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________________ २७७ हम दुखी क्यो हैं? प्रगट धुओं नहिं देखिये उर अन्तर धुधवाय ।। उर अन्तर धुधवाय जले ज्यों काँचकी भट्टी। रक्त-मांस जर जाय रहे पिंजर को टट्टी।। कहें गिरधर कविराय सुनो रे मेरे मिता। वे नर कैसे जियें जाहि तन व्यापी चिंता ॥ नि सन्देह, चिता ऐसी ही बुरी चीज है, वह मनुष्यको खा जाती है और उसकी जननी जरूरियातकी अफजूनी-आवश्यकताप्रोकी वृद्धि-है। जितनी जितनी जरूरियात बढती जातो हैं उतनी उतनी चिंताएँ पैदा होती जाती है। इसीसे भगवान महावीर और दूसरे धर्माचार्योंने गृहस्थोके लिये जरूरियातको घटानेकी-परिग्रहको कम करके सतोष धारण करनेकी बात कही है, परिग्रहको पाप लिखा है और अधिक प्रारभी तथा अधिक परिग्रह को नरकका अधिकारी अथवा महमान बतलाया है। प्रत सुख प्राप्तिके लिये ज़रूरियातको कम करना कितना जरूरी और लाजिमी है, इसे बुद्धिमान पुरुष स्वय समझ सकते हैं। वास्तवमे सुख कोई ऐसी वस्तु नही है जो कहीपर बिकती हो, किसी दुकान, हाट या बाजारसे किसी भी कीमतपर खरीदी जा सके, किसीकी खुशामद, सिफारिश या प्रेरणासे मिल सके या बदला करके लाई जा सके, बल्कि वह आत्माका निज गुरण है-प्रात्मासे बाहर उसकी कही भी सत्ता नहीं है। ससारी जीव प्रात्माको भूल रहे हैं और इसलिये अपनी आत्मामे सुखकी जो अनुपम तथा अपार निधि गडी हुई है, उसे नही पहचानते और न उसकी प्राप्तिके लिये कोई यथेष्ट उपाय ही करते हैं । वे अपनी आत्मासे भिन्न दूसरे पदार्थोंमे सुखकी कल्पना किये हुए हैं, उनको ही अपने सुखका एक आधार मान बैठे है-उन्हे ही सब कुछ समझ रहे हैं - और इसलिये उन्हीके पीछे भटकते और उन्हीकी प्राप्तिके लिये रात दिन हैरान-परेशान और दत्तावधान हुए मारे मारे फिरते हैं। परन्तु उनको यह खबर नही कि
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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