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________________ मुगबीर-निबन्धावली अदिनितस्त्वप्रपद कांक्षी हि अक्षिकः ॥४॥ पाषिकाचारमम्पत्त्या निर्मलीकृतदर्शन. । विरको भवभोगाभ्यामहदादिपदार्चक ॥ २४ ॥ मलान्मूलगुणानां निर्मलयनप्रिमोत्सुक । न्याय्यां वा वपु स्थित्यै दधदर्शनिको मत ॥ १५ ॥ ऊपरके श्लोकोंमें, अर्चादिनिरत (पूजनादिमें तत्पर) इस पदसे, पाक्षिश्रावक के लिये पूजन करना जरूरी रक्खा है । और 'अहंदादिपदाऽचक ' (अर्हन्तादिकके चरणोका पूजनेवाला) इस पदसे दर्शानक श्रावकके लिये पूजन करना आवश्यक कर्म बतलाया है । मागारधर्मामृतके दूसरे अध्यायमें जिसका अर्मा तम काव्य, मैष प्राथमल्पिक' ' इत्यादि है, पाक्षिकश्रावकका सदाचार वर्णन किया है । उसमे भी, “यजेत देव सेवेत गुरुन् " इत्यादि श्लोको द्वारा, पानि कथाव के लिये नि यपूजन करनेका विधान किया है । भगवजिनरेनाचार्य भी पादपुराणमे निम्नलिखित श्लोक-द्वारा सूचित करते हैं कि, पूजन करना प्राथमकल्पिकी (पाक्षिकी) वृत्ति अर्थात् पाक्षिकश्रावकका कर्म वा श्रावकमात्रका प्रथम कर्म है । यथा - पवविधविधानेन महेज्या निनेशिनाम। विधिज्ञाम्तामशन्तीज्यां वृत्ति प्राथमकल्पिकीम ॥ १८-३४ यह तो हई पाक्षिकश्रावककी बात, अब प्रविग्नम्म्यम्ह ष्टको लीजिये, अर्थात् ऐसे सम्यग्दृष्टिको लीजिये जिसके क्सिी प्रकारका कोई व्रत होना तो दूर रहा व्रत या संयमका आचरण भी अभीतक जिसने प्रारंभ नही किया। जैनशास्त्रों में ऐसे अव्रतीको भी पूजनका अधिकारी वर्णन किया है। प्रथमानुयोगके ग्रन्थोसे प्र ट है कि स्वर्गादिकके प्रायः समीदेव. देवागनासहित,समवसरणादिमें जाकर साक्षात् श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन करते हैं, नन्दीश्वर दूपादिकमे जाकर जिनबिम्बोंका अर्चन करते हैं और अपने विमानोंके चौयालयोंमें नित्यपूजन
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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