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महावीरका सर्वोदयतीर्थ
४३७ को मिटाकर सुख-शान्तिकी स्थापना करनेमे समर्थ है। इसीसे श्रीअमतचद्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायमे अनेकान्तको विरोधका मथन करनेवाला कहकर उसे नमस्कार किया है । और श्रीसिद्धसेनाचार्यने 'सम्मइसुत्त में यह बतलाते हुए कि अनकान्तके बिना लोकका कोई भी व्यवहार सर्वथा बन नही सकता, उसे लोकका अद्वितीय गुरु कहकर नमस्कार किया है ।
सिद्धसेनका यह कहना कि 'अनेकान्त' के बिना लोकका व्यवहार सर्वथा बन नही सकता सोलहो पाने सत्य है। सर्वथा एकान्तवादियो के सामने भी लोक-व्यवहारके वन न सकनेकी यह समस्या रही है और उसे हल करने तथा लोक-व्यवहारको बनाये रखनेके लिये उन्हें माया, विद्या, सवृति जैसी कुछ दूसरी कल्पनाये करनी पड़ी हैं अथवा यो कहिये कि अपने सर्वथा एकान्तसिद्धान्तके छप्परको सम्भालनेके लिये उसके नीचे तरह-तरहकी टेवकियाँ ( थानयों) लगानी पडी हैं, परन्तु फिर भी वे उसे सम्भाल नही सके पौर न अपने सवथा-एकान्त सिद्धान्तको किसी दूसरी तरह प्रतिष्ठित करनेमें ही समर्थ हो सके हैं। उदाहरण के लिये अद्वैत एकान्तवादको लीजिये, ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्मके सिवाय दूसरे किसी भी पदार्थका अस्तित्व नहीं मानते-सर्वथा अभेदवादका ही प्रतिपादन करते हैंउनके सामने जब साक्षात् दिखाई देनेवाले पदार्थ-भेदो, कारक क्रियाभेदो तथा विभिन्न लोक-व्यवहारोकी बात आई तो उन्होने कह दिया कि ये मब मायाजन्य हैं अर्थात् मायाकी कल्पना करके प्रत्यक्षमे दिखाई पडनेवाले सब भेदो तथा लोक-व्यवहारोका भार
१ परमागमस्य बीज निषिद्ध-जान्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् ।
सकल-नय-विलसिताना विरोधमथन नमाम्यनेकान्तम् ।। २ जेण विरणा लोगस्स वि ववहारो मव्वहा ग रिणव्वडइ ।
तस्स भुवरणेक्कगुरुरणो णमो अरोगतवायस्स ।।६१॥