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________________ जिन पूजाधिकार मीमासा ૪૨ 'यह जीवात्मा स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियों का आधार है । परन्तु अनादि-कर्ममलसे मलिन होनेके कारण इसकी वे समस्त शक्तियाँ श्राच्छादित हैं- कर्मो के पटलसे वेष्टित हैं- और यह श्रात्मा ससारमें इतना लिप्त और मोह जालमें इतना फँसा हुआ है कि उन शक्तियोंका विकाश होना तो दूर रहा, उनका स्मरण तक भी इसको नही होता । कर्मके किचित् क्षयोपशमसे जो कुछ थोडा बहुत ज्ञानादि-लाभ होता है, यह जीव उतने में ही सन्तुष्ट होकर उसीको अपना स्वरूप समझने लगता है । इन्ही ससारी जीवोंमेसे जो जीव अपनी आत्मनिधिकी सुधि पाकर धातुभेदीके सदृश प्रशस्त ध्यानाऽग्निके बलसे, इस समस्त कर्ममलको दूर कर देता है, उसमे आत्माकी वे सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ सर्वतोभावसे विकसित हो जाती हैं और तब वह आत्मा स्वच्छ और निर्मल होकर परमात्मदशाको प्राप्त हो जाता है तथा 'परमात्मा' कहलाता है । केवलज्ञान (सर्वज्ञता ) की प्राप्ति होनेके पश्चात् जबतक देहका सम्बन्ध बाकी रहता है, तब तक उस परमात्माको सकलपरमात्मा ( जीवन्मुक्त ) या रहत कहते हैं. और जब देहका सम्बन्ध भी छूट जाता है और मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है तब वही सकलपरमात्मा निष्कलपरमात्मा (विदेहमुक्त ) या सिद्ध नामसे विभूषित होता है । इस प्रकार अवस्थाभेदसे परमात्मा के दो भेद कहे जाते हैं । वह परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्थामे अपनी दिव्यवारणीके द्वारा ससारी जीवोको उनकी आत्माका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय बतलाता है अर्थात् उनकी आत्मनिधि क्या है, कहीं है. किस किस प्रकारके कर्मपटलोंसे श्राच्छादित है, किस किस उपायसे वे कर्मपटल इस श्रात्मासे जुदा हो सकते हैं, संसारके अन्य समस्त पदार्थोंसे इस आत्माका क्या सम्बन्ध है, दुखका, सुखका मीर संसारका स्वरूप क्या है, कैसे दुखकी निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति हो सकती है, इत्यादि समस्त बातोका विस्तारके
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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