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युगवीर-निबन्धावलो भद्द मिच्छादसणसमूहमइयम्म अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवत्रो सविग्ग-सुहाहिगम्मस्म ।।5।।
इसमे जिनवचनरूप जैनदर्शन (जिनशासन) के तीन खास विशेषरगोका उल्लेख किया गया है-पहला विशेषरण 'मिथ्यादशनसमूहमय', दूसरा अमृतसार' और तीसरा 'सविग्नसुखादिगम्य' है । मिथ्यादर्शनोका समूह होते हुए भी वह मिथ्यास्वरूप नही है, यही उसकी मर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्षनय. वादमे सन्निहित है- सापेक्षनय मिथ्या नहीं होते, निरपेक्षनय ही मिथ्या होते है, जैसा कि स्वामी समन्तभद्र-प्रणीत देवागमके निम्न वाक्यमे प्रकट है -
मिथ्या-समूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यकान्तताऽस्ति न । निरपेक्षा नया मिरया सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ।।
महावीरजिनके सर्वधर्मसमन्वयकारक उदार शासनमे सदअसत् तथा नित्य-क्षणिकादिरूप वे सब नय-धर्म जो निरपेक्षरूपमें अलग-अलग रहकर अतत्वका रूप धारण किये हुए स्व-पर-घातक होते है वे ही सब सापेक्ष ( अविरोध ) रूपमें मिलकर तत्त्वका रूप धारण किये हए स्व-पर-उपकारी बने हए हैं। तथा आश्रय पाकर बन जाते है और इसलिये स्वामी समन्तभद्रने युक्त्यनुशासनकी उक्त (६१ वी) कारिकामे वीरशासनको जो सर्वधर्मवान् , सर्वदुःख प्रणाशक और मर्वोदयतीर्थ बतलाया है वह बिल्कुल ठीक तथा उसकी प्रकृतिके सर्वथा अनुकूल है। महावीरका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयो (परस्पर निरपेक्षनयो) अथवा मिथ्यादर्शनोका अन्त (निरमन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्त
१ “य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षा स्व-परप्ररणाशिन । त एव तत्त्व विमलस्य ते मुने परस्परेक्षा स्व-परोपकारिण ॥"
- स्वयम्भूस्तोत्र