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महावीरका सर्वोदयतीथ शरणमे पाकर नतमस्तक हो जाता है-प्रसन्नतापूर्वक उसके द्वारा प्रवर्तित धर्मको धारण करता है वह इसी लोकमे अति उच्च बन जाता है । इस धर्मकी दृष्टिमें कोई जाति गहित नही-तिरस्कार किये जानेके योग्य नही-सर्वत्र गुणोकी पूज्यता है, वे ही कल्याणकारी है, और इसीसे इस धर्ममे एक चाण्डालको भी व्रतसे युक्त होने पर 'ब्राह्मण' तथा सम्यग्दर्शनसे युक्त होने पर 'देव' (आराध्य) माना गया है और चाण्डालको किमी साधारण धर्म क्रियाका ही नही किन्तु 'उत्तमधर्म' का अधिकारी मूचित किया है, जैसा कि निम्न पार्ष वाक्योसे प्राट है --- यो लोके त्वा नत मोऽतिहीनोऽप्यतिगुमर्यन ।। बालोऽपि त्वा श्रित नौनि को नो नीतिपुर कृत ॥ स्तुतिविद्या ८३॥ न जातिगेहिता काचिद् गुणा कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाहाल त देवा ब्राह्मण विदु ।। पद्मचरित ११-२०३ ।। सम्यग्दर्शन-सम्पन्नमपि मातङ्गदेह जम् ।। देवा देव विदुर्भस्म-गृढागारान्तगैजसम् ॥ रत्नकरण्ड २८॥ चाण्डालो वि सरिंदो उत्तमधम्मेण सभवदि । (कातिके यानप्रेक्षा)
वीरका यह धर्मतीथ इन ब्राह्मरणादि जाति-भेदोको तथा दूसरे चाडालादि विशेषोको वास्तविक नहीं मानता किन्तु वृत्ति अथवा प्राचार भेदके आधार पर कल्पित एव परिवर्तनशील जानता है। साथ ही यह स्वीकार कता है कि अपने योग्य गुणोकी उत्पत्ति पर जाति उत्पन्न होती है, उनके नाम पर नष्ट हो जाती है और वर्णव्यवस्था गुणकर्मोके आधार पर है न कि जन्मके । यथा - चातुर्वण्य यथाऽन्यच्च चाण्डालादिविशेषगणम् । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ।। पारित ११-२०५ ॥ प्राचारमात्रभेदेन जातीना भेदकल्पनम् । न जातिब्राह्मणीयाऽस्ति नियता काऽपि ताविकी ॥१७-२४॥ गुणै सम्पद्यते जातिगुणध्वसैविपद्यते ।। धर्मपरीक्षा १७-३२ ।।