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हमारी यह दुर्दशा क्यों ?
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आज आठ पाने, बारह प्राने अथवा रुपये सेर तक मिलता है और फिर भी उसके खालिस होनेकी कोई गारण्टी नही | ऐसी हालतमे पाठकजन स्वय विचार सकते हैं कि कैसे कोई घी-दूध खा सकता है और कैसे हम लोग पनप सकते हैं ? भारतवर्षमे आजकल शायद मैकडे पीछे दो या तीन मनुष्य ही ऐसे निकलेगे जिनको घोसे चुपडी रोटी नसीब होती है, शेष मनुष्योको घी-दूधका दर्शन भी नही मिलता और अच्छी तरहमे घी दूधका खाना तो अच्छे अच्छोको भी नसीब नही होता । फिर कहिये यदि भारतमे निर्बलता अपना डेरा अथवा ग्रड्डा न जमावे तो और क्या करे ?
यहाँपर एक बात और भी उल्लेखनीय है और वह यह कि इस महँगीके कारण बहुत स्वार्थी प्रविवेकी मनुष्य घीमें चर्बी तथा कोकोजम आदि दूसरी वस्तुएँ मिलाने लगे हैं और दूधमे पानी मिला कर प्रथवा दूधसे मक्खन निकालकर और कोई प्रकारकी पाउडर उममे शामिल करके उसे असली दूधके रूप मे बेचने लगे है, जिससे हमारा धर्म-कर्म और आचारर-विचार नष्ट होनेके साथ साथ हमारे शरीरमे अनेक प्रकारके नये रोगोने अपना घर बना लिया है। ऐसे घृणित घी-दूधको खानेवाले शायद यह समझते होगे कि हम घी-दूध खाते हैं औौर शायद उनको कभी कभी यह चिता भी होती हो कि घीदूध खानेपर भी हम हृष्ट-पुष्ट तथा निरोगी क्यो नही रहते ? परन्तु यह सब उनकी बड़ी भूल है । उनको समझना चाहिये कि वे वास्तव
घी-दूध नही खाते बल्कि एक प्रकारकी विषैली वस्तु खाते हैं जो उनके स्वास्थ्यst faगाडकर शरीरमे अनेक प्रकारके रोगोको उत्पन्न करनेवाली है । एक बार कलकत्तेके किसी व्यापारीका बहीखाता पकडा गया था और उससे मालूम हुआ था कि उसने ५००) रु० के सांप के लिये खरीद किये थे और उनकी चर्बी घीमें मिलाई गई थी ।