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________________ बसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण १६६ का भय लगा हुआ है, इससे भी अधिक, जो एक ही धर्म और एक ही प्रचारके मानने तथा पालनेवाली अग्रवाल, खडेलवाल श्रादि समान जातियोमे भी परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार एक करनेको अनुचित समझते है, पातक अथवा पतनकी शकासे जिनका हृदय सतप्त है और जो अपनी एक जातिमे भी आठ-आठ गोत्रो तकको टालने के चक्कर मे पडे हुए है । ऐसे लोगोको वसुदेवजीका उक्त उदाहरण और उसके साथ विवाहसम्बधी वर्तमान रीति-रिवाजोका मिलान बतलायगा कि रीति-रिवाज कभी एक हालतमे नही रहा करते, वे सर्वज्ञ भगवानकी प्राज्ञाएँ और अटल सिद्धान्त नही होते, उनमे समयानुसार बराबर फेरफार और परिवर्तनकी जरूरत हुआ करती है । इसी जरूरतने वसुदेवजी के समय और वर्तमान समय मे जमीन-आसमानकासा तर डाल दिया है । यदि ऐसा न होता तो वसुदेवजी के समय विवाहसम्बधी नियम-उपनियम इस समय भी स्थिर रहते और उसी उत्तम तथा पूज्य दृष्टि से देखे जाते जैसे कि वे उस समय देखे जाते थे । परन्तु ऐसा नही है और इसलिये कहना होगा कि वे सर्वज्ञ भगवान की आज्ञाएँ अथवा अटल सिद्धान्त नही थे और न हो सकते है । दूसरे शब्दोमे यो कहना चाहिये कि यदि वर्तमान वैवाहिक रीतिरिवाजोको सर्वज्ञ-प्रणीत सावदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त माना जाय तो यह कहना पडेगा कि वसुदेवजीने प्रतिकूल - प्राचरणद्वारा बहुत स्पष्टरूपसे सर्वज्ञकी श्राज्ञाका उल्लघन किया। ऐसी हालतमे प्राचार्यों द्वारा उनका यशोगान नही होना चाहिये था, वे पातकी समझे जाकर कलकित किये जानेके योग्य थे । परन्तु ऐसा नही हुआ और न होना चाहिये था, क्योकि शारत्रोद्वारा उस समय मनुष्योकी प्राय ऐसी ही प्रवृत्ति पाई जाती है, जिससे वसुदेवजी पर कोई कलक नही सकता । तब क्या यह कहना होगा कि उस वक्त वे रीति-रिवाज सर्वज्ञप्ररणीत थे और प्राजकलके सर्वज्ञ प्ररणीत अथवा जिनभाषित नही हैं ? ऐसा कहने पर श्राजकल
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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