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________________ २८ सेवा-धर्म अहिसाधर्म, दयाधर्म, दशलक्षणधर्म, रत्नत्रयधर्म, सदाचारधर्म, अथवा हिन्दूधर्म, मुसलमानधर्म, ईसाईधर्म, जैनधर्म, बौद्धधर्म इत्यादि धर्मनामोसे हम बहुत कुछ परिचित है, परन्तु 'सेवाधर्म' हमारे लिये अभी तक बहुत ही अपरिचितसा बना हुआ है । हम प्राय समझते ही नही कि सेवाधर्म भी कोई धर्म है अथवा प्रधान धर्म है। कितनोने ही तो सेवाधर्मको सर्वथा शूद्रकर्म मान रक्खा है,वे सेवकको गुलाम समझते हैं और गुलामीमे धर्म कहाँ ? इसीसे उनकी उस प्रकारके संस्कारोमे पली हुई बुद्धि सेवाधर्मको कोई धर्म अथवा महत्वका धर्म माननेके लिये तैय्यार नहीं-वे समझ ही नहीं पाते कि एक भाडेके सेवक, अनिच्छापूर्वक मजबूरीसे काम करनेवाले परतन्त्रसेवक और स्वेच्छासे अपना कर्तव्य समझकर सेवाधर्मका अनुष्ठान करनेवाले अथवा लोकसेवामे दत्तचित्त रहनेवाले स्वयसेवकमे कितना बडा अन्तर है । ऐसे लोग सेवाधर्मको शायद किसी नये धमकी ही सृष्टि समझते हो, परन्तु ऐसा समझना ठीक नहीं है। वास्तवमे सेवाधर्म सब धर्मोमे प्रोत-प्रोत है और सबमे प्रधान है । विना इस धर्मके सब धर्म निष्प्राण हैं, नि सत्व है और उनका कुछ भी मूल्य नहीं है। क्योंकि मन-वचन-कायसे स्वेच्छा एवं विवेकपूर्वक ऐसी क्रियाप्रोका छोडना जो किसीके लिये हानिकारक हो और ऐसी क्रियानोका
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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