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________________ ३१४ arair-freeraat जीवनमें उतार सकते हैं और उन्हींके - अथवा परमात्मस्वरूपकेआदर्शको सामने रखकर अपने चरित्रका गठन करते हुए अपने प्रात्मीय गुणोका विकास सिद्ध करके तद्र प हो सकते हैं। इस सब अनुष्ठानमें उनकी कुछ भी गरज नही होती और न इसपर उनकी कोई प्रसन्नता ही निर्भर है - यह सब साधना अपने ही उत्थानके लिये की जाती है । इसीसे सिद्धिके साधनो में 'भक्ति-योग' को एक मुख्य स्थान प्राप्त है, जिसे भक्ति मार्ग' भी कहते हैं । सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्मा की भक्ति द्वारा आत्मोत्कर्ष साधने का नाम ही 'भक्ति-योग' अथवा 'भक्ति-मार्ग' है और भक्ति' उनके गुणो अनुरागको, तदनुकूल वर्त्तनेको अथवा उनके प्रति गुरणानुरागपूर्वक आदर-सत्काररूप प्रवृत्तिको कहते हैं, जो कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पत्ति एव रक्षाका साधन है। स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, सेवा, श्रद्धा और प्राराधना ये सब भक्तिके ही रूप अथवा नामान्तर हैं। स्तुति - पूजा - वन्दनादि रूपसे इस भक्तिक्रियाको सम्यक्त्वafaat क्रिया बतलाया है, शुभोपयोगि चारित्र लिखा है और साथ ही 'कृतिकर्म' भी लिखा है, जिसका अभिप्राय है 'पापकर्म छेदनका अनुष्ठान' । सद्भक्तके द्वारा श्रौद्धत्य तथा ग्रहकार के त्यागपूर्वक गुणानुराग बढनेसे प्रशस्त अध्यवसायकी - कुशल परिणामकीउपलब्धि होती है और प्रशस्त अध्यवसाय अथवा परिणामोकी विशुद्धिसे संचित कर्म उसी तरह नाशको प्राप्त होता है, जिस तरह काष्ठके एक सिरेमें अग्निके लगनेसे वह सारा ही काष्ठ भस्म हो जाता है। इधर सचित कर्मोके नाशसे श्रथवा उनकी शक्तिके शमनसे गुरणावरोधक कर्मोकी निर्जरा होती या उनका बल-क्षय होता है तो उधर उन प्रभिलषित गुरगोका उदय होता है, जिनसे आत्माका विकास सता है । इसीसे स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् प्राचार्योंने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिको कुशल-परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है और अपने
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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