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उपासना-तत्त्व स्थिति और जरूरत
हमारी धार्मिक शिक्षा 'उपासना' से प्रारम्भ होती है। पूजाभक्ति और आराधना ये सब उपासनाके ही नामान्तर हैं। यही धर्मकी पहली सीढ़ी है जिसका हमे बचपन से ही अभ्यास कराया जाता है । बच्चा बोलना भी प्रारम्भ नही करता कि उसे जिनमंदिर आदिमे ले जाकर मूर्ति आदिके सामने उसके हाथ जुड़वा कर तथा मस्तक नमवाकर उसे उपासनाका एक पाठ पढ़ाया जाता है, मौर ज्यो ही
बुछ बोलने लगता है त्यो ही उससे इष्ट देवताओके नाम्रोका उच्चारण - '३' 'जय' आदि शब्दोका उच्चारण - कराया जाता है, ग्रामो मरहतारण, 'रामोत्थुरण ' आदिके पाठ सिखलाए जाते हैं और, जितना शीघ्र बन सके उतना ही सीघ्र परमात्साकी कुछ स्तुतियाँ भी उसे याद कराई जाती है । बच्चा, अपनी प्रज्ञान दशाओं, यदि मूर्तिको एक खिलौना समझकर उसके लेनेके लिये हाथ पसारता है, ज़िद्द करता है, उसे 'भाई' कहूंकर पुकारता है, उसको चढ़ा हुआ नैवेद्य उठाकर खाने लगता है अथवा उसके सामने पीठ कर खड़ा हो जाता या बैठ जाता है तो उसकी इस प्रकारकी बातो विषेष किया जाता है और कुछ गम्भीर स्वर साथ कहा है
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