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________________ २६६ युगवीर-निबन्धावली मतलब है, अपनी स्वार्थसिद्धि के सामने दूसरोकी जान, माल, इज्जत और आबरू (प्रतिष्ठा) कोई चीज नही-उसका कुछ भी मूल्य नही है । इस तरह और ऐसी हालतमे हमारा दुख घटनेकी जगह उलटा दिनपर दिन बढ रहा है और हमे चैन या सुख-शाति नहीं मिलती। धार्मिक पतन अब प्रश्न यह पैदा होता है कि ऐसा क्यो हो रहा है ? हमारा दुख क्यो बढ रहा है ? इसका सीधा सादा उत्तर, यद्यपि, यह दिया जा सकता है कि हममेसे धर्म उठ गया और रहा सहा भी उठता जा रहा है उसीका यह नतीजा है कि हम दुखी हैं और हमारा दुख बढ रहा है। और इस उत्तरकी यथार्थता अथवा उपयुक्ततापर कोई आपत्ति भी नहीं की जा सकती, क्योकि धर्म सुखका कारण है और कारणसे ही कार्यकी सिद्धि होती है, इसे सबही मतमतान्तरके लोग मानते हैं । बडे बडे ऋषियो मूनियो और महात्माग्रोने धर्मको ही लोक-परलोकके सभी सुखोका कारण बतलाया है और यह प्रतिपादन किया है कि वह जीवोको ससारके दु खोसे निकालकर उत्तम सुखोमे धारण करनेवाला है। और वही अकेला एक ऐसा मित्र है जो परलोकमे भी साथ जाकर इस जीवके सुखका साधन बनता है-- उसे सुखकी सामग्री प्राप्त कराता है-उसीसे आत्माका अभ्युदय और उत्थान होकर मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है। धर्मके स्वरूप पर विचार करनेसे भी ऐसा ही मालूम होता है-उसकी महिमा तथा शक्तिमे कुछ भी विवाद नहीं है। प्रत्युत इसके, अधर्म या पाप दुखका कारण है, हरएक जिल्लत-मुसीबतका सबब अथवा दुर्गतिविपत्तिका निदान है । प्रत हमारी मौजूदा दुखभरी हालत हमारे पापी पाचरणकी दलील है, बुरे कर्मोका नतीजा है और इस बातको जाहिर करती है कि हममें धर्मका आचरण प्राय नही रहा।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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