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युषवीर-निबाधावली ७६ अनेकान्त परमागमका बीन अथवा जैनायमका प्राण है। । ८९. जो सर्वथा एकान्त है वह परमार्थ-शून्य है। ८१. जो दृष्टि अनेकान्तात्मक है वह 'सम्यग्दृष्टि' है । ८२ जो दृष्टि अनेकान्तसे रहित है वह 'मिथ्याष्टि ' है। ८३ जो कयन अनेकान्तदृष्टिसे रहित है वह 'मिथ्यावचन' है। ८४. सिद्धि अनेकान्तसे होती है, न कि सर्वथा एकान्तसे।
१५. सर्वथा एकान्त अपने स्वरूपकी प्रतिष्ठा करनेमे भी समर्थ नहीं होता।
८६ जो सर्वथा एकान्तवादी है वे अपने वैरी आप हैं। ___ ८७ जो अनेकान्त-अनुयायी है वे वस्तुत अहज्जिन-मतानुयायी हैं, भले ही वे 'अर्हन्त' या 'जिन' को न जानते हो।
८८ मन-वचन-काय-सबधी जिस क्रियाकी प्रवृत्ति या निवृत्तिसे आत्म-विकास मधता है उसके लिये तदनुरूप जो भी पुरुषार्थ किया जाता है उसे 'कर्मयोग' कहते है ।
८६ दया, दम त्याग और समाधिमे तत्पर रहना आत्मविकासका मूल एव मुख्य कमयोग है।
६०. समीचीन धर्म सदृष्टि, सद्बोध और सच्चारित्ररूप है, वी रत्नत्रय-पोत और मोक्षका मार्ग है।
६१ सदृष्टिको लिये हुए जो ज्ञान है वह 'सद्बोध' कहलाता है।
६२ सद्बोध-पूर्वक जो आचरण है वह सच्चारित्र' है अथवा ज्ञानयोगीके कर्माऽऽदानकी निमित्तभूत जो क्रियाएँ उनका त्याग 'स. म्यकचारित्र' है और उमका लक्ष्य राग-द्वेषकी निवृत्ति है।
६३ अपने राग-द्वेष-काम क्रोधादि-दोषोको शा-त करनेसे ही आत्मामे शान्तिकी व्यवस्था और प्रतिष्ठा होती है।
१४ ये राग-द्वेषादि-दोष, जो मनकी समताका निराकरण करनेवाले हैं,एकान्त धर्माभिनिवेश-मूलक होते हैं और मोही जीवोके अहंकार-ममकारसे उत्पन्न होते हैं।