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________________ परिग्रहका प्रायश्चित ३७६ की तथा गौरव-भरी दृष्टिसे देखने लगती है । इस दृष्टिसे प्राय का अर्थ 'लोक' तथा 'लोकमानस' है और चित्त का अर्थ वही 'शुद्धि' अथवा 'चिसग्राहककर्म' समझना चाहिये। परिग्रहको शास्त्रकारोने, यद्यपि, पाप बतलाया है और हिंसादि पच प्रधान-पापोमे उसकी गणना की है, फिर भी लोकमें वह प्रामतौरसे कोई पाप नहीं समझा जाता--हिसा, भूठ, चोरी और परस्त्री-सेवनादिरूप कुशीलको जिस प्रकार पाप समझा जाता है और अपराध माना जाता है उस प्रकार धन-धान्यादिरूप परिग्रहके सचयको-उसमे रचेपचे रहनेको कोई पाप नही समझता और न अपराध ही मानता है । इसीसे लोक्मे परिग्रहके लिए कोई दडव्यवस्था नहीं--जो जितना चाहे परिग्रह रख सकता है। भारतीय दडविधान (Indian renal code) मे भी ऐसी कोई धारा नही, जिससे किसी भी परिग्रहीको अथवा अधिक धन-दौलत एकत्र करने वाले तथा ससारकी अधिक सम्पत्ति-विभूति पर अपना अधिकार रखनेवाले गहस्थको अपराधी एव दडका पात्र समझा जा सके। प्रत्युत इसके, जो लोग मिलो, कल-कारखानो और व्यापारादिके द्वारा विपुल धन एकत्र करके बहविभूतिके स्वामी बनते है उन्हे लोकमे प्रतिष्ठित समझा जाता है.पुण्याधिकारी माना जाता है और आदरकी दृष्टिसे देखा जाता है । ऐमी हालतमे उनके पापी तथा अपराधी होनेकी कोई कल्पना तक भी नही कर सकता-उन्हे वैसा कहने-सुननेकी तो बात ही कहाँ ? तब फिर 'परिग्रहका प्रायश्चित्त' कैसा? और उसे पाप बतलाना भी कैसा ? यह ठीक है कि परिग्रहको लोकमे हिसादिक पापोकी दृष्टिसे नही १ 'प्रायो लोकस्य चित्त मानस । उक्त च प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्त मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहक कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृत ॥" (प्रायश्चित्तसमु०)
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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