Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 469
________________ ४५२ युगवीर बिम्बावली ३० जब तक किसी मनुष्यका ग्रहकार नही मरता तब तक उसके विकासकी भूमिका ही तैयार नहीं होती । ३१ भक्तियोग से प्रकार मरता है. इसीसे विकास मार्ग मे उसे पहला स्थान प्राप्त है । ३२ बिना भावके पूजा - दान जपादिक उसी प्रकार व्यर्थ हैं जिस प्रकार कि बकरी के गलेमे लटकते हुए स्तन । ३३ जीवात्माओं के विकासमे सबसे बडा बाधक कारण मोहकर्म है, जो अनन्तदोषोका घर है । ३४ मोहके मुख्य दो भेद है- एक दर्शनमोह जिसे मिथ्यात्व भी कहते है, दूसरा चारित्रमोह, जो सदाचारमे प्रवृत्ति नही होने देता । ३५ दर्शनमोह जीवकी दृष्टिमे विकार उत्पन्न करता है, जिसवस्तुतत्त्वका यथार्थ अवलोक्न न होकर श्रन्यथा रूपमे होता है और इसीसे वह 'मिथ्यात्व' कहलाता है । ३६ दृष्टिविकार तथा उसके काररणको मिटानेके लिये आत्मातत्त्व- रुचिको जागृत करने की जरूरत है । ३७ तत्त्वरुचिको उस समीचीन ज्ञानाभ्यासके द्वारा जागृत किया जाता है जो ससारी जीवात्माको तत्त्व तत्त्वकी पहचान के साथ अपने शुद्धस्वरूपका, पररूपका, परके सम्बन्धका सम्बन्ध से होनेवाले विकार - दोषका प्रथवा विभावपरिणतिका विकार के विशिष्टकारणोका और उन्हे दूर करके निर्विकार-निर्दोष बनने, बन्धनरहित मुक्त होने तथा अपने निज स्वरूपमें सुस्थित होनेका परिज्ञान कराया जाता है, और इस तरह हृदयान्धकारको दूर कर आत्मविकासके सम्मुख किया जाता है । ३८ ऐसे ज्ञानाभ्यासको ही 'ज्ञानयोग' कहते हैं । ३६ वस्तुका जो निज स्वभाव है वही उसका धर्म है । ४० प्रत्येक वस्तुमे अनेकानेक धर्म होते हैं, जो पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए अविरोध-रूपसे रहते हैं और इसीसे वस्तुवा

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