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________________ ३४ परिग्रहका प्रायश्चित्त 'प्रायश्चित्त' एक प्रकारका दण्ड प्रथवा तपोविधान है जो अपनी इच्छासे किया तथा लिया जाता है, और उसका उद्देश्य एव लक्ष्य होता है आत्मशुद्धि तथा लौकिक जनोकी चित्तशुद्धि । श्रात्माकी शुद्धिका कारण पापमल है - अपराधरूप श्राचरण है । प्रायश्चित्त के द्वारा पापका परिमार्जन और अपराधका शमन होता है, इससे प्रायश्चित्तको पापछेदन, मलापनयन, विशोधन और अपराधविशुद्धि जैसे नामोसे भी उल्लेखित किया जाता है । इस दृष्टिसे 'प्राय' का अर्थ पाप अपराध, और 'चित्त' का अर्थ शुद्धि है । पाप तथा अपराध करनेवाला जनताकी नज़रमें गिर जाता है--जनता उसे घृणा की दृष्टिसे - हिकारतकी नजरसे - देखने लगती है और उसके हृदयमे उसका जैसा चाहिए वैसा गौरव नही रहता । परन्तु जब वह प्रायश्चित्त कर लेता है -- अपने अपराधका दड ले लेता -तो जनताका हृदय भी बदल जाता है और वह उसे ऊँची, प्रेम १ "रहस्य छेदन दण्डो मलापनयन तप । प्रायश्चित्ताभिधानानि व्यवहारो विशोधनम् ॥ ६ ॥ " " प्रायश्चित्त नप श्लाघ्य येन पाप विशुध्यति ।। १५३ ।। " -प्रायश्चित्तसमुच्चय 1 "प्रायाच्चिति चित्तयोरिति सुट अपराधी प्राय चित्त शुद्धि । प्रायस्य चित्त प्रायश्चित्त-प्रपराधविशुद्धिरित्यथं ।" (राजवार्तिक)
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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