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युगवीर-निबन्धावली
प्रथम खण्ड ( मौलिक निबन्ध )
लेखक जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
सस्थापक 'वीर-सेवा-मन्दिर' [जैनमाहिए और इतिहास पर विशद-प्रकाश, जैनाचार्योका शासन
भेद, ग्रन्थ-परीक्षा आदिके लेखक , स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, समीचीन-धर्मशास्त्र, अध्यात्म-रहस्य, तत्त्वानुशासनादि ग्रन्थोके विशिष्ट अनुवादक, टीकाकार एव भाष्यकार , अनकान्नादि.
पत्री और समाधितन्त्रादि ग्रन्थोके सम्पादक ]
वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट-प्रकाशन
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प्रकाशक
दरबारीलाल जैन कोठिया मन्त्री 'वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट' २१, दरियागज, दिल्ली
प्रथम संस्करण एक हजार प्रति फाल्गुन स०२०१६ मार्च सन् १६६३ पृष्ठ संख्या मूल्य मात्र पाँच रुपये
कुल ४८४
मुद्रक - सन्मति - प्रेस
२३०, गली कुजस, दरीबा कला,
दिल्ली
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श्रीमान् माननीय साह शान्तिप्रसादजी जैन
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समर्पण
मुधारप्रिय, उदारहृदय, विद्या-साहित्य-प्रेमी. साहित्योद्धारक,
गुणिजनानुगगी, गुण-ग्राहक, मत्कार्य-सहायक, सच्चे अर्थोंमे दानवीर, समाजके महान् मेवक, धम-कर्ममे निष्ठावान्, मदहित, लोकहितैषी, सरल-सौम्य-प्रकृति और अपने प्रिय बन्धुवर श्री साहू शान्तिप्रसादजी जैनको यह लोकहितानुरूपा कृति
सादर समर्पित ।
जुगल विशोर मुरन्तार
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प्रकाशकीय
यह 'निबन्धावली' आचार्य श्रीजुगलकिशोरजी मुख्तार 'युगवीर'के साहित्य और इतिहास विषयक उन निबन्धोंसे पृथक् है, जिनका एक सग्रह 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' नामसे, प्रथम खडके रूप में, ७५० पृष्ठका, प्रकाशित हो चुका है, दूसरा वड प्राय उतने ही पृष्ठोका प्रकाशित होने को है, और तीसरा खड जैनग्रन्थोकी उन परीक्षा प्रोसे सम्बन्ध रखता है जिन्होने महान् प्राचा
के नाम पर प्रति कुछ जाली ग्रन्थोका भंडाफोड किया, दूसरोकी कृतियोको अपनी कृति बनानेवालोका पर्दा फाश किया, समाजमे असाधारण विचार क्रान्ति उत्पन्न को और अनेक भूल-भ्रान्तियो तथा मिथ्या धारणाओ के विषयमे समाजके विवेकको काफी जाग्रत किया । इस खडका पृष्ठ-परिमाण और भी अधिक है ।
इस निबन्धावलीको जिसमे इतस्तत बिखरे हुए सामाजिक तथा धार्मिक निबन्धोका सग्रह है, दो ग्वडोमे विभाजित किया गया है, जिनमे यह पहला खड विविध विषयके महत्वपूरण मौलिक निबन्धोको लिये हुए है, जिनकी सख्या ४१ है । दूसरे खडमे निबन्धोको १ उत्तरात्मक, २ समालोचनात्मक, ३ स्मृति-परिचयात्मक, ४ विनोदशिक्षात्मक और ५ प्रकीरणक-जैसे विभागों मे विभक्त किया गया है और उनकी मख्या ६० से ऊपर है । पहले खडमे प्रथम निबन्धको छोडेकर शेष निबन्धोको उसी क्रमसे रखा गया है, जिस क्रमसे उनका निर्माण हुआ है। इसका विशेष परिचय साथमे दी गई निबंधसबसे सहज ही प्राप्त हो सकेगा। दूसरे वडमे भी निबन्वोको अपने-अपने विभागानुसार काल-क्रमसे रखनेका विचार है ।
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युगवीर-निबन्धावली निबन्धावलीके निबन्धोका सशोधन कार्य स्वय मुख्तारश्रीके हाथो सम्पन्न हो सका है, यह अत्यन्त हर्षकी बात है और इससे उनका मूल्य और भी बढ़ गया है । मुख्तारश्रीके लेख निबन्धोको जिन्होने भी कभी पढा-सुना है उन्हे मालूम है कि वे कितने खोज पूर्ण, उपयोगी और ज्ञानवर्धक होते हैं, इमे बतलानेकी आवश्यकता नही है। विज्ञ पाठक यह भी जानते है कि इन निबन्धोने समयसमय पर ममाजमे किन-किन सुधारोको जन्म दिया है और क्या कुछ चेतना उत्पन्न की है । कितने ही निबन्ध तो इस खडमे ऐसे भी है जो एकाऽनेक-वार पुस्तकाकार छप चुके है और जिनकी मॉग बराबर बनी रहती है । इमसे सभी पाठक एक ही स्थान पर उप. लब्ध इन निबन्धोसे अब अच्छा लाभ उठा सकेंगे।
यह निबन्धावली स्कूलो,कालिजो तथा विद्यालयोके विद्यार्थियो। को पढनेके लिये दी जानी चाहिये, जिससे उन्हे समाजकी पूर्वगतिविधियो एव स्पन्दनोका कितना ही परिज्ञान होकर कर्तव्यका समुचित भान हो सके और वे खोजने, परखने तथा लिखने आदिकी क्लामे भी विशेष नैपुण्य प्राप्त कर सकें।
अन्तमे मै अपनी तथा सस्थाकी प्रोरसे डा. श्री हीगलालजी जैन एम०००, एलएल०बी०, डी.लिट् प्रोफेमर व अध्यक्ष सस्कृत. प्राकृत-भाषा-विभाग विश्वविद्यालय जबलपुर (म.प्र.) को हार्दिक धन्यवाद भेट करता हूँ जिन्होने इस निबन्धावलाके लिये 'नये युगकी झलक' नामसे महत्वपूर्ण प्रस्तावना लिम्बनेकी कृपा की है।
दरबारीलाल जैन, कोठिया हिन्दू विश्वविद्यालय, वागरणसी। (न्यायाचार्य, एम०ए०) १५ फरवरी, १९६६
मत्री, 'वीरसेवामन्दिर-दम्टर
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नये युगकी झलक यदि भूलता नही हूँ तो सन् १९२२ की बात है जब दिल्लीमे प्रतिष्ठा-महोत्सवके अवसर पर जैनियोका एक अच्छा मेला भर गया था। दि. जैन महासभाका अधिवेशन भी वहाँ था । प्रथम दिवसकी कार्यवाहीमे ही जैन गजटके समादक वके सम्बन्धमे सुधारको और स्थितिपालकोके बीच कडा विरोध उपस्थित हो गया । उसी रात्रिको एक अन्य खेमेमे एकत्र होकर सुधारकदल दि० जैन परिषदके नामसे अपना स्वतत्र मगठन तैयार करने का विचार कर रहा था। मैं भी अपने नये उ साहसे वहाँको कार्यवाही मे कुछ भाग ले रहा था। अकस्मात् मेरे समोप खादीका चद्दर प्रोढे बैठे हुए एक सज्जनने मुझे कुछ प्रसगोपयोगी बाते बतलाते हुए उन्हे सभामे उपस्थित करनेके लिये कहा । किन्नु पारिचित और कुछ-कुछ अपढसे दिखाई देनेवाले व्यक्तिको दो हुई सूचनामोके आधार पर उन बातोको प्रामाणिक रूपसे सभामें उपस्थित करनेका मेरा साहस नही हुआ । किन्तु शीघ्र ही मेरे प्राश्चर्य और हर्षका पागवार न रहा जब मैंने जाना कि मुझे वह सुझाव देनेवाला व्यक्ति अन्य कोई नही विख्यात लेखक और
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युगवीर-निबन्धावली
मेरे परोक्ष सुपरिचित विद्वान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार हैं।
मुख्तार जीने जो साहित्य-सेवा की है और विशेषत' जनसाहित्यके आलोचनात्मक अध्ययनकी जो परम्परा स्थापित की उसके विवरण देनेका न तो यह अवसर है और न उमकी आवश्यकता। जिन्हे जैन साहित्य व समाजकी प्रगति, हलचलो व प्रवृत्तियोमे सम्पर्क है वे भलीभाति जानते है कि मुख्तारजी इम क्षेत्रमे एक युगान्तरस्थापक कहे जा सकते हैं । मुझे अपने तथा अन्य कुछ मित्रोके मम्बन्धमे तो यह कहनेमे कोई मकोच नहीं कि हमसे पुरानी पीढीके विद्वानोमें स्वर्गीय श्रद्धेय नायूरामजी प्रेमीके अनन्तर श्रीजुगलकिशोर मुख्तारका ही नाम स्मरण ग्राता है जिन्होने अपने लेखो और पुस्तको-द्वाग हमे माहित्य-सेवामे प्रवृत्त होनेकी स्फूर्ति प्रदान की तथा अध्ययन व लेखनकी उचित दिशाका मार्ग-दर्शन कगया। इसी कारण मैंने अपना परम सौभाग्य समझा छब इन वयोवृद्ध साहित्यसेवी विद्वान्ने अपने लेखोके इम मग्रहकी प्रस्तावना-रूपमे कुछ लिख देनेके लिये मुझे प्रामत्रित किया।
अाजसे कोई ६-७ वर्ष पूर्व सन् १६५६ मे मुख्तारजीका 'जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' शीर्षकसे उनके ३२ लेखोका संग्रह प्रकाशित हया था। उसके प्रकाशकीय वक्तव्यमें कहा गया था कि "मुख्तारजीके लेखोकी सख्या इतनी अधिक है कि यह मग्रह कई खडोमे प्रकाशित करना होगा। इस प्रथम दडमे ही ७५० के लगभग पृष्ठ हो गये है । दूसरे वडामे भी प्राय इतने-इतने ही पृष्ठोकी सभावना है।" उस प्रथम वडके लेखोमे ही अध्येतानो व साहित्यकारोको बडी सहायता मिली। मुख्तारजीकी जिन पूर्व बोजो-शोधोको जाननेके लिये जैनहितैषी व अनेकान्त आदि पत्रिकामोंकी पुरानी फाइले ढूंढनेमे बडी हैरानी उठानी पड़ती थी, वह अब नहीं रही । इमी सुविधाके विस्तार के लिये मुख्तारजीके शेष लेवोके मन
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नये युगको झलक हकी भी लोग बडी उत्सुकतासे प्रतीक्षा कर रहे थे। किन्तु जहां तक मुझे ज्ञात है, उनके लेखोका कोई दूसरा सग्रह अब तक प्रकाशित नहीं हो पाया। श्रेयस्कर कार्यमें अनेक विघ्न आते हैं । इधर कई दिनोंसे मुख्तारजीके वृद्धत्वको देखते हुए यह आशा क्षीण होती जा रही थी कि अब उन्हींके कर-कमलोंसे सग्रहीत उनका कोई अन्य लेख-सग्रह भी हमे प्राप्त हो सकेगा। इसे प्रतदेवीकी महती कृपा ही समझना चाहिये कि उसने मुख्तारजीको यह प्रेरणा दी और बल प्रदान किया कि वे अपना एक और लेख-मग्रह ज्ञानोपासकोको प्रदान करे । इसीका परिणाम यह मुख्तारजीका लेख-सग्रह उपस्थित है।
प्रस्तुत खडमे मुख्तारजीके उन ४१ लेखोका मग्रह है जो सन् १६८७ और १९५२ के बीच ४५ वर्षोमे भिन्न-भिन्न समय पर लिखे गये थे, और जैनगजट, जनहितैषी, सत्योदय, अनेकान्त आदि पत्रपत्रिकाप्रोमें प्रकाशित हुए थे । यह समस्त काल भारतीय राजनीति, समाज व सस्कृतिके क्षेत्रमे असाधारण उत्क्रान्ति-पूरण रहा है । विशेषत देशके स्वतत्र होनेसे लगाकर गत १५-१६ वर्षोंमे तो यहांकी गतिविधियो व विचारोमे आकाश-पातालका अन्तर पड गया है । अतएव आश्चर्य नही जो प्रस्तुत लेखोकी अनेक बाते अब कालातीत हो गई हो । किन्तु पाश्चर्य तो इस बातका है कि यहाँ कही गई अनेक बाते ऐसी हैं जो मानो वर्तमान स्थितिको ही दृष्टिमे रखकर लिखी गई हो। उदाहरणार्थ
'भारतकी स्वतत्रता, उसका भड़ा और कर्तव्य' (२६) शीर्षक लेख देखिये जहां कहा गया है कि
"भारतकी स्वतत्रताको स्थिर-सुरक्षित रखने और उसके भविष्यको समुज्ज्वल बनानेके लिये इस समय जनता और भारत
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युगवीर-निबन्धावलो हितैषियोका यह मुख्य कर्तव्य है कि वे अपने नेतामोको उनके कार्योंमें पूर्ण सहयोग प्रदान करें और ऐसा कोई भी कार्य न करे जिससे नेताप्रोका कार्य कठिन तथा जटिल बने। इसके लिये सबसे बडा प्रयत्न देशमे धर्मान्धता अथवा मजहबी पागलपनको दूर करके पारस्परिक प्रेम, सद्भाव, विश्वास और सहयोगकी भावनाप्रोको उत्पन्न करनेका है । इसीसे अन्तरङ्ग शत्रुप्रोका नाश होकर देशमे शान्ति एव सुव्यवस्थाकी प्रतिष्ठा हो सकेगी और मिली हुई स्वतत्रता स्थिर रह सकेगी" इत्यादि । यह लेख सन् १९४७ के मार्चअप्रैल मासमे स्वातत्र्य-प्राप्तिकी पृष्ठभूमिमे लिखा गया था । हमारी गत पन्द्रह-सोलह वर्षकी यात्राके प्रतिकूल इधर हए साम्प्रदायिक झगडो और अब चीनी अाक्रमणके प्रकाशमे जान पडता है, हम पून उसी मजिल पर पा खडे हए है जहाँसे उस समय चले थे। ___ इसी प्रकार प्रथम लेख 'सुधारका मूलमत्र' ही ले लीजिये जो सन् १९१७ मे लिखा गया था। वहाँ पढिये__'यदि आप यह चाहते है कि हिन्दी भाषाका भारतवर्षमे सर्वत्र प्रचार हो जाय, और आप उसे राष्ट्रभाषा बनानेकी इच्छा रखते हैं तो आप हिन्दी साहित्यका जी-जानसे प्रचार कीजिये । स्वय हिन्दी लिखिये, हिन्दी बोलिये, हिन्दीमे पत्र-व्यवहार, हिन्दीमे कारोबार
और हिन्दीमे वार्तालाप कीजिये । हिन्दी पत्रो और पुस्तकोको पढिये, उन्हे दूसरोको पढनेके लिये दीजिये, अथवा पढनेको प्रेरणा कीजिये । हिन्दीमे लेख लिखिये, हिन्दीमे पुस्तकें निर्माण कीजिये, हिन्दीमे भाषरण दीजिये, और यह सब दूसरोसे भी कराइये। दृढताके साथ ऐसा यत्न कीजिये कि हिन्दीमे सब विषयो पर उत्तमोतम ग्रन्थ लिखे जाय । हिन्दी लेखकोका उत्साह बढाइये । उन्हें लेखो तथा पुस्तकोंके तैयार करनेके लिये अनेक प्रकारकी सामग्रीकी सहायता दीजिये, और तरह-तरहके लेखो, चित्रो, व्याख्यानो,
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वार्तालापो और व्यवहारोके द्वारा हिन्दीका महत्त्व प्रकट करते हुए सर्व-साधारणमे हिन्दीका प्रेम उत्पन्न कीजिये । साथ ही, हिन्दी ग्रन्थो तथा हिन्दी पत्रोकी प्राप्तिका मार्ग इतना सुगम कर दीजिये कि उनके लिये किसीको भी कष्ट न उठाना पडे । यह सब कुछ हो जाने पर आप देखेगे कि हिन्दी राष्ट्रभाषा बन गई । "
इस लेख के लिखे जानेसे प्राज ४५-४६ वर्ष हो जाने पर भी हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने-बनानेकी समस्या जैसीकी तैसी बनी हुई हैं, और लेखककी वह ललकार ग्राज भी उतनी ही सार्थक है । उसमे उन लोगोके लिये एक चुनौती भी है जो स्वयं अपना कर्तव्य पूरा न करते हुए उक्त विषय पर सरकारकी उपेक्षाकी शिकायत किया करते हैं ।
'हमारी यह दुर्दशा क्यो ?" शीर्षक छठे लेखमे भारतके समुज्वल और समृद्ध भूतकालका चित्रण करके आजके शक्ति ह्रासके सम्बन्ध मे कहे गये शब्द ध्यान देने योग्य है
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' और आज उसी भारतवषमे हमारे चारो तरफ प्राय ऐसे ही मनुष्योकी सृष्टि नज़र आती है जिनके चहरे पीले पड गये हैं । १२१३ वर्षकी अवस्थामे ही जिनके केश रूपा होने प्रारम्भ हो गये है । जिनकी आँखे और गाल बैठ गये है। मुंह पर जिनके हवाई उडती है । होठो पर हरदम जिनके खुश्की रहती है । थोडासा बोलने पर मुख और कठ जिनका सूख जाता है । हाथ और पैरोके तलुनोसे जिनके अग्नि निकलती है। जिनके पैरोमे जान नही और घुटनोमे दम नही । जो लाठी के सहारे चलते है और ऐनक के सहारे देखते है । जिनके कभी पेट दर्द है, तो कभी सिरमे चक्कर | कभी जिनका कान भारी है, तो कभी नाक । श्रालस्य जिनको दबाये रहता है । साहस जिनके पास नही फटकता । वीरता जिनको स्वप्नमे भी दर्शन
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नही देती । जो स्वयं अपनी छाया से प्राप डरते हैं ।" इत्यादि, इत्यादि ।
यह जो हमारे नवयुवकोकी निर्बलताका चित्ररण आजसे अर्थशताब्दी पूर्व किया गया था, क्या वह आज भी सत्य नही है ? इस स्थितिको सुधारनेके जो उपाय लेखमे बतलाये गये हैं वे प्राज भी ध्यान देने योग्य हैं ।
इस प्रकार पाठक देखेंगे कि इन पुराने लेखोमे ऐतिहासिक महत्व के अतिरिक्त वर्तमान परिस्थितियों के मबन्धमे भी मार्ग-दर्शन की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है ।
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प्रस्तुत ग्रह के जैन इतिहास, धर्म और समाज-विषयक लेख तो उस-उस क्षेत्रमे रुचि रखनेवाले पाठको व लेग्वकोको अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगे, क्योकि उनमे एक कुशल, अनुभवी विद्वान और निष्पक्ष समालोचकके विचार निहित है। महावीरकी तीर्थ-प्रवर्तन तिथि (२६) श्रीधवलम तो एक हजार वर्षोंसे निर्दिष्ट थी, किन्तु मुख्तारजी ने उस ओर समाजका ध्यान मन १९३६ मे विशेष रूपसे आकर्षित किया। इतना ही नहीं, किन्तु उन्होने उस दिन राजगृहके विपुलाचल पर्वत पर जहाँ भगवान महावीरका उपदेश हुआ था, एक महोत्सव मनानेकी प्रथा प्रचलित करनेका भी प्रयास किया । 'महावीरका सर्वोदय - तीथ' (४०) लिखकर उन्होने जैनधर्मके अनेकान्त सिद्धान्तके प्रचारकी एक प्रशस्त भूमिका निर्मारण की । 'सर्वोदय के मूलसूत्र' (८१) मे उन्होंने १२० वाक्योंमे अनेकान्त मिद्धान्तका निचोड भी रख दिया । "जैनी नीति" (२३) मे अमृतचन्द्राचार्यकी ग्वालिनकी उपमा-द्वारा अनेकान्तकी सारग्राहिणी शक्तिका उन्होने अच्छा परिचय कराया और वर्षो तक अनेकान्तमें उसके चित्रण व लेखो द्वारा उसका खूब प्रचार किया। "जिनपूजाधिकार - मीमासा' (८), 'उपासना-तत्त्व' (१४), 'उपासनाका ढग'
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(१५) 'वीतरागकी पूजा क्यो ?” (३१) व 'वीतरागसे प्रार्थना क्यो ?' (३२) जैसे लेखो द्वारा मुख्तारजीने तत्सम्बन्धी जैन दृष्टिकोणका शास्त्रीय एव निर्विकार रीति से प्रतिपादन किया व प्रचलित धारराम्रो और विधियोमे परिष्कार करानेका प्रयत्न किया ।
जैन धर्म अपने मौलिक स्वरूप व रीति-नीतिमे प्रजातत्रात्मक है । वह मनुष्य वर्गमे जन्मत नीच उंचका भेद स्वीकार नही करता और सभीको धर्म पालनका समान अधिकार प्रदान करता है। किन्तु दुर्भाग्यत जैन समाजमे भी नीच ऊँचकी भावनाए और जाति-पांतिके नाना भेद-भाव उत्पन्न हो गये । मुख्तारजीने अपने 'जैनियोमे दयाका प्रभाव' (७) व 'जैनियोका अत्याचार' (६) जैसे लेखों-द्वारा इस विकारकी ओर सबका ध्यान आकर्षित किया। उन्होने 'जिन'पूजाधिकार मीमामा' (८) 'जातिभेद पर श्रमितगति' (१८) तथा 'जैनी कौन हो सकता है ? ' (२४) आदि लेखो मे शास्त्रीय प्रमाणोसे भले प्रकार सिद्ध कर दिखाया कि वर्ण व जाति एव दस्सा - बीसा - जैसे प्रर्थहीन भेद-भाव के प्राधारसे किसीको जैनधर्मका पालन करने व मन्दिरोमे दर्शन-पूजन के अधिकार से वचित रखना सर्वथा अनुचित है। 'चारुदत्त सेठका शिक्षाप्रद उदाहरण' (१२) 'वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण' (१३) 'गोत्र- स्थिति व सगोत्र विवाह' (१६) 'प्रसवर व श्रन्तर्जातीय विवाह' (२०) आदि लेखोमे उन्होने पौराणिक उदाहररण दे देकर सिद्ध किया कि नीच ऊँच व गोत्र - मूर आदि भेदभाव सारहीन है व उनका जैन परम्परात्मक विवाह संबधी नियमो मे कोई स्थान व महत्व नही हे ।
समाजके स्थिति - पालक कहे जानेवाले दलको मुख्तारजीके सुधारक विचारोंसे बडी ठेस पहुँची; किन्तु आज तक भी कोई उन के शास्त्रीय प्रमाणों एवं तदाश्रित युक्तियों और तर्कोको काट नही सका। और अब तो प्राय ये सभी सुधार बहुजनसमाजमे मौन
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युगवीर-निबन्धावली "पूर्वक स्वीकार किये जा चुके हैं। इस प्रकार हम प० जुगलकिशोरजी मुख्तारको जैनसमाजमें नये युग-निर्माणमे एक महान् अग्रणी कह सकते हैं, जिसके प्रचुर प्रमाण उनके प्रस्तुत लेखोमे विद्यमान हैं। जो कोई जैनसमाजकी गत अर्ध शताब्दीकी गतिविधिका इतिहास समझना चाहे, व उस विषय पर कुछ लिखना चाहे, उसके लिये यह लेख-सग्रह अनिवार्यरूपसे उपयोगी सिद्ध होगा, और वह पडितजीकी विद्वत्ता व समाज-सुधारकी शुद्ध और सुदृढ भावनाका लोहा माने बिना नहीं रहेगा । अध-विश्वासो व अज्ञानपूर्ण मान्यताप्रोकी कठोर आलोचनाके साथ साथ शास्त्रीय आधार और स्थिर आदर्शोका पक्षपाततथा नव-निर्माणका सावधानी पूर्ण प्रयत्न पडितजीकी अपनी विशेषता है। अपनी कही हई बातोकी पुष्टि के लिये प्रमारणो, तर्कों व दृष्टान्तोकी उनके पास कोई कमी नहीं । उनकी भाषा सरल और धारावाहिनी, तथा शैली तकपूर्ण और प्रोजस्विनी है। सस्कृत व फारसीके मोह व आग्रहसे रहित व ऐमी सुबोध हिन्दी लिखते हैं जिसके विषयमे किसीको कोई शिकायत नहीं होनी चाहिये। इन सब गुणोसे पडितजीका अपना 'युगवीर' उपनाम, जो उनक पूरे नामका ही सारगर्भित मक्षेप है, पूर्णत सार्थक सिद्ध हुआ पाया जाता है।
हमारी अभिलाषा और प्राथना है कि इतदेवीका यह परम पुजारी चिरायु हो। विश्वविद्यालय, )
(डा.) हीरालाल जैन जबलपुर (म०प्र०) १६-२-१९६३ )
( एम.एस, डी० लिट)
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निबन्ध-सूची [ इस सूचीमै ब कटके भीतर यह मूचित किया गया है कि कौन निबन्ध कब-कहाँ प्रथमत' प्रकाशित हुआ है और जिम निबन्धका ठीक निर्माण-काल मालूम हो मका है, उसका वह समय निबन्ध-नामके अनन्तर तथा बेवटके पूर्व दिया गया है।] १ सुधारका मूलमत्र, २५ अप्रैल १९१७ (जनतिषी जुलाई १९१७) २ पापोंसे बचनेका गुरुमत्र (जैनगजट २४ जुलाई १९०७) ३ मिथ्या धारणा (जैनग० ८ अगस्त १९०७) ४ महाजनी मत्र (जैनग० ८ अगस्त १९०७) ५. उपवास (जैनग० १६ अगस्त १६०७) ६ हमारी यह दुर्दशा क्यो? (कामधेनु ३० सितम्बर १६१०) ७ जैनियोंमे दयाका अभाव (जैनहि० जून १६११) ८ जिन-पूजाधिकार-मीमासा (प्रथमावनि, अप्रैल १९१३) । जैनियोका अत्याचार (जनहि० अप्रैल-मई १९१३) १० विवाह-समुद्दश्य, २१ फरवरी १९१६ (प्रथमावृत्ति, अप्रैल १६१६) ११ नौकरोसे पूजन कराना (जनहि० नवम्बर १९१७) १२ चारुदत्त सेठका शिक्षाप्रद उदाहरण (सत्योदय अक्टूबर १९१८) ५३ वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण (सत्योदय अप्रल १९१६) १४. उपासना-तत्त्व,२५ जनवरी १९२१ (प्रथमावति,भाषाढ म ०५६६६) १५ उपासनाका ढग, २१ जनवरी १९२१ (जैनजगत १६ अगस्त १९२६) १६ देशको वर्तमान परिस्थिति और हमारा कर्तव्य,मिनम्बर१९२१,
(जैनहि० भाग १५ अक १२ मन् १९२१) १७ अपमान या अत्याचार, ११मई१९२४(परवारबन्धु जलाई १९२४) १८ जातिभेद पर अमितगति, १६ दिसम्बर १९२४ (अनेकान्त १-२) २६ गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह (विवाहक्षेत्रप्रकाश, प्रथमावृनि,
जलाई १९२५)
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गुगवीर-निबन्धावली २०. असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह । उपयुक्त विवाहक्षेत्रप्रकाश) २१ जाति-पचायतोका दड-विधान ( अनजगत १६ सितम्बर व १
अक्तूबर १६२५) २२ हम दुखी क्यो हैं ? (परवार बन्धु अप्रेल १९२७) २३ जैनी नीति, नवम्बर १९२६ (अने० न० १ कि० १) २४ जैनी कौन होसकता है ? (जैनज० १ नवम्बर १९३०) २५ भक्तियोग-रहस्य, २७ जनवरी १६३३ (सिद्धिमोपान,प्रथमावृत्ति,
अप्रैल १९३३) २६ महावीरकी तीर्थप्रवर्तनतिथिका महत्व, १५ मार्च १९३६ (वोर
अप्रेल १९३६) २७ सकाम-धर्मसाधन, ७ जनवरी १६३६ ( अने. फरी १९३६) २८ सेवा-धर्म (अने० १ नवम्बर १९३६) २६ होलीका त्यौहार और उसका सुधार (अने० ३ मार्च १९४०) ३० स्व-पर-वैरी कौन ? ( अने० फौरी १६४१) ३१ वीतरागकी पूजा क्यो ? (अने० माच १६४१) ३२ वीतरागसे प्रार्थना क्यो ? (अने० अप्रेल १९४१) ३३ पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ? (अने• जन १६४१) ३४. परिग्रहका प्रायश्चित्त (अने० अक्तूबर १९५१) ३५ छोटापन और बडापन, ३१ अगस्त १९४३ (अने०वर्ष ६ कि०१) ३६ बड़ेसे छोटा और छोटेसे बडा, ३० सितम्बर १९४३ (अने०६-२) ३७ बडा दानी कौन ? २४ नवम्बर १९४३ ( अने० ६-४) ३८ बडा दान। और छोटा दानो, दिसम्बर १९५० ( अनेकान्त-रम
लहरी, प्रथमावृति जनवरी १९५०) ३६. भारतकी स्वतत्रता उसका झंडा और कर्तव्य (अन० मार्च १६४७) ४०. महावीरका सर्वोदयतीर्थ, जनवरी १९५२ (अने० मार्च १९५२) ४१. सर्वोदयके मूलसूत्र (अने० मार्च १९५२)
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सुधारका मूलमन्त्र
पाठक जन क्या आपने कभी विचार किया है कि, एक मनुष्य जो अभी दूसरेके प्राण लेनेके लिये तय्यार था, शान्त क्यो होगया ? एक बालक रोते रोते हँसते क्यो लगा ? एक आदमी जो अभी हँसीखुशीकी बाते कर रहा था, शोकमे मग्न यो हो गया ? सभाके सब मनुष्य बैठे बिठाए एकदम खिल-खिलाकर क्यो हँस पडे २ कल जो कायर और डरपोक बने हुए थे, वे आज धीर क्योंकर बन गये २ मूर्खता और असभ्यताकी मूर्तियों विज्ञान और सभ्यताकी मूर्तियोमे कैसे परिणत हो गई? जिस कार्यसे कल हमे घृणा थी,आज उसीको हम प्रेमके साथ क्यों कर रहे हैं । आनन्द और सुखके देनेवाले पदार्थ भी कैसे किसीको दु.खदायक और अचिकर हो जाते हैं २
आपसमे वेर-विरोध क्योंकर पैदा होता और बढ़ जाता है २ एक अच्छे कुलका भला आदमी चोर और डकैत कैसे बन जाता है २ किस प्रकार एक असदाचारी सदाचारी और सदाचारी असदाकाल हो जाता है ? 'कले जी भंगी वो चमार या कहें आज ईसाई बनकर या फौजमै भर्ती होकर ब्राहौल और क्षत्रियो-जैसी बाते क्यो करने लगता है । एक मनुष्य जिसे अपने प्राणीका बहुत मौह का, सहर्ष प्रारण देने के लिये क्योंकार तयार हो जाता है कोम हमारी शान्तर को भंग कर देता हैं ? कौन हमारे हदयों में प्रेम तथा मयाका संचार
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युगवीर-निबन्धावली कर देता है ? और कौन किसी शांतिमय राष्ट्रमें विप्लव खडा कर देता है ?
उत्तर इन सबका एक है और वह है-साहित्य-शक्तिका प्रभाव । जिस समय जैसे जैसे साहित्यका प्राबल्य हमारे सामने होता है उस समय हमारा परिणमन भी उसी प्रकारका हो जाता है । साहित्यसे अभिप्राय यहा किसी भाषा-विशेषसे नहीं है और न केवल भाषाका नाम ही साहित्य हो सकता है, बल्कि भाषा भी एक प्रकारका साहित्य है अथवा साहित्यके प्रचारका साधन हैं। साहित्य कहते है भावांक वातावरणको और वह वातावरण शब्दो, भाषाओ, वार्तालापो, व्याख्यानो, चेष्टाओ, व्यवहारो, विचारो, लेखो, पुस्तको चित्रो
आकृतियो, मूर्तियो और इतर पदार्थोके द्वारा उत्पन्न होता है अथवा उत्पन्न किया जाता है। इसलिये साहित्यके इन सब साधनोंको भी साहित्य कहते है। अथवा ये सब साहित्य प्रचारके मार्ग है। साहित्यके सामान्यत क्षणिक-स्थायी, चर-स्थिर, उन्नत-अवनत, सबल-निबल और प्रौढ-अप्रौढ ऐसे भेद किए जासकते है। परन्तु विशेषकी दृष्टिसे उसके शान्ति-साहित्य, शोक-मा०, प्रेम-सा०, हास्य-सा०, भय-सा०, काम-सा०, द्वेष-सा०, राग-सा० वैराग्य-सा०, सुख-सा०, दुख-सा०, धर्म-सा०, अधर्म-सा०, प्रात्म-सा०,मनात्म-सा०, उदार-सा०, अनुदारसा०, देश-सा०, समाज-सा०, युद्ध-सा०, कलह-सा०, ईर्ष्या-सा०, घृरणा-सा०, हिंसा-सा०, दया-सा०, क्षमा-सा०, तुष्टि-सा०, पुष्टिसा०, विद्या-सा०, विज्ञान-सा०, कर्म-सा०, क्रोध-सा०, मान-सा०, माया-सा०, लोभ-साहित्य, इत्यादि प्रमख्यात भेद हैं। बल्कि दूसरे शब्दोंमें यो कहना भी अनुचित न होगा कि स्थूलरूपसे भावोंके जितने भेद किये जा सकते हैं साहित्यके भी प्राय. उतने ही भेद हैं।
शान्ति-साहित्य के सामने प्रानेसे, चाहे वह किसी भी द्वारसे पाया हो, यदि वह प्रबल है तो हम शान्त हो जाते हैं हमारा कोष जाता रहता है । शोक-साहित्यके प्रमावसे हम रोने लगते हैं-हमारा धेर्य
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सुधारका मूलमत्र छूट जाता है। प्रेम साहित्यके प्रसादसे हम प्रेम करनेके लिये तैयार हो जाते हैं-दूसरोंके प्रति हमारा अनुराग और वात्सल्य बढ जाता है । हंसीका साहित्य हमें हंसने या मुस्करानेके लिये बाध्य कर देता है। भयका साहित्य हमें भीर और डरपोक बना देता है हम बातबातमे डरने, घबराने और काँपने लग जाते हैं। काम-साहित्यके प्राबल्यमे अनेक प्रकारकी काम-चेष्टाएँ होने लगती हैं और द्वेषसाहित्यके प्रभावसे हम लडने-लडाने, घृणा करने तथा एक दूसरेको हानि पहुंचानेके लिये आमादा और तत्पर हो जाते हैं । युद्ध में क्या होता है ? युद्ध-साहित्यका प्रचार । अर्थात् युद्ध-सामग्रीको एकत्रित, सचित और सुरक्षित करनेके सिवाय युद्धकी महिमा गाई जाती है-युद्ध करना कर्तव्य और धर्म ठहराया जाता है । अपने देश, धम और समाजकी मान-रक्षाके लिये प्राणोकी बलि देना सिखलाया जाता है। अपमानित जीवनसे मरना श्रेष्ठ है, युद्धमे मरने वालोकी कीर्ति अमर हो जाती है और उनके लिये हरदम स्वर्ग या वैकू ठका द्वार खुला रहता है, इस प्रकारकी शिक्षाएं दी जाती हैं । शत्रुओंके असत् व्यवहारोको दिखलाते हुए उनसे घृणा पैदा कराई जाती है और उन्हे दड देनेके लिये लोगोको उत्तेजित किया जाता है। साथ ही, सैनिकोको और भी अनेक प्रकारके प्रोत्साहन दिए जाते हैं, वीरोका खूब कीर्तिगान होता है और कायरोकी भरपेट निन्दा भी की जाती है। नतीजा इस सम्पूर्ण साहित्य-प्रचारका यह होता है कि मुर्दोमे भी एक बार जान पड़ जाती है उनकी मुबई हुई प्राशा-लताएं फिरसे हरी-भरी होकर लहलहाने लगती हैं और वे कायर भी, जो अभी तक युद्धसे भाग रहे थे अथवा जिन्होने हथियार डाल दिए थे, युद्ध में शत्रुमो पर विजय प्राप्त करनेके लिए जी-जानसे लड़ने-- खुशीसे अपने प्राणो तककी माहुति देनेके लिए तैयार हो जाते हैं, पूर्ण उत्साहके साथ शत्र पर धावा करते हैं, खूब जम कर लड़ते हैं पौर अन्त में शत्रुको परास्त भी कर देते हैं।
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युगवीर निबन्धावली
इससे पाठक समझ सकते हैं कि साहित्य-प्रचारमें कितनी शक्ति है । जिन पाठकोंको इस विषयका अधिक अनुभव प्राप्त करना ही उन्हें मंडलके इतिहासका अध्ययन करना चाहिये । इतिहासका अध्ययन उन्हे बतलाएगा कि साहित्य-प्रचारमे कितनी बड़ी शक्ति है और उसके द्वारा समय समयपर कैसे कैसे महान उलटफेर होगए हैं। सिक्समाज तथा उसके धर्मकी प्रारम्भमें क्या दशा थी और फिर कैसे कैसे साहित्यके प्रभावसे उसकी कायापलट होकर वह क्षत्रियत्वमे ढलगया, ये सब बाते भी इतिहासवेत्ताओ से छिपी नही हैं । वास्तवमे समस्त देशों, धर्मों तथा समाजोका उत्थान और पतन साहित्यप्रचारके आधार पर ही अवलम्बित है । जिस देश, धर्म या समाजमें जिस समय जिस विषयके साहित्यका अधिक प्रचार होता है उस देश, धर्म या समाजमें उस समय उसी विषयकी तूती बोलने लगती है । विषयके उत्थानात्मक होनेसे उत्थान और पतनात्मक होनेसे पतन हो जाता है।
जापान देशकी प्रासे प्राय १०० वर्ष पहले कैसी जघन्य स्थिति थी और आज उसका कितना चकित करनेवाला उत्थान होगया है, यह सब उसके उत्थानात्मक साहित्यके प्रसारका ही फल है। भारतवर्षका पतन क्यो हुआ ? और वह क्यो अपनी सारी गुण- गरिमा खो बैठा ? इसीलिये कि उसके साहित्यकी अवस्था अच्छी नही रही, वह अपने सत्साहित्यको स्थिर नही रख सका, अथवा समयके अनुकूल नया साहित्य उत्पन्न नही कर सका। उसका साहित्य प्रेमशून्य होकर पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, घृरणा और निन्दासे तथा निष्फल क्रियाकाडसे भर गया । उसमें अज्ञानता, अकर्मण्यता. स्वार्थान्धता कायरता, अन्धश्रद्धा, अनैतिकता और विलास-प्रियता छागई और साथही उसने लोकोपकार, लोकसंग्रह, विचार- स्वातंत्र्य और सहोयोगिता जैसे महत्व तत्त्वोको भुला दिया । देशके साहित्यकी ऐसी अवस्था हो जानेसे ही भारतवर्षका पतन हुआ । भिन्न-भिन्न धर्मों तथा समाज के उत्थान
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सुधारका मूलमत्र और पतनका भी प्रायः ऐसा ही रहस्य है । उनका उत्थान और पतन भी उनके साहित्य-प्रचारकी हालत पर अवलम्बित है।'
माप किसी देश या समाजको जेसा बनाना चाहें उसमे वैसे ही साहित्यका पूर्ण-रीतिसे प्रचार कर दीजिये, वह उसी प्रकारका हो जायगा । उदाहरण के लिये,यदि आप यह चाहते हैं कि हिन्दी भाषाका भारतवर्षमें सर्वत्र प्रचार होजाय मौर आप उसे राष्ट्रभाषा बनानेकी इच्छा रखते हैं तोग्राप हिन्दी साहित्यका जीजानसे प्रचार कीजिये. स्वय हिन्दी लिखिये, हिन्दी बोलिए. हिन्दीमे पत्रव्यवहार हिन्दीमें कारोबार और हिन्दीमे वार्तालाप कीजिये,हिन्दी पत्रो और पुस्तकोको पढिये,उन्हे दूसरोको पढनेके लिये दीजिये अथवा पढनेकी प्रेरणा कीजिये. हिन्दीमे लेख लिखिये, हिन्दीमें पुस्तके निर्माण कीजिये, हिन्दीमें भाषण दीजिये और यह सब कुछ दूसरोसे भी कराइये। दृढताके साथ ऐसा यल कीजिये कि हिन्दीमे सब विषयोपर उत्तमोत्तम ग्रन्थ लिखे जाय । हिन्दी-लेखकोका उत्साह बढाइये, उन्हे लेखो तथा पुस्तकोंके तय्यार करनेके लिये अनेक प्रकारकी सामग्रीकी सहायता दीजिये और तरह-तरहके लेखो, चित्रो. व्याख्यानो वार्तालापो और व्यवहारोंके द्वारा हिन्दीका महत्व प्रगट करते हुए सर्व-साधारणमे हिन्दीका प्रेम उत्पन्न कीजिये। माथ ही, हिन्दी-ग्रन्थो तथा हिन्दी पत्रोकी प्राप्तिका मार्ग इतना सुगम कर दीजिये कि उनके लिये किसीको भी कष्ट न उठाना पडे। यह सब कुछ हो जाने पर प्राप देखेंगे कि हिन्दी राष्ट्र-भाषा बन गई। __इसी तरह यदि आप अपने देश या समाजका उत्थान चाहते हैं और उसके सुधारकी इच्छा रखते हैं तो आप उसमे उत्थानात्मक और सुधार-विषयक साहित्यको सर्वत्र फैलाइये अर्थात् अपने देश व समाजके व्यक्तियोको स्वावलम्बनकी शिक्षा दीजिये, उन्हें अपने पैरो पर खड़ा होना सिखलाइये, भाग्यके भरोसे रहने की उनकी आदत छुड़ाइये, भीख मांगने तथा ईश्वरसे वस्तुत, याचना और प्रार्थना करनेकी
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युगवीर-निबन्धावली पद्धतिको उठाइये, 'कोई गुप्त दैवी शक्ति हमें सहायता देगी' इस खयालको दिलसे भुलाइये, अकर्मण्य और आलसी मनुष्योको कमनिष्ठ और पुरुषार्थी बनाइये, पारस्परिक ईर्ष्या,द्वेष, घृणा निन्दा और प्रदेखसका भावको हटाकर आपसमें प्रेमका सचार कीजिये, निष्फल क्रियाकाडो और नुमायशी (दिखावेके ) कामोमे होनेवाले शक्तिके ह्रासको रोकिये, द्रव्य और समयका सदुपयोग करना बतलाइये, विलासप्रियताकी दलदलमे फंसने और अन्धश्रद्धाके गड्ढेमे गिरनेसे बचाइये, अनेक प्रकारके कल-कारखाने खोलिए, उद्योगशालाएँ और प्रयोगशालाएँ जारी कीजिये, शिल्प व्यापार और विज्ञान-उन्नतिकी ओर लोगोको पूरे तौरसे लगाइये, मिलकर काम करना, एक दूसरेको सहायता देना तथा देश और समाजके हित को अपना हित समझना मिखलाइये, बाल, वृद्ध तथा अनमेल विवाहोका मूलोच्छेद होसके ऐसा यत्न कीजिए,सच्चरित्रता और सत्यका व्यवहार फैलाइये, विचार-स्वातन्त्र्यको खूब उत्तेजन दीजिए, योग्य आहार-विहार द्वारा बलाढ्य बनना सिखलाइये, वीरता, धीरता निर्भीकता, समुदारता, गुणग्राहकता, सहनशीलता और दृढप्रतिज्ञता आदि गुणोका सचार कीजिये, एकता और विद्यामे कितनी शक्ति है इसका अनुभव कराइये, धर्मनीति, राजनीति और समाजनीतिका रहस्य तथा भेद समझाइये,समुद्र-यात्राका भय हटाइये, विदेशोमे जानेका सकोच और हिचकिचाहट दूर कीजिये, अनेक भाषाप्रोका ज्ञान कराइये, तरह तरहकी विद्याएँ सिखाइये और शिक्षाका इतना प्रचार कर दीजिये कि देश या समाजमे कोई भी स्त्री, पुरुष बालक और बालिका अशिक्षित न रहने पावे । इन सब बातोके सिवाय जो जो रीति-रिवाज, प्राचार-व्यवहार अथवा सिद्धान्त उन्नति और उत्थानमे बाधक हो, जिनमें कोई वास्तविक तत्त्व न हो और जो समय समय पर किसी कारणविशेषसे देश या समाजमे प्रचलित हो गए हो उन सबकी खुले शब्दोंमें आलोचना कीजिए और उनके गुण-दोष सर्वसाधारण पर
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सुधारका मूलमंत्र प्रगट कीजिये । सची पालोचनामें कभी सकोच न करनी चाहिए । विना समालोचनाके दोषोका' पृथक्करण नहीं होता। साथ ही, इस बातका भी खयाल रखिये कि इन सब कार्योंके सम्पादन करने और कराने में अथवा यह सब साहित्य फैलानेमें आपको अनेक प्रकारकी आपत्तियाँ आवेगी, रुकावटें पैदा होंगी, बाधाएँ उपस्थित होगी, और आश्चर्य नही कि उनके कारण कुछ हानि या कष्ट भी उठाना पडे, परन्तु उन सबका मुकाबला बडी शान्ति और धैर्यके साथ होना चाहिए, चित्तमे कमी क्षोभ न लाना चाहिए---क्षोममें योग्य-अयोग्यका विचार नष्ट हो जाता है और न कभी इस बातकी पर्वाह ही करनी चाहिए कि हमारे कार्योंका विरोध होता है, विरोध होना अच्छाहै,वह शीघ्र सफलताका मूल है । कैसा ही अच्छेसे अच्छा काम क्यो न हो, यदि वह पूर्व-सस्कारोके प्रतिकूल होता है तो उसका विरोध जरूर हुआ करता है । अमेरिका आदि देशोमें जब गुलामोको गुलामीसे छुडानेका आन्दोलन उठा तब खुद गुलामोने विरोध किया था । पागल मनुष्य अपना हित करनेवाले डाक्टर पर भी हमला किया करता है। इसलिए महत्पुरुषोंको इन सब बातोंका कुछ भी खयाल न होना चाहिए । अन्यथा वे लक्ष्य-भ्रष्ट हो जायेंगे और सफल-मनोरथ न हो सकेंगे। उन्हे अपना कार्य और आन्दोलन बराबर जारी रखना चाहिए । आन्दोलनके सफल होने पर विरोधी शान्त हो जायेंगे, उन्हे स्वय अपनी भूल मालूम पडेगी और आगे चलकर वे तुम्हारे कार्योके अनुमोदक और सहायक ही नहीं बल्कि अच्छे प्रचारक और तुम्हारे पूर्ण अनुयायी बन जायेंगे।
जैन ग्रन्थोके छपानेका समाजमें कितना विरोध रहा । परन्तु अब वही लोग, जो उस विरोधमे शामिल थे और जिन्होने छपे हुए शास्त्रोको न पढनेकी प्रतिज्ञाप्रो पर अपने हस्ताक्षर भी कर दिये थे, खुशीसे छपे हुए ग्रन्थोको पढते-पढाते और उनका प्रचार करते हुए देखे जाते हैं । जिधर देखो, उधर छपे हुए ग्रन्थोंकी महिमा और
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युगवीर निकाली
प्रशंसाके गीड़ पाए जाते हैं। यदि उस समय झपे ग्रन्थोका प्रचार करनेवालोंके हृदयोंमें इस विरोधसे निर्बला जाती और वे अपने कर्तव्यको छोड़ बैठते तो आज छपे ग्रन्थोंकी कृपासे जैन समाजको जो असीम लाभ पहुँच रहा है उससे वह वचित रह जाता और उसका भविष्य बहुत कुछ अधकारमय हो जाता । इसलिये विरोधके कारण घबराकर कभी अपने हृदयमें कमजोरी न लाना चाहिये मौर न फल प्राप्ति के लिये जल्दी करके हताश ही होजाना चाहिये। बल्कि बडे धेर्य और गाम्भीर्यके साथ बराबर उद्योग करते रहना चाहिये धौर नये - पुराने सभी मार्गोसे, जिस-जस प्रकार बने, अपने सुधार विषयक साहित्यका सर्वत्र प्रचार करना चाहिये ।
सच्चे हृदयसे काम करनेवालो और सच्चे प्रान्दोलनकारियोको सफलता होगी और फिर होगी। उन्हे अनेक काम करनेवाले, सहायता देनेवाले और उनके कार्योंको फैलानेवाले मिलेंगे । इसलिए घबरानेकी कोई बात नही है। जो लोग देश या समाजके सच्चे हितेषी होते हैं वे सब कुछ कष्ट उठाकर भी उसका हित साधन किया करते हैं । इस तरहपर सब कुछ सहन करते हुए यदि आप सुधारविषयक साहित्यका प्रचार करके अपने देश या समाजके साहित्यको सुधारनेमे समर्थ हो जायेंगे तो फिर देश या समाजके सुधरनेमे कुछ भी देर नही लगेगी । उसका सुधार अनिवार्य हो जायगा। यही सुधारका मूल मंत्र है । परन्तु इतना खयाल रहे कि साहित्य जितना ही उन्नत, सबल और प्रौढ होगा उतना ही उसका प्रभाव भी अधिक पड़ेगा और वह अधिक काल तक ठहर भी सकेगा। इसलिए जहाँ तक बने, खूब प्रबल और पुष्ट साहित्य फैलाना चाहिए।
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पापोंसे बचनेका गुरुमंत्र इस संसारमें इष्टवियोग अनिष्टसयोग और रोगादि-जनित जितने भी दुख और कष्ट हैं उन सबका मूल कारण पाप-कर्म है। क्या बालक, क्या वृद्ध और क्या जवान सभी दुखोसे भयभीत और इम बातके उत्कट अभिलाषी हैं कि उन्हे किसी प्रकार भी दुखके दर्शन न होवें, परन्तु दु खोंके मूल कारण 'पाप' को दूर करनेके लिये प्राय कोई भी यथेष्ट प्रयत्न नहीं करता, उलटा दुख मिटानेके लिये मनुष्य बहुधा पापकर्मका आचरण करते हैं जिससे दुख दूर न होकर दुखकी परम्परा उत्तरोत्तर बढती रहती है। आजकलके मनुष्योकी दशा ठीक इस श्लोकमे वर्णित-जैसी जान पडती है -
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्य नेच्छन्ति मानवा ।
फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ अर्थात्-मानव पुण्यका फल जो सुख उसको तो चाहते हैं,परन्तु पुण्य तथा धर्मकार्यको करना नहीं चाहते--उसके लिये सौ बहाने बना देते हैं । और पापका फल जो दुःख उसे तो नहीं चाहते-दुख के नामसे भी डरते हैं, परंतु दुःखका कारण जो पापकम है उसे बड़े यत्नसे करते हैं- अनेक जत मिल-मिलाकर तथा सलाह-मशवरा करके उसे बडे चाबसे सम्पन्न करते हैं।
ऐसी स्थितिमें कैसे दुःखको निवृत्ति और मुखकी प्राप्ति हो सकती है ? जिस प्रकार शीत दूर करनेके लिए शीतलोपचार उपयोगी नहीं होता उसी प्रकार दुलोको दूर करनेके लिए पापा
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युगवीर-निबन्धावली चरण कार्यकारी नहीं है । दुःखों से भयभीत मानवोको चाहिए कि वे पापोका दूरसे ही परित्याग करे । प्रत आज अपने पाठकोको एक ऐसा 'गुरुमत्र' बतलाया जाता है जिसको हृदयमें धारण करने, नित्य स्मरण रखने और सदा व्यवहारमे लानेसे सहज ही समस्त पापोसे बचा जा सकता है। गुरुमत्रमे पापोंसे बचनेका ऐसा सुगम तथा सरल मार्ग निर्दिष्ट किया गया है जिससे किसीको भी किसीसे कुछ पूछनेकी ज़रूरत नही रहती । प्रत्येक मनुष्य पापोंसे बचनेका अपना मार्ग स्वय निर्धारित कर सकता है और उसपर चलता हुआ स्वत पापोसे बचकर दु खोसे मुक्त हो सकता है । वह गुरुमत्र इस प्रकार है
प्रात्मन प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत्। 'जो जो बातें, क्रियाएँ, चेष्टाएँ तुम्हारे प्रतिकूल हैं--दूसरोके द्वारा किए हुए जिस व्यवहारको तुम अपने लिये पसन्द नहीं करते, अहितकर और दुःखदायी समझते हो उनका प्राचरण-व्यवहार तुम दूसरोंके प्रति किसी प्रकार भी मनसे वचनसे. कायसे तथा करने, कराने, अनुमोदनाके रूपमे मत करो।'
इस गुरुमत्रके अनुकूल आचरण करनेवाला मनुष्य सच्चा धर्मात्मा एव न्यायनिष्ठ होता है, वह पापोसे अलिप्त रहकर दुखोसे सहज ही छुटकारा पा जाता है । अत सुखार्थी और सुखान्वेषी मनुप्योको चाहिए कि वे जब कोई भी काम करना चाहें या किसी काम करनेका विचार अपने मनमे लाएँ तब वे झटसे इस मत्रका स्मरण कर लिया करें और इस बातपर गहरा विचार करे कि यदि वह कार्य, जिसको हम दूसरोंके प्रति करना चाहते हैं, दूसरे मनुष्य वैसी ही दशामे हमारे प्रति करे तो वह हमको इष्ट होगा या अनिष्टअच्छा लगेगा या बुरा। यदि वह कार्य अपनेको अनिष्ट ( बुरा) प्रतीत होता हो तो हमको कदापि दूसरोंके साथ उसका आचरण अथवा व्यवहार नहीं करना चाहिए । जब दूसरोकी बेईमानी, गाली प्रादि कुवचन और असद्व्यवहारसे हमारे चित्तको, दुःख
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पापोसे बचनेका गुरुमत्र पहुंचता है तो हमको कब उचित है कि हम दूसरोंके साथ बेईमानी करे, उनको गाली आदि कुबचन कहें अथवा उनके साथ असद्व्यवहार करे ? यह मत्र वैसा करनेको अनुचित बतलाता हुआ उसका निषेध करता है।
ससारमें कोई भी मनुष्य यह नहीं चाहता और न किसीको यह इष्ट है कि कोई दूसरा प्राणी उसको सतावे,दुख देवे,मारे या उसका बध करे,यह भी कोई नहीं चाहता कि दूसरा मानव उसके साथ भूठ बोले, मायाचार करे, छल-कपट रचे, उसको धोखा देवे, उसका माल चुरावे या अन्य किसी प्रकारसे उसको हानि पहुँचावे अथवा कोई नराधम उसकी बहू बेटी आदिको बहकावे, उनसे व्यभिचार करे या उनको कुदृष्टिसे देखे, न किसीको यह प्रिय तथा सुखकर मालूम होता है कि कोई उस पर क्रोध करे, उसका तिरस्कार या अपमान करे, उसकी निन्दा बुराई या चुगली करे, उसके साथ अभिमान करे, शत्रुता रक्खे, उससे अपना लोभ साधे, उसकी हँसी उडावे, उसको किसी प्रकारका भय दिखावे उसकी आजीविका बिगाडे अथवा कर्कश कठोर और मर्मविदारक निद्य शब्द कहे, और न कोई मनुष्य इस बातको पसन्द करता अथवा अपने अप्रतिकूल समझता है कि दसरा मनुष्य उसके साथ विश्वासघात या द्रोह करे, उसकी धरोहर या उधार (कर्ज) को न देवे, उसके चोरी गए हुए मालको खरीदे, उससे बढती ले लेवे और उसको घटतो तोल देवे उसको अच्छा माल दिखा कर खोटा तथा मिलावटी माल देवे, उसके चलते तथा होते हुए काममे विघ्न कर देवे, उसकी धन-सम्पत्ति तथा पुत्र-कलत्रादिको देखकर जले अथवा उसके कुटुम्बादिका विघटन और विनाश चाहे।
यदि किसी मनुष्यको यह मालूम हो जाता है कि कोई दूसरा व्यक्ति उसके प्रतिकूल ऐसा कोई कार्य कर रहा है, उसके किसी कार्यमे बाधक है या किसी दूसरे मनुष्यसे उपयुक्त कार्योंमें से कोई कार्य उसके प्रतिकूल करा रहा है या करनेकी प्रेरणा कर रहा है अथवा उसके
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सुगवीर-निबन्धावली प्रतिकल कोई कार्य होता हुआ देखकर खुश हो रहा है-पानन्द मना रहा है तो उस मनुष्यको घोर मानसिक कष्ट एवं दुख उत्पन्न होता है। और वह उसव्यक्तिको अपना हितशत्रू समझने लगता है;फलतः परस्पर वैर-विरोध बढकर अनेकानेक अनर्थ पैदा हो जाते हैं । अतएव मनुष्योको चाहिए कि वे किसीभी प्राणीके साथ उपयुक्त कार्योंमेंसे, जिन्हें वे अपने प्रतिकूल समझते हैं,किसी भी कार्यका आचरण, अनुष्ठान व्यवहार अथवा बर्ताव न करे । __संसारमे उपर्युक्त सब कार्य पाप-कार्य कहे जाते हैं और प्राय. यही पाप-कार्य हैं भी। इन्ही पाप-कर्मोकी वजहसे संसारमे अनेक प्रकारके दुख और कष्ट उठाने पड़ते हैं। पाठकजन जरा सोचिए,
और समझिए यह कितना बडा अन्याय और अन्धेर है कि जिस कामको हम स्वय अपने लिए बुरा समझे उसका आचरण तथा व्यवहार दूसरेके लिए करे और हमारा हृदय कुछ भी कम्पायमान न हो हम किस मुंहसे तब यह कह सकते हैं और कौनसे हृदयसे इस बातकी इच्छा कर सकते हैं कि अन्य प्राणी हमारे साथ नेकी करे, अच्छा व्यवहार करे और उपयुक्त प्रकार बुराईसे न प्रवर्ते ? क्या यह न्यायसगत हो सकता है कि हम दूसरोकोदुःख देवे सतावे और फिर उनसे सुख मिलनेकी आशा रक्वे ? कदापि नही । इसलिए हमको चाहिए कि हम इस गुरुमत्रका शरण ग्रहण करे और अपनी पूरण-शक्तिके अनुमार इस पर प्राचरण तथा अमल करे जिससे शीघ्र ही पापोंसे बचकर उत्तम सुखोका अनुभव कर सके । जितने जितने अशोमे हम इस गुरुमत्र पर प्राचरण करेगे उतने उतने प्रशोमे हम पापोंसे बच जाएंगे। हमारे प्राचार्योन इस गुरुमत्रमें ऐसी खूबी रक्खी है कि इसपर प्राचरण करनेवालोको पापोंके भेद-प्रभेदो और उनके लक्षणोको जानने तथा याद रखनेकी कोई विशेष प्राकश्यकता नहीं रहती,और इस गुरुमत्रके प्रचारसे सहज ही संसारभरमें सुख-शान्तिका प्रवाह फैल सकता है।
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मिथ्या धारणा अाजकल भारतवर्षमे बहुतसे हिंसक तीव्र-कषायी और रौद्रपरिगामी मनुष्य भिरड, ततैये, बिच्छू कानखजूरे तथा खटमल, पिस्सू, मच्छर आदि छोटे छोटे दीन जन्तुओको मारकर अपनी बहादुरी जतलाया करते हैं और भिरड़-ततैयोंके छत्तोमे आग लगाकर तीसमारखाँ बना करते हैं । जब उनसे कोई करुणहृदय व्यक्ति पूछता है कि आप ऐसा निर्दयताको लिये हुए हिसक कार्य क्यो करते है ? तो वे बड़े दपके साथ, मुसलमान न होते हुए भी, उत्तरमें यह मुसलमानी सिद्धान्त सुना देते हैं -
कतलुल मूजी क़बलुल ईजा" अर्थात्-ईजा (दुख) पहुंचानेसे पहले ही मूजी (दुख देनेवाले)को मार डालना चाहिये। परन्तु वे कभी इस बातका विचार भी नहीं करते कि जब मिरड, ततैये प्रादिक थोडीसी पीडा पहुंचाने ही के कारण सूजी और बधयोग्य हैं तो फिर हम जो कि उनको जानसे ही मार डालते हैं और उन जन्तुम्रोका गांवका गांव (छत्ता) भस्म कर देते हैं उनसे कितने दर्जे अधिक मूजी और बधयोग्य ठहरते हैं ।।
वास्तवमें विचार किया जाय तो यह सब उनकी मिथ्या धारणा है, वे उक्त सिद्धान्तका बिल्कुल दुरुपयोग कर रहे हैं और उन्होने उसके प्राशयको कुछ भी नहीं समझा है । उन्हें न सो मूजीकी खबर है और
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युगवीर - निबन्धावली
न ईज़ाकी । यदि इस सिद्धान्तका वही आशय लिया जाय जैसा कि वे समझ रहे हैं और तदनुकूल प्रवर्त रहे हैं-प्रर्थात् यह कि जो कोई प्रारणी किसी दूसरे प्राणीको थोडासा भी दुख देनेवाला हो तो वह मूजी है, उसको मार डालना चाहिये तो ऐसी हालत मे मनुष्य सबसे पहले मूजी और वघयोग्य ठहरते हैं, क्योंकि ये बहुतसे निरपराधी जीवोको सता और प्रारण-दड देते हैं । परन्तु यह किसी को इष्ट नही । प्रत इस सिद्धान्तका साफ प्राशय और असल प्रयोजन यह है कि मनुष्योको अपने नफ्सको मारना चाहिए - अपनी पाँचो इंद्रियो (हवासेखमसा,को वश करना चाहिए। ये ही मुजी है, इन्हीके कारण इस श्रात्माको नाना प्रकारके जन्म-जरा-मरण रोग-वियोग तथा नरक निगोदादिके दुख और कष्ट उठाने पडते हैं, इन्हींके प्रसादसे श्रात्माक साथ कर्म - बन्धन होकर उसके गुणोका घात होता है, जिससे अधिक आत्माके लिए और कोई ईजा ( दुख-परम्परा) नही हो सकती है और न इनसे अधिक ग्रात्माके लिए और कोई मूजी हो सकता है । इन इंद्रियोका निग्रह करने और इनकी विषय-वासनाको रोकने तथा राग-द्वेषरूप परिणतिको हटानेसे ही इस श्रात्माके दुखकी निवृत्ति होकर उसे सच्चे सुखकी प्राप्ति हो सकती है । नीतिकारोने बहुत ठीक कहा है
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आप कथितः पन्था इंद्रियाणामसंयमः । तज्जयः सम्पदा मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम् ।।
अर्थात् — मुसीबत और दुखोके प्रानेका एकमात्र मार्ग इन्द्रियोका प्रसयम — उनका वशमे न करना है और उनको जीतकर अपने वशमें करना ही सुखोका एक मात्र मार्ग है । प्रत. जो मार्ग इष्ट होउसपर चलना चाहिये । सुख चाहते हो तो इन्द्रियोको अपने श्राधीन करो । दुःख चाहते हो तो खुद इन्द्रियोके प्राधीन हो जाओ।
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मिथ्या धारणा
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कवि 'जोक' ने भी नफ्स को बड़ा मूजी क़रार देते हुए उसीको मारनेकी प्रेरणाकी है
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किसी बेकसको ऐ बेदादगर । मारा तो क्या मारा ? जो खुद ही मर रहा हो उसको गर मारा तो क्या मारा ? न मारा आपको जो नाक हो अक्सीर बन जाता । अगर पारे को ऐ अक्सीरगर । मारा तो क्या मारा ? बडे मूजीको मारा नसे अम्माराको गर मारा । नहगो मजदहाओ शेरेनर मारा तो क्या मारा ?
दूसरा आशय इस सिद्धान्तका यह भी निकाला जासकता है कि जब तक ज्ञानावरणीय प्रादिक कर्म, जो आत्माके परम शत्रु हैं और इस प्रामाको ससारमे परिभ्रमरण कराकर नाना प्रकारके कष्ट देते है, उदयमे ग्राकर इस आत्माको दुख और कष्ट देवे अथवा ईजा पहुँचावे उससे पहले ही हमको तप सयमादिरूप धर्माचरणके द्वारा उनको मार डालना चाहिए- उनकी निर्जरा कर देनी चाहिए जिससे वे हमको ईजा ( दुख न पहुँचा सके। इन दोनो प्राशयोंके अतिरिक्त उपर्युक्त सिद्धान्तका यह श्राशय कदापि नही हो सकता है कि किसी प्राणधारीका बध किया जावे । ऐसा श्राशय करनेसे दयाधमके सिद्धान्त में विरोध प्राता है । वह सिद्धान्त तब धर्ममयी हो जानेसे सर्वथा हेय ठहरता है और किसी भी दयाधर्मके माननेवालेको उस पर द्याचरण नही करना चाहिए । यह कैसी खुदगर्जी और अन्याय है कि जिस बातको हम अपने प्रतिकूल समझें या जिसे हम अपने लिए पसन्द न करे उसका प्राचरण दूसरोंके प्रति करे ।
इसीसे एक फार्सी कविने मी कहा है- "ब्रांच बर खुद न पसन्दी बर दीगरा मपसन्द " । अर्थात् जिस (व्यवहार) को तू अपने ऊपर पसन्द नही करता उसे दूसरो के ऊपर पसन्द मत कर।
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महाजनी मंत्र महाजनी हिन्दीमे सबसे प्रथम जो अक्षर पढाए जाते है उनका उच्चारण क्रमश: इस प्रकार कराया जाता है --
"रा, में, सै, ते, सू, रे, सै, ती ओ, ना, मा, सी, ध।" प्राय सब लोग इसको वर्णमाला समझते हैं और इसीसे इसका इस प्रकार पृथक्-पृथक् उच्चारण करते हैं,परन्तु वस्तुत विचार कग्नेसे मालूम होता है कि यह वर्णमाला नहीं है, क्योंकि वर्णमाला इसके पश्चात् जब पृथक रूपसे पढ़ाई जाती है और उपयुक्त सब अक्षर उसमे पाते हैं तब इसको वणमाला कैसे माना जा सकता है ? दूसरे इसी वर्ण-समूहमे कई अक्षर-जैसे रकार, मकार, सकार और तकार-कई कई बार पाए हैं यदि यह वर्णमाला होती तो एक अक्षरके कई-कई बार पानेकी क्या आवश्यकता थी ? इससे साफ तौर पर सिद्ध होता है कि यह प्रक्षर-समूह वर्णमाला नहीं है, बल्कि कुछ और ही वस्तु है और वह है देव-गुरु-शास्त्रके स्मरणस्वरूप और सिद्धोंको नमस्कार रूप एक मत्र या मगलाचरण, जो सबसे पहले मगलके लिए बालकोको पढ़ाया जाता था और उसका उबारण इस प्रकार होता था तथा होना चाहिए -
__ " राम सन्त सरस्वती ओं नमः सिद्धं ।” परन्तु अफसोस है कि आजकल इसके उच्चारणको ऐसा बिगाड़
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महाजनी मंत्र दिया गया है और इस उच्चारणकी ऐसी प्रबल रूढि पड गई है कि किसीकों इसके मंत्र या मगलाचरण होनेका स्वप्नमे भी ध्यान नही
आता पौर विचारे बालक इस कल्याणकारी मत्र तथा मगलपाठसे वचित रक्खे जाते हैं।
इस अशुद्ध उच्चारणके कारणो पर जहाँ तक विचार किया जाता है तो मुख्यत दो कारण सामने आते हैं । एक तो यह कि इस महाजनी हिन्दीमे मात्राएँ नहीं होती, जिससे एक अक्षरका उच्चारण अनेक प्रकार हो जाता है। जैसे कि उक्त अक्षर-समूहमे रकारका उच्चारण एक स्थान पर 'रा' और दूसरे स्थान पर 'रे' किया जाता है, इसी तरह सकारका उच्चारण 'सै"सू''सी'के रूपमे तीन प्रकार और मकारका उच्चारण में' तथा 'मा'के रूपमे दो प्रकार किया जाता है। सारांश यह कि इम लिपिमे चाहे किसी अक्षरको किसी मात्राके साथ पढलो, चाहे बिना मात्राके । इसी लिये इस महाजनी हिन्दीको 'गन्दी' कहते हैं, जिसकी अनेक लोकोक्तियाँ प्रचलित हैं * ।
दूसरा कारण यह जान पडता है कि इस महाजनीको पढाने वाले प्राय अविद्वान् पाधा लोग होते हैं। वे विचारे इस बातको कहाँ पहुंच सकते हैं कि यह कोई मत्र अथवा मगलाचरण है। वे तो प्राय यह भी नहीं जानते कि राम, सन्त और सरस्वती किसको कहते हैं और सिद्ध किसका नाम है। फिर वे बालकोंसे किस प्रकार ऐसा शुद्ध उच्चारण करा सकते हैं ? इसीसे यह उपयुक्त प्रकार से पृथक् पृथक् अक्षरोंके उच्चारणकी रुढि पड गई है।
* एक लोकोक्ति यह भी प्रसिद्ध है कि किसी मुनीमने लालाजीके अजमेर जानेकी सूचना और बड़ी बहीको आवश्यकता होने पर उसके भेजनेकी प्रेरणा करते हुए जो लिखा था कि "लालाजी मजमेर गये बड़ी बहीको भेज दो" वह “लालाजी माज मर गये बडी बहूको भेज दो" के रूपमे पड़ा गया, और ऐसा पढ़ते ही वहां हाहाकार मच गया ।
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युगवीर-निबन्धावली अत. हमारे भाईयोको चाहिये कि वे इस खराब रुढिको दूर करनेका शीघ्र प्रयत्न करे, जिससे प्रारभमें ही बालकोको मंत्रमय मांगलिक शब्दोंके उच्चारणका अवसर मिले और उनमे अच्छे संस्कार पडे। इसके लिये पाठशालाप्रोमें जो पाधा लोग पढाते हो उन्हे समझाकर हिदायत कर देनी चाहिये कि वे आगामी बालकोको प्रारम्भमे 'राम सन्त सरस्वती भओं नम. सिद्ध' ऐसा मगलमय शुद्ध पाठ पढाया करे।
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उपवास
उपवास एक प्रकारका तप और वत होनेसे धर्मका अग है। विधिपूर्वक उपवास करनेसे पाचो इन्द्रियाँ और बन्दरके समान चचल मन ये सब वशमे हो जाते हैं, साथ ही पूर्व कर्मोंकी निर्जरा होती है । ससारमे जो कुछ दु ख और कष्ट उठाने पडते है वे प्राय इन्द्रियोकी गुलामी और मनको वशमे न करनेके कारणसे ही उठाने पडते हैं । जिस मनुष्यने अपनी इन्द्रियो और मनको जीत लिया उसने जगत जीत लिया, वह धर्मात्मा है और सच्चा सुख उसीको मिलता है। इसलिये सुग्वार्थी मनुष्योका उपवास करना प्रमुख कर्तव्य है। इतिहासो
और पुराणोके देखनेसे मालूम होता है कि पूर्व कालमे इस भारतभूमि पर उपवासका बडा प्रचार था। कितने ही मनुष्य कई-कई दिनका ही नही, कई-कई सप्ताह, पक्ष तथा मास तकका भी उपवास किया करते थे। वे इस बातको भली प्रकार समझे हुए थे और उन्हे यह दृढ विश्वास था कि -
"कर्मेन्धन यदज्ञानात् संचितं जन्म-कानने ।
उपवास-शिखी सर्व तद्भस्मीकुरुते क्षणात ॥" "उपवास-फलेन भजन्ति नरा भुवनत्रय-जात-महाविभवान् । खलु कर्म-मन-प्रलयादधिरादजराऽमर केवल-सिद्ध-सुखम् ।।"
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युगवीर-निबन्धावली 'ससाररूपी वनमे अज्ञानभावसे जो कुछ कर्मरूपी-इंधन सचित होता है उसको उपवासरूपी अग्नि क्षणमात्रमे भस्म कर देती है।' ___'उपवासके फलसे मनुष्य तीन लोककी महा विभवको प्राप्त होते हैं और कर्ममलका नाश हो जानेसे शीघ्र ही अजर अमर केवल सिद्धसुखका अनुभव करते है ।' ___ इसीसे वे ( पूर्वकालीन मनुष्य ) प्राय धीरवीर, सहनशील, मनस्वी, तेजस्वी उद्योगी, साहसी, नीरोगी, दृढसकल्पी, बलवान्, विद्यावान्, और सुखी होते थे, जिस कार्यको करना विचारते थे उसको करके छोडते थे। परन्तु आज वह स्थिति नहीं है । आजकल उपवासकी बिलकुल मिट्टी पलीद है-प्रथम तो उपवास करतेही बहुत कम लोग है और जो करते हैं उन्होने प्राय भूखे मरनेका नाम उपवास समझ रक्खा है। इसीसे वे कुछ भी धर्म-कर्म न कर उपवासका दिन योही प्राकूलता और कष्टसे व्यतीत करते है कि मारे कई कई वार नहाते हैं, मुख धोते हैं मुख पर पानीके छींटे देते हैं. ठडे पानीमे कपडा भिगो कर छाती प्रादि पर रखते हैं, कोई कोई प्यास कम करनेके लिये कुल्ला तक भी कर लेते हैं और किसी प्रकारसे यह दिन पूरा होजावे तथा विशेष भूख-प्यासकी बाधा मालूम न होवे इस अभिप्रायसे खूब सोते हैं, चौसर-गजिफा आदि खेल खेलते हैं अथवा कभी कभी का पडा गिरा कोई ऐसा गृहस्थीका घधा या पारम्भका काम ले बैठते हैं जिसमें लगकर दिन जाता हुआ मालूम न पडे। गरज ज्यों त्यों करके अनादरके साथ उपवासके दिनको पूरा कर देते हैं, न विषय-कषाय छोडते हैं और न कोई खास धर्माचरण ही करते है। पर इतना जरूर है कि भोजन बिलकुल नहीं करते, भोजन न करनेको ही उपवास या व्रत समझते हैं और इसीसे धर्मलाभ होना मानते हैं | सोचनेकी बात है कि यदि भूखे मरनेका ही नाम उपवास या व्रत हो तो भारतवर्षमे हजारों मनुष्य ऐसे हैं जिनको कई कई दिनतक भोजन नहीं मिलता है, वे सब ही व्रती और धर्मात्मा ठहरे;
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उपवास परन्तु ऐसा नहीं है। हमारे प्राचार्योने उपवासका लक्षण इस प्रकार वर्णन किया है -
कमाय-विषयाहार-त्यागो यत्र विधीव्रते।
उपवास स विज्ञेय शेषं लंघनक बिदुः॥ अर्थात-जिसमें कषाय, विषय और पाहार इन तीनोका त्याग किया जाता है उसको उपवास समझना चाहिये, शेष जिसमें कषाय
और विषयका त्याग न होकर केबल पाहारका ही त्याम किया जाये उसको लघन (भूखा मरना) कहते हैं। श्री अमितगति प्राचार्य इस विषयमे ऐसा लिखते हैं
त्यक्त-भोगोपभोगस्य, सर्वारम्भ-विमोचिन ।
चतुर्विधाऽशनत्याग उपवासो मतो जिनः ।। अर्थात्-जिसने इन्द्रियोके विषयभोग और उपभोगको त्याग दिया है और जो समस्त प्रकारके पारस्मसे रहित है उसीके जिनेन्द्रदेवने चार प्रकारके प्राहार-यागको उपवास कहा है । अत इन्द्रियोके विषयमोग और प्रारम्भके त्याग किये बिना चार प्रकारके माहारका त्यागना उपवास नही कहलाता।। स्वामी समन्तभद्राचार्यकी उपवासके विषयमे ऐसी आज्ञा है -
पचाना पापानासल कियाऽऽरम्भ गध-पुष्माणाम् । स्नानाऽञ्जन-नस्यानामुपपासे परिहृतिं कुर्यात् ।।१।। धर्मामृत सतृष्ण श्रवणाभ्यां पिवतु पाययेद्वान्यान् ।
ज्ञान ध्यान-परो वा भवतूपवसन्न वन्द्रालु |२|| 'उपवासके दिन पांचो पापो हिसा,भूठ,चोरी,मैथुन और परिग्रहका, श गारादिक रूपमें शरीरकी सजावटका, प्रारम्भोका, चन्दन इत्र फुलेल प्रादि गध द्रव्योंके लेपन का, पुष्पोके सू घने तथा माला आदि धारण करनेका, स्नानका, अखिोमें अजन (सुरमा) लगानेका और नाकमें दवाई डालकर नस्य लेने तथा तमाखू आदि सूंघनेका, त्याग करना चाहिये।
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युगवीर-निबन्धावली 'उपवास करने वालेको उस दिन निद्रा तथा मालस्यको छोड़ कर प्रति अनुरागके साथ कानो द्वारा धर्मामृतको स्वयं पीना तथा दूसरोको पिलाना चाहिये और साथ ही ज्ञान तथा ध्यानके पाराघनमें तत्पर रहना चाहिए।'
इस प्रकार उपवासके लक्षण और स्वरूप-कथनसे यह साफतौर पर प्रकट है कि केवल भूखे मरनेका नाम उपवास नहीं है, किन्तु विषय-कषायका त्याग करके इन्द्रियोको वशमे करने, पच पापो तथा आरम्भको छोडने और शरीरादिकसे ममत्व परिणामको हटाकर प्राय एकान्त स्थानमे धर्मध्यानके साथ कालको व्यतीत करनेका नाम उपवास है और इसीसे उपवास धर्मका एक अग तथा सुखका प्रधान कारण है।
जो लोग ( पुरुष हो या स्त्री) उपवासके दिन भूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं,मैथुन सेवन करते हैं या अपने घर-गृहस्थीके धधोमे लगे रहकर अनेक प्रकारके सावद्यकर्म (हिसाके काम) एव छल-कपट करते हैं, मुकदमे लडाते और परस्पर लड़ कर खून बहाते हैं तथा अनेक प्रकारके उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण पहनकर शरीरका शृगार करते हैं, सोते हैं, ताश, चौपड तथा गजिफा आदि खेल खेलते हैं, हुक्का पीते या तमाखू आदि सू घते हैं और स्वाध्याय,सामायिक, पूजन,भजन प्रादि कुछ भी धर्म कर्म न करके अनादर तथा प्राकुलताके साथ उस दिनको पूरा करते हैं वे कैसे उपवासके धारक कहे जा सकते हैं और उनको कैसे उपकासका फल प्राप्त हो सकता है ? सा पूछिये तो ऐसे मनुष्योका उपवास उपवास नहीं है किन्तु उपहास है। ऐसे मनुष्य अपनी तथा धर्म दोनोकी हँसी और निन्दा कराते हैं, उन्हे उपवाससे प्राय कुछ भी धर्म-लाम नहीं होता । उपवासके दिन पापाचरण करने तथा सक्लेशरूप परिणाम रखनेसे तीव्र पाप बधकी सभावना अवश्य है।
हमारे लिये यह कितनी लज्जा और शरम की बात है कि ऊंचे
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उपवास
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पदको धारण करके नीची क्रिया करें अथवा ! उपवासका कुछ भी कार्य न करके अपने प्रापको उपवासी और व्रती मान बैठे !
इसमें कुछ मी सन्देह नही कि विधिपूर्वक उपवास करनेसे पाँचों इन्द्रियाँ और मन शीघ्र ही वशमें हो जाते हैं और इनके वशमें होते ही उन्मार्ग - गमन रुककर धर्म साधनका अवसर मिलता है। साथ ही उद्यम, साहस, पौरुष, धेर्य आदि सद्गुण इस मनुष्यमें जाग्रत हो उठते हैं और यह मनुष्य पापोसे बचकर सुखके मार्गमें लग जाता है। परन्तु जो लोग विधिपूर्वक उपवास नही करते उनको कदापि उपवासके फलकी यथेष्ट प्राप्ति नही हो सकती । उनका उपवास केवल एक प्रकारका कायक्लेश है, जो भावशून्य होनेसे कुछ फलदायक नही, क्योकि कोई भी क्रिया बिना भावोके फलदायक नही होती ('यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भाव शून्या " ) । श्रतएव उपवासके इच्छुकोको चाहिए कि वे उपवासके प्राशय और महत्वको अच्छी तरहसे समझलें, वर्तमान विरुद्धाचरणोको त्याग करके श्रीश्राचार्योंकी श्राज्ञानुकूल प्रवर्ते और कमसे कम प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशीको (जो पर्वके दिन हैं) अवश्य ही विधिपूर्वक [ तथा भावसहित उपवास किया करें । साथ ही इस बातचो अपने हृदयमे जमा लेवें कि उपवासके दिन अथवा उपवासकी अवधि तक व्रतीको कोई भी गृहस्थीका धधा वा शरीरका शृगारादि नही करना चाहिए। उस दिन समस्त गृहस्थारभको त्याग करके पच पापोसे विरक्त होकर अपने शरीरादिकसे ममत्व - परिणाम तथा रागभावको घटाकर और अपने पाचो इन्द्रियोंके विषयो तथा क्रोध, मान, मायादि कषायोको वशमे करके एकान्त स्थान अथवा श्रीनिमन्दिर प्रादिमे बैठकर शास्त्रस्वाध्याय, शास्त्रश्रवरण, सामायिक, पूजन-भजन श्रादि धर्मकार्योंमे कालको व्यतीत करना चाहिए । निद्रा कम लेनी चाहिए, श्रार्त- रौद्रपरिणामोको अपने पास नही आने देना चाहिए, हर समय प्रसन्न वदन रहना चाहिए और इस बातको याद रखना चाहिए कि शास्त्र-स्वाध्यायादि जो कुछ भी धर्मके कार्य
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युगवीर निवस्थावली किये जावें से सब रुचिपूर्वक और भावसहित होने चाहिये । कोई भी धर्मकार्य बेदिली, बान्तापूरी या अनादरके साथ नहीं करना चाहिये
और न इस बातका खयाल तक ही आता चाहिए कि किसी प्रकारसे यह दिन सीघ्र ही पूरा हो जावे, क्योंकि बिना भावोके सर्व धर्म-कार्य निरर्थक हैं। जैसा कि प्राचार्योंने कहा है -
भाषहीनस्य पूजादि तपोदान-जपादिकम् ।
व्यर्थ दीक्षादिक च स्यादजाकठे स्तनाविध ॥ 'जो मनुष्य विना भावके पूजादिक, तप, दान और जपादिक करता है अथवा दीक्षादि ग्रहण करता है उसके वे सब कार्य बकरीके गलेमें लटकते हुए स्तनोंके समान निरर्थक है।' __अर्थात्-जिस प्रकार बकरीके गलेके स्तन निरर्थक हैं, उनसे दूध नहीं निकलता, वे केवल देखने मात्रके स्तन हैं, उस ही प्रकार विना तद्गतुकूल भाव और परिणामके पूजन, तप, दान उपवासादि समस्त धार्मिक कार्य केबल दिखावामात्र है-उनसे कुछ भी धर्म-फलकी सिद्धि अथवा प्राप्ति नहीं होती।
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हमारी यह दुर्दशा क्यों ? एक समय था जब यह भारतवर्ष अपने उत्कर्ष पर था,अन्य देशोका गुरु बना हुमा था,सब प्रकारसे समृद्ध था और स्वर्गके समान समझा जाता था । यहाँ पर हजारो वर्ष पहलेसे आकाशगामिनी विद्याके जानकार, दिव्य विमानो द्वारा आकाशमार्गको अवगाहन करनेवाले, वैक्रियक प्रादि ऋद्धियोके धारक और अपने मात्मबलसे भूत,भविष्य तथा वर्तमान तीनो कालोका हाल प्रत्यक्ष जाननेवाले विद्यमान थे। भारतकी कीर्ति-लता दशो दिशाओमे व्याप्त थी । उसका विज्ञान, कला-कौशल और प्रात्मज्ञान अन्य समस्त देशोंके लिये अनुकरणीय था। उसमे जिधर देखो उधर प्राय ऐसे ही मनुष्योका सद्भाव पाया जाता था जो जन्मसे ही दृढान,निरोगी और बलाढय थे,स्वभावसे ही जो तेजस्वी,मनस्वी और पराक्रमी थे,रूप और लावण्यमे जो स्वर्गोंके देव-देवाङ्गनाप्रोसे स्पर्धा करते थे, सर्वाङ्ग सुन्दर और सुकुमार शरीर होनेपर भी वीररससे जिनका अङ्ग-अङ्ग फडकता था, जिनकी वीरता धीरता और दृढ प्रतिज्ञताकी देव भी प्रशसा किया करते थे, जो कायरता,भीरता और मालस्यको घृणाकी दृष्टिसे देखा करते थे, प्रारमबलसे जिनका चेहरा दमकता था; उत्साह जिनके रोम-रोमसे स्फुरायमान था, चिन्तामोमे जो अपना मात्म-समर्पण करना नही जानते थे, जन्मसरमे शायद कभी बिनको रोगका दर्शन होता हो,
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युगवीर- निबन्धावली
जो सदेव प्रपने धर्म-कर्ममें तत्पर और पापोंसे भयभीत थे, जिनको पद-पद पर सच्चे साधुओका सत्सङ्ग और सदुपदेश प्राप्त था, जो तनिकसा निमित्त पाकर एकदम समस्त सासारिक प्रपचोंको त्यागकर वनोवासको अपना लेते थे और श्रात्मध्यानमे ऐसे तल्लीन हो जाते थे कि अनेक उपसर्ग तथा परीषहोंके आने पर भी चलायमान नहीं होते थे, जो अपने हित-अहितका विचार करनेमे चतुर तथा कलाविज्ञानमें प्रवीण थे और जो एक दूसरेका उपकार करते हुए परस्पर प्रीति पूर्वक रहा करते थे
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परन्तु खेद ! आज भारत वह भारत नही है । आज भारतवर्षका मुख समुज्ज्वल होनेके स्थानमे मलिन तथा नीचा है | आज वहीं भारत परतन्त्रताकी बेडियोंमे जकड़ा हुआ है और दूसरोका मुह ताकता है । आज भारतका वह समस्त विज्ञान और वैभव स्वप्नका साम्राज्य दिखाई पडता है । और श्राज उसी भारतवर्ष मे हमारे चारो तरफ प्राय ऐसे ही मनुष्योकी सृष्टि नज़र आती है जिनके चेहरे पीले पड गये हैं, १२-१३ वर्षकी अवस्थासे ही जिनके केश रूपा होने प्रारम्भ हो गये हैं, जिनकी आँखें और गाल बेठ गये हैं, मुहपर जिनके हवाई उडती हैं, होठोपर हरदम जिनके खुश्की रहती है, थोडासा बोलनेपर मुख और कठ जिनका सूख जाता है हाथ और पैरोंके तलुनोसे जिनके अग्नि निकलती है, जिनके पैरोमे जान नही और घुटनोमे दम नही, जो लाठीके सहारेसे चलते हैं और ऐनकके सहारेसे देखते हैं, जिनके कभी पेटमे दर्द है तो कभी सिरमे चक्कर, कभी जिनका कान भारी है तो कभी नाक, आलस्य जिनको दबाये रहता है, साहस जिनके पास नही फटकता, वीरता जिनको स्वप्न में भी दर्शन नही देती, जो स्वयं अपनी छायासे प्राप डरते हैं; जिनका तेज नष्ट हो गया है, जो इन्द्रियोकी विजय नही जानते, विषय - सेवनके लिये जो प्रत्यत श्रातुर रहते हैं परन्तु बहुत कुछ स्त्रीप्रसंग करने पर भी संयोग-सुखका वास्तविक श्रानन्द जिनको प्राप्त
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हमारी यह दुर्दशा क्यों? नहीं होता, प्रमेहसे जिनका शरीर जर्जर है, इश्तहारी दवाप्रोकी परीक्षा करते करते जिनका चित्त घबरा उठा है, हकीमों, वैद्यों और डाक्टरोकी दवाई खाते खाते जिनका पेट अस्पताल और प्रौषधालय बन गया है, परन्तु फिरभी जिनको चैन नहीं पड़ता, जिनके विचार शिथिल हैं, जो अपने प्रात्माको नहीं पहचानते और अपना हित नही जानते, स्वार्थने जिनको अन्धा बना रक्खा है, परस्परके ईर्षा और द्वेषने जिनको पागल बना दिया है, विज्ञानसे जिनको डर लगता है, पापमयी जिनकी प्रवृत्ति है और चिन्तारूपी ज्वालामोसे जिनका. अन्त करण दग्ध रहता है ।।।
इसीसे आजकल हमारे अधिकाश भारतवासियोंके हृदयोमें प्रायः इस प्रकारके प्रश्न उठा करते हैं और कभी कभी अपने इष्ट मित्रादिकोसे वे इस प्रकारका रोना भी रोया करते हैं कि हमारी शारीरिक अवस्था ठीक क्यो नही ? हमारा दिल, दिमाग तथा जिगर (यकृतLiver ) ठीक काम क्यो नही करता? हमारे नेत्रोकी ज्योति कैसे मन्द है ? कानोंसे हमको कम क्यो सुनाई देता है ? तनिकसा परिश्रम करनेपर हमारे सिरमे चक्कर क्यो आने लगता है ? हम क्यों घुटनों पर हाथ धरकर उठते और बैठते हैं ? थोडीसी दूर चलने या जरासी मेहनतका काम करने पर हम क्यों हांपने लगते हैं ? हमारा उदर भोजनका पाक ठीक तौरसे क्यो नही करता ? क्यो हमेशा कब्ज (Constipation) और बदहज़मी (अजीर्णता-Dyspepsia) हमको सताती रहती है ? क्यो चूरन व गोली वगैरहका फिकर हरदम हमारे सिर पर सवार रहता है ? हमारा हृदयस्थल व्यर्थकी चिन्तायो और भूठे सकल्प-विकल्पोकी रङ्गभूमि क्यो बना रहता है ? क्यो अनेक प्रकारके रोगोने हमारे शरीरमे अड्डा जमा रक्खा है ? हमारा स्वास्थ्य ठीक क्यों नही हो पाता? किसी कार्यका प्रारम्भ करते हुए हमें डर क्यो लगता है ? कार्यका प्रारम्भ कर देने पर भी हम क्यो निष्कारण उसे चटसे छोड़ बैठते हैं । हममें हिम्मत, उत्साह और
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युमकीर-निबन्धाधली का पताका संचार बमों नहीं होता क्यों हमारे हृदयसे धार्मिक विचारीको सृष्टि उठती जाती है ? हम विषयोंके दास क्यो बनते जाते हर क्यों हम अपने पूर्वज-ऋषि मुनियोकी तरह प्रात्मध्यान करनेमें समर्थ नहीं होते ? क्यो अपने प्राचीन गौरवको भुलाये जाते हैं ? और क्यों हम स्वार्थत्यागी बनकर परोपकारकी ओर दत्त-चित्त नहीं होते ? इत्यादि।
परन्तु इन सब प्रश्नो अथवा 'हमारी यह दुर्दशा क्यो" इस केवल एक ही प्रश्नका वास्तविक और सतोषजनक उत्तर जब उनको प्राप्त नहीं होता अथवा यो कहिये कि जब इन दुर्दशामोंसे छुटकारा पानेका सम्यक् उपाय उन्हे सूझ नही पडता तो वे बहुत ही खेदखिन्न होते हैं कभी कभी वे निराश होकर अपने नि सार जीवनको धिक्कारते हैं, अपने आपको दोष देने लगते है और कोई कोई हतभाग्य तो यहाँ तक हताश हो बैठते हैं कि उनको मरणके सिवाय और कोई शरण ही नजर नहीं आता, और इसलिए वेअपना अपघात तक कर डालते हैं | बहुतसे मनुष्य विपरीत श्रद्धामे पडकर बारहो महीने दवा खाते खाते अपनी जीवन-यात्रा समाप्त कर देते हैं । उनके मनोरथका पूरा होना तो दूर रहा, उनको प्रकट होने तकका अवसर नहीं मिलता। वे उठ उठकर हृदयके हृदयमेही विलीन हो जाते हैं। मरते समय उन प्रसिद्ध मनोरथोकी याद (स्मृति) उन्हे कैसा बेचैन करती होगी और अपने मनुष्य-जन्मके व्यर्थ खोजानेका उनको उस वक्त कितना अफसोस तथा पश्चाताप होता होगा, इसकी कल्पना सहृदय पाठक स्वय कर सकते हैं।
ऊपरके इस वर्णन एव चित्रणपरसे पाठक इतना तो सहजमे ही जान सकते हैं कि हमारे भारतवासी प्राजकल कैसी कैसी दुखावस्थामोसे घिरे हुए हैं-प्रमाद और प्रज्ञानने उनको कैसा नष्ट किया है। वास्तवमे यदि विचार किया जाय तो इन समस्त दुखो और दुर्दशामोंका कारण शारीरिक निर्बलता है। निर्बल शरीरपर सहजमें ही
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हमारी यह दुर्दशा क्यो? रोगोका प्राक्रमण हो जाता है, निर्बलता समस्त रोगोकी जड मानी गई है- एक कमजोरी हजार बीमारी' की कहावत प्रसिद्ध है। जब हमारा शरीर कमजोर है तो हमारे विचार कदापि दृढ नही हो सकते, जब हमारे विचार दृढ नही होगे तो हम कोई भी काम पूर्ण सफलता के साथ सम्पादन नहीं करसकेगे,हमारा चित्त हरवक्त डावाँडोल रहेगा तथा व्यर्थकी चिन्तामोका नाट्यघर बना रहेगा और इन व्यर्थकी चिन्तामोका नतीजा यह होगा कि हमारा कमजोर दिमाग और भी कमजोर होकर हमारी विचारशक्ति नष्ट हो जावेगी और तब हम हित-अहितका साग्वचार करनेकी योग्यताके न रहनेसे यद्वा तद्वा प्रवृत्ति कर अपना सर्वनाश कर डालेगे।
यही कारण है कि प्राचीन ऋषियोने शारीरिक बलको बहुत मुख्य माना है। उन्होंने लिखा है कि जिस ध्यानसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है वह उत्तम ध्यान उसी मनुष्यके हो सकता है जिसका सहनन उत्तम हो-अर्थात् जिसका शरीर खास तौरसे ( निर्दिष्ट प्रकारसे ) मजबूत
और बज्रका बना हुआ हो । इसी लिये उन्होने इस शारीरिक बलकी रक्षाके लिये मुख्यतासे ब्रह्मचर्यका उपदेश दिया है और सबसे पहला-अर्थात् गृहस्थाश्रमसे भी पूर्वका-आश्रम 'ब्रह्मचर्याश्रम' कायम किया है। साथ ही वैद्यक शास्त्रके नियमोको पालन करनेका आदेश भी दिया है, और इन नियमोको इतना उपयोगी तथा ज़रूरी समझा है कि उनको धार्मिक नियमोमे गर्भित कर दिया है, जिससे मनुष्यउन्हे धर्म और पुण्यका काम समझकर ही पालन करे । वास्तवमे महर्षियोका यह काम बडी ही दूरदर्शिता और बुद्धिमत्तासे सम्बन्ध रखता है। वे अच्छी तरहसे जानते थे कि 'शरीरमाच खलु धर्मसा: धनम्' 'धर्मार्थ-काम-मोक्षाणा शरीर साधन मतम'--अर्थात् धर्मसाधनका ही नहीं किन्तु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ऐसे चारोही पुरुषार्थोके साधनका सबसे प्रथम प्रौर मुख्य कारण शरीर है। शरीरके स्वस्थ और बलाध्य हुए बिना किसी भी पुरुषार्थका साधन
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युगवीर-निबन्धावली नहीं बन सकता और पुरुषार्थका साधन किये बिना मनुष्यका जन्म बकरीके गलेमे लटकते हुए स्तनो (थनो)के समान निरर्थक है। ऐसी स्थितिमें जो मनुष्य अपने शरीरकी रक्षाके लिये उक्त नियमोका पालन करता है वह वास्तवमे धर्मका कार्य करता है और उससे अवश्य उसको पुण्य-फलकी प्राप्ति होती है। हम लोगोने ऋषियोके वाक्योका महत्व नहीं समझा और न यह जाना कि शरीरका बली-निर्बली तथा स्वस्थ-अस्वस्थ होना प्राय सब आहार-विहार पर निर्भर है और आहार-विहार-सम्बन्धी जितनी चर्या है वह सब प्राय वैद्यकशास्त्रके आधीन है। इसीलिये हम अपने आपको सबसे पहले ब्रह्मचर्याश्रममे नही रखते है-एक खास अवस्था तक ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करते है बल्कि उसका निर्मूल करनेके लिये यहाँ तक उद्यत रहते है कि छोटीसी अवस्थामे ही बच्चोका विवाह कर देते हैं । यही कारण है कि हम योग्य आहार-विहार करना नही जानते, और यदि जानते भी है तो प्रमाद या लापर्वाहीमे उसके अनुसार प्रवर्तन नही करते।
उदाहरणके तौर पर, बहतसे मनुष्य इस बातको तो जानते हैं कि यदि हम कोई हाडी चूल्हे पर चढावे और उसमे थोडेसे चावल पकनेके लिये डाल देवे, और फिर थोडीसी देरके बाद उसमे और कच्चे चावल डाल देवे, उससे पीछे गेहूँ डाल देवे, उससे कुछ काल पश्चात् कच्चे चने डाल देवे, और उस सेभी कुछ समय बाद फिर कच्चे चावल या और कोई वस्तु डाल देवे और उनमेसे किसीका भी पाक पूरा होनेका अवसर न आने देकर दूसरी दूसरी वस्तु उसमे डालते रहें तो कदापि उस हाडीका पाक ठीक तथा कार्यकारी न होगा। परन्तु यह जानते हुए भी खाने-पीनेके अवमरो पर कुछ ध्यान नहीं रखते-जो वस्तु जिस समय मिल जाती है उसको उसी समय चट कर जाते हैं-इस बातका कुछ विचार नहीं करते कि पहलेका खाया हुआ भोजन हजम होचुका है या कि नहीं? परिणाम जिसका
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हमारी यह दुर्दशा क्यो? यह होता है कि खाया-पीया कुछ भी शरीरको नहीं लगता और अनेक प्रकारके अजीर्णादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जो कभी कमी बडी भयकरता धारण कर लेते हैं और प्राण ही लेकर छोड़ते हैं। अग्रेज लोग प्राय नियमपूर्वक ठीक और नियत समयपर भोजन करते हैं, अपने डाक्टरोकी आज्ञाको बडे आदरके साथ शिरोधार्य करते हैं
और बडे यत्नके साथ स्वास्थ्य-रक्षाके नियमोका पालन करते हैं, यही वजह है कि उनको रोग बहुत कम सताते हैं और वे प्राय हृष्ट पुष्ट तथा बलिष्ठ बने रहते हैं। हम लोगोने वैद्यकशास्त्रमे निष्णात वाग्भट्ट जैसे वैद्यराजोंके वाक्योकी अवज्ञा की-न उनको पढा और न तदनुसार आचरण किया और स्वास्थ्यरक्षाके नियमोसे उपेक्षा धारण की। उसीका यह फल हा कि भारतवर्ष में निर्बलताने अपना अड्डा जमा लिया और म दिन पर दिन निर्बल तथा निस्तेज होकर प्राय किसी भी कार्य करनेके योग्य न रहे ।
हमारी इस निर्बलताके सक्षेपसे चार कारण कहे जा सकते हैं - पहला पैतृक निर्बलता अर्थात् माता और पिताके शरीरका निर्बल होना, दूसरा स्वास्थ्यरक्षाके नियमोसे उपेक्षा धारण करना, तीसरा बाल्यावस्थामे अनेक खोटे मार्गोसे कच्चे वीर्यका स्खलित होना,और चौथा अच्छी खुराक Food भोज्य) का न मिलना । इन कारणोमे यद्यपि पहला कारण, जिसकी उत्पत्ति भी अन्य तीन कारणोंसे ही है, हमारे प्राधीन नही है-अर्थात् माता-पिताकी शारीरिक निर्बलतामे उनकी भावी सन्तान कुछ भी फेर-फार नही कर सकती, उनके शरीर में उसका असर अवश्य आता है, परन्तु इससे हमारी प्राय कुछ हानि नही हो सकती यदि हम अन्य तीन कारणोको अपने पास फटकने न देवे और विधिपूर्वक अच्छे पौष्टिक पदार्थोंका बराबर सेवन करते रहें। ऐसा करनेसे हमारी जन्मसे प्राप्त हुई सब निर्वलता नष्ट हो जावेगी और हम आगामीके लिये अपनी सन्तानको इस प्रथम कारण-जनित व्यर्थकी पीडासे सुरक्षित रखनेमें समर्थ हो सकेंगे।
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दूसरे कारणको बाबत ऊपर सकेत रूपमें बहुत कुछ कहा जा चुका है और यह विषय ऐसा है कि जिस पर बहुत कुछ लिखा जासकता है। परतु यहाँपर संक्षेपमे मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि स्वास्थ्य-रक्षाके नियम हम लोगोको दृढताके साथ पालन करने चाहिये और सर्वसाधारणको उन नियमोका ज्ञान कराने तथा उन नियमोका पालन करनेकी प्रेरणा करनेके लिये वैद्यकशास्त्रोको मथनकर आहार-विहारसम्वन्धी अत्यत सरल पुस्तके तय्यार कराकर सर्वसाधारणमे नि स्वार्थ भावसे उनका प्रचार करना चाहिए। यदि वाग्मट्टजीके निम्न श्लोककी छोटी बडी टीकाएँ कराकर अथवा अन्य आहार-विहार तथा पूरण दिनचर्या-सम्बन्धी पुस्तके तय्यार कराकर स्कूलोमे भरती कराई जावे तो उनसे बहुत बड़ा उपकार हो सकता है । वह श्लोक यह है
कालाऽर्थ-कर्मणा योगा हीन-मिच्या-ऽतिमात्रिका । सम्यम्योगश्च विझेयो रोग्याऽऽरोग्यैक कारणम् ॥
इसका सामान्य अर्थ इतना ही है कि-'कालका हीनयोग, मिथ्यायोग तथा अतियोग, अर्थ ( पदार्थ ) का हीनयोग, मिथ्यायोग तथा अतियोग, कम (क्रियादि ) का हीनयोग, मिथगायोग तथा प्रतियोग, ये सब रोगोके प्रधान कारण है, और इन काल, अर्थ तथा कर्मका सम्यकयोग प्रारोग्यका प्रधान कारण है।' परन्तु काल, अर्थ और कर्मका वह हीनयोग, मिथ्यायोग, प्रतियोग और सम्यक्योग क्या है, उसे टीकायो द्वारा सप्रमाण स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत है, जिससे तद्विषयक ज्ञान विकासको प्राप्त होवे और जनताको सयोग-विरूद्धादिके रूपमे अपनी मिथ्याचर्याका भान हो सके।
तीसरा कारण यद्यपि दूसरे कारणकी ही एक शाखा है और उसीकी व्याख्यामे प्राता है, फिर भी उसपर खासतौर से दृष्टि रखनेकी ज़रूरत है । बहुतसे बालक अपनी अज्ञानतासे बचपनकी प्रत्यत निन्दनीय खोटी प्रवृत्तियो ( Self destroying habits ) मे फंसकर हमेशाके लिये अपना सर्वनाश कर डालते हैं और फिर सार
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हमारी यह दुर्दशा क्यों उम्र हाथ मल मलकर पछताते हैं, इसलिये माता-पिताकी इस विषयमे बालको पर कड़ी दृष्टि रहनी चाहिये और उनको किसी न किसी प्रकारसे ऐसी शिक्षा देनेका प्रयत्न करना चाहिये जिससे बालक इस प्रकारको खोटी प्रवृतियोमें पड़ने न पाये । अधिकांश माता-पिता इस
ओर बिल्कुल भी ध्यान नही देते और उनकी यह उपेक्षा विचारे हिताऽहित-ज्ञान-शून्य बालकोके लिये विषका काम देती है, जिसका पाप-भार माता पितामोंकी गर्दन पर होता है । अतः माता-पितामोको इस विषयमे बहुत सावधान रहना चाहिये और छोटी अवस्थामे तो बच्चोका विवाह भूल कर भी नहीं करना चाहिये, बल्कि उनको कमसे कम २० वर्षकी अवस्था तक ब्रह्मचर्याश्रममे रखना चाहिये,
और यही काल उनके विद्याध्ययनका होना चाहिये। इसके पश्चातू यह उनकी इच्छा रही कि वे चाहे और विद्याध्ययन करे या विवाह कराकर गृहस्थाश्रम स्वीकार करे।
चौथा कारण सबमे प्रधान है, अच्छी खुराकका न मिलना निर्बलताको उत्तरोत्तर वृद्धिंगत करनेवाला है। जब अच्छी खुराक अथवा उत्तम भोज्य पदार्थोकी प्राप्ति ही नहीं होगी तो केवल स्वास्थ्य-रक्षाके नियमोंके जाननेसे ही क्या लाभ हो सकता है ? वैद्यक-शास्त्र हमें किसी वस्तुकी उपयोगिता-अनुपयोगिताको बतलाना है, परतु किसी उपयोगी पदार्थकी प्राप्ति करा देना उसका काम नहीं । यह हमारा काम है कि हम उसका प्रबन्ध करे। इसलिये स्वास्थ्यरक्षाके नियम भी उस वक्त तक पूरी तौरसे नहीं पल सकते जबतक कि हमारे लिए अच्छी खुराक मिलने का प्रबन्ध न होवे । वास्तवमें यदि विचार किया जाय तो मनुष्यके शरीरका सारा खेल उसके भोजन पर निर्भर है। अच्छे और श्रेष्ठ भोजनसे मनुष्यका लरीर सुन्दर, निरोगी एवं बलाढ्य बनता है और मनुष्य के हृदय में उत्तम विचारोंकी सृष्टि होती है। विपरीत इसके, बुरे अथवा निकृष्ट भोजनसे मनुष्यका शरीर
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युगवीर - निबन्धावली
रोगाकान्त एवं निर्बल तैयार होता है और उसमे प्राय छोटे तथा हीन विचार ही उत्पन्न होते है । अच्छी खुराक वह वस्तु है कि जिसके प्रभाव से अन्य कारणोसे उत्पन्न हुई निर्बलताका भी सहज ही में सशोधन हो जाता है । इसीके प्रभावसे रोगोके आराम होनेमे भी बहुत कुछ सहायता मिलती है ।
हम लोग कुछ तो जन्मसे ही निर्बल पैदा हुए, कुछ बचपनकी गलतकारियो-योग्य प्रवृत्तियों -- एव स्वास्थ्य-रक्षाके नियमोको न पालन करने हमको निर्बल बनाया, और जो कुछ रहा सहा बल था भी, वह अच्छी खुराक के न मिलनेसे समाप्तिको पहुँच गया । हम लोगोकी सबसे अच्छी खुराक थी घी और दूध, वही हमको प्राप्त नही होती । इधर हम लोगोने गोरस-प्राप्ति और उसके सेवनकी विद्याको भुला दिया उधर धर्म-कर्म - विहीन अथवा मानवतासे रिक्त निर्दय मनुष्योने घी-दूधकी मशीन स्वरूप प्यारी गौलोका वध करना आरम्भ कर दिया और प्रतिदिन अधिक से अधिक सख्यामे गोवशका विनाश होता रहनेसे घी-दूध इतना करा ( महँगा ) हो गया कि सर्व-साधारण के लिये उसकी प्राप्ति दुर्लभ हो गई । जो घी जसे कोई १०० वर्ष पहले रुपयेका घडी (५ सेर पक्का) और ७५ वर्ष पहले तीन सेरसे अधिक ग्राता था वही घी प्राज रुपयेका ३ या ४छटा आता है और फिर भी अच्छा शुद्ध नही मिलता । इसी प्रकार जो दूध पहले पैसे या डेढ पैसे सेर प्राया करता था वही दूध
* मेरे विद्यार्थी जीवन (सन् १८६६ आदि ) मे, सहारनपुर बोडिङ्गहाउसमे रहते हुए, मुझे क्बल दोरुपये मामिकका घी भेजा जाता था और वह वजनमे प्राय साढे तीन सेर पक्का होता था। साथ ही इतना शुद्ध, माफ और सुगवित होता था कि उस जैसे घीका प्राज बाजारमे दर्शन भी दुर्लभ हो गया है । यह भारतकी दशाका कितना उलटफेर है ॥
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हमारी यह दुर्दशा क्यों ?
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आज आठ पाने, बारह प्राने अथवा रुपये सेर तक मिलता है और फिर भी उसके खालिस होनेकी कोई गारण्टी नही | ऐसी हालतमे पाठकजन स्वय विचार सकते हैं कि कैसे कोई घी-दूध खा सकता है और कैसे हम लोग पनप सकते हैं ? भारतवर्षमे आजकल शायद मैकडे पीछे दो या तीन मनुष्य ही ऐसे निकलेगे जिनको घोसे चुपडी रोटी नसीब होती है, शेष मनुष्योको घी-दूधका दर्शन भी नही मिलता और अच्छी तरहमे घी दूधका खाना तो अच्छे अच्छोको भी नसीब नही होता । फिर कहिये यदि भारतमे निर्बलता अपना डेरा अथवा ग्रड्डा न जमावे तो और क्या करे ?
यहाँपर एक बात और भी उल्लेखनीय है और वह यह कि इस महँगीके कारण बहुत स्वार्थी प्रविवेकी मनुष्य घीमें चर्बी तथा कोकोजम आदि दूसरी वस्तुएँ मिलाने लगे हैं और दूधमे पानी मिला कर प्रथवा दूधसे मक्खन निकालकर और कोई प्रकारकी पाउडर उममे शामिल करके उसे असली दूधके रूप मे बेचने लगे है, जिससे हमारा धर्म-कर्म और आचारर-विचार नष्ट होनेके साथ साथ हमारे शरीरमे अनेक प्रकारके नये रोगोने अपना घर बना लिया है। ऐसे घृणित घी-दूधको खानेवाले शायद यह समझते होगे कि हम घी-दूध खाते हैं औौर शायद उनको कभी कभी यह चिता भी होती हो कि घीदूध खानेपर भी हम हृष्ट-पुष्ट तथा निरोगी क्यो नही रहते ? परन्तु यह सब उनकी बड़ी भूल है । उनको समझना चाहिये कि वे वास्तव
घी-दूध नही खाते बल्कि एक प्रकारकी विषैली वस्तु खाते हैं जो उनके स्वास्थ्यst faगाडकर शरीरमे अनेक प्रकारके रोगोको उत्पन्न करनेवाली है । एक बार कलकत्तेके किसी व्यापारीका बहीखाता पकडा गया था और उससे मालूम हुआ था कि उसने ५००) रु० के सांप के लिये खरीद किये थे और उनकी चर्बी घीमें मिलाई गई थी ।
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युगबीर-निबन्धावती ., ' हा हम लोगोंके यह कितने दुर्भाग्यकी बात है कि जिस चीके नामसे ही हमको थरणा पाती थी,जिस चकि दर्शनमात्रसे कविमन) हो जाती थी और जिस चकि स्पर्शनमात्रसे स्तान करनेकी जरूरत होती थी वही चर्बो धीमें मिलकर हमारे पेटमे पहुंच रही है और पूजन-हवनके लिये पवित्र देवालयोमे जा रही है ।। इतने पर भी हम लोग हिन्दू तथा जैनी कहलानेका दम भरते हैं, हमको कुछ भी लज्जा अथवा शरम नहीं आती और न हम इसका कोई सक्रिय प्रतीकार ही करते है ।। जान पडता है हमने कभी इस बात पर गम्भीरताके साथ विचार ही नहीं किया कि पहले इतना सस्ता और अच्छा घी-दूध क्यो मिलता था? यदि हम विचार करते तो हमे यह मालूम हुए बिना न रहता कि पहले प्राय सभी गृहस्थी लोग दो-दो चार-चार गौएँ रखते थे, बडे प्रेमके साथ उनका पालन करते थे, गौ-मातामोको अपना जीवनाधार समझते थे और दूध न देने या रोमी होजाने आदि किसी कारणपर उनको कभी अपनेसे अलग नहीं करते थे, और यदि अलग करनेकी जरूरत ही आ पडती थी तो किसी ऐसे भद्र मनुष्यको समर्पण करते थे जो अपनेसे भी अधिक प्रेमके साथ उनको रखने और उनकी प्रतिपालना करनेवाला हो। परिणाम इसका यह होता था कि गौएँ कसाइयोंके हाथमे नहीं जाती थीं, घर घरमे घी-दूधकी नदियाँ बहती थी और सब लोग प्रानन्दके साथ अपना जीवन व्यतीत करते थे तथा हृष्ट पुष्ट बने रहते थे। परंतु माणकल हम लोग ऐसे प्रमादी अथवा बोन्टलमैन हो गये हैं कि हमने गौमोंका पालन करना बिल्कुल छोड़ दिया, हमे प्राणोकी आधारभूत गौत्रोका रखना ही भार मालूम होता है और हम यह कहकर ही अपना जी ठंडा कर लेते हैं कि "माय न बन्छी नीद भावे अच्छी !" उसीका यह फल है कि प्रतिदिन हजारो गोत्रोंके गलेपर बुरी फिरती है, बी-दूध हबसे ज्यावह महंगा हो गया और हम लोग शरीरसे कमजोर, कमहिम्मत तथा अनेक प्रकारके सेगके
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हमारी यह दुर्दशा क्यों ?
शिकार बने रहते हैं !! ऐसी अवस्थामें हमलोग कैसे अपनी उन्नति या अपने समाज और देशका सुधार कर सकते हैं ? कदापि नही ।
अत हम भारतवासियोको बहुत शीघ्र इस ओर ध्यान देकर ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये कि जिससे बहुलताके साथ उत्तम घीदूधकी प्राप्ति होती रहे, और उसके लिये सबसे अच्छा उपाय यही
सब लोग पहले की तरह अपने घरो पर दो-दो चार-चार गौऐ तथा भैसे रक्खा करे और कदापि उनको किसी ऐसे अविश्वसनीय मनुष्यके हाथ न बेचे जिससे उनके मारे जानेकी सम्भावना होवे । साथ ही, उनके लिये अच्छी चरागाहो का प्रबन्ध करे और गोचर भूमि छोडना हर एक अपना कर्तव्य समझे, जिससे चारे घासका कोई कष्ट न रहे और वे प्राय जगलसे ही अपना पेट भरकर घर आया करे । इसके अलावा स्थान स्थान पर ऐसे सुव्यवस्थित और विश्वस्त डेयरी फार्मों का भी प्रबन्ध होना चाहिये, जिससे साधन - विहीनो को समय पर उचित दामोमे यथेष्टरूपसे शुद्ध घी-दूध मिल जाया करे। यदि हमने शीघ्र ही इस ओर ध्यान न देकर कुछ भी प्रबन्ध न किया और कुछ दिनो और यही हालत चलती रही तो याद रहे कुछ ही वर्षोंमे वह समय भी निकट आ जायगा जब दवाई के लिये भी खालिस (शुद्ध) घी-दूध का मिलना दुर्लभ होजायगा और हम लोगो की और भी वह दुर्दशा होगी कि जिससे हमारी तरफ कोई आख उठाकर देखना भी पसन्द नही करेगा हम सब प्रकारसे हीन तथा नगण्य समझे जावेगे । यदि हम भारतवासी सचमुच ही इन (उपर्युक्त) समस्त दुखो और दुर्दशात्रोंसे छुटकारा चाहते हैं और हममें अपने हित हितका कुछ भी विचार अवशेष है तो हमे उक्त चारो प्रकारकी निर्बलताको दूर करनेका शीघ्रसे शीघ्र प्रयत्न करना चाहिये । ज्योही हम इस निर्बलताको दूर करनेमे सफल होगे त्योही हमे फिरसे इस भारतवर्षमे भीम, अर्जुन, महावीर, बुद्ध, राम, कृष्णादि
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युगवीर-निबन्धावली जैसे वीर पुरुषोके दर्शन होने लगेगे और हम सब प्रकारसे अपने मनोरथोको सिद्ध करनेमे समर्थ हो सकेगे।
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* यह निबन्ध आज से कोई ५२ वर्ष पहले निपा गया था और देवबन्द जिला सहारनपुरमे प्रकट होने वाले 'कामधेन'नामक साप्ताहिक पत्र ३० भितम्बर मन् १९१० - कमे प्रकाशित हना था । उस ममय घोका भाव म्पयेका प्राय १० हटाक और द्द्वका नीन पाने मेरका या । बादको मन् १६४६ मे इम छ प्रावश्यक परिवतनो तथा परिवर्धनो माय अनेकान्त की माचकी किरगामे प्रकाशित किया गया था। उस समय घी-दूधका ही रोना न था,किन्तु दशमे अन्न तथा दूसरे खाद्य पदार्थोका जी सकट उपस्थित था। अनेकान्न'की उक्त किरणसे ही यह यहाँ उदधृत किया गया है। अाजकी म्यिान पोर भी ज्यादा खराव है । म्हंगाई उत्तरोत्तर बढ़ रही है गोण तथा अन्य दुधारू पशु पहले से अधिक मख्या मे कट रहै है जिगने शुद्ध बी-दूध का प्रभाव होता जा रहा है। ऐसी स्थितिमे हमे बहुत ही सतर्क तथा पावधान होना चाहिये और स्वावलम्बनको अपनाकर मामूहिक प्रयत्न द्वारा उस दोष. पूर्ण परिस्थितिको ही बदल देना चाहिये जि पने हमारी यह सब दुर्दशा कर रक्खी है और करने को तत्पर है।
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जैनियोंमें दयाका अभाव इस निबन्धका शीर्षक देखते ही पाठक चौकेगे और कहेगे कि यह क्या मामला है ? परन्तु नही, चौकनेकी बात नहीं है । यदि
आप धैर्य और शान्तिके साथ विचार करेगे, तो आपको स्वय ही उक्त शीर्षककी स यता सहजमे मालूम हो जायगी। ___ इसमे कोई सन्देह नही, और न इसमे किसी को कुछ आपत्ति हो सकती है कि जैनधर्म ही दया धर्मका सर्वोत्तम रीतिसे प्रतिपादन करनेवाला है । इसी धर्ममे जीवोकी जातियाँ, जीवोंके भेदप्रभेद और उनके उत्पत्ति-स्थान आदि बहुत विस्तारके साथ वर्णन किये गये है, जिनके जाने बिना वास्तवमे दया धर्मका पालन नहीं हो सकता । जैनियोके इस सर्वश्रेष्ठ अहिसा धर्मकी बहुतसे भिन्न धर्मावलम्बी निष्पक्ष विद्वानोने मुक्तकठसे प्रशसा की है और इस धमका बहुत कुछ आभार और उपकार मानते हुए इस बातको स्वीकार किया है कि, जिस समय इस भारत भूमि पर वैदिक धर्मका अधिक प्रचार था उस समय यहाँ पर घोर रूपसे पशुवध होता थाबेचारे मूक पशु मास-लोलुपी वा अधश्रद्धालु मनुष्योके द्वारा धमके व्याजसे यज्ञोमे होमे जाते थे, घर-घरमे रुधिर और मॉसकी कीचड मचती थी, लोग इतने निर्दय, स्वार्थपरायण और विवेकशून्य हो गये थे कि मनुष्यो तकको यज्ञमें हवन करते हुए उनका हृदय नहीं
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युगवीर-निबन्धावली कांपता था। यह जैनधर्मके प्रचारका ही माहात्म्य है कि अब भारतका कोई भी धर्म उक्त घोर पापोको करनेका अनुमोदन नहीं करता है। वैदिक धर्मके शास्त्रोंमे भी अहिंसा वा दया धर्मका उपदेश प्रक्षिप्त हो गया है और इस तरह जैनधर्मके प्रभावसे अहिसा भारतकी सर्वप्रिय वस्तु बन गई है।
सुप्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान् प० बालगगाधर तिलकने बडोदा जैन कान्फन्समें ३० नवम्बर सन् १९०४ को एक सारगर्भित व्याख्यान दिया था। उसमे उन्होने कहा था
जैनियोंके 'अहिसा परमो धर्म' इस उदार सिद्धान्तने ब्राह्मण धर्म पर चिर स्मरणीय छाप ( मुहर ) मारी है । यज्ञ यागादिकोमे पशुओका वध होकर जो यज्ञार्थ पशु-हिसा की जाती थी वह आजकल नही होती है, यही एक बड़ी भारी छाप जैनधर्मने ब्राह्मण धर्म पर मारी है । पूर्वकालमे यज्ञके लिये असख्य पशुप्रोकी हिसा की जाती थी। इसके प्रमारण कालिदासके मेघदूत काव्यसे * तथा और भी अनेका ग्रन्थोसे मिलते है । रन्तिदेव नामके राजाने जो यज्ञ किया था, उसमे इतना प्रचुर पशुवध हुआ था कि नदीका जल खूनसे लाल हो गया था । उसी समयसे उस नदीका नाम चर्मरावती (चम्बल) प्रसिद्ध है । पशुवधसे स्वर्ग मिलता है, इस विश्वासके विषयमे उक्त कथा साक्षी है। इस घोर हिसाकी ब्राह्मणधमसे विदाई हो जानेका श्रेय जैनधर्मके हिस्सेमे है । ब्राह्मरण और हिन्दूधर्ममे मास-भक्षरण और मदिरापान बन्द हो गया, " " यह भी जैनधर्मका प्रभाव है। अहिसाकी और
* मेघदूतके 'आराध्यन शरवणभव' आदि ४७वे श्लोकको सजीवनी टीकामे इस बातका खुलामा यो किया गया है ---
पुरा किल राज्ञो रन्तिदेवस्य ( दशपुरपतेर्महाराज्यस्य ) गवालम्मेष्वेकत्र संभूताद्रक्तनिष्पन्दाचर्मराशे काचिन्नदी सस्पन्दे। सा चर्मरावतीत्याख्यायते इति।
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जैनियोंमें दयाका अभाव
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दयाकी विशेष प्रीतिसे लोगोंके हृदय हिंसाके दुष्कर्मोंसे दुखने लगे श्रीर उन्होंने प्रावेशयश स्पष्ट कह दिया कि, जिस बेदमें हिंसाकी प्राज्ञा है वह वेद हमको मान्य नही, जो देव हिंसासे प्रसन्न होते हैं उनकी हमको प्रावश्यकता नही, घोर जिन क्र्न्थोमे हिसाका विधान हो, वे हमसे दूर रहें । दया और श्रहिसाकी ऐसी ही प्रशसनीय प्रीतिने traर्मको उत्पन्न किया है, स्थिर रक्खा है और इसीसे वह चिरकाल तक स्थिर रहेगा । इस अहिसाधर्मकी छाप जब ब्राह्मणधर्मपर पडी और हिन्दुप्रोको अहिसा पालनकी आवश्यकता हुई तब यज्ञमे पिष्टपशुका (टेके पशुका) विधान किया गया ।"
श्रीयुत प० मरगीलाल नभ्रू भाई द्विवेदी बी ए ने 'सिद्धान्तसार' नामक पुस्तकमे लिखा है
" आश्चर्य की बात है कि आज जो गौ बहुत पवित्र गिनी जाती है, उसका प्राचीन समय मे यज्ञके लिये मारनेका रिवाज था | ब्राह्मणोंके धर्मको, वेदमार्गको और यज्ञकी हिसाको खरा धक्का इसी (जैन) धमने लगाया है, बुद्धके धर्मको ग्रहिसाका आग्रह नही था । उसने केवल वेदमार्गको ही अस्वीकृत किया था । परन्तु जैन धर्मने महा दयारूप - प्रेमरूप धर्मका प्रचार किया ।"
इसी प्रकार विलसन कालेज भडकमकर महोदय ने अपने एक कुछ कहा है उसका सार यह है
"यह स्पष्ट है कि वैदिक कालमे यज्ञ-यागादिक काय बड़ी क्र रता से होते थे और यज्ञमे पशुप्रोका हवन किया जाता था, और यह भी पता लगता है कि उस समय इन क्र र कर्मोकी प्रोरसे लोगोको विरक्त करनेका भी उद्योग होता था। जिसका फल यह हुआ कि जीवके प्रतिनिधि स्वरूप दूसरे पदार्थ हवन करके यज्ञ - क्रिया सम्पादन
* जनमित्र वर्ष ६ क ३ से उद्धृत ।
बम्बईके संस्कृत प्रोफेसर श्रीयुत व्याख्यानमे जैनधर्मके विषयमे जो
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युगवीर - निबन्धावली
करनेकी चर्चा होने लगी और कुछ कालके अनन्तर तो यह जीवहिंसा एक प्रकारसे बन्द ही हो गई थी। इस श्रेयका अधिकारी जैनधर्म था । उसके दयामय विचारोका इतना प्रभाव पडा था कि उससे वैदिक धर्मको अपना स्वरूप बदलना पडा था और उसे अपनेमे जीवदयाको बलात् स्थान देना पडा था । अतएव 'जिन' शब्दका जो जयशील वा विजयवान् अर्थ होता है तदनुसार जैनधर्मने लोगोपर प्राचीन कालसे विजय प्राप्त किया है और वह आगे भी करेगा, इसमे सन्देह नही है ।"
जैनधर्म ही हिसा हिसा और दया
इन सब कथनोंसे यह नतीजा निकलता है कि और दयाधमका आद्यप्रवर्तक और मुलनायक है। का असली प्राकृतिक स्वरूप सिवाय जैनधर्मके और किसी भी धर्ममे प्राय नही पाया जाता है । वास्तवमे हमारे पूर्वज बडे ही दयालु थे । उनका हृदय बडा ही विस्तीर्ण और उदार था । दूसरोका हित करना ही वे अपना मुख्य कर्तव्य समझते थे । उनकी दयालुता, उनकी उदारता केवल अपने घर, ग्रपने कुटुम्ब और अपनी जाति तक ही सकुचित न थी, बल्कि सारे विश्वके नर-नारियो, जैनो-अजैनो और पशु-पक्षियों तक निस्वार्थ भावसे फैली हुई थी। वे महानुभाव यदि किसी प्राणीको मिथ्यात्वदशा व पान अथवा दुखावस्थामे देखते थे तो तुरन्त उनका हृदय दयासे भीग जाता था और जिस-तिस प्रकार व उसका मिथ्यात्व, पाप अथवा दुख दूर कानेका यत्न करते थे । इससे उनको सुख-शान्तिका प्राप्ति होता थी। हजारो मिथ्यात्वियोका मिथ्यात्व और लाखो पापियोका पाप छुड़ाकर उनको सच्चे धर्मकी शरणमे लाना तथा सच्चा मार्ग बताना उन्हीका काम था । उन्ही धर्मवीरो और सत्पुरुषोका यह प्रभाव है, जो भिन्न धर्मावलम्बी ( अन्यमती ) विद्वान् भी आज जैनियो के दयामय धर्मकी छाप अपने ऊपर स्वीकार करते है ।
परन्तु जब हम जैनियोकी वर्तमान दशाको देखते हैं तो हमको
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जैनियोमे दयाका प्रभाव बडा दुख तथा शोक होता है और निःसकोच-भावसे कहना पड़ता है कि प्राजकलके जैनियोंमें प्राय दयाधर्मका अभाव होगया है। जैनी प्राय इतने हीन, स्वार्थी और संकीर्णहृदय बन गये हैं कि, स्वप्नमे भी कभी दूसरोका उपकार करनेकी तरग इनके हृदयमें नहीं उठती है, जैनियोंके सामने ही कोई किसीको सतायो, किसीका दिल दुखायो, अन्याय करो, अत्याचार करो और कैसा ही पापका काम क्यो न करो, परन्तु इससे उन्हे क्या ? जैनियोंके हृदय पर इससे कुछ भी चोट नहीं लगती है। लौकिक स्वार्थने इन लोगोको इतना अधा बना दिया है कि दूसरोके दुखको ये दुख ही नहीं समझते हैं, दुखियोंके दु खमे अपनी सहानुभूति दर्शाना और समवेदना प्रगट करना तो मानो इनकी प्रकृतिके विरुद्ध ही हो गया है । शायद इस प्रकारकी उदासीनताको ही ये लोग वीतरागता मान बैठे हो और इसी सुगम रीतिसे इन्होने वीतगग पदवीका सर्टिफिकेट मिलना समझ रक्खा हो । अफसोस । और शोक || जो लोग सबसे ऊंचे चढे थे,वे आज ऐसे नीचे आ पडे । अाज जैनियोने अपना कर्तव्य भुलाकर अपने वश-गौरव को मिटा दिया । जैनियोकी वर्तमान हालतको देख कर कौन कह सकता है कि कभी जैनी भी ऐसे परोपकारी और दयावान थे कि, जो जीवमात्रका कल्याण करनेके लिये सदैव आकुलित रहते थे और उनके रोम-रोम और नस नसमे प्रतिक्षण परोपकारमय उत्साह की दामिनि दमकती थी। कौन समझ सकता है कि इनके पूवज ऐसे स्वार्थत्यागी, उदारचेता, समदृष्टि और निनिमित्त बन्धु हो गये है कि जिन्होने भील, चाण्डाल, म्लेच्छ और पापीसे पापी मनुष्य ही को नहीं, बल्कि सिह, व्याघ्र, शूकर, कूकर गृद्ध आदि पशु पक्षियो तक पर दया करके उनको धर्मकी शिक्षा दी थी और उनको जैनधर्म धारण करा कर कल्याणके मार्ग पर लगाया था।
जैनियोके अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीके समवशरणमे
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युगवीर-निबन्धावली पाहु-पक्षी भी धर्मोपदेश सुननेके लिए पाते थे। समवशरणकी बारह समानीमें पशु-पक्षियोंकी भी एक सभा थी, जिनको महावीर जिनेन्द्र धर्मका उपदेश देते थे। जैनियोकी वर्तमान ८४ खापे इस बातको प्रगट कर रही हैं कि जैन महर्षि कैसे दयाल नि सीम परोपकारी और धर्मप्रचारक पे कि, जिन्होने नीच ऊच किसीभी वकि मनुष्यको जेनी बनानेसे नही छोडा और किसी भी जीवका हित करनेसे मुंह नही मोडा।
जिन परोपकारी महात्मा श्रीअकलकदेवने मृतमास-भोजी बौद्धसमूहको वादमे परास्त कर राजा हिमशीतल-सहित हजारो बौद्धोको जैनी बनाया, उनको आज जैनी अपना पूज्य गुरु मानते हैं और अपनेको उनका अनुयायी बतलाते है। परन्तु उनको ऐसा मानते
और बतलाते हुए कुछ लज्जा नही आती है | क्या जैनियोकी तरफसे श्री अकलकदेवके अनुयायीपनका सूचक कोई प्रयत्न जारी है ? गुरुकी अनुकूलता-प्रदर्शक कोई काम हो रहा है ? और किसी भी मनुष्यको जैनधर्मका श्रद्धानी बनाने या सर्व साधारणमे जैनधर्मका प्रचार करनेकी कोई खास चेष्टा की जाती है ? यदि यह सब कुछ भी नही, तो फिर ऐसे अनुयायीपनसे क्या ? खाली गाल बजाने, शेखी मारने और अपनेको उच्च धर्मानुयायी प्रगट करनेसे कुछ भी नतीजा नही है । निस्सन्देह 'अकलकस्तोत्र' के "नाहकार वशीकृतन मनसा'' इत्यादि वाक्य मे श्री अकलकदेवकी जिस कारुण्य-बुद्धिका उल्लेख है, उसका आज जैनियोमे अभाव है। जैनी इस बातको
* यह पूरा वाक्य इस प्रकार हे --- नाऽहकार-वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवल नैरात्म्य प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धथा मया राज्ञ श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मना। बौद्धोधान् सकलान्विजित्य स घट पादेन विस्फालित ।।
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जैनियोंमें दयाका प्रभाव जानते और मानते हैं कि मिथ्यात्व (प्रतत्त्वश्रद्धान) के समान और कोई इस जीवारमाका अहित पोर अनिष्ट करनेवाला विशिष्ट शत्रु नहीं है। इसी प्रतत्त्वश्रद्धानके कारण यह जीव संसारमें नाना प्रकार के कष्ट, दुःख और सन्ताप भोगता हुआ चतुर्गतिमें भ्रमण करता फिरता है । न कही इसको शान्ति मिलती है, न कही सुखकी प्राप्ति होती है । वे प्रत्यक्ष इस बातका अनुभव भी कर रहे हैं कि इसी मिथ्याश्रद्धानके कारण ससारमें घोर पापोकी प्रवृत्ति हो रही है
और जगतके जीव अपने पापकर्मोके फलस्वरूप नाना प्रकारकी दुःखावस्थाप्रोसे घिरे हुए सविलाप कष्ट भोग रहे हैं। परन्तु फिर भी उन करुणा-पात्रोपर इन जैनियोको तनिकभी करुणा नही पाती है। जैनी किसीभी जीवका मिथ्यात्वादि छुडाकर उसको सम्यक् श्रद्धानी, सम्यक्ज्ञानी और सम्यगाचरणी बनानेका कुछ भी प्रयल नही करते हैं, इससे अधिक कठोर चित्तवृत्ति और क्या हो सकती है ? अफसोस। जैनी लोग अपने घरोमे चिल्ला चिल्लाकर यह बात कहते हैं कि जैनधर्म ही जगतके जीवोका उद्धार करनेवाला है, परन्तु फिर भी वे किसीको जैनधर्मसे अपना उद्धार करनेका अवसर नहीं देते हैं। न तो वे दूसरोको जैनधर्म बतलाते हैं, न सर्वदेशोंकी सर्वभाषाओं में अनेक रीतियों और युक्तियोले अपने धर्म-पन्थोको प्रकाशित करके, सर्व साधारणके लिये जैनधर्मकी शिक्षा प्राप्त करनेका मार्ग सुगम करते हैं। इससे प्रगट है कि इनके हृदयोंमे दयाका संचार मही है और इसीलिए यह कहना बिल्कुल सत्य है कि आजकल जैनियोंमें दयाका प्रायः प्रभाव है।
शायद हमारे बहुतसे भोले जेनी केवल हरी मोर कन्दमूलका त्याग करनेसे ही अपनेको बयावान समझो हो । परन्तु माद हे उनका यह लोक-प्रचारसे प्रेरित हुमा प्राकम त्याग केवल मागासम्बर
और लोकदिखावाके सिवाय और कुछ मी अर्थ नही रखता । मला जिन लोगोंको पंचेन्द्रिय प्राणियों पर दया नहीं पाती, पापियोंका
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युगवीर-निबन्धावली पाप, प्रज्ञानियोका अज्ञान और मिथ्यात्वियोका मिथ्यात्व छुडानेमे जिनकी प्रवृत्ति नही होती,जो सप्तव्यसन और पचपापोका त्याग नहीं करते, जो अपने भाईयोको सताने और दुख देनेमे आगा-पीछा नहीं सोचते और जिनके हृदय छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, अन्याय-द्रोह और वैर-विरोधसे परिपूर्ण हैं, उनके दिलोमे दृष्टिमे भी न आनेवाले एकेन्द्रिय जीवोकी रक्षाका भाव होना कब कोई अनुमान कर सकता है ? कदापि नहीं । इसलिए जिन भाईयोका ऐसा खयाल हो भी, उनको अपना खयाल बदल देना चाहिये और लोक-प्रवाहमे न बह कर बाह्याडम्बर और बनावटको छोडकर अन्त शुद्धिकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिये और अपने दोषोका सशोधन-पूर्वक सच्ची दयाको हृदयमे स्थान देकर जिनधर्मकी महिमा प्रकट करनी चाहिए । इसीमे जाति और देशका कल्याण हूँ और इसीसे जैनी अपने उस कलकको दूर करनेमे समर्थ हो सकते है जो अपने पूज्य पुरुषोकी पवित्र कीति और नामको बट्टा लगानेसे उनके मस्तकपर चढा है। __आशा है हमारे धर्मोपकारी, धर्मवीर और जैनधर्मके सच्चे प्रेमी अब अपनी गाढ निद्राको त्यागकर अपने कर्तव्यकी ओर भुकेगे,अपने भाइयोकी हालत सुधारेगे, उनका अज्ञान-प्रमाद दूर करेगे, उनके हृदयोमे कारुण्य-जलका स्रोत बहाएँगे उनसे परोपकार-वत धारण कराएँगे और जहाँतक बनेगा पापियों अज्ञानियों और मिथ्याष्टियों पर दया करके उनका पाप, अज्ञान और मिथ्यात्व छुड़ाएँगे । साथ ही श्री अकलकदेव सरीखी 'कारुण्यबुद्धि' को हृदयमे धारण कर स्वजाति-विजाति, देशी-विदेशी, आर्य-म्लेच्छ और जैनी-अजैनी सब ही प्रारिणयोको जिनक्चनामृतका पान कराकर-जैनधर्मकी शरण में लाकर उनका हित-साधन करेगे और इस प्रकार जैनधर्मके लुप्तप्राय गौरवको पुन उज्जीवित करनेमे समर्थ होगे।
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जिन-पूजाधिकार-मीमांसा
उत्थानिका
जो मनुष्य जिम मतको मानता है-जिस धर्मका श्रद्धानी और अनुयायी है - वह उसी मत वा धर्मके पूज्य और उपास्य देवताओ की पूजा-उपासना करता है । परन्तु आजकलके कुछ जैनियोका खयाल इस सिद्धान्तके विरुद्ध है । उनकी समझमे प्रत्येक जैनधर्मानुयायीको (जैनीको ) जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेका अधिकार नही है । उनकी कल्पनाके अनुसार बहुतसे लोग जिनेन्द्रदेवके पूजकोकी श्रेणीमे
स्थान नही पाते । चाहे वे लोग अन्यमतके देवी-देवता की पूजा और उपासना भले ही करे, पर जिनेन्द्रदेवकी पूजा और उपासनासे अपनेको कृतार्थ नही कर सकते । शायद उनका ऐसा श्रद्धान हो कि ऐसे लोगो के पूजन करनेसे महान् पापका बन्ध होता है और वह पाप शास्त्रोक्त नियमोका उलघन करके सक्रामक रोगकी तरह अडीसियो - पडोसियो, मिलने-जुलनेवालो और खासकर सजातियोको पिचलता फिरता है । परन्तु यह केवल उनका भ्रम है और आज
* इसी प्रकारक विचारोसे खातौली (जिला मुजफ्फरनगर) के दस्सा और बीसा जैनियो के मुकद्दमेका जन्म हुआ और ऐसे ही प्रौढ विचारोसे सर्धना (जिला मेरठ) के जिनमदिरोको करीब करीब तीन साल तक ताला लगा रहा ||
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युगवीर-निबन्धावली इसी भ्रमको दूर करने अर्थात् श्रीजिनेन्द्रदेवके पूजनका किस किसको अधिकार है, इस विषयकी मीमासा और विवेचना करनेके लिये यह निबन्ध लिखा जाता है। पूजन-सिद्धान्त
* जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि यह आत्मा जो अनादि कर्ममलसे मलिन हो रहा और विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है, वही उन्नति करते करते कर्ममलको दूर करके परमात्मा बन जाता है। प्रात्मासे भिन्न और पृथक कोई एक ईश्वर या परमात्मा नहीं है। आत्माकी परमविशुद्ध अवस्थाका नाम ही परमात्मा है-अरहत जिनेन्द्र,जिनदेव, तीर्थकर, सिद्ध, सार्व, सर्वज्ञ, वीतराग, परमेष्ठि, परमज्योति, शुद्ध, बुद्ध, निरजन, निर्विकार, प्राप्त, ईश्वर परब्रह्म, इत्यादि उसी परमात्मा या परमात्मपदके नामान्तर हैं-या दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि परमात्मा आत्मीय अनन्त गुणोका समुदाय है । उसके अनन्त गुणोकी अपेक्षा अनन्त नाम हैं। वह परमात्मा परम वीतरागी और शान्तस्वरूप है, उसको किसीसे राग या द्वेष नहीं है, किसीकी स्तति, भक्ति और पूजासे वह प्रसन्न नही होता और न किसीकी निन्दा, अवज्ञा या कटु शब्दोंसे अप्रसन्न होता है, धनिक श्रीमानो, विद्वानो और उच्च श्रेणी या वरणके मनुष्योको वह प्रेमकी दृष्टिसे नही देखता और न निधन-कगालो, मूखों तथा निम्नश्रेषीके मनुष्योको घृणाकी दृष्टिसे अवलोकन करता है, न सम्यग्दृष्टि उसके कुपापात्र हैं और न मिथ्यादृष्टि उसके कोपभाजन, बह परमानदमय और कुवकृत्य है सांसारिक झगडोंसे उसका कोई प्रयोजन नहीं । इसलिये जैनियोकी
मासनमा, भक्ति और पूजा हिन्दू मुसलमान और ईसाइयोकी तरह परमात्माको प्रसन्न करनेके लिये नही होती । उसका एक दूसरा ही उद्देश्य है जिसके कारण वे ऐसा करना अपना कर्तव्य समझते हैं और वह संक्षिप्तरूपसे इस प्रकार है :
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जिन पूजाधिकार मीमासा
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'यह जीवात्मा स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियों का आधार है । परन्तु अनादि-कर्ममलसे मलिन होनेके कारण इसकी वे समस्त शक्तियाँ श्राच्छादित हैं- कर्मो के पटलसे वेष्टित हैं- और यह श्रात्मा ससारमें इतना लिप्त और मोह जालमें इतना फँसा हुआ है कि उन शक्तियोंका विकाश होना तो दूर रहा, उनका स्मरण तक भी इसको नही होता । कर्मके किचित् क्षयोपशमसे जो कुछ थोडा बहुत ज्ञानादि-लाभ होता है, यह जीव उतने में ही सन्तुष्ट होकर उसीको अपना स्वरूप समझने लगता है । इन्ही ससारी जीवोंमेसे जो जीव अपनी आत्मनिधिकी सुधि पाकर धातुभेदीके सदृश प्रशस्त ध्यानाऽग्निके बलसे, इस समस्त कर्ममलको दूर कर देता है, उसमे आत्माकी वे सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ सर्वतोभावसे विकसित हो जाती हैं और तब वह आत्मा स्वच्छ और निर्मल होकर परमात्मदशाको प्राप्त हो जाता है तथा 'परमात्मा' कहलाता है । केवलज्ञान (सर्वज्ञता ) की प्राप्ति होनेके पश्चात् जबतक देहका सम्बन्ध बाकी रहता है, तब तक उस परमात्माको सकलपरमात्मा ( जीवन्मुक्त ) या रहत कहते हैं. और जब देहका सम्बन्ध भी छूट जाता है और मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है तब वही सकलपरमात्मा निष्कलपरमात्मा (विदेहमुक्त ) या सिद्ध नामसे विभूषित होता है । इस प्रकार अवस्थाभेदसे परमात्मा के दो भेद कहे जाते हैं । वह परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्थामे अपनी दिव्यवारणीके द्वारा ससारी जीवोको उनकी आत्माका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय बतलाता है अर्थात् उनकी आत्मनिधि क्या है, कहीं है. किस किस प्रकारके कर्मपटलोंसे श्राच्छादित है, किस किस उपायसे वे कर्मपटल इस श्रात्मासे जुदा हो सकते हैं, संसारके अन्य समस्त पदार्थोंसे इस आत्माका क्या सम्बन्ध है, दुखका, सुखका मीर संसारका स्वरूप क्या है, कैसे दुखकी निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति हो सकती है, इत्यादि समस्त बातोका विस्तारके
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युगवीर मावली
साथ सम्यक् प्रकार निरूपण करता है, जिससे अनादि श्रविद्याग्रसित संसारी जीवोंको अपने कल्याणका मार्ग सुझता है और अपना हितसाधन करनेमें उनकी प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार परमात्माके द्वारा जगतका नि.सीम उपकार होता है । इसी कारण परमात्माके सार्व, परम हितोपदेशक, पर महितैषी और निर्निमित्तबन्धु इत्यादि भी नाम हैं । इस महोपकारके बदलेमे हम (ससारी जीव ) परमात्माके प्रति 'जितना प्रादर-सत्कार प्रदर्शित करे और जो कुछ भी कृतज्ञता प्रगट करे वह सब तुच्छ है । दूसरे जब आत्माकी परम स्वच्छ और निर्मल अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्थाको प्राप्त करना अर्थात् परमात्मा बनना सब श्रात्मा का अभीष्ट है, तब श्रात्मस्वरूपकी या दूसरे शब्दोमे परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति के लिये परमात्माको पूजा, भक्ति और उपासना करना हमारा परम कर्त्तव्य है । परमात्माका ध्यान, परमात्मा के अलौकिक चरित्रका विचार और परमात्माकी ध्यानावस्थाका चिन्तवन ही हमको अपनी आत्माकी याद दिलाता है - अपनी भूली हुई निधिकी स्मृति कराता है । परमात्माका भजन और स्तवन ही हमारे लिये अपनी आत्माका अनुभवन है । प्रात्मोन्मति में अग्रसर होनेके लिये परमात्मा ही हमारा आदर्श है। आत्मीयगुणोकी प्राप्तिके लिये हम उसी आदर्शको अपने सन्मुख रखकर अपने चरित्रका गठन करते है। अपने आदर्श पुरुषके गुणो में भक्ति और अनुरागका होना स्वाभाविक और जरूरी है । बिना अनुरागके किसी भी गुरणकी प्राप्ति नही हो सकती। जो जिस गुरणका आदरसत्कार करता है अथवा जिस गुरणसे प्रेम रखता है, वह उस गुरणके गुणीका भी अवश्य आदरसत्कार करता है और उससे प्रेम रखता है, क्योंकि गुणी माश्रम बिना कही भी गुण नही होता । चारसत्काररूप प्रवत्तनका नाम ही पूजा है । इसलिये परमात्माक इन्ही
* इन्ही कारणोसे अन्य वीतरागी साधु और महात्मा भी,
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जिन-पूजाधिकार-भीमासा समस्त कारणोसे हमारा परमपूज्य उपास्य देव है और द्रव्यदृष्टिसे समस्त प्रात्मानोंके परस्पर समान होनेके कारण वह परमात्मा सभी ससारी जीवोंका समान-मावसे पूज्य है । यही कारण है कि परमात्माके 'खोक्यपूज्य' और 'जगत्पूज्य' इत्यादि नाम भी कहे जाते हैं । परमात्माका पूजन करने, परमात्माके गुणोंमे अनुराग बढाने और परमात्माका भजन और चिन्तवन करनेसे इस जीवात्माको पापोंसे बचनेके साथ साथ महत्पुण्योपार्जन होता है। जो जीव परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना नहीं करता, वह अपने आत्मीय गुणोंसे पराड्मुख और अपने प्रात्मलाभसे वचित रहता हैं-इतना ही नहीं, किन्तु वह कृतघ्नताxके दोषसे भी दूषित होता है।
अत परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना सबके लिये उपादेय और जरूरी है। __ परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्था अर्थात् अर्हन्त-अवस्थामे सदा और सर्वत्र विद्यमान नहीं रहता, इस कारण परमात्माके स्मरणार्थ और परमात्माके प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्तनके आलम्बनस्वरूप उसकी अर्हन्त अवस्थाकी मूर्ति बनाई जाती है। वह मूर्ति परमात्माके वीतरागता, शान्तता और ध्यानमुद्रा आदि गुणोका प्रतिबिम्ब होती है। उसमें स्थापनानिक्षेपसे मत्रोद्वारा परमात्माकी प्रतिष्ठा की जाती जिनमे प्रात्माकी कुछ शक्तियाँ विकसित हुई हैं और जिन्होंने अपने उपदेश, पाचरण और शास्त्रनिर्माणसे हमारा उपकार किया है, बैं सब हमारे पूज्य हैं।
xअहसान फरामोशी या किये हुए उपकारको भूल जाना कृतघ्नता है । "अभिमतफलसि रभ्युपाय: सुबोध प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्ध न हि कृतमुपकार साधवो विस्रन्ति ।"
गोम्मटसार-टीका
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युगवीर - निबन्धावली
है । उसके पूजनेका भी समस्त वही उद्देश्य है, जो ऊपर वर्णन किया गया है, क्योंकि मूर्तिके पूजनसे धातु- पाषाणका पूजना अभिप्रेत (इष्ट) नहीं है, बल्कि मूर्तिके द्वारा परमात्माहीकी पूजा, भक्ति और उपासना की जाती है । इसीलिये इस मूर्तिपूजनके जिनपूजन, देवार्चन, जिनाच, देवपूजा इत्यादि नाम कहे जाते हैं और इसीलिये इस पूजनको साक्षात् जिनदेवके पूजनतुल्य वर्णन किया है । यथा भक्त्या प्रतिमा पूज्या कृत्रिमा कृत्रिमा सदा । यतस्तद्गुणसकल्पात्प्रत्यक्ष पूजितो जिन ||
-धर्मग्रहश्रावकाचार ०६, श्लोक ४२ परमात्माकी इस परमशान्त और वीतरागमूर्ति के पूजनमे एक बडी भारी खूबी और महत्वकी बात यह है कि जो ससारी जीव ससार के मायाजाल और गृहस्थी के प्रपचमे अधिक फँसे हुए हैं, जिनके चित्त प्रति चचल है और जिनका प्रा.मा इतना बलाढ्य नही है कि जो केवल शास्त्रोमे परमा माका वर्णन सुनकर एकदम बिना किसी नकशे के परमात्मस्वरूपका नक्शा (चित्र) अपने हृदयमे खीच सके या परमात्मस्वरूपका ध्यान कर सके, वे भी उस मूर्तिके द्वारा परमात्मस्वरूपका कुछ ध्यान और चिन्तवन करनेमे समर्थ हो जाते हैं और उसीसे आगामी दुखो और पापोकी निवृत्तिपूर्वक अपने ग्रात्मस्वरूपकी प्राप्ति में अग्रसर होते हैं ।
जब कोई चित्रकार चित्र खीचनेका अभ्यास करता है तब वह सबसे प्रथम सुगम और सादा चित्रोपरसे, उनको देखदेखकर, अपना चित्र खीचनेका अभ्यास बढाता है, एकदम किसी कठिन, गहन और गम्भीर चित्रको वह नही खीच सकता । जब उसका अभ्यास बढ़ जाता है तब कठिन, गहन और रंगीन चित्रोको भी सुन्दरताके साथ बनाने लगता है और छोटे चित्रको बड़ा और बडेको छोटा भी करने लगता है । आगे जब अभ्यास करते करते वह चित्र-विद्यामे पूरी तौर से निपुरण और निष्णात हो जाता है, तब वह चलती-फिरती,
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जिन-पूजाधिकार-मीमासा दौड़ती-भागती वस्तुप्रीका भी चित्र बड़ी सफ़ाईके साथ बातकी बातमें खीचकर रख देता है और चित्र-नायकको न देखकर, केवल व्यवस्था और हाल ही मालूम करके उसका साक्षात् जीता-जागता चित्र भी अंकित कर देता है। उसी प्रकारयह संसारी जीव भी एकदम परमात्मस्वरूपका ध्यान नहीं कर सकता अर्थात् परमात्माका फोटू अपने हृदयपर नही खीच सकता, वह परमात्माकी परम वीतराग
और शान्त मूर्तिपरसे ही अपने अभ्यासको बढ़ाता है। मूर्तिके निरन्तर दर्शनादि अभ्याससे जब उस मूर्तिकी वीतरागछवि और ध्यानमुद्रासे वह परिचित हो जाता है, तब शन. शनै एकान्तमें बैठकर उस मूर्तिका फोटू अपने हृदयमे खीचने लगता है और फिर कुछ देर तक उसको स्थिर रखनेके लिये भी समर्थ होने लगता है। ऐसा करने पर उसका मनोबल और प्रात्मबल बढ़ जाता है और वह फिर इस योग्य हो जाता है कि उस मूर्तिके मूर्तिमान् श्रीधरहतदेवका समवसरणादि विभूति-सहित साक्षात् चित्र अपने हृदयमे खीचने लगता है । इस प्रकारके ध्यानका नाम रूपस्थध्यान है और यह ध्यान प्राय. मुनि-अवस्थामे ही होता है।
आत्मीय बलके इतना उन्नत हो जानेकी अवस्थामें फिर उसको धातु-पाषाणकी मूर्तिके पूजनादिकी या दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि परमात्माके ध्यानादिके लिये मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत बाकी नही रहती, बल्कि वह रूपस्थध्यानके अभ्यासमे परिपक्व होकर और अधिक उन्नति करता है और साक्षात् सिद्धोंका चित्र भी खीचने लगता है, जिसको रूपातीतध्यान कहते हैं। इस प्रकार ध्यानके बलसे वह अपनी आत्मासे कर्ममलको छाटता रहता है और फिर उन्नतिके सोपानपर चढता हुमा शुक्लण्यान लगाकर समस्त कर्मोको क्षय कर देता है और इस प्रकार प्रात्मत्वको प्राप्त कर लेता है । अभिप्राय इसका यह है कि मूर्तिपूजन आत्मदर्शनका प्रथम सोपान है और उसको आवश्यकता प्रथमावस्था (गृहस्था
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सुगबीर-निबन्धावली बस्था ) में ही होती है। बल्कि दूसरे शब्दोमे यो कहना चाहिये कि जितमा जितना कोई नीचे दर्जे में है, उतना उतना ही जियादा उसको मूर्ति पूजनकी या मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी जरूरत है । यही कारण है कि हमारे प्राचार्योने गृहस्थोंके लिये इसकी खास जरूरत रक्खी है और नित्य पूजन करना गृहस्थोका मुख्य धर्म वर्णन किया है। सर्वमाधारणाऽधिकार भगवज्जिनसेनाचार्यने श्रीअादिपुराणमे लिखा है - दान पूजा च शील च दिने पर्वण्युपोषितम् ।
धर्मश्चतुर्विध सोऽयमाम्नातो गृहमेधिनाम् ।। ४१-१०४ अर्थात्-दान, पूजन, व्रतोका पालन (व्रतानुपालन शील ) और पर्वके दिन उपवास करना, यह चार प्रकारका गृहस्थोका धर्म है । ___ अमितगतिश्रावकाचारमे श्रीअमितगति प्राचार्यने भी ऐसा ही वर्णन किया है। यथा -
दान पूजा जिनै शीलमुपवामश्चतुर्विध ।।
श्रावकाणा मतो धर्म संसारारण्यपावक ।। ६-१ श्रीपद्मनन्दि आचार्य, पद्मनन्दिपचविंशतिकामे, श्रावकधर्मका वर्णन करते हुए लिखते हैं__देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय सयमस्तप ।
दानं चेति गृहस्थाना षट्कर्माणि दिने दिने । ६-७ अर्थात्-देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, सयम, तप और दान, ये षट् कर्म गृहस्थोको प्रतिदिन करने योग्य हैं । भावार्थ-धार्मिकदृष्टिसे गृहस्थों के ये सर्वसाधारण नित्यकर्म हैं।
श्रीसोमदेवसूरि भी यशस्तिलकमें वरिणत उपासकाध्ययनमे इन्ही षट् कर्मोका, प्राय इन्ही ( उपयुल्लिखित ) शब्दोमे गृहस्थोको उपदेश देते हैं -
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दा."
जिन पूजाधिकार-भीमामा ५५ देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्याय सयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां पदकर्माणि दिने दिने । ४६-७
गृहस्थोंके लिये पूजनकी आवश्यकताको प्रगट करते हुए श्रीपद्मनन्दि आचार्य फिर लिखते हैं
ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फल जीवितं तेषां तेषा धिक् च गृहाश्रमम् ।। ६-१५ अर्थात्-जो जिनेन्द्रका दर्शन, पूजन और स्तवन नहीं करते हैं उनका जीवन निष्फल है और उनके गृहस्थाश्रमको धिक्कार है। इसी आवश्यकताको अनुभव करते हुए श्री मकल कीर्ति आचार्य सुभाषितावलीमे यहाँ तक लिखते है - __ पूजा विना न कुर्वेत भोगसौख्यादिक कदा ।
अर्थात्--गृहस्थोको बिना पूजनके कदापि भोग और उपभोगादिक नहीं करना चाहिये। सबसे पहले पूजन करके फिर अन्य कार्य करना चाहिये।
श्रीधर्मसग्रहश्रावकाचारमे, गृहस्थाश्रमका स्वरूप वर्णन करते हुए, लिखा है
इज्या वार्ता तपो दान स्वाध्याय. सयमस्तथा ।
ये षटकर्माणि कुर्वन्त्यन्वह ते गृहिणो मता ॥६-२६ अर्थात्-इज्या ( पूजन), वार्ता (कृषिवाणिज्यादि जीवनोपाय) तप, दान, स्वाध्याय, और सयम, इन छह कर्मोको जो प्रतिदिन करते है वे गृहस्थ कहलाते हैं । भावार्थ-धामिक और लौकिक, उभयदृष्टिसे ये गृहस्थोंके छह नित्यकर्म हैं। गुरूपास्ति जो ऊपर वर्णन की गई है वह इज्याके अन्तर्गत होनेसे यहाँ पृथक नही कही गई।
भगवज्जिनसेनाचार्य आदिपुराणके पर्व ३८ मे निम्नलिखित श्लोको-द्वारा यह सूचित करते हैं कि ये इज्या, वार्ता प्रादि कर्म उपासक सूत्रके अनुसार गृहस्थोंके षट्कर्म हैं। प्रार्यषट्कर्मरूप प्रबना ही गृहस्थों की कुलपर्वा है, जिसे कुलधर्म भी कहते हैं
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युगवीर-निबन्धावली इज्यां वार्ता च दलिच स्वाध्यायं संयमं तप. । अतोपासकसूत्रस्थात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥२४॥ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषटकर्मानुप्रवर्तनम् ।।
गृहिणा कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मत ॥१४४॥ श्रीचामुण्डरायने चारित्रसारमे और विद्वद्वर प० प्राशाधरजीने सागारधर्मामृतमे भी इन्ही षट्कर्मोंका वर्णन किया है । इन षट्कमोंमें दान और पूजन, ये दो कर्म सबसे मुख्य हैं । इस विषयमे पं० प्राशाधरजी सागारधर्मामृत(१-१५) मे लिखते हैं
दान-यजन-प्रधानो ज्ञानसुधा श्रावकः पिपासुः स्यात् । अर्थात्-दान और पूजन, ये दो कर्म जिसके मुख्य हैं और ज्ञानाऽमृतका पान करनेके लिये जो निरन्तर उत्सुक रहता है वह श्रावक है । भावार्थ-श्रावक वह है जो कृषि-वाणिज्यादिको गौण करके दान और पूजन, इन दो कर्मोको नित्य सम्पादन करता है और शास्त्राध्ययन भी करता है। ___ स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य, ग्यणसार ग्रन्थमे, इससे भी बढकर साफ तौरपर यहांतक लिखते हैं कि बिना दान और पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं मकता या दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि ऐसा कोई श्रावक ही नही होसकता जिसको दान और पूजन न करना चाहिये।
दाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मो ण साबगो तेण विणा ।
झारणझयण मुक्ख जइधम्मो त विणा सोवि ।। १०॥ अर्थात्-दान देना और पूजन करना, यह श्रावकका मुख्य धर्म है। इसके बिना कोई श्रावक नहीं कहला मकता और ध्यान अध्ययन करना यह मुनिका मुख्य धर्म है । जो इससे रहित है, वह मुनि ही नही है। भावार्थ-मुनियोंके ध्यानाध्ययनकी तरह, दान देना और पूजन करना ये दो कर्म श्रावकोंके सर्व साधारण मुख्य धर्म और नित्यके कर्तव्य कर्म हैं।
ऊपरके वाक्योंसे भी जब यह स्पष्ट है कि पूजन करना गृहस्थ
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का धर्म तथा नित्य और श्रावश्यक कर्म है-बिना पूजनके मनुष्यजन्म निष्फल और गृहस्थाश्रम धिक्कारका पात्र है और बिना पूजनके कोई गृहस्थ या श्रावक नाम ही नहीं पा सकता, तब प्रत्येक गृहस्थ जेनीको नियमपूर्वक अवश्य ही नित्यपूजन करना चाहिये, चाहे वह अग्रवाल हो, खंडेलवाल हो या परवार आदि अन्य किसी जातिका, चाहे स्त्री हो या पुरुष, चाहे व्रती हो या प्रव्रती, चाहे बीसा हो या दस्सा और चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, सबको पूजन करना चाहिये। सभी गृहस्थ जेनी हैं, सभी श्रावक हैं, अत सभी पूजनके अधिकारी हैं ।
श्री तीर्थंकर भगवानकी अर्थात् जिस अर्हन्त परमात्माकी मूर्ति बनाकर हम पूजते हैं उसके समवसरण में भी, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या व्रती क्या अव्रती क्या ऊच और क्या नीच, सभी प्रकारके मनुष्य जाकर साक्षात् भगवानका पूजन करते हैं । और मनुष्य ही नही, समवसरणमे पचेन्द्रिय तियंच तक भी जाते हैं - समवसरणकी बारह सभामे उनकी भी एक सभा होती है, वे भी अपनी शक्तिके अनुसार जिनदेवका पूजन करते हैं। पूजन- फलप्राप्तिके विषयमे एक मेढककी कथा सर्वत्र जैनशास्त्रोमे प्रसिद्ध है । पुण्यास्रवकथाकोश. महावीर पुराण, धर्मसमभावकाचार श्रादि अनेक ग्रन्थोमे यह कथा विस्तार के साथ लिखी है और बहुतसे ग्रन्थोमे इसका निम्नलिखित प्रकार से उल्लेखमात्र किया है । यथा
अपरसपर्या महानुभाव महात्मनामवदत् ।
भेक. प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे || रत्नकरड १२० यथाशक्ति यजेतार्हद्द व नित्यमहादिभि. । संकल्पतोऽर्पितं यष्टा भेकवत्स्वर्महीयते । सागारध० २-२४ कथाका सारांश यह है कि जिस समय राजगृह नगरमें विपुलाचल पर्वतपर हमारे अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामीका समवसरर आया और उसके सुसमाचारसे हर्षोल्लसित होकर महाराजा
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युगवीर-निबन्धावली श्रेणिक मावद भेरीबजवाते हुए परिजन और पुरजन सहित श्रीवीरचिनेन्द्रकी पूजा और वन्दनाको चले, उस समय एक मेंढक भी, जो नागदत्त श्रेष्ठीकी बावड़ी में रहता था और जिसको अपने पूर्वजन्मकी स्त्री भवदत्ता को देखकर जातिस्मरण हो गया था, श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजाके लिये मुखमे एक कमल दबाकर उछलता और कूदता हुमा नगरके लोगोंके साथ समवसरणकी ओर चल दिया । मार्गमे महाराजा श्रेषिकके हाथीके पैर तले पाकर वह मेढक मर गया और पूजनके इस सकल्प और उद्यमके प्रभावसे, मर कर मौधर्म स्वर्गमे महद्धिक देव हुआ। फिर वह देव समवसरणमे आया और श्रीगणधरदेवके द्वारा उसका चरित्र लोगोको मालूम हुआ। इससे प्रगट है कि समवसरणादिमे जाकर तिर्यच भी पूजन करते और पूजनके उत्तम फलको प्राप्त होते है। ___ समवसरणको छोडकर और भी बहुतसे स्थानो पर तिर्यंचोंके पूजन करनेका कथन पाया जाता है । पुएबास्त्रब और पाराधनासारकथाकोशमे लिखा है कि धाराशिव नगरमे एक बबी थी,जिसमे श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी र नमयी प्रतिमा एक मजूषेमे रक्खी हुई थी। एक हाथो, जिसको जातिस्मरण होगया था, प्रतिदिन तालाबसे अपनी सू डमे पानी भरकर लाता और उस बैंबीकी तीन प्रदक्षिणा देकर बह पानी उसपर छोउता और फिर एक कमलका फूल चढाकर पूजन करता और मस्तक नवाता था। इस प्रकार वह हाथी श्रावकधर्मको पालता हुया प्रतिदिन उस प्रतिमाका पूजन करता था। जब राजा करकडुको यह समाचार मालूम हमा, तब उसने उस बँबीको खुदवाया और उसमेंसे बह प्रतिमा निकली । प्रतिमाके निकलने पर हाथीने सन्यास धारण किया और अन्तमे वह हाथी मरकर सहस्रारस्वर्गमे देव हुआ । इसी प्रकार तियंचोंके पूजन-सबधमे और भी अनेक कथाएँ हैं। जब तियंच भी पूजन करते पार पूजनके उत्तम फलको प्राप्त होते हैं, तब ऐसा कौन मनुष्याहो
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सकता है कि जिसको पूजन न करना चाहिये और जो भावपूर्वक जिनेन्द्रदेवका पूजन करके उत्तम फलको प्राप्त न हो ? अभिप्राय यह है कि प्रात्महितचिन्तक सभी प्राणियोंके लिये पूजन करना श्रेयस्कर है । इसलिये गृहस्थोको अपना कर्तव्य समझकर अवश्य ही नित्यपूजन करना चाहिये ।
पूजन के भेद
पूजन कई प्रकारका होता है । श्रादिपुराण, सागारधर्मामृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, चारित्रसार आदि ग्रन्थोंमे मिस्य', अष्टान्हिकर, ऐन्द्रध्वज 3, चतुर्मुख', और कल्पद्रुम", इसप्रकार पूजनके
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नित्यपूजन का स्वरूप प्रागे विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । २- ३ जिनाच क्रियते भव्यर्या नन्दीश्वर पर्व रिग ।
किसी सेन्द्राद्यं साध्या त्वन्द्रध्वजो मह || मागारधर्मा० अर्थात् नन्दीश्वर पर्व मे ( आषाढ, कार्तिक और फाल्गुरण इन तीन महीनो के अन्तिम आठ आठ दिनोमे) जो पूजन किया जाता है, उसको हिक पूजन कहते है और इन्द्रादिकदेव मिलकर जो पूजन करते हे, उसको 'ऐन्द्रध्वज' पूजन कहते है ।
४
महामुकुटबद्धस्तु क्रियमाणो महामह ।
चतुर्मुख स विज्ञेय सर्वतोभद्र इत्यपि ।। - - श्रादिपुराण भक्त्या मुकूटबद्धौर्या जिनपूजा विधीयते
तदाख्या सर्वतोभद्र - चतुर्मुख - महामहा ॥ - सागारध० अर्थात् - मुकुटवद्ध ( मांडलिक ) राजाओोके द्वारा जो पूजन किया जाता है, उसके नाम 'चतुमु' ख', 'सर्वतोभद्र' और 'महामह' है । ५ दत्वा किमिच्छुक दान सम्राभिर्य प्रवर्त्यते ।
कल्पवृक्षमह सोऽय जगदाशात्रपूरण || प्रादिपुराण किमिच्छन दानेन जगदाशा प्रपूर्य य
·
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युगवीर-निबन्धावली पांच मैद वर्णन किये हैं । वसुनन्दिश्रावकाचार और धर्मसंग्रहश्रावकाचार नामके ग्रन्थोंमें प्रकारान्तरसे नाम', स्थापना', द्रव्य',
पक्रिभिः क्रियते सोऽहंद्यज्ञ कल्पद्र मो मत ॥-सागारध० अर्थात्-याचकोको उनकी इच्छानुसार दान देकर जगतकी आशा को पूर्ण करते हुए चक्रवत्ति सम्राट द्वारा जो जिनेन्द्रका पूजन किया जाता है, उसको 'कल्पद्रुम' पूजन कहते हैं । १ उच्चारिऊरण गाम, अरुहाईण विसुद्धदेसम्मि ।
पुफ्फाईणि खिविजति विण्णेया णामपूजा सा ॥- वसुनन्दिश्रा० अर्थात्-अहंतादिकका नाम उच्चारण करके किमी शुद्ध स्थानमे जो पुष्पादिकक्षेपण किये जाते है, उसको नामपूजन कहते है ।
२ तदाकार वा अतदाकार वस्तु मे जिनेन्द्रादिके गुणोका अारोपण और मकल्प करके जो पूजन किया जाता है, उसको स्थापना पूजन कहते है । स्थापना के दो भेद है-१ सद्भावस्थापना और १ असद्भावस्थापना । अरहतोकी प्रतिष्ठाविधिको 'सदभावस्थापना' कहते है। ( स्थापना पूजनका विशेष वर्णन जानने के लिये देखो वसुनन्दिश्रावकाचार आदि ग्रन्य)। ३ दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा मा ।
दवेण गधसलिलाइपुव्वभरिगएण कायव्वा ।। तिविहा दव्वे पूजा मचित्ताचित्त मिस्मभेएरण । पच्चक्ख जिणाईण मचित्त पूजा जहाजोग्ग ।। तेसि च सरीराण दव्वसुदस्म वि अचित्त पूजा मा । जा पुण दोण्ह कीरइ णायव्वा मिस्मपूजा मा ।।-वसुनन्दिश्राव०
अर्थात्-द्रव्यसे और द्रव्यकी जो पूजाकी जाती है, उनको द्रव्यपूजन कहते है । जलचदनादिकसे पूजन करनेको द्रव्यसे पूजन करना कहते हैं और द्रव्यको पूजा सचित्त, अचित्त तथा मिश्रके भेदसे तीन प्रकार है । साक्षात् श्रीजिनेन्द्रदिके प्जनको 'सचित्त द्रव्यपूजन' कहते
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क्षेत्र, काल" और भाव', ऐसे छह प्रकारका पूजन भी वर्णित है।
है । उन जिनेन्द्रादिके शरीरो तथा द्रव्य तक पूजनको 'अ चित्त द्रव्य पूजन कहते हैं और दोनो के एक साथ पूजन करनेको 'मिश्रद्रव्यपूजन' कहते हैं । द्रव्यपूजनके आगमद्रव्य और नोश्रागमद्रव्य आदिके भेदसे और भी अनेक भेद है ।
४ जिराज रागमणि क्खवणगाण पत्ति मोक्यमपत्ती |
रिसिही मुखेत्त पूजा पुव्वविहारणेण कायव्वा ॥ वसुनदिश्रा अर्थात् -- जिन क्षेत्रोमे जिनेन्द्र भगवानव जन्म-तप-ज्ञान- निर्वारण कल्याणक हुए हैं, उन क्षेत्रोमे जलचदनादिकसे पूजन करनेको 'क्षेत्रपूजन' कहते है ।
५
o
गर्भादिपचकल्याण मर्हता यद्दिनेऽभवत् । तथा नन्दीश्वरे रत्नत्रय पर्व रिण चाऽर्श्वनम् ॥ स्नपन क्रियते नाना रसैरिक्षुघृतादिभि ।
तत्र गीतादिमाङ्गल्य कालपूजा भवेदियम् ॥ घर्मस ग्रहश्रा ० अर्थात् - जिन तिथियोमे अरहतो के गर्भ जन्मादिक कल्याणक हुए है, उनमे तथा नन्दीश्वर और रत्नत्रयादिक पर्वोमे जिनन्द्र देवका पूजन, इक्षुरस और दुग्ध - घृतादिक से अभिषेक तथा गीत, नृत्य और जागरणादि मागलिक कार्य करनेको 'कालपूजन' कहते हैं ।
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यदन तचतुष्काद्य विषाय गुणकीर्त्तनम् । त्रिकाल क्रियते देववन्दना भावपूजनम् ॥ परमेष्ठिपदैर्जाप क्रियते यत्स्वशक्तित ।
बार्हद्गुण स्तोत्र साप्यच भावपूर्विका ॥ पिस्थ च पदस्थ च रूपस्थ रूपवजितम् ।
ध्यायते यत्र तद्विद्धि भावार्चनमनुत्तरम् ॥ धर्म स ग्रहश्रा० अर्थात् --- जिनेन्द्र के अनन्त-दर्शन, मनन्त - ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्यादि गुणोकी भक्तिपूर्वक स्तुति करके जो त्रिकाल देववन्दान
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युगवीर-निबन्धावली परन्तु संक्षेपसे पूजनके नित्य और मैमित्तिक, ऐसे दो भेद हैं। अन्य समस्त भेदोंका इन्हीमें अन्तर्भाव है । 'अष्टान्हिक' आदिक चार प्रकारका पूजन नैमित्तिक पूजन कहलाता है और नामादिक छह प्रकारके पूजनोंमें कुछ नित्य कुछ नैमित्तिक और कुछ दोनो प्रकारके होते हैं। प्रतिष्ठा भी नैमित्तिक पूजनका ही एक प्रधान भेद है । तथापि नैमित्तिक पूजनोमे बहुतसे ऐसे भी भेद हैं जिनमें पूजनकी विधि प्राय नित्य पूजनके ही समान होती है और दोनोंके पूजकमे भी कोई भेद नही होता, जैसे अष्टान्हिक पूजन और काल पूजनादिक । इसलिये पूजनकी विधि आदिकी मुख्यतासे नित्यपूजन और प्रतिष्ठादिविधान, ऐसे भी दो भेद कहे जाते हैं और इन्ही भेदोकी प्रधानतासे पूजकके भी दो ही भेद वर्णन किये गये हैं-एक नित्य पूजन करनेवाला जिसको पूजक कहते हैं और दूसरा प्रतिष्ठा आदि विधान करनेवाला जिसको पूजकाचार्य कहते हैं । जैसा कि पूजासार और धर्मसग्रहश्रावकाचारके निम्नलिखित श्लोकोसे प्रगट है -
पूजक पूजकाचार्य इति द्वेधा स पूजक. ।। श्राद्यो नित्यार्चकोऽन्यस्तु प्रतिष्ठादिविधायकः ।। १६।।
- पूजासार
नित्यपूजा-विधायी य पूजक स हि कथ्यते । द्वितीय पूजकाचार्य प्रतिष्ठादिविधानकृत् ॥६-१४२।।
-धर्म म ग्रहश्रावकाचार चतुर्मुखादिक पूजन तथा प्रतिष्ठादि विधान सदा काल नहीं बन सकते और न सब गृहस्थ जैनियोंसे इनका अनुष्ठान हो सकता की जाती है, उसको तथा शक्तिपूर्वक पचपरमेष्ठिके जाप वा स्तवनको और पिडस्थ, पवस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यामको भावपूजन कहते हैं । ( पिंडस्थादिक ध्यानोका स्वरूप ज्ञानार्णवादिक ग्रन्थोमे विस्तारके साथ वर्णन किया है, कहाँसे जानना चाहिये ।)
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जिन-पूजाधिकार-मीमांसा
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-क्योकि कल्पद्रुम पूजन चक्रवर्त्ति ही कर सकता है, चतुर्मुख पूजन मुकुटवद्ध राजा ही कर सकते हैं, ऐन्द्रध्वज पूजाको इन्द्रादिक देव ही रचा सकते हैं, इसी प्रकार प्रतिष्ठादि विधान भी खास खास मनुष्य ही सम्पादन कर सकते हैं- इसलिये सर्वसाधारण जैनियोंके वास्ते नित्यपूजनकी ही मुख्यता है । ऊपर उल्लेख किये हुए प्राचार्यो प्रादिके वाक्योंमें 'दिने दिने' और 'अन्वह' इत्यादि शब्दोंद्वारा नित्यपूजनका ही उपदेश दिया गया है। इसी नित्य पूजन पर मनुष्य, तियंच, स्त्री, पुरुष, नीच, ऊँच, धनी, निर्धनी, व्रती, प्रव्रती राजा, महाराजा, चक्रवति और देवता, सबका समान अधिकार है श्रर्थात् सभी नित्यपूजन कर सकते हैं।
नित्यपूजनको नित्यमह, नित्याऽर्चन और सदाचंन इत्यादि भी कहते हैं । नित्यपूजनका, मुख्य स्वरूप भगवज्जिनसेनाचार्यने श्रादिपुराण मे इस प्रकार वर्णन किया है।
तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानाच गन्धपुष्पाक्षतादिका ॥
-प्र० ३८, ग्लो० २७
अर्थात् - प्रतिदिन अपने घरसे जिनमंदिरको गध, पुष्प, अक्षतादिक पूजनकी सामग्री ले जाकर जो जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना है उसको नित्यपूजन कहते हैं । धर्मसग्रहश्रावकाचार मे भी नित्यपूजनका यही स्वरूप वरिंगत है । यथा
-
अल्लाच धवाङ्गान्नीतैर्जिनालयम् ।
दन्ते जिना युक्त्या नित्यपूजाऽभ्यधायि सा ॥ -- श्र० ६ श्लो० २७ प्रतिदिन क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या बालक, क्या बालिका - सभी गृहस्थ जन अपने अपने घरोंसे जो बादाम, छुहारा, लौंग, इलायची या अक्षत ( चावल ) श्रादिक लेकर जिनमंदिरको जाते हैं और वहा उस द्रव्यका, जितेन्द्र देवादिको स्तुतिपूर्वक नामादि उच्चारण करके,
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युगवीर-निबन्धावली जिनप्रतिमाके सन्मुख चढ़ाते हैं, वह सब नित्यपूजन कहलाता है। नित्यपूजनके लिये यह कोई नियम नहीं है कि वह अष्टद्रव्यसे ही किया जावे या कोई खास द्रव्यसे या किसी खास सख्या तक पूजाएँ की जावे, बल्कि यह सब अपनी श्रद्धा, शक्ति और रुचिपर निर्भर है कोई एक द्रव्यसे पूजन करता है, कोई दोसे और कोई आठोसे, कोई थोडा पूजन करता और थोडा समय लगाता है, कोई अधिक पूजन करता और अधिक समय लगाता है, एक समय जो एक द्रव्यसे पूजन करता है वा थोडा पूजन करता है दूसरे समय वही अष्टद्रव्यसे पजन करने लगता है और बहतसा समय लगाकर अधिक पजन करता है। इसीप्रकार यह भी कोई नियम नहीं है कि मदिरजीके उपकरणोमे और मदिरजीमें रक्खे हुए वस्त्रोको पहिनकर ही नित्य पूजन किया जावे। हम अपने घरसे शुद्ध वस्त्र पहिनकर और शुद्ध बर्तनोमे सामग्री बनाकर मदिरजीमे ला सकते हैं और खुशीके साथ पूजन कर सकते हैं। जो लोग ऐसा करनेके लिये असमर्थ हैं या कभी किसी कारणसे ऐसा नहीं कर सकते हैं. वे मदिरजीके उपकरण
आदिसे अपना काम निकाल सकते हैं इसीलिये मदिरोमे उनका प्रबंध रहता है। बहुतसे स्थानोपर श्रावकोंके घर विद्यमान होते हुए भी कमसे कम दो चार पूजाप्रोके यथासभव नित्य किये जानेके लिये, मदिरोंमें पूजन सामग्रीके रक्खे जानेकी जो प्रथा जारी है उसको भी आज कलके जैनियोके प्रमाद. शक्तिन्यूनता और उत्साहाभाव आदिके कारण एक प्रकारका जातीय प्रबध कह सकते है, अन्यथा, शास्त्रोमे इस प्रकारके पूजन सबधमे, आमतौरपर अपने घरसे सामग्री लेजाकर पूजन करनेका ही विधान पाया जाता है। जैसा कि ब्रह्मसूरिकृत् त्रिवर्णाचारके निम्नलिखित वाक्यसे भी प्रगट है -
ततश्चैत्यालयं गच्छेत्सर्वभव्यप्रपूजितम् । जिनादिपूजायोग्यानि द्रव्यारयादाय भक्तित.।।
-अ. ४-१६० ।
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जिन पूजाधिकार-मीमासा अर्थात्--संध्यावन्दनादिके पश्चात् गृहस्थ, मधिपूर्वक जिनेन्द्रादिके पूजनके योग्य द्रव्योंको लेकर, समस्त भव्यजोबो द्वारा पूजित श्रीजिनम.दरजी जावे । भावार्थ-गृहस्थोको जिनमं.दरमें पूजनके लिये पूजनोचित द्रव्य लेकर जाना चाहिये । परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि बिना द्रव्यके मदिरजीमें जाना ही निषिद्ध है, जाना निषिद्ध नहीं है । क्योंकि यदि किसी अवस्थामें द्रव्य उपलब्ध नहीं है तो केवल भावपूजन भी हो सकता है। तयापि गृहस्थोंके लिये द्रव्यसे पूजन करनेकी अधिक मुख्यता है। इसीलिये निन्यपजनका ऐसा मुख्य स्वरूप वर्णन किया गया है। __ ऊपर नित्यपूजनका जो प्रधान स्वरूप वर्णन किया गया है,उसके अतिरिक्त जिनाबम्ब और जिनालय बनवाना, जिनमदिरके खर्चके लिये दानपत्र-द्वारा ग्राम-गृहादिकका मदिरजीके नाम करदेना तथा दान देते समय मुनीश्वरोका पूजन करना. यह सब भी नि यपूजनमें ही दाखिल (परिगृहीत) है ।" जैसा कि आदिपुराण पर्व ३८ के निम्नलिखित वाक्योंसे प्रगट है -
'चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापण च यत । शासनीकृत्य दान च प्रामादीनां मदाऽर्चनम् ।।२८॥ या च पूना मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी। स च निस्यमहो शेयो यथाशक्त्युपकरिश्तः ॥२६॥ श्रीमागारधर्मामृतमें भी नित्यपूजनके सम्बधमें समय ऐसा ही वर्णन पाया जाता है, बल्कि इतना विशेष और मिलता है कि अपने घरपर या मदिरजीमें त्रिकालदेववदना-अरहतदेवकी आराधना
१. इन दोनो श्लोकोका प्राशय वही है जो ऊपर अतिरिक शब्द के अनागर " " । मध्य दिया गया है ।
२. मदिपुराण उक्त श्लोक न २७, २८, २९ क अनुसार। , ३ भादिपुराणमें पूजन । अन्य चार भेदोका वर्णन करने के अनन्तर
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इध
करने को भी नित्यपूजन कहते हैं। यथा
युगवीर-निबन्धावली
प्रोका नित्य महोऽन्वहं निजगृहान्नीतेन गन्धादिना । पूजा चैत्यगृहेऽर्हत' स्वविभव श्वत्यादिनिमोपणम् ॥ भक्त्या प्रामगृहादिशासनविधादान त्रिर्मध्याश्रया । सेवा स्वैपि गृहेऽर्चन च यमिना नित्यप्रदानानुगम् ॥। २-२५
धर्मसंग्रहश्रावकाचार मे भी 'त्रिसंध्यं देववनम्' इस पदके द्वारा वे अधिकारके श्लोक न २६ में, त्रिकाल देवव दनाको नियपूजन वर्णन किया है । और त्रिकाल देववन्दना ही क्या, 'बलि, अभिषेक (न्हवन) गीत, नृत्य वादित्र भारती और रथयात्रादिक जो कुछ भी नि य और नैमत्तिकपूजनके विशेष हैं और जिनको भक्त पुरुष सम्पादन करते हैं, उन सबका नि याद पच प्रकारके पूजनमे अन्तर्भाव निर्दिष्ट होनेसे, उनमेंसे जो नि य किये जाते है या निय किये जानेको है, वे भी नि यपूजन मे समाविष्ट हैं। जैसा कि निम्नलिखित प्रमाणोसे प्रगट है
w
बलिस्नपन्ना याद नित्य नैमित्तिक च यत् । भक्ता कुर्वन्ति तेष्वेव तद्यथास्व विकल्पयेत् ॥
- सागारधर्मा० २ -२०
बलिस्नपनमित्यन्यस्त्रिमध्या सेवया ममम् । उक्त वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच तादृशम् || - श्रादिपुराण ३८-३३
ऊपर के इस वथनसे यह भी स्पष्टरूपसे प्रभा एत होता है कि अपने पूज्य के प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्त्तनका नाम ही पूजन है । पूजा भक्ति, उपासना और सेवा इत्यादि शब्द भी प्रायः एकाथवाची है और उसी एक प्राशय और भावके द्योतक है। इसप्रकार पूजनका
श्लोक न. ३३ मे त्रिकाल - देववन्दनाका वर्णन 'त्रिसघ्यावया समम्' इस पद के द्वारा किया है ।
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जिन-पूजाविकार-मीमांसा स्वरूप समझकर किसी भी गृहस्थको नि.यपू-न करनेसे नहीं चूकना चाहिये। सबको मानद और भाक्तके साथ नि.यपूजन अवश्य करना चाहिये।
शदाऽधिकार ___ यहाँपर, जिनके हृदयमे यह प्राशका हो कि, शूद्र मी पूजन कर सकते हैं या नहीं? उनको समझना चाहिये कि जब तियंच भी पूजनके अधिकारी वर्णन किये गये हैं तब शूद्र. जो कि मनष्य है
और तियंचोंसे ऊंचा दर्जा रखते हैं, कैसे पूजनके अधिकारी नहीं हैं? क्या शुद्ध जेनी नहीं हो सकते ? या श्रावकके व्रत धारण नहीं कर सकते ? जब शूद्रोको यह सब कुछ अधिकार प्राप्त है और वे श्रावक के बारह व्रतोको धारणकर ऊँचे दर्जेके श्रावक बन सकते है और हमेशासे शूद्र लोग जैनी ही नहीं; किन्तु ऊँचे दर्जेके श्रावक (क्षल्लक) तक होते आये हैं, तब उनके लिये पूजनका निषेध कैसे हो सकता है ? श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजके 'वचनानुसार, जब बिना पूजन के कोई श्रावक हो ही नहीं माता, और शूद लोग भी श्रावक जरूर होते है, तब उनका पजन का अधिकार बन मिद्ध है। ___ भगवानके समवसरणमें, जहाँ तिर्य व भी जाकर पूजन करते है, वहाँ जिसप्रकार अन्य मनुष्य जाते हैं उसीप्रकार शूद्रलाग भी जाते हैं
और अपनी शक्तिके अनुसार भगवानका पूजन करते है। श्रीजिनसनाचार्यकृत हरिवशपुराणमे,महावीरस्वामीके समवसरणका वर्णन करते हुए, लिखा है-समवसरणमें, जब श्रामह वीरम्वामीन मुनधर्म और श्रावकधमका उपदेश दिया, तो उसको सुनकर बहुतसे ब्राह्मण क्षात्रय
और वैश्य लोग मनि होगये और चारो वर्णोके स्त्रीपुरुषोने अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्रोंने, श्रावकके बारह व्रत धारण किये। इतना ही नहीं, किन्तु उनकी पवित्रवाणीका यहाँतक प्रभाव पड़ा कि कुछ तियंचोंने भीश्रावकके व्रत धारण किये।' इससे, पूजा-क-दनापौर
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युगवीर-निबन्धावली धर्मववरणके लिये शूद्रोका समवसरणमें जाना प्रगट है । शूद्रोंके पूजनसम्बधमें बहुतसी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। पुण्यालयकथाकोशमें लिखा है कि 'एक माली (शूद्र) की दो कन्याए, जिनका नाम कुसुमावती और पुष्पवती था, प्रतादन एक एक पुष्प जिनम देरकी देहलीपर चढ़ाया करती थी । एक दिन बनसे पुष्प लाते समय उनको स ने काट खाया
और वे दोनो कन्याएं मरकर, इस पूजनके फलसे, सौधर्मस्वगमें देवी - हुई।' इसी शास्त्रमे एक पशु चरानेवाले नीचकुली ग्यालेका भी कथा लिखी है. जिसने सहस्रकूट चैत्यालयमे जाकर, चुपकेसे नहीं किन्तु राना, सेठ और मुगुनि नामक मुनिराजकी उपस्थिति ( मौजुदगी) में, एक बृहत् कमल श्रीजिनदेवके चरणोमे चढाया, और इस पूजनके प्रभावसे अगले ही जन्ममें महाप्रतापी राजा करकडु हा यह कथा श्रोबाराधनासारकथाकोशमे भी लिखी है । इस प्रथमें ग्यालेकी पजन-विधिका वर्णन इसप्रकार किया है -
तद। गापालक. माऽपि स्थित्वा श्रीर्माजनापत । 'भा' सर्वो-कृष्णा में पद्म ग्रहाणामति' स्फुटम् ॥१४॥ उक्त्वा जिनेंद्रपादाब्जोपरि क्षिप्त्वाशु पकजम । गतो, मुग्धजनानां च भवेत्सत्कर्म शर्मदम् ॥१६॥
-करकडुकथा अर्थात्-जब सुगुप्तिमुनिके द्वारा ग्वालेको यह मालूम हो गया कि सबसे उत्कृष्ट जिनदेव ही हैं तब उस ग्वालेने, श्रीजिनेंद्रदेवके स मुख खडे होकर और यह कहकर कि 'हे सर्वोत्कृष्ट ! मेरे इस कमलको स्वीकार करो'वह कमल श्रीजिनदेवके चरणोपर चढा दिया और इसके पश्चात् वह ग्वाला मदिरसे चला गया। ग्रन्थकार कहते हैं कि मला काम (स कर्म) मूर्ख मनुष्योको भी सुखका देनेवाला होता है। इसी प्रकार शूद्रोंके पूजन सम्बन्धमें और भी बहुतसी कथाऐ हैं। ___ कथानोंको छोडकर जब वर्तमान समयकी ओर देखा जाता है, तब भी यही मालूम होता है कि, आज कल भी बहुतसे स्थानोंपर
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जिन-पूजाधिकार-मीमांसा
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शूद्रलोग पूजन करते हैं। जो जेनी शूद्र हैं या शूद्रोंका कर्म करते हुए जिनको पीढ़याँ बीत गईं, वे तो पूजन करते ही हैं, परन्तु बहुतसे ऐसे भी शूद्र हैं जो प्रगटरूप या व्यवहारमें जैनी न होते या न कहलाते हुए भी किसी प्रतिमा वा तीर्थस्थानके अतिशय (चम कार / पर मोहित होने के कारण उन स्थानोपर बराबर पूजन करते हैं- चादनपुर ( महावीरजी), केसरियानाथ आदिक अतिशय क्षेत्रो और श्रीसम्मेद - शिखर, गिरनार आदि तीर्थस्थानोपर ऐसे शूट पूजकों की कमी नही है । ऐसे स्थानोपर नीच ऊँच सभी जातियाँ पूजनको प्रती और पूजन करती हुई देखी जाती हैं । जिन लोगोको चैत के मेले पर चादनपुर जानेका सुअवसर प्राप्त हुआ है, उन्होने प्रत्यक्ष देखा होगा अथवा जिनको एसा अवसर नहीं मिला वे जाकर देख सकते हैं कि चैत्र शुक्ला चतुर्दशीसे लेकर ३-४ दिन तक कैसी कैसी नीच जातियोके मनुष्य श्रौर कितने शूद्र अपनी अपनी भाषा में अनेक प्रकारकी जय बोलते आनंदमें उछलते और कूदते, मंदिरके श्रीमहमें घुस जाते हैं और वहाँ पर अपने घर से लाये हुए द्रव्यको चढाकर तथा प्रदक्षिणा देकर मंदिरसे बाहर निकलते हैं। बल्कि वहाँ तो रथो सवके समय यहांतक होता है कि मंदिरका व्यासमाली, जो चढी हुई सामग्री लेनेवाला और निर्माल्य मक्षरण करनेवाला है, स्वयं वीरभगवानकी प्रतिमाको उठाकर रथमें विराजमान करता है ।
यदि शूद्रोका पूजन करना असत्कर्म (बुरा काम ) होता और उससे उनको पापबन्ध हुआ करता, तो पशुचरानेवाले नीचकुली ग्वाले को कमलके फूलसे भगवानकी पूजा करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति न होती और मालीकी लडकियोको पूजन करनेसे स्वर्ग न मिलता । इसीप्रकार शूद्रोंसे भी नीच पद धारण करनेवाले मेढक जैसे तियंच ( जानवर) को पूजनके संकल्प और उद्यम मात्रसे देवर्गातकी प्राप्ति ब होती [क्योंकि जो काम बुरा है उसका संकल्प और उद्यम भी बुरा ही होता है अच्छा नहीं हो सकता ] और हाथीको, अपनी सूडमें
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युगवीर-निबन्धावली पानी भरकर अभिषेक करने और कमलका फूल चढाकर बॉबीमें स्थित प्रतिमाका नित्यपूजन करनेसे अगले ही जन्ममें मनुष्यभवके साथ साथ राजपद और राज्य न मिलता। इससे प्रगट है कि शूलोंका पूजन करना असत्कर्म नहीं हो सकता, बाल्क वह सत्कर्म है। माराधनासारकथाकोश,मे भी ग्वालेके इस पूजन-कर्मको सत्कर्म ही लिखा है, जैसा कि कार उल्लेख किये हुए श्लोक न १६ के चतुर्थ पदसे प्रगट है। ' इन सब बातोके अतिरिक्त जैनशास्त्रोमे शूद्रोके पूजनके लिए स्पष्ट आज्ञा भी पाई जाती है। धर्मस प्रहश्रावकाचारके स्वे अधिकारमे लिखा है -
यजन याजन कर्माऽध्ययनाऽध्यापन तथा । दान प्रतग्रहश्चति षद की द्विजन्मनाम् ॥ २२५॥ यजनाऽध्ययन बान परषा त्राण ते पुन । जानि-ना-मेदन
द्विब्राह्मगादय ॥२०॥ अर्थात् ब्राह्मरगोके पूजन करना पूजन कराना, पढना पढाना दान दना, श्रार दान लेना ये छह कम है । शेष क्षत्रिय, वश्य और शूद्र इन तीन वर्गों के पूजन करना पढना और दान देना ये तीन कम है । और वे ब्राह्मणादिक जाति और तीर्थके भेदसे दो प्रक,रके है। इससे साफ प्रगट हे कि पूजन करना जिस प्रकार ब्राह्मण क्षत्रिय पार पश्योका धार्मिक कर्म है उसी प्रकार वह शूद्राका भी धार्मिक कम है।
इसी ग्रहश्राबवाचारके हब अधिकारके श्लोक न. १४२ में, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, श्रीजनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवालेके दो भेद वर्णन किये है-एक नि यपूजन करनेवाला जिस को पूजक कहते हैं। और दूसरा प्रतप्ठादि विधान करनेवाला. जिसको 'पूजकाचार्य' कहते हैं । इसके पश्चात् दो श्लोकोमें, ऊंचे दर्जे के नित्यपूजकको लक्ष्य करके, प्रथम भेद अर्थात् पूजकका स्वरूप झा
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रित प्रजाधिकार-सीमासा प्रकार वर्मन किया है :
बामणादि चतुर्वर्य प्राध शीलवतान्धित । मत्यशोचहाचारो हिमायवनदूरगः ॥ १४३ ।। जात्या कुलेन पूनारमा शुचिर्वन्धु मुहम्जनः । गुरूपदिष्टमत्रप युक्तः स्यादेष पूजक ।। १४४ ।। अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वरामसे किसी भी वर्णका धारक, जो दिग्विति, देशविरति, अनथदड वरति, सामायक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपारमाण और प्रातथिस.वभाग, इसप्रकार सप्तशील व्रतसे युक्त हा, सत्य पर शोचका दृढतापूर्वक (निरातचार ) आचरण करनवाला · सत्यवान्, शौचवान् श्रीर हढाचारी हो हिसा, भूठ, चोरी, कुशील और पारग्रह, इन पाँच अवतो ( पापो ) से रहित हो, जाति और कुलसे पवित्र हो, बन्धुमित्रादिकसे शुद्ध हो और गुरु उपदेशित मत्रसे युक्त हो या ऐसे मत्रसे जिसका सस्कार हुमा हो, वह उत्तम पूजक कहलाता है।।
इसीप्रकार पूनामार ग्रन्थमें भी पूजकके उपयुक्त दोनो भेदोंका कथन करके, निम्न लिखित दो श्लोकोमें नि-यपूजकका, उत्कृष्टापेक्षासे प्राय समस्त यही स्वरूप वर्णन किया है -
ब्राह्मण क्षत्रियो वैश्य शदो नाऽऽद्य. मुशालावान् । हडवता हाचार मत्य गौवनमन्दिन ।। १७ ।। कुले न जात्या सशुद्धा मित्रबन्ध्यादिभि शुचि.। गुरूादिष्टमबाढय प्राविधादिदग।। १८॥
ऊपरके इन दोनो ग्रन्थोके प्रमाणोसे भली भांति स्पष्ट है कि, भद्रोको भी श्रीजिनेंद्रदेवके पूजनका अधिकार प्राप्त है और वे भी निल्य-पूजक होते हैं। साथ ही इसके यह भी प्रगट है कि शूद्र लोग साधारण पूजक ही नहीं, बल्कि उचे दर्जे के नि यपूजक भी होते हैं।
..यहाँपर यह प्रश्न उठ सकता है कि, ऊपर जो पूजन का स्वरूप वर्णन किया गया है वह पूजक मात्रका स्वरूप न होकर, ऊचे दर्जक
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युगवीर-निबन्धावली नियपूजक्का ही स्वरूप है या उत्कृष्टकी अपेक्षा कथन किया गया है यह सब किस आधारपर माना जावे ? इसका उत्तर यह है कि धर्मसंग्रहश्रावकाचारके श्लोक न.१४४ में जो 'ष' शब्द पाया है वह उत्तमताका वाचक है। यह शब्द 'एनद्' शब्दका रूप न होकर एक पृथक् ही शब्द है। वामन शिवगम प्राप्त कृत कोशमें इस शब्दका अर्थ अग्रेजीमें desirable और 'o be desirrd किया है। सस्कृमें इसका अर्थप्रशस्त प्रशंसनीय और उत्तम होता है । इसी प्रकार पूजासार ग्रन्थके श्लोक न० २८ मे जहाँपर पूजक और पूजकाचार्य का स्वरूप समाप्त किया है वहाँपर, अन्तिम वाक्य यह लिखा है कि 'एवं लक्षणवानार्यो जिनपूजासु शस्यने' (अर्थात ऐसे लक्षणोसे लक्षित आयपुरुष जिनेन्द्रदेवको पूजामे प्रशंसनीय कहा जाता है।) इस वाक्यका अन्तिम शब्द 'शस्यते' साफ बतला रहा है कि पर जो स्वरूप वर्णन किया है वह प्रशस्त और उत्तम पूजक्का ही स्वरूप है। दोनो ग्रन्थोमें इन दोनो शब्दोंसे साफ प्रगट है कि यह स्वरूप उत्तम पूजकका ही वर्णन किया गया है। परन्तु यदि ये दोनो शब्द ( एष और शस्यते ) दोनो ग्रन्थोन भी होते या थोडी देरके लिये इनको गौरण किया जाय तब भी ऊपर कथन किये हुए पूजनसिद्धान्त, प्राचार्योके वाक्य और नि यपूजनके स्वरूपपर विचार करनेसे यही नतीजा निकलता है कि यह स्वरूप ऊचे दर्जेके नित्य पूजकको लक्ष्य करके ही लिखा गया है । लक्षणसे इसका कुछ सम्बध नहीं है। क्यो.क लक्षण लक्ष्यके सर्वदेशमें व्यापक होता है । ऊपरका स्वरूप ऐसा नहीं है जो साधारणसे साध रण पूजकमें भी पायाजावे, इसलिये वह कदापि पूजककालक्षण नहीं होसकता। याद ऐसा न माना जाय-अर्थात् इसको ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका स्वरूप स्वीकार न किया जावे, बल्कि नि यपूजक मात्रका स्वरूप वा दूसरे शब्दोंमें पूजकका लक्षरण माना जावे तो इससे आजकलके प्राय किसी भी जैनीको पूचनका माधकार नहीं रहता, क्योंकि सप्तशीलव्रत और हिसादिक
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जिन-पूजाधिकार-मीमांसा पंच पापोंके त्यागरूप पंच अणुव्रत, इसप्रकार श्रावकके बारह व्रतोंका पूर्णतया पालन दूसरी (वत) प्र.तमामें ही होता है और वर्तमान जौनयोमे इस प्रतिमाके धारक दो चार त्यागियोको छोडकर शायद कोई बिरले ही निकले। इसके सिवाय जैनसिद्धान्तोंसे बडा भारी विरोध आता है। क्योंकि जनशास्त्रोमें मुख्यरूपसे श्रावक्के तीन भेद वणन किये हैं:
१ पाक्षिक, २ नैष्ठिक और ३ साधक । श्रावकधम जिसका पक्ष और प्रतिज्ञाका विषय है, श्रावकधर्मको जिसने स्वीकार कर रखा है और उसपर आचरण करना भी प्रारम कर दिया है, परन्तु उस धर्मका निर्वाह जिससे यथेष्ट नहीं होता, उस प्रारब्ध देशसयमीको 'पाक्षिक कहते हैं । जो निरतिचार आवकधर्मका निर्वाह करनेमें तत्पर है उसको नैष्ठिक' कहते हैं और जो प्रात्मध्यानमें तत्पर हुमा समाधिपूर्वक मरण साधन करता है उसको 'साधक' कहते हैं। नैष्ठिक श्रावकके दक्ष नक व्रतिक आदिक ११ भेद हैं जिनको १५ प्रतिमा भी कहते हैं दूसरी प्रतिमावाले प्रतिक श्रावकसे पहली प्रतिमावाला और पहिली प्रतिमावालेसे पाक्षिक श्रावक नीचे दर्जेपर होता है। दूसरे शब्दोमें यो कहिये कि पाक्षिभावक, मूल भेदोकी अपेक्षा, दर्शनिकसे एक और व्रतिकसे दो दर्जे नीचे होता है अथवा उसको सबसे घ.टया दर्जेका श्रावक कहते हैं। परन्तु शास्त्रोमें जातकके समान, दर्शानक हीकोनही, किन्तु पाक्षिकको भी पूजनका अधिकारी वर्णन किया है, जैसा कि धर्मसग्रहश्रावकाचार (अ०५) में निम्नलिखित श्लोको-द्वारा उनके स्वरूप-कथनसे प्रगट है:
सम्यम्हाष्ट मातिचारमूलाणुव्रतपालक । * "पाक्षिकादिभिदा रेषा श्रावकस्तत्र पाक्षिक । तबर्मगृह्यस्तनिष्ठो नैष्ठिकः साधक. स्वयुक।। २० ।।
-सागारपर्मामृत
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मुगबीर-निबन्धावली अदिनितस्त्वप्रपद कांक्षी हि अक्षिकः ॥४॥ पाषिकाचारमम्पत्त्या निर्मलीकृतदर्शन. । विरको भवभोगाभ्यामहदादिपदार्चक ॥ २४ ॥ मलान्मूलगुणानां निर्मलयनप्रिमोत्सुक । न्याय्यां वा वपु स्थित्यै दधदर्शनिको मत ॥ १५ ॥
ऊपरके श्लोकोंमें, अर्चादिनिरत (पूजनादिमें तत्पर) इस पदसे, पाक्षिश्रावक के लिये पूजन करना जरूरी रक्खा है । और 'अहंदादिपदाऽचक ' (अर्हन्तादिकके चरणोका पूजनेवाला) इस पदसे दर्शानक श्रावकके लिये पूजन करना आवश्यक कर्म बतलाया है । मागारधर्मामृतके दूसरे अध्यायमें जिसका अर्मा तम काव्य, मैष प्राथमल्पिक' ' इत्यादि है, पाक्षिकश्रावकका सदाचार वर्णन किया है । उसमे भी, “यजेत देव सेवेत गुरुन् " इत्यादि श्लोको द्वारा, पानि कथाव के लिये नि यपूजन करनेका विधान किया है । भगवजिनरेनाचार्य भी पादपुराणमे निम्नलिखित श्लोक-द्वारा सूचित करते हैं कि, पूजन करना प्राथमकल्पिकी (पाक्षिकी) वृत्ति अर्थात् पाक्षिकश्रावकका कर्म वा श्रावकमात्रका प्रथम कर्म है । यथा -
पवविधविधानेन महेज्या निनेशिनाम। विधिज्ञाम्तामशन्तीज्यां वृत्ति प्राथमकल्पिकीम ॥ १८-३४
यह तो हई पाक्षिकश्रावककी बात, अब प्रविग्नम्म्यम्ह ष्टको लीजिये, अर्थात् ऐसे सम्यग्दृष्टिको लीजिये जिसके क्सिी प्रकारका कोई व्रत होना तो दूर रहा व्रत या संयमका आचरण भी अभीतक जिसने प्रारंभ नही किया। जैनशास्त्रों में ऐसे अव्रतीको भी पूजनका अधिकारी वर्णन किया है। प्रथमानुयोगके ग्रन्थोसे प्र ट है कि स्वर्गादिकके प्रायः समीदेव. देवागनासहित,समवसरणादिमें जाकर साक्षात् श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन करते हैं, नन्दीश्वर दूपादिकमे जाकर जिनबिम्बोंका अर्चन करते हैं और अपने विमानोंके चौयालयोंमें नित्यपूजन
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जिन-पूजाधिकार-मीमासा करते हैं। जगह जगह शास्त्रोंमें नियमपूर्वक उनके पूजनका विधान पाया जाता है। पर तु वे सब 'अवती' ही होते हैं-उनके किसी प्रकारका कोई व्रत नहीं होता । देवोंको छोड़कर अवता मनुष्योके पूजनका भी कथन शास्त्रोमें स्थान स्थानपर पाया जाता है। समवसरणमें अवती मनुष्य भी जाते हैं और जिनवारणीको सुनकर उनमेंसे बहुतसे व्रत ग्रहण करते हैं, जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुए हरिबशपुराणके कथनसे प्रगट है। महाराजा श्रेणिक भी अव्रती ही थे, जो निरन्तर श्रावार राजनद्रके समवसरणमें जाकर भगवानका साक्षात् पूजन किया करते थे और जिन्होने अपना राजधानामे स्थान स्थानपर अनेक जिनमदिर बनवाये थे, जिसका कथन हारवशघुगणादिकमें मौजूद है। मागारधर्मामृतमें पूजनके फलका वर्णन करते हुए साफ लिखा है कि
हकपूनमपि गटारमहनोऽभ्यायश्रिय.। प्रयन्त्यपूर्विका किं पुनर्वनभूषितम् ।। ३२ ।।
अर्थात्-अहंतका पूजन करनेवाले अविरतसम्यग्दृष्टिको भी पूजा, धन आज्ञा, ऐश्वर्य, बल और पारजनादिक सम्पदाएँ मैं पहले, ऐसी शीघ्रता करती हुई प्राप्त होती हैं। और जो व्रतसे भूषित है उसका कहना ही क्या ? उसको तो वे सम्पदाएँ और भी विशेषताके साथ प्राप्त होती हैं। ___ इससे यहो सिद्ध हुमा कि-धर्म पहनावकाचार और पूजासारमें वरिणत पूजकके उपर्य क स्वरूपको पूजकका लक्षण माननेसे जो वतीश्रावक दूसरी प्र तमाके धारक हो पूजनके अधिकारी ठहरते थे, उसका आगमसे विरोध आता है। इसलिये वह स्वरूप पूजकमात्रका स्वरूप नही है, किन्तु ऊचे दर्जे के नि यपूजकका ही स्वरूप है। और इसलिये शूद भी ऊचे दर्जेका नित्यपूजक हो सकता है।
यहाँपर इतना और भी अगट कर देना जरूरी है कि, जैन बास्को प्रावरण-सम्बधी कथनशैलीका लक्ष्य प्राम. उत्कृष्ट ही
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युगवीरनिबन्धाबली रक्खा गया मालूम होता है । प्रत्येक ग्रन्थमे उत्कृष्ट, मध्यम मौर जघन्यरूप समस्त मेदोका वर्णन नहीं किया गया है। किसी किसी प्रन्थमें ही यह विशेष मिलता है । अन्यथा, जहाँ तहाँ सामान्यस्पसे उत्कृष्टका ही क्थन पाया जाता है । इसके कारणो पर जहाँतक विचार किया जाता है तो यही मालूम होता है कि, प्रथम तो उत्कृष्ट
आचरणकी प्रधानता है । दूमरे, समस्त भेद-प्रभेदोका वर्णन करनेसे मन्थका विस्तार बहुत ज्यादह बढ़ता है और इस ग्रन्थ-विस्तारका भय सदा ग्रन्थकर्तामोको रहता है। क्योकि विस्तृत अन्यके सम्बधमें पाठकोमें एक प्रकारकी अरुचिका प्रादुर्भाव हो जाता है और सर्व साधारणकी प्रवृत्ति उसके पठन-पाठनमें नहीं होती। तथा ऐसे ग्रन्थका रचना भी कोई आसान काम नहीं है-समस्तविषयोका एक ग्रन्थमें समावेश करना बडा ही दुसाध्य कार्य है। इसके लिये अधिक काल अधिक अनुभव और अधिक परिश्रमकी सविशेषरूपसे प्राक्श्यकता है। तीसरे, ग्रन्थोकी रचना प्राय ग्रन्थकारोकी चपर हा निर्भर होती है कोई ग्रन्थकार सक्षेपप्रिय होते हैं और कोई विस्तारप्रिय-उनकी इच्छा है कि वे चाहे, अपने ग्रन्थमें, जिस विषयको मुख्य रक्खें और चाहे जिस विषयको गौरण । जिस विषयको अन्यकार अपने ग्रन्थमें मुख्य रखता है उसका प्राय विस्तारके साथ वर्णन करता है और जिस विषयको गौरण रखता है उसका सामान्यरूपसे उत्कृष्टकी अपेक्षा कथन कर देता है। यही कारण है कि कोई विषय एक ग्रन्थमें विस्तारके साथ मिलता है और कोई दूसरे ग्रन्थमें । बल्कि एक विषयकी भी कोई बात किसी ग्रन्थमें मिलती है और कोई किसी ग्रन्थमें । दृष्टान्तके तौरपर पूजनके विषयहीको लीजिये-स्वामी समन्तभद्राचार्यने, रत्नकरडश्रावकाचारमें, 'देवाधिदेवचरणे. ' तथा 'अर्हरचरणसपर्या , इन पूजनके प्रेरक और पूजन फलप्रतिपादक दो श्लोकोंके सिवाय इस विषयका कुछ भी वर्णन नहीं किया । श्रीपमनन्दिप्राचार्यने,पद्मनादपंचविशीतकामें, गृहस्थियोंके
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जिन-पूजाधिकार-मीमांसा लिये पूजनकी खास जरूरत वर्णन की है और उसपर जोर दिया है, परन्तु पूजन और पूजकके भेदोका कुछ वर्णन नहीं किया। वसुनन्दिाचार्यने पसुनन्तिश्रावकाचार में, भगवजिनसेनाचार्यने पादिपुराणमें इसका कुछ कुछ विशेष वर्णन किया है। इसीप्रकार सागारधर्मामृत, धर्ममग्रहश्रावकाचार और पूजामार वगैरह ग्रन्थोमें भी इसका कुछ कुछ विशेष वर्णन पाया जाता है, परन्तु पूरा कथन किसी भी एक ग्रन्थमें नही मिलता । कोई बात किसीमें अधिक है और कोई किसीमें। इसीप्रकार म्यारह प्रतिमानोंके कथनको लीजिये, बहुतसे ग्रन्थोमें इनका कुछ वर्णन नही किया. केवल नाम मात्र कथन कर दिया या प्रतिमाका भेद न कहकर सामा य रूपसे श्रावकके १२व्रतोका वर्णन कर दिया है। रत्नकरडश्रावकाचारमें इनका बहुत मामान्यरूपसे कथन किया गया है । वसुनन्दिश्रावकाचारमें उससे कछ अधिक वर्णन किया गया है। परन्तु मागचर्मामृतमें अपेक्षाकृत प्राय अच्छा खुलासा मिलता है। ऐसी ही अवस्था अन्य और मी विषयोकी समझ लेनी चाहिए। ____ अब यहाँपर यह प्रश्न उठ सकता है कि, ग्रन्थकार जिस विषयको गौरण करके उसका सामान्य कथन करता हे वह उसका उ कृष्टकी अपेक्षासे क्यों कथन करता है, जघन्यकी अपेक्षासे क्यो नही करता? इसका उत्तर यह है कि, प्रथम तो उत्कृष्ट आचरणकी प्रधानता है। जबतक उत्कृष्ट दर्जेके आचरणमे अनुराग नहीं होता तबतक नीचे दर्जेके आचरणको आचरण ही नही कहते हैं, इससे उसके लिये
* सागारधर्मामृतके प्रथम श्लोकको टोकामे लिखा है,-"यतिधर्मानुरागरहितानामागारिणा देशविरतेरप्यसम्यकरूपत्वात् । सर्व विरतिलालस. खलु देशविरतिपरिणाम.।" अर्थात् यतिधर्म मे अनुराम रहितग्रहस्थियोका 'देशव्रत' भी मिथ्या है। सकलविरतिमे जिसकी लालसा है वही देविरतिके परिणामका धारक हो सकता है। इससे
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युगवीर-निबन्धावली
साधन अवश्य चाहिये। दूसरे ऊंचे दर्जेके प्राचरणसे किंचित् भी स्खलित होनेसे स्वत. ही नीचे दर्जेका श्राचरण हो जाता है । ससारी जीवोंकी प्रवृत्ति और उनके संस्कार ही प्राय उनको नीचेवी ओर ले जाते हैं, उसके लिये नियमित रूपसे किसी विशेष उपदेशकी जरूरत नहीं। तीमरे, ऊँचे दर्जेको छोडकर अक्रमरूपसे नीचे दर्जे का ही उपदेश देनेवालेको जैनशासनमे दुर्बुद्धि और दडनीय कहा है, जैसा कि श्री अमृतचद्र आचार्य के निम्न लिखित वाक्योंसे ध्वनित है.
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यो मुनिर्मम कथयन्नुपदिशति गृहस्थ वर्ममल्पमति । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शित निग्रहस्थानम् ॥ १८ ॥ श्रक्रमकथनेन यत्त प्रोत्महमान' ऽतिदूरमपि शिष्य | पदेऽपि तृप्त प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥ १६ ॥ - पुरुषार्थी द्धयुपाय यह शासन-दड भी सक्षेप और सामान्य लिखनेवालोको उत्कृष्टकी अपेक्षासे कथन करनेमे कुछ कम प्रेरक नही है । इन्हीं समस्त कारणोंसे आचरण-सबघी कथनशैलीका प्राय उत्कृष्टाऽपेक्षासे होना पाया जाता है। किसी किसी ग्रन्थमे तो यह उत्कृष्टता यहाँतक बढी हुई है कि साधारण पूजकका स्वरूप वर्णन करना तो दूर रहा, उ दर्जे के नित्यपूजकका भी स्वरूप वर्णन नही किया है, बल्कि पूजकाचार्यका ही स्वरूप लिखा है । जैसा कि बसुनन्दिश्रावकाचार मे नित्यपूजकका स्वरूप न लिखकर पूजकाचार्य ( प्रतष्ठाचार्य ) का ही स्वरूप लिखा है । इसीप्रक र एकमभिट्टारकत जिनमहिनामें पूजकाचार्य का ही स्वरूप वर्शन दिया है । परन्तु इस सहितामे इतनी
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भी यही नतीजा निकलता है कि, जघन्य चारित्रका धारक भी कोई तबही कहलाया जा सकता है जब ऊ चे दर्जे काचरणका अनुरागी हो और शक्ति प्रादिकी न्यूनतासे, उर को धारण न कर सक्ता हो ।
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जिन पूजाधिकार मीमांसा
विशिष्टता और है कि, पूजक शब्दसे ही पूजकाचार्यका कथन किया
। यद्यपि 'पूजक' शब्दसे पूजक ( नित्यपूजक ) और पूजकाचार्य ( प्रतिष्ठा दावधान करनेवाला पूजक) दोनोका ग्रहण होता हैजैसा कि ऊपर उल्लेख किये पूजासार ग्रन्थके, 'पूजक पूजकाचार्य:
इति द्वा स पूजक इस वाक्यसे प्रगट है - तथापि साधारण ज्ञान
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वाले मनुष्यो को इससे भ्रम होना सभव है। अतः यहाँपर यह बतला देना जरूरी है कि उक्त जिनसंहिता मे जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया है वह वास्तव में पूनाचा आर्यका काही स्वरूप है । वह स्वरूप इस संहिता के तीसरे परिच्छेद में इसप्रकार दिया है अथ वक्ष्यामि भूपाल | शृणु पूजकल क्षणम् । लक्षित भगव व्यवच खिलगोचरे ॥ १ ॥ कोऽभिरूपाङ्ग सम्यग्दष्टिरव्रती ।
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चतुर. शौचान्विद्वान् योग्य स्याज्जिनपूजने ॥ २ ॥ न स्थान पापाचार पण्डित. ।
न निकृष्ट किया वृनितिक परिदूषित ॥ ३ ॥ नाडा को नहानाङ्गा नातिदीर्घो न वामनः ।
ग्वा न तन्द्रालुनऽतिवृद्धो न बालक ॥४॥ नवो न दुष्टात्मा नाडातमानो न मायिक | नाचन विरुङ्गा नाऽजानन् जिनमहिताम् ||५|| निषिद्ध पुरुषा व यद्यर्चेत् त्रिजगत्प्रभुम् । राजराष्ट्रानाश स्यात्कट कारक योग ||६|| तस्माद्यरतन गुडोबात्जक त्रि
। उक्तलक्षणमे वाऽऽर्थः कदाचिदपि नाररम् ॥७॥ यदीन्द्रवृन्दाऽतिपादपंकज जिनेश्वर पोखगुगाः ममर्थयेत् । नाश्च राष्ट्र व सुखास्पन भवेत् तथैव वर्त्ता च जनश्व कारकः || भावाय इसका यह है कि 'हे राजन् | मैं अब श्री जनमगवानके वचनानुसार पूजकका लक्षण कहता हूँ, उसको तुम सुनो
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युगवीर-निबन्धावली
जो तीनों वर्णोंमेंसे किसी वर्गका धारक हो रूपवान हो, सम्यग्दृष्टि हो, पंच अणुव्रत का पालन करनेवाला हो, चतुर हो, शौचवान हो और विद्वान हो वह जिनदेवकी पूजा करनेके योग्य होता है । (परन्तु ) शूद्र, मिध्यादृष्टि, पापाचारमें प्रवीरण, नीचक्रिया तथा नीच कर्म करके प्राजत्रिका करनेवाला, रोगी अधिक अगवाला, अगहीन, अधिक लम्बे क़दका, बहुत छोटे कदका (वामना), भोला वा मूर्ख निद्रालु या आलसी, अतिवृद्ध बालक, प्रति लोभी दुष्टात्मा, प्रतिमानी, मायाचारी, अपवित्र, कुरूप और जिनसहिताको न जाननेवाला पूजन करनेके योग्य नही होता है । यदि निषिद्ध पुरुष भगवानका पूजन करे तो राजा मोर देशका तथा पूजन करनेवाले और करानेवाले दोनोका नाश होता है । इसलिये पूजन करानेवालेको य नके साथ जिनेन्द्रदेवका पूजक ऊपर कहे हुए गुरगोवाला ही ग्रहण करना चाहिये- दूसरा नही । यदि ऊपर कहे हुए गुरगोवाला पूजक इद्र समूहसे वदित श्रीजिनदेवके चररणकमलकी पूजा करे तो राजा, देश तथा पूजन करनेवाला और कराने वाला सब सुखके भागी होते हैं ।"
अब यहाँपर विचारणीय यह है कि, यह उपर्युक्त स्वरूप साधारण नित्यपूजकका है या ऊंचे दर्जेके नित्यपूजक्का अथवा पूजकाचार्यका है । साधारण नित्यपूजकका यह स्वरूप हो नही सकता, क्योकि ऐसा माननेपर आगमसे विरोधादिक समस्त वही दोष यहाँ मी पूर्ण रूपसे घटित होत है, जो कि धममग्रहश्रावकाचार और पूजासार में वर्णन किये हुए ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकके स्वरूपको नित्यपूजक मात्रका स्वरूप स्वीकार करनेपर विस्तार के साथ ऊपर दिखलाये गये हैं। बल्कि इस स्वरूपमें कुछ बातें उससे भी अधिक हैं, जिनसे और भी अनेक प्रकारकी बाधाएं उपस्थित होती हैं और जो विस्तार - मवसे यहाँ नही लिवो जातो। इस स्वरूप के अनुसार जो जेमी रूपवान् नहीं है, विद्वान् नहीं है, चतुर नही है अर्थात् मोला वा मूर्ख है, जो जिनसंहिताको नही जानता, जिसका कद अधिक लम्बा
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जिन-पूजाधिकार मीमांसा
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या छोटा है, जो बालक है या प्रतिवृद्ध है, जो पापके काम करना जानता है और जो प्रतिमानी, मायाचारी तथा लोमी है, वह भी पूजनका अधिकारी नही ठहरता। इसको साधारण चित्मपूजकका स्वरूप माननेसे पूजनका मार्ग और भी अधिक इतना तग (सकीर्ण) हो जाता है कि वर्तमान १३-१४ लाख जैनियोंमें शायद कोई बिरला ही जैनी ऐसा निकले जो इन समस्त लक्षरगोसे सुसम्पन्न हो और जो जिनदेवका पूजन करनेके योग्य समझा जावे । वास्तव में भक्तिपूर्वक जो नित्यपूजन किया जाता है उसके लिये इन बहुतसे विशेषणोकी आवश्यकता नही है, यह ऊपर कहे हुए नित्यपूजन के स्वरूपसे ही प्रगट है । अत आगमसे विरोध प्राने तथा पूजनसिद्धान्त और नित्य पूजन के स्वरूपसे विरुद्ध पडनेके कारण यह स्वरूप साधारण नित्यपूजकका भी नही हो सकता। इसी प्रकार यह स्वरूप ऊँचे दर्जे के नित्यपूजकका भी नही हो सकता । क्योकि ऊँचे दर्जे के नित्यपूजकका जो स्वरूप धर्मसप्रहश्रावकाचार और पूजासार ग्रन्थोमे वर्णन किया है और जिसका कथन ऊपर ग्रा चुका है, उससे इस स्वरूपमे बहुत कुछ विलक्षणता पाई जाती है । यहाँपर अन्य बातोके सिवा त्रैवर्णिकको ही पूजनका अधिकारी वर्णन किया है, परंतु ऊपर अनेक प्रमारगोसे यह सिद्ध किया जा चुका है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारो ही वर्णके मनुष्य पूजन कर सकते हैं और ऊँचे दर्जे के नित्यपूजक हो सकते हैं। इसलिये यह स्वरूप ऊँचे दर्जे के नित्यपूजक तक ही पर्याप्त नही होता, बल्कि उसकी सीमासे बहुत आगे बढ जाता है ।
दूसरे यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि ऊँचा दर्जा हमेशा नीचे दर्जे की और नीचा दर्जा ऊँचेकी अपेक्षासे ही कहा जाता है । जब एक दर्जे का मुख्यरूपसे कथन किया जाता है तब दूसरा दर्जा गौर होजाता है, परन्तु उसका सर्वथा निषेध नही किया जाता। जैसा कि सकलचारित्र ( महाव्रत) का वर्णन करते हुए देशचारित्र (प्रणु
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युगवीर-निबन्धावली वत) और देशचारित्रका कथन करते समय सकलचारित्र गौण होता है, परन्तु उसका सर्वथा निषेध नही किया जाता अर्थात् यह नहीं कहा जाता कि जिसमें महाव्रतीके लक्षण नहीं वह व्रती ही नहीं हो सकता । व्रती वह जरूर हो सकता है, परन्तु + हाव्रती नही कहला सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि यदि ग्रन्थकारमहोदयके लक्ष्यमें यह स्वरूप ऊंचे दर्जे के नित्यपूजकका ही होता, तो वे कदापि साधारण ( नीचे दर्जेके ) नित्यपूजकका सर्वथा निषेध न करते-अर्थात्, यह न कहते कि इन लक्षणोंसे रहित दूसरा कोई पूजक होनेके योग्य ही नही या पूजन करनेका अधिकारी नहीं । क्योकि दूसरा नीचे दर्जेवाला भी पूजक होता है और वह नित्यपूजन कर सकता है । यह दूसरी बात है कि वह कोई विशेष नैमित्तिक पूजन न कर सकता हो । परन्तु ग्रन्थकारमहोदय 'उक्तलक्षणमेवार्य कदाचिदपि नाऽपरम" इस सप्तम श्लोकके उत्तरार्धद्वारा स्पष्टरूपसे उक्त लक्षणरहित दूसरे मनुष्यके पूजकपनेका निषेध करते हैं, बल्कि छटे श्लोकमे यहाँतक लिखते है कि यदि निषिद्ध (उक्तलक्षणरहित) पुरुष पूजन कर ले तो राजा, देश, पूजन करनेवाला और करानेवाला सब नाशको प्राप्त हो जावेगे । इससे प्रगट है कि उन्होने यह स्वरूप ऊँचे दर्जे के नित्यपूजकको भी लक्ष्य करके नहीं लिखा है । भावार्थ-इस स्वरूपका किसी भी प्रकारके नित्य पूजकके साथ नियमित अथवा अविनाभाव सम्बन्ध न होनेसे, यह किसी भी प्रकारके नित्यपूजकका स्वरूप या लक्षण नही है। बल्कि उस नैमित्तिक पूजनविधानके कर्तासे सम्बन्ध रखता है जिस पूजनविधानमे पूजन करनेवाला और होता है और उसका करानेवाला अर्थात् उस पूजनविधानके लिये द्रव्यादि खर्च करनेवाला दूसरा होता है। क्योंकि स्वय उपर्युक्त श्लोकोमे आये हुए "कर्तृ कारकयोः 'गृह्णीयान' और 'नथैव कतौ च जनश्च कारकः' इन पदोसेभी यह बात पाई जाती है । 'यत्नेन गृह्णीयात पूजकं' 'उक्तलक्षण
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जिन पूजाधिकार-मीमासा मेवार्य: ये पद साफ़ बतला रहे हैं कि यदि यह वर्णन नित्यपूजकका होता तो यह कहने या प्रेरणा करनेकी जरूरत नहीं थी कि पूजनविधान करानेवाले को तलाश करके उक्त लक्षणोंवाला ही पूजक (पूजनविधान करनेवाला) ग्रहण करना चाहिये, दूसरा नही । इसी प्रकार पूजन-फलवर्णनमे 'क्र्तृकारकयो' इत्यादि पदो-द्वारा पूजन करनेवाले और करानेवाले दोनोका भिन्न भिन्न निर्देश करनेकी भी कोई ज़रूरत नहीं थी, परन्तु कि ऐसा किया गया है, इससे स्वय ग्रन्थकारके वाक्यों से भी प्रगट है कि यह नित्यपूजकका स्वरूप या लक्षण नहीं है । तब यह स्वरूप क्सिका है ? इस प्रश्नके उत्तरमें यही कहना पडता है कि पूजकके जो मुख्य दो भेद वर्णन किये गये है-एक नित्यपूजन करनेवाला और दूसरा प्रतिष्ठादि विधान करने वाला-उनमेसे यह स्वरूप प्रतिष्ठादि विधान करनेवाले पूजकका ही हो सकता है, जिसको प्रतिष्ठाचार्य, पूजकाचार्य और इन्द्र भी कहते है । प्रतिष्ठादि विधानमे ही प्राय ऐसा होता है कि विधान का करने वाला तो और होता है और उसका करानेवाला दूसरा । तथा ऐसे ही विधानोका शुभाशुभ असर कथचित् राजा, देश, नगर और करानेवाले आदि पर पड़ता है । प्रतिष्ठा-विधानमे प्रतिमानोमे मत्रद्वारा अहंतादिककी प्रतिष्ठाकी जाती है । अत जिस मनुष्य के मत्रसामर्थ्यसे प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित होकर पूजने योग्य होती हैं वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो सकता। वह कोई ऐसा ही प्रभावशाली, माननीय, सर्वगुणसम्पन्न असाधारण व्यक्ति होना चाहिये ।। __ इन सबके अतिरिक्त, पूजकाचार्य या प्रतिष्ठाचार्यका जो स्वरूप धर्मसमहश्रावकाचार, पूजासार और प्रतिष्ठासारोद्धार आदिक जैनशास्त्रोमे स्पष्टरूपसे वर्णन किया गया है उससे इस स्वरूपकी प्रायःसब बात मिलती है, जिससे भले प्रकार निश्चित होता है कि यह स्वरूप प्रतिष्ठादि-विधान करनेवाले पूजक अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य या पूजकाचार्यसे ही सम्बन्ध रखता है। यद्यपि, इस निबन्धमे पूजकाचार्यया
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युगवीर-निबन्धावली. प्रतिष्ठाचार्यका स्वरूप विवेचनीय नहीं है तथापि प्रसंगवश यहाँपर उसका किचित् दिग्दर्शन करादेना जरूरी है, जिससे, यह मासूम करके कि दूसरे शास्त्रोंमें भी प्राय यही स्वरूप प्रतिष्ठाचार्य या पूजकाचार्य का वर्णन किया है, इस विषयमें फिर कोई संदेह बाकी न रहे । सबसे प्रथम धर्मसप्रहश्रावकाचारको ही लीजिये । इस ग्रन्थके हैं वे अधिकारमे, नित्यपूजकका स्वरूप कथन करनेके अनन्तर, श्लोक न १४५ से १५२ तक आठ श्लोको मे पूजकाचार्यका स्वरूप वर्णन किया है। वे श्लोक इस प्रकार हैं -
इदानीं पूजकाचार्यलक्षण प्रतिपाद्यते । ब्राह्मण. क्षत्रियो वेश्यो नानालक्षणलक्षित ॥ १४५ ।। कुलजात्यादिसशुद्ध सदृष्टिर्देशसयमी । वेता जिनागमस्याऽनालस्य. अतबहुश्रत ॥ १४६ ।। ऋजुर्वाग्मी प्रसन्नोऽपि गभीरो विनयान्वित । शौचाऽऽचमनसात्साहो दानवान्कर्म कर्मठ ।। १४७ ।। साङ्गोपाङ्गयुत शुद्धो लक्ष्यलक्षणवित्सुधी । स्वदारी ब्रह्मचारी वा नीरोगः सकियारतः।। १४८ ।। वारिमंत्रव्रतस्नात प्रोषधव्रतधारक. । निरभिमानी च मौनी च त्रिसंध्य देववन्दक. ॥ १४६ ।। श्रावकाचारपूतात्मा दीक्षा शिक्षागुणान्वित। क्रियाषोडशभि. पूतो ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृत ।। १५० ।। न हीनाङ्गो नाऽधिकांगो न प्रलम्बो न वामन । न कुरूपी न मूढात्मा न वृद्धो नातिबालक ॥ ५१ ॥ न क्रोधादिकषायादयो नार्थार्थी व्यसनी न च । नान्त्यास्त्रयो न तावाचौ श्रावकेव न संयमी ॥ १५२ ।।
इन उपयुक्त पूजकाचार्यस्वरूपप्रतिपादक श्लोकोमें जो-"ब्राह्मणः (ब्राह्मण हो), क्षत्रियः (क्षत्रिय हो), वैश्व. ( वेश्य हो ), नानालक्षणलक्षितः (शरीरसे सुन्दर हो), सदृष्टिः (सम्यग्दृष्टि हो), देश
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जिन-पूजाधिकार-मीमासा संयमी (अणुवती हो), जिनागमस्य वेत्ता (जिनसंहिता आदि जैनशास्त्रोंका जाननेवाला हो), अनालस्य. (पालस्य वा तन्द्रारहित हो), वाग्मी (चतुर हो), विनयान्वितः (मानकवायके अभावरूप विनयसहित हो ), शौचाचमनसोत्साह (शौच और चिमन करनेमें उत्साहवान हो), सांगोपांगयुत (ठीक अंगोपागका धारक हो) शुद्ध (पवित्र हो), लक्ष्यलक्षणविसुधीः (लक्ष्य और लक्षणका जाननेवाला बुद्धिमान् हो), स्वदारी ब्रह्मचारी वा। स्वदारसतोषी हो या अपनी स्त्रीका भी त्यागी हो अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रतके जो दो भेद हैं उनमेंसे किसी भेदका धारक हो।, नीरोग ( रोग रहित हो.), सक्रिया. रत ( नीची क्रियाके प्रतिकूल उची और श्रेष्ठ क्रिया करनेवाला हो), पारिमंत्रव्रतस्नात ( जलस्नान, मत्रस्नान और व्रतस्नामसे पवित्र हो ), निरभिमानी (अमिमानरहित ही), न होनांगः ( अगहीन न हो) नाऽधिकांग (अधिक अगका धारक न हो), न प्रलम्ब. ( लम्बे कदका न हो), न वामनः (छोटे कदका न हो), न कुरूपी । बदसूरत न हो), न मुढात्मा ( मूर्ख न हो ), न वृद्ध (बूढा न हो), नाऽतिबालक (अति बालक न हो), न क्रोधादिकषायाच्य (क्रोध, मान, माया, लोभ, इन कषायोमेसे किसी कषायका धारक न हो), न च व्य मनो ( और पापाचारी न हो),"-इत्यादि विशेषणपद पाये है, उनसे प्रगट है कि उपयुक्त जिनसंहितामे जो विशेषण पूजकके दिये हैं वे सब यहाँपर साफ तौरसे पूजकाचार्य के वर्णन किये हैं । बल्कि श्लो० न० १५१ तो जिनमहिमाके श्लोक न ४ से प्राय यहाँतक मिलता जुलता है कि एकको दूसरेका रूपान्तर कहना चाहिये । इसीप्रकार निम्नलिखित तीन श्लोकोंमे जो ऐसे पूजकके द्वारा कियेहुए पूजनका फल वर्णन किया है वह भी जिनसहिताके श्लोक न० ६ और ८ से बिल्कुल मिलता जुलता है।
ईग्दोषभदाचार्यः प्रतिष्ठां कुरुतेऽत्र चेत् । तदा राष्ट्र पुरं राज्यं रामाविः प्रनय ब्रजेत् ।। १५३ ।।
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युगवीर निबन्धावली का फल न चाप्नोति नैव कारयिता ध्रुवम् । ततस्तलक्षणश्रेष्ठ. पूजकाचार्य इष्यते ।। १५४ ॥ पूर्वोक्तलक्षणैः पूर्ण पूजयेत्परमश्वरम् । तदा दाता पुरं देशं स्वयं राजा च वर्द्धते ।। १५५ ।।
अर्थात्-यदि इन दोषोका धारक पूजकाचार्य कहीपर प्रतिष्ठा कराबे, तो समझो कि देश, पुर, राज्य तथा राजादिक नाशको प्राप्त होते हैं और प्रतिष्ठा करने और करानेवाला दोनो भी अच्छे फलको प्राप्त नहीं होते, इसलिये उपयुक्त उत्तम लक्षरणोंसे विभूषितही पूजकाचार्य (प्रतिष्ठाचार्य) कहा जाता है । ऊपर जो जो पूजकाचार्यके लक्षण कह पाये हैं, यदि उन लक्षरणोंसे युक्त पूजक परमेश्वरका पूजन (प्रतिष्ठादि विधान) करे तो उस समय धनका खर्च करनेबाला दाता, पुर, देश तथा राजा ये सब दिनोदिन वृद्धिको प्राप्त होते हैं ।
पूजासार ग्रन्थमे भी, नित्य पूजकका स्वरूप कथन करनेके अनन्तर श्लोक न०१६ से २८ तक पूजकाचार्यका स्वरूप वर्णन किया गया है। इस स्वरूपमे भी पूजकाचार्यके प्राय वे ही सब विशेषण दिये गये हैं जो कि धर्मसग्रहश्रावकाचारमे वर्णित है और जिनका उल्लेख अपर किया गया है। यथा
"लक्षणोद्भासी', जिनागमविशारद ,सम्यग्दर्शनसम्पन्न., देशसयमभूषित वाग्मी, श्रुतबहुग्रन्थ., अनालस्य , ऋजु, विनयसयुत, पूतात्मा, पूतवागवृत्ति , शौचाचमनतत्पर , सांगोपांगेन सशुद्ध लक्षणलक्ष्यवित, नीरोगी, ब्रह्मचारी च स्वदारारतिकोऽपि वा, जलमंत्रव्रतस्नात , निरभिमानी, विचक्षण', सुरूपो, सक्रिय , वैश्यादिषु समुद्भव" इत्यादि।
इसी प्रकार प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रन्थके प्रथम परिच्छेदमे श्लोक
१ शरीरसे सुन्दर हो २ पापाचारी न हो ३ मच बोलनेवाला हो तथा नीच क्रिया करके प्राजीविका करनेवाला न हो।
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जिन पूजाधिकार मीमासा
न०१० से १६ तक जो प्रतिष्ठाचार्यका स्वरूप दिया गया है, उसमेंभी"कल्याणागः, रुजा हीन, सकलेन्द्रिय, शुभलक्षण सम्पन्न, सौम्य - रूपः, सुदर्शनः, विप्रो वा क्षत्रियो वैश्य, विकर्म करणोऽभितः, ब्रह्मचारी गृहस्थो वा सम्यगदृष्टि, निकषाय, प्रशान्तात्मा, वेश्यादिव्यसनोक्तिः, दृष्टसृष्टकिय, विनयान्वित, शुचि प्रतिष्ठाविविवित्सुधी, महापुराणशास्त्रज्ञ, न चार्थार्थी, न च द्वेष्टि
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इत्यादि विशेषरण पदोसे प्रतिष्ठाचार्य के प्राय वे ही समस्त विशेषरण वर्णन किये गये हैं, जो कि जिनसहिता मे पूजकके और धर्मसग्रहश्रावकाचार तथा पूजासार ग्रन्थोमे पूजकाचार्य के वर्णन किये हैं।
यह दूसरी बात है कि किसीने किसी विशेषरणको सक्षेपसे वर्णन किया और किसीने विस्तारसे, किसीने एक शब्दमे वर्णन किया और किसीने अनेक शब्दोमे, अथवा किसीने सामान्यतया एकरूपमें वर्णन किया और किसीने उसी विशेषरणको शिष्योको अच्छी तरह समझानेके लिये अनेक विशेषरणोमे वर्णन कर दिया, परन्तु श्राशय सवका एक है प्रसिद्ध है कि जिनसहितामे जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया है वह वास्तवमे प्रतिष्ठादिविधान करनेवाले पूजक अर्थात् पूजकाचार्य या प्रतिष्ठाचार्यका ही है ।
I
इस प्रकार यह सक्षिप्त रूपसे, प्राचरण - सम्बधी कथनशैलीका रहस्य है । धर्म सग्रह श्रावकाचार और पूजासार ग्रन्थमे जो, साधारणनित्यपूजकका स्वरूप न लिखकर, ऊँचे दर्जेके नित्यपूजकका ही स्वरूप लिखा गया है उसका भी यही काररण है ।
यद्यपि ऊपर यह दिखलाया गया है कि उक्त दोनो ग्रन्थोमे जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया गया है वह ऊँचे दर्जे के नित्य पूजकका स्वरूप होनेसे और उसमे शूद्रको भी स्थान दिये जानेसे शूद्र भी ऊँचे दर्जेका नित्यपूजक हो सकता है तथापि इतना और समझ लेना चाहिये कि शूद्र भी उन समस्त गुरणोंका पात्र है जो कि, नित्यपूजकके स्वरूपमें वर्णन किये गये हैं और वह ११ वी प्रतिमाको
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युगवीर-निबन्धावली धारण करके ऊँचे दर्जेका श्रावक भी हो सकता है, प्रत उसके ऊँचे दज के नित्यपूजक हो सकनेमें कोई बाधक भी प्रतीत नहीं होता। वह पूर्णरूपसे नित्यपूजनका अधिकारी है। ____ अब जिन लोगोका ऐसा खयाल है कि शूद्रोका उपनीति ( यज्ञोपवीतधारण ) संस्कार नहीं होता और इसलिये वे पूजनके अधिकारी नही हो सकते, उनको समझना चाहिये कि पूजनके किसी खास भेद को छोडकर आमतौर पर पूजनके लिये यज्ञोपवीत (ब्रह्मसूत्र-जनेक ) का होना जरूरी नहीं है । स्वर्गादिकके देव और देवागनायें प्राय सभी जिनेद्रदेवका नित्यपूजन करते है और खास तौरसे पूजन करनेके अधिकारी वर्णन किये गये हैं, परन्तु उनका यज्ञोपवीत सस्कार नहीं होता । ऐसी ही अवस्था मनुष्य-स्त्रियोकी है । वे भी जगह जगह शास्त्रोमे पूजनकी अधिकारिणी वर्णन की गई हैं- स्त्रियोकी पूजन-सम्बन्धिनी असख्य कथाप्रोसे जेनसाहित्य भरपूर है-उनका भी यज्ञोपवीत-सस्का र नही होता । ऊपर उल्लेख की हुई कथाप्रोमे जिन गज-ग्वाल आदिने जिनेन्द्रदेवका पूजन किया है, वे भी यज्ञोपवीत-सस्कारसे सस्कृत (जनेऊके धारक ) नहीं थे। इससे प्रगट है कि नित्यपूजकके लिये यज्ञोपवीत-सस्कारसे सस्कृत होना लाजमी और जरूरी नहीं है और न यज्ञोपवीत पूजनका चिन्ह है। बल्कि - ह द्विजोंके व्रतका चिन्ह है; जैसा कि
आदिपुराण पर्व ३८-३६-४१मे, भगवज्जिनसेनाचार्यके निम्नलिखित वाक्योंसे प्रगट है -
"व्रतचिन्ह दधत्सूत्रम् ..." 'व्रतसिद्धयर्थमेवाऽहमुपनीतोऽस्मि साम्प्रतम् ." 'व्रतचिन्ह भवेदस्य सूत्र मंत्रपुर-सरम् ." "व्राचन्हं च न सूत्र पवित्र सूत्रदर्शितम् ।"
"व्रतचिन्हानि सूत्राणि गुणभूमिविभागत.।" वर्तमान प्रवृत्ति (रिवाज) की ओर देखनेसे भी यही मालूम होत
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जिन-पूजाधिकार मीमासा
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है कि नित्यपूजनके लिये जनेऊ का होना जरूरी नही समझा जाता, क्योकि स्थान-स्थानपर नित्यपूजन करनेवाले तो बहुत हैं परंतु यज्ञोपवीत्तसस्कारसे संस्कृत (जनेऊधारक) बिरले ही जैनी देखनेने श्राते हैं। और उनमें भी बहुतसे ऐसे पाये जाते हैं जिन्होने नाममात्र कन्धेपर सूत्र ( तागा ) डाल लिया है, वैसे यज्ञोपवीत संबधी क्रियाकर्मसे वे कोसो दूर हैं । दक्षिरण देशको छोडकर अन्य देशों में तथा खासकर पश्चिमोत्तर प्रदेश अर्थात् युक्तप्रात और पजाबदेशमे तो यज्ञोपवीतसस्कारकी प्रथा ही, एक प्रकारसे, जैनियोंसे उठ गई है, परन्तु नित्यपूजन सर्वत्र बराबर होता है । इससे भी प्रगट है कि नित्यपूजनके लिये जनेऊ का होना प्रावश्यक कर्म नही है और इसलिये जनेऊ का न होना शूद्रोंको निस्यपूजन करनेमे किसी प्रकार भी बाधक नही हो सकता । उनको मित्यपूजन का पूरा पूरा अधिकार प्राप्त है ।
यह दूसरी बात है कि कोई अस्पृश्य शूद्र, अपनी अस्पृश्यताके कारण, किसी मदिरमे प्रवेश न कर सके और मूर्तिको न छू सके, परन्तु इससे उसका पूजनाधिकार खडित नही हो जाता । वह अपने घरपर त्रिकाल - देववन्दना कर सकता है, जो पूजनमे दाखिल है । तथा तीर्थस्थानो, अतिशयक्षेत्र और अन्य ऐसे पर्वतो पर - जहाँ खुले मे - दानमे जिनप्रतिमाएँ विराजमान है और जहाँ भील चाण्डाल तथा म्लेच्छ तक भी बिना रोकटोक जाते हैं--जाकर दर्शन और पूजन कर सकता है । इसी प्रकार वह बाहर से भी मंदिर के शिखरादिकमे स्थित प्रतिमाओ का दर्शन और पूजन कर सकता है । प्राचीन समय मे प्राय जो जिनमंदिर बनवाये जाते थे उनके शिखर या द्वार ग्रादिक अन्य किसी ऐसे उच्च स्थानपर, जहाँ सर्वसाधारणकी दृष्टि पड़ सके, कमसेकम एक जिनप्रतिमा जरूर विराजमान की जाती थी, ताकि ( जिससे ) वे जातियाँ भी. जो अस्पृश्य होनेके कारण, मदिरमे प्रवेश नही कर सकती, बाहरसे ही दर्शनादिक कर सके । यद्यपि आजकल ऐसे मंदिरो बनवानेकी वह प्रशंसनीय प्रथा जाती रही है-- जिसका
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युगवीर-निबन्धावली प्रधान कारण जैनियोका क्रमसे हास और इनमेंसे राजसत्ताका सर्वथा लोप हो जाना ही कहा जा सकता है- तथापि दक्षिण देशमे, जहाँपर अन्तमें जैनियोका बहुत कुछ चमत्कार रह चुका है और जहाँसे जैनियोका राज्य उठे हुए बहुत अधिक समय भी नही हुआ है, इस समय भी ऐसे जिनमदिर विद्यमान हैं जिनके शिखरादिकमे जिनप्रतिमाएँ अकित हैं। ___ इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र, चारो ही वर्णके सब मनुष्य नित्यपूजनके अधिकारी हैं और खुशीसे नित्यपूजन कर सकते हैं। नित्यपूजनमे उनके लिये यह नियम नही है कि वे पजकके उन समस्त गुणोको प्राप्त करके ही पूजन कर सकते हो, जो कि धर्मसग्रहश्रावकाचार और पूजासार ग्रन्थोमे वर्णन किये हैं । बल्कि उनके बिना भी वे पूजन कर सकते हैं और करते है । क्योकि पूजकका जो स्वरूप उक्त ग्रन्थोमे वर्णन किया है वह ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका है और जब वह स्वरूप ऊँचे दर्जे के नित्यपूजकका है तब यह स्वत सिद्ध है कि उस स्वरूपमे वणन किये हुए गुणोमेसे यदि कोई गुण किसीमे न भी होवे तो भी वह पूजनका अधिकारी और नित्यपूजक हो सकता है। दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि जिनके हिंसा,झूठ,चोरो, कुशील (परस्त्रीसेवन) परिग्रह इन पच पापो या इनमेसे किसी पापका त्याग नहीं है, जो दिग्विरति आदि सप्तशीलव्रत या उनमेंसे किसी शीलवतके धारक नहीं हैं, अथवा जिनका कुल और जाति शुद्ध नहीं है या इसी प्रकार और भी किसी गुणसे जो रहित है, वे भी नित्यपूजन कर सकते हैं और उनको नित्यपूजनका अधिकार प्राप्त है।
यह दूसरी बात है कि गुणोकी अपेक्षा उनका दर्जा क्या होगा? अथवाकी फल प्राप्तिमें अपने अपने भावोकी अपेक्षा उनमे क्या कुछ न्यूनाधिकता ( कमी बेशी) होगी और वह यहाँपर विवेचनीय नहीं है।
यद्यपि आजकल अधिकांश ऐसे ही गृहस्थ जैनी पूजन करते हुए
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जिन-पूजाधिकार मीमासा
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देखे जाते हैं जो हिंसादिक पाँच पापोंके त्यागरूप पंचभवत या दिग्विरति आदि सप्तशीलवत के धारक नहीं हैं, तथापि प्रथमानुयोगके ग्रन्थोंको देखनेसे मालूम होता है कि, ऐसे लोगोंका यह ( पूजनका ) अधिकार अर्वाचीन नहीं, बल्कि प्राचीन समयसे ही उनको प्राप्त है। जहाँ तहाँ जैनशास्त्रोंमें दिये हुए अनेक उदाहररणोसे इसकी भले प्रकार पुष्टि होती है । यथा
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लंकाधीश महाराज रावरण परस्त्रीसेवनका त्यागी नही था, प्रत्युत वह परस्त्रीलम्पट विख्यात है । इसी दुर्वासनासे प्रेरित होकर ही उसने प्रसिद्ध सती सीता का हरण किया था । इस विषयमें उसकी जो कुछ भी प्रतिज्ञा थी वह एतावन्मात्र ( केवल इतनी ) थी कि, 'जो कोई भी परस्त्री मुझको नहीं इच्छेगी, मैं उससे बलात्कार नहीं करूंगा।' नही कह सकते उसने कितनी परस्त्रियोका - जो किसी भी कारण से उससे रजामद ( सहमत होगई हो - सतीत्वभग किया होगा अथवा उक्त प्रतिज्ञासे पूर्व कितनी परदाराश्रोंसे बलात्कार भी किया होगा । इस परस्त्रीसेवनके अतिरिक्त वह हिसादिक अन्य पापोका भी त्यागी नही था । दिग्विरति प्रादि सप्तशील व्रतोके पालनकी तो वहा बात ही कहाँ ? परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी, रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराणमे अनेक स्थानोपर ऐसा वर्णन मिलता है कि - 'महाराजा रावणने बडी भक्तिपूर्वक श्रीजिनेद्रदेवका पूजन किया । रावणने अनेक जिनमंदिर बनवाये । वह राजधानीमे रहते हुए अपने राजमन्दिरोंके मध्यमे स्थित श्रीशातिनाथके सुविशाल चैत्यालय मे पूजन किया करता था । बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिये बैठनेसे पूर्व तो उसने इस चैत्यालयमे बडे ही उत्सवके साथ पूजन किया था और अपनी समस्त प्रजाको पूजन करनेकी आज्ञा दी थी। सुदर्शन मेरु और कैलाश पर्वत श्रादिके जिनमन्दिरोका उसने पूजन किया और साक्षात् केवली भगवानका भी पूजन किया था।'
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युगवीर-निबन्धावली वैशावी नगरीका राजा सुमुख भी परस्त्रीसेवमका त्यागी नही था। उसने वीरक सेठकी स्त्री बनमालाको अपने घरमें डाल लिया था। फिर भी उसने महातपस्वी करधर्म नामके मुनिराजको बनमालासहित माहार दिया और पूजन किया। यह कथा जिनसेनाचार्यकृत तथा जिनदासब्रह्मचारिकृत दोनो हरिवंश पुरायोंमे लिखी है। __ इसी प्रकार और भी सैकडो प्राचीन कथाएँ विद्यमान हैं, जिनमे पापियो तथा अप्रतियोका पापाचरण कही भी उनके पूजनका प्रतिबधक नहीं हुआ और न किसी स्थानपर ऐसे लोगोके इस पूजनकर्मको असत्कर्म बतलाया गया। वास्तवमे, यदि विचार किया जाय तो मालूम होगा कि जिनेद्रदेवका भावपूर्वक पूजन स्वय पापोका नाश करनेवाला है, शास्त्रोमे उसे अनेक जन्मोके सचित पापोको भी क्षण मात्रमे भस्म कर देनेवाला वर्णन किया है । इसीसे पापोकी निवतिपूर्वक इष्ट-सिद्धिके लिये लोग जिनदेवका पूजन करते है। फिर पापाचरणियोंके लिये उसका निषेध कैसे हो सकता है ? उनके लिये तो ऐसी अवस्थामे, पूजनकी और भी अधिक आवश्यकता प्रतीत होती है । पूजासार ग्रन्थमे साफ ही लिखा है कि -
ब्रह्मनोऽथवा गोव्नो वा तस्कर सर्वपापकृत् । जिनाधिगधसम्पन्मुिक्तो भवति लत्क्षणम् ।।
अर्थात्-जो ब्रह्महत्या या गोह या किये हुए हो, दूसरोका माल चुरानेवाला चोर हो अथवा इससे भी अधिक सम्पूर्ण पापोका करनेवाला भी क्यो न हो, वह भी जिनेद्र भगवानके चरणोका भक्तिभावपूर्वक चदनादि सुगध द्रव्योसे पूजन करनेपर तत्क्षरण उन पापोसे छुटकारा पानेमे समथ होजाता है । इससे साफ तौर पर प्रगट है कि
* जिनपूजा कृता हन्ति पाप नानाभवोद्भवम् । बहुकालचित काष्ठराशि वन्हिमिवाखिलम् ॥६-१०३ ।।
-धर्मम ग्रहश्रावकाचार
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जिन-पूषाधिकार-मीमांसा पापीछे पाया और कलंकीसे कलेकी मनुष्य भी श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन कर सकता है और भक्तिभावसे जिनदेवका पूजन करके अपने प्रात्माके कल्यारमकी ओर अग्रसर हो सकता है। इसलिये जिसप्रकार भी बन सके सबको नित्यपूजन करना चाहिये । सभी नित्यपूजनके अधिकारी हैं और इसीलिये ऊपर यह कहा गया था कि इस नित्यपूजनपर मनुष्य, तियंच, स्त्री, पुरुष, नीच, ऊँच, धनी, निर्धनी, व्रती, अव्रती, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती और देवता सबका समानाधिकार है । समानाधिकारसे यहाँ कोई यह अर्थ न समझ लेवे कि सब एक साथ मिलकर,एक थालीमे एक सदली या चौकीपर अथवा एक ही स्थानपर पूजन करनेके अधिकारी हैं, किन्तु इसका अर्थ केवल यह है कि सभी पूजनके अधिकारी हैं । वे, एक रसोई या भिन्न भिन्न रसोईयोसे भोजन करनेके समान, मागे पीछे, बाहर भीतर, अलग और शामिल, जैसा अवसर हो और जैसी उनकी योग्यता उनको इजाजत (आज्ञा ) दे, पूजन कर सकते हैं । ' दस्साधिकार .
यद्यपि अब कोई ऐसा मनुष्य या जाति-विशेष नही रही जिसके पूजनाधिकारकी मीमासा की जाय - जैनधर्म में श्रद्धा और भक्ति रखनेवाले ऊँच-नीष सभी प्रकारके मनुष्योंको नित्यपूजनका अधिकार प्राप्त है-तथापि इतनेपर भी जिनके हृदयमे इस प्रकारकी कुछ शका अवशेष हो कि दस्से ( गोटे ) जेनी भी पूजन कर सकते हैं या कि नहीं, उनको इतना और समझ लेना चाहिये कि जैनधर्ममे दस्से' और 'बीसे' का कोई भेद नही है, न कही पर जैनशास्त्रोमे 'दस्से' और 'बीसे' शब्दोका प्रयोग किया गया है।
जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारो वर्णोसे बाह्य(बाहर) बीसोका कोई पांचवाँ वर्ण नही है उसी प्रकार दस्सोंका भी कोई भिन्न वर्ण नही है। चारो वरों में ही उनका भी अन्तर्भाव
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युगवीर-निबन्धावली है। चारों ही वर्णके सभी मनुष्योको पूजनका अधिकार प्राप्त होनेसे उनको भी वह अधिकार प्राप्त है । वैश्य जातिके दस्सोंका वर्ण वैश्य ही होताहै। वे वैश्य होनेके कारण शूद्रोंसे ऊँचा दर्जा रखते हैं और शद्र लोग मनुष्य होनेके कारण तियंचोसे ऊँचा दर्जा रखते हैं। जब शूद्र तो शूद्र, तिथंच भी पूजनके अधिकारी वर्णन किये गये हैं और तियंच भी कैसे ? मेढक जैसे तब वैश्यजातिके दस्से पूजनके अधिकारी कैसे नहीं ? क्या वे जैनगृहस्थ या श्रावक नहीं होते ? अथवा श्रावकके बारह व्रतोको धारण नहीं कर सकते ? जब दस्से लोग यह सब कुछ होते है और यह सब कुछ अधिकार उनको प्राप्त है, तब वे पूजन के अधिकारसे कैसे वचित रक्खे जा सकते हैं ? पूजन करना गृहस्थ जैनियोका परमावश्यक कर्म है। उसके साथ अग्रवाल, खंडेलवाल या परवार आदि जातियोका कोई बन्धन नही है-सबके लिये समान उपदेश है-जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुये आचार्योंके वाक्यो से प्रगट है। परमोपकारी आचार्योंने तो ऐसे मनुष्योको भी पूजनाधिकारसे वचित नहीं रक्खा जो आकठ पापमे मग्न हैं और पापीसे पापी कहलाते हैं । फिर वैश्य जातिके दस्सोंकी तो बात ही क्या हो सकती है ? श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजका तो वचन ही यह है कि विना पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं मक्ता । दस्से लोग श्रावक होते ही हैं, इससे उनको पूजनका अधिकार स्वत. सिद्ध है और वे बराबर पूजनके अधिकारी है।
शोलापुरमे दस्से जैनियोके बनाये हुए तीन शिखरबन्द मदिर और अनेक चैत्यालय मौजूदहै । ग्वालियरमे भी दस्सोका एक मदिर है, सिवनीकी तरफ दस्से भाइयोके बहुतसे जैनमदिरहें । श्रीसम्मेदशिखर शत्रु जय, मागीतु गी और कुन्थलगिरि तीर्थों पर शोलापुर वाले
* वैश्य जातिक दस्साको छोटीसरण (श्रेणि) या 'छोटीसेन' के बनिये अथवा 'विनैकया' भी कहते है ।
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जिन पूजाधिकार मीमांसा
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प्रसिद्ध धनिक श्रीमान् हरिभाई देवकरणजी दस्ताके बनवाये हुए जिन मंदिर है। इन समस्त मंदिर और चैत्यालयोंमें दस्सा, बीसा, सभी लोग बराबर पूजन करते है ।
शोलापुर के प्रसिद्ध विद्वान सेठ हीराचंद नेमिचदजी आनरेरी मजिस्ट्र ेट दस्सा जैनी हैं। उनके घरमे एक चैत्यालय है, जिसमें वे और अन्य भाई सभी पूजन करते हैं। इसी प्रकार अन्य स्थानोपर भी दस्सा जैनियोंके मन्दिर हैं, जिनमे सब लोग पूजन करते हैं । जहाँ उनके पृथक मंदिर नहीं हैं वहाँ वे प्राय बोसोंके मदिरमे ही दर्शनपूजन करते हैं ।
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यह दूसरी बात है कि कोई एक द्रव्य या दो द्रव्यसे पूजन करनेको अथवा मदिरके वस्त्रो और मदिरके उपकरणोमे पूजन न करके अन्य वस्त्रादिकोमे पूजन करनेको पूजन ही न समझता हो, और इसी अभिप्राय अनुसार कही कहीके बीसे अपने मदिरो मे दस्सों को मदिरके वस्त्र पहनकर और मदिरके उपकरणोको लेकर प्रष्ट द्रव्य - से पूजन न करने देते हो, परन्तु इसको केवल उनकी कल्पना ही कह सकते है - शास्त्रो इसका कोई आधार और प्रमाण नही है। पूजनसिद्धान्त और नित्यपूजनके स्वरूपके अनुसार वह पूजन अवश्य है । तीर्थस्थान और प्रतिशयक्षेत्र की पूजा-वन्दनाको दस्से - बीसे सभी जाते है और सभी प्रष्टद्रव्यसे पूजन करते है ।
श्री तारगाज' तीर्थपर नानचद पदमसा नामके एक मुनीम हैं जो दस्सा जैनी है । वे उक्त तीर्थपर बीसों के मदिरोमे, मदिरके वस्त्रोको पहन कर और मंदिर के उपकरणोको लेकर ही, नित्य प्रष्ट द्रव्यसे पूजन करते है । अन्य स्थानोपर भी - जहाँके बीसोमे इस प्रकारकी कल्पना नहीं है— दस्मा जैनी बीमोंके मदिरमे उसी प्रकार प्रष्ट द्रव्यादिसे पूजन करते है जिसप्रकार कि वे अपने मंदिरोंमें करते हैं। जिनको ऐस देखनेका अवसर न मिला हो वे दक्षिरण देशकी ओर जाकर स्वय देख सकते हैं। उधर जाने पर उनको ऐसी जैन जातियाँ भी ग्राम तौरपर
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सुगबीर-निजम्बावली पूजन करती हुई मिलेगी जिनमे पुनर्विषाहकी प्रथा भी जारी है। __इसके अतिरिक्त दस्सा जैनियोने अनेक प्रतिष्ठाएँ भी कराई हैं। एक प्रतिष्ठा शोलापुरके सेठ रावजी नानचन्दने कराई थी। पिछले साल भी दस्सा जैनियोकी दो प्रतिष्ठाएं हो चुकी हैं। प्रतिष्ठा कराने वाले भगवान की प्रतिमाके साथ रथादिकमे बैठते है और स्वय भगवानका अष्ट द्रव्यसे पूजन करते हैं। इसप्रकार प्रवृत्ति भी दस्सोंके पूजनाधिकारका भले प्रकार समर्थन करती है । इसलिये दस्सोंको बीसोंके समान ही पूजनका अधिकार प्राप्त है।
किसी किसीका कहना है कि अपध्वसज अर्थात् व्यभिचारजातको ही दस्सा कहते हैं और व्यभिचारजात पूजनके अधिकारी नही होते, परन्तु ऐसा कहनेमे कोई प्रमारण नहीं है। जब प्रवृत्तिकी ओर देखते हैं तो वह भी इसके विरुद्ध पाई जाती है जो मनुष्य किसी विधवा स्त्रीको प्रगट रूपसे अपने घरमे डाल लेता है अर्थात् उसके साथ करापो (धरेजा) कर लेता है वह स्वयं व्यभिचारजात ( व्यभिचारसे पैदा हुआ मनुष्य ) न होते हुए भी 'दस्सा' समझा जाता है। यदि कोई बीमा किसी नीच जाति ( शूद्रादिक ) की कन्यासे विवाह कर लेता है तो वह भी आजकल जातिसे च्युत किया जाकर दस्सा या गाटा बनादिया जाता है और उसकी सतान भी दस्सोमे ही परिगणित होती है । इसीप्रकार यदि विधवाके साथ कराओ कर लेनेसे कोई पुत्र पैदा हो और उसका विवाह विधवासे न होकर किसी कन्यासे हो तो विधवा-पुत्रकी सतान 'व्यभिचारजात' न होते हए भी 'दस्सा' ही कहलाती है । बहुधा वह सतान जो भर्तारके जीवित रहते हुए जारसे उत्पन्न होती है, व्यभिचारजात होते हुए भी, दस्सोंमें शामिल नहीं की जाती । कही कही पर दस्सेकी कन्यासे विवाहकर लेनेवाले बीसेको भी जातिसे खारिज (च्युत) करके दस्सोमे शामिल कर देते हैं परन्तु बम्बई और दक्षिण प्रान्तादि बहुतसे स्थानोंमें यह प्रथा नहीं है । वहाँपर दस्सों और बीसोंमे परस्पर विवाह
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जिन-पूजाधिकार-मीमासा संबंध होनेसे कोई जातिच्युत नही किया जाता । हमारी भारतवर्षीय दिगम्बरजैनमहासभाके सभापति, जैनकुलभूषण श्रीमान् सेठ माणकचंदजी जे.पी बम्बईके भाई पानाचदजीका विवाह भी एक दस्सेकी कन्यासे हुआ था, परन्तु इससे उनपर कोई कलक नही पाया और कलक पानेकी कोई बात भी न थी। प्राचीन और समीचीन प्रवृत्ति भी, शास्त्रोमे, ऐसी ही देखी जाती है, जिससे ऐसे विवाह सम्बन्धो पर कोई दोषारोपण नही हो सकता। अधिक दूर जानेकी. जरूरत नहीं है । श्रीनेमिनाथजी तीर्थकरके चचा वसुदेवजीको ही लीजिये। उन्होंने एक व्यभिचारजातकी पुत्रीसे, जिसका नाम प्रियगुमुन्दरी था, विवाह किया था। प्रियगुसुन्दरीके पिताका अर्थात् उस व्यभिचारजातका नाम एणीपुत्र था । वह एक तापसीकी कन्या ऋषिदत्तासे, जिससे श्रावस्ती नगरीके राजा शीलायुधने व्यभिचार किया था और उस व्यभिचारसे उक्त कन्याको गर्भ रह गया था, उत्पन्न हया था। यह कथा श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराणमे लिखी है । इस विवाहसे वसुदेवजी पर, जो बडे भारी जैनधर्मी थे, कोई कलक नहीं आया । न कही पर वे पूजनाधिकारसे वचित रक्खे गये। बल्कि उन्होने श्रीनेमिनाथजीके समवसरणमे जाकर साक्षात् श्रीजिनेद्रदेवका पूजन किया है और उनकी उक्त 'प्रियगुसुन्दरी' राणीने जिनदीक्षा धारणxकी है। इससे प्रगट है कि व्यभिचारजातका ही नाम दस्सा नहीं है और न कोई व्यभिचारजात (अपध्वसज) पूजनाऽधिकारसे वचित है। 'शदाणा तु सधर्माण सर्वेऽपध्वंसजा. स्मृता "-समस्त अपध्वसज (व्यभिचारसे उत्पन्न हुए मनुष्य) शूद्रोंके समानधर्मी हैं-यह वाक्य यद्यपि मनुस्मृतिका है, परन्तु यदि इस वाक्यको सत्य भी मान लिया जाय और अपध्वसजोको ही दस्से समझ लिया जाय, तो भी वे पूजनाधिकारसे वचित नहीं हो सकते।
x व्यभिचारजात भी दस्सा होता है ऐसा कह सकते हैं ।
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युगवीर-निबन्धावली क्योंकि शूद्रोंको साफ़ तौरसे पूजनका अधिकार दिया गया है, जिसका कथन ऊपर विस्तारके साथ प्राचुका है । जब शुद्धोंको पूजनका अधिकार प्राप्त है, तब उनके समान धर्मियोको उस अधिकारका प्राप्त होना स्वत सिद्ध है।
प्रजनका अधिकार ही क्या ? जैनशास्त्रोके देखनेसे तो मालूम होता है कि अपध्वसज लोग जिनदीक्षा तक धारण कर सकते हैं, जिसकी अधिकार-प्राप्ति शूद्रोको भी प्राय नहीं कही जाती। उदाहरणके तौरपर राजा कर्णको ही लीजिये। राजा कर्ण एक कुवारी कन्यासे व्यभिचार-द्वारा उत्पन्न हुआ था और इसलिये वह अपध्वसज' और 'कामीन' कहलाता है । श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराणमे लिखा है कि महाराजा जरासिंधके मारे जानेपर राजा कर्णने सदर्शन नामके उद्यानमे जाकर दमवर नामके दिगम्बर मुनिके निकट जिनेश्वरी दीक्षा धारण की । श्रीजिनदास ब्रह्मचारिकृत हरिवंशपुराणमे भी ऐसा ही लिखा है, जैसा कि उसके निम्नलिखित श्लोकसे प्रगट है -
विजितोऽप्यरिभि कर्णो निविएणो मोक्षसौख्यदाम् । दीक्षा सुदर्शनोद्यानेऽग्रहीहमवरान्तिके ॥ २६-२८८ ।।
अर्थात्-शत्रुओंसे विजित होनेपर राजा कर्णको वैराग्य उत्पन्न होगया और तब उन्होने सुदर्शन नामके उद्यानमे जाकर श्रीदमवर नामके मुनिके निकट, मोक्षका सुख प्राप्त करानेवाली, जिनदीक्षा धारण की।
इससे यह भी प्रगट हुआ कि 'अपध्वसज' लोग अपने वर्णको छोडकर 'शूद्र' नहीं हो जाते, बल्कि वे शूद्रोंमे कचित् ऊचा दर्जा रखते है और इसलिये दीक्षा धारण कर सकते है । ऐसी अवस्थामे उनका पूजनाऽधिकार और भी निर्विवाद हो जाता है।
यदि थोडी देरके लिये व्यभिचारजातको पू. नाऽधिकारसे वचित रक्खाजावे तोकु ड, गोलक, कानीन और सहोढादिक सभी प्रकारके
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जिन-पूजाधिकार-मीमासा व्यभिचारजात पूजनाधिकारसे वचित रहेगे। भर्तारके जीवित रहनेपर जो सतान जारसे उत्पन्न होती है वह 'कुंड' कहलाती है। मतरिके मरे पीछे जो संतान जारसे उत्पन्न होती है उसको 'गोलक' कहते हैं। अपनी माताके घर रहनेवाली कुंवारी कन्यासे व्यभिचार-द्वारा जो सतान उत्पन्न होती है वह 'कानीन' कही जाती है और जो सतान ऐसी कुवारी कन्याको गर्भ रह जानेके पश्चात् उसका विवाह हो जानेपर उत्पन्न होती है उसको सुहोढ'कहते हैं। इन चारो भेदोमेंसे गोलक और कानीनकी परीक्षा (पहचान) तथा प्राय सहोढकी परीक्षा भी आसानीसे हो सकती है, परन्तु कु डसतानकी परीक्षाका
और खासकर ऐसी कुडमतानकी परीक्षाका कोई साधन नहीं है, जो भर्तारके बारहो महीने निकट रहते हुए अर्थात् परदेशमे न होते हुए उत्पन्न हो । कु डकी माताके सिवा और किसीको यह रहस्य मालूम नही हो सकता। बल्कि कभी कभी तो उसको भी इसमें भ्रम होना सभव है-वह भी ठीक ठीक नहीं कह सकती कि यह संतान जारसे उत्पन्न हुई या असली भरिसे। व्यभिचारजातको पूजनाऽधिकारसे वचित करने पर कु डसतान भी पूजन नही कर सकती, और कु ड-सतानकी परीक्षा न हो सकनेसे सदिग्धावस्था उत्पन्न होती है। सदिग्धाऽवस्थामे किसीको भी पूजन करनेका अधिकार नहीं होसकता; इससे पूजन करनेका ही प्रभाव सिद्ध हो जायगा, यह बड़ी भारी हानि होगी । अत कोई व्यभिचारजात पूजनाऽधिकारसे वचित नही होसकता । दूसरे, जब पापीसे पापी मनुष्य भी नित्यपूजन कर सकते हैं तो फिर कोरे व्यभिचारजातकी तो बात ही क्या हो सकती है ? वे अवश्य पूजन कर सकते है। __ वास्तवमे, यदि विचार किया जाय तो, जैनमतके पूजनसिद्धान्त और नित्यपूजनके स्वरूपाऽनुसार, कोई भी मनुष्य नित्यपूजनके अधिकारसे वचित नहीं रह सकता। जिन लोगोने परमात्माको रागी, द्वेषी माना है--पूजन और भजनसे परमात्मा प्रसन्न होता है, ऐसा जिन
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युगवीर-निबन्धावली का सिद्धान्त है- और जो आत्मासे परमात्मा बनना नहीं मानते, यदि वे लोग शूद्रोको या अन्य नीच मनुष्योको पूजनके अधिकारसे वचित रक्खे तो कुछ आश्चर्य नही, क्योकि उनको यह भय हो सकता है कि, कही नीचे दर्जेके मनुष्योके पूजन कर लेनेसे या उनको पूजन करने देनेसे परमात्मा कूपित न हो जावे और उन सभीको फिर उसके कोपका प्रसाद न चखना पडे । परन्तु जैनियोका ऐसा सिद्धान्त नहीं है। जैनी लोग परमात्माको परम वीतरागी शान्तस्वरूप और कर्ममलसे रहित मानते है। उनके इष्ट परमात्मामे राग, द्वेष, मोह और काम-क्रोधादिक दोषोका सर्वथा अभाव है। किसीकी निन्दास्तुतिसे उस परमात्मामे कोई विकार उत्पन्न नहीं होता और न उसकी वीतरागता या शान्ततामे किसी भी कारणमे कोई बाधा उपस्थित हो सकती है। इसलिये किसी क्षुद्र या नीचे दजेके मनुष्यके पूजन कर लेनेसे परमात्माकी आत्मामे कुछ मलिनता आ जायगी, उसकी प्रतिमा अपूज्य हो जायगी अथवा पूजन करनेवालेको कुछ पाप-बन्ध हो जायगा, इस प्रकारका कोई भय ज्ञानवान् जैनियोके हृदयमे उत्पन्न नही हो सकता । जैनियोंके यहा इस समय भी चादनपुर महावीरजी प्रादि अनेक स्थानोपर ऐसी प्रतिमाअोके प्रत्यक्ष दृष्टान्त मौजूद हैं, जो शूद्र या बहुत नीचे दर्जे के मनुष्योद्वारा भूगर्भसे निकाली गई,स्पर्शी गई, पूजी गई और पूजी जाती है, परन्तु इससे उनके स्वरूपमे कोई परिवर्तन नहीं हुआ, न उनकी पूज्यतामे कोई फर्क (भेद) पडा और न जैनसमाजको ही उमके कारण किसी अनिष्टका सामना करना पडा,प्रत्युत वे बरावर जैनियोमेही नही किन्तु अजैनियोंसे भी पूजी जाती हैं और उनके द्वारा सभी पूजकोका हितसाधन होनेके साथ साथ धर्मकी भी अच्छी प्रभावना होती है । अत जैनसिद्धान्तके अनुमार किसी भी मनुष्यके लिये नित्यपूजनका निषेध नहीं हो सकता । दस्सा, अपध्वसज या व्यभिचारजात सबको इस पूजनका पूर्ण अधिकार प्राप्त है । यह दूसरी बात है कि-अपने आन्तरिक
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जिन-पूजाधिकार मीमासा
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द्वेष, आपसी वैमनस्य, धार्मिक भावोंके प्रभाव और हृदयकी संकीर्णता आदि कारणोंसे -- एक जेनी किसी दूसरे जैनीको अपने घरू या अपने अधिकृत मंदिरमे ही न श्राने दे अथवा श्राने तो दे किन्तु उसके पूजन कार्यमे किसी न किसी प्रकारसे वाधक हो जावे । ऐसी बातोंसे किसी व्यक्ति पूजनाऽधिकार पर कोई असर नही पड सकता । वह व्यक्ति खुशीसे उस मदिरमे नही तो अन्यत्र पूजन कर सकता है । अथवा स्वय समर्थ और इस योग्य होने पर अपना दूसरा नवीन मंदिर भी बनवा सकता है । अनेक स्थानोपर ऐसे भी नवीन मदिरोकी सृष्टिका होना पाया जाता है ।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि श्रागम और सिद्धान्तसे तो दसों को पूजनका अधिकार सिद्ध है और अधिकतर स्थानो पर वे बराबर पूजन करते भी है, परन्तु कही कही दरसोंको जो पूजनका निषेध किया जाता है वह किसी जातीय अपराधके कारण एक प्रकारका तत्रस्थ जातीय दंड है, तो कहना होगा कि शास्त्रोकी प्रज्ञाको उल्लघन करके धर्मगुरुप्रोके उद्देश्य - विरुद्ध ऐसा दडविधान करना कदापि न्यायसंगत और माननीय नही हो सकता और न किसी सभ्य जातिकी ओरसे ऐसी प्रज्ञाका प्रचारित किया जाना समुचित प्रतीत होता है कि 'प्रभुक मनुष्य धर्म सेवन से वचित किया गया और उसकी सतानपरम्परा भी धर्मसेवनसे वचित रहेगी ।'
सासारिक विषयवासनाश्रमे फँसे हुए मनुष्य वैसे ही धर्मकार्यों मे शिथिल रहते हैं, उलटा उनको दड भी ऐसा ही दिया जावे कि वे धर्मके कार्य न करने पावे, यह कहाकी बुद्धिमानी, वत्सलता और जातिहितैषिता होसकती है ? सुदूरदर्शी विद्वानोकी दृष्टिमे ऐसा दड कदापि आदरणीय नही हो सकता । ऐसे मनुष्योके किसी अपराधके उपलक्षमें तो वही दड प्रशसनीय हो सकता है जिससे धर्मसाधन तथा अपने श्रात्म-सुधारका और अधिक अवसर मिले और उसके द्वारा वे अपने पापोका शमन या सशोधन कर सकें- यह कि डूबतेको
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और धक्का दिया जावे । बिरादरी या जातिका यह कर्तव्य नही है कि वह किसीसे धर्मके कार्य छुड़ाकर उसको पाप-कार्योंके करनेका अवसर देवे ।
इसके सिवा जो धर्माधिकार किसीको स्वाभाविक रीतिसे प्राप्त है उसके छीन लेनेका किसी बिरादरी या पचायतको अधिकार ही क्या है ? बिरादरीके किसी भाईसे यदि बिरादरी के किसी नियमका उल्लघन हो जावे या कोई अपराध बन जावे तो उसके लिये बिरादरीका केवल इतना ही कर्तव्य हो सकता है कि वह उस भाई पर कुछ प्रार्थिक दड कर देवे या उसको अपने अपराधका प्रायश्चित्त लेनेके लिये बाधित करे और जब तक वह अपने अपराधका योग्य प्रायश्चित्त न ले ले तब तक बिरादरी उसको बिरादरीके कामोमे अर्थात् विवाह-शादी आदिक लौकिक कार्योंमे शामिल न करे और न बिरादरी उसके यहाँ ऐसे कार्योंमे सम्मिलित हो। इसी प्रकार वह उससे खाने पीने लेने देने और रिश्तेनातेका सम्बन्ध भी छोड सकती है । परन्तु इससे अधिक, धर्ममे हस्तक्षेप करना बिरादरी के अधिकारसे बाह्य है और किसी बिरादरीके द्वारा ऐसा किये जानेका फलितार्थ यही हो सकता है कि वह बिरादरो, एक प्रकारसे, अपने पूज्य धर्मगुरुप्रोकी अवज्ञा - प्रवहेलना करती है ।
जिन लोगो ( जैनियो ) के हृदयमे ऐसे दविधानका विकल्प उत्पन्न हो उनको यह भी समझना चाहिये कि किसीके धर्मसाधन मे विघ्न करना बडा भारी पाप है। अजनासुन्दरीने अपने पूर्वजन्ममे थोडेही कालके लिये, जिनप्रतिमाको छिपाकर, अपनी सौतनके दर्शनपूजनमे अतराय डाला था । उसका परिणाम यहाँ तक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममे २२ वर्षतक पतिका दुसह वियोग सहना पडा और अनेक सकट तथा श्रापदाप्रोका सामना करना पडा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीपद्मपुराणके देखनेसे मालूम हो सकता है ।
रयणसार ग्रन्थमें श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजने लिखा है कि-दूसरों
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जिन-पूजाधिकार-मीमासा १०३ के पूजन और दानमें अन्तराय (विघ्न)करनेसे जन्मजन्मान्तरमें क्षय, कुष्ट, शूल, रक्तविकार, भगदर, जलोदर, नेत्रपीडा शिरोवेदना आदिक रोग तथा शीत-उष्णके माताप और (कुयोनियोमें) परिभ्रमरण आदि अनेक दु खोकी प्राप्ति होती है -
खयकुटसूलमूलो लोयभगदरजलोदरक्खिसिरो।
सीदुण्डवह्मराह पूजादाणंतरायकम्मफल ।। ३३ ।। इसलिये पापोसे डरना चाहिये और किसीको दडादिक देकर पूजनसे वचित करना तो दूर रहा, भूल कर भी ऐसा कार्य नही करना चाहिये जिससे दूसरोके पूजनादिक धर्मकार्योंमे किसी प्रकारसे कोई बाधा उपस्थित हो। बल्कि
उपसंहार
उचित तो यह है कि, दूसरोको हरतरहसे धर्मसाधनका अवसर दिया जाय और दूसरोकी हितकामनासे ऐसे अनेक साधन तैयार किये जॉय जिनसे सभी मनुष्य जिनेन्द्रदेवके शरणागत हो सके और जैनधर्ममे श्रद्धा तथा भक्ति रखते हुए खुशीसे जिनेन्द्रदेवका नित्यपूजनादि करके अपनी पा-माका कल्याण कर सके। __ इसके लिये जैनियोको अपने हृदयकी सकीर्णता दूरकर उसको बहुत कुछ उदार बनानेकी जरूरत है। अपने पूर्वजोके उदार-चरितोंको पढकर, जैनियोको उनसे तद्विषयक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और उनके अनुकरणद्वारा अपना और जगतके अन्य जीवोका हितसाधन करना चाहिए। ___ भगवजिनसेनाचार्यप्रणीत आदिपुराणको देखनेसे मालूम होता है कि आदीश्वर भगवानके सुपुत्र भरत महाराज प्रथम चक्रवर्तीने अपनी राजधानी अयोध्यामे रत्नखचित जिनबिम्बोंसे अलकृत चौबीस चौबीस घटे तय्यार कराकर उनको, नगरके बाहरी दरवाजो और राजमहलोंके तोरणद्वारो तथा अन्य महाद्वारोपर, सोनेकी
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युगवीर-निबन्धावली जंजीरोंमें बांधकर,प्रलम्बित किया था। जिस समय भरतजी इन द्वारोमसे होकर बाहर निकलते थे या इनमें प्रवेश करते थे उस समय वे तुरन्त अर्हन्तोका स्मरण करके, इन घटोमे स्थित अर्हत्पतिमाओंकी वन्दना और उनका पूजन करते थे। नगरके लोगों तथा अन्य प्रजाजनोने भरतजीके इस कृत्यको बहुत पसद किया, वे सब उन घटोका आदर-सत्कार करने लगे और उसके पश्चात् पुरजनोने भी अपनी अपनी शक्ति और विभवके अनुसार उसी प्रकारके घटे अपने अपने घरोके तोरणद्वारोपर लटकाये *। भरतजीका यह उदारचरित बडा ही चित्तको आकर्षित करनेवाला है और इस (प्रकृत) विषयकी बहुत कुछ शिक्षा प्रदान करनेवाला है। उनके अन्य उदार और चरितोका बहुत कुछ परिचय आदिपुराणके देखनेसे मिल सकता है। इसीप्रकार और भी सैंकडो और हजारो महात्मानोका नामोल्लेख
* उपयुक्त प्राशयको प्रगट करने वाले प्रादिपुराण (प- ४१) के वे पार्षवाक्य इस प्रकार है - निर्मापितास्ततो घटा जिनबिम्बैरलकृता । परायरत्ननिर्माणा सम्बद्धा हेमरज्जुभि ।।८७ ॥ लम्बिताश्च बहिरि ताश्चतुर्विशतिप्रमा । राजवेश्म-महाद्वार-गोपुरध्वप्यनुक्रमात् ।। ८८।। यदा किल विनियति प्रविशत्यप्यय प्रभु । तदा मौलापलग्नाभिरस्य स्यादर्हता स्मृति ॥८॥ स्मृत्वा ततोऽहंदर्चानां भक्त्या कृत्वाऽभिवन्दनाम् । पूजयत्यभिनिष्कामन् प्रविशश्च स पुण्यधी ॥१०॥ रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधोशिना । दृष्ट्वाऽहंद्वन्दनाहेतोर्लोकोऽप्यासीत्कृतादर ॥ ३ ॥ पौरनैरत स्वेषु वेश्म-खोरण-दामसु । यथाविभवमाबद्धा घंटास्ताः सपरिच्छदा ॥ १४ ॥
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जिनपूजाधिकार-मीमासा १०५ किया जा सकता है। जैनसाहित्यमें उदारचरित-महात्माओंकी कमी नही है । आज कल भी जो अनेक पर्वतोपर खुले मैदानमें तथा गुफाओंमें जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं और दक्षिणादिदेशोमे कहीं कहींपर जिनप्रतिमनोसहित मानस्तभादिक पाये जाते है, वे सब जैनपूर्वजोकी उदार-चित्तवृत्तिके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं। उदारचरित-महात्माओंके आश्रित रहनेसे ही यह जैनधर्म अनेकवार विश्वव्यापी हो चुका है । अब भी यदि राष्ट्रधर्मका सेहरा किसी धर्मके सिर बँध सकता है तो वह यही धर्म है जो प्राणीमात्रका शुभचिन्तक है। ऐसे धर्मको पाकर भी हृदयमे इतनी सकीर्णता और स्वार्थपरताका होना, कि एक भाई तो पूजन कर सके और दूसरा भाई पूजन न करने पावे, जैनियोंके लिये बडी भारी लज्जाकी बात है । जिन जैनियोका, 'वसुधैव कुटुम्बकम्'x यह खास सिद्धान्त था, क्या वे उसको यहाँ तक भुला बैठे कि अपने महर्मियोमे भी उसका पालन और वर्ताव न करे। जातिभेद या वर्णभेदके कारण आपसमे ईर्षा-द्वेष रखना, एक दूसरेको घृणाकी दृष्टिसे अवलोकन करना और अपने लौकिक कार्यों-सबधी कषायको धार्मिक कार्यमे निकालना, ये सब जैनियोंके प्रात्म-गौरवको नष्ट करनेवाले कार्य है । जैनियोको इनसे बचना चाहिये और समझना चाहिये कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र ये चारो वर्ण अपनी अपनी क्रियानो (वृत्ति)के भेदकी अपेक्षा वर्णन किये गये हैं। वास्तवमे चारों ही वर्ण जैनधर्मको धारण करने एवं जिनेद्रदेवकी पूजा-उपासना करनेके योग्यहै और इस सम्बन्धसे जैनधर्मको पालन करते हुए सब आपसमे भाई भाईके समान है । इसलिये, हृदयकी सकीर्णता
x ममस्त भूमडल अपना कुटुम्ब है । * विप-क्षत्रिय-विट-शद्रा प्रोक्ता. क्रियाविशेषतः । जैनधर्म परा शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमा.॥
-सोमसेनाचार्य
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युगवीर-निबन्धावली को त्यागकर धार्मिक कार्योंके अनुष्ठानमे सब जैनियोको परस्पर बन्धुताका बर्ताव करना चाहिये और आपसमें प्रेम रखते हुए एक दूसरेके धर्मकार्योंमे सहायक होना चाहिये । इसी प्रकार जो लोग जैनधर्मकी शरणमे आवे या आना चाहे, उनको सब प्रकारसे धर्मसाधनमे सहायता देनी चाहिये ।।
आशा है हमारे विचारशील निष्पक्ष विद्वान् और परोपकारी भाई इस मीमासाको पढकर सत्यासत्यके निर्णयमे दृढता धारण करेगे और अपने कर्त्तव्यको समझकर जहाँ कही, सुशिक्षाके अभाव और ससर्गदोषके कारण, आगम और धर्मगुरुप्रोके उद्देश्य-विरुद्ध प्रवृत्ति पाई जावे उसके उठाने और उसके स्थानमे शास्त्रसम्मत समीचीनरीतिका प्रचार करनेमे दत्तचित्त और यत्नशील होगे।
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जैनियोंका अत्याचार
जो जैनी वनस्पतिकायके जीवोंकी भी रक्षा करते है, उनके ऊपर अत्याचारके दोषका अारोपण होते देख बहुतसे पाठक चौकेगे-परन्तु नही, चौकनेकी जरूरत नही है । वास्तवमे जैनियोने घोर अत्याचार किया है और वे अब भी कर रहे है। हमारे भाइयोने अभी तक इस
ओर लक्ष्य ही नही दिया और न कभी एकान्तमे बैठकर इस पर विचारही किया है। यदि जैनियोके अत्याचारकी मात्रा बढी हुई न होती तो आज जैनियोका इतना पतन कदापि न होता-जौनयोकी यह दर्दशा कभी न होती । जैनियोका समस्त अभ्युदय नष्ट होजाना,इनके ज्ञान-विज्ञानका नामशेष रह जाना अपने बल-पराक्रमसे जैनियोका हाथ धो बैठना,अपना राज्य गँवा देना, धर्मसे च्युत और प्राचारभ्रष्ट हो जाना तथा जैनियोकी सख्याका दिनपरदिन क्म होते जाना और जैनियोका सर्वप्रकारसे नगण्य और निस्तेज हो रहना, यह सब अवश्य ही कुछ अर्थ रखता है-इन सबका कोई प्रधान कारण ज़रूर है, और वह है 'जैनियोका अत्याचार'। _ जिस समय हम जैनसिद्धान्तको देखते है, जैनियोकी कर्म-फिलासोफीका अध्ययन करते है और साथ ही जैनियोकी यह पतितावस्था क्यो? लौकिक और परमार्थिक दोनोप्रकारकी उन्नतिसे जैनी इतने पीछे क्यो ? इस विषयपर अनुसधानपूर्वक गभीर भावसे गहरा
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युगवीर - निबन्धावली
विचार करते हैं तो उस समय हमको मालूम होता है और कहना पडता है कि यह सब जैनियोके अपने ही कर्मोंका फल है । जो जैसा करता है वह वैसा ही फल पाता है । अवश्य ही जैनियोने कुछ ऐसे काम किये हैं जिनका कटुक फल वे अब तक भुगत रहे हैं। यह कभी हो नही सकता कि अत्याचार तो करे दूसरे लोग और फल उसका भोगना पडे जैनियोंको। जैन फिलासोफी इसको माननेके लिए तैयार नही । यदि थोडी देरके लिए उस मनुष्यको भी जिस पर अत्याचार किया गया हो, कोई बुरा फल सहन करना हो अथवा किसी प्रपत्तिका निशाना बनना पडे, तो कहना होगा कि उसने भी जरूर अपनी चेष्टा या अपने मन-वचनादिकके द्वारा दूसरोके प्रति कोई अत्याचारविशेष किया है और वह बुरा फल उसके ही किसी कर्मविशेषका नतीजा है । यही हालत जैनसमाजकी है । यद्यपि इसमे कोई संदेह नही कि पिछले समयमे जैनियो पर थोडे बहुत प्रत्याचार जरूर हुए हैं, परन्तु वे अत्याचार जैनियोकी वर्तमान दशाके कारण नही हो सकते। जैनियोकी वर्तमान अवस्था कदापि उनका फल नही है । यदि जैनियोने उन प्रत्याचारोको मनुष्य बनकर सह लिया होता और स्वय उनसे अधिक अत्याचार न किया होता तो ज़रूर था कि यह जैनबाग (जैनसमाज दूसरोके प्रत्याचाररूपी खाद (Manure) से और भी हराभरा और सरसब्ज होता - खूब फलता और फूलता, परन्तु जैनियोको ऐसी सद्बुद्धि ही उत्पन्न नही हुई। उनके विचार प्राय इतने सकीर्ण और स्वार्थमय रहे हैं कि सदसद्विवेकवती बुद्धिको उनके पास फटकनेमें भी लज्जा आती थी । प्रत्याचार और भी धर्मानुयायिोको सहन करने पडे हैं, परन्तु उनमेंसे जिन्होने अपने कर्तव्यपथको नही छोडा, अपने सामाजिक सुधारको समझा, उन्नति के मार्ग को पहचाना, अपनी त्रुटियोंको दूर किया, सबको प्रेमकी दृष्टिसे देखा और अपने स्वार्थको गौराकर दूसरोंका हितसाधन किया, वे दुःखके दिन व्यतीत करके आज अपने सत्कर्मोंका सुमधुर
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जैनियोका अत्याचार फल भोग रहे हैं। इससे साफ प्रगट है कि जैनियोकी वर्तमान दशा उन अत्याचारोका फल नही है जो जैनियों पर हुए, बल्कि उन अत्याचारोका फल है जो जेनियोंने दूसरो पर किये और जो परस्पर जैनियोने एक दूसरे पर किये । सच है, मध्नुयोंका अपने ही कर्मोंसे पनन और अपने ही कर्मोसे उत्थान होता है । जिन जैनियोके ज्ञान
और आचरणकी किसो समय चारो ओर धाक थी, जिनके सर्वप्राणिप्रेमने अनेकवार जगतको हिला दिया, और जिनका राज्य समुद्र पर्यन्त फैला हुआ था, आज वे ही जैनी बिल्कुल ही रक बने हुए हैं । यह सब जैनियोके अपने ही कर्मोका फल है। इसके लिए किसीको दोष देना-किसी पर इलजाम लगाना-भूल है । जैनियोकी वर्तमान स्थिति इस बातको बतला रही है कि, उन्होने ज़रूर कोई भारी अत्याचार किये हैं, तभी उनकी ऐसी शोचनीय दशा हुई है। __जैनियोने एक बडा भारी अपराध तो यह किया है कि इन्होने दूसरे लोगोको धर्मसे वचित रक्खा है । ये खुद ही धर्मरत्नके भडारी और खुद ही उसके सोल प्रोप्राईटर (अकेले ही मालिक) बन बैठे। दूसरे लोगोको--दूसरे समाज-वालो तथा दूसरे देशनिवासियोकोधर्म बतलाना, धर्मके मार्ग पर लगाना तो दूर रहा, इन्होने उलटा उन लोगोसे धर्मको छिपाया है । इनकी अनुदार-दृष्टिमे दूसरे लोग प्राय बडी ही घृणाके पात्र रहे है, वे मनुष्य होते हुए भी मनुष्यधर्मके अधिकारी नहीं समझे गये । यद्यपि जैनी अपने मदिरोमें यह तो बराबर घोषणा करते रहे कि 'मिथ्यात्वके समान इस जीवका कोई शत्रू नहीं है, मिथ्यात्व ही ससारमे परिभ्रमण करानेवाला और समस्त दु खोका मूल कारण है । परन्तु मिथ्यात्वमे फँसे हए प्राणियोपर इन्हे जरा भी दया नहीं आई, उनकी हालत पर इन्होने जरा भी तरस नही खाया और न मिथ्यात्व छुडानेका कोई यत्न ही किया। इनका चित्त इतना कठोर हो गया कि दूसरोंके दुख सुखसे इन्होंने कुछ सम्बन्ध ही नही रक्खा ।
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युगवीर-निबन्धावली जिस प्रकार कोई दुरात्मा पुत्र अपने स्वार्थमें प्रधा होकर यह चाहता है कि मैं अकेला ही पैतृक सम्पत्तिका मालिक बन वेठू और अपनी इस कामनाको पूरा करनेके लिए वह अपने पिताके समस्त धन पर अधिकार कर लेता है यदि पिताने कोई वसीयत भी की हो तो उसको छिपानेकी चेष्टा करता है- और अपने उन भाइयोको जो दूरदेशान्तरमे रहनेवाले हैं, जो नाबालिग ( अव्युत्पन्न ) हैं, जो भोले या मूर्ख हैं, जिनको अन्य प्रकारसे पिताके धनकी कुछ खबर नहीं है अथवा जो निर्बल हैं उन सबको अनेक उपायो-द्वारा पैतृकसम्पत्तिसे वचित कर देता है। उसे इस बातका जरा भी दुख-दर्द नहीं होता कि मेरे भाइयोकी क्या हालत होगी ? उनके दिन कैसे कटेगे? और न कभी इस बातका खयाल ही आता है कि मैं अपने भाइयो पर कितना अन्याय और अत्याचार कर रहा हूँ, मेरा व्यवहार कितना अनुचित है, मैं अपने पिताकी आत्माके सन्मुख क्या मुह दिखाऊँगा । उसके विवेकनेत्र बिल्कुल स्वार्थसे बन्द हो जाते हैं और उसका हृदययत्र सकुचित होकर अपना कार्य करना छोड देता है । ठीक उसी प्रकारकी घटना जैनियोकी हुई है। ये अकेले ही परमपिता श्री महावीरजिनेन्द्रकी सम्पत्तिके अधिकारी बन बैठे | "समस्त जीव परस्पर समान है, जैनधर्म आत्माका निजधर्म है, प्राणीमात्र इस धर्मका अधिकारी है, सबको जैनधर्म बतलाना चाहिये और सबको प्रेमकी दृष्टि से देखते हुए उनके उत्थानका यत्न करना चाहिए।" वीरजिनेन्द्रकी इस वसीयतको-उनके इस पवित्र आदेशको- इन स्वार्थी पुत्रोने छिपानेकी पूर्णरूपसे चेष्टा की है। इन्होंने अनेक उपाय करके अपने दूसरे भाइयोको धर्मसे कोरा रक्खा, उनकी हालत पर जरा भी रहम नही खाया और न कभी अपने इस अन्याय, अत्याचार और अनुचित व्यवहार पर विचार या पश्चात्ताप ही किया है। बल्कि जैनियोका यह अत्याचार बहुत कुछ अंशोमें उस स्वार्थान्ध-पुत्रके अत्याचारसे भी बढ़ा रहा । क्योकि
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जैनियोंका अत्याचार किसी अधिकारीको धनादिकसे वचित रखना, यद्यपि, अत्याचार जरूर है, परन्तु जान-बूझकर किसीको पात्मनाभसे वंचित रखना, यह उससे कही बढकर अत्याचार है । मेरा तो, इस विषयमें,यहां तक खयाल है कि यह अत्याचार किसीको जानसे मार डालनेकी अपेक्षा भी अधिक है । धनादिक पर-पदार्थोंका वियोग इतना दुखजनक नही हो सकता जितना कि प्रात्मलाभसे वंचित रहना । जो लोग अपनी आत्माको जानते हैं,अपने स्वरूपको पहचानतेहैं, धर्म क्या और अधर्म क्या इसका जिन्हे बोध है, उनको धनादिकका वियोग भी इतना कष्टकर नहीं होता जितना कि न जानने और न पहचाननेवालो को होता है । इसलिये दूसरोको धर्मसे वंचित रखना उनके लिये घोर दु खोकी सामग्री तैयार करना है। क्या इस अत्याचारका भी कही ठिकाना है? शोक ऐसा महान अत्याचार करनेवाले जैनियोका पाषाणहृदय, दूसरोके दुखोका स्मरण ही नही किन्तु प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए भी ज़रा नही पसीजा-अात्मलाभसे वचित पापी और मिथ्यादृष्टि मनुष्य जैनियोके सन्मुख ही अनेक प्रकारके अनर्थ और पापाचरण करके अपनी आत्मायोका पतन करते रहे, परन्तु जेनियोको उन पर कुछ भी दया नहीं आई और न दूसरे जीवोकी रक्षाका ही कुछ खयाल उत्पन्न हुआ।
ससारमें ऐसा व्यवहार है कि यदि कोई अधा मनुष्य कही चला जा रहा हो और उसके आगे कुओं आजाय तो देखनेवाले उस अधेको तुरन्त ही सावधान कर देगे और अपनी समस्त शक्तिको, उसे कुएँमे गिरनेसे बचाने अथवा गिर जाने पर उसके शीघ्र निकालनेमे, लगा देंगे। यदि कोई मनुष्य अधेके आगे कुप्रॉ देखकर भी चुपचाप बैठा रहे और उसकी रक्षाका कुछ भी उपाय न करे तो वह बहुत पापी और निन्द्य समझा जाता है। किसी कविने कहा भी है
जब तू देखै आँखसे, अंधे आगे कूप । तब तेरा चुप बैठना, हे निश्चय अघरूप ॥
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युगवीर-निबन्धावली इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य किसीको दिनदहाड़े लूटता हो और दूसरा आदमी उसके इस कृत्यको देखता हुमा भी प्रानन्दसे हक्का गुडगुड़ाता रहे और उसके बचानेको कुछ भी कोशिश न करे, तो कहना होगा कि वह महा अपराधी है। जैनी लोग इस बातको बराबर स्वीकार करते आए है कि मिथ्यादृष्टि लोग अधे होते है-उन्हे हित-अहित कुछ भी सूझ नही पडता, परन्तु जैनियोक सन्मुख ही लाखो और करोडो मिथ्यादृष्टि अतत्त्वश्रद्धारूपी कुएँमे बराबर गिरते रहे तोभी इन सुदृष्टियोंको उनपर जराभी दया न आई । इन्होने अपने मौनव्रतको भगकर उनके बचाने या निकालनेकी कुछ भी चेष्टा नही की । और तो क्या इनके सामनेही बहुतसे इनके भाइयो (जैनियो)का धर्म-धन लूट लिया गया और वे मिथ्यादृष्टि बना दिये गये,परन्तु फिर भी इनके कठोर चित्तपर कुछ आघात नही पहुँचा । ये बराबर अपने आनन्दमे मस्त रहे । कोई जीयो या मरो, इन्होने उसकी कुछ पर्वाह नहीं की। बल्कि ये लोग उलटा खुश हुए और इन्होने जानबूझकर अपने बहुतसे भाइयोको लूटेरोके सुपूर्द किया। यदि किसी भाईसे कोई अपराध या खोटा आचरण बन गया तो इ होने रसको अपनेमेसे ऐसे निकालकर फैक दिया जैसा कि दूधमेसे मक्खीको निकाल कर फेक देते है। इन्होने उसको कुछ भी धीर-दिलासा नही दिया, न इन्होने उसके खोटे पाचरणको छडाकर धर्ममे स्थिर करने की कोशिश की और न प्रायश्चित्त आदिसे शुद्ध करनेका कोई यत्न ही किया। बल्कि उसके साथ बिल्कुल शो-सरीखा व्यवहार करना प्रारभ कर दिया । नतीजा इसका यह हुआ कि उसको अपनी ससारयात्राका निर्वाह करनेके लिए दूसरोका शरण लेना पड़ा और वह हमेशाके लिए जैनियोंसे बिछड गया। इससे समझ लीजिए कि
नियोने कितना बड़ा अपराध और अत्याचार किया है--कहाँ तक इन्होने अपने धर्मका उल्लंघन और कहा तक उसके विरुद्ध प्राचरण किया है।
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जैनियोंका अत्याचार
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मनुष्यका यह धर्म नही है कि यदि कोई मनुष्य किसी नदी श्रादिमे मिरता हो या बहता जाता हो तो उसको उलटा धक्का दे दिया जावे और यदि वह किनारेके पास भी हो और निकलना भी चाहता हो तो उसको ठोकर मार कर श्रौर दूर फेक दिया जावे, जिससे वह निकलने के काबिल भी न रहे। बल्कि इसके विपरीत उसको न गिरने देना या हस्तावलम्बन देकर निकालना ही मनुष्य-धर्म कहलाता है । इसीलिए जेनियोके यहाँ 'स्थितिकरण' धर्मका अग रक्खा गया है । (स्वामी समन्तभद्राचार्यने 'रत्नकरड श्रावकाचार' में इसका स्वरूप इस प्रकार वर्णन किया है
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दर्शनावरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सले । प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञै स्थितिकरणमुच्यते ॥
अर्थात् जो लोग किसी कारणवश अपने यथार्थ श्रद्धान तथा चारित्रसे डिगते हो, तो धर्मसे प्रेम रखनेवाले पुरुषोको चाहिये कि उनको फिरसे अपने श्रद्धान और आचरणमे दृढ कर दे । यही 'स्थितिकरण' अग कहलाता है ।
परन्तु शोक | जैनियोने यह सब कुछ भुला दिया । गिरतेको सहारा या हस्तावलम्बन देना तो दूर रहा इन्होने उलटा उसको और ज़ोरका धक्का दिया। श्रद्धान और प्राचररणसे डिगना तो दूसरी बात, यदि किसीने रूढियो (आधुनिक जैनियो के सम्यकूचारि
१ ) के विरुद्ध ज़रा भी आचरण किया अथवा उनके विरुद्ध अपना स्ख़याल भी जाहिर किया तो बस उस बेचारे की शामत श्रागई, और वह झट जनसमाजसे अपना अलग जीवन व्यतीत करनेके लिए मजबूर किया गया । जैनियोके इस अत्याचारसे हजारो जैनी गाटे दस्से या विनैकया बन गये, लाखो अन्यमती हो गये, जैनियो - के देखते देखते मुसलमानी जमानेमे लाखो ब्राह्मण, क्षत्रिय मौर वैश्य जबरन मुसलमान बना लिये गये, और इस जमानेमे तो कितने. ही ईसाई बना लिये गये, परन्तु जैनियो के संगदिल ( प्राषाणहृक्य ..
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युगवीर - निबन्धावली
पर इससे कुछ भी चोट नहीं लगी । इन्होंने आजतक मी उन सबोंके शुद्ध करने का अपने बिछुड़े हुए भाइयोंको फिरसे गले लगानेका — कोई उपाय नही किया । ऐसा कोई अपराध नही जिसका प्रायश्चित्त न हो सके । भगवज्जिनसेनाचार्य के निम्नलिखित वाक्यसे भी प्रगट हैं कि - 'यदि किसी मनुष्य के कुलमें किसी भी कारण से कभी कोई दूषण लग गया हो तो वह राजा या पंच प्रादिकी सम्मति से अपनी कुलशुद्धि कर सकता है। और यदि उसके पूर्वज - जिन्होंने दोष लगाया हो -- दीक्षायोग्य कुलमे उत्पन्न हुए हो तो उस कुलशुद्धि करनेवालेका और उसके पुत्र-पौत्रादिक सतानका यज्ञोपवीत संस्कार भी हो सकता है।' वह वाक्य इस प्रकार है कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्तदूषणम् । सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्व यदा कुलम् ॥ तदास्योपनयात्वं पुत्रपौत्रादि सततौ ।
न निषिद्ध हि दीक्षा कुले वेदस्य पूर्वजा' ||
Cas
- आदिपुराण, पत्र ४० इससे दस और हिन्दू से मुसलमान या ईसाई बने हुए मनुष्योकी शुद्धिका खासा अधिकार पाया जाता है। बल्कि शास्त्रोमें उन म्लेच्छोकी भी शुद्धिका विधान देखा जाता है जो मूलसे ही शुद्ध हैं । आदिपुराण में यह उपदेश स्पष्ट शब्दों में दिया गया है कि, 'प्रजाको बाधा पहुँचानेवाले अक्षर ( अनपढ ) म्लेच्छोंको कुलशुद्धि श्रादिके द्वारा अपने बना लेने चाहिएँ । यथा
स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान्प्रजाबाधा विधायिन । कुजशुद्धिप्रदानाचं स्वसात्कुयदुिपक्रमै ।।
- श्रादिपुराण, पर्व ४२ परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी जैनियोंके संकीर्ण हृदयने महामात्र के इन उदार और दयामय उपदेशोंको ग्रहण नहीं किया । सच की है, सेरभरके पात्रमें मनमर कैसे समा सकता है ? अपात्र
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जैनियोंका अत्याचार
११५ जैतियोंके हाथमे जैनधर्म पड जानेसे ही उन्होंने जैनधर्मका गौरव नहीं समझा और इसलिए दूसरोंपर मनमाना अत्याचार किया है। ____ मैं कहता हूँ कि दूसरोंको धर्म बतलाने या सिखलानेमें धार्मिकभाव और परोपकार बुद्धिको जाने दीजिए,जैनियोंने यह भी नहीं समझा कि परिस्थिति कितने महत्वकी चीज है। क्या परिस्थिति कभी उपेक्षगीय हो सकती है? कदापि नहीं । जहाँ चारो ओरका जलवायु दूषित हो वहाँ कदापि प्रारोग्यता नहीं रह सकती । जहाँ चारो ओर मिथ्यादृष्टियो और पापाचारियोका प्राबल्य हो वहाँ जेनी भी अपना सम्यक्त्व और धर्म कायम नही रख सकते। यदि जैनियोने इस परिस्थितिके महत्वको ही समझ लिया होता तब भी वे प्रात्मरक्षाके लिए ही दूसरोकी स्थितिका सुधार करना अपना कर्तव्य समझते, अवश्य ही दुसरोको धर्मकी शिक्षा देनेका प्रयत्न करते और कदापि धर्मप्रचारके कार्यसे उपेक्षित न होते, परन्तु महर्षियो-द्वारा सरक्षित वीरजिनेन्द्रकी मम्पत्तिको पाकर जैनी ऐसे कृपण बने-इनमें चित्तको कठोर करनेवाली ऐसी धार्मिक-कृपणता आई कि दूसरोको उस सम्पत्तिसे लाभ पहुंचाना तो दूर रहा ये खुद भी उससे कुछ लाभ न उठा सके। याद इस परमोत्कृष्ट जैनधर्मको पाकर जैनी अपना ही कुछ भला करते तो भी एक बात थी, परन्तु कृपरणका धन जिस प्रकार दान और भोगमे न लगकर तृतीया गति (नाश) को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार जैनियोने जैनधम भी तृतीया गतिको पहँचा दिया--न अाप इससे कुछ लाभ उठाया और न दूसरोको उठाने दिया और जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाशको रोक लेते हैं उसी प्रकार इन धार्मिक-कृपरगोने जैनधर्मके प्रकाशको आच्छादित कर दिया !
जौनयोने जिनवाणी माताके साथ जैसा सलूक किया है उसको याद करके तो हृदय कापता है और शरीरके रोगटे खड़े हो जाते हैं। इन्होने माताको उन अधेरी कोठरियोमें बद करके रक्खा,जहाँ रोशनी और हवाका गुज़र नहीं, उसका अंग चूहोंसे कुतरवाया और दीमको
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युगबीर-निबन्धावली को खिलाया; माता गलती है या सडती, जीती है या मरती, इसकी इन्होंने कुछ भी पर्वाह नही की । हजारो जैनग्रन्थोकी मिट्टी हो गई, हजारो शास्त्र चूहों और दीमकोके पेटमे चले गये, लाखो और करोडो मनुष्य मातृवियोग दु खसे पीडित रहे, परन्तु इन समस्त दृश्योंसे जैनियोके वज्रहृदय पर कुछ भी चोट नही लगी । माता पर इस प्रकारके अत्याचार करते हुए जैनियोका हृदय जरा भी कम्पायमान नही हुआ और इन्हे कुछ भी लज्जा या शर्म नही आई। इन्होने उलटी यहाँ तक निर्लज्जता धारण की कि अपने इन अत्याचारोका नाम विनय' रख छोडा । वास्तवमे इनका नाम विनय नहीं है, ये घोर अत्याचार है-और न ढाई हाथ दूरसे हाथ जोडने या चावलके दाने चढा देनेका नाम ही विनय है । जिनवारणीका विनय है-जैनशास्त्रोंका पढना-पढ़ाना, उनके मुताबिक उनकी शिक्षाप्रोके अनुसारचलना और उनका सर्वत्र प्रचार करना। इस वास्तविक विनयसे जैनी प्राय कोसो दूर रहे और इसलिए इन्होने माताका घोर अविनय ही नहीं किया, बल्कि कितने ही जैनशास्त्रोका लोप भी किया है। उसीका फल है जो आज बहुतसे शास्त्र नहीं मिलते। इनकी इस विलक्षण विनयवृत्तिको देखकर ही एक दुखित हृदय कविने कहा है -
बस्ते बॅधे पडे हैं अलूमोफनूनके ।
चावल चढ़ावे उनको बस इतने है कामके ।। इसीप्रकार जैनियोने स्त्रीसमाज पर जो अत्याचार किया है वह भी कुछ कम नहीं है । इन्होने लडकियोको बेचा, धनके लालचसे अपनी सुकुमार बालिकाओको यमके यजमानोके गले बाध उन्हे हमेशाके लिये पापमय जीवन व्यतीत करनेको मजबूर किया, अनमेल सम्बन्ध करके स्त्रियोका जीवन दुखमय बनाया और उन्हे अनेक प्रकारका दुःख और कष्ट पहुँचाया,पर इन सब अत्याचारोको रहने दीजिए।
..x विद्यायो-विज्ञानो तथा कला-कौशलके ।
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जैनियोंका प्रत्याचार
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जैनियोंने इन सब अत्याचारोंसे बढकर स्त्रीसमाज पर जो भारी अत्याचार किया है उसका नाम है स्त्रीसमाजको प्रशिक्षित रखना । स्त्रियो और बालिकाप्रोको विद्या न पढाकर जैनियोने उनके साथ ast ही शत्रुताका व्यवहार किया है। जिस विद्या और ज्ञानके बिना मनुष्य निद्रित, अचेत, पशु और मृतकके तुल्य वर्णन किये गये हैं और जिसके बिना सुख-शातिकी प्राप्ति नही हो सकती, उसी विद्या और ज्ञानसे, जैनियोने स्त्रियोको वचित रक्खा, यह इनका कितना बडा अन्याय है । जैनियोने स्त्रियोकी योग्यता और उनकी विद्यासम्पादन-शक्तिको न समझा हो, ऐसा नही, किन्तु 'लड़कियाँ पराए घरका धन और पराए घरकी चॉदनी हैं, वे हमारे कुछ काम नहीं श्री सकतीं।' इस स्वार्थमय वासनासे जैनियोने उन्हे विद्यासे विमुख रक्खा है । इस नीच विचारने ही जैनियोको अपनी सतानके प्रति ऐसा निर्दय बनाया और इतना विवेकहीन बनाया कि उन्होने स्त्रीसमाजके साथ पशु-सदृश व्यवहार किया, उन्हे जडवत् रखखा, काष्ठपाषाणकी मूर्तियाँ समझा और उन्हे अपनी श्र मोनति करने देना तो दूर रहा, यह भी खबर न होने दी कि ससार मे क्या हो रहा है । क्या यह थोडा अत्याचार है ? नही, इस प्रयाचारके करने में जैनी मनुष्यताका भी उल्लघन कर गये। इनसे पशुपक्षी ही अच्छे रहे, जो अपनी नर और मादा दोनो प्रकारकी सतानको समानदृष्टि अवलोकन करते हैं और उससे किसी भी प्रकारके प्रयुपकारकी वाछा न रखते हुए अपना कर्त्तव्य समझ कर सहर्ष उसका पालन-पोषण करते हैं ।
यहाँ पर मुझे यह लिखते हुए दुख होता है कि जैनियोका यह अत्याचार केवल स्त्रीसमाजको ही नही भोगना पडा, बल्कि पुरुषोको भी इसका हिस्सेदार बनना पडा है -- बालको पर भी इसका नजला टपका है। माता के प्रशिक्षित रहनेसे -- परिस्थितिके बिगड जाने से - वे भी शिक्षासे प्राय विहीन ही रहे हैं । हजारमें दस-पांचो
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सुगबीर-निबन्धावली यदि मामूली विद्या पढी भी-कुछ अक्षरोका अभ्यास किया भी--सो इसका नाम शिक्षा नहीं है । जैन बालकोको जैसी चाहिएँ वैसी विद्याएँ नहीं पढ़ाई गई। यदि उन्हे बराबर विद्याएँ पढ़ाई जाती तो आज उन हजारो विद्यायोका लोप न होता, जिनका उल्लेख जनशास्त्रोमे मिलता है। दिव्य विमानोकी रचनाको जाने दीजिये, प्राज कोई जैनी उस मयूरयत्रके बनानेकी विधि भी नहीं जानता, जिसको जीव धरके पिता सत्यधरने बनाया था और उसमे अपनी गर्भवती स्त्रीको बिठलाकर, गर्भस्थ पुत्रको रक्षाके लिए, उसे दूर देशान्तरमे पहुँचाया था । इसी प्रकार सैकडो विद्याप्रोका नामोल्लेख किया जा सकता है। जैनियोने शिक्षा और खासकर स्त्री-शिक्षासे द्वेष रखकर इन समस्त विद्याप्रोके लोप करनेका पाप अपने सिर लिया है और इसलिए जैनी समस्त जगतके अपराधी है।
जैनियोका एक भारी अत्याचार और भी है और वह अपनी सतानकी छोटी उम्रमे शादी करना है। इसके विषयमे मुझे कुछ विशेष लिखनेकी जरूरत नहीं है । हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि इस राक्षसी कृत्यके द्वारा आजतक लाखो ही नहीं किन्तु करोडो दुधमुंही बालिकाएं विधवा हो चुकी है--वैधव्यकी भयकर चमे भुन चुकी हैं--, हजारोने अपने शीलश गारको उतार दिया, व्यभिचारका आश्रय लिया दोनो कुलोको क्लक्ति किया और भ्रणहत्याये तक कर डाली। इसके सिवाय, बाल्यावस्थामे स्त्री-पुरुषका ससर्ग हो जानेसे जो शारीरिक और मानसिक निर्बलताएँ इनकी सतानको उत्तरोत्तर प्राप्त हुई उनका कुछ भी पारावार और हिसाब नही है। निर्बल मनुष्यका जीवन बडाही वबाले-जान और सकटमय होता है। रोगोका उसपर अाक्रमण हो जाना तो एक मामूलीसी बात है। जैनियोंके इस अत्याचारसे उनकी सतान बड़ी ही पीडित रही। उससे हिम्मत, साहस धैर्य, पुरुषार्थ और वीरता आदि सद्गुणोकी सृष्टि ही एकदम उठ खडी हुई । जेनी निर्बल होकर तन्दुल मच्छकी तरह
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बोलियों का अत्याचार घोर मानसिक पापोका बचा करते रहे और इन पापोंने उदयमे आकर जम-जन्मावरोंमें इन्हें बब ो नीचा दिखाया। जैनियोका ग्रह गुड्का गुडीका खेल (बाल्यविवाह ) बड़ा ही हृदयद्रावक हैं । इसने जनसमाजकी जड़में बड़ाही कुठाराघात किया है। ___ इस प्रकार जैनियोने बहुत बड़े बड़े अत्याचार किये हैं। इनके सिमा और जो लोटे-मोटे अत्याचार किये हैं उनकी कुछ गिनती ही नही है । जैनियोंके इन अत्याचारोंसे जैनधर्म कितना कलकित हुमा और जगतमे कैसे कैसे अनर्थ फैले इसका कुछ ठिकाना नहीं है। जैनियोके इन सब अत्याचारोही का फल उनकी वर्तमान दशा है। बल्कि नही, जैनियोमे इस समय जो कुछ थोडी बहुत अच्छी बाते बची-खुची हैं उनका श्रेय स्वामी कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलकदेव, विद्यानन्द और पिद्धसेन आदि परोपकारी आचार्यों तथा अन्य परोपकारी महानुभावोको प्राप्त है। ऐसे जगद्वन्धुअोके आश्रित रहनेसे ही जैनधर्मके अभी तक कुछ चिन्ह अवशेष पाये जाते हैं, अन्यथा आम तौर पर जैनियोके अत्याचार उनकी सत्ताको बिल्कुल लोप करनेके लिए काफी थे । जब तक जैनियोने अत्याचार करना प्रारभ नही किया था तब तक इनका बराबर डका बजता रहा, ये खूब फलते और फूलते रहे । परन्तु जबसे ये लोग अत्याचारो पर उतर पाए तभीसे इनका पतन शुरू हो गया । और आज वह दिन या गया कि ये लोग पूरी अधोदशाको पहुँच गये है । जैनियोके अत्याचार जैनियोको खूब ही फले- इन्होने अपने कियेकी खूब सज़ा पाई। ये लोग दूसरोको धर्म बतलाना नही चाहते थे, अब खुद ही उस धर्मसे वचित हो गये, दूसरोको घृणाकी दृष्टि से देखते थे, अब खुद ही घृणाके पात्र बन गये, जिस बल, विद्या और ऐश्वर्य पर इन्हे घमड था वह सब नष्ट हो गया, ये लोग अपने आपको भले ही जीवित समझते हों परन्तु जीवित समाजोमें अब इनकी गणना नहीं है, इनको गणना है मरणोन्मुख समाजोमें। जैनो लोग अन्धकारमे पड़े हुए
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Saranshaility hug और अमल
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युगवीर - निबन्धावली
सिसक रहे हैं - वास्तवमें इनकी हालत बडी ही करुणाजनक है । जब तक जेनी लोग इन अत्याचारोंको बद करके अपने पूर्व पापोंका प्रायवित्त नहीं करेंगे तब तक वे कदापि इस देवकोपसे विमुक्त नही हो सकते, उनका अभ्युत्थान नही हो सकता और न उनमें जीवनीशक्तिका फिरसे सचार ही हो सकता है ।
आशा है हमारे जैनीभाई इस लेखको पढ़कर अपने अत्याचारोकी परिभाषा समझेंगे और उनके भयकर परिरणामको विचार कर शीघ्र ही उनका प्रायश्चित्त करनेमे दत्तचित्त होगे ।
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विवाह- समुद्देश्य
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त्रिवाहकी समस्या
बडे बडे विद्वानो और ग्राचार्योंका कथन है कि 'स्त्री बिना ज़ज़ीरका - जजीर न होते हुए भी -दृढ बन्धन है, स्त्रीसे बढकर पुरुष के लिए दूसरा कोई बडा बन्धन नही । यथा
-
कलत्र नाम नराणामनिगडर्मापि दृढ बुधनमाहु | - सोमदेव न कलत्रात्पर किनिबन्धन विद्यते नृणाम् । शुक्र । वस्तुत विचार करने पर भी ऐसा ही प्रतीत होता है । स्त्रीका परिग्रह करने पर स्वभावसे ही मनुष्य वहुत से प्रशोमे अपना स्वात
- अपनी आजादी - खो बैठता है, तरह तरहकी चिन्ताओ, श्राप - दा तथा ज़िम्मेदारियोकी दलदलमे फँस जाता है और इस तरह पर बन्धनमे पडकर एक अच्छा खासा बन्दी बन जाता है । वास्त-विक दृष्टिसे बन्धनमे पडना कभी इष्ट नही हो सकता । बन्धन से परतत्रता आती है और परतत्रता या पराधीनतामे कही भी असली सुख नही है -- पेरोमें जजीर डालकर खमेसे बाँधा हुआ एक हाथी. कभी अपनी इच्छानुसार सुखपूर्वक बिहार नही कर सकता। इसलिए शास्त्रकारोने बन्धनको दुःख वर्णन किया है । बन्धनसे छूटनेपूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्त करने -- पूरी प्राजादी हासिल करने - ही का
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युगवीर-निबन्धावली नाम मुक्ति है। उसीमें वास्तविक सुख है और वही सब जीवोका अन्तिम ध्येय बतलाया जाता है । साथ ही,महानसे महान् प्राचार्योंका-धर्मगुरुप्रोंका-यह भी कथन है कि 'मैयुन करना पाप है' - पच पापोमे उसकी गणना है। अमृतचन्द्रसूरिने, तिलोसे पूर्ण नलीमें तप्त-लोह-शलाकाके प्रवेशका उदाहरण देकर, मैथुनमें पापकी-- द्रव्यहिंसाकी-मात्राको और भी अधिकताके साथ प्रदर्शित किया है । यथा -
हिंस्यन्ते तिलनाल्या सप्तायसि विनिहिते तिला यद्वन । बहयो जीवायोनौ हिंस्यन्त मैथुने तद्वत् ।।
-पुरुषार्थमिद्धयुपाय परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी, आज एक, कल दूसरा और परसो तीसरा नवयुवक खुशीसे इम स्त्री-बन्धनको स्वीकार करता है, एक अपरिचित व्यक्तिको-एक अजनबी शख्शको-अपना हृदय देता है, कुटुम्बके भरण-पोषरगादिकी समस्त जिम्मेदारियोको अपने ऊपर लेता है और धनके उपार्जन करने-बढाने-रक्षा करनेके द्वारा तथा रोग-शोकादिकके कारण नित्य नई आनेवाली गृहस्थकी चिन्ताप्रो और विपत्तियोमे पडनेके लिए तैयार होता है। साथही, पचो द्वारा बिना किसी मकोचके उमके इस स्त्री-सम्बन्धकी रजिष्ट्रीकी जाती है और इस प्रकार विवाह द्वारा दम्पतिको निष्क
१ वात्स्यायन ऋषिने भी योनिमे जीवोको स्वीकार किया है,जैसा कि सागारधर्मामृत मे उधृत उसके निम्न वाक्यमे प्रकट है -
रक्तजा कृमय. सूक्ष्मा मृदुमध्यादिशक्तय ।
जन्मवत्मसु कति जनयन्ति तथाविधम् ।। २ विवाह उस सम्बन्ध-विशेषका ही नाम है जिसके द्वारा, मानवसमाजमे, स्त्री-पुरुषोको परस्पर काम-क्रीडाका द्रव्यादिको अपेक्षा र हित स्वतत्र और खुला अधिकार प्राप्त होता है।
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विवाह समुद्देश्य
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टक (बे-रोक-टोक ) काम सेवनकी परवानगी दी जाती है-उसे उनके लिये जायज और विधेय ठहराया जाता है। इसी खुशीमे अनेक प्रकारके बाजे बजते हैं, मांगलिक गीत गाये जाते हैं, तरह तरहके उपहार और इनाम बांटे जाते है, बराती गरए नये नये वस्त्र और रमविरगी पोशाके पहनते हैं और वरके माता-पिता तथा अन्य कुटुम्बी जनोके प्रानन्दका कुछ पार नही रहता । युवती तथा कन्यापक्षके बन्ध-प्रबन्ध और प्रमोद-प्रमोदकी भी प्राय यही सब हालत होती है। नगर भरमे जिधर देखो उधर मूर्तिमान श्रानन्द ही आनन्द दिखाई देने लगता है | कहा जाता है कि यह सब मागलिक कार्य है, इसे 'विवाहमगल' कहते है और इस प्रकारके मगल प्राय हुआ करते है और हमेशा से होते आए है।
इन सब बातो पर गहरी दृष्टि डालते हुए एकाग्रताके साथ विचार करनेपर मालूम होता है और कहना पडता है कि, विवाहकी समस्या भी बडी ही विचित्र है । जो लोग इस समस्याको हल किये विना, विवाहका ठीक रहस्य समझे बिना और विना यह मालूम किये कि विवाहका उद्देश्य -- शादीकी असली गरज- क्या है, विवाहबन्धनमे पडते है - शादी कराते है - वे नि सन्देह बहुत बड़ी गलती करते है और विवाह के वास्तविक लाभोसे वचित ही रहते है । इसीलिए आज इस समस्याको हल करने, विवाहका रहस्य बतलाने और विवाह के समीचीन उद्देश्यको समझानेका प्रयत्न किया जाता है ।
-
विवाह कर्म की सृष्टि जरूरत और उपयोगिता
ससारमे अनादिकाल से यह जीवात्मा नाना प्रकारके अच्छेसे अच्छे और रमणीय विषयभोगोको भोगता हुआ चला आया है । मैथुनकी सृष्टि इस जगतमे अनादिसे ही चली प्राती है। परन्तु
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युगवीर निबन्धावली
आज तक कभी इन विषय-भोगोंसे किसीको भी तृप्तिकी प्राप्ति नहीं हुई और न हो सकती है। ईन्धन और घृताहुति से जिस प्रकार अग्नि तृप्त नही होती और घडो पानी पी लेनेसे जिस प्रकार तृषारोगके रोगीकी प्यास नहीं बुझती, उसी प्रकार ससारी जीवकी हालत है । उसे भी इन विषय-भोगोसे कोई तृप्ति नही मिलती । विषयोकी ऐसी हालत होते हुए, प्रात्मकल्याणार्थी कुछ महात्माओके. हृदयमे यह विचार उत्पन्न हुआ कि, जब विषय-भोगोसे कुछ तृप्ति नही होती और न इनके सेवनसे आत्माका कुछ लाभ होता है, वल्कि उल्टा पापबघ जरूर होता है और नाना प्रकारके दुख तथा कष्ट उठाने पडते हैं, तब ऐसे व्यथके कामोमे फँसकर अपने आत्माका अनिष्ट करना कौन बुद्धिमानीकी बात है ? इसलिए उन्होने विषयोके सर्वथा त्यागका उपदेश दिया और इस तरह विषयोके विरोधकी सृष्टि हुई । इस विरोधसे जैन -प्रजैन सभी ग्रन्थ भरे हुए हैं, जिनमें विषयोका वास्तविक स्वरूप, उनकी अनुपयोगिता (निरर्थकता ) और उनसे होनेवाली हानि प्रादिका हृदय-हारी वर्णन करते हुए उनके त्यागकी प्रेरणा की गई है। साथ ही, ब्रह्मचर्य की महिमा, उसकी उपयोगिता और उसके द्वारा सपूर्ण सुखोकी प्राप्ति प्रादिका वर्णन भी बडे कौशल के साथ किया गया है । और अन्तमे पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण करने और पालनेकी जोरके साथ प्रेरणा की गई है
इसमें कोई सन्देह नही कि पूरणं ब्रह्मचर्य का पालन करना बहुत ही उत्तम, श्रेष्ठ और कल्याणकारी धर्म है । इसके द्वारा आत्मा उत्तरोत्तर अपनी शक्तियोको बढाकर कर्मशत्रुनोको निर्मूल करनेके लिये समर्थ हो सकता है । परन्तु कामदेवकी प्रबल शक्तिका मुकाबला करके पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना खेल नही और न हरएक व्यक्तिका काम है, बिरले ही मनुष्य इसको धारण कर सकते हैं। इसके लिये बड़े बलवान आत्माकी जरूरत होती है। निर्बलोका इसमें अधिकार नही हो सकता। जैसा कि श्रीशुभचन्द्राचार्य ने 'ज्ञानार्णव' में
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विवाह-समुद्देश्य
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कहा है -
नाल्पसत्वैर्न नि शीलेन दीनैर्नाऽक्षनिर्जितै. । स्वप्नेऽपि चरितु शक्यं ब्रह्मचर्यमिद नरैः ।। ११-५॥
अर्थात्-ब्रह्मचर्य उन लोगोंसे स्वप्नमे भी आचरण किये जानेके योग्य नही है जो अल्पशक्तिके धारक हैं, शील-रहित हैं, दीन हैं और जिनकी इन्द्रियाँ उनके वशमे नही हैं।
ऐसो हालतमे शरीर और विचार-बल-रहित निर्बल व्यक्तियोंको पूर्ण ब्रह्मचर्यके लिए मजबूर करना कभी न्यायसगत नहीं हो सकता और न उससे कुछ लाभ ही उठाया जा सकता है। इसलिए उनके लिए भी कोई विधान बतलानेकी जरूरत पैदा हुई।
तृषा-रोगके निर्बल रोगीको, इच्छानुसार घडो पानी पिला देनेके समान, पानीका बिल्कुल न देना भी जिस प्रकार हानिकर (नुकसानदेनेवाला) होता है और इसलिए उसके वास्ते कोई हलका पेय ( अर्क-शर्बतादि) पदार्थ तजवीज़ किया जाता है, जिससे उसका रोग शनै शनै दूर होजाय, उसी प्रकार कामतृष्णातुर निर्बल आत्माप्रोको, उनकी इच्छानुसार विषय-सेवन करानेकी तरह, सर्वथा विषयोसे वचित रखना भी-उनसे पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन कराना भी-अनिष्टकर होता है । और इसलिए उनके लिए 'गृहस्थाश्रम' या 'गृहस्थधर्म' नामका 'लघु पेय' तजवीज किया गया है, जिससे उनकी कामतृष्णा धीरे-धीरे शान्त होजाय।
इस पेयमे तीन चीजे मिली हुई हैं-धर्म, अर्थ और कामजिनको 'त्रिवर्ग' भी कहते है। काम-सेवन पानीके समान है, धर्म काम-तृष्णाको दूर करनेवाली औषधि है और अर्थ (धन) दोनोका साधन है-उन्हे यथास्थान (ठोक ठिकाने पर ) पहुँचानेवाला है । इन तीनोकी मात्रा आदिक भी निर्दिष्ट (तजवीज) की गई है, जिससे परस्पर विरोध होकर किसी प्रकारका अनिष्ट न हो सके । अविरोधरूपसे सेवन किया हुमा ही 'त्रिवर्ग' अभीष्ट फलको देनेवाला हो
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युगवीर - freधावली
सकता है । इसीलिये श्रीवादीभसिंहसूरि-जैसे विद्वानोने कहा हैपरस्पrsfadar frवर्गो यदि सेव्यते । अनर्गलमद सौख्यमपवर्गो ह्यनुक्रमात् ।। - क्षत्रचूडामणि.
अर्थात् -- धर्म, अर्थ र कामका यदि एक दूसरेके साथ विरोध न करके सेवन किया जाय तो उससे सासारिक सुखोकी प्राप्ति अनिवार्य होती है, और क्रमसे मोक्ष मिलता है ।
काम - सेवनके लिये पुरुषको एक स्त्रीकी और स्त्रीको एक पुरुषकी आवश्यकता होती है । विना किसी विघ्न-बाधा के निर्दिष्ट रूपसे कामसेवन' होता रहे और उसके द्वारा धर्मैधिकी उपयुक्त ( यथोचित ) मात्रा रोगी के शरीरमें पहुँचती रहे, इसी अभिप्रायसे विवाह कर्मकी सृष्टि की गई है ।
*
विवाहकर्मको 'दारपरिग्रह' या 'दारकर्म' भी कहते है, जो गृहस्थ धर्मका एक खास प्र है । स्त्री सहित रहनेका नाम ही 'गृहस्थ' है - जलभागकी जिसमे प्रधानता हो उसीको 'पेय' कहते है - वह गृहस्थ ही नही जिसके पास स्त्री नही । 'गृह' शब्द भी स्त्रीका वाचक है । इसीलिए सोमदेवसूरि यदि विद्वानोने लिखा
है
कुह-कट संघात 1- सोमदेव | कट- सहतिम् । -
- आशाधर ।
गृहिणी गृहमुच्यते न पुन गृह हि गृहिणीमाहुर्न कुड कृनदारपरिग्रह गृहस्थ गृहशब्दस्य दार-वचनत्वात् । - विज्ञानेश्वर ।
१. इस प्रकार के बाधा रहित काम सेवनको सोमदेवने 'अनुपहता रfत' और प्राशाधरने 'अक्लिष्टा रति' लिखा है ।
२ स किं गृहस्थो यस्य नास्ति सत्कलत्रसम्पति ।
- नीतिवाक्यामृते, मोमदेव.
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विवाहसमुद्देश्य
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अर्थात् वास्तवमें 'गृहिणी' (घरवाली) हीका नाम घर हैं। इंट, पत्थर, लकड़ी श्रादि समुदायका नाम घर नहीं है । साधारण बोल-चालमें भी 'घर' शब्द स्त्रीके ग्रंथ में व्यवहृत होता है - इस्तेमाल किया जाता है । जैसे एक शख्स कहता है कि मैं घर सहित श्राया हूँ, जिसका साफ अभिप्राय यह होता है कि 'मैं अपनी स्त्रीको साथ लाया हूँ' । इन सब बातों से गृहस्थके लिये 'गृहिणी' का होना और भी जरूरी पाया जाता है। वह धर्म-संग्रह में बहुत बडी सहायक होती है' । और इसीलिये संसार में विवाहको प्रथा प्रचलित हुई है।
किसी खास पेयके निर्दिष्ट हो जाने पर जिस प्रकार रोगीको, उसकी हितकामनासे, दूसरे इच्छानुसार पेयोंके सेवनका निषेध किया जाता है उसी प्रकार विवाह द्वारा गृहस्थधर्मके, स्वीकार करने पर,, पुरुषमे पर-स्त्रीका और स्त्रीसे पर-पुरुषका त्याग कराया जाता है । विवाह के समय दोनोको प्रतिज्ञाएँ करनी होती हैं। इस तरह दोनो शीलव्रतको धारण करते हैं, जिसको परदारनिवृत्ति, स्वदार संतोष, स्वभर्तृ सतुष्टि और लघु ब्रह्मचर्यादि नामोंसे पुकारा जाता है । इससे बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि ससारमे शान्ति स्थापित होती है, छीना-झपटीकी प्रथा उठ जाती है, वैर-विरोध बढने नही पाते और हर शख्स बिना किसी रोक-टोकके अपने विषयोको भोग सकता है। तथा प्रानन्दके साथ अपने धर्मादिक कार्यों का सम्पादन कर सकता है। विपरीत इसके, व्यभिचारका प्रचार होनेसे जगतमें प्रशान्ति फैल जाती, छीनाझपटीकी प्रथा बढ जाती, मनुष्योंका जीवन दु ख प्रर आकुलतामय बन जाता और उनका भविष्य बिगड जाता । इससे कहना पडता है कि विवाहकी यह रीति बहुत ही सोच-विचार कर जारी की गई है। स्त्री हो या पुरुष जो कोई भी विवाहके इस नियमका उल्लंघन करता है- अपने व्रतको तोड़ता है - वह राजासे दड
१ नास्ति भार्याम के सहायो धर्मसंग्रहे । - महाभारत:
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युगवीर-निबन्धावली नीय और प्रजासे धिक्कारका पात्र होता है,चोर-जार-पापी कहलाता है, अपने उद्देश्यसे गिर जाता है और उसे 'जगतका शांति-भग-कर्ता' -समझना चाहिए। इस विषयमे सोमप्रभाचार्यने 'सूक्ति-मुक्तावली' मे बहुत ही अच्छा लिखा है -
दत्तस्तेन जगत्यकीर्ति-पटहो गोत्रे मषो-कूर्चकश्चारित्रस्य जलाञ्जलिर्गुण-गणारामस्य दावानल. । सकेत. सकलापदा शिषपुर-द्वारे कपाटो दृढ. शील येन निजं विलुप्तमखिल त्रैलोक्य-चिन्तामणि ॥
अर्थात्-जिस मनुष्यने अपने 'शीलवत' को जो तीन लोकका चिन्तामणि रत्ल है, भग कर दिया है उसने जगतमे अपकीतिका ढोल बजा दिया है अपने कुलमे स्याहीका पोता फेर दिया है, निर्मल चारित्रको जलाञ्जलि दे दी है, गुणसमूहरूपी बागीचेमे आग लगा दी है, बहुतसी आपदापोको बुलानेके लिए इशारा कर दिया है और मज़बूत किवाड़ लगाकर अपने मोक्षके दरवाजेको बन्द कर दिया है।
इससे भले प्रकार समझमे आ सकता है कि 'शीलवत' को भग करना कितना बड़ा अपराध है । उद्देश्य-विनिर्देश __ अब यहाँ पर यह बतला देना जरूरी है कि, प्यासके रोगीका उद्देश्य 'पानी पीना' नहीं होता। उससे प्यासकी वेदना सही नहीं जाती, इससे मजबूरन ( लाचारीसे ) उसकी अल्पकालिक शान्तिके लिए जल ग्रहण करता है। उसका उद्देश्य होता है "प्यासका न उत्पन्न होना-तृषारोगका समूल नाश हो जाना" । साथ ही, वह यह भी चाहता है कि मुझमे प्यासको सहन करनेकी शक्ति उत्पन्न हो और उस शक्तिके अनुसार प्यासको सहन करनेकी चेष्टा भी करता है। उसका यह कर्तव्य नहीं होता कि प्यासको शान्तावस्थामें भी-जिस वक्त प्यास दबी हुई है उस वक्त भी-ख्वाहमख्वाह
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विवाह-समुद्देश्य
१२६ बिना प्रयोजन भी-पानी पीता रहे या तृषा-वर्धक पदार्थोंको खाकर अपनी प्यास बढा लेवे । इसी तरह गृहस्थका विवाह-द्वारा कामसेवन करना उद्देश्य न होना चाहिए । काम-तृष्णाकी असह्य वेदना उत्पन्न होने पर-प्राकृतिकरूपसे कामका वेग बढने परउसकी अल्पकालिक शातिके लिए अथवा प्रकृतिकी तात्कालिक पुकारको पूरा करनेके लिये ही उसे सभोग करना चाहिए । “कामकी वेदनाका उत्पन्न न होना, कामतृष्णाका समूल नाश होजाना और कामको जीतने की अपनेमें शक्ति पैदा करना हो” उसका मुख्य उद्देश्य होना चाहिए । साथ ही, उसे अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिपक्ष-भावनाप्रोसे-विषयोंसे ग्लानि और ब्रह्मचर्यसे अनुराग उत्पन्न करानेवाली विचारधारामोंसे-काम पीडाको जीतनेका अभ्यास करना चाहिए। उसका यह कर्तव्य कभी न होना चाहिए कि, कामकी शान्तावस्थामे भी, विनोद प्रादिके तौरपर, कामक्रीड़ा करता फिरे या कामोद्दीपक पदार्थोंका-सोते हुए कामदेवको जगानेवाले लड्डुप्रो आदिका - सेवन करके अपनी कामतृष्णाको उत्पन्न करे। जो गृहस्थ ऐसा करता है वह विवाहके उद्देश्यसे गिर जाता है और उसे तरह तरहकी यातनाएं भोगनी पडती हैं। ज़रूरत बिना ज़रूरत अधिक मैथुन करनेसे-वीर्यका दुरुपयोग करनेसे-उसकी शक्ति क्षीण होजाती है। वह अपने बलको यहांतक खो बैठता है कि बादको ( पीछेसे ) फिर बहुत कुछ पौष्टिक पदार्थोंका सेवन करने पर मी--अनेकों वैद्यो, हकीमो और डाक्टरोकी शरण में जानेपर भी-उसकी वह शक्ति वापिस नहीं आती और वह नपुसक बन जाता है, जैसा कि श्रीसोमदेवसूरिके इन वाक्योंसे प्रकट है.
निकाम-कामकामात्मा तृतीया प्रकृतिर्भवेत् । (यशस्तिलक) स्त्रियमतिभजमानो भवत्यवश्यं तृतीया प्रकृतिः। (नीतिवा०) इसलिए विवाहके उद्देश्यको खूब ध्यानमें रखते हुए, गृहस्थोको चाहिए कि वे अपनी कामवासनाको परिमित रक्खे, इन्द्रियोका
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युगवीर-निबन्धावली विजय' करना सीखें और "विरुखकामप्रवृत्ति' (बे-कायदे कामसेवन करनेवाले ) न बने । साथ ही, उन्हें 'धर्म' और 'अर्थ' पुरुषार्थोंका योग्य-रीतिसे सम्पादन करते हुए, स्त्रीका सेवन इस तरह पर करना चाहिए जिस तरह पर शरीर और मनका माताप मेटनेके लिए भोजनका सेवन किया जाता है । अन्यथा, अधिक स्त्रीसेवनसे उन्हें अपने धन, धर्म और शरीर तीनोंकी हानि उठानी पडेगी। इसी अभिप्रायको लेकर विद्वद्वर पडित आशाधरजी ने लिखा है -
भजेदहमनस्तापशमान्त स्त्रियमन्नवत् ।
क्षोयन्ते खलु धर्मार्थकायास्तदतिसेवया ।। (सागारधर्मामृत ) सोमदेवसूरिने भी 'यशस्तिलक' और 'नीतिवाक्यामृत' मे ऐसा ही प्रतिपादन किया है -
ऐदपर्यमतो मुक्त्वा भोगानाऽऽहारबद्भजेत् । देह दाहोपशान्त्यर्थमभिध्यान-विहानये ॥ ( यशस्तिलक) न तस्य धनं धर्मः शरीरं वा यस्य स्त्रीष्वत्यासक्ति (नीतिवा०)
वास्तवमे गृहस्थाश्रम एक 'रसायन' है । रसायनके तैयार करनेमे किसी औषधिके छूट जानेसे, औषधियोका वजन कमती बढती हो जानेसे या उनकी प्रक्रिया ठीक न बैठनेसे जिस प्रकार इष्टफल घटित नही होता, उसी प्रकार गृहस्थाश्रममे धर्म, अर्थ और काम इन तीनो पुरुषार्थोंमेंसे किसीके छूट जाने या जानबूझ कर छोड दिये जाने पर पुरुषार्थोंकी मात्रामे कमी-बेशी हो जाने पर या और प्रकारसे उनकी प्रक्रिया और सेवन-विधि ठीक न बैठने पर इष्ट-फलकी प्राप्ति नही
१ इष्ट-पदार्थमे आसक्तिका और विरुद्धमे प्रवृत्तिका न होना 'इद्रिय-जय' कहलाता है, जैसा कि श्रीसोमदेवसूरिके निम्न वाक्यसे प्रकट है
इष्टेऽर्थेऽनासक्तिविरुद्ध चाऽप्रवत्तिरिन्द्रियजय ।
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विवाह-समुद्देश्य हो सकती । इसलिये विवाह करके गृहस्थाश्रममे प्रवेश करनेवाले पुरुष और स्त्री दोनोंको धर्म, अर्थ मौर काम तीनो पुरुषार्थोंका 'अविरोधरूपसे' या 'समानरूपसे सेवन करना चाहिए । 'धर्म' को घात करके दूसरे पुरुषार्थोंका सेवन करनेवाला मनुष्य उस किसान (कृषक) के समान है जो बीज न रखकर अपने खेतकी सब पैदावार (उपज) खा जाता है और अन्तमें दुखी होता है। असलमें सुखी वही कहलाता है जो आगामी सुखका विरोध न करके वर्तमान सुखको भोगता है। 'अर्थ' पुरुषार्थको घात करनेवाला गृहस्थ विपत्तिमें पड़ता है, क्योकि उसके धर्म और कामका साधन अर्थ ही है ( "धर्म-कामयोरर्थमूलत्वात्')। और 'काम' पुरुषार्थको घात करनेवाला गृहस्थ ही नही कहला सकता-गृहस्थीमे रहते इन्द्रियविषयोका सेवन जरूरी है। इसी तरह पर जो गृहस्थ 'केवल काम' पुरुषार्थका ही सेवन करता है उसके धन, धर्म और शरीर तीनो नष्ट हो जाते हैं। उसे इस लोक और परलोकमें सभी जगह कष्ट उठाना पडता है। जो केवल धन' ही कमाता है, न उसे परोपकारादि धर्मकार्यों में लगाता है और न अपने विषयभोगोमे, उसके बराबर कोई मूर्ख नही हो सकता, वह केबल बोझा ढोनेवाला है-वह अपने दोनों लोक बिगाडता है । और जो 'केवल धर्म ही धर्म' का सेवन करता है वह गृहस्थ नही हो सकता, उसे मुनि या साधु कहना चाहिए । इन सब बातोंको ध्यानमे रखकर और इनके पालनके लिए तैयार होकर ही मनुष्योंको 'गृहस्थाश्रम' में प्रवेश करना चाहिए, अर्थात विवाह कराना चाहिये । तब ही विवाहसे यथेष्ट लाभ-जैसा चाहिए वैसा फायदा हो सकता है और तब ही उनका गृहस्थाश्रम सुखाश्रम बन सकता है।
१ "सम वा त्रिवर्ग सेवेत" इति सोमदेव ।
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युगवीर-निबन्धावली ग्राह्य-स्त्री
यहाँ पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि, विवाहके इस उद्देश्यको पूरा करनेके लिए किस वर्ण या जातिकी स्त्रीसे पारिणग्रहरण (विवाह) किया जाय? यह प्रश्न उसी प्रकारका होगा जिस प्रकार 'पेय' के सम्बन्धमे यह पूछा जाय कि उसमे कोनसे कूएँ या नदी आदिका पानी डाला जाय ? और जिस प्रकार उसका उत्तर अधिकसे अधिक इतना ही हो सकता है कि, जिस कुएँ या नदीका पानी पीनेके लिये मिल सकता हो और जिसके पीनेमें किसी प्रकारकी घृणा या सकोच न हो और जो साथ ही शुद्ध-साफ तथा निर्दोष हो, पेयके उद्देश्यमे बाधक न हो, वह सब पानी पीनेके लिए ग्रहण किया जा सकता है। उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए। "जिस वर्ण या जातिसे, परस्पर व्यवहारके कारण, स्त्री मिल सकती हो और जिसके सेवनमें किसी प्रकारकी धूरणा या सकोच न हो और जो साथ ही शुद्ध-साफ तथा निर्दोष हो, शीलादि गुणोंसे युक्त हो, अगोपागसे दुरुस्त हो, रोग-रहित हो, पढी लिखीगुरगवती हो और विवाहके उद्देश्यमे किसी प्रकारसे बाधक न होसके वह स्त्री विवाहके लिए ग्राह्य है-ग्रहण किये जाने योग्य है''। इससे अधिक इस विषयमे, सर्वसाधारणकी दृष्टिसे, कोई खास नियम निर्धारित नही किया जा सकता । जैन शास्त्रोमे भी इस विषयका कोई सार्वकालिक और सार्वदेशिक एक नियम नही पाया जाता है। प्रस्तु।
* 'एक नियम नही पाया जाता' इसका कुछ अनुभव पाठकोको नीचेके अवतरणो तथा प्रमाणोसे हो जायगा, जो केवल इसे ही अनुभव कराने के एक मात्र उद्देश्यसे दिये जाते है । उनसे किसी खास रोतिरिवाजको पुष्ट करना या उसपर चलनेकी प्रेरणा करना यहा इष्ट
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विवाह- समुद्देश्य
सबसे प्रधान उद्देश्य
समाज-संगठन
अब विवाहका सबसे प्रधान उद्देश्य बतलाया जाता है, जिसका नाम है 'समाज - सगठन' - अर्थात्, समाजका सुव्यवस्थित, बलाढ्य
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नही है
(१) भगवज्जिनसेनाचार्य और श्रीसोमदेवसूरिने अनुलोम्यरूपसे ब्राह्मणो के लिए चारो, क्षत्रियोके लिए तीन, और वैश्योके लिये सिर्फ दो वर्णोंकी स्त्रियोसे विवाह करनेका विधान किया है- अर्थात् तीनो वर्णों के लिए शूद्रा स्त्रीसे विवाह करना भी उचित ठहराया है । परन्तु प्रतिलोम विवाहकी अपने से ऊपर के वर्ण की स्त्रीसे विवाह करनेकी - आज्ञा नही दी । जैसा कि उनके निम्न वाक्योसे प्रकट हैशूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या स्वा ता च नेगमः ।
वहेत्स्वा ते च राजन्य स्वा द्विजन्मा क्वचिञ्च ता ॥ - श्रादिपुराण प्रानुलोम्येन चतुस्त्रिद्विवर्णकन्याभाजना ब्राह्मणक्षत्रियविशः । - नीतिवाक्यामृत
perte
( २ ) 'धर्म स ग्रहश्रावकाचार' मे प्रथम तीन वर्णोंके लिये परस्पर विवाह करनेका विधान किया गया है और शूद्रोके साथ विवाहसम्बधका सर्वथा निषेध किया है । यथा
परस्पर त्रिवर्णाना विवाह पक्तिभोजन । कर्त्तव्यं न च शूद्रस्तु शूद्रारणा शूद्रके सह ||
इससे सवर्ण विवाह के साथ साथ प्रतिलोम विवाहकी भी साफ तौरसे ध्वनि निकलती है। और प्रथमानुयोगके ग्रन्थोमे तो प्रतिलोम विवाह कितने ही उदाहरण पाये जाते हैं । स्वयं राजा श्रेणिकने, जो क्षत्रिय था, अपने पुरोहित सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्रीसे विवाह किया था ।
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युगवीर-निबन्धावली और वृद्धिंगत होना । समाज व्यक्तियोंसे बनता है-व्यक्तियोके समुदायका नाम ही समाज है-और व्यक्तियोका समुदाय तभी बढता है जब कि विवाहसे सतान उत्पन्न हो। इसलिए सतानोत्पा
(३) दाय-भागके ग्रन्थो अथवा प्रकरणोमे भी असवर्ण विवाहके विधानोका उल्लेख पाया जाता है-उनमे ऐसे विवाहोसे उत्पन्न हुई संतति के लिये विरासतके नियम दिये हैं-और उनके लिये 'महंन्नीति' आदि ग्रयोको देखना चाहिये, जिनके प्रमाणोको विस्तार-भयसे छोडा जाता है। अथवा जैन-ला-कमेटी देहली द्वारा प्रकाशित 'जैन-नीतिसग्रह' को देखना चाहिये जिसमे ऐसे कितने ही प्रकरणोका सग्रह किया गया है।
जब असवर्ण विवाहो तकका विधान है तब जातियो उपजातियोकी तो कोई गिनती ही नहीं हो सकती--उनकी कल्पना तो बहुत पीछे
(४) म्लेच्छो और भीलोकी कन्याओके साथ विवाह होनेके भी बहुतसे उदाहरण शास्त्रोमे मिलते हैं और उनके करनेवाले अच्छे-अच्छे प्रतिष्ठित पुरुष हुए हैं, जैसे तीर्थंकर, चक्रवर्ति, वसुदेव आदि । परतु अाज ऐसे सम्बन्ध गहित समझे जाते हैं।
(५) श्रीनेमिनाथके चचा वसुदेवजीने अपने चचाजाद भाई देवसेनकी लडकी 'देवकी' से भी विवाह किया था । और इमसे यह प्रकट है कि उस समय गोत्र तो गोत्र एक कुटुम्बमे भी विवाह हो जाता था,जो आजकल हेय समझा जाता है। और कुछ जातियोमे तो आठ-आठ गोत्र टालकर विवाह किया जाता है। वसुदेवजीने 'एणीपुत्र' नामकके 'व्यभिचारजात' की पुत्री 'प्रिय गुसुन्दरी' से भी, जिसे आजकलकी भाषामे 'दस्से या गाटेकी लडकी' कहना चाहिये, विवाह किया था। ( देखो 'हरिव शपुराण' ।)
(६) मामा फूफीकी कन्याप्रोसे विवाहका पहले आम दस्तूर था
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विवाह-समुद्देश्य
१३५ दन करना भी विवाहका मुख्य उद्देश्य है । जिस मैथुनसे प्रजा या सतान उत्पन्न नही होती उसको विद्वानोंने नामका मेथुन, निष्फल मेथुन और धिक्कारयोग्य मैथुन कहा है ('धिग्मेथुनमप्रजम् )।
और उनके उदाहरणोसे शास्त्र भरे हुए हैं । अब भी कितनी ही जातियोमे अथवा स्थानोपर ऐसे विवाह होते हैं और इसीलिये सोमदेवमूरिने लिखा है कि 'देश-कुलापेक्षो मातुल-सम्बन्ध'-अर्थात् मामाकी पुत्रीसे विवाह देश तथा कुलकी अपेक्षा रखता है । प्रत वह सार्वदेशिक नही है।
(७) आदिपुराणमे, विवाह-विधानोमे स्वय वर-विधिको सबसे श्रेष्ठ बतलाया है और उसे सनातन मार्ग लिखा है। यथा --
सनातनोऽस्ति मार्गोऽय श्रुति-स्मृतिषु भाषित ।
विवाह-विधि-भेदेषु वरिष्ठो हि स्वयवर ॥ परन्तु स्वय वरमे कन्या अपनी इच्छानुसार वरको वरण करती है। उसमे कुलीन या अकुलीनका कोई विचार अथवा क्रम नही होता; जैसा कि ब्रह्मजिनदासकृत हरिवशपुराणके निम्न वाक्यसे प्रकट है
कन्या वृणीते रुचित स्वयवरगता वर ।
कुलीनमकुलीन वा क्रमो नास्ति स्वयवरे ॥ ऐसी हालतमे विवाह के लिए वर्ण, जाति और कुल-गोत्रका कुछ भी नियम नहीं रहता।
(८) सोमदेवसूरि आदि कितने ही विद्वानोने, गृहस्थोके लिये लौकिक और पारलौकिक ऐसे दो प्रकारके धर्मोंका विधान करते हुए लौकिकधर्मको लोकाश्रित-अर्थात् लौकिक जनोकी देशकालानुसारिणी प्रवृत्तिके अधीन-और पारलौकिकको मागमाश्रित अथवा प्राप्तप्रणीत शास्त्रोके अधीन बतलाया है। सासारिक व्यवहारोके लिये आगमका प्राश्रय लेना भी व्यर्थ ठहराया है। और साथ ही, यह प्रतिपादन किया है कि जैनियोके लिये वे सपूर्ण लौकिक विधियाँ प्रमाण हैं
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युगवीर-निबन्धावली और इसी लिए प्रायः ऋतुकालमें ही मैथुनका विधान किया गया है ('ऋतौ भार्यामुपेयात्'), जब कि स्त्रीमें गर्भाधानकी योग्यता रहती है और जो स्त्रीको मासिक धर्म हो चुकने पर प्रायः १२ दिन तक रहती है। दूसरे समयोंमें मेथुन करनेसे गर्भ धारण नहीं हो सकता, ऐसा वैद्यकशास्त्रोका मत है। भगवज्जिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें, विवाह-विधिका वर्णन करते हुए, साफ तौरसे "संतानके लिए ऋतुकालमेंही स्त्रीपुरुषोको, यदि वे उस समय रोगादिकके कारण ग्राह्य हैं--जिनसे उनकी धार्मिक श्रद्धा (सम्यक्त्व ) मे कोई बाधा न पडती हो और न तोमे ही कोई दूषण लगता हो। यथा---
द्वौ हि धौ गृहस्थाना लौकिक पारलौकिक । लोकाश्रयो भवेदाऽऽद्य पर स्यादागमाश्रय ।। संसार-व्यवहारे तु स्वत सिद्धे वृथागम । सर्व एव हि नाना प्रमारणं लौकिको विधि यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषण ॥
-यशस्तिलक ऐसी हालतमे विवाह-विधिका,जो कि गृहस्थोका एक लौकिक धर्म है और लोकाश्रित होनेसे परिवर्तनशील है, कोई सावकालिक और सार्वदेशिक एक नियम हो ही नहीं सकता। और इसलिये जिन विवाह-विधियोके द्वारा दूसरे वर्णो या जातियो आदिके साथ सम्बध जोडा जाता है उनसे यदि जैनियोकी धार्मिक श्रद्धामे कोई वाधा न पडती हो और न उनके व्रतोमे कोई दोष लगता हो तो वे सभी विधियां जैनियोके लिये एक प्रकारसे उचित और मान्य ठहरती हैं ।
और इसीलिये 'ग्राह्य-स्त्री के सम्बन्धमे ऊपर जो कुछ उत्तर दिया गया है वह ठीक और समुचित ही प्रतीत होता है।
जैनशास्त्रोकी तरह, हिन्दू-धर्मके ग्रन्थोमे भी, सर्व देशो मोर सर्व समयोंके लिये, ग्राह्य-स्त्री-विषयक कोई एक नियम नहीं पाया जाता।
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विवाह- समुद्देश्य
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या और तौरपर वैसा करनेके लिये असमर्थ न हों श्रौर वह समय भी कोई पर्वादि वर्ण्य काल न हो तो, परस्पर काम सेवन करना लिखा है । यथा
सतानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत् ।
शक्तिकालव्यपेक्षोऽय कमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ।।३८ - १३५॥ इसी ग्रन्थके १५ वे पर्वमे उक्त प्राचार्य महोदयने ये वाक्य भी दिये हैं-
--
त्वामाऽऽदिपूरुषं दृष्ट्वा लोकोऽप्येवं प्रवर्त्तताम् । महतां मार्गवर्तिन्य प्रजा सुप्रजसो ह्यः ॥ ६५॥ तत कलत्रमत्रेष्ट परिणेतु मन कुरु । प्रजा संततिरेव हि नोच्छेत्स्यति विदांवर ॥ ६२ ॥ प्रजा सतत्यविच्छेदे तनुते धर्म - सततिः । मनुष्व मानव धर्म ततो देवैनमच्युत ||६३|| देवेमं गृहिणा धर्मं विद्धि-दारपरिमम् । सतानरक्षणे यत्न कार्यो हि गृहमेधिनाम् ||४६ । इन वाक्योमे विवाहकी उस प्रार्थनाका वर्णन है जो युगकी प्रादिमेनाभिराजाने भगवान् वृषभदेवसे की थी और जिसके अनुसार वृषभदेवने विवाह कराना स्वीकार किया था । प्रार्थनामे बतलाया गया है कि 'विवाह करना गृहस्थोका धर्म है' । गृहस्थोको सतान
१ जैन- विवाह पद्धतिमे भी लिखा है कि 'अन्य स्त्रीका त्याग और निजस्त्री-मात्रमे प्रवृत्तिरूप जो यह विवाहकर्म है वह गृहस्थोका धर्म है और सततिका योग्य रीतिसे पालन करनेके लिये अनादि- प्रवाहसे चला आता है । इस गृहस्थ-धर्मका यथेष्ट रीतिसे धारण और पालन होनेपर मुनि धर्म मे प्रदर उत्पन्न होता है अथवा यो कहिये कि मुनिधर्मकी भोर लोगोकी प्रवृत्ति होती है ।' यथा
अन्याङ्गनापरिहृतिनिजदारवृत्ति
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१३८
युगवीर-निबन्धावली उत्पन्न करने और उसकी रक्षा करनेमें यत्ल करना चाहिए। विवाह के द्वारा प्रजाका सिलसिला बद न होकर धमका सिलसिला बराबर जारी रहता है । इससे विवाहका साफ उद्देश्य धार्मिक सतानका उत्पन्न करना पाया जाता है। इसी तरह श्रीसोमदेवसूरि और १० आशाधरजी प्रादि दूसरे जैन विद्वानोने भी सतानोत्पादनको विवाहका उद्देश्य बतलाया है। हिन्दू-धर्मके विद्वानोका भी इस विषयमे प्राय ऐसा ही मत है।
संगठनकी जरूरतका बाह्यदृष्टि से विचार अब देखना यह है कि विवाहद्वारा सतान उत्पन्न करके समाजमगठन की जरूरत क्यो पैदा होती है ? जरूरत इसलिये होती है कि यह जीवन एक प्रकारका 'युद्ध' है -लौकिक और पारलौकिक
-
धर्मो गृहस्थजनता-विहितोऽयमास्ते। नादिप्रवाह इति सन्तति-पालनार्थ
मेवं कृतौ मुनिवृषे विहितादर' स्यात् ।। १ वे भी धार्मिक प्रजाकी अथवा धर्म और प्रजा (सतति ) दोनोकी सततिको विवाहका प्रयोजन मानते है, जैसा कि याज्ञवल्क्य-स्मृतिके निम्न श्लोक और उमको 'मिनाक्षरा' टोकासे प्रकट है -
लोकानन्य दिव प्राप्ति पुत्रपौत्रप्रपौत्रकै ।
यस्मात्तस्मास्त्रिय' सेव्या. कर्तव्याश्च सुरक्षिता ॥ टोका - लोके पानत्य व शस्या विच्छेद दिव प्राप्तिश्च दारसग्रहस्य प्रयोजनम् । कथमित्याह । पुत्र-पौत्र-प्रपौत्र कर्लोकानन्त्यम् अग्निहोत्रादिभिश्च स्वर्गप्राप्तिरित्यन्वय । यस्मात् स्त्रीभ्य एतदद्वय भवति तस्मात् स्त्रियः सेव्या उपभोग्या. प्रजार्थम । रक्षित् व्याश्च धमर्थिम् । तथा चाऽपस्तम्बेन धर्मप्रजासपत्ति प्रयोजन दारसग्रहस्योक्त 'धर्मप्रजामपन्नेषु दारेषु नान्या कुर्वीत' इति वदता । रति-फल तु लौकिकमेव ।
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विवाह-समुद्देश्य
१३६ या अन्तरग और बहिरंग दोनो ही दृष्टियोसे इसे युद्ध समझना चाहिए-और यह संसार 'युद्धक्षेत्र' है। युदमें जिस प्रकार अनेक शक्तियोंका मुकाबला करनेके लिये सैन्य-संगठनकी जरूरत होती है उसी प्रकार जीवन-युद्ध में अनेक प्रापदामोसे पार पानेके लिए समाजसंगठनकी आवश्यकता है।
हम चारो ओरसे इस ससारमे इतनी आपत्तियो-द्वारा घिरे हुए हैं कि यदि हमारे पास उनसे बचनेका कोई साधन नहीं है तो हम एक दिन क्या, घडी भर भी जीवित नही रह सकते । बाह्य जगत पर दृष्टि डालनेसे मालूम होता है कि एक शक्ति बडी सरगर्मी ( तत्परता ) के साथ दूसरी शक्ति पर अपना स्वत्व ( स्वामित्व )
और प्राबल्य स्थापित करना चाहती है, अपने स्वार्थके सामने दूसरी को बिलकुल तुच्छ और नाचीज़ समझती है, चैतन्य होते हुए भी उससे जड-जैसा व्यवहार करती है और यदि अवसर मिले तो उसे कुचल डालती है-हडप कर जाती है। रात दिन प्राय इस प्रकारकी घटनाएँ देखनेमे आती हैं। निर्बलो पर खूब अत्याचार होते हैं। न्यायालय खुले हए है, परन्तु वे सब उनके लिये व्यथ हैं। उनकी कोई सुनाई नहीं होती। इसीलिए न कि, उनका कोई रक्षक या सहायक नहीं है, उनमे कौटुम्बिक बल नही है, जिस समाजके वे अग हैं वह सुव्यवस्थित नहीं है, पैसा उनके पास नहीं है, उन्हे कोई साक्षी उपलब्ध नहीं होता- कोई गवाह मयस्सर नहीं पाता। जो लोग प्रत्यक्षमें उनपर होते हुए अत्याचारोको देखते हैं वे भी अत्याचारीके भयसे या अपने स्वार्थमे कुछ बाधा पडनेके भयसे बेचारे गरीबोकी कोई मदद नहीं करते, उन्हे 'न्याय-भिक्षा' दिलानेमे समर्थ नहीं होते। और इस तरह बेचारे पारिवारिक और सामाजिक शक्ति-विहीनोको रात-दिन चुपचाप घोर सकट और दुख सहन करने पड़ते हैं।
ससारमें अविवेक और स्वार्थकी मात्रा इतनी बढी हुई है कि
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युगवीर-निबन्धावली उसके आगे पापका भय कोई चीज़ नही है। पापके भयसे बहुत ही कम अपराधोकी रोक होती है । ऐसे बहुत ही कम लोग निकलेगे जो पापके भयसे अपराध न करते हो । जो हैं उन्हे सच्चे धर्मात्मा समझना चाहिए । बाकी अधिकाश लोग ऐसे ही मिलेंगे जो लोकभयसे, राज्य-भयसे या परशक्तिके भयसे पापाचरण करते हुए डरते हैं। अन्यथा, उन्हें पापसे कोई घृणा नही है वे सब जब मौका मिलता है तब ही उसे कर बैठते हैं।
ऐसी हालतमें समूह बनाकर रहने की बहुत ही जरूरत है। समूहमे बहुत बडी शक्ति होती है। छोटे छोटे तिनको और कच्चे सूतके धागोंका कुछ भी बल नहीं है, उन्हे हर कोई तोड़-मरोड सकता है। परन्तु जब वे मिलकर एक मोटे रस्सेका रूप धारण कर लेते हैं तब बडे बडे मस्त हाथी भी उनसे बाधे जा सकते है। चीटिया आकार में कितनी छोटी छोटी होती हैं, परन्तु वे अपनी समूहशक्तिसे एक सापको मार लेती है। जिनकी ममूहशक्ति बढी हुई होती है उन पर एकाएक कोई आक्रमण नहीं कर सकता हर एकको उन पर अत्याचार करने या उनके स्वार्थमे बाधा डालनेका साहस नहीं होता, उनके स्वत्वों और अधिकारोकी बहुत कुछ रक्षा होती है। विपरीत इसके. जिनमे समूहशक्ति नहीं होती वे निर्बल कहलाते हैं और निबलो पर प्राय राजा और प्रजा सभीके अत्याचार हुआ करतेहैं। छोटी छोटी मछलियाँ सख्यामे अधिक होने पर भी अपनेमे समूहशक्ति नहीं रखती, इसलिये बडी बडी मछलियाँ या मच्छ उन्हे खा जाते हैं । मधुमक्खियाँ ( शहदकी मक्खियाँ ) अपनेमे कुछ समूहशक्ति रखती है, इससे हर एकको उनके छत्तेके पास तक नानेका साहस नहीं होता । साधारण मक्खियोमे वह शक्ति नहीं है, इसलिये उन्हे हर कोई मार गिराता है। इससे केवल व्यक्तियोकी सख्याके अधिक होनेका नाम 'समूह' या 'समूहशक्ति' नहीं है, बल्कि उनका मिलकर एक प्रारण' और 'एक उद्देश्य' हो जाना ही समूहशक्ति
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विवाह-समुद्देश्य
१४१ कहलाता है।
एक कुटुम्बके किसी व्यक्ति पर जब कोई अत्याचार करता है तो उस कुटुम्बके सभी लोगोको एकदम जोश प्राजाता है और वे उस अत्याचारीको उसके अत्याचारका मजा ( फल ) चखानेके लिए तैयार हो जाते है, इसीको 'एक प्रारण होना' कहते हैं। इसी तरह जब कुटुम्बका कोई मनुष्य कुटुम्बके उद्देश्यके विरुद्ध प्रवर्तता है-अन्यायमार्ग पर चलता है तो उससे भी कुटुम्बके लोगोके हृदय पर चोट लगती है और वे,शरीरके किसी अगमे उत्पन्न हुए विकारके समान, उसका प्रतिशोध करनेके लिये तैयार हो जाते हैं, इसको भी 'एक प्राण होना' कहते है। साथ ही,यह सब उनके 'एक उद्देश्य' होनेको भी सूचित करता है।
इस प्रकार एक प्राण और एक उद्देश्य होकर जितनी भी अधिक व्यक्तियां मिलकर एक साथ काम करती हैं उतनी ही अधिक विघ्नवाधाओंसे सुरक्षित रहकर वे शीघ्र सफल मनोरथ होती हैं। यही समाज-सगठनका मुख्य उद्देश्य है और इसी खास उद्देश्यको लेकर विवाहकी सृष्टि की गई है । इसमे पूरा ‘रक्षा-तत्व' भरा हुआ है।
एक विवाह होने पर दोनो पक्षकी कितनी शक्तियाँ परस्पर मिलती हैं, एक दूसरेके सुख-दुखमे कितनी सहानुभूति बढती है और कितनी समवेदना प्रकट होती है, इसका अनुभव वे सब लोग भले प्रकार कर सकते हैं जो एक सुव्यवस्थित कुटुम्बमे रहते हो। युद्धमे दो राजशक्तियोंके परस्पर मिलनेसे-एक सूत्रमे बंधनेसे- जिस प्रकार आनन्द मनाया जाता है, उसी प्रकार विवाहमे वर और वधू दोनो पक्षकी शक्तियोके मिलापसे आनन्द का पार नहीं रहता। इस सम्मिलित शक्तिसे जीवन-युद्ध अनेक प्रशोमे सुगम होजाता है। विवाहके द्वारा कुटुम्बोंकी रचना होती है और कुटुम्बोसे 'समाज' बनता है । कुटुम्बोके संगठित,बलान्य और सुव्यवस्थित होनेपर समाज सहजमे ही संगठित, बलान्य और सुव्यवस्थित होजाता है । और समाजके
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युगवीर-निबन्धावली संगठित, बलान्य और सुव्यवथित होने पर उन सब लौकिक तथा धार्मिक स्वत्वोको-अधिकारोकी- पूर्णतया रक्षा होती है, जिनकी रक्षा प्रत्येक व्यक्ति या कुटुम्ब अलग अलग नही कर सकता।
दूसरे शब्दोमें यो कहना चाहिए कि सब कुटुम्ब समाज शरीरके अङ्ग हैं । एक भी प्रङ्गकी व्यवस्था बिगड जानेपर जिस प्रकार शरीरके काममें बाधा पड़ जाती है उसी प्रकार किसी भी कुटुम्बकी व्यवस्था बिगड जाने पर समाजके काममें हानि पहुंचती है। और जिस प्रकार सब अङ्गोंके ठीक होनेपर शरीर स्वस्थ और नीरोग होकर भले प्रकार सब कार्योका सम्पादन करनेमे समर्थ हो सकता है, उसी प्रकार समाज भी सब कुटुम्बोकी व्यवस्था ठीक होनेपर यथेष्ट रीतिसे धर्मकर्म आदिको व्यवस्था कर सकता है और प्रत्येक कुटुम्ब तथा व्यक्तिके स्वत्वोकी रक्षा और उसकी आवश्यकताओकी पूर्तिका समुचित प्रबध कर सकता है। इससे कहना होगा कि 'समाजका सगठन कुटुम्बोके मगठनपर अवलम्बित है और कुटुम्बके सगठनका भार कुटुम्बके प्रधान व्यक्तियो पर-- गृहिणी और गृपति' पर होता है। इसलिए विवाहके इस उद्देश्यको पूरा करनेके लिये विवाहित और विवाहके लिए प्रस्तुत स्त्री-पुरुषोको इस ओर खास ध्यान देनेकी ज़रूरत है। उन्हे अपनी जिम्मेदारियोको खूब समझ लेना चाहिये । उनके द्वारा कोई भी ऐसा काम न होना चाहिए जिससे समाजसगठन मे बाधा पड़ती हो । साथ ही, उन्हे यह भी जान लेना चाहिए कि जबतक परिस्थिति नहीं सुधरेगी- वातावरण ठीक नही होगा-तब तक हम अपनी स्थितिको भी जैसा चाहिए वैसा नही सुधार सकते। इसलिये समाजसंगठनके अभिप्रायसे- वायुमंडलको सुधारनेकी दृष्टिसे- उन्हे अपने कुटुम्बको सुव्यवस्थित करनेमे कोई बात उठा न रखनी चाहिये । इस प्रकारके प्रयत्नसे सब कुटुम्बोके सुव्यवस्थित हो जाने पर जो स्वच्छ वायु-धारा बहेगी वह सभीके लिये स्वास्थ्यप्रद होगी और उसमे रहकर सभी लोग अपना कल्याण कर सकेंगे।
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विवाह-समुद्देश्य
१४३ प्रत्येक कुटुम्बको 'सुव्यवस्थित भोर बलान्य' बनानेके लिए उसके प्रधान पुरुषोको इन बातोपर ध्यान रखनेकी खास जरूरत
(१) स्वय सदाचारसे रहना और अपने कुटुम्बियों तथा प्राश्रितोको सदाचारके मार्ग पर लगाना । ऐसा कोई काम न करना जिसका समाजपर बुरा असर पडे ।
(२) अपने बुद्धि-बल शरीर-बल और धन-बलको बराबर बढाते रहना और सदा प्रसन्न चित्त रहनेकी चेष्टा करना।
(३) सबके दुख-सुखका पूरा खयाल रखना, सबको परस्पर प्रेम तथा विश्वास करना सिखलाना और दुखियोके दुख दूर करनेका प्रयत्न करना । साथ ही, किसीपर अत्याचार न करना और दूसरोंके द्वारा होते हुए अत्याचारोको यथाशक्ति रोकना ।
(४) वीर्यका दुरुपयोग न करके प्राय सन्तानके लिए ही मैथुन करना। किसी व्यसनमें न फंसना और जितेन्द्रिय रहना।
(५) स्वय कुसङ्गतिसे बचना और अपने परिवारके लोगोको बचाते रहना । साथ ही, अपनी सन्ततिका कभी बाल्यावस्थामें विवाह न करना।
(६) सन्तानकी तथा अन्य कुटुम्बियोकी शिक्षाका समुचित प्रबन्ध करना,उन्हे धर्मके मार्ग पर लगाना और ऐसी शिक्षा देना जिससे वे परावलम्बी न बनकर प्राय स्वावलम्बी बनें और देश, धर्म तथा समाजके लिये उपयोगी सिद्ध हो।
(७) कुटुम्बभरमे एकता, सत्यता, समुदारता दयालुता,गुण-पाहकता,प्रात्म-निर्भरता और सहनशीलता आदि गुणोका प्रचार करना । साथ ही, ईर्षा, द्वेष और प्रदेखसका-भाव आदि अवगुणोको हटाना ।
(८) रूढियोका दास न बनकर कुरीतियोको दूर करना और जो कुछ युक्ति तथा प्रमाणसे समुचित और हितरूप जेंचे उसीके अनुसार चलना।
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युगवीर - निबन्धावली
(१) धर्मप्रचार और समाजके उत्थानकी बराबर चिन्ता रखना और धार्मिक कार्यो मे सदेव योग तथा सहायता देते रहना ।
(१०) मितव्ययी ( किफ़ायती). बनना, परन्तु कृपरण नही होना । साथ ही, पूज्यकी पूजाका कभी व्यतिक्रम न करते हुए, बराबर अतिथि सत्कारमें उद्यमी रहना और उसे यथाशक्ति करना ।
प्रत्येक स्त्री-पुरुषको इन दस बातोको अपना 'कर्त्तव्य-कर्म' बना, लेना चाहिए, अपने समस्त श्राचार-व्यवहारका 'सूत्र' समझना चाहिये और विवाहके गठजोडेके समय इनकी भी 'गाँठ' बांध लेनी चाहिए।
अन्तरङ्ग -दृष्टि से विचार
यह तो हुआ बाह्य जगतकी दृष्टिसे विचार। अब अन्तरङ्ग जगत पर दृष्टि डालिये । अन्तरङ्ग जगत पर दृष्टि डालने से मालूम होता है कि, यह जीवात्मा श्रनादिकालसे मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान-मद, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा, अज्ञान प्रदर्शन, अन्तराय और वेदनीय आदि सैकडो और हजारो कर्म से घिरा हुआ है, जिन सबने इसे बधनमें डालकर पराधीन बना रक्खा है और इसकी अनन्त शक्तियोका घात कर रक्खा है । इसीलिए यह आत्मा अपने स्वभावसे च्युत होकर विभाव-परिणतिरूप परिणम रहा है और अनेक योनियोमे परिभ्रमरण करता हुआ नाना प्रकारके दुख और कष्टोको भोग रहा है। इसका मुख्य और प्रधान उद्देश्य है 'बन्धनसे छूटकर स्वाधीनता प्राप्त करना' ।
परन्तु बन्धन से छूटना आसान काम नही है । एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्रकी परतत्रतासे अलग होना चाहता है- स्वाधीन बननेकी इच्छा रखता है- तब उसे रातदिन इसविषय में प्रयत्नशील रहनेकी जरूरत होती है, बड़े बड़े उपायोकी योजना करनी पड़ती है, घोर सकट सहन करते होते हैं, बन्धनोंमें पड़ना होता है, हानियों उठानी
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विवाहसमुद्देश्य
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पड़ती हैं, अपने स्वार्थकी बलि देनी होती है और बहुतसे ऐसे काम भी करने पड़ते हैं जिनका करना उसे इष्ट नही होता और न वे उसके उद्द ेश्य ही होते हैं; परन्तु बिना उनके किये उसे अपने उद्देश्योंमें सफलता प्राप्त नही हो सकती, और इसलिये वह उन्हें लाचारीकी दृष्टिसे करता है। साथ ही, वह अपने लक्ष्यसे कभी भ्रष्ट नही होता और न दूसरे राष्ट्रकी मोह-मायामें फँसता है । तब कही वह वर्षोंके बाद परतन्त्रताकी बेड़ी से छूटकर स्वतन्त्रताकी शीतलछायामें निवास करता है । इसी तरह पर उस आत्माको भी, जो कमके बन्धनसे छूटना चाहता है, अपनी उद्देश्य सिद्धिके लिये बडे बडे प्रयोग करने होते हैं और नाना प्रकार के कष्ट उठाने पडते हैं । उसे बन्ध-मुक्त होनेके लिये बन्धनमें भी पडना होता है, कर्मसे छूटनेके लिये कर्म भी करना पडता है, हानिसे बचनेके लिए हानि भी उठानी पडती है, पाप से सुरक्षित रहनेके लिये पाप भी करना होता है और शत्रुओसे पिढ बुडानेके लिये शत्रुम्रोका आश्रय भी लेना पडता है । परन्तु इन सब अवस्था
मे होकर जाता हुमा मुमुक्षु आत्मा अपने लक्ष्यसे कभी भ्रष्ट नही होता - पुद्गलके अथवा प्रकृतिके मोहजालमें कभी नही फँसता । वह कभी बन्धको मुक्ति, कर्मको कर्माभाव हानिको लाभ, पापको धर्म और शत्रुको मित्र स्वीकार नही करता । और न कभी इन बन्धादिक अवस्थाप्रोको इष्ट समझता हुआ उनमे तल्लीन ही होता है । बल्कि उसका प्रेम इन सब अवस्था से सिर्फ 'कार्यार्थी' होता है । कार्यार्थीका प्रेम कार्यकी हदतक रहता है। कार्यकी समाप्तिपर उसकी भी समाप्ति हो जाती है । इसलिए वह अपने किसी इष्ट प्रयोजनकी साधनाके निमित्त लाचारीसे इन बन्धादिक श्रवस्थान से क्षणिक प्रेम रखता हुआ भी बराबर निर्बन्ध, निष्कर्म, निहनि, निष्पाप और नि शत्रु होनेकी चेष्टा करता रहता है। इस विषयमें उसका यह सिद्धान्त होता है :
उपकारागृहीतेन शत्रुणा शत्रुमुद्धरेत् ।
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युगवीर- निबन्धावली
पादलग्नं करस्थेन कंटकेनेव कंटकम् ||
अर्थात् - हाथमें कांटा लेकर जिस प्रकार पैरका काँटा निकाला जाता है, उसी प्रकार उपकार तथा प्रेमादिकसे एक शत्रुको अपना बनाकर उसके द्वारा दूसरे शत्रुको निर्मूल करना चाहिए। अभिप्राय यह कि, पैरमें लगे हुए काँटेको निकालनेके लिए पैरमें दूसरा कांटा घुमाने की जरूरत होती है और उस दूसरे काँटेको आदरके साथ हाथमें ग्रहरण करते हैं । परन्तु वह दूसरा काँटा वास्तवमे इष्ट नही होता - कालान्तरमे वह भी पैरमें चुभ सकता है—और न उसका चुमाना ही इष्ट होता है- क्योंकि उससे भी तकलीफ जरूर होती है, फिर भी उस अधिक पीडा पहुँचानेवाले पैरके काँटेको निकालनेके लिए यह सब कुछ किया जाता है । और कार्य हो चुकने पर वह दूसरा कॉंटा भी हाथसे डाल दिया जाता है। इसी सिद्धान्त पर मुमुक्षु श्रात्माको बराबर चलना होता है । उसका जानबूझकर किसी बघन में पडना, कोई पापका काम करना और किसी शत्रुकी शरणमे जाना दूसरे अधिक कठोर बन्धनसे बचने, घोर पापसे सुरक्षित रहने और प्रबल शत्रुग्रोंसे पिंड छुडाने के अभिप्रायसे ही होता है । यद्यपि उसे सम्पूर्ण कर्मशत्रुधोका विजय करना इष्ट होता है, परन्तु साथ ही वह अपनी शक्तिको भी देखता है और इस बात को समझता है कि यदि समस्त शत्रुम्रोको एकदम चैलेज दे दिया जाय -- सबका एक साथ विरोध करके उन्हे युद्धके लिए ललकारा जाय--तो उसे कदापि सफलता प्राप्त नही हो सकती। इसलिए वह बराबर अपनी शक्तिको बढानेका उद्योग करता रहता है। जब तक उसका बल नही बढता तब तक वह अपनी तरफसे प्राक्रमरण नहीं करता, केवल शत्रुनोंके श्राक्रमरणकी रोक करता है, कभी कभी उसे टेम्परेरी ( अल्पकालिक ) संधियाँ भी करनी पडती हैं । और जब जिस विषयमें उसका बल बढ जाता है तब उसी विषयके शत्रुसे लड़नेके लिए तैयार हो जाता है और उसे नियमसे परास्त कर देता है। इस
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विवाह-समुद्देश्य तरह वह सम्पूर्ण कोके बन्धनसे छूटकर मुक्त हो जाता है।
गृहस्थाश्रम भी कर्मबन्धनसे छूटनेके प्रयोगोंमेसे एक प्रयोग है और स्त्री पुरुष दोनों मुमुक्षु हैं -कर्मबन्धनसे छूटनेके इच्छुक हैंइसलिए उन्हें भी अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट होकर गृहस्थाश्रमकी बधादिक अवस्थाप्रोको अपना स्वरूप न समझ लेना चाहिए, उन्हें सर्वथा इष्ट मानकर उनमे लवलीन न हो जाना चाहिए । बन्धको मुक्ति, कर्मको कर्माभाव, हानिको लाभ, पापको धर्म और शत्रको मित्र न मान लेना चाहिए। ऐसा मान लेनेसे फिर कर्मका बन्धन न छूट सकेगा। अन्तरग दृष्टिसे उनका भी प्रेम इन सब अवस्थाप्रोसे 'कार्यार्थी' होना चाहिए और उन्हे बराबर निबन्ध, निष्कर्म, निर्हानि, निष्कषाय और नि शत्रु होनेकी चेष्टा करते रहना चाहिए । साथ ही, उनका भी वही कटकोन्मूलन-सिद्धान्त होना चाहिए और उन्हे बडी सावधानीके साथ उस पर चलना चाहिए । उनका जानबूझकर गृहस्थीके बन्धनोमे पडना, आरभादिक पापोमे फँसना और कामादिक शत्रुप्रोका शरण लेना नरक-निगोद-तियंचादिकके कठोर बधनोसे बचने, सकल्प तथा अशुभ रागादि-जनित घोर पापोसे सुरक्षित रहने और प्रज्ञान-मिथ्यात्वादि प्रबल शत्रुप्रोसे पिड छुडानेके अभिप्रायसे ही होना चाहिए। उन्हें अपने पूर्ण ब्रह्मचर्यादि धर्मों पर लक्ष्य रखते हुए समस्त कर्म शत्रुओको जीतनेका उद्देश्य रखना चाहिए और उसके लिए बराबर अपना प्रात्म-बल बढाते रहना चाहिए । आत्माका बल शुभकर्मोंसे बढता है, और अशुभकर्मोसे घटता है । इसलिए .गृहस्थाश्रममे उन्हे अशुभकर्मोका त्याग करके बराबर शुभकर्मोका अनुष्ठान करते रहना चाहिए । गृहस्थाश्रममें गृहस्थधर्म-द्वारा आत्माका बल बहुत कुछ बढ़ाया जा सकता है। इसीलिए महर्षियोंने इस गृहस्थाश्रमकी सृष्टि की है । शुभकर्मोके द्वारा प्रात्म-बल बढ जाने पर गृहस्थोको, प्रेमपूर्वक ग्रहण किये हुए हाथके काटेके समान, गृहस्थाश्रमका भी त्याग कर देना चाहिए और
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युगवीर-निबन्धावली फिर उन्हें 'वानप्रस्थ' या 'संन्यस्त (मुनि ) पाश्रम धारण करना चाहिए, और इस प्रकार कर्माका बल घटाते हुए अन्तके माश्रम द्वारा उन्हे सर्वथा निसूल करके बन्धनसे छूट जाना चाहिए । यही मुक्तिकी सुसरता युक्ति है। और इसके उपयुक्त दिग्दर्शनसे पाठक स्वय समझ सकते हैं कि गृहस्थाश्रम अथवा गृहस्थधर्मका यह प्रणयन कितना अधिक युक्ति और चतुराईको लिये हुए है'। और उस पर पूरा पूरा अमल होनेसे मुक्ति कितनी सन्निकट हो जाती है।
परन्तु इन समस्त आश्रमोके धर्मका पूरी तौरसे पालन तब ही हो सकता है जब 'समाजका सगठन अच्छा हो। बिना समाज-सगउनके कोई भी काम यथेष्ट रीतिसे नहीं हो सकता। बाह्यसाधन न होनेसे सब विचार हृदयके हृदयमे ही विलीन हो जाते हैं, बन्धमोक्षकी सारी कथनी ग्रन्थोमें ही रक्खी रह जाती है और अमली सूरत कुछ भी बन नही पडती । जैनियोका सामाजिक संगठन बिगड जानेसे ही अफसोस । आज वस्तुत मुनिधर्म उठ गया ।। और इसीसे जैनियोकी प्रगति रुक गई। मुनियोका धर्म प्राय गृहस्थोंके आश्रय होता है । इसीलिए श्रीपद्मनन्दी आदि प्राचार्योने "गृहस्था धर्महे
१ विवाह-पद्धतिमे भी, भगवान 'वृषभ' देवका स्तवन करते हुए, यह बतलाया गया है कि 'उन्होने युगको आदिमे कल्याणकारी गृहस्थधर्मको प्रवर्तित करके उसके द्वारा युक्तिके साथ निर्वाण-मार्गको प्रवर्तित किया था। यथा :प्रावर्तयजन-हित खलु कर्मभूमौ षट्कर्मणा गृहिवृष परिवर्त्य युक्त्या । निरिण-मार्गमनवद्यमज स्वयम्भू श्रीनाभिसूनुजिनपो जयतात्स पूज्य ।।
जो लोग विवाहको सर्वथा ससारका कारण मानकर निवृत्तिप्रधान धर्मोके साथ उसको असम्बद्ध समझते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है। उन्होने विवाहके वास्तविक उद्देश्यको नही समझा और न धर्मका रहस्य ही मालूम किया है।
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विवाह-समुदस्य
१४६ तवः" "आपका मूलकारणम्" इत्यादि वाक्योंके द्वारा गृहस्थोंको 'धर्मका हेतु' और 'मुनिधर्मका मूल कारण बतलाया है। परन्तु गृहस्थाश्रमको व्यवस्था ठीक न होनेसे-समाजके अव्यवस्थित और निर्बल होनेसे---यह सब कुछ भी नहीं हो सकता । इसलिए अन्तरंग
और बहिरंग दोनो दृष्टियोंसे समाज-संगठनकी बहुत बड़ी जरूरत है । इसी खास उद्देश्यको लेकर विवाह होना चाहिए और उसको पूरा करनेके लिये प्रत्येक स्त्री-पुरुषकोउन दस कर्तव्योका पूरी तौरसे पालन करना चाहिये जो कुटुम्बोको सुव्यवस्थित बनानेके लिए बतलाये गये हैं और जिन पर समाजका सगठन अवलम्बित है। धर्मशास्त्रोकीदृष्टिसे विवाहके ये ही सब उद्देश्य हैं। अन्य सब छोटीमोटी बाते इन्हीं में समाजाती हैं।
उद्देश्यसिद्धिके लिये जरूरत विवाहके इन सब उद्देश्योको पूरा करने अथवा सिद्ध करनेके
१ 'मनु' आदिने भी गृहस्थाश्रमको प्रधानता दी है और लिखा है कि 'शेष तीनो पाश्रमोका उसीके द्वारा भरण-पोषण होता हैं और वे उमके आश्रित हैं'। यथा -
सर्वेषामपि चैतेषा वेद-स्मृति-विधानत ।। गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठ स त्रीनेतान्विति हि ।। तथैवाश्रमिरण सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ॥ -मनुस्मृतिः २ श्रीसोमदेवसूरिने, नीतिवाक्यामृतके निम्न वाक्यमे, दारकर्म (विवाह) के जो पाँच फल बतलाये हैं उनमेसे कोई भी फल ऐसा नही है जो इन उद्देश्योसे भिन्न हो अथवा इनके द्वारा साध्य न हो.
धर्मसततिरनुपहतारति हवार्तानुविहितत्वमामिजात्याचारविशुद्धिदेव-द्विजाऽतिथि-बान्धव-सत्कारानवद्यत्व दारकर्मणः फलम् ।
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युगवीर - निबन्धावली
लिये और गृहस्थाश्रमका भार समुचित-रीतिसे उठानेके लिये इस बातकी बहुत बडी ज़रूरत है कि 'स्त्री और पुरुष दोनों योग्य हो, समर्थ हो, युवावस्थाको प्राप्त हो और विवाहके उद्देश्योको मले प्रकार समझते हों । बाल्यावस्था से ही उनके शरीरका सगठन अच्छी रीति
हुआ हो, वे खोटे सस्कारोसे दूर रक्खे गये हो और उनकी शिक्षादीक्षाका योग्य प्रबन्ध किया गया हो। साथ ही, विवाह-संस्कार होने तक उन्होंने पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया हो और लौकिक तथा पारमार्थिक ग्रन्थका अध्ययन करके उनमे दक्षता प्राप्त की होअच्छी लियाकत हासिल की हो ।' बिना इन सब बातोंकी पूर्ति हुए विवाहके उद्देश्योका पूरे तौरसे पालन नही हो सकता, न गृहस्थाश्रमका भार समुचित रीति से उठाया जा सकता है और न वह गृहस्थाश्रम सुखाश्रम ही बन सकता है । इसीलिए गृहस्थाश्रम से पहले श्राचार्योंने एक दूसरे आश्रमका विधान किया है, जिसका नाम है 'ब्रह्मचारी प्राश्रम' - अर्थात्, ब्रह्मचारी रहकर विद्याभ्यास करते हुए शारीरिक और मानसिक शक्तियोको केन्द्रित करना । इस श्राश्रम
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१ मुनि रत्नचदजीने भी 'कर्त्तव्य-कौमुदी' मे लिखा है यावन्नार्जयते धन सुविपुल दारादिरक्षाकर यावन्नेव समाप्यते दृढतरा विद्या कला वाऽश्रिता । यावन्नो वपुषो धियश्च रचना प्राप्नोति दाढ्यं पर तावन्नो सुखद वदन्ति विबुधा ग्राह्य गृहस्थाश्रम |
अर्थातजब तक इतना प्रचुर धन पैदा न कर लिया जाय अथवा पासमे न हो जिससे अपनी तथा स्त्री-पुत्रादिककी यथेष्ट रक्षा होसके- घरका खर्च चल सके, जब तक विद्या श्रौर कलाका अभ्यास अच्छी तरहसे पूरा न हो जाय और शरीरके भगोकी रचना तथा बुद्धिका विकास अच्छी तरहसे होकर उनमे पूर्ण दृढता न पा जाय तब तक गृहस्थाश्रमका ग्रहण करना सुखदायी नही हो सकता, ऐसा बुद्धिमानोका मत है ।
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विवाह-समुद्देश्य का खास उद्देश्य इन्ही सब बातोंकी पूर्ति करना है जो विवाहके उद्देश्योकी पूर्ति तथा गृहस्थाश्रमके पालनके लिये जरूरी हैं। भगवज्जिनसेनाचार्यने, मादिपुराणमें, इन सब प्राश्रमोंका क्रम इस प्रकारसे वर्णन किया है
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धित ॥३६-१५३।। अर्थात्--ब्रह्मचारी, गृहस्थ वानप्रस्थ, और भिक्षक ये जैनियों' के चार आश्रम उत्तरोत्तर शुद्धिको लिये हुए हैं।
इससे प्रकट है कि सब आश्रमोंसे पहला आश्रम 'ब्रह्मचारी प्राश्रम रक्खा गया है । यह आश्रम, वास्तवमे, सब प्राधमोकी नीव जमानेवाला है। जब तक इस आश्रमके द्वारा एक खास अवस्था तक पूरण ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए किसी योग्य गुरुके पास विद्याभ्यास नही किया जाता है, तब तक किसी भी प्राश्रमका ठीक तौरसे पालन नहीं हो सकता। इसके बिना वे सब पाश्रम बिना नीवके मकानके समान अस्थिर और हानि पहुंचानेवाले होते हैं । इसलिये सबसे पहले बालक बालिकाओंको एक योग्य अवस्था तक पूर्ण ब्रह्मचर्यके साथ रखकर उनकी शिक्षा और शरीरसंगठनका पूरा प्रबन्ध करना चाहिए, और इसके बाद कही उनके विवाहका नाम लिया जाना चाहिए। यही माता-पिताका मुख्य कर्तव्य है।।
वह 'योग्य अवस्था' बालकोंके लिये २० वर्ष और बालिकाओके लिये १६ वर्षसे कम न होनी चाहिए। इससे पहले न वीर्य ही परिपक्व होता है और न विद्याभ्यास ही यथेष्ट बन पाता है। सारा ढाँचा कच्चा ही रह जाता है, जिससे आगे गृहस्थाश्रम-धर्म तथा समाज
१ हिन्दुअोके यहाँ भी ये ही चार माश्रम इसी क्रमसे माने गये हैं:ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा। एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वार पृथगाश्रमाः।। --मनुस्मृतिः
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घुगवीर निवन्धावली संगठनको बहुत बड़ी हानि पहुंक्ती है और स्त्री-पुरुषोका जीवन भी नीरस तथा दुखमय बन जाता है। शरीर-शास्त्रके वेत्ता प्राचार्य वाग्भट्ट लिखते हैं कि, 'पुरुषकी अवस्था पूरे २० वर्षकी और स्त्रीकी अवस्था पूरे १६ वर्षकी हो जाने पर गर्भाशय-मार्ग, रक्त, शुक्र (वीर्य), शरीरस्थ-वायु और हृदय शुद्ध हो जाते हैं-अपना कार्य यथेष्ट रीतिसे करने लगते हैं-उस समय परस्पर जो मैथुन किया जाता है उससे बलवान् सन्तान उत्पन्न होती है, और इससे कम अवस्थाप्रोमे जो मैथुन किया जाता है उससे रोगी, अल्पायु या दीन-दुखित और भाग्यहीन सन्तान पैदा होती है अथवा गर्भ ही नहीं रहता । यथा -
पूर्णषोडशवर्षा स्त्री पूर्णविशेन सगता । शुद्धे गर्भाशये मार्गे रक्ते शुक्रेनिले हृदि । वीर्यवन्तं सुतं सूते ततो न्यूनाऽब्दयो. पुन ।
रोग्यल्पायुरधन्यो वा गर्भो भवति नैव वा ।। इससे साफ जाहिर है कि 'पुरुषका २० वर्षसे और स्त्रीका १६ वर्षसे कम उम्रमें विवाह न होना चाहिए', ऐसा कम उम्रका विवाह बहुतही हानिकारक होता है और समाजके संगठनको बिगाडता है। छोटी उम्र में विवाह करके बादको जो 'गौना' या 'द्विरागमन' की प्रथा है वह बिल्कुल विवाहके उद्देश्यको घात करनेवाली प्रथा है। सोते हुए सिहको जगाकर उसे थपकी देनेके समान है। किसी भी माननीय प्राचीन जैनशास्त्रमें उसका उल्लेख या विधान नहीं है। उसके द्वारा व्यर्थ ही दो व्यक्तियोका जीवन खतरेमें (जोखममे) डाला जाता है। इसलिए बुद्धिमानोके द्वारा यह प्रथा कदापि आदररणीय नही हो सकती। उपसंहार
जो लोग विवाहके इन सब उद्देश्योको न समझकर, शरीरशास्त्रके वचनोंको न मानकर अपने बच्चोंका विवाह छोटी उम्र में
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विवाह-समुद्दश्य — १५३, करते हैं वे सिर्फ अपने बच्चोका ही बुरा नहीं करते-उन्हीके जीवनको नहीं बिगाडते-; बल्कि समाजभरका अनिष्ट करते हैं, जगतमें अनेक आपत्तियोको जन्म देते हैं, और इसलिये उन्हें 'जगतका शान्तिभग-कर्ता' समझना चाहिए। और इसीलिये सच्चे माता पितामोका यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे अपनी संतानके विवाहका नाम उस वक्त लेवे जबकि उसमे विवाहकी सपूर्ण योग्यताएँ पाजाय, जिससे वह विवाहके उद्देश्योको पूरा करती हुई अपने जीवनको सरस
और आनदमय बना सके । इससे पहले उन्हे बराबर उसकी योग्यतामोको पूरा करनेकी--उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियोको बढानेकी-पूरी चेष्टा करते रहना चाहिए । साथ ही, यह भी समझ लेना चाहिए कि विवाह-जैसे महत्वके कार्यको एक 'खेल' या 'तमाशा' बनाना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।
जो लोग विवाहकी सपूर्ण योग्यताप्रोको प्राप्त किये बिना ही विवाहित हो चुके है उनका, अपने लिये, इस समय यही खास कर्तव्य होना चाहिए कि वे प्रस्तुत 'विवाह-समुद्दे श्य'को अच्छी तरहसे अध्ययन और मनन करके अपनी प्रवृत्तियोको जहाँ तक बने, बिल्कुल इसके अनुकूल बना लेवे, अपना लक्ष्य ऊँचा रक्खे और उन दश कर्तव्योका यथाशक्ति ज़रूर पालन करते रहे--उसमे कोई बात उठा न रक्खे-जो कुटुम्बोको सुव्यवस्थित और बलाढ्य बनानेके लिये बतलाये गये हैं। ___ समाजके शुभ-चिन्तकोको चाहिये कि वे प्रत्येक गृहस्थी और गृहस्थाश्रममे प्रवेशके इच्छुक व्यक्तियो-उसके उम्मीदवारो-तक इस विवाह-समुद्देश्यको पहुँचाएँ शिक्षा-संस्थानोमें भरती कराएँ और समाजकी प्रवृत्तिको इसके अनुकूल बनानेका जी-जानसे यत्न करे। इसीमें समाजका हित संनिहित है और उसी हितको लक्ष्यमें लेकर यह निबन्ध लिखा गया है।
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नौकरोंसे पूजन कराना जैनियोमे दिन पर दिन यह बात बढती जाती है कि मदिरोमें पूजाके लिए नौकर रक्खे जाते है-श्वेताबर मंदिरोमें तो आमतौर पर अजैन ब्राह्मण इस काम के लिए नियुक्त किये जाते हैं और उन्हीसे जिनेन्द्र भगवानका पूजन कराया जाता है। पूजारियोके लिए अब समाचारपत्रोमे खुले नोटिस भी आने लगे हैं। समझमें नहीं आता कि जो लोग मदिर बनवाने, प्रतिष्ठा कराने रथयात्रा निकालने
और मदिरोमें अनेक प्रकारकी सजावट आदिके सामान इकट्ठा करने मे हजारो और लाखों रुपये खर्च करते हैं वे फिर इतने भक्तिशून्य और अनुरागरहित क्यो हो जाते हैं,जो अपने पूज्यकी उपासना अर्थात् अपने करनेका काम नौकरोसे कराते हैं ? क्या उनमे वस्तुत अपने पूज्यके प्रति भक्तिका भाव ही नहीं होता और वे जो कुछ करते हैं वह सब लोकदिखावा, नुमायश, रढिपालन और बाहरी वाहवाही लूटने तथा यशप्राप्तिके लिए ही होता है। कुछ भी हो, सच्चे जैनियोके लिए यह एक बडे ही कलक और लज्जाकी बात है। लोकमे अपने अतिथियो तथा इष्टजनोकी सेवाके लिए नौकर जरूर नियुक्त किये जाते हैं, जिसका अभिप्राय और उद्देश्य होता है अतिथियों तथा इष्टजनोको आराम और सुख पहुँचाना, उनकी प्रसन्नता प्राप्त करना और उन्हे अप्रसन्नचित्त न होने देना।
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नौकरोंसे पूजन कराना
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परन्तु यहाँ मामला इससे बिल्कुल ही विलक्षण है । जिनेन्द्रदेवकी पूजासे जिनेद्र भगवान्को कुछ सुख या माराम पहुंचाना प्रभीष्ट नही होता - - वे स्वतः अनतसुखस्वरूप हैं और न इससे भगवानकी प्रसन्नता या अप्रसन्नताका ही कोई सम्बन्ध है । क्योकि जिनेद्रदेव पूर्ण वीतरागी हैं- उनके आत्मामे राग या द्वेषका अश भी विद्यमान नही है - वे किसीकी स्तुति, पूजा तथा भक्तिसे प्रसन्न नही होते प्रौर न किसीकी निन्दा, अवज्ञा या कटुशब्दो पर अप्रसन्नता लाते हैं । उन्हे किसीकी पूजाकी ज़रूरत नही और न निन्दासे कोई प्रयोजन है । जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रगट है
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्न पुनाति चित्तं दुरिताऽञ्जनैभ्य ॥ --- वृहत्स्वय भूस्तोत्र ऐसी हालत मे कोई वजह मालूम नही होती कि जब हमारा स्वयं पूजन करने के लिए उत्साह नही होता तब वह पूजन क्यो किराये के आदमियो- द्वारा सपादन कराया जाता है। क्या इस विषयमे हमारे ऊपर किसीका दबाव और जन है ? अथवा हमे किसीके कुपित हो जानेकी कोई आशका है ? यदि ऐसा कुछ भी नही है तो फिर यह व्यर्थका स्वाग क्यो रचा जाता है ? और यदि सचमुच ही पूजन न होनेसे जैनियोको परमात्मा के कुपित हो जानेका कोई भय लगा हुआ है और इसलिए जिस तिस प्रकार के पूजन- द्वारा खुशामद करके हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयोकी तरह परमात्माको राजी और प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते हैं तो समझना चाहिए कि वे वास्तवमे जैनी नही है, जैनियोके वेषमे हिन्दू, मुसलमान या ईसाई हैं । उन्होने परमात्माके स्वरूपको नही समझा और न वास्तवमें जैनधर्मके सिद्धातोको ही पहचाना है । ऐसे लोगोको पिछले निबन्ध 'जिनपूजाधिकारमीमासा' मे 'पूजनसिद्धान्त' को पढ़ना और उसे अच्छी तरहसे समझना चाहिए। इसके सिवाय, यदि इस प्रकारके
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युगवीर - निबन्धावली
( किराये के ) आदमियों द्वारा पूजनकी गरज पुण्य संपादन करना कही जाय तो वह भी निरी भूल है और उससे भी जैनधर्मके सिद्धाPrint अनभिज्ञता पाई जाती है। जैन सिद्धान्तोकी दृष्टिसे प्रत्येक प्राणी अपने शुभाशुभ भावोंके अनुसार पुण्य और पापका सचय करता है । ऐसा धेर नही है कि शुभ भाव तो कोई करे और उसके फलस्वरूप पुण्यका सम्बन्ध किसी दूसरे ही व्यक्तिके साथ हो जाय । पूजनमें परमात्मा पुण्य-गुणों के स्मरणसे आत्मामें जो पवित्रता श्राती और पापोसे जो कुछ रक्षा होती है उसका लाभ उसी मनुष्यको हो सकता है जो पूजन- द्वारा परमात्माके पुण्य-गुणोका स्मरण करता है । इसी बातको स्वामी समतभद्रने अपने उपर्युक्त पद्यके उत्तरार्धमे भले प्रकारसे सूचित किया है। इससे स्पष्ट है कि सेवक द्वारा किये हुए पूजनका फल कभी उसके स्वामीको प्राप्त नही हो सकता, क्योकि वह उस पूजनमें परमात्माके पुण्यगुरगोका स्मरणकर्ता नही है । ऐसी हालत मे नौकरोसे पूजन कराना बिलकुल व्यर्थ है और वह अपने पूज्य के प्रति एक प्रकारसे अनादरका भाव भी प्रगट करता है । तब क्या होना चाहिए ? जैनियोको स्वय पूजन करना और पूजनके स्वरूपको समझना चाहिए। अपने पूज्यके प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्त्तनेका नाम पूजन है। उसके लिए अधिक ग्राडम्बरकी ज़रूरत नही है । वह पूज्य के गुलोमे अनुरागपूर्वक बहुत सीधा सादा और प्राकृतिक होना चाहिए। पूजनमे जितना ही अधिक बनावट, दिखावट और आडम्बर से काम लिया जायगा उतना ही अधिक वह पूजनके सिद्धान्तसे गिर जायगा । जबसे जैनियोमें बहुप्राडम्बरयुक्त पूजन प्रचलित हुआ है तभीसे उन्हें पूजा के लिये नौकर रखनेकी जरूरत पड़ी है । अन्यथा जिनेन्द्र भगवानकी सच्ची और प्राकृतिक पूजाके लिए किरायेके श्रादमियोकी कुछ भी ज़रूरत नही है। जेनियो प्राचीन साहित्यकी जहाँतक खोज की जाती है, उससे भी यही मालूम होता है, कि पुराने जमानेमे जैनियोमे वर्तमान जैसा बहुप्राड
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नौकरोंसे पूजन कराना
१५७ म्बरयुक्त पूजन प्रचलित नहीं था। उस समय प्रहंतभक्ति, सिद्धभक्ति,
आचार्यभक्ति और प्रवचनभक्ति आदि अनेक प्रकारकी भक्तियो-द्वारा, जिनके सस्कृत और प्राकृतके कुछ प्राचीन पाठ अब भी पाये जाते हैं, पूज्यकी पूजा और उपासना की जाती थी। श्रावक लोग मदिरोमे जाकर प्राय, जिनेन्द्रप्रतिमाके सम्मुख, खड़े होकर अथवा बैठकर, अनेक प्रकारके समझमे पाने योग्य स्तोत्र पढते तथा भक्तिपाठोका उच्चारण करते थे और परमात्माके गुणोका स्मरण करते हुए उनमे तल्लीन हो जाते थे। कभी कभी वे ध्यानमुद्रासे.बैठकर परमात्माकी मूर्तिको अपने हृदयमन्दिरमे विराजमान करके नि शब्द-रूपसे गुरगोका चिन्तवन करते हुए परमात्माकी उपासना किया करते थे। प्राय यही सब उनका द्रव्य-पूजन था और यही भावपूजन । उस समयके जैनाचार्य वचन और शरीरको अन्य व्यापारोसे हटाकर उन्हें अपने पूज्यके प्रति, स्तुतिपाठ करने और अजुलि जोडने आदि रूपसे, एकान करनेको 'द्रव्यपूजा' और उसी प्रकारसे मनके एकाग्र करनेको 'भावपूजा' मानते थे, जैसा कि श्रीअमितगति आचार्यके निम्नलिखित वाक्यसे प्रगट है -
वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनै ॥ १२-१२ ।।
-~-उपासकाचार, जबसे हिन्दुप्रोके प्राबल्यद्वारा जैनियो पर हिन्दूधर्मका प्रभाव पडा है और उन्होने हिन्दुप्रोकी देखादेखी उनकी बहुतसी ऐसी बातोको अपनेमे स्थान दिया है, जिनका जैनसिद्धान्तोसे प्राय कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, तभीसे जैनसमाजमे बहुअाडम्बरयुक्त पूजनका प्रवेश प्रारम्भ हुआ है और उसने बढते बढते वर्तमानका रूप धारण किया है, जिसमें बिना पुजारियोके नौकर रक्खे नहीं बीतती। आजकल इस पूजनमें मुक्तिको प्राप्त हुए जिनेन्द्र भगवानका आवाहन और विसर्जन भी किया जाता है। उन्हें कुछ मत्र पढकर बुलाया, बिठलाया,
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युगवीर-निबन्धावली ठहराया और फिर नेवेद्यादिक अर्पण करनेके बाद रुखसत किया जाता है-कहा जाता है कि महाराज ! अब आप अपने स्थान पर तशरीफ ले जाइए और हमारा अपराध क्षमा कीजिए, क्योकि हम लोग ठीक तौरसे आवाहन, पूजन और विसर्जन करना नहीं जानते । जरा सोचनेकी बात है कि, जैनधर्मसे इन सब क्रियाओंका क्या सम्बन्ध है ? जिनसिद्धान्तके अनुसार मुक्त तीर्थकर अथवा जिनेन्द्र भगवान किसीके बुलानेसे नहीं पाते, न किसीके कहनेसे कही बैठते, ठहरते या नैवेद्यादिक ग्रहण करते हैं, और न किसीके रुखसती (विसर्जनात्मक) शब्द उच्चारण करने पर वापिस ही चले जाते हैं। ऐसी हालतमे जैनधर्मसे इन आवाहन और विसर्जनसम्बन्धी क्रियाओंका कोई मेल नही है। वास्तवमें ये सब क्रियाये हिन्दूधर्मकी क्रियाये हैं। हिन्दुओके यहाँ वेदोतकमे देवताओका आवाहन और विसर्जन पाया जाता है । वे लोग ऐसा मानते हैं कि देवता लोग बुलानेसे आते, बैठते, ठहरते और अपना यज्ञभाग ग्रहण करके, रुखसत करने पर, वापिस चले जाते हैं। इससे हिन्दुनोंके यहाँ आवाहन और विसर्जनका यह सब कथन ठीक बन जाता है । परन्तु जैनियोकी ऐसी मान्यता नही है । इसीलिए जैनधमसे इनका मेल नही मिलता और ये सब क्रियाये बिल्कुल बेजोड मालूम होती हैं,इसी प्रकारकी,पूजन सम्बधमे और भी बहुतसी क्रियाये हैं जो हिन्दप्रोसे उधार लेकर रक्खी गई अथवा उनके सस्कारोंसे सस्कारित होकर पीछेसे बना ली गई हैं और जिन सबका जैनसिद्धान्तोसे प्राय कुछ भी मेल नहीं है । यहाँ इस छोटेसे लेख मे उन सब पर विचार नहीं किया जा सकता और न इस समय उनके विचारका अवसर ही प्राप्त है। अवसर मिलने पर उन पर फिर कभी प्रकाश डाला जायगा । परन्तु इतना जरूर कहना होगा कि वर्तमानका पूजन इन्ही सब क्रियायोके कारण बिल्कुल अप्राकृतिक तथा आडम्बरयुक्त बन गया है और उससे जैनियोकी आत्मीय प्रगति,एक प्रकारसे,रुक गई है। यदि सचमुच ही हमारे जैनी भाई अपने परमा
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नौकरोंसे पूजन कराना
१५९ स्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना चाहते हैं तो उन्हे सब पाडम्बरोको छोड़कर पूजनकी अपनी वही पुरानी, प्राकृतिक और सीधीसादी पद्धति जारी करनी चाहिए, जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। ऐसा करनेपर पुजारियोको नौकर रखनेकी भी फिर कुछ जरूरत नहीं रहेगी और आत्मोन्नति-सम्बन्धी वह सब लाभ अपनेको प्राप्त होने लगेगा, जिसको लक्ष्य करके ही मूर्तिपूजाका विधान किया गया है और जिसका परिचय पाठकोको, जिनपूजाधिकारमोमासा'के पूजनसिद्धान्त' प्रकरणको पढनेसे भले प्रकार मिल सकता है । विपरीत इसके यदि जेनी लोग अपनी वर्तमान पूजनपद्धतिको न बदलनेके कारण नौकरोसे पूजन कराना जारी रवखेगे तो इसमे सदेह नही कि वह समय भी शीघ्र निकट आ जायगा जब उन्हे दर्शन, सामायिक, स्वाध्याय, तप, जप, शील, सयम, व्रत, नियम और उपवासादिक सभी धार्मिक कामोके लिये नौकर रखने या उन्हे सर्वथा छोड देनेकी जरूरत पड़ने लगेगी। और तब उनका धर्मसे बिल्कुल ही पतन हो जायगा। इसलिए जेनियोको शीघ्र ही सावधान होकर अपनी वर्तमान पूजनपद्धतिमे आवश्यक सुधार करके उसे सिद्धान्तसम्मत बना लेना चाहिए । और नौकरोके-द्वारा पूजनकी प्रथाको एकदम उठा देना चाहिए । आशा है कि, समाजके नेता और विद्वान् लोग इस विषयकी ओर खास तौरसे ध्यान देगे।
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चारुदत्त सेठ का शिक्षाप्रद उदाहरण हरिवंशपुराणादि जैनकथा-ग्रन्थोमे चारुदत्त सेठकी एक प्रसिद्ध कथा है । यह सेठ जिस वेश्यापर आसक्त होकर वर्षों तक उसके घर पर, बिना किसी भोजनपानादि सबधी भेदके, एकत्र रहा था और जिसके कारण वह एक बार अपनी सपूर्ण धन संपत्तिको भी गंवा बैठा था उसका नाम 'वसंतसेना था। इस वेश्याकी माताने, जिससमय धनाभावके कारण चारुदत्त सेठको अपने घरसे निकाल दिया और वह धनोपार्जन के लिये विदेश चला गया उस समय वसतसेनाने, अपनी माताके बहुत कुछ कहने पर भी, दूसरे किसी धनिक पुरुषसे अपना सबध जोडना उचित नहीं समझा और तब वह अपनी माताके घरका ही परित्याग कर चारुदत्तके पीछे उसके घर पर चली गई। चारुदत्तके कुटुम्बियोने भी वसतसेनाको आश्रय देनेमे कोई आनाकानी नही की । वसतसेनाने उनके समुदार आश्रयमें रहकर एक आयिकाके पाससे श्रावकके १२ व्रत ग्रहण किये, जिससे उसकी पूर्व परिणति पलटकर उच्च तथा धार्मिक बन गई, और वह बराबर चारुदत्तकी माता तथा स्त्रीको सेवा करती हुई नि सकोच-भावसे उनके घर पर रहने लगी। जब चारुदत्त विपुल धनसम्पत्तिका स्वामी बनकर विदेशसे अपने घर पर वापिस पाया और उसे वसतसेनाके स्वगृह पर रहने आदिका हाल मालूम हुआ तब उसने बडे हर्षके साथ वसतसेना को अपनाया अर्थात्, उसे अपनी स्त्री रूपसे स्वीकृत किया। चारुदत्त के इस कृत्यपर-अर्थात्,एक वेश्या जैसी नीच स्त्रीको
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चारुदत्त सेठका शिक्षाप्रद उदाहरण १६१ खुल्लम खुल्ला घरमे डाल लेनेके अपराध पर उस समयकी जाति बिरादरीने चारुदत्तको जातिसे च्युत अथवा बिरादरीसे खारिज नहीं किया और न दूसरा ही उसके साथ कोई घृणाका व्यवहार किया गया। वह श्रीनेमिनाथ भगवानके चचा वसुदेवजी जैसे प्रतिष्ठित पुरुषोसे भी प्रशसित और सम्मानित रहा । और उसकी शुद्धता यहाँ तक बनी रही कि वह अन्तको उसके दिगम्बर मुनितक होनेमे भी कुछ बाधक न हो सकी। इस तरह पर एक कुटुम्ब तथा जाति-बिरादरीके सद्व्यवहारके कारण दो व्यसनासक्त व्यक्तियोको अपने उद्धारका अवसर मिला। ___ इस पुराने शास्त्रीय उदाहरणसे वे लोग कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते है जो अपने अनुदार विचारोके कारण जरा जरासी बात पर अपने जाति भाइयोको जातिसे च्युत करके उनके धार्मिक अधिकारोमे भी हस्तक्षेप करके उन्हे सन्मार्गसे पीछे हटा रहे हैं और इस तरह अपनी जातीय तथा सघशक्तिको निर्बल एव नि सत्व बनाकर अपने ऊपर अनेक प्रकारकी विपत्तियोको बुलानेके लिये कमर कसे हुए है। ऐसे लोगोको सघशक्तिका रहस्य जानना चाहिए और यह मालूम करना चाहिये कि धार्मिक और लौकिक प्रगति किस प्रकारसे हो सकती है । यदि उस समयकी जाति-विरादरी उक्त दोनो व्यसनासक्त व्यक्तियोको अपनेमे आश्रय न देकर उन्हें अपनेसे पृथक् कर देती, घृणाकी दृष्टिसे देखती और इस प्रकार उन्हे सुधरने का कोई अवसर न देती तो अन्तमे उक्त दोनो व्यक्तियोका जो धार्मिक जीवन बना है वह कभी न बन सकता । अत ऐसे अवसरोपर जाति-बिरादरीके लोगोको बहुत सोच समझकर, बड़ी दूरदृष्टिताके साथ काम करना चाहिए। यदि वे पतितोका स्वय उद्धार नही कर सकते तो उन्हें कमसे कम पतितोके उद्धारमे बाधक न बनना चाहिये और न ऐसा अवसर ही देना चाहिये जिससे पतित जन और भी अधिकताके साथ पतित हो जायें।
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वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण
श्रीनेमिनाथ तीर्थकरके चचा और श्रीकृष्ण महाराजके पिता वसुदेवजी जनसमाजमें एक सुप्रसिद्ध व्यक्ति हो गये हैं। हरिवशपुराणादि जैनकथाग्रन्थोंमें आपका विस्तारके साथ वर्णन दिया है। यहाँपर मैं आपके जीवनकी सिर्फ चार घटनापोका उल्लेख करता हूँ, एक 'देवकीसे विवाह',दूसरी'जरा नामकी म्लेच्छ कन्यासे विवाह', तीसरी 'प्रियगुसुन्दरीसे विवाह, और चौथी घटना है 'रोहिणी का स्वयबर'। देवकीसे विवाह
देवकी राजा उग्रसेनके भाई देवसेन (देवक) की पुत्री, नप भोजकवृष्टिको पौत्री और महाराजा सुवीरकी प्रपौत्री थी। वसुदेव राजा अन्धकवृष्टिके पुत्र और नृप-शूरके पौत्र थे। ये नुप'शुर' और देवकीके प्रपिताम इ 'सूवीर' दोनों सगे भाई थे। दोनोंके पिताका नाम 'चरपति' और पितामह (बाबा) का नाम 'यदु' था । ऐसा श्रीजिनसेनाचार्यने अपने हरिवंशपुराणामे सूचित किया है और इससे यह प्रगट है कि राजा उग्रसेन,देवसेन और वसुदेवजी तीनो आपसमे चचा-वाऊजाद भाई लगते थे और इसलिये देवसेवकी लड़की 'देवकी' रिश्वेमे उपसेन तथा वसुदेवकी भतीजी(भातृजा) हुई। इस देवकीसे वसुदेवला
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वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण १६३ विवाह हुमा, जिससे स्पष्ट है कि इस विवाहमें मोच तथा गोकी . शाखाओंका टालना तो दूर रहा,एक बंश और एक कुटुम्बका की कुछ खयाल नही रक्खा गया । वसुदेवजीने गोत्रादि-सम्बन्धी इन सब बातोंको कुछ भी महत्व न देकर, बिना किसी सकोचके प्रारती भतीजीके साथ विवाह कर लिया और उनका यह विवाह उस समय कुछ भी अनुचित नहीं समझा गया । इस विवाहसे अनेक सुप्रविष्ठित और बहुमान्य पुत्ररत्नोका उद्भव हुमा-देवकीने श्रीकृष्सा प्रतिरिक छह तद्भवमोक्षगामी पुत्रोको भी जन्म दिया। यह तो हुई देवकीसे विवाहकी बात, अब जराकी विवाह-वार्ताको लीजिये। बरासे विवाह
जरा किसी म्लेच्छ राजाकी कन्या थी, जिसने गङ्गा तट पर वसूदेवजीको परिभ्रमण करते हुए देखकर उनके साथ अपनी इस कन्याका पारिणग्रहण कर दिया था। प० दौलतरामजीने, अपने हरिवशपुराणमें, इस राजाको 'म्लेच्छखण्डका राजा' बतलाया है और पगजाधरलालजी उसे 'मीलोंका राजा' सूचित करते हैं। वह राजा म्लेच्छखण्डका राजा हो या प्रार्यखण्डोद्भव म्लेच्छ राजा, और चाहे उसे भीलोका राजा कहिये, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह आर्य्य तथा उच्चजातिका मनुष्य नहीं था । और इसलिये उसे मनाये या म्लेच्छ कहना मी अनुचित नहीं होगा । म्लेच्छोका प्राचार मामः तौरपर 'हिंसामें रति, मासभक्षणमे प्रीति और ज़बरदस्ती दूसरोकी धन-सम्पत्तिका हरना इत्यादिक' होता है, जैसा कि श्रीजिनसेनाचार्य, प्रणीत प्रादिपुराणके मिन्नलिखित वाक्यसे प्रगट है.
म्लेच्छाचारो हि हिंसायां रतिर्मालाशतेऽपि च । बलात्परस्वहरण निर्द्ध तत्वमिति स्मृतम् ।। ४२-१८४॥
वसुदेवजीने, यह सब कुछ जागले हुए भी, बिना किसी भिमक और रुकावटके बड़ी खुशीके साथ इस म्लेच्छ-राजाकी उक्त कन्यास
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युगवीर-निबन्धावली विवाह किया और उनका यह विवाह भी उस समय कुछ अनुचित नही समझा गया । बल्कि उस समय और उससे पहले भी इस प्रकारके विवाहोका श्राम दस्तूर था । अच्छे अच्छे प्रतिष्ठित, उच्चकुलीन
और उत्तमोत्तम पुरुषोने म्लेच्छराजाप्रोकी कन्याप्रोसे विवाह किया, जिनके उदाहरणोंसे जैनसाहित्य परिपूर्ण है। अस्तु, इस विवाहसे वसुदेवजीके 'जरतकुमार' नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो बडा ही प्रतापी,नीतिवान और प्रजाप्रिय राजा हो गया है और जिसने अन्तको, राज-पाट छोडकर, जैनमुनिदीक्षा तक धारण की थी। इसी राजाके वशमे 'जितशत्र'नामका राजा हुआ,जिससे भगवान महावीरके पिताकी छोटी बहिन ब्याही गई । अब प्रियगुसुन्दरीके विवाहको लीजिये।
प्रियंगुसुन्दरीसे विवाह
प्रियगुसुन्दरीके पिताका नाम 'एणीपुत्र'था । यह एणीपुत्र ऋषिदत्ता नामकी एक अविवाहिता तापसकन्यासे व्यभिचार-द्वारा उत्पन्न हुअा था। प्रसवसमय उक्त ऋषिदत्ताका देहान्त हो गया और वह मरकर देवी हुई, जिसने एगी अर्थात् हरिणीका रूप धारण करके जङ्गलमे अपने इस नवजात शिशुको स्तन्यपानादिसे पाला और पालपोषकर अन्तको शीलायुध राजाके सुपुर्द कर दिया । इस प्रियगुसुन्दरीका पिता एगीपुत्र 'व्यभिचारजात' था, जिसको आजकलकी भाषामे 'दस्सा' या 'गाटा' भी कहना चाहिए। वसुदेवजीने विवाहके समय यह सब हाल जानकर भी इस विवाहको किसी प्रकारसे दूषित, अनुचित अथवा अशास्त्र-सम्मत नहीं समझा और इसलिये उन्होने बडी खुशीके साथ प्रियंगुसुन्दरीका भी पाणिग्रहण किया।
१ शास्त्रोमे तो ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्यके लिये 'शूद्र' तकको कन्यासे विवाह करना भी उचित ठहराया है, यथा -
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वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण
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यद्यपि ये तीनो विवाह श्राजकलकी हवाके बहुत कुछ प्रतिकूल पाये जाते हैं तो भी, उस समय इन विवाहोंको करके वसुदेवजी जरा भी पतित नही हुए ।
पतित होना अथवा जातिसे च्युत किया जाना तो दूर रहा, तत्कालीन समाजने उन्हे घृरणाकी दृष्टिसे भी नही देखा । इनकी कीर्ति और प्रतिष्ठामे इन विवाहोसे जरा भी बट्टा या कलङ्क नहीं लगा, बल्कि वह उल्टी वृद्धिगत हुई और यहाँ तक बनी रही कि उसके कारण आज तक भी अनेक ऋषि-मुनियो तथा विद्वानोके द्वारा वसुदेवजी के पुण्य- चरित्रका चित्रण और यशोगान होता रहा । श्री जिनसेनाचार्य्यने हरिवशपुराणमे, वसुदेवजीकी कीर्तिका अनेक प्रकार से कीर्तन कर उन्हे यदुवशमे श्रेष्ठ, उदारचरित्र, शुद्धात्मा, स्वभावसे ही निर्मल-चित्तके धारक, अनन्य साधारण (जो औरोमें न पाया जाय) विवेकसे युक्त और ऐसे महान धर्मज्ञ तथा तत्त्ववेत्ता प्रकट किया है कि जिनके मुनि और श्रावकधर्मसम्बन्धी उपदेशको सुनकर बहुत से मिथ्यामती तापसियोने भी तत्काल ही अपना वह मिथ्यामत छोड दिया था और जैनधर्मका शरण लेकर उसके व्रतोको प्रहरण किया था। श्रीजिनदास ब्रह्मचारी भी अपने हरिवशपुरा में, वसुदेवजीका ऐसा ही यशोगान करते है और उन्हे 'महामति' आदिक लिखते है । साथ ही, उन्होने बलभद्रके मुखसे श्रीकृष्णके प्रति जो वाक्य कहलाया है उससे मालूम होता है कि वसुदेवजीका सौभाग्य जगत मे विख्यात था और उनकी सत्कीर्तिका खेचर और भूचर
शूद्रा शूद्र रेग वोढव्या नान्या स्वा ता च नैगम ।
वहेत्स्वा ते च राजन्य स्वा द्विजन्मा क्वचिच्च ता ।। १६-४७ - श्रादिपुराणे, जिनसेन:
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'श्रानुलोम्येन चतुस्त्रिद्विव कन्याभाजनामा एकत्रियवश ।" - नीतिवाक्यामृते, सोमदेव:
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युगवीर-निबन्धावली सभी जन गान किया करते थे। वह वाक्य इस प्रकार हैं.
अंगद्विख्यातसौभाग्यो वसुदेव पिता तव । गायते यस्य सत्कीर्ति खेचरीभूचरीजने ॥
-- १४-१४३ इन दोनो ग्रन्थोके अवतरणोसे ही इस बातका भले प्रकार पता चल जाता है कि वसुदेवजी कितने यशस्वी, विवेकी, प्रखर विद्वान् और धार्मिक पुरुष थे। ऐसी हालतमे उनके ये तीनों विवाह उस समय की दृष्टि से जरा भी हीन अथवा जघन्य नही समझे जा सकते। उन्हें अनुचित समझना ही अनुचित होगा । अस्तु, अब रोहिणीके स्वयवरकी और चलिये। रोहियोका स्पयंवर
रोहिणी अरिष्टपुरके राजाकी लडकी और एक सुप्रतिष्ठित घरानेकी कन्या थी । इसके विवाहका स्वयवर रचाया गया था,जिसमे जरासन्धादिक बडे बडे प्रतापी राजा दूर देशातरोसे एकत्र हुए थे। स्वयबरमडपमें वसुदेवजी, किसी कारण-विशेषसे अपना वेष बदल कर, परणव' नामका वादिन हाथमे लिए हुए एके ऐसे रत तथा अकुलीन वाजन्त्री ( बाजा बजानेवाला ) के रूप में उपस्थित थे कि जिससे किसीको उस वक्त वहाँ उनके वास्तविक कुल जाति प्रादिका कुछ भी पता मालूम नही था । रोहिणीने सम्पूर्ण उपस्थित राजानी तथा राजकुमारोंको प्रत्यक्ष देखकर और उनके बैश तथा गुणादिका परिचय पाकर भी जब उनमेसे किसीको भी अपने योग्य वर पसद नहीं किया तब उसने, सब लोगोंको आश्चर्यमें डालते हए, बडे ही नि संकोच भावसे उक्त बाजन्त्री रूपके धारक एक अपरिचित और प्रजातकुल-जाति-नामा व्यक्ति (वसुदेव)के गले में ही अपनी वरमाला डाल दी। रौहिणीके इस कृत्य पर कुछ ईल, मानी और मदान्ध राजा, अपना अपमान समझकर, कुपित हुए और रोहिणीके ,
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वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण पिता तथा वसुदेवसे लडनेके लिये तैयार हो गये । उस समय विवाहनीतिका उल्लघन करने के लिये उद्यमी हुए उन कुपितानन राजाओंको सम्बोधन करके, वसुदेवजीने बडी तेजस्विताके साथ जर्जी वाक्य कहे थे उनमें से स्वयवर-विवाहके नियमसूचक कुछ वाक्य इस प्रकार है -
कन्या वृणीते रुचितं स्वयवरगता वर । कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयवरे ।
-हरिवश०११-७१ अर्थात् स्वयवरको प्राप्त हुई कन्या उस वरको वरण (स्वीकार) करती है जो उसे पसद होता है, चाहे वर कुलीन हो या अकुलीन । क्योकि स्वयवरमे इस प्रकारका-वरके कुलीन या अकुलीन होनेका-कोई नियम नही होता। ये वाक्य सकलकीति प्राचाय्यक शिष्य श्रीजिनदास ब्रह्मचारीने अपने हरिवंशपुराणमें उद्धृत किये हैं और श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराणमे भी प्राय इसी प्राशयके वाक्य पाये जाते हैं। वसुदेवजीके इन वचनोसे उनकी उदार परिणति
और नीतिज्ञताका अच्छा परिचय मिलता है, और साथ ही स्वयवरविवाहकी नीतिका भी बहुत कुछ अनुभव हो जाता है । वह स्वयवर-विवाह, जिसमें वरके कुलीन या अकुलीन होनेका कोई नियस नहीं होता, वह विवाह है जिसे आदिपुराणमे श्रीजिनसेनाचार्याने 'सनातनमार्ग' लिखा है और सम्पूर्ण विवाह-विधानोमे सबसे अधिक श्रेष्ठ ( वरिष्ठ ) विधान प्रकट किया है' । युगकी प्रादिमें सबसे - पहले जब राजा अकम्पनके द्वारा इस (स्वयवर) विवाहका अनुष्ठान हुना था तब मरत चवीन भी इसका बहुत कुछ मिनदन किया था। साथ ही, उन्होने से सनातन मागोंके पुनरुद्धारकर्ताप्रोको १ सनातनोऽस्ति मागीय प्रतिस्मृतिषु माचितः । विवाहविधिमदेषु वरिष्ठो हि स्वयवरः ॥ ४४-३२ ।।
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युगवीर - निबन्धावली
सत्पुरुषो द्वारा पूज्य भी ठहराया था' । अस्तु, विवाहकी यह सनातन विधि भी आजकलकी हवा के प्रतिकूल पाई जाती है । प्राजकल इस प्रकार के विवाहोका प्राय प्रभाव ही देखनेमे श्राता है, परतु आजकल कुछ ही होता रहे, उस समय वसुदेवजीका रोहिणीके साथ इस स्वयंवर - विधि से बडे प्रानदपूर्वक विवाह होगया और रोहिणीका एक बाजत्रीके गलेमे वरमाला डालना भी कुछ अनुचित नही समझा गया । इस विवाह से वसुदेवजीको बलभद्र जैसे पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई ।
इन चारो घटनाप्रोको लिये हुए वसुदेवजीके इस एक पुराने बहुमान्य शास्त्रीय उदाहरणसे, और साथ ही वसुदेवजीके उक्त वचनोको प्रादिपुराणके उपर्युक्त लिखित वाक्योके साथ मिलाकर पढनेसे विवाह - विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पडता है और उसकी अनेक समस्याएँ खुद बखुद ( स्वयमेव ) हल हो जाती है। इस उदाहररणसे वे सब लोग बहुत कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते है जो प्रचलित रीति-रिवाजोको ब्रह्म वाक्य तथा प्राप्त वचन समझे हुए है, अथवा जो रूढियोंके इतने भक्त हैं कि उन्हे गणितशास्त्र के नियमोकी तरह अटल सिद्धान्त समझते है और इसलिए उनमे जरा भी फेरफार करना जिन्हे रुचिकर नही होता, जो ऐसा करनेको धर्मके विरुद्ध चलना श्रौर जिनेद्र भगवानकी प्रज्ञाका उल्लघन करना मान बैठे हैं, जिन्हे विवाहमे कुछ सख्याप्रमाण गोत्रोंके न बचाने तथा अपने वसे भिन्न वके साथ शादी करनेसे धर्मके डूब जाने
१. तथा स्वयवरस्येमे नाभूवन्यद्यकम्पना ।"
क प्रवर्त्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥ ५४ ॥ मार्गाश्चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान्सन्त सद्भि पूज्यास्त एव हि ॥ ५५ ॥ - श्रादिपु०पर्व ४५
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बसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण
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का भय लगा हुआ है, इससे भी अधिक, जो एक ही धर्म और एक ही प्रचारके मानने तथा पालनेवाली अग्रवाल, खडेलवाल श्रादि समान जातियोमे भी परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार एक करनेको अनुचित समझते है, पातक अथवा पतनकी शकासे जिनका हृदय सतप्त है और जो अपनी एक जातिमे भी आठ-आठ गोत्रो तकको टालने के चक्कर मे पडे हुए है । ऐसे लोगोको वसुदेवजीका उक्त उदाहरण और उसके साथ विवाहसम्बधी वर्तमान रीति-रिवाजोका मिलान बतलायगा कि रीति-रिवाज कभी एक हालतमे नही रहा करते, वे सर्वज्ञ भगवानकी प्राज्ञाएँ और अटल सिद्धान्त नही होते, उनमे समयानुसार बराबर फेरफार और परिवर्तनकी जरूरत हुआ करती है । इसी जरूरतने वसुदेवजी के समय और वर्तमान समय मे जमीन-आसमानकासा तर डाल दिया है । यदि ऐसा न होता तो वसुदेवजी के समय विवाहसम्बधी नियम-उपनियम इस समय भी स्थिर रहते और उसी उत्तम तथा पूज्य दृष्टि से देखे जाते जैसे कि वे उस समय देखे जाते थे । परन्तु ऐसा नही है और इसलिये कहना होगा कि वे सर्वज्ञ भगवान की आज्ञाएँ अथवा अटल सिद्धान्त नही थे और न हो सकते है । दूसरे शब्दोमे यो कहना चाहिये कि यदि वर्तमान वैवाहिक रीतिरिवाजोको सर्वज्ञ-प्रणीत सावदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त माना जाय तो यह कहना पडेगा कि वसुदेवजीने प्रतिकूल - प्राचरणद्वारा बहुत स्पष्टरूपसे सर्वज्ञकी श्राज्ञाका उल्लघन किया। ऐसी हालतमे प्राचार्यों द्वारा उनका यशोगान नही होना चाहिये था, वे पातकी समझे जाकर कलकित किये जानेके योग्य थे । परन्तु ऐसा नही हुआ और न होना चाहिये था, क्योकि शारत्रोद्वारा उस समय मनुष्योकी प्राय ऐसी ही प्रवृत्ति पाई जाती है, जिससे वसुदेवजी पर कोई कलक नही सकता । तब क्या यह कहना होगा कि उस वक्त वे रीति-रिवाज सर्वज्ञप्ररणीत थे और प्राजकलके सर्वज्ञ प्ररणीत अथवा जिनभाषित नही हैं ? ऐसा कहने पर श्राजकल
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युगवार-निबन्धावली रीति-रिवाजों को एकदम उठाकर उनके स्थानमे वही वसुदेवजीके समयके रीति-रिवाज कायम कर देना ही समुचित न होगा बल्कि साथ ही अपने उन सभी पूर्वजोको कलकित और दोषी भी ठहराना होगा जिनके कारण वे पुराने (सर्वज्ञभाषित ) रीति-रिवाज उठकर उनके स्थानमे वर्तमान रीति-रिवाज कायम हुए और फिर हम तक पहुंचे। परन्तु ऐसा कहना और ठहराना दु साहस-मात्र होगा। वह कभी इष्ट नहीं हो सकता और न युक्तियुक्त ही प्रतीत होता है। इसलिये यही कहना समुचित होगा कि उस वक्तके वे रीति-रिवाज भी सर्वज्ञ भाषित नही थे। ___ वास्तवमे गृहस्थोका धर्म दो प्रकारका वर्णन किया गया है, एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रय और पारलौकिक आगमाश्रय होता है' । 'विवाहकर्म गृहस्थोंके लिये एक लौकिक धर्म है और इसलिये वह लोकाश्रित है'-लौकिक जनोकी देशकालानुसार जो प्रवृत्ति होती है उसके आधीन है-लौकिक जनोकी प्रवृत्ति हमेशा एक रूपमे नही रहा करती । वह देशकालकी आवश्यकताओंके अनुसार, कभी पंचायतियोंके निर्णय द्वारा और कभी प्रगतिशील व्यक्तियोके उदाहरणीको लेकर, बराबर बदला करती है और इसलिये वह पूर्णरूपमें प्राय कुछ समयके लिये ही स्थिर रहा करती है। यही वजह है कि भिन्न भिन्न देशो,समयो और जातियोंके विवाहविधानोंमै बहुत बड़ा अंतर पाया जाता है । एक समय था जब इसी मारतभूमि पर सगै भाई-बहन भी परस्पर स्त्री-पुरुष होकर रही करते थे और इतनें. पुण्याधिकारी समझ जाते थे कि मरने पर उनके लिये नियमसे देवतिका विधान किया गया है । फिर वह १द्वी हि धर्मो गृहस्थाना लौकिक पारलौकिक ।
लोकायों माध: परः स्थापागमाश्रयः। सीमदेव। ३. यह कन उस समयका है जब कि यहाँ भोगभूमि प्रचलित थीं।
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वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण समय भी आया जब उक्त प्रवृत्तिका निषेध किया गया और उसे अनुचित ठहराया गया। परन्तु उस समय गोत्र तो गोत्र एक कुटुम्बमें विवाह होना, अपनेसे भिन्न वर्णके साथ शादीका किया जाना और शूद्र ही नहीं किन्तु म्लेच्छों तककी कन्याप्रोसे विवाह करना भी अनुचित नहीं माना गया। साथ ही मामा-फूफीकी कन्याओंसे विवाह करनेका तो प्रोम दस्तूर रहा और वह एक प्रशस्त विधान समझा गया। इसके बाद समयके हेरफेरसे उक्त प्रवृत्तियोका भी निषेध प्रारभ हुमा, उनमें भी दोष निकलने लगे-पापोंकी कल्पनायें होने लगी और वे सब बदलते बदलते वर्तमानके ढाँचेमें ढल गई। इस अर्सेमें सैकड़ों नवोन जातियों,उपजातियों और गोत्रोंकी कल्पना होकर विषाहक्षेत्र इतना सकीर्ण बन गया कि उसके कारण अाजकलकी जनता बहुत कुछ हानि तथा कष्ट उठा रही है और क्षतिका अनुभव कर रही है उसे यह मालूम होने लगा है कि कैस कैसी समृद्धिशालिनी जातियां इन वर्तमान रीति-रिवाजोंके चंगुलमें फंसकर ससारसे अपना अस्तित्व उठा चुकी हैं और कितनी मृत्युशय्यापर पड़ी हुई है-इसीसे अब वर्तमान रीति-रिवाजोंके विरुद्ध भी आवाज उठनी शुरू हो गई है, समय उनका भी परिवर्तन चाहता है।
संक्षेपमें, यदि सम्पूर्ण जगतके भिन्न भिन्न देशों, समयों और जातियोंके कुछ थोडे थोडेसे ही उदाहरण एकत्र किये जाये तो विवाहविधानीमे हजारों प्रकारके भेद उपमेद और परिवर्तन दृष्टिगोचर होंगे और इस लिये कहना होगा कि यह सब समय-समयको जरूरतों, देश-देशकी आवश्यकतानो और जातिके पारस्परिक व्यवहारोका नतीजा है, अथवा इसे कालचक्रका प्रभाव कहना चाहिए। जो लोग कालचक्रकी गतिको न समझकर एक ही स्थान पर खडे रहते है और अपनी पोजीशन (Position)की नहीं बदलते,स्थितिको नहीं सुधारते,वे निसन्देह कालचक्र प्राघातसे पीड़ित होते और कुचले जाते हैं । अथवा संसारसे उनकी सत्ता उठ जाती है। इसे सबै
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युगवीर-निबन्धावली कथनसे अथवा इतने ही सकेतसे लोकाश्रित ( लौकिक ) धर्मोका बहुत कुछ रहस्य समझमे आ जाता है । साथ ही यह मालूम हो जाता है कि वे कितने परिवर्तनशील हुआ करते हैं। ऐसी हालतमे विवाह-जैसे लौकिक धर्मों और सासारिक व्यवहारोके लिये किसी
आगमका प्राश्रय लेना, अर्थात् यह हूँढ-खोज लगाना कि आगममे किस प्रकारसे विवाह करना लिखा है, बिल्कुल व्यर्थ है। कहा भी है"संसारव्यवहारे तु स्वत सिद्धे वृथागम ।' अर्थात्,ससार-व्यवहारके स्वत सिद्ध होनेसे उसके लिये प्रागमकी जरूरत नहीं । वस्तुतः आगम ग्रन्थोमे इस प्रकारके लौकिक धर्मों और लोकाश्रित विधानोका कोई क्रम निर्धारित नहीं होता। वे सब लोक प्रवृत्ति पर अवलम्बित रहते है । हाँ, कुछ त्रिवर्णाचार-जैसे अनार्ष ग्रन्थोमे विवाहविधानोका वर्णन जरूर पाया जाता है । परन्तु वे आगमग्रन्थ नहीं है । उन्हे प्राप्त भगवानके वचन नहीं कह सकते और न वे आप्तवचनानुसार लिखे गये है,इतने पर भी कुछ ग्रन्थ तो उनमेसे बिल्कुल ही जाली और बनावटी है, जैसा कि 'जिनसेनत्रिवर्णाचार' और 'भद्रवाहिता' के परीक्षालेखोसे प्रगट है २ । वास्तवमे ये सब ग्रन्थ एक प्रकारके लौकिक ग्रन्थ है । इनमे प्रकृत विषयके वर्णनको तात्कालिक और तद्देशीय रीति रिवाजोका उल्लेखमात्र समझना चाहिये अथवा यो कहना चाहिये कि ग्रन्थकर्तामोको समाजमे उस प्रकारके रीतिरिवाजोको प्रचलित करना इष्ट था । इससे अधिक उन्हे और कुछ भी महत्त्व नही दिया जा सकता । वे आजकल प्राय. इतने ही कामके है । एकदेशीय, लौकिक और सामयिक ग्रन्थ होने
१ यह श्रीसोमदेव प्राचार्य का वचन है ।
२. ये सब लेख 'ग्रन्थपरीक्षा' नामसे पहले 'जनहितैषी' पत्रमे प्रकाशित हुए थे और अब कुछ समयसे अलग पुस्तकाकारमे भी छप गये हैं।
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वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण १७३ से उनका शासन सार्वदेशिक और सार्वकालिक नही हो सकता। अर्थात्-पर्व देशों और सर्व-समयोंके मनुष्योंके लिये वे समान रूपसे उपयोगी नही हो सकते । और इसलिए केवल उनके आधार पर चलना कभी युक्ति-सङ्गत नही कहला सकता । विवाह-विषयमे प्रागमका मूलबिधान सिर्फ इतना ही पाया जाता है कि वह गृहस्थधर्मका वर्णन करते हुए गृहस्थके लिये आमतौर पर गृहिणीकी अर्थात् एक स्त्रीकी जरूरत प्रकट करता है। वह स्त्री कैसी, किस वर्णकी, किस जातिकी, किन किन सम्बन्धोसे युक्त तथा रहित और किस गोत्रकी होनी चाहिए अथवा किस तरह पर और किस प्रकारके विधानोंके साथ विवाह कर लानी चाहिये इन सब बातोमे आगम प्राय कुछ भी हस्तक्षेप नहीं करता। ये सब विधान लोकाश्रित हैं आगमसे इनका प्राय कोई सम्बन्ध-विशेष नही है । यह दूसरी बात है कि आगममे किसी घटना-विशेषका उल्लेख करते हुए उनका उल्लेख प्रा जाय और तात्कालिक दृष्टिसे उन्हे अच्छा या बुरा भी बतला दिया जाय, परन्तु इससे वे कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त नहीं बन जाते अर्थात् ऐसे कोई नियम नही हो जाते कि जिनके अनुसार चलना सर्व देशो और सर्व-समयोंके मनुष्योंके लिये बराबर जरूरी और हितकारी हो । हाँ, इतना जरूर है कि आगमकी दृष्टिमे सिर्फ वे ही लौकिक विधियों अच्छी और प्रामाणिक समझी जा सकती हैं जो जैन सिद्धान्तोके विरुद्ध न हो, अथवा जिनके कारण जैनियोकी श्रद्धा ( सम्यक्त्व ) मे बाधा न पडती हो
और न उनके व्रतोमे ही कोई दूषण लगता हो । इस दृष्टिको सुरक्षित रखते हुए जैनी लोग प्राय सभी लौकिक विधियोको खुशीसे स्वीकार कर सकते हैं और अपने वर्तमान रीति-रिवाजोमे देशकाला-नुसार यथेष्ट परिवर्तन कर सकते हैं। उनके लिये इसमें कोई
१. सर्व एव हि नाना प्रमाणं लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यक्त्वहानिन यत्र न व्रतदूषणम् ॥-सोमदेव
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युगवीर
बाक नहीं है। अस्तु इस सम्पूर्ण विवेचनसे प्राचीन मोर प्रर्वाचीनकरके विवाह विमानोंकी विभिन्नता, उनका देश-कालानुसार परि वर्तन और लौकिक धर्मोका रहस्य इन सब बातोका बहुत कुछ अनुभव प्राप्त हो सकता है, और साथ ही यह भले प्रकार सम्मे
सकता है कि वर्तमान रीति-रिवाज कोई सर्वज्ञभाषित ऐसे प्रटल सिद्धान्त नही हैं कि जिनका परिवर्तन न हो सके अथवा जिनमें कुछ फेरफार करनेसे धर्मके डूब जानेका कोई भय हो । हम अपने सिद्धालोका विरोध न करते हुए, देश-काल मौर जातिकी मावश्यकताओके अनुसार उन्हे हर वक्त बदल सकते है । वे सब हमारे ही काम किये हुये नियम हैं और इसलिए हमे उनके बदलने का स्वत. अधिकार प्राप्त है। इन्ही सब बातोको लेकर एक शास्त्रीय उदाहरणके रूपमे यह निबन्ध लिखा गया है । आशा है कि हमारे जैनी भाई इससे जरूर कुछ शिक्षा ग्रहण करेगे और विवाहतत्त्वको समझ कर, जिसके समझनेके लिये 'विवाह समुद्द ेश्य' नामक निबन्ध भी साथमे पढ़ना विशेष उपयोगी होगा, अपने वर्तमान रीति-रिवाज़ोमे यथोचित फेरफार करनेके लिये समर्थ होगे । और इस तरह कालचक्रके आघात से बचकर अपनी सत्ताको चिरकाल तक यथेष्ट रीतिसे ब्राये रक्खेये ।
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१४
उपासना-तत्त्व स्थिति और जरूरत
हमारी धार्मिक शिक्षा 'उपासना' से प्रारम्भ होती है। पूजाभक्ति और आराधना ये सब उपासनाके ही नामान्तर हैं। यही धर्मकी पहली सीढ़ी है जिसका हमे बचपन से ही अभ्यास कराया जाता है । बच्चा बोलना भी प्रारम्भ नही करता कि उसे जिनमंदिर आदिमे ले जाकर मूर्ति आदिके सामने उसके हाथ जुड़वा कर तथा मस्तक नमवाकर उसे उपासनाका एक पाठ पढ़ाया जाता है, मौर ज्यो ही
बुछ बोलने लगता है त्यो ही उससे इष्ट देवताओके नाम्रोका उच्चारण - '३' 'जय' आदि शब्दोका उच्चारण - कराया जाता है, ग्रामो मरहतारण, 'रामोत्थुरण ' आदिके पाठ सिखलाए जाते हैं और, जितना शीघ्र बन सके उतना ही सीघ्र परमात्साकी कुछ स्तुतियाँ भी उसे याद कराई जाती है । बच्चा, अपनी प्रज्ञान दशाओं, यदि मूर्तिको एक खिलौना समझकर उसके लेनेके लिये हाथ पसारता है, ज़िद्द करता है, उसे 'भाई' कहूंकर पुकारता है, उसको चढ़ा हुआ नैवेद्य उठाकर खाने लगता है अथवा उसके सामने पीठ कर खड़ा हो जाता या बैठ जाता है तो उसकी इस प्रकारकी बातो विषेष किया जाता है और कुछ गम्भीर स्वर साथ कहा है
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१७६
युगवीर - निबन्धावली
कि "नही, खबरदार । ऐसा नही किया करते, ये भगवान है, इनके आगे हाथ जोडो । " साथ ही, उसे प्रतिदिन भगवानके दर्शनादिकके लिये मंदिर में जाने और किसी स्तुति पाठादिकका उच्चारण करनेकी प्रेरणा भी की जाती है । इस तरह शुरूसे ही परमात्माकी पूजा, भक्ति, उपासना और प्राराधनाके सस्कार हमारे अन्दर डाले जाते है । परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी, समाजमे, ऐसे बहुत ही कम व्यक्ति निकलेंगे जो उपासनाके तत्त्वको अच्छी तरहसे जानते और समझते हो । उन्हे यह बात प्राय सिखलाई ही नही जाती । अधिकाश माता-पिता स्वय इस तत्त्वसे अनभिज्ञ हैं - वे खुद ही अपनी क्रियाका रहस्य नही जानते अथवा कुछका कुछ जानते है - और इसलिये उनकी समझमे जो बात जिस तरह पर कुलपरम्परासे चली आई होती है उसे वे अपने बच्चोके गले उतार देते है - उन्हे रटा देते अथवा सिखला देते हैं। इससे अधिक शायद वे अपना और कुछ कर्तव्य नही समझते । नतीजा इसका यह होता है कि हमारे अधिकाश भाई नित्य मंदिरमे जरूर जाते हैं, भगवानका दर्शन और पूजन करते हैं, स्तुतियाँ पढते हैं, संस्कृत - प्राकृतके भी अनेक स्तोत्रोका पाठ किया करते हैं, तीर्थयात्राको निकलते हैं, और भक्ति तथा उपासनाके नामपर और भी बहुतसे काम तथा विधि-विधान करते हुए देखे जाते हैं, परन्तु उन्हे प्राय यह खबर नही होती कि यह सब कुछ क्यो किया जाता है, किसके लिये किया जाता है, क्या जरूरत है, इसका मूल उद्देश्य क्या है, हमारी इन क्रियाओं से वह उद्देश्य पूरा होता है या नही और यदि नही होता तो हमे फिर किस प्रकार से वर्तना चाहिये, इत्यादि । हाँ, वे इतना जरूर जानते हैं कि ये सब धर्मके काम हैं, पहलेसे होते आए हैं और इनके द्वारा पुण्योपार्जन किया जाता है । परन्तु धर्मके काम क्योकर हैं, किस तरह होते आए हैं और इनके द्वारा कैसे पुण्यका उपार्जन किया जाता है, इन सब बातोंकी उन्हें जांच नही होती और न वे इस जाँचकी कुछ जरूरत ही
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उपासना-तत्व
१७७ समझते हैं। उनका सम्पूर्ण प्राचरण इस विषयमें, प्रायः लोक-रीतिका (रूढियोंका) अनुसरण करनेवाला, एक दूसरेकी देखादेखी और ज्यादातर लोकिक प्रयोजनोको लिये हुए होता है। उपास्य और उपासनाके स्वरूपपर उनकी दृष्टि ही नहीं होती और न वे उपासनाके विधि-विधानोमे कभी कोई भेद उपस्थित होने पर सहजमें उसका आपसी (पारस्परिक) समझोता कर सकते हैं। उन्हें अपनी चिरप्रवृत्तिके विरुद्ध जरासा भी भेद असह्य हो उठता है और उसके कारण वे अपने भाइयोसे ही लडने-मरने तकको तैयार हो जाते हैं। ऐसे स्त्री-पुरुषोके द्वारा समाजमें सूखा क्रियाकाड बढ जाता है, यान्त्रिक चारित्रकी-जड मशीनो जैसे आचरणकी-वृद्धि हो जाती है और भावशून्य क्रियाएँ फैल जाती हैं। ऐसी हालतमे उपासना उपासना नहीं रहती और न भक्तिको भक्ति ही कह सकते हैं । ऐसी प्राणरहित उपासनासे यथेष्ट फलकी कुछ भी प्राप्ति नही हो सकती । श्रीकुमुदचन्द्राचार्यने अपने 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्रमें ठीक लिखा है -
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनबान्धव दुखपात्रं,
यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्या ॥ अर्थात्-हे लोकबन्धु जिनेन्द्रदेव जन्मजन्मान्तरोमे मैंने आपका चरित्र सुना है, पूजन किया है और दर्शन भी किया है, यह सब कुछ किया परन्तु भक्तिपूर्वक कभी आपको अपने हृदयमे धारण नही किया' । नतीजा जिसका यह हुआ कि मैं अब तक इस ससारमे
१ जिनेन्द्र भगवान्को भक्तिपूर्वक हृदयमे धारण करनेसे जीवोके दृढ कर्मबंधन इस प्रकार ढीले पड़ जाते हैं जिस प्रकार कि चन्दनके वृक्ष पर मोरके प्रानेसे उम वृक्षको लिपटे हुए सांप। अर्थात् मोरके सामीप्यसे जैसे सर्प घबराते हैं वैसे ही जिनेन्द्र के हृदयस्थ होने पर कर्म कांपते हैं,
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१७८
युगवीर-निबन्धावली दु.खोका ही पात्र रहा-मुझे दुःखोंसे छुटकारा ही न मिला-क्योकि भावशून्य क्रियाएँ फलदायक नहीं होती। ___एक दूसरे प्राचार्य लिखते हैं कि, बिना भावके पूजा आदिका करना, तप तपना, दान देना, जाप्य जपना,--माला फेरना-पौर यहाँ तक कि दीक्षादिक धारण करना भी ऐसा निरर्थक होता है जैसा कि बकरीके गलेका स्तन । अर्थात् जिस प्रकार बकरीके गलेमे लटकते हुए स्तन देखनेमें स्तनाकार होते हैं परन्तु वे स्तनोका कुछ भी काम नही देते-उनसे दूध नहीं निकलता-उसी प्रकार बिना भावकी पूजनादि क्रियाएँ भी देखने-ही-की क्रियाएं होती हैं, पूजादिका वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नही हो सकता । यथा -
भावहीनस्य पूजादितपोदानजपादिकम । व्यर्थ दीक्षादिक च स्यादजाकठे स्तनाविव ।।
इससे स्पष्ट है कि हमारी उपासनासम्बधी क्रियाओंमे भावकी बडी ज़रूरत है-भाव ही उनका जीवन और भाव ही उनका प्राण है बिना भावके उन्हे निरर्थक और निष्फल समझना चाहिये । परतु यह भाव उपासना-तत्त्वको समझे बिना कैसे पैदा हो सकता है ? अत अपनेमे इस भावको उत्पन्न करके अपनी क्रियानोंको सार्थक बनानेके लिये जैनियोको, आमतौर पर, अपना उपासना-तत्त्व समझने और समझकर तदनुकूल वर्तनेकी बहुत बड़ी जरूरत है। इसी
क्योकि जिनेन्द्र कर्मोंका नाश करनेवाले हैं। उन्होने अपने आत्मासे कर्मोको निमल कर दिया है। इसी आशयको प्राचार्य कुमुदचन्द्रने निम्नलिखित पद्यमे प्रगट किया है -
हृर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति, जन्तो क्षरणेन निविडा अपि कर्मबन्धा । सद्यो भुजगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखडिनि चदनस्य ॥ -कल्याणमदिर
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उपासना-तत्त्व
१७६ जरूरतको ध्यानमें रखकर आज इस निबष द्वारा, सक्षेपमें, उपासनातत्त्वको समझानेका यत्न किया जाता है। इससे हमारे वे अजेन बन्धु भी ज़रूर कुछ लाभ उठा सकेंगे जिन्हे जैनियोंके उपासना-तत्त्वको जाननेकी आकाक्षा रहती है, अथवा जैनसिद्धान्तोकी अनभिज्ञताके कारण जिनके हृदयमे कभी कभी यह प्रश्न उपस्थित हुया करता है कि, जब जैन लोग किसी ईश्वर या परमात्माको जगत्का कर्ता-हर्ता नहीं मानते और न उसकी प्रसन्नता या अप्रसन्नतासे किसी लाभ तथा हानिका होना स्वीकार करते हैं तो फिर वे परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना क्यों करते हैं और उन्होने उससे क्या लाभ समझ रक्खा है ? इस प्रश्नका समाधान भी स्वत नीचेकी पंकियोसे हो जायगा -
सिद्धान्त और उद्देश्य जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि यह प्रात्मा जो अनादि कर्ममलसे मलिन हो रहा है-अपने स्वरूपको भुलाकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है-वही उन्नति करते करते कर्ममलको दूर करके परमात्मा बन जाता है। आत्मासे भिन्न कोई एक ईश्वर या परमात्मा नही है- आत्माकी परमविशुद्ध अवस्थाका नाम ही परमात्मा है। अहंत, जिनेन्द्र, जिनदेव, तीर्थंकर, सिद्ध, सार्व, सर्वज्ञ, वीतराग, परमेष्ठी, परज्योति, शुद्ध, बुद्ध, निरजन, निर्विकार, आप्त, ईश्वर, परब्रह्म इत्यादि सब उसी परमात्मा या परमात्मपदके नामान्तर हैं अथवा दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि, परमात्मा आत्मीय अनत गुरणोका समुदाय है, अनत गुरणोकी अपेक्षा उसके अनत नाम हैं, वह परमात्मा परम वीतरागी और शान्तस्वरूप है, उसका किसीसे राग या द्वेष नही है, किसीकी स्तुति, भक्ति और पूजासे वह प्रसन्न नहीं होता और न किसीकी निन्दा, अवज्ञा या कटु शब्दोपर अप्रसन्नता लाता है, धनिक श्रीमानो, विद्वानों और उच्च श्रेणी या वर्णके मनु
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युगवीर-निबन्धावली प्योंको वह प्रेमको दृष्टिसे नहीं देखता और न निर्धन कगालो, मूखों तथा निम्नश्रेणीके मनुष्योको घृणाकी दृष्टिसे अवलोकन करता है, न सम्यग्दृष्टि उसके कृपापात्र हैं और न मिथ्यादृष्टि उसके कोपभाजन, वह परमानंदमय और कृतकृत्य है, सासारिक झगडोसे उसका कोई प्रयोजन नही । इसलिये जैनियोकी उपासना, भक्ति और पूजा, हिन्दुओ, मुसलमानो तथा ईसाइयोकी तरह, परमात्माको प्रसन्न करनेके लिये नही होती। उसका कुछ दूसरा ही उद्देश्य है जिसके कारण वे (समझदार जैनी) ऐसा करना अपना कर्तव्य समझते हैं और वह सक्षिप्तरूपसे यो है कि - ___ यह जीवात्मा स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनतसुख,
और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोका आधार है । परन्तु अनादि कर्ममलसे मलिन होनेके कारण इसकी वे समस्त शक्तियाँ आच्छादित हैं-कर्मोंके पटलसे वेष्टित हैं और यह आत्मा ससारमे इतना लिप्त और मोहजालमे इतना फंसा हुआ है कि उन शक्तियोका विकास होना तो दूर रहा, उनका स्मरण तक भी इसको नहीं होता। कर्मके किंचित् क्षयोपशमसे जो कुछ थोडा बहत ज्ञानादि-लाभ होता है, यह जीव उतनेहीमे सतुष्ट होकर उसीको अपना स्वरूप मानने लगता है। इन्ही संसारी जीवोमेसे जो जीव, अपनी आत्मनिधिकी सुधि पाकर धातुभेदीके सदृश प्रशस्त ध्यानाग्निके बलसे समस्त कर्ममलको दूर कर देता है उससे प्रात्माकी वे सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ सर्वतोभावसे विकसित हो जाती हैं और तब वह आत्मा स्वच्छ तथा निर्मल होकर परमात्मदशाको प्राप्त हो जाता है और परमात्मा कहलाता है' । केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की प्राप्ति होनेके पश्चात् जब तक देहका १. ध्यानाज्जिनेश भवतो भविन. क्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशा व्रजन्ति । तीवानलादुपलभावमपास्य लोके,
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उपासना-तत्त्व
सम्बन्ध बाकी रहता है तब तक परमात्माको सफापरमात्मा, जीषन्मुक तथा महेत कहते हैं और जब देहका सम्बंध भी छूट जाता है और मुक्तिको प्राप्ति हो जाती है तब वहीं सकलपरमात्मा निष्कलपरमात्मा, विदेहमुक्त और सिद्ध नामोंसे विभूषित होता है । इस प्रकार अवस्थाभेदसे परमात्माके दो भेद कहे जाते हैं । यह परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्थामें अपनी दिव्य-वापीके द्वारा,संसारी जीवोको उनके प्रात्माका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय बतलाता है-अर्थात्, उनकी आत्मनिधि क्या है, कहाँ है, किस किस प्रकारके कर्मपटलोसे आच्छादित है, कैसे कैसे उपायोंसे वे कर्मपटल इस आत्मासे जुदे हो सकते हैं,ससारके अन्य समस्त पदार्थोसे इस प्रात्माका क्या सबध है, दुःखका, सुखका और संसारका स्वरूप क्या है, कैसे दुखकी निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति हो सकती है, इत्यादि समस्त बातोका विस्तारके साथ सम्पक प्रकार निरूपण करता हैजिससे अनादि अविद्याग्रसित ससारी जीवोको अपने कल्याणका मार्ग सूझता है और अपना हित-साधन करनेमे उनकी प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार परमात्माके द्वारा जगत्का नि सीम (बेहद) उपकार होता है। इसी कारण परमात्माके सार्व, परमहितोपदेशक, परमहितैषी और निनिमित्तबन्धु इत्यादि भी नाम कहे जाते हैं । इस महोपकारके बदलेमे हम (ससारी जीव) परमात्माके प्रति जितना प्रादर-सत्कार प्रदर्शित करे और जो कुछ भी कृतज्ञता बतलाएँ वह सब तुच्छ है। जो सज्जन अथवा साधुजन होते हैं वे अपने उपकारीके उपकारको कभी नहीं भूलते, बराबर उसका स्मरण रखते हैं और इस उपकार
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदा ।-कल्याणमदिर। मिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृश । वतिर्दीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी।।-समाधितत्र । १ श्रेयोमार्गस्य संसिद्धि प्रसादात्परमेष्ठिन. आप्तपरीक्षा ।
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युगवीर-निबन्धावली स्मृतिके चिन्हस्वरूप अनेक प्रकारसे अपने उपकारीके प्रति अपना
आदर सत्कार व्यक्त किया करते हैं, जैसा कि श्लोकवार्तिक्में, श्रीमद्विद्यानंदस्वामी द्वारा, परमात्माकी उपासनाके समर्थनमे, उद्धृत किये हुए निम्नलिखित एक प्राचीन पद्यसे प्रकट है -
अभिमतफलसिद्धेरभ्युपाय सुबोध प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिरातात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादाप्रबुद्ध
न हि कृतमुपकार साधवो विस्मरन्ति । इस पद्यमे यह बतलाया गया है कि, मनोवाछित फलकी सिद्धिका उपाय सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञानकी उपलब्धि शास्त्रके द्वारा होती है और शास्त्रकी उत्पत्ति प्राप्त भगवान्से है, इसलिये वे प्राप्तभगवान् (परमात्मा) जिनके प्रसादसे प्रबुद्धताकी प्राप्ति होकर अभिमत फलकी सिद्धि होती है, सतजनोके द्वारा पूज्य ठहरते हैं। सच है, साधुजन किसीके किये हुए उपकारको कभी भूलते नहीं हैं।'
इससे जो लोग दूसरोके किये हुए उपकारको भुला देते हैं उन्हे असाधु तथा असज्जन समझना चाहिये । लोकमे भी उन्हे कृतघ्नी, अहसानफरामोश और गुणमेट आदि बुरे नामोंसे पुकारा जाता है । ऐसे लोग, जबतक उनकी यह दशा कायम रहती है, कभी उन्नति नही कर सकते और न आत्मलाभके सम्मुख हो सकते है। इसलिये अपने महोपकारी परमात्माके प्रति आदर-सत्कार रूपसे प्रवर्तित होना हमारा खास कर्तव्य है।।
दूसरे, जब प्रात्माकी परम स्वच्छ और निर्मल अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्थाको प्राप्त करना-अर्थात्, परमात्मा बनना-सब आत्मानोका अभीष्ट है, तब प्रात्मस्वरूपकी या दूसरे शब्दोंमें परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना हमारा परम कर्तव्य है । परमात्माका ध्यान, परमास्माके अलौकिक चरित्रका विचार और परमात्माकी ध्यानावस्थाका
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उपासना-तत्त्व
चिन्तबन ही हमको अपनी आत्माकी याद दिलाता है-अपनी भूली हुई निधिकी स्मृति कराता है-उसीसे प्रान्माको यह मालूम पड़ता है कि मैं कौन हूँ (को वाऽह) और मेरी प्रात्मशक्ति क्या है (का च मे शक्ति)। परमात्मस्वरूपकी भावना ही प्रात्मस्वरूपकी उपलब्धि तथा स्थितिका कारण है' । परमात्माका भजन और स्तवन ही हमारे लिये अपने आत्माका अनुभवन है। आत्मोन्नतिमें अग्रसर होनेके लिये परमात्मा ही हमारा आदर्श है । प्रात्मीय गुणोकी प्राप्तिके लिये हम उसी आदशको अपने सन्मुख रखकर अपने चरित्रका गठन करते हैं । अपने आदर्श पुरुषके गुणोंमें भक्ति तथा अनुरागका होना स्वाभाविक और जरूरी है । बिना अनुरागके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं हो सकती। उदाहरणके लिये, यदि कोई मनुष्य सस्कृत भाषाका विद्वान होना चाहे तो उसके लिये यह जरूरी है कि वह संस्कृत भाषाके विद्वानोका मसर्ग करे, उनसे प्रेम रक्खे और उनकी सेवामें रहकर कुछ सीखे, सस्कृतकी पुस्तकोका प्रेमपूर्वक संग्रह करे और उनके अध्ययनमे चित्त लगाए । यह नहीं हो सकता कि, सस्कृतके विद्वानोमे तो घृणा करे, उनकी शकल तक भी देखना न चाहे, उनसे कोसो दूर भागे, सस्कृतकी पुस्तकोको छुए अथवा देखे तक नही, न सस्कृतका कोई शब्द अपने कानोमे पडने दे, और फिर सस्कृतका विद्वान बन जाय । इसलिये प्रत्येक गुणाकी प्राप्तिके लिये उसमे सब पोरसे अनुरागकी बडी जरूरत है । जो मनुष्य जिस गुणका आदर सत्कार करता है अथवा जिस गुणसे प्रेम रखता है वह उस गुणके गुरणीका भी अवश्य आदर-सत्कार करता है । क्योकि गुणीके आश्रय बिना कही भी गुरण नहीं होता । आदर-सत्काररूप इस प्रवृत्तिका नाम ही
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१ सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुन' । तत्रैव दृढसस्काराल्लभते ह्यात्मन स्थितिम् ।
-समाधितन्त्र
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युखबीर-निबन्धावली पूजा और उपासना है। इसलिये परमात्मा' इन्ही समस्त कारणोसे हमारा परम पूज्य और उपास्य देव है। उसकी इस उपासनाका मुख्य उद्देश्य, वास्तवमें, परमात्म गुणोंकी प्राप्ति अथवा अपने भास्मीय गुणोंको प्राप्तिको भावना है। यह भावना जितनी अधिक दृढ और विशुद्ध होगी सिद्धि भी उतनी ही अधिक निकट होती जायगी। इसीसे अच्छे अच्छे योगीजन भी निरतर परमात्माके गुणोका चिंतन किया करते हैं। कभी कभी वे परमात्माका स्तवन करते हुए उसमें उन खास खास गुणोका उल्लेख करते हुए देखे जाते हैं जिनको प्राप्त करनेकी उनकी उत्कट इच्छा होती है और उनके सम्बन्धमे यह साफ तौरसे लिख भी दिया करते हैं कि हम ऐसे परमात्मगुणोकी प्राप्तिके लिये परमात्माकी वन्दना करते हैं, जैसा कि सर्वार्थसिद्धिमे श्रीपूज्यपादाचार्यके दिये हुए निम्न वाक्यसे प्रकट है -
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तार कर्मभूभता।
ज्ञातार विश्वतत्त्वानां वदे तद्गुणलब्धये ।। इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि परमात्माकी उपासना मुख्यतया उनके गुणोकी प्राप्तिके उद्देश्यसे की जाती है, उसमे परमात्माकी कोई गरज नही होती बल्कि वह अपनी ही गरज को लिये हुए होती है और वह गरज़ 'प्रात्मलाभ' है जिसे परमात्माका आदर्श सामने रखकर प्राप्त किया जाता है । और इसलिये, जो लोग उपासनाके इस मुख्योद्देश्यको अपने लक्ष्यमे नही रखते और न उपकारके स्मरण पर ही जिनकी दृष्टि रहती है उनकी उपासना वास्तवमें उपासना कहलाए जानेके योग्य नही हो सकती। ऐसी
१ इन्ही कारणोसे अन्य वीतरागी माधु और महात्मा भी, जिनमे प्रात्माकी कुछ शक्तियां विकसित हुई हैं और जिन्होने अपने उपदेश, माचरण तथा शास्त्रनिर्माणसे हमारा उपकार किया है वे सब, हमारे
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उपासना-तत्त्व
१८५ उपासनाको बकरीके गलेमें लटकते हुए स्तनोंसे अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। उसके द्वारा वर्षों क्या कोटि जन्ममे भी उपासनाके मूल उद्देश्यको सिद्धि नहीं हो सकती । और इसालये, यह जीव ससारमें दु खोका ही पात्र बना रहता है । दुःखोसे समुचित छुटकारा तभी हो सकता है जब कि परमात्माके गुणोंमे अनुराग बढाया जाय। परमात्माके गुणोमे अनुराग बढनेसे पापपरिणति सहजमे छूट जाती है और पुण्यपरिणति उसका स्थान ले लेती है। इसी प्राशयको म्वामी समन्तभद्राचार्यने, निम्न वाक्य द्वारा, बडे ही अच्छे ढगसे प्रतिपादित किया है -
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्न पुनाति चित्तं दुरिताऽञ्जनेभ्य ॥
-स्वय भूस्तोत्र इसमे स्वामी समन्तभद्र, परमात्माको लक्ष्य करके उनके प्रति, अपना यह आशय व्यक्त करते है कि 'हे भगवान्, पूजा-भक्तिसे प्रापका कोई प्रयोजन नही है, क्योकि आप वीतरागी ह-रागका अश भी आपके आत्मामे विद्यमान नही है जिसके कारण किसी पूजा-भक्तिसे आप प्रसन्न होते । इसी तरह निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस पर आपको जरा भी क्षोभ नहीं आ सकता, क्योकि आपके प्रात्मासे वैरभाव, द्वेषाश, बिल्कुल निकल गया है-वह उसमे विद्यमान ही नहीं है -जिससे क्षोभ तथा अप्रसन्नतादि कार्योंका उद्भव हो सकता। ऐसी हालतमे निन्दा और स्तुति दोनो ही आपके लिये समान हैंउनसे आपका कुछ बनता या बिगडता नहीं है तो भी आपके पुण्य गुणोके स्मरणसे हमारा चित्त पापोसे पवित्र होता है- हमारी पापपरिणति छूटती है-इसलिये हम भक्तिके साथ आपका गुणानुवाद गाते हैं - अापकी उपासना करते हैं।'
जब परमात्माके गुरणोमे अनुराग बढाने, उनके गुणोका प्रेमपूर्वक
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युगवीर निवन्धावली
स्मरण और चिन्तन करनेसे शुभ भावोकी उत्पत्ति द्वारा पापपरिपति छूटती और पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है तो नतीजा इसका यही होता है कि हमारी पापप्रकृतियोका रस सूखता और पुण्यप्रकृतियोका रस बढता है। पाप-प्रकृतियोका रस (अनुभाग ) सूखने और पुण्य - प्रकृतियोंमें रस बढनेसे अन्तराय कर्म नामकी प्रकृति, जो कि एक मूल पाप - प्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोगोपभोग प्रादिमें विघ्नस्वरूप रहा करती है - उन्हे होने नही देती - वह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्टको बाधा पहुँचानेमे समर्थ नही रहती । तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं और उनका श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है । जैसा कि एक आचार्य महोदय निम्नवाक्यसे प्रगट है
नेष्टविहन्तु शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरन्तराय ।
तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थ कदाऽर्हदादे || ऐमी हालत मे यह कहना कि परमात्माकी सच्ची पूजा, भक्ति और उपासनासे हमारे लौकिक प्रयोजनोकी भी सिद्धि होती है, कुछ भी अनुचित न होगा । यह ठीक है कि, परमात्मा स्वय अपनी इच्छापूर्वक किसीको कुछ देता दिलाता नही है और न स्वय प्राकर अथवा अपने किसी सेवकको भेजकर भक्तजनोका कोई काम ही सुधारता है तो भी उसकी भक्तिका निमित्त पाकर हमारी कर्मप्रकृतियोमे जो कुछ उलट-फेर होता है उससे हमे बहुत कुछ प्राप्त हो जाता है और हमारे अनेक बिगडे हुए काम भी सुधर जाते हैं । इसलिये परमात्मा के प्रसादसे हमारे लौकिक प्रयोजन भी सिद्ध होते है इस कहने सिद्धान्तकी दृष्टिसे, कोई विरोध नही आता । परन्तु फलप्राप्तिका यह सारा खेल उपासनाकी प्रशस्तता, प्रशस्तता और उसके द्वारा उत्पन्न हुए भावोंकी तरतमता पर निर्भर है । अत हमे अपने भावोकी उज्ज्वलता, निर्मलता और उनके उत्कर्षसाधन पर वाम तौर से ध्यान रखना चाहिये और वह तभी बन सकता है जब
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उपासना-तत्व
१८७ कि परमात्माकी उपासना उपासनाके ठीक उद्देश्यको समभकर की जाय और उसमें प्राय लौकिक प्रयोजनोपर दृष्टि न रक्खी जाय। जो लोग केवल लौकिक प्रयोजनकी दृष्टिसे-सासारिक विषयकषायोको पुष्ट करनेकी ग़रज़से-परमात्माकी उपासना करते हैं, उसके नाम पर तरह तरहकी बोल-कबूलत बोलते हैं और फलप्राप्तिकी शर्तपर पूजा-उपासनाका वचन निकालते हैं उनके सम्बन्धमे यह नहीं कहा जा सकता है कि वे परमात्माके गुणोंमे वास्तविक अनुराग रखते हैं, वल्कि यदि यह कहा जाय कि वे परमात्माके स्वरूपसे ही अनभिज्ञ हैं तो शायद कुछ ज्यादा अनुचित न होगा । ऐसे लोगोकी इस प्रवृत्तिसे कभी कभी बडी हानि होती है । वे सासारिक किसी फल-विशेषकी आशासे - उसकी प्राप्तिके लिये-परमात्माकी पूजा करते हैं,परतु फलकी प्राप्ति अपने अधीन नहीं होती, वह कर्मप्रकृतियोंके उलटफेरके अधीन है। दैवयोगसे यदि कर्म-प्रकृतियोका उलट-फेर, योग्य भावोको न पाकर, अपने अनुफूल नहीं होता और इसलिये अभीष्ट फलकी सिद्धिको अवसर नही मिलता तो ऐसे लोगोकी श्रद्धा डगमगा जाती है अथवा यो कहिये कि उस वृक्षकी तरह उखड जाती है जिसका मूल कुछ भी गहरा नहीं होता। उन्हे यह तो खबर नही पडती कि हमारी उपासना भावशून्य थी, उसमे प्रारण नहीं था और इसलिये हमे सच्ची उपासना करनी चाहिये, उलटा वे परमात्माकी पूजा-भक्तिमे हतोत्साह होकर उससे उपेक्षित हो बैठते हैं। साथ ही, अपनी अभीष्टसिद्धिके लिये दूसरे देवी-देवताप्रोकी तलाशमें भटकते हैं, अनेक रागी-द्वेषी देवताप्रोकी शरणमे प्राप्त होकर उनकी तरह तरहकी उपासना किया करते हैं और इस तरहपर अपने जैनत्वको भी कलकित करके जनशासनकी अप्रभावनाके कारण बन जाते हैं।
ऐसी कच्ची प्रकृति और ढीली श्रद्धाके मनुष्योकी दशा, नि सदेह, बड़ी ही करुणाजनक होती है। ऐसे लोगोको खास तौरसे उपासनातत्त्वको जानने और समझनेकी ज़रूरत है। उन्हें ऊपरके इस संपूर्ण
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युगवीर-निबन्धावली कथनसे खूब समझ लेना चाहिये कि जैनदृष्टिसे परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना परमात्माको प्रसन्न करने-खुशामद-द्वारा उससे कुछ काम निकालनेके लिये नही होती और न सासारिक विषय. कषायोका पुष्ट करना ही उसके द्वारा अभीष्ट होता है । बल्कि, वह खास तौरसे परमात्माके उपकारका स्मरण करने और परमात्माके गुणोकी-आत्मस्वरूपकी-प्राप्तिके उद्देश्यसे की जाती है। परमात्माका भजन और चिन्तन करनेसे-उसके गुणोमें अनुराग बढ़ानेसे-पापोसे निवृत्ति होती है और साथ ही महत्पुण्योपार्जन भी होता है, जो कि स्वत अनेक लौकिक प्रयोजनोका साधक है। इसलिये जो लोग परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना नहीं करते वे अपने प्रात्मीय गुरगोसे पराङ्मुख और अपने आ मलाभसे वचित रहते है, इतना ही नही, किन्तु कृतघ्नताके महान् दोषसे भी दूषित होते है । अत ठीक उद्देश्योंके साथ परमात्माकी पूजा, भक्ति, उपासना और आराधना करना सबके लिये उपादेय और ज़रूरी है।
मूर्ति-पूजा परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्था-अर्थात्, अर्हन्त-अवस्थामें सदा और सर्वत्र विद्यमान नहीं रहता, इस कारण परमात्माके स्मररणार्थ और परमात्माके प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्तनेके अवलम्बनम्वरूप उसकी अर्हन्त अवस्थाकी मूर्ति बनाई जाती है। वह मूर्ति परमात्माके वीतरागता, शान्तता और ध्यानमुद्रा आदि गुणोका प्रतिबिम्ब होती है । उसमे स्थापना-निक्षेपसे परमात्माकी प्रतिष्ठा की जाती है। उसके पूजनेका भी समस्त वही उद्देश्य है जो ऊपर वर्णन किया गया है, क्योकि मूर्तिकी पूजासे किसी धातुपाषाणका पूजना अभिप्रेत (इष्ट) नहीं है। ऐसा होता तो गृहस्थोके घरोमें सैकड़ो बाट बटेहडे धडे पसेरे आदि चोजें इसी किस्मकी पड़ी रहती हैं, वे उनसे ही अपना मस्तक रगडा करते और उन्हें प्रणामादिक किया करते ।
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उपासना-तत्त्व पर ऐसा नहीं है। मूर्तिके सहारेसे परमात्माकी ही पूजा, भक्ति, उपा. सना और पाराधना की जाती है। मूर्ति के द्वारा मूर्तिमानकी उपा. सनाका नाम ही मूर्तिपूजा है । इसीलिये इस मूर्तिपूजाके देवपूजा, देवाराधना, जिनपूजन, देवार्चन, भगवत्पर्युपासन, जिनार्चा इत्यादि नाम कहे जाते हैं और इसीलिये इस पूजनको साक्षात् जिनदेवके पूजनतुल्य वर्णन किया है । यथा
भक्त्याऽहत्प्रतिमा पूज्या कृत्रिमाऽकृत्रिमा सदा । यतस्तद्गुणसंकल्पात्प्रत्यक्ष पूजितो जिन ॥६-४२ ।।
-धर्मसंग्रहश्रावकाचार उर्दू के एक कवि शेख साहबने भी इस सबंधमें अच्छा कहा है -
उसमे है एक खुदाई का जलवा वगर ना शेख ।
सिजदा करेसे फायदा पत्थरके सामने १ अर्थात्-परमात्माकी उस मूतिमें खुदाईका जलवा-परमात्माका प्रकाश और ईश्वरका भाव-मौजूद है जिसकी वजह से उसे सिजदा-प्रणामादिक-किया जाता है, अन्यथा, पत्थरके सामने सिजदा करनेसे कोई लाभ नहीं था । भावार्थ, परमात्माकी मूतिको जो प्रणामादिक किया जाता है वह वास्तवमे परमात्माको-परमात्माके गुणोको ही प्रणामादिक करना है, धातु-पाषाणको प्रणामादिक करना नहीं है। और इसलिए उसमें लाभ जरूर है। जैन-दृष्टि से खुदाईका वह जलवा परमात्माके परम वीतरागता और शान्ततादि गुणोका भाव है जो जैनियोकी मूर्तियोमे साफ तौरसे झलकता और सर्वत्र पाया जाता है। परमात्माके उन गुरगोको लक्ष्य करके ही जैनियोंके यहाँ मूर्तिकी उपासना की जाती है ।
परमात्माकी इस परम शान्त और वीतराग मूतिके पूजनेमे एक बडी भारी खूबी और महत्त्वकी बात यह है कि, जो संसारी जीव संसारके मायाजाल और गृहस्थीके प्रपचमे अधिक से हुए हैं जिनके चित्त अति चचल हैं और जिनका आत्मा इतना बलाढ्य नहीं है कि
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युगवीर-निबन्धावली जो केवल शास्त्रोमें परमात्माका वर्णन सुनकर एकदम बिना किसी नक्शेके परमात्मस्वरूपका नक्शा (चित्र) अपने हृदय पर खीच सके या परमात्म-स्वरूपका ध्यान कर सकें, वे भी उस मूतिके द्वारा परमात्मस्वरूपका कुछ ध्यान और चिन्तवन करनेमे समर्थ हो जाते हैं और उसीसे आगामी दुखो तथा पापोकी निवृत्तिपूर्वक अपने आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें अग्रसर होते हैं ।
जब कोई चित्रकार चित्र खीचनेका अभ्यास करता है तब वह सबसे प्रथम सुगम और सादे चित्रोपरसे, उनको देख देखकर, अपना चित्र खीचनेका अभ्यास बढाता है, एकदम किसी कठिन, गहन और गम्भीर चित्रको वह नहीं बना सकता । जब उसका अभ्यास बढ़ जाता है, तब कठिन,गहन और रंगीन चित्रोको भी सुन्दरताके साथ बनाने लगता है । और छोटे चित्रको बडा और बडेको छोटा भी करने लगता है। आगे जब अभ्यास करते करते वह चित्रविद्यामे पूरी तौरसे निपुण और निष्णात हो जाता है, तब वह चलती-फिरती, दौडती-भागती वस्तुप्रोका भी चित्र बडी सफाईके साथ बातकी बातमे खीचकर रख देता है और चित्र-नायकको न देखकर, केवल व्यवस्था और हाल ही मालूम करके, उसका साक्षात् जीता-जागता चित्र भी अकित कर देता है । उसी प्रकार यह ससारी जीव भी एकदम परमात्मस्वरूपका ध्यान नही कर सकता-अर्थात् परमात्माका फोटो अपने हृदय पर नही खीच सकता, वह परमात्माकी परम वीतराग और शान्त मूर्तिपरसे ही अपने अभ्यासको वढाता है। मूतिके निरन्तर दर्शनादि अभ्याससे जब उस मूर्तिकी वीतराग छबि और ध्यानमुद्रासे वह परिचित हो जाता है, तब शनै शनै एकान्तमे बैठकर उस मूर्तिका फोटो अपने हृदयमे खीचने लगता है और फिर कुछ देर तक उसको स्थिर रखनेके लिये भी समर्थ होने लगता है। ऐसा करने पर उसका मनोबल और प्रात्मबल बढ़ जाता है और फिर वह इस योग्य हो जाता है कि उस मूर्तिके मूर्तिमान श्रीमहन्तदेवका
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उपासना-तत्त्व
समवसरणादि-विभूतिसहित साक्षात् चित्र भी अपने हृदयमें खीचने लगता है । इस प्रकारके ध्यानका नाम 'रूपस्थ ध्यान' है और यह ध्यान प्राय मुनि-अवस्था ही मे बनता है।
आत्मीय बलके इतना उन्नत हो जानेकी अवस्थामे फिर उसको धातुपाषाणकी मूर्तिके पूजनादिकी या दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि परमात्माके ध्यानादिके लिए मूतिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत बाकी नहीं रहती, बल्कि वह रूपस्थध्यानके अभ्यासमे परिपक्व होकर और अधिक उन्नति करता है और साक्षात् सिद्धोका चित्र भी खीचने लगता है, जिसको 'रूपातीत ध्यान' कहते हैं। इस प्रकार ध्यानके बलसे वह अपने प्रात्मासे कर्ममलको छाँटता रहता है और फिर उन्नतिके सोपानपर चढता हुआ शुक्लध्यान लगाकर समस्त कर्मोको क्षय कर देता है और इस तरह अपने प्रात्मत्वको प्राप्त कर लेता है।
अभिप्राय इसका यह है कि, मूर्तिपूजा प्रात्मदर्शनका प्रथम सोपान है और उसकी आवश्यकता प्राय प्रथमावस्था (गृहस्थावस्था) ही मे होती है । बल्कि, दूसरे शब्दोमे, यो कहना चाहिये कि जितना जितना कोई नीचे दर्जमे है, उतना उतना ही ज्यादा उसको मूर्तिपूजाकी या मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी जरूरत है। यही कारण है कि हमारे प्राचार्योंने गृहस्थोंके लिये इसकी खास जरूरत रक्खी है और नित्य पूजन करना गृहस्थका मुख्य धर्म वर्णन किया है ।। ___ यह तो हुई मूर्तिविशेष और जैनियोके मूर्तिपूजा विषयक खास सिद्धान्तकी बात । अब यदि आमतौरसे मूर्तिपूजाके सिद्धान्त पर नजर डाली जाय मूर्तिके स्वरूप पर सूक्ष्मताके साथ विचार किया जाय
१ दारण पूजा मुक्ख सावयधम्मो रण सावगो तेरण विरणा। झारणज्भयरण मुक्ख जइधम्मो त विणा सोवि ॥ - रयणसार देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय सयमस्तप ।। दान चेति गृहस्थाना षट्कर्माणि दिने दिने ।। --पद्मनन्दिपचवि०
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युगवीर - निबन्धावली
और उसके अर्थसम्बन्ध में कुछ गहरा उतरा जाय, तो मालूम होगा कि संसारकी कोई भी उपासना बिना मूर्तिके नही बन सकती - मूर्तिका अवलम्बन जरूर लेना पडता है, चाहे यह मूर्ति सूक्ष्म हो या स्थूल । आप किसीकी प्रशसा नही कर सकते जब तक कि मूर्तियोका सहारा न ले लेवे । शब्द, जिनके द्वारा परमात्माकी या किसीकी भी स्तुति की जाती है, नाम लिया जाता है और गुरणानुवाद गाया जाता है, वे सब मूर्तिक हैं, मूर्तिकसे उत्पन्न होते हैं, मूर्तिक पदार्थोंसे रोके जाते है, फोनोग्राफ में भरे जाते हैं और इसलिये एक प्रकारकी सूक्ष्म मूर्तियाँ हैं । इसी तरह शब्दोके द्योतक जो अक्षर हैं वे भी शब्दोकी नानाप्रकारकी आकृतियाँ हैं मूर्तियाँ हैं जिन्हे भिन्न भिन्न देशो अथवा जातियोने अपने अपने व्यवहारके लिये कल्पित कर रखा है। हाथीको संस्कृतमे 'गज', प्राकृतमे 'गय', फारसीमे 'फील', अरबीमे पील', और अजीमे 'एलिफेट' (Elephant ) कहते है । अन्यान्य भाषाश्रमे उसके दूसरे नाम हैं और एक एक भाषामे कई कई नाम भी है - जैसे संस्कृतमे इभ, करी इत्यादिक - और ये सब नाम अनेक लिपियोमे भिन्न भिन्न प्रकारसे लिखे जाते हैं । इन शब्दरूप मूर्तियोंके कानोसे टकराने पर या अक्षररूप मूर्तियोंके नेत्रोके सामने आने पर जब हाथी नामके एक विशाल जन्तु ( जानवर ) का बोध होता है तो वह हाथोकी साक्षात् ( तदाकार) मूर्तिको देखनेपर उससे कही अधिक हो सकता है और होता है । हाथीके नामसे हाथीका सामान्य ज्ञान ही होता है, परन्तु उसकी तदाकार मूर्तिके देखनेसे रङ्ग-रूप और आकार - प्रकारादिका बहुत कुछ हाल मालूम हो जाता है । यही दोनोमे विशेष है, और इसी विशेषकी वजह से ग्राजकल विद्वान् लोग शिक्षालयोमे भी चित्रो और मूर्तियोके द्वारा बालकोको शिक्षा देना ज्यादा पसन्द करने लगे है ।
परमात्मा के सम्बन्धमे भी यही सब बाते समझ लेनी चाहिएँ। परमात्मा ईश्वर, परब्रह्म, अल्ला, खुदा, गौड ( God ) आदि
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उपासना-तत्त्व
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नार्मोके उच्चारण करनेसे अथवा इन नामोको किसी लिपिविशेषमें लिखकर सामने रखनेसे इन उभय प्रकारकी ( शब्द-अक्षर-रूपवाली) मूर्तियोंके द्वारा यदि परमात्माका बोध होता है तो परमा माकी तदाकार मूति उसकी जीव मुक्तावस्थाकी प्राकृति-के देखनेसे वह बोध और भी ज्यादा स्पष्ट होता है। यदि यह कहा जाय कि ऐसी मूर्तिके द्वारा परमात्माका कुछ बोध ही नहीं होता तो वह शब्दो और अक्षरोके द्वारा बिल्कुल नहीं होता, यह कहना चाहिए, क्योकि वे भी मूर्तियाँ हैं और अतदाकार मूर्तियाँ हैं । जब तदाकार मूर्तियोंसे ही, जो कि ज्यादा विशद होती है, अर्थावबोध नही होता तो फिर अतदाकार मूर्तियोसे वह कैसे हो सकता है ? अत उक्त कथन ठीक नही है । इसी तरह यह समझना चाहिए कि परमात्माका नाम लेनेसे, शब्दो-द्वारा परमात्माकी स्तुति करनेसे-परमात्मने नम , ईश्वराय नम , परब्रह्मणे नमो नम , ॐ नम , रामो अरहताण, अल्हम्दोलिल्ला' इत्यादि मन्त्रोके उच्चारण करनेसे-या ॐ आदि अक्षरोकी आकृति सामने रखकर ध्यान करनेसे यदि किसी पुण्यफलकी प्राप्ति होती है तो वह तदाकार मूर्तिपरसे परमात्माका चिन्तन करनेसे भी जरूर होती है और ज्यादा हो सकती है। ऐमी हालतमे जो लोग परमात्माकी शब्दो और अक्षरोमे स्थापना करके उन अतदाकार मूर्तियोके द्वारा उसकी उपासना करते है उन्हे परमात्माकी तदाकार मूतियाँ बनाकर उपासना करनेवालोपर आक्षेप करनेकी ज़रूरत नहीं है और न वैसा करनेका कोई हक ही है, क्योकि वे स्वय ही मूर्तियो द्वारा-बल्कि अस्पष्ट मूर्तियो द्वारा परमात्माकी उपासना करते हैं और उससे शुभ फलका होना मानते है । वास्तवमे यदि देखा जाय तो कोई भी चिन्तन अथवा ध्यान विना मूर्तिका सहारा लिये नही बन सकता और न निराकारका ध्यान ही हुआ करता है।
१ यह अरबी भाषाका मुसलमानी मत्र है।
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युगवीर-निबन्धावली प्रत्येक ध्यान अथवा चितनके लिये क्सिी न किसी मूर्ति या प्राकारविशेषको अपने सामने रखना होता है, चाहे वह नेत्रोके सामने हो अथवा मानसप्रत्यक्ष । इसी अभिप्रायको हृदयमे रखकर १० मगतरायजीने ठीक कहा है--
अबस यह जैनियों पर इत्तहामे बुतपरस्ती है। बिना तसवीर के हरगिज़ तसव्वर हो नहीं सकता।
अर्थात्--जैनियो पर बुतपरस्तीका-मूर्तिपूजाविषयक-जो इलज़ाम लगाया जाता है--यह कहा जाता है कि वे धातुपाषाणके पूजनेवाले है--वह बिल्कुल व्यर्थ और नि सार है, क्योकि कोई भी तसन्चर--कोई भी ध्यान अथवा चिन्तन-विना तसवीरके-बिना मूर्ति या चित्रका सहारा लिये- नहीं बन सकता । भावार्थ, ध्यान तथा चिन्तनकी सभीको निरन्तर जरूरत हुआ करती है, इसलिए सभीको मूर्तियोका प्राश्रय लेना पड़ता है और इस दृष्टिसे सभी मूर्तिपूजक है । तब, जैनियोपर ही से उसका दोष मढा जा सकता है ? उन्हे, इस विषयमे दोष देना बिल्कुल फजूल और निर्मूल है। वे अपनी मूर्तियोके द्वारा परमात्माका ही ध्यान तथा चिन्तन किया करते हैं।
इसलिए जो लोग मूर्तिपूजाका निषेध करते है, मूर्तिको जड अचेतन,कृत्रिम बतलाकर और यह कहकर कि वह हमारा कुछ भला नहीं कर सकती उससे घृणा उत्पन्न कराते है, यह सब उनकी बडी भारी भूल है । वे खुद बात बातमे मूर्तिका सहारा लिया करते हैं, मूर्तियोका आदर-सत्कार करते हुए देखे जाते हैं। जड पदार्थोक पीछे भटकते हैं, उनके लिए अनेक प्रकारकी दीनताएँ करते हैं,ससार
१ वेदादि शास्त्रोका विनय और अपने महात्मानोके खिोकी इज्जत करते हैं तथा परमात्मा नामादिकोको बडी भक्तिके साथ उच्चारण करते हैं।
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उनका कोई भी काम जड पदार्थोंकी सहायताके बिना नही होता, वे अपने चारो ओर जड तथा कृत्रिम पदार्थोंसे घिरे रहते हैं और उनसे नाना प्रकार के काम निकाला करते हैं जड तथा कृत्रिम गालीको सुनकर उन्हे रोष हो आता है, और वे यह भी खूब जानते हैं कि इस जगत्का सम्पूर्ण कार्य व्यवहार प्राय जड तथा कृत्रिम मूर्तियोकी सहायतास ही चल रहा है, इतनेपर भी उनका मूर्तिको जड तथा कृत्रिम बतलाकर उससे घृरणा उत्पन्न करना कहाँ तक ठीक है, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है । वास्तवमे यह सब साम्प्रदायिक मोह, आपसकी खीचातानी तथा पक्षपातका नतीजा है और तात्त्विक दृष्टिसे इसे कुछ भी महत्त्व नही दिया जा सकता । अथवा यो कहना चाहिए कि ऐसे लोगोको मूर्तिका रहस्य मालूम नही है, उन्हें यह खबर ही नही कि ऐसा कोई भी मनुष्य ससारमे नही हो सकता जो मूर्तिका उपासक न हो अथवा परमात्माकी उपासनामे मूर्तिकी सहायता न लेता हो, और इसलिये उन्हें ऊपरके इस सम्पूर्ण कथनसे मूर्तिका रहस्य खूब समझ लेना चाहिये और यह जान लेना चाहिए कि इन स्थूल मूर्तियोकी पूजाका कोई दूसरा उद्देश्य नही है, इनके द्वारा परमात्माकी ही उपासना की जाती है । ये परमात्माके प्रतिरूप हैं, प्रतिबिम्ब हैं और इसीलिये इन्हे प्रतिमा भी कहते हैं । बुद्धिमान् लोग इनमे परमात्माका दर्शन अथवा इनके सहारेसे अपनी आत्माका अनुभवन किया करते है, जैसा कि इस निबधके शुरू मे प्रकट किया गया है । नीचे एक पद्यसे भी पाठकोको ऐसा ही मालूम होगा, जिसमे कवि मैथिलीशररणजीने उन भावोको चित्रित किया है जो इस विषयमे एक सामत के हृदयमे उस समय उदित हुए थे जब कि उसके देशके किलेकी मूर्ति बनाकर एक राणाके द्वारा, अपनी प्रतिज्ञा'
१ प्रतिज्ञा, जो सहसा क्रोध के प्रवेशमे बिना सोचे समझे की गई थी यह थी कि जब तक उस देशके किलेको नही तोड डालू गा तब तक
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युगवीर-निबन्धावली पूरी करनेके अभिप्रायसे, तोडी जा रही थी और जिसे उस सामन्तने अपने उन भावोके अनुसार तोडने नही दिया था बल्कि उसके लिये राणामे युद्ध किया था। वह पद्य इस प्रकार है -
ताडने दूक्या इसे नकली किला मैं मानके ? पूजते हैं भक्त क्या प्रभुमूतिको जड जानके ? अज्ञ जन उसको भले ही जड कहें अज्ञानमे । देखते भगवानको धीमान उसमे ध्यानसे ।।
-रङ्गमे भग इससे पाठक मूर्तिपूजाके भावोको और भी स्पष्टताके साथ अनुभव कर सकते हैं. और यह समझ सकते है कि इन मूर्तियोके द्वारा परमात्माका ही पूजना अभीष्ट होता है-धातुपाषारणका नही। मूर्तिका विनय-अविनय, वास्तवमे मूर्तिमानका ही विनय-विनय है। और यही वजह है कि जो कोई किमी महात्मा, परमात्मा, राजा या महाराजाकी लोकमे सम्प्रतिष्ठित मूर्तिका अविनय करता है वह दडका पात्र समझा जाता है और उसे, प्रमाणित होने पर दड दिया भी जाता है। ___ यह ठीक है कि, धातुपाषाणकी ये मूर्तियाँ हमे कुछ देती-दिलाती नही हैं और इनसे ऐसी आशा रखना इनके स्वरूपकी अनभिज्ञता प्रकट करना है, तो भी परमा माकी स्तुति आदिके द्वारा शुभ भावोको उत्पन्न करके हम जिस प्रकार अपना बहुत कुछ हित साधन कर लेते हैं उसी प्रकार इन मूर्तियोकी सहायतामे भी हमारा बहुत कुछ काम निकल जाता है । मूर्तियोंके देखनेसे हमे परमात्माका स्मरण होता है अन्न जल नही ग्रहण करू गा । परन्तु सेना सजाकर वहाँ तक पहचने आदिके लिये कितन ही दिनोकी जरूरत थी और उस वक्त तक भूखा नही रहा जा सकता था. इमलिये प्रतिज्ञा पूरी करनेके लिये मत्रियो द्वारा को नोडने की योजना कीगई थी।
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और उससे फिर आत्मसुधारकी ओर हमारी प्रवृत्ति होने लगती है। यह सब कैसे होता है, इसे एक उदाहररणके द्वारा नीचे स्पष्ट किया जाता है
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कल्पना कीजिये, एक मनुष्य किसी स्थानपर अपनी छतरी भूल आया । वह जिस समय मार्गमे चला जा रहा था, उसे सामनेसे एक दूसरा आदमी आता हुआ नज़र पडा, जिसके हाथमे छतरी थी । छतरीको देखकर उस मनुष्यको झटसे अपनी छतरी याद आ गई और यह मालूम हो गया कि मै अपनी छतरी प्रमुक जगह भूल आया हूँ और इसलिये वह तुरन्त उसके लानेके लिये वहाँ चला गया और ले आया । अब यहाँपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस मनुष्यको किसने बताया कि तू अपनी छतरी प्रमुक जगह भूल आया है । वह दूसरा आदमी तो कुछ बोला नही, और भी किसी तीसरे व्यक्तिने उस मनुष्य के कानमे आकर कुछ कहा नही । तब क्या वह जड छतरी ही उस मनुष्यसे बोल उठी कि तू अपनी छतरी भूल आया है ? परन्तु ऐसा भी कुछ नही है, फिर भी यह जरूर कहना होगा कि उस मनुष्यको अपनी छतरीके भूलनेकी जो कुछ खबर पडी है और वहाँ से लानेमे उसकी जो कुछ प्रवृत्ति हुई है उन सबका निमित्त कारण वह छतरी है, उस छतरीसे ही उसे यह सब उपदेश मिला है और ऐसे उपदेशको 'नैमित्तिक उपदेश' कहते है । यही उपदेश हमें परमात्माकी मूर्तियोपरसे मिलता है । जैनियोकी ऐसी मूर्तियाँ ध्यानमुद्राको लिये हुए परमवीतराग और शान्त-स्वरूप होती हैं । उन्हे देखनेसे बडी शान्ति मिलती है, ग्रात्मस्वरूपकी स्मृति होती
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- यह खयाल उत्पन्न होता है कि हे श्रामन् । तेरा स्वरूप तो यह है तू इसे भुलाकर ससारके मायाजालमे और कषायोंके फन्दे क्यो फँसा हुआ है ? नतीजा जिसका यह होता है कि ( यदि बीच में कोई बाधा उपन्न नही होती तो) वह व्यक्ति यमनियमादिके द्वारा अपने श्रात्मसुधारके मार्गपर लग जाता है । यह दूसरी बात है कि कोई
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युगवीर-निबन्धावली मनुष्य नेत्रहीन (विवेकहित) हो और उसे मूर्तिरूपी दर्पणमे परमारमाका जो प्रतिबिम्ब पड रहा है वह दिखलाई ही न देता हो, अथवा उसका हृदय दर्पणके समान स्वच्छ न होकर मिट्टीके उस ढेलेके सदृश हो जो प्रतिबिम्ब (उपदेश) को ग्रहण ही नहीं करता और या इतना निर्बल हो कि उसे ग्रहण करके फिर शीघ्र छोड देता हो, और इस तरह अपने प्रात्माके सुधारकी अोर न लग सकता हो, परन्तु इसमे मतिका कोई दोष नही, न इन बातोसे मूतिकी उपयोगिता नष्ट होती है और न उसकी हितोपदेशकतामे ही कोई बाधा आती है। ऐसी परम हितोपदेशक मूर्तियां, नि सन्देह, अभिवन्दनीय ही होती है । इसीसे एक प्राचार्यमहोदय उनका निम्नप्रकारसे अभिवादन करते है।
कथयन्ति कषायमुक्तिलक्ष्मी परया शाततया भवान्तकानाम् । प्रणमामि विशुद्धये जिनाना प्रतिरूपाण्यभिरूपमूर्तिमनि ॥
-क्रियाकलाप अर्थात्-ससारसे मुक्त श्रीजिनेन्द्रदेवकी उन तदाकार सुन्दर प्रतिमानोको मैं, अपनी प्रात्मशुद्धि के लिये, प्रणाम करता हूँ, जो कि अपनी परम शान्तताके द्वारा ससारी जीवोको कषायोकी मुक्तिका उपदेश देती हैं। __इससे स्पष्ट है कि जिनेन्द्र-प्रतिमानोकी यह पूजा आत्मविशुद्धिके लिये की जाती है और जो काम आत्माकी शुद्धिके लिये-पात्माकी विभाव-परिणतिको दूर कर उसे स्वभावमे स्थित करनेके उद्देश्यसेकिया जाता हो वह कितना अधिक उपयोगी है इस बातको बतलानेकी जरूरत नही, विज्ञ पाठक उसे स्वय समझ सकते है और ऊपरके इस सम्पूर्ण कथनसे मूर्तिपूजाकी उपयोगिताको बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं।
विरोधका रहस्य हाँ, जब मूर्तिपूजा इतनी-अधिक उपयोगी चीज है तब कभी कभी
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समाजके साक्षर व्यक्तियोंके द्वारा ऐसे विद्वानोंके द्वारा भी जो अनेक बार बडी प्रबल युक्तियो और जोरोके साथ मूर्तिपूजाका मडन कर चुके हो - इस समूची उपासना या इसके किसी एक अगका विरोध क्यों होने लगता है ? यह एक प्रश्न है जो नि सन्देह विचारणीय है । हमारी रायमें इसका सीधा सादा उत्तर यही हो सकता है कि, जब उपासना अपने उद्देश्योंसे गिर जाती है, अथवा लक्ष्यसे भ्रष्ट और प्रादर्शसे च्युत होकर कोरी बुतपरस्ती रह जाती है, उसमे भाव नही रहता वह प्राय प्रारणरहित हो जाती है उसके लिये किरायेके प्रादमी रखनेकी नौबत या जाती है, उपासनाके नामपर ममाजमें सूखा क्रियाकाड फैल जाता है, उसकी तहमे अनेक प्रकारके प्रत्याचारोकी वृद्धि होने लगती है, उसमें व्यर्थके ग्राडम्बर बढ जाते हैं और समाजकी शक्तिका दुरुपयोग होने लगता है, तब वह उपासना तात्त्विक दृष्टिसे उपयोगी होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टिसे उपयोगी नही रहती और इसलिये उसका विरोध प्रारम्भ हो जाता है । विरोध करनेवालोका मुख्य उद्देश्य उस समय प्राय यही होता है कि, यदि समाजकी इस उपासनामें कुछ भी प्रारण अवशिष्ट है तो उसे सजीवित किया जाय, अनेक प्रकारके उपायो द्वारा-उपासना तत्त्वकी पुटे देकर-उसमें अधिक प्रारणका सचार किया जाय, और यदि प्रारण बिल्कुल नही रहा है और न फिरसे उसका सचार हो सकता है तो उसके साथ उस मृतकशरीर-जैसा व्यवहार किया जाय जो अत्यन्त प्यारा और उपयोगी होते हुए भी प्राणरहित हो जानेपर घरमे नही रक्खा जा सकता । प्रथवा यो कहिये कि अपने विरोधके द्वारा वे यही सूचित करते हैं कि, उपासनाके शरीरमे अमुक अमुक खराबियाँ उत्पन्न हो गई हैं - उसके ढग विगड गये हैं - उन्हें शीघ्र दूर किया जायसुधारा जाय- नही तो समूचे शरीरके नष्ट हो जानेका भय है, या शरीरका प्रमुक अङ्ग गल गया है उसका यदि प्रतिकार नही हो सकता तो उसे अलग कर दिया जाय, नही तो उसके ससर्गसे दूसरा
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२०० - युगवीर-निबन्धानली अङ्ग भी खराब हो जायगा, इत्यादिक । जब समाजकी तरफसे इस बिरोधकी कुछ सूनाई नहीं होती बल्कि उलटी खीचातानी बढ़ जाती है- समाज अपने दोपोपर विचार नहीं करता और न अपनी उपासनामें जीवन-सचार करनेका कोई उपाय करता है, बल्कि उसे ज्योका त्यो अस्वस्थ दशामेही रखना चाहताह और इस तरह उसकी हालत खराबसे खराबतर (ज्यादा खराब) होन लगती है-तब विरोध अपना उग्ररूप धारण कर लता है और उसके कारण हेयादेयका विचार नष्ट होकर, उपासनाके उन अच्छे अच्छ स्वस्थ अगोको भी धक्का पहुँच जाता है जिनको धक्का पहुँचाना विरोधकारियोको कभी इष्ट नहीं होता, और इस तरह एक अच्छी पोर उपयोगी सस्था समाजके दोषसे बहुत कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है और भावी सतति उसके समुचित लाभोमे वचित ही रह जाती है ।
उपसंहार इसलिये, समाजके व्यक्तियोका यह खास कर्ता है कि वे उपासनाके तत्त्वको अच्छी तरहसे समझकर अपनी उपासनाके प्रत्येक अड और ढगकी जाँच करे, और रूढियोके मोहको जलाञ्जलि देकर उन्हे विल्कुल उपासना-तत्त्वके अनुकूल बना लेवे। ऐसा हो जानेपर समाजके फिर किसी भी समभदार व्यक्तिको उनकी इस उपासना पर आपत्ति करनेकी कोई वजह नहीं रह सकती।
समाज-हितैषियोको समाजमे इस उपासना-तत्त्वके फैलाने, शिक्षासस्थायोमें पढाए जाने और इसके अनुकूल समाजकी प्रवृत्ति करानेका खास तौरसे यत्ल करना चाहिए। इसीमे समाजका हित और इसीमे समाजका कल्याण है और इमी हितसाधनाकी दृष्टिसे यह निबन्ध लिखा गया है।
१ जैनियोमे स्थानकलागी और बारनायी जैसे नम्प्रदाय ऐल ही विरोध, परिणाम है।
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उपासनाका ढंग
अाजकल हमारी उपासना बहुत कुछ विकृत तथा सदोष हो रही है और इसलिये समाजमें उपासनाके जितने अग और ढग प्रचलित है उनके गुण दोषो पर विचार करनेकी बडी जरूरत है। उन पर स्वतत्रताके साथ अनेक लेख लिखे जा सकते हैं। एक बार 'नौकरोसे पूजन कराना' नामका लेख अपने द्वारा लिखा भी गया था। इस समय उपासनाके ढग-सम्बन्धमे सकेतरूपसे इतना ही कह देना काफी होगा कि, उपासनाका वही सब ढग उपादेय है जिससे उपासनाके सिद्धान्तमे-उसके मूल उद्देश्योमे-कुछ बाधा न पडती हो। उसका कोई एक निर्दिष्टरूप नहीं हो सकता । भगवान जिनेंद्रदेवने भी, अपनी दिव्यनिके द्वारा उसका कोई एक रूप निर्दिष्ट नहीं किया । बल्कि, उन्होने यह भी नहीं कहा कि तुम मेरी उपासना करना, मेरी मूर्ति बनाना और मेरे लिये मदिर खड़ा करना । यह सब मदिर-मूतिका निर्माण और उपासनाके लिये तरह तरहके विधि-विधानोका अनुष्ठान स्वय भक्तजनो-श्रावकोके द्वारा अपनी अपनी भक्ति तथा शक्ति आदिके अनुसार कल्पित किया गया है, और जो समय पाकर रूढ होता गया, जैसा कि श्रीमत्पात्रकेसरी स्वामीके निम्न वाक्यसे ध्वनित है
विमोक्षसुख-चैत्य-दान-परिपूजनाद्यामिका क्रिया बहुविधा सुमन्मरण-पीडना-हेतवः ।
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युगवीर-निबन्धावली त्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिता किन्तु तास्त्वयि प्रमनमक्तिमि स्वयमनुष्ठिता श्रावकै ॥
पात्रो सरिस्तोत्र और इसलिये उपासनाके जो विधिविधान आज प्रचलित हैं वे बहुत पहले प्राचीन समयमे भी प्रचलित थे ऐसा नही कहा जा सकता । उनमे देश-कालानुसार बराबर परिवर्तन होता रहा है । आज भी सपूर्ण देशोमें और सपूर्ण सम्प्रदायोमे एक ही प्रकारकी उपासना-विधि नही पाई जाती । जैनियोमे तेरह और बीसपथका भेद बहत ही स्पष्ट है और वह बहत कुछ आधुनिक है। एक समय था जब कि जैनाचार्य वचन और शरीरको अन्य व्यापारोसे हटाकर उन्हें अपने पूज्यके प्रति. स्तुति-पाठ करने और अजलि जोडने आदि रूपमें, एकाय करनेको 'द्रव्यपूजा' और उसी प्रकारसे मनके एकाग्र करनेको 'भावपूजा' मानते थे, जैसा कि श्रीअमितगति आचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है--
वचोविग्रह-सकोचो द्रब्यपूजा निगद्यते ।
तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनै ।। (उपासकाचार) इसके बाद वह समय भी आया जब कि देशमें नैवेद्य, दीप, धूप और फल-पुष्पादिकके द्वारा देवतामोकी पूजाने जोर पकडा और वही द्रव्यपूजा कहलाई जाने लगी । हिन्दू देवतामोके सदृश जिनेंद्रदेवोका भी आवाहन और विसर्जनादिक होने लगा और ( जैनसि
१ इसमे बतलाया है कि 'विमोक्ष-सुख के लिये चैत्य-चैत्यालयादिकका निर्माण, दानका देना, पूजनका करना, इत्यादि रूपसे जितनी क्रियाएं है और जो अनेक प्रकारसे त्रम-स्थावर प्राणियोके मरण तथा 'पीडनकी कारणीभूत है उन सब क्रियाअोका हे केवलज्ञानी भगवान ।
आपने उपदेश नही दिया, बल्कि आपक भक्तजन श्रावकोने स्वय ही (आपकी भक्ति आदिके वश ) उनका अनुष्ठान किया है।'
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उपासनाका ढग
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द्धातोंके प्रतिकूल भी ) यह समझा जाने लगा कि वे भी बुलानेसे आते, बिठलानेसे बैठते, ठहरानेसे ठहरते और पूजनके बाद रुखसत करने पर अपना यज्ञ-भाग लेकर चले जाते है,जैसा कि पूजनके अत्र अवतर अवतर तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ' इत्यादि पाठो और विसर्जनके निम्न पाठसे प्रगट है
'पाहता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रम ।
ते मयाऽभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम् ।। ऊपरकी यह बात जैनसिद्धान्तोंके अनुकूल न होते हुए भी समाजमे प्रचलित हो गई और किसी प्रकारसे उपासनाका एक अग बन गई । अस्तु, अब मदिरोको लीजिये। मदिरोके निर्माण करने में मूर्तिकी रक्षा आदिके सिवाय 'लोकसग्रह' का गहरा तत्व छिपा हुआ था, जिसे बादको लोगोने भुला दिया और अपनी अपनी मानकषाय, नामवरीकी इच्छा या कुछ सुभीते आदिके खयालसे विना जरूरत भी एक स्थानपर बहुतसे मदिरोके निर्माण-द्वारा सघशक्तिको बाँटकर-उसके टुकडे टुकडे करके-उक्त तत्त्वकी उपयोगिताको नष्टभ्रष्ट कर दिया। इसी तरह मदिरोमें छोटी छोटी मूतियोकी समूहवृद्धिने उपासकोके हृदयमे यह खलबली उत्पन्न कर दी कि वे कितने समयमें किस किस मूर्तिकी उपासना करे, किसका ध्यान लगावें और किस परसे परमात्माका चिन्तन करें । अत ऐसे स्थानो पर दो एक शब्दोको बुडबुडाने और आगे सरकनेका ही काम रह गया, मूर्ति परसे परमात्माके ध्यान और चिन्तनकी बात प्राय जाती रही । साथ
१ इस पद्यमे विसर्जन करते हुए कहा गया है कि 'जिन जिन देवोको मैंने पहले बुलाया है वे सब भक्तिपूर्वक मेरे द्वारा पूजे जाने पर अब अपने अपने यज्ञ-भागको लेकर क्रमसे अपने अपने स्थान जालो'।
यह पद्य भी जैनेतर-हिन्दू-पूजापद्धतिका पद्य है, जो किसी तरह अपनी पूजापद्धतिमे शामिल होगया है।
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युगवीर-निबन्धावली ही मूर्तियोको मांग बढ़नेसे उनकी निर्माण-विधिमे शिथिलता आगई। पहले मूर्ति बनानेवाला और बनवानेवाला दोनो मूतिके तैयार होने तक जिम यम-नियमादिके साथ रहते थे और जिस विधिविधानके साथ पाषाणको उसकी खानसे जाकर लाते थे वह सब बात उठ गई, शिल्पियोकी दुकाने खुल गई जिनमे हर समय मूर्तियाँ तैयार मिलने लगी और लोभी प्रतिष्ठाचार्य कुछ दक्षिणा लेकर या वैसे ही अपने अज्ञानादि भावोसे प्रेरित होकर उन्हे पास करने लगे। नतीजा जिसका यह हुआ कि उपासनामे वह भाव नहीं रहा जो होना चाहिये था और कितने ही स्थानोपर ऐसी बेडौल, भद्दी तथा प्रशास्त्रसम्मत मूर्तियाँ भी पाई जाने लगी जिन्हे देखकर ध्यान जमनेके बजाय उलटा उखड जाता है।
जैनियोके मदिर, पहले आमतौर पर, बहत कुछ सादा और आडम्बररहित होते थे और उनमें उपासनाके उद्देश्योकी सहायक तथा साम्य-भावकी पोषक सामग्री ही विशेष रहा करती थी। परतु जब देशके दूसरे समाजोके मदिरोमे आडम्बरोकी वृद्धि हुई, शानशौकत अथवा राजसी ठाठ-बाटोने अपना रग जमाया, उनमे अनेक प्रकारके रास, नाटक, खेल, तमाशे होने लगे और उन्हे देखनेके लिये जैनी भी खिच-खिच कर वहाँ जाने लगे, तब जैनियोके मदिरोका भी नकगा बदल गया, उनमे भी गाने बजाने और नाचनेका सामान जोडा गया, आपसमे एक दूसरेसे मुकाबला होने लगा और प्रतिस्पर्धा बढ गई। साथमे, कुछ अदूरदृष्टता भी शामिल हो गई । नतीजा इस सबका यह हुआ कि उपासनाका भाव दिन पर दिन क्म होता गया, कोरी नुमायश, लोक-दिखावा और रूढिका पालन रह गया और उसने बीतराग भगवानकी उपासनाके लिये भी नौकरोकी जरूरत उपस्थित करदी । मदिरोकी सजावट उस वक्तसे आज तक इतनी बढ गई है कि उसके कारण दर्शकोका मन मूर्तिके वीतराग-भावको ग्रहण करनेकी ओर बहुत ही कम प्रवृत्त होता है, उसे अवसर ही
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उपासनाका ढग
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नहीं मिलता, वह इधर उधरके सुनहरे कामो और रागवर्धक चित्रोमे ही उलझा रहता है।
पूजन-साहित्यका भी ऐसा ही हाल है। वह भी इसी चक्करमे पडकर बहुत कुछ बदल गया है। पूराने ग्रन्थ इस विषयमे आजकल बहुत ही कम उपलब्ध है और जो मिलते है उनके और आधुनिक पूजा-ग्रन्थोके भावोमे बहुत बडा अन्तर है। प्राचीन भक्ति-पाठोका प्रचार भी अब बहुत ही कम देखनेमे आता है । आजकल वे ही पूजापुस्तक ज्यादा पसद की जाती हैं जो अपनी छन्द-सष्टिकी दृष्टिसे गाने-बजानेमे अधिक उपयोगी होती है । चाहे उनका साहित्य और उसमे उपासनाका भाव कितना ही घटिया क्यो न हो लोगोका ध्यान प्राय स्वर, ताल और लयकी ओर ही विशेष रहता है,अर्थावबोधके द्वारा परामा माके गुरगोमे अनुराग बढानेकी अोर नही । और भी कितनी ही बातें हैं जो स्वतत्र लेखो-द्वारा ही प्रगट की जा सकती हैं। विज्ञपाठक इतने परसे ही समझ सकते हैं कि हमारी उपासनाका ढग समय-समयकी हवाके झकोरोसे कितना बदल गया है। उसके बदलनेमे कोई हानि न थी, यदि वह उपासना-तत्वके अनुकूल बना रहता । परतु ऐसा नहीं है, वह कितने ही अशोमे उपासनाके मूल सिद्धान्तो तथा उद्देश्योसे गिर गया है, और इसलिये इस समय उसको सभालने उठाने तथा उद्देश्यानुकूल बनाकर उसमे फिरसे नवजीवनका सचार करनेकी बडी ज़रूरत है । समाजहितैषियोको चाहिए कि वे इस विषयमे अपना मौन भग करे अपनी लेखनी उठाएँ,जनताको उपासना-तत्त्वका अच्छा बोध कराते हुए उसकी उपासनाविधिके गुण-दोषोको बतलाएँ–सम्यक् पालोचना-द्वारा उन्हे अच्छी तरहसे व्यक्त और स्पष्ट करे--और इस तरह उपासनाके वर्तमान ढगमे समुचित सुधारको प्रतिष्ठित करनेके लिये जी-जानसे प्रयत्न करे । ऐसा होनेपर समाजके उत्थानमें बहुत कुछ प्रयति हो सकेगी।
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देश की वर्त्तमान परिस्थिति और हमारा कर्त्तव्य
(अग्र ेजी राज्यकालसे सम्बद्ध)
आजकल देशकी हालत बहुत ही नाजुक हो रही है । वह चारो प्रोर अनेक प्रकारको आपत्तियोसे घिरा हुआ है । जिधर देखो उधरसे ही बडे बडे नेता और राष्ट्रके सच्चे शुभचिन्तकोकी गिरफ्तारी तथा जेल यात्राके समाचार आ रहे हैं । एक विकट सग्राम उपस्थित है । सरकार ( नौकरशाही ) पूरे तौरसे दमन पर उतर आई है और लक्षणोंसे ऐसा पाया जाता है कि वह भारतीयोकी इस बढती हुई महत्वाकाक्षा (स्वराज्यप्राप्तिकी इच्छा ) को दबाने और उनके सपूर्ण न्याय्य विचारोको कुचल डालनेके लिये सब प्रकार के अत्याचारोको करने कराने पर तुली हुई है । वह देशके इस महाव्रत ( अहिंसाशाति) को भग कराकर उसे और भी ज्यादा पददलित करना और गुलामीकी जजीरोसे जकडना चाहती है और इसके लिये बुरी तरहसे उन्मत्त जान पडती है । इस समय सरकारका असली 'नग्न' रूप बहुत कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगा है और यह मालूम होने लगा है कि वह भारतकी कहाँ तक भलाई चाहनेवाली है । जो लोग पहले ऊपरके मायामय रूपको देखकर या बुरकेके भीतर रूपराशिकी कल्पना करके ही उस पर मोति थे, वे भी अब पर्दा (नक्काब) उठ जाने तथा प्राच्छादनोके दूर हो जानेसे नग्न रूपके दर्शन करके,
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देशकी वर्तमान परिस्थिति और हमारा कर्तव्य २०७ अपनी भूलको समझने लगे हैं और यह देशके लिये बडा ही शुभ चिन्ह है। ___ यह देशकी अग्नि-परीक्षाका अथवा उससे भी अधिक किसी दूसरी काठन परीक्षाका समय है। और इसी अन्तिम परीक्षा पर भारतका भविष्य निर्भर है । यदि हम इस परीक्षामे उत्तीरण हो गयेसब कुछ कष्ट सहन करके भी हमने शाति बनाये रक्खी और किसी प्रकारका कोई उपद्रव या उत्पात न किया तो स्वराज्य फिर हाथमे ही समझिये, उसके लिये एक कदम भी आगे बढानेकी जरूरत न होगी। और यदि दुर्भाग्यसे हम इस परीक्षामे पास न हो सके-हमने हिम्मत हार दी-तो फिर हमारी वह दुर्गति बनेगी और हमारे साथ वह बुग सलूक किया जायगा कि जिसकी कल्पना मात्रसे शरीरके गेगटे खडे हो जाते है । उस समय हम गुलामोसे भी बदतर गुलाम ही नही होगे बल्कि 'जिन्दा दरगोर" होगे और पशुओसे भी बुरा जीवन व्यतीत करनेके लिये बाध्य किये जायेंगे। और इस आपत्तिके स्थायी पहाडका सपूर्ण बोझ उन लोगोकी गर्दन पर होगा और वे देशके द्रोही समझे जायेंगे जो इस समय देशका साथ न देकर ऐसी परिस्थितिको लानेमे किसी न किसी प्रकारसे सहायक बनेगे।
देशकी किश्ती (नौका) इस समय भंवरमे फंसी हुई है और पार होनेके लिये सयुक्त बलके सिर्फ एक ही धक्केकी प्रतीक्षा कर रही है। मी हालतमे वह भवरमे क्यो फंसी, गहरे जलमे क्यो उतारी गई और क्यो भंवरकी ओर खेई गई, इस प्रकारके तर्क-वितर्कका या किसीके शिकवे-शिकायत सुननेका अवसर नहीं है। पार होनेके लिये उसे गहरे जलमें उतरना ही था, दूसरा मार्ग न होनेसे भँवरकी ओर उसका खेया जाना अनिवार्य था और इसलिये भंवरमे फंसना भी उसका अवश्यम्भावी था, यही सब सोच समझकर अब हमें अपने
१ जीते ही कबमें दफन बिसी अवस्थामे
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२०८,
युगवीर-निबन्धानली सयुक्त बलके द्वारा उसे भँवरसे निकाल कर पार लगाना चाहिए।
और इमलिये प्रत्येक भारतवासीका इस समय यह मुख्य कर्तव्य है कि वह देशकी वर्तमान परिस्थितिको समझकर उसमे देशको उबारने
और ऊँचा उठानेका जी-जानसे यत्न करे। उसे अपने क्षणिक सुखोपर लात मारकर भारतमाताकी सेवामे लग जाना चाहिए और माताको पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करानेके लिए उस महामत्रका आराधन करना चाहिए जिसे महात्मा गाधीजीने अपने दिव्य-ज्ञानके द्वारा मालूम करके एक अमोघ शस्त्रक रूपमे प्रगट किया है और जिसे भारतकी जातीय महासभा (कायस) ने अपनाया ही नही बल्कि भारतके उद्धारका एकमात्र उपाय स्वीकृत किया है। और वह महामत्र है 'असहयोग'।
हम अनेक तरीको अथवा मार्गोसे सरकारको उसके शासन-कायमे जो मदद पहुंचा रहे हैं, उस मददसे हाथ खीच लेना और उसे बद कर देना ही 'असहयोग' है। और यह ऐसा गुरुमत्र है कि इस पर पूरे तौरसे अमल होते ही कोई भी अन्यायी सरकार एक दिनके लिये भी नहीं टिक सकती । प्रजाहित-विरोधी सरकारको ठीक मागपर लानेके लिये इससे अच्छा दूसरा उपाय नही हो सकता। परन्तु इस पर अमल करनेवालोको स्वयं अहिसक, अत्याचार-रहित, निष्पाप
और प्रेमकी मूर्ति बन जाना होगा, तभी उन्हे सफलता मिल सकेगी। यह नहीं हो सकता कि हम स्वय तो अन्याय, अत्याचार और पापकी मूर्ति बने रहे और दूसरोके इन दोषोंको छडानेका दावा करे । र्याद हम खुद दूसरोंपर अन्याय और अत्याचार करते हैं तो हमे इस बातकी शिकायत करनेका कोई अधिकार नहीं है कि हमारे ऊपर क्यों अन्याय और अत्याचार किये जाते हैं। यदि हमारा आत्मा स्वय पापोंसे मलिन है तो हम दूसरोंके पाप-मलको दूर करानेके पात्र नही हो सकते। इसीसे असहयोगका यह संग्राम प्रारमशुद्धिका एक यज्ञ माना गया है, जिसमे हमें अपने उन संपूर्ण दोषों, त्रुटियो और कमजोरियोकी पाहुतियां देनी होंगी जिनसे लाम उठाकर ही सरकार
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देशकी वर्तमान परिस्थिति और हमारा कर्तव्य २०६ हम पर शासन कर रही है और हमें काठकी पुतलियोकी तरहसे नचा रही है। और यही वजह है कि काँग्र सने इस महामत्रकी साधनाके लिये, साधनोपायके तौरपर, चार मुख्य शर्ते रक्खी है, जिन्हे चार प्रकारके व्रत अथवा तप कहना चाहिए और जिनका पालन करना प्रत्येक असहयोगी तथा देशप्रेमीका प्रथम कर्तव्य है । वे चार शर्ते हैं १ अहिसा-शाति, २ स्वदेशी, ३ हिन्दू-मुसलिम-एकता और ४ अछूतोद्धार । इनमे भी अहिसा तथा शाति सबसे प्रधान हैं और वही इस समय खसूसियतके साथ कसौटी पर चढ़ी हुई है।
हमे कसौटीपर सच्चा उतरने और वतमान परीक्षामे पास होनेके लिये इस वक्त देशके सर्वप्रधान नेता महात्मा गाधीकी उन उदार
और महत्वपूर्ण शिक्षाप्रोपर पूरी तौरसे ध्यान देनेकी खास जरूरत है जो बराबर उनके पत्रो यग इडिया, नवजीवन और हिन्दी नवजी. वनमे प्रकाशित हो रही है। हमारा इस समय यही खास एक व्रत हो जाना चाहिए कि हम जैसे भी बनेगा, सब कुछ सहन करके शातिकी रक्षा करेंगे, सरकारको प्रोरसे शॉति भग करानेकी चाहे जितनी भी उत्तेजना क्यो न दी जाय और चेष्टाएँ क्यो न की जाये परन्तु हम गातिको जरा भी भंग न होने देगे-अपनी तरफसे कोई भी ऐसा कार्य न करेगे जिसका लाजिमी नतीजा शाति-भंग होता हो-और बराबर अपने निर्दिष्ट मार्गमे आगेकी ओर कदम बढ़ाते हुए अमन कायम रक्खेगे। इसीमे सफलताका सारा रहस्य छिपा हुआ है।
सकटकी जो घटाएँ इस समय देश पर छाई हुई है वे सब क्षणिक है और हमारी जॉचके लिये ही एकत्र हुई जान पड़ती हैं। उनसे हमे जरा भी घबराना और विचलित होना नहीं चाहिए । मंत्रो तथा विद्याओंके सिद्ध करनेमे उपसर्ग आते ही हैं। जो लोग उन्हें धैर्य
और शातिके साथ झेल लेते हैं वे ही सिद्धि-सुखका अनुभव करते हैं । असहयोग-मत्र और स्वराज्य-निधिकी सिद्धिके लिये हमें भी कुछ उपसों तथा सकटोंको धैर्य और शातिके साथ सहन करना होगा,
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युगवीर-निबन्धावली तभी हम स्वराज्य-सिद्धि के द्वारा होनेवाले अगणित लाभोसे अपनेको भूषित कर सकेगे। बिना कष्ट-सहनके कभी कोई सिद्धि नहीं होती।
सरकारको पहले असहयोगकी साधनामे विश्वास नहीं था। वह . उसकी चर्चाको महज़ एक प्रकारकी बकवाद और बच्चोकासा खेल समझती थी। परतु अबतक इस दिशामे जो कुछ काम हुआ है, उससे जान पड़ता है कि सरकारका प्रासन डोल गया है और वह उसे थामनेके लिये अब बिल्कुल ही प्रापेसे बाहर हो गई है। उसने इस बातको भुला दिया है कि प्रजा पर ही राज्यका सारा दारोमदार (आधार ) है । प्रजाको असतुष्ट रखकर उसपर शासन नहीं किया जा सकता और न डरा-धमकाकर किसीको सत्यकी सेवासे बाज रक्खा जा सकता है । उसकी हालत बहुत ही घबराई हुई पाई जाती है और ऐसा मालूम होता है कि वह इस समय 'मरता क्या न करता' की नीतिका अनुसरण कर रही है। यही वजह है कि उसने अपनी उस घबराहटकी हालतमे मनमाने कानून बनाकर कानूनोका मनमाना अर्थ लगाकर और मनमानी आज्ञाएँ जारी करके, देशके प्राय सभी सेवको, शुभचिन्तको, सहायको और बडे बडे पूज्य नेताप्रो तकको बड़ी तेजीके साथ गिरफ्तार करना और मनमानी सजा देकर जेल भेज देना प्रारभ कर दिया है। इस कार्रवाईसे सरकारकी बडी ही कमजोरी पाई जाती है और इससे उसने अपनी रही सही श्रद्धाको भी प्रजाके हृदयोसे चलायमान कर दिया है । शायद सरकारने यह समझा था और अब भी समझ रक्खा है कि इस प्रकारकी पकड-धकडके द्वारा वह प्रजाको भयकम्पित बनाकर और उसपर अपना अनुचित रौब जमाकर उसे अपने पथसे भ्रष्ट कर देगी, और इस तरहपर देशमें स्वराज्य तथा स्वाधीनताकी जो आग सुलग
१ लार्ड रीडिंगने स्वयं अपनी घबराहटको स्वीकार किया है । देखो, 'बन्देमातरम्' ता० १६-१२-१६२१
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देशको वर्तमान परिस्थिति और हमारा कर्तव्य २११ रही है वह या तो एकदम बुझ जायगी और या जनता उत्तेजित होकर अशाति धारण करेगी, कुछ उपद्रव तथा उत्पात मचावेगी और तब उसे पशु-बलके द्वारा कुचल डाला जायगा। परन्तु परिणाम इन दोनोमेसे एक भी निकलता हा मालूम नहीं होता। सरकारके निष्ठुर व्यवहार और निरपराधियोकी इस पकड-धकडने उन लोगोके वज्र-हृदयको भी द्रवीभूत कर दिया है और वे भी सरकारकी इस घातक पालिसीकी निन्दा करने लगे हैं, जो अभी तक इस आन्दोलनमे शरीक नही थे और बिल्कुल ही तटस्थ रहते थे अथवा सरकारके सहायक बने हुए थे। स्वराज्यकी आग बुझने अथवा दबनेके बजाए (स्थानमे) और अधिकाधिक प्रज्वलित हो रही है और सरकारके इस दमनने उस पर मिट्टीका तेल छिडकनेका काम किया है । लोगोका उत्साह बराबर बढ़ रहा है और वे स्वराज्य-सेनामे भरती होकर खुशी खुशी हजारोकी सख्यामे झु डके झुड जेल जा रहे है और ऐसी जेलयात्राको अपना अहोभाग्य समझ रहे है, जो देशके उद्धार और उसे गुलामीसे छुडानेके उद्देश्यसे कीजाती है । यह सब कुछ होते हुए भी अशातिका कही पता नही । ला लाजपतराय, पं० मोतीलाल नेहरू, मौ० अबुलकलाम आजाद और देशबन्धु सी० आर० दास जैसे बड़ेबड़े नेताओ तथा कुछ प्रतिष्ठित महिलामोके पकडे जाने और जेल भेजे जानेपर भी लोग शात रहे। लार्ड रीडिगने, शातिके इस यज्ञके समय, तलवारसे स्वराज्य मिलना बतलाया । और इस तरह पर, प्रकारातरसे हिसाको उत्तेजना दी। परन्तु फिर भी किसीने तलवार उठाकर हिसा करना नहीं चाहा और न शातिको भग करना पसद किया। यह सब. अधिकाशमे महा मा गाधीजीके उस महान् उपवासका फल है जो उन्होने बम्बईकी अशातिके समय धारण किया था । इस उपवासने देशवासियोके हृदयमे शाति और अहिसाकी उस ज्योतिको, जो पहले कुछ दुर्बल और कम्पित अवस्थामे थी, बहुत कुछ दृढ और बलाढ्य बना दिया है । ऐसी हालतमें यदि यह कहा
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युगवीर-निबन्धावली जाय कि सरकारने, इस कृत्यके द्वारा, अपने पैरमे आप ही कुल्हाडी मारी है, तो शायद कुछ अनुचित न होगा। यह इस अनुचित दमनका अथवा इन बेजा और बेमौका सस्तियोका ही नतीजा है जो भारतमें प्रिन्स आफ वेल्सका उतना भी स्वागत नही हो रहा है जो कि दूसरी हालतमे जरूर होता । उच्चाधिकारियोने शायद यह सोचा था कि बडे बडे लीडरोको जेलमे भेज देनेसे हम जनताके द्वारा शाहजादे साहबका अच्छा स्वागत करा सकेगे। परन्तु मामला उस. से बिल्कुल उलटा निकला और वे पहली खट्टी छाछसे भी गये।
हमारी रायमे यदि सरकार सचमुच ही भारतका हित चाहेंवाली है, तो उसका यह कार्य बहुत ही अदूरदर्शिता और नासमझीका हुआ है । इस समय सरकार अधिकार-मदसे उन्मत्त है। वह किसीकी कुछ सुनती नहीं और न स्वय उसे कुछ सूझ पड़ता है । तो भी प्रजाकी पोरसे बराबर शाति-जल छिडका जानेपर जब उसका नशा उतरकर उसे होश आवेगा तो वह ज़रूर अपनी भूल मालूम करेगी और उसे अपनी वर्तमान कृति ( कर्तृत ) पर घोर पश्चात्ताप होगा।
परन्तु सरकारके इस चक्करमे पडकर कही हमे भी भूल न कर बैठना चाहिए। हमे समझना चाहिए कि जिसका आसन डोलता है, वह उसके थामनेकी सभी कुछ चेष्टाएँ किया करता है । घबराया हुआ मनुष्य क्या कुछ नहीं कर बैठता ? और यही सब सोच समझ कर हमे अपने कतव्यके पालनमे बहुत ही सतर्क और सावधान रहने की ज़रूरत है। ऐसा न हो कि सरकारके किसी घृणितसे घृणित कार्य पर उत्तेजित होकर, कष्टोको सहन करनेमे कायर बनकर और इष्ट-मित्रादिकोंके वियोगमे पागल होकर, हम अशाति कर बैठे और हिसा पर उतर आवे । यदि ऐसा हुआ तो सर्वनाश हो जायगा। सारी करी कराई पर पानी फिर जायगा और सरकारका काम बन जायगा, क्योकि सरकार इस आन्दोलनको बन्द करके हमारे चुप
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देशकी वर्तमान परिस्थिति और हमारा कर्तव्य २१३ न बेठनेकी हालतमें, ऐसा चाहती ही है और इसीमे अपना कल्याण समझती है। परंतु हमारे लिये यह बिल्कुल ही अकल्याणकी बात होगी। हम पशुबलके द्वारा सरकारको जीत नहीं सकते-इस विषयके साधन उसके पास हमसे बहुत ही ज्यादा हैं-ौरन इस प्रकारकी जीत हमे इष्ट ही है, क्योंकि वास्तवमे ऐसी जीत कोई जीत नही हो सकती । उसमे हृदयका कॉटा बराबर बना रहता है। हाँ, आत्मबलके द्वारा हम उसपर जरूर विजय पा सकते हैं, और यही सच्ची तथा स्थायी जीत होगी। सरकार यदि पशुबलका प्रयोग करती है तो उसे करने दीजिए । हमारी नीति उसके साथ 'शठं प्रति शाठ्य' की न होनी चाहिए-हमे पशुबलका उत्तर आत्मबलके द्वारा सहनशीलतामे देना होगा और इसीमे हमारी विजय है । हमे क्रोधको क्षमासे अन्यायको न्यायसे, अशातिको शातिसे और द्वषको प्रेमसे जीतना चाहिए,तभी स्वराज्य-रसायन सिद्ध हो सकेगी। हमारा यह स्वतत्रताका युद्ध एक धार्मिक युद्ध है और वह किसी खास व्यक्ति अथवा जातिके साथ नहीं बल्कि उस शासन-पद्धतिके साथ है जिसे हम अपने लिये घातक और अपमान-मूलक समझते है। हम इस शासन-पद्धतिको उलट देना अथवा उसमे उचित सुधार करना जरूर चाहते हैं,परतु ऐसा करनेमे किसी जाति अथवा शासनविभागके किसी व्यक्तिसे घृणा (नफरत ) करना या उसके साथ द्वेष रखना हमारा काम नहीं है । हमे बुरे कामोसे जरूर नफरत होनी चाहिए परतु बुरे कामोके करनेवालोसे नहीं। उन्हे तो प्रेमपूर्वक हमे सन्मार्ग पर लाना है । नफरत करनेसे वह बात नहीं बन सकेगी।
यदि हम किसी व्यक्तिको प्रेमके साथ समझा-बुझाकर सन्मार्ग पर नहीं ला सकते हैं तो समझना चाहिए कि इसमे हमारा ही कुछ खोट है, अभी हम अयोग्य हैं, और इसलिये हमे अपने उस खोट तथा अयोग्यताको मालूम करके उसके दूर करनेका सबसे पहले यत्न करना चाहिए। उसके दूर होते ही आप देखेंगे कि वह कैसे सन्मार्ग
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युगबीर-निबन्धावली पर नहीं पाता है । ज़रूर आवेगा । सच्चे भावो, सच्चे हृदयसे निकले हुए वचनों और सच्चे आचरणोका असर हुए बिना नहीं रह सकता । इसी बातको दूसरे शब्दोंमे यो समझना चाहिए कि यदि हम देखते हैं कि हमारा एक भाई विदेशी कपडा पहनना और विदेशी कपडोका व्यापार करना नहीं छोडता-उस पर आग्रह रखता है-अथवा सरकारको उसके अन्याय और अत्याचारोंमें किसी न किसी तौर पर (सेवामे रहकर या दूसरे तरीकोसे) मदद दे रहा है तो, हमे उसको एक प्रकारसे पतित अथवा अनभिज्ञ समझना चाहिए---मार्ग भूला हुआ मानना चाहिए-और- उसके उद्धारके लिये, उसे यथार्थ वस्तुस्थितिका ज्ञान कराने और ठीक मार्गपर लानेके वास्ते हर एक 'जायज ( समुचित ) तरीकेसे समझानेका यत्न करना चाहिए । और जब तक वह न समझे तब तक अपने भावो
और आचरणोमे टि समझकर-अपने ज्ञानको उस कामके लिये अपर्याप्त मानकर-आत्मशुद्धि और स्वज्ञान-वृद्धि आदिके द्वारा अपनी त्रुटियोको दूर करते हुए बराबर उसको प्रेमके साथ समझाने और उसपर अपना असर डालनेकी कोशिश करते रहना चाहिए। एक दिन आवेगा जब वह जरूर समझ जायगा और सन्मार्गको ग्रहण करेगा। चुनांचे ऐसा बराबर देखनेमे पा रहा है । जो भाई पहले विदेशी कपडेको नही छोडते थे वे आज खुशी-खुशी उसका त्याग कर
परतु जो लोग अपनी बात न माननेवाले भाइयो पर कुपित होते है , नाराजगी जाहिर करते है, उन्हे कठोर शब्द कहते है, धमकी देते है, उनके साथ बुरा सलूक करते है, उनका मजाक उडाते है, अपमान करते है बायकाट करके अथवा धरना देकर उन पर अनुचित दबाव डालते हैं, अनेक प्रकारकी जबरदस्ती और जबसे काम लेते हैं, और इस तरह दूसरोकी स्वतत्रताको हरण करके उन्हे उनकी इच्छाके विरुद्ध कोई काम करने या न करनेके लिये मजबूर करते
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देशकी वर्तमान परिस्थिति और हमारा कर्त्तव्य
२१५ हैं, वे सख्त गलती में हैं और बहुत बड़ी भूल करते हैं। उनका यह सब व्यवहार ( तर्ज़-तरीका ) स्वतत्रताके इस संग्रामकी नीतिके बिल्कुल विरुद्ध है और हिसाके रगमे रंगा हुआ है । जान पड़ता है ऐसे लोगोने स्वतत्रताके इस धर्म युद्धका रहस्य नही समझा । वे अभी क्रोधादिक अन्तरग शत्रुओसे पीडित हैं, उन्होने अपने कषायोको ( जजबात को ) दमन नही किया, अपनी कमजोरियो पर काबू नही पाया, और इसलिये उन्हे निर्बल समझना चाहिए । ऐसे निर्बल और गुमराह मार्ग भूले हुए ) सैनिकोसे स्वतंत्रताका यह मैदान नही लिया जा सकता । ऐसे लोग बहुधा कार्य सिद्धिमे उलटे विघ्नस्वरूप हो जाते है । बम्बईका हगामा ( दगा ) और मोपलोका उपद्रव ऐसे ही लोगोकी तू तो फल है । इसलिये यदि हम स्वराज्य चाहते हैं तो हमे अपनी और अपने भाइयोकी इन त्रुटियो और कमजोरियो - को भी दूर करना चाहिए। इनके दूर हुए बिना हम बलवान नही हो सकते, न साधारण जनताकी सहानुभूतिको अपनी ओर खीच सकते है और न श्रागे ही बढ सकते है ।
हमारा मुख्य कर्तव्य इस समय यही होना चाहिए कि हम विश्वप्रेमको अपनाएँ, उसे अपना मूल-मंत्र बनाएँ, सर्वत्र प्रेमकी ज्योति जगाएँ, जो कुछ काम करे उसमे ढोग या पक्षपात न हो और जो काम दूसरोसे कराएँ वह भी उसी प्रेमके आधार पर कराएँउसमे जरा भी जब सख्ती या जबरदस्तीका नाम न हो। साथ ही, हमे स्वराज्यकी नीतिको, स्वराज्यसे होनेवाले लाभोको वर्तमान असहयोग आन्दोलनके अमली मशा व मानी ( श्राशय तथा अर्थ ) को और अहिसा के गहरे तत्त्वको बहुत खुले शब्दोमे समझाकर साधारण जनता पर प्रगट करना चाहिए, जिससे कोई भी शख्स किसी प्रकार के धोखे मे न रह सके । और अपने आचार-व्यवहारके द्वारा हमे पबलिकको इस बातका पूरा विश्वास दिलाना चाहिए कि उनकी वजहसे कोई भी भारतवासी चाहे वह हिन्दू, मुसलमान'
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युगवीर-निबन्धावली अंगरेज, पारसी, ईसाई और यहूदी आदि कोई भी क्यो न होअपने जानमालको जरा भी खतरे (जोखो) मे न समझे। हमें गुडों बदमाशो तथा उपद्रवी लोगोसे नफरत करके उन्हे बिल्कुल ही स्वतंत्र न छोड देना चाहिए, बल्कि उनसे मिलकर उन्हे सेवा-सुश्रषा और सद्व्यवहारादिकके द्वारा अपने बनाकर काबूमे रखना चाहिए । और अपने असरसे उनके दृप्फर्मो तथा बुरी आदतोको छुडा कर शाति-स्थापनके कार्यको और भा ज्यादा दृढ बनाना चाहिए, प्रत्येक नगर और ग्राममे ऐसा सुप्रवध करना चाहिए जिससे कही कोई चोरी, डकैती अथवा लूटमार न हो सके, कोई बलवान किसी निर्बलको न सता सके, आपसके झगडे-टटे सब पचायतो द्वारा तै (फैसल) हुना करे, सबका जान-माल सुरक्षित रहे और इस तरह पर लोगोको स्वराज्यके पानदका कुछ अनुभव होने लगे और वे यह समझने लगें कि, सरकारकी सहायताके विना भी हम अपनी रक्षा आदिका प्रबध स्वय कर सकते है और उससे अच्छा कर सकते है।
लोकमतके इतना शुद्ध और कर्तव्यनिष्ठ होनेपर स्वतत्रता-देवी अवश्य ही भारतके गलेमे वरमाला डालेगी,इसमे जरा भी सदेह नही है। अत हम सबको मिलकर सच्चे हृदयसे इसके लिये प्रयत्न करना चाहिए। इस समय आपसके झगडे टटो, मतभेदो और धार्मिक-विसवादोका अवसर नहीं है। उन्हे भुलाकर प्रत्येक भारतवासीको देशके मामलेमे एक हो जाना चाहिए और देशके उद्धार-विषयक कामोमे यथाशक्ति भाग लेना चाहिए। जो लोग अपनी किसी कमजोरीकी वजहसे ऐसे कामोमे कुछ हिस्सा नहीं ले सकते और न अपनी कोई खास सेवा देशको अर्पण कर सकते है, उन्हे कमसे कम इस ओर अपनी सहानुभूति ही रखनी चाहिए और बिगाडका तो ऐसा कोई भी काम उनकी तरफसे न होना चाहिए जिससे देशके चलते हुए काममे रोडा अटक जाय। यदि उनका कोई इष्टमित्रादिक अथवा देशका प्यारा नेता देशके लिये, बिना कोई अपराध किये, जेल जाता
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देशकी वर्तमान परिस्थिति श्रौर हमारा कर्त्तव्य
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है तो उसे खुशीसे जाने दिया जाय। हाँ, यदि वे उससे सच्चा प्रेम रखते हैं तो उसके उस शुभ कामको सभाले श्रौर खुद उसको करना प्रारंभ करे, जिसको करते हुए वह महामना जेल गया है । और यदि करनेके लिये असमर्थ हैं तो कृपया उसके नाम पर हुल्लड मचाकर अथवा दगा फिसाद करके व्यर्थ ही ससारकी शातिको भग न करे । उनकी इतनी भी सेवा स्वराज्य प्राप्ति के इस महायज्ञके लिये काफी होगी ।
हाल के समाचारोसे हमे यह मालूम करके बहुत ही प्रानद होता है कि देशने इस वक्त, जब कि गिरफ्तारियो और जेल यात्राप्रोका समुद्र चारो ओर से बेहद मौजे मारता हुआ उमड रहा है, बहुत ही धैर्य र शांतिसे काम लेकर अपनी साबितकदमीका परिचय दिया है । और यह उसके लिये बहुत बडे गौरवकी बात है और उसकी ' कामयाबीका एक अच्छा खासा सबूत है । यदि हमारे भाई कुछ दिनो तक और इसी तरह शातिके साथ कष्टोको सहन करते हुए निर्भय होकर अपने कार्यक्रमको बराबर आगे बढाते रहे तो सरकारको निसन्देह देश के सामने शीघ्र ही नतमस्तक होना पडेगा । प्यारे वीरो ! और भारत-माताके सच्चे सपूतो || घबराने की कोई बात नही है । महात्मा गाँधी जैसे सातिशय योगीका हाथ आपके सिर पर है । हिम्मत न हारना, कदम बराबर आागेको बढता रहे, समझ लो 'यह शरीर नश्वर है, हमारी इच्छासे यह हमे प्राप्त नही हुआ और न हमारे रखे रह सकेगा। कुटुम्ब, परिवार और धनादिककी भी ऐसी ही हालत है, उनका सयोग हमारी इच्छानुसार बना नही रहेगा । इसलिये इन सबके मोहमे पड कर प्रापको अपने कर्तव्य से जरा भी विचलित न होना चाहिए। इस समय स्वराज्यका योग आ रहा है, स्वतंत्रतादेवी वरमाला हाथम लिये हुए खडी है, सिर्फ आपकी कुछ कठिन परीक्षा और बाकी है, उसके पूरा उतरते ही भारतके गले मे वरमाला पड जायगी । आशा है, आप सब इस परीक्षाम जरूर पूरे उतरेगे और अब भारतको पूर्ण स्वाधीन बनाकर ही छोडेगे। इसी मे सब कुछ श्रेय और इसी मे । देशका सारा कल्याण है ।
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अपमान या अत्याचार ?
कल शुक्रवारको, कोई पहर रात गये खुली छत के मध्यमे शय्या पर लेटा हुआ, मै स्त्रियोकी पराधीनता और उनके साथ पुरुषजातिने जो अब तक सलूक किया है उसका गहरा विचार कर रहा था । एकाएक शीतल-मन्द-सुगन्ध पवनके झोकोने मुझे निद्रादेवीकी गोदमे पहुँचा दिया और इस तरह मेरा वह सूक्ष्म विचारचक्र कुछ देर के लिये बद हो गया ।
निद्रादेवीके श्राश्रयमे पहुँचते ही अच्छे अच्छे सुन्दर और सुमनोहर स्वप्नोने मुझे आ घेरा । उस स्वप्नावस्थामे मै क्या देखता हूँ कि, एक प्रौढा स्त्री, जिसके चेहरेसे तेज छिटक रहा है और जो अपने रग-रूप, वेष-भूषा तथा बोल-चालसे यह प्रकट कर रही है कि वह 'अखिल भारतीय महिला महासभा के सभापति के आसन पर
सीन होकर आ रही है, अपनी कुछ सखियो के साथ मुझसे मिलनेके लिये आई। अभी कुशलप्रश्न भी पूरी तौरसे समाप्त नही हो पाया था कि उस महिलारत्नने एकदम बडी ही सतर्क - भाषामे मुझसे यह प्रश्न किया कि आप लोग स्त्रियोसे घूँघट निकलवाते हो - उन्हे पर्दा करनेके लिये मजबूर करते हो - इसका क्या कारण है ?"
मैं इस विलक्षरण प्रश्नको सुनकर कुछ चौंक उठा और उत्तर
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अपमान या अत्याचार १
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सोचना ही चाहता था कि वह विदुषी स्त्री स्वत ही बोल उठी'या तो यह कहिये कि आप लोगोका स्त्रियोपर विश्वास नही है । आप यह समझते हैं कि स्त्रियाँ पुरुषोको देखकर कामबारणसे विकल हो जाती हैं, उनके मनमे विकार प्राजाता है और व्यभिचारकी ओर उनकी प्रवृत्ति होने लगती है । उसीकी रोकथाम के लिये यह घूँघटकी प्रथा जारी की गई है । यदि ऐसा है तो यह स्त्री जातिका घोर अपमान है। स्त्रियाँ स्वभावसे ही पापभीरु तथा लज्जाशील होती हैं, उनमें धार्मिक निष्ठा पुरुषोसे प्राय अधिक पाई जाती है । चित्त भी उनका सहज ही विकृत होनेवाला नही होता । उन्हे व्यभिचारादि कुमार्गीकी र यदि कोई प्रवृत्त करता है तो वह प्राय पुरुषोकी स्वार्थपूर्ण चेष्टाएँ और उनकी विवेक्शून्य क्रियाएँ तथा निरकुश प्रवृत्तियाँ ही है, जिससे किसी भी विचारशील तथा न्यायप्रिय व्यक्तिको इनकार नही हो सकता। और अब तो प्राय सभी विवेकी तथा निष्पक्ष विद्वान इस सत्यको स्वीकार करते जाते है । ऐसी हालत मे स्त्रियोपर उपर्युक्त कलकका लगाया जाना बिल्कुल ही निमूल प्रतीत होता है । और वह निर्मूलता और भी अधिकता के साथ सुदृढ तथा सुस्पष्ट हो जाती है जबकि भारत और भारत से बाहरकी उन दक्षि
गुजराती, पारसी तथा जापानी आदि उच्च जातियोके उदाहरणोको सामने रखा जाता है जिनमे घूँघटकी प्रथा नही है और जिनकी स्त्रियोके चरित्र बहुत कुछ उज्ज्वल तथा उदात्त पाये जाते हैं । आपका भी नित्य ही ऐसी कितनी ही स्त्रियोसे साक्षा कार होता है। और दे खुले मुँह प्रापको देखती है। बतलाइये, उनमेसे ग्राज तक कितनी स्त्रियाँ आपपर अनुरक्त हुई और उन्होने आपसे प्रेम - भिक्षाकी याचना की ? उत्तर 'कोई नही' के सिवाय और कुछ भी न होगा । आपने स्वत ही दृष्टिपातके अवसर पर इस बातका अनुभव किया होगा कि उनमे कितना सकोच और कितनी लज्जाशीलता होती है । विकारकी रेखा तक उनके चेहरे पर नही प्राती । पर्दा उनकी प्रांखोमें
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युगवीर-निबन्धावली ही समाया रहता है, जिस पर उन्हें स्वतत्रताके साथ अधिकार होता है और वे यथेष्ट रीतिसे उक्त अधिकारका प्रयोग करती हैं। उन्हें कृत्रिम पर्देकी- उस बनावटी पर्देकी जिसमे लालसा भरी रहती है और जो चित्तको उद्विग्न तथा शकातुर करनेवाला है-जरूरत ही नहीं रहती।
और इसलिये यह कहना कि पुरुषोको देखकर स्त्रियोका मन स्वभाव से ही विकृत होजाता है-वे दुराचारकी ओर प्रवृत्ति करने लगती हैंकोरी कल्पना और स्त्रीजातिकी अवहेलनाके सिवाय और कुछ भी नही है । इस प्रकारकी बातोसे स्त्रीजातिके शीलपर नितान्त मिथ्या आरोप होता है और उससे उसके अपमानकी सीमा नहीं रहती। साथ ही, इस बातकी भी कोई गारटी नही है कि जो स्त्रियों पर्दमे रहती हैं वे सभी उज्ज्वल-चरित्रवाली होती हैं, ऐसी बहुतसी स्त्रियोके बड़े ही काले चरित्र पाये गये है। प्रत घूघटकी प्रथाको जारी रखनेके लिये उक्त हेतुमे कुछ भी सार अथवा दम नजर नही आता ।'
जरासी देर रुककर और मेरे मुखकी ओर कुछ प्रतीक्षा-दृष्टिसे देखकर वह उदारचरिता फिर बोली--
'यदि आप ऐसा कहना नहीं चाहते और न उक्त हेतुका प्रयोग करना ही आपको इष्ट मालूम देता है तो क्या फिर आप यह कहना चाहते है कि-'पुरुषोका मन स्त्रियोको देखकर द्रवीभूत हो जाता है, पुरुष नवनीतके समान और स्त्रियाँ अगारेके सदृश है-"अगारसदृशी नारी नवनीतसमा नरा"-अगारोके समीप जिस प्रकार घी पिघल जाता है उसी प्रकार स्त्रियोके दर्शनसे पुरुषोका मन चलायमान होजाता है विकृत हो उठता है । उसी मनोविकारको रोकनेके लिये-उसे उत्पन्न होनेका अवसर न देनेके लिये ही यह घूघट निकलवाया जाता है अथवा पर्दा कराया जाता है। यदि ऐसा है तो यह स्त्रियोपर घोर अत्याचार है। स्त्रियोको देखकर पुरुषोकी यदि सचमुच ही लार टपक जाती है, उनमें इतना ही नैतिक बल है और वे इतनेही पुरुषार्थके धनी हैं कि अपनी प्रकृतिको स्थिर भी नही रख
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सकते तो यह उन्हीका दोष है। उन्हे उसका परिमार्जन अपनेही मुँह पर बुर्का डालकर अथवा घूँघट निकालकर क्यो न करना चाहिये यह कहाँका न्याय है कि अपराध तो करे पुरुष और सजा उसकी दी जाय स्त्रियोको ? यह तो 'अधेर नगरी और चौपट राजा' वाली कहावत हुई - एक मोटा अपराधी यदि फॉसीकी रस्सीमे नही आता तो किसी पतले-दुबले निरपराधीको ही फाँसी पर लटका दिया जाय ! कैसा विलक्षण न्याय है || क्या स्त्रियोको प्रबला और कमज़ोर समझकर ही उनके साथ यह सलूक ( न्याय ) किया गया है ? और क्या न्यायसत्ता पानेका यही उपयोग है और यही मनुष्यका मनुष्यत्व है ? मैं तो इसे मानव जाति और उच्च सस्कृतिके लिये महान् कलक समझती हूँ ।'
'स्त्रियाँ पर्दे मे रहने की वजहसे अपने स्वास्थ्य, अपनी, जानकारी अपनी संस्कृति और अपनी आत्मरक्षा वगैरहकी कितनी हानियाँ उठाती हैं, क्या इसका आपने कभी अनुभव नही किया ? मैंने तो ऐसी सैकडो स्त्रियोको देखा है जो घूँघट निकाले हुए प्रधोकी तरहसे चलती हैं, मार्गमे घोडा, गाडी, आदमी तथा दर - दीवार और वृक्षसे टकरा जाती हैं ईंट पत्थर लकडीसे ठोकर खाजाती हैं, मार्ग भूलकर इधर उधर भटकने लगती है, किसी आक्रमणकारीसे अपनी रक्षा नही कर सकती, और इस तरह बहुत कुछ दु ख उठाती हुईं अपनी उस घूँघटकी प्रथा पर खेद प्रकट करती है । उन्हे यह भी मालूम नही होता कि ससार मे क्या हो रहा है और देश तथा राष्ट्रके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है । वे प्राय मकानकी चारदीवारीमे बन्द रह कर उच्च सस्कारोके विकास के अवसरसे वचित रह जाती है, इतना ही नही बल्कि अपने स्वास्थ्यको भी खो बैठती हैं । ऐसी स्त्रियाँ अपनी सतानका यथेष्ट रीति से पालन-पोषण भी नही कर सकती और न उसे ठीक तौरसे शिक्षित ही बना सकती हैं। मैं तो जेलखानेके एक आजन्म कैदीकी और उनकी हालतमें कुछ भी अन्तर नही देखती ।
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युगवीर-निबन्धावली यह सब कितना अत्याचार है । विना अपराध ही स्त्रियाँ ये सब दुख कष्ट तथा हानियां उठाती हैं और अपने मनुष्योचित अधिकारी तथा लाभोसे वंचित रक्खो जाती है, इस अन्याय और अधेरका भी कही कुछ ठिकाना है ।। अब बतलाइये दोनोमेसे आप अपनी इस मनहूस प्रथाका कौनसा कारण ठहराते है ? पहला कारण बतलाकर व्यर्थ ही स्त्रीजातिका अपमान करना चाहते है या दूसरे कारणको मानकर स्त्रियोपर अपने अत्याचारोको स्वीकार करते हैं ? दोनोमेसे कोई एक कारण जरूर मानना और बतलाना पडेगा अथवा दोनोको ही स्वीकार करना होगा । परतु वह कारण चाहे कोई हो पुरुषोके लिये यह बात कलककी, लज्जाकी और सभ्यससारमे उनके गौरवको घटानेवाली जरूर है कि उन्हे प्रकृति तथा न्याय-नियमोके विरुद्ध अपनी स्त्रियोको पर्देमे रखना पडता है।'
मैं उस वीरागनाके इस दिव्यभाषणको सुनकर दग रह गया और मुझसे उस वक्त यही कहते बना कि, जरा सोचकर आपके प्रश्नका समुचित उत्तर फिर निवेदन करूँगा। __ मेरा इतना कहना ही था कि, आकाशमे मेघोकी गर्जना और वर्षाकी कुछ बू'दोने मेरा वह स्वप्न भग कर दिया और मैं अपनेको पूर्ववत् शय्या पर लेटा हा ही अनुभव करने लगा। परन्तु अभी कुछ मिनिट पहले जो अद्भुत दृश्य देखा था और जो दिव्य भाषण सुना था उसकी याद चित्तको बेचैन किये देती थी कि या तो इसे स्त्रीजातिका अपमान कहना चाहिये और या यह कहना चाहिये कि वह स्त्रियो पर पुरुषोका अत्याचार है। अथवा यो कहना होगा कि उसमे दोनोका ही अपमान और अत्याचारका-सम्मिश्रण है। विचारोकी इसी उधेडबुनमे सबेरा हो गया और मैं अपना स्वप्नसमाचार दूसरोको सुनाने लगा।
___ सभव है कि पाठकोमेसे भी कुछ महानुभाव उस दिव्य-स्त्रीके प्रश्न पर अच्छा विचार कर सके और उत्तरमें तीसरे ही किसी निर्दोष
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अपमान या प्रत्याचार ?
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हेतुका विधान कर सके। इसीलिये स्वप्नकी यह सपूर्ण घटना आज पाठकोंके सामने रक्खी जाती है। विद्वानोको चाहिये कि वे इस पर गहरा विचार करके अपने अपने विचार-फलको युक्ति के साथ प्रगट करे। यदि उन्हे भी उक्त प्रथाकी उपयुक्तता मालूम न दे और वे उसे जारी रखनेमे पुरुषोका ही दोष अनुभव करे तो उनका यह कर्तव्य होना चाहिये कि वे पुरुषजातिको इस कलक तथा पापसे मुक्त करानेका भरसक प्रयत्न करे ।
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१ यह स्वप्न मुझे आजसे कोई ३८ वर्ष पहले नानौता ( जि० सहारनपुर ) मे प्राया था और श्रनेके बाद ही १ मई सन् १९२४ को वर्तमान रूपमे लिख लिया गया था। एक-दो पत्रोमे उस समय इमे प्रकाशित भी किया था; जैसे जुलाई सन् १३२४ के 'परवारबन्धु' मे ।
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जातिभेद पर अमितगति प्राचार्य जैनसमाजमे 'अमितगति' नामके एक प्रसिद्ध आचार्य हो गये है। इनके बनाये हुए उपासकाचार, सुभाषितरत्नसदोह और धर्मपरीक्षा आदि कितने ही ग्रन्थ मिलते हैं और वे सब प्रादरकी दृष्टिसे देखे जाते हैं। ये आचार्य आजसे कोई ६५० वर्ष पहले-विक्रमकी ११वी शताब्दीमे-राजा मुजके समयमे हुए हैं और इन्होने धर्मपरीक्षा ग्रन्थको विक्रम सवत् १०७० में बनाकर समाप्त किया है । इस ग्रन्थके १७वे परिच्छेदमे आपने जातिभेद पर कुछ महत्वके विचार प्रकट किये है, जो सर्व साधारणके जानने योग्य हैं । अत नीचे पाठकोको उन्हीका कुछ परिचय कराया जाता है -
न जातिमात्रतो धर्मो लभ्यते देहधारिभि ।।
सत्यशौचतपशीलध्यानस्वाध्यायवर्जित ॥ २३ ॥ 'जो लोग सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्यायसे रहित है उन्हे जातिमात्रसे-महज किसी ऊँची जातिमे जन्म लेलेनेसेधर्मका कोई लाभ नही हो सकता।'
भावार्थ - धर्मका किसी जातिके साथ कोई अविनाभावी सबध नहीं है, किसी उच्च जातिमे जन्म लेलेनेसे ही कोई धर्मात्मा नही बन जाता । अथवा यो कहिये कि सत्य-शौचादिकसे रहित व्यक्तियोको उनकी उच्च जाति धर्मकी प्राप्ति नहीं करा सकती । प्रत्युत इसके,
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जाति-भेद पर अमितगति श्राचार्य
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जो सत्य, शौचादि गुणोसे विशिष्ट हैं वे हीन जातिमे उत्पन्न होने पर भी धर्मका लाभ प्राप्त कर सकते हैं और इसलिये जो लोग किसी उच्च कहलानेवाली जातिमे उत्पन्न होकर सत्य-शौचादि धर्मोंका अनुष्ठान न करते हुए भी अपनेको ऊँचा, धर्मात्मा, धर्माधिकारी या धर्मका ठेकेदार समझते हैं और अपनेसे भिन्न जातिवालोका तिरस्कार करते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है ।
श्राचारमात्रभेदेन जातीनां भेद-कल्पनम् ।
न जातिर्ब्राह्मणीयास्ति नियता क्वापि सात्त्विकी ||२४|| 'जातियोकी जो यह ब्राह्मण-क्षत्रियादि रूपसे भेदकल्पना है वह प्रचारमात्र के भेदसे है - वास्तविक नही । वास्तविक दृष्टिसे कही भी कोई नियता - शाश्वती - ब्राह्मरण जाति नही है । ( इसी तरह क्षत्रिय आदि जातियाँ भी तात्त्विक और शाश्वती नही हैं ।) '
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भावार्थ - ये मूल जातिया भी ( अग्रवाल खडेलवाल आदि उपजातियोकी तो बात ही क्या ) गौ-प्रश्वादि जातियोकी तरह वास्तविक नही है, किन्तु काल्पनिक हैं और उनकी यह कल्पना आचारमात्र के भेदसे की गई है । प्रत जिस जातिका जो प्राचार है उसे जो नही पालता वह उस जातिका व्यक्ति नही -- उसकी गणना उस जाति व्यक्तियो की जानी चाहिये जिसके प्राचारका वह पालन करता है । ऐसी दशामे ऊँची जातिवाले नीच और नीची जातिवाले उच्च हो जानेके अधिकारी है । इसीसे भीलो तथा म्लेच्छो प्रादिकी जो कन्याएँ उच्च जातिवालोसे विवाही गई वे प्राचारके बदल जानेसे उच्च जाति परिरणत होकर उच्चत्यको प्राप्त हो गई, और उनके कितने ही उदाहरण 'विवाहक्षेत्र प्रकाश मे दिये गये है ।
ब्राह्मणक्षत्रियादीना चतुर्णामपि तत्त्वत' ।
एकै मानुषो जातिराचारेण विभज्यते ।। २५ ।। 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारोकी वास्तवमे एक ही मनुष्य जाति है, वही ग्राचारके भेदसे भेदको प्राप्त हो गई हैं-जो
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युगवीर-निबन्धावली भेद अतात्त्विक है। ___ भावार्थ-सब मनुष्य मनुष्यजातिकी अपेक्षा समान हैं-एक ही तात्त्विक जातिके अग है-और प्राचार अथवा वृत्तिके बदल जाने पर एक अतात्त्विक जातिका व्यक्ति दूसरी अतात्विक जातिका व्यक्ति बन सकता है । अत एक जातिके व्यक्तिको दूसरी जातिके व्यक्तिसे कभी घृणा नहीं करनी चाहिये और न अपनेको ऊँचा तथा दूसरेको नीचा ही समझना चाहिये । ऊँच-नीचकी दृष्टिसे यह भेद-कल्पना ही नही है।
भेदे जायेत विप्राया क्षत्रियो न कथचन ।
शालिजातौ मया दृष्ट कोद्रवस्य न सभव ॥ २६ ॥ 'यदि इन ब्राह्मणादि जातियोके भेदको तात्त्विक भेद माना जाय तो एक ब्राह्मणीसे कभी क्षत्रिय-पुत्र पैदा नहीं हो सकता, क्योकि चावलोकी जातिमे मैंने कभी कोदोको उ पन्न होते हए नही देखा।'
भावार्थ- इन जातियोमे चावल और कोदो-जैसा तात्त्विक भेद मानने पर एक जातिकी स्त्रीसे दूसरी जातिका पुत्र कभी पैदा नहीं हो सकता--ब्राह्मणीके गर्भसे क्षत्रिय-पुत्रका और क्षत्रियाके गर्भसे वैश्य अथवा ब्राह्मण-पुत्रका उत्पाद नही बन सकता। परन्तु ऐसा नहीं है, ब्राह्मणोमे अथवा ब्राह्मरिगयोके गभसे कितने ही वीर-क्षत्रिय पैदा हुए है और क्षत्रियोमे अथवा क्षत्राणियोके गर्भसे अनेक वैश्यपुत्रोका उद्भव हुआ है जिनके उदाहरणोसे शास्त्र भरे हुए हैं और प्रत्यक्षमे भी ऐसे दृष्टान्तोकी कमी नही है । अग्रवाल जो किसी समय क्षत्रिय थे वे आज प्राय वैश्य बने हुए हैं। ऐसी हालतमे यह सुनिश्चित है कि इन जातियोमे कोई तात्त्विक अथवा प्राकृतिक भेद नही है-सबकी एक ही मनुष्य जाति है। उसीको प्रधानत लक्ष्य में रखना चाहिये।
ब्राह्मणोऽवाचि विप्रेण पवित्राचारधारिणा । विप्राया शुद्धशीलायां जनिता नेदमुत्तरम् ॥२७॥
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जाति भेद पर श्रमितगति प्राचार्य
न विप्राप्रियोरहित सर्वदा शुद्धशीलता । कालेानादिना गोत्रे स्खलन क्व न जायते ॥ २८ ॥ 'यदि यह कहा जाय कि पवित्राचारधारी ब्राह्मणके द्वारा शुद्धशीला ब्राह्मणी के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है उसे ब्राह्मण कहा गया है - तुम ब्राह्मणाचारके धरनेवालेको ही ब्राह्मण क्यो कहते हो ? - तो यह ठीक नही है । क्योकि यह मान लेनेके लिये कोई कारण नही है कि उन ब्राह्मरण और ब्राह्मणी दोनोमे सदा कालसे शुद्धशीलताका अस्तित्व ( अक्षुण्णरूप से ) चला आता है। अनादिकालसे चली आई हुई गोत्रसन्ततिमे कहाँ स्खलन नही होता ? - कहाँ दोष नही लगता ? - लगता ही है ।
भावार्थ- इन दोनो इलोकोमे प्राचार्यमहोदयने जन्मसे जाति माननेवालोकी बातको निसार प्रतिपादन किया है - जन्मसे जातीयता एकातपक्षपाती जिस रक्तशुद्धिके द्वारा जाति कुल प्रथवा गोत्रशुद्धिकी डुगडुगी पीटा करते हैं उसीकी नि सारताको घोषित किया है और यह बतलाया है कि वह अनादि प्रवाहमेबन ही नही सकती-बिना किसी मिलावटके प्रक्षुराण रह ही नही सकती । इन पद्योमें कामदेवकी दुर्निवारता और उससे उत्पन्न होनेवाली विकारताका वह सब श्राशय सनिहित जान पडता है जिसे प०प्राशाघरजीने, कुलजाति-विषयक प्रकृतिको मिथ्या, श्रात्मपतनका हेतु और नीच गोत्रके बन्धका कारण ठहराते हुए, अपने अनगारधर्मामृत ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञटीकामे प्रकट किया है और जिसका उल्लेख लेखक-द्वारा 'विवाहक्षेत्र प्रकाश ' ' के 'असवर्ण और अन्तर्जातीय
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१ प० आशाधरजीके उस कथनका एक वाक्य इस प्रकार है' अनादाविह ससारे दुवरेि मकरध्वजे ।
कुले च कामिनीमूले का जाति परिकल्पना ||
२. यह १७५ पृष्ठकी पुस्तक ला० जौहरीमलजी जैन सराफ, दरीबा कलf देहली ने प्रकाशित की है ।
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युगवीर-निबन्धावली विवाह' नामक प्रकरणमे किया गया है । गोत्रों में अन्य प्रकारसे कैसे स्खलन होता है, उनकी धारा कैसे पलट जाती है और वे कैसी विचित्र स्थितिको लिये हुए हैं, इस बातको सविशेष रूपसे जाननेके लिये विवाहक्षेत्रप्रकाशका मोत्रस्थिति और सगोत्रविवाह' नामका प्रकरण देखना चाहिये।
सयमो नियम शील तपो दान दमो दया । विद्यन्ते तात्त्विका यस्या सा जातिमहती सताम् ॥२६॥ 'सत्पुरुषोकी दृष्टिमे वह जाति ही बडी अथवा ऊंची है जिसमें सयम, नियम शील. तप दान, दम (इन्द्रियादिनिग्रह) और दया ये गुरण वास्तविक रूपसे विद्यमान होते है-बनावटी रूपसे नहीं।'
भावार्थ---इन गुणोका यथार्थमे अनुष्ठान करनेवाले व्यक्तियोंके समूहको ही ऊंची जाति कहते हैं। और इसलिये जो व्यक्ति सचाईके साथ इन धर्मगुरगोका पालन करता है उसे ऊँची जातिका अग समझना चाहिये--भले ही वह नीच कहलानेवाली जातिमे ही क्यो न उत्पन्न हा हो । उपयुक्त गुण ऐसे हैं जिन्हे सभी जातियोंके व्यक्ति धारण कर सकते है और वे धारण करनेवाले व्यक्ति ही उस महती जातिका निर्माण करते है जो प्राचार्यमहोदयकी कल्पनामें स्थित है।
दृष्टा योजनगन्धादि प्रसृताना तपस्विनाम् । व्यामादीना महापूजा तपसि क्रियता मति ॥३०॥
(धीवरादि नीच जातियोकी) योजनगधादि स्त्रियोसे उत्पन्न व्यासादिक तपस्वियोंकी लोकमे महापूजा देखी जाती है-यह सब तप-सयमादि गुणोका ही माहा म्य है । अत तप सयमादि गुणोकी प्राप्तिका ही यत्न करना चाहिये-उससे जाति स्वय ऊंची उठ जायगी।
भावार्थ-नीच जातिकी स्त्रियोसे उ-पन्न व्यक्ति यदि नीच जातिके ही रहते और नीच ही समझे जाते तो व्यासजी जैसे तपस्वी,
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जाति-भेद पर अमितगति प्राचार्य २२६ जो कि एक धीवर-कन्याले व्यभिचार-द्वारा उत्पन्न हुए थे, लोकरें कमी इतनी पूजा और प्रतिष्ठाको प्राप्त न कर सकते। इससे साफ जाहिर है कि नीच जातिके व्यक्ति भी सद्गुणोंके प्रभावसे ऊँच जातिके हो जाते हैं । अथवा यो कहिये कि नीव जातियोमें भी अच्छे-अच्छे रश्न उत्पन्न होते हैं और हो सकते हैं । इसलिये उनकी उपेक्षा की जानी योग्य नही-उन्हे ऊँचे उठानेका यत्न करना चाहिये।
शीलवन्तो गता स्वर्गे नीचजातिभवा अपि । कुलीना नरक प्राप्ताः शील-सयम-नाशिन ॥३१॥ 'नीच जातियोमे उत्पन्न होने पर भी सदाचारी व्यक्ति स्वर्गको प्राप्त हुए हैं और ऊँच जातियोंमे जन्म लेनेवाले प्रसदाचारीशीलसयमादिसे रहित-कुलीन लोग भी नरकमें गये हैं।'
भावार्थ -ऊँच जातिवाले जब नीच गतिको और नीच जातिवाले ऊँची गतिको प्राप्त हुए है - और हो सकते हैं तब वास्तवमें इन ऊँचनीच गिनी जानेवाली जातियोका कुछ भी महत्त्व नही रहता। उच्चत्व और नीचत्वका अथवा अपने उत्कर्ष और अपकर्षका सारा खेल गुणोके ऊपर अवलम्बित है । अत सद्गुणोकी प्राप्ति करने-करानेका ही यत्ल होना चाहिये। उनकी प्राप्तिमें वस्तुत. कोई नीच कही जाने वाली जाति बाधक नही है।
गुणै सम्पद्यते जातिगुणध्वसैविपद्यते। यतस्ततो बुधै कार्यो गुणेष्वेवादर पर ||३२|| जातिमात्रमद कार्यो न नीचत्वप्रवेशक. ।
उच्चत्वदायक सद्भि कार्य शोलसमादर. ॥३३॥ 'उत्तम गुणोंसे ही उत्तम जाति बनती है और उत्तम गुणोंके नाशसे वह जाति नष्ट हो जाती है-नीचत्वको प्राप्त हो जाती है। इसलिये बुद्धिमानोको सबसे अधिक गुणोका ही आदर करना चाहिये (बाह्य जाति पर दृष्टि रखकर या उसके भुलावेमे भूलकर उसीको सब कुछ न समझ लेना चाहिये) । साथ ही, अपनी जातिका कभी
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युगवीर - निबन्धावली
मद नही करना चाहिये । (अपनी जातिको ऊँचा और दूसरे की जाति को नीचा समझने रूप ) यह मद आत्मामे नीचत्वका प्रवेश करानेवाला है - उसे नीचे गिरानेवाला अथवा नीच बनानेवाला है । उच्चत्वा देनेवाला - आत्माको ऊपर उठानेवाला - शीलसयमादि गुणोके प्रति आदरभाव है - भले ही उन गुणोका प्रादुर्भाव किसी नीच जातिके व्यक्ति ही क्यो न हुआ हो और इसलिये सत्पुरुषो - को उसी आदरभाव से काम लेना चाहिये - जातिभेदके चक्कर मे पड कर गुरियो अथवा गुरोका तिरस्कार नही कर देना चहिये ।'
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भावार्थ - इन ब्राह्मणादिक जातियोका बनना और बिगडना सब गुणोपर ही मुख्य आधार रखता है- उनका मूल जन्म नही किन्तु गुणसमुदाय है । गुणोके आविर्भावसे एक नीच जातिवाला ऊँच जातिका और गुणो प्रभावसे एक ऊँच जातिवाला नीचजातिका व्यक्ति बन जाता है। किसीकी जाति अटल या शाश्वती नही है -ग्रटल है तो एक मनुष्यजाति है, जो जीवनभर तक छूट नही सकती, उसी पर पूरा लक्ष्य रखना चाहिये । इसीलिये महज जन्मकी वजह से दूसरोके व्यक्तित्वका तिरस्कार करना उचित नही - उचित है दूसरोके गुरगोका आदर करना, उनके गुरणो के आविर्भावकी भावना रखना और उसका सब ओर से प्रयत्न करना, यही दोनो के लिये उत्कर्षका साधक है । इसीसे प्राचार्य महोदय ग्रन्थ के अन्तिम भागमे लिखते हैं। यस्यास्ति सम्यक्त्वमसौ परिष्ठो यस्यास्ति सम्यक्त्वमसौ वरिष्ठ । यस्यास्ति सम्यक्त्वममौ कुलीनो यस्यास्ति सम्यक्त्वमसौ न दीन ॥ ७७ ॥
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'जो मनुष्य सम्यक्त्व गुरणका धारक है वह प्रयन्त चतुर है, श्रेष्ठ है, कुलीन है और प्रदीन है।'
भावार्थ - जैनधर्मके अनुसार नीचसे नीच जातिका मनुष्य भी सम्यक्त्वगुरणका धाररण कर सकता है- एक चाण्डालका पुत्र भी
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जाति-भेद पर श्रमितगति श्राचार्य
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सम्यग्दृष्टि हो सकता है। स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें ऐसे चाण्डाल - पुत्रको 'देव' लिखा है - प्राराध्य' बतलाया है । अत ऐसे सम्यग्दर्शनप्राप्त नीच जातिके पुरुषोको भी श्रमितगति श्राचार्य श्रेष्ठ, कुलीन और अदीन लिखते हैं । यह है गुरोका प्रादरभाव, गुरणोके प्राविर्भावकी सद्भावना और सत्प्रेरणा ।
आचार्य महोदय के इन सब उद्गारो पर अधिक टीकाटिप्पणीकी जरूरत नही। वे इन जातिभेदोको किस दृष्टिसे देखते थे और उन्हे क्या महनव देते थे यह सब ऊपरके कथनोसे बिल्कुल स्पष्ट है । और इसलिये जो लोग समानवर्ण, समानधर्म, और समानगुरगशीलवाली उपजातियोमे भी अनुचित भेदभावकी कल्पना किये हुए है - परस्परमे रोटी-बेटीका सम्बन्ध एक करते हुए हिचकिचाते हैंउन्हे प्राचार्य महाराजके इन उद्गारोंसे जरूर कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और उस कदाग्रहको छोड देना चहिये जो धर्म तथा समाजकी उन्नति बाधक है । जो लोग कदाग्रहको छोड कर अन्तर्जातीय विवाह करने लगे हैं उनकी यह उदार तथा विवेक- परिरगति निसन्देह प्रशसनीय और अभिनंदनीय है ।
१ यह 'देव' का 'श्राराध्य अर्थ प्रभाचन्द आचार्यने रत्नकरण्डश्रावकाचारकी टोकामे दिया है।
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गात्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह जनसिद्धान्तमे-जैनियोकी कफिलोसोफीमें- 'गोत्र' नामका भी एक कर्म है और उसके ऊँच, नीच ऐसे कुल दो ही भेद किये है। गोम्मटसार ग्रन्थमे बतलाया है कि सन्तान'-क्रमसे चले पाए जीवोंके माचरण-विशेषका नाम गोत्र' है। वह प्राचरण ऊँचा और नीचा दो प्रकारका होनेसे गोत्रके भी सिर्फ दो भेद हैं, एक उच्चगोत्र और दूसरा नीचगोत्र । यथा -
सनानकमेणागय जोवायरबस्स गोदि मण्णा । उच्च णीच चरण उच्च णीच हवे गोद ॥ परन्तु आजकल जैनियोमे जो सैकडो गोत्र प्रचलित हैं- उनकी ८४ जातियोमे प्राय सभी जातियाँ, समान आचरण होते हुए भी. कुछ न कुछ गोत्र-सख्याको लिये हुए है वे सब गोत्र उक्त सिद्धान्तप्रतिपादित गोत्र-कथनसे भिन्न है, उनमे 'उच्च और 'नीच' नामके कोई गोत्र हैं भी नही, और न किसी गोत्रके भाई ऊँच अथवा नीच समझे जाते हैं। इन गोत्रोके इतिहास पर जब दृष्टि डाली जाती है तो वह बडा ही विचित्र मालूम होता है और उससे यह बात सहज ही समझमे आ जाती है कि ये सब गोत्र कोई अनादिनिधन नही हैं-वे भिन्न-भिन्न समयोपर भिन्न भिन्न कारणोको पाकर उत्पन्न, हुए और इसी तरह कारण-विशेषको पाकर किसी न किसी समय
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गोत्र-स्पिति पीर समीक-विवाह २३३ नष्ट हो जामेवाले हैं। अनेक गोत्र केवल ऋषियोक नामो पर प्रतिष्ठित हुए, कितने ही गोत्र सिर्फ नगर-यामादिकोंके नामो पर रखे गये और बहुतसे गोत्र वंशके किसी प्रधानपुरुष, व्यापार, पेशा अवका किसी घटनाविशेषको लेकर ही उत्पन्न हुए है । और इन सब गोत्रोंकी उत्पत्ति या नामकरणसे पहले पिछले गोत्र नष्ट हो गये यह स्वत सिद्ध है-अथवा यो कहिये कि जिन जिन लोगोने नवीन मोत्र धारण किये उनमें और उनकी सततिमें पिछले गोत्रोका प्रचार नहीं रहा । यहाँ पर इन गोत्रोकी कृत्रिमता और परिवर्तनशीलताका कुछ दिग्दर्शन करा देना उचित मालूम होता है और उसके लिये अग्रवाल खडेलवाल तथा ओसवाल जातियोंके गोत्रोंको उदाहरणके तौरपर लिया जाता है । इस दिग्दर्शन परसे पाठकोको यह समझनेमे आसानी होगी और वे इस बातका अच्छा निर्धार कर सकेगे कि आजकल इन गोत्रोको जो महत्त्व दिया जाता है अथवा विवाह-शादीके अवसरो पर इनका जो आग्रह किया जाता है वह कहाँ तक उचित तथा मान्य किये जानेके योग्य है -
(१) अग्रवाल जातिके इतिहाससे मालूम होता है कि अग्रवालवशके आदिपुरुष राजा अग्रसेन थे। वे जिस गोत्रके व्यक्ति थे वही एक गोत्र, याजकलकी दृष्टि मे, उनकी सततिका-सम्पूर्ण अग्रवालोका-होना चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं है। अग्रवाल जातिमें प्राज १८ गोत्र प्रचलित हैं और ये गोत्र राजा अग्रसेनके अठारह पुत्रों द्वारा धारण किये हुये गोत्र है, जिनकी कल्पना उन्होने अपनी सततिके विवाह-सकटको दूर करनेके लिये की थी। इनमेसे गर्ग आदि अधिकाश गोत्रोका नामकरण तो उन गर्गादि ऋषियोके नामो पर हुआ है जो पुष्पदेवादि राजकुमारोंके अलग अलग विद्यागुरु थे और बाकीके वृन्दल, जैत्रल (जिदल) आदि कुछ गोत्र वृन्ददेवादि राजकुमारोंके नामो परसे ही निर्धारित किये गये अथवा प्रचलित हुए जान पडते हैं । ऐसी हालतमे यह स्पष्ट है कि राजा अग्रसेनका गोत्र
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युगवीर-निबन्धावली उनके साथ ही समाप्त हो गया था-वह उनकी सततिमे प्रचलित नहीं रहा और १८ नये गोत्रोकी सृष्टि भी हो सकी। साथ ही,यह बतलानेकी कोई जरूरत नहीं रहती कि पहले जमानेमे पिताके गोत्रको छोड़ कर नये गोत्र भी धारण किये जा सकते थे और इस नई गोत्र-कल्पनाके अनुसार अपने विवाह-क्षेत्रको विस्तीर्ण बनाया जा सकता था । यदि अग्रवालोकी इस पिछली गोत्र-कल्पनाको हटा दिया जाय तो, राजा अग्रसेनकी दृष्टिसे, सब अग्रवाल एकगोत्री है और वे परस्पर--अग्रवालोमे ही--विवाह करके सगोत्र-विवाह कर रहे हैं यह कहना चाहिये। ___ (२) खडेलवाल जातिके जैन इतिहाससे पता चलता है कि एक समय राजा खडेलगिरकी राजधानी खडेलानगर और उसके शासनाधीन ८३ ग्रामोंमें महामारीका बडा प्रकोप हुआ और वहानरमेध यज्ञ तक कर देने पर भी शात न हुआ बहुत कुछ हानि पहुँचाकर, अन्तको श्रीजिनसेनस्वामीके प्रभावसे शात हुआ । इस अतिशयको देख कर ८४ ग्रामोके राजा-प्रजा सभी जन जैनी हो गये और श्रीजिनसेनस्वामीने उनके ८४ गोत्र नियत किये । गोत्रोमे 'सहा' गोत्रको छोडकर, जो खडेलानगरके निवासियो तथा राजकुलके लिये नियत किया गया था, शेष ८३ गोत्रोका नामकरण ग्रामोके नामो पर हमा--अर्थात् एक एक ग्रामके रहनेवाले सभी जैनियोका एक एक गोत्र स्थापित किया गया । जैसे पाटनके रहनेवालोका गोत्र ‘पाटनी',अजमेरके रहनेवालोका 'अजमेरा',बाकली प्रामके निवासियोका 'बाकलीवाल' और कासली गॉवके निवासियोका गोत्र कासलीवाल नियत हुआ । इन गोत्रोमे सोनी, लुहाड्या, चौधरी
आदि कुछ गोत्रोके विषयमें विद्वानोका यह भी मत है कि वे व्यापार, पेशा या पदस्थकी दृष्टिसे रक्खे हुए नाम हैं - सोनेका व्यापार तथा काम करनेवाले 'सोनी', लोहेका व्यापार तथा काम करनेवाले 'लुहाड्या और चौधरीके पद पर प्रतिष्ठित'चौधरी' कहलाये। परन्तु कुछ
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गोत्रस्थिति और सगोत्र-विवाह २३५ भी सही, इतना तो स्पष्ट है कि इन सब लोगोके पुराने गोत्र कायम नही रहे और ८४ नये गोत्रोकी सृष्टि हुई। एक गोत्रके लोग प्रायः अनेक प्रामोमें रहते हैं और एक ग्राममे अक्सर अनेक गोत्रोके लोग रहा करते है । जब गोत्रोका नामकरण ग्रामोके नामो पर हुआ एक ग्रामके रहनेवाले जैनियोका एक गोत्र कायम किया गया और अपने अपने उस गोत्रको छोडकर खडेलवाल लोग दूसरे गोत्रमे विवाह सम्बन्ध करते हैं तब उनके पिछले गोत्रोकी दृष्टिसे यह कहा जा सकता है कि वे सगोत्र-विवाह भी करते है क्योकि यह प्राय असभव है कि उन सब नगर-ग्रामोमे पहलेसे एक-दूसरेसे भिन्न अलग अलग गोत्रके ही लोग निवास करते हो। राजमलजी बडजात्याने खडेलबाल जैनोका जो इतिहाम लिखा है उससे तो यह स्पष्ट मालूम होता है कि कितने ही वशोके लोग अनेक ग्रामोमे रहते थे जैसे चौहान वशके लोग खडेलानगर, पापडी भैसा, दरड्यो, गदयो, पहाडी, पाडणी, छावडा, पागुल्यो, भूलागी, पीतल्यो, बनमाल, अरडक, चिरडकी, सॉभर और चोवण्यामे रहते थे । इन नगर ग्रामोके निवासियोके लिये क्रमश सहा, पापडीवाल भैसा ( बडजात्या ), दरड्यो, गदैया, पहाड्या, छावडा, पागुल्या, भूलण्या पीतल्या, बनमाली) अडक, चिरडक्या, साभर्या और चौवाण्या गोत्रोकी सृष्टि की गई । इन गोत्रोके खडेलवाल क्या आपसमे विवाह-सम्बध नहीं करते ? यदि करते हैं तो चौहानवशके मूलगोत्रकी दृष्टिसे कहना होगा कि वे एक
१ यह दूसरी बात है कि कुछ रिश्तेदारोके गोत्र भी टाले जाते हैं । परन्तु उमसे किसी वाम नाम गोत्रोका नियमित रूपमे टाला जाना लाजिमी नही पाता । हो सकता है कि एक विवाहके अवसर पर किमी रिश्तेदारका जो गोत्र टाला गया वह कालान्तरमे न टाला जाय अथवा उसी गोत्रमे कोई दूसरा विवाह भी कर लिया जाय क्योकि रिश्तेदारीकी वह स्थिति उत्तरोत्तर मतन्मेि बदलती रहती है।
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युगवीर निवासी
ही गोत्रमें विवाह करते हैं भगवा यो कहिये कि पिछली गोत्रकल्पनाको निकाल देने पर उनके वे विवाह सगोत्रविवाह ठहरते हैं दूसरे गोत्रोंकी भी प्राय ऐसी ही हालत है। इसके सिवाय, ऐसा कोई प्रमाण नही मिलता जिससे यह मालूम होता हो कि पहले एक नगर-ग्रामके निवासी श्रापसमे विवाह सम्बध नही किया करते थे । और यदि कहीं ऐसा होता भी हो तो प्राजकल जब वह प्रथा नही रही और एक ही नगर-ग्रामके निवासी खडेलवाल परस्पर मे विवाह कर लेते हैं तब उनके लिये एक ही नगर -ग्रामके निवासियोसे बने हुए अपने एक गोत्र विवाह सम्बध कर लेने पर सिद्धान्तकी दृष्टिसे कौन बाधा श्राती है अथवा उसका न करना कहाँ तक युक्तियुक्त हो सकता है इसका विचार पाठकजन स्वय कर सकते है ।
(३) 'जैनसम्प्रदार्याशक्षा" मे यति श्रीपालचन्द्रजीने श्रोसवाल वशकी उत्पत्तिका जो इतिहास दिया है उससे मालूम होता है कि रत्नप्रभसूरि ने, 'महाजन वश' की स्थापना करते हुए, तातहड' आदि अठारह गोत्र और 'सुघड' आदि बहुतसे नये गोत्र स्थापित किये थे। और उनके पीछे वि० स० सोलहसी तक बहुतसे जैनाचायोंने राजपूत, महेश्वरी, वैश्य और ब्राह्मरण जातिवालोंको प्रतिबोध देकर उन्हे जैनी बना कर महाजन वशका विस्तार किया और उन लोगोमें अनेक नये गोत्रोकी स्थापना की । इन सब गोत्रोका यतिजीने जो इतिहास दिया है और जिसे प्रामाणिक तथा प्रत्यन्त खोजके बाद लिखा हुआ इतिहास प्रकट किया है उसमे से कुछ गोत्र इतिहासका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
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१ कुकुडचोपडा प्रादि गोत्र - जिनवल्लभसूरि (वि०स०११५२) ने मडोरके राजा 'नानुदे' पडिहारके पुत्र धवलचद्रके गलितकुष्ठको कुकडी गाय घीको मंत्रित करके तीन दिन चुपडवाने द्वारा नीरोग
१ यह पुस्तक वि० स० १६६७ मे बम्बई मे प्रकाशित हुई है ।
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गोत्र- स्थिति और सगोत्र विवाह
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किया । इससे राजाने कुटुम्ब सहित जैनधर्म ग्रहण किया और सूरिजीने उसका महाजन वश तथा 'कुकडचोपडा' गोत्र स्थापित किया । मंत्री भी धर्म ग्रहण किया और उसका गोत्र 'गरणधर चोपडा' नियत किया गया । कुकडचोपडा गोत्रकी बादको चार शाखाएँ हुईं जिनमें से एक 'कोठारी' शाखा भी है जो इस वशके एक 'ठाकरसी' नामक व्यक्तिसे प्रारम्भ हुई। ठाकरसीको राव चुडेने अपना कोठारी नियत किया था तमीसे ठाकरसीकी सतानवाले 'कोठारी' कहलाने लगे ।
२ धाडीवाल मोत्र - डीडो नामक एक खीची राजपूत धाडा मारता था । उसको वि० स० ११५५ मे जिनवल्लभसूरिने प्रतिबोध देकर उसका महाजन वंश और 'धाडीवाल' गोत्र स्थापित किया 1
३ लालाणी श्रादि गोत्र - लालसिहको जिनवल्लभसूरिने प्रतिबोध देकर उसका 'लालाखी' गोत्र स्थापित किया और उसके पाँच बेटोसे फिर वाठिया, जोरावर, विरमेचा, हरखावत, और मल्लावत गोत्र चले । इसी तरह एक 'काला' व्यक्तिकी प्रौलादवाले काला' गोत्री कहलाये ।
४ पारख गोत्र- पासूजीने एक ही रेकी परख की थी उसी दिनसे राजा द्वारा 'पारख' कहे जानेके काररण उनकी सतानके लोग पारखगोत्री कहे जाने लगे ।
५ लुमावत आदि गोत्र - 'लू' के वशज 'लूरगावत' गोत्री हुए परन्तु बादको उसके किसी वशजके युद्धसे न हटने पर उसकी सततिका गोत्र 'नाहटा' होगया । और एक दूसरे वराजको किसी नवाबने 'रायजादा' कहा। इससे उसका गोत्र 'रायजादा' प्रसिद्ध हुआ ।
६ रतनपुरा और कटारिया मोत्र - चौहान राजपूत रतनसिंहको, जिसने रतनपुर बसाया था, जिनदत्तसूरिने जैनी बनाकर उसका 'रतनपुरा' गोत्र स्थापित किया। इसके वशमें भारसिंह
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२३८ युगबीर-निबन्धावली नामका व्यक्ति अपने पेटमे कटार मारकर मर गया था। इससे उसकी संततिका गोत्र 'कटारिया' प्रसिद्ध हुआ ।
७ राँका तथा सेठिया गोत्र-काकू' नामका एक व्यक्ति बहुत दुर्बल शरीरका था इससे लोग उसे 'राँका' पुकारने लगे। उसे नगरसेठका पद मिला और इसलिये उसकी सतानका गोत्र 'राँका' तथा 'सेठिया' प्रसिद्ध हुआ।
गोत्रोकी ऐसी कृत्रिम, विचित्र और क्षणिक स्थितिके होते हुए पूर्व पूर्व गोत्रोकी दृष्टिसे सगोत्र-विवाहोका होना बहुत कुछ स्वाभाविक है । इसके सिवाय,प्राय सभी जैनजातियोमे गोद लेने अथवा दत्तकपुत्र ग्रहण करनेका रिवाज है, और दत्तकपुत्र अपने गोत्रसे भिन्न गोत्रका भी लिया जाता है । साथ ही, यह माना जाता है कि उसका गोत्र दत्तक लेनेवालेके गोत्रमे परिणत हो जाता है उसकी कोई स्वतत्र सत्ता नहीं रहती--इसीसे विवाहके अवसर पर उसके गोत्रका प्राय कोई खयाल नहीं किया जाता और यदि कही कुछ खयाल किया भी जाता है तो वह प्राय उस दत्तकपुत्रके विवाह तक ही परिमित रहता है--उसके विवाहमे ही उसका पूर्व गोत्र बचा लिया जाता है--आगे होनेवाली उसकी उत्तरोत्तर सततिमें फिर उसका कोई खयाल नही रक्खा जाता और न रक्खा जा सकता है, क्योकि एक एक वशमे न मालूम कितने दत्तक दूसरे वशो तथा गोत्रोके लिये जा चुके है उन सबका किसीको कहाँ तक स्मरण तथा खयाल हो सकता है। यदि उन पर खयाल किया जाय - विवाहोंके अवसर पर उन्हे टाला जाय-तो परस्परमे विवाहोका होना ही प्राय असभव हो जाय । इसी तरह पर स्त्रियोके गोत्र भी उनके विवाहित होने पर बदल जाते हैं और उनकी प्राय कोई स्वतत्र सत्ता नहीं रहती । यदि उनकी स्वतत्र सत्ता मानी जाय तब तो एक कुलमें कितने ही गोत्रोका समिश्रण हो जाता है और सबको बचाते हुए विवाह करना और भी ज्यादा असंभव ठहरता है । साथ ही, यह
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गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह २३६ कहना पडता है कि भिन्न भिन्न गोत्रके स्त्री-पुरुषोके सम्बधसे संकरगोत्री सतान उत्पन्न होती है और उस सकरताकी उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहनेसे किसी भी गोत्रका अपनी शुद्ध-स्थितिमे उपलब्ध होना प्राय अमभव है । गोत्रोकी इस कृत्रिमता और परिवर्तनशीलताकी कितनी ही सूचना भगवज्जिनसेनाचार्यके निम्न वाक्यसे भी मिलती है और उससे यह साफ मालूम होता है कि.जैनधर्ममे दीक्षित होने पर-जैनोपासक अथवा श्रावक बनते हुए-अजैनोके गोत्र और जाति आदिके नाम प्राय बदल जाते थे- उनके स्थानमे दूसरे समयोचित नाम रक्खे जाते थे। यथा -
जैनोपासकटाक्षा स्यात्ममय समयोचितम् । दधतो गोत्रजात्यादिनामान्तरमत परम् ॥५६॥
-आदिपुराण, ३६ वाँ पर्व ऐसी हालतमे गोत्रोकी क्या असलियत है उनकी स्थिति कितनी परिकल्पित और परिवर्तनशील है-और उन्हे विवाह शादियोंके अवसर पर कितना महत्त्व दिया जाना चाहिये इसका पाठक स्वय अनुभव कर सकते है । पहले ज़मानेमे गोत्रोको इतना महत्त्व नहीं दिया जाता था जितना कि वह आज दिया जाता है।
यहाँ पर मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि श्रीजिनसेनाचार्यके हरिवंशपुराणसे जहाँ यह पाया जाता है कि देवकी और वसुदेव दोनो यदुवंशी थे, एक कुटुम्बके थे, दोनोमे चचा-भतीजीका सम्बध था और इसलिये उनका पारस्परिक विवाह सगोत्र-विवाहका एक बहुत बड़ा प्रमाण है, वहाँ यह भी मालूम होता कि हरिवशी राजा वसु' के एक पुत्र 'वृहद्ध्वज' की सततिमे यदुवंशी राजा उग्रसेन हुआ, दूसरे पुत्र 'सुवसु' की सततिमे जरासध हुआ और जरासधकी बहन पद्मावती उग्रसेनसे व्याही गई। इससे जाहिर है कि राजा वसुके एक वश और एक गोत्र मे होनेवाले दो व्यक्तियोका परस्पर विवाह-सम्बध हुा । और इससे यह जाना जाता है कि उस
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युगबीर-निबन्धाकली -समय एक गोत्रमें विवाह होनेका रिवाज था । साथ ही, उक्त पुराणसे इस बातका भी पता चलता है कि पहले सगे भाई बहनोंकी पोलादमें जो परस्पर विवाह-सम्बन्ध हुआ करता था उसका एक कारण अथवा उद्देश्य 'गोत्रप्रीति' भी होता था। यथा -
नीलस्तस्य सुनः कन्या मान्या नीलाजनाभिधा। कुमारकन्ययोता सकथा च तयोरिति । ४|| पुत्रो मे ते यदा कन्या भविता भविता तयोः । अविवादे विवाहोऽत्र गोत्रप्रीत्यै परस्परम् ॥ ५॥
-~२३ वॉ मर्म इन पद्योमे नील और नीलाजना नामके दो सगे भाई बहनोके इस ठहरावका उल्लेख किया गया है कि 'यदि मेरे पुत्र और तुम्हारे पत्री होगी तो गोत्रमे प्रीतिकी वृद्धिके लिये उन दोनोका निर्विवाद रूपसे परस्परमे विवाह कर देना होगा।'
परन्तु आजकल गोत्र-प्रीतिकी बात तो दूर रही, एक गोत्रमे विवाह करना 'गोत्र-धात' अथवा 'गोत्रघाव' समझा जाता है । जैनियोकी कितनी ही जातियोमें तो, विवाहके अवसरपर, पिताके गोत्रके अतिरिक्त माता, माताके मामा, और पिताके मामा आदि तकके गोत्रोको भी टालनेकी फिकर की जाती है - कही चार चार और कही पाठ आठ गोत्र बचाये जाते हैं - और इसतरह पर मामाफूफीकी कन्याप्रोसे विवाह करनेके प्राचीन प्रशस्त विधानसे इनकार ही नही किया जाता बल्कि उनके गोत्रो तकमे विवाह करनेको अनुचित ठहराया जाता है। मालूम नही इस सब कल्पनाका क्या प्राधार है-वह किस सिद्धान्त पर अवलम्बित है और इन गोत्रोके बचानेसे उस सिद्धान्तकी वस्तुतः कोई रक्षा हो जाती है या कि नहीं। शायद सगोत्र-विवाहको अच्छी तरहसे टालनेके लिये ही यह सब कुछ किया जाता हो, परन्तु गोत्रको वर्तमान स्थितिमें, वास्तविक दृष्टिसे, सगोत्रविवाहका टालना कहां तक बन सकता है, इसे पाठक
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गोत्र- स्थिति और सगोत्र विवाह
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ऊपर के कथनसे भले प्रकार समझ सकते है । हो सकता है कि इस कल्पनाके मूलमे कोई प्रोढ सिद्धान्त न हो और वह पीछेसे कुछ काररगोको पाकर निरी कल्पना ही कल्पना बन गई हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमे सन्देह नही कि यह कल्पना प्राचीन कालके विचारो और उस वक्त विवाह सम्बन्धी रीति-रिवाजोसे बहुत कुछ विलक्षण तथा विभिन्न है -- इसमे निराधार खीचातानीकी बहुलता पाई जाती है - और उसके द्वारा विवाहका क्षेत्र अधिक सकीर्ण हो गया है । समझ नही आता, जब बहुत प्राचीन कालसे गोत्रो में बराबर अलटापलटी होती आई है, अनेक प्रकारसे नवीन गोत्रोकी सृष्टि होती रही है, एक पुत्र भी पिताके गोत्रको छोडकर अपनेमे नये गोत्रकी कल्पना कर सकता था और इस तरह अपने अथवा अपनी सततिके विवाह - क्षेत्र विस्तीर्ण बना सकता था तब वे सब बाते प्राज क्यो नही हो सकती--उनके होनेमे कौनसा सिद्धान्त वाधक है ? गोत्र-परिपा टीको कायम रखते हुए भी, प्राचीन पूर्वजोके अनुकरण द्वारा विवाहक्षेत्रको बहुत कुछ विस्तीर्ण बनाया जा सकता है । प्रत समाजके शुभचिंतक सहृदय विद्वानोको इस विषय पर गहरा विचार करके गोत्रकी वर्तमान समस्याको हल करना चाहिये और समाजको उसकी उन्नतिका साधक कोई योग्य तथा उचित मार्ग सुझाना चाहिये ।
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असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह 'वर्ण' के चार भेद हैं--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ये वर्ण इसी क्रमको लिये हुए हैं, और इनकी सत्ता यहाँ युगकी प्रादिसे चली आती है । इन्हे 'जाति' भी कहते है । यद्यपि जाति' नामक नामकर्मके उदयसे मनुष्यजाति एक ही है और उस मनुष्यजातिकी दृष्टि से सब मनुष्य समान हैं--मनुष्योके शरीरमे ब्राह्मणादि वर्णोकी अपेक्षा प्राकृति आदिका कोई खास भेद न होनेसे और शूद्रादिकोके द्वारा ब्राह्मणी आदिमे गर्भकी,प्रवृत्ति भी हो सकनेसे उनमे जातिकृत कोई ऐसा भेद नहीं है जैसा कि गौ और अश्वादिकमे पाया जाता है'- फिर भी वृत्ति अथवा आजीविकाके भेदसे मनुष्यजातिके उक्त चार भेद माने गये है। जैसा कि भगवज्जिनसेनके निम्न वाक्यसे सूचित होता है -
मनुष्य जातिरेकैप जातिकर्मोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहितार्दोदा चातुर्विध्यमिहाश्नुते ।। ४५ ।।
-आदिपुराण, पर्व ३८ वाँ । १ वर्णाकृस्यादिभेदाना देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् ।
ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्य गर्भाधानप्रवर्तनात् ॥४६१।। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्यारणा गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥४६२॥
- उत्तरपुराण, ७४ वा पर्व
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प्रसवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह २४३ इन चार प्रधान जातियों अथवा वर्णोमेसे ही अग्रवाल, खंडेलवाल, नादि नवीन जातियोकी सृष्टि हुई है और इसीसे उन्हें उपजातियाँ कहते हैं। उनमे भी वृत्तिकी दृष्टिसे वर्ण भेद पाया जाता है। अस्तु।
इन वर्गों में से प्रत्येक वर्णका व्यक्ति जब अपने ही वर्णकी स्त्रीसे विवाह करता है तो उसे सवर्णविवाह' और जब अपनेसे भिन्न वर्णके साथ विवाह करता है तो उसे 'असवर्णविवाह' कहते हैं। असवर्णविवाहके 'अनुलोम' और 'प्रतिलोम' ऐसे दो भेद हैं। अपनेसे नीचे वर्णवालोकी कन्यामोसे विवाह करना 'अनुलोमविवाह'
और अपनेसे ऊपरके वर्णवालोकी कन्याप्रोसे विवाह करना 'प्रतिलोमविवाह' कहलाता है । यद्यपि इन दोनों प्रकारके असवर्ण विवाहोमे अनुलोमविवाह अधिक मान्य किया गया है परन्तु फिर भी सवर्ण विवाहके साथ भारतवर्षमे दोनो ही प्रकारके असवर्णविवाहोका प्रचार रहा है और उनके विधि-विधानो अथवा उदाहरणोंसे जैन तथा जैनेतर हिन्दू साहित्य भरा हुआ है।
भगवज्जिनसेनाचार्य, प्रादिपुराणमे, अनुलोमरूपसे असवर्णविवाहका विधान करते हुए, स्पष्ट लिखते हैं -
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या स्वा ता च नैगम । वहेत्स्वा ते च राजन्य स्वा द्विजन्मा क्वचिच ताः॥ अर्थात्- शूद्रका शूद्रास्त्रीके सिवाय और किसी वर्णकी स्त्रीके साथ विवाह न होना चाहिये, वैश्य अपने वर्णकी और शूद्रवर्णकी स्त्रीसे भी विवाह कर सकता है, क्षत्रिय अपने वर्णकी और वैश्य तथा शूद्रवर्णकी स्त्रियाँ ब्याह सकता है और ब्राह्मण अपने वर्णकी तथा शेष तीन वर्षों की स्त्रियोका भी पारिणग्रहण कर सकता है।
__ श्रीसोमदेवसूरि भी, नीतिवाक्यामृतमे, ऐसा ही विधान करते हैं । यथा -
आनुलोम्येन चतुस्त्रिद्विवर्णकन्याभाजना ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशः।
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युगवीर-निबन्धावली अर्थात् - अनुलोमविवाहकी रीतिसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य क्रमश चार, तीन और दो वर्णोकी कन्याओंसे विवाह करनेके अधिकारी हैं। ___ इन दोनो उल्लेखोसे स्पष्ट है कि जैनशास्त्रोमे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यके लिये प्रसवर्णविवाह ही नहीं किन्तु शूद्रा तकसे विवाह कर लेना भी उचित ठहराया है । हिन्दुप्रोकी मनुस्मृतिमे भी प्राय ऐसा ही विधान पाया जाता है । यथा -
शव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विश स्मृते । ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मन ।।
-० ३, श्लो० १३ वाँ यह श्लोक आदिपुराणके उक्त श्लोकसे बहुत कुछ मिलताजुलता है और इसमे प्रत्येक वर्णके मनुष्योके लिये भार्यानो (विवाहित स्त्रियो। का जो विधान किया गया है वह वही है जो आदिपुराणके उक्त श्लोकमे पाया जाता है। अर्थात् शूद्रकी शूद्रा, वैश्यकी वेश्या
और शूद्रा, क्षत्रियकी क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा, और ब्राह्मणकी ब्राह्मणी, क्षत्रिय, वैश्या और शूद्रा, ऐसे अनुलोम-क्रमसे भार्याएँ मानी गई है।
मनुस्मृतिके ६ वे अध्यायमे दो श्लोक निम्न प्रकारसे भी पाये जाते हैं -
अक्षमाला वसिष्ठेन सयुक्ताऽधमयोनिजा। शारङ्गी मन्दपालेन जगामाभ्यर्हणीयताम् ।।२३।। एताश्चान्याश्व लोकेऽस्मिन्नपकृष्टप्रसूतय ।
उत्कर्ष योषित प्राप्ता स्वै स्वैर्भत गुणैः शुभैः ॥२४॥ इन श्लोकोमे यह बतलाया गया है कि- 'अधम-योनिसे उत्पन्न हुई - निकृष्ट (अछूत) जातिकी - अक्षमाला नामकी स्त्री वसिष्ठ ऋषिसे और शारङ्गी नामकी स्त्री मन्दपाल ऋषिके साथ विवाहित होने पर पूज्यताको प्राप्त हुई । इनके सिवाय और भी दूसरी कितनी
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' असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह २४५ ही हीन जातियोकी स्त्रियाँ उच्च जातियोंके पुरुषोके साथ विवाहित होने पर- अपने अपने भर्तारके शुभ गुणोके द्वारा इस लोकमे उत्कर्षको प्राप्त हुई हैं।" और उन दूसरी स्त्रियोके उदाहरणमे टीकाकार कुल्लूक भट्टजीने 'अन्याश्च सत्यवत्यादयो' इत्यादि रूपसे 'सत्यवती' के नामका भी उल्लेख किया है। यह 'सत्यवती,' हिन्दू शास्त्रोके अनुसार, एक धीवरकी- केवयं अथवा अन्त्यजकी-कन्या थी। इसकी कुमारावस्थामे परागर ऋषिने इससे भोग किया और उससे व्यासजी उत्पन्न हुए जो 'कानीन' कहलाते हैं। बादको यह भीष्मके पिता राजा शान्तनुसे व्याही गई और इस विवाहसे 'विचित्रवीर्य' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे राजगद्दी मिली और जिसका विवाह राजा काशीराजकी पुत्रियोसे हमा। विचित्रवीर्यके मरने पर उसकी विधवा स्त्रियोंसे व्यासजीने, अपनी माता सत्यवतीकी अनुमतिसे, भोग किया और पाण्डु तथा धृतराष्ट्र नामके पुत्र पैदा किये, जिनसे पाण्डवो आदिकी उत्पत्ति हई।
इस तरह पर हिन्दूशास्त्रोमे हीन-जातिकी अथवा शूद्रा स्त्रियोसे विवाहके कितने ही उदाहरण पाये जाते हैं और उनकी सततिसे अच्छे अच्छे पुरुषो तथा वशोका उद्भव होना भी माना गया है। और जैनशास्त्रोसे म्लेच्छ, भील तथा वेश्या-पुत्रियों जैसे हीनजातिके विवाहोके उदाहरण विवाहक्षेत्र-प्रकाशके 'ग्लेच्छोसे विवाह' आदि प्रकरणोमे दिये गये हैं। इन सब उल्लेखोसे प्राचीनकालमे अनुलोमरूपसे असवर्ण विवाहोका होना स्पष्ट पाया जाता है।
अब प्रतिलोमविवाहको भी लीजिये । धर्मसंग्रहश्रावकाचारके हवे अधिकारमे लिखा है -
परस्पर त्रिवर्णाना विवाह पक्तिभोजनम् । कर्तव्य न च शूद्वैस्तु शुद्राणा शद्रकै सह ॥२५६।। अर्थात्-प्रथम तीन वर्णवालो (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यो) को आपसमे एक दूसरेके साथ विवाह और पंक्ति-भोजन करना चाहिये
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युगवीर-निबन्धावली किन्तु शूद्रोंके साथ नही करना चाहिये । शूद्रोंका विवाह और पंक्तिभोजन शूद्रोके साथ होना चाहिये।
इस वाक्यके द्वारा यद्यपि, श्रीजिनसेनाचार्यके उक्त कथनसे भिन्न प्रथम तीन वर्षों के लिये शूद्रोंसे विवाहका निषेध किया गया है और उसे मत-विशेष कह सकते हैं, जो बहुत पीछेका मत है'-हिन्दुप्रोके यहाँ भी इस प्रकारका मत-विशेष पाया जाता है...परन्तु यह स्पष्ट है कि इसमे तीन वर्षों के लिये परस्पर रोटी-बेटीका खास तौरपर विधान किया गया है। और इससे अनुलोमविवाहके साथ साथ प्रतिलोमविवाहका भी खासा विधान पाया जाता है। अर्थात् क्षत्रियके लिये ब्राह्मणकी और वैश्यके लिये क्षत्रिय तथा ब्राह्मण दोनोकी कन्याप्रोसे विवाहका करना उचित ठहराया गया है । जैनकथाग्रन्थोसे भी प्रतिलोमविवाहका बहुत कुछ पता चलता है, जिसके दो एक उदाहरण नीचे दिये जाते है --
(१) वसुदेवजीने, जो स्वय क्षत्रिय थे, विश्वदेव ब्राह्मणकी क्षत्रिय-स्त्रीसे उत्पन्न 'सोमश्री' नामकी कन्यासे--उसे वेदविद्यामे जीतकर-विवाह किया था। जैसा कि श्रीजिनसेनचार्यकृत हरिवशपुराण (२३ वे सर्ग) के निम्न वाक्योसे प्रकट है --
अन्वये तत्तु जातेय क्षत्रियायां सुकन्यका । सोमश्रीरिति विख्याता विश्वदेवद्विजन्मिन ||४||
। १ क्योकि धर्मसग्रहश्रावकाचार' वि० स० १५४१ मे बनकर समाप्त हुआ है और इसलिये वह जिनसेन के हरिवशपुराण से ७०१ वर्ष बादका बना हुआ है।
२ अत्रि आदि ऋषियोके इस मत-विशेषका उल्लेख मनुस्मृत्तिके निम्न वाक्यमे भी पाया जाता है :
शूद्रावेदी पतत्यतथ्यतनयस्य च। शौनकस्य सुतोत्पत्या तदपत्यतया भृगो ॥ ३-१६ ।।
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सवर्ण र अन्तर्जातीय विवाह
करालब्रह्मदत्तेन मुनिना दिव्यचक्षुषा । वेदे जेतु समादिष्टा महत सहचारिणी ॥ ५० ॥ इति श्रुत्वा तदाधीत्य सर्वान्वेदान्यदूत्तम । जिल्वा सोमश्रियं श्रीमानुपयेमे विधानत ॥ ५१ ॥ इन वाक्योंसे अनुलोम और प्रतिलोम दोनो प्रकारके विवाहोका उल्लेख मिलता है ।
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(२) श्रीकृष्णने अपने भाई गजकुमारका विवाह, क्षत्रिय राजाकी कन्या अतिरिक्त, सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्री 'सोमा 'से भी किया था, जिसका उल्लेख जिनसेनाचार्य और जिनदास ब्रह्मचारी दोनोंके हरिवशपुराणोमे पाया जाता है । यहाँ जिनदास ब्र० के हरिवंश पुराणसे एक पद्य नीचे दिया जाता है।
मनोहरतां कन्यां सोमशर्माग्रजन्मन' ।
सोमाख्या वृत्तवाश्चकी क्षत्रियाणा तथा परा ॥३४-२६|| ( ३ ) उज्जयिनीके वैश्य - पुत्र 'धन्यकुमार' का विवाह राजा श्रेणिककी पुत्री 'गुणवती' के साथ हुआ था । अपना कुल पूछा जाने पर इन्होने राजा श्रेणिकसे साफ कह दिया था कि मैं उज्जयिनीका रहनेवाला एक वैश्यपुत्र हूँ और तीर्थयात्राके लिये निकला हुआ हूँ । इस पर श्रेणिक गुणवती आदि १६ कन्याओं के साथ इनका विवाह किया था । जैसा कि रामचन्द्र-मुमुक्षु कृत 'पुण्यास्रवकथाकोश' से प्रकट है
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राजा (श्रेणिक | Sभयकुमारादिभिरर्द्धपथमाययौ राजभवन प्रवेश्य किं कुलो मवानिति पप्रच्छ । कुमारो व्रते उज्जयिन्या वैश्यात्मजो तीर्थयात्रिक । ततो नृपो गुणवत्यादिभि षोडशकन्याभिस्तस्य विवाह चकार ।। इसी पुण्यात्रवकथाकोश में 'भविष्यदत्त' नामके एक वैश्यपुत्रकी भी कथा है, जिसने हरिपुरके रिजय राजाकी पुत्री 'भविष्यानुरूपा से श्रीर हस्तिनापुरके राजा भूपालको कन्या 'स्वरूपा' से विवाह
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युग्रवीर-निबन्धावली किया था और जिसके उल्लेखोंको विस्तार-भयसे यहाँ छोडा जाता है।
(४) इसी तरह पर हिन्दूधर्मके ग्रन्थोमे भी प्रतिलोमविवाहके उदाहरण पाये जाते हैं जिसका एक नमूना 'ययाति' राजाका उशना ब्राह्मण (शुक्राचार्य) की 'देवयानी' कन्यासे विवाह है। यथा -
तेषा ययाति पचानाविजित्य वसुधामिमाम् । देवयानीमुशनम मुता भार्यामवाप म ।।
-महाभा० हरि० अ० ३० वॉ इसी विवाहसे यदु' पुत्रका होना भी माना गया है, जिससे यदुवश चला। ___ इन सब उल्लेखोसे स्पष्ट है कि प्राचीन कालमे अनुलोमरूपसे ही नही किन्तु प्रतिलोम रूपसे भी प्रसवर्ण-विवाह होते थे । दायभागके ग्रन्थोंसे भी असवर्णविवाहकी रीतिका बहुत कुछ पता चलता है-उनमे ऐसे विवाहोसे उत्पन्न होने वाली. सतिके लिये विरासतके नियम दिये हैं, जिनके उल्लेखोको भी यहाँ विस्तार-भयसे छोड़ा जाता है । अस्तु, वर्णकी 'जाति' संज्ञा होने से असवर्ण विवाहोको अन्तर्जातीय विवाह भी कहते है। जब भारतकी इन चार प्रधान जातियोमे अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे तब इन जातियोसे बनी हुई अग्रवाल, खडेलवाल, पल्लीवाल, प्रोसवाल और परवार आदि उपजातियोमे, समान वर्ण तथा धमके होते हुए भी, परस्पर विवाह न होना क्या अर्थ रखता है और उसके होनेमे कौन सा सिद्धान्त बाधक है यह कुछ समझमे नही आता : जान पडता है यह सब आपसकी खीचातानी और परस्परके ईर्षाद्वेषादिका परिणाम हैवास्तविक हानि-लाभ अथवा किसी धार्मिक सिद्धान्तसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है । वरोंकी दृष्टिको छोडकर यदि उपजातियोकी दृष्टि को ही लिया जाय तो उससे भी यह नहीं कहा जा सकता कि पहले उपजातियोमें विवाह नहीं होता था। आर्य-जातिकी अपेक्षा म्लेच्छ
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असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह २४६ जाति भिन्न है और म्लेच्छोंमें भी मील, शक, यवन, शबरादिक कितनी ही जातियाँ हैं । जब आर्योंका म्लेच्छों अथवा भीलादिकोसे विवाह होता था तो वह भी अन्तर्जातीय विवाह था और बहुत बड़ा अन्तर्जातीय विवाह था। उसके मुकाबलेमें तो यह आर्यो-आर्योंकी जातियो अथवा उपजातियोके अन्तर्जातीय-विवाह कुछ भी गणनामे गिने जानेके योग्य नहीं है । इसके सिवाय पहले भूमिगोचरियोंके साथ विद्याधरोके विवाह-सम्बधका आम दस्तूर था, और उनकी कितनी ही जातियोका वर्णन शास्त्रोमे पाया जाता है। वसुदेवजीने भी अनेक विद्याधर-कन्याप्रोसे विवाह किया था, जिसमे एक 'मदनवेगा' भी थी और वह श्रीजिनसेनाचार्यके कथनानुसार गौरिक जातिके विद्याधरकी कन्या थी। वसुदेवजी स्वय गौरिक जातिके नही थे और इसलिये गौरिक जातिकी विद्याधर-कन्यासे विवाह करके उन्होने उपजातियोकी दृष्टिसे भी स्पष्ट रूपसे अन्तर्जातीय विवाह किया था, इसमे सदेह नही है। आबूके तेजपाल-वस्तुपालवाले जैन मदिरमे एक शिलालेख सवत् १२६७ का लिखा हुआ है, जिससे मालूम होता है कि प्राग्वाट (पोरवाड) जातिके तेजपाल जैनका विवाह 'मोढ' जातिकी सुहडादेवीसे हुआ था । इस लेखका एक प्रश जो जैनमित्र ( ता० २३ अप्रैल सन १९२५ ) मे प्रकाशित हुआ, इस प्रकार है -- __ "ॐ सक्त १२६७ वर्ष वैशाख सुदी १४ गुरौ प्राग्वाट ज्ञातीन चड प्रचड प्रसादमह श्री सोमान्वये मह श्रीअसराज सुत मह श्रीतेजपालेन श्रीमत्पत्तन वास्तव्य मोढ ज्ञातीय ठ० जाल्हण सुत ठ० पाससुताया ठकुराज्ञी सतोषा कुक्षिसभूताया महश्री तेज पाल द्वितीय भार्या महश्री सुहडादेवया श्रेयाथं । " ___ यह आधुनिक उपजातियोमें, आजसे करीब ७०० वर्ष पहलेके अन्तर्जातीय-विवाहका एक नमूना है और तेजपाल नामके एक बड़े ही प्रतिष्ठित तथा धर्मात्मा पुरुष-द्वारा प्रस्तुत किया गया है । इसी
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युगवीर-निबन्धावली तरहके और भी कितने ही नमूने खोज करने पर मिल सकते है। कुछ उपजातियोमें तो अब भी अन्तर्जातीय विवाह होता रहता है। - ऐसी हालतमे इन अग्रवाल, खडेलवाल आदि जातियोमे परस्पर विवाह न होनेके लिये सिद्धान्तकी दृष्टिसे, क्या कोई युक्तियुक्त कारण प्रतीत होता है, इसका पाठक स्वय अनुभव कर सकते है । साथ ही, यह भी जान सकते है कि दो जातियोमे परस्पर विवाह सम्बध होनेसे उन जातियोका लोप होना अथवा जाति-पॉतिका मेटा जाना कैसे बन सकता है ? क्या दो भिन्न गोत्रोमे विवाह सम्बन्ध होनेसे वे मिट जाते हैं या उनका लोप हो जाता है ? यदि ऐसा कुछ नही होता लो फिर दो जातियोमे परस्पर विवाहके होनेसे उनके नाशकी आशका कैसे की जा सकती है ? अत इस प्रकारकी चिन्ता व्यर्थ है । जहाँ तक हम समझते हैं एक ही धर्म और आचारके मानने तथा पालनेवाली प्राय इन सभी उपजातियोमे परस्पर विवाहके होनेसे कोई हानि मालूम नही होती । प्रत्युत इसके, विवाह-क्षेत्रके विस्तीर्ण होनेसे योग्य सम्बन्धोंके लिये मार्ग खुलता है पारस्परिक प्रेम बढता है, योग्यताके बढानेकी ओर प्रवृत्ति होती है और मृत्युशय्यापर पडी हुई कितनी ही अल्पसख्यक जातियोकी प्रारणरक्षा भी होती है । वास्तवमे ये सब जातियाँ परिकल्पित और परिवर्तनशील है-एक अवस्थामे न कभी रही और न रहेगी-इनमे गो-अश्वादि जातियोजैसा परस्पर कोई भेद नहीं है और इसलिये अपनी जातिका अहकार करना अथवा उसे श्रेष्ठ तथा दूसरी जातिको अपनेसे हीन मानना मिथ्या है । प० आशाधरजीने भी, अपने अनगारधर्मामृत ग्रन्थ
और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें कुल-जाति-विषयक ऐसी अहकृतिको मिथ्या ठहराया है और उसे प्रात्म-पतनका हेतु तथा नीचगोत्रके बन्धका कारण बतलाया है। साथ ही, अपने इस मिथ्या ठहरानेका यह हेतु देते हुए कि 'परमार्थसे जाति-कुलकी शुद्धिका कोई निश्चय नहीं बन सकता'-यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक जाति अथवा
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असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह २५१ कुलकी रक्त-शुद्धि बिना किसी मिलावटके, अक्षरण चली आती हैउसकी पुष्टिमें नीचे लिखा वाक्य उद्धृत किया है.
अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे । कुले च कामिनी-मूले का जाति-परिकल्पना ।।
और इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया है कि 'जब ससारमे अनादिकालसे कामदेव दुनिवार चला आता है और कुलका मूल भी कामिनी है तब किसी 'जाति-कल्पना' को क्या महत्व दिया जा सकता है और उसके आधार पर किसीको क्या मद करना चाहिये। अत जाति-विषयक मद त्याज्य है। उसके कारण कमसे कम साधमियो अथवा समान प्राचारको पालनेवाली इन उपजातियोमे पारस्परिक (अन्तर्जातीय) सद्विवाहोंके लिये तो कोई रुकावट न होनी चाहिये।
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जाति-पंचायतोंका दंड-विधान आजकल हमारे बहुधा जैनी भाई अपने अनुदार विचारोके कारण ज़रा ज़रासी बात पर अपने जाति-भाइयोको, जातिसे च्युत अथवा बिरादरीसे खारिज करके उनके धार्मिक अधिकारोमे भी हस्तक्षेप करके उन्हे सन्मार्गसे पीछे हटा रहे है, और इस तरह अपनी जातीय तथा सघ-शक्तिको निबल और नि सत्व बनाकर अपने ऊपर अनेक प्रकारकी विपत्तियोको बुलानेके लिये कमर कसे हुए है। लोगोको, चारुदत्त सेठके उदाहरण पर ध्यान देते हुए उसके साथ उस वक्तकी बिरादरीके किए हुए सलूक और उसके सत्फलको देखते हुए--दडविधानके ऐसे अवसरो पर बहुत ही सोच-समझ और गहरे विचार तथा दूरदृष्टिसे काम लेना चाहिए । यदि वे पतितोका स्वय उद्धार नही कर सकते हो तो उन्हे कमसे कम पतितोके उद्धारमे बाधक तो नही बनना चाहिये और न ऐसा अवसरही देना चाहिये जिससे पतितजन और भी अधिकताके साथ पतित हो जॉय । किसी पतित भाईके उद्धारकी चिन्ता न कर उसे जातिसे खारिज कर देना और उसके धार्मिक अधिकारोको भी छीन लेना ऐसा कर्म है जिससे वह पतित भाई सुधारका अवसर न पाकर और भी ज्यादा पतित हो जाय अथवा यो कहिये कि वह डूबतेको ठोकर मारकर शीघ्र डुबो देनेके समान है। तिरस्कारसे प्राय कभी किसीका सुधार नहीं होता
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जाति-पंचायतोंका दंड-विधान २५३ उससे तिरस्कृत व्यक्ति अपने पापकार्यमें और भी दृढ हो जाता है और तिरस्कारीके प्रति उसकी ऐसी शत्रुता बढ जाती है जो जन्मजन्मान्तरोमे अनेक दुखों तथा कष्टोका कारण होती हुई दोनोके उन्नति-पथमे बाधा उपस्थित कर देती है । हाँ, सुधार होता है, प्रेम उपकार और सद्व्यवहारसे । यदि चारुदत्तके कुटुम्बीजन अपने इन गुरगो और उदार-परिणतिके कारण, वसन्तसेनाको चारुदत्तके पीछे अपने यहाँ आश्रय न देते बल्कि यह कहकर दुतकार देते कि 'इस पापिनीने हमारे चारुदत्तका सर्वनाश किया है, इसकी सूरत भी नही देखनी चाहिये और न इसे अपने द्वार पर खडे ही होने देना चाहिये तो बहत सभव था कि वह निराश्रित-दशामे मजबूर होकर अपनी माताके ही पास जाती और वेश्यावृत्तिके लिये मजबूर होती, और तब उसका वह सुन्दर श्राविकाका जीवन न बन पाता जो उन लोगोंके प्रेमपूर्वक आश्रय देने और सद्व्यवहारसे बन सका था। इमलिये सुधारके अर्थ प्रेम, उपकार और सद्व्यवहारको अपनाना चाहिये, इसकी नितान्त आवश्यकता है । पापीसे पापीका भी सुधार हो सकता है, परन्तु सुधारक होना चाहिये। ऐसा कोई भी पुरुष नही है जो स्वभावसे ही 'अयोग्य' हो परन्तु उसे योग्यताकी ओर लगानेवाला 'योजक' होना चाहिये, उसीका मिलना कठिन है। नीतिकारोने कहा है -
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ । जो जाति अपने किसी अपराधी व्यक्तिको जातिसे खारिज करती है और इस तरह उसके व्यक्तित्वके प्रति भारी घृणा और तिरस्कारके भाव प्रदर्शित करती है, समझना चाहिये कि वह स्वय उसका सुधार करनेके लिये असमर्थहै,अयोग्य है और उसमे योजक-शक्ति नहीं है साथही,इस कृतिके द्वारा वह सर्वसाधारणमें अपनी अयोग्यता और अशक्तिकी घोषणा कर रही है - इतना ही नहीं, बल्कि अपनी स्वार्थसाधुताको भी प्रगट कर रही है । ऐसी अयोग्य और असमर्थ जातिका,
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युगबीर-निबन्धावली जो अपनेको थाम भी नहीं सकती,क्रमश. पतन होना कुछ भी अस्वा. भाविक नहीं है । पापीका सुधार वही करसकता है जो पापीके व्यक्तित्वसे घृणा नहीं करता बल्कि पापसे घृणा करता है। पापीसे घृणा करनेवाला पापीके पास नहीं फटकता, वह सदेव उससे दूर रहता है और उन दोनोके बीच मीलोकी गहरी खाई पड़ जाती है। इससे वह पापीका कभी भी कुछ सुधार या उपकार नही कर सकता। प्रत्युत इसके, जो पापसे घृणा करता है वह सवैद्यकी तरह हमेशा पापीके (रोगीके) निकट होता है और बराबर उसके पाप (रोग)को दूर करने का यत्न करता रहता है। यही दोनोमे भारी अन्तर है। आजकल अधिकाश जन पापसे तो घृणा नही करते परन्तु पापीसे घृणाका भाव ज़रूर दिखलाते हैं, अथवा घृणा करते है। इसीसे ससारमे पापकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है और उसकी शान्ति होनेमे नहीं पाती। बहधा जाति-बिरादरियो अथवा पचायतियोकी प्राय ऐसी नीति पाई जाती है कि वे अपने जाति-भाइयोको पापकर्मसे तो नहीं रोकती और न उनके मार्गमे कोई अर्गला ही उपस्थित करती हैं, बल्कि यह कहती हैं कि 'तुम सिंगल-इकहरा पाप मत करो,बल्कि डबल-दोहरा पाप करो, डबल पाप करनेसे तुम्हे कोई दड नहीं मिलेगा, सिगल पाप करने पर तुम जातिसे खारिज हो जानोगे। अर्थात् वे अपने व्यवहारसे उन्हे यह शिक्षा दे रही है कि 'तुम चाहे जितना बडा पाप करो, हम तुम्हे पाप करनेसे नहीं रोकती, परन्तु पाप करके यह कहो कि हमने नहीं किया,पापको छिपाकर करो और उसे छिपानेके लिये जितना भी मायाचार तथा असत्य-भाषणादि दूसरा पाप करना पडे उसकी तुम्हे छुट्टी है, तुम खुशीसे व्यभिचार कर सकते हो, परन्तु वह स्थूलरूपमे किसी पर जाहिर न हो, भले ही इस कामके लिये रोटी बनानेवालीके रूपमे किसी स्त्रीको रखलो, परन्तु इससे अपना अनुचित सम्बन्ध मत ज़ाहिर होने दो और यदि तुम्हारे फेल (कर्म)से किसी विधवाको गर्भ रह जाय तो
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जाति-पंचायतोंका दंड-विधान ___ २५५ खुशीसे उसकी भ्रूण-हत्या कर डालो, अथवा बालक प्रसव कराकर उसे कही जगल आदिमे डाल आनो या मार डालो, परन्तु खुले रूपमें जाति-बिरादरीके सामने यह बात न आने दो कि तुमने उस विधवाके साथ सम्बन्ध किया है इसीमे तुम्हारी खैर है-मुक्ति है
और नहीं तो जातिसे खारिज कर दिए जानोगे । जाति-विरादरियो अथवा पचायतियोकी ऐसी नीति और व्यवहारके कारण ही आज कल भारतवर्षका और उसमे भी उच्च कहलानेवाली जातियोका बहुत ही ज्यादा नैतिक पतन हो रहा है । ऐसी हालतमे पापियोका सुधार और पतितोंका उद्धार कौन करे,यह एक बड़ी कठिन समस्या उपस्थित है।
एक बात और भी नोट किए जाने योग्य है और वह यह कि यदि कोई मनुष्य पापकर्म करके पतित होता है तो उसके लिए इस बातकी खास जरूरत रहती है कि वह अपने पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये अधिक धर्म करे, उसे ज्यादह धर्मकी ओर लगाया जाय और अधिक धर्म करनेका मौका दिया जाय, परन्तु आजकल कुछ जैन जातियो और जैन पचायतोकी ऐसी उल्टी रीति पाई जाती है कि वे ऐसे लोगोको धर्म करनेसे रोकते है-उन्हे जिनन्दिरोमें जाने नही देते अथवा वीतराग भगवानकी पूजा-प्रक्षाल नहीं करने देते, और भी कितनी ही आपत्तियाँ उनके धार्मिक अधिकारोपर खडी कर देते है। समझमे नही आता यह कैसी पापोसे घृणा और धर्मसे प्रीति, अथवा पतितोके उद्धारकी इच्छा है ।। और किसी बिरादरी या पचायतको किसीके धामिक अधिकारोमें हस्तक्षेप करनेका क्या अधिकार है ?
जैनियोमें अविरत-सम्यग्दृष्टिका भी एक दर्जा (चतुर्थ गुणस्थान) है । और अविरतसम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं जो इन्द्रियोके विषयो तथा त्रस-स्थावर जीवोकी हिंसासे विरक्त नही होता-अथवा यो कहिये कि इन्द्रियसयम और प्राणिसयम नामक दोनो संयमोंमेंसे किसी
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युगवीर - निबन्धावली
भी संयमका धारक नही होता, परन्तु जिनेन्द्र भगवानके वचनोमे श्रद्धा ज़रूर रखता है'। ऐसे लोग भी जब जैनी होते हैं और सिद्धान्तत जैनमन्दिरोमे जाने तथा जिनपूजनादि करनेके अधिकारी हैं तब एक श्रावकसे जो जेनधर्मका श्रद्धानी है, चारित्रमोहनीय कर्मके तीव्र - उदयवश यदि कोई अपराध बन जाता है तो उसकी हालत अविरत - सम्यग्दृष्टिसे और ज्यादह क्या ख़राब हो जाती है, जिसके काररण उसे मन्दिरमे जाने प्रादिसे रोका जाता है । जान पडता है कि इस प्रकारके दs - विधान केवल नासमझी और पारस्परिक कषायभावोंसे सम्बन्ध रखते हैं । अन्यथा, जैनधर्ममे तो सम्यग्दर्शनसे युक्त ' ( सम्यग्दृष्टि ) चाण्डाल के पुत्रको भी देव' कहा है- आराध्य बतलाया है। और उसकी दशा उस प्रगारके सदृश प्रतिपादन की है जो बाह्यमे भस्मसे प्राच्छादित होनेपर भी प्रतरगमे तेज तथा प्रकाशको लिए हुए है और इसलिये कदापि उपेक्षरणीय नही होता' । इससे बहुत प्राचीन समयमे, जब जैनियोका हृदय सच्ची धर्मभावनासे प्रेरित होकर उदार था और जैनधर्मकी उदार ( अनेकान्तात्मक ) छत्रछायाके नीचे सभी लोग एकत्रित थे, मातग ( चाण्डाल) भी जैन मन्दिरोमे जाया करते थे और भगवानका दर्शन-पूजन करके अपना
१ गोइदियेसु विरदो रगो जीवे थावरे तसे वापि । जो सहइ जित्त सम्माहट्टी श्रविदो सो || २६ ॥ - गोम्मटसार
२ जिन पूजा के कौन कौन अधिकारी हैं, इसका विस्तृत और प्रामाणिक कथन लेखककी लिखी हुई 'जिनपूजनाऽधिकार- मोमासा' से जानना चाहिये ।
३. सम्यग्दर्शन -सम्पन्नमपि मातगदेहजम् । देवा देव विदुर्भस्म गूढागारान्त रोजसम् ॥
- रत्नकरडे, स्वामिममन्तभद्र
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जाति-पंचायतोंका दंड विधान
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जन्म सफल किया करते थे । इस विषयका अच्छा उल्लेख श्रीजिनसेनाचार्य के हरिवशपुराण ( सर्ग २३ ) मे पाया जाता है और वह इस प्रकार है।
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"स्त्रीका' खेचरा याता सिद्धकूट - जिनालयम् । एकदा वदितुं सोपि शौरिर्मदनवेगया ॥ २ ॥ कृत्वा जिनमः खेटा प्रवन्ध प्रतिमागृहम् । तस्थु स्तभानमाश्रित्य बहुवेषा यथायथम् || ३ || विद्य द्वेगोपि गौरीणां विद्यानां स्तम्भमाश्रित' । कृत पूजा स्थित श्रीमान्स्व निकायपरिष्कृत ॥ ४ ॥ पष्टया वसुदेवेन ततो मदनवेगया । विद्याधरनिकायास्ते यथास्वमिति कीर्तिता ॥ ५ ॥” "अमी विद्याधरा ह्यार्या समासेन समीरिता । मातगानामपि स्वामिन्निकायान् शृणु वच्मि ते ॥ १४ ॥ नीलाम्दचयश्यामा नीलाम्बरवरस्रज' | श्रमी मातगनामानो मातगन्तभ-सगता ॥ १५ ॥ श्मशानास्थिकृतोत्तंसा भस्म रेणु - विधूसरा । श्मशाननिलयास्त्वेते स्मशानस्तममाश्रिता ।। १६ ।। नीलवैडूर्यवर्णानि धारयन्त्यंवराणि ये । पाडुरस्तभमेत्यामी स्थिता. पाडुव खेचरा. ॥ १७ ॥ कृष्णाऽजिनधरास्त्वेते कृष्णचर्माम्बरखजः । कानीलस्तभमध्येत्य स्थिता कालश्वपानि ॥ १८ ॥
पिंगलैर्मूर्ध्वजैयुक्तास्तप्तका चनभूषणा ।
श्वपाकीना च विद्यानां श्रिता स्तभ श्वपाकिन ॥ १६ ॥ पत्रपर शुकच्छन्न-विचित्र मुकुट-स्रज' | पार्वतेया इति ख्याता पार्वतस्तंभमाश्रिता ॥ २० ॥ वंशीपत्रकृतोत्तंसा मर्वतु कुसुमस्रज' । वशस्तमाश्रिताश्चैते खेदा वंशालया मता ॥ २१ ॥
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युगवीर-निबन्धावली महाभुजगशोभांकसंदृष्टवरभूषणा । वृक्षमूलमहास्तंभमाश्रिता वार्तमूलका ॥ २२॥ स्ववेषकृतसंचारा स्वचिन्हकृतभूषणा । समासेन समाख्याता निकाया खचरोद्गताः ॥२३॥ इति भार्योपदेशेन ज्ञातविद्याधरान्तर ।
शोरियतो निज स्थान खेचराश्च यथायथम ।। २४॥" इन पद्योका अनुवाद प० गजाधरलाजीने अपने भाषा हरिवशपुराण'मे निम्नप्रकार दिया है - - "एक दिन समस्त विद्याधर अपनी अपनी स्त्रियोके साथ सिद्धकूट चैत्यालयकी वन्दनार्थ गये । कुमार (वसुदेव) भी प्रियतमा मदनवेगाके साथ चल दिये ॥२॥ सिद्धक्कूटपर जाकर चित्र-विचित्र वेषोके धारण करनेवाले विद्याधरोने सानन्द भगवानकी पूजा की, चैत्यालयको नमस्कार किया एव अपने अपने स्तभोका सहारा लेकर जूदेजुदे स्थानोपर बैठ गये । कुमारके श्वसुर विद्य द्वेगने भी अपनी जातिके गौरिक निकायके विद्याधरोके साथ भले प्रकार भगवानकी पूजा की और अपनी गौरी विद्याप्रोके स्तभका सहारा लेकर बेठ गए । कुमारको विद्याधरोकी जातिके जाननेकी उत्कठा हुई, इसलिये उन्होने उनके विषयमे प्रियतमा मदनवेगासे पूछा और मदनवेगा यथायोग्य विद्याधरोकी जातियोका इस प्रकार वर्णन करने लगी-" ___ "प्रभो । ये जितने विद्याधर है वे सब आर्यजातिके विद्याधर हैं । अब मै मातगजातिके विद्याधरोको बतलाती हूँ आप ध्यानपूर्वक सुने।" - "नीलमेघके समान श्याम नीली माला धारण किये, मातगस्तभ के सहारे बैठे हुए ये मातगजातिके विद्याधर है ॥ १४-१५ ।। मुर्दोकी हड्डियोके भूषणोसे भूषित, भस्म ( राख ) की रेणुप्रोसे मटमैले
१. देखो, सन् १९१६ का छपा संस्करण पृष्ठ २८४, २८५ ।
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जाति-पंचायतोका दंड-विधान और श्मशान (स्तभ) के सहारे बैठे हुए ये श्मशान-जातिके विद्याधर है ॥१६॥ वैडूर्यमणिके समान नीले नीले वस्त्रोको धारण किए पांडुरस्तभके सहारे बैठे हुए ये पाडुकजातिके विद्याधर हैं ॥१७॥ काले काले मृगचर्मोको प्रोढे, काले चमडेके वस्त्र और मालानोको धारे कालस्तभका आश्रय लेकर बैठे हुए ये कालश्वापाकी जातिके विद्याधर है ।।१८।। पीले वर्णके केशोसे भूषित, तप्तस्वर्णके भूषणोंके धारक श्वपाकविद्याओके स्तभके सहारे बैठनेवाले ये श्वपाकजातिके विद्याधर है ।।१६।। वृक्षोके पत्तोके समान हरे वस्त्रोको धारण करनेवाले, भाति भातिके मुकुट और मालाप्रोके धारक पर्वतस्तभका सहारा लेकर बैठे हुए ये पावतेयजातिके विद्याधर हैं।॥२०॥ जिनके भूषण बासके पत्तोके बने हुए हैं, जो सब ऋतुप्रोके फूलोकी मालाएं पहिने हुए हैं और वशस्तभके सहारे बैठे हुए हैं वे वशालयजातिके विद्याधर हैं ॥२१॥ महासर्पके चिन्होसे युक्त उत्तमोत्तम भूषणोको धारण करनेवाले वृक्षमूल नामक विशाल स्तभके सहारे बैठे हए ये वाक्षमूलकजातिके विद्याधर हैं ।।२२।। इस प्रकार रमणी मदनवेगाद्वारा अपने अपने वेष और चिन्ह-युक्त भूषणोसे विद्याधरोका भेद जानकर कुमार अति प्रसन्न हुए और उसके साथ अपने स्थान चले पाए, एव अन्यविद्याधर भी अपने अपने स्थान चले गए।"
इस उल्लेखपरसे इतना ही स्पष्ट मालूम नहीं होता कि मातग जातियोके चाडाल लोग भी जैन मन्दिरोमे जाते और पूजन करते थे, बल्कि यह भी मालूम होता है कि श्मशानभूमिकी हड्डियोके आभूषण पहने हए तथा मृगछाल अोढे, चमडेके वस्त्र पहिने और चमड़ेकी मालाएँ हाथमे लिये हुए भी जैनन्दिरोमे जा सकते थे।
१ यहाँ किसीको यह समझने की भूल न करना चाहिये कि लेखक आजकल ऐसी अपवित्र दशामे मन्दिरोमे जानेकी प्रवृत्ति चलाना चाहता है।
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युगवीर-निबन्धावली
और न केवल जा ही सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार पूजाकरनेके बाद उनके वहाँ बैठनेके लिये स्थान भी नियत था, जिससे उनका जैन मन्दिरमे जानेका और ज्यादा नियत अधिकार पाया जाता है' । जान पडता है उस समय सिद्धकूट - जिनालय मे प्रतिमागृहके सामने एक बहुत बडा विशाल मंडप होगा और उसमें स्तभोके विभागसे सभी श्रार्य-अनार्य जातियोके लोगोके बैठनेके लिये जुदा जुदा स्थान नियत कर रक्खे होगे। आजकल जैनियोमें उक्त सिद्धकूट - जिनालय के ढंगका, उसकी नीतिका अनुसरण करनेवाला, एक भी जैन मन्दिर नही है । लोगोने बहुधा जैन मन्दिरोको देवसम्पत्ति न समझकर अपनी घरू सम्पत्ति समझ रक्खा है, उन्हे अपनी ही चहल-पहल तथा ग्रामोद-प्रमोदादिके एक प्रकारके साधन बना रखा है। वे प्राय उन महोदार्य सम्पन्न लोक - पिता वीतराग भगवान के मन्दिर नही जान पडते, जिनके समवसरणमे पशु तक भी जाकर बैठते थे। और न वहाँ, मूर्तिको छोडकर, उन पूज्य पिताके वैराग्य, प्रौदार्य तथा साम्यभावादि गुणोका कही कोई आदर्श ही नजर आता है। इसीसे वे लोग उनमे चाहे जिस जेनीको श्राने देते
१ श्री जिनसेनाचार्य ने ६ वी शताब्दी के वातावरण के अनुसार भी ऐसे लोगोका जैनमन्दिरमे जाना आदि आपत्तिके योग्य नहीं ठहराया और न उससे मंदिर अपवित्र हो जानेको ही सूचित किया। इससे क्या यह न समझ लिया जाय कि उन्होने ऐसी प्रवृतिका अभिनन्दन किया है अथवा उसे बुरा नही समझा ?.
२ चादनपुर श्रीमहावीरजी मन्दिरमे तो वर्षभरमे दो एक दिन के लिये यह हवा आ जाती है कि सभी ऊँच-नीच जातियोक लोग बिना किसी रुकावटक अपने प्राकृत वे षमे - जूते पहने और चमडे - के ढोल आदि चीजे लिए हुए वहाँ चले जाते है, और अपनी भक्तिके अनुसार दर्शन पूजन तथा परिक्रमण कर वापिस आते है ।
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जाति-पंचायतोंका दंड-विधान २६१ हैं और चाहे जिसको नही । कई ऐसे जैन मन्दिर भी देखनेमें पाए हैं जिनमे ऊनी वस्त्र पहिने हुए जैनियोको भी घुसने नहीं दिया जाता। इस अनुदारता और कृत्रिम धर्मभावनाका भी कही कुछ ठिकाना है। ऐसे सब लोगोको खूब याद रखना चाहिये कि दूसरोके धर्म-साधनमे विध्न करना, बाधक होना, उनका मन्दिर जाना बन्द करके उन्हे देव-दर्शनादिसे विमुख रखना और इस तरह पर उनकी प्रात्मोन्नतिमे रुकावट डालना बहुत बडा भारी पाप है। अजनासुन्दरीने अपने पूर्व जन्ममे थोडे ही कालके लिये जिनप्रतिमाको छिपाकर अपनी सौतके दर्शन-पूजनमे अन्तराय डाला था, जिसका परिणाम यहाँ तक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममे २२ वर्ष तक पतिका दु सह वियोग सहना पड़ा और अनेक सकट तथा प्रापदायोका सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीरविषेणाचार्य-कृत पद्मपुराणके देखनेसे मालूम हो सकता है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने अपने 'रयणसार' ग्रन्थमे यह स्पष्ट बतलाया है कि 'दूसरोके पूजन और दान-कार्यमे अन्तराय (विघ्न) करनेसे जन्म-जन्मान्तरमे क्षय, कुष्ट, शूल, रक्तविकार, भगदर जलोदर, नेत्रपीडा शिरोवेदना आदि रोग तथा शीत-उष्णके आताप और कुयोनियोमे परिभ्रमण आदि अनेक दु खोकी प्राप्ति होती है । यथा -
खय-कुट्टसूलमूलो लोयभगदरजलोदरक्खिसिरो। सीदुरह बह्मराई पूजादाणतराय-कम्मफल ।। ३३ ॥
इसलिये जो कोई जाति-बिरादरी अथवा पचायत किसी जैनीको जैनमन्दिरमे न जाने अथवा जिनपूजादि धर्म कार्योसे वचित रखनेका दड देती है वह अपने अधिकारका अतिक्रमण और उल्लघन ही नही करती, बल्कि घोर पापका अनुष्ठान करके स्वय अपराधिनी बनती है। ऐसी जाति-बिरादरियोके पचोकी निरकुशताके विरूद्ध
आवाज उठनेकी ज़रूरत है और उसका वातावरण ऐसे ही लेखोंके द्वारा पैदा किया जा सकता है। आजकल जैन पचायतोने 'जाति
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२६२ युगवीर-निबन्धावली बहिष्कार' नामके तीक्ष्ण हथियारको जो एक खिलौनेकी तरह अपने हाथमें ले रक्खा है और बिना उसका प्रयोग जाने तथा अपने बलादिक और देश-कालकी स्थितिको पहचाने जहां तहाँ यद्वा तद्वा रूपमे उसका व्यवहार किया जाता है वह धर्म और समाजके लिये बडाही भयकर तथा हानिकारक है । इस विषयमे श्रीसोमदेवसूरि अपने 'यशास्तिलक' ग्रन्थ (शक स०८८१) मे लिखते हैं -
नवे सदिग्ध निर्वाहै विदग्धाद्गणवर्धनम् । एकदोषकृते त्याज्य प्राप्ततत्त्व क्थं नर ।। यत समयकार्यार्थी नाना-पचजनाश्रय । अत सबोध्य यो यत्र योग्यस्त तत्र योजयेत् ।। उपेक्षाया तु जायेत तत्वाद्दूरतगे नर । तनस्तस्य भवो दीर्घ समयोपि च हीयते ।।
इन पद्योका प्राशय इस प्रकार है - ‘ऐसे ऐसे नवीन मनुष्योसे अपनी जातिकी समूह-वृद्धि करनी चाहिये जो सदिग्धनिर्वाह है-अर्थात् जिनके विषयमे यह सन्देह है कि वे जातिके आचार-विचारका यथेष्ट पालन कर सकेगे।(और जब यह बात है तब) किसी एक दोषके कारण कोई विद्वान जातिसे बहि ष्कारके योग्य कैसे हो सकता है ? → कि सिद्धान्ताचार-विषयक धर्मकार्योंका प्रयोजन नाना पचजनोके आश्रित है-उनके सहयोगसे सिद्ध होता है-अत समझाकर जो जिस कामके योग्य हो उसको उसमें लगाना चाहिये-जातिसे पृथक न करना चाहिये । यदि किसी दोषके कारण एक व्यक्तिकी-खासकर विद्वानकी - उपेक्षा कीजाती है-उसे जातिमे रखनेकी पर्वाह न करके जातिसे पृथक किया जाता है- तो इस उपेक्षासे वह मनुष्य तत्त्वसे बहुत दूर जा पडता है। तत्त्वसे दूर जा पडनेके कारण उसका ससार बढ जाता है और धर्मकी भी क्षति होती है--समाजके साथ साथ धर्मको भी भारीहानि उठानी पड़ती है, उसका यथेष्ट प्रचार और पालन नहीं हो पाता।'
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जाति-पंचायतोंका दंड-विधाब आचार्यमहोदयने अपने इन वाक्यो-द्वारा जैन जातियो और जैन पंचायतोको जो गहरा परामर्श दिया है और जो दूरकी बात सुझाई है वह सभीके ध्यान देने और मनन करनेके योग्य है । जब जब इस प्रकारके सदुपदेशो और सत्परामर्शों पर ध्यान दिया गया है तब तब जैन समाजका उत्थान होकर उसकी हालत कुछसे कुछ होती रही है. इसमे अच्छे अच्छे राजा भी हुए, मुनि भी हुए और जैनियोने अपनी लौकिक तथा पारलौकिक उन्नतिमे यथेष्ट प्रगति की, साथ ही जैनधर्मका भी अच्छा अभ्युत्थान हुआ । परन्तु जबसे उन उपदेशो तथा परामर्शोंकी उपेक्षा की गई तभीसे जैनसमाजका पतन हो रहा है और आज उसकी इतनी पतितावस्था हो गई है कि उसके अभ्युदय और समृद्धिकी प्राय: सभी बाते स्वप्न-जैसी मालूम होती हैं, और यदि कुछ पुगतत्त्वज्ञो अथवा ऐतिहासिक विद्वानो-द्वारा थोडासा प्रकाश न डाला जाता तो उन पर एकाएक विश्वास भी होना कठिन था । ऐसी हालतमे. अब ज़रूरत है कि जैनियोकी प्रत्येक जातिमे ऐसे वीर पुरुष पैदा हों अथवा खडे हो जो बडे ही प्रेमके साथ युक्तिपूर्वक जातिके पचो तथा मुखियाप्रोको उनके कर्तव्यका ज्ञान कराएँ और उनकी समाज-हित-विरोधिनी निरकुश प्रवृत्तिको नियत्रित करनेके लिये जी-जानसे प्रयत्न करे। ऐसा होने पर ही समाजका पतन रुक सकेगा और उसमे फिरसे वही स्वास्थ्यप्रद, जीवनदाता और समृद्धिकारक पवन बह सकेगा जिसका बहना अब बन्द हो रहा है और उसके कारण समाजका सास घुट रहा है । आशा है समाजके सभी शुभचिन्तक अपने वर्तमान कत्र्तव्यको समझेगे और बडी दृढताके साथ उसके पालनमें दत्त चित होगे।
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हम दुखी क्यों हैं ?
दुखभरी हालत
इसमे कोई सन्देह नहीं और न किसीको कुछ आपत्ति है कि आज कल हमे सुख नहीं, आराम नही और चैन नही। हमारी बेचेनी, परेशानी और घबराहट दिन पर दिन बढती जाती है, तरह तरहकी चिन्तामोने हमको घेर रक्खा है, रात दिन हम इसी उधेडबुनमे रहते हैं कि किसी तरह हमको सुख मिले, हम सुखकी नीद सोएँ, हमारे दुख-दर्द दूर हो, हमारी गर्दनसे चिन्तामोका भार उतरे
और हमारी प्रात्माको शान्तिकी प्राप्ति हो । इसी सुख-शान्तिकी खोजमे-उसकी प्राप्तिके लिये- हम देशविदेशोमे मारे मारे फिरते हैं,जगल बियावानोको खाक छानते हैं, पर्वत-पहाडोसे टक्कर लेते है, नदी-नालो और समुन्द्रो तकको लाँघने या उनकी छाती पर मूग दलनेकी कोशिश करते हैं। इसके सिवाय, दिन रात तेलीके बैलकी तरह घरके धन्धोकी पूतिके पीछे ही चक्कर लगाते रहते है, उन्हीके जालमे फँसे रहते हैं, उनका कभी प्रोड (अन्त) नहीं आता, उनकी पूर्ति और भूठी मान-बडाईके लिये धनकी चिन्ता हरदम सिर पर सवार रहती है, हरवक्त यही रट लगी रहती है कि 'हाय टका । हाय टका | टका कैसे पैदा हो | क्या करे कहाँ जाँय और कैसे करे ! किसी भी तरह क्यो न हो, टका पैदा होना चाहिये, तभी काम
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हम दुखी क्यो है ?
२६५ चलेगा, तभी दुख मिटेगा। और इसलिये हर जायज नाजायज तरीकेसे-उचिताऽनुचितरूपसे हम रुपया पैदा करनेके पीछे पडे हुए हैं, उसीकी एक धुन और उसीका एक खब्त (पागलपन) हमारे सिरपर सवार है और उसकी सम्प्राप्तिमे इतना सलग्न रहना होता है कि हमे अपने तन-बदनकी भी पूरी सुध नहीं रहती। फिर इन बातोको तो कौन सोचे और कौन उनपर गहरा विचार करे कि 'हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, क्यो आए है, कैसे आए हैं, कहाँ जायेंगे, कब जायेंगे कैसे जायँगे, हमारा प्रात्मीय कर्तव्य क्या है, उसे पूरा करनेके लिये हमने कोई कार्रवाई की या नही,और हमे इस मनुष्य-शरीरको पाकर ससारमे क्या क्या काम करने चाह्येि' । इन सब बातोको सोचने और विवारनेका हमारे पास समय ही नही है । हमको इतनी फुर्सत कहाँ जो इस प्रकारके विचारोंके लिए भी कुछ वक्त दे सके या ऐसे विचारोके साहित्यको ही पढ-सुन सके ? हमारी इधर प्रवृत्ति ही नहीं होती । गरज यह कि अपने सुखकी सामग्रीको एकत्र करने अथवा जुटानेके लिये हमे रात-दिन खडी अँगुलियो नाचना पड़ता है और पूर्णरूपसे उसीमे सलग्न रहना होता है। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी-धन-दौलत और भूठी इज्ज़त पैदा करनेके यत्नमे इतना अधिक तत्परता होते हुए और उसे बहुत कुछ प्राप्त करते हए भी हमे सूख नहीं मिलता शान्ति नसीब नहीं होती। चारो तरफ जिधर भी प्रॉख उठाकर देखते हैं दुख ही दुख नज़र प्राता है-हमारे स्वजन परिजन, इष्ट मित्र सगे सम्बन्धी, यार दोस्त, अडोसी-पडोसी, नगर और देहातके प्रात्र सभी लोग दुख-दर्दसे पीडित है, हर ओरसे दुखदर्दभरी आवाजे ही सुनाई पड़ती हैं। अपना ही दुख दूर नहीं होता तब दूसरोके दुखको मालूम करने और दूर करनेकी फिक्र कौन करे ? कौन किसी पर दया अथबा रहम करे ? कौन किसीको मदद करे ? और कैसे कोई किसीके दुखदर्दमे काम आवे ? हर एकको अपनी अपनी पड़ी है, अपने ही मतलबसे
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युगवीर-निबन्धावली मतलब है, अपनी स्वार्थसिद्धि के सामने दूसरोकी जान, माल, इज्जत
और आबरू (प्रतिष्ठा) कोई चीज नही-उसका कुछ भी मूल्य नही है । इस तरह और ऐसी हालतमे हमारा दुख घटनेकी जगह उलटा दिनपर दिन बढ रहा है और हमे चैन या सुख-शाति नहीं मिलती।
धार्मिक पतन
अब प्रश्न यह पैदा होता है कि ऐसा क्यो हो रहा है ? हमारा दुख क्यो बढ रहा है ? इसका सीधा सादा उत्तर, यद्यपि, यह दिया जा सकता है कि हममेसे धर्म उठ गया और रहा सहा भी उठता जा रहा है उसीका यह नतीजा है कि हम दुखी हैं और हमारा दुख बढ रहा है। और इस उत्तरकी यथार्थता अथवा उपयुक्ततापर कोई आपत्ति भी नहीं की जा सकती, क्योकि धर्म सुखका कारण है और कारणसे ही कार्यकी सिद्धि होती है, इसे सबही मतमतान्तरके लोग मानते हैं । बडे बडे ऋषियो मूनियो और महात्माग्रोने धर्मको ही लोक-परलोकके सभी सुखोका कारण बतलाया है और यह प्रतिपादन किया है कि वह जीवोको ससारके दु खोसे निकालकर उत्तम सुखोमे धारण करनेवाला है। और वही अकेला एक ऐसा मित्र है जो परलोकमे भी साथ जाकर इस जीवके सुखका साधन बनता है-- उसे सुखकी सामग्री प्राप्त कराता है-उसीसे आत्माका अभ्युदय
और उत्थान होकर मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है। धर्मके स्वरूप पर विचार करनेसे भी ऐसा ही मालूम होता है-उसकी महिमा तथा शक्तिमे कुछ भी विवाद नहीं है। प्रत्युत इसके, अधर्म या पाप दुखका कारण है, हरएक जिल्लत-मुसीबतका सबब अथवा दुर्गतिविपत्तिका निदान है । प्रत हमारी मौजूदा दुखभरी हालत हमारे पापी पाचरणकी दलील है, बुरे कर्मोका नतीजा है और इस बातको जाहिर करती है कि हममें धर्मका आचरण प्राय नही रहा।
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हम दुखी क्यो हैं ?
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वास्तवमें, हम धर्म-कर्म बहुत गिर गये हैं और हमारा बहुत कुछ पतन हो चुका है। चाहे जिस आचरणको धर्मकी कसोटीपर कसिये, प्राय पीतल या मुलम्मा मालूम होता है । हमारी पूजा, भक्ति, सामायिक, व्रत, नियम, उपवास, दान, शील, तप और सयम आदिकी जो भी क्रियाएँ धर्मकं नामसे नामाकित हैं- जिनको हम 'धर्म' कहकर पुकारते हैं उनमे भी धर्म प्राय नही रहा है । वे भाव-शून्य होनेसे बकरीके गलेमें लटकते हुए थनोके समान है' । बकरी के गले के थन जिस प्रकार देखनेके लिये थन होते है - उनका आकार थनो जैसा होता है- परन्तु वे थनोका काम नही देते, उनसे दूध नही निकलता । ठीक वही हालत हमारी उक्त धार्मिक क्रियाओकी हो रही है। वे देखने - दिखानेके लिये ही धार्मिक क्रियाएँ है, परन्तु उनमे प्रारण नही जीवन नही, धर्मका भाव नही और न हमे उनका रहस्य ही मालूम है । वे प्राय एक दूसरेकी देखादेखी, रीति-रिवाजकी पाबन्दी ग्रथवा रूढिका पालन करने, धर्मात्मा कहलाने, यश कीर्ति प्राप्त करने और या किसी दूसरे ही लौकिक प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये नुमाइशी तौरपर की जाती हैं। उनके मूलमें प्राय अज्ञानभाव, लोकदिखावा, रूढिपालन, मानकषाय श्रीर दुनियासाजीका भाव भरा रहता है, यही उनकी और यही उनकी चाबी - कु जी है। उन क्रियाको सम्यकचारित्र नही कह सकते, सम्यक् चारित्रके लिये सम्यग्ज्ञानपूर्वक होना लाजिमी है और वह लौकिक प्रयोजनोसे रहित होता है । जो क्रियाएँ सम्यक्ज्ञानपूर्वक अपना आत्मीय कर्तव्य समझ कर नही की जाती, वे सब मिथ्या, झूठी अथवा नुमाइशी क्रियाएँ हैं, मिथ्याचारित्र हैं, और अन्त मे ससारके दुखोका कारण हैं। और इसलिये, धार्मिक दृष्टिसे, हमारी इन धर्मके नामसे प्रसिद्ध होनेवाली
१ भावहीनस्य पूजादि - तपो-दान-जपादिकम् । व्यर्थं दीक्षादिकं च स्यादजाकठस्तनाविव ॥
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२६८ युगवीर-निबन्धाक्लो वर्तमान क्रियानोको 'सम्यक्चारित्र' न कहकर 'यात्रिक चारित्र' अथवा जड-मशीनो-जैसा आचरणक हना चाहिये। उनसे धर्म-फलकी प्राप्ति नही हो सकती, क्योकि बिना भावके क्रियाएँ फलदायक नहीं होती। ____ इसके सिवाय, जिधर देखिये उधर ही हिंसा, झूठ, चोरी, लूटखसोट मारकाट सीनाजोरी विश्वासघात, रिश्वत-घूस, व्यभिचार, बलात्कार, विलासप्रियता विषयाशक्ति और फूटका बाजार गर्म है, छल-कपट, दभ-मायाचार, धोखा, दगा, फरेब, जालसाजी और चालबाजीका दौरदौरा है; जूना भी कुछ कम नही, और सट्टने तो लोगोका बधना-बोरिया ही इकट्टा कर रक्खा है, लोगोके दिलोमे ईर्षा, द्वेष घृणा और अदेखसकाभावकी अग्नि जल रही है, आपसके वैर-विरोध, मनमुटाव और शत्रुताके भावसे सीने स्याह अथवा हृदय काले हो रहे है, भाई भाईमे अनबन, बाप बेटेमे खिचावट, मित्रो-मित्रोमे वैमनस्य और स्त्री-पुरुषोमे कलह है, चारो ओर अन्याय और अत्याचार छाया हुआ है, लोग क्रोधके हाथोसे लाचार हैं, झूठे मानकी शानमे हैरान व परेशान है और लोभकी मात्रा तो इतनी बढी हुई है तथा बढती जाती है कि दयाधर्मके माननेवाले
और अपनेको ऊँच जाति तथा कूलका कहनेवाले भी अब अपनी प्यारी बेटियोको बेचने लगे हैं, उन्हे अपनी छोटी छोटी सुकुमार कन्यानोका हाथ बूढे बाबानोको पकडाते हुए जरा भी सकोच नही होता, जरा भी तरस या रहम नही पाता और न उनका वज्र हृदय ही ऐसा घोर पाप करते हुए धडकता या कांपता है । फिर लज्जा अथवा शरम बेचारीकी तो बात ही क्या है ? वह तो उनके पास भी नहीं फटकती । प्राय सभी जातियोमे कन्याविक्रयका व्यापार
१ यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्या ।
-कल्याणमदिर
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हम दुखी क्यों हैं ?
२६६ बढा हुआ है, खूब सौदे होते हैं. असंतोष फैल रहा है और तृष्णाकी कोई हद नही । लोग मदिर-मूर्तियो और धार्मिक संस्थानों तकका माल हजम कर जाते हैं, देवद्रव्यको खा जाने और तीर्थोंका माल उडा जानेमें उन्हे कोई संकोच नहीं होता। इधर भूठी मान-बड़ाईके लोलुपी अथवा मिथ्या प्रतिष्ठाके उपासक,विधवानोंके गर्भ गिराकर या उनके नवजात बच्चोको, प्रसव गुप्त रखनेके अभिप्रायसे, वनउपवन, कूप-बावडी नदी-सरोवर या सडास आदिमे डालकर अथवा जीता गाडकर, गर्भपात और बालहत्यादिकके अपराधोकी संख्या बढा रहे हैं । और अब तो कही कहीसे रोगटे खडे करनेवाले ऐसे दुराचार भी सुननेमे आने लगे हैं कि एक प्रतिष्ठित पुरुष अपनी स्त्रीके पेटसे लडका पैदा करनेकी धुनमे, नही नही पागलपनमे, दूसरे मनुष्यके निर्दोष बच्चेको मारकर उसके गर्म गर्म खूनसे अपनी गर्भवती स्त्रीको नहलाता और खुश होता है । अोह । कितना भयकर दृश्य है 11 कितनी सदिली अथवा हृदयकी कठोरता है ।। धर्मका, श्रद्धाका, मनुष्यताका कितना दिवाला और आत्माका कितना अधिक पतन है ।।। खुदगरजीकी भी हद हो गई | || ये सब बातें धर्मके पतन और उसकी हममे अनुपस्थितिको दिनकर-प्रकाशकी तरहसे प्रकट कर रही हैं । ऐसी हालतमे 'हममेसे धर्म उठ गया' यह कहना कुछ भी अनुचित या बेजा नहीं है।
परतु फिर यह सवाल पैदा होता है कि धर्म क्यो उठ गया ? किन कारणोसे हम उसे छोडने अथवा उसकी तरफ पीठ देनेके लिए मजबूर हो रहे हैं ? क्यो उसके धारण या पालन करनेमें हमारी प्रवृत्ति नहीं होती ? और इसलिये हमारा दु ख क्यो बढ रहा है इस प्रश्नका यह उत्तर कि 'हममेसे धर्म उठ गया और रहा सहा भी उठता जाता है' ठीक होते हुए भी पर्याप्त नही है-काफी नही है। इतने परसे ही हमारी संतुष्टि अथवा भरपाई नहीं होती हमारे ध्यानमे अपने दु खोके कारणोका नकशा पूरी तौरसे नहीं बैठता
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युगवीर-निबन्धावली
हमें स्पष्टताके साथ यह जाननेकी जरूरत है कि हमारा दुख क्यों बढ़ रहा है ? वास्तवमे जो कारण हमारे दु.खके बढनेका है वही हममेंसे धर्मक उठ जानेका है । एकके मालूम होनेपर दूसरेको मालूम करनेकी जरूरत नही रहती। एक सवालके अच्छी तरहसे हल हो जाने पर दूसरा खुद-ब-खुद (स्वयमेव) हल हो जाता है, और इसलिये हमे वह खास कारण मालूम करना चाहिये जिसकी वजहसे हमारा दूख बढ रहा है या हममे से धर्म उठ गया और उठता जाता है।
आवश्यकताओंकी वृद्धि जहाँ तक मैंने इस मामलेपर गौर तथा विचार किया और उसके हर पहलू पर नज़र डाली, हमारे दु खोका प्रधान कारण सिवाय इसके और कुछ प्रतीत नही होता कि 'हमने अपनी ज़रूरियातकोआवश्यकतामोको-फिजूल बढा लिया है, वैसा करके अपनी आदत, प्रकृति और परिणतिको बिगाड़ लिया है और दिनपर दिन उनमें और वृद्धि करते चले जाते हैं । फिजूलकी जरूरियातका बढा लेना ऐसा ही है जैसा कि अपनेको जजीरोसे बाँधते जाना । एक हाथी परमे जजीरके पड जानेसे ही पराधीन हो जाता है - अपनी इच्छानसार जहाँ चाहे घूम-फिर नहीं सकता-उसको वह सुख नसीब नहीं होता जो स्वाधीनतामे मिलता था । पराधीनतामे सुख है ही नहीं। कहावत भी प्रसिद्ध है-'पराधीन सुपनेहु सुख नाही' । फिर जो लोग चारो तरफसे ज़जीरोमे जकडे हुए हो-फिजूलकी जरूरियातके बन्धनोमे बँधे हो-उनकी पराधीनताका क्या ठिकाना है ? और उन्हे यदि सुख न मिले-शॉति नसीब न हो--तो इसमे आश्चर्य तथा विस्मयकी बात ही क्या है ? व्यर्थकी जरूरियातको बढ़ा लेना वास्तवमे दु खोको निमत्रण देना ही नहीं, उन्हे मोल ले लेना है।
एक मनुष्य छह सौ रुपये मासिक वेतन ( तनख्वाह ) पाता है
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हम दुखी क्यों है ?
२७१ और दूसरा पचास रुपये मासिक । पचास रुपये पानेवाले भाईकी तरक्की (वृद्धि ) होकर सौ रुपये मासिक हो गये और छह सौ रुपये मासिक पानेवाले भाईकी तनज्जुली ( पदच्युति ) ने एकदम दो सौ रुपयेकी रक्म कम कर दी, और उनकी तनख्वाह सिर्फ चार सौ रुपये मासिक रह गई। पचास रुपये पानेवाला भाई अपनी उन्नति तथा पदवृद्धिके समाचार पाकर खुश हो रहा है, आनद मना रहा है, अगमे फूला नहीं समाता और इष्टमित्रोमे मिठाइया बाँटता है। प्रत्युत इसके, छह सौ रुपये माहवारका तनख्वाहदार ( वेतनभोगी ) अपनी अवनति अथवा पदच्युतिकी खबर पाकर रो रहा है, झीक रहा है, दुखितचित्त और शोकातुर हुमा सोच रहा है कि 'मुझसे कौनसी खता अथवा चूक हई ? क्या अपराध बन गया? मैंने कौनसा बिगाड किया, जिससे मेरा दर्जा घटा दिया गया? किसने मेरी चुगली की ? किसने आफीसर (हाकिम) के सामने मेरी झूठी-सच्ची बाते जाहिर की ? हाय ! मेरी तकदीर फूट गई । भाग्य उलट गया । । अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कैसे करूँ।। बडा
दुख है ||
___इन दोनो भाइयोके अन्त करणकी हालतको यदि ठीक तौरसे देखा जा सके, तो इसमे सदेह नहीं कि बड़ी तनख्वाहवाला दुखी
और छोटी तनख्वाहवाला सुखी मिलेगा। परतु यह क्यो ? रुपयेकी कमी-बेशी ही यदि सुख दुखका कारण हो, तो बडी तनख्वाहवाले को, जिसकी तनख्वाह घट जानेपर भी दूसरे तरक्की पानेवाले भाईसे चौगुनी रहती है, ज्यादा सुखी होना चाहिये-उसके सुखकी मात्रा दूसरेसे चौगुनी नहीं तो तिगुनी या दुगुनी तो ज़रूर होनी चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता, वह दूसरेके बराबर भी अपनेको सुखी अनुभव नहीं करता। इसकी वजह है और वह यह है कि, पचास रुपये पाने वाले भाईने तो अपनी ज़रूरियातको पचास रुपयेकी बना रक्खा था-पचास रुपयेके भीतरही अपने सम्पूर्ण खर्चीको परिमित
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युगवीर-निबन्धावली कर रक्खा था-वेतन आते ही आटा, दाल,घी, तेल, नमक, मिरच, मसाला, कपडा लत्ता, जेवर और रिज़र्व फड वगैरह सब विभागोमें वह उसका बटवारा कर देता था। अब बेतनके बढ जानेपर एकदम पचास रुपयेको बचत होने लगी और स्वच प्राय ज्योका त्यो रहा, इससे उसे आनद ही आनद मालूम होने लगा। परन्तु छह सौ रुपये वाले भाईकी हालत दूसरी थी-उसकी ज़रूरियात पचास रुपये या सौ दोसौ रुपयेकी नही थी बल्कि छह सौ रुपये मासिकसे भी वढी हुई थी। उसने अपनी जाहिरी हैसियत अथवा स्थितिको छह सौ रुपये से भी अधिककी बना रक्खा था-नौकर चाकर, घोडा गाडी, बाग बगीचे, फूल फुलवाडी, कमरेकी शोभा सजावट वगैरह सब तरहका साज़ सामान था, रोजाना हजामत बनती थी, तीसरे दिन पोशाक बदली जाती थी, हर साल घरभरके लिये अच्छे नये नये कपडे सिलते थे और दो चार बार पहनकर ही रद्दी कर दिये जाते थे, मेहमानोकी सेवा-शुश्रूषा भी खूब दिल खोलकर होती थी, घरमे मेवा, मिठाई, फल, फूल और नाना प्रकारके भोजनोकी हरदम रेल पेल अथवा चहल पहल रहती थी, स्त्रियाँ देवागनामो जैसे वस्त्राभूषणोसे भूषित नजर आती थी, उनके जेवरोकी कोई सख्या अथवा सीमा न थी, और बच्चे मखमल, कीमख्वाब, प्रतलस तथा रेशमसे घिरे हए और जरी तथा सलमासितारेके कामोंसे जडे हुए मालूम होते थे, नाटक थियेटरका भी शौक चलता था, प्राय दो चार मित्रोको साथ लेकर और उनका भी खर्च स्वय उठाकर ही वह उन तमाशोको देखने जाया करता था, बाकी विवाह-शादीके खर्चोंका तो कोई परिमारण अथवा हिसाब ही नहीं था- उनके लिये तो अकसर कर्ज भी ले लिया जाता था और साथ ही पूर्वजोकी पैदा की हुई सम्पत्ति (जायदाद) का भी सफाया बोल दिया जाता था । अब एकदम दोसौ रुपये मासिककी आमदनी कम हो जानेसे उसको फिक्र पड़ी और चिन्ताने आधेरा । वह सोचने लगा कि 'किसी नौकरको हटा दूं, गाडी टमटम
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हम दुखी क्यो हैं ?
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वगैरह में से किसीको अलग कर दूँ, कमरेकी शोभा-सजावट और अपने मनोविनोद दिल बहलाव ) का सामान कम करदू, महमानोकी सेवासुश्रूषामे आनाकानी करने लगू या उसमे कमी कर दूँ, स्त्रियो तथा बच्चा पहनावा बदल या उमे कुछ घटिया करदू, इष्ट मित्रोसे आँखे चुराने लगू, नाटक थियेटरमे जाना या वहाँ खास सीटोका रिजर्व कराना बन्द करदूँ, खाने-पीने की सामग्री जुटानेमे किफायत और अहतियातसे काम लेने लगू औौर या विवाह - शादी वगैरहके खचमे कोई आदर्श कमी करदूँ | गरज, जिस चीज्रको कम करने, घटाने या बदलने वगैरह की बात वह सोचता है उसीसे उसके दिलको धक्का लगता है, चोट पहुँचती है हैसियत अथवा पोजीशन के बिगडने और शान बट्टा लग जानेका खयाली भूत सामने आकर खडा हो जाता है, वह जिस ठाट-बाट, साज-सामान और आन बान से अब तक रहता आया है, उसीमे रहना चाहता है, अभ्यासके कारण वे सब बाते उसकी आदत और प्रकृतिमे दाखिल हो गई है, उनमे जरा भी कमी या तबदीली उसे बहुत ही अखरती है और इस तरह वह दुख ही दुख महसूस (अनुभव) करता है । दूसरे शब्दोमे यो कहना चाहिये कि अधिक धन के नशेमे जिन जरूारेयातको फिजूल बढा लिया था वे ही अब उसके गले का हार बनी हुई है, उन्हें न तो छोडे सरता है और न पूरा किये बनता है, दोनो पाटोके बीच जान प्रजब
जब अथवा सकटापन्न है । और इससे साफ जाहिर है कि जरूरियातको फिजूल बढा लेना अपने हाथो खुद दु खोको मोल ले लेना है - जो जितना ज्यादा अपनी जरूरियातको बढाता है वह उतना ही ज्यादा अपनेको दुखोके जालमे फँमाता है ।
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युगवीर-निबन्धावली
दुःख-सुख-विवेक
यहाँपर इतना और भी समझ लेना चाहिये कि बढी हुई जरूरियातके पूरा न होनेमे ही दुख नहीं है, बल्कि उनको पूरा करनेमे भी नाना प्रकारके कष्ट उठाने पडते है-- उनकी सामग्रीके जुटानेका फिक्र, जुटाई अथवा एकत्र की हुई सामग्रीकी रक्षाकी चिन्ता, रक्षित सामग्रीके खोए जाने या नष्ट हो जानेका भय और फिर उसके जूदा हो जाने, गिरने पडने, फूटने, गलने-सडने, बिगडने, मैली-कुचैली, बेत्राव और बेकार हो जानेपर दिलकी बेचैनी, परेशानी, अफसोस रज खेद और शोक, इष्ट सामग्रीके साथ अनिष्टका सयोग हो जानेपर चित्तकी व्याकूलता, घबराहट और उसके वियोगके लिये तडप,
और साथही इन सबके ससर्ग अथवा सम्बधसे नई नई चीजोंके मिलने मिलाने या दूसरे साज-सामानके जोडनेकी इच्छा और तृष्णा । ये सब भी दुखकी ही पर्याये है उसीकी जुदागाना शकले अथवा विभिन्न अवस्थाएँ है। दु खके विरोधी सुखका लक्षण ही निराकुलता है और वह चिन्ता, भय, शोक, खेद, अफसोस, रज बेचैनी, परेशानी,
आकुलता घबराहट, इच्छा, तृष्णा, बेताबी और तडप वगैरह दुखकी पर्यायोसे रहित होता है । जहाँ ये नहीं, वहाँ दुख नहीं और जहाँ ये मौजूद है वहाँ मुखका नाम नहीं । दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि यदि द खकी ये पर्याय--शकलें और हालते-बनी हई है, तो कोई मनुष्य बाहरके बहुतसे ठाट-बाट, साज-सामान और वैभवके होते भी सुखी नहीं हो सकता।
उदाहरण के लिये लीजिये, एक ऐसे मनुष्य को जिसे १०५ दर्जेसे भी ऊपरका बुखार ( ज्वर ) है और इसलिये उसकी बेचैनी
और परेशानी बढी हुई है, उसको रेशमकी डोरीसे बुने हुए मखमल बिछे हुए सोने चाँदीके पलग पर लिटा देने और ऊपरसे कीमख्वाब का जरीदोज चंदोवा बाध देनेसे क्या उसके उस दु ख में कोई कमी हो
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हम दुखी क्यों हैं ?
२७५ सकती है ? कदापि नहीं । एक दूसरे आदमीके पास खूब धन-दौलत, जमीन, जायदाद, जेवर कपडे, महल मकान हाट दुकान, बागबागीचे, नौकर-चाकर, घोडा, गाडी रथ, बहल,सुशीला स्त्री, आज्ञाकारी बच्चे और प्रेमी भाई-बहन वगैरह सब कुछ विभूति मौजूद है । आप कहेगे कि वह बडा सुखी है । परन्तु उसके शरीरमे एक असाध्य रोग होगया है, जो बहत कुछ उपचार करनेपर भी दूर नहीं हो सका। उसकी वजहसे वह बहुत ही हैरान और परेशान है, उसको किसी भी चीजमे पानद मालूम नहीं होता और न किसीका बोल सुहाता है, वह अलग एक चारपाई पर पड़ा रहता है मूगकी दालका पानी भी उसको हजम नहीं होता-नही पचता- दूसरोको नानाप्रकारके भोजन और तरह तरहकी चीजे खाते पीते देखकर वह अरता है, अपने भाग्यको कोसता है, और जब उसे ससारसे अपने जल्दी उठ जाने और उस सपूर्ण विभूतिके वियोगका खयाल प्रा जाता है, तो उसकी वेदना और तडपका ठिकाना नही रहता, वह शोकके सागरमे डूब जाता है, और तब उसकी वह सारी विभूति मिलकर भी उसे उस दु खसे निकालनेमे जरा भी समर्थ नहीं होती।
अब एक तीसरे ऐसे शख्शको लीजिये जिसके पास उपयुक्त सपूर्ण विभूतिके साथ साथ शारीरिक स्वास्थ्यकी- तन्दुरुस्तीकीभी खास सम्पत्ति मौजूद है और जो खूब हट्टा-कट्टा हृष्ट-पुष्ट तथा बलवान् और ताकतवर बना हुआ है । उसे तो आप जरूर कहेंगे कि वह पूरा सुखिया है। परन्तु उसके पीछे फौजदारीका एक ज़बरदस्त मुकद्दमा लगा हया है, जिसकी वजहसे उसकी जान अजाबमे अथवा सकटापन्न है। वह रात-दिन उसीके फिक्रमे डूबा रहता है। चलतेफिरते खाते-पीते और सोते-जागते उसीकी एक चिता और उसीकी एक धुन उसके सिरपर सवार है, उसकी मौजूदगीमे अपना सब ठाटबाट और साज-सामान उसे फीका फीका नजर आता है । रसोईमे छत्तीस प्रकारके भोजन तय्यार हैं और स्त्री बडी विनय-भक्तिके साथ
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युगवीर-निबन्धावली लघुपुत्र-सहित खडी हुई प्रेमभरे शब्दोमे प्रार्थना कर रही है कि 'हे नाथ कुछ थोडासा भोजन तो जरूर कर लीजिये। परन्तु उसे इस
सम्पूर्ण आनन्दकी सामग्रीमे कुछ भी आनन्द और रसका अनुभव नही ' होता, वह बड़ी उपेक्षा, बेरुखी अथवा झ झलाहटके साथ उत्तर देता
है कि तुझे भोजनकी पड़ी है यहाँ जानको बन रही है, दस बज गये, रेलका वक्त हो गया, मुकद्दमेकी पेशी पर जाना है ।।' इससे साफ जाहिर है कि चिन्ता आदिसे अभिभूत होनेपर--फिक्रात वगैरहके गालिब आने पर-बाहरकी बहुतसी सुन्दर विभूति और उत्तमसे उत्तम सामग्री भी मनुष्यको सुखी नही बना सकती-वह प्राय दु खोसे ही घिरा रहता है। अनेक कवियोने तो चिन्ताको चिताके समान बतलाया है। दोनोमे भेद भी क्या है ? एक नुक्त या बिन्दीका ही तो भेद है। उर्द मे लिखिये तो चितापर चितासे एक नुक्ता ( ) ज्यादा पाएगा और हिन्दीमे लिखनेसे एक बिदी अधिक लगानी होगी। परन्तु इस नुक्त या बिन्दीने गजब ढा दिया । चिता तो मुर्दको जलाती है परन्तु चिता जीवितको भस्म कर देती है ।। जिस शरीर रूपी बनमे यह चिता-ज्वाला दावानलकी तरहसे खेल जाती है, उसमे प्रकटरूपसे धुपा नजर न आते हुए भी भीतर ही भीतर धुआँधार रहता है, कॉचकी भट्टोसी जलती रहती है और उससे शरीरका रक्त-मास सब जल जाता है, सिर्फ हाडोका पजर ही पजर चमडेसे लिपटा हुआ शेष रह जाता है । ऐसी हालतमे जीवनका रहना कठिन है, यदि कुछ दिन रहा भी तो उस जीनेको जीना नहीं कह सकते । इसीसे ऐसे लोगोके जीवनपर आश्चर्य प्रकट करते हुए कविराय गिरधरजी लिखते हैं
चिंता ज्वाल शरीर बन दावानल लग जाय ।
१ चिंता चिता समाख्याता बिन्दुमात्रविशेषत । सजीवं दहते चिता निर्जीव दहते चिता ॥
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हम दुखी क्यो हैं? प्रगट धुओं नहिं देखिये उर अन्तर धुधवाय ।। उर अन्तर धुधवाय जले ज्यों काँचकी भट्टी। रक्त-मांस जर जाय रहे पिंजर को टट्टी।। कहें गिरधर कविराय सुनो रे मेरे मिता।
वे नर कैसे जियें जाहि तन व्यापी चिंता ॥ नि सन्देह, चिता ऐसी ही बुरी चीज है, वह मनुष्यको खा जाती है और उसकी जननी जरूरियातकी अफजूनी-आवश्यकताप्रोकी वृद्धि-है। जितनी जितनी जरूरियात बढती जातो हैं उतनी उतनी चिंताएँ पैदा होती जाती है। इसीसे भगवान महावीर और दूसरे धर्माचार्योंने गृहस्थोके लिये जरूरियातको घटानेकी-परिग्रहको कम करके सतोष धारण करनेकी बात कही है, परिग्रहको पाप लिखा है और अधिक प्रारभी तथा अधिक परिग्रह को नरकका अधिकारी अथवा महमान बतलाया है। प्रत सुख प्राप्तिके लिये ज़रूरियातको कम करना कितना जरूरी और लाजिमी है, इसे बुद्धिमान पुरुष स्वय समझ सकते हैं।
वास्तवमे सुख कोई ऐसी वस्तु नही है जो कहीपर बिकती हो, किसी दुकान, हाट या बाजारसे किसी भी कीमतपर खरीदी जा सके, किसीकी खुशामद, सिफारिश या प्रेरणासे मिल सके या बदला करके लाई जा सके, बल्कि वह आत्माका निज गुरण है-प्रात्मासे बाहर उसकी कही भी सत्ता नहीं है। ससारी जीव प्रात्माको भूल रहे हैं और इसलिये अपनी आत्मामे सुखकी जो अनुपम तथा अपार निधि गडी हुई है, उसे नही पहचानते और न उसकी प्राप्तिके लिये कोई यथेष्ट उपाय ही करते हैं । वे अपनी आत्मासे भिन्न दूसरे पदार्थोंमे सुखकी कल्पना किये हुए हैं, उनको ही अपने सुखका एक आधार मान बैठे है-उन्हे ही सब कुछ समझ रहे हैं - और इसलिये उन्हीके पीछे भटकते और उन्हीकी प्राप्तिके लिये रात दिन हैरान-परेशान और दत्तावधान हुए मारे मारे फिरते हैं। परन्तु उनको यह खबर नही कि
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युगवीर-निबन्धावली पर-पदार्थ तीन कालमें भी अपना नहीं हो सकता और न जड कमी चेतन बन सकता है, उसे अपना समझकर सुखकी कल्पना कर लेना भूल है, उसके सयोगके साथ वियोग लगा हुआ है-जिसका कभी संयोग होता है उसका एक न एक दिन वियोग जरूर होता है-चाहे वह हमसे पहले बिछुड जाय और या हम ही उससे पहले चलते बने, गरज वियोग जरूर होता है । और जिसके सयोगमे सुख मान लिया जाता है अथवा यो कहिये कि माना हा होता है उसके वियोगमे नियमसे दुख उठाना पडता है। इसलिये ऐसे सब ही परपदार्थ प्रतको दुखके कारण होते हैं । बीचमे भी किसी चिन्ता आदिके उपस्थित हो जानेपर उनका सारा सुख हवा हो जाता अथवा काफूर बन जाता है। अपनी ही खास स्त्रीकी बाबत यदि यह मालूम हो जाय कि वह अब बदचलन या दु शीला हो गई है-गु-त व्यभिचार करती हैतो उसके साथ मिलने जुलनेका आनन्द जाता रहे, एक मित्रकी बाबत यदि यह पता चल जाय कि वह परोक्षरूपसे अपनेको हानि पहुँचाता है तो मित्रका सारा मजा किरकिरा हो जाय, और यदि एक अच्छे प्यारे सुन्दर तथा सूडोल बने हए मकानकी बाबत बादको यह बात दिलमे बैठ जाय कि वह मनहूस है-अशुभ अथवा अमागलिक हैतो वह उसी वक्तसे अपनेको काटने लगे और उसमे रहना भारी पड़ जाय । दूसरे चेतन-अचेतन पदार्थोका भी प्राय ऐसा ही हाल है।
इसी तरह उनको यह भी खबर नही कि बाह्य पदार्थोंमे जो सुखका अनुभव होता है वह खास उन पदार्थोंका अथवा उनसे उत्पन्न होनेवाला सुख नहीं, बल्कि उनकी प्राप्तिके लिये हमारे अन्तःकरणमे जो एक प्रकारको तडप, वेदना या तृष्णा हो रही थी उसकी यत्किचित् शान्तिका सुख है । यदि वैसी कोई वेदना, तडप या तृष्णा न हो, तो उन पदार्थोके सम्बन्धसे कुछ भी सुखका अनुभव नही किया जा सकता, और इसीलिये वह सुखकी अनुभूति प्राय' वेदनाके अनुकूल होती है-वेदनाको कमी-बेशी आदिकी अवस्था
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हम दुखी क्यो हैं ?
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अनुसार बाह्य पदार्थोंके सम्बन्ध पर आधार रखती है। यदि ऐसा न माना जाय, बल्कि उन बाह्य पदार्थोंको ही स्वय सुखका मूलकारण समझ लिया जाय तो चार रोटी खानेवालेको आठ रोटा खा लेनेसे डबल सुख होना चाहिये और जाडोके लिहाफ वगैरह भारी गर्म कपडोको सख्त गर्मी के दिनोमे प्रोढने पहननेसे जाडो-जैसा आनन्द मिलना चाहिये । परन्तु मामला इससे बिल्कुल उलटा है-आठ रोटी खा लेनेसे उस आदमीकी जान पर ना बने, पेट फूल जाय, दर्द या कै । वमन) होने लगे अथवा चूर्ण-गोलीकी जरूरत खडी हो जाय, र जाडोके वे भारी भारी गर्म कपडे गर्मियोमे पहननेप्रोढने से चित्त एकदम घबरा उठे और सिरमे चक्कर आने लगे । इससे स्पष्ट है कि बाह्य पदार्थोंमे स्वय कोई सुख नही रक्खा है और न वेदना के पैदा होते रहने और उसका इलाज या उपचार करते रहने ही कोई सुख है, बल्कि उसके पैदा न होने और इलाज तथा उपचारकी जरूरत न पड़नेमे ही सुख है ।
वास्तवमे यदि ध्यान से देखा जाय तो पर-पदार्थोंमे सुख है ही नही, उनमे सुखका प्राधार एक मात्र हमारी कल्पना है और उस कल्पित सुखको सुख नही कह सकते, वह सुखाभास है - सुखसा दिखलाई देता है - मृगतृष्णा है । और इसलिये पर - पदार्थोंमे सुख कल्पित करनेवालोकी हालत ठीक उन लोगो-जैसी है जो एक पर्वतकी दो चोटियोंके मध्य स्थित सरोवरमे किसी बहुमूल्य हारके पीछे गोते लगाते और लगवाते हुए बहुत कुछ थक गये थे, उनको पानीमे वह हार दिखलाई तो जरूर पडता था लेकिन पकडनेपर इधर से उधर उचक जाता था— हाथमे नही आता था, और इसलिये वे बहुत ही हैरान तथा परेशान थे कि मामला क्या है ? इतनेमे एक जानकार शख्सने आकर उन्हे बतलाया था कि 'हार उस सरोवरमे नही है, और इसलिये कोटि वर्ष- पर्यन्त बराबर गोते लगाते रहने पर भी तुम उसे नहीं पा सकते, वह इस सरोवरके बहुत
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युगवीर-निबन्धावली ऊपर पर्वतकी दोनो चोटियोंके अग्रभागसे बंधे हुए एक तारके बीचमे लटक रहा है और अपने प्रतिबिम्बसे जलको प्रतिबिम्बित कर रहा है। यदि तुम उसे लेना चाहते हो, तो ऊपर चढकर वहाँ तक पहुँचनेकी कोशिश करो, तभी तुम उसे पा सकोगे, अन्यथा नहीं-- तुम्हारी यह गोताखोरी अथवा जलावगाहनकी क्रिया व्यर्थ है।'
इसमे सन्देह नही कि जो चीज जहाँ मौजूद ही नहीं वह वहाँ पर कितनी भी द ढ खोज क्यो न की जाय कदापि नही मिल सकती । कोई चीज ढूढने अथवा तलाश करनेपर वहीसे मिला करती है जहाँपर वह मौजूद होती है । जहाँ उसका अस्तित्व ही नही वहाँसे वह कैसे मिल सकती है ? सूख चू कि आत्मासे बाहर दूसरे पदर्थोमे नही है इसलिये उन पदार्थोंमे उसकी तलाश फिजूल है, उसे अपनी आत्मामे ही खोजना चाहिये और यह मालूम करना चाहिये कि वह कैसे कैसे कर्मपटलोके नीचे दबा हुआ है, हमारी केसी परिगतिरूपी मिट्टी उसके ऊपर आई हुई है और वह कैसे हठाई जा सकती है। परन्तु हम अपनी आत्माकी सुध भूले हुए है, उसकी सुखकी निधिसे बिल्कुल ही अपरिचित्त और अनभिज्ञ है और इसलिये सखकी तलाश प्रात्मासे बाहर दूसरे पदार्थोंमे - विजातीय वस्तुप्रोमें--करते है। सुखकी प्राप्तिके लिये उन्हीके पीछे पड़े हुए है-- यहाँसे भी सुख मिलेगा, यह भी हमको सुख दे सकेगा इसी प्रकारके विचारोसे बंधे हुए हम उन्ही पदार्थों का सग्रह बढाते जाते है, उन्हीकी ज़रूरियातको अपने जीवनके साथ चिपटाते रहते हैं और इस तरह खुद ही अपनेको दु खोके जालमे फँसाते और दुखी होते है, यह अजब तमाशा है ।।
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हम दुखी क्यो हैं ?
२८१ अपनी भूल एक तोता नलिनी पर आकर बैठता है और उसकी नलीके घूम जाने से उलटा होकर उसे पकडे हए लटका रहता है,उड़नेकी खुली शक्ति होते हुए भी नही उडता, इसका क्या कारण है ? इसका कारण यही है कि वह उस वक्त अपनी आकाश-गतिको भूल जाता है उडनेकी शक्तिका उसे ध्यान नही रहता और यह समझने लगता है कि मुझे इस नली ने पकड रक्खा है । यद्यपि उस नलीने उसे जरा भी नहीं पकड़ा. उसने खुद ही अपने पजोसे उसे दबा रक्खा है, वह चाहे तो अपने पजोंको खोलकर उस नलीको छोड़ सकता है और खुशीके साथ आकाशमे उड सकता है। परन्तु अपनी भूल और नासमझीकी वजहसे वह वैसा न करके उलटा लटका रहता है और फिर शिकारीके हाथमे पडकर तरह तरहके दुख तथा कष्ट उठाता है। ठीक ऐसी ही हालत हमारी है, हम अपने प्रात्माके स्वरूप और उसके सुखस्वभावको भूले हुए हैं और यह गलत समझे हुए हैं कि इन परिग्रहो अथवा ज़रूरियातने, जिनको हमने ही बढाया और हमने ही अपने पीछे लगाया है, हमारा पिड पकड रक्खा है और वे अब हमको छोडते नहीं हैं । इसीसे उस तोतेकी तरह हम भी नाना प्रकारके बन्धनोमे पडकर दुखोमे अपना प्रात्म-समर्पण कर रहे है-अपनेको दु खोकी भेट चढा रहे है। हमारी इस दशाका ध्यानमे रखते हुए ही कविवर प० दौलतरामजीने यह वाक्य कहा है -
अपनी सुधि भूल आप, श्राप दुख उपायौ।
ज्यों शुक नभ चाल विसरि, नलिनी लटकायौ । यह वाक्य हम पर बिल्कुल चरितार्थ होता है । यदि अब भी हम अपनी भूलको सुधारले और अपने सुख-दुखके साधनों तथा कारणोको ठीक तौरपर समझ जाये तो हम आज भी अपनी ज़रूरि
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युगवीर-निबन्धावलो यातको घटाकर, परिग्रहको कम करके और रीतिरिवाजको बदलकर बहुत कुछ सुखी हो सकते है । यह सब हमारे ही हाथका खेल है और उसे करनेके लिये हम सब प्रकारसे समर्थ हैं-सिर्फ भूलका ज्ञान और उसके सुधारके लिये मनोबलकी जरूरत है।
यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हू कि बाह्य 'पदार्थों के सम्बन्धसे यदि हमे सुख मिल सकता है, तो वह तभी मिल सकता है जब कि जगतके सम्पूर्ण पदार्थ हर वक्त हमारी इच्छाके अनुसार प्रवर्ता कर - उनके सम्पूर्ण परिवर्तन अथवा अलटन-पलटन और उनकी गति-स्थितिको लिये हुए समस्त क्रियाएँ हमारो मर्जी तथा रुचिके अनुकूल हुअा करे । परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योकि उन पदार्थोका परिणमन-उनमे किसी परिवर्तन अथवा क्रियापिक्रियादिका होना स्वय उनके अधीन है - उनके स्वभाव आदिके आश्रित है -हमारे अधीन नही ।
जो लोग उनको सब तरहसे अपने अधीन चाहते हैं और खाली इस प्रकारकी कामनाएँ किया करते है कि इस वक्त वर्षा हो जाय, क्योकि सख्त गर्मी पड़ रही है या हमारा खेत सूखा जा रहा है,इस समय वर्षा न होवे या बन्द हो जाय, क्योकि हम सफर ( यात्रा) मे हैं या सफरको जा रहे है, हमारे मकान टपके नही, उनमें वर्षाकी बौछार न आवे, जाडोमे ठंडी और गर्मियोमे गर्म हवा न घुसे, वे ज्योके त्यो बने रहे, टूटे-फूटे भी नहीं और न मैले-कुचैले ही हो, हमारे शरीरमे कोई रोग पैदा न हो, कोई बीमारी हमारे पास न
आए, हम खूव हृष्ट-पुष्ट, तन्दुरुस्त, बलवान और जवान बने रहे, हमारे बाल भी सफेद न होने पाएँ, हमारे कपडे जैसे तैसे उजले और नए बने रहे वे फटे भी नही और न उनपर कही कोई दाग धब्बा या खुरे आदिका निशान ही होने पावे, हमारी किसी चीज़ को नुकसान न पहुंचे, किसीका रग रूप भी न बिगडे और न कोई घिसे याघिसावे, हमको किसी भी इष्ट वस्तुका वियोग न सहना पडे, हमारे
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हम दुखी क्यों हैं ?
२८३ कुटुम्बके सब लोग तथा मित्रादिक कुशल-क्षेमसे रहें हमें उनमेंसे एक का भी दुख न देलना पडे, हमारा कोई विरोधो या शत्रु पैदा न हो, किसी अनिष्टका हमारे साथ सयोग न हो सके, हमारी पैदा की हुई इज्जत प्रतिष्ठा या बातमें किसी तरह भी फर्क न आवे-वह ज्यों की त्यो वनी रहे-और हम सब प्रकारके पानद तथा सुख भोग करते हए चिरकाल तक जीवित रहे, वगैरह वगैरह । ऐसे लोग फिजूल हैरान तथा परेशान होते है और व्यर्थ ही अपनेको दुखी बनाते है, क्योकि उन कामनारोका पूरा होना सब तरहमे उनके अधीन नहीं होता, वे जिन सुखोको चाहते है वे सब बहुत कुछ पराश्रित और पराधीन है ओर पराधीनतामें कही भी सुख नहीं है। सुखका सच्चा उपाय 'स्वाधीन-वृत्ति है । जितनी जितनी स्वाधीनता-पाजादी और खुदमुख्तारी-बढती जाती है, दूसरेकी बीचमे जरूरत या अपेक्षा नही रहती, उतनी उतनी ही हमारे सुखमे बढवारी होती जाती है, और जितनी जितनी पराधीनतागुलामी मुहताजी और बेबसी-उन्नति करती जाती है उतनीउतनी ही हमारे दु खमे वृद्धि होती जाती है । फिजूलकी जरूरियातको बढा लेनेसे पराधीनता बढती है और उससे हमारा दुख बढ जाता है। प्रत हमको, जहाँ तक बन सके, अपनी जरूरियातको बढाना नही चाहिये, बल्कि घटाना चाहिये और ऐसी तो किसी भी जरूरतका अपनेको आदी, व्यसनी या वशवर्ती न बनाना चाहिये जो फिजूल हो या जिससे वास्तवमे कोई लाभ न पहँचता हो। ऐसा होनेपर हमारा दुख घट जायगा और हमे सुख प्रासानीसे मिल सकेगा।
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एक प्रश्न यहाँ पर यह प्रश्न पैदा हो सकता है कि ज़रूरियात तो ज़रूरियात ही होती हैं उनमे फिजूलियात क्या, जिनको छोडा या घटाया जावे ? अत इसकी भी कुछ व्याख्या कर देनी जरूरी और मुनासिब मालूम होती है । यह ठीक है कि जरूरियात जरूरियात ही होती हैं परन्तु बहुतसी जरूरियात ऐसी भी होती है जो फिजूल पैदा करली जाती हैं या जिनको पूरा न करनेसे वस्तुत कोई हानि नही पहुँचती । ऐसी सब जरूरियात फिजूलियातमे दाखिल हैं और वे आसानीसे छोडी या घटाई जा सकती है । कल्पना कीजिये, एक मनुष्य क्रोधकी हालतमे अपने पेटमे छुरी या सिरमे ईंट मार कर घाव कर लेता है और फिर उस पर मरहम पट्टी करने बैठता है, घावको वह मरहम-पट्टी ज़रूरी हो सकती है,परन्तु यह ज़रूर कहना होगा कि उसने उसकी जरूरियातको फिजूल अपने आप पैदा किया है और वह आगेको वैसी कुचेष्टाम्रोसे बाज (विमुख) रह सकता है। एक आदमी बहुतसी शराब पीकर अपनी विषयवासनाको भडकाता अथवा उत्तेजित करता है और इससे उसे बेवक्त ही एक स्त्रीकी जरूरत पैदा होती है, यह जरूरत भी फिजूलकी ज़रूरत है-स्वाभाविक अथवा प्राकृतिक नही है--और उसको पूरा न करनेसे कोई खास नुकसान नहीं पहुँचता । इस तरहकी न मालूम कितनी जरूरियातको हम पैदा करते रहते है और उनको पूरा करनेमे अपनी शक्तिका व्यर्थ ही नाश तथा दुरुपयोग करते चले जाते है।
एक छोटेसे बच्चेको, जिसे भले-बुरेकी कुछ भी पहिचान अथवा तमीज़ नही है और जिसे चाहे जिस साँचेमे ढाला जा सकता है, उसके माता पिता यदि बढ़िया बढिया रेशम, कीमख्वाब, अतलस, मखमल और सुनहरी कामके वस्त्र पहनाते हैं और इस तरह उसमे शौकीनी तथा विलासिताका भाव भरते हैं, जिसकी वजहसे वह बादको साधा
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हम दुखी क्यों हैं ?
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रंग सादे वस्त्र पहनना पसंद नही करता और उसके शौक तथा हठको पूरा करनेके लिये फिर वैसे ही या उससे भी अच्छे बढिया बहुमूल्य वस्त्रोकी ज़रूरत खडी होती है तो क्या यह फ़िज़ूलकी जरूरत पैदा करना नही है ? अवश्य है । और यदि उसे पैदा न करके या पूरा न करके उस बच्चेको सादा कपडे ही पहननेको दिये जायँ तो इससे उस बच्चेकी तन्दुरुस्ती या स्वास्थ्य वगैरहको कोई नुकसान नही पहुँच सकता ।
खाना-पीना जीवित रहनेके लिये ज़रूरी जरूर है परन्तु बढिया, शौकीनी, चटपटे मसालेदार, अधिक गरिष्ठ, श्रधिक भारी देर से पचनेवाला श्रौर खूब उत्तेजक खाना-पीना, परिमारणसे अधिक खाना और हर वक्त या बेवक्त खाना उसके लिये कोई जरूरी नहीं है । ऐसे खाने-पीने तथा आटेके स्थानमे मैदेका ही अधिक व्यवहार करनेकी वजहसे यदि पेट खराब हो जाय, पाचन शक्ति जाती रहे, स्वास्थ्य बिगड जाय और हर वक्त चूर्ण गोली या दवाईके सेवनकी अथवा हकीम डाक्टर या वैद्यके पास जानेकी ज़रूरत रहने लगे, तो क्या इस व्यर्थकी जरूरतकी कभी पीठ ठोकी जा सकती है ? कदापि नही । उसे जहाँ तक बन सके शीघ्रही भोजनमे सुधार और सयमसे काम लेकर दूर कर देना चाहिये । हमारे स्वास्थ्यकी खराबीका अधिकतर आधार इस खाने-पीनेकी गडबडी, असावधानी या जिह्वाकी लोलुपता शौकीनी और सयमकी कमी पर ही है, और इससे हमारी शक्तियोका बहुत ही दुरुपयोग हो रहा है और हम अपने बहुतसे कर्तव्योकी पूर्ति से वचित रहते हैं।
पहनने-प्रोढनेका भी ऐसा ही हाल है । कपडा तन-बदनको ढकने और सर्दी-गर्मी से बचनेके लिये होता है और उसकी यह गरज बहुत सादा तरीक़ो पर अच्छी तरहसे पूरी की जा सकती है । कोई पचास साठ वर्ष पहले हमारो माताएँ और बहने अपने काते हुए सूतके कपड़े तय्यार कराती थी और वे गाढेके कपड़े घर भरके
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लिये काफी हो जाते थे । करीब चालीस पचास रुपयेकी लागतमें एक अच्छे कुटुम्बका खुशीसे पूरा पट जाता था । स्त्रियाँ अपने दावन | लहंगे प्रोढने कसू भे प्रादिके प्राकृतिक रगमे ही रंग लेती थी और प्राय वैसे ही दावन प्रोढने विवाह-शादियो में दुलहनो ( बहुप्रो ) को चढाए जाते थे । परन्तु श्राज नुमाइशका भूत या खब्त हमारे सिर पर कुछ ऐसा सवार है कि उसके पीछे हम हर साल लाखो और करोडो रुपये फिजूल खर्च कर डालते हैं, विदेशी कपडोकी चमक-दमक और रंग-ढगने हमारी आँखे खराब कर रक्खी हैं और हमे अपने पीछे पागलसा बना रखा है । कपडे की भी कोई गिनती नही और न उनकी लागतका ही कोई तखमीना, अन्दाजा अथवा परिमारण पाया जाता है। भला एक छोटेसे बेखबर बच्चेको बीस, तीस, पचास या सौ रुपयेसे भी अधिक मूल्यकी पोशाक पहना देनेसे नतीजा है, जिसको अपने तन बदनका कुछ भी होश नही, जो उस कपडेकी कीमत और कद्रको नही जानता, भटसे उसे मैली या खराब कर देता है और जिसको उसके पहननेमे कुछ भी प्रानन्दका अनुभव नही होता, बल्कि कभी कभी तो भारसा मालूम पड़ता है ? इसे ख़त नही तो और क्या वह सक्ते है ? ऐसे बच्चो के माता पिता सचमुच ही उनके माता पिता अथवा हितैषी नही किन्तु शत्रु होते है, क्योंकि वे उनमे शौकीनी तथा नुमाइशका भाव भरकर उनकी आगामी ज़रूरयातको फिजूल बढाने और उनके जीवनको भाररूप बनानेका प्रायोजन करते है - सामान जोडते अथवा बीडा बाँधते हैं। इसी तरह स्त्रियोकी पोशाक और उनके जेवरातकी हालत समझिये । उनके पीछे समाजका बेहद रुपया फिजूल खर्च होता है । जिन स्त्रियोको बोलने तककी तमीज़ नही - विवेक नही - वे भी सिर से पैर तक बहुमूल्य वस्त्रो तथा जेवरोसे लदी रहती हैं । मालूम नही, इससे उनको क्या पोष चढता है, उनकी आत्माको क्या लाभ और उनकी तन्दुरुस्तीको क्या फायदा पहुँचता है ?
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बाकी रहे विवाह-शादियोके खर्च, उनका तो कोई ठिकाना ही नही । उनके साथमे तो फिजूलियातका एक बडा अध्यायका अध्याय खुला हुआ है - रोपना, सगाई, सजोया, टोनी, चिट्ठी, टेवा, हलद,मँढा लगन, भात, जीमन-जोनार, भाजी, नौता, गाना-बजाना, नाचना, सीठना, बेल बासना, घोडीका चाव, चढत, बढियार, फेरे, संस्कार, बूर, बखेर, पत्तल, परोसा, दात, खैरात, मिलाई, दहेज, बरपट्टा, रुखसत, बिदा और गौना वगैरहकी न मालूम कितनी और कैसी कैसी रस्मे प्रदा करनी पडती हैं और उनमें कितना खर्च होता है || एक लाला साहबसे मालूम हुआ कि उनके पहले पुत्रकी शादी दुलहनके लिये दावनकी जो तीयल तैय्यार कराई गई थी उसको पाँचसौ रुपये की लागत लगती रही थी, दूसरे पुत्रकी शादी
सौ रुपये की लागत आई और अब तीसरे पुत्रके विवाहमे पन्द्रहसौ रुपये से भी अधिक लागतकी तीयल तैय्यार कराई गई है। एक दावन, प्रोढने और प्रागीको लागतका जब यह हाल है तब विवाहके कुल खर्चेका तखमीना, जिसमे ज़ेवर भी शामिल हैं, कितने हजार होगा, इसे पाठक स्वय ही समझ सकते हैं ।
अब तो टोपियोके साथ चाँदीके बर्तन वगैरह के अतिरिक्त बडा ग्रामोफोन बाजा और बर्फ बनानेकी मशीन तक भी खेल-खिलौनोंके तौर पर दी जाने लगी हैं। इससे जाहिर है कि विवाह-शादियोके खर्च दिनपर दिन बढ़ते जाते हैं और ये सब फिजूल खर्च हमारे खुद के बढाए हुए है। समझ नही आता, जब विवाहकी असली गरज और उसका खास काम बहुत थोडेसे रुपयोमें भी पूरा हो सकता है, तब उसके लिए हजारो रुपये खर्च करना कौन बुद्धिमत्ता और अक्लमंदी की बात है ? और वह फिजूलियात नही तो और क्या है ? क्या एक विवाहमे अधिक खर्च कर देनेसे घरमें एककी जगह दो बहुऍ आजायेगी या लडकीका सुहाग (सौभाग्य) कुछ बढ़ जायगा और क्या स्त्रियाँ यदि बहुमूल्य वस्त्राभूषरण न पहनकर मादा लिबासमें
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रहने लगें तो इससे उनका स्त्रीपना ही नष्ट-भ्रष्ट अथवा रद्द और अमान्य हो जायगा ? यदि ऐसा कुछ नही है तो फिर फिजूल ज्यादा खर्च करके अपनेको दीन, हीन तथा मुहताज बनाने और मुसीबतोके जाल मे फँसानेकी क्या जरूरत है ? इन विवाह-शादियोके फिजूल खर्चाने ही लडकियोको माता-पिताके लिये भारी बना दिया है और -वे अक्सर उनका मरना मनाते रहते है । यह कितने दुख और अफसोसकी बात है | !
इसी तरह की और भी मरने, जीने, मिलने, बिछुडने, उत्सव, त्यौहार, बनावट, सजावट, खेल, तमाशे, शौकीनी, विलासिता और मनोविनोद प्रादिसे सम्बन्ध रखनेवाली बहुतसी जरूरियात फिजूल है, जिनको हमने ख्वाहमख्वाह अपने पीछे लगा रक्खा है और यदि हम चाहे तो उनको खुशीसे छोड सकते या कम कर सकते हैं । इन सब फिजूलकी जरूरियातने ही हमारे दुखको बढा रक्खा है, हमारे जीवनको बहुत ही खर्चीला ( expensive ) या अधिक धन पर आधार रखनेवाला बनाकर हमको अच्छी तरहसे तबाह और बर्बाद कर रक्खा है, इन्हीकी बदौलत हमारी प्रादत और प्रकृति बिगड गई है और हम धर्म या ईश्वरके उपासक न रहकर खाली धनके उपासक बन गये है, और इन्हीके कृपाकटाक्षका यह फल है जो हमारा धर्म-कर्म सब उठ गया, हममें वे सब बुरे कर्म अथवा पापाचरण घुस गये जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, और हम अपने पूर्वजोके आदर्शसे बिल्कुल ही गिर गये हैं ।
आदर्शसे गिर जाना
हमारे पूर्वज पहले कितने सादा चालचलनके होते थे और कितना सादा जीवन व्यतीत करते थे, यह बात किसीसे भी गुप्त अथवा छिपी नही है । उनका खाना-पीना
पहनना - प्रोढना, शयन
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प्रासन और रहन सहनका सब सामान सादा तथा परिमित था, वे
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२८६ . व्याकी टीपटाक, मुमाबत अथवा लोक-विसायको पसन्द नहीं करने थे और अपनी शक्तिको व्यर्थ खोला .सन्हें अब मान होता था। इसीसे फिकात उन्हें नहीं सताते थे, प्रम-विकार या मना अधिकार जमाने नही पाते थे, और वे खूब हृष्ट-पुष्ट, नीरोग, तन्दुन रुस्त, बलवान, बहादुर, पराक्रमी, निर्भयप्रकृति, प्रसन्नविता हसमुख, उदारविचार, वचनके सच्चे, प्रणके पक्के, धर्मपर स्थिर, भोर अपने कर्तव्यका पालन करनेमे बहत कुछ सावधान तथा कटिबद्ध होते थे। उनके समयमें यदि कोई किसीसे कर्ज लेता था तो उसके लिए प्रामतौरपर किसी रुक्के. चिट्टी, प्रामेसरी नोट तमस्सुक या रजिस्टरीकी कोई जरूरत नहीं होती थी, एक अनपढ अथवा प्रशिक्षित व्यक्षिका महज कलमको छू देना या उससे कोई तिरछी बाँकी लकीरसी खीच देना भी रजिस्टरीसे ज्यादा असर रखता था; उस वकके कोने तमादी पारिज नहीं होती थी-कालकी कोई मर्यादा उन्हें प्रदेय नहीं ठहराती थी-किसीका लेकर नही भी दिया करते यह बात सिखलाई ही नही जाती थी। यदि किसीको कर्जा देते अबका अपना ऋण चुकाते नही बनता था या उसके भुगतानमे देर हो जाती थी
और इसपर साहूकार उससे यह कहता था कि भाई ! तुमसे कर्जा देते अथवा ऋण चुकाते नही बनता है, प्रत मैं हिसाब-बहीमे तुम्हारे नामको छेक हूँ, बिदिया हूँ और अपनी रकमको बट्टेखाने डालटू" तो इसको सुनकर वह कर्जदार ( ऋणी पुरुष ) कॉप जाता था और हाथ जोड़कर कहने लगता था कि 'नहीं, ऐसा कभी मत करना, जब तक मेरे दम दम मौर बदनमें बान-आण बाकी हैं। मैंने जिन ऑखो पापका कर्जा लिया है उन्ही अखिो उसे भुगताकपा कौड़ी कौड़ी प्रश करूंगा, देर जरूर है मगर अन्धेर नही, और यदि अपने जीवन में किसी तरहपर मैं प्रदान कर सका तो मेरे बेटेकपोते. पड़पोते, यहाँ तक कि मेनी सात पीढी उसको अदा करेगी, आप उसको चिन्ता न करें। जब मापसे लिया गया है तब यह मापको हिला
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grate-freधावली
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क्यों न जाय ?" कितने मार्मिक तथा हृदयस्पर्शी उद्गार हैं- दिलको हिला देनेवाले कलाम अथवा वचन हैं और इनसे किस दर्जे सचाई तथा ईमानदारीका प्रकाश होता है, इसे पाठक स्वम समझ सकते है। सचमुच ही वह जमाना भी कितना अच्छा और सच्चा था और उसकी बातोसे कितना सुख तथा शातिरस टपकता है ।
परन्तु आज नकशा बिल्कुल ही बदला हुआ है । प्राज उस कर्ज तथा दूसरे ठहरावोके लिये दस्तावेजात लिखाई जाती हैं, दस्तखत ( हस्ताक्षर ) होते है, प्रगृठे लगते हैं, रजिष्टरी कराई जाती है और रजिष्टरीपर रुपया दिया जाता है, फिर भी बादको ऐसी झूठी उज्रदारियां ( प्रापत्तियां ) होती है कि दस्तावेज़ ज़रूर लिखी, दस्तखत किये या अँगूठा लगाया और रजिष्टरीपर रुपया भी वसूल पाया, लेकिन दस्तावेज फर्जी थी, किसी अनुचित दबावके कारण लिखी गई थी, रुपया बादको वापिस दे दिया गया था या किसी योग्य कार्यमें खर्च नही हुआ, और इस लिये मुद्दई (वादी) उसके पानेका या दस्तावेज के आधारपर किसी दूसरे हकके दिलाए जानेका मुस्तहक (अधिकारी) नही है । मोह । कितना अधिक पतन और बेईमानीका कितना दौर दौरा है ||
उस वक्त अदालतोके दर्जाजे शायद ही कभी खटखटाए जाते थे, पंचायतोका बल बढा हुआ था, यदि कोई मामला होता था तो वह प्राय घरके घरमें या अपने ही गाँवमें आसानीसे निपट जाया करता था - जरा भी बढने नहीं पाता था । परन्तु श्राज बात-बात में लोग अदालतोमे दौडे जाते हैं, उन्हीकी एक शरण लेते हैं, बस्ता बगलमें care उन्हीकी परिक्रमा किया करते हैं, उनके पड़े पुजारियोवकील - बेरिष्टर-मुम्तार - ग्रहलकारों के श्रागे बुरी तरहसे गिडगिडाते हैं वह भी प्राय न्यायके लिये नहीं, बल्कि किसी तरहसे बात रह जाय या उनकी बेईमानीको मदद मिल जाय--और इन्हीं अदालती मन्दिरोमें वे अपने धर्मकर्मकी अच्छी खासी बलि दे
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२९१ जाते हैं । अदालतोंके न्यायका कोई ठिकाना नही, उन्हें प्राय 'बूढा मरो या जवान अपनी ह या अथवा भुगतानसे काम' होता है, गरीबो और बे-पैसे या बे-आदमियोवालोकी वहाँ कोई पहुंच अथवा पूछ नही होती, एक अदालतके फैसलेको दूसरी दूसरीके निर्णयको तीसरी और तीसरीके हुकमको चौथी अदालत तोड देती है और कभी कभी एक ही अदालतका एक हाकिम दूसरे हाकिमके हुक्मको या खुद अपने हुकमको भी तोड देता अथवा रद्द कर देता है। इस तरह न्यायके नाम पर बडा ही अजीब नाटक होता है। __पचायतोका कोई बल रहा नहीं, पच लोग अपनी बेईमानी और एक दूसरेकी बेजा तरफदारीकी वजहसे अपनी सारी प्रतिष्ठा, पद्धति और शक्तिको खो बैठे हैं, उन पर लोगोका विश्वास नहीं रहा, इससे चारो ओर हाहाकार मचा हुआ है। लोग फिर फिरकर अदालतोकी ही शरणमे जाते हैं और अपनेको नष्ट तथा बर्बाद करनेके लिये मजदूर होते हैं। मुकदमेबाजीका बेहद खर्चा बढा हुआ है -- तीसरी चौथी अदालतके हारनेवाला प्राय नगा हो जाता है
और जीतनेवालेके पास एक लगोटी ही शेष रह जाती है। इससे न्याय यदि कभी मिलता भी है तो वह बहत ही महंगा पड़ता है। ____लोग कहते हैं कि आजकल जमाना उन्नतिका है। परन्तु मुझे तो इन हालो वह कुछ उन्नतिका जमाना मालूम नहीं होता, बल्कि खासा अवतिका जान पडता हैं । जब हमारी आत्मिक शक्ति, शारीरिक बल नीति, सभ्यता, शिष्टता, धर्मकर्म और सुखशांतिका बराबर दिवाला निकलता चला जाता है तब इस जमानेको उन्नतिका जमाना कैसे कह सकते हैं ? उन्नतिका जमाना तो तब होता जब इन बातोंमें कोई प्रादर्श उन्नति नजर आती । परन्तु आदश उन्नति तो दूर, उलटी अवनति ही अवनति दिखलाई दे रही है । और हम इन सब बातोमें अपने पूर्वपुरुषोसे बहुत ही ज्यादा पिछड़े हुए हैं और पिछड़ते जाते है । हमने अपनी जरूरियातको बढ़ाकर फिजूल
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युगवीर-निबन्धावली अपने पैरमे माप कुल्हाडी मार रक्खी है और व्यर्थकी मुसीबत अपने ऊपर ले रखी है। इन जरूरियातको पूरा करनेकी धुन, फिक्र और चक्कर में हम अपनी प्रास्माकी तन-बदनकी और धर्म-कर्मकी सारी सुधि भूले हुए है और हमारी वह सब हालत हो रही है जिसका (खके प्रारममे ही कुछ चित्र खीचकर पाठकोके सामने रक्खा गया है। हमारे सामने हरदम रुपये-पसे या टकेका ही एक सवाल खडा रहता है, रात दिन उसीका चक्कर चलता है और उसीके पीछे हमारे जीवनकी समाप्ति हो जाती है।
जब हमारे पास आमदनी कम और खर्च ज्यादा है और हम अपनी जरियातको पूरा करनेके लिए न्यायमार्गसे काफी रुपया पैदा नहीं कर सकते तब उन्हे पूरा करनेके लिये हम छल, कपट, फरेब, धोखा, दगाबाजी, जालसाजी, चालबाजी, चोरी, सीनाजोरी, घूसखोरी, विश्वासघात, असस्यव्यवहार, न्यासापहार ( धरोहरमारना), हत्या और बेईमानी नही करेंगे तो और क्या करेगे ? उस वक्त धर्मके पैसे पर, मन्दिरो तीर्थों या दूसरी सस्थाप्रोके रुपये पर यदि हमारी नियत डिग जाय, हम अपनी सुकुमार कन्यामो तकको बेचने लगे और आपसमें खीचातानी बढाकर मुकद्दमेबाजी पर उतर आवे तो इसमे आश्चर्यकी बात हो क्या है ? ___वास्तवमें हमारी सारी खराबी और गिरावटका कारण ये फिजूलकी जरूरियात ही हैं। इन्हीकी वजहसे हमारी उन्नति रुकी हुई है. हम अपनी प्रात्माका कल्याण नहीं कर सकते, पापसमे प्रेमसे नहीं रह सकते एक दूसरेकी सहायता नहीं कर सकते और न सचमुचमें मनुष्य ही बन सकते हैं । इनकी बढवारीसे ही हमारा दुख बढ़ा हुआ है । यदि हम उस दुखको घटाना या दूर करना चाहते हैं तो हमे अपनी उन ज़रूरियातको घटाना या दूर कर देना होगा। बाकी यह खयाल गलत है कि जरूरियातको पूरा करके हम अपने दुख-दर्द एवं वेदनाको दूर कर सकेंगे उसमें कोई वास्तविक
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हम दुखी क्यो हैं।
२६३ अथवा स्थायी कमी ला सकेंगे। जहरियातको पूरा करके दुखोकी शान्तिकी प्राशा रखना प्राय ऐसा ही है जैसा कि अग्नि पर ईंधन और तेल डालकर उसकी शाति चाहना । यह जरियातकी पूर्ति ऐसी मर्हमपट्टी है जो उस वक्त तो घावमें जरासी देरके लिये कुछ चैन डाल देती है परन्तु पीछेसे बिया जाती है और तरह तरहकी वेदनामों तथा कष्टोकी जन्मदाता बन जाती है । अत' दुखोंको यदि वास्तवमें दूर करना और सुख-शाति चाहना है तो इस खपालके घोलेमें न रहकर हमें सबसे पहले, जितना भी शीघ्र बन सके, इन फिजूलकी जरूरियातको अलग कर देना चाहिये । यही हमारे हित का साधन और हमारे परलोकके सुधरनेका एक खास मार्ग है। इसीसे हमको वास्तविक सुख-शान्तिकी प्राप्ति हो सकेगी।
आशा है, सुखके सच्चे अभिलाषी और मुतलाशी (खोजी) अपनी उस वेदना और तृष्णारूपी अग्निको, जो बाहा पदार्थात लिये उनके हृदयमें जल रही है, ज्ञान तथा विवेकरूपी जलसे शांत करेंगे, सतोषको अपनाएंगे, सादा जीवन व्यतीत करना सीखेंगे और यह सममकर कि इन फ़िजूलकी जरूरियासने ही हमारी जान अजाबमें डाल रक्खी है, हमारी मिट्टी खराब कर रक्खी है,,ये ही हमारे दुखोकी खास कारण है और ये ही हमारी उन्नति तथा प्रतिमें रोडा अटकानेवाली अथवा विघ्नस्वरूप हैं, इन्हे मन-वचन-कायसे दृढताके साथ दूर करने-करानेकी पूरी कोशिश करेगे । और इसके लिये उन्हें यदि किसी रीति-रिवाजको तोडना या बदलना भी पड़े, तो खुशीसे पूर्ण मनोबलके साथ खुद ही उसके लिये आगे कदम बढ़ाएंगे- अगुना बनेगे-और इस तरह अपना एक उदाहरण या नमूना दूसरोके सामने रखकर उनका मार्ग साफ करेंगे और उन्हें भी वैसा करने करानेकी हिम्मत तथा साहस प्रदान करेगे । देश और जातिके सुधारका भी इसी पर एक प्राधार है और इसीके सहारे पर सबका बेड़ा पार है।
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जैनी नीति जिनेन्द्रदेवकी अथवा जैनधर्मकी जो मुख्य नीति है और जिस पर जिनेन्द्रदेवके उपासको, जैनधर्मके अनुयायियों तथा अपना हित चाहनेवाले सभी सज्जनोको चलना चाहिये, उसे 'जैनी नीति' कहते हैं। वह जैनी नीति क्या है अथवा उसका क्या स्वरूप और व्यवहारहै, इस बातको श्रीअमृतचन्द्राचायने अपने एक वाक्यमें अच्छी तरहसे दर्शाया है, जो इस प्रकार है -
एकेनाऽऽकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुमत्त्वमित रेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी । इसमे, जैनी नीतिको दूध-दही बिलोनेवाली गोपी (ग्वालिनी)की उपमा देते हुए बतलाया है कि-जिम प्रकार ग्वालिनी बिलोते समय मथानीकी रस्सीको दोनो हाथोमे पकड कर उसके एक सिरे(अन्त ) को एक हाथसे अपनी ओर खीचती और दूसरे हाथसे पकडे हुए सिरेको ढीला करती जाती है, एकको खीचनेपर दूसरेको बिल्कुल छोड नहीं देती किन्तु पकडे रहती है, और इस तरह बिलोनेकी क्रियाका ठीक सम्पादन करके मवखन निकालने रूप अपना कार्य सिद्ध कर लेती है । ठीक उसी प्रकार जैनी नीतिका व्यवहार है । वह जिस समय अनेकान्तात्मक वस्तुके द्रव्य-पर्याय या सामान्य-विशेषादिरूप एक अन्तको-धर्म या अशको-अपनी ओर
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जैनी नीति
२६५ खीचती है - अपनाती है-उसी समय उसके दूसरे अन्त ( धर्म या अश) को ढीला कर देती है-उसके विषयमे उपेक्षाभाव धारणं कर लेती है । फिर दूसरे समय उस उपेक्षित अन्तको पनाती और पहले से अपनाए हुए अन्तके साथ उपेक्षाका व्यवहार करती हैंएकको अपनाते हुए दूसरेका सर्वथा त्याग नहीं करतीं, उसे भी प्रकारान्तरसे ग्रहण किये रहती है । और इस तरह मुख्य गौणकी व्यवस्थारूप निर्णय - क्रियाको सम्यक् संचालित करके वस्तु-तत्वको निकाल लेती है--उसे प्राप्त कर लेती है। किसी एक ही अन्त पर उसका एकान्त श्राग्रह प्रथवा कदाग्रह नहीं रहता- वैसा होने पर वस्तुकी स्वरूपसिद्धि ही नही बनती । वह वस्तुके प्रधान प्रप्रधान सब तो पर समान दृष्टि रखती है-उनकी पारस्परिक अपेक्षाको जानती है— और इसलिये उसे पूर्णरूपमे पहचानती है तथा उसके साथ पूरा न्याय करती है । उसकी दृष्टिमें एक वस्तु द्रव्यकी अपेक्षामे यदि नित्य है तो पर्यायकी अपेक्षासे वही अनित्य भी है, एक के कारण जो वस्तु बुरी है दूसरे गुरु के कारण वह वस्तु अच्छी भी है एक वक्त में जो वस्तु लाभदायक है दूमरे वक्त में वही हानिकारक भी है, एक स्थान पर जो वस्तु शुभरूप है दूसरे स्थान पर वही अशुभरूप भी है औौर एकके लिये जो हेय है दूसरेके लिये वही उपादेय भी है । वह विषको मारनेवाला ही नही किन्तु जीवनप्रद भी जानती है और इसलिये उसे सर्वथा हेय नही समझती ।
इस नीति की दृष्टिमे नित्यका अनित्यके साथ और अनित्यका नित्य के साथ, विधिका निषेधके साथ और निषेधका विधिके साथ तथा मुख्यका गौणके साथ और गौरणका मुख्यके साथ अविनाभावसम्बन्ध है - एकके बिना दूसरेका प्रस्तित्व बन नही सकता। जिस प्रकार सम-तुलाका एक पल्ला ऊँचा होने पर दूसरा पल्ला स्वयमेव नीचा हो जाता है- ऊँचा पल्ला नीचेके बिना और नीचा पल्ला ऊँचेके बिना बन नही सकता और न कहला सकता है, उसी प्रकार
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युगवीर-निबन्धावली नत्य-नित्यकी विधि-निषेधकी और मुख्य-गोरपणादिकी यह सारी व्यिवस्था सापेक्षा है- सापेक्षनयवादका विषय है। और इसलिये जो निरपेक्षनयवादका प्राश्रय लेती है और बस्तुतत्त्वका सर्वथा एकरूपसे प्रतिपादन करती है वह जैनी नीति अथवा सम्यक् नीति न होकर मिथ्या नीति है। उसके द्वारा वस्तुतत्त्वका सम्यग्ग्रहा और प्रतिपादन नहीं बन सकता। + , जेनी नीतिका ही दूसरा नाम 'अनेकान्ततीति' है और उसे 'स्यादादनीति' भी कहते है । यह नीति अपने स्वरूपसे ही सौम्य, उदार, शान्तिप्रिय, विरोधका मथन करनेवाली, वस्तुतत्त्वकी प्रकाशक और सिद्धिकी दाता है । खेद है जैनियोंने अपने इस आराध्य । देवता 'अनेकान्त' को बिल्कुल भुला दिया है और वे माज एकान्तके अनन्य उपासक बने हुए है ! उसीका परिणाम उनका मौजूदा सर्वतोमुखी पतन है, जिसने जनकी सारी विशेषतामो और गुण-गरिमानो पर पानी फेर कर उन्हें नगण्य बना दिया है । जैनियोको फिरसे अपने इस प्राराध्य देवताका स्मरण कराने हुए उनके जीवनमे इस सन्नीतिकी प्राणप्रतिष्ठा कराने और ससारको भी इस नीति का परिचय देने तथा इसकी उपयोगिता बतलानेके लिये ही 'अनेकान्त' नामसे पत्र निकाला गया है । लोकको इससे सत्प्रेरणा मिले और यह उसके हितसाधनमे महायक होवे ऐसी शुभ भावना है।
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जैनी कौन हो सकता है?
जो जीव जैनधमको धारणकरता है वह 'जनी' कहलाता है। परन्तु आजकलके जैनी जैनधर्मको केवल अपनी ही पैतृक संपत्ति ( मौरूसी तरका ) समझ बैठे हैं और यही कारण है कि वे जैनधर्म दूसरोको नहीं बतलाते और न किसीको जेनी बनाते हैं । शायद उन्हें इस बातका मय हो कि कही दूसरे लोगोंके शामिल होजानेसे इस मौरूसी तरकेमें अधिक भागानुभाग होकर हमारे हिस्सेमें बहुत ही थोडासा जैनधर्म बाकी न रह जाय । परन्तु यह सब उनकी बड़ी भारी भूल तथा गलती है और प्राज इसी भूल तथा गलतीको सुधार रनेका यत्न किया जाता है।
हमारे जैनी भाई इस बातको जानते हैं और शास्त्रोंमें भी जगह जगह हमारे परमपूज्य आचार्योका यही उपदेश है कि, संसारमें दो प्रकारकी वस्तुएँ है—एक चेतन और दूसरी अचेतन। चेतनको जीव और अचेतनको अजीव कहते हैं। जितने जीव हैं वे सब द्रव्यत्वकी अपेक्षा अथवा द्रव्यदृष्टिसे बराबर हैं- किसीमें कुछ मेद नही है-सबका असली स्वभाव और गुण एक ही है । परन्तु अनादिकालसे जीवोंके साथ कर्म-मल लगा हुआ है, जिसके कारण उनका असली स्वभाव पाच्छादित है, और वे नाना प्रकारको पर्याय धारमा करते हुए नजर आते हैं। कीड़ा, मकोड़ा, कुता, बिल्ली, शेर,
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युगवीर-निबन्धावली बघेरा, हाथी, घोडा, ऊट, गाय, बैल, मनुष्य, पशु, देव, और नारकी आदिक समस्त अवस्थाए उसी कर्ममलके परिणाम हैं और बीक्की इस अवस्थाको 'विभावपरिणति' कहते हैं।
जब तक जीवोमे यह विभावपरिणति बनी रहती है तब ही तक उनको 'ससारी' कहते हैं और तभी तक उनको ससारमे नाना प्रकारके रूप धारण करके परिभ्रमरण करना होता है। परन्तु जब किसी जीवकी यह विभावपरिगति मिट जाती है और उसका निजस्वभाव सर्वाङ्गरूपसे अथक्ष पूर्णतया विकसित हो जाता है तब वह जीव मुक्तिको प्राप्त हो जाता है, और इस प्रकार जीवके 'ससारी तथा 'मुक्त' ऐसे दो भेद कहे जाते हैं। ____ इस कथनसे स्पष्ट है कि जीवोका जो असली स्वभाव है वही उनका धर्म है, और उसी धर्मको प्राप्त करानेवाला जैनधर्म है। अथवा दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि जैनधर्म ही सब जीवोका निज धर्म है। इसलिये प्रत्येक जीवको जैनधर्मके धारण करनेका अधिकार प्राप्त है। इसीसे हमारे पूज्य तीर्थंकरो तथा ऋषि-मुनियोने पशु-पक्षियोत कको भी जैनधर्मका उपदेश दिया है और उनको जैनधर्म धारण कराया है, जिनके सैकडो ही नही किन्तु हजारो दृष्टान्त प्रथमानुयोगके शास्त्रो (कथाग्रन्थो) को देखनेसे मालूम हो सकते है ।
हमारे अतिम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामी जब अपने इस जन्मसे नौ जन्म पहले सिंहकी पर्यायमें थे तब उन्हे किसी वनमे एक महात्माके दर्शन करते ही जातिस्मरण हो पाया था । उन्होंने उसी समय, उक्त महात्माके उपदेशसे, श्रावकके बारह व्रत धारण किये, केसरीसिंह होकर भी किसी जीवको मारना और मास खाना छोड दिया और इस प्रकार जैनधर्मको पालते हुए सिंह-पर्यायको छोडकर वे प्रथम स्वर्गमें देव हुए और वहाँसे उन्नति करते करते अन्तमें जैनधर्मके प्रसादसे उन्होने तीर्थकर-पद प्राप्त किया।
पार्श्वनाथपुराणमे, अरविन्दमुनिके उपदेशसे, एक हाथोके जैन
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MANTRAPE
जैनी कौन हो सकता है ? २९ धर्म धारण करने और धावकके व्रत पालन करनेके सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है--
अब हाथो सनम साधै। स जीव न भूल विराधै ।। समभाव छिमा उर मान । परि मित्र बराबर जाने ।। काया कसि इन्द्री दहैं। साहस घर प्रौषध महे ।। सूखे तृण पल्लव भच्छै । परमदित मारग गच्छे। हाथीगण होह्यो पानी । सो पीवै गजपति ज्ञानी। देखे बिन पौवन राखे। तन पानी पक न नाखे। निजशील कमी नहि खावै । हथिनी दिशभूल न जोधे ।। उपसर्ग सहै अति भारी। दुर्ध्यान तजे दुखकारी। अघके मय अग न हाले। हद धीर प्रतिज्ञा पाले। चिरलों दुद्धर तपकीनो। बलहीन भयो तन छोना। परमेष्ठि परमपद ध्यावै। ऐसे गज काल गमावै ।। एकैदिन अधिक तिसायौ। तब वेगवती तट पायौ ॥ जलपीवन उद्यम कीधी। कादोद्रह कुजर बीधौ।। निश्चय जब मरण विचारौ। सन्यास सुधी तब धारौ।।
इससे साफ प्रकट है कि अच्छा निमित्त मिल जाने और शुभ कर्मका उदय आ जाने पर पशुओंमें भी मनुष्यता आ जाती है और ये मनुष्योंके समान धर्मका पालन करने लगते हैं, क्योकि द्रव्यत्वकी अपेक्षा सब जीव, चाहे वे किसी भी पर्यायमें क्यो न हों, आपसमें बरावर हैं। यही हाथीका जीव, जैनधर्मके प्रसादसे, इस पशुपर्यायको छोडकर बारहवे स्वर्गमें देव हुमा और फिर उन्नतिके सोपानपर चढता चढता कुछ ही जन्म लेनेके पश्चात् हमारा पूज्य तीर्थकर 'पार्श्वनाथ हपा है।
इसी तरह और बहुतसे पशुप्रोने जैनधमको धारण करके अपने प्रात्माका विकास और कल्याण किया है । जब पशुप्रो तकने जैनधर्म को धारण किया है, तब फिर मनुष्योका तो कहना ही क्या ?
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युगवीर-नियमावली तो सर्व प्रकारसे इसके योग्य और दूसरे जीवोंको इस धर्ममें लगाने बाले ठहरे । सच पूछा जाय तो, किसी भी देश, जाति या वर्णके मनुष्यको इस धर्मके धारण करने की कोई मनाही ( निषेध ) नहीं है। प्रत्येक मनुष्य खुशीसे जैनधर्मको धारण कर सकता है । इसीसे सोमदेवसूरिने कहा है .
मनोवाकायधर्माय मता मर्वेऽपि जन्तक ।' अर्थात-मन, वचन, तथा कापसे किये जाने वाले धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये सभी जीव अधिकारी हैं।
जैन-शास्त्रोंसे तथा इतिहास-प्रन्थोंके देखनेसे भी यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है और इसमे कोई सन्देह नहीं रहता कि प्राय सभी जातियोके मनुष्य हमेशासे इस पवित्र जैनधर्मको धारश करते पाए हैं और उन्होने बडो भक्ति तथा भावके साथ इसका पालन किया है। _देखिये, क्षत्रिय लोग पहले अधिकतर जैनधर्मका ही पालन करते थे। इस धर्मसे उनको विशेष अनुराग और प्रीति थी। वे इसी धर्मको जगतका और अपनी प्रात्माका कल्याण करनेवाला समझते थे। हजारों राजा ऐसे हो चुके है जो जेनी थे अथवा जिन्होने जैनधर्मकी दीक्षा धारण की थी। खासकर, हमारे जितने तीर्थकर हुए हैं वे सब ही क्षत्रिय थे। इस समय भी जैनियोमें बहुतसे जेनी ऐसे हैं जो क्षत्रियोकी सन्तानमेंसे है, परन्तु उन्होने क्षत्रियोका कर्म छोड कर वेश्यका कर्म अगीकार कर लिया है. इसलिये वैश्य कहलाते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मण लोग भी पहले जैनधर्मको पालन करते थे
और इस समय भी कही कही सैकड़ो ब्राह्मण जैनी पाये जाते हैं। जिस समय भगवान ऋषभदेवके पुत्र भरत चक्रवतीने क्षत्रियो आदिकी परीक्षा लेकर जिनको अधिक धर्मात्मा पाया उनका एक ब्राह्मण बर्ष स्थापित किया था उस समय तो ब्राह्मण लोग गृहस्थ जैनियोके पूज्य समझे जाते थे और बहुत काल तक बराबर पूज्य बने रहे।
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बेनी कौन हो सकता है ? ३०१ परन्तु पीछेसे जब वे स्वच्छद होकर अपने धर्म-कर्ममें सिथिल हो गये और जैनधर्मसे गिर गये तब जैनियोने ग्राम तोरसे उनका पूजन्स और मानना छोड़ दिया। परन्तु फिर भी इस ब्राह्मण-वर्णमे बराबर जैनी होते ही रहे। हमारे परमपूज्य गौतम गरगधर, भद्रबाहु स्वामी और पात्रकेशरी प्रादिक बहुतसे प्राचार्य ब्राह्मण ही थे जिन्होने चहुँ ओर जैनधर्मका डका बजाकर जगतके जीवोका उपकार किया है। रहे वैश्य लोग, वे जैसे इस वक्त जैनधर्मको पालन करते हैं वैसे पहले भी पालन करते थे : ऐसी ही हालत शूद्रोकी है, वे भी कभी जैनधर्मको धारण करनेसे नहीं चूके और ग्यारहवी प्रतिमाके धारक चुल्लक तक तो होते ही रहे है। इस वक्त भी जैनियोंमें शूद्र, जैनी मौजूद हैं । बहुतसे जैनी शूद्रोका कम ( पेशा ) करते हैं। और शूद्र ही क्यो ? हमारे पूर्वज तीर्थकरो तथा ऋषि-मुनियोने तो चंडालो, भीलों और म्लेच्छो त को जनधर्मका उपदेश देकर उन्हें जैनी बनाया है, और न केवल जैनधर्मका श्रद्धान ही उनके हृदयोंमें उत्पन्न किया है बल्कि श्रावकके व्रत भी उनसे पालन कराये हैं, जिनकी सैकडो कथाएँ शास्त्रोमे मौजूद हैं। ___'हरिवशपुराण में लिखा है कि एक 'त्रिपद' नामके धीवर (कहार) की लडकीको, जिसका नाम 'पूतिगधा' था और जिसके शरीरसे दुर्गध आती थी, समाधिगुप्त मुनिने श्रावकके व्रत दिये। वह लडकी बहुत दिनो तक प्रायिकाके साथ रही अतमे सन्यास धारण करके मरी तथा सोलहवे स्वर्गमे जाकर देवी हुई और फिर वहाँसे आकर श्रीकृष्णकी पटरानी 'रुक्मिरणी' हुई। __चम्पापुर नगरमे अग्निभूत' मुनिने अपने गुरु सूर्यमित्र मुनिराजकी आज्ञासे, एक चाडाल लडकीको. जो जन्मसे अंधी पैदा हुई थी और जिसकी देहसे इतनी दुर्गंध आती थी कि कोई उसके पास जाना नहीं चाहता था और इसी कारण वह बहुत दुखी थी, जेनधर्म का उपदेश देकर श्राक्कके व्रत धारण कराये थे । इसकी कथा
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३०२
युगवीर नबन्धावली सुकुमालचारित्रादिक शास्त्रोमें मौजूद है । यही चाडालीका जीव दो जन्म लेनेके पश्चात् तीसरे जन्ममें 'सुकुमाल' हुआ था।
'पूर्णभद्र' और 'मानभद्र' नामके दो वैश्य भाइयोने एक चाडाल को श्रावकके व्रत ग्रहण कराए थे और उन व्रतोंके कारण वह चाडाल मर कर सोलहवे स्वर्गमे बड़ी ऋद्धिका धारक देव हुआ था, जिसकी कथा पुण्यास्रव-कथाकोशमें पाई जाती है ।
'हरिवशपुराण' में लिखा है कि, गधमादन पर्वत पर एक 'परवर्तक' नाम के भीलको श्रीधर आदि दो चार-मुनियोने श्रावकके व्रत दिये । इसी प्रकार म्लेच्छोके जैनधर्म धारण करनेके सम्बन्धमे भी बहुतसी कथाएँ विद्यमान है, बल्कि जैनी चक्रवर्ती राजामोने तो म्लेच्छोकी कन्यामोसे विवाह तक किया है। ऐसे विवाहोसे उत्पन्न हुई सन्तान मुनि-दीक्षा ले सकती थी, इतना ही नही किन्तु म्लेच्छ देशोसे आए हुए म्लेच्छ तक भी मुनिदीक्षाके अधिकारी ठहराये गये हैं।
श्रीनेमिनाथके चचा वसुदेवने भी एक म्लेच्छ राजाकी पुत्रीसे, जिसका नाम 'जरा' था, विवाह किया था, और उससे 'जरत्कुमार' उत्पन्न हआ था, जो जैनधर्मका बड़ा भारी श्रद्धानी था और जिसने अतको जैनधर्मकी मुनिदीक्षा धारण की थी। यह कथा भी हरिवंश
१ जैसा कि 'लब्धिसार की टीका के निम्न प्रशसे प्रकट है
म्लेच्छभूमिजमनुष्यारणा सकलसयमग्रहण कथ भवतीति नाशकितव्य । दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छ
राजाना चक्रवादिभि सह जातवैवाहिकसम्बन्धाना सयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा चक्रवर्त्यादिपरिणीताना गर्भेष पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाज सयमसभवात् तथाजातीयकाना दीक्षाहवे प्रतिषेधाभावात् । (गाथा न० १६३ से सम्बद्ध )
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जैनी कौन हो सकता है ?
३०३ पुराणमें लिखी है। और इसी पुराणमें,जहां पर श्रीमहावीरस्वामीके समवसरणका वर्णन है वहांपर, यह भी लिखा है कि समवसरणमे जब श्रीमहावीरस्वामीने मुनिधर्म और श्रावकधर्मका उपदेश दिया तो उसको सुनकर बहुतसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य लोग मुनि हो गये और चारो ही वर्णके स्त्री-पुरुषोने श्रावकके बारह व्रत धारण किये' इतना ही क्यो ? उनकी पवित्र वाणीका प्रभाव यहाँ तक पड़ा कि कुछ जानवरोने भी अपनी शक्तिके अनुसार श्रावकके व्रत धारण किये । इससे भली भाति प्रकट है कि, प्रत्येक मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीव अपनी योग्यताके अनुसार जैनधमको धारण कर सकता है। इसलिये जैनधर्म सबको बतलाना चाहिये।
इन सब उल्लेखो परसे, यद्यपि, प्रत्येक मनुष्य खुशीसे यह नतीजा निकाल सकता है कि, जैनधर्म आजकलके जैनियोंकी खास मीरास नहीं है, उस पर मनुष्य क्या जीवमात्रको पूरा पूरा अधिकार प्राप्त है और प्रत्येक मनुष्य अपनी शाक अथवा सामथ्यके अनुसार उसको धारण और पालन कर सकता है, फिर भी यहाँपर कुछ थोड़ेसे प्रमाण और उपस्थित किये जाते है जिससे इस विषयक सदेह अथवा भ्रमका और भी अच्छी तरह निरसन हो सके:
(१) 'पूजासार' के श्लोक न० १६ मे जिनेन्द्रदेवकी पूजा करने वालेके दो भेद वर्णन किये है-एक नित्य पूजन करनेवाला, जिसको 'पूजक' कहते है और दूसरा प्रतिष्ठादि विधान करनेवाला, जिसको पूजकाचार्य' कहते है । इसके पश्चात् दो श्लोकोमे आय (प्रथम) भेद, 'पूजक' का स्वरूप दिया है और उसमे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इन चारो ही वोंके मनुष्योको पूजा करनेका अधिकारी ठहराया है। यथा -
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हरिवशपुराणके उल्लेखो के लिये देखो ५०दौलवरामजी-द्वारा अनुवादित भाषा हरिव शपुराण अथवा जिनसेनाचार्यकृत मूलमन्य।
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युगवीर-निबन्धावली ब्रामण शत्रियो वैश्यः शुद्धो वाऽऽद्य सुशीलवान ।
व्रतो ढाचार सत्यशोचममन्वित ॥ १७॥ । (२) इसी प्रकार 'धर्मसग्रहश्रावकाचार' के वे अधिकारके श्लोक नं० १४० मे श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवालके उपयुक्त दोनो भेदोका कथन करनेके अनन्तर ही एक श्लोकमे-'पूजक' के स्वरूपकथनमें-ब्राह्मणादिक चारो वाँक मनुष्योको पूजा करनेका अधिः कारी बतलाया है। वह श्लोक यह है :
ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य प्राथ. शीलव्रतान्वितः।
सत्यशौचढाचारो हिंसाद्यव्रतदूग्ग ॥ १४३ ।। और इसी ६ वे अधिकारके श्लोक न० २२५ में ब्राह्मणोंके पूजन करना, पूजन कराना, पढना, पढाना, दान देना और दान लेना, ऐसे छह कर्म वर्णन करके उससे अगले श्लोकमें “यजनाध्ययने दान परेषां त्रीणि ते पुन" इस वचनसे क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रीके पूजन करना पढना और दान देना, ऐसे तीन कर्म वर्णन किये हैं।
इन दोनो शास्त्रोंके प्रमारणोंसे भली भाति प्रकट है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारो वर्णोके मनुष्य जैनधर्मको धारण करके जैनी हो सकते हैं । तब ही तो वे श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेके अधिकारी वर्णन किये गये हैं।
(३) 'सागारधर्मामृत' में पं० प्राशाधरजीने लिखा है - 'शूद्रोऽयुपस्कराचार-वपुःशुध्याऽस्तु तादृशः। जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धी खात्मास्ति धर्मभाक ।।
(प्र० २ श्लो० २२) अर्थात्-प्रासन और बर्तन वगैरह जिसके शुद्ध हो, मांस और १. इस पद्यसे पहले स्वोपजटीकामे यह प्रविज्ञावाक्य भी दिया है
"अथ शूद्रस्याप्पाहारादिशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद्धर्मकियाकारित्व यथोचितमनुमन्यमान प्राह-"
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जेनी कौन हो सकता है ?
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मदिरा श्रादिके त्यागसे जिसका श्राचररण पवित्र हो और नित्य स्नान श्रादिके करनेसे जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मरादिक वर्णोंके सदृश श्रावक-धर्मका पालन करनेके योग्य है । क्योकि जाति हीन प्रात्मा भी कालादिक लब्धिको पाकर जैन धर्मका अधिकारी होता है ।
इसी तरह श्रीसोमदेव आचार्यने भी, 'नीतिवाक्यामृत' के नीचे लिखे वाक्यमे, उपर्युक्त तीनो शुद्धियोके होनेसे शूद्रोको धर्म साधनके योग्य बतलाया है। "आचाराऽनवद्यस्व शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान् ।"
-
शुचिरुपस्कार शरीरशुद्धिश्च करोति
(४) रत्नकरण्ड श्रावकाचारमे स्वामी समन्तभद्राचार्य लिखते हैं
कि
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्ग देहजम् ।
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देवा देव विदुर्भरमगुढाकारान्त रौजसम् ।। २८ ।। अर्थात् - सम्यग्दर्शनसे युक्त - जैनधर्मके श्रद्धानी - चाडाल पुत्रको भी गणधरादि देवोने 'देव' कहा है- श्राराध्य बतलाया है। उस की दशा उस अगारके सदृश है जो बाह्यमें भस्मसे प्राच्छादित होने पर भी प्रतरगमें तेज तथा प्रकाशको लिये हुए है और इस लिये कदापि उपेक्षणीय नही होता ।
इससे चाडालका जैनी बन सकना भली भाँति प्रकट ही नही किन्तु श्रभिमत जान पड़ता है। इसके सिवाय, सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति तो चौथे गुरणस्थानमे ही हो जाती है, चाडाल इससे भी ऊपर जा सकता है और श्रावकके व्रत धारण कर सकता है, जैसा कि ऊपर उल्लेख की हुई कथाप्रोसे प्रकट है। इसमें किसीको भी प्रापत्ति नही है। रविषेणाचार्यने तो 'पद्मपुराण' में ऐसे व्रती चाण्डालको 'ब्राह्मण' का दर्जा प्रदान किया है और लिखा है कि कोई भी जाति बुरी अथवा तिरस्कारके योग्य नहीं हैं सभी मुरणधर्मकी अधिका
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रिपी हैं । यथा:
न जातिर्गर्हिता काचिद् गुणा कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाण्डाल तं देवा ब्राह्मणं विदु ॥११- २०३ ॥ (५) सोमसेन के त्रैवरिकाचारमे भी एक पुरातन श्लोक निम्न प्रकारसे पाया जाता है
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युगवीर - निबन्धावली
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विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा प्रोक्ता क्रियाविशेषत ।
जैनधर्मे परा शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमा ॥ ७-१४२ ।।
इसमे लिखा है कि- 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारो वर्ग अपने अपने नियत कर्मके विशेष की अपेक्षासे कहे गये हैं, जैनधर्मको पालन करनेमे इन चारो वर्णोंके मनुष्य परम समय है और उसे पालन करते हुए वे सब प्रापसमे भाई भाईके समान है ।' इन सब प्रमारगोसे सिद्धान्तकी अपेक्षा, प्रवृत्ति की अपेक्षा और शास्त्राधारकी अपेक्षा सब प्रकारसे यह बात कि 'प्रत्येक मनुष्य जैनधर्मको धारण कर सकता है' कितनी स्पष्ट और साफ तौर पर सिद्ध हैं, इसका अनुमान हमारे पाठक स्वय कर सकते हैं और मालूम कर सकते हैं कि वर्तमान जैनियो की यह कितनी भारी गलती और बेसमझी है जो केवल अपने आपको ही जैनधर्मका मौरूसी हकदार समझ बैठे हैं।
अफसोस । जिनके पूज्य पुरुषो, तीर्थकरो और ऋषि-मुनियो आदिका तो इस धर्मके विषय में यह खयाल और यह कोशिश कि कोई भी जीव इस धमसे र्वाचित न रहे --यथासाध्य प्रत्येक जीवको इस धर्ममे लगाकर उसका हित साधन करना चाहिये, उन्ही जैनियो - की आज यह हालत कि वे कजूस और कृपरणकी तरह जैनधमको छिपाते फिरते हैं । न श्राप इस धर्मरत्नसे लाभ उठाते है और न दुसरोको ही लाभ उठाने देते हैं। इससे मालूम होता है कि श्राजकल जैनी बहुत ही तगदिल (सकी हृदय) हैं और इसी तर्गादिली ने उन पर संगदिली ( पाषाण हृदयता ) की घटा छा रक्खी है ।
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जैनी कौन हो सकता है?
३०७ खुदगर्जी (स्वार्थपरता ) का उनके चारों तरफ राज्य है । यही कारण है कि वे दूसरोंका उपकार करना नहीं चाहते और न किसीको जैनधर्मका श्रद्धानी बनानेकी कोई खास चेष्टा ही करते हैं । उनकी तरफसे कोई डूबो या तिरो, उनको इससे कुछ प्रयोजन नही । अपने भाइयोकी इस अवस्थाको देखकर बडा ही दुख होता है।
प्यारे जैनियो | आप उन वीरपुरुषोकी सन्तान हो, जिन्होने लौकिक स्वार्थ-बुद्धिको कभी अपने पास तक फटकने नही दिया, पौरुषहीनता और भीरुताका कभी स्वप्नमे भी जिनको दर्शन नहीं हुआ, जिनके विचार बडे ही विशुद्ध, गभीर तथा हृदय विस्तीर्ण थे
और जो ससार भरके सच्चे शुभचिंतक तथा सब जीवोका हित साधन करनेमें ही अपनेको कृतार्थ समझनेवाले थे । आप उन्हीकी वशपरम्परामें उत्पन्न हैं जिनका सारा मनोबल, वचनबल बुद्धिबल और कायबल निरतर परोपकारमे ही लगा रहता था, धामिक जोश से जिनका मुखमडल ( चेहरा ) सदा दमकता था, जो अपनी प्रात्माके समान दूसरे जीवोकी रक्षा करते थे और इस ससारको असार समझ कर निरतर अपना तथा दूसरे जीवोका कल्याण करनेमें ही लगे रहते थे; ऐसे ही पूज्य पुरुषोका आप अपने आपको अनुयायी तथा उपासक भी बतलाते हैं जो ज्ञान-विज्ञानके पूर्ण स्वामी थे, जिनकी सभामे पशु-पक्षी तक भी उपदेश सुननेके लिये पाते थे, जिन्होने जैनधर्म धारण कराकर करोडो जीवोका उद्धार किया था
और भिन्न धर्मावलम्बियों पर जैनियोके अहिंसाधर्मकी छाप जमाई थी। इसलिये आप ही जरा विचार कीजिये कि क्या अपनी ऐसी हालत बनाना और दूसरीका उपकार करनेसे इस प्रकार हाथ खींच लेना अथवा जी चुराना आपके लिये उचित और योग्य है ? कदापि नहीं ?
प्यारे धर्म बन्धुनो। हमें अपनी इस हालत पर बहत ही
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युगवीर - निबन्धावली
लज्जित तथा शोकित होना चाहिये । हमारी इस लापर्वाही (उदासीनता) और खामोशी ( मौनवृत्ति ) से जैन जातिको बडा भारी धक्का और धब्बा लग रहा है । हमने अपने पूज्य पुरुषो - ऋषिमुनियो- के नामको बट्टा लगा रक्खा है । यह सब हमारी स्वार्थपरता, निष्पौरुषता, सकीर्णहृदयता और विपरीत बुद्धिका ही परिणाम है । इसका सारा कलक हमारे ही ऊपर है । वास्तवमें हम अपनी आँखो के सामने इस बातको देख रहे हैं कि ज्ञानसे अधे प्रारणी बिल्कुल बेसुध हुए मिध्यात्वरूपी कुएके सन्मुख जा रहे हैं और उसमे गिर रहे है और फिर भी हम मौनावलम्बी हुए चुपचाप बैठे हैं-न उन बेचारोको उस कुएँसे सूचित करते हैं न कुएँमे गिरनेसे बचाते हैं और न कएँमे गिरे हुम्रोको निकालने का प्रयत्न करते है, तो इससे अधिक और क्या अपराध हो सकता है ? अब हमको इस कलक और अपराधसे मुक्त होनेके लिये श्रवश्य प्रयत्नशील होना चाहिये ।
सबसे प्रथम हमे अपनेमें इन स्वार्थपरता आदिक दोषोको निकाल डालना चाहिये । फिर उत्साहकी कटि बांधकर और परोपकार को ही अपना मुख्य धर्म सकल्प करके अपने पूज्य पुरुषो अथवा ऋषि-मुनियोके मार्गका अनुसरण करना चाहिये और दूसरे जीवो पर दया करके उनको मिध्यात्वरूपी अन्धकारसे निकालकर जिनवारणीके प्रकाशरूप जैनधर्मकी शरण मे लाना चाहिये । यही हमारा इस समय मुख्य कर्तव्य है और इसी कर्तव्यको पूरा करनेसे हम उपर्युक कलकसे विमुक्त हो सकते हैं । अथवा यो कहिये कि अपने मस्तक पर जो कालिमाका टीका लगा हुआ है उसको दूर कर सकते हैं। हमको चाहिये कि अपने इस कर्तव्यके पालन करनेमें अब कुछ भी विलम्ब न करे । क्योंकि इस वक्त कालकी गति जैनियोके अनुकूल है। अब वह समय नही रहा कि जब अन्यायी और निष्ठुर राजा तथा बादशाहोंके अन्याय और अत्याचारोंके कारण
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जेनी कौन हो सकता है? ३०१ जेनी अपनेको जैनी कहते हुए डरते थे और अपने धर्म तथा शास्त्रोंको छिपानेके लिए बाध्य होते थे। अब वह समय पा गया है कि लोगोकी प्रवृत्ति सत्यताकी खोज और निष्पक्षपातताकी पोर होती जाती है। इसलिये जैनियोंके लिये यह समय बड़ा ही अमूल्य है। ऐसे अवसर पर हमको अवश्य अपने धर्मरलका प्रकाश सर्व-साधारणमे फैलाना चाहिये । सर्व मनुष्योपर जैनधर्मके सिद्धान्त और उनका महत्व प्रकट करना चाहिये और उनको बतलाना चाहिये कि कैसे जैनधर्म ही सब जीवोका कल्याण कर सकता है और उनको वास्तविक सुखकी प्राप्ति करा सकता है । इस समय हमारे भाइयोकी सिर्फ थोडीसी हिम्मत और परोपकारबुद्धिकी ज़रूरत है। बाकी यह खूबी खुद्र जैनधर्ममे मौजूद है कि वह दूसरोको अपनी ओर आकर्षित कर लेवे । परन्तु दूसरोको इस धर्मका परिचय तथा जानकारी कराना मुख्य है और यह जैनियोंका कर्तव्य है।।
अत प्यारे जैनियो । आप कुछ भी न घबराते हुए इस धर्मरत्नको हाथमे लेकर चौडे मैदानमे खडे हो जाइये और जौहरियोंसे पुकार कर कहिये कि वे पाकर इस रत्नकी परीक्षा करे। फिर आप देखेंगे कि कितने धर्मजोहरी इस धर्मरत्नको देखकर मोहित होते है
और इस पर अपना जीवन अपरण करनेके लिये उद्यमी नज़र आते हैं । अभी हाल में कुछ लोगोके कानो तक इस धर्मका शुभ समाचार पहुंचा ही था कि वे तुरत मन-वचन-कायसे इसके अनुयायी और भक्त बन गये है। इसलिये मेरा बार बार यही कहना है कि कोई भी मनुष्य इस पवित्र धर्मसे वचित न रक्खा जावे, किसी न किसी प्रकारसे प्रत्येक मनुष्यके कानो तक इस धर्मकी आवाज (पुकार ) पहुंच जानी चाहिये और इस बातका दिलमें कभी खयाल भी न लाना चाहिये कि अमुक मनुष्य इस धर्मको धारण करनेके अयोग्य है अथवा इस धर्मका पात्र ही नहीं है । क्योकि यह धर्म प्राणीमात्र. का धर्म है। यदि कोई मनुष्य पूरी तौर पर इस धर्मका पालन नही
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युगवीर-निबन्धावली कर सकता तो भी थोडा बहुत ज़रूर पालन कर सकता है। कमसे कम यदि उसका श्रद्धान भी ठीक हो जायगा तो उससे बहुत काम निकल जायगा और वह फिर धीरे धीरे यथावत् आचरण करनेमे भी समर्थ हो जायगा । इसी लिये शायद सोमदेवसूरिने 'यशस्तिलक' में लिखा है कि
'नवै संदिग्धनिर्वाहविदध्याद् गणवर्धनम् ।'
अर्थात्-ऐसे ऐसे नए मनुष्योसे भी अपने समाजकी समूहवृद्धि . करनी चाहिये जो सदिग्धनिर्वाह हैं-जिनके विषयमें यह सदेह है कि वे समाजके प्राचार-विचारका यथेष्ट पालन कर सकेंगे।
दूसरी नीतिका यह वाक्य है कि 'अयोग्य पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ.' अर्थात् कोई भी मनुष्य स्वभावसे अयोग्य नहीं है। परन्तु किसी मनुष्यको योग्यताकी ओर लगाना या किसीकी योग्यतासे काम लेना यही कठिन कार्य है और इसी पर दूसरे मनुष्यकी योग्यताकी परीक्षा निर्भर है। इसलिये यदि हम किसी मनुष्यको जैनधर्म धारण न करावे या किसी मनुष्यको जैनधर्मका श्रद्धानी न बना सके तो समझना चाहिये कि यह हमारी ही अयोग्यता है। इसमें उस मनुष्यका कोई दोष नही है और न इसमे जैनधर्मका ही कोई अपराध हो सकता है । इसलिये इस कच्चे विचार और बालखयालको बिल्कुल हृदयसे निकालकर फेक देना चाहिये कि 'अमुक मनुष्यको तो जैनधर्म बतलाया जावे और अमुकको नहीं'। प्रत्येक मनुष्यको जैनधर्म बतलाना चाहिये और जैनधर्मका श्रद्धानी बनाना चाहिये, क्योकि यह धर्म प्राणीमात्रका धर्म है - किसी खास जाति या देशसे सम्बद्ध (बंधा हुआ) नहीं है। ___यहां पर सब प्रकारके मनुष्योको जैनधर्मका श्रद्धानी अथवा जनी बनानेसे हमारे किसी भी भाईको यह समझकर भयभीत न होना चाहिये कि ऐसा होनेसे सबका खाना पीना एकदम एक हो जावेगा। खाना पीना और बात है-वह अधिकाशमें अपने ऐच्छिक
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जैनी कौन हो तकता है ? ३११ व्यवहारेपर निर्भर है, लाजिमी नही-और धर्म दूसरी वस्तु है । दूसरे लोगोको जैनधर्ममें दीक्षित करनेके लिये हमें प्राय उसी सनातन मार्गपर चलना होगा जिस पर हमारे पूज्य पूर्वज और प्राचार्य महानुभाव चलते आये हैं और जिसका उल्लेख आदिपुराणादि आर्ष अन्थोंमे पाया जाता है' । हमारे लिये पहले ही से सब प्रकारकी सुगमताप्रोका मार्ग खुला हुआ है। उसके लिये व्यर्थ अधिक चिन्ता करने अथवा कष्ट उठाने की जरूरत नहीं है । अत हमको बिल्कुल निर्भय होकर, साहस और धैर्यके साथ, सब मनुष्योमें जैनधर्मका प्रचार करना चाहिये । सबसे पहले लोगोका श्रद्धान ठीक करना और फिर उनका आचरण सुधारना चाहिये । जैनी बनने और बनानेके लिए इन्ही दो बातोकी खास जरूरत हैं। इनके बाद सामाजिक व्यवहार है, जो देश कालकी परिस्थितियो-आवश्यकतामो
और परस्परके प्रेममय सद्वर्तन आदि पर विशेष प्राधार रखता है। उसके लिए कोई एक नियम नही हो सकता। वह जितना ही निर्दोष दृढ तथा प्रेममूलक होगा उतना ही समाज और उसके धर्मकी स्थितिके लिये उपयोगी तथा हितकारी होगा।
१ आदिपुराणमे तो म्लेच्छो तकको कुलशुद्धि आदिके द्वारा अपने बना लेनेकी-उन्हे क्रमश अपनी जातिमे शामिल कर लेनेकी-व्यवस्था की गई है । जैसा कि उसके निम्न वाक्यसे प्रकट है -
स्वदेशेऽनक्षरम्लेछान प्रजाबाधाविधायिन. । कुलशुद्धि-प्रदानाद्यः स्वसाकुर्याधुपक्रम. ॥-पर्व ४२वा
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भक्ति-योग-रहस्य जैनधर्मके अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टिसे अथवा शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा परस्पर समान है- कोई भेद नही, सबका वास्तविक गुरग-स्वभाव एक ही है । प्रत्येक जोव स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोका आधार है-पिड है । परन्तु अनादिकालसे जीवोके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी मूल प्रकृतियाँ पाठ, उत्तर प्रकृतियाँ एकसौ अडतालीस और उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ असंख्य हैं। इस कर्म-मलके कारण जीवोका असली स्वभाव आच्छादित है, उनकी वे शक्तियाँ अविकसित है और वे परतत्र हुए नाना प्रकारकी पर्यायें धारण करते हुए नजर आते है। अनेक अवस्थाप्रोको लिये हुए ससारका जितना भी प्राणिवर्ग है वह सब उसी कर्म-मलका परिणाम है-उसीके भेदसे यह सब जीव-जगत् भेदरूप है, और जीवकी इस अवस्थाको "विभाव-परिणति' कहते है । जब तक किसी जीवकी ये विभावपरिणति बनी रहती है, तब तक वह 'ससारी' कहलाता है और तभी तक उसे ससारमे कर्मानुसार नाना प्रकारके रूप धारण करके परिभ्रमण करना तथा दुख उठाना होता है। जब योग्य साधनोके बलपर यह विभाव-परिणति मिट जाती है-आत्मामे कर्म-मलका सम्बन्ध नहीं रहता-और उसका निज स्वभाव सर्वाङ्गरूपसे अथवा
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भक्ति-योग- रहस्य
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पूर्णतया विकसित हो जाता है, तब वह जीवात्मा संसार - परिभ्रमणसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है, जिसकी दो अवस्थाए हैं--एक जीवन्मुक्त श्रीर दूसरी विदेहमुक्त | इस प्रकार पर्यायदृष्टिसे जीवोंके संसारी' और 'सिद्ध' ऐसे मुख्य दो भेद कहे जाते हैं, अथवा अविकसित अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्ण विकसित ऐसे चार भागोमें भी उन्हें बाटा जा सकता है । और इसलिये जो अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे ही उनके पूज्य एव प्राराध्य हैं, जो अविकसित या अल्पविकसित हैं, क्योकि श्रात्मगुणोका विकाश सबके लिये इष्ट है ।
ऐसी स्थिति होते हुए यह स्पष्ट है कि ससारी जीवोका हित इसमें है कि वे अपनी विभाव-परिरगतिको छोडकर स्वभावमे स्थिर होने अर्थात् सिद्धिको प्राप्त करनेका यत्न करे । इसके लिये श्रात्मगुणोका परिचय चाहिये, गुरणोमे वर्द्धमान अनुराग चाहिये और विकास मार्गको दृढ श्रद्धा चाहिये। बिना अनुरागके किसी भी गुरणकी प्राप्ति नहीं होती - अननुरागी अथवा प्रभक्त-हृदय गुरणग्रहणका पात्र ही नही, बिना परिचयके अनुराग बढाया नही जा सकता और बिना विकास मार्गकी दृढ श्रद्धाके गुणोके विकासकी और यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती । और इसलिये अपना हित एव विकास चाहनेवालोको उन पूज्य महापुरुषो अथवा सिद्धात्मानोंकी शरण मे जाना चाहिये -- उनकी उपासना करनी चाहिये, उनके गुरणों में अनुराग बढाना चाहिये और उन्हे अपना मार्ग प्रदर्शक मानकर उनके नक्शे कदम पर चलना चाहिये, अथवा उनकी शिक्षाश्रो पर अमल करना चाहिये, जिनमे आत्माके गुरणोका अधिकाधिक रूपमें अथवा पूर्णरूपमे विकास हुआ हो, यही उनके लिये कल्याणका सुगम मार्ग है ।
वास्तव में ऐसे महान महात्मानोके विकसित श्रात्मस्वरूपक भजन और कीर्तन ही हम संसारी जीवोंके लिये अपने श्रात्माका अनुभवन और मनन है। हम 'सोऽहं' की भावना - द्वारा उसे अपने
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arair-freeraat
जीवनमें उतार सकते हैं और उन्हींके - अथवा परमात्मस्वरूपकेआदर्शको सामने रखकर अपने चरित्रका गठन करते हुए अपने प्रात्मीय गुणोका विकास सिद्ध करके तद्र प हो सकते हैं। इस सब अनुष्ठानमें उनकी कुछ भी गरज नही होती और न इसपर उनकी कोई प्रसन्नता ही निर्भर है - यह सब साधना अपने ही उत्थानके लिये की जाती है । इसीसे सिद्धिके साधनो में 'भक्ति-योग' को एक मुख्य स्थान प्राप्त है, जिसे भक्ति मार्ग' भी कहते हैं ।
सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्मा की भक्ति द्वारा आत्मोत्कर्ष साधने का नाम ही 'भक्ति-योग' अथवा 'भक्ति-मार्ग' है और भक्ति' उनके गुणो अनुरागको, तदनुकूल वर्त्तनेको अथवा उनके प्रति गुरणानुरागपूर्वक आदर-सत्काररूप प्रवृत्तिको कहते हैं, जो कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पत्ति एव रक्षाका साधन है। स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, सेवा, श्रद्धा और प्राराधना ये सब भक्तिके ही रूप अथवा नामान्तर हैं। स्तुति - पूजा - वन्दनादि रूपसे इस भक्तिक्रियाको सम्यक्त्वafaat क्रिया बतलाया है, शुभोपयोगि चारित्र लिखा है और साथ ही 'कृतिकर्म' भी लिखा है, जिसका अभिप्राय है 'पापकर्म छेदनका अनुष्ठान' । सद्भक्तके द्वारा श्रौद्धत्य तथा ग्रहकार के त्यागपूर्वक गुणानुराग बढनेसे प्रशस्त अध्यवसायकी - कुशल परिणामकीउपलब्धि होती है और प्रशस्त अध्यवसाय अथवा परिणामोकी विशुद्धिसे संचित कर्म उसी तरह नाशको प्राप्त होता है, जिस तरह काष्ठके एक सिरेमें अग्निके लगनेसे वह सारा ही काष्ठ भस्म हो जाता है। इधर सचित कर्मोके नाशसे श्रथवा उनकी शक्तिके शमनसे गुरणावरोधक कर्मोकी निर्जरा होती या उनका बल-क्षय होता है तो उधर उन प्रभिलषित गुरगोका उदय होता है, जिनसे आत्माका विकास सता है । इसीसे स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् प्राचार्योंने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिको कुशल-परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है और अपने
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भकि-योग-रहस्य
३१५ तेजस्वी तथा सुकृती आदि होनेका कारण भी इसीको निर्दिष्ट किया है, और इसीलिये स्तुति-वदनादिके रूपमें यह भक्ति अनेक नैमित्तिक क्रियाप्रोमें ही नही, किन्तु नित्यको षट् आवश्यक-क्रियाओंमे भी शामिल की गई है, जो कि सब आध्यात्मिक क्रियाएँ हैं और अन्तदृष्टिपुरुषो (मुनियो तथा श्रावको) के द्वारा प्रात्मगुरगोके विकासको लक्ष्यमे रखकर ही नित्य की जाती हैं और तभी वे प्रास्मोत्कर्षकी साधक होती है । अन्यथा, लोकिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढि आदिके वश होकर करनेसे उनके द्वारा प्रशस्त अध्यवसाय नही बन सकता और न प्रशस्त अध्यवसायके बिना सचित पापो अथवा कर्मों का नाश होकर आत्मीय गुणोका विकाश ही सिद्ध किया जा सकता है । प्रत इस विषयमे लक्ष्यशुद्धि एव भावशुद्धिपर दृष्टि रखनेकी खास जरूरत है, जिनका सम्बन्ध विवेकसे है । विना विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नही होती, और न विना विवेककी भक्ति सद्भक्ति ही कहलाती है।
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महावीरकी तीर्थ- प्रवर्तन - तिथिका महत्व
श्रीवर्द्धमान महावीरकी गर्भ जन्म-तप ( दीक्षा ) -ज्ञान - निर्वारण नामकी पच कल्याणक तिथियाँ खूब प्रसिद्ध हैं - प्राय नित्यकी पूजामें उनका उच्चारण-स्मरण किया जाता है और उन्हें लक्ष्य करके पचकल्याणक - व्रतानुष्ठानमे उपवास भी किये जाते हैं । जन्मतिथि तो 'महावीर जयन्ती' के रूपमे प्राय सर्वत्र उत्सवादि-पूर्वक मनाई जाती है । परन्तु भ० महावीर के उपासकोमें ऐसे बहुत ही कम --नहीके बराबर -- लोग निकलेगे जिन्हे भगवान्की तीर्थ-प्रवर्तन-तिथि अर्थात् वह दिन भी ठीक अवगत हो जिस दिन उन्होने केवलोत्पत्तिके पश्चात् लोक-हितार्थ अपना उपदेश प्रारम्भ किया था और उसके द्वारा धर्म
धर्मकी यथार्थ परिभाषा बतलाकर तथा तत्त्व-तत्त्वका ठीक भेद समझाकर अज्ञानान्धकारमे भूले-भटकते हुए प्राणियोको सन्मार्ग दिखलाया था, उनके वहमो - मिध्याविश्वासो को दूर भगाकर उनकी कुप्रवृत्तियोको सुधारनेका सातिशय प्रयत्न किया था और अन्यायअत्याचारोसे पीडित एव प्राकुलित जनताको सान्त्वना देकर उसके उद्धारका नेतृत्व ग्रहण करते हुए विश्वभरको सुख-शान्तिका सच्चा सन्देश सुनाया था । कृतज्ञता और उपकार स्मरण श्रादिकी दृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह तीर्थ- प्रवर्तन तिथि दूसरी जन्मादि तिथियोसे कुछ कम महत्वकी नही है, बल्कि कितने ही अशोमें अधिक महत्व
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महावीरकी तीर्थ प्रवर्तन-तिथिका महत्व
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रखती हैं। क्योंकि दूसरी तिथिया जब व्यक्तिविशेषके उत्कर्षादिसे सम्बन्ध रखती हैं तब यह तिथि पीडित, पतित और मार्गच्युत जनताके उत्थान एवं कल्याणके साथ सीधा सम्बन्ध रखती है, और इसलिये अपने हितमें सावधान कृतज्ञ जनताके द्वारा खास तौरसे स्मरण रखने तथा महत्व दिये जाने योग्य है । परन्तु खेद है कि आज हम अपने कल्याणका सूत्रपात करनेवाली उस पावन तिथिको प्राय बिल्कुल ही भुला बैठे हैं । हमे यह भी मालूम नही कि जिस तीर्थ- प्रवर्तन के कारण हम म० महावीरको तीर्थंकर मानकर पूजते हैं वह तीर्थप्रवृत्ति अथवा तीर्थोत्पत्ति किस दिन हुई थी । फिर उस की स्मृत्तिमें कोई शुभकृत्य करना अथवा किसी उत्सवादिके रूपमे वह पुण्यदिवस मनाना तो दूरकी बात है । अत प्राज इस लेख - द्वारा मैं अपने भाईयोका ध्यान उनके इस पवित्र कर्तव्यकी श्रोर श्राकर्षित करता है ।
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'धवल' नामक सिद्धान्त ग्रन्थमे, जो अभी तक अलभ्य श्रीर दुष्प्राप्य था, उस पुण्यतिथिका उल्लेख निम्न प्रकारने पाया जाता है
वासस्स पढम मासे पढमे पक्खम्मि साबणे बहुले । पाविद पुदिवसेतित्युत्पत्ती दु श्रभिजिहि ॥
इस गाथामें साफ तौरसे भ० महावीरके तीर्थकी उत्पत्ति श्रावरण कृष्णा प्रतिपदाको पूर्वाहके समय अभिजित नक्षत्र मे बतलाई है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि वह श्रावरणका महीना वर्षका पहला महीना था और वह कृष्ण पक्ष वर्षका पहला पक्ष था, जिससे एक बड़े ही महत्वका ऐतिहासिक तत्व प्रकाशमें प्राता है, और वह यह कि महावीर के समय में यहाँ वर्षका प्रारम्भ श्रावरणके महीने तथा कृष्णापासे होता था -- विक्रमादि संवतोकी तरह किसी दूसरे महीने अथवा शुक्लपक्षसे नहीं होता था । और इससे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि ग्राजसे कोई ढाई हजार वर्ष पहले निर्वारण
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युगवीर - निबन्धावली
संवत्से २६ वर्ष ३ || महीने पूर्व हमारे इस कृषि प्रधान देश में सावनीNidhi विभागरूप फसली साल प्रवृत्त था । तब श्राजकल फसली सालकी जो सख्या बतलाई जाती और प्रवृत्ति में आ रही है वह किस आधार पर अवलम्बित है और कहाँ तक ठीक है, यह अवश्य ही एक विचारणीय विषय है, जिस पर विद्वानोको खासतौर से अनुसधान पूर्वक प्रकाश डालना चाहिये । अस्तु ।
धवल सिद्धान्तमे एक दूसरी गाथा और दी है, जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उक्त श्रावरण कृष्ण प्रतिपदाका वह पूर्वाहका समय सूर्योदयका समय था, अभिजित नक्षत्रका उस समय योग हुना ही था और रुद्र नामका प्रथम मुहुर्त वर्त रहा था, उसी समयका यह सब योग जो युगकी प्रादि-युगारम्भका माना जाता है वही वीरशासनकी उत्पत्तिका समझना चाहिये । वह गाथा इस प्रकार हैसावबहुलपविरुद्दमुहुत्ते सुहोदए रबिणो ।
अभिजिस्स पढमजोए तत्थ जुगादो मुणेयब्बो ||
इस तरह श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी तिथि महावीरकी तीर्थप्रवर्तन- तिथि, युगारभ-तिथि अथवा शासन-तिथि है और इससे उसका महत्व स्वत. स्पष्ट है । उस दिन महावीर - शासन के प्रेमियोको खास तौर पर उक्त शासनकी महत्ताका विचार कर उसके अनुसार अपने प्रचार-विचारको स्थिर करना चाहिये और लोक्मे महावीरशासनके प्रचारका -- महावीर सन्देशको सर्वत्र फैलाने का -- भरसक उद्योग करना चाहिये अथवा जो लोग शासन प्रचार के कार्य मे लगे हो उन्हें सच्चा सहयोग एव साहाय्य प्रदान करना चाहिये, जिससे वीरशासनका प्रसार होकर लोकमे सुख-शान्ति-मूलक कल्याणकी अभिवृद्धि होवे । श्राशा है सहृदय बन्धुजन मेरी इस छोटीसी सूचना एवं प्रेरणा पर अवश्य ही ध्यान देनेकी कृपा करेंगे ।
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सकाम-धर्मसाधन लौकिक-फलकी इच्छानोको लेकर जो धर्मसाधन किया जाता है उसे 'सकाम-धर्मसाधन' कहते हैं और जो धर्म वैसी इच्छाप्रोको साथमें न लेकर, मात्र आत्मीय-कर्तव्य समझ कर किया जाता है उसका नाम 'निष्काम-धर्मसाधन है । निष्काम-धर्मसाधन ही वास्तवमें धर्मसाधन है और वही वास्तविक फलको फलता है। सकाम-धर्मसाधन धर्मको विकृत करता है, सदोष बनाता है और उससे ययेष्ट धर्म-फलकी प्राप्ति नही हो सकती । प्रत्युत इसके, अधर्मकी और कभी कभी घोर-पाप-फलकी भी प्राप्ति होती है। जो लोग धर्मके वास्तविक स्वरूप और उसकी शक्तिसे परिचित नही, जिनके अन्दर धैर्य नहीं, श्रद्धा नही, जो निर्बल है, कमजोर हैं, उतावले हैं और जिन्हे धर्मके फल पर पूरा विश्वास नही,ऐसे लोग ही फल-प्राप्तिमे अपनी इच्छाकी टागे अडा कर धर्मको अपना कार्य करने नहीं देते-उसे पगु और बेकार बना देते हैं, और फिर यह कहते हुए नहीं लजाते कि धर्म-साधनसे कुछ भी फलकी प्राप्ति नहीं हुई। ऐसे लोगोके समाधानार्थ-उन्हे उनकी भूलका परिज्ञान करानेके लिए ही- यह निबन्ध लिखा जाता है, और इसमे प्राचार्यवाक्योके द्वारा ही विषयको स्पष्ट किया जाता है।
श्रीगुरणभद्राचार्य अपने 'प्रात्मानुशासन' ग्रन्थों लिखते हैं
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युगबीर-निबन्धावली संकल्प्य कल्पवृक्षस्य चिन्त्य चिंतामणेरपि ।
असकल्प्यमसचिन्त्यं फल धर्मादयाप्यते ॥२२॥ 'फलके प्रदानमे कल्पवृक्ष सकल्पकी और चिन्तामणि चिन्ताकी अपेक्षा रखता है-- कल्पवृक्ष बिना सकल्प किये और चिन्तामणि बिना चिन्ता किये फल नही देता, परन्तु धर्म वैसी कोई अपेक्षा नही रखता-वह बिना सकल्प किये और बिना चिन्ता किये ही फल प्रदान करता है।'
जब धर्म स्वय ही फल देता है और फल देनेमे कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणिकी शक्तिको भी मात (परास्त ) करता है, तब फल प्राप्तिके लिए इच्छाएँ करके -निदान बाधकर-अपने प्रात्माको व्यर्थ ही सक्लेशित और आकूलित करनेकी क्या ज़रूरत है ? ऐसा करनेसे तो उलटा फल-प्राप्तिके मार्गमे काँटे बोए जाते हैं, क्योकि इच्छा फल-प्राप्तिका साधन न होकर उसमें बाधक हैं । __इसमें सदेह नहीं कि धर्म-साधनसे सब सुख प्राप्त होते हैं, परन्तु तमी तो जब धर्मसाधनमें विवेकसे काम लिया जाय । अन्यथा, क्रियाके-बाह्यधर्माचरणके समान होने पर भी एकको बन्ध फल, दूसरेको मोक्षफल अथवा एकको पुण्यफल और दूसरेको पापफल, क्यो मिलता है ? देखिये, कर्मफलकी इस विचित्रताके विषयमें श्रीशुभचन्द्राचार्य ज्ञानारर्णवमें क्या लिखते हैं
बत्र बालरचरस्यस्मिन्पथि तत्रैव पडितः ।
बाल स्वमपि बध्नाति मुच्यते तश्वविद्ध्वम् ।।७२१॥ 'जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसी पर ज्ञानी । दोनोका धर्माचरण समान होने पर भी अज्ञानी अविवेकके कारण कर्म बांधता है और शानी विवेक-द्वारा कर्म-बन्धनसे छूट जाता है।' शानावके निम्न श्लोकमें भी इसी बातको पुष्ट किया गया है
वेष्टयत्यात्मनात्मानमानी कर्मबन्धनः । विज्ञानी मोषवत्येव प्रदः समयान्तरे ७१४॥
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सकाम-धर्मसाधन
३२१ इससे विवेक-पूर्वक आचरणका कितना बडा माहात्म्य है उसे बतलानेकी अधिक ज़रूरत नहीं रहती।
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, अपने प्रवचनसारके चारित्राधिकारमें, इसी विवेकका सम्यग्ज्ञानका-माहात्म्य वर्णन करते हुए बहुत स्पष्ट शब्दोमें लिखा है :
ज अराणाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं।
तणाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥३८॥ अर्थात्-अज्ञानी-अविवेकी मनुष्य जिस अथवा जितने ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूहको शत-सहस्र-कोटि-भवोंमे-करोडो जन्म लेकर-क्षय करता है उस अथवा उतने कर्म-समूहको ज्ञानी-विवेकी मनुष्य मन-वचन-कायकी क्रियाका निरोध कर अथवा उसे स्वाधीन कर स्वरूपमें लीन हुआ उच्छवासमात्रमें-लीलामात्रमे-नाश कर डालता है।
इससे अधिक विवेकका माहात्म्य और क्या हो सकता है ? यह विवेक ही चारित्रको 'सम्यक्चारित्र' बनाता है और ससार-परिभ्रमरण एवं उसके दुख-कष्टोंसे मुक्ति दिलाता है। विवेकके बिना चारित्र मिथ्याचारित्र है, कोरा कायक्लेश है और वह ससार-परिभ्रमण तथा दुख-परम्पराका ही कारण है। इसीसे विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके अनन्तर चारित्रका पाराधन बतलाया गया है, जैसा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्यके निम्न वाक्यसे प्रगट है.
न हि सम्यग्व्यपदेश चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्त चारित्राराधनं तस्मात् ।।३८।।
-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय अर्थात्-प्रज्ञानपूर्वक-विवेकको साथमे न लेकर-दूसरोंकी देखा देखी अथवा कहने-सुनने मात्रसे-जो चारित्रका अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यकुचारित्र' नाम नहीं पाता-उसे 'सम्यक्चारित्र' नही कहते । इसीसे ( भागममें ) सम्यग्ज्ञानके अनन्तर-विवेक हो
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युगवीर-निबन्धाबली जाने पर-चारित्रके पाराधनका-अनुष्ठानका-निर्देश किया गया है-रत्नत्रयधर्मकी आराधनामें, जो मुक्तिका मार्ग है, चारित्रकी आराधनाका इसी क्रमसे विधान किया गया है।
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, प्रवचनसारमे, 'चारित्त खलु धम्मो' इत्यादि वाक्यके द्वारा जिस चारित्रको स्वरूपाचरणको-वस्तु-स्वभाव होनेके कारण धर्म बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक सम्यकचारित्र है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है और जो मोह-क्षोभ अथवा मिथ्यात्व-राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादिरूप विभाबपरिणतिसे रहित आत्माका निज परिणाम होता है ।
वास्तवमे यह विवेक ही उस भावका जनक होता है जो धर्माचरणका प्राण कहा गया है । विना भावके तो क्रियाए फलदायक होती ही नहीं है। कहा भी है
यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्या । तदनुरूप भावके बिना पूजनादिककी, तप-दान-जपादिककी और यहाँ तक कि दीक्षाग्रहणादिककी सब क्रियाएँ भी ऐसी ही निरर्थक हैं जैसे कि बकरीके गलेके स्तन (थन), अर्थात् जिस प्रकार बकरीके गलेमे लटकते हुए स्तन देखनेमे स्तनाकार होते हैं, परन्तु वे स्तनोका कुछ भी काम नहीं देते--उनसे दूध नही निकलता--उसी प्रकार बिना तदनुकूल भावके पूजा-तप-दान-जपादिककी उक्त सब क्रियाएँ भी देखनेकी ही क्रियाएँ होती है, पूजादिकका वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता ।
१ चारित्त खलु धम्मो धम्मो जो समो त्ति रिणद्दिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्परणो हु समो।।७।। २. देखो, कल्याणमन्दिरस्नोत्रका 'माकरिंगतोऽपि' आदि पद्य । ३. भावहीनस्य पूजादि-तपोदान-जपादिकम् ।। व्यथं दीक्षादिकं च स्यादजाकठे स्तनाविव ।।
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ज्ञानी-विवेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि किन भावोंसे पुण्य बंधता है-किनसे पाप और किनसे दोनोका बन्ध नहीं होता? स्वच्छ, शुभ तथा शुद्ध भाव किसे कहते हैं ? और अस्वच्छ, अशुद्ध तथा अशुभ भाव किसका नाम है ? सासारिक विषय-सौख्यकी तृष्णा अथवा तीवकषायके वशीभूत होकर जो पुण्य-कर्म करना चाहता है वह वास्तवमे पुण्यकर्मका सम्पादन कर सकता है या कि नहीं? और ऐसी इच्छा धर्मकी साधक है या बाधक ? वह खूब समझता है कि सकामधर्मसाधन मोह-क्षोभादिसे घिरा रहनेके कारण धर्मकी कोटिसे निकल जाता है, धर्म वस्तुका स्वभाव होता है और इसलिये कोई भी विभाव परिणति धर्मका स्थान नहीं ले सकती। इसीसे वह अपनी धार्मिक क्रियानोंमे तद्र पभावकी योजना-द्वारा प्रारणका सचार करके उन्हे सार्थक और सफल बनाता है । ऐसे ही विवेकी जनोंके द्वारा अनुष्ठित धर्मको सब-सुखका कारण बतलाया है। विवेककी पुट बिना अथवा उसके सहयोगके प्रभावमे मात्र कुछ क्रियाओंके अनुष्ठानका नाम ही धर्म नही है। ऐसी क्रियाएँ तो जड मशीने भी कर सकती हैं और कुछ करती हुई देखी भी जाती हैं-फोनोग्राफके कितने ही रिकार्ड खूब भक्ति-रसके भरे हुए गाने तथा भजन गाते हैं
और शास्त्र पढते हुए भी देखनेमे आते है। और भी जडमशीनोसे आप जो चाहे धर्मकी बाह्य क्रियाएँ करा सकते है। इन सब क्रियाओको करके जड़मशीन जिस प्रकार धर्मात्मा नहीं बन सकतीं और न धर्मके फलकोही पा सकती है, उसी प्रकार अविवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके विना धर्मकी कुछ क्रियाएँ कर लेने मात्रसे ही कोई धर्मात्मा नहीं बन जाता और न धमके फलको ही पा सकता है। ऐसे अविवेकी मनुष्यो और जडमशीनोमे कोई विशेष अन्तर नही होताउनकी क्रियाओंकों सम्यक्चारित्र न कहकर 'यात्रिक चारित्र' कहना चाहिये । हो, जड़ मशीनोकी अपेक्षा ऐसे मनुष्योंमें मिथ्याज्ञान तथा मोहकी विशेषता होने के कारण वे उसके द्वारा पाप-बन्ध करके अपना
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युगवीर-निबन्धावली । अहित जरूर कर लेते हैं-जब कि जडमशीने वैसा नही कर सकती। इसी यात्रिक चारित्रके भुलावेमे पडकर हम अक्सर भूले रहते है और यह समझते रहते हैं कि हमने धर्मका अनुष्ठान कर लिया । इसी तरह करोडो जन्म निकल जाते हैं और करोडो वर्षकी बाल-तपस्यासे भी उन कर्मोका नाश नहीं हो पाता, जिन्हे एक ज्ञानी पुरुष त्रियोगके ससाधन-पूर्वक क्षणमात्रमे नाश कर डालता है।
इस विषयमे स्वामी कार्तिकेयने, अपने अनुप्रेक्षा ग्रन्थमे, कितना ही प्रकाश डाला है । उसके निम्न वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है :
कन्म पुण्ण पाव हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा । मदकमाया मच्छा तिबकसाया असच्छा हु ॥ जीवो वि हवइ पाव अइतिञ्च कमायपरिणदो णिच्च । जीबो हवेइ पुण्ण उवसमभावेण सजुत्तो । जोअहिलसेदि पुण्णं सकसानोविसयसोक्खतबहाए । दूरे तस्म विमोही विसोहिमूलाणि पुरणाणि ।। पुरणासएण पुएणे जदो णिरीहस्स पुण्णसपत्ती । इय जारिणऊण जइणो पुण्णे वि म प्रायरं कुरणह ।। पुरण बधदि जीवो मंदकसाहिं परिणदो सतो। तम्हा मदकसाया हेऊ पुण्णस्स एहि वछा ॥
गाथा ६०, १६०, ४१०-४१२ इन गाथानोमे बतलाया है कि-'पुण्यकर्मका हेतु स्वच्छ (शुभ) परिणाम है और पापकर्मका हेतु अस्वच्छ (अशुभ या अशुद्ध ) परिणाम । मदकषायरूप परिणामोंको स्वच्छ परिणाम और तीव्रकषायरूप परिणामोको अस्वच्छ परिणाम करते हैं । जो जीव अतितीव्र-कषायसे परिणत होता है, वह पापी होता है और जो उपशमभावसे-कषायकी मंदतासे युक्त रहता है वह पुण्या
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सकाम-धर्मसाधन त्मा कहलाता है । जो जीव कषायभाबसे युक्त हुप्रा विषयसोख्यकी तृष्णासे-इद्रियविषयको अधिकाधिक रूपमे प्राप्त करनेकी तीनइच्छासे-पुण्य करना चाहता है -पुण्य क्रियामोके करनेमे प्रवृत्त होता है-उससे विशुद्धि बहुत दूर रहती है और पुण्य-कर्म विशुद्धिमूलक-चित्तकी शुद्धि पर आधार रखनेवाले होते हैं । प्रत. उनके द्वारा पुण्यका सम्पादन नही हो सकता-वे अपनी उन धर्मके नामसे अभिहित होनेवाली क्रियाओंको करके पुण्य पैदा नहीं कर सकते। चूकि पुण्यफलकी इच्छा रखकर धर्मक्रियाप्रोके करनेसेसकाम-धर्मसाधनसे--पुण्यकी सम्प्राप्ति नहीं होती, बल्कि निष्कामरूपसे धर्मासाधन करनेवालेके ही पुण्यकी सप्राप्ति होती है, ऐसा जानकर पुण्यमे भी आसक्ति नहीं रखना चाहिए। वास्तवमे जो जीव मदकषायसे परिणत होता है वही पुण्य बाधता है, इसलिये मन्दकषाय ही पुण्यका हेतु है, विषयवांछा पुण्यका हेतु नहीविषयवाछा अथवा विषयासक्ति तीवकषायका लक्षण है और उसका करनेवाला पुण्यसे हाथ धो बैठता है।'
इन वाक्योसे स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधनके द्वारा अपने विषय-कषायोकी पुष्टि एव पूर्ति चाहता है उसकी कषाय मन्द नही होती और न वह धर्मके मार्ग पर स्थिर ही होता है, इसलिए उसके द्वारा वीतराग भगवान्की पूजा-भक्ति-उपासना तथा स्तुतिपाठ, जपध्यान, सामायिक, स्वाध्याय, तप, दान और व्रत-उपवासादिरूपसे जो भी धार्मिक क्रियाए बनती है वे सब उसके आत्मकल्याणके लिए नहीं होती---उन्हे एक प्रकारको सासारिक दुकानदारी ही समझना चाहिए। ऐसे लोग धार्मिक क्रियाए करके भी पाप उपार्जन करते हैं और सुखके स्थानमे उलटा दुखको निमन्त्रण देते हैं । ऐसे लोगोकी इस परिणतिको श्रीशुभचन्द्राचार्यने, ज्ञानावग्रन्थके २५ बे प्रकरणमे, निदान-जनित प्रात्तध्यान लिखा है और उसे घोर दु.खोका कारण बतलाया है। यथा.---
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'युगवीर-निबन्धाक्लो पुण्यानुष्ठानजातैरभिनषति पदं यजिनेन्द्रामराणां, यद्वा तैरेव वाछत्यहितकुलकुजच्छेदमस्यन्तकोपात । पूजा-सत्कार-लाभ-प्रतिकमथवा याचते यद्विकल्प स्यानातं तनिदानप्रभवमिह नृणां दु खदावोप्रधाम ॥
अर्थात्--अनेक प्रकारके पुण्यानुष्ठानोको-धर्म कृत्योको-करके जो मनुष्य तीर्थंकरपद तथा दूसरे देवोंके किमी पदकी इच्छा करता है अथवा कुपित हुआ उन्ही पुण्याचरणोंके द्वारा शत्रुकुलरूपी वृक्षोके उच्छेदकी वाँछा करता है, अथवा अनेक विकल्पोके साथ उन धर्म-कृत्योको करके अपनी लौकिक पूजा-प्रतिष्ठा तथा लाभादिककी याचना करता है, उसकी यह सब सकाम-प्रवृत्ति 'निदानज' नामका आर्तध्यान है । ऐसा प्रार्तध्यान मनुष्योके लिए दुःख-दावानलका अग्रस्थान होता है-उससे महादुःखोकी परम्परा
चलती है।
वास्तवमे आतध्यानका जन्म ही सक्लेश-परिणामोसे होता है, जो पापबन्धके कारण है। ज्ञानार्णवके उक्त प्रकरणान्तर्गत निम्न श्लोकमे भी आर्तध्यानको कृष्ण-नील-कापोत ऐसी तीन अशुभ लेश्याअोके बल पर ही प्रकट होनेवाला लिखा है और साथ ही यह सूचित्त किया है कि प्रार्तध्यान पापरूपी दावानलको प्रज्वलित करनेके लिए ईन्धनके समान है--
कृष्ण-नीलाधमल्लेश्याबलेन प्रविजृम्भते ।
इद दुरितदावाचि. प्रसूतेरिन्धनोपमम् ॥४०॥ इसमे स्पष्ट है कि लौकिक फलोकी इच्छा रखकर धर्मसाधन करना धर्माचरणको दूषित और निष्फल ही नहीं बनाता, वल्कि उलटा पापबन्धका कारण भी होता है, और इसलिए हमे इस विषयमे बहुत ही सावधानी रखनेकी ज़रूरत है। सम्यक्त्वके पाठ अंगोमें नि.काक्षित नामका भी एक अग है, जिसका वर्णन करते हुए श्रीममितगति प्राचार्य उपासकाचारके तीसरे परिच्छेदमें साफ लिखते हैं
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सकाम-धर्मसाधन विधीयमानाः शम-शील-संबमाः श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । सांसारिकानेकसुखप्रवद्धिनी निकांक्षितो नेति करोति कांताम् ।।७४
अर्थात-नि काक्षित अंगका धारक सम्यग्दृष्टि इस प्रकारकी वाछा नही करता है कि मैंने जो शम, शील और सयमका अनुष्ठान किया है वह सब धर्माचरण मुझे उस मनोवांछित लक्ष्मीको प्रदान करे, जो नानाप्रकारके सासारिक सुखोमे वृद्धि करनेके लिए समर्थ होती है-ऐसी वाछा करनेसे उसका सम्यक्त्व दूषित होता है।
इसी नि काक्षित सम्यग्दृष्टिका स्वरूप श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने 'समयसार' में इस प्रकार दिया है
जो ण करेदि दु कख कम्मफले तह य सव्वधम्मसु । सो णिक्कखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयधो ।। २४८॥
अर्थात् - जो धर्मकर्म करके उसके फलकी-इन्द्रिय-विषयसुखादिकी - इच्छा नही रखता है- यह नहीं चाहता है कि मेरे अमुककर्मका मुझे अमुकलौकिक फल मिले-और न उस फलसाधनकी दृष्टिसे नाना प्रकारके पुण्यरूप धर्मोंको ही इष्ट करता हैअपनाता है--और इस तरह निष्कामरूपसे धर्मसाधन करता है, उसे 'नि.काक्षित सम्यग्दृष्टि' समझना चाहिये। __ यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि तत्त्वार्थसूत्रमे क्षमादि दश धर्मोके साथमे 'उत्तम' विशेषण लगाया गया हैउत्तम क्षमा, उत्तम मार्दवादिरूपसे दश धर्मोका निर्देश किया है। यह विशेषण क्यो लगाया गया है ? इसे स्पष्ट करते हुए श्रीपूज्यपाद प्राचार्य अपनी 'सर्वार्थ-सिद्धि' टीकामे लिखते हैं
दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् । अर्थात्-लौकिक प्रयोजनोको टालनेके लिए 'उत्तम' विशेषरणका प्रयोग किया गया है।
इससे यह विशेषणपद यहाँ 'सम्यक्' शब्दका प्रतिनिधि जान पड़ता है और उसकी उक्त व्याख्यासे स्पष्ट है कि किसी लौकिक
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युगवीर-निबन्धाक्ली प्रयोजनको लेकर-कोई दुनियावी ग़र्ज साधनेके लिये-यदि क्षमा, मार्दव-पार्जव-सत्य-शौच-सयम-तप-त्याग-आकिचन्य-ब्रह्मचर्य इन दश धर्मोमेंसे किसी भी धर्मका अनुष्ठान किया जाता है तो वह अनुष्ठान धर्मकी कोटिसे निकल जाता है। ऐसे सकाम-धर्मसाधनको वास्तवमें धर्मसाधन ही नहीं कहते । धर्मसाधन तो स्वरूपसिद्धि अथवा आत्मविकासके लिये प्रात्मीय कर्तव्य समझकर किया जाता है, और इसलिये वह निष्काम-धर्मसाधन ही हो सकता है।
इस प्रकार सकामधर्मसाधनके निषेधमे आगमका स्पष्ट विधान और पूज्य आचार्योंकी खुली प्राज्ञाएँ होते हुए भी खेद है कि हम आज-कल अधिकाशमे सकाम-धर्मसाधनकी ओर ही प्रवृत्त हो रहे हैं। हमारी पूजा-भक्ति उपासना, स्तुति-वन्दना-प्रार्थना, जप तपदान और सयमादिकका सारा लक्ष लौकिक फलोकी प्राप्ति ही रहता है-कोई उसे करके धन-धान्यकी वृद्धि चाहता है, तो कोई पुत्रकी सप्राप्ति । कोई रोग दूर करनेकी इच्छा रखता है, तो . कोई शरीरमे बल लानेकी । कोई मुकद्दमेमे विजय लाभके लिये उसका अनुष्ठान करता है, तो कोई अपने शत्रुको परास्त करनेके लिये । कोई उसके द्वारा किसी ऋद्धि-सिद्धिकी साधनामे व्यग्र है, तो कोई दूसरे लौकिक कार्योंको सफल बनानेकी धुनमे मस्त । कोई इस लोकके सुखोको चाहता है, तो कोई परलोकमे स्वर्गादिकोके सुखोकी अभिलाषा रखता है । और कोई-कोई तो तृष्णाके वशीभूत होकर यहाँ तक अपना विवेक खो बैठता है कि श्रीवीतराग भगवानको भी रिश्वत (घूस) देने लगता है- उनसे कहने लगता है कि हे भगवन् । आपकी कृपासे यदि मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो जाएगा तो मैं आपकी पूजा करूंगा, सिद्धचक्रका पाठ था'गा, छत्र-जूवरादि भेट करूंगा, रथ-यात्रा निकलवाऊँगा, गज-रथ चलवाऊँगा अथवा मन्दिर बनवा दूंगा ।। ये सब धर्मकी विडम्बनाएं हैं । इस प्रकारकी विडम्बनामोंसे अपनेको धर्मका कोई लाभ नहीं होता और न आत्म
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सकाम-धर्मसाधन
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विकास ही सघ सकता है। जो मनुष्य धर्मकी रक्षा करता है - उसके विषयमें विशेष सावधानी रखता हुआ उसे विडम्बित या कलकित नही होने देता - वही धर्मके वास्तविक फलको पाता है । 'धर्मो रक्षति रक्षित ' की नीति के अनुसार रक्षा किया हुम्रा धर्म ही उसकी रक्षा करता है और उसके पूर्ण विकासको सिद्ध करता है ।
ऐसी हालत मे सकामधर्मसाधनको हटाने और धर्मकी बिडम्ब - नानोको मिटानेके लिये समाजमे पूर्ण प्रान्दोलन होनेकी ज़रूरत है, तभी समाज विकसित तथा धर्मके मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा तभी उसकी धार्मिक पोल मिटेगी और तभी वह अपनी पूर्व गौरव गरिमाको प्राप्त कर सकेगा। इसके लिये समाजके सदाचारनिष्ठ एव धर्मपरायण विद्वानोको आगे आना चाहिये और ऐसे दूषित धर्माचररणो की युक्ति-पुरस्सर खरी-खरी आलोचना करके समाजको सजग तथा सावधान करते हुए उसे उसकी भूलोका परिज्ञान कराना चाहिये तथा भूलोके सुधारका सातिशय प्रयत्न कराना चाहिये । यह इस समय उनका खास कर्तव्य है और बडा ही पुण्यकार्य है । ऐसे आन्दोलन द्वारा सन्मार्ग दिखलानेके लिये समाजके अनेक प्रमुख पत्रोको अपनाना - उनका उपयोग करना चाहिये ।
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२८ सेवा-धर्म
अहिसाधर्म, दयाधर्म, दशलक्षणधर्म, रत्नत्रयधर्म, सदाचारधर्म, अथवा हिन्दूधर्म, मुसलमानधर्म, ईसाईधर्म, जैनधर्म, बौद्धधर्म इत्यादि धर्मनामोसे हम बहुत कुछ परिचित है, परन्तु 'सेवाधर्म' हमारे लिये अभी तक बहुत ही अपरिचितसा बना हुआ है । हम प्राय समझते ही नही कि सेवाधर्म भी कोई धर्म है अथवा प्रधान धर्म है। कितनोने ही तो सेवाधर्मको सर्वथा शूद्रकर्म मान रक्खा है,वे सेवकको गुलाम समझते हैं और गुलामीमे धर्म कहाँ ? इसीसे उनकी उस प्रकारके संस्कारोमे पली हुई बुद्धि सेवाधर्मको कोई धर्म अथवा महत्वका धर्म माननेके लिये तैय्यार नहीं-वे समझ ही नहीं पाते कि एक भाडेके सेवक, अनिच्छापूर्वक मजबूरीसे काम करनेवाले परतन्त्रसेवक और स्वेच्छासे अपना कर्तव्य समझकर सेवाधर्मका अनुष्ठान करनेवाले अथवा लोकसेवामे दत्तचित्त रहनेवाले स्वयसेवकमे कितना बडा अन्तर है । ऐसे लोग सेवाधर्मको शायद किसी नये धमकी ही सृष्टि समझते हो, परन्तु ऐसा समझना ठीक नहीं है। वास्तवमे सेवाधर्म सब धर्मोमे प्रोत-प्रोत है और सबमे प्रधान है । विना इस धर्मके सब धर्म निष्प्राण हैं, नि सत्व है और उनका कुछ भी मूल्य नहीं है। क्योंकि मन-वचन-कायसे स्वेच्छा एवं विवेकपूर्वक ऐसी क्रियाप्रोका छोडना जो किसीके लिये हानिकारक हो और ऐसी क्रियानोका
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सेवा-धर्म
करना जो उपकारक हो 'सेवा-धर्म' कहलाता है।
'मेरे द्वारा किसी जीवको कष्ट अथवा हानि न पहुंचे, मैं सावद्ययोगसे विरक्त होता हूँ,' लोकसेवाकी ऐसी भावनाके बिना अहिंसाधर्म कुछ भी नहीं रहता; और 'मैं दूसरोंका दुख-कष्ट दूर करनेमे कैसे प्रवृत्त हूँ' इस सेवा भावनाको यदि दया-धर्मसे निकाल दिया जाय तो फिर वह क्या अवशिष्ट रहेगा? इसे सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इसी तरह दूसरे धर्मोका हाल है। सेवाधर्मकी भावनाको निकाल देनेसे वे सब थोये और निर्जीव हो जाते हैं। सेवाधर्म ही उन सबमे, अपनी मात्राके अनुसार, प्राणप्रतिष्ठा करनेवाला है। इसलिये सेवाधर्मका महत्व बहुत ही बढ़ा चढ़ा है और वह एक प्रकारसे अवर्णनीय है । अहिसादिक सब धर्म उसके अग अथवा प्रकार है और वह सबमें व्यापक है। ईश्वरादिककी पूजा-भक्ति अथवा उपासना भी उसीमे शामिल ( गभित) है, जो कि अपने पूज्य एव उपकारी पुरुषोके प्रति किये जानेवाले अपने कर्तव्यके पालनादिस्वरूप होती है । इसीसे उसको 'देवसेवा' भी कहा गया है। किसी देव अथवा धर्म-प्रवर्तकके गुणोका कीर्तन करना, उसके शासनको स्वय मानना, सदुपदेशको अपने जीवनमे उतारना और शासनका प्रचार करना, यह सब उस देव अथवा धर्म-प्रवर्तककी सेवा है और इसके द्वारा अपनी तथा अन्य प्राणियोकी जो सेवा होती है वह सब इससे भिन्न दूसरी आत्मसेवा अथवा लोकसेवा है। इस तरह एक सेवामे दूसरी सेवाएं भी शामिल होती हैं।
स्वामी समन्तभद्रने अपने इष्टदेव भगवान महावीरके विषयमे अपनी सेवाप्रोका और अपनेको उनकी फलप्राप्तिका जो उल्लेख एक पद्यमे किया है वह पाठकोंके जानने योग्य है और उससे उन्हे देवसेवाके कुछ प्रकारोका बोध होगा और साथ ही यह भी मालूम होगा कि सच्चे हृदयसे और पूर्ण तन्मयताके साथ की हुई वीर-प्रभुकी सेवा कैसे उत्तम फलको फलती है । इसीसे उस पद्यको उनके 'स्तुति
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युगवीर- निबन्धावली
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विद्या' नामक ग्रन्थ (जिनशतक) से यहाँ उद्धृत किया जाता है सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचनं चापि ते हस्तावंजलये कथा श्रुतिरतः कर्णोऽक्षिसंप्रेक्षते । सुम्तुत्या व्यसन शिरोनतिपर से वेदृशी येन ते तेजस्त्री सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेज पते ॥ ११४॥ इसमे बतलाया है कि - 'हे भगवन् । श्रापके मतमे प्रथवा प्रापके ही विषय में मेरी सुश्रद्धा है - अन्धश्रद्धा नही, मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए है, मैं पूजन भी आपका ही करता हूँ, मेरे हाथ आपको ही प्ररणामाजलि करनेके निमित्त है, मेरे कान आपकी ही गुणकथा सुननेमे लीन रहते हैं, मेरी आँखें आपके ही रूपको देखती है, मुझे जो व्यसन है वह भी आपकी ही सुन्दर स्तुतियो' के रचनेका है और मेरा मस्तक भी आपको ही प्ररणाम करनेमे तत्पर रहता है, इस प्रकारकी चूँकि मेरी सेवा है - मैं निरन्तर ही प्रापका इस तरह पर सेवन किया करता हूँ - इसीलिये हे तेज पते । ( केवलज्ञानस्वामिन् 1 ) मै तेजस्वी हूँ, सुजन हूँ प्रौर सुकृति ( पुण्यवान् ) हूँ ।'
यहाँ पर किसीको यह न समझ लेना चाहिये कि सेवा तो बडो - की - पूज्य पुरुषो एव महात्मानोकी होती है और उसीसे कुछ फल भी मिलता है, छोटो - असमर्थों अथवा दीन-दुखियों आदिकी सेवामें क्या धरा है ? ऐसा समझना भूल होगा । जितने भी बडे, पूज्य, महात्मा अथवा महापुरुष हुए हैं वे सब छोटो, श्रसमर्थों, असहायो एव दीन-दुखियोकी सेवासे ही हुए हैं-सेवा ही सेवकोको सेव्य बनाती अथवा ऊँचा उठाती है और इसलिये ऐसे महान लोक-सेवकोकी
१. समन्तभद्रकी देवागम युक्त्यनुशासन और स्वयं भूस्तोत्र नामकी स्तुतियाँ बडे ही महत्वकी एव प्रभावशालिनी है और उनमे सूत्ररूपसे जैनागम अथवा वीरशासन भरा हुआ है ।
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सेवा-धर्म
३३३ सेवा अथवा पूजा-भक्तिका यह अभिप्राय नहीं कि हम उनका कोरा गुरणगान किया करे अथवा उनकी ऊपरी (प्रौपचारिक) सेवा-चाकरीमे ही अपनेको लगाये रक्खें-उन्हे तो अपने व्यक्तित्वके लिये हमारी सेवाकी जरूरत भी नहीं है-कृतकृत्योको उसकी ज़रूरत भी क्या हो सकती है ? इसीसे स्वामी समन्तभद्रने कहा है-'न पूज्यार्थस्त्वयि. वीतरागे'-अर्थात् हे भगवन् । पूजा-भक्तिसे आपका कोई प्रयोजन नही है, क्योकि आप वीतरागी है--रागका प्रश भी आपकी प्रात्मामे विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसीकी पूजा-सेवासे आप प्रसन्न होते । वास्तवमे ऐसे महान् पुरुषोकी सेवा-उपासनाका मुख्य उद्देश्य उपकार स्मरण और कृतज्ञता व्यक्तीकरणके साथ 'तद्गुणलब्धि'उनके गुणोकी सप्राप्ति होता है । इसी बातको श्रीपूज्यपादाचार्यने, 'सर्वार्थसिद्धि' के मगलाचरण ( 'मोक्षमार्गस्य नेतार' इत्यादि ) मे, 'वन्दे तद्गुरणलब्धये' पदके द्वारा व्यक्त किया है । तद्गुणलब्धिके लिये तद्रूप आचरणकी जरूरत है और इसलिये जो तद्गुणलब्धिकी इच्छा करता है वह पहले तद्रूप आचरणको अपनाता है-अपने आराध्यके अनुकूल वर्तन करना अथवा उसके नकशेकदम पर चलना प्रारम्भ करता है । उसके लिये लोकसेवा अनिवार्य हो जाती है-दीनो, दू खितो, पीडितो पतितो, असहायो. असमर्थों. अज्ञो और पथभ्रष्टोकी सेवा करना उसका पहला कर्तव्यकर्म बन जाता है । जो ऐसा न करके अथवा उक्त ध्येयको सामने न रखकर ईश्वर-परमात्मा या पूज्य महात्मानोको भक्तिके कोरे गीत गाता है वह या तो दभी है या ठग है-अपनेको तथा दूसरोको ठगता हैऔर या उन जड मशीनोकी तरह अविवेकी है जिन्हे अपनी क्रियानोका कुछ भी रहस्य मालूम नहीं होता। और इसलिये भक्तिके रूपमे उसकी सारी उछल-कूद तथा जयकारोका-जय-जयके नारोका-कुछ भी मूल्य नही है। वे सब दभपूर्ण अथवा भावशून्य होनेसे बकरीके गलेमे लटकते हुए स्तनो (धनो) के समान निरर्थक होते हैं उनका
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युगवीर - निबन्धावली
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कुछ भी वास्तविक फल नही होता ।
महात्मा गाँधीजी ने कई बार ऐसे लोगोको लक्ष्य करके कहा है कि 'वे मेरे मुंह पर थूकें तो अच्छा, जो भारतीय होकर भी स्वदेशी वस्त्र नही पहनते और सिरसे पैर तक विदेशी वस्त्रोको धारण किये हुए मेरी जय बोलते है ।' ऐसे लोग जिस प्रकार गांधीजीके भक्त अथवा सेवक नही कहे जाते बल्कि मज़ाक उड़ानेवाले समझे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग अपने पूज्य महापुरुषोके अनुकूल नाचररण नही करते - अनुकूल आचरणकी भावना तक नही रखतेखुशीसे विरुद्धाचरण करते हैं और उस कुत्सित श्रचरणको करते हुए ही पूज्य पुरुषकी वदनादि क्रिया करते तथा जय बोलते है, उन्हे उस महापुरुषका सेवक अथवा उपासक नही कहा जा सकता - वे भी उस पूज्य व्यक्तिका उपहास करने-करानेवाले ही होते हैं, अथवा यह कहना होगा कि वे अपने उस श्राचरणके लिए जड़ मशीनोकी तरह स्वाधीन नही हैं और ऐसे पराधीनोका कोई धर्म नही होता । सेवाधर्मके लिये स्वेच्छापूर्वक कार्यका होना आवश्यक है, क्योकि स्वपरहित साधनकी दृष्टिसे स्वेच्छापूर्वक अपना कर्तव्य समझकर जो निष्काम कर्म अथवा कर्म त्याग किया जाता है वह सच्चा सेवाधर्म है ।
जब पूज्य महात्मानोकी सेवाके लिये गरीबोकी - दीन-दुखियोकी, पीडितो - पतितोकी, असहायो- असमर्थोकी, प्रज्ञो और पथभ्रष्टोकी सेवा अनिवार्य है - उस सेवाका प्रधान अग है, विना इसके वह बनती ही नही - तब यह नही कहा जा सकता और न कहना उचित ही होगा कि "छोटों - प्रसमर्थों अथवा दीन-दुखियो प्रादिकी सेवामे क्या घरा है ?" यह सेवा तो अहकारादि दोषोको दूर करके आत्माको ऊँचा उठानेवाली है, तद्गुण - लब्धिके उद्देश्यको पूरा करनेवाली है और हर तरह श्रात्मविकासमें सहायक है, इसलिये परमधर्म हू और सेवाधर्मका प्रधान अंग है । जिस धर्मके अनुष्ठानसे अपना कुछ भी आत्मलाभ न होता हो वह तो वास्तवमें धर्म ही नहीं है ।
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सेवा-धम
३३५ इसके सिवाय, अनादिकालसे हम निर्बल, असहाय, दीन, दुखित पतित, मार्गच्युत और अज्ञ-जैसी अवस्थामोमें ही अधिकतर रहे हैं और उन अवस्थाप्रोमें हमने दूसरोंकी खूब सेवाएं ली हैं तथा सेवासहायताकी प्राप्तिके लिये निरन्तर भावनाए भी की हैं, और इसलिये उन अवस्थाप्रोमें पडे हुए अथवा उनमेसे गुजरनेवाले प्राणियोकी सेवा करना हमारा और भी ज्यादा कर्त्तव्यकर्म है, जिसके पालनके लिये हमें अपनी शक्तिको जरा भी नही छिपाना चाहियेउसमे जी चुराना अथवा आना-कानी करने जैसी कोई बात न होनी चाहिये। इसीको यथाशक्ति कर्तव्यका पालन कहते है। __ एक बच्चा पैदा होते ही कितना निर्बल और असहाय होता है और अपनी समस्त प्रावश्यकतानोकी पूर्तिके लिये कितना अधिक दूसरो पर निर्भर रहता अथवा प्राधार रखता है । दूसरे जन उसकी खिलाने-पिलाने, उठाने-बिठाने, लिटाने-सूलाने, प्रोढने-बिछाने, दिलबहलाने, सर्दी-गर्मी प्रादिसे रक्षा करने और शिक्षा देने-दिलानेकी जो सेवाए करते है वे सब उसके लिये प्राणादानके समान हैं। समर्थ होने पर यदि वह उन सेवाग्रोको भूल जाता है और घमडमे आकर अपने उन उपकारी सेवकोकी-माता-पितादिकोकी- सेवा नही करता-- उनका तिरस्कार तक करने लगता है तो समझना चाहिये कि वह पतनकी ओर जा रहा है । ऐसे लोगोको ससारमे कृतघ्न, गुणमेट और अहसानफरामोश जैसे दुर्नामो से पुकारा जाता है। कृतघ्नता अथवा दूसरोके किये हुए उपकारो और ली हुई सेवाग्रोको भूल जाना बहुत बड़ा अपराध है और वह विश्वासघातादिकी तरह ऐसा बड़ा पाप है कि उसके भारसे पृथ्वी भी कांपती है । किसी कविने ठीक कहा है -
कर विश्वासघात जो कोय,कीया कृतको विसरै जोय ।
पाण्द पड़े मित्र परिहरे, तासु भार धरणी थरहरै ।। • ऐसे ही पापोका भार बढ जानेसे पृथ्वी अक्सर डोला करतो
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युगवीर - निबन्धावली
है -- भूकम्प श्राया करते हैं । और इसीसे जो साघु पुरुष - भले आदमी - होते हैं वे दूसरोके किये हुए उपकारो अथवा ली हुई सेवाश्रोको कभी भूलते नही हैं- -नहि कृतमुपकार साधवो विस्मरन्ति'बदले मे अपने उपकारियोकी अथवा उनके श्रादर्शानुसार दूसरोकी सेवा करके ऋणमुक्त होते रहते हैं। उनका सिद्धान्त तो 'परोपकाराय सता विभूतय' की नीतिका अनुसरण करते हुए प्राय यह होता है
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उपकारिषु य' साधु साधुत्वे तस्य को १ गुण अपकारिषु य साधु स साधु सद्भिरुच्यते ॥
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अर्थात् -- अपने उपकारियोके प्रति जो साधुताका- प्रत्युपकारादिरूप सेवाका - - व्यवहार करता है उसके उस साधुपनमे कौन बडाईकी बात है ? – ऐसा करना तो साधारण - जनोचित मामूलीसी बात है । सत्पुरुषोने उसे सच्चा साघु बतलाया है जो अपना अपकार एव बुरा करनेवालोके प्रति भी साधुताका व्यवहार करता हैउनकी सेवा करके उनके श्रात्मासे शत्रुताके विषको ही निकाल देना अपना कर्तव्य समझता है ।
ऐसे साधुपुरुषोवी दृष्टि मे उपकारी, अनुपकारी और प्रपकारी प्राय सभी समान होते हैं । उनकी विश्वबन्धुत्वकी भावनामे किसीका अपकार या अप्रिय श्राचरण कोई बाधा नही डालता । 'अप्रियमपि कुर्वाणो य प्रिय प्रिय एव स ' इस उदार भावनासे उनका श्रात्मा सदा ऊँचा उठा रहता है । वे तो सेवाधर्मके अनुष्ठान द्वारा अपना विकास सिद्ध किया करते है, और इसीसे सेवाधर्मके पालन में सब प्रकारसे दत्तचित्त होना अपना परम कर्तव्य समझते हैं ।
वास्तवमें, पैदा होते ही जहाँ हम दूसरोसे सेवाएँ लेकर उनके ऋरणी बनते है वहाँ कुछ समर्थ होने पर अपनी भोगोपभोगकी सामग्री जुटानेमे, अपनी मान-मर्यादाकी रक्षामें, अपनी कषायोको पुष्ट करनेमे और अपने महत्व या प्रभुत्वको दूसरों पर स्थापित
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सेवा-धर्म करनेकी धुनमें अपराध भी कुछ कम नहीं करते हैं। इस तरह हमारा प्रात्मा परकृत-उपकार-भार और स्वकृत-अपराध-भारसे बराबर दबा रहता है। इन भारोंके हलका होनेके साथ साथ ही प्रारमाके विकासका सम्बन्ध है। लोकसेवासे यह भार हलका होकर प्रात्मविकासकी सिद्धि होती है। इसीसे सेवाको परमधर्म कहा गया है
और वह इतना परम-गहन हे कि कभी-कभी तो योगियोके द्वारा भी अगम्य हो जाता है -उनकी बुद्धि चकरा जाती है, वे भी उसके सामने घुटने टेक देते हैं और गहरी समाधिमे उतर कर उसके रहस्य को खोजनेका प्रयत्न करते है। लोकसेवाके लिये अपना सर्वस्व अर्परस कर देने पर भी उन्हे बहुधा यह कहते हुए सुनते है"हा दुहकर्य हा दुट्ठ भासिय चितिय च हा दुट्ठ !
अतो अतो डउझम्मि पच्छत्तावेण वेयंतो।" मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिमे जहाँ थोडीसा भी प्रमत्तता, असावधानी अथवा त्रुटि लोकहितके विरुद्ध दीख पडती है वहाँ उसी समय उक्त प्रकारके उद्गार उनके मुहसे निकल पडते हैं और वे उनके द्वारा पश्चाताप करते हुए अपने सूक्ष्म अपराधोका भी नित्य प्रायश्चित्त किया करते हैं । इसीसे यह प्रसिद्ध है कि
___ 'सेवाधर्मः परमगहना योगिनामप्यगम्य ।"
सेवाधर्मकी साधनामे, नि सन्देह, बडी सावधानीकी जरूरत है और उसके लिये बहुत कुछ आत्मबलि-अपने लौकिक स्वार्थोकी माहुति-देनी पडती है। पूर्णसावधानी ही पूर्णसिद्धिकी जननी है, धर्मकी पूर्णसिद्धि ही पूर्ण आत्मविकासके लिये गारंटी है और यह प्रात्मविकास ही सेवाधर्मका प्रधान लक्ष्य है,उद्देश्य है अथवा ध्येय है ।
मनुष्यका लक्ष्य जब तक शुद्ध नहीं होता तब तक सेवाधर्म उसे कुछ कठिन और कष्टकर जरूर प्रतीत होता है, वह सेवा करके अपना अहसान बताता है, प्रतिसेवाकी-प्रत्युपकारकी-वाँछा करता है प्रथका अपनी वथा दूसरोंकी सेवाको मापतौल किया करता
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युगवीर-निबन्धावलो है और जब उसकी मापतौल ठीक नही उतरती-अपनी सेवासे दूसरोकी सेवा कम जान पड़ती है-अथवा उसकी वह वाछा ही पूरी नही होती और न दूसरा प्रादमी उसका अहसान ही मानता है, तो वह एकदम झु झला उठता है, खेदखिन्न होता है दुख मानता है, सेवा करना छोड देता है और अनेक प्रकारके राग द्वेषोका शिकार बनकर अपनी प्रात्माका हनन करता है। प्रत्युत इसके, लक्ष्यशुद्धिके होते ही यह सब कुछ भी नही होता, सेवाधर्म एकदम सुगम और सुखसाध्य बन जाता है,उसके करनेमे आनन्द ही आन द आने लगता है और उत्साह इतना बढ़ जाता है कि उसके फलस्वरूप लौकिक स्वार्थोंकी सहजमें ही बलि चढ जाती है तथा जरा भी कष्ट-बोध होने नही पाता । इस दशामे जो कुछ भी किया जाता है अपना कर्तव्य समझकर खुशीसे किया जाता है और उसके साथमे प्रतिसेवा, प्रत्युपकार अथवा अपने आदर-सत्कार या अहकारकी कोई भावना न रहनेसे भविष्यमे दुख, उद्वेग तथा कषायभावोकी उत्पत्तिका कोई कारण ही नहीं रहता, और इसलिये सहजमे ही आत्मविकास सध जाता है। ऐसे लोग यदि किसीको दान भी करते हैं तो नीचे नयन करके करते हैं। किसीने पूछा 'आप ऐसा क्यो करते हैं ?' तो वे उत्तर देते हैं -
“देनेवाला और है, मैं समरथ नहिं देन । __ लोग भरम मो करत है, याते नीचे नैन ॥" अर्थात्-देनेवाला कोई और ही है और वह इसका भाग्योदय है-मैं खुद कुछ भी देनेके लिये समर्थ नही हूँ । यदि मैं दाता होता तो इसे पहले से क्यो न देता ? लोग भ्रमवश मुझे व्यर्थ ही दाता सममते हैं, इससे मुझे शरम आती है और मैं नीचे नयन किये रहता हूँ। देखिये, कितना ऊंचा भाव है । आत्मविकासको अपना लक्ष्य बनानेवाले मानवोंकी ऐसी ही परिणति होती है । अस्तु । - लक्ष्यशुद्धिके साथ इस सेवाधर्मका अनुष्ठान हर कोई अपनी
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सेवा-धर्म
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शक्तिके अनुसार कर सकता है। नौकर अपनी नौकरी, दुकानदार दुकानदारी, वकील वकालत, मुख्तार मुख्तारकारी, मुहरिर मुहरिरी, ठेकेदार ठेकेदारी, ओहदेदार ओहदेदारी, डाक्टर डाक्टरी, हकीम हिकमत, वैद्य वैद्यक, शिल्पकार शिल्पकारी, क्सिान खेती तथा दूसरे पेशेवर अपने-अपने उस पेशेका कार्य और मजदूर अपनी मजदूरी करता हुआ उसीमेसे सेवाका मार्ग निकल सकता है। सबके कार्योंमें सेवाधर्मके लिये ययेष्ट अवकाश है-गु जाइश है ।
___ सेवाधर्मके प्रकार और मार्ग अब मैं सक्षेपमे यह बतलाना चाहता हूँ कि सेवा-धर्म कितने प्रकारका है और उसके मुख्य मार्ग कौन-कौन हैं । सेवा धर्मके मुख्य 'भेद दो है-एक क्रियात्मक और दूसरा प्रक्रियात्मक । क्रियात्मकको प्रवृत्तिरूप तथा प्रक्रियात्मकको निवृत्तिरूप सेवाधर्म कहते हैं । यह दोनो प्रकारका सेवाधर्म मन, वचन तथा कायके द्वारा चरितार्थ होता है, इसलिये सेवाके मुख्य मार्ग मानसिक, वाचिक और कायिक ऐसे तीन ही हैं-धनादिकका सम्बन्ध कायके साथ होनेसे वह भी कायिकमे ही शामिल है। इन्ही तीनो मार्गोंसे सेवाधर्म अपने कार्यमे परिणत किया जाता है और उसमें आत्म-विकासके लिये सहायक सारे ही धर्म-समूहका समावेश हो जाता है।
निवृत्तिरूप सेवाधर्ममे अहिसा प्रधान है। उसमे हिंसारूप क्रियाका-सावद्य-कर्मका-अथवा प्राणव्यपरोपरगमें कारणीभूत मन वचन-कायकी प्रमत्तावस्थाका तथा सकल्पका त्याग किया जाता है। मन-वचन-कायकी इद्रिय-विषयोमे स्वेच्छा-प्रवृत्तिका भले प्रकार निरोघरूप 'गुप्ति', गमनादिकमें प्राणि-पीडाके परिहाररूप 'समिति', क्रोधकी अनुत्पत्तिरूप 'क्षमा', मानके अभावरूप 'मार्दव',माया अथवा योगवक्रताकी निवृत्तिरूप 'आर्जव', लोभके परित्यागरूप 'शीच', अप्रशस्त एव असाधु वचनोंके त्यागरूप 'सत्य', प्राणव्यपरोपण और
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युगवीर-निबन्धावली इन्द्रिय-विषयोंके परिहाररूप 'संयम', इच्छानिरोधरूप 'तप', दुष्टविकल्पोंके सत्याग अथवा माहारादिक देय-पदामिसे ममत्वके परिबर्जनरूप याग, बाह्य पदार्थों में मू के प्रभावरूप 'पाकिचिन्य', अब्रह्म अथवा मैथुनकर्मकी निवृतिरूप 'ब्रह्मचर्य' (ऐसे 'दशलक्षणधर्म), क्षधादि-वेदनाओंके उत्पन्न होने पर चित्तमे उद्वेग तथा प्रशान्तिको न होने देने रूप 'परिषहजय', रागद्वेषादि-विषमताप्रोकी निवृत्तिरूप 'सामायिक' और कर्म-ग्रहरणकी कारणीभूत-क्रियाप्रोसे विरक्तिरूप
चारित्र', ये सब भी निवृत्तिरूप सेवाधर्मके ही अग हैं, जिनमेसे कुछ हिसा' और कुछ हिसेतर' क्रियाप्रोके निषेधको लिये हुए हैं। ' इस निवृत्ति-प्रधानसे वाधमके अनुष्ठानके लिए किसी भी कोडीसेकी पासमे जरूरत नहीं है । इसमे तो अपने मन-वचन-कायकी कितनी ही क्रियाओं तकको रोकना होता है - उनका भी व्यय नहीं किया जाता । हाँ, इस धर्म पर चलनेके लिये नीचे लिखा गुरुमत्र बडा ही उपयोगी है-अच्छा मार्गदर्शक है -
___ "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत् ।"
'जो जो बाते, क्रियाएँ, चेष्टाएँ तुम्हारे प्रतिकूल हैं-जिनके दूसरो-द्वारा किए हुए व्यवहारको तुम अपने लिये पसद नहीं करते, अहितकर और दुखदाई समझते हो-उनका आचरण तुम दूसरोंके प्रति मत करो।'
यही पापोसे बचनेका गुरुमत्र है । इसमे सकेतरूपसे जो कुछ कहा गया है व्याख्या-द्वारा उसे बहुत कुछ विस्तृत तथा पल्लवित करके बतलाया जा सकता है।
प्रवृत्तिरूप सेवाधर्ममे 'दया' प्रधान है। दूसरोके दुखो-कष्टोका अनुभव करके- उनसे द्रवीभूत होकर-उनके दूर करनेके लिए मनकचन-कायकी जो प्रवृत्ति है व्यापार है-उसका नाम 'दया है। अहिंसाधर्मका अनुष्ठाता जहाँ अपनी पोरसे किसीको दु ख-कष्ट नहीं पहुंचाता, वहा दयाधर्मका अनुष्ठाता दूसरों के द्वारा पहुंचाए
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सेवा-धर्म गये दुख-कष्टोंको भी दूर करनेका प्रयत्न करता है । यही दोनोंमें प्रधान अन्तर है। अहिंसा यदि सुन्दर पुष्प है तो दयाको उसकी सुगध समझना चाहिए।
दयामे सक्रिय परोपकार, दान, वैय्यावृत्य, धर्मोपदेश और दूसरोके कल्याणकी भावनाएं शामिल हैं । अज्ञानसे पीड़ित जनताके हितार्थ विद्यालय-पाठशालाएं खुलवाना, पुस्तकालय-वाचनालय स्थापित करना, रिसर्च इन्स्टीट्यूटोंका-अनुसन्धान प्रधान सस्थानो का - जारी कराना, वैज्ञानिक खोजोको प्रोत्तेजन देना तथा ग्रन्थनिर्माण और व्याख्यानादिके द्वारा प्रज्ञानान्धकारको दूर करनेका प्रय न करना, रोगसे पीडित प्राणियोंके लिए प्रौषधालयो-चिकित्सालयोकी व्यवस्था करना, बेरोजगारी अथवा भूखसे सतप्त मनुष्योके लिए रोजगार-धन्धेका प्रबन्ध करके उनके रोटीके सवालको हल करना मोर कुरीतियो, कुसस्कारो तथा बुरी आदतोसे जर्जरित एव पतनोन्मुख मनुष्य-समाजके सुधारार्थ सभा-सोसाइटियोका कायम करना और उन्हे व्यवस्थितरूपसे चलाना, ये सब उसी दया-प्रधान प्रवृत्तिरूप सेवाधर्मके अङ्ग है। पूज्योकी पूजा-भक्ति-उपासनाके द्वारा अथवा भक्तियोग-पूर्वक जो अपने प्रात्माका उत्कर्ष सिद्ध किया जाता है वह सब भी मुख्यतया प्रवृतिरूम सेवाधर्मका अङ्ग है। __ इस प्रवृत्तिरूप सेवाधर्ममें भी जहाँ तक अपने मन, वचन और कापसे सेवाका सम्बन्ध है वहाँ तक किसी कोड़ी-पेसेकी ज़रूरत नहीं पड़ती-जहाँ सेवाके लिए दूसरे साधनोसे काम लिया जाता है वहां ही उसकी जरूरत पडली है। और इस तरह यह स्पष्ट है कि अधिकाश सेवाधर्मके अनुष्ठानके लिए मनुष्यको टके पैसेकी जरूरत नहीं है। जरूरत है अपनी चित्तवृत्ति और लक्ष्यको शुद्ध करनेकी, जिसके बिना सेवाधर्म बनता ही नही।
इस प्रकार सेवाधर्मका मह सक्षिप्तरूप, विवेचन अथवा विम्वन है, जिसमे सब धोका समावेश हो जाता है।
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होलीका त्यौहार और उसका सुधार भारतके त्योहारोमें होली भी एक देश-व्यापी मुख्य त्यौहार है। अनेक धर्म-समाजोमे इसकी जो कथाएँ प्रचलित हैं वे अपनी अपनी साम्प्रदायिक दृष्टिको लेकर भिन्न भिन्न पाई जाती हैं । यहाँ पर उन सबके विचारका अवसर नहीं है । होलीकी कथाका मूलरूप कुछ भी क्यो न रहा हो, परन्तु यह त्यौहार अपने स्वरूपपरसे समता
और स्वतत्रताका एक प्रतीक जान पडता है, अथवा इसे सार्वजनिक हंसी-खुशी एव प्रसन्न रहनेके अभ्यासका देशव्यापी सक्रिय-अनुष्ठान कहना चाहिये।
इस अवसर पर हर एकको बोलने, मनका भाव व्यक्त करने, स्वाग-तमाशो तथा नृत्य-गानादिके रूपमें यथेष्ट चेष्टाएँ करने,प्रानन्द मनाने और मानाऽपमानका खयाल छोडकर-बडाई-छोटाई अथवा ऊंचता-नीचताकी कल्पना-जन्य व्यर्थका सकोच त्यागकर-एक दूसरेके सम्पर्कमे आनेकी स्वतत्रता होती है। साथ ही, किसीके भी रग डालने, धूल उडाने, हंसी-मजाक करने तथा अप्रिय चेष्टाएं करने पादिको स्वेच्छापूर्वक खुशीसे सहन किया जाता है-अपनी तौहीनः (मानहानि ) आदि समझकर उस पर क्रोधका भाव नही लाया जाता, न अपनी पोजीशनके बिगडनेका कोई खयाल ही सताता है, पौर यो एक प्रकारसे समता-सहनशीलताका अभ्यास किया जाता
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होलीका त्योहार भौर उसका सुधार
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है । अथवा यो कहिये कि इसके द्वारा राष्ट्रके लिये विघातक ऐसे राग-द्वेषादि-मूलक अनुचित भेद-भावोको कुछ समयके लिये भुलाया जाता है— उन्हे भुलाने तथा जलाने तकका उपक्रम एव प्रदर्शन किया जाता है - और इस तरह राष्ट्रीय एकताको बनाये रखने अथवा राष्ट्रीय- समुत्थानके मार्गको साफ करनेका यह भी एक कदम अथवा ढग होता है । 'होलीकी कोई दाद-फर्याद नही' यह लोकोक्ति भी इसी भावको पुष्ट करती है, और इसलिये इस त्योहारको अपने असली रूपमें समता और स्वतंत्रताका रूपक ही नही, किन्तु एक प्रतीक कहना ज्यादा अच्छा मालूम होता है ।
समय भी इसके लिये अच्छा चुना गया है, जो कि बसन्त ऋतुका मध्यकाल होनेसे प्रकृतिके विकासका यौवन काल है । प्रकृतिके इस विकाससे पदार्थ- पाठ लेकर हमे उसके साथ साथ अपने देश-राष्ट्र एव आत्माका विकास अथवा उत्थान सिद्ध करना ही चाहिये । उसीके प्रयत्न - स्वरूप - उसी लक्ष्यको सामने रखकर - यह त्यौहार मनाया जाता था, और तब इसका मनाना बडा ही सुन्दर जान पडता था । परन्तु खेद है कि ग्राज वह बात नही रही । उसका वह लक्ष्य और उद्देश्य ही नही रहा जो उसके मूलमे काम करता था । उसके पीछे जो शुभ भावनाएँ दृष्टिगोचर होती थी और जिन्हे लेकर ही वह लोकमे प्रतिष्ठित हुआ था उन सबका आज प्रभाव है | आज तो यह त्यौहार इन्द्रिय-वृत्तियोको पुष्ट करनेका आधार अथवा चित्तकी जघन्य वृत्तियोको प्रोत्तेजन देनेका साधन बना हुआ है, जो कि व्यक्ति और राष्ट्र दोनोके पतनका कारण है और त्यौहारके रूपमे उसका कोई भी महान ध्येय सामने नही है । इसीसे होलीका वर्तमानरूप विकृत कहा जाता है, उसमें प्रारण न होनेसे वह देशके लिये भाररूप है और इसलिये उसे उसके वर्तमान रूपमें मनाना उचित नही है । उसमें शरीक होना उसके विकृत रूपको पुष्ट करना है ।
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युगवीर-नावली
यदि समता और स्वतंत्रताके सिद्धान्तपर अवलम्बित राष्ट्रीयएकता प्रादिकी दृष्टिसे, चित्तकी शुद्धिको कायम रखते हुए, यह त्यौहार अपने शुद्ध स्वरूप में मनाया जाय श्रौर उससे जनताको उदारता एवं सहनशीलतादिका सक्रिय-सजीव-पाठ पढाया जाय तो इसके द्वारा देशका बहुत कुछ हित साधन हो सकता है और वह अपने उत्पान एव कल्याणके मार्गपर लग सकता है ।
इसके लिये ज़रूरत है काग्रेस जैसी राष्ट्रीय सस्थाके आगे आने की और इसके शरीर में घुसे हुए विकारोको दूर करके उसमें फिरसे नई प्राण-प्रतिष्ठा करनेकी । यदि कांग्रेस इस त्योहारको हिन्दूधर्मकी दलदल से निकाल कर विशुद्ध राष्ट्रीयताका रूप दे सके, एक राष्ट्रीय सप्ताह श्रादिके रूपमे इसके मनानेका विशाल आयोजन कर सके और मनानेके लिये ऐसी मर्यादाएँ स्थिर करके दृढताके साथ उनका पालन कराने में समर्थ हो सके जिनसे अभ्यासादिके वश कोई भी किसीका अनिष्ट न कर सके और जो व्यक्ति तथा राष्ट्र दोनोंके उत्थान में सहायक हो, तो वह इस बहाने समता और स्वतंत्रताका अच्छा वातावरण पैदा करके देशका बहुत कुछ हित-साधन कर सकेगी और सच्च स्वराज्यको बहुत निकट ला सकेगी। यदि का स ऐसा करनेके लिये तैयार न हो तो फिर हिन्दू महासभादि देशकी दूसरी सस्थान तथा ग्राम पचायतोको इस त्यौहारके सुधारका भारी प्रयत्न करना चाहिये ।
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क्या ही अच्छा हो यदि देशके प्रमुख विद्वान, समाज-सेवक, नेता, मंत्रीगण और पंचजन इस त्योहारके सुधार - विषयमे अपने अपने विचार प्रकट करनेकी कृपा करें और सुधार - विषयक अपनी अपनी योजनाएं राष्ट्रके सामने रखकर उसे सुधारके लिये प्रेरित करें ।
होली पर्व सुधार - विषयमें मेरी दस सूत्री योजना इस प्रकार
है
(१) इस पर्वके दिन अशुभ राग तथा द्वेष-मूलक कार्य न किये
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होलीमालोझर और उसका सुधार ३४॥ काने बाहिय । ऐसी कोषित होनी चाहिये कि हम अपने काम तय चेष्टामो दूसरोंको कितना प्रसन्न, प्रमुदित पयवाभादित कर सकते हैं।
(२) ऐसे किसी भी पदार्थका रमादिके रूममें प्रयोग न करना चाहिये जो दूसरोंके स्वास्थ्य में बाधक हो अथवा मारी-अचिका विषय हो, जैसे नालियोका बोडा-कीचड, गन्दा पानी, गोबर, तारकोल, वानिश रोगन, स्याही सवा दूसरे भद्दे पोर पक्के रण ।
(३) रगोमें प्रायः केसरिया, गुलाबी, टेसू जैसे हल्के सुन्दर तथा कच्चे रंगोका और गुलास, मबीर तथा रोली-जैसे कोमल पवाचौका प्रयोग होना चाहिये।
(४) किसी अपरिचित व्यक्ति या ऐसे व्यक्ति पर जो होलीके आपके पानदमे शरीक होना नही चाहता-साफ इनकार कर रहा है-जबरन रंग डालना या मलना न चाहिये, खासकर ऐसे पैदल या कि सवारी पर जाते हुए यात्रियो पर जो पहलेसे होलीके रगमें रगे हुए भी नहो।
(५) गालिया बकना, अश्लील गीत गाना, भद्दे मजाक और असभ्यतामूलक कुचेष्टाएँ न होनी चाहिये, जो सब अशुभ रागकी घोतक हैं । उनके स्थान पर अच्छे शिक्षाप्रद तथा मागलिक लोकगीतोको अपनाना चाहिये।
(६) सबको इस दिन जाति-पाति, ऊँच-नीच और स्पृश्य-अस्पृश्यके असभेदभावको भुलाकर बिना किसी सकोचके परस्परमे मिल बैठकर पर्वके समता कार्यको सम्पन्न करना चाहिए।
(७) होलीके दिन मदिरा तथा दूसरे ऐसे मादक पदार्थोंका सेवन न किया जाना चाहिये जिससे हम अपना विवेक खो बैठे।
(८) होलिका दहनको दोष-दहनका रूप दिया जाना चाहिये। वर्षभरके अपने दोषो, वेर-विरोधों तथा बुराइयोको स्थिर न रखकर उन्हें संकल्पपूर्वक त्याग देना अथवा कागज-काष्ठादि पर लिख
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युगवीर-निबन्धावली कर होलिकाग्निमें उनकी आहुति दे देनी चाहिये और फिर स्वच्छ हृदयसे प्रेमपूर्वक एक दूसरेसे मिलना चाहिये। ऐसी होली घर-घर जलाई जा सकती है।
(९) किसीका भी कोई काष्ठ, इधन आदि बिना उसकी इजाबतके चोरीसे या जबरन न लेना चाहिये । इस प्रकारसे ग्रहण किया हुमा पदार्थ होलिकाग्निको दूषित करता है।
(१०) इस पर्वकी आडमे किसीको भी अपनी पुरानी दुश्मनी निकालने या बदला लेनेकी भावनासे अथवा किसीका अनिष्ट करनेकी दृष्टिसे कोई काम न करना चाहिये । ऐसे सब काम द्वेष-मूलक कार्यों में शामिल हैं, जो पर्वकी पवित्रताको नष्ट करते हैं ।
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समन्तभद्र-विचार-दीपक (१)
स्व-पर-वैरी कौन ?
स्व-पर-वैरी-अपना और दूसरोका शत्रु-कौन ? इस प्रश्न. का उत्तर ससारमें अनेक प्रकारसे दिया जाता है और दिया जा सकता है। उदाहरणके लिये
१ स्वपरवैरी वह है जो अपने बालकोको शिक्षा नहीं देता, जिससे उनका जीवन खराब होता है, और उनके जीवनकी खराबीसे उसको भी दुख-कष्ट उठाना पड़ता है, अपमान-तिरस्कार भोगना पडता है और सत्सततिके लाभोसे भी वचित रहना होता है।
२ स्वपरवेरी वह है जो अपने बच्चोकी छोटी उम्रमें शादी करता है, जिससे उनकी शिक्षामे बाधा पडती है और वे सदा ही दुबल, रोगी तथा पुरुषार्थहीन-उत्साहविहीन बने रहते है अथवा अकालमे ही कालके गालमे चले जाते हैं । और उनकी इन अवस्थाप्रोसे उसको भी बराबर दुख-कष्ट भोगना पडता है।
३ स्वपरबैरी वह है जो धनका ठीक साधन पासमे न होने पर भी प्रमादादिके वशीभूत हुआ रोजगार-वधा छोड बैठता है - कुटुम्बके प्रति अपनी जिम्मेदारीको भुलाकर आजीविकाके लिये कोई पुरुषार्थ नहीं करता, और इस तरह अपनेको चिन्तामोंमे डालकर दुखित रखता है और अपने आश्रितजनों-बालबच्चों मादिको भी
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३४८
युगवीर-निबन्धावली उनकी आवश्यकताएं पूरी न करके, संकटमें डालता तथा कष्ट पहुंचाता है।
४ स्वपरवैरी वह है जो हिमा, भूठ, चोरी, कुशीलादि दुष्कर्म करता है, क्योकि ऐसे पाचरणोके द्वारा वह दूसरोको ही कष्ट तथा हानि नही पहुंचाता बल्कि अपने आत्माको भी पतित करता है और पापोंसे बाँधता है, जिनका दुखदाई अशुभ फल उसे इसी जन्म अथवा अगले जन्ममें भोगना पडता है।
इसी तरहके और भी बहुतसे उदाहरण दिये जा सकते हैं। परन्तु स्वामी समन्तभद्र इस प्रश्न पर एक दूसरे ही ढगसे विचार करते हैं और वह ऐसा व्यापक विचार है जिसमे दूसरे सब विचार समा जाते हैं। प्रापकी दृष्टि में वे सभी जन स्व-पर-वैरी है जो 'एकान्तपहरक' है ( एकान्तग्रहरक्ता स्वपरवरिण )। अर्थात् जो लोग एकान्तके ग्रहणमे आसक्त हैं - सर्वथा एकान्तपक्षके पक्षपाती अथवा उपासक हैं-और अनेकान्तको नही मानते- वस्तुमें अनेक गुरग-धर्मोंके होते हुए भी उसे एक ही गुण-धर्मरूप अगीकार करते हैं, वे अपने और परके वैरी है। मापका यह विचार देवागमकी निम्नकारिकाके 'एकान्तयहरक्तषु' 'स्वपरवरिषु' इन दो पदो परसे उपलब्ध होता है.
कुशालाकुशल कर्म परलोकश्च न चित् । एकान्त-ग्रह-रक्तषु नाथ | स्व-पर वैरिषु ॥८॥ इस कारिकामे इतना और भो बतलाया गया है कि ऐसी एकान्त-मान्यतावाले व्यक्तियोमेसे किसीके यहाँ भी-किसीके भी मतमे-शुभ-अशुभ-कर्मकी, अन्य जन्मकी और 'चकार' से इस जन्मकी, कर्मपालकी तथा बन्ध-मोक्षादिककी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । और यह सब इस कारिकाका सामान्य मर्थ है। विशेष पर्षकी दृष्टिसे इसमें साकेतिकरूपसे यह भी सनिहित है कि ऐसे एकान्त पक्षपातीबन स्वपरवेरी कैसे हैं मोर क्योकर उनके पुष
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स्व-पर-वेरी काल अनुमको, लोक-परलोक तथा बध-मोक्षादिककी व्यवस्था नही बन सकती । इस अर्थको अष्टसहस्री-जैसे टीका-ग्रन्थोंमें कुछ विस्तारके साथ खोला गया है। बाकी एकान्तवादियों की मुख्य मुख्य कोटियोंका वर्णन करते हुए उनके सिद्धान्तोको दूषित ठहराकर उन्हें स्व-परबेरी सिद्ध करने और अनेकान्तको स्व-पर-हितकारी सम्यक् सिद्धाम्तके रूपमें प्रतिष्ठित करनेका कार्य स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अथकी अगली कारिकाप्रोमें सूत्ररूपसे किया है। अन्धकी कुल कारिकाएँ (श्लोक) ११४ हैं, जिनपर प्राचार्य श्री अकलंकादेवने 'अष्टशती' नामकी आठसौ श्लोक-जितमी वृत्ति लिखी है, जो बहुत ही मूढसूत्रोमे है, और फिर इस वृत्तिको साथमें लेकर श्री विद्यानन्दाचार्यने 'अष्टसहस्री' टीका लिखी है, जो पाठ हजार श्लोक-परिमाण है और जिसमें मूलग्रन्थके आशयको खोलनेका भारी प्रयत्न किया गया है । यह अष्टसहस्री भी बहुत कठिन है, इसके कठिन पदोको समझनेके लिये इसपर पाठ हजार श्लोक-जितना एक सस्कृत टिप्पण भी बना हुआ है, फिर भी अपने विषयको पूरी तौरसे समझनेके लिये यह अभी तक 'कष्टसहस्री' ही बनी हुई है । और शायद यही वजह है कि इसका अब तक हिन्दी अनुवाद नहीं हो सका। ऐसी हालतमें पाठक समझ सकते है कि स्वामी समन्तभद्रका मूल 'देवागम' ग्रन्थ कितना अधिक अर्थगौरवको लिये हुए है । अकलकदेवने तो उसे 'सम्पूर्ण पदार्थतत्वोको अपना विषय करनेवाला स्याद्वादरूपी पुण्योदधितीर्थ' लिखा है । इसलिये मेरे जैसे अल्पज्ञो-द्वारा समन्तभद्रके विचारोंकी व्याख्या उनको स्पर्श करनेके सिवाय और क्या हो सकती है ? इसीसे मेरा यह प्रयत्न भी साधारण पाठकोंके लिये है-विशेसज्ञोंके लिये नहीं। प्रस्तु, इस प्रासगिक निवेदनके बाद अब मैं पुन' प्रकृत विषय पर आता हूँ और उसको सक्षेपमे ही साधारण जनताके लिये कुछ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ।
वास्तवमें प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है-- उसमें अनेक अन्त
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युगवोर-निबन्धावलो धर्म, गुण-स्वभाव, अंग अथवा अंश हैं । जो मनुष्य किसी भी वस्तु. को एक तरफसे देखता है-उसके एक ही अन्त-धर्म अथवा गुरणस्वभाव पर दृष्टि डालता है-वह उसका सम्यग्दृष्टा । उसे ठीक तौरसे देखने-पहचाननेवाला) नहीं कहला सकता । सम्यग्दृष्टा होनेके लिये उसे उस वस्तुको सब ओरसे देखना चाहिये और उसके सब अन्तो-अगो-धर्मों अथवा स्वभावो पर नज़र डालनी चाहिये । सिक्केके एक ही मुखको देखकर सिक्केका निर्णय करनेवाला उस सिक्केको दूसरे मुखसे पडा देखकर वह सिक्का नही समझता और इसलिये धोखा खाता है । इसीसे अनेकान्तदृष्टिको सम्यग्दृष्टि और एकान्तदृष्टिको मिथ्यादृष्टि कहा है।
जो मनुष्य किसी वस्तुके एक हो अन्त, अग, धर्म अथवा गुणस्वभावको देखकर उसे उस ही स्वरूप मानता है--दूसरे रूप स्वीकार नही करता--और इस तरह अपनी एकान्तधारणा बना लेता है और उसे ही जैसे-तैसे पुष्ट किया करता है, उसको 'एकान्त-ग्रहरक्त', एकातपक्षपाती अथवा सर्वथा एकान्तवादी कहते हैं। ऐसे मनुष्य हाथीके स्वरूपका विधान करनेवाले जन्मान्ध-पुरुषो की तरह आपसमें लड़ते-झगडते हैं और एक दूसरेसे शत्रुता धारण करके जहाँ परके वैरी बनते हैं वहां अपनेको हाथोके विषयमे अज्ञानी रखकर अपना भी अहित साधन करनेवाले तथा कभी भी हाथीसे हाथोका काम लेनेमें समर्थ न हो सकनेवाले उन जन्मान्धोकी तरह, अपनेको वस्तुस्वरूपसे अनभिज्ञ रखकर, अपना भी अहित साधन करते हैं और अपनी मान्यताको छोडे अथवा उसकी उपेक्षा किये बिना कभी भी उस वस्तुसे उस वस्तुका ठीक काम लेनेमें
१ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्यय । तत सर्व मुषोक्तं स्यात्तदयुक्त स्वघातत ।।
-स्वयम्भूस्तोत्रे, समन्तभा
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स्व-पर-वैरी कौन? समर्थ नही हो सकते, और ठीक काम लेनेके लिये मान्यताको छोडने अथवा उसकी उपेक्षा करने पर स्वसिद्धात-विरोधी ठहरते हैं, इस तरह दोनो ही प्रकारसे वे अपने भी वैरी होते हैं । नीचे एक उदाहरण-द्वारा इस बातको और भी स्पष्ट करके बतलाया जाता है
एक मनुष्य किसी वैद्यको एक रोगी पर कुचलेका प्रयोग करता हुमा देखता है और यह कहते हुए भी सुनता है कि 'कुचला जीवनदाता है, रोगको नशाता है और जीवनी शक्तिको बढाता है । साथ ही, वह यह भी अनुभव करता है कि वह रोगी कुचलेके खानेसे अच्छा तन्दुरुस्त तथा हृष्ट-पुष्ट हो गया। इस परसे वह अपनी यह एकान्त धारणा बना लेता है कि 'कुचला जीवनदाता है, रोग नशाता है और जीवनी शक्तिको बढाकर मनुष्यको हृष्ट-पुष्ट बनाता है' । उसे मालूम नहीं कि कुचलेमें मारनेका-जीवनको नष्ट कर देनेका--भी गुण है और उसका प्रयोग सब रोगो तथा सब अवस्थानोमे समानरूपसे नहीं किया जा सकता, न उसे मात्राकी ठीक खबर है, और न यही पता है कि वह वेद्य भी कुचलेके दूसरे मारक गुणसे परिचित था, और इसलिये जब वह उसे जीवनी शक्तिको बढानेके काममे लाता था तब वह दूसरी दवाइयोंके साथमे उसका प्रयोग करके उसकी मारक शक्तिको दबा देता था अथवा उसे उन जीव-जन्तमोके घातके काममे लेता था जो रोगीके शरीरमे जीवनी शक्तिको नष्ट कर रहे हो । और इसलिये वह मनुष्य अपनी उस एकान्त-धारणाके अनुसार अनेक रोगियोको कुचला देता है तथा जल्दी अच्छा करनेकी धुनमे अधिक मात्रामें भी दे देता है। नतीजा यह होता है कि वे रोगी मर जाते हैं या अधिक कष्ट तथा वेदना उठाते हैं और वह मनुष्य कुचलेका ठीक प्रयोग न बानकर उसका मिथ्या प्रयोग करनेके कारण दह पाता है, तथा कभी स्वयं कुचला खाकर अपनी प्राण-हानि भी कर डालता है । इस तरह कुचलेके विषयमें एकान्त अाग्रह रखनेवाना जिस प्रकार
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युगवीर-निबन्धावली स्व-पर-वेरी होता है उसी प्रकार दूसरी वस्तुमोके विषयमे भी एकान्त हठ पकड़नेवालोंको स्व-पर-वेरी समझना चाहिये। __ सच पूछिये तो जो अनेकान्तके द्वेषी हैं वे अपने एकान्तके भी द्वेषी हैं, क्योंकि अनेकान्तके बिना वे एकान्तको प्रतिष्ठित नहीं कर सकते-अनेकान्तके बिना एकान्तका अस्तित्व उसी तरह नहीं बन सकता जिस तरह कि सामान्यके बिना विशेषका या द्रव्यके बिना पर्यायका अस्तित्व नही बनता । सामान्य और विशेष, मस्तित्व
और नास्तित्व तथा नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म जिस प्रकार परस्पर में अविनामाव-सम्बन्धको लिये हुए हैं--एकके बिना दूसरेका सद्भाव नही बनता-उसी प्रकार एकान्त और अनेकान्तमें भी परस्पर विनाभाव-सम्बन्ध है । ये सब सप्रतिपक्षधर्म एक ही वस्तुमें परस्पर अपेक्षाको लिए हुए होते हैं । उदाहरणके तौर पर पनामिका अगुली छोटी भी है और बडी भी-कनिष्टासे वह बड़ी है और मध्यमासे छोटी है। इस तरह अनामिकामे छोटापन और बडापन दोनो धर्म सापेक्ष हैं, अथवा छोटी है और छोटी नहीं है ऐसे छोटेपनके अस्तित्व और नास्तित्वरूप दो अविनाभावी धर्म भी उसमें सापेक्षरूपसे पाये जाते हैं-- अपेक्षाको छोड देने पर दोनोमेसे कोई भी धर्म नहीं बनता। इसी प्रकार नदीके प्रत्येक तटमें इस पारपन और उस पारपनके दोनो धर्म होते हैं और वे सापेक्ष होनेसे ही अविरोधरूप रहते है। __ जो धर्म एक ही वस्तुमे परस्पर अपेक्षाको लिये हुए होते हैं बे अपने और दूसरेके उपकारी (मित्र ) होते हैं और अपनी तथा दूसरेकी सत्ताको बनाये रखते हैं। और जो धर्म परस्पर अपेक्षाको लिये हुए नहीं होते वे अपने और दूसरेके अपकारी ( शत्रु) होते हैं-स्व पर-प्रणाशक होते हैं, और इसलिये न अपनी सत्ताको कायम रख सकते हैं और न दूसरेकी । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयंभूस्तोत्रमें मी
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स्व-पर-वेरी कौन
३५३, 'मियोऽनपेक्षाः स्त्र-पर-प्रणाशिनः'
'परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिण' . इन वाक्योके द्वारा इसी सिद्धान्तकी स्पष्ट घोषणा की है । आप निरपेक्षनयोको मिथ्या और सापेक्षनयोको सम्यक् बतलाते हैं। आपके विचारसे निरपेक्षनयोका विषय प्रक्रियाकारी न होनेसे अवस्तु है और सापेक्षनयोका विषय अर्थकृत (प्रयोजनसाधक) होनेसे वस्तुतत्त्व है। इस विषयकी विशेष चर्चा एव व्याख्या समन्तभद्र-विचारदीपकमें अन्यत्र की जायगी। यहाँ पर सिर्फ इतना ही जान लेना चाहिये कि निरपेक्षनयोका विषय 'मिथ्या एकान्त' और सापेक्षनयोका विषय 'सम्यक एकान्त' है। और यह सम्यक एकात ही प्रस्तुत अनेकान्तके साथ अबिनाभावसम्बन्धको लिये हुए है। जो मिथ्या एकान्तके उपासक होते हैं उन्हे ही 'एकान्त-ग्रहरक्त' कहा गया है, वे ही 'सर्वथा. एकान्तवादी' कहलाते हैं और उन्हे ही यहाँ 'स्व-पर-वेरी' समझना चाहिये। जो सग्या एकान्तके उपासक होते हैं उन्हे 'एकान्तयहरक्त' नहीं कहते, उनका नेता 'स्यात्' पद होता है, वे उस एकान्तको कचित् रूपसे स्वीकार करते हैं; इसलिये उसमे सर्वथा आसक्त नही होते और न प्रतिपक्ष-धर्मका विरोध अथव निराकरण ही करते हैं--सापेक्षावस्थामे विचारके समय प्रतिपक्ष-धर्मकी अपेक्षा न होनेसे उसके प्रति एक प्रकारकी उपेक्षा तो होती है किन्तु उसका विरोध अथवा निराकरण नही होता । और इसीसे वे 'स्व-पर-वैरी' नही कहे जा सकते । अत स्वामी समन्तभद्रका यह कहना बिल्कुल ठीक है कि 'जो एकान्तयहरक्त होते है वे स्व-पर-वैरी होते हैं।'
अब देखना यह है कि ऐसे स्वपरवैरी एकान्तवादियोके मतमे शुभ-अशुभ-कर्म, कर्मफल, सुख-दुख, जन्म-जन्मान्तर ( लोकपरलोक ) और बन्ध-मोक्षादिको व्यवस्था कैसे नही बन सकती। १ निरपेक्षा नया मिथ्या. सापेक्षा वस्तु तेऽयंकृत् । -देवागम १०८
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युगवीर-निबन्धाती बात बिल्कुल स्पष्ट है, ये सब प्रक्स्पाए न कि अनेकान्ताश्रित हैंअनेकान्तके आश्रय बिना इन परस्पर विरुद्ध मालूम पड़नेवाली सापेक्ष अवस्थामोंकी कोई स्वतन्त्र सत्ता अथवा व्यवस्था नही बन सकती। इसलिये जो अनेकान्तके बेरी है-अनेकान्त-सिद्धान्तसे देष रखते हैं. उनके यहाँ ये सब व्यवस्थाए सुघटित नहीं हो सकती। अनेकान्तके प्रतिषेधसे क्रम-अकमका प्रतिषेध हो जाता है; क्योकि क्रम-अक्रमकी अनेकान्तके साथ व्याप्ति है । जब अनेकान्त ही नहीं तब क्रम-प्रक्रमकी व्यवस्था क्से बन सकती है ? अर्थात द्रब्यके प्रमाक्मे जिस प्रकार गुरण-पर्यायकी और वृक्षके अभावमे शीशम, जामन, नीम, अाम्रादिकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती उसी प्रकार अनेकान्तके अभावमे क्रम-अक्रमकी भी व्यवस्था नही बन सकती। क्रम-प्रक्रमकी व्यवस्था न बननेसे अर्थक्रियाका निषेध हो जाता है, क्योंकि अर्थक्रियाको क्रम अक्रमके साथ व्याप्ति है । और अर्थक्रियाके अभावमें कर्मादिक नही बन सकते कर्मादिककी प्रक्रियाके साथ व्याप्ति है । जब शुभ-अशुम-कर्म ही नहीं बन सकते तब उनका फल सुख-दुख, फल-भोगका क्षेत्र, जन्मान्तर (लोक-परलोक) और कर्मोंसे बचने तथा छूटनेकी बात तो कैसे बन सकती है? साराश यह कि अनेकातके आश्रय बिना ये सब शुभाऽशुभ-कर्मादिक निराश्रित होजाते हैं, और इसलिए सर्वथा नित्यादि एकातवादियोंके मतमें इनकी कोई ठीक व्यवस्था नहीं बन सकती । वे यदि इन्हे मानते हैं और तपश्चरणादिके अनुष्ठान द्वारा सत्कमोकर अर्जन करके उनका सत्फल लेना चाहते हैं अथवा कोसे मुक्त होना चाहते हैं तो वे अपने इष्टको अनेकातका विरोध करके बाधा पहुंचाते हैं, और इस तरह भी अपनेको स्व-पर-वैरी सिद्ध करते हैं।
वस्तुत' अनेकान्त, भाव प्रभाव, नित्य-अनित्य, भेद-पमेद मादि एकान्तनयोंके विरोधको मिटाकर, वस्तुतत्त्वको सम्यक्व्यवस्था करनेवाला है; इसीसे लोक व्यवहारका सम्यक् प्रवर्तक है--
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स्व-पर-वेरी कौन ?
३५५ बिना अनेकातका प्राश्रय लिये लोकका व्यवहार ठीक बनता ही नही, और न परस्परका वर-विरोध ही मिट सकता है । इसीलिये अनेकातको परमागमका बीज और लोकका अद्वितीय गुरु कहा गया है-वह सबोके लिये सन्मार्ग-प्रदर्शक है। जैनी नीतिका भी वही मूलाधार है। जो लोग अनेकातका सचमुच पाश्रय लेते हैं वे कभी स्व-पर-वेरी नही होते उनसे पाप नही बनते, उन्हें आपदाएं नहीं सताती और वे लोकमें सदा ही उन्नत उदार तथा जयशील बने रहते हैं ।
१. नौति-विरोध-ध्वंसी लोकव्यवहारवर्तक सम्यक् ।
परमाननस्य बीज मुक्नेकार्णवस्यनेकान्तः ॥
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समन्तभद्र-विचार-दीपक (२)
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वीतरागकी पूजा क्यों ?
जिसकी पूजा की जाती है वह यदि उस पूजासे प्रसन्न होता है, और प्रसन्नताके फलस्वरूप पूजा करनेवालेका कोई काम बना देता अथवा सुधार देता है तो लोकमे उसकी पूजा सार्थक समझी जाती है । और पूजा से किसीका प्रसन्न होना भी तभी कहा जा सकता है। जब या तो वह उसके बिना प्रसन्न रहता हो, या उससे उसकी प्रसन्नतामे कुछ वृद्धि होती हो अथवा उससे उसको कोई दूसरे प्रकारका लाभ पहुँचता हो, परन्तु वीतरागदेवके विषयमे यह सब कुछ भी नही कहा जा सकता - वे न किसी पर प्रसन्न होते हैं, न प्रसन्न और न किसी प्रकारकी कोई इच्छा ही रखते है, जिसकी पूर्ति पूर्तिपर उनकी प्रसन्नता अप्रसन्नता निर्भर हो । वे सदा ही पूर्ण प्रसन्न रहते हैं - उनकी प्रसन्नतामे किसी भी कारण से कोई कमी या वृद्धि नही हो सकती । और जब पूजा - श्रपूजासे वीतरागदेव की प्रसन्नता या अप्रसन्नताका कोई सम्बन्ध नही - वह उसके द्वारा सभाव्य ही नही - तब यह तो प्रश्न ही पैदा नही होता कि पूजा कैसे की जाय, कब की जाय, किन द्रव्योंसे की जाय, किन मन्त्रोंसे की जाय और उसे कौन करे - कौन न करे ? और न यह शंका ही की जा सकती है कि अविधिसे पूजा करनेपर कोई अनिष्ट घटित हो जायगा अथवा किसी श्रधमन्प्रशोभन अपावन मनुष्य के पूजा कर
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वातरागकी पूजा क्यों ?
३५७ लेने पर वह देव नाराज हो जायगा और उसकी नाराजगीसे उस मनुष्य तथा समूचे समाजको किसी देवी कोपका भाजन बनना पड़ेगा, क्योकि ऐसी शका करने पर वह देव वीतराग ही नहीं ठहरेमा--उसके बीतराग होनेसे इनकार करना होगा और उसे भी दूसरे देवी-देवतामोकी तरह रागी-द्वेषी मानना पड़ेगा । इसीसे अक्सर लोग जैनियोंसे कहा करते हैं कि--"जब तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा-उपासनाकी कोई जरूरत नहीं, कर्ता हर्ता न होनेसे वह किसीको कुछ देता-लेता भी नही, तब उसकी पूजावन्दना क्यो की जाती है और उससे क्या नतीजा है ?"
इन सब बातोको लक्ष्यमें रखकर स्वामी समन्तभद्र, जो कि वीतरागदेवोको सबसे अधिक पूजाके योग्य समझते थे और स्वय भी अनेक स्तुति-स्तोत्रों आदिके द्वारा उनकी पूजामे सदा सावधान एव तत्पर रहते थे, अपने स्वयभूस्तोत्र मे लिखते हैं -
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त-चैरे । तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्न पुनाति चित्त दुारताऽखनेभ्य.
अर्थात्-हे भगवन् । पूजा-वन्दनासे आपका कोई प्रयोजन नही है, क्योकि आप वीतरागी हैं--रागका प्रश भी आपके पात्मामें विद्यमान नही है, जिसके कारण किसीकी पूजा-वन्दनासे प्राप प्रसन्न होते । इसी तरह निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नही है--कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस पर आपको जरा भी क्षोभ नही आ सकता, क्योकि आपके आत्मासे वेरभाव-द्वेषाश बिल्कुल निकल गया है-वह उसमे विद्यमान ही नही है-जिससे क्षोम तथा अप्रसन्नतादि कार्योंका उद्भव हो सकता । ऐसी हालतमें निन्दा और स्तुति दोनो ही प्रापके लिये समान हैं-उनसे प्रापका कुछ भी बनता या बिगड़ता नही है । यह सब कुछ ठीक है, परन्तु फिर भी हम जो प्रापकी पूजा-बदनादि करते हैं उसका दूसरा ही कारण है, वह पूजा-वदनादि आपके लिये
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बुगवीर निवन्धावली नहीं-आपको प्रसन्न करके प्रापकी कृपा सम्पादन करना या उसके हारा पापको कोई लाभ पहुंचाना, यह सब उसका ध्येय ही नहीं है। उसका ध्येय है आपके पुण्य-गुरणोंका स्मरण-भावपूर्वक अनुचिन्तन-, जो हमारे चिसको-चिद्र प प्रात्माको-पापमलोंसे छुडाकर निर्मल एव पवित्र बनाता है, और इस तरह हम उसके द्वारा अपने प्रात्माके विकासकी साधना करते हैं। इसीसे पथके उत्तरार्ष में यह सैद्धातिक घोषणा की गई है कि 'आपके पुण्य-गुरगोका स्मरण हमारे पापमलसे मलिन अात्माको निर्मल करता है'-उसके विकासमें सचमुच सहायक होता है।
यहाँ वीतराग-भगवानके पुण्य-मुणोंके स्मरणसे पापमलसे मलिन आत्माके निर्मल (पवित्र) होनेकी जो बात कही गई है वह बडी ही रहस्यपूर्ण है, और उसमे जैनधर्मके प्रात्मवाद, कर्मवाद, विकासवाद और उपासनावाद-जैसे सिद्धान्तोका बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्मरूपमे सनिहित है। इस विषयमे मैंने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी 'उपासनातत्त्व' और 'सिद्धिसोपान' जैसी पुस्तकोमे किया है-स्वयम्भूस्तोत्रकी प्रस्तावनाके 'भक्तियोग और स्तुति-प्रार्थनादिरहस्य' नामक प्रकरणसे भी पाठक उसे जान सकते हैं । यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि स्वामी समन्तभद्रने बीतरागदेवके जिन पुण्य-गुणोंके स्मरणकी बात कही है वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि प्रात्माके असाधारण गुरग हैं, जो द्रव्यदृष्टिसे सब प्रात्माप्रोके समान होने पर सबकी समान-सम्पत्ति हैं और सभी भव्यजीव उन्हे प्राप्त कर सकते हैं। जिन पापमलोंने उम गुरणोंको आच्छादित कर रक्खा है वे ज्ञानावरणादि पाठ कम हैं, योगवलसे जिन महात्मामोंने उन कर्ममलोको दध करके प्रात्मनुरषोंका पूर्ण विकास किया है वे ही पूर्ण विकसित सिदात्मा एवं बीतराग कहे जाते हैं-- शेष सब संसारी जीव अविकसित अथवा अल्पविकसितादि शामोमें हैं। पार वे अपनी
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वीतरागकी पूजा क्यों ?
३५९ ग्रात्मनिधिको प्राय: भूले हुए हैं । सिद्धात्मानोंके विकसित गुणों परसे वे श्रात्मगुणोका परिचय प्राप्त करते हैं और फिर उनमें अनुराग बढाकर उन्ही साधनो द्वारा उन गुणोकी प्राप्तिका यत्न करते हैं जिनके द्वारा उन सिद्धात्मानोने किया था । और इसलिये वे सिद्धात्मा वीतरागदेव आत्म-विकासके इच्छुक ससारी श्रात्मानोंके लिये 'आदर्शरूप' होते हैं, श्रात्मगुणोके परिचयादिमे सहायक होनेसे उनके 'उपकारी' होते हैं और उस वक्त तक उनके 'श्राराध्य' रहते हैं जबतक कि उनके आत्मगुण पूर्णरूपसे विकसित न हो जाय । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने "तत स्वनि श्रेयसभावनापरे बुधप्रवेकेजिनशीत लेड्से ( स्व० ५०)" इस वाक्यके द्वारा उन बुधजन श्रेष्ठो तकके लिये वीतरागदेवकी पूजाको आवश्यक बतलाया है जो अपने निश्रेयसकी - प्रात्मविकासको भावनामे सदा सावधान रहते हैं । और एक दूसरे पद्य 'स्तुति स्तोतु' साधो ( स्व ० ११६) मैं बीतरागदेवकी इस पूजा-भक्तिको कुशलपरिणामोकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयो मार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना तक लिखा है। साथ ही उसी स्तोत्रगत नीचेके एक पद्यमे वे, योगबलसे आठो पापमलोको दूर करके ससारमें न पाये जानेवाले ऐसे परमसौख्यको प्राप्त हुए सिद्धात्माका स्मरण करते हुए, अपने लिये तद्र ूप होनेकी स्पष्ट भावना भी करते हैं, जो कि वीतरामदेवकी पूजाउपासनाका सच्चा रूप है
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दुरितमलकलंकमष्टकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन् ।
श्रभवदभत्र सौख्यवान् भवान्भवन्तु ममाऽपि भवोपशान्तये ॥ स्वामी समन्तभद्रके इन सब विचारोसे यह भले प्रकार स्पष्ट होजाता है कि बीतरागदेवकी उपासना क्यो की जाती है और उसका करना कितना अधिक प्रावश्यक है ।
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समन्तभद्र- विचार - दीपक (३)
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वीतराग से प्रार्थना क्यों ?
जब वीतराग अर्हन्तदेव परम उदासीन एव कृतकृत्य होनेसे कुछ करते धरते नही तब पूजा-उपासनादिके अवसरोपर उनसे बहुधा प्रार्थनाएँ क्यो की जाती है और क्यों उनमें व्यर्थ ही कर्तृत्व-विषयका श्रारोप किया जाता है ? - जिसे स्वामी समन्तभद्रजैसे महान आचार्योंने भी अपनाया है । यह प्रश्न बडा ही सुन्दर है और सभी के लिये इसका उत्तर वांछनीय एव जाननेके योग्य है । अत इसीके समाधानका यहाँ प्रयत्न किया जाता है ।
सबसे पहली बात इस विषयमे यह जान लेनेकी है कि इच्छापूर्वक अथवा बुद्धिपूर्वक किसी कामको करनेवाला हीउसका कर्ता नही होता बल्कि अनिच्छापूर्वक अथवा प्रबुद्धिपूर्वक कार्यका करनेवाला भी कर्ता होता है । वह भी कार्यका कर्ता होता है जिसमें इच्छा - बुद्धिका प्रयोग ही नही किन्तु सद्भाव ( अस्तित्व ) भी नही अथवा किसी समय उसका सभव भी नही है। ऐसे इच्छाशून्य तथा बुद्धिहीन कर्ता कार्योंके प्राय निमित्तकारण ही होते हैं और प्रत्यक्षरूपमें तथा अप्रत्यक्षरूपमें उनके कर्ता जड और चेतन दोनो ही प्रकारके पदार्थ हुआ करते हैं । इस विषयके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं, उन पर जरा ध्यान दीजिये -
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(१) 'यह दवाई ग्रमुक रोगको हरनेवाली हैं । यहा दवाईमें कोई इच्छा नही और न बुद्धि है, फिर भी वह रोगको हरनेवाली
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वीतरागसे प्रार्थना क्यों?
३६१ है-रोगहरण-कार्यको कर्ता कही जाती है, क्योंकि उसके निमित्तसे रोग दूर होता है।
(२) 'इस रसायनके प्रसादसे मुझे नीरोगताकी प्राप्ति हुई।' यहाँ 'रसायन' जड औषधियोका समूह होनेसे एक जड पदार्थ है, उसमें न इच्छा है, न बुद्धि और न कोई प्रसन्नता; फिर भी एक रोगी प्रसन्नचित्तसे उस रसायनका सेवन करके उसके निमित्तसे आरोग्य-लाभ करता है और उस रसायनमे प्रसन्नताका आरोप करता हुआ उक्त वाक्य कहता है । यह सब लोक व्यवहार है अथवा अलकारकी भाषामें कहनेका एक प्रकार है। इसी तरह यह भी कहा जाता है कि मुझे इस रसायन या दवाईने अच्छा कर दिया' जब कि उसने बुद्धिपूर्वक या इच्छापूर्वक उसके शरीरमें कोई काम नही किया। हाँ उसके निमित्तसे शरीरमे रोगनाशक तथा प्रारोग्यवर्धक कार्य ज़रूर हुआ है और इसलिये वह उसका कार्य कहा जाता है।
(३) एक मनुष्य छत्री लिये जा रहा था और दूसरा मनुष्य बिना छत्रीकेसामनेसे पा रहा था । सामनेवाले मनुष्यकी दृष्टि जब छत्री पर पड़ी तो उसे अपनी छत्रीकी याद आ गई और यह स्मरण हो पाया कि 'मैं अपनी छत्री अमुक दुकान पर भूल आया हैं'; चुनांचे वह तुरन्त वहाँ गया, अपनी छत्री ले आया और आकर कहने लगा-'तुम्हारी इस छत्रीका मै बहत प्राभारी है, इसने मुझे मेरी भूली हुई छत्रीकी याद दिलाई है।' यहाँ छत्री एक जडवस्तु है, उसमे बोलनेकी शक्ति नही, वह कुछ बोली भी नहीं और न उसने बुद्धिपूर्वक छत्री भूलनेकी वह बात ही सुझाई है, फिर भी चूकि उसके निमित्तसे भूली हुई छत्रीकी स्मृति प्रादिरूप यह सब कार्य हुआ है इसीसे अलकृत भाषामे उसका प्राभार माना गया है।
(४) एक मनुष्य किसी रूपवती स्त्रीको देखते ही उस पर आसक्त हो गया, तरह-तरहकी कल्पनाएँ करके दीवाना बन गया और कहने लगा--'उस स्त्रीने मेरा मन हर लिया, मेरा चित्त दुरा
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युमवीर-निबन्धाक्लो लिमा, मेरे ऊपर मादू कर दिया ! मुझे पागल बना विश! मब में बेकार हूँ और मुमसे उसके बिना कुछ भी करते-धरते नहीं बनता।' परन्तु उस बेचारी स्त्रीको इसकी कुछ भी खबर नहीकिसी बातका पता तक नही और न उसने उस पुरुषके प्रति बुद्धिपूर्वक कोई कार्य ही किया है--उस पुरुषने ही कही जाते हुए उसे देख लिया है, फिर भी उस स्त्रीके निमित्तको पाकर उस मनुष्यके मात्मा दोषोको उत्तेजना मिली और उसकी यह सब दुर्दशा हुई। इसीसे वह उसका सारा दोष उस स्त्रीकै मत्ये मढ रहा है, जब कि बह उसमें अज्ञातभावसे एक छोटासा निमित्त कारता बनी है, बझ कारखा तो उस मनुष्यका ही प्रात्मदोष था।
(५) एक दुखित और पीडित गरीब मनुष्य एक सतके आश्रयमें चला गया और बडे भक्ति-भावके साथ उस सतकी सेवा-सुश्रषा करने लगा। वह सत ससार-देह-भोगोंसे विरक्त है-वैराग्यसम्पन्न है-किसीसे कुछ बोलता या कहता नही-सदा मौनसे रहता है । उस मनुष्यकी अपूर्व भकिको देखकर पिछले भक्त लोग सब दग रह गये । अपनी भक्तिको उसकी भक्तिके आगे नगण्य गिनने लगे मोर बड़े प्रादर-सत्कारके साथ उस नवागन्तुक भक्तहृदय मनुष्यको अपनेअपने घर भोजन कराने लगे और उसकी दूसरी भी अनेक प्रावश्यकताप्रोकी पूर्ति बडे प्रेमके साथ करने लगे, जिससे वह सुखसे अपना बीवन व्यतीत करने लगा और उसका भक्ति भाव और भी दिन पर दिन बढ़ने लगा। कभी-कभी वह भक्तिमे विल होकर सन्तके बरणोमें गिर पडता और बडे ही कम्मित स्वरमें गिडगिड़ाता हुमा कहने लगता-'हे नाथ | आप ही मुझ दीन-हीनके रक्षक हैं. आप ही,मेरे अन्नदाता है, आपने मुझे बह भोजन दिया है जिससे मेरी जन्म-जन्मान्तरको भूख मिट गई है। आपके चरण शरणमें प्रानेसे ही मैं सुखी बन गया हूँ, आपने मेरे सारे दुस मिटा दिये हैं और मुळे बह दृष्टि प्रदान की है जिससे मैं अपनेको और जगत्को मले
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वीतरामसे प्रायनायो? मगर देख सकता है। सब बयाकर इतना मनुमह और कीजिये कि मैंबल्दी ही इस संसारके पार हो बा। ___ यहाँ भक-वारा सन्तके विषय में जो कुछ कहा गया है बेसा उस सन्ताने स्वेच्छासे कुछ भी नहीं किया। उसने सो मतके मोजनादिकी म्यवस्थाके लिये किसीसे सकेत तक भी नहीं किया और न अपने योजन से कभी कोई पास ही उठाकर उसे दिया है, फिर भी उसके भोजनादिकी सब व्यवस्था हो गई। दूसरे भक्तजन स्वय ही बिना किसीकी प्रेरणाके उसके भोजनादिकी सुव्यवस्था करनेमे प्रवृत्त हो गये और वैसा करके अपना अहोभाग्य समझने लगे। इसी तरह सन्तने उस भकको लक्ष्य करके कोई खास उपदेश भी नहीं दिया, फिर भी वह भक्त उस सन्तकी दिनचर्या और प्रवाग्विसर्ग (मोनोपदेशरूप ) मुख-मुद्रादिक परसे स्वय ही उपदेश ग्रहण करता रहा और प्रबोधको प्राप्त होगया । परन्तु यह सब कुछ घटित होनेमे उस सन्तपुरुषका व्यक्ति व ही प्रधान निमित्तकारण रहा है - अले ही वह क्तिना ही उदासीन क्यो न हो। इसीसे भक्त-द्वारा उसका सारा श्रेय उक्त सन्तपुरुषको ही दिया गया है।
इन सब उदाहरणो परसे यह बात सहज ही समझमें पा जाती है कि किसी कार्यका कर्ता या कारण होनेके लिये यह लाज़िमी(अनिवार्य ) अथवा ज़रूरी नही है कि उसके साथमे इच्छा, बुद्धि तथा प्रेरणादिक भी हो, वह उसके बिना भी हो सकता है पौर होता है। साथ ही, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी वस्तुको अपने हाथसे उठाकर देने या किसीको उसके देनेकी प्रेरणा करके अथवा आदेश देकर दिला देनेसे ही कोई मनुष्य दाता नही होता बल्कि ऐसा न करते हुए भी दाता होता है, जब कि उसके निमित्तसे, प्रभावसे, प्राश्रयमे रहनेसे, सम्पर्कमें मानेसे, कारणका कारण बनमेसे कोई वस्तु मिसीको प्राप्त हो जाती है । ऐसी रिमति परमवीतराम श्रीमहन्सानिदेवो कर्तृत्वाविवस्यका
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३६४
युगवीर-निबन्धावली व्यर्थ नहीं कहा जा सकता-भले ही वे अपने हाथसे सीधा किसीका कोई कार्य न करते हो, मोहनीय कर्मके प्रभावसे उनमें इच्छाका अस्तित्व तक न हो और न किसीको उस कार्यकी प्रेरणा या प्राज्ञा देना ही उनसे बनता हो; क्योकि उनके पुण्यस्मरण, चिन्तन, पूजन, भजन, कीर्तन, स्तवन और आराधनसे जब पापकर्मोका नाश होता है, पुण्यकी वृद्धि और आत्माकी विशुद्धि होती है-जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चूका है- तब फिर कौन कार्य है जो अटका रह जाय ? सभी कार्य सिद्धिको प्राप्त होते है, भक्तजनोकी मनोकामनाएं पूरी होती है और इसलिये उन्हे यही कहना पडता है कि 'हे भगवन् । आपके प्रसादसे मेरा यह कार्य सिद्ध हो गया', जैसे कि रसायनके प्रसादसे प्रारोग्यका प्राप्त होना कहा जाता है।
रसायन औषधि जिस प्रकार अपना सेवन करनेवाले पर प्रसन्न नहीं होती और न इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य ही सिद्ध करती है उसी तरह वीतराग भगवान् भी अपने सेवक पर प्रसन्न नही होते और न प्रसन्नताके फलस्वरूप इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न ही करते हैं । प्रसन्नतापूर्वक सेवन-अाराधनके कारण ही रसायन और वीतरागदेवमे प्रसन्नताका आरोप किया जाता है और यह अलकृत भाषाका कथन है । अन्यथा दोनोका काय वस्तुस्वभावके वशवर्ती, सयोगोकी अनुकूलताको लिये हुए, स्वत होता है-उसमे किसीकी इच्छा-प्रसन्नतादिकी कोई बात नहीं है। ___ यहाँ पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टि से एक बात और प्रकट कर देने की है और वह यह कि, ससारी जीव मनसे, वचनसे व कायसे जो क्रिया करता है उससे प्रात्म प्रदेशोमे कम्पन (हलन-चलन) होकर अव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणुमोका आत्म-प्रवेश होता है, जिसे 'प्रास्रव' कहते है । मन-वचन कायकी यह क्रिया यदि भुम होती है तो उससे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभकर्मका पासव होता है । तदनुसार ही बंध होता है। इस तरह कर्म शुभ-अशुभ
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वीतरागसे प्रार्थना क्यो ? ३६५ के मेदसे दो भागोमें बंटा रहता है । शुभ कार्य करनेकी जिसमें प्रकृति (स्वभाव-शीलता) होती है उसे शुभकर्म अथवा पुण्यप्रकृति और अशुभ कार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे अशुभकर्म अथवा पापप्रकृति कहते हैं । शुभाऽशुभ भावोंकी तरतमता और कषायादि परिणामोकी तीव्रता-मदतादिके कारण इन कर्मप्रकृतियोमें बराबर परिवर्तन ( उलटफेर ) अथवा संक्रमण हुआ करता है। जिस समय जिस प्रकारकी कर्मप्रकृतियोंके उदयका प्राबल्य होता है उस समय कार्य प्राय उन्हीके अनुरूप निष्पन्न होता है । वीतरागदेवकी उपासनाके समय उनके पुण्यगुणोका प्रेमपूर्वक स्मरण एव चिंतन करने और उनमे अनुराग बढानेसे शुभभावों ( कुशलपरि. रणामो) की उत्पत्ति होती है, जिससे इस मनुष्यकी पापपरिणति छूटती और पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है। नतीजा इसका यह होता है कि हमारी पापप्रकृतियोका रस ( अनुभाग ) सूखता और पुण्यप्रकृतियोका रस बढता है। पापप्रकृतियोका रस सूखने और पुण्यप्रकृतियोमे रस बढनेसे 'अन्तरायकर्म' नामकी प्रकृति, जो कि एक मूल पापप्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य (शक्ति-बल) मे विघ्नरूप रहा करती है-उन्हे होने नही देती-वह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्टकार्यको बाधा पहुँचानेमे समर्थ नहीं रहती । तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं, बिगडे हुए काम भी सुधर जाते हैं और उन सबका श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है। इसीसे स्तुति-वन्दनादिको इष्टफलकी दाता कहा है। जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकवातिकादिमे उद्धृत किसी आचार्यमहोदयके निम्न वाक्यसे प्रकट है
नेष्ट विहन्तु शुभभाव-भान-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तराय. । तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुस्यादिरिष्टार्थकदाऽहंदादेः।। जब भले प्रकार सम्पन्न हुए स्तुति-वन्दनादि कार्य इष्ट फलको
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बुगबीर निवाचावली देवगाले हैं और वीतरागदेवमें कर्तृत्व-विषयका बारोप सर्वक असंगत तथा व्यर्थ नहीं है, बल्कि ऊपरके निर्देशानुसार सात बार सुटित है-बे स्वेच्छा-बुद्धि-प्रयत्नादिकी दृष्टिसे का न होते हुए मी निमित्तादिकी दृष्टिसे कर्ता जरूर हैं और इसलिये उनके विषयो अकर्तापनका सर्वथा एकान्तपक्ष पटित नहीं होता, तब उनसे अधिक यक अथवा ऐसी प्रार्थनासोका किया जाना भी असमत नहीं कहा जा सकता,जो उनके सम्पर्क तथा शरणमें प्रानेसे स्वय सफल होबाती है अथवा उपासना एव मचिके द्वारा सहज-साध्य होती हैं।
इस विषयमे स्वामी समन्तभद्रका स्वयभूस्तोत्रगत निम्न वाक्य सास तोरसे ध्यानमे लेने योग्य हैसदोषशान्त्या विहितात्म-शान्तिः शान्तेर्विधाता शरणं गतानम्म् । भूयाद्भव-क्लेश भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य ।
इसमे बतलाया है कि वे 'मगवान शान्तिजिन मेरे शरएब हैंमैं उनकी शरण लेता हूँ-जिन्होने अपने दोषोकी-प्रज्ञान, मोह तथा राग-द्वेष, काम-क्रोधादि विकारोकी शान्ति करके प्रात्मामें परमशान्ति स्थापित की है-पूर्ण सुख-स्वरुप स्वाभाविकी स्थिति प्राप्त की है और इसलिये जो शरणागतोको शान्तिके विधाता हैं -उनमें अपने मात्मप्रभावसे दोषोकी शान्ति करके शान्ति-सुखका संचार करने अथवा उन्हे शान्ति-सुखरूप परिणत करनेमें सहायक एव निमित्तभूत हैं। प्रत ( इस शरणागतिके फलस्वरूप ) शान्तिबिन मेरे ससार-परिभ्रमणका अन्त और सासारिक क्लेको तथा भयोकी समाप्तिमें कारणीभूत हो।'
यहाँ शान्ति-जिनको शरणामतोकी शान्तिका बो विकार (कर्ता) कहा है उसके लिये उनमे किसी इच्छा या तदनुकत प्रकलाके पआरोप की जरूरत नहीं है, वह कार्य उनके 'विहितात्मशान्ति' होनेसे स्वयं ही उस प्रकार हो जाता है जिस प्रकार कि अनिके पास जाने गर्मी और हिमालय मा शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुंचनेसे
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वीतरागते प्रार्थना क्यों?
३६० सर्दीका संचार प्रपया तदप परिणमन स्वयं हुमा करता है और उसमें उस अग्नि या हिममय पदार्थकी इच्छादिक जेसा कोई कारण नहीं पडता । इच्छा तो स्वयं एक दोष है और वह उस मोहका परिणाम है जिसे स्वय स्वामीजीने उक्त स्तोत्रमें 'अनन्तदोबारायविग्रह' बतलाया है । दोषोंकी शान्ति होजानेसे उसका अस्तित्व ही नही बनता । इसलिये अर्हन्तदेक्मे बिना इच्छा तथा प्रयत्नवाला कर्तृत्व सुघटित है। इसी कतृत्वको लक्ष्यमें रखकर उन्हे 'शान्तिके विधाता' कहा गया है-इच्छा तथा प्रयत्नवाले कर्तृत्वकी दृष्टिसे वे उसके विधाता नहीं हैं। इस तरह कर्तृत्व विषयमें अनेकात चलता है--सर्वथा एकातपक्ष जनशासनमें ग्राह्य ही नहीं है।
यहां प्रसगवश इतना और भी बतला देना उचित जान पडता है कि उक्त पथके तृतीय चरणमें सांसारिक क्लेशो तथा भयोकी शातिमें कारणीभूत होनेकी नो प्रार्थना की गई है वह जैनी प्रार्थनाका मूलरूप है, जिसका और भी स्पष्ट दर्शन नित्यकी प्रार्थनामें प्रयुक्त निम्न प्राचीनतम गाथामे पाया जाता है
दुक्ख-खो कम्म-खम्रो समाहिमरणं च वोहि-लाहो या मम होउ तिजगबंधव । तव जिणवर परण-सरणेण ।।
इसमें जो प्रार्थना की गई है उसका रूप यह है कि-हे त्रिजगतके (निनिमित्त) बन्युजिनदेव । अापके चरण-शरणके प्रसादसे मेरे दुखोंका क्षय, कोका क्षय, समाधिपूर्वक मरण और सम्यम्दर्शनादिकका लाभ होवे। इससे यह प्रार्थना एक प्रकारसे प्रात्मोत्कर्षकी भावना है और इस बातको सूचित करती है कि जिनदेवकी शरण प्राप्त होनेसे-प्रसन्नतापूर्वक चिनदेवके चरणोका पाराधन करनेसे-दुखोका क्षय और कर्मोका क्षयादिक सुख-साध्य होता है। म्ही माव समन्तभद्रकी उस प्रार्थनाका है। इसी भावको लेकर मतित्रवेक स्तुक्तोऽस्तु नाब।(२५) भवतु ममाम मयोपान्तये (११) जेसो दूसरी मी अनेक प्रार्थना की गई हैं। परन्तु येही
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३६८
युगवीर - निबन्धावली
प्रार्थनाएँ जब जिनेन्द्रदेवको साक्षात् रूपमे कुछ करने-करानेके लिये प्रेरित करती हुई जान पडती हैं तो वे अलकृत रूपको धारण किये हुए होती हैं। ऐसी प्रलकृतरूपधारिणी प्रार्थनाम्रोके स्वयभूस्तोत्रगत कुछ नमूने इस प्रकार है
चेतो मम नाभिनन्दन (५)
१ पुनातु
२ जिन श्रिय मे भगवान् विधत्ताम (१०) ३ ममार्य । देया शिवतातिमुकचे (१५) ४. पूयात्पवित्रो भगवान मनो मे (४०) ५ श्रेयसे जिनवृष । प्रसीद म (७५)
ये सब प्रार्थनाएँ चित्तको पवित्र करने, जिनश्री तथा शिवसतातको देने श्रौर कल्याण करनेकी याचनाको लिये हुए है, ग्रात्मोत्कर्ष एव प्रात्मविकासको लक्ष्य करके की गई है। इनमे असंगतता तथा प्रसभाव्य-जैसी कोई बात नही है -- सभी जिनेन्द्रदेव के सम्पर्क, प्रभाव तथा शरणमे आनेसे स्वय सफल होनेवाली अथवा भक्ति-उपासनाके द्वारा सहज साध्य है--और इसलिये अलकारको भाषामे की गई एक प्रकार की भावनाएँ ही है ।
वास्तवमे परमवीतरागदेवसे विवेकीजनकी प्रार्थनाका अर्थ देवके समक्ष अपनी भावनाको व्यक्त करना है अथवा यो कहिये कि अलकारकी भाषामे मन कामनाको व्यक्त करके यह प्रकट करना है कि 'वह आपके चरण-शरण एव प्रभावमे रहकर और उससे कुछ पदार्थ पाठ लेकर आत्मशक्तिको जागृत एव विकसित करता हुआ अपनी उस इच्छाकामना या भावनाको पूरा करनेमें समर्थ होना चाहता है । उसका यह प्राशय कदापि नही होता कि वीतरागदेव भक्ती प्रार्थनासे द्रवीभूत होकर अपनी इच्छाशक्ति एव प्रयत्नादिको काममे लाते हुए स्वयं उसका कोई काम कर देगे अथवा दूसरोसे प्रेरणादिके द्वारा करा देगे । ऐसा प्राशय सभाव्यको सभाव्य बनाने जैसा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता व्यक्त करता है ।
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समन्तभद्र-विचार-दीपक (४)
पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ? पुण्य पापका उपार्जन कैसे होता है कैसे किसीको पुण्य लगता, पाप चढता अथवा पाप-पुण्यका उसके साथ सम्बन्ध होता है, यह एक भारी समस्या है, जिसको हल करनेका बहुतोने प्रयत्न किया है। अधिकाश विचारकजन इस निश्चय पर पहुंचे हैं और उनकी यह एकान्त धारणा है कि-'दूसरोको दुख देने, दुख पहुँचाने, दुखके साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी तरह दुखका कारण बननेसे नियमत पाप होता है-पापका प्रास्रव-बन्ध होता है, प्रत्युत इसके दूसरोको सुख देने, सुख पहुँचाने, सुखके साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी तरह सुखका कारण बननेसे नियमत पुण्य होता है-पुण्यका प्रास्रव-बन्ध होता है। अपनेको दुख-सुख देने आदिसे पाप-पुण्यके वन्धका कोई सम्बन्ध नहीं है।'
दूसरोंका इस विषयमें यह निश्चय और यह एकान्त धारणा है कि-'अपनेको दुख देने-पहुँचाने प्रादिसे नियमत पुण्योपार्जन और सुख देने आदिसे नियमत पापोपार्जन होता है-दूसरोके दुखसुखका पुण्य-पापके बन्धसे कोई सम्बन्ध नही है।'
स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टिमें ये दोनो ही विचार एव पक्ष निरे ऐकान्तिक होनेसे वस्तुतत्त्व नहीं हैं, और इसलिये उन्होंने इन दोनोको सदोष ठहराते हुए पुण्य-पापकी जो व्यवस्था सूत्ररूपसे
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३७०
युगवीर-निबन्धावली अपने 'देवागम' मे ( कारिका ६२ से ६५ तक) दी है वह बड़ी ही मार्मिक तथा रहस्यपूर्ण है । आज वह सब ही यहां पाठकोके सामने रक्खी जाती है। प्रथम पक्षको सदोष ठहराते हुए स्वामीजी लिखते हैं -
पापं ध्र व परे दु खात्पुण्यं च सुखतो यदि ।
अचेतनाऽकषायौ च बध्येयाता निमित्तत ॥ २ ॥ 'यदि परमे दु खोत्पादनसे पापका और सुखोत्पादनसे पुण्यका होना निश्चित है- ऐसा एकान्त माना जाय-तो फिर अचेतन पदार्थ और अक्षायी ( वीतराग ) जीव भी पुण्य-पापसे बँधने चाहिये, क्योकि वे भी दूसरोमे सुख-दुखकी उत्पत्तिके निमित्तकारण होते हैं।'
भावार्थ - जब परमे सुख-दुखका उत्पादन ही पुण्य-पापका एकमात्र कारण है तो फिर दूध-मलाई तथा विष-कण्टकादिक अचेतन पदार्थ, जो दूसरोके सुख-दुखके कारण बनते हैं, पुण्य-पापके बन्धः कर्ता क्यो नही ? परन्तु इन्हे कोई भी पुण्य-पापके बधकर्ता नहीं मानता -- काँटा पैर में चुभकर दूसरेको दुख उत्पन्न करता है, इतने मात्रसे उसे कोई पापी नही कहता और न पाप-फलदायक कर्मपरमाणु ही उससे पाकर चिपटते अथवा बधको प्राप्त होते है। इसी तरह दूध-मलाई बहुतोको आनद प्रदान करते है, परत उनके इस आनदसे दूध-मलाई पुण्यात्मा नही कहे जाते और न उनमे पुण्यफलदायक कर्म-परमाणुओका ऐसा कोई प्रवेश अथवा सयोग ही होता है जिसका फल उन्हे ( दूध-मलाईको) बादको भोगना पडे । इससे उक्त एकान्त सिद्धात स्पष्ट सदोष जान पडता है। __यदि यह कहा जाय कि चेतन ही बधके योग्य होते हैं अचेतन नही, तो फिर कषाय-रहित वीतरागियोंके विषयमें प्रापत्तिको कैसे टाला जायगा? वे भी अनेक प्रकारसे दूसरोंके दुख-सुखके कारण बनते
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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ?
२७१
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Casting
हैं। उदाहरणके तौर पर किसी मुमुक्षुको मुनिदीक्षा देते हैं तो उसके अनेक सम्बन्धियोको दुख पहुँचता है। शिष्यो तथा जनताको शिक्षा देते हैं तो उससे उन लोगोको सुख मिलता है। पूर्ण सावघानीके साथ ईर्यापथ शोधकर चलते हुए भी कभी कभी दृष्टिपथसे बाहरका कोई जीव अचानक कूदकर पैर तले आ जाता है और उनके उस पैरसे दबकर मर जाता है । कायोत्सर्गपूर्वक ध्यानावस्थामें स्थित होने पर भी यदि कोई जीव तेज़ीसे उडा चला ग्राकर उनके शरीरसे टकरा जाता है और मर जाता है तो इस तरह भी उस जीवके मार्गमे बाधक होनेसे वे उसके दुखके कारण बनते हैं । अनेक निर्जितकषाय ऋद्धिधारी वीतरागी साधुप्रोके शरीर के स्पर्शमात्र से अथवा उनके शरीरको स्पर्श की हुई वायुके लगनेसे ही रोगीजन नीरोग होजाते है और यथेष्ट सुखका अनुभव करते हैं । ऐसे और भी बहुतसे प्रकार है जिनमे वे दूसरोके सुख-दुखके कारण बनते हैं । यदि दूसरोके सुख-दुखका निमित्त कारण बननेसे ही आत्मामें पुण्य पापका प्रास्रव-बन्ध होता है तो फिर ऐसी हालतमें
कषाय-रहित साधु से पुण्य-पापके बन्धनसे बच सकते हैं ? यदि वे भी पुण्य-पापके बन्धनमे पडते हैं तो फिर निर्बन्ध अथवा मोक्षकी कोई व्यवस्था नही बन सकती, क्योकि बन्धका मूलकारण कषाय है । कहा भी है
"
" कषायमूल सकल हि बन्धनम् "सकषायत्वाज्जीव. कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्ध. और इसलिये प्रकषायभाव मोक्षका काररण है। जब' प्रकषायभाव मी बन्धका कारण हो गया तब मोक्षके लिए कोई कारण नहीं रहता । काररणके अभावमें कार्यका प्रभाव हो जानेसे मोक्षका प्रभाव ठहरता है । और मोक्षके प्रभावमे बन्धकी भी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योकि बन्ध और मोक्ष जैसे सप्रतिपक्ष धर्म परस्परमें अविनाभाव सम्बन्धको लिये होते हैं--एकके बिना दूसरेका अस्तित्व
יגן
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युगवीर-निबन्धावली बन नही सक्ता, यह बात इस स्तम्भके प्रथम निबन्धमे भले प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है । जब बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य-पापके बन्धकी क्था ही प्रलापमात्र हो जाती है । अतः चेतन-प्राणियोकी दृष्टिसे भी पुण्य-पापकी उक्त एकान्त व्यवस्था सदोष है।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि उन अकषाय जीवोके दूसरोको सुख-दुख पहचानेका कोई सकल्प या अभिप्राय नही होता. उस प्रकारकी कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषयमे उनकी कोई मासक्ति ही होती है, इसलिये दूसरोंके सुख-दुखकी उत्पत्तिमे निमित्तकारण होनेसे वे बन्धको प्राप्त नहीं होते,तो फिर दूसरोंमे दुःखोल्पादन पापका और सुखोत्पादन पुण्यका हेतु है, यह एकान्तसिद्धान्त कैसे बन सकता है ?- अभिप्रायाभावके कारण अन्यत्र भी दुखोत्पादनसे पापका और सुखोत्पादनसे पुण्यका बन्ध नहीं हो सकेगा, प्रत्युत इसके विरोधी अभिप्रायके कारण दुखोत्पत्तिसे पुण्यका और सुखोत्पत्तिसे पापका बन्ध भी हो सकेगा। जैसे एक डाक्टर सुख पहुंचानेके अभिप्रायसे पूरी सावधानीके साथ फोडेका ऑपरेशन करता है परन्तु फोडेको चीरते समय रोगीको कुछ अनिवार्य दुख भी पहुँचता है, इस दुरूके पहुँचानेसे डाक्टरको पापका बन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी दुखविरोधिनी भावनाके कारण यह दुख भी पुण्य-बन्धका कारण होगा। इसी तरह एक मनुष्य कषायभावके वशवर्ती होकर दुख पहुँचानेके अभिप्रायसे क्सिी कुबडेको लात मारता है, लातके लगते ही अचानक उसका कुबड़ापन मिट जाता है और वह सुरुका अनुभव करने लगता है, कहावत भी है--"कुबडे गुरण लात लग गई"-तो कुबडेके इस सुखानुभवसे लात मारनेवालेको पुण्यफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती --उसे तो अपनी सखविरोधिनी भावनाके कारण पाप ही लगेगा। प्रत प्रथमपक्षवालोका यह एकान्त सिद्धान्त कि 'परमें सुख-दुखका
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पुरुष-पापकी व्यवस्था कैसे?
३७३ उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है' पूर्णतया सदोष है, और इसलिये उसे किसी तरह भो वस्तुतत्व नहीं कह सकते। ___अब दूसरे पक्षको दूषित ठहराते हुए प्राचार्यमहोदय लिखते
पुण्य ध्र वं स्वतो दुःखासा च सुखतो यदि ।
वीतरागो मुनिर्विरस्ताभ्या युज्यानिमित्ततः ॥६३|| 'यदि अपनेमे दुखोत्पादनसे पुण्यका और सुखोत्पादनसे पापका बन्ध ध्र व है-निश्चितरूपसे होता है ऐसा एकान्त माना जाय, तो फिर वीतराग (कषायरहित) और विद्वान् मुनिजन भी पुण्य-पापसे बँधने चाहिये, क्योकि ये भी अपने सुख-दुखको उत्पत्तिके निमित्तकारण होते हैं।'
भावार्थ--वीतराग और विद्वान् मुनिके त्रिकाल-योगादिके अनुष्ठान-द्वारा कायक्लेशादिरूप-दुःखकी और तत्त्वज्ञानजन्य-सतोषलक्षणरूप सुखकी उत्पत्ति होती है। जब अपनेमे दु ख-सुखके उत्पादनसे ही पुण्य-पाप बंधता है तो फिर ये अकषाय जोव पुण्य-पापके बन्धनसे कैसे मुक्त रह सकते हैं ? यदि इनके भी पुण्य-पापका घ्र व बन्ध होता है तो फिर पुण्य-पापके अभावको कभी अवसर नही मिल सकता, और न कोई मुक्त होनेके योग्य हो सकता है-पुण्यपापरूप दोनो बन्धोंके अभावके बिना मुक्ति होती ही नहीं। और मुक्तिके बिना बन्धनादिककी भी कोई व्यवस्था स्थिर नहीं रह सकतो, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है । यदि पुण्य-पापके अभाव-बिना भी मुक्ति मानो जायगो ता ससूतिके-ससार अथवा सासारिक जीवनके प्रभावका प्रसंग आएगा, जो पुण्य-पापकी व्यवस्था माननेवालोमेंसे किसीको भी इष्ट नही है। ऐसी हालतमें प्रात्म-सुख-दुखके द्वारा पाप-पुण्यके बन्धनका यह एकान्त-सिद्धान्त भी सदोष है।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि अपनेमें दुख-सुखकी उत्पत्ति
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चुगवीर-निबन्दावली होने पर भी तत्त्वज्ञानी वीतरागियोंके पुण्य-पापका बन्ध इसलिये नहीं होता कि उनके दुख-सुखके उत्पादनका अभिप्राय नहीं होता, वैसी कोई इच्छा नही होती और न उस विषयमे प्रासक्ति ही होती है, तो फिर इससे तो अनेकान्त-सिद्धान्तकी ही सिद्धि होती हैउक्त एकान्तकी नही । अर्थात् यह नतीजा निकलता है कि अभिप्रायको लिये हए दुख-सुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है, अभिप्रायविहीन दुख-सुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु नहीं है।
अत उक्त दोनो एकान्त मिद्धान्त प्रमाणसे बाधित हैं, इष्टके भी विरुद्ध पडते हैं और इमलिये ठीक नही कहे जा सकते। ___ इन आपत्तियोसे बचने आदिके कारण जो लोग दोनो एकान्तो. को अगीकार करते हैं, परतु स्याद्वादके सिद्धातको नही मानतेअपेक्षा-अनपेक्षाको स्वीकार नही करते-अथवा अवाच्यतेकान्तका अवलम्बन लेकर पुण्य-पापकी व्यवस्थाको 'प्रवक्तव्य' बतलाते है उनकी मा यतामे-
"विरोवान्नामय काम्य स्याद्वाद-न्याय विद्विषाम् ।
अवाच्यतेकान्तऽप्युक्तिनावाच्यामांत युज्यत ।।" इस कारिका ( न० ६४ ) के द्वारा विरोधादि दूषरण देनेके अनन्तर, स्वामी समन्तभद्रने स्व-परस्थ सुख-दु खादिकी दृष्टिसे पुण्यपापकी जो सम्यक् व्यवस्था अर्हन्मतानुसार बतलाई है उसकी प्रतिपादक-कारिका इस प्रकार है -
विशुद्धि-सक्लेशाग चेत्स्व-परस्थ सुखाऽसुखम् ।
पुण्य-पापासवौ युक्ती न चद् व्यर्थस्तवाऽहत |५|| इसमे बतलाया है कि-'महन्तके मतमे सुख-दुख आत्मस्थ हो या परस्थ -अपनेको हो या दूसरेको-वह यदि विशुद्धिका अग है तो उस पुण्यास्रवका, सक्लेशका अग है तो उस पापास्रवका हेतु है, जो युक्त है--सार्थक अथवा बन्धकर है-और यदि विद्धि तथा सक्लेश दोनोमेसे किसीका अग नहीं है तो पुण्य-पापमेसे किसीके
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पुण्य-पापको व्यवस्था कैसे ?
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भी युक्त प्रालयका बन्धव्यवस्थापक साम्परायिक प्रास्लवकाहेतु नहीं है । ( बन्धाऽभावके कारण) वह व्यर्थ होता है उसका कोई फल नहीं ।
यहाँ 'सक्लेश' का अभिप्राय प्रात-रौद्रध्यानके परिणामसे है'आते-रौद्रव्यानपरिणाम सक्लेश' ऐसा अकलंकदेवने 'अष्टशती' टीकामें स्पष्ट लिखा है और श्रीविद्यानन्दने भी उसे 'अष्टसहली' में अपनाया है। 'सक्लेश' शब्दके साथ प्रतिपक्षरूपसे प्रयुक्त होनेके कारण 'विशुद्धि' शब्दका अभिप्राय 'सक्लेशाऽभाव' है ('तदभाव विशुद्धि' इत्यकलक )-उस क्षायिकलक्षरणा तथा प्रविनश्वरी परमशुद्धिका अभिप्राय नही है जो निरवशेष-रागादिके अभावरूप होती है । उस विशुद्धिमे तो पुण्य-पापबधके लिये कोई स्थान ही नहीं है । और इसलिये विशुद्धिका आशय यहाँ आर्त-रौद्रध्यानसे रहित शुभपरिणतिका है । वह परिणति धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानके स्वभावको लिये हुए होती है । ऐमी परिणतिके होने पर ही प्रात्मा स्वात्मामे-स्वस्वरूपमे स्थितिको प्राप्त होता है, चाहे वह कितने ही अशोमे क्यो न हो । इसीसे अकलकदेवने अपनी व्याख्यामे, इस सक्लेशाभावरूप विशुद्धिको 'आत्मन स्वात्मन्यवस्थानम' रूपसे उल्लिखित किया है । और इससे यह नतीजा निकलता है कि उक्त पुण्य-प्रसाधिका विशुद्धि आत्माके विकासमे सहायक होती है, जब कि सक्लेशपरतिमे प्रात्माका विकास नही बन सकता--वह पाप-प्रसाधिका होनेसे प्रात्माके अध पतनका कारण बनती है । इसीलिये पुण्यको प्रशस्त और पापको अप्रशस्त कर्म कहा गया है।
विशुद्धिके कारण, विशुद्धिके कार्य और विशुद्धिके स्वभावको 'विशुद्धिनग' कहते हैं। इसी तरह संक्लेशके कारण, सक्लेशके कार्य तथा स्वभावको 'सक्लेशाङ्ग' कहते हैं । स्व-पर-सुख-दुख याद विशु. डिबंगको लिये हुए होता है तो वह पुण्य-रूप शुभ-बन्धका और
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युगवीर-निबन्धावती' संक्लेशागको लिए हुए होता है तो पाप-रूप प्रशुमबन्धका कारण होता है, अन्यथा नहीं। तत्त्वार्थसूत्रमे, "मिध्यादर्शनाऽविरतिश्मादकषाययोगा बन्धहेतव' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद,कषाय और योगरूपसे बन्धके जिन कारणोका निर्देश किया है वे सब सक्लेशपरिणाम ही हैं, क्योकि आर्त-रौद्रध्यानरूप परिणामोंके कारण होनेसे 'सक्लेशाङ्गमे शामिल हैं, जैसे कि हिसादि-क्रिया सक्लेशकार्य होनेसे सक्लेशाङ्गमें गर्मित है । अत स्वामी समन्तभद्रके इस कथनसे उक्त सूत्रका कोई विरोध नहीं है। इसी तरह 'कायवामन कर्म योग', 'म प्रास्त्रा', 'शुभ पुण्यस्याऽशुभ पापस्य' इन तीन सूत्रोके द्वारा शुभकायादि-व्यापारको पुण्यास्रवका और अशुभकायादि-व्यापारको पापास्रवका जो हेतु प्रतिपादित क्यिा है वह कथन भी इसके विरुद्ध नही पडता, क्योकि कायादि-योगके भी विशुद्धि और सक्लेशके कारण-कार्य-स्वभावके द्वारा विशुद्धित्व-सक्लेशत्वकी व्यवस्थिति है। सक्लेशके कारण कार्य-स्वभाव ऊपर बतलाए जा चुके हैं, विशुद्धिके कारण सम्यग्दर्शनादिक हैं, धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यान उसके स्वभाव हैं और विशुद्धिपरिणाम उसका कार्य है। ऐसी हालतमे स्वपर-दुखकी हेतुभूत कायादि-क्रियाएँ यदि संक्लेशकारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती हैं तो वे मक्लेशाङ्गत्वके कारण, विषभक्षरणादिरूप कायादिक्रियायोकी तरह, प्राणियोको अशुभफलदायक पुद्गलोके सम्बन्धका कारण बनती हैं, और यदि विशुद्धि-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती हैं तो विशुद्धथङ्गत्वके कारण, पथ्य पाहारादिरूप कायादिक्रियाप्रोकी तरह, प्राणियोके शुभफलदायक पुद्गलोके सम्बन्धका कारण होती हैं । जो शुभफलदायक पुद्गल हैं वे पुण्यकर्म हैं, जो अशुभफलदायक पुद्गल हैं वे पापकर्म हैं, और इन पुण्य-पाप-कर्मोंके अनेक भेद हैं । इस प्रकार संक्षेपसे इस कारिकामें सपूर्ण शुभाऽशुभरूप पुण्य-पाप-कर्मोके प्रासव-बन्धका कारण सूचित किया है । इससे पुण्य-पापकी व्यवस्था
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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे? ३७७ बतलानेके लिये यह कारिका कितनी रहस्यपूर्ण है, इसे विज्ञ-पाठक स्वय समझ सकते हैं।
साराश इस सब कथनका इतना ही है कि-सुख और दुख दोनो ही, चाहे स्वस्थ हों या परस्थ-अपनेको हो या दूसरोकोकथचित् पुण्यरूप प्रास्रव-बन्धके कारण हैं, विभुद्धिके अंग होनेसे, कथचित् पापरूप मानव-बन्धके कारण हैं, सक्लेशके अग होनेसे, कथचित् पुण्य-पाप उभयरूप प्रास्रव-बन्धके कारण हैं, क्रमार्पित विशुद्धि-सक्लेशके अग होनेसे, कचित् प्रवक्तव्यरूप हैं, सहार्पितविशुद्धि-सक्लेशके अग होनेसे। और विशुद्धि-सक्लेशका अगन होने पर दोनो ही बन्धके कारण नहीं हैं। इस प्रकार नय-विवक्षाको लिए हुए अनेकान्तमार्गसे ही पुण्य-पापकी व्यवस्था ठीक बैठती है-सर्वथा एकान्तपक्षका प्राश्रय लेनेसे नही । एकान्तपक्ष सदोष है, जैसा कि ऊपर बतलाया जाचुका है और इसलिये वह पुण्य-पापका सम्यक् व्यवस्थापक नही हो सकता।
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३४ परिग्रहका प्रायश्चित्त
'प्रायश्चित्त' एक प्रकारका दण्ड प्रथवा तपोविधान है जो अपनी इच्छासे किया तथा लिया जाता है, और उसका उद्देश्य एव लक्ष्य होता है आत्मशुद्धि तथा लौकिक जनोकी चित्तशुद्धि । श्रात्माकी शुद्धिका कारण पापमल है - अपराधरूप श्राचरण है । प्रायश्चित्त के द्वारा पापका परिमार्जन और अपराधका शमन होता है, इससे प्रायश्चित्तको पापछेदन, मलापनयन, विशोधन और अपराधविशुद्धि जैसे नामोसे भी उल्लेखित किया जाता है । इस दृष्टिसे 'प्राय' का अर्थ पाप अपराध, और 'चित्त' का अर्थ शुद्धि है । पाप तथा अपराध करनेवाला जनताकी नज़रमें गिर जाता है--जनता उसे घृणा की दृष्टिसे - हिकारतकी नजरसे - देखने लगती है और उसके हृदयमे उसका जैसा चाहिए वैसा गौरव नही रहता । परन्तु जब वह प्रायश्चित्त कर लेता है -- अपने अपराधका दड ले लेता -तो जनताका हृदय भी बदल जाता है और वह उसे ऊँची, प्रेम
१ "रहस्य छेदन दण्डो मलापनयन तप ।
प्रायश्चित्ताभिधानानि व्यवहारो विशोधनम् ॥ ६ ॥ " " प्रायश्चित्त नप श्लाघ्य येन पाप विशुध्यति ।। १५३ ।। " -प्रायश्चित्तसमुच्चय
1
"प्रायाच्चिति चित्तयोरिति सुट अपराधी प्राय चित्त शुद्धि । प्रायस्य चित्त प्रायश्चित्त-प्रपराधविशुद्धिरित्यथं ।" (राजवार्तिक)
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परिग्रहका प्रायश्चित
३७६ की तथा गौरव-भरी दृष्टिसे देखने लगती है । इस दृष्टिसे प्राय का अर्थ 'लोक' तथा 'लोकमानस' है और चित्त का अर्थ वही 'शुद्धि' अथवा 'चिसग्राहककर्म' समझना चाहिये।
परिग्रहको शास्त्रकारोने, यद्यपि, पाप बतलाया है और हिंसादि पच प्रधान-पापोमे उसकी गणना की है, फिर भी लोकमें वह प्रामतौरसे कोई पाप नहीं समझा जाता--हिसा, भूठ, चोरी और परस्त्री-सेवनादिरूप कुशीलको जिस प्रकार पाप समझा जाता है और अपराध माना जाता है उस प्रकार धन-धान्यादिरूप परिग्रहके सचयको-उसमे रचेपचे रहनेको कोई पाप नही समझता और न अपराध ही मानता है । इसीसे लोक्मे परिग्रहके लिए कोई दडव्यवस्था नहीं--जो जितना चाहे परिग्रह रख सकता है। भारतीय दडविधान (Indian renal code) मे भी ऐसी कोई धारा नही, जिससे किसी भी परिग्रहीको अथवा अधिक धन-दौलत एकत्र करने वाले तथा ससारकी अधिक सम्पत्ति-विभूति पर अपना अधिकार रखनेवाले गहस्थको अपराधी एव दडका पात्र समझा जा सके। प्रत्युत इसके, जो लोग मिलो, कल-कारखानो और व्यापारादिके द्वारा विपुल धन एकत्र करके बहविभूतिके स्वामी बनते है उन्हे लोकमे प्रतिष्ठित समझा जाता है.पुण्याधिकारी माना जाता है और आदरकी दृष्टिसे देखा जाता है । ऐमी हालतमे उनके पापी तथा अपराधी होनेकी कोई कल्पना तक भी नही कर सकता-उन्हे वैसा कहने-सुननेकी तो बात ही कहाँ ? तब फिर 'परिग्रहका प्रायश्चित्त' कैसा? और उसे पाप बतलाना भी कैसा ?
यह ठीक है कि परिग्रहको लोकमे हिसादिक पापोकी दृष्टिसे नही
१ 'प्रायो लोकस्य चित्त मानस । उक्त च
प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्त मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहक कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृत ॥" (प्रायश्चित्तसमु०)
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युगवीर - निबन्धावली
देखा जाता, सभी उसकी चकाचौंध मे फंसे हैं, सभी उसके इच्छुक हैं और सभी अधिकाधिक रूपसे परिग्रहधारी बनना चाहते हैं । ऐसे अपरिग्रही सच्चे साधु भी प्राथ नही हैं जो अपने श्राचरण-बल और सातिशय-वारणी से अपरिग्रह के महत्वको लोक- हृदयोपर भले प्रकार
कित कर सकते - उन्हे उनकी भूल सुझा सकते, परिग्रहसे उनकी लालसा, गृद्धता एव श्रासक्तताको हटा सकते, अनासक्त रहकर उसके उपभोग करने तथा लोकहितार्थ वितरण करते रहनेका सच्चा सजीव पाठ पढा सकते। कितने ही साधु तो स्वय महापरिग्रह के घारी हैं - मठाधीश, महन्त भट्टारक बने हुए हैं, और बहुतसे परिग्रहभक्त सेठ साहूकारोकी केवल हाँ में हाँ मिलानेवाले है, उनकी कृपाके भिखारी हैं, उनकी प्रसत् प्रवृत्तियोको देखते हुए भी सदैव उनको प्रशसा के गीत गाया करते हैं- उनकी लक्ष्मी, विभूति एव परिग्रहकी कोरी सराहना किया करते हैं । उनमें इतना आत्मबल नही, आत्मतेज नही, हिम्मत नही, जो ऐसे महापरिग्रही धनिकोकी आलोचना कर सकें- उनकी त्याग शून्य निरर्गल धन-दौलतके
ग्रह की प्रवृत्तिको पाप या अपराध बतलासके । इस प्रकार जब सभी परिग्रहकी कीचमे थोडे बहुत घंसे हुए या सने हुए हैं तब फिर कौन किसीकी तरफ गुली उठावे और उसे अपराधी - पापी ठहरावे ? ऐसी हालत में परिग्रहको श्रामतौर पर यदि पाप नही समझा जाता और न अपराध ही माना जाता है तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नही है ।
परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी परिग्रह पापकी — अपराधकी - कोटिसे निकल नही जाता । उसे पाप या अपराध न मानना अथवा तद्रूप न देखना दृष्टिविकारका ही एकमात्र परिणाम जान पड़ता है । धतूरा खाकर दृष्टिविकारको प्राप्त हुना मनुष्य अथवा पीलिया रोगका रोगी यदि सफेद शखको भी पीला देखता है तो उससे वह शख पीला नही हो जाता और न उसका शुक्ल गुरण ही नष्ट हो जाता है । अथवा ठगोका समाज यदि झूठ बोलने और
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परिमहका प्रायश्चित्त चोरी करनेको पाप नहीं समझता तो उससे भूठ और चोरी पापको कोटिसे नहीं निकल जाते । ठीक इसी तरह मोह-मदिरा पीकर दृष्टिविकारको प्राप्त हुमा ससार यदि परिग्रहको पापरूपमें नही देखता
और न उसे कोई अपराध ही सममता है तो सिर्फ इतनेसे ही यह नहीं कहा जा सकता कि परिग्रह कोई पाप या अपराध ही नही रहा,
और इसलिए उसका प्रायश्चित भी न होना चाहिए। वास्तवमें मूर्या, ममत्व-परिणाम अथवा 'ममेद' ( यह मेरा ) के भावको लिए हुए परिग्रह एक बहुत बड़ा पाप है, जो प्रात्माको सब प्रोरसे पकडेजकडे रहता है और उसका विकास नही होने देता । इसीसे श्रीपूज्यपाद और अकलकदेव जैसे महान् प्राचार्योंने सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक आदि ग्रन्थोमें 'तन्मूला सर्व दोषा', 'तन्मूला सर्वदोषानुषगा' इत्यादि वाक्योके द्वारा परिग्रहको सर्वदोषोका मूल बतलाया है । और यह बिल्कुल ठीक है-परिग्रहके होनेपर उसके संरक्षणअभिवर्धनादिकी ओर प्रवृत्ति होती है, सरक्षणादि करनेके लिये अथवा उसमें योग देते हए हिसा करनी पड़ती है, भूठ बोलना पडता है, चोरी करनी होती है, मैथुनकर्ममे चित्त देना पडता है, चित्त विक्षिप्त रहता है, क्रोधादिक कषायें जाग उठती हैं, राग-द्वेषादिक सताते हैं, भय सदा घेरे रहता है, रोद्रध्यान बना रहता है, तृष्णा बढ़ जाती है, प्रारम्भ बढ जाते है, नष्ट होने अथवा क्षति पहुँचनेपर शोक-सताप आ दबाते हैं, चिन्तामोका तांता लगा रहता है और निराकुलता कभी पास नही फटकती । नतीजा इस सबका होता है अन्तमें नरकका वास, जहाँ नाना प्रकारके दारुण दुखोंसे पाला पड़ता है और कोई भी रक्षक एवं शरण नजर नहीं आता।
१. ज्ञानाएंवमे शुभचन्द्राचार्य ने बाह्य परिग्रहको 'निशेषानर्थमन्दिर' लिखा है, क्योंकि उसके कारण विद्यमान होते हुए भी रागादिक शत्र क्षणमात्रमें उत्पन्न होकर अनिष्ट मथवा अनर्थ कर डालते हैं।
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युगवीर-निबन्धावलो इसीसे परमागममे बहुप्रारम्भी- बहुपरिग्रहीको नरकका अधिकारी बतलाया है, क्योकि बहुभारम्भ (प्राणिपीडा-हेतु-व्यापार ) और बहपरिग्रह दोनो ही सिद्धान्तमें नरकायुके प्रास्रवके कारण कहे गये हैं। ऐसी हालतमे परिग्रहको पाप न मान कर उसका प्रायश्चित्त न करना और उसे भविष्यकी ओरसे प्रांखे बन्द करके बराबर बढाते रहना, नि सन्देह, बडी भारी भूल है-प्रात्म-वचना है। इस भूलके वश परिग्रह-पापकी पोट बढते बढते मनुष्यको घोर श्वभ्रसागर अथवा दुखसागरमें ले डूबती है, जहाँसे उद्धार पाना फिर
१ इस विषयमे पुरातन आचार्योक निम्न वाक्य भी ध्यानमे रखने योग्य हैं, जिनसे इस विषयकी कितनी ही पुष्टि होती है -
" के पुनस्ते सर्व दोषानुषङ्गा ? ममेदमिति हि मति मकल्पे स रक्षणादय सजायन्ते । तत्र च हिमाऽवश्य भाविनी,तदर्थमतृत जन्पति, चौर्य चाचरति, मैथुने च कर्मणि प्रयतते । तत्तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकारा । इहाऽपि अनुपरतव्यसनमहार्णवाऽवगाहनम् ।”
-राजवार्तिक-भाष्ये, अकलक "परिग्रहवता सता भयमवश्यमापद्यते, प्रकोप-परिहिसने च परुषाऽनृत-व्याहृती। ममन्वमथ चोरता स्वमनसश्च विभ्रान्तता, कुतो हि कलुषात्मना परमशुक्ल-मध्यानता॥४२॥-पात्रसरिस्तोत्र "बबारम्भ परिग्रहत्व नारकस्यायुष." (तत्त्वार्थसूत्र ६-१५) 'एतदुक्त भवति-परिग्रहप्रणिधानप्रयुक्ता तीव्रतरपरिणामा हिसापरा बहुशो विज्ञप्ताश्चानुमता भाविताश्च तत्कृतकर्मात्मसात्करणात् तप्ताय पिण्डवत् अहितक्रोधाद्या नारकस्यायुष
पासव इति सक्षेप । तद्विस्तरस्तु". ।" (राजवातिक-भाष्य) ''प्रारम्भो जन्तुपातश्च कषायश्च परिग्रहात् । जायन्तेन ततः पात: प्राणिनां श्वभ्रसागरे ।" (मानार्णव)
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परिग्रहका प्रायश्चित
३८३ बहुत ही कठिन, गुरुतर-कष्टसाध्य तथा असख्य वर्षाका कार्य हो जाता है । और इसलिए वे ही मनुष्य विवेकी हैं, वे ही बुद्धिमान हैं और वे ही आत्महितैषी एव धर्मात्मा हैं जो इस भूल तथा प्रात्मवचनाके चक्करमें न पड़कर अनासक्तिके द्वारा परिग्रहका अधिकभार अपने आत्मा पर पडने नहीं देते, और प्रायश्चित्तादिके द्वारा बराबर उसकी काट-छाट करके अपने आत्माको सदैव हलका रखते हैं। ___अब देखना यह है कि परिग्रहका प्रायश्चित्त क्या है ? परिग्रहका समुचित प्रायश्चित्त अनासक्तिके साथ साथ उसका त्याग है, जो ग्रहणकी विपरीत दिशाको लिए हुए होनेसे यथार्थ जान पड़ता है। शीतका प्रतिकार जिस प्रकार उष्णसे और उष्णका प्रतिकार शीतसे होता है, उसी प्रकार ग्रहणरूप परिग्रहका प्रतिकार उसके त्यागसे ही ठीक बनता है । प्रायश्चित्तके दस अथवा नव भेदोमे 'त्याग' नामका भी एक प्रायश्चित्त है, जिसे 'विवेक' भी कहते हैं । त्यागका दूसरा नाम 'दान' है,और इसलिए परिग्रहसे मोह हटाकर अथवा अपनी धन-सम्पत्तिसे ममत्वपरिणामको दूर करके लोक-सेवाके कामोमे उसका वितरण करना-दे डालना, यह परिग्रहका समुचित प्रायश्चित्त है । परन्तु यह दान अथवा त्याग ख्याति-लाभ-पूजादिककी दृष्टिसे न होना चाहिये और न इसमें दूसरो पर अनुग्रह और कृपाकी कोई अहभावना ही रहनी चाहिये । जो दान ख्याति-लाम-पूजादिककी दृष्टिसे दिया जाता है अथवा जिसमें दूसरो पर अनुग्रह और कृपाकी अहभावना रहती है वह प्रायश्चित्तकी कोटिमे नहीं आतावह दूसरे प्रकारका साधारण दान है । प्रायश्चित्तकी दृष्टि तो अपने पापका संशोधन अथवा अपराधका परिमार्जन करके प्रात्मशुद्धि १ आलोचना प्रतिक्रान्तिय त्यागो विसर्जन ।
तप छेदोऽपि मूल च परिहारोऽभिरोचनम् ।। (प्रायश्चित्तसमु०१८५) "आलोचन-प्रतिक्रमण-तदुभय-
विक-व्युत्सर्ग."(तत्त्वार्थसूत्र ६-२०)
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३८४
युगवीर-निबन्धावली करनेकी अोर होती है। और इसलिए उसका करनेवाला दान करके किसी पर कोई अहसान-अनुग्रह नही बतलाता और न उससे अपना कोई लौकिक लाभ ही लेना चाहता है । वह तो समझता है कि-मैंने अपनी जरूरतसे अधिक परिग्रहका सचय करके दूसरोको उसके भोग-उपभोगसे वचित रखनेका अपराध किया है, उसके अर्जन वर्द्धन-रक्षरणादिमें मुझे कितने ही पाप करने पडे हैं, उसका निरर्गल बढते रहना पापका-पात्माके पतनका कारण है।' और इसलिये वह विवेकको अपनाकर तथा ममत्वको घटाकर अपनेको पापभारसे हलका रखनेकी दृष्टिसे उसका लोक-हितार्थ त्याग करता हैदान करता है। दानके इन दोनो प्रकारोमें परस्पर कितना बड़ा अन्तर है, इसे सहृदय पाठक स्वय समझ सकते है।
नि सन्देह, परिग्रहमे पापबुद्धिका होना, उसके प्रायश्चित्तकी बराबर भावना रखना और समय-समयपर उसे करते रहना विवेकका-अनासक्तिका सूचक है और साथ ही आत्माकी जागृतिकाउत्थानका द्योतक है। यदि समाजमे दानके पीछे प्रायश्चित्त-जैसी सद्भावनाएं काम करने लगे तो उसका शीघ्र ही उत्थान हो सकता है और वह ठीक अर्थमे सचमुच ही एक आदर्श धार्मिक-समाज बन सकता है। सद्गृहस्थोकी नित्य-नियमसे की जानेवाली देवपूजादि षट् आवश्यक क्रियायोमे जो दानका विधान (समावेश) किया गया है उसका आशय सभवत यही जान पड़ता है कि नित्यके प्रारम्भपरिग्रह-जनित पापका नित्य ही थोडा-बहुत प्रायश्चित्त होता रहे जिससे पापका बोझा अधिक बढने न पावे और गृहस्थजन निराकुलता-पूर्वक धर्मका साधन कर सकें-उसमे बाधा न आवे ।
हार्दिक भावना है कि देश तथा समाजमें बहुलतासे ऐसे आदर्श त्यागी एव दानी पैदा हो, जो परिग्रहको पाप समझते हुए उसमें मासक्ति न रखते हो और प्रायश्चित्तके रूपमें अपनी धन-सम्पत्तिका सदा लोकसेवाके कार्योंमें समुचित विनियोग करते रहें।
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अनेकान्त-रस-लहरी (१)
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छोरापन और बड़ापन एक दिन अध्यापक वीरभद्रने, अपने विद्यार्थियोको नया पाठ पडानेके लिये बोर्ड पर तीन-इचकी एक लाइन खीचकर विद्यार्थीसे पूछा
बतलामो यह लाइन छोटी है या बडी?' । विद्यार्थीने चटसे उत्तर दिया- 'यह तो छोटी है।'
इसपर अध्यापकने उस लाइनके नीचे एक-इचकी दूसरी लाइन बनाकर फिरसे पूछा
__ 'अब ठीक देखकर बतलाओ कि परकी लाइन न० १ बड़ी है या छोटी ?'
विद्यार्थी देखते ही बोल उठा-'यह तो साफ बडी नज़र माती है।'
अध्यापक-अभी तुमने इसे छोटी बतलाया था १ विद्यार्थी-हाँ, बतलाया था, वह मेरी भूल थी।
इसके बाद अध्यापकने, प्रथम लाइन न. १ के ऊपर पाँच-इचकी लाइन बनाकर और नीचेवाली एक-इची लाइनको मिटाकर फिरसे पूछा__ 'अच्छा, अब बतलायो, नीचेकी लाइन न० १ छोटी है या बड़ी
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युगवीर-निबन्धावली विद्यार्थी कुछ असमजसमे पड़ गया और आखिर तुरत ही कह उठा-'यह तो अब छोटी हो गई है।" ___'छोटी कैसे हो गई ? क्या किसीने इसमेसे कोई टुकडा तोडा है या इसके किसी अशको मिटाया है ?-हमने तो इसे छुआ तक भी नहीं । अथवा तुमने इसे जो पहले 'बडी' कहा था वह कहना भी तुम्हारा गलत था। अध्यापक ने पूछा। _ 'पहले जो मैंने इसे 'बडी' कहा था वह कहना मेरा गलत नहीं था और न उस लाइनमेंसे किसीने कोई टुकड़ा तोडा है या उसके किसी अशको मिटाया है--वह तो ज्योकी त्यो अपने तीन-इचीके रूपमें स्थित है। पहले आपने इसके नोचे एक-इचकी लाइन बनाई थी, इससे यह बड़ी नज़र आती थी और इसीलिये मैंने इसे बडी कहा था, अब आपने उस एक-इचकी लाइनको मिटाकर इसके ऊपर पाँच इचकी लाइन बना दी है, इससे यह तीन-इचकी लाइन छोटी हो पडी- छोटी नज़र आने लगी, और इसीसे मुझे कहना पडा कि 'यह तो अब छोटी हो गई है।' विद्यार्थीने उत्तर दिया। ____ अध्यापक-अच्छा, सबसे पहिले तुमने इस तीन-इची लाइनको जो छोटी कहा था उसका क्या कारण था ?
विद्यार्थी--उस समय मैने यह देखकर कि बोर्ड बहुत बडा है और यह लाइन उसके एक बहुत छोटेसे हिस्सेमे आई है, इसे 'छोटी' कह दिया था।
अध्यापक--फिर इसमे तुम्हारी भूल क्या हुई। यह तो ठीक ही है-यह लाइन बोडसे छोटी है, इतना ही क्यो, यह तो टेबिलसे भी छोटी है, कुर्सीसे भी छोटी है, इस कमरेके किवाडसे भी छोटी है, दीवारसे भी छोटी है, और तुम्हारी-मेरो लम्बाईसे भी छोटी है।
विद्यार्थी-इस तरह तो मेरे कहनेमे भूल नही थी-भूल मान लेना ही भूल थी।
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छोटापन और बडापन
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अब अध्यापकने उस मिटाई हुई एक-इची लाइनको फिरसे नोचे बना दिया और सवाल किया कि __ 'तीनो लाइनोकी इस स्थितिमे तुम बीचकी उसी नम्बर १ वाली लाइनको छोटी कहोगे या बडी"
विद्यार्थी-मैं तो अब यूं कहूंगा कि यह ऊपरवाली लाइन न०३ से छोटी अोर नीचेवाली लाइन न० २ से बडी है।
अध्यापक -अर्थात् इसमे छोटापन और बडापन दोनो हैं और दोनो गुण एक साथ है ?
विद्यार्थी-हाँ, इसमे दोनो गुण एक साथ हैं।
अध्यापक-एक ही चीजको छोटी और बडी कहनेमे क्या तुम्हें कुछ विरोध मालूम नहीं होता ? जो वस्तु छोटी है वह बडी नही कहलाती और जो बडी है वह छोटी नही कही जाती। एक ही वस्तुको 'छोटी' कहकर फिर यह कहना कि 'छोटी नही, बडी है' यह कथन तो लोक-व्यवहारमे विरुद्ध जान पडेगा। लोकव्यवहारमे जिस प्रकार 'हाँ' कहकर 'ना' कहना अथवा विधान करके निषेध करना परस्पर विरुद्ध,असगत और अप्रामाणिक समझा जाता है उसी प्रकार तुम्हारा यह एक चीज को छोटी कहकर बडी कहना अथवा एक ही वस्तुमे छोटेपनका विधान करके फिर उसका निषेध कर डालना-उसे बड़ी बतलाने लगना--क्या परस्पर विरुद्ध, असगत और अप्रामाणिक नही समझा जायगा? और जिस प्रकार अन्धकार तथा प्रकाश दोनो एक साथ नही रहते उसी प्रकार छोटापन और बडापन दोनो गुरणो (धर्मों) के एक साथ रहनेमे क्या विरोध नही आएगा?
यह सब सुनकर विद्यार्थी कुछ सोच-सीमे पड़ गया और मनही-मन उत्तरकी खोज करने लगा, इतनेमे अध्यापकजी उसकी
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युगवीर-निबन्धावली विचार-समाधिको भग करते हुए बोल उठे____ इसमें अधिक सोचने-विचारनेकी बात क्या है ? एक ही चीजको छोटी-बडी दोनो कहनेमे विरोध तो तब पाता है जब जिस दृष्टि अथवा अपेक्षासे किसी चीज़ को छोटा कहा जाय उसी दृष्टि अथवा अपेक्षासे उसे बडा बतलाया जाय । तुमने मध्यकी तीन-इची लाइनको ऊपरको पाँच-इची लाइनसे छोटी बतलाया है, यदि पाँचइंचवाली लाइनकी अपेक्षा ही उसे बडी बतला देते तो विरोघ पा जाता, परन्तु तुमने ऐसा न करके उसे नीचेकी एक इच-वाली लाइनसे ही बडा बतलाया है, फिर विरोधका क्या काम ? विरोध वही आता है जहाँ एक ही दृष्टि (अपेक्षा) को लेकर विभिन्न प्रकारके कथन किए जायँ, जहाँ विभिन्न प्रकारके कथनोके लिये विभिन्न दृष्टियो-अपेक्षायोका आश्रय लिया जाय वहाँ विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं रहता। एक ही मनुप्य अपने पिताकी दृप्टिसे पुत्र है और अपने पुत्रकी दृष्टिसे पिता है--उसमे पुत्रपन और पितापनके दोनो धर्म एक साथ रहते हुए भी जिस प्रकार दृप्टिभेद होनेसे विरोधको प्राप्त नही होते उसी प्रकार एक दृष्टिसे विसी वस्तका विधान करने और दूसरी दृष्टिसे निषेध करने अथवा एक अपेक्षासे 'हाँ' और दूसरी अपेक्षासे 'ना' करनेमे भी विरोधकी कोई बात नही है । ऐसे ऊपरी अथवा शब्दोमे ही दिखाई पडनेवाले विरोधको 'विरोधाभास' कहते है-वह वास्तविक अथवा अर्थकी दृष्टिसे विरोध नहीं होता, और इसलिये पूर्वापरविरोध तथा प्रकाशअन्धकार-जैसे विरोधके साथ उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती । और इसीलिये तुमने जो बात कही वह ठीक है । तुम्हारे कथनमे दृढता लानेके लिए ही मुझे यह सब स्पष्टीकरण करना पड़ा है। आशा है अब तुम छोटे-बडेके तत्त्वको खूब समझ गये होगे।
बिद्यार्थी-हां, खूब समझ गया, अब नही भूलूगा। अध्यापक - अच्छा, तो इतना और बतलाओ-'इन ऊपर
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छोटापन और बडापन
३८६ नीचेकी दोनो बडी-छोटी लाइनोंको यदि मिटा दिया जाय और मध्यकी उस न० १ वाली लाइनको ही स्वतन्त्र रूपमें स्थिर रक्खा जाय- दूसरी किसी भी बडी-छोटी चीज़ के साथ उसकी तुलना या अपेक्षा न की जाय, तो ऐसी हालतमे तुम इस लाइन नं० १ को स्वतन्त्रभावसे-कोई भी अपेक्षा अथवा दृष्टि साथमें न लगाते हुए-छोटी कहोगे या बड़ी"
विद्यार्थी-ऐसी हालतमे तो मैं इसे न छोटी कह सकता हूँ और न बडी।
अध्यापक-अभी तुमने कहा था 'इसमें दोनो ( छोटापन और बडापन) गुरण एक साथ हैं' फिर तुम इसे छोटी या बड़ी क्यो नही कह सकते ? दोनो गुरगोको एक साथ कहनेकी वचनमे शक्ति ने होनेसे यदि युगपत् नही कह मकते तो क्रमसे तो कह सकते हो ? वे दोनो गुण कही चले तो नहीं गये १ गुणोका तो प्रभाव नहीं हुआ करता--भले ही तिरोभाव (आच्छादन) हो जाय, कुछ समयके लिये उनपर पर्दा पड जाय और वे स्पष्ट दिखलाई न पडे ।
विद्यार्थी फिर कुछ रुका और सोचने लगा । अन्तको उसे यही कहते हए बन पडा-'बिना अपेक्षाके किसीको छोटा या बड़ा कैसे कहा जासकता है ? पहले जो मैंने इस लाइनको 'छोटी' तथा 'बडी' कहा था वह अपेक्षासे ही कहा था, अब आप अपेक्षाको बिल्कुल ही अलग करके पूछ रहे हैं तब मैं इसे छोटी या बड़ी कैसे कह सकता हूँ, यह मेरी कुछ भी समझमे नहीं आता। आप ही समझाकर बतलाइये।' ____ अध्यापक-तुम्हारा यह कहना बिल्कुल ठीक है कि 'बिना अपेक्षाके किसीको छोटा या बडा कैसे कहा जा सकता है ? अर्थात नहीं कहा जासकता । अपेक्षा ही छोटेपन या बड़ेपनका मापदण्ड है-मापनेका गज है ? जिस अपेक्षा-गज़से किसी वस्तुविशेषको मापा जाता है वह गज़ यदि उस वस्तुके एक अंशमे आजाता है-उसमें
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३६०
युगवीर-निबन्धावली समा जाता है तो वह वस्तु 'बडी' कहलाती है । और यदि उस वस्तुसे बढा रहता-बाहरको निकला रहता-है तो वह 'छोटी' कही जाती है । वास्तवमै काई भी वस्तु स्वतन्त्ररूपसे अथवा स्वभावसे छोटी या बडी नहीं है-स्वतन्त्ररूपसे अथवा स्वभावसे छोटी या बड़ी होने पर वह सदा छोटी या बडी रहेगी, क्योकि स्वभावका कभी प्रभाव नहीं होता। और इसलिये किसी भी वस्तुमें छोटापन और बडापन ये दोनो गुण परतन्त्र, पराश्रित, परिकल्पित, पारोपित, सापेक्ष अथवा परापेक्षिक ही होते हैं, स्वाभाविक नहीं। छोटेके अस्तित्त्व-बिना बडापन और बडेके अस्तित्व-बिना छोटापन कही होता ही नही । एक अपेक्षासे जो वस्तु छोटी है वहीं दूसरी अपेक्षासे बडी है और जो एक अपेक्षासे बड़ी है वही दूसरी अपेक्षासे छोटी है। इसीलिये कोई भी वस्तु सर्वथा (बिना अपेक्षाके) छोटी या बडी न तो होती है और न कही जा सकती है। किसीको सर्वथा छोटा या बड़ा कहना 'एकान्त है। जो मनुष्य किसीको सर्वथा छोटा या बडा कहता है वह उसको सब पोरसे अवलोकन नही करता- उसके सब पहलुप्रो अथवा अगोपर दृष्टि नहीं डालता- न सब प्रोरसे उसकी तुलना ही करता है, सिक्केकी एक साइड ( side ) को देखनेकी तरह वह उसे एक ही प्रोरसे देखता है और इसलिये पूरा देख नहीं पाता। इसीसे उसकी दृष्टिको 'सम्यक्दृष्टि' नहीं कह सकते और न उसके कथनको 'सञ्चा कथन' ही कहा जा सकता है । जो मनुष्य वस्तुको सब ओरसे देखता है, उसके सब पहलुप्रो अथवा अगो पर दृष्टि डालता है
और सब ओरसे उसकी तुलना करता है वह 'अनेकान्तदृष्टि' है'सम्यकदृष्टि है। ऐसा मनुष्य यदि किसी वस्तुको छोटी कहना चाहता है तो कहता है-'एक प्रकारसे छोटी है.' 'अमुककी अपेक्षा छोटी है', 'कचित् छोटी है' अथवा 'स्यात् छोटी' है । और यदि छोटी-बडी दोनो कहना चाहता है तो कहता है- 'छोटी भी है
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घोटापन पौर बडापन
३६१ पौर बड़ी भी, एक प्रकारसे छोटी है-दूसरे प्रकारसे बडी है, अमुककी अपेक्षा छोटी पौर अमुककी अपेक्षा बड़ी हे प्रथवा कथचित् छोटी और बड़ी दोनो है।' मौर उसका यह वचन-व्यवहार एकान्तकदाग्रहकी ओर न जाकर वस्तुका ठीक प्रतिपादन करनेके कारण 'सच्चा' कहा जाता है । मैं समझता हूँ कि अब तुम इस विषयको मोर अच्छी तरहसे समझ गये होगे।
विद्यार्थी-(पूर्ण सन्तोष व्यक्त करते हुए) हां, बहुत अच्छी तरहसे समझ गया है। पहले समझनेमें जो कचाई रह गई थी वह भी अब आपकी इस व्याख्यासे दूर हो गई है । आपने मेरा बहुत कुछ अज्ञान दूर किया है, और इसलिये मैं आपके आगे नतमस्तक हूँ।
अध्यापक वीरभद्रजी अभी इस विषय पर और भी कुछ प्रकाश मलना चाहते थे कि इतनेमें घटा बज गया और उन्हें दूसरी कक्षानाना पड़ा।
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अनेकान्त-रस-लहरी (२)
बड़ेसे छोटा और छोटेसे बड़ा अध्यापक वीरभद्रने दूसरी कक्षामें पहुंच कर उस कक्षाके विद्याथियोको भी वही नया पाठ पढ़ाना चाहा जिसे वे अभी अभी इससे पूर्वकी एक कक्षामें पढ़ाकर आये थे, परन्तु यहाँ उन्होने पढ़ानेका कुछ दूसरा ही डग अख्तियार किया। वे बोर्ड पर तीन-इचकी लाइन खीचकर एक विद्यार्थीसे बोले-'क्या तुम इस लाइनको छोटी कर सकते हो?
विद्यार्थीने उत्तर दिया-'हाँ, कर सकता हूँ' और वह उस लाइनको इधर-उधरसे कुछ मिटानेकी चेष्टा करने लगा। ___ यह देख कर अध्यापकमहोदयने कहा- 'हमारा यह मतलब नहीं है कि तुम इस लाइनके सिरोंको इधर-उधरसे मिटाकर अथवा इसमें से कोई टुकडा तोडकर इसे छोटी करो । हमारा आशय यह है कि यह लाइन अपने स्वरूपमे ज्योकी त्यो स्थिर रहे, इसे तुम छूमो भी नही और छोटी कर दो। ____ यह सुन कर विद्यार्थी कुछ भौचक-सा रह गया । तब अध्यापकने कहा-'अच्छा, तुम इसे छोटी नहीं कर सकते तो क्या बिना छुए बड़ी कर सकते हो ?'
विद्यार्थीने कहा-'हाँ, कर सकता है, और यह कहकर उसने दो इंचकी एक लाइन उस लाइनके बिल्कुल सीधमे उसके एक
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बड़ेसे छोटा और छोटेसे बहा ३६३ सिरेसे सटाकर बनादी और इस तरह उसे पॉच इचकी लाइन कर दिया।
इस पर अध्यापकमहोदय बोल उठे
'यह क्या किया? हमारा अभिप्राय यह नही था कि तुम इसमें कुछ टुकड़ा जोडकर इसे बडी बनायो, हमारी मन्शा यह है कि इसमे कुछ भी जोड़ा न जाय, लाइन अपने तीन इचके स्वरूपमें ही स्थिर रहे-पाँच-इची जैसी न होने पावे-और बिना छुए ही बड़ी कर दी जाय।'
विद्यार्थी--यह कैसे हो सकता है ? ऐसा तो कोई जादूगर ही कर सकता है।
अध्यापक-( दूसरे विद्यार्थियोसे ) अच्छा, तुम्हारेमेसे कोई विद्यार्थी इस लाइनको हमारे अभिप्रायानुसार छोटो या बडी कर सकता है ?
सब विद्यार्थी हमसे यह नही हो सकता। इसे तो कोई जादूगर या मत्रवादी ही कर सकता है।
अध्यापक-जब जादूगर या मत्रवादी इसे बडी-छोटी कर सकता है और यह बड़ी-छोटी हो सकती है तब तुम क्यो नहीं कर सकते ?
विद्यार्थी-हमें बडेसे छोटा और छोटेमे बडा करनेका वह जादू या मत्र आता नहीं।
'अच्छा, हमे तो वह जादू करना आता है । बतलायो इस लाइनको पहले छोटी करे या बड़ी ?' अध्यापकने पूछा। ___ 'जैसी आपकी इच्छा, परन्तु आप भी इसे छूएँ नही और इसे अपने स्वरूपमे स्थिर रखते हुए छोटी या बडी करके बत्तलाएं,' विद्यार्थियोने उत्तरमें कहा। ___ऐसा ही होगा' कहकर, अध्यापकजीने विद्यार्थियोंसे कहा'तुम इसके दोनो ओर मार्क कर दो-पहचानका कोई चिन्ह बना
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३६४
युगवीर- निबन्धावलो
दो, जिससे इसमे कोई तोड-जोड या बदल-सदल न हो सके और यदि हो तो उसका शीघ्र पता चलजाय ।' विद्यार्थीने दोनो श्रोर दो फूलकेसे चिन्ह बना दिये । फिर प्रध्यापकजीने कहा 'फुटा रखकर इसकी पैमाइश भी करलो और वह इसके ऊपर लिखदो ।' विद्यार्थीने फुटा रखकर पैमाइश की तो लाइन ठीक तीन इचकी निकली और वही लाइनके ऊपर लिख दिया गया ।
.
इसके बाद प्रध्यापकजीने बोर्ड -
३ इच
पर एक ओर कपडा डालकर कहा
'अब हम पहले इस लाइनको छोटी बनाते है और छोटी होनेका मत्र बोलते है ।' साथ ही, कपडेको एक ओर से उठा कर 'होजा छोटी, होजा छोटी ।" का मंत्र बोलते हुए वे बोर्ड पर कुछ बनाने - को ही थे कि इतने विद्यार्थी बोल उठे-
'आप तो पर्देकी प्रोटमे लाइनको छूते हैं। पर्देको हटाकर सबके सामने इसे छोटा कीजिये ।'
श्रध्यापकजीने बोर्ड पर डाला हुआ कपड़ा हटाकर कहा'अच्छा, अब हम इसे खुले ग्राम छोटा किये देते हैं और किसी मत्रका भी कोई सहारा नही लेते । यह कह कर उन्होने उस तीनइची लाइनके ऊपर पाँच - इचकी लाइन बनादी और विद्यार्थियो पूछा
५ इच
३ इच
-
'कहो, तुम्हारी मार्क की हुई नीचेकी लाइन ऊपरकी लाइन से छोटी है या कि नही ? श्रौर बिना किसी प्रशके मिटाए या तोडे अपने तीन इचके स्वरूपमे स्थिर रहते हुए भी छोटी हो गई है या कि नही ?"
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बड़ेसे छोटा मोर छोटेसे बडा
३६५
सब विद्यार्थी - हीं हो गई है। यह रहस्यकी बात पहले हमारे ध्यानमे ही नही प्राई थी कि, इस तरह भी बडीसे छोटी और छोटीसे बडी चीज़ हुआ करती है। अब तो प्राप नीचे छोटी लाइन बना कर इसे बडी भी कर देगे ।
श्रध्यापक जीने तुरत ही नीचे एक इचकी लाईन बना कर उसे साक्षात् बडा करके बतला दिया ।
५ इंच
३ इच
१ इच
अब अध्यापक वीरभद्रने फिर उसी विद्यार्थीसे पूछा'तीनो लाइनोकी इस स्थितिमे तुम अपनी मार्क की हुई उस बीची लाइनको, जो बडीसे छोटी और छोटीसे बडी हुई है, क्या कहोगे - छोटी या बडी ?"
*
विद्यार्थी - यह छोटी भी है श्रौर बडी भी । अध्यापक -- दोनो एक साथ कैसे ?
विद्यार्थी -- ऊपरकी लाइनसे छोटी और नीचेकी लाइन से बडी हे अर्थात् स्वय तीन-इची होनेसे पाच इची लाइनकी अपेक्षा छोटी श्रौर एक-इची लाइनकी अपेक्षा बडी है । और यह छोटापन तथा बडापन दोनो गुरण इसमे एक साथ प्रत्यक्ष होनेसे इनमें परस्पर विरोध तथा असर्गात जैसी भी कोई बात नही है ।
अध्यापक -- प्रगर कोई विद्यार्थी इस बीचकी लाइनको एक वार ऊपरकी लाइनसे छोटी और दूसरी वार ऊपरकी लाइनसे ही बडी बतलावे और इस तरह इसमें छोटापन तथा बडापन दोनोका विधान करे तब भी विरोधकी क्या कोई बात नही है १
विद्यार्थी -- इसमें जरूर विरोध आएगा । एक तो उसके कथनमे
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युगवीर- निबन्धावली
पूर्वापर-विरोध श्राएगा, क्योकि पहले उसने जिसको जिससे छोटी कहा था उसीको फिर उससे बडी बतलाने लगा । दूसरे उसका कवन प्रत्यक्ष भी विरुद्ध ठहरेगा, क्योकि ऊपरकी लाइन नीचेकी लाइनसे साक्षात् बडी नज़र श्राती है, उसे छोटी बतलाना दृष्ट-विरुद्ध है ।
अध्यापक - यह क्या बात है कि तुम्हारे बडी - छोटी बतलानेमें तो विरोध नही और दूसरेके बडी-छोटी बतलानेमे विरोध प्राता है ?
विद्यार्थी - मैने एक अपेक्षासे छोटी और दूसरी अपेक्षासे बड़ी बतलाया है। इस तरह अपेक्षाभेदको लेकर भिन्न कथन करनेमें विरोधके लिए कोई गु जाइश नही रहती । दूसरा जिसे एक अपेक्षासे छोटी बतलाता है, उसीकी अपेक्षासे उसे बडी बतलाता है, इसलिये अपेक्षाभेद न होनेके कारण उसका भिन्न कथन विरोधसे रहित नही हो सकता -- वह स्पष्टतया विरोध-दोपसे दूषित है ।
अध्यापक- तुम ठीक समझ गये । अच्छा अब इतना और बतलाओ कि तुम्हारी इस मार्क की हुई बीचकी लाइनको एक विद्यार्थी 'छोटी ही है' ऐसा बतलाता है और दूसरा विद्यार्थी कहता है कि 'बडी ही है, तुम इन दोनो कथनोको क्या कहोगे ? तुम्हारे विचारसे इनमे से कौनसा कथन ठीक है और क्योकर १
विद्यार्थी -- दोनो ही ठीक नही हैं। मेरे विचार से जो 'छोटी ही ' ( सर्वथा छोटी) बतलाता है उसने नीचेकी एक- इची लाइनको देखा नही, और जो 'बडी ही' ( सवथा बडी ) बतलाता है उसने ऊपरकी पाच-इची लाइन पर दृष्टि नहीं डाली । दोनोकी दृष्टि एक तरफा होनेसे एकाङ्गी है, एकान्त है, सिक्के अथवा ढालकी एक ही साइड ( side) को देखकर उसके स्वरूपका निर्णय करलेने जैसी है, और इसलिये सम्यग्दृष्टि न होकर मिध्यादृष्टि है। जो अनेकान्तदृष्टि होती है वह वस्तुको सब प्रोरसे देखती है-उसके सब पहलुओ पर नज़र डालती है - इसीलिये उसका निर्णय ठीक होता है और वह 'सम्यग्दृष्टि' कहलाती है । यदि उन्होंने ऊपर-नीचे दृष्टि डालकर
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बड़ेसे छोटा और छोटेसे बड़ा भी बैसा कहा है तो कहना चाहिये कि वह उनका कदाग्रह है-हठधर्मी है क्योकि ऊपर-नीचे देखते हुए मध्यकी लाइन सर्वथा छोटी या सर्वथा बडी प्रतीत नही होती और न स्वरूपसे कोई वस्तु मर्वथा छोटी या सर्वथा बड़ी हुआ करती है।
अध्यापक-मानलो, तुम्हारे इस दोष देनेसे बचनेके लिये एक तीसरा विद्यार्थी दोनो एकान्तोको अपनाता है-~-'छोटी ही है और बडी भी है' ऐसा स्वीकार करता है, परन्तु तुम्हारी तरह अपेक्षावादको नही मानता । उसे तुम क्या कहोगे ?
विद्यार्थी थोडा सोचने लगा,इतनेमे अध्यापकजी विषयको स्पष्ट करते हुए बोल उठे--
'इसमे सोचनेकी क्या बात है ? उसका क्थन भी विरोध-दोषसे दूषित है; क्योकि जो अपेक्षावाद अथवा स्याद्वाद-न्यायको नहीं मानता उसका उभय-एकान्तको लिए हुए कथन विरोध-दोषमे रहित हो ही नहीं सक्ता--अपेक्षावाद अथवा 'स्यात्' शब्द या स्यात् शब्दके माशयको लिये हुए क्थचित्' (एक प्रकारसे) जैसे शब्दोका साथमे प्रयोग ही कथनके विरोध-दोषको मिटानेवाला है। कोई भी वस्तु सर्वथा छोटी या बडी नही हुआ करती यह बात तुम अभी स्वय स्वीकार कर चुके हो और वह ठीक है, क्योकि कोई भी वस्तु स्वतत्ररूपसे अथवा स्वभावसे सर्वथा छोटी या बड़ी नही है--किसा भी वस्तुमे छोटेपन या बडेपनवा व्यवहार दूसरेके आश्रय अथवा पर-निमित्त से ही होता है और इसलिये उस आश्रय अथवा निमित्तकी अपेक्षाके बिना वह नहीं बन सकता । अत अपेक्षासे उपेक्षा धारण करनेवालोके ऐसे कथनमे सदा ही विरोध बना रहता है। दे 'ही' की जगह 'भी' का भी प्रयोग करदे तो कोई अन्तर नही पड़ता । प्रत्युत उसके जो स्याद्वादन्यायके अनुयायी हैं-एक अपेक्षासे बोटा और दूसरी अपेक्षासे बड़ा मानते हैं-वे साथमे यदि 'ही' शब्दका भी प्रयोग करते हैं तो उससे कोई बाधा नही आती
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युगवीर - निबन्धावली
विरोधको जरा भी अवकाश नही मिलता, जैसे 'तीन-इची लाइन पाँच - इची लाइनकी अपेक्षा छोटी ही है और एक-इची लाइनकी अपेक्षा बडी ही है' इस कहने मे विरोधकी कोई बात नही है । विरोध ता है जहाँ छोटापन और बडापन जैसे सापेक्ष धर्मों अथवा गुणोको निरपेक्षरूपसे कथन किया जाता है । मैं समझता हूँ अब तुम इस विरोध- अविरोधके तत्त्वको भी अच्छी तरह से समझ गये
होगे ?'
विद्यार्थी - हाँ, श्रापने खूब समझा दिया है और मै अच्छी तरह समझ गया हूँ ।
अध्यापक --- अच्छा, अब मै एक बात और पूछता हूँ-कल तुम्हारी कक्षामे जिनदास नामके एक स्याद्वादी - स्याद्वादन्याय के अनुयायी - आए थे और उन्होने मोहन लडके को देखकर तथा उसके विषय मे कुछ पूछ-ताछ करके कहा था 'यह तो छोटा है' । उन्होंने यह नही कहा कि 'यह छोटा ही है' यह भी नही कहा कि 'वह सर्वथा छोटा है और न यही कहा कि वह 'अमुककी अपेक्षा अथवा अमुक विषयमे छोटा है', तो बतलाम्रो उनके इस कथन में "क्या कोई दोष आता है ? और यदि नही आता तो क्यो नही ?
इस प्रश्नको सुनकर विद्यार्थी कुछ चक्करसेमे पड गया और मन-ही-मन उत्तरको खोज करने लगा। जब उसे कई मिनट हो गये तो अध्यापकजी बोल उठे
'तुम ता बडा साचमे पड गये । इस प्रश्नपर इतने सोच-विचारका क्या काम । यह तो स्पष्ट ही है कि जिनदास स्याद्वादी है, उन्होने स्वतत्ररूपसे ही' तथा 'सर्वथा' शब्दोंका साथमे प्रयोग भी नही किया है, और इसलिये उनका कथन प्रकट रूपमे 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका साथमे न लेते हुए भी 'स्यात्' शब्दसे अनुशासित है-किसी अपेक्षा- विशेषका लिये हुए है । किसीसे किसी प्रकारका छोटापन उन्हे विर्वाक्षत था, इससे यह जानते हुए भी कि मोहन अनकोसे
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बड़ेसे छोटा और छोटेसे बड़ा ३६६ अनेक विषयोमे 'बडा' है, उन्होने अपने विवक्षित अर्थके अनुसार उसे उस समय 'छोटा' कहा है । इस कथनमे दोषकी कोई बात नही है। तुम्हारे हृदयमे शायद यह प्रश्न उठ रहा है कि जब मोहनमें छोटापन और बडापन दोनो थे तब जिनदासजीने उसे छोटा क्यो कहा, बड़ा क्यो नही कह दिया ? इसका उत्तर इतना ही है किमोहन उम्रमे, कदमे, रूपमें, बलमें, विद्यामे, चतुराईमे और प्राचारविचारमे बहुतोसे छोटा है और बहुतोसे बड़ा है । जिनदासजी को जिसके साथ जिस विषय अथवा जिन विषयोमे उसकी तुलना करनी थी उस तुलनामे वह छोटा पाया गया, और इसलिये उन्हे उस समय उसको छोटा कहना ही विवक्षित था, वही उन्होने उसके विषयमे कहा । जो जिस समय विवक्षित होता है वह 'मुख्य' कहलाता है और जो विवक्षित नहीं होता वह 'गौरण' कहा जाता है। मुख्य-गौरकी इस व्यवस्थासे ही वचन-व्यवहारकी ठीक व्यवस्था बनती है। अत जिनदासजीके उक्त कथनमे दोषापत्तिके लिये कोई स्थान नहीं है। अनेकान्तके प्रतिपादक स्याद्वादियोका 'स्यात्' पदका प्राश्रय तो उनके कथनमे अतिप्रसग जैसा गडबड-घुटाला भी नही होने देता । बहुतसे छोटेपनो और बहुतसे बडेपनोमे जो जिस समय कहनेवालेको विवक्षित होता है उसीका ग्रहण किया जाता है-शेषका उक्त पदके आश्रयसे परिवर्जन (गौरगीकरण) हो जाता है । ... ___अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या अभी चल ही रही थी कि इतने मे घटा बज गया और वे दूसरी कक्षामे जानेके लिये उठने लगे। यह देखकर कक्षाके सब विद्यार्थी एकदम खडे हो गये और अध्यापकजीको अभिवादन करके कहने लगे-'अाज तो आपने तत्त्वज्ञानकी बडी बड़ी गभीर तथा सूक्ष्म बातोको ऐसी सरलता और सुगमरीतिसे बातकी बातमे समझा दिया है कि हम उन्हे जीवनभर भी नहीं भूल सकते । इस उपकारके लिये हम आपके प्राजन्म ऋणी रहेगे।
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अनेकान्त-रस-लहरी (३)
बड़ा दानी कौन ?
एक दिन अध्यापक वीरभद्रने कक्षामे पहुंचकर विद्यार्थियोसे पूछा--'बडे-छोटेका जो तत्त्व तुम्हे कई दिनसे समझाया जा रहा है उसे तुम खूब अच्छी तरह समझ गये हो या कि नहीं ?' विद्याथियोने कहा-'हाँ,हम खूब अच्छी तरह समझ गये हैं।' ____ 'अच्छा, यदि खूब अच्छी तरह समझ गये हो तो आज मेरे कुछ प्रश्नोका उत्तर दो, और उत्तर देनेमे जो विद्यार्थी सबसे अधिक चतुर हो वह मेरे सामने आ जाय, शेष विद्यार्थी उत्तर देनेमे उसकी मदद कर सकते हैं और चाहे तो पुस्तक खोलकर उसकी भी मदद ले सकते हैं', अध्यापक महोदयने कहा।
इस पर मोहन नामका एक विद्यार्थी, जो कक्षामे सबसे अधिक होशियार था सामने आगया और तब अध्यापकजीने उससे पूछा
'बतलायो, बडा दानी कौन है ?' विद्यार्थी-जो लाखो रुपयोका दान करे वह बड़ा दानी है।
अध्यापक-तुम्हारे इस उत्तरसे तीन बाते फलित होती हैंएक तो यह कि दो चार हजार रुपयेका या लाख रुपयेसे कमका दान करनेवाला बड़ा दानी नही, दूसरी यह कि लाखोकी रकमका दान करनेवालोमे जो समान रकमके दानी हैं वे परस्परमें समान हैंउनमें कोई बडा-छोटा नही, और तीसरी बात यह कि रुपयोंका
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बडा दानी कौन ?
४०१ दान करनेवाला ही बडा दानी है, दूसरी किसी चीज का दान करनेवाला बडा दानी नहीं।
विद्यार्थी-मेरा यह मतलब नही नि दूसरी किसी चीज़ का दान करनेवाला बडा दानी नी, यदि उस दूसरी चीजकी-जायदाद मकान वगरहकी-मालियत उतने रुपयो जितनी है तो उसका दान करनेवाला भी उसी कोटिदा बडा दानी है।
अध्यापक-जिस चीजका मूल्य रुपयोमे न ऑफा जा सके उसके विषयमे तुम क्या कहोगे ?
विद्यार्थी-ऐनी कौन चीज है, जिसका मूल्य रुपयोमे न ऑका जा सके ? __ अध्यापक-नि म्वाथ प्रेम, मेवा और अभयदानादि, अथवा क्रोधादि कषायोका त्याग और दयाभाव बहुतमी ऐमी चीज है जिनका मूत्य रुपयांम नहीं प्रांवा जा सकता । उदाहरणके लिये एक मनुष्य नदीमे इव रटा है वह दरखकर तट पर खडा हुआ एक नौजवान, जिमका पहलेसे उम डूबनेवाल के साथ कोई सम्बन्ध तथा परिचय नहीं है, उसके दुग्नसे व्याकुल हो उटता है, दयाका स्रोत उसक हृदयम फूट पडता है, मानवीय कतव्य उसे पा धर दबाता है और वह अपने प्राणोकी कोई पर्वाह न करता हुआ-जान जोखोमे डालकर भी-एक्दम चढी हुई नदीमे कूद पडता है और • उस डूबनेवाले मनुष्यका उद्धार करके उसे तट पर ले आता है। उसके इस दयाभाव-परिणत प्रात्मत्याग और उसकी इस सेवाका कोई मूल्य नही और यह अमूल्यता उस समय और भी बढ़ जाती है जब यह मालूम होता है कि वह उद्धार पाया हुया मनुष्य एक राजाका इकलौता पुत्र है और उद्धार करनेवाले साधारण गरीब आदमीने बदलेमे कृतज्ञता-रूपसे पेश किये गये भारी पुरस्कारको भी लेनेमे अपनी असमर्थता व्यक्त की है। ऐसा दयादानी आत्मत्यागी मनुष्य लाखो रुपयोका दान करनेवाले दानियोसे कम बडा
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युगवीर-निबन्धावली नही है, वह उससे भी बड़ा है जो पुरस्कारमे प्राधे राज्यकी घोषणाको पाकर अपनी जान पर खेला हो और ऐसे ही किसी ड्रबते हए राजकुमारका उद्धार करनेमे समर्थ होकर जिसने आधा राज्य प्राप्त किया हो। इसी तरह सैनिको द्वारा जब लूट-खसोटके साथ कत्लेआम हो रहा हो तब एक राजाकी अभयघोषणाका उस समय रुपयोमे कोई मूल्य नही ऑका जा सकता-वह लाखो-करोडो और अर्कोखों रुपयोके दानसे भी अधिक होती है, और इसलिये एक भी रुपया दान न करके ऐमी अभय-घोषणा-द्वारा सर्वत्र अमन और शान्ति स्थापित करनेवालेको छोटा दानी नही कह सकते । ऐसी ही स्थिति नि स्वार्थ-भावसे देश तथा समाज सेवाके कार्योंमे दिन-रात रत रहनेवाले और उसीमे अपना सर्वस्व होम देनेवाले छोटी पूजीके व्यक्तियोकी है । उन्हे भी छोटा दानी नहीं कहा जा सकता ।
अभी अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या चल रही थी और वे यह स्पष्ट करके बतला देना चाहते थे कि 'क्रोधादि कषायोके सम्यक् त्यागी एक पेसेका भी दान न करते हुए कितने अधिक बडे दानी होते है कि इतनेमे उन्हे विद्यार्थीके चेहरे पर यह दीख पडा कि 'उसे बड़े दानीकी अपनी सदोष परिभाषा पर और अपने इस कथन पर कि उसने बडे-छोटेके तत्त्वको खूब अच्छी तरहसे समझ • लिया है कुछ सकोच तथा खेद होरहा है, और इसलिये उन्होने
अपनी व्याख्याका रुख बदलते हुए कहा--- ___'अच्छा, अभी इस गभीर और जटिल विषयको हम यही रहने देते हैं-फिर किसी अवकाशके समय इसकी स्वतन्त्र-रूपसे व्याख्या करेंगे और इस समय तुम्हारी समान-मालियतके दान-द्रव्यकी बातको ही लेते हैं । एक दानी सेनाके लिये दो लाख रुपयेका मास दान करता है, दूसरा आक्रमणके लिये उद्यत सेनाके वास्ते दो लाख रुपयेके नये हथियार दान करता है, तीसरा अपने ही आक्रमणमें घायल हुए सैनिकोकी महमपट्टीके लिये दो लाख रुपयेकी दवा-दारू
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बडा दानी कौन?
४०३ का सामान दान करता है और चौथा बगालके अकालपीड़ितो एव अन्नाभावके कारण भूखसे तडप-तडपकर मरनेवाले निरपराध प्रारिणयोको प्राणरक्षाके लिये दो लाख रुपयेका अन्नदान करता है। बतलायो इन चारोमे बडा दानी कौन है? अथवा सबके दान-द्रव्यकी मालियत दो लाख रुपये समान होनेसे सब बराबरके दानी हैं-उनमे कोई विशेष नही, बडे-छोटेका कोई भेद नही है ?'
यह सुनकर विद्यार्थी कुछ भौचकसा रह गया और उसे शीघ्र ही यह समझ नहीं पड़ा कि क्या उत्तर दूं, और इसलिये वह उत्तरकी खोजमे मन-ही-मन कुछ सोचने लगा--दूसरे विद्यार्थी भी सहसा उसकी कोई मदद न कर सके--कि इतनेमे अध्यापकजी बोल उठे_ 'तुम तो बडी सोचमे पड गये हो । क्या तुम्हे दानका स्वरूप
और जिन कारणोसे दानमे विशेषता आती है-अधिकाधिक फलकी निष्पत्ति होती है-उनका स्मरण नहीं है ? और क्या तुम नही जानते कि जिस दानका फल बडा होता है वह दान बडा है और जो बड़े दानका दाता है वह बड़ा दानी है ? तुमने तत्त्वाथसूत्रके सातवें अध्याय और उसकी टीकामे पढा है --स्व-परके अनुग्रह-उपकारके लिये जो अपनी धनादिक किसी वस्तुका त्याग किया जाता है उसे 'दान' कहते है और दानमे विधि, द्रव्य, दाता और पात्रके विशेषसे विशेषता आती है-दानके तरीके, दानमे दी जानेवाली वस्तु, दाताके परिणाम और पानेवालेमे गुण-सयोगके भेदसे दानके फलमे कमी-वेशी होती है', तब इस तात्विक दृष्टिको लेकर तुम क्यो नही बतलाते कि इन चारोमे दान-द्रव्यकी समानता होते हुए भी कौन बड़ा है ?
अध्यापकजीके इन प्रेरणात्मक शब्दोको सुनकर विद्यार्थीको
१ अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३८ ॥
विधि-द्रव्य-दात-पात्र-विशेषात्तद्विशेष ॥३६॥ (त० सू०)
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युगवीर-निबन्धावलो
होश आ गया. उसकी स्मृति काम करने लगी और इसलिये वह एक दम बोल पडा-
' इन चारोमे बडा दानी वह है जिसने बेबसीकी हालत मे पडे हुए बगाल के कालपी उतोको दो लाख रुपयेका अन्नदान किया है ।" अध्यापन - वह बडा दानी कैसे है? जरा समभाकर बतलाओ । और खासकर इस बातको स्पष्ट करके दिखलाओ कि वह घायल सैनिको के लिये ममपट्टीका सामान दान करनेवाले दानी से भी बड़ा दानी क्योक्र है ?
विद्यार्थी - मास्की उत्पत्ति प्राय जीवघात मे होती है । जो मासका दान करता है वह दूसरे निरपराध जीवोके घात मे सहायक होता है और इसलिये मानवतासे गिरकर हिसात्मक अपराधका भागी बनता है, जिससे उसका अपना उपकार न होकर ग्रपकार होता है । और जिन्हे मासभोजन कराया जाता है वे भी उम जीवघातके अनुमोदक तथा प्रकारान्तर से सहायक होकर अपराध के भागी बनते है । साथ ही, मास भोजनसे उनके हृदयमे निदयताकठोरता स्वार्थपरतादि-मूलक तामसी भाव उत्पन्न होता है, जो आत्मविकास में बाधक होकर उन्हे पतनकी ओर ले जाता है, और इसलिये मास-दान से मासभोजीका भी वास्तविक उपकार नही होता - खासकर ऐसी हालतमे जब कि अन्नादिक दूसरे निर्दोष एव सात्विक भोजनोसे पेट भले प्रकार भरा जा सकता है और उससे शारीरिक बल एव बौद्धिक शक्तिमे भी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । प्रत ऐसे दानका पारमार्थिक अथवा ग्रात्मोपकार - साधनकी दृष्टिसे कोई अच्छा फल नही कहा जा सकता - भले ही उसके करनेवालेको लोक्मे स्वार्थी राजा द्वारा किसी उपरी पद या मन्सबकी प्राप्ति हो जाय । जब पारमार्थिक अथवा आत्मोपकारकी दृष्टि से ऐसे दानका कोई बडा फल नही होता तो ऐसा दान देनेवाला बडा दानी भी नही कहा जा सकता ।
૪૦૪
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बडा दानी कौन?
४०५ हथियार हिमाके उपकरण होनेसे उनका दान करनेवाला हिसामे-परपीडामे--सहायक तथा उसका अनुमोदक होता है और जिसे दान दिया जाता है उसे उनके कारण हिसामे प्रोत्साहन मिलता है और वे प्राय दूसरोके घातमे ही काम पाते हैं। इस तरह दाता और पात्र दानाके हा लिये वे अात्महितका कोई साधन न होकर आत्महनन एप पतनके ही कारण बनते है, मोर इमलिये हथियारोका दान पारमायिक दृप्टिसे कोई महान् दान नहीं होता-पाक. मणात्मक-युद्धके सैनकोके लिये तो वह और भो सदोष ठहरता है, तब उसका दानी बडा दानी कसे हो सकता है ?
घायल सैनिकों को महम-पट्टाके लिये स्वेच्छासे दवादारूका दान देनेवाला पिछ ने दो दानिया-मासदानी और हथियारदानीसे बडा जरूर है, परन्तु वह बगालके घोर अफालसे पीडित प्राणियोको रक्षार्थ अन्नका दान करनेवालम बडा नहीं है। क्योकि अन्यक राष्ट्र पर अाक्रमण करने के लिये उद्यत मौनक दुमराको घायल करने और स्वय घायल होनेकी जिम्मेदाराको खुद अपने सिर पर उठाते है, अपराध करते हुए घायल हात हे आर अच्छे होने पर आगे भा अपराध करनेको-अनेक निरपराध प्राणियो तकका घात करनेको इच्छा रखत है, इमालये व उतने दयाके पात्र नही जितने कि बगालके उक्त अकाल-पोडित दयाक पात्र है, जिनका अकालक बुलानेमे कोई हाथ नहो, कोई अपराध नहीं पार जिन पर अकाल लादा गया है अथवा किसी जिम्मेदार बड़े अधिकारोकी भारी लापर्वाही और गफलतसे लद गया है । ऐमो स्थिातमे मुझे तो बगालके अकाल-पीडितोको दो लाख रुपये का अन्न दान करनेवाला हो चारोमे बडा दाना मालूम होता है। __ अध्यापक-जिस दृष्टिको लेकर तुमने उक्त अन्नदानीको बडा दानी बतलाया है वह एक प्रकारसे ठोक है, परन्तु इस विषयमें कई विकल्प उत्पन्न होते अथवा सवाल पैदा होते है, उनमेंमे यहाँ पर
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४०६
युगवीर-निबन्वावलो दो विकल्पोको ही रक्खा जाता है, जिनमेसे पहला विकल्प अथवा सवाल इस प्रकार है
'मानलो बगालके अकाल-पीडितोके लिये दो-दो लाख रुपयेका अन्न दान करनेवाले चार सेठ हैं, जिनमेसे (१) एकने स्वेच्छासे दान नही दिया, वह दान देना ही नहीं चाहता था, उस पर किमी उच्च अधिकारीने भारी दबाव डाला और यह धमकी दी कि यदि तुम दो लाख रुपयेका अन्न दानमे नही दोगे तो तुम्हारा अन्नका सब स्टाक जब्त कर लिया जायगा, तुम्हारे आर इनकमटैक्म दुगुनाचौगुना कर दिया जायगा और भी अनेक कर वढा दिये जावेगे अथवा डिफेस आफ इडिया ऐक्टके अधीन तुम्हाग चालान करके तुम्हे जेलमे डाल दिया जायगा, तुम्हारी जायदाद जब्त करली जायगी और तुम जेलमे पडे पडे सड जानोगे । और इलिये उसने धमकीके भयसे तथा दबावसे मजबूर होकर वह दान दिया है । (२) दूमरेने इस इच्छा तथा प्राशाको तेत र दान दिया है कि उसके दानमे गवर्नर साहब या कोई दूसरे उच्चाधिकारी प्रमन्न होगे और उस प्रसन्नताके उपलक्षमे उसे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट या रायबहादर-जैसा कोई पद प्रदान करेगे अथवा उसके बढते हुए करोमे कमी होगी और अमुक केसमे उसके अनुकूल फैसला हो सकेगा। (३) तीमग्ने कुछ ईर्षाभाव तथा व्यापारिक दृष्टिको लक्ष्यमे रखकर दान दिया है। उसके पडौसी अथवा प्रतिद्वद्वीने ५० हजारका अन्न दान किया था, उमे नीचा दिखाने, उसकी प्रतिष्ठा कम करने और अपनी धाक तथा साख जमाकर कुछ व्यापारिक लाभ उठानेकी तरफ उमका प्रधान लक्ष्य रहा है । (४) चौथेका हृदय सचमुच अकाल-पीडितोके दु खसे द्रवीभूत हसा है और उसने मानवीय कर्तव्य समझ कर स्वेच्छामे बिना किसी लौकिक लाभको लक्ष्यमे रवखे वह दान दिया है। बतलामो इन चारोमे बडा दानी कौनसा सेठ है ? और जिस अन्नदानीको तुमने अभी बडा दानी बतलाया है वह यदि इनमेसे पहले नम्बर
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बडा दानी कौन?
४०७ का सेठ हो तब भी क्या वह उस दानीसे बडा दानी है जिसने स्वेच्छासे बिना किमी दबावके घायल मैनिकोकी बुरी हालतको देखकर उन पर रहम खाते हए और उनके अपराधादिकी बातको भी ध्यानमे न लाते हुए उनकी मर्हमपट्टीके लिये दो लाख रुपयेका दान दिया है ?'
विद्यार्थी--इन चारोमे बडा दानी चौथे नम्बरका सेठ है, जो दानकी ठीक स्पिरिटको लिये हुए है। बाकी तो दानके व्यापारी हैं। पहले नम्बरके सेठको तो वास्तवमै दानी ही न कहना चाहिये, उससे तो दो लाख रुपयेका अन्त एक प्रकारसे छीना गया है, वह तो दान-फलका अधिकारी भी नहीं है, और इसलिये घायल सैनिकोकी महमपट्टीके लिये स्वेच्छासे दयाभावपूर्वक दो लाखका दान करनेवालेसे वह बडा दानी कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। ___ अध्यापक-मालूम होता है अब तुम विषयको ठीक समझ रहे हो। अच्छा, दुसरे विकल्पके रूपमे, अब इतना और जानलो कि'चौथे नम्बरका सेठ करोडोकी सम्पत्तिका धनो है, उसके यहाँ प्रतिदिन लाखो रुपयोका व्यापार होता है और हर साल सब खर्च देकर उसे दस लाख रुपयेके करीबकी बचत रहती है। उसने दो लाख रुपयेके दानसे अपना एक भोजनालय खुलवा दिया है, भोजन वितरण करनेके लिये कुछ नौकर छोड़ दिये है और यह प्रार्डर जारी कर दिया है कि जो कोई भी भोजनके लिये प्रावे उसे भोजन दिया जावे, नतीजा यह हुआ कि उसके भोजनालय पर अधिकतर ऐसे सडेमुसडे और गुडे लोगोकी भीड़ लगी रहती है जो स्वय मजदूरी करके अपना पेट भर सकते हैं-दयाके अथवा मुफ्त भोजन पानेके पात्र नही, जो धक्कामुक्की करके अधिकाश गरीब भुखमरोको भोजनशालाके द्वार तक भी पहुँचने नहीं देते और स्वय खा-पीकर चले जाते हैं तथा कुछ भोजन साथ भी ले जाते हैं । और इस तरह जिन गरीबोके वास्ते भोजनशाला खोली गई है उन्हें बहुत ही कम
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४०८
युगबीर-निबन्धावली भोजन मिल पाता है। प्रत्यत इसके, धनीगम नामके एक पाचवें मेठ है, जो ३-४ लाख रुपयेकी सम्पत्तिके ही मालिक हैं। उनका भी हृदय बगालके अकाल-पीडितोको देग्वकर वाम्नवमे द्रवीभूत हुआ है, उन्होने भी मानवीय कर्तव्य ममभकर स्वेच्छामे बिना किसी लौकिक लाभको तश्यमे रक्खे दो लाखका दान दिया है और उससे अपनी एक भोजनगाला खुलवाई है। साथ ही भोजनशालाकी ऐसी विधि-व्यवस्था की है, जिसन व भोजन-पात्र गरीब भुखमरे ही भोजन पा सके, जिनको लक्ष्य करके भोजनगाला खोली गई है । उसने भोजनशालाका प्रबन्ध अपने दो योग्य पुत्रोवे मुपद कर दिया है, जिनकी सुव्यवस्थामे कोई मडा-ममडा अथवा प्रपात्र व्यक्ति भोजनशालाके अहातेके अन्दर घुसन भी नहीं पाता, जिसके जो योग्य है वही मान्विक भोजन उसे दिया जाता है और उन दीन-अनाथो तथा विधवा-अपाहिजोको उनके घर पर भी भोजन पहुँचाया जाता है जो लज्जाके मारे भोजनगालाके द्वार तक नहीं आ सकते और इसलिये जिन्हे भोजनके अभावमे घर पर ही पडे पडे मर जाना मजूर है। अब बतलायो इन दोनो मठोमे कौन बडा दानी है ? वही चौथे नम्बरवाला सेठ क्या बडा दानी है जिसे तुमने अभी बहुतोकी तुलनामे बडा बतलाया है । अथवा पाचव नम्बरका यह मेठ धनीराम बडा दानी है ? कारण-सहित प्रकट करो।
विद्यार्थी उत्तर के लिए कुछ साचने ही लगा था कि इतनेमे अध्यापकजी बोल पडे-'इसमे तो मोचनेकी जरा भी बात नहीं है। यह स्पष्ट है कि चौथे नम्बरवाले सेठकी पोजीशन बडी है, उसकी माली हालत सेठ धनीरामसे बहुत बढी चढी है, फिर भी धनीरामने उसके बराबर ही दो लाखका दान दिया है, दीन-दुखियोकी पुकारके मुकाबलेमे अधिक धन मचित कर रखना उसे अनुचित जंचा है
और उसने थोडी सम्पत्तिमे ही सन्तोष धारण करके उसीसे अपना निर्वाह कर लेना इस बिषम परिस्थितिमे उचित समझा है । अत
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बडी दानो कौन ?
४०६
उसका दानद्रव्य समान होने पर भी उसका मूल्य अधिक है और उसharat विधि व्यवस्थाने तथा पात्रोके ठीक चुनावने उसका मूल्य और भी अधिक बढ़ा दिया है । वह ऐसी स्थिति में यदि एक लाख ही तुला भी दान करता तो भी उसका मूल्य उस चौथे नम्बरवाले सेठ के दानमे बढा रहता, क्योकि दानका मूल्य दानकी रकम अथवा दान-द्रव्यकी मालियत पर ही अवलम्बित नही रहता, उसके लिये दान-द्रव्यकी उपयोगिता, दाताके भाव तथा उसकी तत्कालीन स्थिति, दानकी विधि-व्यवस्था और जिसे दान दिया जाता है उसमे पात्रत्वादि गुणोके सयोगकी भी श्रावश्यकता होती है। बिना इनके यो ही अधिक द्रव्य लुटा देनेसे बड़ा दान नही बनता । सेठ धनीरामके दानमे बडेपनकी इन सब बातोका सयोग पाया जाता है, और इसलिये उसके दानका मूल्य करोडपति सेठ न० ४ के दान से भी अधिक होनेके कारण वह उक्त सेठ साहबकी अपेक्षा भी बडा दानी है ।"
मैं समझता हूँ अब तुम इस बातको भले प्रकार समझ गये होगे कि समान रकम अथवा ममान-मालियतके द्रव्यका दान करनेवाले सभी दानी समान नही होते - उनमे भी अनेक कारणो से छोटाबडापन होता है, जैसा कि दो लाखके अनेक दानियो के उदाहरणोको सामने रखकर स्पष्ट किया जा चुका है । अत समान-मालियतके द्रव्यका दान करनेवालोको सवथा समान दानी समझना 'एकान्त' और उन्हे विभिन्न दृष्टियोसे छोटा-बडा दानी समझना 'अनेकान्त' है । साथ ही, यह भी समझ गये होगे कि जिस चीजका मूल्य रुपयोमे नही ग्रॉका जा सकता उसका दान करनेवाले कभी-कभी Mast बडी रकम दानियोसे भी बडे दानी होते है । और इसलिये बडे दानी की जो परिभाषा तुमने बाँधी है, और जिसका एक प्रश ( परिभाषा से फलित होनेवाली तीन बातोमेसे पहली बात ) अभी और विचारणीय है, वह ठोक नही है ।
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४१०
युगवीर-निबन्धावली ___ इस पर विद्यार्थी ( जिसे पहले ही अपनी सदोष परिभाषा पर खेद हो रहा था ) नतमस्तक होकर बोला-'आपने जो कुछ कहा है वह सब ठीक है। आपके इस विवेचन, विकल्पोद्भावन और स्पष्टीकरणसे हम लोगोका बहुतसा अज्ञान दूर हुआ है । हमने जो छोटे-बडेके तत्त्वको खूब अच्छी तरह समझ लेनेकी बात कही थी वह हमारी भूल थी । जान पडता है अभी इस विषयमे हमे बहुत कुछ सीखना-समझना बाकी है । लाइनोके द्वारा आपने जो कुछ समझाया था वह इस विषयका 'सूत्र' था, अब आप उस सूत्रका व्यवहारशास्त्र हमारे सामने रख रहे है। इससे सूत्रके समझनेमे जो त्रुटि रही हुई है वह दूर होगी, कितनी ही उलभने सुलझेगी और चिरकालकी भूले मिटेगी। इस कृपा एव ज्ञान-दानके लिये हम सब अापके बहुत ही ऋणी और कृतज्ञ है ।'
मोहनके इस कथनका दूसरे विद्यार्थियोने भी खडे होकर समर्थन किया।
घटेको बजे कई मिनट हो गये थे, दूसरे अध्यापकमहोदय भी कक्षामे आ गये थे, इससे अध्यापक वीरभद्रजी शीघ्र ही दूसरी कक्षामे जानेके लिये बाध्य हुए।
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अनेकान्त-रस-लहरी (४)
बड़ा और छोटा दानी उसी दिन अध्यापक वीरभद्रने दूसरी कक्षामे जाकर उस कक्षाके विद्यार्थियोंकी भी इस विषयमे जाँच करनी चाही कि वे बडे और छोटेके तत्त्वको, जो कई दिनसे उन्हे समझाया जा रहा है, ठीक समझ गये है या कि नहीं अथवा कहाँ तक उसे हृदयगम कर सके हैं, और इसलिये उन्होने कक्षाके एक सबसे अधिक चतुर विद्यार्थीको पासमे बुलाकर पूछा---
एक मनुष्यने पाँच लाखका दान किया है और दूसरेने दस हजारका, बतलायो, इन दोनोमे बडा दानी कौन है ?
विद्यार्थीने झटसे उत्तर दिया-'जिसने पाँच लाखका दान किया है वह बडा दानी हे ।' इस पर अध्यापकमहोदयने एक गभीर प्रश्न किया
'क्या तुम पाँच लाखके दानीको छोटा दानी और दस हज़ारके दानीको बडा दानी कर सकते हो ?"
विद्यार्थी--हाँ, कर सकता हूँ। - अध्यापक केस ? करके बतलायो।
विद्यार्थी-मुझे सुखानन्द नामके एक सेठका हाल मालूम है जिसने अभी दस लाखका दान दिया है, उससे आपका यह पाँच लाखका दानी छोटा दानी है । और एक ऐसे दातारको भी मैं
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४१२
युगवीर-निबन्धावलो जानता हूँ जिसने पांच हजारका ही दान दिया है, उससे आपका यह दस हजारका दानी बड़ा दानी है। इस तरह दस हजारका दानी एककी अपेक्षासे बडा दानी और दूमरेकी अपेक्षामे छोटा दानी है, तदनुसार पाँच लाखका दानी भी एककी अपेक्षासे बडा और दूसरेकी अपेक्षामे छोटा दानी है। ____ अध्यापक-हमारा मतलब यह नही जैमा कि तुम समझ गये हो. दूसरोकी अपेक्षाका यहाँ कोई प्रयोजन नहीं। हमारा पूछनेका अभिप्राय सिर्फ इतना ही है कि क्या किमी तरह इन दोनो दानियोमेसे पाँच लाखका दानी दस हजारके दानीमे छोटा ग्रोर दस हजार. का दानी पाँच लाखके दानीसे बडा दानी हो सकता है ? और तुम उसे स्पष्ट करके बतला सकते हो ?
विद्यार्थी-यह कैसे हो सकता है ? यह तो उमी तरह असभव है जिस तरह पत्थरको शिला अथवा लोहेका पानी पर तैरना । ___ अध्यापक-पत्थरकी शिलाको लकडीके स्लीपर या मोटे तख्ते पर फिट करके अगाध जलमे तिराया जा सकता है और लोहेकी लुटिया, नौका अथवा कनस्टर बनाकर उमे भी तिराया जा मकता है । जब युक्तिमे पत्थर और लोहा भी पानी पर तैर सकते है और इसलिये उनका पानी पर तैरना सर्वथा अमभव नहीं कहा जासकता, तब क्या तुम युक्तिसे दस हजारके दानीको पाँच लाखके दानीसे बड़ा सिद्ध नहीं कर सकते।
यह सुनकर विद्यार्थी कुछ गहरी मोचमे पड गया और उससे शीघ्र कुछ उत्तर न बन सका । इस पर अध्यापकमहोदयने दूसरे विद्याथियोसे पूछा-'क्या तुममसे कोई ऐमा कर सकता है ?' वे भी सोचते-से रह गये। और उनसे भी शीघ्र कुछ उत्तर न बन पडा । तब अध्यापकजी कुछ कडककर बोले
'क्या तुम्हे तत्त्वार्थसूत्रके दान-प्रकरणका स्मरण नहीं है ? क्या तुम्हे नहीं मालूम कि दानका क्या लक्षरण है और उस लक्षणसे गिर
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बडा और छोटा दानो
८१३ कर दान दान नही रहता? क्या तुम्हे उन विशेषतारोका ध्यान नहीं है जिनसे दानके फलमे विशेषता--कमी-बेशी-पाती है और जिनके कारण दानका मूल्य कमोबेश हो जाता अथवा छोटा-बड़ा बन जाता है ? और क्या तुम नही समझते हो कि जिस दानका मूल्य बडा-फल बडा--वह दान बडा है, उसका दानी बडा दानी है, और जिस दानका मूल्य कम-फल कम वह दान छोटा है, उसका दानी छोटा दानी है-दानद्रव्यकी मख्या पर ही दानका छोटा-बडापन निर्भर नहीं है ?
इन शब्दोके आघातसे विद्यार्थी-हृदयके कुछ कपाट खुल गये, उसकी स्मृति काम करने लगी और वह जरा चमककर कहाँ लगा
'हाँ, तत्त्वार्थसूत्रके सातवे अध्यायमे दानका लक्षण दिया है और उन विशेषतायोका भी उल्लेख किया है जिनके कारण दानके फलमे विशेषता आती है और उस विशेषताकी दृप्टिमे दानमे भेद उत्पन्न होता है अर्थात् किसी दानको उत्तम-मध्यम-जघन्य अथवा बडा-छोटा प्रादि कहा जा सकता है। उसमे बतलाया है कि 'अनुग्रहके लियेस्व-पर-उपकारके वास्ते-जो अपने धनादिकका त्याग किया जाता है उसे 'दान' कहते है और उस दानमे विधि, द्रव्य, दाता तथा पात्रके विशेषसे विशेषता आती है-दानके ढग, दानमे दिये जानेवाले पदार्थ, दातारकी तत्कालीन स्थिति और उसके परिणाम तथा पानेवालेमे गुरासयोगके भेदसे दानके फलमे कमी-वेशी होती है । ऐसी स्थितिमे यह ठीक है कि दानका छोटा-बडापन केवल दानद्रव्यकी सख्या पर निर्भर नही होता, उमके लिये दूसरी कितनी ही बातोको देखनेकी ज़रूरत होती है, जिन्हे ध्यानमे रखने हुए द्रव्यकी अधिकसख्यावाले दानको छोटा और अल्प-सख्यावाले दानको खुशीसे बडा कहा जा सकता है । अत अब आप कृपाकर अपने दोनो दानियोका कुछ विशेष परिचय दीजिये, जिससे उनके छोटे-बडेपनके विषयमे कोई बात ठीक कही जा सके।
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४१४
युगवीर निवन्धावली अध्यापक हमे पाँच-पाँच लाख के दानी चार सेठोका हाल मालूम है जिनमेसे (१) एक सेठ डालचन्द है, जिनके यहाँ लाखोंका व्यापार होता है और प्रतिदिन हजारो रुपये धर्मादाके जमा होते है, उसी धर्मादाकी रकममेसे उन्होने पाँच लाख रुपये एक सामाजिक विद्या-सस्थाको दान दिये है और उनके इस दानमे यह प्रधान-दृष्टि रही है कि वे उस समाजके प्रेमपात्र तथा विश्वासपात्र बने और लोकमे प्रतिष्ठा तथा उदारताकी धाक जमाकर अपने व्यापारको उन्नत करे । (२) दूसरे सेठ ताराचन्द हैं, जिन्होने ब्लैक-मार्केट-द्वारा बहुत धन सचय किया है और जो सरकारके कोप-भाजन बने हुए थे-सरकार उन पर मुकदमा चलाना चाहती थी । उन्होने एक उच्चाधिकारीके परामर्शसे पांच लाख रुपये 'गाँधी-मेमोरियल-फड' को दान दिये है और इससे उनकी सारी आपत्ति टल गई है। (३) तीसरे सेठ रामानन्द हैं, जो एक बडी मिल के मालिक हैं जिसमे 'वनस्पति-घी' भी प्रचुर परिमाणमे तय्यार होता है । उन्होने एक उच्चाधिकारीको गुप्तदानके रूपमे पाँच लाख रुपये इसलिये भेट किये है कि वनस्पति-धीका चलन बन्द न किया जाय और न उसमे किसी रगके मिलानेका आयोजन ही किया जाय । (४) चौथे सेठ विनोदीराम है, जिन्हे 'रायबहादुर' तथा 'आनरेरी मजिस्ट्रेट' बननेकी प्रबल इच्छा थी। उन्होने जिलाधीशसे ( कलक्टरसे ) मिलकर उन जिलाधीशके नाम पर एक अस्पताल ( चिकित्सालय ) खोलनेके लिये पाँच लाखका दान किया है और वे जिलाधीशकी सिफारिश पर रायबहादुर तथा आनरेरी मजिस्ट्रट बना दिये गये हैं। ___ इसी तरह हमे चार ऐसे दानी सज्जनोका भी हाल मालूम है जिन्होने दस-दस हजारका ही दान किया है । उनमेसे (१) एक तो हैं सेठ दयाचन्द, जिन्होने नगरमे योग्य चिकित्सा तथा दवाईका कोई समुचित प्रबन्ध न देखकर और साधारण गरीब जनताको उनके अभावमे दुखित एवं पीडित पाकर अपनी निजकी कमाईमेंसे दस
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बडा और छोटा दानी
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हजार रुपये दानमे निकाले हैं और उस दानकी रकमसे एक धर्मार्थशुद्ध प्रौषधालय स्थापित किया है, जिसमे गरीब रोगियोकी सेवासुश्रूषा पर विशेष ध्यान दिया जाता है और उन्हे दवाई मुफ्त दी जाती है । सेठ साहब प्रौषधालयकी सुव्यवस्था पर पूरा ध्यान रखते हैं और अक्सर स्वयं भी सेवाके लिये प्रौषधालयमे पहुँच जाया करते है । (२) दूसरे सेठ ज्ञानानन्द है, जिन्हे सम्यग्ज्ञान- वधक साधनो के प्रचार और प्रसारमें बडा आनन्द प्राया करता है । उन्होने अपनी गाढी कमाई से दस हजार रुपये प्राचीन जैनसिद्धान्त-ग्रन्थोके उद्धारार्थ प्रदान किये है और उस द्रव्यकी ऐसी सुव्यवस्था की है जिससे उत्तम सिद्धान्त-ग्रन्थ बराबर प्रकाशित होकर लोकका हित कर रहे है । (३) तीसरे सज्जन लाला विवेकचन्द है, जिन्हे अपने समाजके बेरोजगार ( आजीविका-रहित ) व्यक्तियोको कष्टमे देखकर बडा कष्ट होता था और इसलिये उन्होने उनके दुख-मोचनार्थ अपनी शुद्ध कमाईमेसे दस हज़ार रुपये दान किये है । इस द्रव्यसे बेरोजगारोको उनके योग्य रोजगारमे लगाया जाता है - दुकाने खुलवाई जाती हैं, शिल्पके साधन जुटाये जाते है, नौकरियाँ दिलवाई जाती हैं और जब तक आजीविकाका कोई समुचित प्रबन्ध नही बैठता तब तक उनके भोजनादिकमे कुछ सहायता भी पहुँचाई जाती है । इससे कितने ही कुटुम्बोकी प्राकुलता मिटकर उन्हे प्रभयदान मिल 'रहा है । (४) चौथे सज्जन गवर्नमेटके पेशनर बाबू सेवाराम है, जिन्होने गवर्नमेट के साथ अपनी पेशनका दस हजार नकदमे समझौता कर लिया है और उस सारी रकमको उन समाजसेवकोकी भोजनव्यवस्था के लिये दान कर दिया है जो निस्वार्थ भाव से समाज-सेवाके लिये अपनेको अर्पित कर देना चाहते है परन्तु इतने साधन-सम्पन्न नही हैं कि उस दशामे भोजनादिकका खर्च स्वय उठा सके | इससे समाजमे निस्वार्थ सेवकोकी वृद्धि होगी और उससे कितना ही सेवा एव लोकहितका कार्य सहज सम्पन्न हो सकेगा । बाबू सेवारामजीने
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युगवीर निबन्धावली स्वय अपनेको भी समाजसेवाके लिये अर्पित कर दिया है और अपने दानद्रव्यके सदुपयोगकी व्यवस्थामे लगे हुए है।
अब बतलायो दस-दस हजारके इन चारो दानियोमेसे क्या कोई दानी ऐसा है जिसे तुम पाँच-पाँच लाखके उक्त चारो दानियोमेसे किसीसे भी बड़ा कह सको ? यदि है तो कौन-सा हे और वह क्सिसे बडा है ?
विद्यार्थी-मुझे तो ये दस-दस हजारके च रो हो दानी उन पाँच-पाँच लाखके प्रत्येक दानीसे बड़े दानी मालूम होते है।
अध्यापक-कैसे ? जरा समझाकर बतलायो ?
विद्यार्थी-पाँच लाखके प्रथम दानी सेठ डालनन्दने जो द्रव्य दान किया है वह उनका अपना द्रव्य नहीं है, वह वह द्रव्य है जो ग्राहकोसे मुनाफेके अतिरिक्त धर्मादाके रूपमे लिया गया है, न कि वह द्रव्य जो अपने मुनाफेमेसे दानके लिये निकाला गया हो । और इसलिये उसमे सैक्डो व्यक्तियोका दानद्रव्य शामिल है । अत दानके लक्षणानुसार सेट डालचन्द उस द्रव्यके दानी नहीं कहे जा सकतेदानद्रव्य व्यवस्थापक हो सकते है । व्यवस्थामे भी उनकी दृष्टि अपने व्यापारकी रही है और इसलिये उनके उस दानका कोई विशेष मूल्य नही है--वह दानके ठीक फलोको नही फल सकता । पाँच लाखके दानी शेष तीन सेठ तो दानके व्यापारी मात्र है-दानकी कोई स्पिरिट, भावना और प्रात्मोपकार तथा परोपकारको लिये हुए अनुग्रहदृष्टि उनमे नही पाई जाती और इसलिये उनके दानको वास्तवमे दान कहना ही न चाहिये। सेठ ताराचन्दने तो ब्लैकमार्केट-द्वारा बहुतोको सताकर कमाये हुए उस अन्याय द्रव्यका दान करके उसका बदला भी अपने ऊपर चलनेवाले एक मुकदमेकोटलानेके रूपमे चुका लिया है और मेठ विनोदीरामने बदले में 'रायबहादुर' तथा 'ऑनरेरी मजिस्ट्रट' के पद प्राप्त कर लिये हैं अत' पारमाथिक दृष्टिसे उनके उस दानका कोई मूल्य नही है। प्रत्युत इसके,
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बड़ा और छोटा बानी
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दस-दस हज्जारके उन चारों दानियोंके दान दानको ठीक स्पिरिट, भावना तथा स्व-परकी अनुग्रहबुद्धि प्रादिको लिये हुए हैं और इसलिये दानके ठीक फलको फलनेवाले सम्यकदान कहे जानेके योग्य हैं। इसीसे मैं उनके दानी सेठ दयाचन्द, सेठ ज्ञानानन्द, ला विवेकचन्द और बाबू सेवारामजीको पाँच पाँच लाखके दानी उन चारो सेठों डालचन्द, ताराचन्द, रामानन्द, और विनोदीरामसे बड़े दानी समझता हूँ । इनके दानका फल हर हालत मे उन तथाकथित बड़े दानियोंके दान - फलसे बड़ा है और इसलिये उन दस-दस हजार रके दानियोमेसे प्रत्येक दानी उन पाँच-पाँच लाखके दानियोसे बडा है ।
यह सुनकर प्रध्यापक वीरभद्रजी अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बोले- 'परन्तु सेठ रामानन्दजीने तो दान देकर अपना नाम मी नही चाहा, उन्होने गुप्तदान दिया है और गुप्तदानका महत्व अधिक कहा जाता है, तुमने उन्हें छोटा दानी कैसे कह दिया ? जरा उनके विषयको भी कुछ स्पष्ट करके बतलानो ।
विद्यार्थी - सेठ रामानन्दका दान तो वास्तवमे कोई दान ही नही है -- उस पर दानका कोई लक्षरण घटित नही होता और इसलिये वह दानकी को ही नही आता - गुप्तदान कैसा ? वह तो स्पष्ट रिश्वत अथवा घूस है, जो एक उच्चाधिकारीको लोभमे डालकर उसके afterरोका दुरुपयोग कराने और अपना बहुत बडा लौकिक स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये दी गई है और उस स्वार्थसिद्धिकी उत्कट भावनामें इस बातको बिल्कुल ही भुला दिया गया है कि वनस्पतिघीके प्रचारसे लोक में कितनी हानि हो रही है- जनताका स्वास्थ्य कितना गिर गया तथा गिरता जाता है और वह नित्य नई कितनी व कितने प्रकारकी बीमारियोकी शिकार होती जाती है, जिन सबके कारण उसका जीवन भाररूप हो रहा है । उस सेठने सबके दुख-कष्टोकी मोरसे अपनी प्राखे बन्द कर ली है— उसकी तरफसे बूढा मरो चाहे जवान उसे अपनी हत्यासे काम ! फिर दानके अगस्वरूप किसीके
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४१८
युगवीर निबन्धावली अनुग्रह उपकारकी बात तो उसके पास कहाँ पटक सकती है ? वह तो उससे कोसो दूर है । महात्मा गान्धी-जैसे सन्तपुरुष वनस्पतिघीके विरोधमें जो कुछ कह गये हैं उसेभी उसने टुकरा दिया है
और उस अधिकारीको भी ठुकरानेके लिये राजी कर लिया है जो बात-बातमें गाधीजीके अनुयायी होनेका दम भरा करता है और दूसरोको भी गाधीजीके आदेशानुसार चलनेकी प्रेरणा किया करता है। ऐसा ढोगी, दम्भी बगुला-भगत उच्चाधिकारी जो तुच्छ लोभमें पडकर अपने कर्त्तव्यसे च्युत, पथसे भ्रष्ट और अपने अधिकारका दुरुपयोग करनेके लिये उतारू हो जाता है वह दानका पात्र भी नहीं है। इस तरह पारमार्थिक दृष्टिसे सेठ रामानन्दका दान कोई दान नहीं है। और न लोकमें ही ऐसे दानको दान कहा जाता है। यदि द्रव्यको अपनेसे पृथक् करके किसीको दे देने मात्रके कारण ही उसे दान कहा जाय तो वह सबमें निकृष्ट दान है, उसका उद्देश्य बुरा एव लोकहितमें बाधक होनेसे वह भविष्यमें घोर दुखो तथा आपदामोके रूपमें फलेगा । और इसलिये पांच-पाँच लाखके उक्त चारों दानियोमें सेठ रामानन्दको सबसे अधिक निकृष्ट, नीचे दर्जेका तथा अधम दानी समझना चाहिये।
अध्यापक-शाबास । मालूम होता है अब तुम बड़े और छोटेके तत्त्वको बहुत कुछ समझ गये हो । हाँ, इतना और बतलाओ कि जिन चार दानियोको तुमने पांच पाच लाखके दानियोसे बडे दानी बतलाया है वे क्या दस-दस हजारकी समान रकमके दानसे परस्परमें समान दानी हैं, समान-फलके भोका होंने और उनमे कोई परस्परमे बड़ छोटा दानी नही है।
विद्यार्थी उत्तरकी खोजमें मन-ही-मन कुछ सोचने लमा, इतने में अध्यापकजी बोल उठे-'इसमें अधिक सोचनेवी बात नहीं, इतना तो स्पष्ट ही है कि जब अधिक द्रव्यके दानी भी अल्प द्रव्य. के दानीसे छोटे हो जाते हैं और दानदल्यकी संख्या पर ही दान तथा
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बड़ा और छोटा दानी दानीका बड़ा-छोटापन निर्भर नही है तब समान द्रव्यके दानी परस्परमें समान और एक हो दर्जेके होगे ऐसा कोई नियम नहीं हो सकता-वे समान भी हो सकते हैं और असमान भी । इस तरह उनमें भी बड़े-छोटेका भेद समव है और वह भेद तभी स्पष्ट हो सकता है जब कि सारी परिस्थिति सामने हो अर्थात् यह पूरी तौरसे मालूम हो कि दानके समय दातारकी कौटुम्बिक तथा आर्थिक आदि स्थिति कैसी थी, किन भावोकी प्रेरणासे दान किया गया है, किस उद्देश्यको लेकर तथा किस विधि-व्यवस्थाके साथ दिया गया है और जिन्हें लक्ष्य करके दिया गया है वे सब पात्र हैं, कुपात्र है या अपात्र, अथवा उस दानकी कितनी उपयोगिता है। इन सबकी तरतमता पर ही दान तथा उसके फलकी तरमता निर्भर है और उसीके आधार पर किसी प्रशस्त दानको प्रशस्ततर या प्रशस्ततम अथवा छोटा-बड़ा कहा जा सकता है। जिनके दानोका विषय ही एक दूसरेसे मिन्न होता है उनके दानी प्राय समान फलके भोका नही होते
और न समान फलके अभोक्ता होनेसे ही उन्हें बडा-छोटा कहा जा सकता है । इस दृष्टिसे उक्त दस-दस हजारके चारो दानियोमेसे किसीके विषयमें भी यह कहना सहज नहीं है कि उनमें कौन बड़ा कौन छोटा दानी है। चारोंके दानका विषय बहुत उपयोगी है और उन सबकी अपने अपने दानविषयमे पूरी दिलचस्पी पाई जाती है।'
अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या चल ही रही थी, कि इतनेमे घटा बज गया और वे यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि-'दान और दानीके बड़े-छोटेपनके विषयमें आज बहुत कुछ विवेचन दूसरी कक्षामें किया जा चुका है उसे तुम मोहनलाल विद्यार्थीसे मालूम कर लेना, उससे रही-सही कचाई दूर होकर तुम्हारा इस विषयका ज्ञान और भी परिपुष्ट हो जायगा और तुम एकान्त-अभिनिवेशके चक्करमें न पड सकोगे।' अध्यापकजीको उठते देखकर सब विद्यार्थी खडे होमये और बडे विनीतमावसे उनका आभार व्यक्त करने लगे,
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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झंडा और कर्तव्य
कोई एक हजार वर्षकी गुलामीके बाद भारत १५ अगस्त सन् १९४७ को स्वतन्त्र हुआ— उसकी गर्दन पर से श्रवाछनीय विदेशीशासनका जुना उतरा, उसके पैरोकी बेड़ियाँ हाथोकी हथकड़ियाँ कटी और शरीर तथा मन परके दूसरे बन्धन भी टूटे, जिन सबके कारण वह पराधीन था, स्वेच्छा से कही जा प्रा नही सकता था, बोल नही सकता था यथेष्टरूपमें कुछ कर नही सकता था और न उसे कही सम्मान हीं प्राप्त था । उसमे अनेक उपायोसे फूटके बीज बोए जाते थे और उनके द्वारा अपना उल्लू सीधा किया जाता था । साथ ही उस पर करों प्रादिका मनमाना बोझा लादा जाता था, तरह तरहके अन्याय-अत्याचार किये जाते थे, अपमानो-तिरस्कारोकी बौछारें पडती थीं और उन सबके विरोधमे जबान खोलने तकका उसे कोई अधिकार नही था । उसके लिये सत्य बोलना भी अपराध था । और इसलिये वह मजबूर था भूठ, चोरी, बेईमानी, घूसखोरी और ब्लैकमार्केट-जैसे कुकर्मो के लिये । इसीसे उसका नैतिक और धार्मिक पतन बडी तेजीके साथ हो रहा था, सारा वातावरण गदा एवं दूषित हो गया था और कही भी सुखपूर्वक साँस लेनेके लिये स्थान नही था ।
धन्य है भारतकी उन विभूतियोंको जिन्होंने परतन्त्रताके इस
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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झडा और कर्तव्य
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दोषको समझा, स्वतन्त्रताका मूल्य प्रांका और उस मूल्यको चुकानेके लिये अहिंसाके साथ तप, त्याग तथा बलिदानका मार्ग अपनाया। परिणामस्वरूप जिन्हें घोर यातनाएँ सहनी पडी, महीनो-वर्षों जेलोंकी कालकोठरियोमें सडना पडा, सारे सुख-चैन और आरामको तिलाञ्जलि देनी पडो, सम्पत्तिका अपहरण देखना पडा और हृदयको व्यथित करनेवाली देशीय तथा आत्मीय जनोकी करुण पुकारो एवं कष्ट-कहानियोको सुनना पडा । साथ ही, देशसे निर्वासित होना पडा, गोलिया खानी पड़ी और फाँसीके तख्तोपर भी लटकना पड़ा। परन्तु इन सब अवस्थाप्रोमेसे गुजरते हए जो कभी अपने लक्ष्यसे विचलित नहीं हुए, वेदनायो तथा प्रलोभनोके सामने जिन्होने कभी सिर नहीं झुकाया, अहिंसाकी नीतिको नही छोडा, सतानेवालोके प्रति भी उनके हृदय-परिवर्तन तथा उनमें मानवताके सचारके लिये सदा शुभ कामनाएँ ही की, और जो अपने प्रणके पक्के, वचनके सच्चे तथा सकल्पमें अडोल रहे और जिन्होने सब कुछ गवाकर भी अपनी नथा देशकी प्रतिष्ठाको कायम रक्खा । यहाँ उन विभूतियोंके नामोको गिनानेकी जरूरत नहीं और न उन्हे गिनाया ही जा सकता है, क्योकि जो सुप्रसिद्ध विभूतियाँ हैं उनके नामोसे तो सभी परि. चित हैं, दूसरी विभूतियोंमें कितनी ही ऐसी विभूतियाँ भी हैं जो गुप्तरूपसे काम करती रही है और जिनका तप-त्याग एव बलिदान किसी भी प्रसिद्ध बडी विभूतिसे कम नहीं है। अकसर बडी विभूतियोको तो जेलमे बन्द रहते हए भी उतने कष्ट सहन नहीं करने पड़े हैं जितने कि किसी-किसी छोटी विभूतिको सहन करने पडे हैं । अत. यहाँ पर किसीका भी नाम न देकर उन सभी छोटी बडी, प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध विभूतियोको सादर प्रणामार्जाल समर्पित है जो भारतको मुक्तिके लिये बराबर प्रय न करती रही हैं और जिनके सत्प्रयत्नोंके फलस्वरूप ही देशको आज वह स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है जिसके कारण भारतवासी अब आजादीके साथ खुले वातावरण मे
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१२२ युगवीर-निबन्धावलो सांस ले सकेगे, यथेच्छ रूपमें चल फिर सकेंगे खुली आवाज से बोल सकेंगे, बिना सकोचके लिख-पढ सकेंगे. बिना किसी रोक-टोक के अपनी उन्नति एवं प्रगतिके साधनोवो जुटा सकेंगे। ऐसी स्वतन्त्रता किसे प्यारी नहीं होगी ? कौन उसका अभिनन्दन नहीं करेगा कौन उसे पाकर प्रसन्न नही होगा ? और कौन उसके लिये आनन्दोत्सव नही मनाएगा?
यही वजह है कि उस दिन १५ अगस्तको स्वतन्त्रता दिवस मनानेके लिये जगह-जगह-नगर-नगर और ग्राम-ग्राममे-जन-समूह उत्सवके लिये उमडे पडा था, जनतामे एक अभूतपूर्व उत्साह दिखाई पड़ता था, लम्बे-लम्बे जलूस निकाले गये थे, तरह-तरह के बाजे बज रहे थे, नेताप्रो और शहीदोंकी जयघोषके नारे लग रहे थे, बालकोंको मिठाइयाँ बंट रही थी, कही कही दीन-दुखित जनोको अन्नवस्त्र भी बांटे जा रहे थे, घर-द्वार, सरकारी इमारते और मन्दिरबाजाररादिक सब सजाये गये थे उन पर रोशनी की गई थी~दीपावली मनाई गई थी और हजारो कैदी जेलोसे मुक्त होकर इन उत्सवोमे भाग ले रहे थे और अपने नेताअोकी इस भारी सफलता पर गर्व कर रहे थे और उन्हे हृदयसे धन्यवाद दे रहे थे।
इन उत्सवोकी सबसे बड़ी विशेषता भारतके उस तिरगे भडेकी थी जिसका अशोकचक्रके साथ नव-निरिण हुआ है। घर घर, गलीगली और दुवान-दुकान पर उसे फहराया गया था। कोई भी सरकारी इमारत, सार्वजनिक सरथा और मदिर मस्जिदकी बिहिन ऐसी दिखाई नही पडती थी जो इस गष्ट्रीय पताकाको अपने सिर पर अथवा अपनी गोद में धारण दिये हा न हो। जलसोंमें बहतसे लोग अपने-अपने हाथोमें इस झडेको थामे हए थे, जिन्हें हाथोमें लेनेके लिये झडे नही मिल सके वे इस भडेकी मूर्तियो या चित्रोको अपनी-अपनी टोपियो अथवा छातियो पर धारण किये हुए थे। जिधर देखो उधर ये राष्ट्रीय झडे ही झड़े फहराते हुए नज़र आते
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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झडा और कर्तव्य
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थे और उनकी सारे देशमें एक बाढ सी प्रागई थी। जहाँ कही भी किमी खास स्थान पर समूह के मध्य में झडेको लहरानेकी रस्म प्रदा की गई वहाँ हिन्दू, मुसलमान, सिख जैन, पारसी और ईसाई प्रादि सभी मिलकर बिना किसी मेद-भावके झडेका गुरणगान किया, उसे सिर झुकाकर प्रणाम किया और सलामी दी।
उस वक्ता यह सार्वजनिक और सार्वभौमिक मूर्तिपूजाका दृश्य बड़ा ही सुन्दर जान पडता था । और हृदयमें रह-रहकर ये विचार तराङ्गत हो रहे थे कि जो लोग मूर्तिपूजाके सर्वथा विरोधी हैं उसमें कृत्रिमता और जडता जैसे दोष देकर उसका निषेध किया करते हैं - वे समय पर इस बातको भूल जाते हैं कि 'हम भी किसी न किसी रूप में मूर्तिपूजक हैं, क्योकि राष्ट्रका झडा भी, जिसकी वे उपासना करते हैं, एक प्रकारकी जड़मूर्ति है और राष्ट्रके प्रतिनिधि नेता द्वारा निर्मित होनेसे कृत्रिम भी है ।
परन्तु देवमूर्ति जिस प्रकार कुछ भावोकी प्रतीक होती है, जिनकी उसमे प्रतिष्ठा की जाती है, उसी प्रकार यह राष्ट्रपताका भी उन राष्ट्राय भावनाओ की प्रतीक है जिनकी कुछ रङ्गो तथा चिन्हो प्रादिके द्वारा इसमे प्रतिष्ठा की गई है, और इसीसे देवमूर्तिके अपमानकी तरह इस प्रतिष्ठित राष्ट्रमूर्ति के अपमानको भी इसका कोई उपासक सहन नही कर सकता। इसी बात को लेकर 'भडेको सदा ऊँचा रखने और प्रारण देकर भी उसकी प्रतिष्ठाको बराबर कायम रखनेकी' सामूहिक तथा व्यक्तिगत प्रतिज्ञाएँ कराई गई थी । प्रत
डेकी पूजा-वन्दना करनेवालोको भूलकर भी मूर्तिपूजाका सर्वथा विरोध नहीं करना चाहिये- वैसा करके वे अपना विरोध प्राप घटित करेंगे ।
उन्हें दूसरों की भावना को भी समझना चाहिये और अनुचित प्राक्षेपादिके द्वारा किसीके भी मर्मको नहीं दुखाना चाहिये, बल्कि राष्ट्रीय झडेकी इस सामूहिक वन्दनासे पदार्थ- पाठ लेकर सबके साथ
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युगवीर-निबन्धावली प्रेमका व्यवहार करना चाहिये और कोई भी काम ऐसा नहीं करना चाहिये जिससे राष्ट्र की एकता मन हो अथवा उसके हितको बाधा पहुँचे । साथ ही, यह भी समझ लेना चाहिये कि ससारमें ऐसा कोई भी मनुष्य नही है जो किसी न किसी रूपमे मूर्तिकी पूजा-उपासना न करता हो-बिना मूर्ति-पूजाके अथवा आदरके साथ मूर्तिको अपनाये बिना किसीका भी काम नहीं चलता। शब्द और अक्षर भी एक प्रकारकी मूर्तिया-पौद्गालक प्राकृतियाँ-हैं,जिनसे हमारे धर्मग्रन्थ निर्मित है और जिनके आगे हम सदा ही सिर झुकाया करते हैं। यह सिर झुकाना, वन्दना करना और आदर-सत्कार रूप प्रवृत्त होना ही 'पूजा' है, पूजाके और कोई सीग नहीं होते।
भडेमे जिस अशोकचक्रकी स्थापना की गई है उसका रहस्य अभी बहुत कुछ गुप्त है । भारतके प्रधान मन्त्री माननीय पाडत जवाहरलालजी नेहरूने उस दिन वर्तमान राष्ट्रीय भाडेका रूप उपस्थित करते और उसे पास कराते हए जो कुछ कहा है वह बहुत कुछ सामान्य, सक्षिप्त तथा रहस्यके गाम्भीर्यको सूचना-मात्र है-- उससे अशोकचक्रको अपनानेका पूरा रहस्य खुलता नहीं है। सम्भव है सरकारकी गोरसे किमी समय उस पर विशेष प्रकाश डाला जाय । जैनकुलोत्पन्न सम्राट अशोक किन सस्कारोमें पले थे कौनसी परिस्थितियां उनके सामने थी, उन्होने किन-किन भावोको लेकर इस चक्रकी रचना की थी,चक्रका कौन-कौन अग क्सि-किस भावका प्रतिनिधित्व करता है-- खासकर उसके आरोकी २४ सख्या किस भावका द्योतन करती है, जैन तीर्थंकरोके 'धर्मचक्र और बुद्ध भगवानके 'धर्मचक्र' के साथ इसका क्या तथा क्तिना सम्बाध है और भारतके भरतादि चक्रवतियो तथा कृष्णादि नारायणोके 'सुदशनचक्र' के साथ इस चक्रका कहां तक सादृश्य है अथवा उसके किसकिर रूपको किस दृष्टिसे इसमें अपनाया गया है, ये सब बाते प्रकट होने के योग्य है।
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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झडा और कर्त्तव्य ४२५ कितनी ही बातें इनमे ऐसी भी हो सकती हैं जो अभी इतिहासके गर्भ में हैं और जि हे आगे चलकर किसी समय इतिहास प्रकट करेगा । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि यह चक्र बड़ा ही महत्वपूर्ण है, भारतकी प्राचीन संस्कृतिका द्योतक है और उसकी विजयका चिन्ह है । इसीसे विजयके अवसर पर उसे राष्ट्रीय पताकामें धारण किया गया है। वह जहाँ धार्मिक चक्रवतियोकी धम विजयका और लौकिक चक्रवतियोकी लोक-विजयका चि ह रहा है वहीं वर्तमान मशीन-युगके भी वह अनुरूप ही है और उसका प्रधान अग है। नई पुरानी अधिकाश मशीने चक्रोसे ही चलती है-चक्रके बिना उनकी गति नहीं। यदि चक्रका उपयोग बिल्कुल बन्द कर दिया जाय तो प्राय सारा यातायात और उत्पादन एकदम रुक जाय । क्योकि रथ, गाड़ी, ताङ्गा, मोटर, साईकिल, रेल, एजन, जहाज, रहट, चाक, चर्खा, चीं, कर्घा और कल-मिल आदि सभी साधनोमें प्राय चक्रका उपयोग होता है, और इसलिये चक्रको श्रमजीवन तथा श्रमोन्नतिका प्रधान प्रतीक भी समझना चाहिये,जिसके बिना सारा संसार बेकार है।
अत जब तक अशोकचक्रको, जिसमे थोडासा परिवर्तनभी किया जान पड़ता है, प्रतिष्ठित करनेवाले अधिकारियो-द्वारा इसके रहस्यका उद्घाटन नहीं किया जाता तब तक सर्व साधारण जन इस चक्रमे सूर्यकी, सुदर्शनचक्रकी, जैन तथा बौद्धोके धर्मचक्रोमेसे किसीकी, वर्तमान युगके मशीनी चक्रकी अथवा सभीके समावेशकी कल्पना कर सकते हैं और तदनुफूल उसका दर्शन भी कर सकते हैं। परन्तु मुझे तो गोककी दृष्टिसे इस चक्रका मध्यवृत्त ( बीचका गोला ) समता ( शान्ति ) और ज्योति ( ज्ञान ) का प्रतीक जान पडता है, बाह्यवृत्त संसारकी-मध्यलोककी अथवा जम्बूद्वीपकी परिधिके रूपमें प्रतीत होता है, संसारमें समता और ज्योतिका प्रसार जिन २४ किरणो-द्वारा हुमा तथा होरहा है वे मुख्यत ऋष.
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युगवीर-निबन्धावली मादि महावीर पर्यन्त २४ जैन तीर्थकर मालूम होते हैं- दूसरोंद्वारा बादको माने गये २४ अवतारोका भी उनमे समावेश है-और परिषिके पास तथा किरणोके मध्यमें जो छोटे-छोटे स्तूपाकार उभार हैं वे इस लोककी आबादी (नगरादि) के प्रतीक जान पड़ते हैं और उनके शिरोभाग जो मध्यवृत्तको कुछ गुलाईको लिये हुए है वे इस बातको सूचित करते हैं कि उन पर मध्यवृत्तका असर पड़ा है और वे उसकी समता तथा ज्योतिके प्रभावसे प्रभावित हैं। साथ ही,विजयचिन्हके रूपमें सुदर्शवचक्रका भी उसमें समावेश हो सकता है और प्रकारान्तरसे सूयकाभी,जो सब पर समानरूपसे अपना प्रकाश डालता है,स्फूर्ति-उत्साह-प्रदायक है और सबकी उन्नति-प्रगतिमे स ायक है। ___ झडेके तीन रंगोमें एक सफेद रंग भी है जो शुद्धिका प्रतीक है। वह यदि प्रात्मशुद्धिका प्रतीक होता तो उसे सर्वोपरि स्थान दिया माता, मध्यमें स्थान दिया जानेसे वह हृदय-शुद्धिका द्योतक बान पडता है-हृदयका स्थान भी शरीरके मध्यमे है। इस सफेद रगके मध्यमे ही अशोकचक्र अथवा विजयचक्रकी स्थापना की गई है, जिसका स्पष्ट आशय यह जान पडता है कि विजय अथवा अशोकका सम्बन्ध चित्तशुद्धिसे है -चित्तशुद्धिके बिना न तो स्थायी विजय मिलती है और न अशोक दशाकी ही प्राप्ति होती है । अस्तु ।
अब मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि भारतको यह जो कुछ स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है वह अभी तक बाह्य शत्रुप्रोसे ही प्राप्त हुई है-अन्तरग (भीतरी) शत्रुओंसे नहीं- और वह भी एक समझौतेके रूपमें । समझौतेके रूपमे इतनी बड़ी स्वतन्त्रताका मिलना इतिहासमें अभूतपूर्व समझा जाता है और उसका प्रधान श्रेय महात्मा गांधीजीके द्वारा राजनीतिमे अहिंसाके प्रवेशको प्राप्त है। इस विषयमें महात्माजीका कहना है कि जनताने अहिंसाको एक नीतिके रूपमें ऊपरी तौर पर अपनाया है उसका इतना फल है। यदि अहिंसाको हृदयसे पूरी तौर पर अपनाया होता तो स्वराज्य कमीका
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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झडा प्रौर कर्त्तव्य
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मिल जाता और वह स्थिर रहनेवाला स्वराज्य होता । यदि श्रहिसाको छोड दिया और हिंसाको अपनाया गया तो जो स्वराज्य आज प्राप्त हुआ है वह कल हाथसे निकल जायगा । श्रत इस समय सर्वोपरि प्रश्न प्राप्त हुई स्वतन्त्रताकी सुरक्षा तथा स्थिरताका है ।
जिस दिनसे यह स्वत त्रता मिली है उस दिनसे भीतरी शत्रुत्रोंने नौर भी जोरके साथ सिर उठाया है - जिधर देखो उधर मार-काट, लूट-खसोट, मन्दिर मूर्तियोकी तोडफोड और आग लगानेकी घटनाएँ हो रही हैं । इन घटनाओ को पहले पाकिस्तानने शुरू किया, पाकिस्तान गैर-मुसलिमोकी सपत्तिको छीनकर अथवा उसे नष्ट-भ्रष्ट करके ही सन्तुष्ट रहना नही चाहता बल्कि उनकी युवास्त्रियो तथा लडकियो से बलात्कार करने और उन्हें घर डालने तक प्रवृत्त हो रहा है शेष सबको बच्चो समेत कत्ल कर देने अथवा जबरन उनका धर्म परिवर्तन करनेके लिये उतारू है । और इस तरह गैर-मुमलमानोकी अथवा अपनी बोलीमें काफिरो की संख्याको एकदम कम कर देना चाहता है । चुनांचे अगर कोई किसी तरह भाग-बचकर किस की शरण में अथवा शरणार्थी शिविर मे पहुँच जाता है तो वहाँ तक उसका पीछा किया जाता है और हिन्दुस्तानमे आनेवाले शरहाथियोकी ट्रेनो, बसो तथा हवाई जहाजों तक पर हमला किया जाता है और कितने ही ऐसे मुसीबतज़दा बेघरबार एव निरपराधी शरणार्थियो को भी मौतके घाट उतार दिया जाता है | इस घोर अन्याय-अत्याचार और अमानुषिक व्यवहारकी खबरोसे सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है, बदलेकी भावनाएँ दिन-पर-दिन जोर पकडती जा रही है और लोग 'जैनको तैसा की नीति पर अमल करनेके लिये मजबूर हो रहे हैं सारा वातावरण क्षुब्ध और सशक बना हुआ है, कही भी अपने को कोई सुरक्षित नहीं समझता । कहाँ पर किस समय क्या होजाय, यहो आशका लोगोके हृदयोमे घर किये हुए है । सारा व्यापार चौपट है और किसीको भी जरा चैन नही है, इस तरह
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જરે
युगवीर-निबन्धावली
यह स्वतन्त्रता एक प्रकारका अभिशाप बन रही है और साधारण अदूरदर्शी एव अविवेकी लोगोको यह कहनेका अवसर मिल रहा है कि 'इस स्वतन्त्रतासे तो परतन्त्रता अच्छी थी' । इधर पास खड़े कुछ बाहरी शत्रु भी आगमे ईंधन डालकर उसे भडेका रहे हैं और इस बातकी फिकरमें है कि इन भारतवासियोको स्वराज्यके अयोग्य करार देकर फिरसे इनकी गर्दन पर सवारी की जाय-अपने निरकुश शासनका जूना उन पर रक्खा जाय ।
ऐसी हालतमे नेतामोका कार्य बडा ही कठिन और जटिल हो रहा है । उन्हें सुखकी नीद सोना तो दूर रहा, सुखपूर्वक सास लेनेका भी अवसर नही मिल रहा है। उनकी जो शक्ति रचना मक, व्यवस्थात्मक और देशको ऊपर उठानेके कार्यो में लगती और जिनसे उनकी असाधारण कालियत (योग्यता ) जानी जाती, वह आज इस व्यर्थके गृह कलह के पीछे उलझी हुई है । इसमे सन्देह नहीं कि पाकिस्तानने हिन्दुस्तान (भारत) के साथ विश्वासघात किया है
और नेताओको मस्त धोखा हुअा है, परन्तु इसमें भी मदेह नहीं है कि भारतके प० जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल-जैस नेता बडी तत्परताके साथ काम कर रहे हैं और उन्होने दिन-गत एक करके थोड़े ही ममयमें वह काम करके दिखलाया है जो अच्छे-अच्छे राजनीतिज्ञ और कार्यकुशल व्यक्तियोके लिये ईर्षाकी वस्तु हो सकती है । इस समय उनकी सारी शक्ति हिन्दू, सिख आदि शरणाथियोको पाकिस्तानसे निकालने और पूर्वी पजाबसे मुसलमान शररणार्थियोको सुरक्षितरूपमे पाकिस्तान भिजवानेमे लगी हुई है । वे हिन्दुस्तानमे पाकिस्तानकी पक्षपातपूर्ण और धर्माधि साम्प्रदायिक विद्वेषकी नीतिको किसी तरह भी अपनाना नहीं चाहते। उनकी दृष्टिमें सारी प्रजा-चाहे वह हिन्दू, मुसलमान, सिख, जैन, ईसाई, पारसी आदि कोई भी क्यो न हो-समान है और वह सभीके हितके लिये काम करके दुनियामे एक आदर्श उपस्थित करना चाहते हैं।
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भारतकी स्वतन्त्रता, उसका झडा और कर्त्तव्य ४२६ परन्तु इस गृह-कलहके,जिसके विष-बीज विदेशियोने चिरकालसे बो रक्खे हैं, दूर हुए बिना कुछ भी नहीं हो सकता। इसके लिये अन्तरङ्ग शत्रुप्रोसे युद्ध करके उनका नाश करना होगा । जब तक अन्तरङ्ग शत्रुप्रोका नाश नहीं होगा तब तक भारतको सच्ची स्वाधीनताकी प्राप्ति नही कही जा सकती और न उसे सुख-शान्तिकी प्राप्ति ही हो सकती है। परन्तु इन शत्रुप्रोका नाश उनके मारनेसे नहीं होगा बल्कि उनकी शत्रुताको मारनेसे होगा, जिसके लिये देशमें परस्पर प्रेम, सद्भाव और विश्वासकी भावनाप्रोके प्रचारकी और उसके द्वारा विद्वेषके उस विषको निकाल देनेकी अत्यन्त आवश्यकता है जो अधिकाश व्यक्तियोकी रगोमे समाया हुआ है। इसीके लिये नेतामोको जनताका सहयोग वाञ्छनीय है। वे चाहते हैं कि जनता प्रतिहिंसा अथवा बदलेकी भावनासे प्रेरित होकर कोई काम न करे और दहादिके कानूनको अपने हाथमे न लेवे । उसे प्रातताइयोसे अपनी जान और मालकी रक्षाका खुला अधिकार प्राप्त है और उस अधिकारको अमलमे लाते हुए, जरूरत पड़ने पर, वह आतताइयोकी जान भी ले सकती है, परन्तु किसी आततायीके अन्याय-अत्याचारका बदला उसकी जातिके निरपराध व्यक्तियो-बालबच्चो तथा स्त्रियो आदिको मारकर चुकाना उन्हें किसी तरह भी सहन नही हो सकता । बदलेकी ऐसो कार्रवाइयोसे शत्रुताकी आग उत्तरोत्तर बढती है, नेताओका कार्य कठिनसे कठिनतम हो जाता है और कभी शान्ति तथा सुव्यवस्था नही होपाती। बदलेकी ऐसी कार्रवाई करनेवाले एक प्रकारसे अपने ही दूसरे माझ्योकी हत्या और मुसीबतके कारण बनते हैं।
अतभारतकी स्वतन्त्रताको स्थिर-सुरक्षित रखने और उसके भविष्यको समुज्वल बनानेके लिये इस समय जनता तथा भारतहितैषियोका यह मुख्य कर्तव्य है कि वे अपने नेताओंको उनके कार्योंमें पूर्ण सहयोग प्रदान करें और ऐसा कोई भी कार्य न करे जिस
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युगवीर-निबन्धावली से नेताओका कार्य कठिन तथा जटिल बने । इसके लिये सबसे बड़ा प्रयत्न देशमें धर्मान्धता अथवा मजहबी पागलपनको दूर करके पारस्परिक प्रेम, सद्भाव, विश्वास और सहयोगकी भावनाप्रोको उत्पन्न करनेका है। इसीसे अन्तरङ्ग शत्रुनोंका नाश होकर देशमें शान्ति एव सुव्यवस्थाकी प्रतिष्ठा हो सकेगी और मिली हुई स्वतन्त्रता स्थिर रह सकेगी।
देशमें ऐसी सद्भावनानोको उत्पन्न करने और फैलानेका काम, मेरी रायमें, उन सच्चे साधुओंको अपने हाथमे लेना चाहिये जो सभी सम्प्रदायोमें थोड़े बहुत रूपमें पाये जाते हैं। उनके ऊपर देशका बहुत बडा ऋण है, जिसे उनको इस प्रकारकी सेवामो-द्वारा अब चुकाना चाहिये । इस समय उनकी सेवाओंकी खास जरूरत है, जिससे धर्मान्ध-गुरुओं और बहके हुए स्वार्थपरायण मौलवीमुल्लाओंके ग़लत प्रचारसे व्याप्त हुए विषको देशकी रगोसे निकाला जा सके। उन्हें वर्तमानमें आत्म-साधनाको भी गौरण करके लोकसेवाके मैदानमें उतर आना चाहिये, महात्मा गाधीकी तरह सच्चे दिलसे निर्भय होकर अपेक्षित सेवाकार्योंमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये और यह समझ लेना चाहिये कि देशका वातावरण शान्त हुए बिना वे प्रात्म-साधना तो क्या, कोई भी धर्मसाधनका कार्य नहीं कर सकेगे। अपनी सेवाओं द्वारा वे लोकके धर्मसाधनमें तथा
आजकलकी हवामें सच्चे धर्मसे च्युत हुए प्राणियोंको सन्मार्ग दिखानेमें बहुत कुछ सहायक हो सकेगे। और इसलिये उनका इस समय यह सर्वोपरि कर्तव्य है । यदि ऐसे कर्तव्यपरायण सत्साधुमोंकी टोलियोकी टोलियाँ देशमें घूमने लगें तो देशका दूषित वातावरण शीघ्र ही शुद्ध तथा स्वच्छ हो सकता है । आशा है सत्साधु. मोंका ध्यान जरूर इस प्रोर जायगा और वे अपने वर्तमान कर्तव्यको समझकर नेताओंको अपना वास्तविक सहयोग प्रदान करनेमें कोई बात उठा नहीं रक्मे। '
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महावीरका सर्वोदय-तीर्थ
, विक्रमकी प्राय दूसरी शताब्दीके महान् विद्वान् प्राचार्य स्वामी समन्तभद्रने अपने 'युक्त्यनुशासन'ग्रन्थमें, जो कि प्राप्त कहे जानेवाले समस्त तीर्थप्रवर्तकोकी परीक्षा करके और उस परीक्षा-द्वारा श्री. महावीर-जिनको सत्यार्थ प्राप्तके रूपमे निश्चित करके तदनतर उनकी स्तुतिके रूपमे लिखा गया है, महावीर भगवान्को (मोहनीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामके चार घातिया कर्मोंका प्रभाव हो जानेसे) अतुलित-शान्तिके साथ शुद्धि और शक्तिके उदयकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुआ एव ब्रह्मपथका नेता लिखा है और इसीलिये उन्हें 'महान्' बतलाया है। साथ ही उनके अनेकान्त-शासन (मत) के विषयमें लिखा है कि 'वह दया (अहिंसा),दम (सयम), त्याग (परिप्रह-त्यजन)और समाधि (प्रशस्त ध्यान) की निष्ठा-त परताको लिये हुए है, नयों तथा प्रमाणोके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट सुनिश्चित करनेवाला है और (अनेकान्तवादसे भिन्न) दूसरे सभी प्रवादोंके द्वारा अबाध्य है-कोई भी उसके विषयको खडित अथवा दूषित करने में समर्थ नहीं है। यही सब उसकी विशेषता है और इसीलिये वह अद्वितीय है।' जैसा कि ग्रन्थको निम्न दो कारिकाओंसे प्रकट है.व शुद्धि-शक्त्योदयस्य काष्ठां तुलाव्यतीता जिन शान्तिरूपाम् । पास्थि ब्रह्मपथस्य नेता महानितीयत्प्रतिवक्तुमीशाः ॥४॥
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युगवीर निबन्धावली दया दम त्याग-समाधि-निष्ठ, नय-प्रमाण-प्रकृताजसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलै प्रवादैनिन । त्वदीयं मनद्वितीयम् ॥६॥
इनसे अगली कारिकाप्रोमे सूत्ररूपसे वरिणत इस वीरशासनके मह वको और उसके द्वारा वीर-जिनेन्द्रकी महानताको स्पष्ट करके बतलाया गया है-खास तौरसे यह प्रदर्शित किया गया है कि वीर-जिन-द्वारा इस शासनमे वर्णित वस्तुतत्त्व कैसे नय-प्रमाणके द्वारा निर्बाध सिद्ध होता है और दूसरे सर्वथैकान्त-शासनोमे निर्दिष्ट हुआ वस्तुतत्त्व किस प्रकारसे प्रमारणबाधित तथा अपने अस्तित्वको ही सिद्ध करनेमे असमर्थ पाया जाता है। सारा विषय विज्ञ-पाठकोंके लिये बडा ही रोचक और वीरजिनेन्द्रकी कीतिको दिग्दिगन्तब्यापिनी बनानेवाला है। इसमें प्रधान-प्रधान दर्शनो और उनके अवान्तर कितने ही वादोका सूत्र अथवा संकेतादिके रूपमे बहुत कुछ निर्देश
और विवेक आगया है। यह विषय ३९ वी कारिका तक चलता रहा है। इस कारिकाकी टीकाके अन्तमें 8 वीं शताब्दीके विद्वान श्रीविद्यानन्दाचार्यने वहां तकके वरिणत विषयकी संक्षेपमें सूचना करते हुए लिखा है - स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्यानि शेषत सम्प्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवी काष्ठां परामाश्रिताम् । निर्णीत मतमद्वितीयममल सक्षेपतोऽपाकृत तदुबाह्य वितथ मतं च सकल सद्धीधनबुध्यताम् ।।
अर्थात्-यहाँ तकके इस युक्त्यनुशासनस्तोत्रमें शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीर-जिनेन्द्र के अनेकान्तात्मक स्याद्वादमत (शासन ) को पूर्णत निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाह्य जो सर्वथा एकान्तके प्रायहको लिये हुए मिथ्यामतोंका समूह है उस सबका संक्षेपमें निराकरण किया गया है, यह गात सद्बुद्धिशालियोको भले प्रकार समझ लेनी चाहिये।
इसके मागे, अन्यके उत्तरार्धमे, वीरशासन-वर्णित तत्वज्ञानके
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महावीरका सर्वोदयतीर्थ मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोको स्पष्ट करके बतलाया गया है जो ग्रन्थकार-महोदय स्वामी समन्तभद्रसे पूर्वके ग्रन्थोमे प्राय नहीं पाई जाती, जिनमें 'एव' तथा 'स्यात्' शब्दके प्रयोग अप्रयोगके रहस्यकी बाते भी शामिल हैं और जिन सबसे महावीरके तत्त्वज्ञानको समझने तथा परखनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है। महावीरके इस अनेकान्तात्मक शामन ( प्रवचन) को ही ग्रन्थमें 'मर्वोदयतीर्थ' बतलाया है--ससार-समुद्रसे पार उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा मार्ग सूचित किया है जिसका आश्रय लेकर सभी भव्यजीव पार उतर जाते हैं और जो सबोके उदय-उत्कर्षमे भयवा आत्माके पूर्ण विकासमें परम सहायक है। इस विषयकी पारिका निम्न प्रकार हैसर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य करूप मन्ति-शून्य च मिथाऽनपेक्षम् । मर्वापदामन्तकर निग्न्त सर्वोदय तीर्थामद तवैव ॥६॥
इसमे स्वामी समन्तभद्र भगवान महावीरकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि- (हे भगवन् ।) प्रापका यह तीथ - प्रवचनरूप शासन या परमागमवाक्य, जिसके द्वारा दुखमय ससार-समुद्रको तिरा जाता है-सर्वान्तवान् है- सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधिनिषेध ( भाव अभाव ), एक-अनेक (अद्वैत द्वत), नित्य-क्षणिक आदि प्रशेष धर्मोको लिये हुए है, एकान्तत किसी एक ही धमको अपना विषय किये हुए नहीं है - और गोरण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुए है-एक धर्म किसी समय मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है, जो गौण है वह निरात्मक नहीं होता और जो मुख्य हैं उसस व्यवहार चलता है, इसीसे सब धर्म सुव्यवस्थित हैं, उनमे असगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है। जो शासन-वाक्य धर्मोंमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता-उन्हे सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है-वह सर्वधर्मोसे शून्य है-उसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-व्यवस्था
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युगवीर-नबन्धावली ही ठीक बैठ सकती है। अत आपका ही यह शासनतीर्थ सब दुःखोका अन्त करनेवाला है, यही निरन्त है-किमी भी सर्वथकान्तात्मक मिथ्यादर्शनके द्वारा खडनीय नही है--और यही सब प्राणियोके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा 'सर्वोदयतीर्थ है-- जो शासन सर्वथा एकान्तपक्षको लिये हुए हैं उनमेसे कोई भी सर्वोदयतीर्थ' पदके योग्य नहीं हो सकता।'
यहाँ 'मर्वोदयतीथ' यह पद मर्व, उदय और तीर्थ इन तीन शब्दोसे मिलकर बना है। 'मव' शब्द मब तथा पूर्णका वाचक है, 'उदय' ऊंचे-ऊपर उठने, उत्कर्ष प्राप्त करने, प्रकट होने अथवा विकासको कहते हैं, और 'तीथ' उसका नाम है जिसके निमित्तसे ससारमहामागरको तिरा जाय ' । वह तीर्थ वास्तवमें धर्मतीर्थ है जिसका सम्बन्ध जीवात्मासे है उसकी प्रवृत्तिमे निमित्तभूत जो
आगम अथवा प्राप्तवाक्य है वही यहाँ तीर्थ' शब्दके द्वारा परिग्रहीत है। और इसलिये इन तीनो दशब्दोके मामासिक योगसे बने हुए 'सर्वोदयतीथ' पदका फलितार्थ यह है कि-- जो आगमवाक्य जीवात्माके पूण उदय-उत्कर्ष अथवा विकाममे तथा मब जीवोके उदयउत्कर्ष अथवा विकाममे महायव है वह 'सर्वोदयतीथ' है। प्रात्माका उदय-उत्कष अथवा विकास उसके ज्ञान-दर्शन-मुखादिक स्वाभाविक गुणोका ही उदय उत्कष अथवा विकाम है। और गुरगोका वह उदयउत्कर्ष अथवा विकाम दोषोके अस्त-अपकष अथवा विनाशके बिना नही होता। अत सर्वोदयतीर्थ जहाँ ज्ञानादि गुणोके विकासमे सहा. यक है वहाँ अज्ञानादि दोषो तथा उनके कारण ज्ञानावरणादिक कर्मोंके विनाशमे भी सहायक है--वह उन सब रुकावटोको दूर करने. की व्यवस्था करता है जो किसीके विकासमे बाधा डालती हैं । यह
१ 'तरनि ममारमहार्णव येन निमित्तेन तत्तीर्थमिति' -विद्यानन्द
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महावीरका सर्वोदयतोर्थ
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तीर्थको सर्वोदयका निमित्त कारण बतलाया गया है । तव उसका उपादान कारण कौन है ? उपादान कारण वे सम्यग्दर्शनादि श्रात्मगुरण ही हैं जो तीर्थका निमित्त पाकर मिथ्यादर्शनादिके दूर होने पर स्वय विकासको प्राप्त होते हैं । इस दृष्टिसे 'सर्वोदयतीर्थ' पदका एक दूसरा अर्थ भी किया जाता है और वह यह कि 'समस्त अभ्युदयकाररणोका - सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप त्रिरन-धर्मोका जो हेतु है- उनकी उत्पत्ति अभिवृद्धि ग्रादिमे ( सहायक ) निमित्त - कारण है - वह 'सर्वोदयतीर्थ' है ' । इस दृष्टिसे ही, कारणमे कार्यका उपचार करके इस तीर्थको धमतीथ कहा जाता है और इसी दृष्टिसे वीर जिनेन्द्रको घर्मतीर्थका कर्ता (प्रवर्तक) लिखा है, जैसा कि हवी शताब्दीकी बनी हुई 'जयववला' नामकी सिद्धान्तटीकामे उद्धृत निम्न प्राचीन गाथासे प्रकट है
स्सिमयकरो वोरो महावीरा जिगुत्तमी । राग-दोम-भयादीदो धम्मतित्यस्म कारश्र ॥
इस गाथामे वीर - जिनको जो 'नि सशयकर' - ससारी प्राणियोके सन्देहोको दूर कर उन्हे सन्देहरहित करनेवाला -- 'महावीर ' - ज्ञानवचनादिकी सातिशय-शक्ति से सम्पन्न - जिनोत्तम - जितेन्द्रियो तथा कर्मजेताश्रमे श्रेष्ठ और 'रागद्वेष-भयसे रहित' बतलाया है वह उनके घर्मतीथ - प्रवर्तक होने के उपयुक्त ही है । बिना ऐसे गुणोकी सम्पत्ति से युक्त हुए कोई सच्चे धर्मतीर्थका प्रवर्तक हो ही नही सकता। यही वजह है कि जो ज्ञानादिशक्तियोंसे हीन होकर रागद्वेषादिसे अभिभूत एव आकुलित रहे है उनके द्वारा सवथा एकान्तशासनो -- मिथ्यादर्शनोका ही प्रणयन हुआ है, जो जगतमे अनेक भूलभ्रान्तियो एव दृष्टिविकारोको जन्म देकर दु खोके जालको विस्तृत
१. 'सर्वेषामभ्युदय काररगाना सम्यग्दशनज्ञानचारित्रभेदाना हेतुत्वादभ्युदयहेतुत्वोपपत्ते ।' -विद्यानन्द
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युगवार-निबन्धावलो करनेमे ही प्रधान कारण बने है । सर्वथा एकान्तशासन किस प्रकार दोषोसे परिपूर्ण हैं और वे कैसे दुखोंके विस्तारमे कारण बने हैं इस विषयकी चर्चाका यहाँ अवसर नहीं है । इसके लिये स्वामी समन्तभद्रके देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र जैसे ग्रन्थों तथा अष्ट-सहस्री जैसी टीकाप्रोको और सिद्धसेन प्रकलकदेव, विद्यानन्द आदि महान् प्राचार्योंके तर्कप्रधान प्रन्योंको देखना चाहिये। । यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि जो तीर्थसासन-सर्वान्तवान् नही-सर्वधोंको लिये हुए और उनका समन्वय अपनेमें किये हुए नहीं है-वह सबका उदयकारक अथवा पूर्ण-उदयविधायक हो ही नहीं सकता और न सबके सब दुखोंकन अन्त करनेवाला ही बन सकता है, क्योंकि वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक है-अनेकानेकगुणो-धर्मोको लिये हुए है । जो लोग उसके किसी एक ही गुण-धर्म पर दृष्टि डालकर उसे उसी एक रूपमें देखते और प्रतिपादन करते हैं उनकी दृष्टियां उन जम्मान्ध पुरुषोकी दृष्टियोंके समान एकागी हैं जो हाथीके एक-एक अगको पक्डकर-देखकर उसी एक-एक अगके रूपमें हाथीका प्रतिपादन करते थे, और इस तरह परस्परमे लडेते, झगडते, कलहका बीज बोते और एक दूसरेके दुःखका कारण बने हुए थे। उन्हे हाथीके सब अगो पर दृष्टि रखनेवाले सुनेत्र पुरुषने उनकी भूल सुमाई थी और यह कहते हुए उनका विरोध मिटाया था कि 'तुमने हाथीके एक-एक अगको ले रवखा है, तुम सब मिल जानो तो हाथी बन जाय-तुम्हारे अलग-अलग कथनके अनुरूप हाथी कोई चीज नहीं है। और इसलिये जो वस्तुके सब अगो पर दृष्टि डालता है उसे सब मोरसे देखता और उसके सब गुण-धर्मोको पहचानता है-वह वस्तुको पूर्ण तथा यथार्थ रूपमें देखता है, उसकी दृष्टि अनेकान्तदृष्टि है और यह अनेकान्तदृष्टि ही सती अथवा सम्यग्दृष्टि कहलाती है और यही संसारमें वर-विरोध
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महावीरका सर्वोदयतीर्थ
४३७ को मिटाकर सुख-शान्तिकी स्थापना करनेमे समर्थ है। इसीसे श्रीअमतचद्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायमे अनेकान्तको विरोधका मथन करनेवाला कहकर उसे नमस्कार किया है । और श्रीसिद्धसेनाचार्यने 'सम्मइसुत्त में यह बतलाते हुए कि अनकान्तके बिना लोकका कोई भी व्यवहार सर्वथा बन नही सकता, उसे लोकका अद्वितीय गुरु कहकर नमस्कार किया है ।
सिद्धसेनका यह कहना कि 'अनेकान्त' के बिना लोकका व्यवहार सर्वथा बन नही सकता सोलहो पाने सत्य है। सर्वथा एकान्तवादियो के सामने भी लोक-व्यवहारके वन न सकनेकी यह समस्या रही है और उसे हल करने तथा लोक-व्यवहारको बनाये रखनेके लिये उन्हें माया, विद्या, सवृति जैसी कुछ दूसरी कल्पनाये करनी पड़ी हैं अथवा यो कहिये कि अपने सर्वथा एकान्तसिद्धान्तके छप्परको सम्भालनेके लिये उसके नीचे तरह-तरहकी टेवकियाँ ( थानयों) लगानी पडी हैं, परन्तु फिर भी वे उसे सम्भाल नही सके पौर न अपने सवथा-एकान्त सिद्धान्तको किसी दूसरी तरह प्रतिष्ठित करनेमें ही समर्थ हो सके हैं। उदाहरण के लिये अद्वैत एकान्तवादको लीजिये, ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्मके सिवाय दूसरे किसी भी पदार्थका अस्तित्व नहीं मानते-सर्वथा अभेदवादका ही प्रतिपादन करते हैंउनके सामने जब साक्षात् दिखाई देनेवाले पदार्थ-भेदो, कारक क्रियाभेदो तथा विभिन्न लोक-व्यवहारोकी बात आई तो उन्होने कह दिया कि ये मब मायाजन्य हैं अर्थात् मायाकी कल्पना करके प्रत्यक्षमे दिखाई पडनेवाले सब भेदो तथा लोक-व्यवहारोका भार
१ परमागमस्य बीज निषिद्ध-जान्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् ।
सकल-नय-विलसिताना विरोधमथन नमाम्यनेकान्तम् ।। २ जेण विरणा लोगस्स वि ववहारो मव्वहा ग रिणव्वडइ ।
तस्स भुवरणेक्कगुरुरणो णमो अरोगतवायस्स ।।६१॥
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युगवीर - निबन्धावली
उसके ऊपर रख दिया । परन्तु यह माया क्या बला है और वह सत्रूप है या ग्रसत्रूप, इसको स्पष्ट करके नही बतलाया गया । माया यदि असत् है तो वह कोई वस्तु न होनेसे किसी भी कार्य के करनेमे समर्थ नही हो सकती। और यदि सत् है तो वह ब्रह्मसे भिन्न है या भिन्न है ? यह प्रश्न खडा होता है । अभिन्न होनेकी हालतमे ब्रह्म भो मायारूप मिथ्या ठहरता है और भिन्न होने पर माया और ब्रह्म दो जुदी वस्तुएँ होनेसे द्वैतापत्ति होकर सर्वथा श्रद्वैतवादका सिद्धान्त बाधित हो जाता है। यदि हेतुसे अद्वैतको सिद्ध किया जाता है तो हेतु र साध्यके दा होनेसे भी द्वैतापत्ति होती है और हेतुके बिना वचनमात्रसे सिद्धि मानने पर उस वचनसे भी द्वैतापत्ति हो जाती है। इसके सिवाय, द्वैतके बिना अद्वैत कहना बनता ही नही, जैसे कि हेतुके बिना अहेतुका और हिसाके विना अहिसाका प्रयोग नही बनता | अद्वैतमे द्वैतका निषेध है, यदि द्वैत नामकी कोई वस्तु नही तो उसका निषेध भी नही बनता, द्वैतका निषेध होनेसे उसका अस्तित्व स्वत: सिद्ध हो जाता है। इस तरह सर्वथा अद्वेतबादकी मान्यताका विधान सिद्धान्त-बाधित ठहरता है, वह अपने स्वरूपको प्रतिष्ठित करनेमे स्वय असमर्थ है और उसके आधार पर कोई लोकव्यवहार सुघटित नही हो सकता। दूसरे सत्-असत् तथा नि यक्षरिकादि सवथा एकान्त-वादोकी भी ऐसी ही स्थिति है, वे भी अपने स्वरूपको प्रतिष्ठित करनेमे असमय है और उनके द्वारा भी अपने स्वरुपको बाधा पहुँचाये बिना लोक व्यवहारकी कोई व्यवस्था नही बन सकती ।
श्री सिद्धसेनाचायने अपने सन्मतिसूत्रमे कपिलके साख्यदर्शनको द्रव्याथिक का वक्तव्य, शुद्धोधनपुत्र बुद्धके बौद्धदशनको परिशुद्ध पर्यायार्थिक नया विकल्प और उलूक ( करणाद) के वैशेषिकदर्शनको उक्त दोनो नयोका वक्तव्य होने पर भी पारस्परिक निरपेक्षताके कारण 'मिथ्यात्व' बतलाया है और उसके अनन्तर लिखा है:
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महावीरका सर्वोदयतीर्थ
जे सतवाय-दोसे सक्कोलूया भरणति सखा । मखाय सव्वा तेसिं सच्चे वित सच्चा ॥ ५० ॥ ते उ भयरणोवणीया सम्म सरणमगुत्तर हॉति । ज भवदुक्खविमोक्ख दो विण पूति पाक्क् ि॥ ५१ ॥ 'साख्यो के सद्वादपक्षमे बोद्ध और वैशेषिक जन जो दोष देते है तथा बौद्धो और वैशेषिकों के प्रसद्वादपक्षमे साख्यजन जो दोष देते हैं वे सब सत्य है - सर्वथा एकान्तवादमे वैसे दोष आते ही है । ये दोनो सद्वाद और प्रसद्वाद दृष्टियाँ यदि एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुए सयोजित हो जॉय समन्वयपूर्वक अनेकान्तदृष्टि परिणत हो नांय तो सर्वोत्तम सम्यग्दर्शन बनता है, क्योकि ये सत्-असत् रूप दोनो दृष्टियाँ अलग-अलग ससारके दु खोसे छुटकारा दिलानेमे समर्थ नही हैं - दोनोके सापेक्ष मयोगसे ही एक-दूसरे की कमी दूर होकर ससार के दुखोसे मुक्ति एवं शान्ति मिल सकती है ।"
इस सब कथन परसे मिथ्यादर्शनों और सम्यग्दर्शनोका तत्त्व सहज ही समझमे आ जाता है और यह मालूम हो जाता है कि कैसे सभी मिथ्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शन के रूपमे परिणत हो जाते है । मिथ्यादर्शन प्रथवा जेनेतरदर्शन जब तक अपने अपने वक्तव्यके प्रतिपादनमे एकान्तताको अपनाकर पर विरोधका लक्ष्य रखते है तब तक सम्यग्दर्शनमे परिणत नही होते और जब पर- विरोधका लक्ष्य छोडकर पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते हैं तभी सम्यग्दर्शनमे परिरगत हो जाते है, और 'जैनदर्शन' कहलाने के योग्य होते हैं। जैनदर्शन अपने अनेकान्तात्मक स्याद्वाद न्यायके द्वारा समन्वयको दृष्टिको लिये हुए है - समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है न कि विरोध, और इसलिये सभी मिथ्यादर्शन अपने-अपने विरोध को भुलाकर उसमे समा जाते है । इसीसे सन्मति सूत्रकी प्रतिम गाथा - मे जिनवचन - रूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मंगलकामना करते हुए उसे 'मिथ्यादर्शनोका समूहमय' बतलाया है, जो इस प्रकार है
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युगवीर-निबन्धावलो भद्द मिच्छादसणसमूहमइयम्म अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवत्रो सविग्ग-सुहाहिगम्मस्म ।।5।।
इसमे जिनवचनरूप जैनदर्शन (जिनशासन) के तीन खास विशेषरगोका उल्लेख किया गया है-पहला विशेषरण 'मिथ्यादशनसमूहमय', दूसरा अमृतसार' और तीसरा 'सविग्नसुखादिगम्य' है । मिथ्यादर्शनोका समूह होते हुए भी वह मिथ्यास्वरूप नही है, यही उसकी मर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्षनय. वादमे सन्निहित है- सापेक्षनय मिथ्या नहीं होते, निरपेक्षनय ही मिथ्या होते है, जैसा कि स्वामी समन्तभद्र-प्रणीत देवागमके निम्न वाक्यमे प्रकट है -
मिथ्या-समूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यकान्तताऽस्ति न । निरपेक्षा नया मिरया सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ।।
महावीरजिनके सर्वधर्मसमन्वयकारक उदार शासनमे सदअसत् तथा नित्य-क्षणिकादिरूप वे सब नय-धर्म जो निरपेक्षरूपमें अलग-अलग रहकर अतत्वका रूप धारण किये हुए स्व-पर-घातक होते है वे ही सब सापेक्ष ( अविरोध ) रूपमें मिलकर तत्त्वका रूप धारण किये हए स्व-पर-उपकारी बने हए हैं। तथा आश्रय पाकर बन जाते है और इसलिये स्वामी समन्तभद्रने युक्त्यनुशासनकी उक्त (६१ वी) कारिकामे वीरशासनको जो सर्वधर्मवान् , सर्वदुःख प्रणाशक और मर्वोदयतीर्थ बतलाया है वह बिल्कुल ठीक तथा उसकी प्रकृतिके सर्वथा अनुकूल है। महावीरका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयो (परस्पर निरपेक्षनयो) अथवा मिथ्यादर्शनोका अन्त (निरमन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्त
१ “य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षा स्व-परप्ररणाशिन । त एव तत्त्व विमलस्य ते मुने परस्परेक्षा स्व-परोपकारिण ॥"
- स्वयम्भूस्तोत्र
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महावीरका सर्वोदयतीर्थ
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बादरूप मिथ्यादर्शन ही ससारमे अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुखरूप प्रापदान के कारण होते है । अत जो लोग भगवानमहावीरके शासनका उनके धर्मतीर्थका -- सचमुच आश्रय लेते हैं- उसे ठीक तौर पर अथवा पूर्णतया अपनाते हैं - उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दु ख यथासाध्य मिट जाते हैं । और वे इस धर्म प्रसादसे अपना पूर्ण अभ्युदय -- उत्कर्ष एव विकास - नक सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं ।
महावीरकी प्रोरसे इस धर्मतीथका द्वार सबके लिये खुला हुआ है, जिसकी सूचक गणित कथाएँ जैनशास्त्रोमें पाई जाती हैं और जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पतितसे पतित प्राणियों ने मी इस धर्मका आश्रय लेकर अपना उद्धार और कल्याण किया है, उन सब कथाप्रोको छोड कर यहाँ पर जनयन्थोके सिफ कुछ विधि-वाक्योको ही प्रकट किया जाता है जिससे उन लोगोका समाधान हो जो इस तीर्थको केवल अपना ही साम्प्रदायिक तीर्थ और एकमात्र अपने ही लिये अवतरित हुआ समझ बैठे है तथा दूसरोंके लिये इस तीर्थसे लाभ उठानेमें अनेक प्रकार से बाधक बने हुए हैं । वे वाक्य इस प्रकार है
(१) मनोवाक्कायधर्माय मता सर्वेऽपि जन्तव । - - यशस्तिलक (२) उच्चाऽवच - जनप्राय समयोऽय जिनेशिनाम् ।
नैकस्मिन्पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालय ॥" - यशस्तिलक (३) श्राचाराऽनवद्यत्व शुचिरुपस्कार शरीरशुद्धिश्च करोति शूद्रानपि देव द्विजाति-तपस्वि-परिकर्मसु योग्यान् । -नीतिवाक्यामृत
(४) शूद्रोऽप्युपस्कराऽऽचार-वपु शुद्धयाऽस्तु तादृश' । जात्या होनोपि काला दिलब्धौ ह्यात्माऽस्ति धर्मभाकू ।। —सागारधर्मामृत
(५) एहु धम्मु जो धायर बभगु सुदु वि कोइ ।
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युगवीर-निबन्धावली
सो सावज किमावयह प्राणु किमिरि मर्माण होई 1
- सावमधम्मदोहा इन सब वाक्योका आशय क्रमसे इस प्रकार है --
(१) 'मन, वचन तथा कायसे किये जानेवाले धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये सभी जीव अधिकारी हैं।' (यशस्तिलक)
(२) 'जिनेन्द्रका यह धर्म प्राय ऊंच और नीच दोनो ही प्रकारके मनुष्योंके आश्रित है। एक स्तम्भके आधार पर जैसे मन्दिर-मकान नही ठहरता उसी प्रकार ऊँच-नीचमेसे किसी एक ही प्रकारके मनुष्यसमूहके आधार पर धर्म ठहरा हुया नहीं है-वास्तवमे धर्म धार्मिकोके आश्रित होता है, भले ही उनमे ज्ञान, धन मान प्रतिष्ठा कुल-जाति, आज्ञा-ऐश्वर्य गरीर, बल, उत्पत्तिस्थान और आचार-विचाराादकी दृष्टि से कोई ऊंचा और कोई नीचा हो।' (यशस्तिलक)
(३) मद्य मासादिके त्यागरूप प्राचारको निर्दोषता, गृहपात्रादिकी पवित्रता और नि यस्नानादिके द्वारा शरीरकी शुद्धि, ये तीनों प्रवृत्तियाँ (विधियां ) शूद्रोको भी देव, द्विजाति और तपस्वियों (मुनियो) के परिकर्मोके योग्य बनाती हैं।' (नोतिवाक्यामृत)
(४) 'आसन और बर्तन आदि उपकरण जिसके शुद्ध हों, मद्यमासादिके त्यागसे जिसका आचरण पवित्र हो और नित्यस्नानादिके द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मरणादिक वर्गों के समान धर्मका पालन करनेके योग्य है, क्योकि जातिसे हीन आत्मा भी कालादिक लब्धिको पाकर धर्मका अधिकारी होता है।' (सागारधर्मामृत)
(५) 'इस (श्रावक ) धर्मका जो कोई भी आचरण-पालन करता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र, वह श्रावक है। श्रावकके सिर पर और क्या कोई मरिण होता है ? जिससे उसकी पहचान की जा सके।' (सावयधम्मदोहा)
नीच-से-नीच कहा जानेवाला मनुष्य भी जो इस धर्मप्रवर्तककी
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महावीरका सर्वोदयतीथ शरणमे पाकर नतमस्तक हो जाता है-प्रसन्नतापूर्वक उसके द्वारा प्रवर्तित धर्मको धारण करता है वह इसी लोकमे अति उच्च बन जाता है । इस धर्मकी दृष्टिमें कोई जाति गहित नही-तिरस्कार किये जानेके योग्य नही-सर्वत्र गुणोकी पूज्यता है, वे ही कल्याणकारी है, और इसीसे इस धर्ममे एक चाण्डालको भी व्रतसे युक्त होने पर 'ब्राह्मण' तथा सम्यग्दर्शनसे युक्त होने पर 'देव' (आराध्य) माना गया है और चाण्डालको किमी साधारण धर्म क्रियाका ही नही किन्तु 'उत्तमधर्म' का अधिकारी मूचित किया है, जैसा कि निम्न पार्ष वाक्योसे प्राट है --- यो लोके त्वा नत मोऽतिहीनोऽप्यतिगुमर्यन ।। बालोऽपि त्वा श्रित नौनि को नो नीतिपुर कृत ॥ स्तुतिविद्या ८३॥ न जातिगेहिता काचिद् गुणा कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाहाल त देवा ब्राह्मण विदु ।। पद्मचरित ११-२०३ ।। सम्यग्दर्शन-सम्पन्नमपि मातङ्गदेह जम् ।। देवा देव विदुर्भस्म-गृढागारान्तगैजसम् ॥ रत्नकरण्ड २८॥ चाण्डालो वि सरिंदो उत्तमधम्मेण सभवदि । (कातिके यानप्रेक्षा)
वीरका यह धर्मतीथ इन ब्राह्मरणादि जाति-भेदोको तथा दूसरे चाडालादि विशेषोको वास्तविक नहीं मानता किन्तु वृत्ति अथवा प्राचार भेदके आधार पर कल्पित एव परिवर्तनशील जानता है। साथ ही यह स्वीकार कता है कि अपने योग्य गुणोकी उत्पत्ति पर जाति उत्पन्न होती है, उनके नाम पर नष्ट हो जाती है और वर्णव्यवस्था गुणकर्मोके आधार पर है न कि जन्मके । यथा - चातुर्वण्य यथाऽन्यच्च चाण्डालादिविशेषगणम् । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ।। पारित ११-२०५ ॥ प्राचारमात्रभेदेन जातीना भेदकल्पनम् । न जातिब्राह्मणीयाऽस्ति नियता काऽपि ताविकी ॥१७-२४॥ गुणै सम्पद्यते जातिगुणध्वसैविपद्यते ।। धर्मपरीक्षा १७-३२ ।।
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युगवीर निबन्धावली तस्माद्गुणवर्ण-व्यवस्थिति ॥ पद्यचरित ११-१६८॥ क्रियाविशेषादिनिबन्धन एव ब्राह्मणादिव्यवहार. (प्रमेयकमलमातंण्ड)
इस धर्ममे यह भी बतलाया गया है कि इन ब्राह्मणादि जातियोका प्राकृति आदिके भेदको लिये हुए कोई शाश्वत लक्षण भी गोअश्वादि जातियोकी तरह मनुष्य-शरीरमे नहीं पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी आदिमे गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जाति-भेदके विरुद्ध है। इसी तरह जारजका मी कोई चिन्ह शरीरमे नहीं होता, जिससे उसकी कोई जुदी जाति कल्पित की जाय, और न केवल व्यभिचारजात होनेकी वजहसे ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता है--नीचताका कारण इस तीर्थधममें 'अनार्य आचरण' अथवा 'म्लेच्छाचार' माना गया है। इस दोनो बातोके निर्देशक दो वाक्य इस प्रकार है ---
वर्णाकृत्यादिभेदाना देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिष शूद्राद्यै गर्भाधानप्रवर्तनात् ॥ नास्ति जाति-कृतो भेदो मनुष्याणा गवाऽश्ववत् ।
आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते। (महापुराण) चिह्नानि विटजातस्य सन्ति नाऽमोष कानिचित् । अनार्यमाचग्न किंचिज्जायते नीचगोचर ॥ .
-पद्मचरिते, रविषेरणाचार्य. वस्तुत मब मनुष्योकी एक ही मनुष्यजाति इस धर्मको अभीष्ट है, जो 'मनुष्यजाति' नामक नामकर्मके उदयसे होती है, और इसी ष्टिसे सब मनुष्य समान है-आपसमे भाई-भाई हैं और उन्हें स धर्मके द्वारा अपने विकासका पूरा अधिकार प्राप्त है । जैसा कि नम्न वाक्योंसे प्रकट है -
मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताझेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ।।३८-४५।।
-प्रादिपुगणे, जिनसेनाचार्य
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महावीरका सर्वोदयतीर्थ विप्र-क्षत्रिय-विट-शूद्रा' प्रोक्ता क्रियाविशेषत । जैनधर्मे परा' शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमा | -धर्म रसिक
इसके सिवाय, किसीके कुलमे कभी कोई दोष लग गया हो तो उसकी शुद्धि की, और म्लेच्छो तककी कुलशुद्धि करके उन्हे अपनेमे मिलाने तथा मुनिदीक्षा आदिके द्वारा ऊपर उठानेकी स्पष्ट प्राज्ञाएँ भी इस धर्मशासनमें पाई जाती हैं । और इसलिये यह शासन
* जैसा कि निम्न वाक्योमे प्रकट है - १ कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्त-दूषणम् ।
सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्व यदा कुलम् ।। ४०-१६८।। तदास्योपनयाहत्व पुत्र-पौत्रादि-सन्ततौ ।।
न निषिद्ध हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजा ॥४०-१६९।। २. स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान्प्रजा-बाधा-विधायिन । कुलशुद्धि-प्रदानाद्य' स्वसाकुर्यादुपक्रम ॥४२-१७४।।
-आदिपुराणे, जिनसेनाचार्य ३ "म्लेच्छभूमिजमनुष्याणा सकलसयमग्रहण कथ भवतीति नाऽऽशकितव्य। दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह प्रार्यखडमागताना म्लेच्छराजाना चक्रवादिभि सह जातवैवाहिकसम्बन्धाना सयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा त कन्यकाना चक्रवर्त्यादिपरिणीताना गर्भषत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छ-व्यपदेशभाज संयमसमवात् तथाजातीयकाना दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात् ।।" ।
--लब्धिसारटीका (गाथा १६३ वी) नोट- यहाँ म्लेच्छोकी दीक्षा-योग्यता, सकलमयमग्रहणकी पात्रता मौर उन साथ वैवाहिक सम्बन्ध आदिका जो विधान किया है वह सब कसायपाहडकी 'जयधवला' टीकामे भी, जो लब्धिसारटीकासे कईमौ वर्ष पहलेकी (हवी शताब्दीकी) रचना है, इसी क्रमसे प्राकृत जौर सस्कृत भाषामे दिया है । जैसा कि उसके निम्न शब्दोमेप्रकट है -
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युगवीर-निबन्धावली सचमुच ही 'मर्वोदयतीर्थ' के पदको प्राप्त है-इस पदके योग्य इसमें सारी ही योग्यताएँ मौजूद हैं-हर कोई भव्य जीव इसका सम्यक आश्रय लेकर मसारसमुद्रसे पार उतर सकता है।
परन्तु यह समाजका और देशका दुर्भाग्य है जो आज हमने -जिनके हाथो दैवयोगमे यह तीर्थ पडा है-इस महान् तीर्थकी महिमा तथा उपयोगिताको भुला दिया है, इसे अपना घरेलू, क्षुद्र या असर्वोदयतीर्थका-सा रूप देकर इसके चारो तरफ ऊंची-ऊँची दीवारें खडी कर दी हैं और इसके फाटकमे ताला डाल दिया है । हम लोग न तो खुद ही इससे ठीक लाभ उठाते हैं और न दूसरोको लाभ उठाने देते हैं-मात्र अपने थोडेसे विनोद अथवा क्रीडाके स्थल रूपमे ही हमने इसे रख छोडा है और उसीका यह परिणाम है कि जिस 'सर्वोदयतीर्थ' पर दिन-रात उपासकोकी भीड और यात्रियोका मेलासा लगा रहना चाहिये था वहाँ आज मन्नाटासा छाया हुआ है, जैनियोकी सख्या भी अगुलियोपर गिनने लायक रह गई है और जो जैनी कहे जाते हैं उनमे भी जैनत्वका प्राय कोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई नही पडता-कही भी दया, दम, त्याग और समाधिकी त परता नज़र नही आती--लोगोको महावीरके सन्देशकी ही खबर नही, और इसीसे ससारमे सर्वत्र दुख ही दु ख फैला हुआ है। ऐसी हालतमे अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका उद्धार किया
“जइ एव कुदो तत्थ सजमग्गहणसभवो त्ति गासकरिणज्ज । दिसाविजयपयट्टचक्कट्टिखधावारेण सह मज्झिमखडमागयारण मिलेच्छरायारण तत्थ चक्कवट्टियादीहि सह जादवेवाहियसबधारणसजमपडिवत्तीए विरोहाभावादो। अथवा तत्तत्कन्यकाना चक्रवादिपरिणीताना गर्भेषत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिता. ततो न किंचिद्विप्रतिषिद्ध । तथाजातीयकाना दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावादिति ।"
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महावीरका सर्वोदयतीर्थ जाय, इसकी सब रुकावटोको दूर किया जाय, इस पर खुले प्रकाश तथा खुली हवाकी व्यवस्था की जाय, इसका फाटक सबोके लिये हर वक्त खुला रहे, सभीके लिये इस तीर्थ तक पहुँचनेका मार्ग सुगम किया जाय, इसके तटो तथा घाटोकी मरम्मत कराई जाय बन्द रहने तथा अर्से तक यथेष्ट व्यवहारमे न आनेके कारण तीर्थजल पर जो कुछ काई जम गई है अथवा उसमे कही-कही शैवाल उ पन्न हो गया है उसे निकालकर दूर किया जाय और सर्वसाधारणको इस तीथके माहात्म्यका पूरा-पूरा परिचय कराया जाय । ऐसा होने पर अथवा इस रूपमे इस तीथका उद्धार किया जाने पर आप देखेंगे कि देश देशान्तरके कितने बेशुमार यात्रियोकी इस पर भीड रहती है, कितने विद्वान् इस पर मुग्ध होते है, कितने असख्य प्राणी इसका आश्रय पाकर और इसमें अवगाहन करके अपने दु ख-सतापोसे छुटकारा पाते हैं और ससारमें कैसी सुख-शान्तिकी लहर व्याप्त होती है। स्वामी समन्तभद्रने अपने समयमे, जिसे आज १८०० वषके लगभग हो गये है ऐसा ही किया है, और इसीसे कनडी भाषाके एक प्राचीन शिलालेख' मे यह उल्लेख मिलता है कि 'स्वामी समन्तभद्र भगवान् महावीरके तीर्थकी हजारगुनी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हए'---अर्थात्, उन्होने उसके प्रभावको सारे देश-देशान्तरोमे व्याप्त कर दिया था। आज भी वैसा ही होना चाहिये। यही भगवान महावीरकी सच्ची उपासना, सच्ची भक्ति और उनकी मच्ची जयन्ती मनाना होगा।
१ यह शिलालेख बेलूर ताल्लाका शिलालेख नम्बर १७ है, जा रामानुजाचार्य-मन्दिरसे अहाते के अन्दर सौम्यनायको-मन्दिरकी छतन एक पत्थर पर उत्कीरण है और शक सम्बत् १०५६ का लिखा हुआ है। देखो, एपिनेफिका कर्णाटिकाकी जिल्द पांचवी, 'स्वामी ममन्तभद्र' पृष्ठ ४६ अथवा समीचीन-धर्मशास्त्रको प्रस्तावना पृष्ठ ११३ ।
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युगवीर-निबन्धावली महावीरके इस अनेकान्त-शासन-रूप तीथमे यह खूबी खुद मौजूद है कि इससे भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति ) हुमा उपपत्ति-चक्षुसे (मात्सर्यके त्यागपूर्वक युक्तिसगत समाधानकी दृष्टिसे) इसका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मान-शृङ्ग खण्डित हो नाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका प्राग्रह छूट जाता है
और वह अभद्र या मिथ्यादृष्टि होता हश्रा भी सब प्रोरसे भद्ररूप एव सम्यग्दृष्टि बन जाता है। अथवा यो कहिये कि भगवान् महावीरके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है। इसी बातको स्वामी समन्तभद्रने अपने निम्न वाक्य-द्वारा व्यक्त किया है
काम द्विषनप्युपपत्तिचक्षु समीक्षता ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्र वं खसिद्धतमानशृङ्गो भवत्यमद्रोऽपि समन्तभद्र ।
-युक्तयनुशासन प्रत इस तीर्थके प्रचार-विषयमे जरा भी सकोचकी जरूरत नहीं है, पूर्ण उदारताके साथ इसका उपयुक्त रीतिसे योग्य-प्रचारकोंके द्वारा खुला प्रचार होना चाहिये और सबोको इस तीर्थकी परीक्षाका तथा इसके गुणोको मालूम करके इससे यथेष्ट लाभ उठाने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिये । योग्य प्रचारकोका यह काम है कि वे जैसे-तैसे जनतामें मध्यस्थभावको जाग्रत करे, ईर्षा-द्वेषादिरूप मत्सर-भावको हटाएं, हृदयोको युक्तियोंसे सस्कारित कर उदार बनाएँ, उनमे सत्यकी जिज्ञासा उत्पन्न करे और उस सत्यकी दर्शन प्राप्तिके लिये लोगोकी समाधान-दृष्टिको खोलें।
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४१
सर्वोदय के मूलसूत्र
भगवान् महावीरके तीर्थ शासनमे सर्वोदयके जिन मूल-सूत्रोका प्रतिपादन हुआ है वे संक्षेपमें इस प्रकार है
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१ सब जीव द्रव्य-दृष्टिसे परस्पर समान है ।
२ सब जीवोका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही है । ३ प्रत्येक जीव स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तः मुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोका आधार अथवा पिड है ।
४ अनादिकालसे जीवोके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी मूल प्रकृतियाँ आठ, उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ ग्रडतालीम और उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ प्रसख्य है ।
५ इस कर्ममलके कारण जीवोका असली स्वभाव प्राच्छादित है, उनकी वे शक्तियाँ अविकसित है और वे परतंत्र हुए नाना प्रकारकी पर्याये धारण करते हुए नज़र आते हैं ।
६ अनेक अवस्थाप्रोको लिये हुए ससारका जितना भी प्रारिपवर्ग है वह सब उसी कर्ममलका परिणाम है ।
७. कर्ममलके भेद से ही यह सब जीव जगत भेदरूप है । ८ जीवकी इस कर्ममलसे मलिनावस्थाको 'विभाव-परिणति' कहते हैं ।
६. जब तक किसी जीवकी यह विभावपरिणति बनी रहती है तब तक वह 'ससारी' कहलाता है । और तभी तक उसे ससारमे कर्मानुसार नाना प्रकार के रूप धारण करके परिभ्रमरण करना तथा
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युगवीर-निबन्धावली दुःख उठाना होता है।
१०. जब योग्य-साधनोके बल पर विभावपरिणति मिट जाती है, आत्मामें कममलका सम्बन्ध नहीं रहता और उसका निज-स्वभाव पूर्णतया विकसित हो जाता है तब वह जीवात्मा ससार-परिभ्रमरणसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त होता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है।
५१ अात्माकी पूर्णविकसित एव परम-विशुद्ध अवस्थाके अतिरिक्त परमात्मा या ईश्वर नामकी कोई जुदी वस्तु नहीं है।
१२. परमात्माकी दो अवस्थाएं हैं, एक जीवन्मुक्त और दूसरी विदेहमुक्त।
१३ जीवन्मुक्तावस्थामे शरीरका सम्बन्ध शेष रहता है, जब कि विदेह-मुक्तावस्थामे किसी भी प्रकारके शरीरका सम्बन्ध प्रवाशष्ट नही रहता।
१४ ससारी जीवोके त्रस और स्थावर ये मुख्य दो भेद हैं, जिनके उत्तरोत्तर भेद अनेकानेक हैं।
५५ एकमात्र स्पर्शन इन्द्रियके धारक जीव 'स्थावर' और रसनादि इन्द्रियो तथा मनके धारक जीव 'स' कहलाते हैं।
१६. जीवोके ससारी मुक्तादि ये सब भेद पर्यायदृष्टिसे हैं । इसी दृष्टिसे उन्हे अविकसित, अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्णविकसित ऐसे चार भागोमे भी बाटा जा सकता है।
१७ जो जीव अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे ही उनके पूज्य एव आराध्य हैं जो अविकसित या अल्पविकसित हैं, क्योंकि आत्म-गुरगोका विकास सबके लिये इष्ट है।
१८ ससारी जीवोका हित इसीमें है कि वे अपनी राग-द्वेष-काम क्रोधादिरूप विभावपरिणतिको छोड़कर स्वभावमे स्थिर-होने-रूप 'सिद्धि को प्राप्त करनेका यत्न करे ।
१६. सिद्धि 'स्वात्मोपलब्धि' को कहते हैं। उसकी प्राप्तिके लिये
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सर्वोदयके मूलसूत्र
૪૬
आत्मगुणोका परिचय, गुणोमे वर्द्धमान अनुराग और विकास मार्गकी दृढ श्रद्धा चाहिये |
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२०. इसके लिये अपना हित एव विकास चाहनेवालोंको उन पूज्य महापुरुषो अथवा सिद्धात्मा की शरण मे जाना चाहिये जिनमें आत्मा गुरोका अधिकाधिक रूपमे या पूर्णरूपसे विकास हुआ हो, यही उनके लिये कल्याणका सुगम मार्ग है ।
२१. शरणमें जानेका आशय उपासना द्वारा उनके गुणोमें अनुराग बढ़ाना, उन्हें अपना मार्गप्रदर्शक मानकर उनके पद चिन्होपर चलना और उनकी शिक्षाप्रो पर अमल करना है ।
२२ सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्मानोकी भक्ति द्वारा आत्मोत्कर्ष साधनेका नाम ही 'भक्तियोग' है ।
२३ शुद्धात्मानोके गुरगोमे अनुरागको तदनुकूलवर्तनको तथा उनमे गुरणानुराग पूर्वक प्रादर-स- काररूप प्रवृत्तिको 'भक्त' कहते हैं । २४ पुण्यगुणोके स्मररणसे ग्रात्मामे पवित्रताका सचार होता है। २५ सदर्भात से प्रशस्त अध्यवसाय एव कुशल- परिणामोकी उपलब्धि और गुणावरोधक सचित- कर्मोकी निजरा होकर आत्माका विकास सधता है ।
२६ सच्ची उपासनासे उपासक उसी प्रकार उपास्य के समान हो जाता है जिस प्रकार कि तैलादिसे सुसज्जित बत्ता पूर्ण- तन्मयताके साथ दीपकका प्रालिंगन करने पर तद्र ूप हो जाती है ।
२७. जो भक्त लौकिक लाभ, यश, पूजा-प्रतिष्ठा, भय तथा रूढि आदिके वश की जाती है वह सद्भाक्त नही होती और न उससे आत्मोय-गुणोका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है।
२८ सर्वत्र लक्ष्य- शुद्ध एव भावशुद्धि पर दृष्टि रखनेकी ज़रूरत है, जिसका सबघ विवेकसे है
२६. बिना विवेकके कोई भी क्रिया यथार्थ फलको नही फलती और न बिना विवेककी भक्ति ही सदर्भात कहलाती है।
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युगवीर बिम्बावली
३० जब तक किसी मनुष्यका ग्रहकार नही मरता तब तक उसके विकासकी भूमिका ही तैयार नहीं होती ।
३१ भक्तियोग से प्रकार मरता है. इसीसे विकास मार्ग मे उसे पहला स्थान प्राप्त है ।
३२ बिना भावके पूजा - दान जपादिक उसी प्रकार व्यर्थ हैं जिस प्रकार कि बकरी के गलेमे लटकते हुए स्तन ।
३३ जीवात्माओं के विकासमे सबसे बडा बाधक कारण मोहकर्म है, जो अनन्तदोषोका घर है ।
३४ मोहके मुख्य दो भेद है- एक दर्शनमोह जिसे मिथ्यात्व भी कहते है, दूसरा चारित्रमोह, जो सदाचारमे प्रवृत्ति नही होने देता । ३५ दर्शनमोह जीवकी दृष्टिमे विकार उत्पन्न करता है, जिसवस्तुतत्त्वका यथार्थ अवलोक्न न होकर श्रन्यथा रूपमे होता है और इसीसे वह 'मिथ्यात्व' कहलाता है ।
३६ दृष्टिविकार तथा उसके काररणको मिटानेके लिये आत्मातत्त्व- रुचिको जागृत करने की जरूरत है ।
३७ तत्त्वरुचिको उस समीचीन ज्ञानाभ्यासके द्वारा जागृत किया जाता है जो ससारी जीवात्माको तत्त्व तत्त्वकी पहचान के साथ अपने शुद्धस्वरूपका, पररूपका, परके सम्बन्धका सम्बन्ध से होनेवाले विकार - दोषका प्रथवा विभावपरिणतिका विकार के विशिष्टकारणोका और उन्हे दूर करके निर्विकार-निर्दोष बनने, बन्धनरहित मुक्त होने तथा अपने निज स्वरूपमें सुस्थित होनेका परिज्ञान कराया जाता है, और इस तरह हृदयान्धकारको दूर कर आत्मविकासके सम्मुख किया जाता है
।
३८ ऐसे ज्ञानाभ्यासको ही 'ज्ञानयोग' कहते हैं । ३६ वस्तुका जो निज स्वभाव है वही उसका धर्म है । ४० प्रत्येक वस्तुमे अनेकानेक धर्म होते हैं, जो पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए अविरोध-रूपसे रहते हैं और इसीसे वस्तुवा
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सर्वोदय के मूलसूत्र
४५३
वस्तुत्व बना रहता है ।
४१. वस्तुके किमी एक धर्मको निरपेक्षरूपसे लेकर उमी एक धर्मरूप जो वस्तुको समझना तथा प्रतिपादन करना है वह एकान्त अथवा एकान्तवाद है । इसीको निरपेक्ष- नयवाद भी कहते है ।
४२, अनेकान्तवाद इसके विपरीत है । वह वस्तुके किसी एक धर्मका प्रतिपादन करता हुआ भी दूसरे धर्मोंको छोड़ता नही, सदा सापेक्ष रहता है, इसीसे उसे 'स्याद्वाद' या 'सापेक्षनयवाद' भी कहते हैं ४२. जो निरपेक्षनयवाद है वे सब मिथ्यादर्शन है और जो सापेक्षनयवाद है वे सब सम्यग्दर्शन है ।
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४४ निरपेक्षनय परके विरोधकी दृष्टिको अपनाये हुए स्व-परवैरी होते है, इसीसे जगतमे अशान्ति के कारण है ।
४५ सापेक्षनय परके विरोधको न अपनाकर समन्वयको दृष्टिको लिये हुए स्व-पर- उपकारी होते हैं, इसीमे जगतमे शान्तिसुखके काररण है ।
४६ दृष्ट और इष्टका विरोधी न होनेके कारण स्याद्वाद निर्दोषवाद है, जब कि एकान्तवाद दोनोके विरोधको लिये हुए होनेसे निर्दोषवाद नही है ।
४७ 'स्यात्' शब्द सवथाके नियमका त्यागी यथादृष्टको अपेक्षा रखनेवाला, विरोधी धर्मका गौणरूपमे द्योतनकर्ता और परस्परप्रतियोगी वस्तुके अगरूप धर्मोकी सधिका विधाता है ।
४८ जो प्रतियोगी से सर्वथा राहत है वह ग्रात्महीन होता है और अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता ।
४६ इम तरह सत् - प्रसत्, नित्य प्रनित्य, एक-अनेक, शुभअशुभ, लोक-परलोक, बन्ध-मोक्ष, द्रव्य-पर्याय, सामान्य- विशेष, विद्याअविद्या, गुण-दोष अथवा विध-निषेधादिके रूपमे जो प्रसख्यअनन्त जोडे हैं उनमेसे किमी भी जोहे एक साथी के बिना दूसरेका अस्तित्व नही बन सकता ।
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युगवीर निबन्धावली ५० एक धर्मीमे प्रतियोगी धर्म परस्पर अविनाभाव-स.बन्धको लिये हुए रहते हैं, सर्वथा रूपसे किसी एककी कभी व्यवस्था नही बन सकती।
५१ विधि-निषेधादिरूप सप्त भग सम्पूर्णतत्त्वार्थपर्यायोमे घटित होते हैं और 'म्यात्' शब्द उनका नेतृत्व करता है।
५२ सारे ही नय-पक्ष सर्वथारूपमे अति दूषित हैं और स्यात्रूपमें पुष्टिको प्राप्त हैं।
५३ जो स्याद्वादी हैं वे ही सुवादी हैं, अन्य सब कुवादी हैं।
५४ जो किमी अपेक्षा अथवा नयविवक्षाको लेकर वस्तुतत्त्वका __ कथन करते हैं वे 'स्याद्वादी' हैं,भले ही 'स्यात्' शब्दका प्रयोग साथमें न करते हो।
५५ कुशलाऽकुशल-कर्मादिक तथा बन्ध-मोक्षादिककी सारी व्यवस्था स्याद्वादियो अथवा अनेकान्तियोके यहाँ ही बनती है।
५६ सारा वस्तुतत्त्व अनेकान्तात्मक है ।
५७ जो अनेकान्तात्मक है वह अभेद-भेदात्मकको तरह तदतत्स्वभावको लिये होता है। ।
५८ तदतत्म्वभावमे एक धर्म दूसरे धर्मसे स्वतन्त्र न होकर उसकी अपेक्षाको लिये रहता है और मुख्य-गोरगकी विवक्षासे उसकी व्यवस्था उसी प्रकार होती है जिस प्रकार कि मथानीकी रस्सीके दोनो सिरोकी।
५६ विवक्षित 'मुख्य' और अविवक्षित 'गौरण' होता है।
६० मुख्यके बिना गौरण तथा गौरणके बिना मुख्य नहीं बनता। जो गौरण होता है वह अभावरूप निरात्मक नहीं होता।
६१ वही तत्त्व प्रमाण-सिद्ध है जो तदतत्स्वभावको लिए हुए एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है।
६२ वस्तुके जो अश ( धम) परस्पर निरपेक्ष हो वे पुरुषार्थके हेतु अथवा अर्थ-क्रिया करनेमे समर्थ नहीं होते।
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सर्वोदय के मूलसूत्र
६३ जो द्रव्य है वह सत्स्वरूप है ।
६४ जो सत् है वह प्रतिक्षरण उत्पाद-व्यय-धौव्यसे युक्त है । ६५ उत्पाद तथा व्यय पर्यायमे होते हैं और घौव्य गुरणमें रहता है, इसीसे द्रव्यको गुरण-पर्यायवान् भी कहा गया है। ६६ जो सत् है उसका कभी नाश नही होता ।
६७ जो सर्वथा प्रसत् है उसका कभी उत्पाद नही होता । ६८ द्रव्यसे तथा सामान्यरूपसे कोई उत्पन्न या विनष्ट नही होता; क्योकि द्रव्य सब पर्यायोमे और सामान्य सब विशेषोमे रहता है । ६६ विविध पर्यायें द्रव्यनिष्ठ एव विविध विशेष सामान्यनिष्ठ होते हैं।
७० सर्वथा द्रव्यकी तथा सर्वथा पर्यायकी कोई व्यवस्था नहीं बनती और न सर्वथा पृथग्भूत द्रव्य पर्यायकी युगपत् ही कोई व्यवस्था बनती है ।
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७१ सर्वथा नित्यमे उत्पाद और विनाश नही बनते, विकार तथा क्रिया-कारककी योजना भी नही बन सकती ।
७२ विधि और निषेध दोनो कथचत् इष्ट है, सर्वथा नही । ७३ विधि - निषेधमे विवक्षासे मुख्य- गौरकी व्यवस्था होती है । ७४ वस्तुके किसी एक धर्मको प्रधानता प्राप्त होने परशेष धर्म गौर हो जाते हैं ।
७५ वस्तु वास्तवमे विधि - निषेधादि-रूप दो-दो अवधियोंसे ही कार्यकारी होती है ।
७६ बाह्य और प्राभ्यन्तर अथवा उपादान और निमित्त दोनो कारणो के मिलने से ही कार्यकी निष्पत्ति होती है ।
७७ जो सत्य है वह सब अनेकान्तात्मक है, अनेकान्तके बिना सत्यकी कोई स्थिति ही नही ।
७८ जो अनेकान्तको नही जानता वह सत्यको नही पहचानता, भले ही सत्यके कितने ही गीत गाया करे ।
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युषवीर-निबाधावली ७६ अनेकान्त परमागमका बीन अथवा जैनायमका प्राण है। । ८९. जो सर्वथा एकान्त है वह परमार्थ-शून्य है। ८१. जो दृष्टि अनेकान्तात्मक है वह 'सम्यग्दृष्टि' है । ८२ जो दृष्टि अनेकान्तसे रहित है वह 'मिथ्याष्टि ' है। ८३ जो कयन अनेकान्तदृष्टिसे रहित है वह 'मिथ्यावचन' है। ८४. सिद्धि अनेकान्तसे होती है, न कि सर्वथा एकान्तसे।
१५. सर्वथा एकान्त अपने स्वरूपकी प्रतिष्ठा करनेमे भी समर्थ नहीं होता।
८६ जो सर्वथा एकान्तवादी है वे अपने वैरी आप हैं। ___ ८७ जो अनेकान्त-अनुयायी है वे वस्तुत अहज्जिन-मतानुयायी हैं, भले ही वे 'अर्हन्त' या 'जिन' को न जानते हो।
८८ मन-वचन-काय-सबधी जिस क्रियाकी प्रवृत्ति या निवृत्तिसे आत्म-विकास मधता है उसके लिये तदनुरूप जो भी पुरुषार्थ किया जाता है उसे 'कर्मयोग' कहते है ।
८६ दया, दम त्याग और समाधिमे तत्पर रहना आत्मविकासका मूल एव मुख्य कमयोग है।
६०. समीचीन धर्म सदृष्टि, सद्बोध और सच्चारित्ररूप है, वी रत्नत्रय-पोत और मोक्षका मार्ग है।
६१ सदृष्टिको लिये हुए जो ज्ञान है वह 'सद्बोध' कहलाता है।
६२ सद्बोध-पूर्वक जो आचरण है वह सच्चारित्र' है अथवा ज्ञानयोगीके कर्माऽऽदानकी निमित्तभूत जो क्रियाएँ उनका त्याग 'स. म्यकचारित्र' है और उमका लक्ष्य राग-द्वेषकी निवृत्ति है।
६३ अपने राग-द्वेष-काम क्रोधादि-दोषोको शा-त करनेसे ही आत्मामे शान्तिकी व्यवस्था और प्रतिष्ठा होती है।
१४ ये राग-द्वेषादि-दोष, जो मनकी समताका निराकरण करनेवाले हैं,एकान्त धर्माभिनिवेश-मूलक होते हैं और मोही जीवोके अहंकार-ममकारसे उत्पन्न होते हैं।
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सर्वोदयके मूलसूत्र
४५७
६५ संसार में शान्तिके मुख्य कारण विचार-दोष और प्रचार
दोष है ।
६६ विचारदोषको मिटानेवाला 'अनेकान्त' और प्राचारदोषको दूर करनेवाली 'हिसा' है ।
६७ अनेकान्त और अहिसा ही शास्ता वीरजिन अथवा वीरजिन - शासनके दो पद है ।
६८ अनेकान्त और अहिंसाका आश्रय लेनेसे ही विश्वमे शान्ति हो सकती है ।
६६ जगत के प्रारिणयोकी अहिसा ही 'परमब्रह्म' है, किसी व्यक्तिविशेषका नाम परमब्रह्म नहीं ।
१०० जहाँ बाह्याभ्यन्तर दोनो प्रकारके परिग्रहोका त्याग है वही उस हिसाका बास है ।
1
१० जहाँ दोनो प्रकार के परिग्रहोका भार वहन अथवा वाम है वही हिसाका निवास है ।
१०२ जो परिग्रहमे प्रासक्त है वह वास्तवमे 'हिसक' है । १०३ आत्मपरिणामके घातक होनेसे झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये सब हिसाके ही रूप हैं ।
१०४ धन-धान्यादि सम्पत्तिके रूपमे जो भी सासारिक विभूति है वह सब 'बाह्य परिग्रह' है ।
१०५ ' आभ्यन्तर - परिग्रह' दशनमोह, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय और जुगुप्सा के रूपमे है ।
१०६ तृष्णा - नदीको अपरिग्रह सूर्य के द्वारा सुखाया जाता और विद्या- नौका से पार किया जाता है ।
१०७ तृष्णाकी शान्ति प्रभीष्ट इन्द्रिय-विषयोकी सम्पत्ति से नही होती, प्रत्युत इसके वृद्धि होती है ।
१०८ प्राध्यात्मिक तपकी वृद्धि के लिये ही बाह्य तप विधेय है । १०६ यदि प्राध्यात्मिक तपकी वृद्धि ध्येय या लक्ष्य न हो तो
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युगवीर - निबन्धावली
बाह्य-तपश्चरण एकान्तत शरीर-पीडनके सिवा और कुछ नही । ११० सद्ध्यानके प्रकाशसे प्राध्यात्मिक अन्धकार दूर होता है । १११ अपने दोषके मूल काररणको अपने ही समाधितेजसे भस्म किया जाता है ।
४५८
११० समाधिकी सिद्धि के लिये बाह्य और ग्राभ्यन्तर दोनो प्रकारके परिग्रहोका त्याग आवश्यक है ।
११३ मोह- शत्रुको सद्दृष्टि, सवित्ति और उपेक्षारूप अस्त्रशस्त्रसे पराजित किया जाता है ।
११४ वस्तु ही अवस्तु हो जाती है, प्रक्रियाके बदल जाने अथवा विपरीत हो जानेसे ।
११५ कर्म कर्ताको छोडकर अन्यत्र नहीं रहता ।
११६ जो कर्मका कर्ता है वही उसके फलका भोक्ता है । ११७ अनेकान्त-शासन ही अशेष-धमका प्राश्रय-भूत और सर्व श्रापदाप्रका प्रणाशक होनेसे 'सर्वोदयतीर्थ' है ।
११८ जो शासन वाक्य धर्मोमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नही करता वह सब धर्मो शून्य एव विरोधका कारण होता है और वह कदापि 'सर्वोदयतीर्थ' नही हो सकता ।
११६ आत्यन्तिक-स्वास्थ्य ही जीवोका सच्चा स्वार्थ है, क्षरणभगुर भोग नही ।
१२० विभावपरिणति से रहित अपने अनन्तज्ञानादिस्वरूपमे शाश्वती स्थिति ही 'आत्यन्तिकस्वास्थ्य कहलाती है, जिसके लिये सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये ।
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नामानुक्रमणिका
अकम्पन (राजा) १६७ । अयोध्या (राजधानी) १०३ अकलकदेव ४४,४६,११६,३४६, | अरडक-अर्डक (ग्राम, गोत्र) २३५ ३७५, ३८१, ३८२ ४३६
२६८ अकलक-स्तोत्र ४४ | अरिजय (राजा) २४७ अक्षमाला (नीचजाति-स्त्री)२४४ / अरिष्टपुर
१६६ अग्निभूत (मुनि) ३०१ | अर्जुन अग्रवाल ( जाति वश ) ६४, अहन्नीति (ग्रन्थ) १३४
२३३, २३४, ०४८ ०५० अशोक (सम्राट) ४२४ अग्रसेन (राजा) २३३, २३४ | अप्टशती ( वृत्ति ) ३४६, ३७५ अजमेर
१७ । अष्टसहस्री ३४६, ३७५, ४३६ अजमेरा ( गोत्र । २३४ | अमराज(तेजपालका पिता)२४६ अनगारधर्मामृत (ग्रन्थ) २५० अजनासुन्दरी १०२, २६१ अनेकान्त (मासिक पत्र) ३८ प्रात्मानुशासन ( ग्रन्थ ) ३१६ अन्धकवृष्टि ( राजा ) १६. प्रादिपूराण ५४-१०४, ११४, अबुलकलाम आजाद २११ । १३३-१५१, १६३-५६८, अमितगति (प्राचार्य) २१, ५४ २३६, २४२-२४४, ३११, १५७, २०१, २०४, २३८,
४४४, ४४५ ३२६
| प्रादीश्वर (भगवान) १०३ अमितति-श्रावकाचार ५४ / प्राप्त-परीक्षा । १८१ अमृतचन्द्र (प्राचार्य) ७८, १२२, / पाबू (पर्वत) २४६
२६४, ३.१, ४३७ । अाराधनासारकथाकोष ५८-७० अमेरिका ( देश ) ७ ' आशाधर (पडित) ५६, १६२
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४६०
युगवीर-निबन्धावलो १३०, १८, २५०, ३०४ । कामधेनु ( साप्ताहिक पत्र ) ३८ उग्रसेन (राजा) १६२, २३६ | कार्तिकेय ( स्वामी) ३२४ उज्जयिनी (नगरी) २४७ कालश्वापाकी (विजाति) २५६ उत्तरपुराण
०४२ / काला (व्यक्ति, गोत्र) २३७ उपासकाचार (अमितात) १५७, | कालिदास (मेघदूत-कर्ता) ४० २२४, ३२६
कागीराज (राजा) २४५ उपासनातत्व (पुस्तक) ३५८ कासली,कासलीवाल (गोत्र)२३४ उलूक ( करणाद) ४३८ कुकडचोपडा (गोत्र) २३६, २३७ उशना ( शुक्राचार्य ) .४८ कु थलगिरि ( तीर्थक्षेत्र ) १४ ऋषभदेव ( भगवान) २००। कुन्दकुन्द ( प्राचार्य ) ५६-१०२, ऋषिदत्ता ६७, १६४
११८, २६१, ३२१-३२७ एकसधिभट्टारव ७८ कुमुदचन्द्र (प्राचार्य) १७७, १७८ एणीपुत्र ६७, ५३४, १६४ कुल्लूकभट्ट (टीकाकार) २४५ एपिग्राफिका कर्णाटिका ४७ | कुसुमावती (मालीकी कन्या) ६८
ओसवाल ( वश ) २३६, २४८ | केसरियानाथ (अति० क्षेत्र) ६६ कटारिया ( गोत्र ) २३७, २३८ । कैलाश( पर्वत ) कस्माद (उलूक) १३८ कोठारी ( गोत्र ) २३७ कपिल
४३८ कोश (वामन शिवराम प्राप्टे)७३ करकडु (राजा) ५८ ६८ कौशाम्बी ( नगरी) ६२ कर्ण (राजा)
क्षत्रचूडामरिण ( ग्रन्थ ) १२६ कर्तव्यकोमुदी
। खतौली ( नगर ) ४७ क्रियाकलाप
१६८ खडेलागर ( राजा) २३४ कल्याणमन्दिर ( स्तोत्र ) १७७, खडेलवाल (जाति ) ६४, २३४ १८१, २६८ ३२२
२३५, २३६, २४८, २५० कसायपाहुड
४४५ | खडेलानगर २३४, २३५ काकू ( रॉका) २३८ गजकुमार
२४७ काँग्रेस (जातीय महासभा)२०८ / गजाधरलाल (पडित) १६३,२५८
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४६१
नामानुक्रमणिका माधरचोपडद्य ( मोव) २७ । जरत्कुमार १६४, ३०२ गर्दया, गद्यो (गोत्र, ग्राम) २३५ जरा (कन्या) १६२, १६३ ३०२ गधमादन ( पर्वत) ३०२ जवाहरलाल नेहरू ४२४, ४२८ गान्धी ( महात्मा) २०८, २०६ जापान (देश)
२११, ३३५, ४१८, ४२६ जाल्हण (ठक्कुर) २४६ गिरधरराय (कवि) २७६ / जितशत्रु (राजा) १६४ गिरनार ( तीर्थक्षेत्र ) ६९ जिनदत्तसूरि
२३७ गुरगभद्र ( प्राचार्य) ३१६ जिनदास (ब्रह्मचारी) ६२,६८, मुगवती ( श्रेणिक-पुत्री ) २४७ १३५, १६५, १६७, २४७ गोम्मटसार (ग्रन्थ) २३२, २५६ जिनदास (स्याद्वादी)३६८,३६६ गोम्मटसार-टीका ५१ जिनवल्लभसूरि २३६, २३७ गौतम (गणधर) ३०१ जिनसेन ( आचार्य) ५४-१०३ गौरिक (विद्याधर-जाति) २४६ ११४, १३३-१५१, १६२, पन्थपरीक्षा (पुस्तक) १७२ १६३-१६७, २३४, २३६, चर्मरावती (चम्बल नदी) ४० २४२-२४६, २५७, २६०, चादनपुर (श्रीमहावीरजी) ६६, | ३०३, ४४४,४४५ १००, २६०
जिनसेन-त्रिवर्णाचार १७० चामुण्डराय
जिनसहिता ७८,७६, ८५, ८७ चारित्रसार (ग्रन्थ) ५६, ५६ / जीवधर
११८ चारुदत्त (सेठ' १६० २५२,०५३ जैननीतिसग्रह चिरडवी चिरडक्या (गोत्र)२३५ / जैनमित्र ( पत्र) ४१,२४६ चौधरी (गोत्र) २३४ जैनसम्प्रदायशिक्षा (ग्रन्थ ) २३६ चौवण्या, चौवाण्या (गोत्र) २३५ | जैनहितैषी (पत्र) १७२ चौहान (वश) २३५ जैत्रल (जिदल-गोत्र) २३३ चंपापुर (नगर) ३०२ । जोरावर ( गोत्र) २३७ छावडा (गोत्र) २३५ / जोक (कवि)
१५ जयधवला ( टीका) ५३५ ४४५ / ज्ञानानन्द (सेठ ) ४१५, ४९७
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५८
युगवीर-निबन्धावली ज्ञानाणंव (ग्रन्थ) १२४, ३२० | धन्यकुमार (वैश्य-पुत्र) २४७
३२५, ३२६, ३८१, ३८२ धर्मपरीक्षा (अन्य) २२४, ४४५ झाझरणसिंह
२३७ / धर्मरसिक (ग्रन्थ) ४४५ ठाकरसी (कोठारी) २३७ / धर्मसग्रहश्रावकाचार ५२-६२, डालचन्द ( सेठ) ४१४-४१७ / १३३, १८६, २४५, २४६, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १८२, ३६५ तत्त्वार्थसूत्र ३२७, ३७६, ३८२, धवल (सिद्धान्तग्रन्थ) ३१७
३८३, ४०३, ४१२, ४१३ धवलचन्द्र (नानुदेपुत्र) २३६ तातहड (गोत्र) २३६ धाडीवाल (गोत्र) २३७ तारनपन्थी (सम्प्रदाय) २००१ धाराशिव (नगर) । तारगा ( तीर्थक्षेत्र) ६५ धृतराष्ट्र ताराचन्द (सेठ) ४१४-४१७ नरपति ( शूर-पिता ) १६२ तेजपाल
२४६ नवजीवन ( पत्र) २०६ त्रिपद (व्यक्ति) ३०१ नागदत्त (ष्ठि) ५८ त्रिवर्णाचार ६४, १७२, ३०६ नानचन्द पदमसा मुनीम ) ६५ दमवर (मुनि) १८ नानुदे पडिहार (राजा) २३६ दयाचन्द ( सेठ) ४१५, ४१७ नानौता (सहारनपुर) २२३ दरड्यो (ग्राम, गोत्र) २३५ नाभि (राजा)
१३७ दशपुर ( नगर) ४० नाहटा (गोत्र) २३७ देवकी १३४, १६२, २३६ नीतिवाक्यामृत ( ग्रन्थ) १२६देवयानी
२४८ १४६, १६५, २४३, ३०५, देवसेन (देवक) १३४,१६२ . ४४१, ४४२ देवागम ३३२, ३४८, ३४६, नील (नीलाजनाका माई) २४० ३५३, ३७०, ४३६, ४३६ नीलाजना
२४० दौलतराम (कवि, पडित) १६३ नेमिनाथ (भगवान) १७, १३४
२८१, ३०३ १६१, १६२, ३०२ धनीराम (सेठ) ४०८, ४०६ ' पटेल (सरदार) ४२८
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२३६
नामानुक्रमणिका
४६३ पदाचरित ४४३, ४४४ | पीतल्या,पीतल्यो(ग्राम,गोत्र)२३५ पद्मनन्दि (आचार्य) ५४, ५५, | पुण्यास्रव-कथाकोष ५७, ५८,
७६, १४८ पद्मनन्दि-पचविंशतिका ५४,७६, | पुरुषार्थसिद्धयपाय ७८, १२२
६८,२४७, ३०२
३२१. ४३७ पद्मपुराण ६१, १०२, २६१
पुष्पदेव (राजकुमार) २३३ पद्मावती
पुष्पवती (कन्या) ६८ परवर्तक (भील) ३०२
पूजासार (ग्रन्थ) ६२-६२, ३०३ परवार (जाति) ६४, २४८ | पूज्यपाद (प्राचार्य) ११६, १८४, परवारबन्धु(पत्र)
३२७, ३३३, ३८१ पराशर ( ऋषि) २४५
| पूतिगन्धा (धीवर-कन्या) ३०१ पल्लीवाल ( जाति) २४८
पूर्णभद्र (वैश्य)
३०२ पहाडी,पहाड्या(ग्राम,गोत्र) २३५
प्रतिष्ठासारोद्धार ८३, ६६ पागुल्यो,पागुल्या(ग्राम,गोत्र)२३५
प्रभाचन्द्र (प्राचार्य) २३१ पाटन, पाटनी (माम,गोत्र) २३४
प्रमेयकमलमार्तण्ड ४४४ पाडणी (ग्राम) २३५ प्रवचनसार ३२१, ३२२ पाण्डु ( पाण्डव-पिता) २४५
प्राग्वाट (जाति) २४६ पाण्डुक (विद्याधर-जाति) २५६
प्रायश्चित्तसमुच्चय ३७८-३८३ पात्रकेसरी (प्राचार्य) २०१,३०१ प्रियगुसुन्दरी ६७, १३४, १६२, पात्रकेसरि-स्तोत्र २०२, ३८२ १६४ पानाचन्द (सेठ) १७
| बनमाला, बनमाली (गोत्र) २३५ पापडी, पापडीवाल (गोत्र) २३५ बडौदा जैन कॉन्फेस ४० पारख (गोत्र) २३७ बलभद्र १६५,१६८ पार्वतेय (जाति) २५६ बाकली, बाकलीवाल (गोत्र)२३४ पार्श्वनाथपुराण
२६८ बालगगाधर तिलक
४० पार्श्वनाथ ( भगवान) ५८ | बुद्ध, बौद्धदर्शन ३७,४१, ४३८ पासूजी (पारख) २३७ ' बेलूर (ताल्लुक) ४४७
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२५८
३०२
१२८
४०
यदुवश
युगवीर-निबन्धावली ब्रह्मसूरि
६४ मडौर (ग्राम) २३६ भडकमकर (प्रोफेसर) ४१ मातग (जाति) भद्रवाहसहिता १७२ मानभद्र (वैश्यपुत्र) भद्रवाहुस्वामी ३०१ । मिताक्षरा (टोका) भरत चक्रवती) १०३, १०४ मुज ( राजा) २२४
१६७, ३००, ४२४ मेघदूत (काव्य) भवदत्ता
५८ । मैथिलीशरण (कवि) । १६५ भविष्यदत्त (वैश्यपुत्र) ४७ मोढ ( जाति ) २४४ भविष्यानुरूपा (राजपुत्री) २४७ मोतीलाल नेहरू २११ भीम (पाण्डुपुत्र) | मोहन (छात्र) ४००,४१०,४१६ भीष्म (शान्तनुपुत्र) २४५ । यद् (राजा) १६२ २४८ भूपाल (राजा) २४७
२४८ भूलारणी, भूलण्या (गोत्र) २३५ ययाति (राजा) २४८ भेसा ( ग्राम, गोत्र) २३५ यशस्तिलक ( पन्थ ) ५१, १२६, भोजकवृष्टि (राजा) १६२
१३०, १३६, २६२, ३१० मरिगलाल नभूभाई ४१
४१, ४४, मदनवेगा २४६, २५८ यग इडिया (पत्र) २०६ मनु-स्मृति ६७, १४६, १५१, याज्ञवल्क्य ( स्मृतिः) १३८ २४४, ०४६
युक्त्यनुशासन (ग्रन्थ) ३३२, मन्दपाल (ऋषि) ०४४ ४३१, ४३२, ४३६, ४४८ मल्लावत (गोत्र)
रतनपुर, रतनपुरा (गोत्र) २३७ महाजन (वश) २३६ रतनसिह (चौ० राजपूत) २३७ महाभारत १२७, २४८ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ७६, ७७ महावीरपुराण
११३, २३१, २५६, ३०५ मागीतुगी (तीर्थक्षेत्र) ६४ ४४३ माणिकचन्द ( सेठ) ९७ रत्नचन्द्र (मुनि) १५० मगतराय (पडित) १६४] रत्नप्रभसूरि
२३७
५७
३६
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२३४
१२
२४४ २३६
३८२,
नामानुक्रमणिका रन्तिदेव (राजा) ४० | लुहाड्या (गोत्र) रयणसार ( ग्रन्थ) ५६, १०२ लूणे ( व्यक्तिविशेष ) २३७ १६१, २६१
वनमाला (वीरकसेठकी स्त्री) ६२ गमे भग (पुस्तक) १६६ / वन्देमातरम् (पत्र) २१० रविषेण (प्राचार्य) ९१, २६१, वरधर्म (मुनि)
वसिष्ठ (ऋषि) राका (मठ, गोत्र) ३८ वसु (राजा) राजगृह (नगर)
वसुदेव (श्रीकृष्ण-पिता) १७, गजमल बडेजात्या २३५ १३४, १६१-१७०, ,२३६, रानवार्तिक (ग्रन्थ) ३७८, ३८१, २४६, २४६, २५८, ३०२
वसुन्दि (प्राचार्य) ७७ राम (महापुरुष) १७ १८, ३७ । वमुनन्दि-श्रावकाचार ६० ६१, गमचद्र (मुमुक्ष) २४७ ७७,७८ गमानन्द (मेठ) ४१४, ४१७,' वमतमेना (वेश्या) १६०, १६१ ४५८
'वशालय (विद्याधर-जाति) २५६ रामानुजाचार्यदिर ४४७ । वाग्भट (वैद्यराज) ३१,३२, १५२ गयजादा (गात्र) २३७ वॉठिया (गोत्र) २३७ रावचुडे
२३७ । वात्स्यायन (ऋषि) १०२ रावजी नान वन्दजी (मेठ) ६६ वादीमिहसूरि रावण (लकाधीश) ६१ वार्भमूलक (वि० जाति) २५६ रोडिग (लाड) २१०, २११ विक्रम (राजा) ४३१ रुक्मिणो(कृष्णको पटरानी)३०१ विचित्रवीर्य (शान्तनुराजाका रोहिणी (राजपुत्री) १६२, १६६ पुत्र।
२५५
विज्ञानेश्वर लब्धिसार-टीका ३०२, ४५५ । विद्यानन्द (प्राचाय) ११६,१८२, लाजपतराय (लाला) २११ ३४६, ३७५, ४३२, ४३६ लालागो (गोत्र) २३७ | विद्य द्वेग (विद्याधर) २५८
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४६६
युगवीर - निबन्धावली
विनोदीराम ( सेठ) ४१४, ४१६ | शुभचन्द्र ( प्राचार्य) ३०० ३२५
३८१
४१७
विपुलाचल (पर्वत) विरमेचा (गोत्र)
विवाह - क्षेत्र प्रकाश विवेकचन्द्र (सेठ)
५७ | शुक्र (प्राचार्य )
२३७ शूर (राजा)
२०५ | ४५५, ४१७
४३२-४४०
वीरशासन वृन्दल (गोत्र)
२३३
वृन्ददेव ( राजकुमार )
२३३
वृषभदेव (भगवान) १२७, १४८
२३६
शेख (उर्दू कवि ) शोलापुर
वृहद्ध्वज
वैशेषिक दर्शन
४३८
व्यास ( कानीन)
२४४
शत्रु जय ( तीर्थक्षेत्र ) ६४, ६५ शान्तनु (राजा)
२४५ ६१
शान्तिनाथ (भगवान) शारङ्गी (निकृष्टजाति स्त्री) २०४ शीलायुध (राजा) ६७, १६४ शुद्धोधन (बुद्ध-पिता)
४३८
विल्सन कालेज
त्रिश्वदेव (ब्राह्मण)
४१ २४६
वीरक (सेठ)
६२
श्रावस्ती (नगरी)
वीर ( जिन-जिनेन्द्र ) ४३२, श्रीकृष्ण (वसुदेवमुत) ३७, १६२,
१६५ २४७, ३०१. ८२४
४३५ वीरभद्र (अध्यापक) ३८५, ३६१
३०.
३६२, ३६६, ४०० ४०१
४५१, ४१६
१-१
१६२
१८६
६४ ६६
श्मशान ( मातग-विद्याधर
जाति)
श्रीधर (मुनि)
२५६
श्रीपालचन्द्र (यति )
२३६
श्रेणिक (राजा) ५८, ७५, १३३,
२४७
स्वपाक (मातग-विद्याधर
(जाति)
२५६
सकलकीर्ति (चाय) ५५, १६६ सत्यवती ( धीवर कन्या) २४५
सत्यधर (राजा)
११८
सन्मतिसूत्र ( सम्म सुत्त) ४५७,
२१, ७६,
४३६ समन्तभद्र (स्वामी) ११३, ११६, १५५, १५६, १६४, २३१, २५६ ३०५ ३१४, ३३१, ३३३, ३५०, ३५२, ३५३, ३५७ - ३६०,
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१४
६८
२३६
રરક
नामानुक्रमणिका
४६७ ३६७, ३६६, ३७४, ३७६, । सिद्धिसोपान (पुस्तक) ३५८ ४३१-४४८
सिवनी • समयसार (ग्रन्थ) ३२७ / सीपार० दाम (देशबन्धु) २११
ममाधिगुप्त (मुनि) ३०१ | सुकुमाल समाधितन्त्र (ग्रन्थ) १८१, १८३ | मुकुमाल-चरित्र (ग्रन्थ) ३०२ समीचीन धमशास्त्र ४४७ सुखानन्द (सेठ)
४११ सम्मेदशिखर (तीर्थक्षेत्र । ६६,६४ /
सुगुप्ति (मुनि) सरस्वती
१७ १८ । सुघड (गोत्र) सर्धना ( जि०मेरठ) ४७
सुदशन (उद्यान) सर्वााि ग्रन्थ) ५८४, २२७ सुदर्शनमेक ३३३, ६८१
सुभाषितर नमदोह मर्वोदय-नाय ३१-८४६ : मुभाषितावली सहस्रार (म्बग) ५८ मुमुग्व (गजा) महा (नगर,गात) २४, २५, सुवसु सहारनपुर ३४, ३८, २२३ । सुवीर मजीवनी (टीका) ४० सतोषा (ठगनी) २४६ स्क्तिमुक्तावली
१७ साख्यदशन
३०१ सागारधर्मामृत (ग्रन्थ। ५६, ५६. सेठिया (गोत्र)
६५, ६६, ७४-७७, १२०. सेवाराम ४१५, ४१७
१३०, ३०४, ४४१, ४४२ सोनी (गोत्र) २३४ साभर, साभर्या (ग्राम,गोत्र)-३५ , सोमदेवमूरि (प्राचार्य)५४,१२१सावयधम्म दोहा ४४२. १४६, १६५-१७२, २४३, सिद्धकूट (चैत्यालय) २५८ . २६२, ३००-३१० सिद्धसेन (प्राचार्य) ११६, ४३६, समप्रभ (प्राचार्य) १२७ ४३७ ४३८
सोमशर्मा (ब्राह्मरण) १३३, २४७ सिद्धान्तसार (ग्रन्थ) ४१ । सोमश्री
हर
सुहडादेवी
२४६
४३८ । सूर्यामत्र
२४६
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________________ 468 युगवीर-निबन्धावली सोममेन (प्राचार्य) 105, 306 | स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा 354 सोमा (ब्राह्मरणपुत्री) 247 443 सोमान्वय (वश) 246 / हरखावत (गोत्र) 237 सौधम ( स्वर्ग) 58 हरिपुर 247 सौम्यनायकीमदिर 447 , हरिभाई देवकरण (सेठ) 65 स्तूतिविद्या (ग्रन्थ) 327,443 / हरिवशपुगरण 67-68, १३४स्थानकवासी ( सम्प्रदाय ) 200 166, 236, 246, 247, स्वयम्भूस्तोत्र 155,185, 332, 257, 258, 301-303 350, 352, 357, 358 हस्तिनापुर 247 366, 368, 436, 446 हिमशीतल (राजा) 44 स्वरूपा (गजकन्या) 247 / हीराचन्द नेमिचन्द ( सेठ ) 65
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