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युगवीर निवस्थावली किये जावें से सब रुचिपूर्वक और भावसहित होने चाहिये । कोई भी धर्मकार्य बेदिली, बान्तापूरी या अनादरके साथ नहीं करना चाहिये
और न इस बातका खयाल तक ही आता चाहिए कि किसी प्रकारसे यह दिन सीघ्र ही पूरा हो जावे, क्योंकि बिना भावोके सर्व धर्म-कार्य निरर्थक हैं। जैसा कि प्राचार्योंने कहा है -
भाषहीनस्य पूजादि तपोदान-जपादिकम् ।
व्यर्थ दीक्षादिक च स्यादजाकठे स्तनाविध ॥ 'जो मनुष्य विना भावके पूजादिक, तप, दान और जपादिक करता है अथवा दीक्षादि ग्रहण करता है उसके वे सब कार्य बकरीके गलेमें लटकते हुए स्तनोंके समान निरर्थक है।' __अर्थात्-जिस प्रकार बकरीके गलेके स्तन निरर्थक हैं, उनसे दूध नहीं निकलता, वे केवल देखने मात्रके स्तन हैं, उस ही प्रकार विना तद्गतुकूल भाव और परिणामके पूजन, तप, दान उपवासादि समस्त धार्मिक कार्य केबल दिखावामात्र है-उनसे कुछ भी धर्म-फलकी सिद्धि अथवा प्राप्ति नहीं होती।