SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीतरागसे प्रार्थना क्यो ? ३६५ के मेदसे दो भागोमें बंटा रहता है । शुभ कार्य करनेकी जिसमें प्रकृति (स्वभाव-शीलता) होती है उसे शुभकर्म अथवा पुण्यप्रकृति और अशुभ कार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे अशुभकर्म अथवा पापप्रकृति कहते हैं । शुभाऽशुभ भावोंकी तरतमता और कषायादि परिणामोकी तीव्रता-मदतादिके कारण इन कर्मप्रकृतियोमें बराबर परिवर्तन ( उलटफेर ) अथवा संक्रमण हुआ करता है। जिस समय जिस प्रकारकी कर्मप्रकृतियोंके उदयका प्राबल्य होता है उस समय कार्य प्राय उन्हीके अनुरूप निष्पन्न होता है । वीतरागदेवकी उपासनाके समय उनके पुण्यगुणोका प्रेमपूर्वक स्मरण एव चिंतन करने और उनमे अनुराग बढानेसे शुभभावों ( कुशलपरि. रणामो) की उत्पत्ति होती है, जिससे इस मनुष्यकी पापपरिणति छूटती और पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है। नतीजा इसका यह होता है कि हमारी पापप्रकृतियोका रस ( अनुभाग ) सूखता और पुण्यप्रकृतियोका रस बढता है। पापप्रकृतियोका रस सूखने और पुण्यप्रकृतियोमे रस बढनेसे 'अन्तरायकर्म' नामकी प्रकृति, जो कि एक मूल पापप्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य (शक्ति-बल) मे विघ्नरूप रहा करती है-उन्हे होने नही देती-वह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्टकार्यको बाधा पहुँचानेमे समर्थ नहीं रहती । तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं, बिगडे हुए काम भी सुधर जाते हैं और उन सबका श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है। इसीसे स्तुति-वन्दनादिको इष्टफलकी दाता कहा है। जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकवातिकादिमे उद्धृत किसी आचार्यमहोदयके निम्न वाक्यसे प्रकट है नेष्ट विहन्तु शुभभाव-भान-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तराय. । तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुस्यादिरिष्टार्थकदाऽहंदादेः।। जब भले प्रकार सम्पन्न हुए स्तुति-वन्दनादि कार्य इष्ट फलको
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy