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सर्वोदय के मूलसूत्र
६३ जो द्रव्य है वह सत्स्वरूप है ।
६४ जो सत् है वह प्रतिक्षरण उत्पाद-व्यय-धौव्यसे युक्त है । ६५ उत्पाद तथा व्यय पर्यायमे होते हैं और घौव्य गुरणमें रहता है, इसीसे द्रव्यको गुरण-पर्यायवान् भी कहा गया है। ६६ जो सत् है उसका कभी नाश नही होता ।
६७ जो सर्वथा प्रसत् है उसका कभी उत्पाद नही होता । ६८ द्रव्यसे तथा सामान्यरूपसे कोई उत्पन्न या विनष्ट नही होता; क्योकि द्रव्य सब पर्यायोमे और सामान्य सब विशेषोमे रहता है । ६६ विविध पर्यायें द्रव्यनिष्ठ एव विविध विशेष सामान्यनिष्ठ होते हैं।
७० सर्वथा द्रव्यकी तथा सर्वथा पर्यायकी कोई व्यवस्था नहीं बनती और न सर्वथा पृथग्भूत द्रव्य पर्यायकी युगपत् ही कोई व्यवस्था बनती है ।
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७१ सर्वथा नित्यमे उत्पाद और विनाश नही बनते, विकार तथा क्रिया-कारककी योजना भी नही बन सकती ।
७२ विधि और निषेध दोनो कथचत् इष्ट है, सर्वथा नही । ७३ विधि - निषेधमे विवक्षासे मुख्य- गौरकी व्यवस्था होती है । ७४ वस्तुके किसी एक धर्मको प्रधानता प्राप्त होने परशेष धर्म गौर हो जाते हैं ।
७५ वस्तु वास्तवमे विधि - निषेधादि-रूप दो-दो अवधियोंसे ही कार्यकारी होती है ।
७६ बाह्य और प्राभ्यन्तर अथवा उपादान और निमित्त दोनो कारणो के मिलने से ही कार्यकी निष्पत्ति होती है ।
७७ जो सत्य है वह सब अनेकान्तात्मक है, अनेकान्तके बिना सत्यकी कोई स्थिति ही नही ।
७८ जो अनेकान्तको नही जानता वह सत्यको नही पहचानता, भले ही सत्यके कितने ही गीत गाया करे ।