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________________ युगवीर-निबन्धावली जिस प्रकार कोई दुरात्मा पुत्र अपने स्वार्थमें प्रधा होकर यह चाहता है कि मैं अकेला ही पैतृक सम्पत्तिका मालिक बन वेठू और अपनी इस कामनाको पूरा करनेके लिए वह अपने पिताके समस्त धन पर अधिकार कर लेता है यदि पिताने कोई वसीयत भी की हो तो उसको छिपानेकी चेष्टा करता है- और अपने उन भाइयोको जो दूरदेशान्तरमे रहनेवाले हैं, जो नाबालिग ( अव्युत्पन्न ) हैं, जो भोले या मूर्ख हैं, जिनको अन्य प्रकारसे पिताके धनकी कुछ खबर नहीं है अथवा जो निर्बल हैं उन सबको अनेक उपायो-द्वारा पैतृकसम्पत्तिसे वचित कर देता है। उसे इस बातका जरा भी दुख-दर्द नहीं होता कि मेरे भाइयोकी क्या हालत होगी ? उनके दिन कैसे कटेगे? और न कभी इस बातका खयाल ही आता है कि मैं अपने भाइयो पर कितना अन्याय और अत्याचार कर रहा हूँ, मेरा व्यवहार कितना अनुचित है, मैं अपने पिताकी आत्माके सन्मुख क्या मुह दिखाऊँगा । उसके विवेकनेत्र बिल्कुल स्वार्थसे बन्द हो जाते हैं और उसका हृदययत्र सकुचित होकर अपना कार्य करना छोड देता है । ठीक उसी प्रकारकी घटना जैनियोकी हुई है। ये अकेले ही परमपिता श्री महावीरजिनेन्द्रकी सम्पत्तिके अधिकारी बन बैठे | "समस्त जीव परस्पर समान है, जैनधर्म आत्माका निजधर्म है, प्राणीमात्र इस धर्मका अधिकारी है, सबको जैनधर्म बतलाना चाहिये और सबको प्रेमकी दृष्टि से देखते हुए उनके उत्थानका यत्न करना चाहिए।" वीरजिनेन्द्रकी इस वसीयतको-उनके इस पवित्र आदेशको- इन स्वार्थी पुत्रोने छिपानेकी पूर्णरूपसे चेष्टा की है। इन्होंने अनेक उपाय करके अपने दूसरे भाइयोको धर्मसे कोरा रक्खा, उनकी हालत पर जरा भी रहम नही खाया और न कभी अपने इस अन्याय, अत्याचार और अनुचित व्यवहार पर विचार या पश्चात्ताप ही किया है। बल्कि जैनियोका यह अत्याचार बहुत कुछ अंशोमें उस स्वार्थान्ध-पुत्रके अत्याचारसे भी बढ़ा रहा । क्योकि
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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