Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 471
________________ युगवीर निबन्धावली ५० एक धर्मीमे प्रतियोगी धर्म परस्पर अविनाभाव-स.बन्धको लिये हुए रहते हैं, सर्वथा रूपसे किसी एककी कभी व्यवस्था नही बन सकती। ५१ विधि-निषेधादिरूप सप्त भग सम्पूर्णतत्त्वार्थपर्यायोमे घटित होते हैं और 'म्यात्' शब्द उनका नेतृत्व करता है। ५२ सारे ही नय-पक्ष सर्वथारूपमे अति दूषित हैं और स्यात्रूपमें पुष्टिको प्राप्त हैं। ५३ जो स्याद्वादी हैं वे ही सुवादी हैं, अन्य सब कुवादी हैं। ५४ जो किमी अपेक्षा अथवा नयविवक्षाको लेकर वस्तुतत्त्वका __ कथन करते हैं वे 'स्याद्वादी' हैं,भले ही 'स्यात्' शब्दका प्रयोग साथमें न करते हो। ५५ कुशलाऽकुशल-कर्मादिक तथा बन्ध-मोक्षादिककी सारी व्यवस्था स्याद्वादियो अथवा अनेकान्तियोके यहाँ ही बनती है। ५६ सारा वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक है । ५७ जो अनेकान्तात्मक है वह अभेद-भेदात्मकको तरह तदतत्स्वभावको लिये होता है। । ५८ तदतत्म्वभावमे एक धर्म दूसरे धर्मसे स्वतन्त्र न होकर उसकी अपेक्षाको लिये रहता है और मुख्य-गोरगकी विवक्षासे उसकी व्यवस्था उसी प्रकार होती है जिस प्रकार कि मथानीकी रस्सीके दोनो सिरोकी। ५६ विवक्षित 'मुख्य' और अविवक्षित 'गौरण' होता है। ६० मुख्यके बिना गौरण तथा गौरणके बिना मुख्य नहीं बनता। जो गौरण होता है वह अभावरूप निरात्मक नहीं होता। ६१ वही तत्त्व प्रमाण-सिद्ध है जो तदतत्स्वभावको लिए हुए एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है। ६२ वस्तुके जो अश ( धम) परस्पर निरपेक्ष हो वे पुरुषार्थके हेतु अथवा अर्थ-क्रिया करनेमे समर्थ नहीं होते।

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