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________________ उपासना-तत्व १८७ कि परमात्माकी उपासना उपासनाके ठीक उद्देश्यको समभकर की जाय और उसमें प्राय लौकिक प्रयोजनोपर दृष्टि न रक्खी जाय। जो लोग केवल लौकिक प्रयोजनकी दृष्टिसे-सासारिक विषयकषायोको पुष्ट करनेकी ग़रज़से-परमात्माकी उपासना करते हैं, उसके नाम पर तरह तरहकी बोल-कबूलत बोलते हैं और फलप्राप्तिकी शर्तपर पूजा-उपासनाका वचन निकालते हैं उनके सम्बन्धमे यह नहीं कहा जा सकता है कि वे परमात्माके गुणोंमे वास्तविक अनुराग रखते हैं, वल्कि यदि यह कहा जाय कि वे परमात्माके स्वरूपसे ही अनभिज्ञ हैं तो शायद कुछ ज्यादा अनुचित न होगा । ऐसे लोगोकी इस प्रवृत्तिसे कभी कभी बडी हानि होती है । वे सासारिक किसी फल-विशेषकी आशासे - उसकी प्राप्तिके लिये-परमात्माकी पूजा करते हैं,परतु फलकी प्राप्ति अपने अधीन नहीं होती, वह कर्मप्रकृतियोंके उलटफेरके अधीन है। दैवयोगसे यदि कर्म-प्रकृतियोका उलट-फेर, योग्य भावोको न पाकर, अपने अनुफूल नहीं होता और इसलिये अभीष्ट फलकी सिद्धिको अवसर नही मिलता तो ऐसे लोगोकी श्रद्धा डगमगा जाती है अथवा यो कहिये कि उस वृक्षकी तरह उखड जाती है जिसका मूल कुछ भी गहरा नहीं होता। उन्हे यह तो खबर नही पडती कि हमारी उपासना भावशून्य थी, उसमे प्रारण नहीं था और इसलिये हमे सच्ची उपासना करनी चाहिये, उलटा वे परमात्माकी पूजा-भक्तिमे हतोत्साह होकर उससे उपेक्षित हो बैठते हैं। साथ ही, अपनी अभीष्टसिद्धिके लिये दूसरे देवी-देवताप्रोकी तलाशमें भटकते हैं, अनेक रागी-द्वेषी देवताप्रोकी शरणमे प्राप्त होकर उनकी तरह तरहकी उपासना किया करते हैं और इस तरहपर अपने जैनत्वको भी कलकित करके जनशासनकी अप्रभावनाके कारण बन जाते हैं। ऐसी कच्ची प्रकृति और ढीली श्रद्धाके मनुष्योकी दशा, नि सदेह, बड़ी ही करुणाजनक होती है। ऐसे लोगोको खास तौरसे उपासनातत्त्वको जानने और समझनेकी ज़रूरत है। उन्हें ऊपरके इस संपूर्ण
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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