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________________ जिन पूजाधिकार-मीमासा मेवार्य: ये पद साफ़ बतला रहे हैं कि यदि यह वर्णन नित्यपूजकका होता तो यह कहने या प्रेरणा करनेकी जरूरत नहीं थी कि पूजनविधान करानेवाले को तलाश करके उक्त लक्षणोंवाला ही पूजक (पूजनविधान करनेवाला) ग्रहण करना चाहिये, दूसरा नही । इसी प्रकार पूजन-फलवर्णनमे 'क्र्तृकारकयो' इत्यादि पदो-द्वारा पूजन करनेवाले और करानेवाले दोनोका भिन्न भिन्न निर्देश करनेकी भी कोई ज़रूरत नहीं थी, परन्तु कि ऐसा किया गया है, इससे स्वय ग्रन्थकारके वाक्यों से भी प्रगट है कि यह नित्यपूजकका स्वरूप या लक्षण नहीं है । तब यह स्वरूप क्सिका है ? इस प्रश्नके उत्तरमें यही कहना पडता है कि पूजकके जो मुख्य दो भेद वर्णन किये गये है-एक नित्यपूजन करनेवाला और दूसरा प्रतिष्ठादि विधान करने वाला-उनमेसे यह स्वरूप प्रतिष्ठादि विधान करनेवाले पूजकका ही हो सकता है, जिसको प्रतिष्ठाचार्य, पूजकाचार्य और इन्द्र भी कहते है । प्रतिष्ठादि विधानमे ही प्राय ऐसा होता है कि विधान का करने वाला तो और होता है और उसका करानेवाला दूसरा । तथा ऐसे ही विधानोका शुभाशुभ असर कथचित् राजा, देश, नगर और करानेवाले आदि पर पड़ता है । प्रतिष्ठा-विधानमे प्रतिमानोमे मत्रद्वारा अहंतादिककी प्रतिष्ठाकी जाती है । अत जिस मनुष्य के मत्रसामर्थ्यसे प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित होकर पूजने योग्य होती हैं वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो सकता। वह कोई ऐसा ही प्रभावशाली, माननीय, सर्वगुणसम्पन्न असाधारण व्यक्ति होना चाहिये ।। __ इन सबके अतिरिक्त, पूजकाचार्य या प्रतिष्ठाचार्यका जो स्वरूप धर्मसमहश्रावकाचार, पूजासार और प्रतिष्ठासारोद्धार आदिक जैनशास्त्रोमे स्पष्टरूपसे वर्णन किया गया है उससे इस स्वरूपकी प्रायःसब बात मिलती है, जिससे भले प्रकार निश्चित होता है कि यह स्वरूप प्रतिष्ठादि-विधान करनेवाले पूजक अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य या पूजकाचार्यसे ही सम्बन्ध रखता है। यद्यपि, इस निबन्धमे पूजकाचार्यया
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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