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________________ स्व-पर-वेरी कौन ३५३, 'मियोऽनपेक्षाः स्त्र-पर-प्रणाशिनः' 'परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिण' . इन वाक्योके द्वारा इसी सिद्धान्तकी स्पष्ट घोषणा की है । आप निरपेक्षनयोको मिथ्या और सापेक्षनयोको सम्यक् बतलाते हैं। आपके विचारसे निरपेक्षनयोका विषय प्रक्रियाकारी न होनेसे अवस्तु है और सापेक्षनयोका विषय अर्थकृत (प्रयोजनसाधक) होनेसे वस्तुतत्त्व है। इस विषयकी विशेष चर्चा एव व्याख्या समन्तभद्र-विचारदीपकमें अन्यत्र की जायगी। यहाँ पर सिर्फ इतना ही जान लेना चाहिये कि निरपेक्षनयोका विषय 'मिथ्या एकान्त' और सापेक्षनयोका विषय 'सम्यक एकान्त' है। और यह सम्यक एकात ही प्रस्तुत अनेकान्तके साथ अबिनाभावसम्बन्धको लिये हुए है। जो मिथ्या एकान्तके उपासक होते हैं उन्हे ही 'एकान्त-ग्रहरक्त' कहा गया है, वे ही 'सर्वथा. एकान्तवादी' कहलाते हैं और उन्हे ही यहाँ 'स्व-पर-वेरी' समझना चाहिये। जो सग्या एकान्तके उपासक होते हैं उन्हे 'एकान्तयहरक्त' नहीं कहते, उनका नेता 'स्यात्' पद होता है, वे उस एकान्तको कचित् रूपसे स्वीकार करते हैं; इसलिये उसमे सर्वथा आसक्त नही होते और न प्रतिपक्ष-धर्मका विरोध अथव निराकरण ही करते हैं--सापेक्षावस्थामे विचारके समय प्रतिपक्ष-धर्मकी अपेक्षा न होनेसे उसके प्रति एक प्रकारकी उपेक्षा तो होती है किन्तु उसका विरोध अथवा निराकरण नही होता । और इसीसे वे 'स्व-पर-वैरी' नही कहे जा सकते । अत स्वामी समन्तभद्रका यह कहना बिल्कुल ठीक है कि 'जो एकान्तयहरक्त होते है वे स्व-पर-वैरी होते हैं।' अब देखना यह है कि ऐसे स्वपरवैरी एकान्तवादियोके मतमे शुभ-अशुभ-कर्म, कर्मफल, सुख-दुख, जन्म-जन्मान्तर ( लोकपरलोक ) और बन्ध-मोक्षादिको व्यवस्था कैसे नही बन सकती। १ निरपेक्षा नया मिथ्या. सापेक्षा वस्तु तेऽयंकृत् । -देवागम १०८
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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