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________________ सेवा-धर्म ३३३ सेवा अथवा पूजा-भक्तिका यह अभिप्राय नहीं कि हम उनका कोरा गुरणगान किया करे अथवा उनकी ऊपरी (प्रौपचारिक) सेवा-चाकरीमे ही अपनेको लगाये रक्खें-उन्हे तो अपने व्यक्तित्वके लिये हमारी सेवाकी जरूरत भी नहीं है-कृतकृत्योको उसकी ज़रूरत भी क्या हो सकती है ? इसीसे स्वामी समन्तभद्रने कहा है-'न पूज्यार्थस्त्वयि. वीतरागे'-अर्थात् हे भगवन् । पूजा-भक्तिसे आपका कोई प्रयोजन नही है, क्योकि आप वीतरागी है--रागका प्रश भी आपकी प्रात्मामे विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसीकी पूजा-सेवासे आप प्रसन्न होते । वास्तवमे ऐसे महान् पुरुषोकी सेवा-उपासनाका मुख्य उद्देश्य उपकार स्मरण और कृतज्ञता व्यक्तीकरणके साथ 'तद्गुणलब्धि'उनके गुणोकी सप्राप्ति होता है । इसी बातको श्रीपूज्यपादाचार्यने, 'सर्वार्थसिद्धि' के मगलाचरण ( 'मोक्षमार्गस्य नेतार' इत्यादि ) मे, 'वन्दे तद्गुरणलब्धये' पदके द्वारा व्यक्त किया है । तद्गुणलब्धिके लिये तद्रूप आचरणकी जरूरत है और इसलिये जो तद्गुणलब्धिकी इच्छा करता है वह पहले तद्रूप आचरणको अपनाता है-अपने आराध्यके अनुकूल वर्तन करना अथवा उसके नकशेकदम पर चलना प्रारम्भ करता है । उसके लिये लोकसेवा अनिवार्य हो जाती है-दीनो, दू खितो, पीडितो पतितो, असहायो. असमर्थों. अज्ञो और पथभ्रष्टोकी सेवा करना उसका पहला कर्तव्यकर्म बन जाता है । जो ऐसा न करके अथवा उक्त ध्येयको सामने न रखकर ईश्वर-परमात्मा या पूज्य महात्मानोको भक्तिके कोरे गीत गाता है वह या तो दभी है या ठग है-अपनेको तथा दूसरोको ठगता हैऔर या उन जड मशीनोकी तरह अविवेकी है जिन्हे अपनी क्रियानोका कुछ भी रहस्य मालूम नहीं होता। और इसलिये भक्तिके रूपमे उसकी सारी उछल-कूद तथा जयकारोका-जय-जयके नारोका-कुछ भी मूल्य नही है। वे सब दभपूर्ण अथवा भावशून्य होनेसे बकरीके गलेमे लटकते हुए स्तनो (धनो) के समान निरर्थक होते हैं उनका
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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