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________________ महावीरका सर्वोदयतीर्थ मर्मकी कुछ ऐसी गुह्य तथा सूक्ष्म बातोको स्पष्ट करके बतलाया गया है जो ग्रन्थकार-महोदय स्वामी समन्तभद्रसे पूर्वके ग्रन्थोमे प्राय नहीं पाई जाती, जिनमें 'एव' तथा 'स्यात्' शब्दके प्रयोग अप्रयोगके रहस्यकी बाते भी शामिल हैं और जिन सबसे महावीरके तत्त्वज्ञानको समझने तथा परखनेकी निर्मल दृष्टि अथवा कसौटी प्राप्त होती है। महावीरके इस अनेकान्तात्मक शामन ( प्रवचन) को ही ग्रन्थमें 'मर्वोदयतीर्थ' बतलाया है--ससार-समुद्रसे पार उतरनेके लिये वह समीचीन घाट अथवा मार्ग सूचित किया है जिसका आश्रय लेकर सभी भव्यजीव पार उतर जाते हैं और जो सबोके उदय-उत्कर्षमे भयवा आत्माके पूर्ण विकासमें परम सहायक है। इस विषयकी पारिका निम्न प्रकार हैसर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य करूप मन्ति-शून्य च मिथाऽनपेक्षम् । मर्वापदामन्तकर निग्न्त सर्वोदय तीर्थामद तवैव ॥६॥ इसमे स्वामी समन्तभद्र भगवान महावीरकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि- (हे भगवन् ।) प्रापका यह तीथ - प्रवचनरूप शासन या परमागमवाक्य, जिसके द्वारा दुखमय ससार-समुद्रको तिरा जाता है-सर्वान्तवान् है- सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधिनिषेध ( भाव अभाव ), एक-अनेक (अद्वैत द्वत), नित्य-क्षणिक आदि प्रशेष धर्मोको लिये हुए है, एकान्तत किसी एक ही धमको अपना विषय किये हुए नहीं है - और गोरण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुए है-एक धर्म किसी समय मुख्य है तो दूसरा धर्म गौण है, जो गौण है वह निरात्मक नहीं होता और जो मुख्य हैं उसस व्यवहार चलता है, इसीसे सब धर्म सुव्यवस्थित हैं, उनमे असगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है। जो शासन-वाक्य धर्मोंमे पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता-उन्हे सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है-वह सर्वधर्मोसे शून्य है-उसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-व्यवस्था
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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