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________________ २५ भक्ति-योग-रहस्य जैनधर्मके अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टिसे अथवा शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा परस्पर समान है- कोई भेद नही, सबका वास्तविक गुरग-स्वभाव एक ही है । प्रत्येक जोव स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोका आधार है-पिड है । परन्तु अनादिकालसे जीवोके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी मूल प्रकृतियाँ पाठ, उत्तर प्रकृतियाँ एकसौ अडतालीस और उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ असंख्य हैं। इस कर्म-मलके कारण जीवोका असली स्वभाव आच्छादित है, उनकी वे शक्तियाँ अविकसित है और वे परतत्र हुए नाना प्रकारकी पर्यायें धारण करते हुए नजर आते है। अनेक अवस्थाप्रोको लिये हुए ससारका जितना भी प्राणिवर्ग है वह सब उसी कर्म-मलका परिणाम है-उसीके भेदसे यह सब जीव-जगत् भेदरूप है, और जीवकी इस अवस्थाको "विभाव-परिणति' कहते है । जब तक किसी जीवकी ये विभावपरिणति बनी रहती है, तब तक वह 'ससारी' कहलाता है और तभी तक उसे ससारमे कर्मानुसार नाना प्रकारके रूप धारण करके परिभ्रमण करना तथा दुख उठाना होता है। जब योग्य साधनोके बलपर यह विभाव-परिणति मिट जाती है-आत्मामे कर्म-मलका सम्बन्ध नहीं रहता-और उसका निज स्वभाव सर्वाङ्गरूपसे अथवा
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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