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________________ वीतरागसे प्रार्थना क्यों? ३६१ है-रोगहरण-कार्यको कर्ता कही जाती है, क्योंकि उसके निमित्तसे रोग दूर होता है। (२) 'इस रसायनके प्रसादसे मुझे नीरोगताकी प्राप्ति हुई।' यहाँ 'रसायन' जड औषधियोका समूह होनेसे एक जड पदार्थ है, उसमें न इच्छा है, न बुद्धि और न कोई प्रसन्नता; फिर भी एक रोगी प्रसन्नचित्तसे उस रसायनका सेवन करके उसके निमित्तसे आरोग्य-लाभ करता है और उस रसायनमे प्रसन्नताका आरोप करता हुआ उक्त वाक्य कहता है । यह सब लोक व्यवहार है अथवा अलकारकी भाषामें कहनेका एक प्रकार है। इसी तरह यह भी कहा जाता है कि मुझे इस रसायन या दवाईने अच्छा कर दिया' जब कि उसने बुद्धिपूर्वक या इच्छापूर्वक उसके शरीरमें कोई काम नही किया। हाँ उसके निमित्तसे शरीरमे रोगनाशक तथा प्रारोग्यवर्धक कार्य ज़रूर हुआ है और इसलिये वह उसका कार्य कहा जाता है। (३) एक मनुष्य छत्री लिये जा रहा था और दूसरा मनुष्य बिना छत्रीकेसामनेसे पा रहा था । सामनेवाले मनुष्यकी दृष्टि जब छत्री पर पड़ी तो उसे अपनी छत्रीकी याद आ गई और यह स्मरण हो पाया कि 'मैं अपनी छत्री अमुक दुकान पर भूल आया हैं'; चुनांचे वह तुरन्त वहाँ गया, अपनी छत्री ले आया और आकर कहने लगा-'तुम्हारी इस छत्रीका मै बहत प्राभारी है, इसने मुझे मेरी भूली हुई छत्रीकी याद दिलाई है।' यहाँ छत्री एक जडवस्तु है, उसमे बोलनेकी शक्ति नही, वह कुछ बोली भी नहीं और न उसने बुद्धिपूर्वक छत्री भूलनेकी वह बात ही सुझाई है, फिर भी चूकि उसके निमित्तसे भूली हुई छत्रीकी स्मृति प्रादिरूप यह सब कार्य हुआ है इसीसे अलकृत भाषामे उसका प्राभार माना गया है। (४) एक मनुष्य किसी रूपवती स्त्रीको देखते ही उस पर आसक्त हो गया, तरह-तरहकी कल्पनाएँ करके दीवाना बन गया और कहने लगा--'उस स्त्रीने मेरा मन हर लिया, मेरा चित्त दुरा
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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