________________
१६८
युगवीर - निबन्धावली
सत्पुरुषो द्वारा पूज्य भी ठहराया था' । अस्तु, विवाहकी यह सनातन विधि भी आजकलकी हवा के प्रतिकूल पाई जाती है । प्राजकल इस प्रकार के विवाहोका प्राय प्रभाव ही देखनेमे श्राता है, परतु आजकल कुछ ही होता रहे, उस समय वसुदेवजीका रोहिणीके साथ इस स्वयंवर - विधि से बडे प्रानदपूर्वक विवाह होगया और रोहिणीका एक बाजत्रीके गलेमे वरमाला डालना भी कुछ अनुचित नही समझा गया । इस विवाह से वसुदेवजीको बलभद्र जैसे पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई ।
इन चारो घटनाप्रोको लिये हुए वसुदेवजीके इस एक पुराने बहुमान्य शास्त्रीय उदाहरणसे, और साथ ही वसुदेवजीके उक्त वचनोको प्रादिपुराणके उपर्युक्त लिखित वाक्योके साथ मिलाकर पढनेसे विवाह - विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पडता है और उसकी अनेक समस्याएँ खुद बखुद ( स्वयमेव ) हल हो जाती है। इस उदाहररणसे वे सब लोग बहुत कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते है जो प्रचलित रीति-रिवाजोको ब्रह्म वाक्य तथा प्राप्त वचन समझे हुए है, अथवा जो रूढियोंके इतने भक्त हैं कि उन्हे गणितशास्त्र के नियमोकी तरह अटल सिद्धान्त समझते है और इसलिए उनमे जरा भी फेरफार करना जिन्हे रुचिकर नही होता, जो ऐसा करनेको धर्मके विरुद्ध चलना श्रौर जिनेद्र भगवानकी प्रज्ञाका उल्लघन करना मान बैठे हैं, जिन्हे विवाहमे कुछ सख्याप्रमाण गोत्रोंके न बचाने तथा अपने वसे भिन्न वके साथ शादी करनेसे धर्मके डूब जाने
१. तथा स्वयवरस्येमे नाभूवन्यद्यकम्पना ।"
क प्रवर्त्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥ ५४ ॥ मार्गाश्चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान्सन्त सद्भि पूज्यास्त एव हि ॥ ५५ ॥ - श्रादिपु०पर्व ४५