* [१०३] -* दीप वरावभाससमुद्रादिष्वपि साषेययोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽसङ्ग्येययोजनप्रमाणः परिक्षेपोऽसयेयाश्चन्द्रादयो वक्तव्याः, तथा चाह-'ता कुंडलवरावभासण्णं इत्यादि, 'एवं रुयगे समुहे' इत्यादि, 'एवं तिपडोयारा'इत्यादि, एवमुक्तेन |प्रकारेण रुचकवरावभासात्समुद्रात्परतो द्वीपसमुद्राश्च त्रिप्रत्यवतारास्तावत् ज्ञातव्या यावत् सूर्यो द्वीपः सूर्यः समुद्र सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवरः समुद्रः सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभासः समुद्रः, उक्त च जीवाभिगमचूणों-अरुणाई दीवसमुद्दा तिपडोयारा यावत्सूर्यवरावभासः समुद्रः"इति, 'सोसि'मित्यादि, सर्वेषां रुचकसमुद्रादीनां सूर्यवरावभास समुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भपरिक्षेपज्योतिपाणि रुचकद्वीपसदृशानि वक्तव्यानि असङ्ख्येययोजनप्रमाणो विष्कम्भोऽसङ्घषेयपायोजनप्रमाणः परिक्षेपोऽसोयाः प्रत्येकं चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारका वक्तव्या इति भावा, 'सूरवरावभासोदपर्ण समुई। KI इत्यादि मुगर्भ, नवरमेते पञ्च देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्राः प्रत्येकमेकरूपा म पुनरेषां त्रिप्रत्यवतारः, उक्तं चx जीवाभिगमचूर्णी-"अंते पंच द्वीपा पंच समुद्दो एकप्रकारा" इति, जीवाभिगमसूत्रेऽप्युक्तम्-"देवे नागे जक्खे भूये सय सयंभुरमणे य । एकेके चेव भाणियचे, तिपडोवार नत्वि"त्ति, तत्र देवे द्वीपे द्वौ देवी देवभद्रदेवमहाभद्री देवे समुद्रे | देवयरदेवमहावरी नागे द्वीपे नागभद्रनागमहाभद्री नागे समुद्रे नागवरनागमहावरौ यक्षे द्वीपे यक्षभद्रयक्षमहाभद्री यक्षेत्र समुद्रे यक्षवरयक्षमहावरौ भूते द्वीपे भूतभद्रभूतमहाभद्रगौ भूते समुद्रे भूतवरभूतमहावरौ स्वयंभूरमणे द्वीपे स्वयम्भूभद्र स्वयम्भूमहाभद्री स्वम्भूरमणे समुद्रे स्वम्भूवरस्वयम्भूमहावरी, इह नन्दीश्वरादयः सर्वे समुद्रा भूतसमुद्रपर्यवसाना इधुर-12 Mसोदसमुद्रसदृशोदकाः प्रतिपत्तव्याः, स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य तूदकं पुष्करोदसमुद्रोदकसदृशं, तथा जम्बूद्वीप इति नाम्ना - अनुक्रम [१९३] - - SANERatinimumational ~579~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [१९], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ- असोया द्वीपा लवण इति नाम्ना असलधेयाः समुद्राः एवं तावत् वाच्यं यावत्सूर्यवरावभास इति नाना असह्यपेयाः| P२०प्राभते प्तिवृत्तिः समुद्राः, ये तु पय देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्रास्ते एकैका एवं प्रतिपत्तव्याः, नैतेषां नामभिरन्ये द्वीपसमुद्राः, चन्द्रादीना (मलाच जीवाभिगमे-'केवइयाणं भंते ! जंबुद्दीवा दीवा पन्नत्ता, गोयमा! असंखेज्जा पन्नता, केवइया णं भंते । देव- मनुभावः ||२८५|| दीया पन्नत्ता ?, गोयमा ! एगे देवदीये पण्णत्ते, दसवि एगागारा" इति ॥ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञ- सू १०४ प्तिटीकायामेकोनविंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् ॥ सूत्रांक [१०३] दीप SCOCCCCC तदेवमुक्तमेकोनविंशतितमं प्राभृतं, सम्प्रति विंशतितममारभ्यते-तस्य चायमाधिकारो थथा 'कीदृशश्चन्द्रादी-13 नामनुभाव' इति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह। ता कहं ते अणुभावे आहितेति वदेजा ?, तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णताओ, तस्थेगे एवमामासुता चंदिमसूरिया णं णो जीवा अजीवा णो घणा झुसिरा णो बादरयों दिधरा कलेवरा नत्धि णं तेसि उट्ठाणेति वा कम्मेति वा बलेति वा विरिएति वा पुरिसकारपरकमेति वा ते णो विज लवंति णो असणि लवंति णो थणितं लचंति, अहे य णं बादरे बाउकाए संमुच्छति अहे य णं बादरे वाउकाए समुच्छित्ता विखंपि लवंति असणिपि लचंति धणितंपि लवंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु, ता चंदिमसूरियाणं जीवा णो अजीवा घणा णो झुसिरा बादरवुदिधरा नो कलेवरा अस्थि णं तेसिं उठाणेति वा ते विलुपि लवंति ३115 अनुक्रम [१९३] ॥२८५|| अत्र एकोनविंशति प्राभृतं परिसमाप्तं अथ विंशति प्राभृतं आरभ्यते ~580 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ १०४ ] दीप अनुक्रम [१९४] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ १०४] प्राभृत [२०], ------ - प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Eratur एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वदामो-ता चंदिमसूरिया णं देवा णं महिडिया जाय महाणुभागा वरवत्थधरा वरमलधरा वराभरणधारी अवोच्छित्तिणपट्टताए अन्ने चयंति अण्णे उववज्जंति (सूत्रं १०४ ) ॥ 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं ? - केन प्रकारेण चन्द्रादीनामनुभावः स्वरूपविशेष आख्यात इति वदेत् ?, एवमुक्ते भगवानेतद्विषये ये द्वे प्रतिपत्ती ते उपदर्शयति- 'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र चन्द्रादीनामनुभावविषये खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती - परतीर्थिकाभ्युपगमरूपे प्रज्ञप्ते, तद्यथा - 'तत्थेगे' इत्यादि, तत्र तेषां द्वयानां परतीर्थिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः, 'ता' इति तेषां परतीर्थिकानां प्रथमं स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः, चन्द्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे नो जीवा - जीवरूपाः किन्त्वजीवाः, तथा नो घना - निविडप्रदेशोपचयाः किन्तु शुषिराः, तथा न वरबोन्दिधराः- प्रधान सजीव सुव्यक्तावयव शरीरो पेताः किन्तु कलेवराः-कलेवरमात्राः तथा नास्ति णमिति वाक्यालङ्कारे तेषां चन्द्रादीनामुत्थानं - ऊर्ध्वोभवनमितिरुपदर्शने वाशब्दो विकल्पे समुच्चये वा कर्म्म-उत्क्षेपणावक्षेपणादि बलं - | शारीरः प्राणो वीर्य - आन्तरोत्साहः 'पुरिसकार परक मे ' इति पुरुषकारः - पौरुषाभिमानः पराक्रमः स एव साधिताभि मतप्रयोजनः पुरुषकारश्च पराक्रमश्च पुरुषकारपराक्रममिति वाशब्दः सर्वत्रापि पूर्ववत्, तथा ते चन्द्रादित्याः 'नो विजुयं लवंति'त्ति नो विद्युतं प्रवर्त्तयन्ति नाप्यशनिं विद्युद्विशेषरूपं नापि गर्जितं - मेघध्वनिं किन्तु 'अहो पण 'मित्यादि चन्द्रादित्यानामधो णमिति पूर्ववत् वादरो वायुकायिकः सम्मूर्छति अधश्च बादरो वायुकायिकः सम्मूच्छर्ष 'विपि लबइ' इति विद्युतमपि प्रवर्त्तयति, अशनिमपि प्रवर्त्तयति, विद्युदादिरूपेण परिणमते इति भावः, अत्रोपसंहारमाह For Praise Only ~ 581 ~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] सू१०४ सूर्यप्रज्ञ-13एगे एचमासु' १, एके पुनरेवमाहुः, ता इति प्राग्वत् , चन्द्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे जीया-जीयरूपा न पुनर-11२० प्राभूते ठिवृत्तिः जीवाः यथाऽऽहुः पूर्वापरतीधिकाः तथा घना-न शुषिरा तथा बरबोन्दिधरा न कलेवरमात्रा तथा अस्ति तेषां उडाणे चन्द्रादीना (मल.) इति वा इत्यादि पूर्ववत् व्याख्येयं, 'ते विजुपि लवंति'त्ति विद्युतमपि प्रवर्त्तयन्ति अशनिमपि प्रवर्तयन्ति गर्जितमपि मनुभावा ॥२८॥ किमुक्तं भवति ?- विद्युदादिकं सर्वे चन्द्रादित्यप्रवर्तितमिति, अत्रोपसंहारमाह-एगे एवमाहंसु'२, एवं परतीथिंकMपतिपत्तिद्वयमुपदर्य सम्पति भगवान स्वमतं कथयति-'वयं पुण'इत्यादि, वयं पुनरेवं वदामः, कथं वदथ इत्याह ता इति पूर्ववत् चन्द्रसूर्याः णमिति वाक्यालङ्कारे देवा-देवस्वरूपा न सामान्यतो जीवमात्राः, कथंभूताः ते देवा इत्याह'महर्दिकाः' महती ऋद्धिर्विमानपरिवारादिका येषां ते तथा 'जाब महाणुभावा' इति यावत्करणात् 'महजुश्या मह-| बला महाजसा महेसक्खा' इति द्रष्टव्यं, तत्र महती द्युतिः शरीराभरणविषया येषां ते महायुतयः, तथा महत् बलं शारीरः प्राणो येषां ते महाबलाः, तथा महद् यशः-ख्यातिर्येषां ते महायशसः, तथा महेश इति महान ईशः-ईश्वर X॥ इत्याख्या येषां ते महेशाख्याः, क्वचित् महासोक्खा इति पाठः, तत्र महत् सौख्यं येषां ते महासौख्याः, तथा महान नुभावो-विशिष्टयक्रियकरणादिविषया अचिन्त्या शक्तियेषां ते महानुभावाः बरवखधरा वरमाल्यधरा पराभरणधारिणः । अव्युच्छित्तिनयार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन अन्ये पूर्वोत्पन्नाः स्वायुम्क्षये च्यवन्ते अन्ये उत्पद्यन्ते । 2 ॥२८॥ | ता कहं ते राहुकम्मे आहितेति बदेजा ?, तत्व खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एव-IN हामाहंसु, अस्थि से राष्ट्र देवे जे णं चंद वा सूरं वा गिण्हति, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु नस्थि गं 295892 RTAL दीप अनुक्रम [१९४] ~582~ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप से राह देवे जेणं चंदं वा सूरं वा गिहा, तत्थ जे ते एवमासु ता अधि णं से राह देवे जेण चंदं वा सूर वा गिण्हसि से एवमाहंसु-ता राहणं देवे चंदं वा सूरं वा गेण्हमाणे बुद्धतेणं गिणिहत्ता बुद्धतेणं मुयतिर बुद्धतेणं गिण्हित्ता मुद्धतेणं मुपद मुद्धतेणं गिणिहत्ता मुद्धतेणं मुपति, वामभुयन्तेणं गिहिसा वामभुपं-12 तेणं मुपनि वामभुपंतेणं गिणिहत्ता दाहिणभुयंतेणं मुयति दाहिणभुयतेणं गिहिसा वामनुषतेणं मुपति दाहिणभुपंतेणं गिणिहत्ता दाहिणभुयंतेणं मुयति, तस्थ जे ते एवमाहंसुता नत्थि णं से राष्ट्र देये जे णं चंदं वा। सूरं वा गेहति ते एवमासु-तत्व णं इमे पण्णरसकसिणपोग्गला पं० सं०-सिंघाणए जडिलए खरए खतए। |अंजणे खंजणे सीतले हिमसीयले केलासे अरुणाभे परिजए णभसूरए कविलिए पिंगलए राहता जया णं एते पण्णरस कसिणा २ पोग्गला सदा चंदस्त वा सूरस्स वा लेसाणुषवचारिणो भवति तता गं माणुसलोपंसि माणुसा एवं वदंति-एवं खलु राह चंदं वा सूरं वा गेण्हति, एवं० १, ता जता णं एते पण्णरस कसि-12 णा २ पोग्गला णो सदा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसाणुबद्धचारिणो खलु तदा माणुसलोयम्मि मणुस्सा एवं| चिदंति-एवं खलु राहू चंदं सूरं चा मेण्हति, एते एवमाहंसु, वयं पुण एवं बदामो-ता राहू णं देवे महिड्डीए महाणुभावे वरवत्धधरे पराभरणधारी, राहुस्स ण देवस्स णव णामधेना पं०,०-सिंघाडए जडिलए खरए खेत्तए बहरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्णसप्पे, ता राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवपणा पं० २०-किण्हा नीला लोहिता हालिद्दा सुकिल्ला, अस्थि कालए राहुविमाणे खंजणवण्णाभे अस्थि नीलए राहुषिमाणे अनुक्रम [१९५] ~583~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप सूर्यप्रज्ञ- लाउयवपणाभे पण्णत्ते, अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्ठावण्णाभे पण्णते, अस्थि हालिद्दए राहुविमाणे २० प्राभूते निवृत्तिःशहलिद्दावण्णाभे पं०, अस्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पं०, ता जया णं राहुदेचे आगच्छ- राहुक्रिया (मल०) माणे वा गच्छमाणे वा विज्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं पुरच्छिमेणं आवरित्ता सू १०५ ॥२८॥ पचत्थिमेणं वीतीवतति, तया णं पुरच्छिमेणं चंदे सूरे वा उपदंसेति पञ्चस्थिमेणं राहू, जदा णं राहुदेवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउच्चमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणेणं आवरित्ता उत्तरेणं बीतीवतति, तदा णं दाहिणणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेति उत्तरेणं राह, एतेणं अभिलावेणं पचस्थिमेणं आवरित्ता पुरच्छिमेणं बीतीवतति उत्तरेणं आवरित्ता दाहिणेणं वीतिवतति, जया णं राह देवे। आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउचमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणपुरच्छिमेणं आवरित्ता उत्तरपञ्चत्थिमेणं बीईवयइ तयाणे दाहिणपुरच्छिमेणं चंदे चा सूरे वा उवदंसेइ उत्तरपञ्चस्टिमेणं राह, जया कराह देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउच्चमाणे चा परियारेमाणे या चंदस्स वा सूरस्स |वा लेसं दाहिणपञ्चत्थिमेणं आवरित्ता उत्तर पुरच्छिमेणं बीतीवतति तदा णं दाहिणपस्थिमेणं चंदे वा सूरे वा | उवदंसेति उत्तरपुरच्छिमेणं राह, एतेणं अभिलावेणं उत्तरपञ्चस्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपुरछिमेणं बीतीव-IR तति, उत्तरपुरच्छिमेणं आवरेत्ता दाहिणपचत्थिमेणं वीतीवयइ, ता जता णं राहू देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स | P॥२८७॥ या सरस्स वा लेसं आवरेत्ता बीतीव० तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदति-राहुणा चंदे सूरे वा गहिते, *CE6- 45 अनुक्रम [१९५] REauratonintamarana ~584~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: R प्रत सूत्रांक [१०५] दीप ताजपा राह देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता पासेणं बीतीवतति तता गं मणुस्सलोअंमि मणुस्सा वदंति-देण वा सूरेण वा राहुस्स कुच्छी भिण्णा, ता जता णं राह देवे आगच्छमाणे |RI वा चंदस्स वा सूरस्स चा लेसं आवरेत्ता पचोसकति तताणं मणुस्सलोए मणुस्सा एवं वदति-राहणा चंदे || वा सूरे या वंते राहुणा० २, ता जता णं राह देवे आगच्छमाणे वा० चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता मझ मझेणं वीतिवतति तता णं मणुस्सलोयंसि मणुस्सा वदति-राहुणा चंदे वा सूरे बा बिइयरिए राहुणा०२४ ता जता णं राहू देवे आगच्छमाणे चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता णं अधे सपक्खिं सपडिदिसि | चिट्ठति तता गं मणुस्सलोअंसि मणुस्सा वदंति-राहुणा चंदे वाघधे राहणा०२॥ कतिविधे णं राह पं02.12 विहे पं० त०-ता धुवराष्टू य पचराह य, तत्थ णं जे से धुवराह से गं बहुलपक्खस्स पाडिवए पण्णरसइ-2 भागेणं भाग चंदस्स लेसं आवरेमाणे चिवति, तं०-पढमाए पढम भागं जाव पन्नरसम भाग, चरमे समए चंदे । मारते भवति अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ, तमेव सुक्कपक्खे उपदंसेमाणे २ चिट्ठति, तं०-पढMमाए पदम भागं जाव चंदे विरते य भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते विरते य भवति, तस्थ णं जे ते पव राह से जहण्णणं छह मासाणं, उक्कोसेणं यायालीसाए मासाणं चंदस्स अडतालीसाए संवच्छराणं सूरस्स (सूत्रं १०५)॥ | 'ता कह ते'इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कध-केन प्रकारेण भगवान् ! त्वया राहुकर्म-राहुक्रिया आख्यातमिति | अनुक्रम [१९५] % २-०२-% ~585 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] दीप सूर्यप्रज्ञ-विदेत् !, एवमुक्त भगवानेतद्विषये ये द्वे परतीर्थिकप्रतिपत्ती ते उपदर्शयति-तत्थे त्यादि, तत्र-राहुकर्मविषये खल्विमे २० प्राभूते प्तिवृत्तिःल प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते, 'तत्धेगे'इत्यादि, तत्र-तेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये एके परतीर्थिका एवमाहुः–ता इति पूर्व राहुक्रिया (मल व त् अस्ति णमिति वाक्यालङ्कारे स राहुनामा देवो यश्चन्द्र सूर्य वा गृह्णाति, अनोपसंहारमाह-एगे एवमाहेस. सू १०५ ॥२८८ एके पुण एवमाहंसु' एके पुनरेवमाहुः, ता इति पूर्ववत् , नास्ति स राहुनामा देयो यश्चन्द्र सूर्यं वा गृह्णाति, तदेयं प्रतिपत्तिद्वयमुपदर्य सम्मत्येतद्भावनार्थमाह-तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते यादिनः एयमाहुः-अस्ति स राहुनामा देयो। यश्चन्द्रं सूर्य वा गृह्णातीति त एवमाहुः-त एवं स्वमतभावनिका कुर्वन्ति, 'ता राहू णमित्यादि, ता इति पूर्ववत् राहुर्दे वश्चन्द्र सूर्य वा गृह्णन् कदाचित बुधान्तेनैव गृहीत्वा वुध्नान्तेनैव मुञ्चति, अधोभागे गृहीत्वा अधोभागेनैव मुञ्चतीति भावः कदाचित् बुनान्तेन गृहीत्या मूर्द्धान्तेन मुञ्चति, अधोभागेन गृहीत्या उपरितनेन भागेन मुञ्चतीत्यर्थः, अथवा कदाचित नामूर्द्धान्तेन गृहीत्या बुधान्तेन मुखति, यदिया मूर्द्धान्तेन गृहीत्वा मूर्धान्तेनैव मुथति, भावार्थः प्राग्यद् भावनीयः, अथवा कदाचित् वामभुजान्तेन गृहीत्वा वामभुजान्तेन मुवति, किमुक्त भवति ?-चामपार्थेन गृहीत्या धामपार्थेनैव | मुञ्चति, यदिया वामभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेन मुञ्चति, अथवा कदाचित् दक्षिणभुजाम्तेन गृहीत्वा वामभुजा|न्तेन मुश्चति, यद्वा दक्षिणभुजान्तेन गृहीत्वा दक्षिणभुजान्तेनैव मुञ्चति, भावार्थः सुगमः, 'तत्य जे ते इत्यादि, तत्र-INTreen तेषां द्वयानां परतीथिकानां मध्ये ये ते एवमाहुः यथा नास्ति स राहुर्देवो यश्चन्द्रं सूर्य वा गृह्णातीति ते एवमाहुः पा'तत्थ ण'मित्यादि, तब जगति णमिति वाक्यालङ्कारे इमे वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चदशभेदाः कृष्णाः पुद्गलाः प्रज्ञता अनुक्रम [१९५] ~586~ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ १०५ ] दीप अनुक्रम [१९५] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) - प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ १०५] प्राभृत [२०], ------ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 'तद्यथेत्यादिना तानेव दर्शयति — एते यथासम्प्रदायं वैविकत्येन प्रतिपत्तव्याः, 'ता जया णमित्यादि, ततो यदा णमिति वाक्यालङ्कारे एते अनन्तरोदिताः पञ्चदशभेदाः कृष्णाः पुद्गलाः कृत्स्नाः समस्ताः 'सत्ता' इति सदा सातत्येनेत्यर्थः चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्यानुबन्धचारिणः- चन्द्रसूर्यबिम्वगतप्रभानुचारिणो भवन्ति तदा मनुष्यलोके मनुष्या एवं वदन्ति यथा एवं खलु राहुश्चन्द्र सूर्य वा गृह्णातीति, 'ता जया णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, यदा णमिति पुनरर्थे निपातस्यानेकार्थत्वात् यदा पुनरेते पञ्चदश कृष्णाः पुद्गलाः समस्ताः नो सदा-न सातत्येन चन्द्रस्य सूर्यस्य या लेख्यानुबन्धचारिणो भवन्ति, न खलु तदा मनुष्यलोके मनुष्या एवं वदन्ति यथा एवं खलु राहुश्चन्द्र सूर्य बा गृह्णातीति तेषामेवोपसंहारवाक्यमाह - 'एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण राहुश्चन्द्रं सूर्य वा गृह्णातीति लौकिकं वाक्यं प्रतिपत्तव्यं, न पुनः प्रागुक्तपरतीर्थिकाभिप्रायेण, भगवानाह - 'एते' इत्यादि, एते परतीर्थिका एवमाहुः, 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्न केवलाः केवलविदोपलभ्य एवं वदामो, यथा- 'राहूण'मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, राहुः णमिति वाक्यालङ्कारे, न देवो न परपरिकल्पितपुद्गलमात्रं स च देवो महर्द्धिको महाद्युतिः महाबलो महायशा महासौख्यो महानुभावः, एतेषां पदानामर्थः प्राग्वद् भावनीयः, यरवस्त्रधरो वरमाध्यधरो वराभरणधारी, राहुस्स णमित्यादि, तस्य च राहोर्देवस्य नव नामधेयानि प्रज्ञतानि, तद्यथा - 'सिंघाडए' इत्यादि सुगमं, 'ता राहुस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, राहोर्देवस्य विमानानि पश्ञ्चवर्णानि प्रज्ञतानि, किमुक्तं भवति ? - पञ्च विमानानि पृथगेकैकवर्णयुक्तानि प्रज्ञष्ठानि, तथथा- 'किण्हे नीले' इत्यादि, सुगर्भ, नवरं खञ्जनं दीपमल्लिकामल: 'लापवण्णाभे' इति आर्द्रतुम्बवर्णाभं, 'ता For Penal Use Only ~ 587 ~ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत , -------------------- मूलं [१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५] ॐ -% दीप सूर्यमज्ञ- जया ण'मित्यादि, ता इति-तत्र यदा राहुदेव आगच्छन् कुतश्चित्स्थानात् गच्छन् वा क्वापि स्थाने विकुर्वन् वा-श्वेच्छ- २० प्राभृते विवृत्तिः (मल) या तां तां विकियां कुर्वन् वा परिचरणबुद्ध्या इतस्ततो गच्छन् या चन्द्रस्य वा सूर्यस्य वा लेश्या-विमानगतधवलि-1 राहुक्रिया मानं 'पुरच्छिमेणं'ति पौरस्त्येनावृत्त्याग्रभागेनावृत्त्येत्यर्थः, पाश्चात्यभागेन व्यतिब्रजति-व्यतिकामति तदा णमितिधिकार। ॥२८९॥ माग्वत् पौरस्त्येन चन्द्रः सूर्यो वाऽऽस्मानं दर्शयति पश्चिमभागेन राहा, किमुक्तं भवति !-तदा मोक्षकाले चन्द्रः सूयो सू१०४ &वा पूर्वदिग्भागे प्रकटं उपलभ्यते अधस्ताच्च पश्चिमभागे राहुरिति, 'एवं जया णं राह' इत्याद्यपि दक्षिणोत्तरविषयं सूत्र भावनीयं, 'एएण'मित्यादि, एतेनानन्तरोदितेनाभिटापेन 'पञ्चत्थिमेणं आवरेत्ता पुरच्छिमेणं वीइवयइ उत्तरेणं| | आषरित्ता दाहिणेणं बीईवयइ'इत्येतविषये अपि द्वे सूत्रे वक्तव्ये, ते चैवम्-'ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे० & विचमाणे वा० चंदस्स या सूरस्स वा लेसं पञ्चस्थिमेणं आवरित्ता पुरछिमेणं बीइययह तया णं पञ्चस्थिमेणं चंदे सूरे बा उबदंसेइ पुरच्छिमे णं राहू, एवं द्वितीयसूत्रेऽपि वक्तन्यं, एवं जया णमित्यादीनि दक्षिणपूर्वोत्तरपश्चिमदक्षिणपश्चिमो-12 |त्तरपूर्वोत्तरपश्चिमदक्षिणपूर्वोत्तरपूर्वदक्षिणपश्चिमविषयाण्यपि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, 'ता जया 'मित्यादि, सुगम, नवरमयं भावार्थः-यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य बा लेश्यामावृत्य स्थितो भवति राहुस्तदा लोके एवमुक्तिर्यथा राहुणा चन्द्रः सूर्यो या गृहीत इति, यदा तु राहुलेश्यामावृत्य पार्थेन व्यतिक्रामति तदैवं मनुष्याणामुक्तिः यथा चन्द्रेण सूर्येण||॥२८९।। बा राहोः कुक्षिभिन्ना, राहोः कुक्षि भित्त्वा चन्द्रः सूर्यो वा निर्गत इति भायः, यदा च राहुश्चन्द्रस्य सूर्यस्य वा लेश्या&ामावृत्य प्रत्ययष्यष्कते-पश्चादवसति तदैवं मनुष्यलोके मनुष्याः प्रबदन्ति, यथा-राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा वान्त इति, अनुक्रम [१९५] *%% ~588~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ १०५ ] दीप अनुक्रम [१९५] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १०५ ] प्राभृत [२०], ------ - प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Education in यदा च राहुञ्चन्द्रस्य सूर्यस्य वा मध्यभागेन लेश्यामावृण्वन् व्यतित्रजति गच्छति तदैवं मनुष्यलोके प्रवादो, यथा-चन्द्रः सूर्यो वा राहुणा व्यतिचरित इति किमुक्तं भवति ! - मध्यभागेन विभिन्न इति यदा च राहुश्चन्द्रस्य सूर्यस्य या 'सप क्खिमिति सह पक्षैरिति सपक्षं सर्वेषु पार्थेषु पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेष्वित्यर्थः, सह प्रतिदिग्भिः सप्रतिदिक, सर्वास्वपि विदिक्षु इत्यर्थः, लेश्यामावृत्याधस्तिष्ठति तदेवं मनुष्यलोकोक्तिर्यथा राहुणा चन्द्रः सूर्यो वा सर्वात्मना गृहीत इति । आहचन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजन प्रमाणत्वात् राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्येनार्द्धयोजन प्रमाणत्वात् कथं राहु| विमानस्य सर्वात्मना चन्द्रविमानावरणसम्भवः ?, उच्यते, यदिदं ग्रहविमानानामर्द्धयोजनमिति प्रमाणं तत्प्राविकमवसेयं ततो राहोर्महस्योकाधिकप्रमाणमपि विमानं सम्भाव्यते इति न कदा (का) चिदनुपपत्तिः, अन्ये पुनरेवमाहुः- राहुवि भानस्य महान् वहलस्ति मिश्ररश्मिसमूहस्ततो लघीयसाऽपि राहुविमानेन महता बहलेन तमिश्ररश्मिजालेन प्रसरमधिरोहता सकलमपि चन्द्रमण्डलमा त्रियते ततो न कश्चिद्दोषः । अथ राहोर्भेदं जिज्ञासिषुः प्रश्नयति- 'ता कवि ण'मित्यादि, सुगमं, भगवानाह - 'दुविहे इत्यादि, द्विविधो राहुः प्रज्ञतः, तथथा -- ध्रुवराहुः पर्वराहुश्च तत्र यः सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् सञ्चरति स भुराहुः, यस्तु पर्वणि पौर्णमास्यां अमावास्यायां वा यथाक्रमं चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उप रागं करोति स पर्वराहुः, तत्र योऽसौ वराहः स बहुलपक्षस्य कृष्णपक्षस्य - सम्बन्धिन्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथि आत्मीथेन पञ्चदर्शन भागेन पञ्चदशभाग २ चन्द्रस्य लेश्यामावृण्वन् तिष्ठति, तद्यथा - प्रथमायां प्रतिपलक्षणायां तिथौ प्रथमं पञ्चदशभागं द्वितीयस्यां द्वितीयं तृतीयस्यां तृतीयं यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदशं ततः पञ्चदश्यां तिथी चरम For Parts Only ~589~ waryra Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ १०५ ] दीप अनुक्रम [१९५] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) - प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [१०५] प्राभृत [२०], ------ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ १६ ] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥२९०॥ सूर्यप्रज्ञ-समये रक्तो भवति-राहुविमानेनोपरक्तो भवति, सर्वात्मना राहुविमानेनाच्छादितो भवतीत्यर्थः, अवशेषे समये प्रतिसिवृत्तिः ४ पद्वितीया तृतीयादिकाले चन्द्रो रक्तश्च भवति विरक्तश्च भवति, देशेन राहुविमानेनाच्छादितो भवति देशतश्चानाच्छा( मल० ) दित इत्यर्थः, शुक्लपक्षस्य प्रतिपद आरम्य पुनस्तमेव पञ्चदशं २ भागं प्रतितिथि उपदर्शयन् प्रकटीकुर्वन् तिष्ठति, | तद्यथा- प्रथमायां प्रतिपलक्षणायां तिथौ प्रथमं पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति द्वितीयायां द्वितीयं एवं यावत् पञ्चदश्यां पौर्णमास्यां पञ्चदशं पञ्चदशभागं, चरमसमये पौर्णमासीचरमसमये चन्द्रः सर्वात्मना विरक्तो भवति, सर्वात्मना प्रक|टीभवतीत्यर्थः, लेशतोऽपि राहुविमानेनानाच्छादितत्यात्, आह-शुकपक्षे कृष्णपक्षे वा कतिपयान् दिवसान् यावत् राहुविमानं वृत्तमुपलभ्यते, यथा ग्रहणकाले पर्वराहुः कतिपयांश्च दिवसान् यावन्न तथा ततः किमत्र कारणमिति ?, उच्यते, इह येषु दिवसेध्यतिशयेन तमसाऽभिभूयते शशी तेषु तद्विमानं वृत्तमाभाति, चन्द्रप्रभाया बाहुल्येन प्रसराभावतो राहुविमानस्य यथावस्थिततयोपलम्भात्, येषु पुनश्चन्द्रो भूयान् प्रकटो भवति तेषु न चन्द्रप्रभा राहुविमानेनाभिभूयते किन्त्वति बहुलतया चन्द्रप्रभयैव स्तोकं २ राहुविमानप्रभाया अभिभवस्ततो न वृत्ततोपलम्भः, पर्वराहुविमानं च ध्रुवराहुविमानादतीव तमशेबहुलं ततस्तस्य स्तोकस्यापि न चन्द्रस्य प्रभयाऽभिभवसम्भव इति तस्य स्तोकरूपस्यापि वृत्तत्येनोपलब्धिः तथा चाह विशेषणवत्यां जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:- "वच्छेओ कइवयदिवसे धुबराहुणो विभाणरस दीसह परं न दीसह जह गहणे पबराहुस्स ॥ १ ॥ " आचार्य आह-अश्वत्थं नहि तमसाऽभिभूयते जं ससी विमुच्चंतो । तेणं बट्टच्छेओ गहणे उ तमो तमोबहुलो ||२||” 'तत्थ णं जे से' इत्यादि, तत्र योऽसौ पर्वराहुः स जपन्येन Education in For Park Use Only ~ 590~ २० प्राभृते राहुक्रिया धिकारः सू १०४ | ॥२९० ॥ wor Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [ १०५ ] दीप अनुक्रम [१९५ ] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १०५] प्राभृत [२०], ----- - प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [ ५ ] "सूर्यप्रज्ञप्ति " मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पण मासानामुपरि चन्द्रस्य सूर्यस्य चोपरागं करोति, उत्कर्षतो द्वाचत्वारिंशतो मासानामुपरि चन्द्रस्य अष्टाचत्वारिं| शतः संवत्सराणामुपरि सूर्यस्य । सम्प्रति चन्द्रस्य लोके शशीति यदभिधानं प्रसिद्धं तस्यान्वर्थतावगमनिमित्तं प्रश्नं करोतिता कहं ते चंदे ससी आहितेति वदेजा, ता चंदस्स णं जोतिसिंदरस जोतिसरण्णो मियंके वि माणे कंता देवा कंताओ देवीओ कंताई आसणस पण खंभभंड मत्तो वगरणाई अप्पणाविणं चंदे देवे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे कंते सुभे पिपदंसणे सुरू ता एवं खलु चंदे ससी चंदे ससी आहितेति वदेजा। ता कहं ते सूरिए आदिवे सूरे २ आहितेति वदेना?, ता सुरादीपा सभयाति वा आवलियाति वा आणापाशूति वा धोवेति वा जाव उस्सप्पिणिओसप्पिणीति वा, एवं खलु सूरे आदिचे २ आहितेति वदेजा। (सू०१०५) ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, ता चंद्र०चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, चंदप्पभा दोसिणाभा अधिमाली पभंकरा, जहा हेट्ठा तं चैव जाव णो वेव णं मेहुण वतियं, एवं सूरस्सवि णेतवं, ता चंदिमसूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसरायाणो केरिसगा कामभोगे पञ्चशुभवमाणा विहति?, ता से जहा णामते केई पुरिसे पढमजोवणुट्ठाणचलसमत्थे पदमजोवणुद्वाणबलसमस्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तवीबाहे अत्थत्थी अत्थगवसणनाए सोलसवासविप्यवसिते से णं ततो लद्धडे कलकले अणहसमग्गे पुणरवि णियगघरं हवमागते पहाते कतवलिकम्मे कयको यमंगलपायच्छते सुद्धप्यावेसाई मंगलाई बस्थाई पवर परिहिते अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे मणुणं धालीपाकसुद्धं अट्ठारस For Parts Only अत्र मूल - संपादकस्य मुद्रण-दोषस्य स्खलनाजन्य एका स्खलना वर्तते — सूत्र क्रमांक १०५ द्वि- वारान् लिखितं ~ 591 ~ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], --------------------प्राभृतप्राभृत -------------------- मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R बजणाउलं भोयणं भुत्ते समाणे तंसि तारिसर्गसि वासघरंसि अंतो सचित्तकम्मे चाहिरतो दूमितघहमढे ||२० प्राभूते प्तिवृत्तिः विचित्तउल्लोअचिल्लियतले यहुसममुविभत्तभूमिभाए मणिरयणपणासितंधयारे कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्क- चन्द्रादि(मल) धूवमघमघेतगंधुदुयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवटिभूते तंसि तारिसगंसि सपणिशंसि दुहतो उपणते मझे- त्यान्वया आणतगंभीरे सालिंगणवदिए पपणत्तगंडविधोयणे सुरम्मे गंगापुलिणवालुयाउद्दालसालिसए सुविरइयरयत्ताणे HIT ओयवियखोमिय खोमदुगूलपट्टपढिच्छायणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्मे आईणगरूतबरणवणीततूलफासे सुगंधवर-ITH कामभोगा कुसुमधुण्णसयणोवयारकलिते ताए तारिसाए भारियाए सद्धिं सिंगाराकारचारुवेसाए संगतहसितभणितचिद्वितसंलावविलासणिउगजुत्तोवयारकुसलाए अणुरत्ताविरत्ताए मणाणुकूलाए एगंतरतिपसत्ते अण्ण-11 स्थ कच्छइ मणं अकुबमाणे इहे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविधे माणुस्सए कामभोमे पचणुम्भवमाणे विह-13 रिजा, ता से णं पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसए सातासोक्खं पञ्चणुम्भवमाणे विहरति !, उरालं समणाउसो !, ता तस्स णं पुरिसस्स कामभोगेहितो एत्तो अणंतगुणविसिद्वतराए चेय वाणमंतराणं देवाणं कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहितो अर्णतगुणविसिद्वतराए चेव असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं | देवाणं कामभोगा, असुरिंदवजियाणं देवाणं कामभोगेहिंतो एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव असुरकुमाराणं ॥२९॥ इंदभूयाणं देवाणं कामभोगा, असुरकुमाराणं देवाणं कामभोगेहितो. गहणक्खत्ततारूवाणं कामभोगा, गहगणक्खसतारारूवाणं कामभोगेहितो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव चंदिमसूरियाणं देवाणं कामभोगा, दीप अनुक्रम [१९६-१९७] ~592~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१०५R -१०६] दीप अनुक्रम [१९६ -१९७] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२०], • प्राभृतप्राभृत [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र - [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मूलं [१०५ - १०६] Education in ता एरसिए णं चंदिमसूरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो कामभोगे पञ्चशुभवमाणा विहरंति (सूत्रं १०६ ) ॥ 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं केन प्रकारेण केनान्यर्थेनेति भावः चन्द्रः शशीत्याख्यात इति वदेत् ? भगवानाह - 'ता चंदस्स णमित्यादि, ता इति पूर्ववत्, चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिपराजस्य मृगाङ्के मृगविहे विमाने अधिकरणभूते कान्ता: कमनीयरूपा देवाः कान्ता देव्यः कान्तानि च आसन शयनस्तम्भभाण्डमात्रोपकरणानि आत्मनाऽपि चन्द्रो देवो ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिपराजः सौम्यः- अरौद्राकारः कान्तः कान्तिमान् सुभगः सौभाग्ययुक्तत्यात् वल्लभो जनस्य प्रियं-प्रेमकारि दर्शनं यस्य स प्रियदर्शनः शोभनमतिशायि रूपं अङ्गप्रत्यङ्गावयवसन्निवेशविशेषो यस्य स सुरूपः, ता-ततः एवं खलु अनेन कारणेन चन्द्रः शशी चन्द्रः शशीत्याख्यात इति वदेत्, किमुक्तं भवतिः सर्वात्मना कमनीयत्वलक्षणमन्वर्थमाश्रित्य चन्द्रः शशीति व्यपदिश्यते, कथा व्युत्पस्येति, उच्यते, इह 'शश कान्ता' विति धातुरदन्तश्चौरादिकोऽस्ति, चुरादयो हि धातवोऽपरिमिता न तेषामियत्ताऽस्ति, केवलं यथालक्ष्यमनुसर्त्तव्या', अत एव चन्द्रगोमी चुरादिगणस्यापरिमिततया परमार्थतो यथाउक्ष्यमनुसरणमवगम्य द्वित्रानेव चुरादिधातून् पठितवान् न भूयसः, ततो णिगन्तस्य शशनं शश इति घञ्प्रत्यये शश इति भवति, शशोऽस्यास्तीति शशी, स्वविमानवास्तव्य देवदेवीशयनासनादिभिः सह कमनीयकान्तिकलित इति भावः अन्ये तु व्याचक्षते - शशीति सह श्रिया वर्त्तते इति सश्रीः प्राकृतत्वाच्च शशीतिरूपं, 'ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् कथं?--केन प्रकारेण केनान्यर्थेनेति भावः सूर आदित्यः २ इत्याख्यायते इति वदेत् ?, भगवानाह 'ता सूराइया' इत्यादि, सूर आदिः प्रथमो येषां ते सूरादिकाः के इत्याह- 'समयाइति वा' समया - अहोरात्रादिकालस्य For Par Use Only ~593~ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत F], -------------------- मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R सूर्यप्रज्ञ- निविभागा भागाः, ते सूरादिकाः-सूरकारणाः, तथाहि-सूर्योदयमयधिं कृत्वा अहोरात्रारम्भकः समयो गण्यते, नान्यथा, २० प्राभृते विवृत्तिः एवमावलिकादयोऽपि सूरादिका भावनीयाः, नवरमसोयसमयसमुदायात्मिका आवलिका असोया आवलिका एकाचन्द्राद (मल०) आनप्राणः, द्विपश्चाशदधिकत्रिचत्वारिंशच्छतसङ्ख्याबलिकाप्रमाण एक आनमाण इति वृद्धसम्पदायः, तथा चोक्तम्-"एगो कात्यान्यथा | आणापाणू तेयालीसं सया उ चायना । आवलियपमाणेणं अर्थतनाणीहि निद्दिडो ॥१॥" सप्तानप्राणप्रमाणः स्तोकः. सू१०५ २९२| कामभोगाः यावच्छब्दान्मुहूर्तादयो द्रष्टव्याः, ते च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयाः, एवं स्खलु' इत्यादि,एयमनेन कारणेन खलु-निश्चितः सू१०६ सूर आदित्यः२इत्याख्यात इति वदेत् , आदी भव आदि त्यो बहुलवचनात् त्यप्रत्यय इति व्युत्पत्तेः। ता चंदस्स ण'मित्यादि। सूत्रमग्रमहिपीविषयं पूर्ववद्वेदितव्यं, प्रस्तावानुरोधाच भूय उक्तमित्यदोषः। 'ता चंदित्यादि, ता इति पूर्ववत्, चंद्रसूर्या णमिति वाक्यालङ्कारे ज्योतिपेन्द्रा ज्योतिपराजाः कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-अवसिष्ठन्ते?, भगवानाह-IX IMI'ता से जहे त्यादि, ता इति पूर्ववत् से इत्यनिर्दिष्टस्वरूपो नाम यथा कोऽपि पुरुषः प्रथमयीयनोद्गमे यदल-शारीरः माणस्तेन समर्थः, प्रधमयौवनोत्थानबलसमर्थया भार्यया सह अचिरवृत्तवीवाहः सन् अथ अर्थार्थी अर्थगवेषणया-अर्थ-15 गयेपणनिमित्तं पोडश वर्षाणि यावत् विप्रोषितो-देशान्तरे प्रयास कृतवान् , ततः पोडशवर्षानन्तरं स पुरुषो लब्धार्थः-IA प्रभूतविढपितार्थः (कृतकार्य:निष्ठिताखिलप्रयोजनः) 'अणहसमग्गत्ति अनपं-अक्षतं न पुनरपान्तराले केनापि ॥२९॥ कचौरादिना विलुप्तं समग्रं-द्रव्यभाण्डोपकरणादि यस्य स तथा, स च पुनरपि निजकं गृहं शीघ्रमागतः, ततः सातः कृत बलिका कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धात्मा वेष्याणि-वेषोचितानि प्रबराणि वस्त्राणि परिहितो-निवसितः, 'अप्पन दीप अनुक्रम [१९६-१९७] CASNA* ~594~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६]उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R CCCCC44444 महग्याभरणालंकियसरीरे'इति अल्पैः-स्तोकैर्महा:महामूल्यैराभरणैरलङ्कृतशरीरो मनोझं कलमौदनादि स्थाली-पिठरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा, अन्यत्र हि पक्कं न सुपक्कं भवति तत इदं विशेषण, शुद्ध-भक्तदोषविवर्जितं, स्थालीपाकं च तत् शुद्धं च स्थालीपाकशुद्धं, 'अट्ठारसर्वजणाउल'मिति अष्टादशभिलोकप्रतीतैर्यजनैः-शालनकतकादिभिराकुल अष्टादश-151 व्यञ्जनाकुलं,अथवा अष्टादशभेदं च तत् व्यञ्जनाकुलं च अष्टादशव्यञ्जनाकुले, शाकपार्थिवादिदर्शनादू भेदशब्दलोपः, अष्टादश भेदा इमे-"सूओ १ यणो २ जवण्णं ३ तिण्णि य मंसाइ ६ गोरसो ७ जूसो ८। भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला हरियगं १२ डागो १३ ॥१॥ होइ रसालू य तहा १४ पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ । अट्ठारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओ पिंडो ॥२॥” इदं गाथाद्वयमपि सुगम, नवरं मांसत्रयं जलजादिसत्कं यूपो-मुद्गतण्डुलजीरककड-18 भाण्डादिरसः भक्ष्याणि-खण्डखाद्यानि गुडलावणिका लोकप्रसिद्धा गुडपपटिका गुडधाना वा मूलफलानीत्येकमेव पदं । का द्वन्द्वसमासरूप हरितक-जीरकादि शाको-वस्तुलादिभर्जिका रसालू-मर्जिका तापक्षणमिदम्-"दो घयपला महुपलं दहिस्सी अद्धाढयं मिरिय बीसा । दस खंडगुल पलाई एस रसालू निवइजोग्गो ॥१॥” इति, पान-सुरादि पानीयं-जलं पानक-18| द्राक्षापानकादि शाकः-तक्रसिद्धः, एवंभूतं भोजनं भुक्तः सन् तस्मिन् तादृशे वासगृहे, किंविशिष्टे इत्याह-अन्तः सचिन कर्मणि 'बही दमियघट्टमट्टे'त्ति इमिए-सुधापाधवलिते घृष्टे पाषाणादिना उपरि घर्पिते ततो मृष्टे-मसणीकृते,IR तथा विचित्रेण-विविधचित्रयुक्नोलोचेन-चन्द्रोदयेन 'चिल्लिय'ति दीप्यमानं गृहमध्यभागे उपरितनं तलं यस्य | | तत्तथा तस्मिन् , तथा बहुसमाप्रभूतसमः सुविभक्त:-सुविच्छित्तिको भूमिभागो यत्र तस्मिन् , तथा मणिरतप्रणाशिता-INT दीप अनुक्रम [१९६-१९७] ~595 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१०५R -१०६] दीप अनुक्रम [१९६ -१९७] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२०], • प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ १०५ - १०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः चन्द्रादि ॥२९३ ।। सूर्यप्रज्ञ- न्धकारे तथा कालागुरुप्रवरकुन्दुरुतुरुष्कधूपस्य यो गन्धो मघमघायमानः उद्भूतः - इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामं - २२० प्राभृतें तिवृत्तिः ४ रमणीयं तस्मिन् तत्र कुंदुरुक्क सिल्हकं, तथा शोभनो गन्धः तेन कृत्वा ( ० ९००० ) वरगन्धिकं - वरो गन्धो वर( मल० ) * गन्धः सोऽस्यास्तीति वरगन्धिकं, 'अतोऽनेकस्वरा' दितीकप्रत्ययः तस्मिन् अत एव गन्धवर्त्तिभूते तस्मिन् तादृशे शय-त्यान्वर्थः नीये 'उभयतः' उभयोः पार्श्वयोरुन्नते मध्येन च मध्यभागेन गम्भीरे 'सालिंगण वट्टिए'त्ति सहालिङ्गनवर्या-शरीर-सू १०५ प्रमाणेनोपधानेन वर्त्तते यत्तत्तथा, तथा 'उभयो बिव्बोयणे' इति उभयोः प्रदेशयोः शिरोऽन्तपादान्तलक्षणयोर्विधो-५ कामभोगाः सू १०६ यणे - उपधान के यत्र तत्तथा तत्र क्वचित् 'पण्णत्तगंडविब्बोयणेत्ति पाठः तत्रैवं व्युत्पत्तिः प्रज्ञया विशिष्टकर्म्मविषबुद्ध्या आप्ते प्राप्ते अतीव सुष्ठु परिकम्मिते इति भावः गण्डोपधानके यत्र तत्तथा तत्र, 'ओयवियतो मिपदुगुलपट्टपडिच्छायणे' ओयवियं सुपरिकम्मितं क्षौमिकं दुकूलं कार्पासिकमतसीमयं वा वस्त्रं तस्य युगलरूपो यः पट्टशाटकः स प्रतिच्छादनं- आच्छादनं यस्य तत्तथा तत्र, 'रसंसुयसंबुडे' रक्तांशुकेन- मशकगृहाभिधानेन वस्त्रविशेषेण संवृते-समअन्तत आवृते 'आईणगरूयचूरन वणीयतूलफासे' आजिनकं चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो भवति रुतं चकार्पासपक्ष्म बूरो- वनस्पतिविशेषः नवनीतं च-वक्षणं तूलश्च-अर्कतूल इति द्वन्द्वः अत एतेषामिव स्पर्शो | यस्य तत्तथा तस्मिन्, 'सुगन्धवरकुसुम चुण्णसयणोवयारकलिए' सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि ये च सुगन्धयचूर्णाःपटवासादयो ये च एतद्व्यतिरिक्तास्तथाविधाः शयनोपचारास्तेः कलिते, तथा तादृशया वक्तुमशक्य स्वरूपतया पुण्यवतां -योग्यया 'सिंगारागार चारुवेसाए ति शृङ्गारः-शृङ्गाररसपोषकः आकारः सन्निवेशविशेषो यस्य स शृङ्गाराकारः इत्थं Eca For Parts Only ~ 596~ ॥२९३॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], -------------------- प्राभृतप्राभृत ], -------------------- मूलं [१०५R-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५R भूतश्चारु:-शोभनो वेषो यस्याः सा तथाभूता तया 'संगतहसियभणियचिट्ठियसलाबविलासनिउणजुत्तोबया-12 रकुसलाए' संगत-मैत्रीगतं गमनं सविलास चङ्कमणमित्यर्थः हसितं-सममोदं कपोलसूचितं हसनं भणितं-मन्मथोद्दीपिकाला विचित्रा भणितिश्चेष्टित-सकाममङ्गमत्यझावययप्रदर्शनपुरस्सरं प्रियस्य पुरतोऽवस्थान सल्लापः-प्रियेण सह सप्रमोदं सकाम परस्परं सङ्कथा एतेषु विलासेन-शुभलीलया यो निपुणः-सूक्ष्मबुद्धिगम्योऽत्यन्तकामविषयपरमनैपुण्योपेत इत्यर्थः युक्तो-देश-13 कालोपपन्न उपचारस्तरकुशलया अनुरक्तया कदाचिदयविरक्तया मनोऽनुकूलया भार्यया सार्द्धमेकान्तेन रतिप्रसक्तो-रमण. प्रसक्तोऽन्यत्र कुत्रापि मनोऽकुर्वन, अन्यत्र मनःकरणे हि न यथावस्थितमिष्टभार्यागतं कामसुखमनुभवति, इष्टान् शब्द-12 स्पर्शरसरूपगन्धरूपान् पञ्चविधान् मानुषान-मनुष्यभवसम्बन्धिनः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्-प्रतिशब्द आभिमख्ये संवेदयमानो विहरेद्-अवतिष्ठेत् , 'ता से णमित्यादि, तावच्छन्दः क्रमार्थः, आस्तामन्यदतनं वक्तव्यमिदं तावत्कध्यता, स पुरुषः तस्मिन् 'कालसमय कालेन तथाविधेनोपलक्षितः समयः-अवसरः कालसमयस्तस्मिन् , कौटश सात|रूप-आल्हादरूपं सौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति ।, एवमुक्त गौतम आह-ओरालं समणाउसो। हे भगवन् ! श्रमण12 आयुष्मन् ! उदारं-अत्यद्भुतं सातसौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति, भगवानाह-तस्स ण'मित्यादि, एत्तो' एतेभ्यस्तस्य | पुरुषस्य सम्बन्धिभ्यः कामभोगेभ्य 'अर्णतगुणविसिट्टतरा चेवत्ति अनन्तगुणा-अनन्तगुणतया विशिष्टतरा एवं व्यन्तरदेवानां कामभोगाः, व्यन्तरदेवकामभोगेभ्योऽप्यसुरेन्द्रवर्जानां देवानां कामभोगा अनन्तगुणविशिष्टतराः, तेभ्योऽनन्तगुणविशिष्टतरा इन्द्रभूतानां असुरकुमाराणां देवानां कामभोगाः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणविशिष्टतरा प्रहनक्षत्र दीप अनुक्रम [१९६-१९७] ~597 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) प्रत सूत्रांक [१०५R -१०६] दीप अनुक्रम [१९६ -१९७] “सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -५ (मूलं + वृत्तिः) प्राभृत [२०], प्राभृतप्राभृत [-], मूलं [ १०५-१०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१६] उपांगसूत्र- [५] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सूर्यप्रज्ञ. तिवृत्तिः ( मल०) ॥२९४॥ Jain Eucator तारारूपाणां देवानां कामभोगाः, तेभ्योऽप्यनन्तगुणविशिष्टतराः कामभोगाः चन्द्रसूर्याणां एतादृशान् चन्द्रसूर्या ज्योतिपेन्द्रा ज्योतिषराजाः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति । सम्प्रति पूर्वमष्टाशीतिसयाग्रहा उक्तास्तान् नामग्राहमुपदिदर्शयिषुराह तत्थ खलु इमे अट्ठासीती महग्गहा पं० [सं० दंगालए विद्यालए लोहितके सनिच्छरे आणिए पाहुणिए कणो कणए कणकणए कणविताणए १०कणगसंताणे सोमे सहिते अस्सासणो कजोवए कमरए अयकरए दुर्दुभए संखे संखणाभे २० संखवण्णाने कंसे कंसणाभे कंसवण्णाने नीले नीलोभासे रुप्पे रुप्पोभासे भासे भासरासी ३० तिले तिलपुष्पवण्णे दगे दगवण्णे काये बंधे ईदग्गी धूमकेतू हरी पिंगलए ४० बुधे सुके बह रसती राहू अगत्थी माणवए कामफासे धुरे पमुहे विडे ५० विसंधिकप्पेलए पल्ले जडियालए अरुणे अग्गिल्लए | काले महाकाले सोत्थिए सोबस्थिए वज्रमाण ६० पलंबे णिचालोए णिबुजोते सपने ओभासे सेयंकरे खेमंकरे आभंकरे पभंकरे अरए ७० विरए असोगे बीतसोगे य विमले विवसे विवत्थे विसाल साले सुबते अणियट्टी एगजडी ८० बुजडी कर करिए रायगले पुष्ककेतू भाव केतू, संग्रहणी-इंगालए विद्यालए लोहितके सणिच्छरे चेव । आहुणिए पाहुणिए कणकसणामावि पंचेव ॥ १ ॥ सोमे सहिते अस्सासणे य कजोवए य कवरए। अथकरए दुंदुभए संखसणामावि तिष्णैव ॥ २ ॥ तिन्नेव कंसणामा णीले रुप्पी य हुंति चत्तारि । भास तिल | पुष्फवण्णे दगवण्णे काल बंधे य ॥ ३ ॥ इंदग्गी धूमकेतू हरि पिंगलए बुधे य सुके य । वहसति राहु अगस्थी For Palata Use Only ~598~ २० प्राभृते अष्टाशीतिगुहाः सू १०७ ॥२९४॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्राभृत [-], ----------------- मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: E प्रत सूत्रांक -ॐ [१०७ -१०८] ||१-१५|| |माणवए कामफासे य ।। ४ ।। धुरण पमुहे विपडे विसंधिकप्पे तहा पयल्ले य । जडियालए य अरुणे अ-11 ग्गिल काले महाकाले ॥५॥ सोस्थिय सोवत्थिय बद्धमाणगे तथा पलंघे य । णिचालोए णिमुजोए सयंपभे|| व ओभासे ॥ ६॥ सेयंकर खेमंकर आभंकर पभंकरे य योद्धधे । अरए विरए य तहा असोग तह बीतसोगे। य॥ ७॥ विमले वितत विवत्थे विसाल तह साल मुवते चेव । अणियट्टी एगजडी य होह बिजडी य बोद्धयो ॥ ८॥ कर करिए रायऽग्गल योद्धचे पुष्फ भाव केतू या अट्टासीति गहा खलु णेयवा आणुपुधीए ॥९॥(सूत्रं १०७) इति एस पाहुडत्या अभवजणहिययदुल्लहा इणमो । उकित्तिता भगवता जोतिसरायस्स पण्णत्ती ॥१॥ एस गहिताबि संता थवे गारवियमाणिपडिणीए । अबहुस्सुए पदेया तधिवरीते भवे देवा ॥२॥ सद्धा|धितिउट्टाणुकछाहकम्मबलविरियपुरिसकारहिं । जो सिक्खिओधि संतो अभायणे परिकहेकाहि ॥ ३॥ सो पवयणकुलगणसंघबाहिरो गाणविणपपरिहीणो । अरहतधेरगणहरमेरं फिर होति बोलीणो ॥ ४॥ तम्हास घिति उवाणुच्छाहकम्मपलविरियसिविखणाणं । धारेयचं णियमा ण य अधिणासु दायम् ॥ ५॥ वीरवअस्स भगवतो जरमरणकिलेसदोसरहियरस । बंदामि विणयपणतो सोनुपाए नया पाए ॥५॥ (स०८ सर्यप्रज्ञप्तिसूत्रं सम्पूर्ण ॥ ग्रन्थाग्रं २२०० दीप अनुक्रम [१९८-२१४] | अत्र विंशति प्राभृतं परिसमाप्तं ~599~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्रामृत ------------------ मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूर्यप्रज्ञ सूत्रांक [१० -१०८] ||१-१५|| 'तत्थ खलु इत्यादि, तत्र-तेषु चन्द्रसूर्यनक्षत्रतारारूपेषु मध्ये ये पूर्वमष्टाशीतिसङ्ख्या ग्रहाः प्रज्ञप्ताः ते इमे, तद्यथा- २० प्राभृते प्तिवृत्तिःला 'इंगालए'इत्यादि सुगम, एतेषामेव नाम्नां सुखप्रतिपत्त्यर्थं सहणिगाधाषदमाह-"ईगालए वियालए लोहियक सणि- अष्टाशीति (मल) छरे पेव । आहुणिए पाहुणिए कणगसनामावि पंचेव ॥१॥ सोमे सहिए अस्सासणे या कजोगए य कवरए । अयकर गुहार ॥२९५॥ पादुंदुभए वि य संखसनामावि तिन्नेव ॥२॥ तिन्नेव कंसनामा नीले रुप्पी य हुँति चत्तारि । भासतिलपुष्फवन्ने दगवन्ने सू१०७ काय बंधे य ॥ ३ ॥ इंदग्गि धूमकेऊ हरि पिंगलए बुधे य सुक्के य । वहसइ राह अगरछी माणयगे कामफासे य ॥४॥121 धुरए पमुहे वियडे विसंधिकप्पे तहा पहले य । जडियालए य अरुणे अग्गिल काले महाकाले॥५॥ सोस्थिय सोबमास्थियए वद्धमाणग तहा पलंवे य । निच्चालोए निच्चुलोए सर्यपभे चेव ओभासे ॥ ६ ॥ सेयंकर खेमकर आभंकर प*-- लाकरे य धोद्धये । अरए विरए य तहा असोग तह बीयसोगे य॥७॥ विमले वितत विवरथे विसाल तह साल सुथए। चेव । अनियट्टी एगजडी य होइ थियडी य बोद्धये ॥ ८॥कर करिए रायऽग्गल बोजवे पुष्फ भाव केऊ य । अहासीइ गहा खलु नायबा आणुपुबीए ॥९॥" आसां व्याख्या-अङ्गारकः १ विकालकः २ लोहित्यकः ३ शनैश्चरः ४ आधु-12 निकः ५ प्राधुनिकः ६ 'कणगसनामावि पंचेव'त्ति कनकेन सह एकदेशेन समानं नाम येषां ते कनकसमाननामा-1 |नस्ते- पश्चैव प्रागुक्तक्रमेण द्रष्टव्याः, तद्यथा-कणः ७ कणकः ८ कणकणकः ९ कणवितानका १० कणसन्तानका ११ ॥२९५।। 'सोमे'त्यादि सोमः १२ सहितः १३ आश्वासनः १४ कार्योपगः १५ कटकः १६ अजकरकः १७ दुन्दुभकः १८ शंखसमाननामस्त्रयस्तद्यथा-शङ्खः १९ शजनाभः २० शड्डवर्णाभः २१ । 'तिन्नेबेत्यादि त्रयः कंसनामाना, तद्यथा-कंसः दीप अनुक्रम [१९८-२१४] ~600~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्रामृत ------------------ मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७ -१०८] ||१-१५|| |२२ कसनाभः २३ कंसवर्णाभः २४ 'नीले रुप्पी य हवंति चत्तारित्ति नीले रुप्पे च शब्दे विषयभूते द्विद्विनामसम्भ-1 वात् सर्वसङ्ख्यया चत्वारः, तद्यथा-नीलः २५ नीलावभासः २६ रूप्पी २७ रुप्यवभासः २८ भासेति नामद्वयोपलक्षणं | तद्यधा-भस्म २९ भस्मराशिः ३० तिलः ३१ तिलपुष्पवर्णकः ३२ दकः ३३ दकवर्णः ३४ कायः ३५ पन्ध्य ३६ | इन्द्राग्निः ३७ धूमकेतुः ३८ हरिः १९ पिङ्गलः ४०. बुधः ४१ शुक्रः ४२ बृहस्पतिः ४३ राहः ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः | |४६ कामस्पर्शः ४७ धुरः ४८ प्रमुखः ४९ विकटः ५० विसंधिकल्पः ५१ प्रकल्पः ५२ जटालः ५३ अरुणः ५४ अग्निः ५५ कालः ५६ महाकालः ५७ स्वस्तिकः ५८ सौवस्तिकः ५९ वर्द्धमानकः ६० प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः। ४६३ स्वयंप्रभः ६४ अवभासः ६५ श्रेयस्करः ६६ खेमकरः ६७ आभंकरः ६८ प्रभङ्करः ६९ अरजा ७० विरजा ७१.४ अशोकः ७२ वीतशोकः ७३ विवर्तः ७४ विवस्त्रः ७५ विशालः ७६ शालः ७७ सुव्रतः ७८ अनिवृत्तिः ७९ एकजटी ८० द्विजटी ८१ करः ८२ करिकः ८३ राजः ८४ अर्गलः ८५ पुष्पः ८६ भावः ८७ केतुः ८८ सम्पति सकलशास्त्रोपसंहारमाह-"इय एस पागडत्या अभवजणहिययदुल्लभा इणमो । उक्कित्तिया भगवई जोइसरायस्स पन्नत्ती ॥१॥ इति, एवं-उक्न प्रकारेण अनन्तरमुदिएस्वरूपा प्रकटार्था-जिनवचनतत्त्ववेदिनामुत्तानार्था, इयं चेत्थं प्रकटार्थापि सती अभव्यजनानां हृदयेन-पारमाधिकाभिप्रायेण दुर्लभा, भावार्थमधिकृत्याभव्यजनानां दुर्लभेत्यर्थः, अभव्यत्वादेव तेपात: सम्यगजिनवचनपरिणतेरभावात् , उरकीर्तिता-कविता भगवती-ज्ञानेश्वर्या देवता ज्योतिपराजस्य-सूर्यस्य प्रज्ञप्तिः । एषा[४ च स्वयंगृहीता सती यस्मै न दातव्या तत्प्रतिपादनार्थमाह-एसा गहियावि'इत्यादि गाथाद्वयं, एषा-सूर्यप्रज्ञप्तिः -- दीप अनुक्रम [१९८-२१४] - - -- Mirmenstram.om ★ अत्र विंशति प्राभूतं परिसमाप्तं. तत् पश्चात् उपसंहार-गाथा: आरम्भा: ~601~ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्राभृत [-], ----------------- मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७ -१०८] ||१-१५|| सर्यन- स्वयं सम्यक्करणेन गृहीतापि सती "व्यत्ययोऽप्यासा"मिति वचनाच्चतुर्थ्यथें सप्तमी, ततोऽयमर्थः-धद्धे इति स्तब्धाय तिवृत्तिागस्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयधंशकारिणे, 'गारवियत्ति. ऋयादि गौरवं सञ्जातमस्येति गौरवितस्तस्मै ऋडिरस- २०माभूत (मल.) सातानामन्यतमेन गौरवेण गुरुतरायेति भावः, अत्यादिमदोपेतो ह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पमपीदं सूर्यप्रज्ञप्तिप्रकीर्णक-ITY माचार्यादिकं च तद्वेत्तारमवज्ञया पश्यति, सा चावज्ञा दुरन्तनरकादिप्रपातहेतुरतस्तदुपकारायैव तस्मै दानप्रतिषेधः, ॥२९॥ इयं च भावना स्तब्धमान्यादिष्वपि भावनीवा, तथा मानिने-जात्यादिभदोपेताय प्रत्यनीकाय-दूरभन्यतया अभप II तया वा सिद्धान्तबचननिकुट्टनपराय, तथा अल्पश्रुताय-अवगाढस्तोकशास्त्राय, स हि जिनवचनेषु (अ)सम्यग्भावितत्वात शब्दार्थपर्यालोचनायामक्षुण्णत्वाच्च यथावत्कथ्यमानमपि न सम्यगभिरोचयते इति न देया, किन्तु तद्विपरीताय दात५व्या भवेत् , भवेदिति क्रियापदस्य सामर्थ्यलब्धावप्युपादानं दातव्यत्वावधारणार्थ, तद्विपरीताय दातम्यैव नादातव्या. अदाने शास्त्रव्यवच्छेदप्रसक्त्या तीर्थव्यवच्छेदप्रसक्तेः, एतदेव व्यक्ती कुर्वन्नाह-'सत्यादि, श्रद्धा-श्रवणं प्रति बाच्छा धृतिः-विवक्षितं जिनवचनं सत्यमेव नान्यथेति मनसोऽवष्टम्भः उत्थान-श्रषगाय गुरु प्रत्यभिमुखगमनं उत्साहःश्रवणविषये मनसः उत्कलिकाविशेषः यद्वशादिदानीमेव यदि मे पुण्यवशात सामग्री सम्पद्यते शृणोमि च ततः शोभनं I भवतीति परिणाम उपजायते कर्म-वन्दनादिलक्षणं बलं-शारीरो वाचनादिविषयः प्राणः वीर्य-अनुप्रेक्षायां । X२९॥ सूक्ष्मसूक्ष्माथोंहनशक्तिः पुरुषकारः-तदेव वीर्य साधिताभिमतप्रयोजन, एतैः कारणैः यः स्वयं शिक्षितोऽपि-10 गृहीतसूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रार्थोभयोऽपि सन् यो दाक्षिण्यादिना अन्तेवासिनि अभाजने-अयोग्ये प्रतिक्षिपेत्-सूत्रतो दीप अनुक्रम [१९८-२१४] srx ~602~ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्रामृत ------------------ मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७ -१०८] CASSASSISCLAGAKARE ||१-१५|| Isर्थत उभयतो वा न्यसेत् 'सो पयवणे'त्यादि स प्रवचनकुलगणसङ्घबाह्यो ज्ञानविनयपरिहीणो-ज्ञानाचारपरिहीणो| MIभगवदर्हत्स्थविरगणधरमयादां-भगवदईदादिकृतां व्यवस्थां भवति किल व्यतिक्रान्तः, किलेत्याप्तवादसूचक, इत्थमाप्त | वचनं व्यवस्थितं यथा स नूनं भगवदर्हदादिव्यवस्थामतिकान्त इति, तदतिक्रमे च दीर्घसंसारिता । 'तम्हे' त्यादि, | तस्माद् धृत्युत्थानोत्साहकर्मवलवीयर्यत् ज्ञान-सूर्यप्रज्ञप्त्यादि स्वयं मुमुक्षुणा सता शिक्षितं तन्नियमादात्मन्येव धर्तव्यं, न तु जातुचिदप्यविनीतेषु दातव्यं, उक्तप्रकारेण तद्दाने आत्मपरदीर्घसंसारित्वप्रसक्तेः, तदेवमुक्तः प्रदानविधिः । इयर च सूर्यप्रज्ञप्तिरर्थतो मिथिलायां नगर्यां भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना साक्षादुक्ता, भगवांश्चास्य वर्तमानस्य तीर्थस्याधिपतिस्ततोऽर्थप्रणेतृत्वाद् वर्तमानतीर्थाधिपतित्वाच्च मङ्गलाई शास्त्रपर्यन्ते तन्नमस्कारमाह-'वीरवरस्से'त्यादि, 'सूरवीर विक्रान्तौ' वीरयति स्म वीरः, स च नामादिभेदाच्चतुर्दा भिद्यमानो-नामवीरः स्थापनावीरो द्रव्यवीरो भाववीरश्च, तत्र यस्य जीवस्य अजीवस्य वा अन्वर्थरहितं वीर इति नाम क्रियते स नाम्ना वीरो नामनामवतोरभेदात् नाम चासौं वीरश्च नामवीरः, स्थापनावीरो वीरस्य-सुभटस्य स्थापना वीरवर्द्धमानस्वामिस्थापनात् , द्रव्यवीरो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, नोआगमतस्त्रिधा-तद्यथाज्ञशरीरद्रव्यवीरो भव्यशरीरद्रव्यवीरस्तद्व्यतिरिक्तश्च, तत्र वीर इति पदार्थज्ञस्य यत् शरीरं जीवविप्रयुक्तं सिद्धशिला-12 | तलादिस्थितं तत् भूते द्रव्यवीरः, यत्पुनालकस्य शरीरं वीर इति पदार्थमद्यापि नावबुध्यते अथ चावश्यमायत्यां भोत्स्यते स तथाविधभाविभावत्वात् भव्यशरीरद्रव्यवीरः, तद्व्यतिरिक्तः स्वशत्रुविदारणसमर्थोऽनेकशः सामशिरसि लब्धजयप-10 दीप अनुक्रम [१९८-२१४] M anciarary.om ~603~ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१६) "सूर्यप्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-५ (मूलं+वृत्तिः ) प्राभृत [२०], ----------------- प्राभृतप्राभृत [-], ----------------- मूलं [१०७] + गाथा:(१-१५) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [१६] उपांगसूत्र- [१] "सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४ -१०८] कताकश्चक्रबादिः, भाववीरो द्विधा, तद्यथा-आगमतोनोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तश्च वीरपदार्थे, नोआगमतो तिवत्तिः दुर्जयसमस्तान्तररिपुविदारणसमर्थः, तस्यैकान्तिकवीरत्वसद्भावात् , अनेनैव च नोआगमतो भाववीरेणाधिकार तस्यैव (मल) वर्तमानतीर्थाधिपतित्वात् अतस्तत्प्रतिपत्त्यर्थ वरग्रहणं, वीरेषु वरः-प्रधानो वीरवरो-वर्द्धमानस्वामी तस्य भगवतः अनुपमैश्वयादियुक्तस्य, वरग्रहणलब्धमेव भाववीरत्वं स्पष्टयति-'जरेत्यादि, जरा-वयोहानिलक्षणा मरणं-प्राणत्यागरूपं ॥२९७॥ क्लेशा:-शारीयों मानस्यश्चावाधाः दोपा-रोगादयः तै रहितस्य पादान सौख्योत्पादकान् विनयप्रणतो वन्दे नमस्करोमि ।। ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां विंशतितमं प्राभृतं समाप्तम् ॥ वन्दे यथास्थिताशेषपदार्थप्रतिभासकम् । नित्योदितं तमोऽस्पृश्य, जैनसिद्धान्तभास्करम् ॥१॥ विजयन्तां गुणगुरवो गुरवो जिनतीर्थ भासनैकपराः । यद्वचनगुणादहमपि जातो लेशेन पटुबुद्धिः ॥२॥ सूर्यप्रज्ञप्तिमिमामतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा साधुजनस्तेन भवतु कृती ॥ ३ ॥ ||१-१५|| दीप अनुक्रम [१९८-२१४] हा इति श्रीमलयगिरिविरचिता सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायुक्ता सूर्यप्रज्ञप्तिः समाप्सा ॥ || भाग सूर्यप्रज्ञप्ति-उवंगसूत्र [५] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) । ~604~ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग 01 02 03 04 05 06 07 08 09 10 सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १,२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३ | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग - १ | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ भाग-२ | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, श्रुतस्कन्ध- १, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ स्थान- १ से ४ स्थान- ५ से १० संपूर्ण भाग-१ शतक- १ से ६ भाग-२ शतक- ७ से ११ | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. आगम-७,८,९,१० उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. भाग-३ शतक- १२ से २० भाग-४ शतक - २१ से ४१ संपूर्ण 11 12 13 14 15 16 17 | आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग - २ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति-३ - अतर्गत ] सूत्र - १३९ से प्रतिपत्ती - १० संपूर्ण 18 आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद- १ से ५ 19 आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद- ६ से २२ 20 आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ पूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम-११, १२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति ३ अतर्गत सूत्र- १ से १३८ ~605~ कुलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६ ५१४ ३३६ ६१० Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया 27 | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ 38 | ५२८ ५६० ३९४ ~606~ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ISTA आगम आज राजम आपण जाण SUSH SHIMCH आगम आस HIDUSS आ आजम SUSTE भूभागमः आज wons Insigh आगम आगम आजम आज आजम आजम Bdk MINDS SHIGIEN SENTA आणा . आजम आजम आजम आगय MICHE आजम more SHOT आश्रम आग 3 अख आगम वाचना शताब्दी वर्ष ~607~ आगम CHICON 300TH BICAR भाजी mene आजम Gran आजम menemene आपण आणा भाग মলम পল ToThe SUNI रागमः 45 म अनिल आचा STEA आगम Tanksy mens जिम आसल आगम CUSTO Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता MESS पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज _आगम दिवाकर मुनिश्री दीपख्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751 ~608~ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर 9 पालिताणा ARMANENERA DHEOTEOF NPARAN Sanda ~609~ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आग |आजम आजम मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम आगम आगम आगम आजम म आगम 16 "सूर्यप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति: आ आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम | [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आगम आजम आगम आगम ~610~