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________________ ३३८ युगवीर-निबन्धावलो है और जब उसकी मापतौल ठीक नही उतरती-अपनी सेवासे दूसरोकी सेवा कम जान पड़ती है-अथवा उसकी वह वाछा ही पूरी नही होती और न दूसरा प्रादमी उसका अहसान ही मानता है, तो वह एकदम झु झला उठता है, खेदखिन्न होता है दुख मानता है, सेवा करना छोड देता है और अनेक प्रकारके राग द्वेषोका शिकार बनकर अपनी प्रात्माका हनन करता है। प्रत्युत इसके, लक्ष्यशुद्धिके होते ही यह सब कुछ भी नही होता, सेवाधर्म एकदम सुगम और सुखसाध्य बन जाता है,उसके करनेमे आनन्द ही आन द आने लगता है और उत्साह इतना बढ़ जाता है कि उसके फलस्वरूप लौकिक स्वार्थोंकी सहजमें ही बलि चढ जाती है तथा जरा भी कष्ट-बोध होने नही पाता । इस दशामे जो कुछ भी किया जाता है अपना कर्तव्य समझकर खुशीसे किया जाता है और उसके साथमे प्रतिसेवा, प्रत्युपकार अथवा अपने आदर-सत्कार या अहकारकी कोई भावना न रहनेसे भविष्यमे दुख, उद्वेग तथा कषायभावोकी उत्पत्तिका कोई कारण ही नहीं रहता, और इसलिये सहजमे ही आत्मविकास सध जाता है। ऐसे लोग यदि किसीको दान भी करते हैं तो नीचे नयन करके करते हैं। किसीने पूछा 'आप ऐसा क्यो करते हैं ?' तो वे उत्तर देते हैं - “देनेवाला और है, मैं समरथ नहिं देन । __ लोग भरम मो करत है, याते नीचे नैन ॥" अर्थात्-देनेवाला कोई और ही है और वह इसका भाग्योदय है-मैं खुद कुछ भी देनेके लिये समर्थ नही हूँ । यदि मैं दाता होता तो इसे पहले से क्यो न देता ? लोग भ्रमवश मुझे व्यर्थ ही दाता सममते हैं, इससे मुझे शरम आती है और मैं नीचे नयन किये रहता हूँ। देखिये, कितना ऊंचा भाव है । आत्मविकासको अपना लक्ष्य बनानेवाले मानवोंकी ऐसी ही परिणति होती है । अस्तु । - लक्ष्यशुद्धिके साथ इस सेवाधर्मका अनुष्ठान हर कोई अपनी
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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