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________________ ५२ युगवीर - निबन्धावली है । उसके पूजनेका भी समस्त वही उद्देश्य है, जो ऊपर वर्णन किया गया है, क्योंकि मूर्तिके पूजनसे धातु- पाषाणका पूजना अभिप्रेत (इष्ट) नहीं है, बल्कि मूर्तिके द्वारा परमात्माहीकी पूजा, भक्ति और उपासना की जाती है । इसीलिये इस मूर्तिपूजनके जिनपूजन, देवार्चन, जिनाच, देवपूजा इत्यादि नाम कहे जाते हैं और इसीलिये इस पूजनको साक्षात् जिनदेवके पूजनतुल्य वर्णन किया है । यथा भक्त्या प्रतिमा पूज्या कृत्रिमा कृत्रिमा सदा । यतस्तद्गुणसकल्पात्प्रत्यक्ष पूजितो जिन || -धर्मग्रहश्रावकाचार ०६, श्लोक ४२ परमात्माकी इस परमशान्त और वीतरागमूर्ति के पूजनमे एक बडी भारी खूबी और महत्वकी बात यह है कि जो ससारी जीव ससार के मायाजाल और गृहस्थी के प्रपचमे अधिक फँसे हुए हैं, जिनके चित्त प्रति चचल है और जिनका प्रा.मा इतना बलाढ्य नही है कि जो केवल शास्त्रोमे परमा माका वर्णन सुनकर एकदम बिना किसी नकशे के परमात्मस्वरूपका नक्शा (चित्र) अपने हृदयमे खीच सके या परमात्मस्वरूपका ध्यान कर सके, वे भी उस मूर्तिके द्वारा परमात्मस्वरूपका कुछ ध्यान और चिन्तवन करनेमे समर्थ हो जाते हैं और उसीसे आगामी दुखो और पापोकी निवृत्तिपूर्वक अपने ग्रात्मस्वरूपकी प्राप्ति में अग्रसर होते हैं । जब कोई चित्रकार चित्र खीचनेका अभ्यास करता है तब वह सबसे प्रथम सुगम और सादा चित्रोपरसे, उनको देखदेखकर, अपना चित्र खीचनेका अभ्यास बढाता है, एकदम किसी कठिन, गहन और गम्भीर चित्रको वह नही खीच सकता । जब उसका अभ्यास बढ़ जाता है तब कठिन, गहन और रंगीन चित्रोको भी सुन्दरताके साथ बनाने लगता है और छोटे चित्रको बड़ा और बडेको छोटा भी करने लगता है । आगे जब अभ्यास करते करते वह चित्र-विद्यामे पूरी तौर से निपुरण और निष्णात हो जाता है, तब वह चलती-फिरती, FY
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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