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________________ जैनियोंका अत्याचार किसी अधिकारीको धनादिकसे वचित रखना, यद्यपि, अत्याचार जरूर है, परन्तु जान-बूझकर किसीको पात्मनाभसे वंचित रखना, यह उससे कही बढकर अत्याचार है । मेरा तो, इस विषयमें,यहां तक खयाल है कि यह अत्याचार किसीको जानसे मार डालनेकी अपेक्षा भी अधिक है । धनादिक पर-पदार्थोंका वियोग इतना दुखजनक नही हो सकता जितना कि प्रात्मलाभसे वंचित रहना । जो लोग अपनी आत्माको जानते हैं,अपने स्वरूपको पहचानतेहैं, धर्म क्या और अधर्म क्या इसका जिन्हे बोध है, उनको धनादिकका वियोग भी इतना कष्टकर नहीं होता जितना कि न जानने और न पहचाननेवालो को होता है । इसलिये दूसरोको धर्मसे वंचित रखना उनके लिये घोर दु खोकी सामग्री तैयार करना है। क्या इस अत्याचारका भी कही ठिकाना है? शोक ऐसा महान अत्याचार करनेवाले जैनियोका पाषाणहृदय, दूसरोके दुखोका स्मरण ही नही किन्तु प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए भी ज़रा नही पसीजा-अात्मलाभसे वचित पापी और मिथ्यादृष्टि मनुष्य जैनियोके सन्मुख ही अनेक प्रकारके अनर्थ और पापाचरण करके अपनी आत्मायोका पतन करते रहे, परन्तु जेनियोको उन पर कुछ भी दया नहीं आई और न दूसरे जीवोकी रक्षाका ही कुछ खयाल उत्पन्न हुआ। ससारमें ऐसा व्यवहार है कि यदि कोई अधा मनुष्य कही चला जा रहा हो और उसके आगे कुओं आजाय तो देखनेवाले उस अधेको तुरन्त ही सावधान कर देगे और अपनी समस्त शक्तिको, उसे कुएँमे गिरनेसे बचाने अथवा गिर जाने पर उसके शीघ्र निकालनेमे, लगा देंगे। यदि कोई मनुष्य अधेके आगे कुप्रॉ देखकर भी चुपचाप बैठा रहे और उसकी रक्षाका कुछ भी उपाय न करे तो वह बहुत पापी और निन्द्य समझा जाता है। किसी कविने कहा भी है जब तू देखै आँखसे, अंधे आगे कूप । तब तेरा चुप बैठना, हे निश्चय अघरूप ॥
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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