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________________ जिन-पूजाधिकार-मीमांसा ५७ का धर्म तथा नित्य और श्रावश्यक कर्म है-बिना पूजनके मनुष्यजन्म निष्फल और गृहस्थाश्रम धिक्कारका पात्र है और बिना पूजनके कोई गृहस्थ या श्रावक नाम ही नहीं पा सकता, तब प्रत्येक गृहस्थ जेनीको नियमपूर्वक अवश्य ही नित्यपूजन करना चाहिये, चाहे वह अग्रवाल हो, खंडेलवाल हो या परवार आदि अन्य किसी जातिका, चाहे स्त्री हो या पुरुष, चाहे व्रती हो या प्रव्रती, चाहे बीसा हो या दस्सा और चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, सबको पूजन करना चाहिये। सभी गृहस्थ जेनी हैं, सभी श्रावक हैं, अत सभी पूजनके अधिकारी हैं । श्री तीर्थंकर भगवानकी अर्थात् जिस अर्हन्त परमात्माकी मूर्ति बनाकर हम पूजते हैं उसके समवसरण में भी, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या व्रती क्या अव्रती क्या ऊच और क्या नीच, सभी प्रकारके मनुष्य जाकर साक्षात् भगवानका पूजन करते हैं । और मनुष्य ही नही, समवसरणमे पचेन्द्रिय तियंच तक भी जाते हैं - समवसरणकी बारह सभामे उनकी भी एक सभा होती है, वे भी अपनी शक्तिके अनुसार जिनदेवका पूजन करते हैं। पूजन- फलप्राप्तिके विषयमे एक मेढककी कथा सर्वत्र जैनशास्त्रोमे प्रसिद्ध है । पुण्यास्रवकथाकोश. महावीर पुराण, धर्मसमभावकाचार श्रादि अनेक ग्रन्थोमे यह कथा विस्तार के साथ लिखी है और बहुतसे ग्रन्थोमे इसका निम्नलिखित प्रकार से उल्लेखमात्र किया है । यथा अपरसपर्या महानुभाव महात्मनामवदत् । भेक. प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे || रत्नकरड १२० यथाशक्ति यजेतार्हद्द व नित्यमहादिभि. । संकल्पतोऽर्पितं यष्टा भेकवत्स्वर्महीयते । सागारध० २-२४ कथाका सारांश यह है कि जिस समय राजगृह नगरमें विपुलाचल पर्वतपर हमारे अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामीका समवसरर आया और उसके सुसमाचारसे हर्षोल्लसित होकर महाराजा
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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