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________________ दा." जिन पूजाधिकार-भीमामा ५५ देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्याय सयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां पदकर्माणि दिने दिने । ४६-७ गृहस्थोंके लिये पूजनकी आवश्यकताको प्रगट करते हुए श्रीपद्मनन्दि आचार्य फिर लिखते हैं ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फल जीवितं तेषां तेषा धिक् च गृहाश्रमम् ।। ६-१५ अर्थात्-जो जिनेन्द्रका दर्शन, पूजन और स्तवन नहीं करते हैं उनका जीवन निष्फल है और उनके गृहस्थाश्रमको धिक्कार है। इसी आवश्यकताको अनुभव करते हुए श्री मकल कीर्ति आचार्य सुभाषितावलीमे यहाँ तक लिखते है - __ पूजा विना न कुर्वेत भोगसौख्यादिक कदा । अर्थात्--गृहस्थोको बिना पूजनके कदापि भोग और उपभोगादिक नहीं करना चाहिये। सबसे पहले पूजन करके फिर अन्य कार्य करना चाहिये। श्रीधर्मसग्रहश्रावकाचारमे, गृहस्थाश्रमका स्वरूप वर्णन करते हुए, लिखा है इज्या वार्ता तपो दान स्वाध्याय. सयमस्तथा । ये षटकर्माणि कुर्वन्त्यन्वह ते गृहिणो मता ॥६-२६ अर्थात्-इज्या ( पूजन), वार्ता (कृषिवाणिज्यादि जीवनोपाय) तप, दान, स्वाध्याय, और सयम, इन छह कर्मोको जो प्रतिदिन करते है वे गृहस्थ कहलाते हैं । भावार्थ-धामिक और लौकिक, उभयदृष्टिसे ये गृहस्थोंके छह नित्यकर्म हैं। गुरूपास्ति जो ऊपर वर्णन की गई है वह इज्याके अन्तर्गत होनेसे यहाँ पृथक नही कही गई। भगवज्जिनसेनाचार्य आदिपुराणके पर्व ३८ मे निम्नलिखित श्लोको-द्वारा यह सूचित करते हैं कि ये इज्या, वार्ता प्रादि कर्म उपासक सूत्रके अनुसार गृहस्थोंके षट्कर्म हैं। प्रार्यषट्कर्मरूप प्रबना ही गृहस्थों की कुलपर्वा है, जिसे कुलधर्म भी कहते हैं
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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