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सर्वोदयके मूलसूत्र
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६५ संसार में शान्तिके मुख्य कारण विचार-दोष और प्रचार
दोष है ।
६६ विचारदोषको मिटानेवाला 'अनेकान्त' और प्राचारदोषको दूर करनेवाली 'हिसा' है ।
६७ अनेकान्त और अहिसा ही शास्ता वीरजिन अथवा वीरजिन - शासनके दो पद है ।
६८ अनेकान्त और अहिंसाका आश्रय लेनेसे ही विश्वमे शान्ति हो सकती है ।
६६ जगत के प्रारिणयोकी अहिसा ही 'परमब्रह्म' है, किसी व्यक्तिविशेषका नाम परमब्रह्म नहीं ।
१०० जहाँ बाह्याभ्यन्तर दोनो प्रकारके परिग्रहोका त्याग है वही उस हिसाका बास है ।
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१० जहाँ दोनो प्रकार के परिग्रहोका भार वहन अथवा वाम है वही हिसाका निवास है ।
१०२ जो परिग्रहमे प्रासक्त है वह वास्तवमे 'हिसक' है । १०३ आत्मपरिणामके घातक होनेसे झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये सब हिसाके ही रूप हैं ।
१०४ धन-धान्यादि सम्पत्तिके रूपमे जो भी सासारिक विभूति है वह सब 'बाह्य परिग्रह' है ।
१०५ ' आभ्यन्तर - परिग्रह' दशनमोह, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय और जुगुप्सा के रूपमे है ।
१०६ तृष्णा - नदीको अपरिग्रह सूर्य के द्वारा सुखाया जाता और विद्या- नौका से पार किया जाता है ।
१०७ तृष्णाकी शान्ति प्रभीष्ट इन्द्रिय-विषयोकी सम्पत्ति से नही होती, प्रत्युत इसके वृद्धि होती है ।
१०८ प्राध्यात्मिक तपकी वृद्धि के लिये ही बाह्य तप विधेय है । १०६ यदि प्राध्यात्मिक तपकी वृद्धि ध्येय या लक्ष्य न हो तो