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________________ युगवीर-निबन्धावली इज्यां वार्ता च दलिच स्वाध्यायं संयमं तप. । अतोपासकसूत्रस्थात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥२४॥ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषटकर्मानुप्रवर्तनम् ।। गृहिणा कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मत ॥१४४॥ श्रीचामुण्डरायने चारित्रसारमे और विद्वद्वर प० प्राशाधरजीने सागारधर्मामृतमे भी इन्ही षट्कर्मोंका वर्णन किया है । इन षट्कमोंमें दान और पूजन, ये दो कर्म सबसे मुख्य हैं । इस विषयमे पं० प्राशाधरजी सागारधर्मामृत(१-१५) मे लिखते हैं दान-यजन-प्रधानो ज्ञानसुधा श्रावकः पिपासुः स्यात् । अर्थात्-दान और पूजन, ये दो कर्म जिसके मुख्य हैं और ज्ञानाऽमृतका पान करनेके लिये जो निरन्तर उत्सुक रहता है वह श्रावक है । भावार्थ-श्रावक वह है जो कृषि-वाणिज्यादिको गौण करके दान और पूजन, इन दो कर्मोको नित्य सम्पादन करता है और शास्त्राध्ययन भी करता है। ___ स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य, ग्यणसार ग्रन्थमे, इससे भी बढकर साफ तौरपर यहांतक लिखते हैं कि बिना दान और पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं मकता या दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि ऐसा कोई श्रावक ही नही होसकता जिसको दान और पूजन न करना चाहिये। दाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मो ण साबगो तेण विणा । झारणझयण मुक्ख जइधम्मो त विणा सोवि ।। १०॥ अर्थात्-दान देना और पूजन करना, यह श्रावकका मुख्य धर्म है। इसके बिना कोई श्रावक नहीं कहला मकता और ध्यान अध्ययन करना यह मुनिका मुख्य धर्म है । जो इससे रहित है, वह मुनि ही नही है। भावार्थ-मुनियोंके ध्यानाध्ययनकी तरह, दान देना और पूजन करना ये दो कर्म श्रावकोंके सर्व साधारण मुख्य धर्म और नित्यके कर्तव्य कर्म हैं। ऊपरके वाक्योंसे भी जब यह स्पष्ट है कि पूजन करना गृहस्थ
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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