Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 461
________________ ४४४ युगवीर निबन्धावली तस्माद्गुणवर्ण-व्यवस्थिति ॥ पद्यचरित ११-१६८॥ क्रियाविशेषादिनिबन्धन एव ब्राह्मणादिव्यवहार. (प्रमेयकमलमातंण्ड) इस धर्ममे यह भी बतलाया गया है कि इन ब्राह्मणादि जातियोका प्राकृति आदिके भेदको लिये हुए कोई शाश्वत लक्षण भी गोअश्वादि जातियोकी तरह मनुष्य-शरीरमे नहीं पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी आदिमे गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जाति-भेदके विरुद्ध है। इसी तरह जारजका मी कोई चिन्ह शरीरमे नहीं होता, जिससे उसकी कोई जुदी जाति कल्पित की जाय, और न केवल व्यभिचारजात होनेकी वजहसे ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता है--नीचताका कारण इस तीर्थधममें 'अनार्य आचरण' अथवा 'म्लेच्छाचार' माना गया है। इस दोनो बातोके निर्देशक दो वाक्य इस प्रकार है --- वर्णाकृत्यादिभेदाना देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिष शूद्राद्यै गर्भाधानप्रवर्तनात् ॥ नास्ति जाति-कृतो भेदो मनुष्याणा गवाऽश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते। (महापुराण) चिह्नानि विटजातस्य सन्ति नाऽमोष कानिचित् । अनार्यमाचग्न किंचिज्जायते नीचगोचर ॥ . -पद्मचरिते, रविषेरणाचार्य. वस्तुत मब मनुष्योकी एक ही मनुष्यजाति इस धर्मको अभीष्ट है, जो 'मनुष्यजाति' नामक नामकर्मके उदयसे होती है, और इसी ष्टिसे सब मनुष्य समान है-आपसमे भाई-भाई हैं और उन्हें स धर्मके द्वारा अपने विकासका पूरा अधिकार प्राप्त है । जैसा कि नम्न वाक्योंसे प्रकट है - मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताझेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ।।३८-४५।। -प्रादिपुगणे, जिनसेनाचार्य

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