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________________ जैनी कौन हो सकता है? ३०७ खुदगर्जी (स्वार्थपरता ) का उनके चारों तरफ राज्य है । यही कारण है कि वे दूसरोंका उपकार करना नहीं चाहते और न किसीको जैनधर्मका श्रद्धानी बनानेकी कोई खास चेष्टा ही करते हैं । उनकी तरफसे कोई डूबो या तिरो, उनको इससे कुछ प्रयोजन नही । अपने भाइयोकी इस अवस्थाको देखकर बडा ही दुख होता है। प्यारे जैनियो | आप उन वीरपुरुषोकी सन्तान हो, जिन्होने लौकिक स्वार्थ-बुद्धिको कभी अपने पास तक फटकने नही दिया, पौरुषहीनता और भीरुताका कभी स्वप्नमे भी जिनको दर्शन नहीं हुआ, जिनके विचार बडे ही विशुद्ध, गभीर तथा हृदय विस्तीर्ण थे और जो ससार भरके सच्चे शुभचिंतक तथा सब जीवोका हित साधन करनेमें ही अपनेको कृतार्थ समझनेवाले थे । आप उन्हीकी वशपरम्परामें उत्पन्न हैं जिनका सारा मनोबल, वचनबल बुद्धिबल और कायबल निरतर परोपकारमे ही लगा रहता था, धामिक जोश से जिनका मुखमडल ( चेहरा ) सदा दमकता था, जो अपनी प्रात्माके समान दूसरे जीवोकी रक्षा करते थे और इस ससारको असार समझ कर निरतर अपना तथा दूसरे जीवोका कल्याण करनेमें ही लगे रहते थे; ऐसे ही पूज्य पुरुषोका आप अपने आपको अनुयायी तथा उपासक भी बतलाते हैं जो ज्ञान-विज्ञानके पूर्ण स्वामी थे, जिनकी सभामे पशु-पक्षी तक भी उपदेश सुननेके लिये पाते थे, जिन्होने जैनधर्म धारण कराकर करोडो जीवोका उद्धार किया था और भिन्न धर्मावलम्बियों पर जैनियोके अहिंसाधर्मकी छाप जमाई थी। इसलिये आप ही जरा विचार कीजिये कि क्या अपनी ऐसी हालत बनाना और दूसरीका उपकार करनेसे इस प्रकार हाथ खींच लेना अथवा जी चुराना आपके लिये उचित और योग्य है ? कदापि नहीं ? प्यारे धर्म बन्धुनो। हमें अपनी इस हालत पर बहत ही
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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