Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 458
________________ महावीरका सर्वोदयतीर्थ ४४१ बादरूप मिथ्यादर्शन ही ससारमे अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुखरूप प्रापदान के कारण होते है । अत जो लोग भगवानमहावीरके शासनका उनके धर्मतीर्थका -- सचमुच आश्रय लेते हैं- उसे ठीक तौर पर अथवा पूर्णतया अपनाते हैं - उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दु ख यथासाध्य मिट जाते हैं । और वे इस धर्म प्रसादसे अपना पूर्ण अभ्युदय -- उत्कर्ष एव विकास - नक सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं । महावीरकी प्रोरसे इस धर्मतीथका द्वार सबके लिये खुला हुआ है, जिसकी सूचक गणित कथाएँ जैनशास्त्रोमें पाई जाती हैं और जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पतितसे पतित प्राणियों ने मी इस धर्मका आश्रय लेकर अपना उद्धार और कल्याण किया है, उन सब कथाप्रोको छोड कर यहाँ पर जनयन्थोके सिफ कुछ विधि-वाक्योको ही प्रकट किया जाता है जिससे उन लोगोका समाधान हो जो इस तीर्थको केवल अपना ही साम्प्रदायिक तीर्थ और एकमात्र अपने ही लिये अवतरित हुआ समझ बैठे है तथा दूसरोंके लिये इस तीर्थसे लाभ उठानेमें अनेक प्रकार से बाधक बने हुए हैं । वे वाक्य इस प्रकार है (१) मनोवाक्कायधर्माय मता सर्वेऽपि जन्तव । - - यशस्तिलक (२) उच्चाऽवच - जनप्राय समयोऽय जिनेशिनाम् । नैकस्मिन्पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालय ॥" - यशस्तिलक (३) श्राचाराऽनवद्यत्व शुचिरुपस्कार शरीरशुद्धिश्च करोति शूद्रानपि देव द्विजाति-तपस्वि-परिकर्मसु योग्यान् । -नीतिवाक्यामृत (४) शूद्रोऽप्युपस्कराऽऽचार-वपु शुद्धयाऽस्तु तादृश' । जात्या होनोपि काला दिलब्धौ ह्यात्माऽस्ति धर्मभाकू ।। —सागारधर्मामृत (५) एहु धम्मु जो धायर बभगु सुदु वि कोइ । --

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