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________________ हम दुखी क्यो हैं ? २६७ वास्तवमें, हम धर्म-कर्म बहुत गिर गये हैं और हमारा बहुत कुछ पतन हो चुका है। चाहे जिस आचरणको धर्मकी कसोटीपर कसिये, प्राय पीतल या मुलम्मा मालूम होता है । हमारी पूजा, भक्ति, सामायिक, व्रत, नियम, उपवास, दान, शील, तप और सयम आदिकी जो भी क्रियाएँ धर्मकं नामसे नामाकित हैं- जिनको हम 'धर्म' कहकर पुकारते हैं उनमे भी धर्म प्राय नही रहा है । वे भाव-शून्य होनेसे बकरीके गलेमें लटकते हुए थनोके समान है' । बकरी के गले के थन जिस प्रकार देखनेके लिये थन होते है - उनका आकार थनो जैसा होता है- परन्तु वे थनोका काम नही देते, उनसे दूध नही निकलता । ठीक वही हालत हमारी उक्त धार्मिक क्रियाओकी हो रही है। वे देखने - दिखानेके लिये ही धार्मिक क्रियाएँ है, परन्तु उनमे प्रारण नही जीवन नही, धर्मका भाव नही और न हमे उनका रहस्य ही मालूम है । वे प्राय एक दूसरेकी देखादेखी, रीति-रिवाजकी पाबन्दी ग्रथवा रूढिका पालन करने, धर्मात्मा कहलाने, यश कीर्ति प्राप्त करने और या किसी दूसरे ही लौकिक प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये नुमाइशी तौरपर की जाती हैं। उनके मूलमें प्राय अज्ञानभाव, लोकदिखावा, रूढिपालन, मानकषाय श्रीर दुनियासाजीका भाव भरा रहता है, यही उनकी और यही उनकी चाबी - कु जी है। उन क्रियाको सम्यकचारित्र नही कह सकते, सम्यक् चारित्रके लिये सम्यग्ज्ञानपूर्वक होना लाजिमी है और वह लौकिक प्रयोजनोसे रहित होता है । जो क्रियाएँ सम्यक्ज्ञानपूर्वक अपना आत्मीय कर्तव्य समझ कर नही की जाती, वे सब मिथ्या, झूठी अथवा नुमाइशी क्रियाएँ हैं, मिथ्याचारित्र हैं, और अन्त मे ससारके दुखोका कारण हैं। और इसलिये, धार्मिक दृष्टिसे, हमारी इन धर्मके नामसे प्रसिद्ध होनेवाली १ भावहीनस्य पूजादि - तपो-दान-जपादिकम् । व्यर्थं दीक्षादिकं च स्यादजाकठस्तनाविव ॥
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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