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________________ १३६ युगवीर-निबन्धावली और इसी लिए प्रायः ऋतुकालमें ही मैथुनका विधान किया गया है ('ऋतौ भार्यामुपेयात्'), जब कि स्त्रीमें गर्भाधानकी योग्यता रहती है और जो स्त्रीको मासिक धर्म हो चुकने पर प्रायः १२ दिन तक रहती है। दूसरे समयोंमें मेथुन करनेसे गर्भ धारण नहीं हो सकता, ऐसा वैद्यकशास्त्रोका मत है। भगवज्जिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें, विवाह-विधिका वर्णन करते हुए, साफ तौरसे "संतानके लिए ऋतुकालमेंही स्त्रीपुरुषोको, यदि वे उस समय रोगादिकके कारण ग्राह्य हैं--जिनसे उनकी धार्मिक श्रद्धा (सम्यक्त्व ) मे कोई बाधा न पडती हो और न तोमे ही कोई दूषण लगता हो। यथा--- द्वौ हि धौ गृहस्थाना लौकिक पारलौकिक । लोकाश्रयो भवेदाऽऽद्य पर स्यादागमाश्रय ।। संसार-व्यवहारे तु स्वत सिद्धे वृथागम । सर्व एव हि नाना प्रमारणं लौकिको विधि यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषण ॥ -यशस्तिलक ऐसी हालतमे विवाह-विधिका,जो कि गृहस्थोका एक लौकिक धर्म है और लोकाश्रित होनेसे परिवर्तनशील है, कोई सावकालिक और सार्वदेशिक एक नियम हो ही नहीं सकता। और इसलिये जिन विवाह-विधियोके द्वारा दूसरे वर्णो या जातियो आदिके साथ सम्बध जोडा जाता है उनसे यदि जैनियोकी धार्मिक श्रद्धामे कोई वाधा न पडती हो और न उनके व्रतोमे कोई दोष लगता हो तो वे सभी विधियां जैनियोके लिये एक प्रकारसे उचित और मान्य ठहरती हैं । और इसीलिये 'ग्राह्य-स्त्री के सम्बन्धमे ऊपर जो कुछ उत्तर दिया गया है वह ठीक और समुचित ही प्रतीत होता है। जैनशास्त्रोकी तरह, हिन्दू-धर्मके ग्रन्थोमे भी, सर्व देशो मोर सर्व समयोंके लिये, ग्राह्य-स्त्री-विषयक कोई एक नियम नहीं पाया जाता।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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