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________________ युगवीर-निबन्धावली वत) और देशचारित्रका कथन करते समय सकलचारित्र गौण होता है, परन्तु उसका सर्वथा निषेध नही किया जाता अर्थात् यह नहीं कहा जाता कि जिसमें महाव्रतीके लक्षण नहीं वह व्रती ही नहीं हो सकता । व्रती वह जरूर हो सकता है, परन्तु + हाव्रती नही कहला सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि यदि ग्रन्थकारमहोदयके लक्ष्यमें यह स्वरूप ऊंचे दर्जे के नित्यपूजकका ही होता, तो वे कदापि साधारण ( नीचे दर्जेके ) नित्यपूजकका सर्वथा निषेध न करते-अर्थात्, यह न कहते कि इन लक्षणोंसे रहित दूसरा कोई पूजक होनेके योग्य ही नही या पूजन करनेका अधिकारी नहीं । क्योकि दूसरा नीचे दर्जेवाला भी पूजक होता है और वह नित्यपूजन कर सकता है । यह दूसरी बात है कि वह कोई विशेष नैमित्तिक पूजन न कर सकता हो । परन्तु ग्रन्थकारमहोदय 'उक्तलक्षणमेवार्य कदाचिदपि नाऽपरम" इस सप्तम श्लोकके उत्तरार्धद्वारा स्पष्टरूपसे उक्त लक्षणरहित दूसरे मनुष्यके पूजकपनेका निषेध करते हैं, बल्कि छटे श्लोकमे यहाँतक लिखते है कि यदि निषिद्ध (उक्तलक्षणरहित) पुरुष पूजन कर ले तो राजा, देश, पूजन करनेवाला और करानेवाला सब नाशको प्राप्त हो जावेगे । इससे प्रगट है कि उन्होने यह स्वरूप ऊँचे दर्जे के नित्यपूजकको भी लक्ष्य करके नहीं लिखा है । भावार्थ-इस स्वरूपका किसी भी प्रकारके नित्य पूजकके साथ नियमित अथवा अविनाभाव सम्बन्ध न होनेसे, यह किसी भी प्रकारके नित्यपूजकका स्वरूप या लक्षण नही है। बल्कि उस नैमित्तिक पूजनविधानके कर्तासे सम्बन्ध रखता है जिस पूजनविधानमे पूजन करनेवाला और होता है और उसका करानेवाला अर्थात् उस पूजनविधानके लिये द्रव्यादि खर्च करनेवाला दूसरा होता है। क्योंकि स्वय उपर्युक्त श्लोकोमे आये हुए "कर्तृ कारकयोः 'गृह्णीयान' और 'नथैव कतौ च जनश्च कारकः' इन पदोसेभी यह बात पाई जाती है । 'यत्नेन गृह्णीयात पूजकं' 'उक्तलक्षण
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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